BASO(N)201 IMPORTANT SOLVED QUESTIONS 2025

 BASO(N)201 IMPORTANT SOLVED QUESTIONS 2025




प्रश्न 01 सामाजिक समस्या किसे कहते हैं?इसकी विशेषताएं बताइए।

सामाजिक समस्या किसे कहते हैं? इसकी विशेषताएं बताइए।
परिचय
सामाजिक समस्या (Social Problem) एक ऐसी स्थिति होती है जो समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करती है और जिसके कारण सामाजिक असंतोष, तनाव, असमानता, और अन्य नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न होते हैं। ये समस्याएं समाज के सामान्य कार्यों में बाधा डालती हैं और सामाजिक विकास को प्रभावित करती हैं। सामाजिक समस्याएं कई प्रकार की हो सकती हैं, जैसे गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, जातिवाद, लिंग भेदभाव, भ्रष्टाचार आदि।

सामाजिक समस्या की परिभाषा
हर्ट (Hurt) के अनुसार – "सामाजिक समस्या वे स्थितियां होती हैं जो किसी समाज में बड़ी संख्या में लोगों के लिए चिंता का कारण बनती हैं।"
ऑगबर्न और निमकॉफ़ (Ogburn & Nimkoff) के अनुसार – "जब कोई स्थिति समाज के अधिकांश सदस्यों के लिए अस्वीकार्य हो जाती है, तो उसे सामाजिक समस्या कहा जाता है।"
गिलिन और गिलिन (Gillin & Gillin) के अनुसार – "कोई भी स्थिति जो समाज के संगठित ढांचे को कमजोर करती है और व्यक्ति की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा डालती है, वह सामाजिक समस्या कहलाती है।"
सामाजिक समस्या की विशेषताएँ
1. सामाजिक जीवन को प्रभावित करती है
सामाजिक समस्या का असर व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ पूरे समाज पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, बेरोजगारी केवल एक व्यक्ति की समस्या नहीं होती बल्कि यह पूरे समाज में अपराध दर को बढ़ा सकती है।

2. बड़े समूह को प्रभावित करती है
सामाजिक समस्याएं व्यक्तिगत नहीं होतीं, बल्कि यह समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करती हैं। जैसे कि भ्रष्टाचार केवल कुछ लोगों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि संपूर्ण समाज की कार्यप्रणाली को प्रभावित करता है।

3. नैतिक और सामाजिक मूल्यों के विपरीत होती है
सामाजिक समस्याएं आमतौर पर समाज में स्वीकृत नैतिकता और मूल्यों के विपरीत होती हैं। उदाहरण के लिए, बाल श्रम समाज में नैतिक रूप से गलत माना जाता है, फिर भी यह एक गंभीर सामाजिक समस्या बनी हुई है।

4. विभिन्न कारकों से उत्पन्न होती हैं
सामाजिक समस्याएं कई कारणों से उत्पन्न हो सकती हैं, जैसे आर्थिक असमानता, शिक्षा की कमी, राजनीतिक अस्थिरता, सांस्कृतिक भेदभाव आदि।

5. सरकार और समाज की चिंता का विषय होती हैं
सामाजिक समस्याएं केवल व्यक्तियों तक सीमित नहीं होतीं, बल्कि सरकार और सामाजिक संगठनों के लिए भी यह चिंता का विषय होती हैं। सरकारें और गैर-सरकारी संगठन (NGOs) इन समस्याओं को हल करने के लिए विभिन्न योजनाएं और कार्यक्रम लागू करते हैं।

6. समाधान की आवश्यकता होती है
सामाजिक समस्याएं समय के साथ और जटिल होती जाती हैं, इसलिए इनके समाधान के लिए ठोस प्रयासों की जरूरत होती है। सरकार, समाज और व्यक्तिगत स्तर पर इसके समाधान के लिए काम करना जरूरी होता है।

7. समाज में अस्थिरता और अशांति लाती हैं
जब सामाजिक समस्याएं अनियंत्रित हो जाती हैं, तो वे समाज में अस्थिरता, संघर्ष और अशांति को जन्म देती हैं। उदाहरण के लिए, जातीय भेदभाव और सांप्रदायिक दंगे सामाजिक सौहार्द को प्रभावित कर सकते हैं।

निष्कर्ष
सामाजिक समस्याएं किसी भी समाज की प्रगति और शांति के लिए एक बड़ी चुनौती होती हैं। इनके समाधान के लिए शिक्षा, जागरूकता, कानूनी सुधार, और सामाजिक सहयोग की आवश्यकता होती है। एक संगठित और विकसित समाज के निर्माण के लिए इन समस्याओं को पहचानना और उनका समाधान निकालना बहुत जरूरी है।



प्रश्न 02 सामाजिक समस्या के प्रमुख प्रकार बताते हुए, इसके कारणों की विवेचना कीजिए।

सामाजिक समस्या के प्रमुख प्रकार एवं इसके कारणों की विवेचना
परिचय
सामाजिक समस्या एक ऐसी स्थिति होती है जो समाज के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करती है और जिसके कारण सामाजिक असमानता, असंतोष, तथा अव्यवस्था उत्पन्न होती है। ये समस्याएँ समाज के समुचित विकास में बाधा डालती हैं और लोगों के जीवन स्तर को प्रभावित करती हैं। सामाजिक समस्याओं के कई प्रकार होते हैं और उनके पीछे कई कारण होते हैं, जिनका विश्लेषण करना आवश्यक है।

सामाजिक समस्या के प्रमुख प्रकार
सामाजिक समस्याओं को कई आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। प्रमुख रूप से ये निम्नलिखित प्रकार की होती हैं:

1. आर्थिक सामाजिक समस्याएँ
ये समस्याएँ समाज में आर्थिक असमानता और संसाधनों के अनुचित वितरण से उत्पन्न होती हैं।

गरीबी (Poverty) – समाज में धन और संसाधनों के असमान वितरण के कारण कई लोग बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित रहते हैं।
बेरोजगारी (Unemployment) – जब लोगों को उनकी योग्यता के अनुसार काम नहीं मिलता, तो यह समस्या उत्पन्न होती है।
आर्थिक असमानता (Economic Inequality) – समाज के कुछ वर्गों के पास अत्यधिक धन होता है, जबकि अन्य वर्ग निर्धनता में जीते हैं।
2. सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याएँ
समाज में परंपरागत सोच और सांस्कृतिक भेदभाव के कारण कई समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

जातिवाद (Casteism) – जातिगत भेदभाव समाज को विभाजित करता है और असमानता को बढ़ावा देता है।
लिंग भेदभाव (Gender Discrimination) – पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता समाज में महिलाओं की प्रगति में बाधा बनती है।
बाल श्रम (Child Labor) – छोटे बच्चों से जबरदस्ती काम करवाना एक गंभीर सामाजिक समस्या है।
3. राजनीतिक सामाजिक समस्याएँ
राजनीतिक अस्थिरता और प्रशासन की कमजोरियों से उत्पन्न समस्याएँ समाज के विकास को प्रभावित करती हैं।

भ्रष्टाचार (Corruption) – जब सरकारी तंत्र में अनैतिक कार्य होते हैं, तो समाज में असंतोष बढ़ता है।
राजनीतिक अस्थिरता (Political Instability) – सरकारों के बार-बार बदलने और नीतियों के अस्थिर होने से समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
अपराध और हिंसा (Crime and Violence) – समाज में बढ़ते अपराध और हिंसा सामाजिक शांति को भंग करते हैं।
4. पर्यावरणीय सामाजिक समस्याएँ
प्रदूषण (Pollution) – वायु, जल, और ध्वनि प्रदूषण लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं।
वनों की कटाई (Deforestation) – जंगलों के कटने से जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण असंतुलन बढ़ता है।
जल संकट (Water Scarcity) – कई क्षेत्रों में पानी की कमी एक गंभीर सामाजिक समस्या बन चुकी है।
5. स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी समस्याएँ
अशिक्षा (Illiteracy) – शिक्षा के अभाव में लोग अपनी और समाज की उन्नति में योगदान नहीं दे पाते।
स्वास्थ्य सेवाओं की कमी (Lack of Healthcare Facilities) – गरीब और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी लोगों के जीवन को प्रभावित करती है।
सामाजिक समस्याओं के प्रमुख कारण
सामाजिक समस्याएँ एक दिन में उत्पन्न नहीं होतीं, बल्कि इनके पीछे कई दीर्घकालिक कारण होते हैं। प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

1. आर्थिक कारण
आय की असमानता और धन का असमान वितरण।
रोजगार के पर्याप्त अवसरों की कमी।
महँगाई और गरीबी की बढ़ती समस्या।
2. सामाजिक कारण
जातिवाद, लिंग भेदभाव और धार्मिक कट्टरता।
शिक्षा की कमी के कारण अंधविश्वास और रूढ़िवादी सोच।
समाज में महिलाओं और कमजोर वर्गों के प्रति भेदभाव।
3. राजनीतिक कारण
भ्रष्टाचार और कमजोर प्रशासन।
नीतियों का बार-बार बदलना और प्रभावी कार्यान्वयन की कमी।
राजनीतिक अस्थिरता और कानून-व्यवस्था की कमजोरी।
4. सांस्कृतिक कारण
परंपरागत रूढ़ियाँ और अंधविश्वास।
समाज में वैज्ञानिक सोच और जागरूकता की कमी।
सांस्कृतिक टकराव और असहिष्णुता।
5. पर्यावरणीय कारण
प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन।
औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण बढ़ता प्रदूषण।
जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाएँ।
निष्कर्ष
सामाजिक समस्याएँ समाज के विकास और स्थिरता के लिए बड़ी चुनौतियाँ होती हैं। इन समस्याओं का समाधान सरकारी नीतियों, शिक्षा, सामाजिक जागरूकता, और सामूहिक प्रयासों से किया जा सकता है। जब तक समाज में समानता, न्याय, और विकास की सोच नहीं अपनाई जाएगी, तब तक ये समस्याएँ बनी रहेंगी। इसलिए, सरकार, सामाजिक संगठन, और नागरिकों को मिलकर इन समस्याओं का समाधान निकालना चाहिए।





प्रश्न 03 टिप्पणी कीजिए।

(क) सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति

सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति समाज में मौजूद असमानता, संघर्ष, और विभिन्न आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा पर्यावरणीय कारणों से होती है। जब समाज में कोई स्थिति एक बड़े समूह के लिए चिंता का कारण बनती है और उनके जीवन को प्रभावित करती है, तो वह सामाजिक समस्या बन जाती है।

सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति के प्रमुख कारण
आर्थिक असमानता – समाज में धन और संसाधनों के असमान वितरण के कारण गरीबी, बेरोजगारी, और अपराध जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
शिक्षा की कमी – अशिक्षा के कारण लोग अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और अपराध की ओर प्रवृत्त होते हैं।
राजनीतिक अस्थिरता – भ्रष्टाचार, कमजोर प्रशासन और राजनीतिक अस्थिरता समाज में असंतोष और अव्यवस्था को जन्म देती है।
संस्कृति और परंपराएँ – कई बार रूढ़िवादी सोच और सामाजिक भेदभाव समस्याओं को जन्म देते हैं, जैसे जातिवाद और लिंग भेदभाव।
औद्योगीकरण और शहरीकरण – औद्योगीकरण के कारण बढ़ते पर्यावरणीय संकट, प्रदूषण, और संसाधनों की कमी भी सामाजिक समस्याओं को बढ़ाते हैं।
निष्कर्ष
सामाजिक समस्याएँ धीरे-धीरे उत्पन्न होती हैं और यदि इन्हें नियंत्रित नहीं किया जाए, तो वे पूरे समाज के लिए गंभीर संकट बन सकती हैं। इनके समाधान के लिए शिक्षा, नीति निर्माण, और सामाजिक जागरूकता जरूरी है।

(ख) सामाजिक समस्याओं के प्रमुख तत्व

सामाजिक समस्याओं में कुछ सामान्य तत्व होते हैं, जो उन्हें परिभाषित करने और उनके प्रभाव को समझने में मदद करते हैं। ये तत्व यह निर्धारित करते हैं कि कोई समस्या समाज के लिए कितनी महत्वपूर्ण है और उसके समाधान के लिए क्या कदम उठाने की आवश्यकता है।

सामाजिक समस्याओं के प्रमुख तत्व
समाज पर व्यापक प्रभाव – सामाजिक समस्याएँ केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित करती हैं।
सामाजिक असंतोष का कारण – ये समस्याएँ समाज में असंतोष, तनाव, और संघर्ष को जन्म देती हैं।
नैतिक और कानूनी मानकों के विरुद्ध – अधिकतर सामाजिक समस्याएँ समाज के स्वीकृत नैतिक और कानूनी मानकों के विरुद्ध होती हैं, जैसे भ्रष्टाचार और अपराध।
समाधान की आवश्यकता – सामाजिक समस्याओं का समाधान न किया जाए, तो वे और जटिल होती जाती हैं और समाज की स्थिरता को प्रभावित करती हैं।
समय और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनशील – एक समस्या जो आज गंभीर है, वह भविष्य में कम हो सकती है या कोई नई समस्या उभर सकती है।
निष्कर्ष
सामाजिक समस्याओं के प्रमुख तत्व यह दर्शाते हैं कि वे समाज की संरचना और कार्यप्रणाली को कैसे प्रभावित करती हैं। इन समस्याओं का हल निकालना आवश्यक है ताकि समाज में संतुलन बना रहे और प्रगति होती रहे।


प्रश्न 04 सांप्रदायिकता किसे कहते हैं? इसके प्रमुख कारण बताइए।


परिचय
सांप्रदायिकता (Communalism) समाज में विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच वैमनस्य, असहिष्णुता और संघर्ष को जन्म देती है। जब कोई व्यक्ति या समूह अपने धर्म को सर्वोपरि मानकर दूसरे धर्मों के प्रति घृणा या भेदभाव करता है, तो यह सांप्रदायिकता कहलाता है। यह समाज में तनाव, हिंसा और सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देती है और राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बनती है।

सांप्रदायिकता की परिभाषा
अशोक मेहता के अनुसार – "सांप्रदायिकता वह मानसिकता है जिसमें व्यक्ति अपने धार्मिक समुदाय को अन्य समुदायों से श्रेष्ठ मानता है और उनके प्रति विरोध की भावना रखता है।"
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार – "जब धर्म का उपयोग सामाजिक या राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है और यह अन्य समुदायों के प्रति असहिष्णुता को बढ़ावा देता है, तो इसे सांप्रदायिकता कहते हैं।"
सांप्रदायिकता के प्रमुख कारण
1. धार्मिक कट्टरता
जब लोग अपने धर्म को सर्वोच्च मानकर दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णु हो जाते हैं, तो सांप्रदायिकता फैलती है।
धार्मिक रूढ़िवादिता और अंधविश्वास सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाते हैं।
2. राजनीतिक कारण
राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए धर्म का उपयोग करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करते हैं।
चुनावों में धार्मिक भावनाओं को भड़काने से सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है।
3. आर्थिक असमानता
जब एक समुदाय को लगता है कि दूसरे समुदाय को अधिक आर्थिक अवसर मिल रहे हैं, तो सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हो सकता है।
आर्थिक संसाधनों के असमान वितरण से समाज में असंतोष पैदा होता है।
4. ऐतिहासिक कारण
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया।
ऐतिहासिक संघर्षों और धार्मिक विभाजन की स्मृतियाँ भी सांप्रदायिकता को बनाए रखती हैं।
5. सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन
जब लोग शिक्षा और जागरूकता से वंचित रहते हैं, तो वे आसानी से सांप्रदायिक प्रचार और अफवाहों का शिकार हो जाते हैं।
सामाजिक सुधार और वैज्ञानिक सोच की कमी भी सांप्रदायिकता को बढ़ाती है।
6. मीडिया और अफवाहें
कभी-कभी मीडिया और सोशल मीडिया पर झूठी खबरें और अफवाहें सांप्रदायिक हिंसा को भड़का सकती हैं।
सांप्रदायिक प्रचार और नकारात्मक रिपोर्टिंग समाज में विभाजन को बढ़ाती हैं।
7. धार्मिक आयोजनों और विवादों से उत्पन्न तनाव
धार्मिक जुलूसों, मंदिर-मस्जिद विवादों और अन्य धार्मिक आयोजनों के दौरान छोटी घटनाएँ भी बड़े सांप्रदायिक दंगों का रूप ले सकती हैं।
निष्कर्ष
सांप्रदायिकता एक गंभीर सामाजिक समस्या है, जो समाज में अस्थिरता और हिंसा को जन्म देती है। इसे रोकने के लिए धर्मनिरपेक्षता, शिक्षा, आपसी सद्भाव और राजनीतिक ईमानदारी की आवश्यकता है। जब तक लोग एक-दूसरे के धर्म का सम्मान नहीं करेंगे और सांप्रदायिक ताकतों का विरोध नहीं करेंगे, तब तक यह समस्या बनी रहेगी।



प्रश्न 05 भारत में सांप्रदायिकता की समस्या का समाधान के लिए सुझाव दीजिए।

भारत में सांप्रदायिकता की समस्या का समाधान के लिए सुझाव
परिचय
भारत एक बहु-धार्मिक और बहु-सांस्कृतिक देश है, जहाँ विभिन्न धर्मों के लोग सह-अस्तित्व में रहते हैं। लेकिन कभी-कभी सांप्रदायिकता की समस्या समाज में वैमनस्य, हिंसा और अस्थिरता को जन्म देती है। यह समस्या भारत की एकता और अखंडता के लिए एक गंभीर चुनौती है। इसलिए, इसके समाधान के लिए प्रभावी उपायों की आवश्यकता है।

भारत में सांप्रदायिकता की समस्या के समाधान के लिए सुझाव
1. धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देना
सरकार और समाज को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि धर्म को राजनीति और प्रशासन से अलग रखा जाए।
सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
2. शिक्षा और जागरूकता
लोगों को धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता और आपसी सम्मान का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए।
स्कूलों और कॉलेजों में सांप्रदायिक सद्भावना पर आधारित पाठ्यक्रम शामिल किए जाएँ।
3. सख्त कानूनी प्रावधान
सांप्रदायिक हिंसा और दंगों को रोकने के लिए कठोर कानून बनाए जाएँ और उनका प्रभावी क्रियान्वयन हो।
सांप्रदायिकता फैलाने वाले भाषणों, अफवाहों और उकसावे वाली गतिविधियों पर सख्त कार्रवाई की जाए।
4. राजनीतिक सुधार
राजनीतिक दलों को धर्म के नाम पर वोट बैंक की राजनीति करने से रोका जाए।
चुनाव आयोग को ऐसे राजनीतिक दलों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए जो सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं।
5. मीडिया और सोशल मीडिया पर नियंत्रण
गलत सूचना, अफवाहें और सांप्रदायिक प्रचार को फैलने से रोकने के लिए सख्त नियम बनाए जाएँ।
मीडिया को निष्पक्ष रिपोर्टिंग करनी चाहिए और किसी भी समुदाय के खिलाफ नकारात्मक प्रचार से बचना चाहिए।
6. सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ाने के लिए सामाजिक प्रयास
विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच संवाद और मेल-जोल को बढ़ावा देना चाहिए।
सामुदायिक कार्यक्रम, सांस्कृतिक उत्सव और एकता मार्च आयोजित किए जाएँ, ताकि लोग एक-दूसरे के धर्म और संस्कृति को समझ सकें।
7. आर्थिक समानता और न्याय
सभी समुदायों को समान आर्थिक अवसर दिए जाएँ, ताकि किसी भी समुदाय को अन्य समुदायों के प्रति असंतोष न हो।
गरीब और पिछड़े समुदायों को सशक्त बनाने के लिए विशेष योजनाएँ चलाई जाएँ।
8. प्रशासन की निष्पक्षता
पुलिस और प्रशासन को सांप्रदायिक हिंसा रोकने में निष्पक्ष और त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए।
सांप्रदायिक दंगों के दोषियों को सजा दिलाने में कोई पक्षपात नहीं होना चाहिए।
9. धार्मिक नेताओं की सकारात्मक भूमिका
धर्मगुरुओं को समाज में शांति और सौहार्द बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाए।
उन्हें धार्मिक उपदेशों में आपसी प्रेम, सहिष्णुता और भाईचारे का संदेश देना चाहिए।
निष्कर्ष
भारत में सांप्रदायिकता की समस्या एक गंभीर मुद्दा है, लेकिन इसे प्रभावी शिक्षा, कानूनी सुधार, निष्पक्ष प्रशासन, और सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देकर हल किया जा सकता है। यदि सरकार, समाज और प्रत्येक नागरिक मिलकर इस दिशा में कार्य करें, तो भारत को एकता और शांति का आदर्श राष्ट्र बनाया जा सकता है।



प्रश्न 06 क्षेत्रवाद क्या है? इसके प्रमुख कारण बताइए।

क्षेत्रवाद क्या है? इसके प्रमुख कारण बताइए।
परिचय
क्षेत्रवाद (Regionalism) वह सामाजिक और राजनीतिक विचारधारा है जिसमें किसी विशेष क्षेत्र के लोगों की निष्ठा और प्राथमिकता उस क्षेत्र के प्रति अधिक होती है, बजाय पूरे देश के। जब यह भावना अत्यधिक प्रबल हो जाती है, तो यह अन्य क्षेत्रों के प्रति भेदभाव, संघर्ष और असंतोष को जन्म देती है।

क्षेत्रवाद कभी-कभी सकारात्मक भी हो सकता है, जब इसका उपयोग क्षेत्रीय विकास और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए किया जाता है। लेकिन जब यह संकीर्ण मानसिकता, अलगाववाद और हिंसा को बढ़ावा देने लगता है, तो यह एक गंभीर समस्या बन जाता है।

क्षेत्रवाद के प्रमुख कारण
1. ऐतिहासिक कारण
ब्रिटिश शासन के दौरान "फूट डालो और राज करो" की नीति के कारण कई क्षेत्रों के बीच असमानता उत्पन्न हुई।
आजादी के बाद भी कुछ क्षेत्र अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक विकसित हुए, जिससे असंतोष बढ़ा।
2. आर्थिक असमानता
जब किसी एक क्षेत्र को अधिक औद्योगिक, व्यावसायिक या शैक्षिक सुविधाएँ मिलती हैं, तो अन्य क्षेत्र असंतुष्ट हो जाते हैं।
रोजगार और संसाधनों का असमान वितरण क्षेत्रीय भेदभाव को बढ़ाता है।
3. भाषा और सांस्कृतिक भेदभाव
भारत में कई भाषाएँ और सांस्कृतिक विविधताएँ हैं। जब किसी एक भाषा या संस्कृति को अधिक महत्व दिया जाता है, तो अन्य क्षेत्रों में असंतोष उत्पन्न होता है।
कुछ राज्यों में क्षेत्रीय भाषाओं को प्राथमिकता देने से बाहरी लोगों के प्रति विरोध की भावना पैदा होती है।
4. राजनीतिक कारण
कई बार राजनीतिक दल अपने वोट बैंक के लिए क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काते हैं।
कुछ राजनीतिक दल केवल एक क्षेत्र या राज्य के हितों को प्राथमिकता देते हैं, जिससे राष्ट्रीय एकता कमजोर होती है।
5. औद्योगीकरण और शहरीकरण
औद्योगीकरण और शहरीकरण से कुछ क्षेत्र तेजी से विकसित होते हैं, जबकि अन्य क्षेत्र पिछड़ जाते हैं।
इससे प्रवासी मजदूरों और स्थानीय निवासियों के बीच संघर्ष उत्पन्न होता है।
6. प्रशासनिक असमानता
कुछ क्षेत्रों को विशेष सुविधाएँ और सरकारी योजनाओं का अधिक लाभ मिलता है, जिससे अन्य क्षेत्रों में असंतोष बढ़ता है।
कई बार नई राज्य रचना की माँग भी क्षेत्रवाद के कारण उठती है।
7. बाहरी लोगों के प्रति असंतोष
जब किसी क्षेत्र में बाहरी लोगों की संख्या बढ़ जाती है और वे स्थानीय संसाधनों और नौकरियों पर कब्जा कर लेते हैं, तो स्थानीय लोगों में असंतोष उत्पन्न होता है।
महाराष्ट्र, असम, और उत्तर-पूर्वी राज्यों में ऐसी समस्याएँ देखी गई हैं।
निष्कर्ष
क्षेत्रवाद एक जटिल सामाजिक और राजनीतिक समस्या है, जिसका कारण ऐतिहासिक असमानता, आर्थिक भेदभाव, राजनीतिक स्वार्थ और सांस्कृतिक विविधता हो सकते हैं। अगर इसे नियंत्रित नहीं किया गया, तो यह देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन सकता है। इसलिए, सभी क्षेत्रों के संतुलित विकास, समान आर्थिक अवसरों और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देकर क्षेत्रवाद की समस्या को हल किया जा सकता है।



प्रश्न 07 भारत में क्षेत्रवाद की समस्या के समाधान के लिए सुझाव दीजिए।

भारत में क्षेत्रवाद की समस्या के समाधान के लिए सुझाव
परिचय
भारत एक विविधतापूर्ण देश है, जहाँ विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और परंपराओं के लोग रहते हैं। लेकिन जब लोग अपने क्षेत्र को सर्वोपरि मानते हैं और अन्य क्षेत्रों के प्रति असहिष्णुता दिखाते हैं, तो क्षेत्रवाद की समस्या उत्पन्न होती है। यह समस्या देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन सकती है। इसलिए, इसे नियंत्रित करने और हल करने के लिए ठोस उपायों की आवश्यकता है।

भारत में क्षेत्रवाद की समस्या के समाधान के लिए सुझाव
1. समान आर्थिक विकास
सभी क्षेत्रों के संतुलित विकास के लिए सरकार को उचित नीतियाँ बनानी चाहिए।
पिछड़े क्षेत्रों के लिए विशेष आर्थिक पैकेज और औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
2. रोजगार के समान अवसर
सभी राज्यों में रोजगार के समान अवसर दिए जाएँ ताकि लोग अपने ही राज्य में काम पा सकें और प्रवास कम हो।
सरकारी और निजी क्षेत्र में भर्ती प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए।
3. शिक्षा और जागरूकता
क्षेत्रवाद को समाप्त करने के लिए शिक्षा और जागरूकता अत्यंत महत्वपूर्ण है।
स्कूलों और कॉलेजों में राष्ट्रीय एकता, सहिष्णुता और सांस्कृतिक विविधता का सम्मान सिखाने वाले पाठ्यक्रम शामिल किए जाएँ।
4. राजनीतिक सुधार
राजनीतिक दलों को क्षेत्रवाद भड़काने के बजाय राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने पर ध्यान देना चाहिए।
चुनाव आयोग को उन दलों और नेताओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए जो क्षेत्रवाद को बढ़ावा देते हैं।
5. क्षेत्रीय भाषा और संस्कृति का सम्मान
हर राज्य की भाषा और संस्कृति का सम्मान किया जाना चाहिए ताकि लोग अपने क्षेत्रीय गौरव को सुरक्षित महसूस करें।
साथ ही, सभी को राष्ट्रीय भाषा और अन्य भाषाओं को सीखने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि क्षेत्रीय मतभेद कम हों।
6. मीडिया की सकारात्मक भूमिका
मीडिया को क्षेत्रवाद भड़काने के बजाय राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने वाले कार्यक्रम और समाचार दिखाने चाहिए।
सोशल मीडिया पर फैलने वाली अफवाहों और नफरत भरे संदेशों पर सख्त नियंत्रण होना चाहिए।
7. प्रशासनिक सुधार
सरकार को प्रशासनिक नीतियों में संतुलन बनाए रखना चाहिए ताकि कोई भी क्षेत्र यह महसूस न करे कि उसके साथ भेदभाव हो रहा है।
क्षेत्रीय विकास योजनाओं को लागू करने में पारदर्शिता और जवाबदेही होनी चाहिए।
8. सांस्कृतिक और सामाजिक समरसता
विभिन्न राज्यों में सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए ताकि लोग एक-दूसरे की संस्कृति को समझ सकें।
राष्ट्रीय पर्व और उत्सवों को मिल-जुलकर मनाने की परंपरा को बढ़ावा देना चाहिए।
9. संवैधानिक उपाय
संविधान में संघवाद (Federalism) और राष्ट्रीय एकता दोनों का संतुलन बनाए रखने के लिए प्रावधान किए गए हैं, जिनका सही ढंग से पालन किया जाना चाहिए।
केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय मजबूत होना चाहिए ताकि क्षेत्रीय असंतोष को रोका जा सके।
निष्कर्ष
क्षेत्रवाद की समस्या को समाप्त करने के लिए राष्ट्रीय एकता, आर्थिक समानता, शिक्षा और जागरूकता को बढ़ावा देना आवश्यक है। जब लोग यह समझेंगे कि वे सबसे पहले भारतीय हैं, फिर किसी क्षेत्र के निवासी, तभी यह समस्या समाप्त हो सकेगी। सरकार, मीडिया, शिक्षण संस्थान और आम जनता को मिलकर इस दिशा में कार्य करना चाहिए ताकि भारत एक सशक्त और एकीकृत राष्ट्र बना रहे।


प्रश्न 08 क्षेत्रवाद एवं भारतीय राजनीति पर टिप्पणी लिखिए।


क्षेत्रवाद एवं भारतीय राजनीति पर टिप्पणी
परिचय
क्षेत्रवाद (Regionalism) भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण कारक बन गया है। यह एक ऐसी भावना है, जिसमें लोग अपने क्षेत्रीय हितों को राष्ट्रीय हितों से अधिक प्राथमिकता देते हैं। भारत में क्षेत्रवाद का प्रभाव कई राजनीतिक निर्णयों, नीतियों और चुनावी रणनीतियों पर देखा जाता है। कभी-कभी यह सकारात्मक होता है, जब यह क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा देता है, लेकिन जब यह संकीर्ण हितों और अलगाववाद को जन्म देता है, तो यह लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बन जाता है।

क्षेत्रवाद और भारतीय राजनीति का संबंध
1. क्षेत्रीय दलों का उदय
क्षेत्रवाद के कारण विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का गठन हुआ, जैसे कि शिवसेना (महाराष्ट्र), द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) (तमिलनाडु), तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS), तृणमूल कांग्रेस (TMC) (पश्चिम बंगाल) आदि।
ये दल अपने-अपने राज्यों के मुद्दों को प्राथमिकता देते हैं और कभी-कभी राष्ट्रीय मुद्दों को नज़रअंदाज कर देते हैं।
2. केंद्र और राज्यों के संबंध
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद के कारण कई बार केंद्र और राज्य सरकारों के बीच टकराव होता है।
कुछ राज्यों में अलगाववादी आंदोलन भी देखे गए हैं, जैसे कि पंजाब में खालिस्तान आंदोलन, असम और उत्तर-पूर्वी राज्यों में अलगाववादी मांगें।
3. भाषाई और सांस्कृतिक क्षेत्रवाद
कुछ राजनीतिक दल और संगठनों ने क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृतियों को बढ़ावा देने के नाम पर बाहरी लोगों का विरोध किया है।
महाराष्ट्र में ‘मराठी मानुष’ आंदोलन और दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी आंदोलन इसके उदाहरण हैं।
4. राज्य पुनर्गठन की माँग
क्षेत्रवाद के प्रभाव से कई बार नए राज्यों की माँग उठी है, जैसे झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ का गठन।
आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना राज्य का निर्माण भी क्षेत्रवाद का परिणाम था।
5. चुनावी राजनीति पर प्रभाव
राजनीतिक दल क्षेत्रीय अस्मिता, स्थानीय मुद्दों और जातिगत समीकरणों के आधार पर चुनाव लड़ते हैं।
कई बार क्षेत्रीय मुद्दों को बढ़ावा देकर राष्ट्रीय एकता को कमजोर करने की कोशिश की जाती है।
क्षेत्रवाद के राजनीतिक प्रभाव
सकारात्मक प्रभाव
क्षेत्रीय दल स्थानीय समस्याओं को बेहतर तरीके से समझते हैं और उनके समाधान के लिए कार्य करते हैं।
यह लोकतंत्र को मजबूत करता है, क्योंकि क्षेत्रीय हितों का प्रतिनिधित्व किया जाता है।
क्षेत्रीय अस्मिता और सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा मिलता है।
नकारात्मक प्रभाव
राष्ट्रीय एकता को खतरा हो सकता है, यदि क्षेत्रीय भावनाएँ चरम पर पहुँच जाएँ।
कुछ राज्यों में बाहरी लोगों के प्रति असहिष्णुता बढ़ती है।
केंद्र और राज्यों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
अलगाववाद और उग्रवाद को बढ़ावा मिल सकता है।

निष्कर्ष
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह तब तक लाभदायक है, जब तक यह क्षेत्रीय विकास और सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देता है, लेकिन जब यह राष्ट्र के हितों के विरुद्ध जाता है, तब यह एक गंभीर समस्या बन जाता है। क्षेत्रवाद को नियंत्रित करने के लिए सरकार को संतुलित आर्थिक विकास, राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय संतुलन पर ध्यान देना चाहिए। साथ ही, राजनीतिक दलों को भी राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखना चाहिए।




प्रश्न 09 पलायन से आप क्या समझते हैं? पलायन के प्रकार बताइए।

पलायन से आप क्या समझते हैं? पलायन के प्रकार बताइए।
परिचय
पलायन (Migration) का अर्थ है किसी व्यक्ति या समूह का एक स्थान से दूसरे स्थान पर अस्थायी या स्थायी रूप से जाना। यह स्थानांतरण विभिन्न कारणों से हो सकता है, जैसे रोजगार, शिक्षा, प्राकृतिक आपदाएँ, युद्ध, सामाजिक या आर्थिक असमानता आदि। पलायन का प्रभाव न केवल पलायन करने वाले व्यक्तियों पर पड़ता है, बल्कि जिस स्थान से वे जाते हैं (मूल स्थान) और जिस स्थान पर वे जाते हैं (गंतव्य स्थान) दोनों पर पड़ता है।

पलायन के प्रकार
पलायन को विभिन्न आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. स्थान के आधार पर
(क) आंतरिक पलायन (Internal Migration)
जब व्यक्ति या समूह एक ही देश के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, तो इसे आंतरिक पलायन कहा जाता है।
उदाहरण: ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन।
इसके चार उपप्रकार होते हैं:

ग्रामीण से शहरी (Rural to Urban) – रोजगार, शिक्षा और बेहतर जीवन स्तर के लिए गाँव से शहरों में जाना।
ग्रामीण से ग्रामीण (Rural to Rural) – कृषि या पारिवारिक कारणों से एक गाँव से दूसरे गाँव जाना।
शहरी से शहरी (Urban to Urban) – किसी शहर से दूसरे शहर में नौकरी या अन्य कारणों से जाना।
शहरी से ग्रामीण (Urban to Rural) – शहरों से गाँवों में वापस लौटना, जिसे ‘रिवर्स माइग्रेशन’ भी कहा जाता है।
(ख) अंतर्राष्ट्रीय पलायन (International Migration)
जब व्यक्ति एक देश से दूसरे देश में जाते हैं, तो इसे अंतर्राष्ट्रीय पलायन कहा जाता है।
उदाहरण: भारत से अमेरिका या खाड़ी देशों में काम करने के लिए जाना।
2. अवधि के आधार पर
(क) अस्थायी पलायन (Temporary Migration)
जब लोग कुछ समय के लिए किसी स्थान पर जाकर वापस लौट आते हैं।
उदाहरण: मजदूरों का खेती के मौसम में शहरों से गाँवों की ओर जाना।
(ख) स्थायी पलायन (Permanent Migration)
जब कोई व्यक्ति या परिवार हमेशा के लिए एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर बस जाता है।
उदाहरण: नौकरी या शादी के बाद नए शहर में स्थायी रूप से बस जाना।
3. कारणों के आधार पर
(क) आर्थिक पलायन (Economic Migration)
रोजगार, व्यापार, उच्च वेतन या आर्थिक असमानता के कारण होने वाला पलायन।
उदाहरण: बिहार, उत्तर प्रदेश से मजदूरों का दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में काम के लिए जाना।
(ख) सामाजिक पलायन (Social Migration)
बेहतर जीवनशैली, शिक्षा, विवाह, जातिगत भेदभाव या पारिवारिक कारणों से होने वाला पलायन।
उदाहरण: शादी के बाद महिलाओं का अपने ससुराल जाना।
(ग) पर्यावरणीय पलायन (Environmental Migration)
प्राकृतिक आपदाएँ जैसे बाढ़, सूखा, भूकंप, जलवायु परिवर्तन आदि के कारण होने वाला पलायन।
उदाहरण: समुद्री स्तर बढ़ने से द्वीपों के लोगों का अन्य स्थानों पर जाना।
(घ) राजनीतिक पलायन (Political Migration)
युद्ध, आतंकवाद, जातीय संघर्ष, शरणार्थी संकट आदि के कारण होने वाला पलायन।
उदाहरण: अफगानिस्तान, सीरिया, रोहिंग्या शरणार्थियों का दूसरे देशों में जाना।
(ङ) मजबूरन पलायन (Forced Migration)
जब लोग किसी आपदा, युद्ध, राजनीतिक उत्पीड़न, सांप्रदायिक हिंसा या विस्थापन के कारण पलायन करते हैं।
उदाहरण: 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान बड़े पैमाने पर हुआ पलायन।
निष्कर्ष
पलायन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो विभिन्न आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय कारणों से होती है। यह न केवल व्यक्ति बल्कि समाज और देश की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करता है। यदि पलायन उचित नीतियों और योजनाओं के तहत नियंत्रित किया जाए, तो यह सकारात्मक विकास में योगदान दे सकता है, अन्यथा यह असंतुलन और समस्याओं को जन्म दे सकता है।




प्रश्न 10 पलायन के प्रभाव का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

पलायन के प्रभाव का संक्षेप में वर्णन
परिचय
पलायन (Migration) का प्रभाव न केवल उन व्यक्तियों और परिवारों पर पड़ता है जो पलायन करते हैं, बल्कि उनके मूल स्थान (जहाँ से वे जाते हैं) और गंतव्य स्थान (जहाँ वे जाते हैं) पर भी पड़ता है। यह प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकते हैं।

पलायन के प्रभाव
1. आर्थिक प्रभाव
(क) सकारात्मक प्रभाव
रोजगार के अवसर – पलायन से लोगों को बेहतर रोजगार मिलता है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होता है।
प्रवासियों द्वारा धन भेजना – पलायन करने वाले लोग अपने परिवार को धन भेजते हैं, जिससे मूल स्थान की अर्थव्यवस्था को लाभ होता है।
श्रम शक्ति में वृद्धि – पलायन करने वाले लोग गंतव्य स्थान पर उद्योग, निर्माण और सेवा क्षेत्र में श्रम शक्ति बढ़ाते हैं।
(ख) नकारात्मक प्रभाव
ग्रामीण क्षेत्रों में श्रम की कमी – पलायन से गाँवों में श्रमिकों की संख्या कम हो जाती है, जिससे कृषि और अन्य कार्य प्रभावित होते हैं।
शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी – अधिक पलायन से शहरों में रोजगार की अधिक प्रतिस्पर्धा होती है, जिससे बेरोजगारी बढ़ती है।
2. सामाजिक प्रभाव
(क) सकारात्मक प्रभाव
नई संस्कृतियों का समावेश – पलायन से विभिन्न संस्कृतियों का आदान-प्रदान होता है, जिससे समाज में विविधता बढ़ती है।
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार – प्रवासियों के कारण गंतव्य स्थान पर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की माँग बढ़ती है, जिससे सुधार होता है।
(ख) नकारात्मक प्रभाव
शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि – पलायन के कारण शहरों में जनसंख्या अत्यधिक बढ़ जाती है, जिससे बुनियादी सुविधाओं पर दबाव पड़ता है।
झुग्गी-बस्तियों का विकास – शहरों में अधिक पलायन के कारण झुग्गी-बस्तियाँ बढ़ती हैं, जिससे गरीबी, अपराध और अस्वच्छता की समस्या उत्पन्न होती है।
सामाजिक संघर्ष – बाहरी लोगों के आगमन से स्थानीय निवासियों के साथ प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, जिससे सामाजिक संघर्ष हो सकते हैं।
3. राजनीतिक प्रभाव
वोट बैंक की राजनीति – प्रवासी आबादी राजनीतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण वोट बैंक बन जाती है, जिससे क्षेत्रीय राजनीति प्रभावित होती है।
नीतियों और योजनाओं में बदलाव – सरकार को प्रवासियों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए नई नीतियाँ बनानी पड़ती हैं।
4. पर्यावरणीय प्रभाव
शहरी प्रदूषण में वृद्धि – अधिक जनसंख्या के कारण वाहनों, उद्योगों और कचरे की मात्रा बढ़ती है, जिससे प्रदूषण बढ़ता है।
प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव – अधिक जनसंख्या के कारण पानी, बिजली, परिवहन और अन्य संसाधनों की खपत बढ़ जाती है।
निष्कर्ष
पलायन के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव होते हैं। यदि इसे सही ढंग से नियंत्रित किया जाए, तो यह आर्थिक और सामाजिक विकास में सहायक हो सकता है। लेकिन अगर यह अनियंत्रित होता है, तो यह शहरी भीड़, बेरोजगारी, संसाधनों की कमी और सामाजिक असंतोष जैसी समस्याएँ उत्पन्न कर सकता है। इसलिए सरकार को संतुलित विकास और रोजगार के समान अवसर प्रदान करने की दिशा में कार्य करना चाहिए।





प्रश्न 11 गरीबी की प्रकृति एवं कारणों की व्याख्या कीजिए।

गरीबी की प्रकृति एवं कारणों की व्याख्या
परिचय
गरीबी (Poverty) एक ऐसी सामाजिक और आर्थिक स्थिति है, जिसमें व्यक्ति या समुदाय अपनी मूलभूत आवश्यकताओं (भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा) को पूरा करने में असमर्थ होता है। यह समस्या भारत सहित पूरे विश्व में एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। गरीबी न केवल आर्थिक असमानता को दर्शाती है, बल्कि यह समाज में अन्य कई समस्याओं को जन्म देती है, जैसे कुपोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि।

गरीबी की प्रकृति (Nature of Poverty)
1. निरपेक्ष (Absolute) एवं सापेक्ष (Relative) गरीबी
निरपेक्ष गरीबी – जब किसी व्यक्ति की आय इतनी कम होती है कि वह अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर सकता, तो इसे निरपेक्ष गरीबी कहते हैं।
उदाहरण: भारत में गरीबी रेखा के नीचे (BPL) जीवन यापन करने वाले लोग।
सापेक्ष गरीबी – जब एक व्यक्ति की आर्थिक स्थिति समाज के अन्य लोगों की तुलना में कमजोर होती है, तो इसे सापेक्ष गरीबी कहते हैं।
2. ग्रामीण एवं शहरी गरीबी
ग्रामीण गरीबी – गाँवों में गरीब किसानों, खेतिहर मजदूरों और भूमिहीन श्रमिकों में अधिक गरीबी पाई जाती है।
शहरी गरीबी – शहरों में झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले गरीब लोग जिनके पास स्थायी रोजगार या रहने की सुविधा नहीं होती।
3. चक्रीय एवं संरचनात्मक गरीबी
चक्रीय गरीबी – यह अल्पकालिक होती है और आर्थिक मंदी, आपदा या युद्ध जैसी स्थितियों के कारण उत्पन्न होती है।
संरचनात्मक गरीबी – यह दीर्घकालिक होती है और समाज की आर्थिक एवं सामाजिक संरचना में असमानताओं के कारण बनी रहती है।
गरीबी के प्रमुख कारण (Causes of Poverty)
1. आर्थिक कारण
(क) बेरोजगारी और कम आय
भारत में बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हैं या अस्थायी/अल्प वेतन वाली नौकरियों में लगे हुए हैं, जिससे वे गरीबी से बाहर नहीं निकल पाते।
(ख) पूंजी की कमी
गरीब लोगों के पास व्यवसाय या कृषि में निवेश करने के लिए पूंजी नहीं होती, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर बनी रहती है।
(ग) भूमि की असमान वितरण
भारत में बहुत से किसानों के पास खेती के लिए पर्याप्त भूमि नहीं है, जिससे वे गरीबी में रहते हैं।
(घ) बढ़ती महंगाई
आवश्यक वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं, लेकिन गरीबों की आय इतनी नहीं बढ़ती कि वे अपनी जरूरतें पूरी कर सकें।
2. सामाजिक कारण
(क) अशिक्षा और कौशल की कमी
अशिक्षित व्यक्ति के लिए अच्छे रोजगार के अवसर कम होते हैं, जिससे गरीबी बनी रहती है।
(ख) जातिवाद एवं सामाजिक असमानता
समाज में कुछ वर्गों को अवसरों से वंचित किया जाता है, जिससे वे आर्थिक रूप से पिछड़ जाते हैं।
(ग) बाल विवाह और जनसंख्या वृद्धि
कम उम्र में विवाह और अधिक संतान होने से गरीबी की समस्या और बढ़ जाती है।
3. राजनीतिक कारण
(क) भ्रष्टाचार
सरकार द्वारा गरीबों के लिए चलाई जाने वाली योजनाएँ भ्रष्टाचार के कारण पूरी तरह उन तक नहीं पहुँच पातीं।
(ख) कमजोर नीतियाँ और योजनाओं का गलत क्रियान्वयन
गरीबी हटाने के लिए बनी सरकारी योजनाओं का सही ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो पाता, जिससे गरीबी बनी रहती है।
4. प्राकृतिक कारण
(क) प्राकृतिक आपदाएँ
बाढ़, सूखा, भूकंप जैसी आपदाओं के कारण फसलें नष्ट हो जाती हैं, रोजगार खत्म हो जाते हैं, जिससे लोग गरीबी में आ जाते हैं।
(ख) जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे किसान और मजदूर प्रभावित होते हैं।
निष्कर्ष
गरीबी एक बहुआयामी समस्या है, जिसके आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और प्राकृतिक कारण होते हैं। इसे दूर करने के लिए सरकार को शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं और आर्थिक विकास पर ध्यान देना होगा। साथ ही, भ्रष्टाचार को रोककर, योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करके और गरीबों को स्वावलंबी बनाकर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।




प्रश्न 12 सापेक्ष एवं निरपेक्ष गरीबी क्या है?

सापेक्ष एवं निरपेक्ष गरीबी क्या है?
परिचय
गरीबी (Poverty) एक ऐसी स्थिति है, जिसमें व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ होता है। गरीबी को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जाता है – सापेक्ष गरीबी (Relative Poverty) और निरपेक्ष गरीबी (Absolute Poverty)।

1. निरपेक्ष गरीबी (Absolute Poverty)
अर्थ
निरपेक्ष गरीबी का अर्थ है वह स्थिति, जब किसी व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं (भोजन, कपड़ा, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा) को पूरा करने के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध नहीं होते। इसमें एक निश्चित गरीबी रेखा निर्धारित की जाती है, जिसके नीचे जीवन यापन करने वाले लोग गरीब माने जाते हैं।

विशेषताएँ
यह एक निश्चित मानक पर आधारित होती है, जिसे सरकारें या अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ निर्धारित करती हैं।
इसमें व्यक्ति की आवश्यकताओं की न्यूनतम सीमा तय की जाती है, जैसे प्रति दिन 2 डॉलर से कम की आय वाले व्यक्ति को गरीब माना जाता है (विश्व बैंक का मानक)।
इसका निर्धारण आय, उपभोग स्तर और मूलभूत आवश्यकताओं के आधार पर किया जाता है।
यह मुख्यतः विकासशील और अविकसित देशों में अधिक देखी जाती है।
उदाहरण
भारत में गरीबी रेखा से नीचे (BPL - Below Poverty Line) जीवन यापन करने वाले लोग।
कुपोषण से ग्रस्त जनसंख्या, जिन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिलता।
अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के कई देशों में लोगों की अत्यधिक निम्न आय।
2. सापेक्ष गरीबी (Relative Poverty)
अर्थ
सापेक्ष गरीबी का तात्पर्य किसी समाज या देश में लोगों के बीच आर्थिक असमानता से है। इसमें किसी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति की तुलना समाज के अन्य लोगों से की जाती है। अर्थात, यदि एक व्यक्ति की आय या जीवन स्तर समाज के औसत स्तर से काफी कम है, तो उसे गरीब माना जाता है, भले ही वह अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर पा रहा हो।

विशेषताएँ
यह समाज में आर्थिक असमानता को दर्शाती है।
इसमें गरीबी का निर्धारण औसत आय या धन वितरण के आधार पर किया जाता है।
यह मुख्यतः विकसित और उच्च आय वाले देशों में अधिक पाई जाती है।
यह गरीबी की सांस्कृतिक और सामाजिक अवधारणा से जुड़ी होती है।
उदाहरण
किसी समाज में एक व्यक्ति की आय 20,000 रुपये प्रति माह है, जबकि अधिकांश लोग 50,000 रुपये प्रति माह कमाते हैं। ऐसे में वह व्यक्ति सापेक्ष रूप से गरीब माना जाएगा।
अमेरिका, यूरोप और अन्य विकसित देशों में कुछ लोग दूसरों की तुलना में गरीब माने जाते हैं, भले ही उनकी बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी हो रही हों।
किसी समाज में गरीब और अमीर के बीच आय में बड़ा अंतर होना।
मुख्य अंतर: निरपेक्ष बनाम सापेक्ष गरीबी
विशेषता निरपेक्ष गरीबी सापेक्ष गरीबी
परिभाषा न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा न कर पाने की स्थिति समाज के अन्य लोगों की तुलना में आर्थिक रूप से पिछड़ापन
मानक एक निश्चित गरीबी रेखा (आय, भोजन, जरूरतें) समाज की औसत आय या जीवन स्तर से तुलना
प्रभावित देश विकासशील और अविकसित देश विकसित और उच्च आय वाले देश
उदाहरण अत्यधिक गरीब लोग, जो भोजन और आवास के लिए संघर्ष करते हैं वे लोग जिनकी आय कम है, लेकिन वे अपनी जरूरतें पूरी कर सकते हैं
निष्कर्ष
निरपेक्ष गरीबी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति से संबंधित है, जबकि सापेक्ष गरीबी सामाजिक असमानता को दर्शाती है। दोनों ही प्रकार की गरीबी समाज और अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं, इसलिए इनके समाधान के लिए आर्थिक विकास, रोजगार सृजन, शिक्षा और सामाजिक कल्याण योजनाओं की आवश्यकता होती है।







प्रश्न 13 राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना अधिनियम की दो विशेषताएं बताइए।

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना अधिनियम (NREGA) की दो विशेषताएँ
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (NREGA), जिसे 2009 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) का नाम दिया गया, भारत सरकार की एक महत्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा योजना है। इसे 2005 में लागू किया गया था, जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों को रोजगार उपलब्ध कराना और उनकी आर्थिक स्थिति सुधारना है।

दो प्रमुख विशेषताएँ:
1. 100 दिनों का गारंटीकृत रोजगार
MGNREGA के तहत हर ग्रामीण परिवार को वर्ष में 100 दिन का सुनिश्चित रोजगार दिया जाता है।
यदि सरकार 15 दिनों के भीतर काम उपलब्ध नहीं कराती, तो बेरोजगारी भत्ता दिया जाता है।
2. मजदूरी भुगतान और श्रमिक अधिकार
योजना के तहत श्रमिकों को सीधे उनके बैंक खातों में मजदूरी भुगतान किया जाता है, जिससे बिचौलियों और भ्रष्टाचार की संभावना कम होती है।
पुरुषों और महिलाओं को समान मजदूरी दी जाती है, जिससे लैंगिक समानता को बढ़ावा मिलता है।
यह योजना ग्रामीण गरीबों के लिए एक सामाजिक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करती है और उन्हें आत्मनिर्भर बनने में मदद करती है।



प्रश्न 14 बेरोजगारी की प्रकृति एवं कारणों की व्याख्या कीजिए , तथा इसके निदान के उपाय बताइए।

बेरोजगारी की प्रकृति, कारण एवं समाधान
बेरोजगारी एक महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक समस्या है, जो किसी देश की अर्थव्यवस्था और नागरिकों की जीवनशैली पर गहरा प्रभाव डालती है। जब कोई व्यक्ति काम करने की इच्छा और योग्यता रखने के बावजूद रोजगार प्राप्त नहीं कर पाता, तो उसे बेरोजगार कहा जाता है। भारत जैसे विकासशील देशों में यह समस्या अधिक गंभीर है।

1. बेरोजगारी की प्रकृति
बेरोजगारी की प्रकृति को समझने के लिए इसे विभिन्न श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:

(i) खुली बेरोजगारी (Open Unemployment)
इस प्रकार की बेरोजगारी तब होती है जब व्यक्ति पूरी तरह से बिना किसी रोजगार के होता है। यह समस्या विशेष रूप से शिक्षित युवाओं में अधिक पाई जाती है।

(ii) छिपी बेरोजगारी (Disguised Unemployment)
यह बेरोजगारी उन लोगों को संदर्भित करती है जो काम तो कर रहे होते हैं, लेकिन उनकी उत्पादकता बहुत कम होती है या वे अनावश्यक रूप से कार्यस्थल पर होते हैं। यह कृषि क्षेत्र में अधिक देखी जाती है।

(iii) मौसमी बेरोजगारी (Seasonal Unemployment)
यह तब होती है जब कोई व्यक्ति केवल कुछ निश्चित महीनों के लिए कार्यरत रहता है और बाकी समय बेरोजगार होता है। कृषि, पर्यटन और निर्माण क्षेत्रों में यह समस्या अधिक होती है।

(iv) संरचनात्मक बेरोजगारी (Structural Unemployment)
यह बेरोजगारी तब होती है जब अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं, जैसे तकनीकी विकास, उत्पादन प्रणाली में बदलाव, आदि।

(v) तकनीकी बेरोजगारी (Technological Unemployment)
इसका कारण तकनीकी प्रगति है, जब मशीनों और ऑटोमेशन के कारण श्रमिकों की आवश्यकता कम हो जाती है।

(vi) अशिक्षित बेरोजगारी (Educated Unemployment)
जब शिक्षित व्यक्ति उनकी योग्यता के अनुरूप रोजगार प्राप्त नहीं कर पाते, तो इसे शिक्षित बेरोजगारी कहा जाता है।

2. बेरोजगारी के कारण
बेरोजगारी के कई कारण होते हैं, जो आर्थिक, सामाजिक और तकनीकी कारकों से जुड़े होते हैं।

(i) जनसंख्या वृद्धि
भारत जैसे देशों में तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण रोजगार के अवसर पर्याप्त नहीं बन पाते।

(ii) शिक्षा प्रणाली की खामियां
शिक्षा प्रणाली व्यावहारिक ज्ञान देने में असफल रहती है, जिससे युवा केवल सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करते हैं और नौकरी के लिए आवश्यक कौशल नहीं होते।

(iii) कृषि पर अत्यधिक निर्भरता
भारत की अधिकांश आबादी कृषि पर निर्भर है, लेकिन यह क्षेत्र सीमित रोजगार के अवसर प्रदान करता है।

(iv) औद्योगीकरण की धीमी गति
विकासशील देशों में उद्योगों की स्थापना और विस्तार धीमी गति से होता है, जिससे रोजगार के अवसर सीमित होते हैं।

(v) पूंजी-प्रधान तकनीक का बढ़ता उपयोग
मशीनों और ऑटोमेशन के अधिक उपयोग से श्रमिकों की मांग कम हो जाती है।

(vi) आर्थिक असंतुलन
शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक असमानता के कारण रोजगार के अवसर समान रूप से उपलब्ध नहीं हो पाते।

3. बेरोजगारी का समाधान (निदान के उपाय)
बेरोजगारी को कम करने के लिए सरकार और समाज को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है।

(i) व्यावसायिक शिक्षा पर जोर
शिक्षा प्रणाली में व्यावहारिक और तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देना आवश्यक है ताकि छात्र रोजगार योग्य कौशल विकसित कर सकें।

(ii) औद्योगीकरण को बढ़ावा देना
नए उद्योगों की स्थापना और छोटे एवं मध्यम उद्योगों (MSMEs) को प्रोत्साहित करके रोजगार के अवसर बढ़ाए जा सकते हैं।

(iii) स्वरोजगार को प्रोत्साहन
सरकार को स्टार्टअप्स, छोटे व्यवसायों और स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय सहायता और प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए।

(iv) कृषि क्षेत्र में सुधार
कृषि क्षेत्र में नए तकनीकों और आधुनिक उपकरणों का उपयोग करके उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है, जिससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।

(v) श्रम-प्रधान तकनीकों को बढ़ावा
औद्योगीकरण में श्रम-प्रधान तकनीकों को अपनाने से रोजगार के अवसर बढ़ सकते हैं।

(vi) ग्रामीण विकास योजनाएं
ग्रामीण क्षेत्रों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) जैसी योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू करके रोजगार के अवसर प्रदान किए जा सकते हैं।

निष्कर्ष
बेरोजगारी एक जटिल समस्या है, जिसे हल करने के लिए शिक्षा प्रणाली में सुधार, औद्योगीकरण, स्वरोजगार को बढ़ावा, और सरकारी नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन आवश्यक है। यदि सरकार और समाज मिलकर इस समस्या के समाधान की दिशा में कार्य करें, तो बेरोजगारी दर को काफी हद तक कम किया जा सकता है और देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया जा सकता है।



प्रश्न 15 भ्रष्टाचार को परिभाषित कीजिए तथा इसके कारणों एवं परिणामों को समझाइए।

भ्रष्टाचार: परिभाषा, कारण एवं परिणाम
भ्रष्टाचार एक गंभीर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्या है, जो किसी भी देश की प्रगति में बाधा डालती है। यह किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा अपने स्वार्थ के लिए अनैतिक और गैरकानूनी तरीके से शक्ति या पद का दुरुपयोग करने की प्रक्रिया है।

1. भ्रष्टाचार की परिभाषा
भ्रष्टाचार का अर्थ है—किसी भी प्रकार की अनैतिक, अवैध या अनुचित गतिविधि जिसमें किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा निजी लाभ के लिए शक्ति, पद, अथवा संसाधनों का दुरुपयोग किया जाता है।

प्रमुख विद्वानों द्वारा भ्रष्टाचार की परिभाषाएँ:
वर्ल्ड बैंक: "भ्रष्टाचार सार्वजनिक शक्ति का निजी लाभ के लिए दुरुपयोग है।"
संयुक्त राष्ट्र संघ (UN): "भ्रष्टाचार सत्ता, पद, अथवा प्रभाव का अनुचित और अवैध लाभ लेने की प्रक्रिया है।"
भ्रष्टाचार के मुख्य रूप:
रिश्वत (Bribery): धन, उपहार, या अन्य लाभ के बदले अनुचित कार्य करवाना।
घूसखोरी (Extortion): जबरदस्ती धन या लाभ लेना।
नियुक्ति में पक्षपात (Favoritism): अनुचित तरीके से किसी को विशेष लाभ देना।
घोटाले (Fraud): गलत जानकारी या कागजी हेराफेरी द्वारा आर्थिक नुकसान पहुँचाना।
कदाचार (Misconduct): अधिकारों और पद का अनुचित प्रयोग।
2. भ्रष्टाचार के कारण
भ्रष्टाचार के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और कानूनी कारक शामिल हैं।

(i) नैतिकता की कमी
जब समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है, तो लोग अनुचित तरीकों से धन कमाने की प्रवृत्ति अपनाने लगते हैं।

(ii) राजनीति में अपराधीकरण
राजनीति में असामाजिक तत्वों और अपराधियों की भागीदारी बढ़ने से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।

(iii) कमजोर कानूनी व्यवस्था
यदि किसी देश में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कठोर कानून और सख्त सजा का प्रावधान नहीं है, तो लोग बेझिझक भ्रष्ट आचरण अपनाते हैं।

(iv) लालच और असंतोष
अत्यधिक लालच और जीवन में असंतोष भी भ्रष्टाचार को बढ़ाने वाले मुख्य कारणों में से एक हैं।

(v) पारदर्शिता की कमी
जब सरकारी या निजी क्षेत्र में पारदर्शिता नहीं होती, तो लोग अपने स्वार्थ के लिए भ्रष्ट आचरण करने लगते हैं।

(vi) नौकरशाही में जटिलता
सरकारी कार्यों और प्रक्रियाओं में अत्यधिक जटिलता और लालफीताशाही (Red Tape) भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है।

3. भ्रष्टाचार के परिणाम
भ्रष्टाचार समाज और राष्ट्र दोनों के लिए हानिकारक होता है। इसके कई नकारात्मक प्रभाव होते हैं, जो आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी व्यवस्थाओं को कमजोर कर सकते हैं।

(i) आर्थिक असमानता और गरीबी
भ्रष्टाचार के कारण धन कुछ गिने-चुने लोगों के पास सिमट जाता है, जिससे समाज में आर्थिक असमानता और गरीबी बढ़ती है।

(ii) विकास में बाधा
भ्रष्टाचार के कारण सरकारी परियोजनाएँ सही तरीके से लागू नहीं हो पातीं, जिससे बुनियादी ढांचे और सामाजिक विकास में बाधा आती है।

(iii) न्याय व्यवस्था पर प्रभाव
जब न्याय प्रणाली में भ्रष्टाचार बढ़ता है, तो निर्दोष लोगों को सजा मिलती है और अपराधी बच जाते हैं, जिससे समाज में अन्याय बढ़ता है।

(iv) प्रशासनिक अक्षमता
भ्रष्टाचार के कारण सरकारी और प्रशासनिक संस्थाएँ निष्क्रिय हो जाती हैं, जिससे योजनाओं का सही क्रियान्वयन नहीं हो पाता।

(v) विदेशी निवेश में गिरावट
किसी भी देश में भ्रष्टाचार अधिक होने पर विदेशी निवेशक वहाँ निवेश करने से बचते हैं, जिससे देश की अर्थव्यवस्था कमजोर होती है।

(vi) नैतिक और सामाजिक पतन
भ्रष्टाचार से समाज में अनैतिकता, बेईमानी और अविश्वास बढ़ता है, जिससे सामाजिक संरचना प्रभावित होती है।

4. भ्रष्टाचार रोकने के उपाय
भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

(i) कठोर कानून और सख्त दंड
भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कड़े कानून बनाने और दोषियों को सख्त सजा देने की आवश्यकता है।

(ii) पारदर्शिता और जवाबदेही
सरकारी और निजी क्षेत्र में पारदर्शिता बढ़ाकर तथा अधिकारियों को जवाबदेह बनाकर भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है।

(iii) डिजिटल प्रशासन
सरकारी कार्यों को डिजिटल रूप से संचालित करने से भ्रष्टाचार के अवसर कम हो जाते हैं, जैसे—डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT)।

(iv) जन-जागरूकता
लोगों को उनके अधिकारों और भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के बारे में शिक्षित करने से वे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं।

(v) स्वतंत्र मीडिया और सूचना का अधिकार (RTI)
स्वतंत्र प्रेस और सूचना के अधिकार कानून (RTI) के माध्यम से सरकारी कार्यों की निगरानी रखी जा सकती है।

(vi) नैतिक मूल्यों की शिक्षा
स्कूलों और कॉलेजों में नैतिक शिक्षा देकर युवाओं को ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का महत्व समझाया जा सकता है।

निष्कर्ष
भ्रष्टाचार एक गंभीर समस्या है, जो देश के विकास, न्याय व्यवस्था और सामाजिक समरसता को प्रभावित करता है। इसे रोकने के लिए सरकार, समाज और आम नागरिकों को मिलकर प्रयास करने होंगे। कठोर कानून, पारदर्शिता, डिजिटल प्रशासन और नैतिक शिक्षा के माध्यम से भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है। यदि हर नागरिक ईमानदारी और जागरूकता के साथ कार्य करे, तो समाज को भ्रष्टाचार मुक्त बनाया जा सकता है।




प्रश्न 15 भ्रष्टाचार रोकने के उपाय बताइए।

भ्रष्टाचार रोकने के उपाय
भ्रष्टाचार किसी भी देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को कमजोर करता है। इसे रोकने के लिए सरकार, समाज और नागरिकों को मिलकर कार्य करना होगा। नीचे कुछ प्रभावी उपाय दिए गए हैं जो भ्रष्टाचार को रोकने में सहायक हो सकते हैं।

1. कठोर कानून और सख्त दंड
भ्रष्टाचार को रोकने के लिए प्रभावी और कठोर कानून बनाए जाने चाहिए। यदि कोई व्यक्ति या अधिकारी भ्रष्टाचार करता है, तो उसे सख्त सजा दी जानी चाहिए। भारत में पहले से ही कई कानून मौजूद हैं, जैसे—

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013
भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 171B और 171E
लेकिन इन कानूनों को सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है।

2. पारदर्शिता और जवाबदेही
सरकारी और निजी क्षेत्रों में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना आवश्यक है।

सूचना का अधिकार (RTI) कानून का प्रभावी उपयोग किया जाना चाहिए।
सभी सरकारी खर्चों और योजनाओं का सार्वजनिक रजिस्टर बनाकर आम जनता को जानकारी दी जानी चाहिए।
ऑनलाइन पोर्टल और डिजिटल सिस्टम अपनाने से भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है।
3. डिजिटल प्रशासन और ई-गवर्नेंस
डिजिटल तकनीक के माध्यम से सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है।

डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT): सरकारी सब्सिडी और लाभ सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में भेजने से बिचौलियों की भूमिका समाप्त हो जाती है।
ऑनलाइन टेंडरिंग सिस्टम: सरकारी परियोजनाओं के ठेके ऑनलाइन प्रक्रिया के माध्यम से दिए जाएं ताकि कोई पक्षपात न हो।
कैशलेस लेन-देन: डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने से घूसखोरी और काले धन की समस्या कम हो सकती है।
4. स्वतंत्र और प्रभावी न्याय प्रणाली
यदि न्याय प्रणाली भ्रष्टाचार मुक्त और निष्पक्ष होगी, तो दोषियों को जल्दी सजा मिलेगी। इसके लिए—

न्यायालयों में भ्रष्टाचार मामलों की सुनवाई के लिए विशेष तेज़-तर्रार अदालतें बनाई जानी चाहिए।
जजों और न्यायाधीशों की जवाबदेही तय होनी चाहिए।
5. स्वतंत्र मीडिया और जांच एजेंसियाँ
मीडिया और भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसियाँ यदि स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से कार्य करें, तो भ्रष्टाचार को उजागर किया जा सकता है।

मीडिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से भ्रष्टाचार से जुड़ी ख़बरों को उजागर करना चाहिए।
सीबीआई, सीवीसी, ईडी जैसी संस्थाओं को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाना चाहिए।
6. नैतिक शिक्षा और जागरूकता अभियान
भ्रष्टाचार को रोकने के लिए समाज में नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देना आवश्यक है।

स्कूल और कॉलेजों में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य किया जाना चाहिए।
सामाजिक जागरूकता अभियान चलाकर लोगों को भ्रष्टाचार के दुष्प्रभावों के बारे में बताया जाना चाहिए।
नागरिकों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया जाए ताकि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा सकें।
7. सरकारी अधिकारियों की कार्यप्रणाली में सुधार
सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति और पदोन्नति में पारदर्शिता होनी चाहिए।

निष्पक्ष भर्ती प्रक्रिया अपनाई जाए ताकि काबिल लोग ही प्रशासन में आएं।
सरकारी कर्मचारियों के प्रदर्शन का नियमित मूल्यांकन किया जाए।
व्हिसल ब्लोअर संरक्षण कानून (Whistleblower Protection Act) को सख्ती से लागू किया जाए ताकि लोग भ्रष्टाचार की शिकायत करने से डरें नहीं।
8. नागरिकों की भागीदारी और जन आंदोलन
यदि आम नागरिक भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट होकर खड़े होंगे, तो इसे समाप्त करना आसान होगा।

भ्रष्टाचार के मामलों की रिपोर्ट करने के लिए हेल्पलाइन और शिकायत पोर्टल बनाए जाएं।
सामाजिक संगठन और एनजीओ भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों को बढ़ावा दें।
नागरिक चुनावों में स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों को ही वोट दें ताकि राजनीति में ईमानदार लोग आएं।
9. भ्रष्टाचार विरोधी संस्थाओं को सशक्त बनाना
भ्रष्टाचार रोकने के लिए कई सरकारी संस्थाएँ कार्यरत हैं, लेकिन उन्हें अधिक शक्तियाँ और संसाधन दिए जाने चाहिए।

लोकपाल और लोकायुक्त को अधिक अधिकार दिए जाएं।
सतर्कता आयोग (CVC) और सीबीआई (CBI) को स्वतंत्र बनाया जाए।
भ्रष्ट अधिकारियों को तुरंत बर्खास्त करने और उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की व्यवस्था हो।
निष्कर्ष
भ्रष्टाचार को रोकना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन यदि सरकार, प्रशासन, मीडिया, न्यायपालिका और आम जनता मिलकर प्रयास करें, तो इसे कम किया जा सकता है। पारदर्शिता, डिजिटल तकनीक, सख्त कानून और नैतिक शिक्षा के माध्यम से भ्रष्टाचार मुक्त समाज की स्थापना संभव है। जब तक हर नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं होगा, तब तक भ्रष्टाचार पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए हमें स्वयं भी ईमानदारी और नैतिकता का पालन करना चाहिए और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना चाहिए।




प्रश्न 16 सामाजिक विचलन क्या है? इसके कारण और विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

सामाजिक विचलन: परिभाषा, कारण और विशेषताएँ
सामाजिक विचलन (Social Deviation) समाज के उन व्यवहारों और क्रियाओं को संदर्भित करता है, जो सामाजिक मानदंडों, मूल्यों और परंपराओं के विरुद्ध होते हैं। यह किसी भी समाज में एक सामान्य प्रक्रिया है, क्योंकि हर व्यक्ति या समूह सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता। सामाजिक विचलन सकारात्मक या नकारात्मक दोनों प्रकार का हो सकता है।

1. सामाजिक विचलन की परिभाषा
सामाजिक विचलन से तात्पर्य उन व्यवहारों, आचरणों या कार्यों से है जो किसी समाज द्वारा स्वीकृत मानकों और अपेक्षाओं से भिन्न होते हैं।

प्रमुख समाजशास्त्रियों द्वारा परिभाषाएँ:
रॉबर्ट किंग मर्टन: "सामाजिक विचलन तब होता है जब किसी व्यक्ति के सामाजिक लक्ष्यों और उन्हें प्राप्त करने के वैध साधनों के बीच असमानता होती है।"
गिलिन और गिलिन: "विचलन वह व्यवहार है जो किसी समाज या समूह द्वारा स्थापित मानदंडों से अलग होता है।"
हॉर्टन और हंट: "सामाजिक विचलन उन क्रियाओं को कहते हैं, जो समाज की सामान्य अपेक्षाओं और मानकों से मेल नहीं खातीं।"
2. सामाजिक विचलन के प्रकार
(i) सकारात्मक विचलन (Positive Deviation)
जब कोई व्यक्ति या समूह समाज में स्वीकृत मानदंडों से अलग हटकर कुछ नया, रचनात्मक या समाज के लिए लाभकारी कार्य करता है, तो इसे सकारात्मक सामाजिक विचलन कहते हैं।
उदाहरण:

समाज सुधारक महात्मा गांधी का अहिंसा आंदोलन।
वैज्ञानिकों द्वारा नई खोज और नवाचार।
(ii) नकारात्मक विचलन (Negative Deviation)
ऐसा विचलन जो समाज के लिए हानिकारक होता है और अपराध, अनैतिकता, हिंसा आदि को बढ़ावा देता है, उसे नकारात्मक सामाजिक विचलन कहते हैं।
उदाहरण:

चोरी, हत्या, नशीली दवाओं का सेवन।
जातिगत भेदभाव और भ्रूण हत्या।
3. सामाजिक विचलन के कारण
सामाजिक विचलन के विभिन्न कारण हो सकते हैं, जो व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक हो सकते हैं।

(i) सामाजिक असमानता (Social Inequality)
जब समाज में आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक असमानता होती है, तो लोग अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनुचित साधनों का उपयोग करते हैं।

(ii) परिवार और शिक्षा का प्रभाव
परिवार और शिक्षा का बड़ा प्रभाव होता है। यदि कोई व्यक्ति बचपन से ही गलत वातावरण में बड़ा होता है, तो उसमें सामाजिक विचलन की प्रवृत्ति बढ़ सकती है।

(iii) आर्थिक समस्याएँ (Economic Problems)
गरीबी, बेरोजगारी और धन की कमी के कारण लोग चोरी, भ्रष्टाचार और अन्य अवैध कार्यों में संलग्न हो सकते हैं।

(iv) आधुनिकता और सामाजिक परिवर्तन
समाज में नए विचारों, तकनीकी विकास और सांस्कृतिक परिवर्तनों के कारण कुछ लोग परंपरागत मान्यताओं का पालन नहीं करते और विचलित आचरण अपनाते हैं।

(v) अनुचित महत्वाकांक्षा (Unrealistic Ambition)
कुछ लोग जल्दी अमीर बनने या प्रसिद्धि पाने के लिए गलत रास्तों का चयन करते हैं, जिससे वे समाज में स्वीकार्य मूल्यों का उल्लंघन करते हैं।

(vi) मनोवैज्ञानिक और जैविक कारण
कुछ व्यक्ति मानसिक रूप से असंतुलित होते हैं या उनके मस्तिष्क में कुछ जैविक दोष होते हैं, जिससे वे सामाजिक नियमों का उल्लंघन करते हैं।

4. सामाजिक विचलन की विशेषताएँ
(i) सामाजिक मानकों से विचलन
सामाजिक विचलन तब होता है जब व्यक्ति या समूह समाज में प्रचलित नियमों, परंपराओं और मानकों का पालन नहीं करता।

(ii) समय और स्थान के अनुसार भिन्नता
विचलन समय और स्थान के अनुसार बदलता रहता है। जो एक समाज में सामान्य हो सकता है, वह दूसरे समाज में विचलन माना जा सकता है।
उदाहरण:

पश्चिमी देशों में लिव-इन रिलेशनशिप सामान्य है, जबकि भारत में इसे सामाजिक विचलन माना जाता है।
(iii) सामाजिक प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है
जब कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक मानकों से अलग व्यवहार करता है, तो समाज की प्रतिक्रिया नकारात्मक या सकारात्मक हो सकती है।

(iv) सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकता है
सामाजिक विचलन हमेशा बुरा नहीं होता, यह सकारात्मक भी हो सकता है।

(v) समाज के विकास में योगदान
कई बार सामाजिक विचलन से समाज में सुधार और परिवर्तन होते हैं। उदाहरण के लिए, राजा राम मोहन राय के प्रयासों से सती प्रथा का अंत हुआ।

(vi) सामाजिक नियंत्रण की आवश्यकता
सामाजिक विचलन को नियंत्रित करने के लिए कानून, नैतिकता, धर्म और सामाजिक परंपराओं का उपयोग किया जाता है।

निष्कर्ष
सामाजिक विचलन समाज का एक स्वाभाविक हिस्सा है, लेकिन इसे सही दिशा में मोड़ना आवश्यक है। यदि विचलन सकारात्मक हो, तो यह समाज में सुधार और प्रगति लाने में मदद कर सकता है। लेकिन यदि यह नकारात्मक हो, तो इसे रोकने के लिए सामाजिक नियंत्रण के प्रभावी उपाय अपनाने की आवश्यकता होती है। समाज को संतुलित और संगठित बनाए रखने के लिए नैतिक शिक्षा, रोजगार के अवसर और कानूनी व्यवस्था को मजबूत करना आवश्यक है।




प्रश्न 16 श्वेतावसन अपराध से आप क्या समझते है?

श्वेतावसन अपराध (White-Collar Crime): परिभाषा, प्रकार और प्रभाव
1. श्वेतावसन अपराध की परिभाषा
श्वेतावसन अपराध (White-Collar Crime) उन अपराधों को कहा जाता है, जो उच्च पदों पर बैठे प्रतिष्ठित और शिक्षित व्यक्तियों द्वारा किए जाते हैं। ये अपराध आमतौर पर धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, वित्तीय हेरफेर और व्यापारिक अनियमितताओं से जुड़े होते हैं।

परिभाषाएँ:
एडविन सutherland (Edwin Sutherland):
"श्वेतावसन अपराध वे गैर-हिंसक अपराध होते हैं, जो व्यवसायिक और पेशेवर व्यक्तियों द्वारा अपने आधिकारिक पद का दुरुपयोग करके किए जाते हैं।"

Friedrichs के अनुसार:
"ऐसे अपराध जो कानूनी नियमों का उल्लंघन करते हैं, लेकिन बिना किसी हिंसा के संपत्ति, धन, या प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाते हैं, श्वेतावसन अपराध कहलाते हैं।"

मुख्य विशेषताएँ:
उच्च पदस्थ लोगों द्वारा किया जाता है।
गैर-हिंसक अपराध होते हैं।
वित्तीय या व्यावसायिक लाभ के लिए किए जाते हैं।
संगठित और योजनाबद्ध होते हैं।
कानूनी प्रक्रियाओं से बचने के लिए प्रभावशाली तरीकों का उपयोग किया जाता है।
2. श्वेतावसन अपराध के प्रकार
(i) वित्तीय धोखाधड़ी (Financial Fraud)
बैंक घोटाले, शेयर बाजार में हेरफेर, बीमा धोखाधड़ी आदि।
उदाहरण: विजय माल्या और नीरव मोदी द्वारा किए गए बैंक घोटाले।
(ii) कर चोरी (Tax Evasion)
उच्च आय वाले व्यक्तियों या कंपनियों द्वारा कर भुगतान से बचने के लिए झूठी जानकारी देना।
उदाहरण: फर्जी कंपनियों के माध्यम से टैक्स बचाने की कोशिश।
(iii) भ्रष्टाचार (Corruption)
रिश्वतखोरी, सरकारी अधिकारियों द्वारा पद का दुरुपयोग, राजनीतिक घोटाले।
उदाहरण: 2G स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला।
(iv) साइबर अपराध (Cyber Crime)
ऑनलाइन बैंकिंग धोखाधड़ी, डेटा चोरी, हैकिंग, फिशिंग।
(v) चिकित्सा अपराध (Medical Crimes)
डॉक्टरों द्वारा नकली दवाएँ बेचना, झूठे मेडिकल बिल बनाना।
(vi) कॉर्पोरेट अपराध (Corporate Crimes)
बड़ी कंपनियों द्वारा पर्यावरण नियमों का उल्लंघन, मिलावटी उत्पाद बेचना।
3. श्वेतावसन अपराध के प्रभाव
(i) आर्थिक नुकसान
बैंकिंग और वित्तीय धोखाधड़ी से देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होता है।
(ii) सामाजिक असमानता
भ्रष्टाचार और कर चोरी से गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ती है।
(iii) विश्वास की हानि
सरकार, न्याय प्रणाली और वित्तीय संस्थानों पर जनता का विश्वास कमजोर हो जाता है।
(iv) कानूनी और प्रशासनिक कमजोरी
अगर अपराधियों को सजा नहीं मिलती, तो यह अन्य लोगों को भी अपराध करने के लिए प्रेरित करता है।
4. श्वेतावसन अपराध रोकने के उपाय
(i) कठोर कानून और सजा
आर्थिक अपराधियों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए।
(ii) पारदर्शिता और जवाबदेही
सरकारी और वित्तीय संस्थानों में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए सख्त नियम लागू किए जाने चाहिए।
(iii) डिजिटल निगरानी
बैंकिंग और वित्तीय लेन-देन पर डिजिटल निगरानी बढ़ाई जाए।
(iv) जन-जागरूकता
जनता को साइबर अपराधों, वित्तीय धोखाधड़ी और कर चोरी के दुष्प्रभावों के बारे में जागरूक किया जाए।
निष्कर्ष
श्वेतावसन अपराध एक गंभीर समस्या है, जो समाज और अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुँचाती है। इसे रोकने के लिए सरकार, न्यायपालिका और जनता को मिलकर सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है। डिजिटल सुरक्षा, पारदर्शिता और सख्त कानूनों के माध्यम से इन अपराधों को नियंत्रित किया जा सकता है।


प्रश्न 17 बाल अपराध क्या है। इसके प्रकार और विशेषताएं बताइए।

बाल अपराध: परिभाषा, प्रकार और विशेषताएँ
परिचय
बाल अपराध (Juvenile Delinquency) समाज में एक गंभीर समस्या है, जो किशोरों और बच्चों द्वारा किए गए अवैध एवं अनैतिक कार्यों को संदर्भित करता है। जब कोई बच्चा या किशोर कानून के विरुद्ध कार्य करता है, तो उसे बाल अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। यह समस्या केवल कानूनी नहीं बल्कि सामाजिक, पारिवारिक, और नैतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

बाल अपराध की परिभाषा
बाल अपराध से तात्पर्य उन अपराधों से है, जो 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों द्वारा किए जाते हैं। भारत में ‘बाल न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015’ के अनुसार, 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को ‘बालक’ माना जाता है। यदि कोई बालक कानून का उल्लंघन करता है, तो उसे वयस्क अपराधी के रूप में नहीं देखा जाता, बल्कि सुधार और पुनर्वास की दृष्टि से देखा जाता है।

बाल अपराध के प्रकार
बाल अपराध विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं, जो उनके स्वभाव, कारणों और प्रभावों के आधार पर विभाजित किए जा सकते हैं:

1. व्यक्तिगत अपराध (Personal Crimes)
इन अपराधों में हिंसा, आक्रमण, हत्या, मारपीट और चोट पहुंचाना शामिल होता है। ये अपराध आमतौर पर गुस्से, बदले या व्यक्तिगत संघर्ष के कारण किए जाते हैं।

2. संपत्ति से संबंधित अपराध (Property Crimes)
इस श्रेणी में चोरी, डकैती, तोड़फोड़, वाहन चोरी आदि आते हैं। ये अपराध आमतौर पर आर्थिक जरूरतों, लालच या किसी दबाव के कारण किए जाते हैं।

3. समाज-विरोधी अपराध (Social Crimes)
इन अपराधों में नशे का सेवन, जुआ, अश्लीलता फैलाना, समाज में अशांति पैदा करना आदि शामिल होते हैं।

4. साइबर अपराध (Cyber Crimes)
आज के डिजिटल युग में, बाल अपराधी भी साइबर अपराध जैसे हैकिंग, साइबर ठगी, साइबर बुलिंग आदि में संलग्न हो रहे हैं।

5. संगठित अपराध (Organized Crimes)
कुछ मामलों में बच्चे संगठित अपराध जैसे कि मादक पदार्थों की तस्करी, मानव तस्करी, गिरोहबाजी आदि में शामिल हो जाते हैं।

बाल अपराध की विशेषताएँ
किशोरावस्था में अस्थिर मानसिकता
बाल अपराधी आमतौर पर मानसिक और भावनात्मक अस्थिरता से ग्रस्त होते हैं। उनकी सोच और निर्णय लेने की क्षमता पूर्ण रूप से विकसित नहीं होती, जिससे वे गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं।

आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि का प्रभाव
गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा की कमी, परिवारिक हिंसा, और खराब संगति बच्चों को अपराध की ओर धकेल सकती है।

शिक्षा और नैतिकता की कमी
नैतिक मूल्यों की कमी और अनुचित शिक्षा भी बाल अपराध का एक प्रमुख कारण है।

मीडिया और इंटरनेट का प्रभाव
हिंसक फिल्मों, वीडियो गेम्स और सोशल मीडिया पर गलत कंटेंट देखने से भी बच्चे अपराध की ओर आकर्षित हो सकते हैं।

कानूनी दंड का अलग प्रावधान
बाल अपराधियों के लिए सख्त दंड की बजाय सुधारात्मक उपाय किए जाते हैं, ताकि वे समाज में पुनः सही रूप से शामिल हो सकें।

प्रभावित मनोवैज्ञानिक विकास
अपराध में लिप्त होने के कारण बच्चों का मानसिक विकास बाधित होता है, जिससे वे भविष्य में और अधिक जटिल समस्याओं में फंस सकते हैं।

पुनर्वास और सुधार की आवश्यकता
बाल अपराधियों को कठोर दंड देने की बजाय सुधार गृहों और पुनर्वास केंद्रों में भेजा जाता है, ताकि उन्हें सही दिशा में आगे बढ़ने का अवसर मिल सके।

निष्कर्ष
बाल अपराध एक गंभीर सामाजिक समस्या है, जिसे केवल कानूनी दंड से नहीं बल्कि सामाजिक, पारिवारिक और नैतिक शिक्षा के माध्यम से रोका जा सकता है। बच्चों में नैतिक मूल्यों का विकास, शिक्षा का प्रसार, और उचित मार्गदर्शन देकर इस समस्या को कम किया जा सकता है। सरकार, समाज और परिवार को मिलकर बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए कार्य करना चाहिए, ताकि वे अपराध की दुनिया में जाने के बजाय एक सफल और सकारात्मक जीवन जी सकें।






प्रश्न 18 मद्यपान किसे कहते हैं इसके प्रमुख कारण बताइए। 

मद्यपान: परिभाषा और प्रमुख कारण
परिचय
मद्यपान (Alcohol Consumption) आज समाज में एक व्यापक समस्या बन चुकी है। यह केवल एक व्यक्तिगत आदत नहीं है, बल्कि सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी कई गंभीर समस्याओं को जन्म देता है। मद्यपान व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है और कई बार यह अपराध एवं सामाजिक कुप्रथाओं का कारण भी बन जाता है।

मद्यपान की परिभाषा
मद्यपान का अर्थ है शराब या अन्य नशीले पेय पदार्थों का सेवन करना। जब कोई व्यक्ति नियमित रूप से या अत्यधिक मात्रा में शराब का सेवन करता है, तो इसे मद्यपान कहा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, शराब का अत्यधिक सेवन शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

मद्यपान के प्रमुख कारण
मद्यपान के कई कारण हो सकते हैं, जो व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं से जुड़े होते हैं।

1. व्यक्तिगत कारण
तनाव और मानसिक दबाव – लोग अक्सर तनाव, चिंता, अवसाद या निराशा से बचने के लिए शराब का सेवन करने लगते हैं।
आनंद और उत्साह की तलाश – कुछ लोग मनोरंजन, मस्ती और रोमांच के लिए शराब पीना शुरू करते हैं।
आदत और लत – बार-बार शराब पीने से यह एक लत बन जाती है, जिससे व्यक्ति इसे छोड़ नहीं पाता।
स्वास्थ्य और नींद संबंधी समस्याएँ – कुछ लोग अनिद्रा, सिरदर्द या अन्य बीमारियों से राहत पाने के लिए शराब का सहारा लेते हैं।
2. पारिवारिक और सामाजिक कारण
पारिवारिक प्रभाव – अगर परिवार के सदस्य शराब पीते हैं, तो बच्चों और युवा पीढ़ी पर इसका प्रभाव पड़ सकता है।
संगति और दबाव – दोस्तों या सहकर्मियों के दबाव में आकर लोग शराब का सेवन शुरू कर देते हैं।
संस्कृति और परंपरा – कुछ समाजों में शराब पीना सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा होता है, जिससे लोग इसे अपनाने लगते हैं।
उत्सव और समारोह – शादी, पार्टी और अन्य सामाजिक समारोहों में शराब पीना एक सामान्य प्रथा बन गई है।
3. आर्थिक और व्यावसायिक कारण
विज्ञापन और मार्केटिंग – शराब कंपनियों द्वारा किए गए आकर्षक विज्ञापन युवाओं को इसकी ओर आकर्षित करते हैं।
आसान उपलब्धता – शराब की आसान उपलब्धता भी इसके बढ़ते सेवन का एक बड़ा कारण है।
बढ़ती क्रय शक्ति – लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार होने से वे महंगी शराब खरीदने में सक्षम हो जाते हैं।
4. जैविक और मनोवैज्ञानिक कारण
आनुवंशिकता (Genetic Factors) – अगर परिवार में पहले से किसी को शराब की लत है, तो अगली पीढ़ी में भी इसकी संभावना बढ़ जाती है।
मनोवैज्ञानिक कमजोरी – आत्मविश्वास की कमी, नकारात्मक सोच और निराशा की स्थिति में व्यक्ति शराब का सहारा ले सकता है।
एंजाइटी और डिप्रेशन – मानसिक तनाव और अवसाद से पीड़ित लोग शराब को त्वरित राहत का माध्यम मानते हैं।
निष्कर्ष
मद्यपान केवल एक व्यक्तिगत समस्या नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी गंभीर मुद्दा है। इसके प्रमुख कारणों को समझकर हम इसे रोकने के लिए प्रभावी कदम उठा सकते हैं। लोगों में जागरूकता फैलाना, परिवार और समाज का सहयोग देना, और सरकार द्वारा शराब की बिक्री और प्रचार पर नियंत्रण करना आवश्यक है, ताकि एक स्वस्थ और सभ्य समाज का निर्माण किया जा सके।


प्रश्न 19मद्यपान के दुष्परिणाम एवं समस्याओं की विवेचना कीजिए 

मद्यपान के दुष्परिणाम एवं समस्याओं की विवेचना
परिचय
मद्यपान केवल एक व्यक्तिगत आदत नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक, स्वास्थ्य और नैतिक समस्याओं को जन्म देने वाला एक गंभीर मुद्दा है। शराब का अत्यधिक सेवन व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक क्षमताओं को प्रभावित करता है और उसे विभिन्न सामाजिक बुराइयों में धकेल सकता है।

मद्यपान के दुष्परिणाम एवं समस्याएँ
मद्यपान के दुष्परिणामों को चार प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:

1. स्वास्थ्य संबंधी दुष्परिणाम
(क) शारीरिक प्रभाव
यकृत (लीवर) पर प्रभाव – अत्यधिक शराब पीने से लीवर सिरोसिस, हेपेटाइटिस और फैटी लीवर जैसी गंभीर बीमारियाँ हो सकती हैं।
हृदय रोग – शराब उच्च रक्तचाप, हृदयघात और हृदय संबंधी अन्य बीमारियों का कारण बन सकती है।
पाचन तंत्र पर प्रभाव – शराब का सेवन गैस्ट्रिक अल्सर, एसिडिटी और आंतों की सूजन जैसी समस्याओं को जन्म देता है।
कैंसर का खतरा – शराब पीने से मुँह, गले, पेट और लिवर कैंसर की संभावना बढ़ जाती है।
प्रतिरोधक क्षमता में कमी – शराब शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर कर देती है, जिससे व्यक्ति जल्दी बीमार पड़ता है।
(ख) मानसिक प्रभाव
मस्तिष्क पर प्रभाव – शराब के कारण स्मरण शक्ति कमजोर हो सकती है और निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है।
मनोवैज्ञानिक विकार – अवसाद, चिंता, अनिद्रा और व्यक्तित्व विकार जैसी मानसिक समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
मदहोशी और असंतुलन – शराब का अत्यधिक सेवन करने से व्यक्ति का संतुलन और होश गड़बड़ा जाता है, जिससे दुर्घटनाएँ हो सकती हैं।
2. सामाजिक दुष्परिणाम
घरेलू हिंसा – शराबी व्यक्ति अक्सर अपने परिवार के सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार करता है, जिससे घरेलू हिंसा बढ़ती है।
अपराध में वृद्धि – मद्यपान के कारण लूटपाट, हत्या, बलात्कार, छेड़खानी और अन्य अपराधों की घटनाएँ बढ़ जाती हैं।
सड़क दुर्घटनाएँ – शराब के नशे में वाहन चलाने से सड़क दुर्घटनाओं की संभावना बढ़ जाती है, जिससे कई लोगों की जान चली जाती है।
पारिवारिक विघटन – मद्यपान के कारण परिवार में कलह, अलगाव और संबंधों में कड़वाहट बढ़ जाती है, जिससे तलाक और पारिवारिक विघटन जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
कार्यस्थल पर समस्याएँ – शराब के आदी व्यक्ति की कार्यक्षमता कम हो जाती है, जिससे उसकी नौकरी पर संकट आ सकता है।
3. आर्थिक दुष्परिणाम
आर्थिक हानि – शराब पर अधिक खर्च करने से व्यक्ति की आर्थिक स्थिति खराब हो जाती है और वह कर्ज में डूब सकता है।
परिवार की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव – शराब की लत के कारण व्यक्ति अपने परिवार की आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं देता, जिससे परिवार आर्थिक संकट में आ सकता है।
राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव – शराब के कारण कार्य उत्पादकता में कमी आती है और स्वास्थ्य समस्याओं पर सरकारी खर्च बढ़ जाता है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
4. नैतिक एवं कानूनी समस्याएँ
नैतिक पतन – मद्यपान व्यक्ति को नैतिक रूप से कमजोर बना देता है और वह समाज में अस्वीकार्य आचरण करने लगता है।
कानूनी मामलों में फँसना – शराब पीकर अपराध करने वाले लोगों को जेल जाना पड़ सकता है और वे कानूनी परेशानियों में फँस सकते हैं।
युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव – युवा वर्ग शराब की लत में फँसकर अपना भविष्य बर्बाद कर सकता है और समाज में गलत दिशा में आगे बढ़ सकता है।
निष्कर्ष
मद्यपान के दुष्परिणाम केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहते, बल्कि यह पूरे समाज को प्रभावित करता है। स्वास्थ्य, समाज, अर्थव्यवस्था और नैतिकता पर इसके गंभीर प्रभाव पड़ते हैं। इसलिए, समाज में मद्यपान को हतोत्साहित करने के लिए जागरूकता अभियान चलाने, कड़े कानून लागू करने और नशामुक्ति केंद्रों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है। यदि हम इस समस्या को गंभीरता से लें, तो एक स्वस्थ और सशक्त समाज का निर्माण किया जा सकता है।




प्रश्न 20 मद्यसारिक किसे कहते हैं? इसका उपचार और नियंत्रण पर सुझाव दीजिए।

मद्यसारिक: परिभाषा, उपचार और नियंत्रण के सुझाव
परिचय
मद्यपान जब एक आदत से बढ़कर लत (Addiction) बन जाता है, तो इसे मद्यसारिता (Alcoholism) कहा जाता है। मद्यसारिक (Alcoholic) वह व्यक्ति होता है, जो अत्यधिक मात्रा में और नियमित रूप से शराब पीता है, जिससे उसका शारीरिक, मानसिक और सामाजिक जीवन प्रभावित होता है। मद्यसारिता न केवल व्यक्ति की सेहत को नुकसान पहुँचाती है, बल्कि उसके परिवार, समाज और कार्यक्षेत्र को भी प्रभावित करती है।

मद्यसारिक की परिभाषा
मद्यसारिक वह व्यक्ति होता है, जो शराब के बिना नहीं रह सकता और यदि वह शराब नहीं पीता, तो उसे गंभीर मानसिक एवं शारीरिक समस्याएँ होने लगती हैं। यह एक प्रकार की नशे की लत है, जो धीरे-धीरे व्यक्ति के जीवन को नष्ट कर देती है।

मद्यसारिता के लक्षण
शराब पर अत्यधिक निर्भरता – व्यक्ति बिना शराब के सामान्य रूप से कार्य नहीं कर पाता।
शारीरिक लक्षण – थरथराहट, पसीना आना, बेचैनी और हृदय गति का तेज होना।
व्यवहार में परिवर्तन – गुस्सा, चिड़चिड़ापन, अवसाद और सामाजिक दूरी।
स्वास्थ्य पर प्रभाव – लीवर खराब होना, हृदय रोग, पाचन तंत्र की समस्याएँ और मानसिक अस्थिरता।
आर्थिक और पारिवारिक समस्याएँ – धन की बर्बादी, घरेलू हिंसा और परिवार से दूर होना।
मद्यसारिकता का उपचार
मद्यसारिता एक गंभीर बीमारी की तरह होती है, जिसका उचित उपचार आवश्यक है। इसके लिए निम्नलिखित उपचार किए जा सकते हैं:

1. चिकित्सीय उपचार (Medical Treatment)
डिटॉक्सिफिकेशन (Detoxification) – यह पहला चरण होता है, जिसमें व्यक्ति के शरीर से शराब के विषाक्त तत्वों को निकालने के लिए दवाएँ दी जाती हैं।
मेडिकल थेरेपी – डॉक्टर की देखरेख में व्यक्ति को ऐसी दवाइयाँ दी जाती हैं, जो शराब पीने की इच्छा को कम करती हैं।
मनोचिकित्सा (Psychotherapy) – व्यक्ति को मानसिक रूप से मजबूत बनाने के लिए परामर्श (Counseling) और थेरेपी दी जाती है।
2. नशामुक्ति केंद्रों (Rehabilitation Centers) में उपचार
नशामुक्ति केंद्रों में व्यक्ति को शराब से दूर रखने के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जाते हैं।
यहाँ पर योग, ध्यान (Meditation) और परामर्श के माध्यम से व्यक्ति को मानसिक रूप से मजबूत बनाया जाता है।
समूह चिकित्सा (Group Therapy) के माध्यम से अन्य लोगों के अनुभवों से सीखने का मौका मिलता है।
3. मानसिक एवं व्यवहारिक उपचार
संज्ञानात्मक-व्यवहारिक चिकित्सा (Cognitive Behavioral Therapy - CBT) – यह चिकित्सा पद्धति व्यक्ति की सोच और व्यवहार को सकारात्मक दिशा में मोड़ने में मदद करती है।
मनोवैज्ञानिक परामर्श (Psychological Counseling) – व्यक्ति को शराब छोड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया जाता है।
मद्यसारिता के नियंत्रण के सुझाव
मद्यसारिता को रोकने और नियंत्रित करने के लिए व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर प्रयास किए जा सकते हैं:

1. व्यक्तिगत प्रयास
शराब की आदत को छोड़ने का संकल्प लेना।
तनाव और मानसिक दबाव से निपटने के लिए योग, ध्यान और व्यायाम करना।
अच्छे और सकारात्मक माहौल में रहना, जो नशे से दूर रखे।
समय का सदुपयोग करना और नशे से दूर रखने वाले कार्यों में व्यस्त रहना।
2. पारिवारिक और सामाजिक प्रयास
परिवार के सदस्यों को मद्यसारिक व्यक्ति का समर्थन और प्रोत्साहन देना चाहिए।
समाज में नशामुक्ति अभियान चलाकर लोगों को इसके दुष्परिणामों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए।
शिक्षा प्रणाली में नशे के खिलाफ जागरूकता कार्यक्रम जोड़े जाने चाहिए।
3. सरकारी और कानूनी प्रयास
सरकार को शराब की बिक्री और विज्ञापन पर सख्ती से नियंत्रण रखना चाहिए।
शराब की उपलब्धता को सीमित करने के लिए नीतियाँ बनानी चाहिए।
नशामुक्ति केंद्रों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए और इनका प्रचार किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
मद्यसारिता एक गंभीर सामाजिक समस्या है, जिसे व्यक्तिगत, पारिवारिक और सरकारी स्तर पर प्रयास करके रोका जा सकता है। उपचार और निवारक उपायों को अपनाकर मद्यसारिक व्यक्ति को पुनः सामान्य जीवन में लाया जा सकता है। समाज में नशामुक्त वातावरण बनाना आवश्यक है, ताकि भावी पीढ़ी इस लत से दूर रह सके और एक स्वस्थ जीवन जी सके।




प्रश्न 21 भिक्षावृत्ति भारत में एक आर्थिक और सामाजिक समस्या है। इस कथन की पुष्टि करें।

भिक्षावृत्ति: भारत में एक आर्थिक और सामाजिक समस्या
परिचय
भिक्षावृत्ति भारत में एक गंभीर सामाजिक और आर्थिक समस्या है, जो गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा की कमी और सामाजिक असमानता जैसी कई समस्याओं से जुड़ी हुई है। यह न केवल व्यक्ति के आत्मसम्मान को नुकसान पहुँचाती है, बल्कि देश के आर्थिक विकास में भी बाधा डालती है। भिक्षावृत्ति की समस्या केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक और आर्थिक संकट का परिणाम है।

भिक्षावृत्ति: एक आर्थिक समस्या
भिक्षावृत्ति देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। इसके प्रमुख आर्थिक प्रभाव निम्नलिखित हैं:

1. राष्ट्रीय उत्पादकता में कमी
भिक्षावृत्ति के कारण बड़ी संख्या में लोग श्रम शक्ति का हिस्सा नहीं बन पाते, जिससे देश की उत्पादकता प्रभावित होती है।
काम करने की उम्र के लोग भी भीख माँगने में लगे रहते हैं, जिससे उनकी कार्य क्षमता और आत्मनिर्भरता खत्म हो जाती है।
2. सरकारी संसाधनों पर बोझ
सरकार को भिक्षुकों के पुनर्वास और कल्याणकारी योजनाओं के लिए आर्थिक संसाधन खर्च करने पड़ते हैं।
यदि ये लोग रोजगार में लगे होते, तो वे करदाता बन सकते थे, लेकिन भिक्षावृत्ति के कारण वे केवल सहायता पर निर्भर रहते हैं।
3. पर्यटन और व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव
प्रमुख पर्यटन स्थलों पर भिक्षावृत्ति के बढ़ने से देश की छवि खराब होती है, जिससे पर्यटन उद्योग प्रभावित होता है।
भिखारियों के कारण कई क्षेत्रों में अवैध गतिविधियाँ बढ़ती हैं, जिससे व्यापार और उद्योग प्रभावित होते हैं।
4. गरीबी और असमानता को बढ़ावा
भिक्षावृत्ति गरीबी की एक चक्रवृद्धि समस्या को जन्म देती है, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ती है।
कई बार, यह अवैध गिरोहों द्वारा संचालित की जाती है, जिससे गरीब लोग और भी कमजोर हो जाते हैं।
भिक्षावृत्ति: एक सामाजिक समस्या
भिक्षावृत्ति केवल आर्थिक नहीं, बल्कि एक सामाजिक समस्या भी है, जो समाज में कई अन्य बुराइयों को जन्म देती है।

1. गरीबी और अशिक्षा का चक्र
भिक्षावृत्ति करने वाले लोग शिक्षा से वंचित रहते हैं, जिससे वे रोजगार के योग्य नहीं बन पाते।
अशिक्षा के कारण यह समस्या पीढ़ी दर पीढ़ी बनी रहती है और इससे बाहर निकलना कठिन हो जाता है।
2. अपराध और असामाजिक गतिविधियों में वृद्धि
कई बार भिखारियों को अवैध गतिविधियों में धकेल दिया जाता है, जैसे कि नशा तस्करी, चोरी और मानव तस्करी।
बच्चों को भीख माँगने के लिए मजबूर किया जाता है और महिलाओं का शोषण किया जाता है।
3. सामाजिक असमानता और भेदभाव
भिक्षावृत्ति समाज में अमीर-गरीब के बीच असमानता को और बढ़ा देती है।
भिखारियों को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है, जिससे वे मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाते।
4. स्वास्थ्य और स्वच्छता की समस्या
भीख माँगने वाले लोग अक्सर गंदी जगहों पर रहते हैं और बुरी तरह अस्वस्थ होते हैं।
कई बीमारियाँ जैसे कि क्षय रोग (टीबी), कुष्ठ रोग, और संक्रमण फैलने का खतरा रहता है।
कुपोषण और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण बच्चों और बुजुर्गों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती है।
भिक्षावृत्ति के उन्मूलन के लिए समाधान
1. शिक्षा और कौशल विकास
भिक्षुकों के लिए शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें।
बाल भिक्षावृत्ति को खत्म करने के लिए अनिवार्य शिक्षा को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।
2. रोजगार और पुनर्वास कार्यक्रम
सरकार को भिक्षावृत्ति उन्मूलन के लिए पुनर्वास केंद्र स्थापित करने चाहिए, जहाँ लोगों को रोजगार के अवसर दिए जाएँ।
गरीबों के लिए स्वरोजगार योजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए।
3. सामाजिक जागरूकता अभियान
लोगों को यह समझाने की जरूरत है कि भीख देने से समस्या हल नहीं होती, बल्कि यह भिक्षावृत्ति को बढ़ावा देती है।
समाज को भिखारियों की मदद करने के अन्य तरीके अपनाने चाहिए, जैसे कि उन्हें आश्रय गृहों और पुनर्वास केंद्रों तक पहुँचाना।
4. कानूनी उपाय और सरकारी पहल
कई राज्यों में भिक्षावृत्ति को अपराध माना गया है, लेकिन इसे प्रभावी रूप से लागू करने की जरूरत है।
सरकार को भिक्षावृत्ति रैकेट को खत्म करने के लिए सख्त कदम उठाने चाहिए।
निष्कर्ष
भिक्षावृत्ति केवल एक व्यक्तिगत समस्या नहीं है, बल्कि यह समाज और देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति के लिए एक गंभीर बाधा है। इसे केवल दान देने से नहीं रोका जा सकता, बल्कि शिक्षा, रोजगार और पुनर्वास के माध्यम से इसका स्थायी समाधान किया जा सकता है। सरकार, समाज और प्रत्येक नागरिक को मिलकर इस समस्या के समाधान के लिए कार्य करना चाहिए, ताकि देश में एक समृद्ध और आत्मनिर्भर समाज का निर्माण किया जा सके।







प्रश्न 22 वेश्यावृत्ति की परिभाषा देते हुए इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।

परिचय
वेश्यावृत्ति (Prostitution) एक सामाजिक बुराई और नैतिक रूप से संवेदनशील विषय है, जो कई सामाजिक, आर्थिक और कानूनी पहलुओं से जुड़ा हुआ है। यह एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें कोई व्यक्ति, विशेष रूप से महिलाएँ, धन या किसी अन्य लाभ के बदले में यौन सेवाएँ प्रदान करती हैं। विभिन्न देशों में वेश्यावृत्ति को लेकर अलग-अलग कानूनी प्रावधान हैं—कुछ देशों में इसे वैध माना जाता है, जबकि अन्य में यह गैरकानूनी है।

वेश्यावृत्ति की परिभाषा
"वेश्यावृत्ति वह क्रिया है, जिसमें कोई व्यक्ति (मुख्यतः महिला) धन, उपहार, सुरक्षा या किसी अन्य लाभ के बदले में यौन सेवाएँ प्रदान करता है।"

संयुक्त राष्ट्र (UN) और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के अनुसार, जबरन वेश्यावृत्ति (Forced Prostitution) और मानव तस्करी (Human Trafficking) को गंभीर अपराध माना जाता है।

वेश्यावृत्ति के प्रकार
वेश्यावृत्ति कई प्रकार की होती है, जो स्थान, परिस्थितियों और कार्यप्रणाली के आधार पर विभाजित की जा सकती है।

1. संगठित वेश्यावृत्ति (Organized Prostitution)
इस प्रकार की वेश्यावृत्ति संगठित समूहों, गिरोहों या माफियाओं द्वारा संचालित की जाती है। इसमें महिलाओं को जबरन इस व्यवसाय में धकेला जाता है।
उदाहरण:

वेश्यालयों (Brothels) में कार्यरत महिलाएँ
रेड-लाइट एरिया में रहने वाली वेश्याएँ
2. सड़क वेश्यावृत्ति (Street Prostitution)
इस प्रकार की वेश्यावृत्ति सड़क किनारे या सार्वजनिक स्थानों पर होती है।
इसमें महिलाएँ, पुरुष या ट्रांसजेंडर लोग शामिल हो सकते हैं।
इसे समाज में सबसे असुरक्षित और निम्न स्तर की वेश्यावृत्ति माना जाता है, क्योंकि इसमें हिंसा और शोषण की संभावना अधिक होती है।
3. स्वतंत्र वेश्यावृत्ति (Independent Prostitution)
इसमें महिलाएँ या पुरुष किसी गिरोह या दलाल की मदद के बिना स्वयं इस कार्य को करते हैं।
इंटरनेट, सोशल मीडिया और एस्कॉर्ट सर्विस के माध्यम से ग्राहक ढूँढे जाते हैं।
इस प्रकार की वेश्यावृत्ति मुख्यतः उच्च वर्ग और आर्थिक रूप से स्वतंत्र लोगों के बीच अधिक प्रचलित है।
4. एस्कॉर्ट सर्विस (Escort Services)
इसमें महिलाएँ या पुरुष धनिक वर्ग के ग्राहकों को व्यक्तिगत रूप से सेवाएँ प्रदान करते हैं।
यह सेवा ऑनलाइन वेबसाइटों, एजेंसियों या सोशल मीडिया के माध्यम से संचालित होती है।
इसमें सुरक्षा और गोपनीयता अधिक होती है, लेकिन यह भी वेश्यावृत्ति का ही एक प्रकार है।
5. जबरन वेश्यावृत्ति (Forced Prostitution)
इसमें महिलाओं, बच्चों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को मानव तस्करी (Human Trafficking) के माध्यम से इस व्यवसाय में धकेला जाता है।
यह वेश्यावृत्ति का सबसे क्रूर और अमानवीय रूप है, जिसमें शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता है।
6. नृत्य एवं मनोरंजन उद्योग से जुड़ी वेश्यावृत्ति (Entertainment Industry-Based Prostitution)
कुछ स्थानों पर नाइट क्लब, बार, मसाज पार्लर और स्पा सेंटरों के नाम पर वेश्यावृत्ति करवाई जाती है।
इसमें महिलाएँ या पुरुष ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए नृत्य या अन्य मनोरंजन सेवाएँ प्रदान करते हैं और फिर उन्हें यौन सेवाएँ भी दी जाती हैं।
7. देवदासी प्रथा और धार्मिक वेश्यावृत्ति
यह भारत के कुछ हिस्सों में प्राचीन समय से प्रचलित रही है, जिसमें लड़कियों को धार्मिक स्थलों से जोड़कर उनकी स्वतंत्रता छीन ली जाती थी।
देवदासी प्रथा में लड़कियों को मंदिरों में समर्पित कर दिया जाता था।

आत्महत्या (Suicide) एक गंभीर मानसिक, सामाजिक और नैतिक समस्या है, जिसमें कोई व्यक्ति अपनी इच्छा से अपना जीवन समाप्त कर लेता है। यह समस्या केवल व्यक्तिगत नहीं होती, बल्कि परिवार, समाज और राष्ट्र को भी प्रभावित करती है। आत्महत्या के पीछे मानसिक तनाव, अवसाद, सामाजिक दबाव, आर्थिक समस्याएँ और अन्य कई कारक हो सकते हैं।

आत्महत्या का अर्थ
आत्महत्या दो शब्दों से मिलकर बनी है – "आत्म" (स्वयं) और "हत्या" (मारना)। इसका शाब्दिक अर्थ है "स्वयं को मारना", अर्थात जब कोई व्यक्ति जानबूझकर अपने जीवन का अंत करता है, तो उसे आत्महत्या कहा जाता है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को अक्सर मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ होती हैं, जैसे कि अवसाद (Depression), चिंता विकार (Anxiety Disorders), स्किजोफ्रेनिया (Schizophrenia) और द्विध्रुवीय विकार (Bipolar Disorder)।

आत्महत्या के प्रकार
समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम (Émile Durkheim) ने आत्महत्या को चार प्रमुख प्रकारों में वर्गीकृत किया है। इसके अलावा, आधुनिक मनोविज्ञान में भी आत्महत्या को विभिन्न प्रकारों में बाँटा गया है।

1. आत्मीय आत्महत्या (Egoistic Suicide)
जब कोई व्यक्ति समाज से अलग-थलग महसूस करता है और उसे जीवन में कोई उद्देश्य नहीं दिखता, तो वह आत्महत्या कर सकता है।
यह उन लोगों में अधिक पाई जाती है जो अकेलापन, अवसाद और सामाजिक अस्वीकृति का सामना कर रहे होते हैं।
उदाहरण: बुजुर्गों का अकेलेपन के कारण आत्महत्या करना, युवाओं का समाज से कट जाने पर आत्महत्या करना।
2. परमार्थवादी आत्महत्या (Altruistic Suicide)
जब कोई व्यक्ति अपने परिवार, समाज या धर्म के प्रति अत्यधिक निष्ठावान होता है और उसी के लिए अपने प्राण त्याग देता है, तो इसे परमार्थवादी आत्महत्या कहते हैं।
यह आत्महत्या समाज द्वारा व्यक्ति पर डाले गए दबाव के कारण होती है।
उदाहरण:
देशभक्तों द्वारा आत्मबलिदान (जैसे भगत सिंह का अपने देश के लिए बलिदान)।
सती प्रथा, जहाँ महिलाएँ पति की मृत्यु के बाद स्वयं को अग्नि को समर्पित कर देती थीं।
युद्ध के दौरान सैनिकों का अपने देश के लिए आत्मोत्सर्ग करना।
3. अराजक आत्महत्या (Anomic Suicide)
जब कोई व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक या व्यक्तिगत अस्थिरता के कारण मानसिक तनाव में आकर आत्महत्या करता है, तो इसे अराजक आत्महत्या कहते हैं।
यह तब होती है जब व्यक्ति को जीवन में अचानक बड़ा झटका लगता है, जिससे वह मानसिक रूप से अस्थिर हो जाता है।
उदाहरण:
आर्थिक मंदी के कारण व्यापारियों द्वारा आत्महत्या।
नौकरी छूटने या दिवालिया होने पर आत्महत्या।
अचानक सामाजिक प्रतिष्ठा गिरने पर आत्महत्या करना।
4. घातक आत्महत्या (Fatalistic Suicide)
जब व्यक्ति पर अत्यधिक सामाजिक, पारिवारिक या कानूनी प्रतिबंध होते हैं और उसे लगता है कि उसका जीवन पूरी तरह नियंत्रण में है, तो वह आत्महत्या कर सकता है।
यह तब होता है जब व्यक्ति को अपने जीवन में कोई आशा नहीं दिखती और उसे लगता है कि उसकी स्थिति कभी नहीं बदलेगी।
उदाहरण:
कैदियों द्वारा जेल में आत्महत्या।
बाल-विवाह या जबरन विवाह से तंग आकर महिलाओं द्वारा आत्महत्या।
आधुनिक मनोविज्ञान के आधार पर आत्महत्या के अन्य प्रकार
5. आवेगिक आत्महत्या (Impulsive Suicide)
यह अचानक और बिना अधिक सोच-विचार के की जाने वाली आत्महत्या होती है।
यह आमतौर पर भावनात्मक उत्तेजना, गुस्से या निराशा में उठाया गया कदम होता है।
उदाहरण: किसी परीक्षा में असफल होने के तुरंत बाद आत्महत्या करना।
6. योजनाबद्ध आत्महत्या (Planned Suicide)
इसमें व्यक्ति लंबे समय तक आत्महत्या की योजना बनाता है और इसे सोच-समझकर अंजाम देता है।
इसमें व्यक्ति अपने पत्र, वसीयत आदि पहले से तैयार कर लेता है।
यह अक्सर गंभीर मानसिक बीमारियों से ग्रसित लोगों में पाई जाती है।
7. विस्तारवादी आत्महत्या (Murder-Suicide)
इसमें व्यक्ति आत्महत्या करने से पहले अन्य लोगों की भी हत्या कर देता है।
यह अक्सर उन मामलों में होता है जहाँ व्यक्ति को लगता है कि उसके साथ अन्य लोगों को भी मरना चाहिए।
उदाहरण: घरेलू हिंसा में पति द्वारा पत्नी और बच्चों की हत्या करने के बाद आत्महत्या करना।
8. असिस्टेड (सहायता प्राप्त) आत्महत्या (Assisted Suicide)
यह आत्महत्या तब होती है जब कोई व्यक्ति किसी और की मदद से अपनी जान लेता है।
यह आमतौर पर गंभीर रूप से बीमार मरीजों द्वारा की जाती है, जिन्हें असहनीय पीड़ा होती है।
कुछ देशों में "इच्छामृत्यु" (Euthanasia) को कानूनी मान्यता प्राप्त है।
निष्कर्ष
आत्महत्या एक गंभीर सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य समस्या है, जिसे केवल व्यक्तिगत विफलता मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। समाज को आत्महत्या के पीछे के मानसिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों को समझना होगा और इसके समाधान के लिए उचित कदम उठाने होंगे। मानसिक स्वास्थ्य पर जागरूकता बढ़ाकर, सहायता प्रणाली मजबूत करके और आत्महत्या रोकथाम के लिए सही कदम उठाकर इस समस्या को कम किया जा सकता है।