UOU BA 4th Semester BAEC(N)202 के 10 महत्वपूर्ण सॉल्व्ड प्रश्न पार्ट 01

अगर आप उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय (Uttarakhand Open University) के छात्र हैं ,और BA 4th Semester के Economics Subject – BAEC(N)202 मुद्रा बैंकिंग एवं अंतराष्ट्रीय अर्थशास्त्र के Sample Paper, Important Questions या Solved Papers की तलाश कर रहे हैं, तो आप बिल्कुल सही पोस्ट पर आए हैं।

uou-4th-semester-baec(n)202 solved paper 2025


 क्योंकि इस पोस्ट में आपको इस विषय के 11 सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न उपलब्ध कराए जा रहे हैं — वो भी संपूर्ण हल (Solved Answers) के साथ।
यह प्रश्न न केवल परीक्षा दृष्टिकोण से अत्यंत उपयोगी हैं, बल्कि आपकी समझ को भी और मजबूत बनाएंगे।


प्रश्न 1: मुद्रा की परिभाषा दीजिए। वर्तमान में इसके महत्व की विवेचना कीजिए।


🔷 प्रस्तावना

मुद्रा किसी भी आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है। यह न केवल विनिमय का माध्यम है, बल्कि आर्थिक लेन-देन, मूल्य मापन और संचय का प्रमुख उपकरण भी है। समय के साथ मुद्रा के स्वरूप, प्रयोग और महत्व में काफी परिवर्तन आया है। वर्तमान युग में डिजिटल तकनीक ने मुद्रा की परिभाषा और भूमिका को और भी व्यापक बना दिया है।


🔶 मुद्रा की परिभाषा

मुद्रा वह सामान्य रूप से स्वीकृत वस्तु है जिसका
प्रयोग वस्तुओं और सेवाओं के लेन-देन, ऋण चुकाने और मूल्य मापने के लिए किया जाता है।

🔹 पॉल सैमुअलसन के अनुसार:
"मुद्रा वह वस्तु है जिसे समाज सामान्य रूप से भुगतान के माध्यम के रूप में स्वीकार करता है।"

🔹 क्रोथर के अनुसार:
"मुद्रा वह वस्तु है जिसे सामान्य रूप से विनिमय के माध्यम, मूल्य मापन, मूल्य संचय और भविष्य के भुगतान के रूप में स्वीकार किया जाता है।"


🔶 मुद्रा के प्रमुख स्वरूप

  1. धातु मुद्रा – जैसे तांबे, चांदी, सोने के सिक्के।

  2. कागजी मुद्रा – सरकार अथवा केंद्रीय बैंक द्वारा जारी की जाती है।

  3. बैंक मुद्रा – चेक, ड्राफ्ट, और बैंक ट्रांसफर आदि।

  4. डिजिटल मुद्रा (Digital Money) – जैसे UPI, नेट बैंकिंग, क्रेडिट/डेबिट कार्ड आदि।

  5. क्रिप्टो करेंसी (Cryptocurrency) – जैसे बिटकॉइन, जो अभी अधिकतर देशों में वैध नहीं है।


🔶 मुद्रा की विशेषताएं (Characteristics of Money)

  1. स्वीकार्यता – समाज में व्यापक रूप से स्वीकार की जाती है।

  2. स्थायित्व – मुद्रा लंबे समय तक बिना क्षतिग्रस्त रह सकती है।

  3. विभाज्यता – मुद्रा को छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है।

  4. स्थानांतरणीयता – इसे एक व्यक्ति से दूसरे को आसानी से हस्तांतरित किया जा सकता है।

  5. सामान्यता – सभी क्षेत्रों में एक समान उपयोग।


🔷 मुद्रा के प्रमुख कार्य (Functions of Money)

1. विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)

मुद्रा के माध्यम से वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान संभव होता है।

2. मूल्य मापन की इकाई (Unit of Value)

मुद्रा सभी वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य मापने का कार्य करती है।

3. मूल्य संचय (Store of Value)

मुद्रा को बचाकर भविष्य में खर्च किया जा सकता है।

4. भविष्य के भुगतान का साधन (Standard of Deferred Payment)

ऋणों की अदायगी और भविष्य में भुगतान के लिए उपयोग की जाती है।


🔷 वर्तमान समय में मुद्रा का महत्व

1. आर्थिक गतिविधियों की नींव

सभी प्रकार की आर्थिक गतिविधियाँ – उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग – मुद्रा के बिना असंभव हैं।

2. डिजिटल लेन-देन का युग

आज UPI, मोबाइल वॉलेट्स, क्रेडिट/डेबिट कार्ड्स ने नकद मुद्रा की जगह ले ली है। इससे लेन-देन तीव्र, सुरक्षित और पारदर्शी हुआ है।

3. नियंत्रण और निगरानी में सहायक

डिजिटल मुद्रा के माध्यम से सरकार टैक्स प्रणाली को अधिक पारदर्शी और प्रभावी बना पाई है।

4. व्यापार में वृद्धि

अंतरराष्ट्रीय व्यापार में मुद्रा विनिमय की सुविधा से वैश्विक व्यापार को बढ़ावा मिला है।

5. आर्थिक नियोजन का आधार

देश की आर्थिक नीति, मौद्रिक नीति, बजट आदि सभी मुद्रा की उपलब्धता और उपयोग पर आधारित होते हैं।


🔶 डिजिटल मुद्रा और उसका महत्व

1. तेज और सुरक्षित लेन-देन

डिजिटल भुगतान तेज और तत्काल होते हैं, जिससे समय की बचत होती है।

2. बिना नकदी अर्थव्यवस्था (Cashless Economy)

नकदी लेन-देन की समस्याओं जैसे चोरी, जाली नोट आदि से बचा जा सकता है।

3. रोज़गार और नवाचार के अवसर

डिजिटल फाइनेंस, फिनटेक कंपनियों के विकास से नए रोज़गार के अवसर उत्पन्न हुए हैं।

4. कोविड-19 के दौरान मुद्रा का डिजिटल महत्व

महामारी के समय में स्पर्श रहित लेन-देन का विकल्प केवल डिजिटल मुद्रा ही थी।


🔷 मुद्रा से संबंधित वर्तमान चुनौतियाँ

  1. मुद्रास्फीति (Inflation) – मुद्रा की मात्रा बढ़ने से कीमतें बढ़ जाती हैं।

  2. नकली नोट – नकद मुद्रा में नकली नोटों की समस्या।

  3. साइबर सुरक्षा – डिजिटल मुद्रा में धोखाधड़ी और हैकिंग की आशंका।

  4. अशिक्षा और डिजिटल साक्षरता की कमी – ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल मुद्रा का सीमित उपयोग।


🔶 मुद्रा के बिना अर्थव्यवस्था की कल्पना

मुद्रा के बिना हम एक बार्टर सिस्टम में चले जाते, जहाँ वस्तु के बदले वस्तु का विनिमय होता। यह प्रणाली अत्यंत असुविधाजनक और अव्यवस्थित होती। मुद्रा ने ही व्यापार, बाजार और आधुनिक जीवन को गति दी है।


🔷 निष्कर्ष

मुद्रा का अर्थव्यवस्था में वही स्थान है जो शरीर में रक्त का होता है। यह केवल वस्तु नहीं, बल्कि आर्थिक शक्ति का प्रतीक है। वर्तमान डिजिटल युग में मुद्रा का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है, जहाँ इसकी भूमिका केवल भुगतान तक सीमित न रहकर आर्थिक सशक्तिकरण, सुशासन और सामाजिक समावेशन में भी देखने को मिलती है।




🪙 प्रश्न 2: मुद्रा के स्थैतिक तथा प्रावैगिक कार्यों की व्याख्या कीजिए? एक विकासशील अर्थव्यवस्था में प्रावैगिक कार्यों की विवेचना कीजिए?


🔷 प्रस्तावना

मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक व्यवस्था की बुनियाद होती है। यह न केवल वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान का माध्यम है, बल्कि यह संपूर्ण आर्थिक गतिविधियों को सुचारु रूप से संचालित करने में सहायक भी है। मुद्रा के कार्यों को मुख्यतः स्थैतिक (Static) और प्रावैगिक (Dynamic) दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। स्थैतिक कार्य मुद्रा की पारंपरिक भूमिकाओं को दर्शाते हैं, जबकि प्रावैगिक कार्य आधुनिक आर्थिक विकास में मुद्रा की सक्रिय भूमिका को स्पष्ट करते हैं।


🔶 मुद्रा के स्थैतिक कार्य (Static Functions of Money)

स्थैतिक कार्य वे होते हैं जो मुद्रा की मूलभूत विशेषताओं और परंपरागत उपयोग से संबंधित होते हैं। इन्हें मूल कार्य (Primary Functions) भी कहा जाता है।

1. विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)

मुद्रा वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान का सबसे सुविधाजनक साधन है।
📌 उदाहरण: जब हम बाजार से सामान खरीदते हैं, तो मुद्रा के माध्यम से भुगतान करते हैं।

2. मूल्य मापन की इकाई (Unit of Value/Account)

मुद्रा के द्वारा हम वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य माप सकते हैं।
📌 उदाहरण: एक किताब ₹300 की है और एक पेन ₹30 का – दोनों का मूल्य मुद्रा में व्यक्त किया गया है।

3. मूल्य संचय (Store of Value)

मुद्रा को भविष्य की आवश्यकताओं के लिए बचाया जा सकता है।
📌 उदाहरण: हम अपनी आय को बैंक में जमा करके भविष्य में खर्च करते हैं।

4. भविष्य के भुगतान का माध्यम (Standard of Deferred Payment)

कई बार भुगतान तत्काल न होकर भविष्य में किया जाता है – मुद्रा इस स्थिति में अत्यंत सहायक होती है।
📌 उदाहरण: ऋण, किस्तों में भुगतान आदि।


🔷 मुद्रा के प्रावैगिक कार्य (Dynamic Functions of Money)

प्रावैगिक कार्य मुद्रा की उन भूमिकाओं को दर्शाते हैं जो आधुनिक आर्थिक व्यवस्था में इसके सक्रिय योगदान से संबंधित हैं। ये कार्य आर्थिक नीति, नियोजन, और विकास के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

1. राष्ट्रीय आय एवं उत्पादन को प्रभावित करना

मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन से देश की उत्पादन क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। अधिक मुद्रा से मांग बढ़ती है और उत्पादन को प्रोत्साहन मिलता है।

2. मूल्य स्थिरता बनाए रखना (Price Stability)

मुद्रा की नियंत्रित आपूर्ति के माध्यम से महंगाई और मंदी जैसी समस्याओं से निपटा जा सकता है।

3. पूंजी निर्माण में सहायता

मुद्रा बचत और निवेश को प्रेरित करती है, जिससे पूंजी का निर्माण होता है।
📌 Savings → Investment → Capital Formation

4. विकास की योजनाओं को कार्यान्वित करना

सरकार योजनाओं के वित्तपोषण के लिए मुद्रा का उपयोग करती है – जैसे सड़कें, अस्पताल, शिक्षा, उद्योगों का विकास आदि।

5. वित्तीय संस्थानों का संचालन

बैंकिंग, बीमा, शेयर बाजार जैसे संस्थान मुद्रा पर ही आधारित होते हैं, और ये संस्थान आर्थिक विकास को गति प्रदान करते हैं।

6. समाज में आर्थिक समानता लाना

प्रगतिशील कर प्रणाली, सब्सिडी, और सामाजिक योजनाओं के माध्यम से मुद्रा का वितरण सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है।


🔷 विकासशील अर्थव्यवस्था में प्रावैगिक कार्यों का महत्व

विकासशील देश जैसे भारत में मुद्रा के प्रावैगिक कार्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि ये देश औद्योगीकरण, शहरीकरण, और रोजगार सृजन की प्रक्रिया में होते हैं।

🔶 1. औद्योगीकरण को बढ़ावा देना

मुद्रा के माध्यम से सरकार और निजी क्षेत्र उद्योगों की स्थापना और विस्तार में पूंजी निवेश करते हैं।

🔶 2. बेरोजगारी को कम करना

विकास योजनाओं में मुद्रा के प्रवाह से नए रोजगार के अवसर उत्पन्न होते हैं। जैसे – मनरेगा योजना।

🔶 3. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम

मुद्रा का उपयोग गरीब वर्गों को आर्थिक सहायता देने के लिए किया जाता है।
📌 उदाहरण: जनधन योजना, DBT (Direct Benefit Transfer) आदि।

🔶 4. बुनियादी ढांचे का विकास

सड़कें, पुल, रेल, बिजली, जल आपूर्ति आदि के विकास में मुद्रा का प्रावैगिक उपयोग अत्यंत आवश्यक है।

🔶 5. शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश

सरकार मुद्रा के माध्यम से स्कूल, कॉलेज, अस्पताल जैसी सार्वजनिक सुविधाओं में निवेश करती है।

🔶 6. कृषि सुधार में सहायता

कृषि ऋण, बीज, खाद, सिंचाई आदि के लिए मुद्रा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।


🔶 भारत के परिप्रेक्ष्य में प्रावैगिक कार्यों की विशेषता

भारत जैसे विकासशील देश में:

  • RBI (भारतीय रिज़र्व बैंक) मौद्रिक नीति बनाकर मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करता है।

  • सरकार वित्तीय बजट के माध्यम से मुद्रा का आवंटन विभिन्न क्षेत्रों में करती है।

  • मुद्रा का उपयोग वित्तीय समावेशन (financial inclusion) में भी हो रहा है – जैसे UPI, डिजिटल भुगतान आदि।


🔷 निष्कर्ष

मुद्रा केवल लेन-देन का माध्यम नहीं है, बल्कि यह आर्थिक नीतियों, योजनाओं और विकास कार्यक्रमों को गति देने वाली एक सशक्त आर्थिक शक्ति है। इसके स्थैतिक कार्यों से जहां आर्थिक गतिविधियाँ सुचारु रूप से संचालित होती हैं, वहीं इसके प्रावैगिक कार्यों से देश की सामाजिक-आर्थिक प्रगति सुनिश्चित होती है। विशेषकर विकासशील देशों में मुद्रा की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जहाँ इसकी सही दिशा में योजना और उपयोग ही राष्ट्र की उन्नति को सुनिश्चित करता है।




🪙 प्रश्न 3: मुद्रा का वर्गीकरण कितने प्रकार से किया जा सकता है?


🔷 प्रस्तावना

मुद्रा आधुनिक अर्थव्यवस्था की बुनियाद है। यह केवल विनिमय का माध्यम नहीं, बल्कि मूल्य मापन, संचय और भविष्य के भुगतान का साधन भी है। समय और परिस्थितियों के अनुसार मुद्रा के स्वरूप, प्रकार और उपयोग में विविधता आई है। इसी विविधता को समझने के लिए मुद्रा का वर्गीकरण आवश्यक है। मुद्रा का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जा सकता है – जैसे स्वरूप, निर्गमनकर्ता, प्रयोज्यता, स्वीकृति आदि।


🔶 मुद्रा का वर्गीकरण: विभिन्न आधारों पर

मुद्रा का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रमुख आधारों पर किया जाता है:


🔷 1. स्वरूप के आधार पर (On the Basis of Form)

इस वर्गीकरण में मुद्रा को उसकी भौतिक संरचना के आधार पर बांटा जाता है।

🔹 (A) धातु मुद्रा (Metallic Money)

  • यह मुद्रा धातुओं जैसे तांबा, चाँदी, सोना आदि से निर्मित होती है।

  • इसे पूर्ण मुद्रा (Full-bodied Money) भी कहा जाता है क्योंकि इसका वास्तविक मूल्य इसके अंकित मूल्य के बराबर या उससे अधिक होता है।
    📌 उदाहरण: पुराने समय के सोने-चाँदी के सिक्के।

🔹 (B) कागजी मुद्रा (Paper Money)

  • यह मुद्रा कागज से बनाई जाती है और इसे सरकार या केंद्रीय बैंक द्वारा जारी किया जाता है।

  • इसका वास्तविक मूल्य बहुत कम होता है, परंतु सरकार की गारंटी से इसका प्रचलन मूल्य बहुत अधिक होता है।
    📌 उदाहरण: ₹10, ₹100, ₹500 के नोट।

🔹 (C) प्लास्टिक मुद्रा (Plastic Money)

  • यह आधुनिक मुद्रा है जो क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड आदि के रूप में प्रयोग होती है।
    📌 उदाहरण: Visa, MasterCard, Rupay कार्ड आदि।

🔹 (D) डिजिटल मुद्रा (Digital Money)

  • यह मुद्रा केवल इलेक्ट्रॉनिक रूप में अस्तित्व में होती है और इंटरनेट या मोबाइल नेटवर्क के माध्यम से लेन-देन में प्रयुक्त होती है।
    📌 उदाहरण: UPI, Net Banking, Paytm, Google Pay आदि।

🔹 (E) क्रिप्टो मुद्रा (Cryptocurrency)

  • यह एक आभासी मुद्रा है जो ब्लॉकचेन तकनीक पर आधारित होती है और किसी भी देश की सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं होती।
    📌 उदाहरण: Bitcoin, Ethereum आदि।


🔷 2. निर्गमनकर्ता के आधार पर (On the Basis of Issuer)

इस वर्गीकरण में मुद्रा को इस आधार पर विभाजित किया जाता है कि उसे किसने जारी किया है।

🔹 (A) सरकारी मुद्रा (Government Money)

  • यह मुद्रा सरकार द्वारा जारी की जाती है और उसका कानूनी स्वीकृति प्राप्त होती है।
    📌 उदाहरण: ₹1 का नोट और सिक्के – भारत सरकार द्वारा जारी।

🔹 (B) केंद्रीय बैंक द्वारा जारी मुद्रा (Central Bank Money)

  • यह मुद्रा देश के केंद्रीय बैंक द्वारा जारी की जाती है और यह पूरे देश में वैध होती है।
    📌 उदाहरण: ₹2 से ₹2000 तक के नोट – भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी।


🔷 3. कानूनी स्थिति के आधार पर (On the Basis of Legal Tender)

🔹 (A) वैध मुद्रा (Legal Tender Money)

  • यह मुद्रा वह होती है जिसे देश का कानून किसी भी भुगतान को करने के लिए स्वीकार करता है।

  • इसे कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता।
    📌 उदाहरण: ₹10, ₹50, ₹500 के नोट।

🔹 (B) अर्ध-वैध मुद्रा (Quasi Legal Tender)

  • यह मुद्रा तकनीकी रूप से वैध नहीं होती, लेकिन समाज में स्वीकार की जाती है।
    📌 उदाहरण: चेक, बैंक ड्राफ्ट आदि।


🔷 4. प्रचलन के क्षेत्र के आधार पर (On the Basis of Circulation Area)

🔹 (A) राष्ट्रीय मुद्रा (National Currency)

  • वह मुद्रा जो किसी एक देश के अंदर वैध होती है।
    📌 उदाहरण: भारत में – भारतीय रुपया।

🔹 (B) विदेशी मुद्रा (Foreign Currency)

  • वह मुद्रा जो किसी अन्य देश में वैध होती है।
    📌 उदाहरण: डॉलर (USA), पाउंड (UK), येन (Japan) आदि।

🔹 (C) अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा (International Currency)

  • कुछ मुद्राएं वैश्विक स्तर पर व्यापार और निवेश में अधिक प्रचलित होती हैं।
    📌 उदाहरण: अमेरिकी डॉलर, यूरो।


🔷 5. स्वीकृति के आधार पर (On the Basis of Acceptability)

🔹 (A) वैधानिक मुद्रा (Fiat Money)

  • यह मुद्रा सरकार की घोषणा पर आधारित होती है, भले ही उसका कोई आंतरिक मूल्य न हो।
    📌 उदाहरण: ₹500 का नोट जिसका मूल्य सरकार तय करती है।

🔹 (B) वस्तु मुद्रा (Commodity Money)

  • ऐसी मुद्रा जिसका उपयोग मुद्रा के अतिरिक्त अन्य कार्यों में भी हो सकता है।
    📌 उदाहरण: पुराने समय में नमक, अनाज, गाय, तांबे के सिक्के आदि।

🔹 (C) प्रतिनिधि मुद्रा (Representative Money)

  • वह मुद्रा जो किसी मूल्यवान वस्तु जैसे – सोना, चाँदी के लिए प्रमाणपत्र के रूप में कार्य करती है।
    📌 उदाहरण: स्वर्ण प्रमाणपत्र।


🔶 आधुनिक समय में मुद्रा का परिवर्तित स्वरूप

आज के डिजिटल युग में मुद्रा का स्वरूप लगातार बदलता जा रहा है। अब फिजिकल मुद्रा की जगह डिजिटल लेन-देन, क्रिप्टो करेंसी, और केंद्रीय बैंक डिजिटल करेंसी (CBDC) जैसे नए विकल्प सामने आ रहे हैं।

🌀 भारत में डिजिटल क्रांति:

  • UPI (Unified Payments Interface) के माध्यम से भारत दुनिया में सबसे तेज़ डिजिटल भुगतान करने वाले देशों में शामिल है।

  • डिजिटल रुपया (CBDC) को भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा विकसित किया जा रहा है।


🔷 निष्कर्ष

मुद्रा के विभिन्न स्वरूपों और वर्गों का अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि यह केवल एक विनिमय का माध्यम नहीं, बल्कि समय, स्थान और तकनीकी विकास के अनुसार बदलता हुआ सामाजिक-आर्थिक उपकरण है। मुद्रा का वर्गीकरण न केवल इसके उपयोग को समझने में सहायक है, बल्कि इससे आर्थिक नीतियों और वित्तीय प्रबंधन की दिशा भी निर्धारित होती है। आज के युग में जहां डिजिटल और आभासी मुद्राएं लोकप्रिय हो रही हैं, वहीं पारंपरिक स्वरूपों का भी महत्त्व बना हुआ है। इस प्रकार, मुद्रा का बहुआयामी वर्गीकरण आर्थिक दृष्टिकोण से अत्यंत उपयोगी है।




🏦 प्रश्न 04: प्लास्टिक मुद्रा क्या है?


🔷 प्रस्तावना

आधुनिक युग में जब तकनीक का प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ रहा है, तो मुद्रा प्रणाली भी इससे अछूती नहीं रही। पारंपरिक धातु एवं कागजी मुद्रा के स्थान पर अब प्लास्टिक मुद्रा (Plastic Money) का चलन तेजी से बढ़ा है। यह ऐसी मुद्रा है जो सुरक्षा, सुविधा और त्वरित लेन-देन का अनुभव प्रदान करती है। नकद रहित (cashless) अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ते हुए प्लास्टिक मुद्रा आज के आर्थिक ढांचे का महत्वपूर्ण अंग बन चुकी है।


🔶 प्लास्टिक मुद्रा की परिभाषा

प्लास्टिक मुद्रा वह मुद्रा है जो प्लास्टिक कार्डों के रूप में होती है और जिसका उपयोग व्यक्ति डिजिटल माध्यम से वस्तुओं एवं सेवाओं की खरीद के लिए करता है।

🔹 सरल शब्दों में:

"प्लास्टिक मुद्रा का अर्थ है – क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, एटीएम कार्ड आदि के रूप में प्रचलित ऐसी मुद्रा जो कागज या सिक्के के स्थान पर डिजिटल तरीके से कार्य करती है।"


🔷 प्लास्टिक मुद्रा के प्रमुख प्रकार

🔹 1. डेबिट कार्ड (Debit Card)

  • सीधे व्यक्ति के बैंक खाते से धन काटता है।

  • सीमित खर्च की अनुमति – खाते में जितनी राशि है उतना ही उपयोग संभव।
    📌 उदाहरण: RuPay, Visa Debit, MasterCard Debit आदि।

🔹 2. क्रेडिट कार्ड (Credit Card)

  • उधारी पर आधारित कार्ड होता है।

  • बैंक द्वारा निर्धारित सीमा तक खर्च किया जा सकता है और बाद में भुगतान किया जाता है।
    📌 उदाहरण: SBI Credit Card, HDFC Credit Card आदि।

🔹 3. प्रीपेड कार्ड (Prepaid Card)

  • पहले से राशि जमा करके उपयोग किया जाता है।

  • जैसे – गिफ्ट कार्ड, ट्रैवल कार्ड आदि।

🔹 4. एटीएम कार्ड (ATM Card)

  • मुख्यतः नकद निकालने के लिए प्रयोग में लाया जाता है।

  • सीमित लेन-देन की सुविधा।

🔹 5. स्मार्ट कार्ड (Smart Card)

  • यह कार्ड माइक्रोचिप आधारित होता है, जिसमें डेटा स्टोर रहता है।

  • अधिक सुरक्षा प्रदान करता है।
    📌 उदाहरण: मेट्रो कार्ड, बायोमेट्रिक कार्ड आदि।


🔶 प्लास्टिक मुद्रा की विशेषताएँ

✅ 1. नकदी रहित लेन-देन की सुविधा

कोई नकद साथ रखने की आवश्यकता नहीं – सभी भुगतान कार्ड के माध्यम से संभव।

✅ 2. समय और श्रम की बचत

ऑनलाइन, POS मशीन या ATM द्वारा सेकंडों में भुगतान।

✅ 3. उपयोग में सरलता

मात्र कार्ड स्वाइप करने या टच करने से भुगतान पूर्ण।

✅ 4. ट्रैकिंग की सुविधा

प्रत्येक लेन-देन का रिकॉर्ड – पारदर्शिता और बजट नियोजन में सहायक।

✅ 5. सुरक्षा

PIN, OTP, चिप, और ब्लॉकिंग सुविधा – नकद की तुलना में अधिक सुरक्षित।


🔷 प्लास्टिक मुद्रा के लाभ (Advantages of Plastic Money)

🔹 1. चोरी और नकली नोटों से सुरक्षा

प्लास्टिक मुद्रा को खोने पर तुरंत ब्लॉक किया जा सकता है, जबकि नकद राशि चोरी होने पर वापसी असंभव होती है।

🔹 2. क्रेडिट की सुविधा

क्रेडिट कार्ड के माध्यम से तत्काल आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है।

🔹 3. अंतरराष्ट्रीय लेन-देन में उपयोगी

विदेश यात्रा के दौरान भी अंतरराष्ट्रीय कार्डों के जरिए भुगतान करना सरल होता है।

🔹 4. व्यय पर नियंत्रण

बैंक स्टेटमेंट से हर खर्च की निगरानी की जा सकती है।

🔹 5. सरकार की डिजिटल नीति को समर्थन

डिजिटल भुगतान बढ़ने से सरकार की कैशलेस इकोनॉमी की दिशा में प्रगति होती है।


🔶 प्लास्टिक मुद्रा की सीमाएँ (Limitations of Plastic Money)

❌ 1. साइबर धोखाधड़ी की संभावना

फिशिंग, क्लोनिंग, हैकिंग जैसे जोखिम प्लास्टिक मुद्रा में जुड़े होते हैं।

❌ 2. तकनीकी निर्भरता

बिजली, इंटरनेट या नेटवर्क न होने की स्थिति में लेन-देन संभव नहीं।

❌ 3. अधिक खर्च की प्रवृत्ति

क्रेडिट कार्ड के कारण अनावश्यक खर्च की आदतें बढ़ सकती हैं।

❌ 4. ग्रामीण क्षेत्र में सीमित पहुँच

अभी भी कई ग्रामीण इलाकों में POS मशीनें या कार्ड स्वाइप सिस्टम उपलब्ध नहीं हैं।


🔷 भारत में प्लास्टिक मुद्रा का विकास

🔹 1. RBI और NPCI की पहलें

  • RuPay कार्ड – भारतीय भुगतान प्रणाली का सशक्तिकरण।

  • जनधन योजना में हर खाते के साथ डेबिट कार्ड जारी किया गया।

🔹 2. डिजिटल इंडिया अभियान

  • कैशलेस लेन-देन को बढ़ावा देने के लिए प्लास्टिक मुद्रा का प्रचार-प्रसार।

🔹 3. POS मशीनों की स्थापना

  • दुकानों, पेट्रोल पंप, अस्पतालों, शैक्षणिक संस्थानों में कार्ड द्वारा भुगतान की सुविधा।


🔶 प्लास्टिक मुद्रा और कोविड-19

  • कोरोना काल में संपर्क रहित भुगतान की आवश्यकता बढ़ी।

  • लोगों ने नकद लेन-देन से बचते हुए कार्ड और डिजिटल माध्यमों को अपनाया।

  • इससे प्लास्टिक मुद्रा का प्रयोग कई गुना बढ़ गया।


🔷 भविष्य की संभावनाएँ

🔹 1. संपर्क रहित कार्ड (Contactless Cards)

NFC तकनीक से लैस कार्ड अब केवल टच से भुगतान करने की सुविधा प्रदान करते हैं।

🔹 2. कार्डलेस लेन-देन की ओर रुझान

UPI जैसे विकल्प कार्ड की आवश्यकता को भी धीरे-धीरे कम कर रहे हैं।

🔹 3. डिजिटल सुरक्षा तकनीक में सुधार

बायोमेट्रिक, फेस आईडी जैसी तकनीकों के साथ कार्ड की सुरक्षा बेहतर बन रही है।


🔷 निष्कर्ष

प्लास्टिक मुद्रा आधुनिक समय की एक ऐसी आवश्यकता बन चुकी है जो न केवल लेन-देन को आसान बनाती है, बल्कि आर्थिक प्रणाली को पारदर्शी, तेज़ और सुरक्षित बनाती है। हालांकि इसमें कुछ जोखिम भी हैं, लेकिन सही जागरूकता और सुरक्षा उपायों से इसका उपयोग प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ डिजिटल क्रांति की शुरुआत हो चुकी है, वहाँ प्लास्टिक मुद्रा आने वाले वर्षों में आर्थिक समावेशन का एक मजबूत आधार बन सकती है।




💰 प्रश्न 05: मौद्रिकमान किसे कहते हैं?


🔷 प्रस्तावना

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में मुद्रा की उपलब्धता और उसका प्रवाह आर्थिक स्थिरता और विकास का आधार होता है। मुद्रा केवल लेन-देन का माध्यम ही नहीं, बल्कि उत्पादन, विनिमय, निवेश और आर्थिक योजनाओं को गति देने वाला प्रमुख साधन भी है। इस मुद्रा की कुल मात्रा या उपलब्धता को ही मौद्रिकमान (Money Supply) कहा जाता है। यह मापने का तरीका है कि किसी विशेष समय पर किसी देश की अर्थव्यवस्था में कुल कितनी मुद्रा उपलब्ध है।


🔶 मौद्रिकमान की परिभाषा

"मौद्रिकमान उस कुल मुद्रा की मात्रा को कहा जाता है जो किसी विशेष समय में किसी देश की जनता और विभिन्न संस्थाओं के पास होती है तथा जिसका उपयोग वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय हेतु किया जाता है।"

🔹 सरल शब्दों में:

"मौद्रिकमान का अर्थ है – किसी अर्थव्यवस्था में चलन में मौजूद कुल मुद्रा।"


🔷 मौद्रिकमान में शामिल घटक

मौद्रिकमान में वे सभी घटक आते हैं जो भुगतान के लिए तत्काल प्रयोग किए जा सकते हैं। इनमें निम्नलिखित प्रमुख तत्व शामिल हैं:

✅ 1. चलन में मौजूद नकद मुद्रा

  • लोगों के पास मौजूद नोट और सिक्के।

✅ 2. बैंकों में मांग जमा (Demand Deposits)

  • वे बैंक खाते जिनसे पैसा कभी भी निकाला जा सकता है, जैसे – बचत खाता, चालू खाता।

✅ 3. अन्य नकदी समतुल्य साधन

  • जैसे ट्रैवेलर्स चेक, मनी ऑर्डर आदि।


🔶 मौद्रिकमान को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक

🔹 1. केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति

भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) मौद्रिक नीति के माध्यम से मौद्रिकमान को नियंत्रित करता है।

🔹 2. वाणिज्यिक बैंकों की ऋण नीति

बैंक जितना अधिक ऋण देंगे, उतनी अधिक मुद्रा अर्थव्यवस्था में प्रवाहित होगी।

🔹 3. सरकार की राजकोषीय नीति

सरकारी व्यय और कर नीति भी मौद्रिकमान को प्रभावित करती है।

🔹 4. मुद्रा छपाई की मात्रा

जितनी अधिक मुद्रा छापी जाती है, उतना ही मौद्रिकमान बढ़ता है।


🔷 मौद्रिकमान के विभिन्न मापदंड (Measures of Money Supply)

भारतीय रिज़र्व बैंक ने मौद्रिकमान को चार प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया है:


🔹 M1 – संकीर्ण मुद्रा (Narrow Money)

  • मुद्रा का सबसे तरल रूप।

  • इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:

    • जनता के पास मौजूद नकद

    • मांग जमा (Demand Deposits)

    • अन्य जमा RBI में

📌 सूत्र:
M1 = Currency with Public + Demand Deposits + Other Deposits with RBI


🔹 M2 – M1 + डाकघर की बचत जमा

  • इसमें M1 के साथ-साथ डाकघर बचत खातों की राशि भी जोड़ी जाती है।
    📌 सूत्र:
    M2 = M1 + Post Office Savings Deposits


🔹 M3 – विस्तृत मुद्रा (Broad Money)

  • भारत में मौद्रिकमान को मापने का सबसे व्यापक तरीका।

  • यह M1 के साथ साथ बैंकों की अवधि जमा (Time Deposits) को भी शामिल करता है।
    📌 सूत्र:
    M3 = M1 + Time Deposits with Banks
    👉 यह मापदंड नीति निर्धारण के लिए सबसे अधिक प्रयोग में लाया जाता है।


🔹 M4 – M3 + डाकघर की कुल जमा राशि

  • यह सबसे विस्तृत माप है, जिसमें डाकघर की सभी जमा राशियाँ जोड़ी जाती हैं।
    📌 सूत्र:
    M4 = M3 + Total Deposits with Post Office (Excluding NSCs)


🔶 भारत में मौद्रिकमान का निर्धारण – RBI की भूमिका

भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) भारत में मौद्रिक नीति बनाता है और निम्न माध्यमों से मौद्रिकमान को नियंत्रित करता है:

रेपो दर (Repo Rate)

बैंक RBI से जिस दर पर ऋण लेते हैं, उस दर को बदलकर मुद्रा की उपलब्धता को प्रभावित किया जाता है।

सीआरआर (CRR) और एसएलआर (SLR)

बैंकों को कुछ राशि RBI या अपने पास सुरक्षित रखनी होती है। इसे घटाने या बढ़ाने से भी मुद्रा की मात्रा पर प्रभाव पड़ता है।

ओपन मार्केट ऑपरेशन

RBI बांड खरीदकर या बेचकर अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करता है।


🔷 मौद्रिकमान का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

🔹 1. मुद्रास्फीति (Inflation)

यदि मौद्रिकमान बहुत अधिक हो जाए तो कीमतें बढ़ने लगती हैं।

🔹 2. मंदी (Recession)

यदि मुद्रा की उपलब्धता बहुत कम हो, तो मांग घटती है और उत्पादन तथा रोजगार प्रभावित होता है।

🔹 3. व्यापार और निवेश

मौद्रिकमान की स्थिरता व्यापारियों और निवेशकों को सकारात्मक संकेत देती है।

🔹 4. आर्थिक विकास

उचित मौद्रिकमान से मांग में वृद्धि, उत्पादन में तेजी और रोजगार में वृद्धि होती है।


🔶 मौद्रिकमान और डिजिटल अर्थव्यवस्था

डिजिटल भुगतान साधनों जैसे – UPI, नेट बैंकिंग, मोबाइल वॉलेट आदि के बढ़ते उपयोग के कारण अब मौद्रिकमान का स्वरूप बदल रहा है।

  • नकद का महत्व घटा है।

  • डिजिटल मनी का हिस्सा बढ़ता जा रहा है।

  • इससे मौद्रिक नीति को अधिक प्रभावी ढंग से लागू करना संभव हो रहा है।


🔷 निष्कर्ष

मौद्रिकमान किसी भी देश की आर्थिक स्थिति का दर्पण होता है। इसकी मात्रा में संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि अधिक या कम मुद्रा – दोनों ही आर्थिक समस्याओं का कारण बन सकते हैं। अतः भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा मौद्रिक नीति के माध्यम से मौद्रिकमान का समुचित नियंत्रण आवश्यक होता है। आज के डिजिटल युग में जब मुद्रा के स्वरूप में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, तब मौद्रिकमान का अध्ययन और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। यह न केवल नीति निर्धारण का आधार है, बल्कि आर्थिक स्थिरता और विकास की कुंजी भी है।




🏛️ प्रश्न 06: पत्रमान किसे कहते हैं? स्वर्णमान किसे कहते हैं?


🔷 प्रस्तावना

मुद्रा प्रणाली में समय के साथ कई परिवर्तन हुए हैं। प्रारंभ में विनिमय के लिए वस्तु मुद्रा का प्रयोग होता था, फिर धातु मुद्रा आई और धीरे-धीरे कागजी मुद्रा तथा डिजिटल मुद्रा का युग आरंभ हुआ। इसी क्रम में मुद्रा को मूल्य के आधार पर पत्रमान (Fiat Standard) और स्वर्णमान (Gold Standard) में वर्गीकृत किया जाता है। इन दोनों अवधारणाओं का संबंध उस आधार से है जिस पर मुद्रा की मूल्यवत्ता और स्वीकृति निर्धारित होती है।


🪙 1️⃣ पत्रमान किसे कहते हैं? (What is Fiat Standard?)


🔶 परिभाषा

पत्रमान वह मुद्रा प्रणाली होती है जिसमें मुद्रा का कोई आंतरिक मूल्य (intrinsic value) नहीं होता, परंतु सरकार द्वारा इसे वैधानिक रूप से चलन योग्य घोषित कर दिया जाता है।

🔹 सरल शब्दों में:

“पत्रमान ऐसी मुद्रा है जिसका मूल्य सरकार की घोषणा और लोगों के विश्वास पर आधारित होता है, न कि किसी धातु जैसे सोने या चांदी पर।”


🔷 पत्रमान की प्रमुख विशेषताएँ

✅ 1. कानूनी मान्यता प्राप्त

सरकार द्वारा घोषित वैध मुद्रा होती है, जिसे कोई भी व्यक्ति लेने से मना नहीं कर सकता।

✅ 2. मूल्य सरकार द्वारा निश्चित

मुद्रा का मूल्य किसी वास्तविक संपत्ति से नहीं जुड़ा होता बल्कि सरकारी आदेश पर आधारित होता है।

✅ 3. मुद्रा छपाई की स्वतंत्रता

सरकार या केंद्रीय बैंक आवश्यकता के अनुसार मुद्रा की आपूर्ति कर सकता है।

✅ 4. आंतरिक मूल्य का अभाव

कागज की मुद्रा का वास्तविक मूल्य (कागज का मूल्य) बहुत कम होता है।


🔶 पत्रमान का उदाहरण

  • भारत में वर्तमान में जो ₹10, ₹100, ₹500, ₹2000 के नोट हैं, वे सभी पत्रमुद्रा के अंतर्गत आते हैं।

  • ये नोट भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी किए जाते हैं और "I promise to pay the bearer..." जैसे वाक्य लिखे होते हैं जो उनकी वैधता की घोषणा करते हैं।


🔷 पत्रमान के लाभ

🔹 1. लचीलापन

सरकार मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करके मुद्रास्फीति और मंदी जैसी स्थितियों से निपट सकती है।

🔹 2. उत्पादन में वृद्धि में सहायक

आवश्यकता पड़ने पर अधिक मुद्रा जारी कर विकास परियोजनाओं में निवेश किया जा सकता है।

🔹 3. कीमती धातुओं पर निर्भरता नहीं

सोना या चाँदी जैसे दुर्लभ संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती।


🔷 पत्रमान की सीमाएँ

❌ 1. मुद्रास्फीति की संभावना

अधिक मात्रा में मुद्रा छापने से महंगाई की समस्या उत्पन्न हो सकती है।

❌ 2. लोगों के विश्वास पर निर्भरता

यदि सरकार की आर्थिक नीतियों पर लोगों का विश्वास कमजोर हो जाए तो मुद्रा का मूल्य गिर सकता है।


🏵️ 2️⃣ स्वर्णमान किसे कहते हैं? (What is Gold Standard?)


🔶 परिभाषा

स्वर्णमान वह मुद्रा प्रणाली है जिसमें मुद्रा का मूल्य सोने में निश्चित होता है और मुद्रा को सोने में बदला जा सकता है।

🔹 सरल शब्दों में:

“स्वर्णमान ऐसी मुद्रा प्रणाली है जिसमें सरकार यह वादा करती है कि उसकी मुद्रा को निश्चित दर पर सोने में बदला जा सकता है।”


🔷 स्वर्णमान की प्रमुख विशेषताएँ

✅ 1. मुद्रा की सोने से समता (Convertibility)

प्रत्येक मुद्रा इकाई के बदले निश्चित मात्रा में सोना प्राप्त किया जा सकता था।

✅ 2. मूल्य की स्थिरता

मुद्रा का मूल्य सोने की मात्रा से बंधा होता था, जिससे महंगाई पर नियंत्रण रहता था।

✅ 3. विश्वास और पारदर्शिता

लोगों को यह विश्वास रहता था कि मुद्रा के पीछे वास्तविक संपत्ति (सोना) है।


🔷 स्वर्णमान के प्रकार

🔹 1. स्वर्ण सिक्का मान (Gold Coin Standard)

  • मुद्रा के रूप में वास्तविक सोने के सिक्कों का प्रचलन।
    📌 उदाहरण: ब्रिटेन में 19वीं सदी में सोने के सिक्कों का प्रयोग।

🔹 2. स्वर्ण बिल मान (Gold Bullion Standard)

  • मुद्रा को सोने के बिस्कुट (bullion) में बदला जा सकता था, सिक्के नहीं।
    📌 कम लागत वाला विकल्प।

🔹 3. स्वर्ण विनिमय मान (Gold Exchange Standard)

  • मुद्रा को सीधे सोने में न बदलकर, पहले विदेशी मुद्रा में बदला जाता, फिर उस मुद्रा को सोने में।
    📌 भारत में 1898 से 1931 तक यह प्रणाली लागू थी।


🔷 स्वर्णमान के लाभ

🔹 1. मुद्रास्फीति पर नियंत्रण

चूंकि मुद्रा छपाई सोने की मात्रा पर निर्भर थी, अतः अधिक मुद्रा छापना संभव नहीं था।

🔹 2. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में स्थिरता

हर देश की मुद्रा सोने से जुड़ी होने के कारण विनिमय दर स्थिर रहती थी।

🔹 3. लंबी अवधि में आर्थिक स्थिरता

धातु आधारित प्रणाली के कारण मुद्रा में विश्वास बना रहता था।


🔷 स्वर्णमान की सीमाएँ

❌ 1. सोने पर अत्यधिक निर्भरता

मुद्रा आपूर्ति पूरी तरह सोने के भंडार पर आधारित होती थी।

❌ 2. अविकासशील देशों के लिए अनुपयुक्त

ऐसे देश जिनके पास सोने का भंडार कम था, वे आर्थिक विस्तार नहीं कर सकते थे।

❌ 3. आर्थिक लचीलापन नहीं

महामारी, युद्ध या मंदी जैसे समय में सरकार मुद्रा आपूर्ति नहीं बढ़ा सकती थी।


🔶 भारत में स्वर्णमान और पत्रमान का इतिहास

  • ब्रिटिश काल में भारत में स्वर्ण विनिमय मान लागू था (1898–1931)।

  • 1931 के बाद भारत ने धीरे-धीरे पत्रमान प्रणाली को अपनाया।

  • 1971 में अमेरिका ने भी पूरी तरह स्वर्णमान प्रणाली को समाप्त कर दिया, जिसके बाद लगभग सभी देशों ने पत्रमान को स्वीकार कर लिया।


🔷 निष्कर्ष

स्वर्णमान और पत्रमान, दोनों मुद्रा प्रणालियों के अपने-अपने लाभ और सीमाएँ हैं। स्वर्णमान प्रणाली जहाँ स्थिरता और पारदर्शिता प्रदान करती थी, वहीं पत्रमान प्रणाली लचीलापन और आधुनिक आवश्यकताओं के अनुरूप मुद्रा प्रबंधन की सुविधा देती है। वर्तमान युग में पत्रमान प्रणाली को ही अधिकांश देशों ने अपनाया है क्योंकि यह मौद्रिक नीति को प्रभावी रूप से लागू करने की सुविधा प्रदान करती है। अतः आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में पत्रमान अधिक व्यवहारिक और उपयोगी माना जाता है।




🔩 प्रश्न 07: धातुमान के प्रकार बताइए।


🏛️ प्रस्तावना

मुद्रा प्रणाली के विकास में धातुओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आदिकाल से ही लोग वस्तु विनिमय की जगह धातु मुद्रा को अधिक विश्वसनीय और टिकाऊ मानते आए हैं। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था ने आकार लिया, मुद्रा प्रणाली में स्थिरता लाने के लिए धातुमान प्रणाली (Metal Standard) का विकास हुआ। यह प्रणाली मुद्रा को किसी कीमती धातु – जैसे सोना या चांदी – से जोड़ने पर आधारित होती है। इस प्रणाली के अंतर्गत सरकार यह सुनिश्चित करती है कि मुद्रा का मूल्य किसी निश्चित धातु के आधार पर तय होगा।


🔶 धातुमान की परिभाषा

"धातुमान वह मुद्रा प्रणाली है जिसमें किसी धातु (जैसे सोना या चांदी) को मुद्रा का आधार माना जाता है और मुद्रा की कीमत उस धातु की मात्रा के अनुसार निर्धारित की जाती है।"

🔹 सरल शब्दों में:

“धातुमान एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें किसी देश की मुद्रा को किसी निश्चित धातु में परिवर्तनीय बनाया जाता है।”


🔷 धातुमान के प्रमुख प्रकार

धातुमान को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जाता है:

🪙 1. स्वर्णमान (Gold Standard)

🥈 2. रजतमान (Silver Standard)

💰 3. द्विधातुमान (Bimetallic Standard)

अब आइए इन तीनों प्रकारों को विस्तारपूर्वक समझते हैं:


🪙 1. स्वर्णमान (Gold Standard)

🔶 परिभाषा

स्वर्णमान वह प्रणाली है जिसमें मुद्रा का मूल्य सोने (Gold) पर आधारित होता है और सरकार मुद्रा को सोने में निर्धारित दर पर परिवर्तित करने की गारंटी देती है।

🔷 विशेषताएँ

  • मुद्रा को सोने में बदला जा सकता है।

  • सरकार के पास पर्याप्त स्वर्ण भंडार होना आवश्यक होता है।

  • यह प्रणाली अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में स्थिरता लाती है।

🔷 स्वर्णमान के उप-प्रकार

✅ (A) स्वर्ण सिक्का मान (Gold Coin Standard)

  • सोने के वास्तविक सिक्कों का प्रचलन।

  • मुद्रा और वस्तु एक ही होती थी।

✅ (B) स्वर्ण बुल्क मान (Gold Bullion Standard)

  • मुद्रा को सोने की सिल्लियों में बदला जा सकता था, सिक्कों में नहीं।

✅ (C) स्वर्ण विनिमय मान (Gold Exchange Standard)

  • मुद्रा को पहले विदेशी मुद्रा में बदला जाता, फिर उस विदेशी मुद्रा को सोने में।

📌 भारत में प्रयोग:

भारत में 1898 से 1931 तक स्वर्ण विनिमय मान प्रणाली लागू रही।


🥈 2. रजतमान (Silver Standard)

🔶 परिभाषा

रजतमान वह प्रणाली है जिसमें मुद्रा का मूल्य चांदी (Silver) पर आधारित होता है और सरकार मुद्रा को चांदी में परिवर्तित करने की गारंटी देती है।

🔷 विशेषताएँ

  • मुद्रा की इकाई एक निश्चित मात्रा की चांदी पर आधारित होती है।

  • मुद्रा का सोने से कोई संबंध नहीं होता।

  • यह प्रणाली आमतौर पर उन देशों में अपनाई गई जहाँ चांदी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी।

🔷 लाभ

  • चांदी सस्ती होती थी इसलिए गरीब और मध्यम वर्ग के लिए अनुकूल।

  • मुद्रा प्रणाली को सरल बनाती थी।

🔷 सीमाएँ

  • चांदी की कीमतों में अस्थिरता।

  • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में कठिनाई क्योंकि अधिकांश देश स्वर्णमान का अनुसरण करते थे।

📌 भारत में प्रयोग:

भारत में 1835 से 1893 तक रजतमान प्रणाली प्रभावी रही। बाद में भारत ने स्वर्ण विनिमय मान अपनाया।


💰 3. द्विधातुमान (Bimetallic Standard)

🔶 परिभाषा

द्विधातुमान वह प्रणाली है जिसमें मुद्रा दो धातुओं – सोना और चांदी – पर आधारित होती है। इन दोनों को कानूनी मान्यता प्राप्त होती है और दोनों को समान रूप से मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

🔷 विशेषताएँ

  • दोनों धातुएँ – सोना और चांदी – विनिमय के लिए मान्य होती हैं।

  • सरकार दोनों के लिए निश्चित मूल्य अनुपात (Mint Ratio) निर्धारित करती है।

  • दोनों के सिक्के कानूनी रूप से चलन में होते हैं।

🔷 लाभ

  • मुद्रा प्रणाली में अधिक लचीलापन।

  • यदि एक धातु की आपूर्ति कम हो जाए, तो दूसरी से पूर्ति की जा सकती है।

  • गरीबों के लिए चांदी और अमीरों के लिए सोने की सुविधा।

🔷 समस्याएँ

  • यदि सोना और चांदी के बाजार मूल्य में अंतर आता है तो लोग अधिक मूल्य वाली धातु को संचित करने लगते हैं।

  • इससे मुद्रा संकट उत्पन्न हो सकता है (जिसे ग्रेसम का नियम कहा जाता है – “खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को बाहर कर देती है”)।

📌 भारत में स्थिति:

भारत ने द्विधातुमान को कभी पूर्ण रूप से लागू नहीं किया, लेकिन यूरोप के कई देशों ने 19वीं सदी में इस प्रणाली को अपनाया था।


🧠 अतिरिक्त जानकारी: धातुमान प्रणाली से पत्रमान प्रणाली की ओर

  • प्रथम विश्व युद्ध (1914) और महामंदी (1930) के बाद अधिकांश देशों ने धातुमान प्रणाली को छोड़ दिया।

  • अब अधिकांश देशों ने पत्रमान प्रणाली को अपना लिया है जिसमें मुद्रा का कोई धातु आधार नहीं होता।


✅ निष्कर्ष

धातुमान प्रणाली ने प्राचीन और मध्यकालीन आर्थिक संरचना में स्थिरता, पारदर्शिता और विश्वास को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई। स्वर्णमान जहाँ मुद्रा की उच्च विश्वसनीयता का प्रतीक था, वहीं रजतमान आम जनता के लिए सरल था और द्विधातुमान दोनों का समन्वय करने का प्रयास था। हालांकि बदलते समय और वैश्विक व्यापार की आवश्यकताओं के अनुरूप अब धातुमान की जगह लचीली और डिजिटल मुद्रा प्रणालियाँ ले रही हैं। फिर भी आर्थिक इतिहास के अध्ययन में धातुमान के प्रकारों की जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण है।




📚 प्रश्न 08: फिशर के सिद्धांत की मान्यताओं सहित आलोचना कीजिए।


🏛️ प्रस्तावना

मुद्रास्फीति (Inflation) और मुद्रा की क्रयशक्ति (Purchasing Power) के बीच संबंध को समझने के लिए अर्थशास्त्र में कई सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं। इनमें सबसे प्रमुख सिद्धांत है इरविंग फिशर (Irving Fisher) द्वारा प्रस्तुत किया गया मात्रात्मक मुद्रा सिद्धांत (Quantity Theory of Money)। फिशर ने मुद्रा की मात्रा और मूल्य स्तर के बीच प्रत्यक्ष संबंध को रेखांकित किया। यह सिद्धांत मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन को मूल्य स्तर में परिवर्तन का प्रमुख कारण मानता है।


🔷 फिशर का मात्रात्मक मुद्रा सिद्धांत


🔶 सिद्धांत का सूत्र (Equation of Exchange)

फिशर ने अपने सिद्धांत को निम्नलिखित गणितीय सूत्र द्वारा प्रस्तुत किया:

MV = PT

जहाँ:

  • M = मुद्रा की मात्रा (Money Supply)

  • V = मुद्रा का वेग (Velocity of Money)

  • P = मूल्य स्तर (Price Level)

  • T = लेन-देन की मात्रा (Volume of Transactions)

📌 इसका अर्थ है कि किसी अर्थव्यवस्था में कुल खर्च (MV) वस्तुओं और सेवाओं के कुल मूल्य (PT) के बराबर होता है।


🔷 फिशर के सिद्धांत की प्रमुख मान्यताएँ (Assumptions)

फिशर के सिद्धांत की सटीकता कुछ निश्चित मान्यताओं पर आधारित है:

✅ 1. मुद्रा का वेग (V) स्थिर होता है

यह मान लिया गया कि मुद्रा की गति समय के साथ नहीं बदलती।

✅ 2. लेन-देन की मात्रा (T) स्थिर रहती है

कहा गया कि उत्पादन और वस्तुओं की मात्रा में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होता।

✅ 3. पूर्ण रोजगार की स्थिति

सिद्धांत यह मानता है कि संसाधनों का पूर्ण उपयोग हो रहा है और बेरोजगारी नहीं है।

✅ 4. मुद्रा केवल विनिमय का माध्यम है

मुद्रा को केवल वस्तुओं और सेवाओं की खरीद के लिए प्रयोग किया जाता है, उसका कोई और उपयोग नहीं।

✅ 5. बचत या जमाखोरी नहीं होती

व्यक्ति अपनी सारी आय को व्यय कर देता है।

✅ 6. बैंकिंग प्रणाली और क्रेडिट की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया गया है

फिशर ने केवल नकदी मुद्रा (cash money) को ध्यान में रखा।


📊 सिद्धांत का व्यावहारिक व्याख्या

अगर M (मुद्रा की मात्रा) में वृद्धि होती है और V तथा T स्थिर रहते हैं, तो P (मूल्य स्तर) में वृद्धि होगी।
📌 उदाहरण:
यदि सरकार अधिक मुद्रा छापती है लेकिन उत्पादन नहीं बढ़ता, तो वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी यानी मुद्रास्फीति होगी।


🔎 फिशर सिद्धांत की उपयोगिता

✅ 1. मूल्य स्तर और मुद्रा के बीच संबंध स्पष्ट करता है

यह सिद्धांत मुद्रा की मात्रा को मुद्रास्फीति का प्रमुख कारण बताता है।

✅ 2. नीति निर्धारण में सहायक

केंद्रीय बैंक और सरकारें मुद्रा की आपूर्ति नियंत्रित कर मूल्य स्थिरता बनाए रख सकती हैं।

✅ 3. सरल और गणितीय रूप से स्पष्ट

यह सिद्धांत सैद्धांतिक रूप से समझने में आसान और तर्कसंगत है।


❌ फिशर के सिद्धांत की आलोचना (Criticism of Fisher's Theory)

अब आइए विस्तार से समझते हैं कि इस सिद्धांत की किन-किन आधारों पर आलोचना की गई:


🔶 1. मुद्रा का वेग (V) स्थिर नहीं होता

👉 आलोचकों के अनुसार, V समय, आर्थिक गतिविधियों और तकनीक के अनुसार बदलता रहता है।
📌 जैसे: डिजिटल भुगतान और ऑनलाइन बैंकिंग से मुद्रा का वेग बढ़ गया है।


🔶 2. लेन-देन की मात्रा (T) स्थिर नहीं रहती

👉 उत्पादन और व्यापार की मात्रा समय के साथ बढ़ती-घटती रहती है।
📌 जैसे: कोविड जैसी आपदा में उत्पादन घटा, जबकि कुछ समय बाद तेज़ी से बढ़ा।


🔶 3. पूर्ण रोजगार की धारणा अव्यवहारिक है

👉 वास्तविक जीवन में बेरोजगारी बनी रहती है। अतः पूर्ण रोजगार की धारणा त्रुटिपूर्ण है।


🔶 4. क्रेडिट और बैंकिंग प्रणाली की उपेक्षा

👉 आधुनिक अर्थव्यवस्था में बैंक ऋण और क्रेडिट का बहुत बड़ा योगदान होता है जिसे फिशर ने नहीं माना।


🔶 5. मुद्रा के अन्य कार्यों की अनदेखी

👉 मुद्रा केवल विनिमय का ही नहीं, बल्कि मूल्य संचय और मापदंड का भी कार्य करती है।


🔶 6. मूल्य स्तर केवल मुद्रा से प्रभावित नहीं होता

👉 मूल्य स्तर पर अन्य कारकों जैसे – उत्पादन लागत, कर प्रणाली, सरकार की नीति, आय वितरण आदि का भी प्रभाव पड़ता है।


🔶 7. व्यवहारिक परीक्षण में असफल

👉 कई बार देखा गया कि मुद्रा की मात्रा बढ़ने पर भी मूल्य स्तर स्थिर रहता है, विशेषकर मंदी की स्थिति में।


📚 केन्स की आलोचना (Keynesian Critique)

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स ने फिशर के सिद्धांत की तीव्र आलोचना की और कहा:

"मात्रात्मक सिद्धांत अत्यधिक सरलीकरण करता है और यह व्यावहारिक परिस्थितियों को नज़रअंदाज़ करता है।"

उनका कहना था कि मांग-पक्षीय कारकों, जैसे उपभोग प्रवृत्ति, निवेश का स्तर, ब्याज दर आदि का भी मूल्य स्तर पर गहरा प्रभाव होता है।


✅ निष्कर्ष

फिशर का मात्रात्मक मुद्रा सिद्धांत मुद्रा और मूल्य स्तर के बीच प्रत्यक्ष और सकारात्मक संबंध को स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास था। इसने आर्थिक विचारधारा में नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया और मुद्रा प्रबंधन में सहायक सिद्ध हुआ। हालांकि इसकी सीमाएँ और अवास्तविक मान्यताओं के कारण इसे आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिए अपूर्ण और सरलीकृत सिद्धांत माना जाता है। फिर भी यह सिद्धांत अर्थशास्त्र के छात्रों और नीति निर्माताओं के लिए एक आधारभूत सोच प्रदान करता है।


📌 अंततः कहा जा सकता है:
फिशर का सिद्धांत सिद्धांत रूप में महत्वपूर्ण, लेकिन व्यवहार में सीमित है। आधुनिक अर्थव्यवस्था को समझने के लिए इसे अन्य कारकों के साथ समेकित रूप में देखा जाना चाहिए।




🧠 प्रश्न 09: फ्रीडमैन के मुद्रा परिमाण सिद्धांत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।


🏛️ प्रस्तावना

20वीं सदी के महान अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन (Milton Friedman) ने पारंपरिक मात्रात्मक मुद्रा सिद्धांत को नया दृष्टिकोण दिया। उन्होंने मुद्रा की भूमिका को दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता के रूप में व्याख्यायित किया और इस विचार को प्रस्तुत किया कि मुद्रास्फीति सदैव और सर्वत्र एक मौद्रिक घटना होती है। उन्होंने अपने इस दृष्टिकोण को "मुद्रा परिमाण सिद्धांत (Quantity Theory of Money – Restated)" के रूप में प्रस्तुत किया। यह सिद्धांत मुद्रा की मांग, उसकी आपूर्ति और मूल्य स्तर के बीच गहरे संबंध को दर्शाता है।


📘 फ्रीडमैन का मुद्रा परिमाण सिद्धांत – परिचय


🔷 पारंपरिक सिद्धांत से अलग दृष्टिकोण

पारंपरिक मात्रात्मक सिद्धांत (जैसे फिशर का MV = PT) केवल मुद्रा की मात्रा पर केंद्रित था, जबकि फ्रीडमैन का सिद्धांत मुद्रा की मांग (Demand for Money) पर आधारित है।

👉 उनका मत था कि लोग अपनी कुल संपत्ति का एक भाग मुद्रा के रूप में रखना चाहते हैं। अतः मुद्रा की मांग भी वास्तविक आय, ब्याज दर, मुद्रास्फीति, धन की प्रत्याशित वापसी आदि पर निर्भर करती है।


🔶 फ्रीडमैन का समीकरण

फ्रीडमैन ने मुद्रा की मांग को इस प्रकार व्यक्त किया:

Md/P = f (Y, rB, rE, πe, u)

जहाँ:

  • Md = मुद्रा की मांग

  • P = मूल्य स्तर

  • Y = वास्तविक आय

  • rB = बॉन्ड से मिलने वाला ब्याज

  • rE = शेयर से प्राप्त आय

  • πe = प्रत्याशित मुद्रास्फीति

  • u = अन्य मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक कारक

👉 यह समीकरण दर्शाता है कि मुद्रा की मांग बहुआयामी कारकों पर आधारित है, न कि केवल लेन-देन की मात्रा पर।


🔷 फ्रीडमैन के सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएँ

✅ 1. मुद्रा एक संपत्ति है

फ्रीडमैन के अनुसार लोग मुद्रा को उसी तरह रखते हैं जैसे वे बॉन्ड, भूमि या शेयर रखते हैं – यानी एक संपत्ति के रूप में।

✅ 2. मुद्रा की मांग स्थिर होती है

उन्होंने यह तर्क दिया कि दीर्घकाल में मुद्रा की मांग स्थिर रहती है, जिससे मुद्रा की आपूर्ति को नीति निर्धारण के लिए अधिक भरोसेमंद बनाया जा सकता है।

✅ 3. ब्याज दर की सीमित भूमिका

फ्रीडमैन ने केन्स की तरह मुद्रा की मांग में ब्याज दर को महत्वपूर्ण नहीं माना, बल्कि अन्य आर्थिक कारकों को अधिक महत्व दिया।

✅ 4. लंबी अवधि में केवल मुद्रा की आपूर्ति ही मूल्य स्तर को नियंत्रित करती है

उनके अनुसार उत्पादन, तकनीकी प्रगति और उत्पादकता जैसे कारक अल्पकाल में मूल्य स्तर को प्रभावित नहीं करते।


📊 फ्रीडमैन सिद्धांत की उपयोगिता


🔷 ✅ दीर्घकालिक मूल्य स्थिरता का समर्थन

यह सिद्धांत बताता है कि यदि मुद्रा की आपूर्ति को स्थिर रखा जाए, तो अर्थव्यवस्था में दीर्घकालिक मूल्य स्थिरता बनी रह सकती है।

🔷 ✅ मौद्रिक नीति के महत्व को रेखांकित करता है

फ्रीडमैन का सिद्धांत बताता है कि राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) की तुलना में मौद्रिक नीति (Monetary Policy) अधिक प्रभावशाली होती है।

🔷 ✅ केन्सवाद की सीमाओं का समाधान

फ्रीडमैन ने केन्स की अल्पकालिक मांग-आधारित अर्थव्यवस्था को दीर्घकालिक आपूर्ति-आधारित सिद्धांत से प्रतिस्थापित करने की कोशिश की।


❌ फ्रीडमैन सिद्धांत की आलोचना (Criticism of Friedman’s Theory)


🔶 1. मुद्रा की मांग स्थिर नहीं रहती

👉 व्यवहार में देखा गया है कि आर्थिक अस्थिरता, तकनीकी परिवर्तन और वित्तीय नवाचार के कारण मुद्रा की मांग में उतार-चढ़ाव होते हैं।

📌 उदाहरण: डिजिटल भुगतान और UPI ने मुद्रा की मांग को कम कर दिया।


🔶 2. ब्याज दर की भूमिका को कम आँकना

👉 फ्रीडमैन ने ब्याज दर को महत्व नहीं दिया, जबकि कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि यह मुद्रा की मांग पर गहरा प्रभाव डालती है।


🔶 3. अल्पकालिक स्थितियों की उपेक्षा

👉 फ्रीडमैन का सिद्धांत दीर्घकालिक स्थितियों में लागू होता है, परंतु अल्पकाल में जब बाजार असंतुलित हो, तब यह सिद्धांत उपयोगी नहीं होता।


🔶 4. मुद्रास्फीति पर पूर्ण नियंत्रण संभव नहीं

👉 मुद्रा की आपूर्ति नियंत्रित करने मात्र से महंगाई पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता, क्योंकि अन्य कारक जैसे – उत्पादन लागत, विदेशी व्यापार, कर नीति आदि भी प्रभावी होते हैं।


🔶 5. राजकोषीय नीति की उपेक्षा

👉 फ्रीडमैन ने मौद्रिक नीति को अधिक महत्व दिया और राजकोषीय नीति की प्रभावशीलता को नजरअंदाज किया, जबकि व्यावहारिक रूप में दोनों का संतुलन आवश्यक है।


🔶 6. वास्तविक आय और संपत्ति वितरण की अनदेखी

👉 सिद्धांत में यह नहीं बताया गया कि विभिन्न वर्गों की मुद्रा रखने की प्रवृत्ति कैसे अलग होती है। गरीब और अमीर वर्गों की मुद्रा धारणा एक समान नहीं होती।


🔶 7. अमेरिका केंद्रित दृष्टिकोण

👉 फ्रीडमैन का मॉडल मुख्यतः अमेरिका जैसे विकसित देशों की परिस्थितियों पर आधारित है, जबकि विकासशील देशों में यह हमेशा लागू नहीं होता।


📚 केन्स बनाम फ्रीडमैन

विषयकेन्स का दृष्टिकोणफ्रीडमैन का दृष्टिकोण
मुद्रा की मांगब्याज दर पर निर्भरआय व संपत्ति पर निर्भर
नीति का जोरराजकोषीय नीतिमौद्रिक नीति
दृष्टिकोणअल्पकालिकदीर्घकालिक
मुद्रा का कार्यकेवल विनिमयसंपत्ति के रूप में भी

✅ निष्कर्ष

फ्रीडमैन का मुद्रा परिमाण सिद्धांत आधुनिक मौद्रिक अर्थशास्त्र में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसने मात्रात्मक सिद्धांत को नवजीवन दिया और नीति निर्माताओं को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया। हालांकि इसमें कुछ व्यवहारिक सीमाएँ हैं, फिर भी यह सिद्धांत यह समझने में मदद करता है कि मुद्रा की मात्रा में स्थिरता किस प्रकार मूल्य स्तर को प्रभावित करती है।

📌 इसलिए निष्कर्षतः कहा जा सकता है:

"फ्रीडमैन का सिद्धांत दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता और मुद्रास्फीति नियंत्रण का एक प्रभावशाली उपकरण है, लेकिन इसे व्यवहार में लाने के लिए अन्य कारकों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है।"




💰 प्रश्न 10: मुद्रा पूर्ति के अवयवों और निर्धारकों की विवेचना कीजिए।


🏛️ प्रस्तावना

मुद्रा पूर्ति (Money Supply) किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह दर्शाती है कि किसी निश्चित समय पर अर्थव्यवस्था में कुल कितनी मुद्रा उपलब्ध है। मुद्रा पूर्ति का सीधा संबंध देश की मौद्रिक नीति, मूल्य स्तर, ब्याज दर, तथा आर्थिक विकास से होता है। मुद्रा की मात्रा बढ़ने या घटने से मुद्रास्फीति (Inflation) या मंदी (Recession) जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए मुद्रा पूर्ति को नियंत्रित करना किसी भी देश के केंद्रीय बैंक की प्रमुख जिम्मेदारी होती है।


📘 मुद्रा पूर्ति की परिभाषा

"किसी देश में एक निश्चित समय पर जनता के पास उपलब्ध चलनशील मुद्रा और मांग जमा (Demand Deposits) की कुल मात्रा को मुद्रा पूर्ति कहते हैं।"

🔹 सरल शब्दों में,

"M = C + DD"
जहाँ,
M = मुद्रा पूर्ति
C = जनता के पास नकद मुद्रा (Currency with public)
DD = मांग जमाएं (Demand Deposits with Banks)


🔹 भाग 1: मुद्रा पूर्ति के प्रमुख अवयव (Components of Money Supply)


भारत में मुद्रा पूर्ति को भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने विभिन्न मापदंडों (measures) में विभाजित किया है:

🔷 1️⃣ M1 – संकीर्ण मुद्रा (Narrow Money)

यह सबसे सरल और तुरंत उपलब्ध मुद्रा है।

🔸 अवयव:

  • जनता के पास नकद मुद्रा (C)

  • मांग जमाएं (DD)

  • अन्य मांग जमाएं (OD)

📌 M1 = C + DD + OD


🔷 2️⃣ M2 – M1 + बचत बैंक जमा

  • यह M1 में पोस्ट ऑफिस की बचत जमाओं को भी जोड़ता है।
    📌 M2 = M1 + बचत डाकघर जमाएं


🔷 3️⃣ M3 – विस्तृत मुद्रा (Broad Money)

भारत में मौद्रिक विश्लेषण के लिए सबसे अधिक उपयोग में आने वाला मापदंड।

🔸 अवयव:

  • M1 + बैंक की अवधि जमाएं (Time Deposits)

📌 M3 = M1 + TD (with Commercial Banks)
➡ इसे सकल मुद्रा पूर्ति (Aggregate Monetary Resource) भी कहते हैं।


🔷 4️⃣ M4 – सबसे विस्तृत माप

  • M3 + डाकघर की कुल जमा राशि
    📌 M4 = M3 + कुल डाकघर जमा


📌 विशेष नोट:

  • M1 और M2 → अधिक तरल (Liquid)

  • M3 और M4 → कम तरल पर व्यापक


🔸 भाग 2: मुद्रा पूर्ति के निर्धारक (Determinants of Money Supply)


🔶 1️⃣ उच्चाधार मुद्रा (High Powered Money or Reserve Money)

  • इसे H या Base Money भी कहते हैं।

  • यह वह मुद्रा होती है जो RBI द्वारा सीधे बनाई जाती है।

  • इसमें शामिल हैं:

    • चलन में मुद्रा (Currency in circulation)

    • बैंकों की RBI में जमा राशि (Reserves)

📌 H = C + R
👉 यह मुद्रा पूर्ति का सबसे बुनियादी आधार है।


🔶 2️⃣ मुद्रा गुणक (Money Multiplier)

  • यह दर्शाता है कि किसी अर्थव्यवस्था में उच्चाधार मुद्रा के आधार पर कुल मुद्रा पूर्ति कितनी बार बढ़ती है।

📌 मुद्रा गुणक = मुद्रा पूर्ति / उच्चाधार मुद्रा
➡ यदि मुद्रा गुणक 4 है और H = ₹1000 करोड़ है, तो M = ₹4000 करोड़ होगी।


🔶 3️⃣ केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति

  • भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ब्याज दरें, नकद आरक्षित अनुपात (CRR), सांविधिक तरलता अनुपात (SLR) आदि को नियंत्रित कर मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करता है।

📌 उदाहरण:
CRR बढ़ाने से बैंकों के पास ऋण देने योग्य राशि घटती है, जिससे मुद्रा पूर्ति कम होती है।


🔶 4️⃣ वाणिज्यिक बैंकों की ऋण सृजन क्षमता

  • बैंकों द्वारा दिए गए ऋण भी मुद्रा पूर्ति में वृद्धि करते हैं क्योंकि यह प्रक्रिया क्रेडिट क्रिएशन (Credit Creation) कहलाती है।

📌 जितना अधिक बैंक ऋण देंगे, उतनी अधिक मुद्रा प्रणाली में प्रवेश करेगी।


🔶 5️⃣ सरकार की वित्तीय नीति

  • जब सरकार राजकोषीय घाटा बढ़ाती है और RBI से ऋण लेती है, तो वह मुद्रा सृजन का कारण बनता है।

📌 इसे "Deficit Financing" कहते हैं।


🔶 6️⃣ विदेशी मुद्रा भंडार में बदलाव

  • जब RBI विदेशी मुद्रा खरीदता है, तो वह रुपये जारी करता है, जिससे मुद्रा पूर्ति बढ़ती है।

📌 उदाहरण: निर्यात बढ़ने से डॉलर आता है, RBI डॉलर लेकर रुपये देता है, जिससे मुद्रा बढ़ती है।


🔶 7️⃣ जनता की मुद्रा धारणा

  • यदि जनता नकद मुद्रा अधिक रखना चाहती है तो बैंकिंग प्रणाली में ऋण सृजन घटेगा।

  • इससे मुद्रा पूर्ति पर प्रभाव पड़ेगा।

📌 यह एक व्यवहारिक और मनोवैज्ञानिक निर्धारक होता है।


🔶 8️⃣ टेक्नोलॉजी और डिजिटल बैंकिंग

  • आज के समय में UPI, इंटरनेट बैंकिंग और e-wallets जैसे डिजिटल माध्यमों ने मुद्रा के व्यवहार और गति को प्रभावित किया है।

📌 इससे मुद्रा का वेग (Velocity of Money) बढ़ता है, और मुद्रा पूर्ति की प्रभावशीलता भी बढ़ती है।


📊 मुद्रा पूर्ति के अवयव बनाम निर्धारक – एक तालिका

श्रेणीअवयव (Components)निर्धारक (Determinants)
आधारM1, M2, M3, M4उच्चाधार मुद्रा (H)
व्यवहारनकद + जमामुद्रा धारणा
नीतिगतनहींRBI की मौद्रिक नीति
तकनीकीनहींडिजिटल भुगतान प्रणाली
अंतर्राष्ट्रीयनहींविदेशी मुद्रा भंडार

✅ निष्कर्ष

मुद्रा पूर्ति किसी भी देश की आर्थिक गतिविधियों का मेरुदंड होती है। इसके अवयव जैसे – नकद मुद्रा, मांग और समय जमाएं, मुद्रा को परिभाषित करते हैं, जबकि निर्धारक – जैसे उच्चाधार मुद्रा, मौद्रिक नीति, ब्याज दर, सरकारी व्यय, क्रेडिट सृजन – मुद्रा की मात्रा को प्रभावित करते हैं। यदि मुद्रा पूर्ति अत्यधिक हो जाती है, तो मुद्रास्फीति बढ़ती है, और यदि कम हो, तो मंदी की स्थिति उत्पन्न होती है।

📌 इसलिए निष्कर्षतः कहा जा सकता है:

“मुद्रा पूर्ति का संतुलन बनाए रखना आर्थिक स्थिरता, विकास और मूल्य स्थिरता के लिए अत्यंत आवश्यक है।”





🏛️ प्रश्न 11: भारत में मुद्रा पूर्ति के विभिन्न कार्यों की व्याख्या कीजिए।


🔰 प्रस्तावना

मुद्रा पूर्ति (Money Supply) का तात्पर्य किसी अर्थव्यवस्था में एक निश्चित समय पर उपलब्ध कुल मुद्रा से है, जिसमें नकद मुद्रा, बैंक जमाएं और अन्य तरल संपत्तियाँ शामिल होती हैं। भारत जैसे विशाल और विकासशील देश में मुद्रा पूर्ति की भूमिका बहुआयामी है – यह न केवल व्यापार और लेन-देन को सुगम बनाती है, बल्कि आर्थिक नीति, विकास योजनाओं, और बाजार की स्थिरता में भी सहायक होती है।

👉 इस उत्तर में हम भारत में मुद्रा पूर्ति के प्रमुख कार्यों को विस्तारपूर्वक समझेंगे।


🔷 1. व्यापार और विनिमय का माध्यम


💡 मुद्रा का प्रमुख कार्य: लेन-देन को सरल बनाना

मुद्रा पूर्ति का सबसे पहला और प्राथमिक कार्य है — विनिमय का माध्यम बनना। भारत में करोड़ों लोग प्रतिदिन वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान करते हैं, और यह सब संभव हो पाता है पर्याप्त मात्रा में चलनशील मुद्रा के कारण।

📌 उदाहरण:

  • सब्ज़ी ख़रीदने से लेकर मोबाइल खरीदने तक हर जगह मुद्रा ही विनिमय का माध्यम है।

  • UPI जैसे डिजिटल माध्यम भी इसी पूर्ति का हिस्सा हैं।


🔷 2. मूल्य मापन की इकाई (Unit of Account)


💡 वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य निर्धारित करने में सहायक

भारत में मुद्रा मूल्य मापन का एक सार्वभौमिक मानक है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु या सेवा की कीमत को हम रुपये में अभिव्यक्त कर सकते हैं।

📌 उदाहरण:

  • एक किलो गेहूं ₹30 में बिकता है, एक बाइक ₹1,00,000 में।

  • यह मूल्य की एकरूपता लाता है और लेन-देन को पारदर्शी बनाता है।


🔷 3. क्रय शक्ति का संचय (Store of Value)


💡 भविष्य की जरूरतों के लिए धन का संग्रह

मुद्रा पूर्ति लोगों को अपनी आय को भविष्य के लिए संचय करने का साधन प्रदान करती है। भारत में लाखों लोग अपनी कमाई को बैंक खातों, फिक्स्ड डिपॉजिट, या नकद रूप में संचित रखते हैं।

📌 उदाहरण:

  • बचत खाते में जमा पैसे

  • पेंशन, बीमा आदि के लिए बचाया गया धन

👉 इससे लोगों को आर्थिक सुरक्षा का अनुभव होता है।


🔷 4. ऋणों की माप और पुनर्भुगतान


💡 उधारी का लेन-देन संभव बनाना

भारत में मुद्रा पूर्ति का एक और महत्त्वपूर्ण कार्य है – ऋण व्यवस्था को संभव बनाना। मुद्रा में उधार लिया और दिया जाना आसान होता है, क्योंकि यह एक स्वीकार्य मापदंड है।

📌 उदाहरण:

  • बैंक से ₹2 लाख का होम लोन

  • क्रेडिट कार्ड से ₹10,000 की खरीदारी

👉 मुद्रा के रूप में उधारी और पुनर्भुगतान का प्रावधान भारत की आर्थिक गतिशीलता को बनाए रखता है।


🔷 5. मौद्रिक नीति के कार्यान्वयन में सहायक


💡 RBI मुद्रा पूर्ति के माध्यम से मूल्य और विकास को नियंत्रित करता है

भारत का भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करके मुद्रास्फीति, ब्याज दरों, और आर्थिक विकास को प्रभावित करता है। इस प्रक्रिया में मुद्रा पूर्ति की जानकारी और उसके नियंत्रण की तकनीकें अत्यंत आवश्यक हैं।

📌 उदाहरण:

  • CRR और SLR में परिवर्तन

  • REPO दर घटाकर बाज़ार में नकदी प्रवाह बढ़ाना

👉 मुद्रा पूर्ति के माध्यम से RBI बाजार को संतुलित करता है।


🔷 6. आर्थिक योजनाओं और विकास में योगदान


💡 भारत की पंचवर्षीय योजनाओं और योजनाबद्ध विकास में मुद्रा का उपयोग

विकासशील देश होने के कारण भारत में सरकार अनेक योजनाएँ चलाती है – जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत मिशन, मनरेगा आदि। इन योजनाओं को वित्तीय सहायता देने में मुद्रा पूर्ति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

📌 उदाहरण:

  • योजनाओं के लिए बजट आबंटन

  • सब्सिडी और DBT (Direct Benefit Transfer) के ज़रिए राशि स्थानांतरण


🔷 7. बाजार में मांग और आपूर्ति को संतुलित करना


💡 मुद्रा की उपलब्धता से माँग को प्रोत्साहन

जब लोगों के पास पर्याप्त मुद्रा होती है तो वे अधिक खरीददारी करते हैं। इससे बाज़ार में माँग बढ़ती है, उत्पादन को बढ़ावा मिलता है और रोजगार सृजित होता है।

📌 उदाहरण:

  • त्योहारी सीजन में नकदी की आपूर्ति

  • किसान ऋण माफी से क्रयशक्ति में वृद्धि

👉 इस प्रकार मुद्रा पूर्ति आर्थिक चक्र को गति देती है।


🔷 8. वित्तीय समावेशन (Financial Inclusion) में सहायक


💡 मुद्रा के माध्यम से समाज के अंतिम व्यक्ति तक सेवाएं पहुँचना

भारत सरकार और RBI दोनों ने "जन धन योजना" जैसी योजनाओं के माध्यम से वित्तीय समावेशन को बढ़ावा दिया है, जिससे प्रत्येक नागरिक को बैंकिंग प्रणाली से जोड़ा जा सके।

📌 उदाहरण:

  • जनधन खाते

  • मोबाइल बैंकिंग और आधार आधारित भुगतान

👉 इससे ग्रामीण और गरीब वर्ग को आर्थिक मुख्यधारा में लाने में सहायता मिलती है।


📊 तालिका: मुद्रा पूर्ति के कार्य – एक संक्षिप्त दृष्टिकोण

क्रमकार्यविवरण
1️⃣विनिमय का माध्यमव्यापार को सरल बनाना
2️⃣मूल्य मापनवस्तुओं की कीमत तय करना
3️⃣संचयभविष्य के लिए धन बचाना
4️⃣ऋण व्यवस्थाउधारी और पुनर्भुगतान संभव
5️⃣मौद्रिक नीतिमूल्य स्थिरता और विकास में सहायक
6️⃣योजनाएँसरकारी योजनाओं का संचालन
7️⃣मांग-आपूर्ति संतुलनबाज़ार में स्थिरता लाना
8️⃣वित्तीय समावेशनसभी को बैंकिंग से जोड़ना

✅ निष्कर्ष

भारत में मुद्रा पूर्ति के कार्य केवल विनिमय तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह व्यापक आर्थिक विकास, योजनाओं के क्रियान्वयन, बाजार संतुलन, और सामाजिक समावेशन जैसे क्षेत्रों में भी निर्णायक भूमिका निभाती है। यदि मुद्रा की पूर्ति संतुलित होती है, तो इससे महँगाई को नियंत्रित किया जा सकता है, निवेश को बढ़ावा दिया जा सकता है और रोजगार उत्पन्न किया जा सकता है।

📌 अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है:

“भारत की आर्थिक उन्नति, स्थिरता और समावेशिता को सुनिश्चित करने में मुद्रा पूर्ति की बहुआयामी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।”


 हमें उम्मीद है कि BAEC(N)202 – मुद्रा, बैंकिंग एवं अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र विषय से जुड़े ये 11 हल किए गए महत्वपूर्ण प्रश्न आपके आगामी सेमेस्टर परीक्षा की तैयारी में बेहद सहायक सिद्ध होंगे।

📚 यदि आपको यह पोस्ट उपयोगी लगी हो, तो इसे अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें और ऐसे ही अन्य विषयों के लिए हमारी वेबसाइट या ब्लॉग को फॉलो करें।

✍️ अगर आपके पास कोई सवाल या सुझाव है, तो आप कमेंट या हमारे व्हाट्सएप ग्रुप के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं।



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.