अगर आप उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय (Uttarakhand Open University) के छात्र हैं ,और BA 4th Semester के Economics Subject – BAEC(N)202 मुद्रा बैंकिंग एवं अंतराष्ट्रीय अर्थशास्त्र के Sample Paper, Important Questions या Solved Papers की तलाश कर रहे हैं, तो आप बिल्कुल सही पोस्ट पर आए हैं।
क्योंकि इस पोस्ट में आपको इस विषय के 11 सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न उपलब्ध कराए जा रहे हैं — वो भी संपूर्ण हल (Solved Answers) के साथ।
यह प्रश्न न केवल परीक्षा दृष्टिकोण से अत्यंत उपयोगी हैं, बल्कि आपकी समझ को भी और मजबूत बनाएंगे।
प्रश्न 1: मुद्रा की परिभाषा दीजिए। वर्तमान में इसके महत्व की विवेचना कीजिए।
🔷 प्रस्तावना
मुद्रा किसी भी आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है। यह न केवल विनिमय का माध्यम है, बल्कि आर्थिक लेन-देन, मूल्य मापन और संचय का प्रमुख उपकरण भी है। समय के साथ मुद्रा के स्वरूप, प्रयोग और महत्व में काफी परिवर्तन आया है। वर्तमान युग में डिजिटल तकनीक ने मुद्रा की परिभाषा और भूमिका को और भी व्यापक बना दिया है।
🔶 मुद्रा की परिभाषा
मुद्रा वह सामान्य रूप से स्वीकृत वस्तु है जिसका
प्रयोग वस्तुओं और सेवाओं के लेन-देन, ऋण चुकाने और मूल्य मापने के लिए किया जाता है।
🔹 पॉल सैमुअलसन के अनुसार:
"मुद्रा वह वस्तु है जिसे समाज सामान्य रूप से भुगतान के माध्यम के रूप में स्वीकार करता है।"
🔹 क्रोथर के अनुसार:
"मुद्रा वह वस्तु है जिसे सामान्य रूप से विनिमय के माध्यम, मूल्य मापन, मूल्य संचय और भविष्य के भुगतान के रूप में स्वीकार किया जाता है।"
🔶 मुद्रा के प्रमुख स्वरूप
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धातु मुद्रा – जैसे तांबे, चांदी, सोने के सिक्के।
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कागजी मुद्रा – सरकार अथवा केंद्रीय बैंक द्वारा जारी की जाती है।
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बैंक मुद्रा – चेक, ड्राफ्ट, और बैंक ट्रांसफर आदि।
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डिजिटल मुद्रा (Digital Money) – जैसे UPI, नेट बैंकिंग, क्रेडिट/डेबिट कार्ड आदि।
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क्रिप्टो करेंसी (Cryptocurrency) – जैसे बिटकॉइन, जो अभी अधिकतर देशों में वैध नहीं है।
🔶 मुद्रा की विशेषताएं (Characteristics of Money)
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स्वीकार्यता – समाज में व्यापक रूप से स्वीकार की जाती है।
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स्थायित्व – मुद्रा लंबे समय तक बिना क्षतिग्रस्त रह सकती है।
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विभाज्यता – मुद्रा को छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है।
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स्थानांतरणीयता – इसे एक व्यक्ति से दूसरे को आसानी से हस्तांतरित किया जा सकता है।
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सामान्यता – सभी क्षेत्रों में एक समान उपयोग।
🔷 मुद्रा के प्रमुख कार्य (Functions of Money)
1. विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)
मुद्रा के माध्यम से वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान संभव होता है।
2. मूल्य मापन की इकाई (Unit of Value)
मुद्रा सभी वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य मापने का कार्य करती है।
3. मूल्य संचय (Store of Value)
मुद्रा को बचाकर भविष्य में खर्च किया जा सकता है।
4. भविष्य के भुगतान का साधन (Standard of Deferred Payment)
ऋणों की अदायगी और भविष्य में भुगतान के लिए उपयोग की जाती है।
🔷 वर्तमान समय में मुद्रा का महत्व
1. आर्थिक गतिविधियों की नींव
सभी प्रकार की आर्थिक गतिविधियाँ – उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग – मुद्रा के बिना असंभव हैं।
2. डिजिटल लेन-देन का युग
आज UPI, मोबाइल वॉलेट्स, क्रेडिट/डेबिट कार्ड्स ने नकद मुद्रा की जगह ले ली है। इससे लेन-देन तीव्र, सुरक्षित और पारदर्शी हुआ है।
3. नियंत्रण और निगरानी में सहायक
डिजिटल मुद्रा के माध्यम से सरकार टैक्स प्रणाली को अधिक पारदर्शी और प्रभावी बना पाई है।
4. व्यापार में वृद्धि
अंतरराष्ट्रीय व्यापार में मुद्रा विनिमय की सुविधा से वैश्विक व्यापार को बढ़ावा मिला है।
5. आर्थिक नियोजन का आधार
देश की आर्थिक नीति, मौद्रिक नीति, बजट आदि सभी मुद्रा की उपलब्धता और उपयोग पर आधारित होते हैं।
🔶 डिजिटल मुद्रा और उसका महत्व
1. तेज और सुरक्षित लेन-देन
डिजिटल भुगतान तेज और तत्काल होते हैं, जिससे समय की बचत होती है।
2. बिना नकदी अर्थव्यवस्था (Cashless Economy)
नकदी लेन-देन की समस्याओं जैसे चोरी, जाली नोट आदि से बचा जा सकता है।
3. रोज़गार और नवाचार के अवसर
डिजिटल फाइनेंस, फिनटेक कंपनियों के विकास से नए रोज़गार के अवसर उत्पन्न हुए हैं।
4. कोविड-19 के दौरान मुद्रा का डिजिटल महत्व
महामारी के समय में स्पर्श रहित लेन-देन का विकल्प केवल डिजिटल मुद्रा ही थी।
🔷 मुद्रा से संबंधित वर्तमान चुनौतियाँ
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मुद्रास्फीति (Inflation) – मुद्रा की मात्रा बढ़ने से कीमतें बढ़ जाती हैं।
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नकली नोट – नकद मुद्रा में नकली नोटों की समस्या।
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साइबर सुरक्षा – डिजिटल मुद्रा में धोखाधड़ी और हैकिंग की आशंका।
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अशिक्षा और डिजिटल साक्षरता की कमी – ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल मुद्रा का सीमित उपयोग।
🔶 मुद्रा के बिना अर्थव्यवस्था की कल्पना
मुद्रा के बिना हम एक बार्टर सिस्टम में चले जाते, जहाँ वस्तु के बदले वस्तु का विनिमय होता। यह प्रणाली अत्यंत असुविधाजनक और अव्यवस्थित होती। मुद्रा ने ही व्यापार, बाजार और आधुनिक जीवन को गति दी है।
🔷 निष्कर्ष
मुद्रा का अर्थव्यवस्था में वही स्थान है जो शरीर में रक्त का होता है। यह केवल वस्तु नहीं, बल्कि आर्थिक शक्ति का प्रतीक है। वर्तमान डिजिटल युग में मुद्रा का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है, जहाँ इसकी भूमिका केवल भुगतान तक सीमित न रहकर आर्थिक सशक्तिकरण, सुशासन और सामाजिक समावेशन में भी देखने को मिलती है।
🪙 प्रश्न 2: मुद्रा के स्थैतिक तथा प्रावैगिक कार्यों की व्याख्या कीजिए? एक विकासशील अर्थव्यवस्था में प्रावैगिक कार्यों की विवेचना कीजिए?
🔷 प्रस्तावना
मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक व्यवस्था की बुनियाद होती है। यह न केवल वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान का माध्यम है, बल्कि यह संपूर्ण आर्थिक गतिविधियों को सुचारु रूप से संचालित करने में सहायक भी है। मुद्रा के कार्यों को मुख्यतः स्थैतिक (Static) और प्रावैगिक (Dynamic) दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। स्थैतिक कार्य मुद्रा की पारंपरिक भूमिकाओं को दर्शाते हैं, जबकि प्रावैगिक कार्य आधुनिक आर्थिक विकास में मुद्रा की सक्रिय भूमिका को स्पष्ट करते हैं।
🔶 मुद्रा के स्थैतिक कार्य (Static Functions of Money)
स्थैतिक कार्य वे होते हैं जो मुद्रा की मूलभूत विशेषताओं और परंपरागत उपयोग से संबंधित होते हैं। इन्हें मूल कार्य (Primary Functions) भी कहा जाता है।
1. विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)
मुद्रा वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान का सबसे सुविधाजनक साधन है।
📌 उदाहरण: जब हम बाजार से सामान खरीदते हैं, तो मुद्रा के माध्यम से भुगतान करते हैं।
2. मूल्य मापन की इकाई (Unit of Value/Account)
मुद्रा के द्वारा हम वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य माप सकते हैं।
📌 उदाहरण: एक किताब ₹300 की है और एक पेन ₹30 का – दोनों का मूल्य मुद्रा में व्यक्त किया गया है।
3. मूल्य संचय (Store of Value)
मुद्रा को भविष्य की आवश्यकताओं के लिए बचाया जा सकता है।
📌 उदाहरण: हम अपनी आय को बैंक में जमा करके भविष्य में खर्च करते हैं।
4. भविष्य के भुगतान का माध्यम (Standard of Deferred Payment)
कई बार भुगतान तत्काल न होकर भविष्य में किया जाता है – मुद्रा इस स्थिति में अत्यंत सहायक होती है।
📌 उदाहरण: ऋण, किस्तों में भुगतान आदि।
🔷 मुद्रा के प्रावैगिक कार्य (Dynamic Functions of Money)
प्रावैगिक कार्य मुद्रा की उन भूमिकाओं को दर्शाते हैं जो आधुनिक आर्थिक व्यवस्था में इसके सक्रिय योगदान से संबंधित हैं। ये कार्य आर्थिक नीति, नियोजन, और विकास के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
1. राष्ट्रीय आय एवं उत्पादन को प्रभावित करना
मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन से देश की उत्पादन क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। अधिक मुद्रा से मांग बढ़ती है और उत्पादन को प्रोत्साहन मिलता है।
2. मूल्य स्थिरता बनाए रखना (Price Stability)
मुद्रा की नियंत्रित आपूर्ति के माध्यम से महंगाई और मंदी जैसी समस्याओं से निपटा जा सकता है।
3. पूंजी निर्माण में सहायता
मुद्रा बचत और निवेश को प्रेरित करती है, जिससे पूंजी का निर्माण होता है।
📌 Savings → Investment → Capital Formation
4. विकास की योजनाओं को कार्यान्वित करना
सरकार योजनाओं के वित्तपोषण के लिए मुद्रा का उपयोग करती है – जैसे सड़कें, अस्पताल, शिक्षा, उद्योगों का विकास आदि।
5. वित्तीय संस्थानों का संचालन
बैंकिंग, बीमा, शेयर बाजार जैसे संस्थान मुद्रा पर ही आधारित होते हैं, और ये संस्थान आर्थिक विकास को गति प्रदान करते हैं।
6. समाज में आर्थिक समानता लाना
प्रगतिशील कर प्रणाली, सब्सिडी, और सामाजिक योजनाओं के माध्यम से मुद्रा का वितरण सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है।
🔷 विकासशील अर्थव्यवस्था में प्रावैगिक कार्यों का महत्व
विकासशील देश जैसे भारत में मुद्रा के प्रावैगिक कार्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि ये देश औद्योगीकरण, शहरीकरण, और रोजगार सृजन की प्रक्रिया में होते हैं।
🔶 1. औद्योगीकरण को बढ़ावा देना
मुद्रा के माध्यम से सरकार और निजी क्षेत्र उद्योगों की स्थापना और विस्तार में पूंजी निवेश करते हैं।
🔶 2. बेरोजगारी को कम करना
विकास योजनाओं में मुद्रा के प्रवाह से नए रोजगार के अवसर उत्पन्न होते हैं। जैसे – मनरेगा योजना।
🔶 3. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम
मुद्रा का उपयोग गरीब वर्गों को आर्थिक सहायता देने के लिए किया जाता है।
📌 उदाहरण: जनधन योजना, DBT (Direct Benefit Transfer) आदि।
🔶 4. बुनियादी ढांचे का विकास
सड़कें, पुल, रेल, बिजली, जल आपूर्ति आदि के विकास में मुद्रा का प्रावैगिक उपयोग अत्यंत आवश्यक है।
🔶 5. शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश
सरकार मुद्रा के माध्यम से स्कूल, कॉलेज, अस्पताल जैसी सार्वजनिक सुविधाओं में निवेश करती है।
🔶 6. कृषि सुधार में सहायता
कृषि ऋण, बीज, खाद, सिंचाई आदि के लिए मुद्रा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
🔶 भारत के परिप्रेक्ष्य में प्रावैगिक कार्यों की विशेषता
भारत जैसे विकासशील देश में:
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RBI (भारतीय रिज़र्व बैंक) मौद्रिक नीति बनाकर मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करता है।
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सरकार वित्तीय बजट के माध्यम से मुद्रा का आवंटन विभिन्न क्षेत्रों में करती है।
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मुद्रा का उपयोग वित्तीय समावेशन (financial inclusion) में भी हो रहा है – जैसे UPI, डिजिटल भुगतान आदि।
🔷 निष्कर्ष
मुद्रा केवल लेन-देन का माध्यम नहीं है, बल्कि यह आर्थिक नीतियों, योजनाओं और विकास कार्यक्रमों को गति देने वाली एक सशक्त आर्थिक शक्ति है। इसके स्थैतिक कार्यों से जहां आर्थिक गतिविधियाँ सुचारु रूप से संचालित होती हैं, वहीं इसके प्रावैगिक कार्यों से देश की सामाजिक-आर्थिक प्रगति सुनिश्चित होती है। विशेषकर विकासशील देशों में मुद्रा की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जहाँ इसकी सही दिशा में योजना और उपयोग ही राष्ट्र की उन्नति को सुनिश्चित करता है।
🪙 प्रश्न 3: मुद्रा का वर्गीकरण कितने प्रकार से किया जा सकता है?
🔷 प्रस्तावना
मुद्रा आधुनिक अर्थव्यवस्था की बुनियाद है। यह केवल विनिमय का माध्यम नहीं, बल्कि मूल्य मापन, संचय और भविष्य के भुगतान का साधन भी है। समय और परिस्थितियों के अनुसार मुद्रा के स्वरूप, प्रकार और उपयोग में विविधता आई है। इसी विविधता को समझने के लिए मुद्रा का वर्गीकरण आवश्यक है। मुद्रा का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जा सकता है – जैसे स्वरूप, निर्गमनकर्ता, प्रयोज्यता, स्वीकृति आदि।
🔶 मुद्रा का वर्गीकरण: विभिन्न आधारों पर
मुद्रा का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रमुख आधारों पर किया जाता है:
🔷 1. स्वरूप के आधार पर (On the Basis of Form)
इस वर्गीकरण में मुद्रा को उसकी भौतिक संरचना के आधार पर बांटा जाता है।
🔹 (A) धातु मुद्रा (Metallic Money)
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यह मुद्रा धातुओं जैसे तांबा, चाँदी, सोना आदि से निर्मित होती है।
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इसे पूर्ण मुद्रा (Full-bodied Money) भी कहा जाता है क्योंकि इसका वास्तविक मूल्य इसके अंकित मूल्य के बराबर या उससे अधिक होता है।
📌 उदाहरण: पुराने समय के सोने-चाँदी के सिक्के।
🔹 (B) कागजी मुद्रा (Paper Money)
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यह मुद्रा कागज से बनाई जाती है और इसे सरकार या केंद्रीय बैंक द्वारा जारी किया जाता है।
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इसका वास्तविक मूल्य बहुत कम होता है, परंतु सरकार की गारंटी से इसका प्रचलन मूल्य बहुत अधिक होता है।
📌 उदाहरण: ₹10, ₹100, ₹500 के नोट।
🔹 (C) प्लास्टिक मुद्रा (Plastic Money)
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यह आधुनिक मुद्रा है जो क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड आदि के रूप में प्रयोग होती है।
📌 उदाहरण: Visa, MasterCard, Rupay कार्ड आदि।
🔹 (D) डिजिटल मुद्रा (Digital Money)
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यह मुद्रा केवल इलेक्ट्रॉनिक रूप में अस्तित्व में होती है और इंटरनेट या मोबाइल नेटवर्क के माध्यम से लेन-देन में प्रयुक्त होती है।
📌 उदाहरण: UPI, Net Banking, Paytm, Google Pay आदि।
🔹 (E) क्रिप्टो मुद्रा (Cryptocurrency)
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यह एक आभासी मुद्रा है जो ब्लॉकचेन तकनीक पर आधारित होती है और किसी भी देश की सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं होती।
📌 उदाहरण: Bitcoin, Ethereum आदि।
🔷 2. निर्गमनकर्ता के आधार पर (On the Basis of Issuer)
इस वर्गीकरण में मुद्रा को इस आधार पर विभाजित किया जाता है कि उसे किसने जारी किया है।
🔹 (A) सरकारी मुद्रा (Government Money)
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यह मुद्रा सरकार द्वारा जारी की जाती है और उसका कानूनी स्वीकृति प्राप्त होती है।
📌 उदाहरण: ₹1 का नोट और सिक्के – भारत सरकार द्वारा जारी।
🔹 (B) केंद्रीय बैंक द्वारा जारी मुद्रा (Central Bank Money)
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यह मुद्रा देश के केंद्रीय बैंक द्वारा जारी की जाती है और यह पूरे देश में वैध होती है।
📌 उदाहरण: ₹2 से ₹2000 तक के नोट – भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी।
🔷 3. कानूनी स्थिति के आधार पर (On the Basis of Legal Tender)
🔹 (A) वैध मुद्रा (Legal Tender Money)
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यह मुद्रा वह होती है जिसे देश का कानून किसी भी भुगतान को करने के लिए स्वीकार करता है।
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इसे कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता।
📌 उदाहरण: ₹10, ₹50, ₹500 के नोट।
🔹 (B) अर्ध-वैध मुद्रा (Quasi Legal Tender)
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यह मुद्रा तकनीकी रूप से वैध नहीं होती, लेकिन समाज में स्वीकार की जाती है।
📌 उदाहरण: चेक, बैंक ड्राफ्ट आदि।
🔷 4. प्रचलन के क्षेत्र के आधार पर (On the Basis of Circulation Area)
🔹 (A) राष्ट्रीय मुद्रा (National Currency)
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वह मुद्रा जो किसी एक देश के अंदर वैध होती है।
📌 उदाहरण: भारत में – भारतीय रुपया।
🔹 (B) विदेशी मुद्रा (Foreign Currency)
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वह मुद्रा जो किसी अन्य देश में वैध होती है।
📌 उदाहरण: डॉलर (USA), पाउंड (UK), येन (Japan) आदि।
🔹 (C) अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा (International Currency)
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कुछ मुद्राएं वैश्विक स्तर पर व्यापार और निवेश में अधिक प्रचलित होती हैं।
📌 उदाहरण: अमेरिकी डॉलर, यूरो।
🔷 5. स्वीकृति के आधार पर (On the Basis of Acceptability)
🔹 (A) वैधानिक मुद्रा (Fiat Money)
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यह मुद्रा सरकार की घोषणा पर आधारित होती है, भले ही उसका कोई आंतरिक मूल्य न हो।
📌 उदाहरण: ₹500 का नोट जिसका मूल्य सरकार तय करती है।
🔹 (B) वस्तु मुद्रा (Commodity Money)
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ऐसी मुद्रा जिसका उपयोग मुद्रा के अतिरिक्त अन्य कार्यों में भी हो सकता है।
📌 उदाहरण: पुराने समय में नमक, अनाज, गाय, तांबे के सिक्के आदि।
🔹 (C) प्रतिनिधि मुद्रा (Representative Money)
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वह मुद्रा जो किसी मूल्यवान वस्तु जैसे – सोना, चाँदी के लिए प्रमाणपत्र के रूप में कार्य करती है।
📌 उदाहरण: स्वर्ण प्रमाणपत्र।
🔶 आधुनिक समय में मुद्रा का परिवर्तित स्वरूप
आज के डिजिटल युग में मुद्रा का स्वरूप लगातार बदलता जा रहा है। अब फिजिकल मुद्रा की जगह डिजिटल लेन-देन, क्रिप्टो करेंसी, और केंद्रीय बैंक डिजिटल करेंसी (CBDC) जैसे नए विकल्प सामने आ रहे हैं।
🌀 भारत में डिजिटल क्रांति:
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UPI (Unified Payments Interface) के माध्यम से भारत दुनिया में सबसे तेज़ डिजिटल भुगतान करने वाले देशों में शामिल है।
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डिजिटल रुपया (CBDC) को भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा विकसित किया जा रहा है।
🔷 निष्कर्ष
मुद्रा के विभिन्न स्वरूपों और वर्गों का अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि यह केवल एक विनिमय का माध्यम नहीं, बल्कि समय, स्थान और तकनीकी विकास के अनुसार बदलता हुआ सामाजिक-आर्थिक उपकरण है। मुद्रा का वर्गीकरण न केवल इसके उपयोग को समझने में सहायक है, बल्कि इससे आर्थिक नीतियों और वित्तीय प्रबंधन की दिशा भी निर्धारित होती है। आज के युग में जहां डिजिटल और आभासी मुद्राएं लोकप्रिय हो रही हैं, वहीं पारंपरिक स्वरूपों का भी महत्त्व बना हुआ है। इस प्रकार, मुद्रा का बहुआयामी वर्गीकरण आर्थिक दृष्टिकोण से अत्यंत उपयोगी है।
🏦 प्रश्न 04: प्लास्टिक मुद्रा क्या है?
🔷 प्रस्तावना
आधुनिक युग में जब तकनीक का प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ रहा है, तो मुद्रा प्रणाली भी इससे अछूती नहीं रही। पारंपरिक धातु एवं कागजी मुद्रा के स्थान पर अब प्लास्टिक मुद्रा (Plastic Money) का चलन तेजी से बढ़ा है। यह ऐसी मुद्रा है जो सुरक्षा, सुविधा और त्वरित लेन-देन का अनुभव प्रदान करती है। नकद रहित (cashless) अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ते हुए प्लास्टिक मुद्रा आज के आर्थिक ढांचे का महत्वपूर्ण अंग बन चुकी है।
🔶 प्लास्टिक मुद्रा की परिभाषा
प्लास्टिक मुद्रा वह मुद्रा है जो प्लास्टिक कार्डों के रूप में होती है और जिसका उपयोग व्यक्ति डिजिटल माध्यम से वस्तुओं एवं सेवाओं की खरीद के लिए करता है।
🔹 सरल शब्दों में:
"प्लास्टिक मुद्रा का अर्थ है – क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, एटीएम कार्ड आदि के रूप में प्रचलित ऐसी मुद्रा जो कागज या सिक्के के स्थान पर डिजिटल तरीके से कार्य करती है।"
🔷 प्लास्टिक मुद्रा के प्रमुख प्रकार
🔹 1. डेबिट कार्ड (Debit Card)
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सीधे व्यक्ति के बैंक खाते से धन काटता है।
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सीमित खर्च की अनुमति – खाते में जितनी राशि है उतना ही उपयोग संभव।
📌 उदाहरण: RuPay, Visa Debit, MasterCard Debit आदि।
🔹 2. क्रेडिट कार्ड (Credit Card)
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उधारी पर आधारित कार्ड होता है।
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बैंक द्वारा निर्धारित सीमा तक खर्च किया जा सकता है और बाद में भुगतान किया जाता है।
📌 उदाहरण: SBI Credit Card, HDFC Credit Card आदि।
🔹 3. प्रीपेड कार्ड (Prepaid Card)
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पहले से राशि जमा करके उपयोग किया जाता है।
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जैसे – गिफ्ट कार्ड, ट्रैवल कार्ड आदि।
🔹 4. एटीएम कार्ड (ATM Card)
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मुख्यतः नकद निकालने के लिए प्रयोग में लाया जाता है।
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सीमित लेन-देन की सुविधा।
🔹 5. स्मार्ट कार्ड (Smart Card)
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यह कार्ड माइक्रोचिप आधारित होता है, जिसमें डेटा स्टोर रहता है।
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अधिक सुरक्षा प्रदान करता है।
📌 उदाहरण: मेट्रो कार्ड, बायोमेट्रिक कार्ड आदि।
🔶 प्लास्टिक मुद्रा की विशेषताएँ
✅ 1. नकदी रहित लेन-देन की सुविधा
कोई नकद साथ रखने की आवश्यकता नहीं – सभी भुगतान कार्ड के माध्यम से संभव।
✅ 2. समय और श्रम की बचत
ऑनलाइन, POS मशीन या ATM द्वारा सेकंडों में भुगतान।
✅ 3. उपयोग में सरलता
मात्र कार्ड स्वाइप करने या टच करने से भुगतान पूर्ण।
✅ 4. ट्रैकिंग की सुविधा
प्रत्येक लेन-देन का रिकॉर्ड – पारदर्शिता और बजट नियोजन में सहायक।
✅ 5. सुरक्षा
PIN, OTP, चिप, और ब्लॉकिंग सुविधा – नकद की तुलना में अधिक सुरक्षित।
🔷 प्लास्टिक मुद्रा के लाभ (Advantages of Plastic Money)
🔹 1. चोरी और नकली नोटों से सुरक्षा
प्लास्टिक मुद्रा को खोने पर तुरंत ब्लॉक किया जा सकता है, जबकि नकद राशि चोरी होने पर वापसी असंभव होती है।
🔹 2. क्रेडिट की सुविधा
क्रेडिट कार्ड के माध्यम से तत्काल आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है।
🔹 3. अंतरराष्ट्रीय लेन-देन में उपयोगी
विदेश यात्रा के दौरान भी अंतरराष्ट्रीय कार्डों के जरिए भुगतान करना सरल होता है।
🔹 4. व्यय पर नियंत्रण
बैंक स्टेटमेंट से हर खर्च की निगरानी की जा सकती है।
🔹 5. सरकार की डिजिटल नीति को समर्थन
डिजिटल भुगतान बढ़ने से सरकार की कैशलेस इकोनॉमी की दिशा में प्रगति होती है।
🔶 प्लास्टिक मुद्रा की सीमाएँ (Limitations of Plastic Money)
❌ 1. साइबर धोखाधड़ी की संभावना
फिशिंग, क्लोनिंग, हैकिंग जैसे जोखिम प्लास्टिक मुद्रा में जुड़े होते हैं।
❌ 2. तकनीकी निर्भरता
बिजली, इंटरनेट या नेटवर्क न होने की स्थिति में लेन-देन संभव नहीं।
❌ 3. अधिक खर्च की प्रवृत्ति
क्रेडिट कार्ड के कारण अनावश्यक खर्च की आदतें बढ़ सकती हैं।
❌ 4. ग्रामीण क्षेत्र में सीमित पहुँच
अभी भी कई ग्रामीण इलाकों में POS मशीनें या कार्ड स्वाइप सिस्टम उपलब्ध नहीं हैं।
🔷 भारत में प्लास्टिक मुद्रा का विकास
🔹 1. RBI और NPCI की पहलें
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RuPay कार्ड – भारतीय भुगतान प्रणाली का सशक्तिकरण।
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जनधन योजना में हर खाते के साथ डेबिट कार्ड जारी किया गया।
🔹 2. डिजिटल इंडिया अभियान
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कैशलेस लेन-देन को बढ़ावा देने के लिए प्लास्टिक मुद्रा का प्रचार-प्रसार।
🔹 3. POS मशीनों की स्थापना
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दुकानों, पेट्रोल पंप, अस्पतालों, शैक्षणिक संस्थानों में कार्ड द्वारा भुगतान की सुविधा।
🔶 प्लास्टिक मुद्रा और कोविड-19
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कोरोना काल में संपर्क रहित भुगतान की आवश्यकता बढ़ी।
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लोगों ने नकद लेन-देन से बचते हुए कार्ड और डिजिटल माध्यमों को अपनाया।
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इससे प्लास्टिक मुद्रा का प्रयोग कई गुना बढ़ गया।
🔷 भविष्य की संभावनाएँ
🔹 1. संपर्क रहित कार्ड (Contactless Cards)
NFC तकनीक से लैस कार्ड अब केवल टच से भुगतान करने की सुविधा प्रदान करते हैं।
🔹 2. कार्डलेस लेन-देन की ओर रुझान
UPI जैसे विकल्प कार्ड की आवश्यकता को भी धीरे-धीरे कम कर रहे हैं।
🔹 3. डिजिटल सुरक्षा तकनीक में सुधार
बायोमेट्रिक, फेस आईडी जैसी तकनीकों के साथ कार्ड की सुरक्षा बेहतर बन रही है।
🔷 निष्कर्ष
प्लास्टिक मुद्रा आधुनिक समय की एक ऐसी आवश्यकता बन चुकी है जो न केवल लेन-देन को आसान बनाती है, बल्कि आर्थिक प्रणाली को पारदर्शी, तेज़ और सुरक्षित बनाती है। हालांकि इसमें कुछ जोखिम भी हैं, लेकिन सही जागरूकता और सुरक्षा उपायों से इसका उपयोग प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ डिजिटल क्रांति की शुरुआत हो चुकी है, वहाँ प्लास्टिक मुद्रा आने वाले वर्षों में आर्थिक समावेशन का एक मजबूत आधार बन सकती है।
💰 प्रश्न 05: मौद्रिकमान किसे कहते हैं?
🔷 प्रस्तावना
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में मुद्रा की उपलब्धता और उसका प्रवाह आर्थिक स्थिरता और विकास का आधार होता है। मुद्रा केवल लेन-देन का माध्यम ही नहीं, बल्कि उत्पादन, विनिमय, निवेश और आर्थिक योजनाओं को गति देने वाला प्रमुख साधन भी है। इस मुद्रा की कुल मात्रा या उपलब्धता को ही मौद्रिकमान (Money Supply) कहा जाता है। यह मापने का तरीका है कि किसी विशेष समय पर किसी देश की अर्थव्यवस्था में कुल कितनी मुद्रा उपलब्ध है।
🔶 मौद्रिकमान की परिभाषा
"मौद्रिकमान उस कुल मुद्रा की मात्रा को कहा जाता है जो किसी विशेष समय में किसी देश की जनता और विभिन्न संस्थाओं के पास होती है तथा जिसका उपयोग वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय हेतु किया जाता है।"
🔹 सरल शब्दों में:
"मौद्रिकमान का अर्थ है – किसी अर्थव्यवस्था में चलन में मौजूद कुल मुद्रा।"
🔷 मौद्रिकमान में शामिल घटक
मौद्रिकमान में वे सभी घटक आते हैं जो भुगतान के लिए तत्काल प्रयोग किए जा सकते हैं। इनमें निम्नलिखित प्रमुख तत्व शामिल हैं:
✅ 1. चलन में मौजूद नकद मुद्रा
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लोगों के पास मौजूद नोट और सिक्के।
✅ 2. बैंकों में मांग जमा (Demand Deposits)
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वे बैंक खाते जिनसे पैसा कभी भी निकाला जा सकता है, जैसे – बचत खाता, चालू खाता।
✅ 3. अन्य नकदी समतुल्य साधन
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जैसे ट्रैवेलर्स चेक, मनी ऑर्डर आदि।
🔶 मौद्रिकमान को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक
🔹 1. केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति
भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) मौद्रिक नीति के माध्यम से मौद्रिकमान को नियंत्रित करता है।
🔹 2. वाणिज्यिक बैंकों की ऋण नीति
बैंक जितना अधिक ऋण देंगे, उतनी अधिक मुद्रा अर्थव्यवस्था में प्रवाहित होगी।
🔹 3. सरकार की राजकोषीय नीति
सरकारी व्यय और कर नीति भी मौद्रिकमान को प्रभावित करती है।
🔹 4. मुद्रा छपाई की मात्रा
जितनी अधिक मुद्रा छापी जाती है, उतना ही मौद्रिकमान बढ़ता है।
🔷 मौद्रिकमान के विभिन्न मापदंड (Measures of Money Supply)
भारतीय रिज़र्व बैंक ने मौद्रिकमान को चार प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया है:
🔹 M1 – संकीर्ण मुद्रा (Narrow Money)
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मुद्रा का सबसे तरल रूप।
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इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
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जनता के पास मौजूद नकद
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मांग जमा (Demand Deposits)
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अन्य जमा RBI में
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📌 सूत्र:
M1 = Currency with Public + Demand Deposits + Other Deposits with RBI
🔹 M2 – M1 + डाकघर की बचत जमा
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इसमें M1 के साथ-साथ डाकघर बचत खातों की राशि भी जोड़ी जाती है।
📌 सूत्र:
M2 = M1 + Post Office Savings Deposits
🔹 M3 – विस्तृत मुद्रा (Broad Money)
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भारत में मौद्रिकमान को मापने का सबसे व्यापक तरीका।
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यह M1 के साथ साथ बैंकों की अवधि जमा (Time Deposits) को भी शामिल करता है।
📌 सूत्र:
M3 = M1 + Time Deposits with Banks
👉 यह मापदंड नीति निर्धारण के लिए सबसे अधिक प्रयोग में लाया जाता है।
🔹 M4 – M3 + डाकघर की कुल जमा राशि
-
यह सबसे विस्तृत माप है, जिसमें डाकघर की सभी जमा राशियाँ जोड़ी जाती हैं।
📌 सूत्र:
M4 = M3 + Total Deposits with Post Office (Excluding NSCs)
🔶 भारत में मौद्रिकमान का निर्धारण – RBI की भूमिका
भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) भारत में मौद्रिक नीति बनाता है और निम्न माध्यमों से मौद्रिकमान को नियंत्रित करता है:
✅ रेपो दर (Repo Rate)
बैंक RBI से जिस दर पर ऋण लेते हैं, उस दर को बदलकर मुद्रा की उपलब्धता को प्रभावित किया जाता है।
✅ सीआरआर (CRR) और एसएलआर (SLR)
बैंकों को कुछ राशि RBI या अपने पास सुरक्षित रखनी होती है। इसे घटाने या बढ़ाने से भी मुद्रा की मात्रा पर प्रभाव पड़ता है।
✅ ओपन मार्केट ऑपरेशन
RBI बांड खरीदकर या बेचकर अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करता है।
🔷 मौद्रिकमान का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
🔹 1. मुद्रास्फीति (Inflation)
यदि मौद्रिकमान बहुत अधिक हो जाए तो कीमतें बढ़ने लगती हैं।
🔹 2. मंदी (Recession)
यदि मुद्रा की उपलब्धता बहुत कम हो, तो मांग घटती है और उत्पादन तथा रोजगार प्रभावित होता है।
🔹 3. व्यापार और निवेश
मौद्रिकमान की स्थिरता व्यापारियों और निवेशकों को सकारात्मक संकेत देती है।
🔹 4. आर्थिक विकास
उचित मौद्रिकमान से मांग में वृद्धि, उत्पादन में तेजी और रोजगार में वृद्धि होती है।
🔶 मौद्रिकमान और डिजिटल अर्थव्यवस्था
डिजिटल भुगतान साधनों जैसे – UPI, नेट बैंकिंग, मोबाइल वॉलेट आदि के बढ़ते उपयोग के कारण अब मौद्रिकमान का स्वरूप बदल रहा है।
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नकद का महत्व घटा है।
-
डिजिटल मनी का हिस्सा बढ़ता जा रहा है।
-
इससे मौद्रिक नीति को अधिक प्रभावी ढंग से लागू करना संभव हो रहा है।
🔷 निष्कर्ष
मौद्रिकमान किसी भी देश की आर्थिक स्थिति का दर्पण होता है। इसकी मात्रा में संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि अधिक या कम मुद्रा – दोनों ही आर्थिक समस्याओं का कारण बन सकते हैं। अतः भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा मौद्रिक नीति के माध्यम से मौद्रिकमान का समुचित नियंत्रण आवश्यक होता है। आज के डिजिटल युग में जब मुद्रा के स्वरूप में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, तब मौद्रिकमान का अध्ययन और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। यह न केवल नीति निर्धारण का आधार है, बल्कि आर्थिक स्थिरता और विकास की कुंजी भी है।
🏛️ प्रश्न 06: पत्रमान किसे कहते हैं? स्वर्णमान किसे कहते हैं?
🔷 प्रस्तावना
मुद्रा प्रणाली में समय के साथ कई परिवर्तन हुए हैं। प्रारंभ में विनिमय के लिए वस्तु मुद्रा का प्रयोग होता था, फिर धातु मुद्रा आई और धीरे-धीरे कागजी मुद्रा तथा डिजिटल मुद्रा का युग आरंभ हुआ। इसी क्रम में मुद्रा को मूल्य के आधार पर पत्रमान (Fiat Standard) और स्वर्णमान (Gold Standard) में वर्गीकृत किया जाता है। इन दोनों अवधारणाओं का संबंध उस आधार से है जिस पर मुद्रा की मूल्यवत्ता और स्वीकृति निर्धारित होती है।
🪙 1️⃣ पत्रमान किसे कहते हैं? (What is Fiat Standard?)
🔶 परिभाषा
पत्रमान वह मुद्रा प्रणाली होती है जिसमें मुद्रा का कोई आंतरिक मूल्य (intrinsic value) नहीं होता, परंतु सरकार द्वारा इसे वैधानिक रूप से चलन योग्य घोषित कर दिया जाता है।
🔹 सरल शब्दों में:
“पत्रमान ऐसी मुद्रा है जिसका मूल्य सरकार की घोषणा और लोगों के विश्वास पर आधारित होता है, न कि किसी धातु जैसे सोने या चांदी पर।”
🔷 पत्रमान की प्रमुख विशेषताएँ
✅ 1. कानूनी मान्यता प्राप्त
सरकार द्वारा घोषित वैध मुद्रा होती है, जिसे कोई भी व्यक्ति लेने से मना नहीं कर सकता।
✅ 2. मूल्य सरकार द्वारा निश्चित
मुद्रा का मूल्य किसी वास्तविक संपत्ति से नहीं जुड़ा होता बल्कि सरकारी आदेश पर आधारित होता है।
✅ 3. मुद्रा छपाई की स्वतंत्रता
सरकार या केंद्रीय बैंक आवश्यकता के अनुसार मुद्रा की आपूर्ति कर सकता है।
✅ 4. आंतरिक मूल्य का अभाव
कागज की मुद्रा का वास्तविक मूल्य (कागज का मूल्य) बहुत कम होता है।
🔶 पत्रमान का उदाहरण
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भारत में वर्तमान में जो ₹10, ₹100, ₹500, ₹2000 के नोट हैं, वे सभी पत्रमुद्रा के अंतर्गत आते हैं।
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ये नोट भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी किए जाते हैं और "I promise to pay the bearer..." जैसे वाक्य लिखे होते हैं जो उनकी वैधता की घोषणा करते हैं।
🔷 पत्रमान के लाभ
🔹 1. लचीलापन
सरकार मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करके मुद्रास्फीति और मंदी जैसी स्थितियों से निपट सकती है।
🔹 2. उत्पादन में वृद्धि में सहायक
आवश्यकता पड़ने पर अधिक मुद्रा जारी कर विकास परियोजनाओं में निवेश किया जा सकता है।
🔹 3. कीमती धातुओं पर निर्भरता नहीं
सोना या चाँदी जैसे दुर्लभ संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती।
🔷 पत्रमान की सीमाएँ
❌ 1. मुद्रास्फीति की संभावना
अधिक मात्रा में मुद्रा छापने से महंगाई की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
❌ 2. लोगों के विश्वास पर निर्भरता
यदि सरकार की आर्थिक नीतियों पर लोगों का विश्वास कमजोर हो जाए तो मुद्रा का मूल्य गिर सकता है।
🏵️ 2️⃣ स्वर्णमान किसे कहते हैं? (What is Gold Standard?)
🔶 परिभाषा
स्वर्णमान वह मुद्रा प्रणाली है जिसमें मुद्रा का मूल्य सोने में निश्चित होता है और मुद्रा को सोने में बदला जा सकता है।
🔹 सरल शब्दों में:
“स्वर्णमान ऐसी मुद्रा प्रणाली है जिसमें सरकार यह वादा करती है कि उसकी मुद्रा को निश्चित दर पर सोने में बदला जा सकता है।”
🔷 स्वर्णमान की प्रमुख विशेषताएँ
✅ 1. मुद्रा की सोने से समता (Convertibility)
प्रत्येक मुद्रा इकाई के बदले निश्चित मात्रा में सोना प्राप्त किया जा सकता था।
✅ 2. मूल्य की स्थिरता
मुद्रा का मूल्य सोने की मात्रा से बंधा होता था, जिससे महंगाई पर नियंत्रण रहता था।
✅ 3. विश्वास और पारदर्शिता
लोगों को यह विश्वास रहता था कि मुद्रा के पीछे वास्तविक संपत्ति (सोना) है।
🔷 स्वर्णमान के प्रकार
🔹 1. स्वर्ण सिक्का मान (Gold Coin Standard)
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मुद्रा के रूप में वास्तविक सोने के सिक्कों का प्रचलन।
📌 उदाहरण: ब्रिटेन में 19वीं सदी में सोने के सिक्कों का प्रयोग।
🔹 2. स्वर्ण बिल मान (Gold Bullion Standard)
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मुद्रा को सोने के बिस्कुट (bullion) में बदला जा सकता था, सिक्के नहीं।
📌 कम लागत वाला विकल्प।
🔹 3. स्वर्ण विनिमय मान (Gold Exchange Standard)
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मुद्रा को सीधे सोने में न बदलकर, पहले विदेशी मुद्रा में बदला जाता, फिर उस मुद्रा को सोने में।
📌 भारत में 1898 से 1931 तक यह प्रणाली लागू थी।
🔷 स्वर्णमान के लाभ
🔹 1. मुद्रास्फीति पर नियंत्रण
चूंकि मुद्रा छपाई सोने की मात्रा पर निर्भर थी, अतः अधिक मुद्रा छापना संभव नहीं था।
🔹 2. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में स्थिरता
हर देश की मुद्रा सोने से जुड़ी होने के कारण विनिमय दर स्थिर रहती थी।
🔹 3. लंबी अवधि में आर्थिक स्थिरता
धातु आधारित प्रणाली के कारण मुद्रा में विश्वास बना रहता था।
🔷 स्वर्णमान की सीमाएँ
❌ 1. सोने पर अत्यधिक निर्भरता
मुद्रा आपूर्ति पूरी तरह सोने के भंडार पर आधारित होती थी।
❌ 2. अविकासशील देशों के लिए अनुपयुक्त
ऐसे देश जिनके पास सोने का भंडार कम था, वे आर्थिक विस्तार नहीं कर सकते थे।
❌ 3. आर्थिक लचीलापन नहीं
महामारी, युद्ध या मंदी जैसे समय में सरकार मुद्रा आपूर्ति नहीं बढ़ा सकती थी।
🔶 भारत में स्वर्णमान और पत्रमान का इतिहास
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ब्रिटिश काल में भारत में स्वर्ण विनिमय मान लागू था (1898–1931)।
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1931 के बाद भारत ने धीरे-धीरे पत्रमान प्रणाली को अपनाया।
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1971 में अमेरिका ने भी पूरी तरह स्वर्णमान प्रणाली को समाप्त कर दिया, जिसके बाद लगभग सभी देशों ने पत्रमान को स्वीकार कर लिया।
🔷 निष्कर्ष
स्वर्णमान और पत्रमान, दोनों मुद्रा प्रणालियों के अपने-अपने लाभ और सीमाएँ हैं। स्वर्णमान प्रणाली जहाँ स्थिरता और पारदर्शिता प्रदान करती थी, वहीं पत्रमान प्रणाली लचीलापन और आधुनिक आवश्यकताओं के अनुरूप मुद्रा प्रबंधन की सुविधा देती है। वर्तमान युग में पत्रमान प्रणाली को ही अधिकांश देशों ने अपनाया है क्योंकि यह मौद्रिक नीति को प्रभावी रूप से लागू करने की सुविधा प्रदान करती है। अतः आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में पत्रमान अधिक व्यवहारिक और उपयोगी माना जाता है।
🔩 प्रश्न 07: धातुमान के प्रकार बताइए।
🏛️ प्रस्तावना
मुद्रा प्रणाली के विकास में धातुओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आदिकाल से ही लोग वस्तु विनिमय की जगह धातु मुद्रा को अधिक विश्वसनीय और टिकाऊ मानते आए हैं। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था ने आकार लिया, मुद्रा प्रणाली में स्थिरता लाने के लिए धातुमान प्रणाली (Metal Standard) का विकास हुआ। यह प्रणाली मुद्रा को किसी कीमती धातु – जैसे सोना या चांदी – से जोड़ने पर आधारित होती है। इस प्रणाली के अंतर्गत सरकार यह सुनिश्चित करती है कि मुद्रा का मूल्य किसी निश्चित धातु के आधार पर तय होगा।
🔶 धातुमान की परिभाषा
"धातुमान वह मुद्रा प्रणाली है जिसमें किसी धातु (जैसे सोना या चांदी) को मुद्रा का आधार माना जाता है और मुद्रा की कीमत उस धातु की मात्रा के अनुसार निर्धारित की जाती है।"
🔹 सरल शब्दों में:
“धातुमान एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें किसी देश की मुद्रा को किसी निश्चित धातु में परिवर्तनीय बनाया जाता है।”
🔷 धातुमान के प्रमुख प्रकार
धातुमान को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जाता है:
🪙 1. स्वर्णमान (Gold Standard)
🥈 2. रजतमान (Silver Standard)
💰 3. द्विधातुमान (Bimetallic Standard)
अब आइए इन तीनों प्रकारों को विस्तारपूर्वक समझते हैं:
🪙 1. स्वर्णमान (Gold Standard)
🔶 परिभाषा
स्वर्णमान वह प्रणाली है जिसमें मुद्रा का मूल्य सोने (Gold) पर आधारित होता है और सरकार मुद्रा को सोने में निर्धारित दर पर परिवर्तित करने की गारंटी देती है।
🔷 विशेषताएँ
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मुद्रा को सोने में बदला जा सकता है।
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सरकार के पास पर्याप्त स्वर्ण भंडार होना आवश्यक होता है।
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यह प्रणाली अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में स्थिरता लाती है।
🔷 स्वर्णमान के उप-प्रकार
✅ (A) स्वर्ण सिक्का मान (Gold Coin Standard)
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सोने के वास्तविक सिक्कों का प्रचलन।
-
मुद्रा और वस्तु एक ही होती थी।
✅ (B) स्वर्ण बुल्क मान (Gold Bullion Standard)
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मुद्रा को सोने की सिल्लियों में बदला जा सकता था, सिक्कों में नहीं।
✅ (C) स्वर्ण विनिमय मान (Gold Exchange Standard)
-
मुद्रा को पहले विदेशी मुद्रा में बदला जाता, फिर उस विदेशी मुद्रा को सोने में।
📌 भारत में प्रयोग:
भारत में 1898 से 1931 तक स्वर्ण विनिमय मान प्रणाली लागू रही।
🥈 2. रजतमान (Silver Standard)
🔶 परिभाषा
रजतमान वह प्रणाली है जिसमें मुद्रा का मूल्य चांदी (Silver) पर आधारित होता है और सरकार मुद्रा को चांदी में परिवर्तित करने की गारंटी देती है।
🔷 विशेषताएँ
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मुद्रा की इकाई एक निश्चित मात्रा की चांदी पर आधारित होती है।
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मुद्रा का सोने से कोई संबंध नहीं होता।
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यह प्रणाली आमतौर पर उन देशों में अपनाई गई जहाँ चांदी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी।
🔷 लाभ
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चांदी सस्ती होती थी इसलिए गरीब और मध्यम वर्ग के लिए अनुकूल।
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मुद्रा प्रणाली को सरल बनाती थी।
🔷 सीमाएँ
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चांदी की कीमतों में अस्थिरता।
-
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में कठिनाई क्योंकि अधिकांश देश स्वर्णमान का अनुसरण करते थे।
📌 भारत में प्रयोग:
भारत में 1835 से 1893 तक रजतमान प्रणाली प्रभावी रही। बाद में भारत ने स्वर्ण विनिमय मान अपनाया।
💰 3. द्विधातुमान (Bimetallic Standard)
🔶 परिभाषा
द्विधातुमान वह प्रणाली है जिसमें मुद्रा दो धातुओं – सोना और चांदी – पर आधारित होती है। इन दोनों को कानूनी मान्यता प्राप्त होती है और दोनों को समान रूप से मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
🔷 विशेषताएँ
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दोनों धातुएँ – सोना और चांदी – विनिमय के लिए मान्य होती हैं।
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सरकार दोनों के लिए निश्चित मूल्य अनुपात (Mint Ratio) निर्धारित करती है।
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दोनों के सिक्के कानूनी रूप से चलन में होते हैं।
🔷 लाभ
-
मुद्रा प्रणाली में अधिक लचीलापन।
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यदि एक धातु की आपूर्ति कम हो जाए, तो दूसरी से पूर्ति की जा सकती है।
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गरीबों के लिए चांदी और अमीरों के लिए सोने की सुविधा।
🔷 समस्याएँ
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यदि सोना और चांदी के बाजार मूल्य में अंतर आता है तो लोग अधिक मूल्य वाली धातु को संचित करने लगते हैं।
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इससे मुद्रा संकट उत्पन्न हो सकता है (जिसे ग्रेसम का नियम कहा जाता है – “खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को बाहर कर देती है”)।
📌 भारत में स्थिति:
भारत ने द्विधातुमान को कभी पूर्ण रूप से लागू नहीं किया, लेकिन यूरोप के कई देशों ने 19वीं सदी में इस प्रणाली को अपनाया था।
🧠 अतिरिक्त जानकारी: धातुमान प्रणाली से पत्रमान प्रणाली की ओर
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प्रथम विश्व युद्ध (1914) और महामंदी (1930) के बाद अधिकांश देशों ने धातुमान प्रणाली को छोड़ दिया।
-
अब अधिकांश देशों ने पत्रमान प्रणाली को अपना लिया है जिसमें मुद्रा का कोई धातु आधार नहीं होता।
✅ निष्कर्ष
धातुमान प्रणाली ने प्राचीन और मध्यकालीन आर्थिक संरचना में स्थिरता, पारदर्शिता और विश्वास को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई। स्वर्णमान जहाँ मुद्रा की उच्च विश्वसनीयता का प्रतीक था, वहीं रजतमान आम जनता के लिए सरल था और द्विधातुमान दोनों का समन्वय करने का प्रयास था। हालांकि बदलते समय और वैश्विक व्यापार की आवश्यकताओं के अनुरूप अब धातुमान की जगह लचीली और डिजिटल मुद्रा प्रणालियाँ ले रही हैं। फिर भी आर्थिक इतिहास के अध्ययन में धातुमान के प्रकारों की जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
📚 प्रश्न 08: फिशर के सिद्धांत की मान्यताओं सहित आलोचना कीजिए।
🏛️ प्रस्तावना
मुद्रास्फीति (Inflation) और मुद्रा की क्रयशक्ति (Purchasing Power) के बीच संबंध को समझने के लिए अर्थशास्त्र में कई सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं। इनमें सबसे प्रमुख सिद्धांत है इरविंग फिशर (Irving Fisher) द्वारा प्रस्तुत किया गया मात्रात्मक मुद्रा सिद्धांत (Quantity Theory of Money)। फिशर ने मुद्रा की मात्रा और मूल्य स्तर के बीच प्रत्यक्ष संबंध को रेखांकित किया। यह सिद्धांत मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन को मूल्य स्तर में परिवर्तन का प्रमुख कारण मानता है।
🔷 फिशर का मात्रात्मक मुद्रा सिद्धांत
🔶 सिद्धांत का सूत्र (Equation of Exchange)
फिशर ने अपने सिद्धांत को निम्नलिखित गणितीय सूत्र द्वारा प्रस्तुत किया:
MV = PT
जहाँ:
-
M = मुद्रा की मात्रा (Money Supply)
-
V = मुद्रा का वेग (Velocity of Money)
-
P = मूल्य स्तर (Price Level)
-
T = लेन-देन की मात्रा (Volume of Transactions)
📌 इसका अर्थ है कि किसी अर्थव्यवस्था में कुल खर्च (MV) वस्तुओं और सेवाओं के कुल मूल्य (PT) के बराबर होता है।
🔷 फिशर के सिद्धांत की प्रमुख मान्यताएँ (Assumptions)
फिशर के सिद्धांत की सटीकता कुछ निश्चित मान्यताओं पर आधारित है:
✅ 1. मुद्रा का वेग (V) स्थिर होता है
यह मान लिया गया कि मुद्रा की गति समय के साथ नहीं बदलती।
✅ 2. लेन-देन की मात्रा (T) स्थिर रहती है
कहा गया कि उत्पादन और वस्तुओं की मात्रा में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होता।
✅ 3. पूर्ण रोजगार की स्थिति
सिद्धांत यह मानता है कि संसाधनों का पूर्ण उपयोग हो रहा है और बेरोजगारी नहीं है।
✅ 4. मुद्रा केवल विनिमय का माध्यम है
मुद्रा को केवल वस्तुओं और सेवाओं की खरीद के लिए प्रयोग किया जाता है, उसका कोई और उपयोग नहीं।
✅ 5. बचत या जमाखोरी नहीं होती
व्यक्ति अपनी सारी आय को व्यय कर देता है।
✅ 6. बैंकिंग प्रणाली और क्रेडिट की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया गया है
फिशर ने केवल नकदी मुद्रा (cash money) को ध्यान में रखा।
📊 सिद्धांत का व्यावहारिक व्याख्या
अगर M (मुद्रा की मात्रा) में वृद्धि होती है और V तथा T स्थिर रहते हैं, तो P (मूल्य स्तर) में वृद्धि होगी।
📌 उदाहरण:
यदि सरकार अधिक मुद्रा छापती है लेकिन उत्पादन नहीं बढ़ता, तो वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी यानी मुद्रास्फीति होगी।
🔎 फिशर सिद्धांत की उपयोगिता
✅ 1. मूल्य स्तर और मुद्रा के बीच संबंध स्पष्ट करता है
यह सिद्धांत मुद्रा की मात्रा को मुद्रास्फीति का प्रमुख कारण बताता है।
✅ 2. नीति निर्धारण में सहायक
केंद्रीय बैंक और सरकारें मुद्रा की आपूर्ति नियंत्रित कर मूल्य स्थिरता बनाए रख सकती हैं।
✅ 3. सरल और गणितीय रूप से स्पष्ट
यह सिद्धांत सैद्धांतिक रूप से समझने में आसान और तर्कसंगत है।
❌ फिशर के सिद्धांत की आलोचना (Criticism of Fisher's Theory)
अब आइए विस्तार से समझते हैं कि इस सिद्धांत की किन-किन आधारों पर आलोचना की गई:
🔶 1. मुद्रा का वेग (V) स्थिर नहीं होता
👉 आलोचकों के अनुसार, V समय, आर्थिक गतिविधियों और तकनीक के अनुसार बदलता रहता है।
📌 जैसे: डिजिटल भुगतान और ऑनलाइन बैंकिंग से मुद्रा का वेग बढ़ गया है।
🔶 2. लेन-देन की मात्रा (T) स्थिर नहीं रहती
👉 उत्पादन और व्यापार की मात्रा समय के साथ बढ़ती-घटती रहती है।
📌 जैसे: कोविड जैसी आपदा में उत्पादन घटा, जबकि कुछ समय बाद तेज़ी से बढ़ा।
🔶 3. पूर्ण रोजगार की धारणा अव्यवहारिक है
👉 वास्तविक जीवन में बेरोजगारी बनी रहती है। अतः पूर्ण रोजगार की धारणा त्रुटिपूर्ण है।
🔶 4. क्रेडिट और बैंकिंग प्रणाली की उपेक्षा
👉 आधुनिक अर्थव्यवस्था में बैंक ऋण और क्रेडिट का बहुत बड़ा योगदान होता है जिसे फिशर ने नहीं माना।
🔶 5. मुद्रा के अन्य कार्यों की अनदेखी
👉 मुद्रा केवल विनिमय का ही नहीं, बल्कि मूल्य संचय और मापदंड का भी कार्य करती है।
🔶 6. मूल्य स्तर केवल मुद्रा से प्रभावित नहीं होता
👉 मूल्य स्तर पर अन्य कारकों जैसे – उत्पादन लागत, कर प्रणाली, सरकार की नीति, आय वितरण आदि का भी प्रभाव पड़ता है।
🔶 7. व्यवहारिक परीक्षण में असफल
👉 कई बार देखा गया कि मुद्रा की मात्रा बढ़ने पर भी मूल्य स्तर स्थिर रहता है, विशेषकर मंदी की स्थिति में।
📚 केन्स की आलोचना (Keynesian Critique)
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स ने फिशर के सिद्धांत की तीव्र आलोचना की और कहा:
"मात्रात्मक सिद्धांत अत्यधिक सरलीकरण करता है और यह व्यावहारिक परिस्थितियों को नज़रअंदाज़ करता है।"
उनका कहना था कि मांग-पक्षीय कारकों, जैसे उपभोग प्रवृत्ति, निवेश का स्तर, ब्याज दर आदि का भी मूल्य स्तर पर गहरा प्रभाव होता है।
✅ निष्कर्ष
फिशर का मात्रात्मक मुद्रा सिद्धांत मुद्रा और मूल्य स्तर के बीच प्रत्यक्ष और सकारात्मक संबंध को स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास था। इसने आर्थिक विचारधारा में नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया और मुद्रा प्रबंधन में सहायक सिद्ध हुआ। हालांकि इसकी सीमाएँ और अवास्तविक मान्यताओं के कारण इसे आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिए अपूर्ण और सरलीकृत सिद्धांत माना जाता है। फिर भी यह सिद्धांत अर्थशास्त्र के छात्रों और नीति निर्माताओं के लिए एक आधारभूत सोच प्रदान करता है।
📌 अंततः कहा जा सकता है:
फिशर का सिद्धांत सिद्धांत रूप में महत्वपूर्ण, लेकिन व्यवहार में सीमित है। आधुनिक अर्थव्यवस्था को समझने के लिए इसे अन्य कारकों के साथ समेकित रूप में देखा जाना चाहिए।
🧠 प्रश्न 09: फ्रीडमैन के मुद्रा परिमाण सिद्धांत का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
🏛️ प्रस्तावना
20वीं सदी के महान अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन (Milton Friedman) ने पारंपरिक मात्रात्मक मुद्रा सिद्धांत को नया दृष्टिकोण दिया। उन्होंने मुद्रा की भूमिका को दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता के रूप में व्याख्यायित किया और इस विचार को प्रस्तुत किया कि मुद्रास्फीति सदैव और सर्वत्र एक मौद्रिक घटना होती है। उन्होंने अपने इस दृष्टिकोण को "मुद्रा परिमाण सिद्धांत (Quantity Theory of Money – Restated)" के रूप में प्रस्तुत किया। यह सिद्धांत मुद्रा की मांग, उसकी आपूर्ति और मूल्य स्तर के बीच गहरे संबंध को दर्शाता है।
📘 फ्रीडमैन का मुद्रा परिमाण सिद्धांत – परिचय
🔷 पारंपरिक सिद्धांत से अलग दृष्टिकोण
पारंपरिक मात्रात्मक सिद्धांत (जैसे फिशर का MV = PT) केवल मुद्रा की मात्रा पर केंद्रित था, जबकि फ्रीडमैन का सिद्धांत मुद्रा की मांग (Demand for Money) पर आधारित है।
👉 उनका मत था कि लोग अपनी कुल संपत्ति का एक भाग मुद्रा के रूप में रखना चाहते हैं। अतः मुद्रा की मांग भी वास्तविक आय, ब्याज दर, मुद्रास्फीति, धन की प्रत्याशित वापसी आदि पर निर्भर करती है।
🔶 फ्रीडमैन का समीकरण
फ्रीडमैन ने मुद्रा की मांग को इस प्रकार व्यक्त किया:
Md/P = f (Y, rB, rE, πe, u)
जहाँ:
-
Md = मुद्रा की मांग
-
P = मूल्य स्तर
-
Y = वास्तविक आय
-
rB = बॉन्ड से मिलने वाला ब्याज
-
rE = शेयर से प्राप्त आय
-
πe = प्रत्याशित मुद्रास्फीति
-
u = अन्य मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक कारक
👉 यह समीकरण दर्शाता है कि मुद्रा की मांग बहुआयामी कारकों पर आधारित है, न कि केवल लेन-देन की मात्रा पर।
🔷 फ्रीडमैन के सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएँ
✅ 1. मुद्रा एक संपत्ति है
फ्रीडमैन के अनुसार लोग मुद्रा को उसी तरह रखते हैं जैसे वे बॉन्ड, भूमि या शेयर रखते हैं – यानी एक संपत्ति के रूप में।
✅ 2. मुद्रा की मांग स्थिर होती है
उन्होंने यह तर्क दिया कि दीर्घकाल में मुद्रा की मांग स्थिर रहती है, जिससे मुद्रा की आपूर्ति को नीति निर्धारण के लिए अधिक भरोसेमंद बनाया जा सकता है।
✅ 3. ब्याज दर की सीमित भूमिका
फ्रीडमैन ने केन्स की तरह मुद्रा की मांग में ब्याज दर को महत्वपूर्ण नहीं माना, बल्कि अन्य आर्थिक कारकों को अधिक महत्व दिया।
✅ 4. लंबी अवधि में केवल मुद्रा की आपूर्ति ही मूल्य स्तर को नियंत्रित करती है
उनके अनुसार उत्पादन, तकनीकी प्रगति और उत्पादकता जैसे कारक अल्पकाल में मूल्य स्तर को प्रभावित नहीं करते।
📊 फ्रीडमैन सिद्धांत की उपयोगिता
🔷 ✅ दीर्घकालिक मूल्य स्थिरता का समर्थन
यह सिद्धांत बताता है कि यदि मुद्रा की आपूर्ति को स्थिर रखा जाए, तो अर्थव्यवस्था में दीर्घकालिक मूल्य स्थिरता बनी रह सकती है।
🔷 ✅ मौद्रिक नीति के महत्व को रेखांकित करता है
फ्रीडमैन का सिद्धांत बताता है कि राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) की तुलना में मौद्रिक नीति (Monetary Policy) अधिक प्रभावशाली होती है।
🔷 ✅ केन्सवाद की सीमाओं का समाधान
फ्रीडमैन ने केन्स की अल्पकालिक मांग-आधारित अर्थव्यवस्था को दीर्घकालिक आपूर्ति-आधारित सिद्धांत से प्रतिस्थापित करने की कोशिश की।
❌ फ्रीडमैन सिद्धांत की आलोचना (Criticism of Friedman’s Theory)
🔶 1. मुद्रा की मांग स्थिर नहीं रहती
👉 व्यवहार में देखा गया है कि आर्थिक अस्थिरता, तकनीकी परिवर्तन और वित्तीय नवाचार के कारण मुद्रा की मांग में उतार-चढ़ाव होते हैं।
📌 उदाहरण: डिजिटल भुगतान और UPI ने मुद्रा की मांग को कम कर दिया।
🔶 2. ब्याज दर की भूमिका को कम आँकना
👉 फ्रीडमैन ने ब्याज दर को महत्व नहीं दिया, जबकि कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि यह मुद्रा की मांग पर गहरा प्रभाव डालती है।
🔶 3. अल्पकालिक स्थितियों की उपेक्षा
👉 फ्रीडमैन का सिद्धांत दीर्घकालिक स्थितियों में लागू होता है, परंतु अल्पकाल में जब बाजार असंतुलित हो, तब यह सिद्धांत उपयोगी नहीं होता।
🔶 4. मुद्रास्फीति पर पूर्ण नियंत्रण संभव नहीं
👉 मुद्रा की आपूर्ति नियंत्रित करने मात्र से महंगाई पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता, क्योंकि अन्य कारक जैसे – उत्पादन लागत, विदेशी व्यापार, कर नीति आदि भी प्रभावी होते हैं।
🔶 5. राजकोषीय नीति की उपेक्षा
👉 फ्रीडमैन ने मौद्रिक नीति को अधिक महत्व दिया और राजकोषीय नीति की प्रभावशीलता को नजरअंदाज किया, जबकि व्यावहारिक रूप में दोनों का संतुलन आवश्यक है।
🔶 6. वास्तविक आय और संपत्ति वितरण की अनदेखी
👉 सिद्धांत में यह नहीं बताया गया कि विभिन्न वर्गों की मुद्रा रखने की प्रवृत्ति कैसे अलग होती है। गरीब और अमीर वर्गों की मुद्रा धारणा एक समान नहीं होती।
🔶 7. अमेरिका केंद्रित दृष्टिकोण
👉 फ्रीडमैन का मॉडल मुख्यतः अमेरिका जैसे विकसित देशों की परिस्थितियों पर आधारित है, जबकि विकासशील देशों में यह हमेशा लागू नहीं होता।
📚 केन्स बनाम फ्रीडमैन
विषय | केन्स का दृष्टिकोण | फ्रीडमैन का दृष्टिकोण |
---|---|---|
मुद्रा की मांग | ब्याज दर पर निर्भर | आय व संपत्ति पर निर्भर |
नीति का जोर | राजकोषीय नीति | मौद्रिक नीति |
दृष्टिकोण | अल्पकालिक | दीर्घकालिक |
मुद्रा का कार्य | केवल विनिमय | संपत्ति के रूप में भी |
✅ निष्कर्ष
फ्रीडमैन का मुद्रा परिमाण सिद्धांत आधुनिक मौद्रिक अर्थशास्त्र में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसने मात्रात्मक सिद्धांत को नवजीवन दिया और नीति निर्माताओं को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया। हालांकि इसमें कुछ व्यवहारिक सीमाएँ हैं, फिर भी यह सिद्धांत यह समझने में मदद करता है कि मुद्रा की मात्रा में स्थिरता किस प्रकार मूल्य स्तर को प्रभावित करती है।
📌 इसलिए निष्कर्षतः कहा जा सकता है:
"फ्रीडमैन का सिद्धांत दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता और मुद्रास्फीति नियंत्रण का एक प्रभावशाली उपकरण है, लेकिन इसे व्यवहार में लाने के लिए अन्य कारकों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है।"
💰 प्रश्न 10: मुद्रा पूर्ति के अवयवों और निर्धारकों की विवेचना कीजिए।
🏛️ प्रस्तावना
मुद्रा पूर्ति (Money Supply) किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह दर्शाती है कि किसी निश्चित समय पर अर्थव्यवस्था में कुल कितनी मुद्रा उपलब्ध है। मुद्रा पूर्ति का सीधा संबंध देश की मौद्रिक नीति, मूल्य स्तर, ब्याज दर, तथा आर्थिक विकास से होता है। मुद्रा की मात्रा बढ़ने या घटने से मुद्रास्फीति (Inflation) या मंदी (Recession) जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए मुद्रा पूर्ति को नियंत्रित करना किसी भी देश के केंद्रीय बैंक की प्रमुख जिम्मेदारी होती है।
📘 मुद्रा पूर्ति की परिभाषा
"किसी देश में एक निश्चित समय पर जनता के पास उपलब्ध चलनशील मुद्रा और मांग जमा (Demand Deposits) की कुल मात्रा को मुद्रा पूर्ति कहते हैं।"
🔹 सरल शब्दों में,
"M = C + DD"
जहाँ,
M = मुद्रा पूर्ति
C = जनता के पास नकद मुद्रा (Currency with public)
DD = मांग जमाएं (Demand Deposits with Banks)
🔹 भाग 1: मुद्रा पूर्ति के प्रमुख अवयव (Components of Money Supply)
भारत में मुद्रा पूर्ति को भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने विभिन्न मापदंडों (measures) में विभाजित किया है:
🔷 1️⃣ M1 – संकीर्ण मुद्रा (Narrow Money)
यह सबसे सरल और तुरंत उपलब्ध मुद्रा है।
🔸 अवयव:
-
जनता के पास नकद मुद्रा (C)
-
मांग जमाएं (DD)
-
अन्य मांग जमाएं (OD)
📌 M1 = C + DD + OD
🔷 2️⃣ M2 – M1 + बचत बैंक जमा
-
यह M1 में पोस्ट ऑफिस की बचत जमाओं को भी जोड़ता है।
📌 M2 = M1 + बचत डाकघर जमाएं
🔷 3️⃣ M3 – विस्तृत मुद्रा (Broad Money)
भारत में मौद्रिक विश्लेषण के लिए सबसे अधिक उपयोग में आने वाला मापदंड।
🔸 अवयव:
-
M1 + बैंक की अवधि जमाएं (Time Deposits)
📌 M3 = M1 + TD (with Commercial Banks)
➡ इसे सकल मुद्रा पूर्ति (Aggregate Monetary Resource) भी कहते हैं।
🔷 4️⃣ M4 – सबसे विस्तृत माप
-
M3 + डाकघर की कुल जमा राशि
📌 M4 = M3 + कुल डाकघर जमा
📌 विशेष नोट:
-
M1 और M2 → अधिक तरल (Liquid)
-
M3 और M4 → कम तरल पर व्यापक
🔸 भाग 2: मुद्रा पूर्ति के निर्धारक (Determinants of Money Supply)
🔶 1️⃣ उच्चाधार मुद्रा (High Powered Money or Reserve Money)
-
इसे H या Base Money भी कहते हैं।
-
यह वह मुद्रा होती है जो RBI द्वारा सीधे बनाई जाती है।
-
इसमें शामिल हैं:
-
चलन में मुद्रा (Currency in circulation)
-
बैंकों की RBI में जमा राशि (Reserves)
-
📌 H = C + R
👉 यह मुद्रा पूर्ति का सबसे बुनियादी आधार है।
🔶 2️⃣ मुद्रा गुणक (Money Multiplier)
-
यह दर्शाता है कि किसी अर्थव्यवस्था में उच्चाधार मुद्रा के आधार पर कुल मुद्रा पूर्ति कितनी बार बढ़ती है।
📌 मुद्रा गुणक = मुद्रा पूर्ति / उच्चाधार मुद्रा
➡ यदि मुद्रा गुणक 4 है और H = ₹1000 करोड़ है, तो M = ₹4000 करोड़ होगी।
🔶 3️⃣ केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति
-
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ब्याज दरें, नकद आरक्षित अनुपात (CRR), सांविधिक तरलता अनुपात (SLR) आदि को नियंत्रित कर मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करता है।
📌 उदाहरण:
CRR बढ़ाने से बैंकों के पास ऋण देने योग्य राशि घटती है, जिससे मुद्रा पूर्ति कम होती है।
🔶 4️⃣ वाणिज्यिक बैंकों की ऋण सृजन क्षमता
-
बैंकों द्वारा दिए गए ऋण भी मुद्रा पूर्ति में वृद्धि करते हैं क्योंकि यह प्रक्रिया क्रेडिट क्रिएशन (Credit Creation) कहलाती है।
📌 जितना अधिक बैंक ऋण देंगे, उतनी अधिक मुद्रा प्रणाली में प्रवेश करेगी।
🔶 5️⃣ सरकार की वित्तीय नीति
-
जब सरकार राजकोषीय घाटा बढ़ाती है और RBI से ऋण लेती है, तो वह मुद्रा सृजन का कारण बनता है।
📌 इसे "Deficit Financing" कहते हैं।
🔶 6️⃣ विदेशी मुद्रा भंडार में बदलाव
-
जब RBI विदेशी मुद्रा खरीदता है, तो वह रुपये जारी करता है, जिससे मुद्रा पूर्ति बढ़ती है।
📌 उदाहरण: निर्यात बढ़ने से डॉलर आता है, RBI डॉलर लेकर रुपये देता है, जिससे मुद्रा बढ़ती है।
🔶 7️⃣ जनता की मुद्रा धारणा
-
यदि जनता नकद मुद्रा अधिक रखना चाहती है तो बैंकिंग प्रणाली में ऋण सृजन घटेगा।
-
इससे मुद्रा पूर्ति पर प्रभाव पड़ेगा।
📌 यह एक व्यवहारिक और मनोवैज्ञानिक निर्धारक होता है।
🔶 8️⃣ टेक्नोलॉजी और डिजिटल बैंकिंग
-
आज के समय में UPI, इंटरनेट बैंकिंग और e-wallets जैसे डिजिटल माध्यमों ने मुद्रा के व्यवहार और गति को प्रभावित किया है।
📌 इससे मुद्रा का वेग (Velocity of Money) बढ़ता है, और मुद्रा पूर्ति की प्रभावशीलता भी बढ़ती है।
📊 मुद्रा पूर्ति के अवयव बनाम निर्धारक – एक तालिका
श्रेणी | अवयव (Components) | निर्धारक (Determinants) |
---|---|---|
आधार | M1, M2, M3, M4 | उच्चाधार मुद्रा (H) |
व्यवहार | नकद + जमा | मुद्रा धारणा |
नीतिगत | नहीं | RBI की मौद्रिक नीति |
तकनीकी | नहीं | डिजिटल भुगतान प्रणाली |
अंतर्राष्ट्रीय | नहीं | विदेशी मुद्रा भंडार |
✅ निष्कर्ष
मुद्रा पूर्ति किसी भी देश की आर्थिक गतिविधियों का मेरुदंड होती है। इसके अवयव जैसे – नकद मुद्रा, मांग और समय जमाएं, मुद्रा को परिभाषित करते हैं, जबकि निर्धारक – जैसे उच्चाधार मुद्रा, मौद्रिक नीति, ब्याज दर, सरकारी व्यय, क्रेडिट सृजन – मुद्रा की मात्रा को प्रभावित करते हैं। यदि मुद्रा पूर्ति अत्यधिक हो जाती है, तो मुद्रास्फीति बढ़ती है, और यदि कम हो, तो मंदी की स्थिति उत्पन्न होती है।
📌 इसलिए निष्कर्षतः कहा जा सकता है:
“मुद्रा पूर्ति का संतुलन बनाए रखना आर्थिक स्थिरता, विकास और मूल्य स्थिरता के लिए अत्यंत आवश्यक है।”
🏛️ प्रश्न 11: भारत में मुद्रा पूर्ति के विभिन्न कार्यों की व्याख्या कीजिए।
🔰 प्रस्तावना
मुद्रा पूर्ति (Money Supply) का तात्पर्य किसी अर्थव्यवस्था में एक निश्चित समय पर उपलब्ध कुल मुद्रा से है, जिसमें नकद मुद्रा, बैंक जमाएं और अन्य तरल संपत्तियाँ शामिल होती हैं। भारत जैसे विशाल और विकासशील देश में मुद्रा पूर्ति की भूमिका बहुआयामी है – यह न केवल व्यापार और लेन-देन को सुगम बनाती है, बल्कि आर्थिक नीति, विकास योजनाओं, और बाजार की स्थिरता में भी सहायक होती है।
👉 इस उत्तर में हम भारत में मुद्रा पूर्ति के प्रमुख कार्यों को विस्तारपूर्वक समझेंगे।
🔷 1. व्यापार और विनिमय का माध्यम
💡 मुद्रा का प्रमुख कार्य: लेन-देन को सरल बनाना
मुद्रा पूर्ति का सबसे पहला और प्राथमिक कार्य है — विनिमय का माध्यम बनना। भारत में करोड़ों लोग प्रतिदिन वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान करते हैं, और यह सब संभव हो पाता है पर्याप्त मात्रा में चलनशील मुद्रा के कारण।
📌 उदाहरण:
-
सब्ज़ी ख़रीदने से लेकर मोबाइल खरीदने तक हर जगह मुद्रा ही विनिमय का माध्यम है।
-
UPI जैसे डिजिटल माध्यम भी इसी पूर्ति का हिस्सा हैं।
🔷 2. मूल्य मापन की इकाई (Unit of Account)
💡 वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य निर्धारित करने में सहायक
भारत में मुद्रा मूल्य मापन का एक सार्वभौमिक मानक है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु या सेवा की कीमत को हम रुपये में अभिव्यक्त कर सकते हैं।
📌 उदाहरण:
-
एक किलो गेहूं ₹30 में बिकता है, एक बाइक ₹1,00,000 में।
-
यह मूल्य की एकरूपता लाता है और लेन-देन को पारदर्शी बनाता है।
🔷 3. क्रय शक्ति का संचय (Store of Value)
💡 भविष्य की जरूरतों के लिए धन का संग्रह
मुद्रा पूर्ति लोगों को अपनी आय को भविष्य के लिए संचय करने का साधन प्रदान करती है। भारत में लाखों लोग अपनी कमाई को बैंक खातों, फिक्स्ड डिपॉजिट, या नकद रूप में संचित रखते हैं।
📌 उदाहरण:
-
बचत खाते में जमा पैसे
-
पेंशन, बीमा आदि के लिए बचाया गया धन
👉 इससे लोगों को आर्थिक सुरक्षा का अनुभव होता है।
🔷 4. ऋणों की माप और पुनर्भुगतान
💡 उधारी का लेन-देन संभव बनाना
भारत में मुद्रा पूर्ति का एक और महत्त्वपूर्ण कार्य है – ऋण व्यवस्था को संभव बनाना। मुद्रा में उधार लिया और दिया जाना आसान होता है, क्योंकि यह एक स्वीकार्य मापदंड है।
📌 उदाहरण:
-
बैंक से ₹2 लाख का होम लोन
-
क्रेडिट कार्ड से ₹10,000 की खरीदारी
👉 मुद्रा के रूप में उधारी और पुनर्भुगतान का प्रावधान भारत की आर्थिक गतिशीलता को बनाए रखता है।
🔷 5. मौद्रिक नीति के कार्यान्वयन में सहायक
💡 RBI मुद्रा पूर्ति के माध्यम से मूल्य और विकास को नियंत्रित करता है
भारत का भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करके मुद्रास्फीति, ब्याज दरों, और आर्थिक विकास को प्रभावित करता है। इस प्रक्रिया में मुद्रा पूर्ति की जानकारी और उसके नियंत्रण की तकनीकें अत्यंत आवश्यक हैं।
📌 उदाहरण:
-
CRR और SLR में परिवर्तन
-
REPO दर घटाकर बाज़ार में नकदी प्रवाह बढ़ाना
👉 मुद्रा पूर्ति के माध्यम से RBI बाजार को संतुलित करता है।
🔷 6. आर्थिक योजनाओं और विकास में योगदान
💡 भारत की पंचवर्षीय योजनाओं और योजनाबद्ध विकास में मुद्रा का उपयोग
विकासशील देश होने के कारण भारत में सरकार अनेक योजनाएँ चलाती है – जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत मिशन, मनरेगा आदि। इन योजनाओं को वित्तीय सहायता देने में मुद्रा पूर्ति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
📌 उदाहरण:
-
योजनाओं के लिए बजट आबंटन
-
सब्सिडी और DBT (Direct Benefit Transfer) के ज़रिए राशि स्थानांतरण
🔷 7. बाजार में मांग और आपूर्ति को संतुलित करना
💡 मुद्रा की उपलब्धता से माँग को प्रोत्साहन
जब लोगों के पास पर्याप्त मुद्रा होती है तो वे अधिक खरीददारी करते हैं। इससे बाज़ार में माँग बढ़ती है, उत्पादन को बढ़ावा मिलता है और रोजगार सृजित होता है।
📌 उदाहरण:
-
त्योहारी सीजन में नकदी की आपूर्ति
-
किसान ऋण माफी से क्रयशक्ति में वृद्धि
👉 इस प्रकार मुद्रा पूर्ति आर्थिक चक्र को गति देती है।
🔷 8. वित्तीय समावेशन (Financial Inclusion) में सहायक
💡 मुद्रा के माध्यम से समाज के अंतिम व्यक्ति तक सेवाएं पहुँचना
भारत सरकार और RBI दोनों ने "जन धन योजना" जैसी योजनाओं के माध्यम से वित्तीय समावेशन को बढ़ावा दिया है, जिससे प्रत्येक नागरिक को बैंकिंग प्रणाली से जोड़ा जा सके।
📌 उदाहरण:
-
जनधन खाते
-
मोबाइल बैंकिंग और आधार आधारित भुगतान
👉 इससे ग्रामीण और गरीब वर्ग को आर्थिक मुख्यधारा में लाने में सहायता मिलती है।
📊 तालिका: मुद्रा पूर्ति के कार्य – एक संक्षिप्त दृष्टिकोण
क्रम | कार्य | विवरण |
---|---|---|
1️⃣ | विनिमय का माध्यम | व्यापार को सरल बनाना |
2️⃣ | मूल्य मापन | वस्तुओं की कीमत तय करना |
3️⃣ | संचय | भविष्य के लिए धन बचाना |
4️⃣ | ऋण व्यवस्था | उधारी और पुनर्भुगतान संभव |
5️⃣ | मौद्रिक नीति | मूल्य स्थिरता और विकास में सहायक |
6️⃣ | योजनाएँ | सरकारी योजनाओं का संचालन |
7️⃣ | मांग-आपूर्ति संतुलन | बाज़ार में स्थिरता लाना |
8️⃣ | वित्तीय समावेशन | सभी को बैंकिंग से जोड़ना |
✅ निष्कर्ष
भारत में मुद्रा पूर्ति के कार्य केवल विनिमय तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह व्यापक आर्थिक विकास, योजनाओं के क्रियान्वयन, बाजार संतुलन, और सामाजिक समावेशन जैसे क्षेत्रों में भी निर्णायक भूमिका निभाती है। यदि मुद्रा की पूर्ति संतुलित होती है, तो इससे महँगाई को नियंत्रित किया जा सकता है, निवेश को बढ़ावा दिया जा सकता है और रोजगार उत्पन्न किया जा सकता है।
📌 अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है:
“भारत की आर्थिक उन्नति, स्थिरता और समावेशिता को सुनिश्चित करने में मुद्रा पूर्ति की बहुआयामी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।”
प्रश्न 12. मुद्रास्फीति क्या है? समाज के विभिन्न वर्गों में इसके प्रभाव लिखिए।
💡 प्रस्तावना: अर्थव्यवस्था की बदलती चाल — मुद्रास्फीति
मुद्रास्फीति (Inflation) एक ऐसी आर्थिक स्थिति है जिसमें वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में समय के साथ निरंतर वृद्धि होती है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है, परंतु जब यह नियंत्रित सीमा से बाहर हो जाती है, तो यह देश की अर्थव्यवस्था और आम जनता की क्रय शक्ति को गहरा प्रभावित करती है।
📚 मुद्रास्फीति की परिभाषा
🔎 अर्थ:
मुद्रास्फीति का तात्पर्य है – किसी देश की अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति में वृद्धि के कारण वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों का लगातार बढ़ते जाना।
📘 उदाहरण:
यदि एक वस्तु जिसकी कीमत एक वर्ष पहले ₹100 थी, वही वस्तु आज ₹120 में मिल रही है, तो यह 20% मुद्रास्फीति का संकेत देती है।
🔍 मुद्रास्फीति के प्रमुख कारण
🏭 1. मांग-वृद्धि आधारित मुद्रास्फीति (Demand-Pull Inflation)
जब बाजार में वस्तुओं और सेवाओं की माँग उनकी आपूर्ति से अधिक हो जाती है, तो कीमतें बढ़ने लगती हैं।
⚙️ 2. लागत-वृद्धि आधारित मुद्रास्फीति (Cost-Push Inflation)
जब कच्चे माल, मजदूरी या अन्य उत्पादन लागतों में वृद्धि होती है, तो उसका सीधा असर वस्तुओं की कीमतों पर पड़ता है।
💰 3. मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि
जब सरकार मुद्रा छापकर खर्चों की पूर्ति करती है, तो बाजार में नकदी बढ़ती है और इससे मुद्रास्फीति जन्म लेती है।
🌍 4. वैश्विक प्रभाव
तेल की कीमतों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वृद्धि, आयात महंगा होने से भी मुद्रास्फीति बढ़ती है।
👥 समाज के विभिन्न वर्गों पर मुद्रास्फीति का प्रभाव
🧑🌾 1. गरीब और निम्न आय वर्ग पर प्रभाव
🥣 जीवन यापन कठिन
मूलभूत आवश्यकताओं जैसे अनाज, सब्जी, दूध आदि की कीमतें बढ़ने से इस वर्ग के लिए जीवन अत्यंत कठिन हो जाता है।
💸 बचत पर असर
इनके पास सीमित आमदनी होती है, जो पूरी तरह खर्च में चली जाती है। अतः वे किसी भी प्रकार की बचत नहीं कर पाते।
👨🏭 2. मध्यम वर्ग पर प्रभाव
📉 क्रय शक्ति में गिरावट
मध्यम वर्ग की आय सीमित होती है, इसलिए कीमतें बढ़ने पर उनकी क्रय शक्ति घट जाती है।
🏠 निवेश और जीवनशैली प्रभावित
शिक्षा, स्वास्थ्य, मकान, यात्रा आदि पर खर्च सीमित करना पड़ता है। यह वर्ग आमतौर पर भविष्य के लिए निवेश करता है, लेकिन मुद्रास्फीति से यह बाधित होता है।
👔 3. उच्च आय वर्ग पर प्रभाव
🏦 सुरक्षित होते हैं साधन
इस वर्ग के पास इतनी संपत्ति और संसाधन होते हैं कि वे महंगाई को झेलने में सक्षम होते हैं। कई बार तो वे लाभ भी कमा लेते हैं, जैसे – रियल एस्टेट या सोने की कीमतें बढ़ने से।
📈 निवेश पर लाभ
उच्च वर्ग अपनी पूंजी को शेयर बाजार, रियल एस्टेट या अन्य मुद्रास्फीति-अनुकूल क्षेत्रों में लगाकर अच्छा रिटर्न पाता है।
🧑💼 4. वेतनभोगी कर्मचारी वर्ग पर प्रभाव
⏳ वेतन वृद्धि में विलंब
अक्सर वेतन में वृद्धि मुद्रास्फीति की गति के अनुसार नहीं होती, जिससे असंतुलन पैदा होता है।
🙁 मानसिक तनाव
मूल्यवृद्धि के कारण बजट गड़बड़ा जाता है और तनाव बढ़ता है।
🧑💻 5. व्यापारी और उद्यमी वर्ग पर प्रभाव
📊 कुछ को लाभ, कुछ को हानि
मुद्रास्फीति के दौरान व्यापारी यदि कीमतें ठीक से समायोजित कर लेते हैं तो उन्हें लाभ हो सकता है। लेकिन जिनका व्यवसाय मूल्य संवेदनशील वस्तुओं पर आधारित है, उन्हें घाटा भी हो सकता है।
🧾 कराधान का दबाव
महंगाई के चलते इनकम टैक्स ब्रैकेट में आना आसान हो जाता है, जिससे टैक्स अधिक देना पड़ता है।
🏢 6. उद्योग एवं व्यवसाय पर प्रभाव
🏭 लागत में वृद्धि
कच्चा माल, मजदूरी, परिवहन आदि की लागत बढ़ने से उत्पादन महंगा हो जाता है।
📉 मांग में गिरावट
उत्पाद महंगे होने पर ग्राहक कम खरीदते हैं, जिससे बिक्री घटती है और लाभ कम होता है।
🏛️ 7. सरकार और प्रशासन पर प्रभाव
💸 राजकोषीय घाटा बढ़ता है
सरकार को सार्वजनिक योजनाओं में अधिक खर्च करना पड़ता है, जिससे घाटा बढ़ता है।
📉 नीतिगत निर्णय कठिन
सरकार को संतुलन बनाना होता है – महंगाई और विकास के बीच। ब्याज दरें, कर नीतियाँ आदि चुनौतीपूर्ण बन जाती हैं।
🔄 मुद्रास्फीति के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव
😟 असंतोष और आक्रोश
महंगाई से जब जनता की आवश्यकताएं पूरी नहीं होतीं, तो समाज में असंतोष फैलता है।
🔀 असमानता में वृद्धि
अमीर और गरीब के बीच की खाई और अधिक गहरी हो जाती है।
🤯 मानसिक स्वास्थ्य पर असर
निरंतर बढ़ती महंगाई चिंता, तनाव और अवसाद का कारण बन सकती है, विशेष रूप से वेतनभोगी और निम्न वर्गों में।
✅ निष्कर्ष: मुद्रास्फीति – नियंत्रित रहे तो ठीक, वरना संकट
मुद्रास्फीति यदि एक नियंत्रित सीमा में रहे तो यह आर्थिक विकास का सूचक भी हो सकती है, लेकिन यदि यह अनियंत्रित हो जाए, तो यह सभी वर्गों को प्रभावित करती है – विशेषकर गरीब और मध्यम वर्ग को। अतः सरकार और रिजर्व बैंक को ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिए जो न केवल मुद्रास्फीति को नियंत्रित करें, बल्कि सभी वर्गों को राहत भी प्रदान करें।
प्रश्न 13. संस्फीति, स्फीति एवं अपस्फीति में क्या अंतर है?
🧠 प्रस्तावना: अर्थव्यवस्था के परिवर्तनशील संकेतक
आधुनिक अर्थव्यवस्था में मूल्य स्तर में परिवर्तन एक सामान्य प्रक्रिया है। कभी वस्तुएं महंगी होती हैं, तो कभी सस्ती। कभी बाजार में स्थिरता बनी रहती है, तो कभी अचानक उतार-चढ़ाव आने लगते हैं। इन सभी आर्थिक स्थितियों को पहचानने और समझने के लिए तीन महत्वपूर्ण शब्दों का उपयोग किया जाता है — संस्फीति (Inflation), स्फीति (Disinflation), और अपस्फीति (Deflation)।
इन तीनों शब्दों का संबंध बाजार में वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों से है, लेकिन तीनों के प्रभाव और परिप्रेक्ष्य अलग-अलग होते हैं। इनकी सही समझ किसी भी नीति-निर्माता, अर्थशास्त्री और जागरूक नागरिक के लिए आवश्यक है।
📌 संस्फीति (Inflation) – मूल्यवृद्धि की स्थिति
📈 क्या है संस्फीति?
संस्फीति का अर्थ है – किसी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों का सामान्य और निरंतर बढ़ते जाना। जब बाजार में मुद्रा की आपूर्ति अधिक हो जाती है और उपलब्ध वस्तुओं की तुलना में मांग बढ़ जाती है, तो कीमतें बढ़ने लगती हैं। यही स्थिति संस्फीति कहलाती है।
🧾 उदाहरण:
यदि गेहूं की कीमत एक वर्ष में ₹20 प्रति किलो से बढ़कर ₹30 हो जाती है, तो यह संस्फीति को दर्शाता है।
🔍 कारण:
-
मुद्रा की अधिक आपूर्ति
-
कच्चे माल की लागत में वृद्धि
-
मजदूरी दरों में बढ़ोत्तरी
-
करों में वृद्धि
-
वैश्विक वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी
⚠️ प्रभाव:
-
गरीब और मध्यम वर्ग की क्रयशक्ति घटती है
-
बचत की प्रवृत्ति घटती है
-
निवेश प्रभावित होता है
-
सामाजिक असंतुलन बढ़ता है
📉 स्फीति (Disinflation) – मूल्यवृद्धि की धीमी गति
💡 क्या है स्फीति?
स्फीति वह स्थिति है जब मूल्यवृद्धि की दर धीमी हो जाती है, अर्थात कीमतें अभी भी बढ़ रही हैं, लेकिन उनकी गति कम हो जाती है। इसे कभी-कभी "मुद्रास्फीति की शीतलता" (Cooling of Inflation) भी कहा जाता है।
यह स्थिति दर्शाती है कि अर्थव्यवस्था में नियंत्रण लाया जा रहा है, और मुद्रास्फीति की तीव्रता में कमी आ रही है।
🧾 उदाहरण:
यदि एक वर्ष में मुद्रास्फीति 8% थी, और अगले वर्ष यह घटकर 5% रह जाती है, तो इसे स्फीति कहा जाएगा — क्योंकि कीमतें अब भी बढ़ रही हैं, लेकिन पहले से कम रफ्तार से।
🔍 कारण:
-
मौद्रिक नीतियों का सख्ती से पालन
-
ब्याज दरों में वृद्धि
-
सरकारी खर्च में कटौती
-
आपूर्ति में सुधार
📊 प्रभाव:
-
उपभोक्ताओं को कुछ राहत मिलती है
-
निवेशकों का विश्वास बढ़ता है
-
विकास दर संतुलित बनी रहती है
-
मांग में थोड़ी स्थिरता आती है
🧾 अपस्फीति (Deflation) – मूल्य में गिरावट की स्थिति
⬇️ क्या है अपस्फीति?
अपस्फीति वह स्थिति होती है जब वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में निरंतर गिरावट आती है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब मांग अत्यधिक घट जाती है और आपूर्ति की तुलना में उपभोग कम हो जाता है।
हालाँकि सुनने में यह स्थिति ग्राहकों के लिए लाभकारी प्रतीत हो सकती है, लेकिन वास्तव में यह अर्थव्यवस्था के लिए बेहद खतरनाक होती है।
🧾 उदाहरण:
यदि पहले टेलीविजन की कीमत ₹25,000 थी और धीरे-धीरे घटकर ₹20,000 हो जाती है, और भविष्य में और गिरने की आशंका हो, तो यह अपस्फीति है।
🔍 कारण:
-
आर्थिक मंदी
-
उपभोक्ताओं की खर्च करने की क्षमता में गिरावट
-
निवेश में भारी कमी
-
बेरोजगारी में वृद्धि
-
नकदी प्रवाह में गिरावट
⚠️ प्रभाव:
-
उत्पादन में भारी गिरावट
-
बेरोजगारी बढ़ती है
-
कंपनियों को घाटा होता है
-
आर्थिक गतिविधियाँ रुक जाती हैं
-
दीर्घकालीन मंदी की संभावना
🔄 तीनों अवधारणाओं में मूलभूत अंतर — विवरणात्मक दृष्टिकोण
📌 संस्फीति:
-
कीमतें लगातार बढ़ती हैं
-
अर्थव्यवस्था में गर्मी होती है (Overheating)
-
मांग की अधिकता मुख्य कारण
-
क्रय शक्ति घटती है
📌 स्फीति:
-
कीमतें अब भी बढ़ रही हैं, पर धीमी गति से
-
नियंत्रण की स्थिति
-
सकारात्मक संकेत यदि संतुलन बना रहे
📌 अपस्फीति:
-
कीमतों में गिरावट होती है
-
मांग की भारी कमी
-
अर्थव्यवस्था में ठंडक (Cooling down)
-
मंदी और बेरोजगारी की स्थिति
🧭 नीति-निर्माताओं की भूमिका
मुद्रास्फीति और अपस्फीति दोनों ही स्थितियाँ अर्थव्यवस्था के लिए जोखिमपूर्ण होती हैं। अतः सरकार और रिजर्व बैंक की यह ज़िम्मेदारी होती है कि वे ऐसी मौद्रिक और वित्तीय नीतियाँ लागू करें जिससे मूल्य स्तर में संतुलन बना रहे। ब्याज दरें, नकद आरक्षित अनुपात (CRR), सार्वजनिक व्यय आदि का सही संयोजन आवश्यक होता है।
✅ निष्कर्ष: संतुलित मुद्रास्फीति – स्वस्थ अर्थव्यवस्था की कुंजी
संस्फीति, स्फीति और अपस्फीति — ये तीनों अवस्थाएँ मूल्य स्तर की दिशा और गति को दर्शाती हैं। संस्फीति जहां अत्यधिक मूल्यवृद्धि की स्थिति है, वहीं स्फीति एक संतुलन की ओर बढ़ता कदम है, और अपस्फीति एक गंभीर आर्थिक संकट का संकेत हो सकती है।
इन तीनों का अध्ययन केवल परीक्षाओं तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि एक सजग नागरिक के रूप में हमें इनके प्रभावों को समझकर अपने आर्थिक निर्णय भी उसी अनुसार लेने चाहिए।
प्रश्न 14. वाणिज्यिक बैंक क्या हैं? वाणिज्यिक बैंकों के कार्यों की विवेचना कीजिए।
🏦 प्रस्तावना: अर्थव्यवस्था की धुरी — वाणिज्यिक बैंक
वर्तमान समय में किसी भी देश की आर्थिक प्रगति और सामाजिक संरचना को सशक्त बनाने में वाणिज्यिक बैंकों (Commercial Banks) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। ये बैंक आम जनता से लेकर बड़े उद्योगों तक को वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं और मुद्रा का प्रवाह बनाए रखते हैं।
वाणिज्यिक बैंक न केवल धन को जमा करने और ऋण देने का कार्य करते हैं, बल्कि ये संपूर्ण आर्थिक गतिविधियों को सुचारु रूप से संचालित करने में भी सहायक होते हैं।
🧾 वाणिज्यिक बैंक की परिभाषा
वाणिज्यिक बैंक ऐसे वित्तीय संस्थान होते हैं जो आम जनता से धन जमा करते हैं और उस धन को विभिन्न व्यापारिक एवं व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए ऋण के रूप में प्रदान करते हैं।
इनका मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है, और ये बैंकों के बीच सबसे सामान्य प्रकार हैं। ये बैंक बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 के अंतर्गत कार्य करते हैं।
🔍 वाणिज्यिक बैंकों के प्रमुख लक्षण
✔️ लाभ-केन्द्रित कार्यप्रणाली
ये बैंक लाभ कमाने की दृष्टि से काम करते हैं।
✔️ जनता के लिए खुले
कोई भी व्यक्ति इन बैंकों में खाता खोल सकता है या सेवाएं ले सकता है।
✔️ मुद्रा का प्रवाह
वाणिज्यिक बैंक देश में मुद्रा की गति बनाए रखते हैं।
✔️ भारतीय रिज़र्व बैंक के अधीन
ये बैंक रिज़र्व बैंक द्वारा नियंत्रित होते हैं और उसकी नीतियों का पालन करते हैं।
📚 वाणिज्यिक बैंकों के प्रकार
🏛️ 1. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक
जैसे: स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI), पंजाब नेशनल बैंक (PNB), बैंक ऑफ बड़ौदा आदि।
🏢 2. निजी क्षेत्र के बैंक
जैसे: ICICI Bank, HDFC Bank, Axis Bank आदि।
🌐 3. विदेशी बैंक
जैसे: HSBC, Citi Bank, Standard Chartered आदि।
📌 वाणिज्यिक बैंकों के मुख्य कार्य
वाणिज्यिक बैंकों के कार्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है:
🧰 (A) प्राथमिक कार्य (Primary Functions)
💰 1. धन जमा करना (Accepting Deposits)
बैंक विभिन्न प्रकार की जमा योजनाएँ प्रदान करते हैं:
🧾 (i) बचत खाता (Savings Account)
छोटे बचतकर्ताओं के लिए उपयुक्त, सीमित लेनदेन की सुविधा होती है।
🧾 (ii) चालू खाता (Current Account)
व्यापारियों के लिए उपयुक्त, असीमित लेनदेन की सुविधा।
🧾 (iii) सावधि जमा (Fixed Deposit)
निश्चित समय के लिए जमा, जिसमें ब्याज दर अधिक होती है।
🧾 (iv) आवर्ती जमा (Recurring Deposit)
हर महीने एक निर्धारित राशि जमा कर ब्याज अर्जित करने की योजना।
💳 2. ऋण देना (Granting Loans & Advances)
बैंक जनता और व्यवसायों को विभिन्न प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं:
🏠 (i) व्यक्तिगत ऋण (Personal Loans)
शादी, शिक्षा, यात्रा आदि के लिए दिया जाता है।
🧾 (ii) व्यापारिक ऋण (Business Loans)
व्यापार शुरू करने या विस्तार के लिए।
🚜 (iii) कृषि ऋण (Agriculture Loans)
किसानों के लिए बीज, खाद, उपकरण खरीदने हेतु।
🏢 (iv) औद्योगिक ऋण (Industrial Loans)
बड़े उद्योगों को मशीनरी, निर्माण आदि के लिए।
🛠️ (B) द्वितीयक कार्य (Secondary Functions)
🧾 1. एजेंसी कार्य (Agency Functions)
💸 (i) भुगतान और प्राप्ति
बैंक ग्राहकों की ओर से बिलों का भुगतान और धन प्राप्त करते हैं।
📤 (ii) चेकों का संग्रहण
बैंक चेकों को अन्य बैंकों से प्राप्त कर उनके भुगतान की व्यवस्था करते हैं।
🧾 (iii) करों का भुगतान
सरकारी करों, बीमा प्रीमियम आदि का भुगतान बैंक द्वारा किया जाता है।
📑 (iv) प्रतिनिधित्व कार्य
बैंक ग्राहक की ओर से वित्तीय मामलों में प्रतिनिधित्व कर सकते हैं।
🧳 2. सामान्य उपयोगी कार्य (General Utility Services)
🌐 (i) विदेश विनिमय सेवाएं (Foreign Exchange Services)
विदेश यात्रा, व्यापार या पढ़ाई के लिए विदेशी मुद्रा प्रदान करना।
🔒 (ii) लॉकर सुविधा
मूल्यवान वस्तुओं को सुरक्षित रखने हेतु लॉकर सेवा।
💻 (iii) ऑनलाइन बैंकिंग
नेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग, UPI जैसी आधुनिक सेवाएं।
📈 (iv) निवेश सलाह
बैंक म्यूचुअल फंड, बीमा और अन्य योजनाओं में निवेश की सलाह भी देते हैं।
📊 वाणिज्यिक बैंकों की अर्थव्यवस्था में भूमिका
🔁 मुद्रा प्रवाह में सहायक
बैंक धन को एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरित करते हैं और बाजार में पूंजी की उपलब्धता बनाए रखते हैं।
💼 रोजगार सृजन
बैंकों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है।
📉 मुद्रास्फीति पर नियंत्रण
ब्याज दरों के माध्यम से मांग और आपूर्ति को नियंत्रित करते हैं।
🌱 विकासशील क्षेत्रों में पूंजी उपलब्ध कराना
कृषि, लघु उद्योग, शिक्षा आदि क्षेत्रों को वित्तीय सहायता देकर समावेशी विकास में योगदान करते हैं।
✅ निष्कर्ष: वाणिज्यिक बैंक — आर्थिक विकास के स्तंभ
वाणिज्यिक बैंक केवल धन के आदान-प्रदान का माध्यम नहीं हैं, बल्कि वे एक सशक्त और स्थिर अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए आवश्यक आधार प्रदान करते हैं। इनकी सेवाएं समाज के सभी वर्गों को प्रभावित करती हैं — चाहे वह गरीब किसान हो या बड़ा उद्योगपति। आज के डिजिटल युग में बैंकों की भूमिका और अधिक विस्तृत होती जा रही है, जिससे ये देश की आर्थिक रीढ़ बन चुके हैं।
प्रश्न 15. भारत में स्वतंत्रता से पूर्व बैंकिंग प्रणाली के विकास पर लेख लिखो
📜 प्रस्तावना: बैंकिंग का प्रारंभिक स्वरूप
बैंकिंग प्रणाली किसी भी देश की आर्थिक नींव का प्रमुख आधार होती है। भारत में बैंकिंग का इतिहास अत्यंत प्राचीन है — जहाँ ऋण देना, सूद पर पैसे देना, और व्यापारिक लेन-देन वैदिक युग से ही प्रचलन में था। यद्यपि आधुनिक बैंकिंग प्रणाली का विकास मुख्य रूप से ब्रिटिश शासनकाल के दौरान हुआ, लेकिन इसकी जड़ें भारतीय समाज में गहरी थीं।
स्वतंत्रता से पूर्व भारत में बैंकिंग व्यवस्था अनेक चरणों से गुज़री, जिसमें स्वदेशी बैंकों का उदय, विदेशी बैंकों का प्रभुत्व और आर्थिक असमानता जैसे पहलू सम्मिलित रहे।
🏛️ वैदिक और प्राचीन काल में बैंकिंग के संकेत
🧾 लेखा-जोखा और धन का लेन-देन
प्राचीन भारत में "श्रेणी" नामक व्यापारिक संघ होते थे, जो व्यापारियों और साहूकारों के बीच धन का लेन-देन करते थे। 'मनुस्मृति' और 'अर्थशास्त्र' जैसे ग्रंथों में ब्याज दर, ऋण नीति और सावधानी से संबंधित विवरण मिलते हैं।
💰 सूदखोरी का प्रारंभिक रूप
व्यक्ति से व्यक्ति पर आधारित ऋण व्यवस्था, जहाँ ब्याज पर धन देना-संभालना एक व्यवसाय बन चुका था।
📅 मुगल काल में वित्तीय प्रणाली का स्वरूप
💹 हवाला और हुंडी प्रणाली
मुगल काल में व्यापारियों ने हुंडी और हवाला जैसे साधनों का प्रयोग करना शुरू किया, जो वर्तमान बैंकिंग के चेक और ड्राफ्ट जैसे थे।
🏦 व्यावसायिक केंद्र
दिल्ली, आगरा, अहमदाबाद, सूरत आदि में बैंकों के स्थान पर व्यापारी संघ ऋण, भुगतान और सुरक्षा जैसे कार्य करते थे।
🇬🇧 ब्रिटिश शासनकाल और आधुनिक बैंकिंग का उदय
ब्रिटिश शासनकाल में ही भारत में आधुनिक बैंकिंग प्रणाली की नींव रखी गई। इस दौरान कई बैंकों की स्थापना हुई और बैंकिंग को संस्थागत रूप दिया गया।
🏦 आधुनिक बैंकिंग का प्रारंभ (1770–1900)
📍 1770 – बैंक ऑफ हिन्दुस्तान की स्थापना
भारत का पहला बैंक बैंक ऑफ हिन्दुस्तान था, जिसकी स्थापना अंग्रेज व्यापारियों ने की। यह बैंक 1832 में बंद हो गया।
🏛️ 1806 – बैंक ऑफ कलकत्ता (बाद में SBI)
बैंक ऑफ कलकत्ता, 1806 में स्थापित हुआ, जिसे बाद में बैंक ऑफ बंगाल कहा गया। इसके साथ बैंक ऑफ बॉम्बे (1840) और बैंक ऑफ मद्रास (1843) की स्थापना हुई। इन तीनों को 'प्रेसीडेंसी बैंक' कहा जाता था।
🔁 1921 – इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया
तीनों प्रेसीडेंसी बैंकों का विलय कर इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की गई। बाद में 1955 में यही बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) बना।
🇮🇳 स्वदेशी आंदोलन और भारतीय बैंकों का उदय (1900–1947)
🧡 भारतीय राष्ट्रवाद का प्रभाव
1905 के स्वदेशी आंदोलन के बाद भारतीय उद्यमियों ने विदेशी बैंकों के विरोध में भारतीय स्वामित्व वाले बैंकों की स्थापना की।
🏦 प्रमुख स्वदेशी बैंक
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पंजाब नेशनल बैंक (1894) – लाला लाजपत राय द्वारा प्रवर्तित
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बैंक ऑफ इंडिया (1906)
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कैनरा बैंक (1906)
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इंडियन बैंक (1907)
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सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया (1911) – पहला पूर्ण भारतीय प्रबंधकीय बैंक
📈 उद्देश्य:
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देशवासियों की पूंजी का उपयोग देश में ही हो
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विदेशी बैंकों की निर्भरता घटे
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राष्ट्रवादी भावना के साथ आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त की जाए
🛑 स्वतंत्रता से पूर्व बैंकिंग की समस्याएँ
⚠️ 1. बैंकिंग का असमान विकास
शहरी क्षेत्रों में बैंकिंग तेजी से फैली, जबकि ग्रामीण भारत बैंकिंग सेवाओं से वंचित रहा।
💸 2. जनता का भरोसा कम
कई निजी बैंक अस्थिर रहे और समय-समय पर डूब गए, जिससे जनता का विश्वास कमजोर हुआ।
🏚️ 3. विनियमन की कमी
कोई सशक्त नियामक संस्था नहीं थी, जिससे बैंक अपने ढंग से कार्य करते थे।
📉 4. ऋण की उपलब्धता में असमानता
कृषि और लघु उद्योगों को ऋण मिलना कठिन था, जबकि बड़े व्यापारी और ब्रिटिश कंपनियों को आसानी से ऋण उपलब्ध होता था।
🏢 भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना — एक ऐतिहासिक कदम
🕰️ 1935 – RBI की स्थापना
भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की स्थापना 1 अप्रैल 1935 को हुई, जो भारत का केन्द्रीय बैंक बना। इसका मुख्य उद्देश्य:
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मुद्रा नियंत्रण
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बैंकिंग प्रणाली को नियमित करना
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वाणिज्यिक बैंकों को निर्देशन देना
RBI ने स्वतंत्रता से पूर्व की बैंकिंग को अधिक संगठित और उत्तरदायी बनाने में मदद की।
📊 स्वतंत्रता से पूर्व बैंकिंग की स्थिति — एक समग्र दृष्टि
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देश में लगभग 600 से अधिक बैंक कार्यरत थे, जिनमें अधिकतर छोटे निजी बैंक थे।
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इनमें से कई बैंक अव्यवस्थित और अल्पकालिक थे।
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बैंकों की असफलता दर बहुत अधिक थी, जिससे बचतकर्ताओं को भारी नुकसान हुआ।
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केवल कुछ ही बैंक, जैसे PNB, Canara Bank और BOI, टिक पाए।
✅ निष्कर्ष: स्वतंत्रता से पूर्व बैंकिंग — नींव मजबूत, ढांचा अस्थिर
स्वतंत्रता से पूर्व भारत की बैंकिंग प्रणाली ने अनेक चुनौतियों के बावजूद अपना आकार और स्वरूप विकसित किया। यद्यपि यह प्रणाली अभी संस्थागत और संगठित नहीं थी, परंतु इसने एक मजबूत आर्थिक चेतना और स्वदेशी भावना को जन्म दिया। भारतीय उद्यमियों, स्वतंत्रता सेनानियों और समाज सुधारकों के प्रयासों से बैंकिंग प्रणाली की नींव पड़ी, जिसे स्वतंत्रता के बाद और भी अधिक सुदृढ़ किया गया।
प्रश्न 16. स्वतंत्रता के बाद भारत में वाणिज्यिक बैंकों के विकास को विस्तार से लिखिए?
🏛️ प्रस्तावना: भारतीय बैंकिंग प्रणाली का नवयुग
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) के पश्चात् देश को आर्थिक आत्मनिर्भरता और सामाजिक न्याय के मार्ग पर ले जाने के लिए एक मजबूत बैंकिंग ढांचे की आवश्यकता थी। वाणिज्यिक बैंक, जो पूर्व में केवल शहरी और समृद्ध वर्गों तक सीमित थे, उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों, गरीबों और छोटे उद्यमों तक पहुँचाने की आवश्यकता महसूस हुई। स्वतंत्रता के बाद भारतीय वाणिज्यिक बैंकिंग प्रणाली ने कई चरणों में परिवर्तन और विकास किया, जिससे आज की व्यापक और मजबूत बैंकिंग संरचना का निर्माण हुआ है।
📈 1. प्रारंभिक चरण (1947-1968): निजी बैंकिंग का युग
🏦 निजी स्वामित्व वाणिज्यिक बैंक
स्वतंत्रता के बाद भारत में अधिकांश वाणिज्यिक बैंक निजी स्वामित्व में थे। इन बैंकों का संचालन मुनाफे की दृष्टि से होता था और ये प्रायः उद्योगपतियों और व्यापारियों द्वारा नियंत्रित होते थे। ग्रामीण क्षेत्रों और कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की जाती थी।
🧱 समस्याएं
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बैंकों की संख्या कम थी
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ग्रामीण क्षेत्रों में शाखाओं की भारी कमी थी
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किसान, छोटे उद्योग और गरीब वर्ग बैंकिंग सुविधा से वंचित थे
🏛️ 2. राष्ट्रीयकरण की क्रांति (1969)
📌 ऐतिहासिक निर्णय
1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इस कदम का उद्देश्य बैंकिंग को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ना था।
🎯 उद्देश्य
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बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार ग्रामीण क्षेत्रों तक
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कृषि, लघु उद्योग और गरीब वर्ग को ऋण की सुविधा
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आर्थिक समावेशन
🏢 परिणाम
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ग्रामीण शाखाओं में बढ़ोतरी
-
प्राथमिक क्षेत्र (agriculture & small industries) को ऋण देने में वृद्धि
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गरीब वर्ग की बैंकिंग तक पहुँच सुनिश्चित हुई
🏛️ 3. दूसरा राष्ट्रीयकरण चरण (1980)
🧾 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण
1980 में सरकार ने 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। इसका लक्ष्य था बैंकिंग के सामाजिक नियंत्रण को और मजबूत करना।
🔍 प्रभाव
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बैंकिंग नेटवर्क और गहराई में तेज़ी से वृद्धि
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समाज के वंचित वर्गों को आर्थिक मुख्यधारा में लाना
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बैंकिंग को सरकारी योजनाओं के लिए एक प्रभावी माध्यम बनाना
🧠 4. बैंकिंग सुधार युग (1991 के बाद)
📉 नई आर्थिक नीति का प्रभाव
1991 की आर्थिक उदारीकरण नीति के तहत भारत ने बैंकिंग क्षेत्र में सुधारों की शुरुआत की। नरसिंह राव सरकार और वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बैंकिंग क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा और दक्षता की ओर अग्रसर किया गया।
✍️ नरसिंहम समिति की सिफारिशें
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बैंकों की स्वायत्तता बढ़ाना
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गैर-निष्पादित आस्तियों (NPA) पर नियंत्रण
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पूंजी पर्याप्तता मानकों का निर्धारण
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निजी क्षेत्र को बैंकिंग में पुनः प्रवेश
📌 परिणाम
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नए निजी बैंक जैसे ICICI, HDFC, Axis Bank आदि का उदय
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बैंकिंग सेवाओं में आधुनिक तकनीक का प्रयोग
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ग्राहक सेवा में सुधार
💳 5. तकनीकी विकास और डिजिटलीकरण (2000 के बाद)
💻 Core Banking Solutions (CBS)
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सभी बैंक शाखाएं आपस में जुड़ीं
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ऑनलाइन ट्रांजेक्शन की सुविधा
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ATM, डेबिट कार्ड, इंटरनेट बैंकिंग की शुरुआत
📲 मोबाइल और UPI बैंकिंग
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मोबाइल बैंकिंग और UPI ने बैंकिंग को आम जनता की जेब में पहुंचाया
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Paytm, PhonePe, Google Pay आदि ऐप्स के माध्यम से डिजिटल भुगतान को बढ़ावा
🇮🇳 6. जन-धन योजना और समावेशी बैंकिंग (2014 के बाद)
🏦 प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY)
2014 में शुरू हुई इस योजना ने करोड़ों गरीबों को बैंकिंग प्रणाली से जोड़ा। इससे सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को सीधा लाभ पहुँचाने में मदद मिली।
📈 आँकड़ों में विकास
-
करोड़ों नए खाते खोले गए
-
Direct Benefit Transfer (DBT) को सफलता मिली
-
बैंकों की पहुँच गाँवों तक सुलभ हुई
🔐 7. NPA संकट और सुधारात्मक उपाय
📉 बढ़ते NPA की समस्या
वर्ष 2010 के बाद बैंकों का NPA (गैर-निष्पादित ऋण) बढ़ा, जिससे बैंकों की पूंजीगत स्थिति पर असर पड़ा।
🔧 समाधान:
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Insolvency and Bankruptcy Code (IBC)
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बैंकों का विलय (Merger of Banks)
-
Prompt Corrective Action (PCA) फ्रेमवर्क
🔁 8. बैंकों का एकीकरण (2017 के बाद)
🔄 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय
सरकार ने कई सरकारी बैंकों का विलय कर उन्हें बड़े और मजबूत इकाई में बदला।
उदाहरण:
-
बैंक ऑफ बड़ौदा + देना बैंक + विजया बैंक
-
पंजाब नेशनल बैंक + ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स + यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया
📊 निष्कर्ष: समावेश से सशक्तिकरण तक
स्वतंत्रता के बाद भारत में वाणिज्यिक बैंकों ने एक लंबा सफर तय किया है। निजी लाभ से सामाजिक उद्देश्य तक, और फिर प्रतिस्पर्धात्मक दक्षता तक की यह यात्रा भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गई है। आज बैंक न केवल वित्तीय संस्थान हैं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक विकास के सशक्त माध्यम बन चुके हैं। डिजिटलीकरण, समावेशन और सुधारों के साथ यह प्रणाली भविष्य में और अधिक प्रभावशाली और जनकल्याणकारी बनने की दिशा में अग्रसर है।
🏦 प्रश्न 16: साख से आप क्या समझते हैं तथा इसे प्रभावित करने वाले कौन-कौन से कारक हैं?
📘 साख की परिभाषा (Definition of Credit)
साख (Credit) एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें एक व्यक्ति या संस्था दूसरे व्यक्ति या संस्था को वर्तमान में धन, वस्तु या सेवा इस विश्वास पर प्रदान करता है कि भविष्य में उसका भुगतान कर दिया जाएगा। साख का अर्थ होता है — "विश्वास के आधार पर दी गई उधारी।" बैंकिंग व्यवस्था में साख एक प्रमुख तत्व है, जिसके माध्यम से बैंक जनता को ऋण उपलब्ध कराते हैं।
🔍 साख की आवश्यकता (Need for Credit)
साख किसी भी आर्थिक प्रणाली में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह व्यापार, उद्योग, कृषि, सेवाओं और व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है। आर्थिक विकास के लिए पूंजी की आवश्यकता होती है और जब पूंजी की तत्काल उपलब्धता न हो, तो साख उसकी पूर्ति करती है।
🧠 साख के प्रकार (Types of Credit)
🏢 1. उत्पादक साख (Productive Credit)
यह वह साख होती है जो किसी उत्पादन या व्यवसाय को बढ़ाने के लिए ली जाती है, जैसे — कच्चा माल खरीदने के लिए, मशीनरी खरीदने के लिए आदि।
🧺 2. उपभोग साख (Consumption Credit)
यह वह साख होती है जो उपभोग की वस्तुएँ खरीदने या व्यक्तिगत खर्चों को पूरा करने के लिए ली जाती है। जैसे — विवाह, बीमारी, शिक्षा आदि।
📆 3. अल्पकालिक साख (Short-Term Credit)
यह साख सामान्यतः एक वर्ष से कम अवधि के लिए दी जाती है, जैसे — कृषि ऋण।
🧱 4. दीर्घकालिक साख (Long-Term Credit)
यह साख एक वर्ष से अधिक समय के लिए दी जाती है, जैसे — मकान, वाहन, या औद्योगिक परियोजनाओं के लिए ऋण।
📌 साख को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक (Factors Affecting Credit)
🔒 1. उधारकर्ता की विश्वसनीयता (Creditworthiness of Borrower)
यदि उधारकर्ता का पूर्व भुगतान इतिहास अच्छा है और उसका आर्थिक व्यवहार भरोसेमंद है, तो उसे साख आसानी से मिल जाती है। बैंक ऐसे लोगों को प्राथमिकता देते हैं जो समय पर ऋण चुकाते हैं।
💰 2. आय और संपत्ति की स्थिति (Income and Asset Position)
जिस व्यक्ति या संस्था की आय अधिक और संपत्ति मजबूत होती है, उसकी साख मजबूत मानी जाती है। इससे साखदाता को यह विश्वास होता है कि उधारकर्ता ऋण समय पर चुका सकेगा।
📉 3. आर्थिक स्थिति और व्यापार चक्र (Economic Conditions and Business Cycle)
देश की आर्थिक स्थिति यदि स्थिर और सकारात्मक है, तो साख की उपलब्धता बढ़ती है। मंदी या आर्थिक संकट के समय साख पर सख्ती हो जाती है।
🏦 4. बैंक की ऋण नीति (Lending Policy of Banks)
बैंक की अपनी आंतरिक नीति और नियम भी साख पर प्रभाव डालते हैं। यदि बैंक जोखिम लेने को तैयार है तो वह अधिक साख देगा, अन्यथा वह सीमित कर देगा।
📝 5. उधार का उद्देश्य (Purpose of Loan)
साख किस उद्देश्य के लिए ली जा रही है, यह भी अहम होता है। उत्पादनशील या व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए ली गई साख जल्दी स्वीकृत हो जाती है, जबकि उपभोग या गैर-उत्पादक उद्देश्यों के लिए अधिक जांच होती है।
📊 6. सिक्योरिटी या गिरवी (Collateral Security)
साख देते समय बैंक आमतौर पर किसी संपत्ति को गिरवी रखने की मांग करता है। अच्छी गुणवत्ता की संपत्ति होने से साख मिलने की संभावना बढ़ जाती है।
🧾 7. ऋण का इतिहास और सिबिल स्कोर (Credit History & CIBIL Score)
यदि उधारकर्ता का सिबिल स्कोर (CIBIL Score) अच्छा है, तो उसे बिना किसी कठिनाई के ऋण मिल जाता है। यह स्कोर उधारकर्ता की ऋण वापसी की क्षमता को दर्शाता है।
✍️ निष्कर्ष (Conclusion)
साख आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। इसका प्रभाव न केवल व्यक्तिगत स्तर पर होता है बल्कि राष्ट्र की समग्र आर्थिक गतिविधियों पर भी पड़ता है। यह आवश्यक है कि साख का सदुपयोग किया जाए और समय पर उसका भुगतान किया जाए, ताकि वित्तीय प्रणाली में विश्वास बना रहे। साथ ही, साख को प्रभावित करने वाले कारकों को समझकर व्यक्ति या संस्था अपनी ऋण पात्रता को सुधार सकते हैं।
प्रश्न 17. वाणिज्यिक बैंकों द्वारा साख सृजन के महत्व को विस्तृत रूप में समझाइए?
🏦 वाणिज्यिक बैंक क्या है?
वाणिज्यिक बैंक एक ऐसा वित्तीय संस्थान होता है जो जनता से धन (जमा) एकत्र करता है और उसे ऋण के रूप में विभिन्न क्षेत्रों में वितरित करता है। इनका प्रमुख उद्देश्य लाभ कमाना होता है। ये बैंक व्यापार, उद्योग, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में पूंजी उपलब्ध कराते हैं, जिससे आर्थिक गतिविधियाँ सुचारु रूप से चलती हैं।
💳 साख सृजन क्या है? (What is Credit Creation?)
साख सृजन का अर्थ है बैंकों द्वारा नए धन का निर्माण करना। जब बैंक जनता से जमा राशि प्राप्त करते हैं, तो वे उसका एक हिस्सा रिजर्व के रूप में रखते हैं और शेष राशि को ऋण के रूप में जारी कर देते हैं। यह ऋण पुनः बैंकिंग प्रणाली में जमा हो जाता है, और इस प्रक्रिया से बार-बार नया धन बनता है। इस पूरी प्रक्रिया को ही साख सृजन कहा जाता है।
📌 साख सृजन की प्रक्रिया (Credit Creation Process)
🔹 प्राथमिक जमा (Primary Deposit)
जब कोई व्यक्ति ₹10,000 बैंक में जमा करता है, तो यह राशि बैंक के लिए प्राथमिक जमा होती है।
🔹 वैधानिक नकद आरक्षित अनुपात (CRR)
मान लीजिए बैंक को 10% राशि रिजर्व में रखनी है यानी ₹1,000। अब ₹9,000 ऋण के रूप में दिया जा सकता है।
🔹 ऋण वितरण और पुनः जमा
जिस व्यक्ति को ₹9,000 का ऋण मिला, वह उसे किसी अन्य व्यक्ति को भुगतान करता है और वह राशि पुनः बैंक में जमा होती है। यह प्रक्रिया कई बार दोहराई जाती है और इसी तरह साख का निर्माण होता है।
📊 वाणिज्यिक बैंकों द्वारा साख सृजन के महत्व
💰 1. मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि
बैंक जब ऋण देते हैं तो वह धन बाजार में आता है, जिससे मुद्रा की आपूर्ति बढ़ती है और अर्थव्यवस्था में गतिविधियाँ तीव्र होती हैं।
🧑🌾 2. कृषि एवं ग्रामीण विकास
किसानों को ऋण प्रदान कर कृषि कार्यों के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं। इससे उत्पादन में वृद्धि होती है।
🏭 3. औद्योगिक विकास
उद्योगों को मशीनें, कच्चा माल, और अन्य संसाधन खरीदने के लिए ऋण मिलता है। इससे औद्योगिक उत्पादन और रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।
👩🎓 4. शिक्षा और स्वरोजगार को बढ़ावा
छात्रों को शिक्षा ऋण, छोटे व्यापारियों को स्वरोजगार ऋण, महिलाओं को महिला उद्यमिता ऋण प्रदान कर समाज के विकास में योगदान दिया जाता है।
🔄 5. निवेश को प्रोत्साहन
बैंकिंग प्रणाली साख सृजन द्वारा निवेश को प्रोत्साहित करती है, जिससे पूंजी निर्माण और आर्थिक विकास होता है।
📦 6. व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार
साख के माध्यम से व्यापारी अपने व्यापार का विस्तार कर सकते हैं, जिससे अधिक रोजगार उत्पन्न होते हैं।
🧱 7. अवसंरचना विकास
साख से सड़क, बिजली, जल आपूर्ति जैसी मूलभूत सुविधाओं के विकास हेतु परियोजनाओं को वित्त पोषित किया जाता है।
📉 8. मुद्रा की निष्क्रियता समाप्त
बैंकों में जमा की गई निष्क्रिय राशि को ऋण के रूप में उपयोग कर, उसे सक्रिय बनाया जाता है, जिससे अर्थव्यवस्था गतिशील रहती है।
🧠 साख सृजन के प्रति सावधानी
🚫 1. महँगाई का जोखिम
अत्यधिक साख सृजन से बाजार में मुद्रा की अधिकता हो सकती है, जिससे महँगाई बढ़ सकती है।
⚖️ 2. ऋण अदायगी में जोखिम
यदि ऋण लेने वाले समय पर भुगतान नहीं कर पाते, तो बैंक की वित्तीय स्थिति पर असर पड़ सकता है।
📊 3. नियंत्रित नियामकीय व्यवस्था
साख सृजन को नियंत्रित करने के लिए RBI द्वारा CRR, SLR, रेपो रेट आदि जैसे उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
📝 निष्कर्ष (Conclusion)
वाणिज्यिक बैंकों द्वारा साख सृजन न केवल एक आर्थिक प्रक्रिया है, बल्कि यह पूरे राष्ट्र के विकास की रीढ़ भी है। इससे न केवल धन का प्रवाह सुनिश्चित होता है, बल्कि निवेश, उत्पादन, रोजगार, और आर्थिक स्थिरता भी प्राप्त होती है। हालांकि इस प्रक्रिया में सावधानी और नियमन का होना भी अनिवार्य है ताकि यह संतुलित और सतत विकास में सहायक हो सके।
प्रश्न 18. केंद्रीय बैंक क्या हैं? इसके प्रमुख कार्यों का वर्णन करते हुए, आधुनिक अर्थव्यवस्था में केन्द्रीय बैंक की भूमिका की विवेचना कीजिए।
🏛️ केन्द्रीय बैंक की परिभाषा (Definition of Central Bank)
केन्द्रीय बैंक किसी देश की मौद्रिक प्रणाली (Monetary System) का शीर्ष संस्थान होता है, जो मुद्रा निर्गम, साख नियंत्रण, वित्तीय स्थिरता बनाए रखने और वाणिज्यिक बैंकों की निगरानी जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम देता है। भारत में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) इस भूमिका को निभाता है।
🎯 केंद्रीय बैंक की विशेषताएँ (Key Characteristics of a Central Bank)
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यह लाभ कमाने के उद्देश्य से कार्य नहीं करता।
-
यह वाणिज्यिक बैंकों का बैंक होता है।
-
यह सरकार का बैंकिंग एजेंट और वित्तीय सलाहकार होता है।
-
यह देश की मौद्रिक नीति का निर्माण और क्रियान्वयन करता है।
-
मुद्रा का एकमात्र निर्गमक अधिकार इसी के पास होता है।
🛠️ केन्द्रीय बैंक के प्रमुख कार्य (Main Functions of Central Bank)
💰 1. मुद्रा निर्गमन (Issue of Currency)
केन्द्रीय बैंक देश की वैध मुद्रा का एकमात्र निर्गमक होता है। भारत में RBI ₹2 से लेकर ₹2000 तक के नोट जारी करता है। इससे मुद्रा की एकरूपता और विश्वास बना रहता है।
🏦 2. सरकार का बैंक (Banker to the Government)
-
सरकार के खाते की देखरेख करना।
-
सरकार को ऋण देना।
-
सरकारी प्रतिभूतियों का प्रबंधन करना।
🏛️ 3. वाणिज्यिक बैंकों का बैंक (Banker’s Bank)
RBI सभी वाणिज्यिक बैंकों को लाइसेंस देता है, उनका निरीक्षण करता है और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें ऋण भी प्रदान करता है।
📉 4. साख नियंत्रण (Credit Control)
देश में मुद्रास्फीति या मंदी जैसी आर्थिक स्थितियों को नियंत्रित करने के लिए केन्द्रीय बैंक विभिन्न उपकरणों जैसे – ब्याज दर, नकद आरक्षित अनुपात (CRR), वैधानिक तरलता अनुपात (SLR) आदि का प्रयोग करता है।
🔐 5. विदेशी मुद्रा का प्रबंधन (Management of Foreign Exchange)
RBI विदेशी मुद्रा विनिमय दर को स्थिर बनाए रखने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार को नियंत्रित करता है। भारत में यह कार्य FEMA कानून के अंतर्गत किया जाता है।
📊 6. मौद्रिक नीति का निर्माण (Formulation of Monetary Policy)
देश की आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार मौद्रिक नीति को बनाकर मुद्रा आपूर्ति, साख, ब्याज दर, निवेश इत्यादि को नियंत्रित करना।
🛡️ 7. वित्तीय स्थिरता बनाए रखना (Ensuring Financial Stability)
बैंकिंग प्रणाली में भरोसा बनाए रखने हेतु केन्द्रीय बैंक, संकट की स्थिति में बैंकों को सहायता प्रदान करता है जिसे "अंतिम आश्रयदाता (Lender of Last Resort)" कहा जाता है।
🌍 आधुनिक अर्थव्यवस्था में केंद्रीय बैंक की भूमिका (Role of Central Bank in Modern Economy)
🚀 1. आर्थिक विकास को गति देना (Promoting Economic Growth)
केन्द्रीय बैंक, सस्ती ब्याज दरों और साख की उपलब्धता सुनिश्चित कर उद्योगों, व्यापारों और कृषि क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा देता है जिससे देश का आर्थिक विकास होता है।
🧩 2. मूल्य स्थिरता बनाए रखना (Maintaining Price Stability)
मुद्रास्फीति को नियंत्रित करके मूल्य स्थिरता बनाए रखना केंद्रीय बैंक की प्राथमिक जिम्मेदारी होती है, जिससे जनता की क्रय शक्ति स्थिर बनी रहती है।
💳 3. डिजिटल भुगतान और नवाचार (Digital Innovation and Payment Systems)
आज के युग में केंद्रीय बैंक डिजिटल भुगतान प्रणाली जैसे – UPI, NEFT, RTGS आदि के माध्यम से पारदर्शिता और सुविधा सुनिश्चित कर रहा है।
🤝 4. वित्तीय समावेशन (Financial Inclusion)
RBI ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सेवाओं की पहुँच बढ़ाकर हर व्यक्ति को औपचारिक बैंकिंग प्रणाली से जोड़ने की कोशिश करता है।
📈 5. वैश्विक अर्थव्यवस्था में समन्वय (Coordination with Global Economy)
IMF, World Bank जैसे वैश्विक संस्थानों के साथ समन्वय बनाकर देश की अर्थव्यवस्था को वैश्विक उतार-चढ़ाव से बचाने में मदद करता है।
🔍 निष्कर्ष (Conclusion)
केन्द्रीय बैंक किसी देश की आर्थिक रीढ़ होता है। आधुनिक अर्थव्यवस्था में इसकी भूमिका केवल मुद्रा और साख के नियंत्रण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह विकास, स्थिरता, समावेशन, और डिजिटलीकरण को भी प्रोत्साहित करता है। भारत में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने स्वतंत्रता के बाद से आज तक देश की वित्तीय प्रणाली को सुचारु बनाए रखने और आर्थिक प्रगति में अहम योगदान दिया है।
प्रश्न 19. केन्द्रीय बैंक के निर्देशन सिद्धान्त की व्याख्या कीजिये।
💼 केन्द्रीय बैंक के निर्देशन सिद्धान्त की व्याख्या
किसी भी देश की आर्थिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने में केन्द्रीय बैंक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह केवल मुद्रा नियंत्रण ही नहीं करता, बल्कि पूरे बैंकिंग क्षेत्र का संचालन और मार्गदर्शन भी करता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए केन्द्रीय बैंक 'निर्देशन सिद्धान्त' (Principle of Central Bank's Directions) का अनुसरण करता है, जिसके तहत वह वाणिज्यिक बैंकों को विभिन्न दिशा-निर्देश जारी करता है। इन सिद्धान्तों के माध्यम से केन्द्रीय बैंक मौद्रिक नीति, ऋण नीति, मुद्रा आपूर्ति, साख नियंत्रण और वित्तीय स्थिरता को सुनिश्चित करता है।
📘 निर्देशन सिद्धान्त का अर्थ
निर्देशन सिद्धान्त का अभिप्राय है — केन्द्रीय बैंक द्वारा वाणिज्यिक बैंकों और वित्तीय संस्थानों को समय-समय पर दिए गए निर्देशों, नियमों और आदेशों की वह श्रृंखला जिनके माध्यम से वह पूरे बैंकिंग तंत्र को नियंत्रित और संचालित करता है।
यह सिद्धान्त देश की आर्थिक आवश्यकताओं, विकास योजनाओं तथा मौद्रिक नीतियों के अनुसार निर्धारित किए जाते हैं।
📊 निर्देशन सिद्धान्तों की आवश्यकता
🏦 बैंकिंग प्रणाली पर नियंत्रण
केन्द्रीय बैंक अपने निर्देशन सिद्धान्तों के माध्यम से वाणिज्यिक बैंकों की गतिविधियों पर नियंत्रण रखता है, जिससे अराजकता से बचा जा सके।
💸 मुद्रा और साख नियंत्रण
मुद्रास्फीति, अपस्फीति तथा अन्य मौद्रिक असंतुलनों से निपटने हेतु यह सिद्धान्त आवश्यक होते हैं।
📈 आर्थिक विकास का समर्थन
यह सिद्धान्त देश की प्राथमिकताओं के अनुसार संसाधनों के उचित वितरण एवं क्षेत्रीय विकास में मदद करते हैं।
🧩 निर्देशन सिद्धान्तों के प्रमुख तत्व
🔍 1. ऋण नियंत्रण (Credit Control)
वाणिज्यिक बैंकों को दिए गए निर्देशों के माध्यम से केन्द्रीय बैंक ऋण की मात्रा और दिशा को नियंत्रित करता है। इसके अंतर्गत रेपो रेट, बैंक रेट, नकद आरक्षित अनुपात (CRR) जैसे साधनों का प्रयोग किया जाता है।
🏢 2. नियामक निर्देश (Regulatory Directives)
यह निर्देश बैंकों को उनके संचालन, पूंजी आवश्यकताओं, जोखिम प्रबंधन, और ग्राहक सेवा से संबंधित होते हैं।
📑 3. सूचनात्मक निर्देशन (Informational Guidance)
केन्द्रीय बैंक वाणिज्यिक बैंकों को सूचनात्मक रिपोर्ट, सर्वेक्षण, और सांख्यिकीय डेटा के माध्यम से मार्गदर्शन प्रदान करता है।
🔒 4. नैतिक अपील (Moral Suasion)
यह एक असंवैधानिक परंतु प्रभावी तकनीक है, जिसमें केन्द्रीय बैंक वाणिज्यिक बैंकों से सहयोग की अपेक्षा करता है।
🏦 भारतीय संदर्भ में निर्देशन सिद्धान्त
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) देश का केन्द्रीय बैंक है, जो भारत में निर्देशन सिद्धान्तों के माध्यम से मौद्रिक नीति का क्रियान्वयन करता है।
📋 RBI के निर्देशों की प्रकृति
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समय-समय पर जारी सर्कुलर, नोटिफिकेशन व गाइडलाइंस
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बैंकिंग नियमावली (Banking Regulation Act, 1949) के अंतर्गत निर्देश
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मौद्रिक नीति वक्तव्य (Monetary Policy Statement) में उल्लेखित निर्देश
🔄 निर्देशन सिद्धान्तों के अंतर्गत प्रयुक्त उपकरण
🧮 1. मात्रात्मक उपकरण (Quantitative Instruments)
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रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट: अल्पकालिक ऋणों पर नियंत्रण हेतु
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बैंक रेट: दीर्घकालिक साख नीति निर्धारण में सहायक
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CRR और SLR: बैंक की ऋण देने की क्षमता को नियंत्रित करते हैं
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ओपन मार्केट ऑपरेशन्स (OMO): सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद-बिक्री के माध्यम से साख नियंत्रण
📌 2. गुणात्मक उपकरण (Qualitative Instruments)
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ऋण दिशा निर्देशन: प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों जैसे कृषि, लघु उद्योग को ऋण देने के निर्देश
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नैतिक अपील: सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु बैंकों से सहयोग की अपेक्षा
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मार्जिन आवश्यकताएँ: सट्टा गतिविधियों पर नियंत्रण हेतु
📌 आधुनिक अर्थव्यवस्था में निर्देशन सिद्धान्त का महत्व
💠 वित्तीय स्थिरता
केन्द्रीय बैंक के निर्देशों से वित्तीय प्रणाली में संतुलन और विश्वास बना रहता है।
📉 मुद्रास्फीति नियंत्रण
रेपो रेट जैसे उपकरणों से मुद्रा प्रवाह को नियंत्रित किया जाता है।
💼 आर्थिक समावेशन
प्राथमिकता क्षेत्र को ऋण उपलब्ध कराकर ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों का विकास संभव होता है।
🧾 बैंकिंग अनुशासन
बैंकों के संचालन में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व बना रहता है।
🏁 निष्कर्ष
निर्देशन सिद्धान्त केन्द्रीय बैंक के द्वारा अपनाई गई वह नीति है जिसके माध्यम से वह समस्त बैंकिंग व्यवस्था को निर्देशित, नियंत्रित और सुव्यवस्थित करता है। यह सिद्धान्त आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत आवश्यक हैं क्योंकि इनके माध्यम से न केवल साख और मुद्रा का प्रबंधन होता है, बल्कि आर्थिक विकास, वित्तीय स्थिरता और सामाजिक संतुलन भी सुनिश्चित किया जा सकता है। अतः निर्देशन सिद्धान्त न केवल एक मौद्रिक यंत्र है, बल्कि यह आर्थिक नियोजन और अनुशासन का एक प्रभावी उपकरण भी है।
प्रश्न 20. साख नियंत्रण से क्या अभिप्राय है?
📌 भूमिका (Introduction)
आधुनिक अर्थव्यवस्था में साख (Credit) का अत्यधिक महत्व है। यह उत्पादन, व्यापार, उपभोग और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने में मदद करता है। लेकिन यदि साख का वितरण अनियंत्रित हो जाए, तो इससे मुद्रास्फीति, आर्थिक असंतुलन और वित्तीय अस्थिरता जैसे खतरे उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिए, साख नियंत्रण (Credit Control) की प्रक्रिया को अपनाया जाता है, ताकि देश की अर्थव्यवस्था को संतुलित रखा जा सके।
💡 साख नियंत्रण का अभिप्राय (Meaning of Credit Control)
साख नियंत्रण से अभिप्राय उन नीतियों, उपायों और तकनीकों से है जिनके द्वारा केंद्रीय बैंक वाणिज्यिक बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्रदान की जाने वाली ऋण-सुविधाओं को नियंत्रित करता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि देश की आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप ही साख का विस्तार हो, और यह अनावश्यक रूप से महंगाई या मंदी को जन्म न दे।
🎯 साख नियंत्रण के प्रमुख उद्देश्य
🧭 1. मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करना
जब बाजार में अधिक धन होता है तो मांग बढ़ती है और मूल्य भी बढ़ते हैं। ऐसे में साख नियंत्रण से मुद्रा की आपूर्ति को सीमित किया जाता है।
📉 2. महंगाई को रोकना
साख को सीमित करके बाजार में उपभोक्ता व्यय को घटाया जाता है, जिससे महंगाई पर काबू पाया जा सकता है।
📈 3. आर्थिक स्थिरता बनाए रखना
साख नियंत्रण का उद्देश्य अर्थव्यवस्था में संतुलन बनाए रखना होता है, ताकि न तो अत्यधिक विस्तार हो और न ही अत्यधिक संकुचन।
💼 4. उत्पादन व रोजगार को संतुलित करना
अनुचित साख वितरण से उत्पादन व रोजगार पर विपरीत असर पड़ सकता है। साख नियंत्रण से इसे रोका जा सकता है।
🛠️ साख नियंत्रण की विधियाँ (Methods of Credit Control)
साख नियंत्रण के उपायों को दो श्रेणियों में बाँटा जाता है:
🏦 1. सामान्य (Quantitative) उपाय
यह उपाय साख की मात्रा को सीधे प्रभावित करते हैं।
💰 (i) बैंक दर नीति (Bank Rate Policy)
केंद्रीय बैंक जब वाणिज्यिक बैंकों के लिए ब्याज दर बढ़ाता है, तो ऋण लेना महंगा हो जाता है। इससे साख की मांग घटती है।
📊 (ii) नकद आरक्षित अनुपात (Cash Reserve Ratio - CRR)
बैंकों को अपने कुल जमा का एक भाग केंद्रीय बैंक के पास जमा करना होता है। CRR बढ़ाने से बैंकों के पास ऋण देने के लिए कम धन रह जाता है।
🧮 (iii) सांविधिक तरलता अनुपात (Statutory Liquidity Ratio - SLR)
यह भी एक वैधानिक अनुपात है, जिससे बैंक को सरकारी प्रतिभूतियों या नकदी में कुछ धन रखना होता है।
📉 (iv) खुले बाजार क्रियाएं (Open Market Operations)
केंद्रीय बैंक सरकारी प्रतिभूतियों को बेचता या खरीदता है, जिससे बाजार में धन की मात्रा पर प्रभाव पड़ता है।
🎯 2. गुणात्मक (Qualitative) उपाय
यह उपाय साख की दिशा या उपयोग को प्रभावित करते हैं।
📝 (i) सीमांकन नीति (Margin Requirement)
केंद्रिय बैंक, ऋण के लिए गिरवी रखी गई संपत्ति का मूल्य तय करता है, जिससे उधार की सीमा को नियंत्रित किया जा सके।
🧾 (ii) नैतिक दबाव (Moral Suasion)
केंद्रीय बैंक, वाणिज्यिक बैंकों पर नैतिक रूप से दबाव डालता है कि वे साख नीति का पालन करें।
⛔ (iii) निर्देशात्मक नियंत्रण (Direct Action)
यदि बैंक केंद्रीय बैंक की नीतियों का पालन नहीं करते, तो उनके विरुद्ध दंडात्मक कदम उठाए जा सकते हैं।
⚖️ साख नियंत्रण की आवश्यकता क्यों होती है?
✅ आर्थिक अस्थिरता से बचाव
जब किसी देश की अर्थव्यवस्था में तेजी से वृद्धि होती है, तो मांग और कीमतें तेजी से बढ़ती हैं। ऐसे में साख नियंत्रण आवश्यक होता है।
✅ संतुलित क्षेत्रीय विकास
साख नियंत्रण से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र सभी को आवश्यक ऋण मिल सके।
✅ मुद्रास्फीति और मंदी को रोकना
अत्यधिक साख मुद्रास्फीति को जन्म देती है, जबकि बहुत कम साख से मंदी हो सकती है। साख नियंत्रण से दोनों स्थितियों से बचा जा सकता है।
📌 आधुनिक अर्थव्यवस्था में साख नियंत्रण का महत्व
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आर्थिक नीतियों को प्रभावी बनाता है।
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मौद्रिक नीति को लागू करने का प्रमुख साधन है।
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व्यापार चक्र को संतुलित करता है।
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बाजार की अस्थिरता को कम करता है।
📋 निष्कर्ष (Conclusion)
साख नियंत्रण एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जिसके द्वारा केंद्रीय बैंक देश की आर्थिक स्थिरता को बनाए रखने के लिए साख की मात्रा और दिशा को नियंत्रित करता है। यह न केवल मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करता है, बल्कि समाज में सटीक रूप से ऋण का वितरण सुनिश्चित करता है। वर्तमान समय में जब महंगाई और वैश्विक आर्थिक उतार-चढ़ाव जैसे संकट सामने हैं, तो साख नियंत्रण की भूमिका और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
प्रश्न 21: "अंतर्राष्ट्रीय व्यापार आधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था की रीढ़ है" । इस कथन की विवेचना करते हुए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के महत्व एवं चुनौतियों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
🌐 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार: एक परिचय
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार (International Trade) वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत विभिन्न देशों के मध्य वस्तुओं, सेवाओं, पूंजी और प्रौद्योगिकी का आदान-प्रदान होता है। यह व्यापार किसी भी देश की आर्थिक प्रगति और वैश्विक आपसी सहयोग का आधार होता है।
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केवल आर्थिक संबंध ही नहीं बनाता, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी देशों को जोड़ता है।
🔍 कथन की विवेचना: अंतर्राष्ट्रीय व्यापार – वैश्विक अर्थव्यवस्था की रीढ़
"अंतर्राष्ट्रीय व्यापार आधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था की रीढ़ है" — यह कथन इस बात को दर्शाता है कि आज की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर ही टिका है। इसका कारण यह है कि कोई भी देश अब आत्मनिर्भर नहीं रह सकता।
हर देश को अपने संसाधनों, कच्चे माल, तकनीक या बाजार की आवश्यकता पड़ती है और यह सब अंतर्राष्ट्रीय व्यापार द्वारा ही संभव है। इससे देशों के बीच आर्थिक भागीदारी बढ़ती है और वैश्विक स्तर पर आर्थिक स्थायित्व आता है।
🌟 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के महत्व (Importance of International Trade)
📈 1. आर्थिक विकास में सहायक
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से निर्यात को बढ़ावा मिलता है, जिससे देश को विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है और GDP में वृद्धि होती है।
🔄 2. संसाधनों का इष्टतम उपयोग
हर देश अपने प्राकृतिक संसाधनों और विशेषताओं के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन कर सकता है और शेष वस्तुएँ आयात कर सकता है। इससे संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग होता है।
🏭 3. औद्योगिकीकरण को बढ़ावा
विदेशों से मशीनें, तकनीक और कच्चा माल लाकर उत्पादन में तीव्रता लाई जा सकती है, जिससे औद्योगिक विकास होता है।
🧠 4. तकनीकी ज्ञान और नवाचार
विदेशी देशों के संपर्क से नवीनतम तकनीक, प्रबंधन पद्धतियाँ और ज्ञान का आदान-प्रदान होता है जिससे देश की प्रगति होती है।
🌍 5. वैश्विक एकीकरण (Global Integration)
व्यापार से देशों के बीच परस्पर निर्भरता बढ़ती है, जिससे शांति, सहयोग और वैश्विक समझ को बढ़ावा मिलता है।
💼 6. रोजगार के अवसर
निर्यातोन्मुख उद्योगों के बढ़ने से देश में रोजगार सृजन होता है, जिससे बेरोजगारी में कमी आती है।
📉 7. कीमतों में स्थिरता
आयात-निर्यात से देश में वस्तुओं की आपूर्ति बनी रहती है जिससे मांग-आपूर्ति का संतुलन बना रहता है और मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रहता है।
🌐 8. वैश्विक प्रतिस्पर्धा और गुणवत्ता
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, जिससे उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार आता है और उपभोक्ता को बेहतर विकल्प मिलते हैं।
⚠️ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ (Challenges of International Trade)
🛃 1. व्यापार अवरोध (Trade Barriers)
अनेक देश अपने स्थानीय उद्योगों की सुरक्षा हेतु टैरिफ, कोटा एवं अन्य बाधाओं को लागू करते हैं, जिससे व्यापार बाधित होता है।
📉 2. वैश्विक असमानता
विकसित और विकासशील देशों के बीच आर्थिक व तकनीकी असमानता के कारण व्यापार का लाभ असमान रूप से वितरित होता है।
💰 3. विदेशी मुद्रा जोखिम
मुद्रा विनिमय दरों में उतार-चढ़ाव से व्यापारिक लेन-देन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, विशेषकर आयातकों और निर्यातकों के लिए।
🚢 4. परिवहन और लॉजिस्टिक्स समस्याएँ
लंबी दूरी के कारण परिवहन, माल भंडारण, सीमा शुल्क जैसे मसलों के कारण समय और लागत में वृद्धि होती है।
🧾 5. अंतरराष्ट्रीय नियमों का जटिल ढांचा
WTO जैसे संगठनों के नियम और द्विपक्षीय समझौते कई बार व्यापार को कठिन और समय-खपत बना देते हैं।
📊 6. वैश्विक आर्थिक मंदी
यदि वैश्विक स्तर पर मंदी आती है तो देशों के निर्यात पर बुरा प्रभाव पड़ता है और उनका विदेशी मुद्रा भंडार घटने लगता है।
⚔️ 7. राजनीतिक अस्थिरता और युद्ध
राजनीतिक अस्थिरता, युद्ध, या प्रतिबंधों के कारण व्यापारिक संबंध प्रभावित हो सकते हैं।
🏁 निष्कर्ष
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार न केवल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि यह देशों के बीच सहयोग, समन्वय और वैश्विक एकता को भी बढ़ावा देता है।
आज जब वैश्वीकरण की प्रक्रिया तीव्र हो चुकी है, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार प्रत्येक देश के लिए अनिवार्य हो गया है। हालाँकि इसमें अनेक चुनौतियाँ भी मौजूद हैं, परंतु उचित नीतियों, तकनीकी उन्नयन और वैश्विक सहयोग से इनका समाधान संभव है।
प्रश्न 22. भुगतान संतुलन क्या है? इसके प्रमुख पक्षों की व्याख्या कीजिए। साथ ही, चालू खाता घाटा और पूँजी खाता अधिशेष के बीच संबंध को समझाइए।
🔹 भुगतान संतुलन की परिभाषा
भुगतान संतुलन (Balance of Payments - BOP) एक ऐसा विवरण है जो किसी देश द्वारा किसी विशेष अवधि (आमत: एक वित्तीय वर्ष) में अन्य देशों के साथ किए गए सभी आर्थिक लेनदेन को रिकॉर्ड करता है। इसमें माल एवं सेवाओं का आयात-निर्यात, विदेशी पूंजी का प्रवाह, विदेशी निवेश, अनुदान, ऋण आदि शामिल होते हैं। यह देश की विदेशी मुद्रा स्थिति और आर्थिक स्थायित्व का प्रमुख संकेतक होता है।
🔹 भुगतान संतुलन के प्रमुख पक्ष (मुख्य खंड)
भुगतान संतुलन को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जाता है:
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चालू खाता (Current Account)
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पूँजी खाता (Capital Account)
1️⃣ चालू खाता (Current Account)
चालू खाता वह खंड होता है जिसमें वस्तुओं और सेवाओं के आयात-निर्यात तथा एकतरफा लेनदेन (जैसे अनुदान, प्रेषण, सहायता आदि) को दर्शाया जाता है। इसमें मुख्यतः चार तत्व होते हैं:
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वस्तु व्यापार (Merchandise Trade): इसमें माल का आयात और निर्यात शामिल होता है।
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सेवा व्यापार (Invisible Trade): इसमें पर्यटन, बीमा, बैंकिंग, शिक्षा सेवाएँ, परामर्श सेवाएँ आदि का आयात-निर्यात आता है।
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प्रेषण (Remittances): विदेशों में कार्यरत नागरिकों द्वारा अपने देश को भेजी गई धनराशि।
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एकतरफा लेनदेन (Unilateral Transfers): विदेशी सहायता, अनुदान आदि जो बिना किसी प्रतिफल के प्राप्त होते हैं।
🔻 चालू खाता घाटा (Current Account Deficit - CAD):
जब देश का आयात, निर्यात से अधिक हो जाता है और सेवाओं व प्रेषण से होने वाली आय भी उसे संतुलित नहीं कर पाती, तब चालू खाता घाटा उत्पन्न होता है।
2️⃣ पूँजी खाता (Capital Account)
पूँजी खाता उन सभी लेनदेन को दर्शाता है जो निवेश, ऋण और संपत्ति की बिक्री से संबंधित होते हैं। यह बताता है कि एक देश में कितना विदेशी पूंजी प्रवाह हो रहा है या बाहर जा रहा है। इसके प्रमुख घटक हैं:
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प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI): जैसे विदेशी कंपनियों द्वारा कारखाने लगाना।
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पोर्टफोलियो निवेश (FPI): जैसे शेयर बाजार में विदेशी निवेश।
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बैंकिंग पूंजी (Banking Capital): जैसे विदेशी ऋण, मुद्रा भंडार में परिवर्तन।
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विदेशी मुद्रा भंडार में बदलाव: भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा विदेशी मुद्रा भंडार में की गई क्रियाएँ।
✅ पूँजी खाता अधिशेष (Capital Account Surplus):
जब देश में आने वाली पूँजी (FDI, FPI आदि) देश से बाहर जाने वाली पूँजी से अधिक होती है, तो पूँजी खाता अधिशेष होता है।
🔸 चालू खाता घाटा और पूँजी खाता अधिशेष के बीच संबंध
चालू खाता घाटा और पूँजी खाता अधिशेष के बीच एक प्रत्यक्ष संबंध होता है। यदि किसी देश का चालू खाता घाटे में है, तो उसे इसकी भरपाई के लिए पूँजी खाता अधिशेष की आवश्यकता होती है। सरल शब्दों में:
चालू खाता घाटा = पूँजी खाता अधिशेष + विदेशी मुद्रा भंडार में कमी
उदाहरण के तौर पर, भारत जब अधिक तेल आयात करता है और उसका चालू खाता घाटा बढ़ता है, तो उसे विदेशी निवेश, ऋण या मुद्रा भंडार का उपयोग करके उसकी भरपाई करनी पड़ती है।
🔹 भारत की स्थिति
भारत जैसे विकासशील देशों के लिए भुगतान संतुलन बनाए रखना एक चुनौती है। भारत का चालू खाता अक्सर घाटे में होता है, लेकिन पूँजी खाता अधिशेष के माध्यम से उसे संतुलित किया जाता है। भारत में विदेशी निवेश और प्रवासी भारतीयों के प्रेषण इस संतुलन में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
🔹 भुगतान संतुलन असंतुलन के कारण
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निर्यात की तुलना में अधिक आयात
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वैश्विक आर्थिक मंदी
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कच्चे तेल की बढ़ी कीमतें
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डॉलर की मजबूत स्थिति
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विदेशी निवेश में कमी
🔹 भुगतान संतुलन के संतुलन हेतु उपाय
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निर्यात को बढ़ावा देना
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विदेशी निवेश को आकर्षित करना
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घरेलू उत्पादन को बढ़ाना
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विदेशी कर्ज को नियंत्रित करना
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मुद्रा विनिमय दर को स्थिर बनाना
🔚 निष्कर्ष
भुगतान संतुलन किसी भी देश की आर्थिक सेहत का दर्पण है। यह केवल आयात-निर्यात का लेखा नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि देश अपनी विदेशी आर्थिक गतिविधियों को कितनी कुशलता से संचालित कर रहा है। चालू खाता घाटा यदि नियंत्रित न किया जाए तो यह आर्थिक संकट को जन्म दे सकता है, जबकि पूँजी खाता अधिशेष संतुलन बनाने में सहायता करता है। अतः एक मजबूत, विवेकपूर्ण और संतुलित भुगतान संतुलन नीति किसी देश के आर्थिक विकास के लिए अनिवार्य है।
प्रश्न 23. विनिमय नियंत्रण की विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए इसके उद्देश्यों की व्याख्या कीजिए।
🔷 भूमिका
वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था में विनिमय नियंत्रण (Exchange Control) एक अत्यंत महत्वपूर्ण वित्तीय उपकरण है, जिसका प्रयोग विभिन्न देशों द्वारा अपनी विदेशी मुद्रा की स्थिति को नियंत्रित करने तथा संतुलित व्यापार सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है। यह विशेष रूप से उन देशों में आवश्यक होता है, जहाँ विदेशी मुद्रा का प्रवाह असंतुलित होता है या विदेशी मुद्रा की आपूर्ति सीमित होती है।
🔷 विनिमय नियंत्रण की परिभाषा
विनिमय नियंत्रण वह प्रणाली है, जिसके अंतर्गत सरकार अथवा केंद्रीय बैंक द्वारा विदेशी मुद्रा के प्रवाह, क्रय-विक्रय, विनिमय दर तथा विदेशी मुद्रा के उपयोग को विनियमित किया जाता है। यह नियंत्रण विदेशी मुद्रा की उपलब्धता, वितरण एवं उपयोग के लिए नीतियाँ निर्धारित करता है।
🔷 विनिमय नियंत्रण की प्रमुख विशेषताएँ
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सरकारी नियंत्रण में प्रक्रिया
विनिमय नियंत्रण पूर्ण रूप से सरकार अथवा केंद्रीय बैंक जैसे रिज़र्व बैंक के नियंत्रण में होता है। सरकार यह तय करती है कि विदेशी मुद्रा किसे, कितना और किस प्रयोजन के लिए दी जाएगी। -
विदेशी मुद्रा का नियंत्रणित प्रयोग
व्यक्ति या संस्था को विदेश में कोई भुगतान करने या विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए सरकार की अनुमति लेनी होती है। -
आयात-निर्यात पर प्रभाव
विनिमय नियंत्रण नीति आयात को सीमित कर सकती है और निर्यात को प्रोत्साहित करने हेतु लाभ दे सकती है। इससे देश का भुगतान संतुलन स्थिर रखने में मदद मिलती है। -
विनिमय दरों का नियमन
बाजार आधारित विनिमय दरों को नियंत्रित कर सरकार निर्धारित दरों को लागू करती है, जिससे विदेशी मुद्रा के दाम स्थिर रह सकें। -
पूंजी के अंतर्राष्ट्रीय प्रवाह पर नियंत्रण
सरकार विदेशी निवेश, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) या पोर्टफोलियो निवेश पर नियंत्रण लगाकर पूंजी के बाहरी प्रवाह को सीमित कर सकती है। -
विदेश यात्रा व शिक्षा पर प्रतिबंध
सामान्य नागरिकों के विदेश यात्रा हेतु विदेशी मुद्रा के प्रयोग पर भी सीमाएं लागू की जाती हैं।
🔷 विनिमय नियंत्रण के उद्देश्य
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विदेशी मुद्रा भंडार की रक्षा
जब किसी देश के पास सीमित विदेशी मुद्रा भंडार होता है, तब विनिमय नियंत्रण का प्रमुख उद्देश्य इस भंडार को संरक्षित करना होता है ताकि आवश्यक वस्तुओं के आयात में कोई बाधा न हो। -
चालू खाता घाटा को संतुलित करना
चालू खाते का घाटा (Current Account Deficit) बढ़ने पर सरकार विनिमय नियंत्रण लगाकर आयात को सीमित कर सकती है और विदेशी भुगतान पर रोक लगाकर घाटा कम कर सकती है। -
राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करना
कुछ देशों के साथ व्यापार को नियंत्रित कर या रोककर सरकार देश की सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकती है, जैसे युद्धकाल या राजनयिक विवादों के समय। -
अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाना
अत्यधिक विदेशी ऋण, भुगतान संकट या मुद्रा अवमूल्यन की स्थिति में विनिमय नियंत्रण एक कारगर उपाय होता है जिससे मुद्रा की स्थिरता बनी रहती है। -
विकासशील क्षेत्रों में विदेशी मुद्रा का उपयोग
सरकार विनिमय नियंत्रण के माध्यम से सुनिश्चित कर सकती है कि विदेशी मुद्रा का उपयोग आवश्यक वस्तुओं के आयात, तकनीकी विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि प्राथमिक क्षेत्रों में हो। -
विदेशी मुद्रा के दुरुपयोग की रोकथाम
ब्लैक मार्केट या हावाला जैसे अवैध माध्यमों से विदेशी मुद्रा के दुरुपयोग को रोकने के लिए भी यह प्रणाली आवश्यक होती है। -
आयात पर नियंत्रण और निर्यात को बढ़ावा देना
विदेशी मुद्रा की कमी होने पर आयात पर अंकुश लगाने और निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार विनिमय नियंत्रण का प्रयोग करती है।
🔷 भारत में विनिमय नियंत्रण की स्थिति
भारत में विनिमय नियंत्रण का कार्यभार भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा निभाया जाता है। 1999 में लागू विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (FEMA) के तहत विदेशी मुद्रा के आदान-प्रदान को सरल बनाया गया, लेकिन यह अभी भी कुछ सीमाओं के अंतर्गत है। सरकार चालू खाता को मुक्त रखने के साथ पूंजी खाते पर कुछ नियंत्रण रखती है।
🔷 निष्कर्ष
विनिमय नियंत्रण आधुनिक राष्ट्रों के लिए एक अनिवार्य नीति उपकरण है, जो विदेशी मुद्रा संकट को टालने, देश की आर्थिक स्थिरता बनाए रखने और राष्ट्रीय हितों की रक्षा में सहायक सिद्ध होता है। इसके माध्यम से सरकार विदेशी मुद्रा के सीमित संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग सुनिश्चित करती है। वैश्विक आर्थिक परिवेश में, जब पूंजी और व्यापार का प्रवाह अत्यंत तीव्र हो गया है, विनिमय नियंत्रण के द्वारा विदेशी मुद्रा का विवेकपूर्ण नियमन न केवल देश की आर्थिक मजबूती में सहायक है बल्कि वैश्विक आर्थिक संकटों से निपटने में भी कारगर है।
प्रश्न 24. विनिमय नियंत्रण के गुण और दोष बताइए।
प्रस्तावना
विनिमय नियंत्रण (Exchange Control) एक आर्थिक नीति है, जिसके अंतर्गत सरकार देश में विदेशी मुद्रा की आमद और खर्च को नियंत्रित करती है। इसका मुख्य उद्देश्य देश की मुद्रा की स्थिरता बनाए रखना, भुगतान संतुलन को संतुलित करना, और विदेशी पूंजी प्रवाह को नियंत्रित करना होता है। यह नियंत्रण मुख्य रूप से केंद्रीय बैंक या सरकार के संबंधित विभाग द्वारा किया जाता है।
विनिमय नियंत्रण के प्रमुख गुण (Advantages)
1. भुगतान संतुलन बनाए रखना
विनिमय नियंत्रण के माध्यम से सरकार आयात-निर्यात पर नियंत्रण कर सकती है, जिससे देश का भुगतान संतुलन संतुलित रखने में मदद मिलती है।
2. विदेशी मुद्रा का संरक्षण
यह प्रणाली विदेशी मुद्रा के अनावश्यक उपयोग को रोकती है और आवश्यक वस्तुओं जैसे दवाइयाँ, तकनीक आदि के आयात हेतु मुद्रा आरक्षित रखती है।
3. रुपए की स्थिरता बनाए रखना
विनिमय दर पर नियंत्रण के माध्यम से राष्ट्रीय मुद्रा की कीमत स्थिर रखी जा सकती है, जिससे आर्थिक अस्थिरता नहीं आती।
4. विकास योजनाओं को सहयोग
विदेशी मुद्रा को योजनाबद्ध ढंग से उपयोग करके सरकार विकासशील क्षेत्रों में निवेश को प्रोत्साहित कर सकती है।
5. काले धन और अवैध व्यापार पर रोक
यह नीति काले धन की समस्या को सीमित करती है क्योंकि सभी विदेशी मुद्रा लेन-देन नियामक संस्थाओं की निगरानी में होते हैं।
6. रक्षा और सुरक्षा हेतु उपयोगी
आपातकालीन या युद्ध की स्थिति में विदेशी मुद्रा का नियंत्रित उपयोग राष्ट्रहित में किया जा सकता है।
7. आयात प्रतिस्थापन को प्रोत्साहन
इससे देश में ही वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ावा मिलता है क्योंकि अनावश्यक आयात पर रोक लगती है।
विनिमय नियंत्रण के प्रमुख दोष (Disadvantages)
1. कुशल कार्यप्रणाली में बाधा
यह प्रणाली नौकरशाही को बढ़ावा देती है, जिससे व्यापारिक गतिविधियों में जटिलता और देरी आती है।
2. काले बाजार को बढ़ावा
कई बार विदेशी मुद्रा की कमी के कारण अनौपचारिक बाजार (ब्लैक मार्केट) फलते-फूलते हैं, जिससे भ्रष्टाचार को बल मिलता है।
3. निर्यातकों के लिए हानिकारक
निर्यातकों को सीमित विदेशी मुद्रा मिलती है, जिससे उनका उत्साह कम होता है और देश की निर्यात क्षमता प्रभावित होती है।
4. नवाचार एवं प्रौद्योगिकी में रुकावट
यदि विदेशी तकनीक या मशीनें आयात करने में अड़चन आती है तो इससे औद्योगिक विकास धीमा हो सकता है।
5. वैश्विक प्रतिस्पर्धा में कमी
कृत्रिम विनिमय दर बनाए रखने से घरेलू उद्योगों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ता, जिससे उनमें सुधार की प्रवृत्ति घटती है।
6. शासकीय नियंत्रण का दुरुपयोग
विनिमय नियंत्रण का अधिकार सरकारी कर्मचारियों के पास होने से पक्षपात और भ्रष्टाचार की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।
7. निवेश में गिरावट
विदेशी निवेशक ऐसी अर्थव्यवस्था में निवेश करने से हिचकते हैं जहाँ विनिमय पर कड़ा नियंत्रण होता है, जिससे देश में पूंजी की कमी हो सकती है।
निष्कर्ष
विनिमय नियंत्रण एक ऐसा यंत्र है जो आर्थिक स्थिरता, मुद्रा की रक्षा और राष्ट्रीय हितों की पूर्ति हेतु उपयोगी है। परंतु इसका अत्यधिक या गलत प्रयोग अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार, काले बाजार और विकास में अवरोध उत्पन्न कर सकता है। इसलिए इसकी नीति को समय, स्थिति और जरूरत के अनुसार लचीलापन देते हुए लागू करना चाहिए, ताकि इसके लाभ अधिकतम और दोष न्यूनतम हों।
प्रश्न 25. मुक्त व्यापार और संरक्षणवाद की अवधारणाओं की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
🔹 प्रस्तावना
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं – मुक्त व्यापार (Free Trade) और संरक्षणवाद (Protectionism)। ये दोनों सिद्धांत देशों की व्यापार नीतियों और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालते हैं। मुक्त व्यापार प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है जबकि संरक्षणवाद घरेलू उद्योगों को सुरक्षा प्रदान करने पर जोर देता है।
🔹 मुक्त व्यापार की अवधारणा (Concept of Free Trade)
मुक्त व्यापार वह व्यापार नीति है जिसमें देश आयात-निर्यात पर कोई प्रतिबंध, सीमा शुल्क, कोटा या अन्य रुकावट नहीं लगाता है। इसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को सरल, पारदर्शी और प्रतिस्पर्धात्मक बनाना होता है।
✅ मुक्त व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ:
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कोई टैरिफ या शुल्क नहीं – माल और सेवाओं पर आयात शुल्क न्यूनतम या शून्य होता है।
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सरकारी हस्तक्षेप की कमी – सरकार बाजार में हस्तक्षेप नहीं करती।
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अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा – सभी देश अपनी विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में व्यापार करते हैं।
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उपभोक्ता को लाभ – उपभोक्ताओं को सस्ती और गुणवत्ता युक्त वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं।
✅ मुक्त व्यापार के लाभ:
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विशेषीकरण को बढ़ावा – देश उन वस्तुओं का उत्पादन करते हैं जिसमें उनकी दक्षता अधिक होती है।
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कीमतों में गिरावट – प्रतिस्पर्धा के कारण वस्तुओं की कीमतें कम होती हैं।
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विकासशील देशों को अवसर – ये देश वैश्विक बाजार तक पहुँच बना सकते हैं।
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वैश्विक सहयोग – देशों के बीच आर्थिक सहयोग और समृद्धि को बढ़ावा मिलता है।
❌ मुक्त व्यापार की सीमाएँ:
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स्थानीय उद्योगों को खतरा – विदेशी प्रतिस्पर्धा के कारण घरेलू उद्योग बंद हो सकते हैं।
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आय असमानता – बड़े देशों को ज्यादा फायदा मिल सकता है जबकि छोटे देश पिछड़ सकते हैं।
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संस्कृति पर प्रभाव – बाहरी प्रभाव से स्थानीय संस्कृति पर असर पड़ सकता है।
🔹 संरक्षणवाद की अवधारणा (Concept of Protectionism)
संरक्षणवाद वह नीति है जिसमें सरकार घरेलू उद्योगों को अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए आयात शुल्क, कोटा, सब्सिडी, प्रतिबंध आदि उपायों का उपयोग करती है।
✅ संरक्षणवाद के प्रमुख साधन:
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आयात शुल्क (Tariffs) – आयात की वस्तुओं पर कर लगाकर उनकी कीमतें बढ़ाना।
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कोटा प्रणाली – सीमित मात्रा में ही आयात की अनुमति देना।
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सब्सिडी – घरेलू उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान करना।
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प्रतिबंध – कुछ वस्तुओं के आयात पर पूरी तरह रोक लगाना।
✅ संरक्षणवाद के लाभ:
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स्थानीय उद्योगों की सुरक्षा – नवोदित और कमजोर उद्योगों को प्रतिस्पर्धा से बचाया जा सकता है।
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रोज़गार की सुरक्षा – घरेलू उद्योगों के संरक्षण से रोजगार के अवसर बनते हैं।
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राष्ट्रीय सुरक्षा – कुछ क्षेत्रों को आत्मनिर्भर बनाकर सामरिक सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।
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राजस्व अर्जन – आयात शुल्क से सरकार को आय प्राप्त होती है।
❌ संरक्षणवाद की सीमाएँ:
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उच्च कीमतें – उपभोक्ताओं को महंगी वस्तुएँ खरीदनी पड़ती हैं।
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गुणवत्ता में गिरावट – प्रतिस्पर्धा की कमी से उत्पादों की गुणवत्ता कम हो सकती है।
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अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर असर – अन्य देशों से व्यापार युद्ध हो सकते हैं।
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अनुचित लाभ – कुछ खास उद्योगों को बार-बार संरक्षण देकर भ्रष्टाचार बढ़ सकता है।
🔹 मुक्त व्यापार बनाम संरक्षणवाद – संतुलन की आवश्यकता
वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था में पूर्ण मुक्त व्यापार या पूर्ण संरक्षणवाद संभव नहीं है। देशों को अपनी अर्थव्यवस्था की स्थिति के अनुसार संतुलित नीति अपनानी चाहिए जिसमें:
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आवश्यक क्षेत्रों में संरक्षणवाद
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वैश्विक प्रतिस्पर्धा वाले क्षेत्रों में मुक्त व्यापार
का समावेश हो।
🔹 निष्कर्ष
मुक्त व्यापार और संरक्षणवाद दोनों की अपनी-अपनी भूमिका और महत्त्व है। एक ओर मुक्त व्यापार वैश्विक आर्थिक सहयोग और विकास को बढ़ाता है, वहीं संरक्षणवाद देश की आंतरिक मजबूती को सुनिश्चित करता है। अतः किसी भी देश को संतुलित व्यापार नीति अपनाते हुए इन दोनों अवधारणाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करना चाहिए ताकि विकास के साथ-साथ आत्मनिर्भरता भी सुनिश्चित की जा सके।
हमें उम्मीद है कि BAEC(N)202 – मुद्रा, बैंकिंग एवं अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र विषय से जुड़े ये 11 हल किए गए महत्वपूर्ण प्रश्न आपके आगामी सेमेस्टर परीक्षा की तैयारी में बेहद सहायक सिद्ध होंगे।
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