प्रश्न 01. 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के मुख्य बिन्दु स्पष्ट करें।
✨ भूमिका (Introduction)
भारत में लोकतंत्र केवल संसद और राज्य विधानसभाओं तक सीमित नहीं है। स्थानीय स्वशासन लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने का माध्यम है। यही कारण था कि 1992 में भारतीय संविधान में दो ऐतिहासिक संशोधन किए गए – 73वां और 74वां संशोधन अधिनियम। ये संशोधन ग्राम पंचायतों और नगर निकायों को संवैधानिक दर्जा देते हैं और देश में त्रिस्तरीय शासन प्रणाली को मजबूत करते हैं। ये दोनों संशोधन न केवल लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर स्थापित करते हैं, बल्कि जन भागीदारी, स्थानीय विकास और उत्तरदायित्व की संस्कृति को भी बढ़ावा देते हैं।
🏛️ 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 (Panchayati Raj व्यवस्था)
🔹 प्रमुख उद्देश्य
-
ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक मान्यता देना।
-
त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली को सुनिश्चित करना।
-
ग्रामीण विकास में जनता की भागीदारी को बढ़ाना।
🔹 मुख्य प्रावधान (ह3)
📌 1. त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था (Three-tier Structure)
-
ग्राम पंचायत (Village Level)
-
जनपद पंचायत/पंचायत समिति (Block Level)
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जिला पंचायत (District Level)
👉 राज्यों को यह ढांचा अपनाना अनिवार्य कर दिया गया।
📌 2. ग्राम सभा (Gram Sabha)
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ग्रामसभा को पंचायती राज की मूल इकाई माना गया।
-
इसमें क्षेत्र के सभी पंजीकृत मतदाता शामिल होते हैं।
-
यह पंचायतों के कार्यों की समीक्षा और पारदर्शिता सुनिश्चित करती है।
📌 3. आरक्षण की व्यवस्था (Reservation)
-
अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं (33%) के लिए आरक्षण सुनिश्चित किया गया।
-
अब यह कई राज्यों में बढ़ाकर 50% कर दिया गया है।
📌 4. कार्यकाल (Tenure)
-
पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित किया गया।
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समय से चुनाव करवाना राज्य चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है।
📌 5. वित्तीय प्रावधान (Financial Powers)
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पंचायती संस्थाओं को वित्तीय अधिकार देने की व्यवस्था।
-
राज्य सरकारें पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करेंगी।
📌 6. राज्य वित्त आयोग (State Finance Commission)
-
प्रत्येक राज्य में एक आयोग का गठन किया जाएगा जो पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय सहायता देने की सिफारिश करेगा।
📌 7. राज्य चुनाव आयोग (State Election Commission)
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स्वतंत्र निकाय जो पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव करवाएगा।
🏙️ 74वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 (नगर निकाय व्यवस्था)
🔹 प्रमुख उद्देश्य
-
शहरी क्षेत्रों में लोकतांत्रिक और उत्तरदायी शासन स्थापित करना।
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नगर निकायों को भी संवैधानिक दर्जा प्रदान करना।
-
शहरी योजनाओं और प्रबंधन में स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना।
🔹 मुख्य प्रावधान (h3)
🏢 1. नगर निकायों के प्रकार (Types of Urban Local Bodies)
-
नगर पालिका (Municipality): छोटे और मध्यम आकार के शहरों के लिए।
-
नगर परिषद (Municipal Council): नगर पालिका से बड़ा लेकिन नगर निगम से छोटा।
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नगर निगम (Municipal Corporation): बड़े शहरों के लिए।
-
नगर पंचायत (Nagar Panchayat): ग्रामीण से शहरी होते क्षेत्रों के लिए।
🗳️ 2. चुनाव और कार्यकाल
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चुनाव हर 5 वर्ष में एक बार कराना अनिवार्य है।
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सीटों का आरक्षण SC, ST और महिलाओं (33%) के लिए।
🧾 3. कार्य और जिम्मेदारियाँ
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शहरी नियोजन, भवन निर्माण, जल आपूर्ति, सड़कें, सफाई, सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा आदि।
-
अधिनियम की 12वीं अनुसूची में 18 विषय सूचीबद्ध हैं जिनका प्रशासन नगर निकायों को सौंपा जा सकता है।
💰 4. वित्तीय अधिकार
-
नगर निकायों को अपने कर लगाने के अधिकार दिए गए जैसे – संपत्ति कर, जल कर आदि।
-
राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर राज्य सरकारें भी धनराशि प्रदान करती हैं।
🏛️ 5. राज्य चुनाव आयोग की भूमिका
-
नगर निकायों के स्वतंत्र, निष्पक्ष और नियमित चुनाव सुनिश्चित करना।
👥 6. वार्ड समितियाँ (Ward Committees)
-
नगर निगमों में वार्ड स्तर पर समितियों का गठन करना आवश्यक किया गया है, जिससे स्थानीय समस्याओं का समाधान प्रभावी रूप से हो सके।
📚 73वें और 74वें संशोधन में समानताएँ (Similarities)
बिंदु | विवरण |
---|---|
संवैधानिक दर्जा | दोनों संशोधनों ने स्थानीय संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया। |
आरक्षण | SC, ST और महिलाओं के लिए 33% आरक्षण। |
चुनाव | नियमित चुनाव कराना अनिवार्य। |
वित्त आयोग | राज्य वित्त आयोग की स्थापना दोनों में अनिवार्य। |
चुनाव आयोग | राज्य चुनाव आयोग का गठन। |
🚩 73वें और 74वें संशोधन के प्रभाव (Impact)
📈 1. लोकतंत्र का विकेंद्रीकरण
-
सत्ता को नीचे तक पहुँचाने में सहायक।
🤝 2. जन भागीदारी में वृद्धि
-
आम जनता स्थानीय विकास में सीधे भाग लेने लगी।
👩💼 3. महिला सशक्तिकरण
-
महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बढ़ी।
🏗️ 4. स्थानीय विकास को बल
-
ग्राम और नगर स्तर पर योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन बेहतर हुआ।
⚠️ चुनौतियाँ और आलोचना (Challenges and Criticism)
🛑 1. वित्तीय निर्भरता
-
पंचायती और नगर निकायों को पर्याप्त वित्तीय स्वायत्तता नहीं मिली।
🛠️ 2. प्रशासनिक हस्तक्षेप
-
राज्य सरकारों का अत्यधिक हस्तक्षेप संस्थाओं की स्वतंत्रता को प्रभावित करता है।
🧾 3. क्षमता निर्माण की कमी
-
चुने गए प्रतिनिधियों के पास प्रशासनिक एवं तकनीकी ज्ञान की कमी।
📉 4. केवल औपचारिकता
-
कई जगह स्थानीय संस्थाएं सिर्फ कागजों तक सीमित हैं, वास्तविक अधिकार नहीं दिए गए।
📌 निष्कर्ष (Conclusion)
✨ 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम भारत के लोकतंत्र के लिए मील का पत्थर हैं। इन्होंने जन भागीदारी, जवाबदेही और स्थानीय विकास की नई राह खोली है।
हालाँकि, इनकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि राज्य सरकारें और केंद्र सरकार इन्हें वास्तविक अधिकार, वित्तीय स्वायत्तता, और प्रशासनिक स्वतंत्रता देती हैं या नहीं।
जब तक इन संस्थाओं को सिर्फ नाम मात्र का अधिकार मिलता रहेगा, तब तक स्थानीय स्वशासन एक सपना बना रहेगा। अतः इन संशोधनों को सही मायनों में व्यवहारिक रूप से लागू करना, समय की माँग है।
प्रश्न 02. पंचायतों के विकास के लिए गठित समितियाँ एवं उनकी सिफारिशों का विश्लेषण कीजिए।
🌱 भूमिका: भारत में पंचायती राज की आवश्यकता
भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में शासन की जड़ों को मजबूत करने के लिए स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता को लंबे समय से महसूस किया जाता रहा है। गांधीजी ने भी "ग्राम स्वराज" की कल्पना की थी जहाँ प्रत्येक गांव आत्मनिर्भर हो। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए समय-समय पर सरकारों ने विभिन्न समितियों का गठन किया, जिन्होंने पंचायतों को प्रभावी बनाने के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं।
🧾 पंचायती राज के विकास हेतु गठित प्रमुख समितियाँ
भारत में पंचायती राज प्रणाली को सशक्त करने के लिए कई समितियाँ बनीं। नीचे प्रमुख समितियों और उनकी सिफारिशों का क्रमवार विवरण दिया गया है।
👨⚖️ बलवंत राय मेहता समिति (1957)
🔹 समिति गठन का उद्देश्य
राष्ट्रीय विकास कार्यक्रमों को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए एक उपयुक्त प्रशासनिक संरचना की तलाश करना।
🔍 प्रमुख सिफारिशें:
-
त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना – ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद।
-
पंचायतों को विकास कार्यों के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी दी जाए।
-
प्रत्यक्ष चुनाव ग्राम पंचायतों के लिए, और पंचायत समिति व जिला परिषद के लिए अप्रत्यक्ष।
-
पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय अधिकार दिए जाएं।
📝 प्रभाव: बलवंत राय समिति की सिफारिशों के आधार पर 1959 में राजस्थान ने सबसे पहले पंचायती राज व्यवस्था लागू की।
🧑🏫 अशोक मेहता समिति (1977)
🔹 गठन की पृष्ठभूमि
पंचायती राज संस्थाओं की गिरती स्थिति की समीक्षा के लिए जनता पार्टी सरकार द्वारा गठित।
🔍 प्रमुख सिफारिशें:
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त्रिस्तरीय की बजाय द्विस्तरीय व्यवस्था – जिला परिषद और मंडल पंचायत।
-
पंचायतों को राजनीतिक दलों के आधार पर चुनाव की अनुमति दी जाए।
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जिला परिषद को योजना निर्माण और क्रियान्वयन का प्रमुख निकाय बनाया जाए।
-
पंचायतों को कर लगाने और राजस्व एकत्र करने का अधिकार दिया जाए।
-
स्थायी वित्त आयोग की स्थापना की जाए।
📝 प्रभाव: इस समिति की सिफारिशें विस्तृत थीं, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता के कारण ये पूर्ण रूप से लागू नहीं हो सकीं।
🧑⚖️ जी.वी.के. राव समिति (1985)
🔹 गठन का उद्देश्य
शासन और प्रशासन में विकास कार्यों को अधिक प्रभावी बनाना।
🔍 प्रमुख सिफारिशें:
-
जिला स्तर को प्रशासन का मुख्य केंद्र बनाया जाए।
-
पंचायती राज संस्थाओं को विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में मुख्य भूमिका दी जाए।
-
राज्य योजना आयोग में पंचायतों की भागीदारी सुनिश्चित हो।
📝 प्रभाव: इस समिति की सिफारिशों ने पंचायतों को विकास प्रक्रिया में केंद्रबिंदु बनाने की दिशा में सरकार का ध्यान खींचा।
🧑⚖️ एल.एम. सिंघवी समिति (1986)
🔹 उद्देश्य
लोकतंत्र को स्थानीय स्तर पर मजबूत करने की प्रक्रिया पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना।
🔍 प्रमुख सिफारिशें:
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पंचायतों को संविधानिक मान्यता दी जाए।
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ग्राम सभा को पंचायती राज की मूल इकाई माना जाए।
-
पंचायती राज संस्थाओं की नियंत्रण प्रक्रिया पारदर्शी हो।
-
पंचायती प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण और सशक्तिकरण दिया जाए।
📝 प्रभाव: इस समिति की सिफारिशों ने 73वें संविधान संशोधन की नींव रखी, जो 1992 में पारित हुआ।
📊 73वें संविधान संशोधन अधिनियम (1992): समिति सिफारिशों का व्यावहारिक परिणाम
-
उपर्युक्त सभी समितियों की सिफारिशों के निष्कर्ष के रूप में 73वां संशोधन अधिनियम अस्तित्व में आया।
-
इस संशोधन ने पंचायती राज संस्थाओं को संविधानिक दर्जा, वित्तीय अधिकार, और नियमित चुनाव जैसे अधिकार प्रदान किए।
📉 समितियों की सिफारिशें – सफलता और सीमाएं
✅ सफलताएँ:
-
ग्राम स्तर पर लोकतंत्र की स्थापना।
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महिलाओं और वंचित वर्गों को राजनीतिक भागीदारी।
-
ग्रामीण विकास की योजनाओं को स्थानीय प्राथमिकताओं के अनुसार लागू करने में सहायता।
❌ सीमाएँ:
-
राज्य सरकारों की उपेक्षा के कारण कई सिफारिशें लागू नहीं हो सकीं।
-
पंचायतों को वास्तविक वित्तीय स्वायत्तता नहीं मिल सकी।
-
प्रशासनिक हस्तक्षेप के कारण पंचायतें स्वतंत्र निर्णय नहीं ले पा रही हैं।
🌟 निष्कर्ष: सशक्त पंचायतों की ओर बढ़ता भारत
पंचायतों के विकास हेतु गठित समितियों ने भारतीय लोकतंत्र की नींव को सशक्त करने में अद्भुत भूमिका निभाई है। इनकी सिफारिशों ने भारत में जन भागीदारी, स्थानीय विकास और उत्तरदायी प्रशासन की दिशा को निर्देशित किया है।
अब आवश्यकता है कि:
-
इन सिफारिशों को केवल कागजों तक सीमित न रखा जाए।
-
पंचायतों को वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार वास्तविक रूप से सौंपे जाएं।
-
पंचायत प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता दी जाए।
तभी गांधीजी के ग्राम स्वराज का सपना सच हो सकेगा और भारत का लोकतंत्र केवल नाम में ही नहीं, व्यवहार में भी जन-जन का लोकतंत्र बन सकेगा।
प्रश्न 03. ग्रामीण स्थानीय प्रशासन की चुनौतियों की व्याख्या करें और इसे हल करने के उपाय सुझाइए।
🏡 भूमिका: ग्रामीण शासन का महत्व
भारत की लगभग 65% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, और उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए स्थानीय प्रशासन की सशक्त भूमिका होती है। ग्राम पंचायतें इस व्यवस्था की मूल इकाई हैं जो ग्रामीण विकास की योजनाओं को क्रियान्वित करती हैं।
लेकिन, ग्रामीण प्रशासन अनेक चुनौतियों से जूझ रहा है, जिससे विकास का उद्देश्य अधूरा रह जाता है। इन समस्याओं को समझना और व्यावहारिक समाधान सुझाना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत बन गया है।
⚠️ ग्रामीण स्थानीय प्रशासन की प्रमुख चुनौतियाँ
भारत के अधिकांश गांवों में प्रशासनिक प्रणाली अभी भी कमजोर और अव्यवस्थित है। नीचे कुछ प्रमुख चुनौतियों की व्याख्या की गई है:
📉 वित्तीय संसाधनों की कमी
-
ग्राम पंचायतों के पास आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं।
-
स्थानीय कर प्रणाली प्रभावी नहीं है और राज्य सरकार पर अत्यधिक निर्भरता बनी रहती है।
-
योजनाओं के लिए मिलने वाली निधि समय पर नहीं मिलती या फिर बहुत कम मिलती है।
👨🏫 शिक्षा और जागरूकता का अभाव
-
कई बार पंचायत सदस्य शिक्षा से वंचित होते हैं और उन्हें योजनाओं या नियमों की पूरी जानकारी नहीं होती।
-
ग्रामवासियों को अपने अधिकार और योजनाओं की जानकारी नहीं होती, जिससे पारदर्शिता में बाधा आती है।
🧑💼 प्रशासनिक दक्षता की कमी
-
पंचायतों में तकनीकी और प्रशासनिक स्टाफ की भारी कमी होती है।
-
योजनाओं का क्रियान्वयन बिना किसी प्रशिक्षण और मार्गदर्शन के होता है।
🏢 राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार
-
पंचायतों पर राज्य सरकारों और स्थानीय नेताओं का प्रभाव बहुत अधिक होता है।
-
कई जगहों पर भ्रष्टाचार और व्यक्तिगत हित योजनाओं को प्रभावित करते हैं।
-
निधियों का गैर-पारदर्शी उपयोग ग्रामीण विकास में रुकावट पैदा करता है।
👩🌾 महिला और दलित प्रतिनिधियों की भूमिका सीमित
-
भले ही महिलाओं और अनुसूचित जाति/जनजातियों को आरक्षण मिला है, पर कई बार वे केवल नाममात्र की प्रधान होती हैं और निर्णय उनके परिवार या अन्य प्रभावशाली लोग लेते हैं।
📱 डिजिटल तकनीक और सूचना की कमी
-
डिजिटल युग में भी कई पंचायतें अभी तक ऑनलाइन प्रक्रियाओं से वंचित हैं।
-
योजनाओं की निगरानी और शिकायत निवारण तंत्र अनुत्तरदायी होता है।
🧾 योजनाओं का खराब क्रियान्वयन
-
कई बार योजनाएँ केवल कागजों पर बनती हैं लेकिन ज़मीनी स्तर पर उनका असर नगण्य होता है।
-
निगरानी की व्यवस्था कमजोर होने से भ्रष्टाचार और शिथिलता बढ़ती है।
🛣️ भौगोलिक और बुनियादी संरचना की बाधाएँ
-
दुर्गम गांवों तक विकास योजनाओं को पहुंचाना कठिन होता है।
-
सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों आदि की कमी प्रशासनिक काम को प्रभावित करती है।
💡 चुनौतियों के समाधान हेतु प्रभावी उपाय
अब इन समस्याओं के समाधान पर ध्यान देना अत्यावश्यक है ताकि ग्रामीण प्रशासन मजबूत और परिणामदायी बन सके।
💰 वित्तीय सशक्तिकरण
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पंचायतों को स्थानीय करों के संग्रहण का अधिकार दिया जाए।
-
राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों को समय पर लागू किया जाए।
-
धन का सीधा ट्रांसफर पंचायतों के खातों में हो ताकि भ्रष्टाचार कम हो।
📚 शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रम
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पंचायती प्रतिनिधियों और कर्मचारियों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं।
-
योजनाओं की जानकारी स्थानीय भाषाओं में प्रचारित की जाए।
-
ई-गवर्नेंस को बढ़ावा देकर पारदर्शिता लाई जाए।
👨💼 प्रशासनिक ढाँचे को मजबूत बनाना
-
पंचायतों में स्थायी सचिव, लेखाकार और तकनीकी कर्मचारी की नियुक्ति की जाए।
-
प्रत्येक पंचायत को तकनीकी सहायता इकाई प्रदान की जाए।
🧑⚖️ पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना
-
पंचायतों के कार्यों की सोशल ऑडिट कराना अनिवार्य किया जाए।
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योजनाओं के विवरण को ऑनलाइन पोर्टल्स और नोटिस बोर्ड पर नियमित रूप से प्रकाशित किया जाए।
-
ग्राम सभा की बैठकें नियमित रूप से कराई जाएं और निर्णयों का रिकॉर्ड रखा जाए।
👩🦱 महिलाओं और वंचित वर्गों को सशक्त बनाना
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महिलाओं को प्रशासनिक निर्णयों में सक्रिय भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
-
स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से महिलाओं को नेतृत्व और वित्तीय निर्णयों में भूमिका दी जाए।
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दलित और आदिवासी वर्ग के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम बनाए जाएं।
🌐 डिजिटल सशक्तिकरण
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हर पंचायत में इंटरनेट कनेक्टिविटी और डिजिटल रिकॉर्डिंग सिस्टम होना चाहिए।
-
पंचायत कार्यों का लेखा-जोखा ई-पंचायत पोर्टल पर उपलब्ध कराया जाए।
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डिजिटल भुगतान प्रणाली को अपनाकर धन के दुरुपयोग को रोका जाए।
👥 जनभागीदारी को बढ़ावा देना
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लोगों को पंचायत के कामों में सक्रिय भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
-
ग्राम सभाओं में अधिकतम सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाएं।
🧠 स्थायी और दीर्घकालिक योजनाएँ बनाना
-
पंचायतों को केवल वार्षिक योजनाओं के बजाय दीर्घकालिक विकास योजनाओं को तैयार करने का अधिकार दिया जाए।
-
स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर योजनाएँ बनाई जाएं और उन्हें समयबद्ध रूप से लागू किया जाए।
✅ निष्कर्ष: एक सक्षम और प्रभावी ग्रामीण प्रशासन की ओर
ग्रामीण प्रशासन भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ है। जब तक पंचायतों को वास्तविक अधिकार, संरचना, और जनसमर्थन नहीं मिलेगा, तब तक विकास केवल सरकारी फाइलों तक सीमित रहेगा।
समस्याएँ गंभीर हैं, लेकिन समाधान भी संभव हैं – राजनीतिक इच्छाशक्ति, जन भागीदारी, और प्रशासनिक सुधारों से एक सशक्त और पारदर्शी ग्रामीण प्रशासन की स्थापना की जा सकती है।
इससे न केवल गांवों का विकास होगा, बल्कि भारत का संपूर्ण लोकतंत्र भी मजबूती से आगे बढ़ेगा।
प्रश्न 04. सूचना के अधिकार से सम्बन्धित चुनौतियों का वर्णन करें।
📜 भूमिका: सूचना का अधिकार - लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 भारत के नागरिकों को शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने का एक सशक्त औजार प्रदान करता है। यह अधिनियम प्रत्येक नागरिक को सरकार से सूचना मांगने का वैधानिक अधिकार देता है। इससे प्रशासन में पारदर्शिता बढ़ी है, भ्रष्टाचार कम हुआ है और जनसाधारण की सरकार में भागीदारी बढ़ी है।
हालांकि, इस अधिनियम को लागू हुए लगभग दो दशक हो चुके हैं, फिर भी इसके प्रभावी क्रियान्वयन में कई व्यवहारिक चुनौतियाँ सामने आई हैं जो इसके उद्देश्य को बाधित करती हैं।
⚠️ सूचना के अधिकार अधिनियम से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ
RTI अधिनियम के तहत नागरिकों को मजबूत अधिकार दिए गए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इन अधिकारों के प्रयोग में कई अड़चनें हैं। नीचे उन प्रमुख चुनौतियों की विस्तार से व्याख्या की गई है:
🕰️ सूचना प्राप्त करने में देरी
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अधिनियम के अनुसार, सूचना 30 दिनों के भीतर दी जानी चाहिए और यदि मामला जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित हो तो 48 घंटे के भीतर।
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व्यवहार में, कई बार सूचना समय पर नहीं दी जाती, जिससे इसका महत्व समाप्त हो जाता है।
-
कई विभाग जानबूझकर प्रक्रिया को टालते हैं और सूचना को अनावश्यक रूप से लंबित रखते हैं।
❌ जानबूझकर सूचना का इनकार
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कुछ विभाग गोपनीयता (secrecy) का बहाना बनाकर सूचना देने से बचते हैं।
-
अधिनियम में कुछ धाराएँ (जैसे धारा 8) हैं जिनका दुरुपयोग करके अधिकारियों द्वारा सूचना देने से इनकार किया जाता है।
-
अधिकारियों की यह मानसिकता बनी हुई है कि नागरिकों को अधिक जानकारी नहीं मिलनी चाहिए।
🧾 सूचना का अधूरा या भ्रमित करने वाला उत्तर
-
कई बार आवेदक को जो सूचना मिलती है वह या तो अधूरी, गलत, या अस्पष्ट होती है।
-
इससे न्याय प्रक्रिया या जन निगरानी का उद्देश्य विफल हो जाता है।
👨💼 पीआईओ (Public Information Officer) की लापरवाही
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अनेक विभागों में पीआईओ की नियुक्ति नहीं की गई या उन्हें RTI की प्रक्रिया की जानकारी नहीं होती।
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कई बार अधिकारी RTI आवेदन को गंभीरता से नहीं लेते और इसे ब्यूरोक्रेटिक बोझ मानते हैं।
🧑⚖️ अपील और शिकायत प्रक्रिया में विलंब
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जब सूचना नहीं मिलती तो नागरिक पहली और दूसरी अपील कर सकते हैं, परन्तु यह प्रक्रिया लंबी और जटिल हो जाती है।
-
सूचना आयोगों में हजारों अपीलें लंबित रहती हैं, जिससे आवेदक को न्याय पाने में वर्षों लग जाते हैं।
🧍♂️ RTI उपयोग करने वालों पर दबाव और खतरा
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कई पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों को RTI का प्रयोग करने पर धमकियाँ, दबाव, और कभी-कभी हत्या तक का सामना करना पड़ा है।
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RTI कार्यकर्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु कोई ठोस तंत्र नहीं है।
💻 डिजिटल सूचना तक सीमित पहुँच
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ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट या डिजिटल जानकारी की सुलभता नहीं होने के कारण आम नागरिक RTI का प्रभावी उपयोग नहीं कर पाते।
-
कई विभागों की वेबसाइटें अपडेट नहीं होतीं, जिससे आवश्यक जानकारी ऑनलाइन नहीं मिलती।
🧠 जनसाधारण में जागरूकता की कमी
-
RTI अधिनियम के बारे में आम लोगों को पूरी जानकारी नहीं होती।
-
बहुत से लोग RTI आवेदन कैसे करें, इसका प्रारूप क्या हो, शुल्क कितना है, ये नहीं जानते।
🏢 सूचना आयोगों में संसाधनों की कमी
-
केंद्रीय एवं राज्य सूचना आयोगों में पर्याप्त स्टाफ, संसाधन और बुनियादी ढाँचे की कमी है।
-
अनेक राज्यों में मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्तियाँ वर्षों से लंबित हैं।
🧮 अधिनियम में संशोधन के बहाने अधिकारों की कटौती
-
वर्ष 2019 में हुए संशोधन से केंद्र सरकार को सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और वेतन में बदलाव का अधिकार मिला।
-
इससे आयोग की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं।
💡 इन चुनौतियों का समाधान: RTI को और प्रभावी बनाने के उपाय
समस्याओं को हल करने के लिए ठोस और व्यावहारिक उपाय अपनाना आवश्यक है:
📢 जन-जागरूकता अभियान चलाना
-
ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में RTI अधिनियम के प्रति साक्षरता और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं।
-
स्कूलों, कॉलेजों और सरकारी कार्यालयों में RTI जागरूकता सप्ताह मनाया जाए।
👨💼 प्रशासनिक प्रशिक्षण और जवाबदेही तय करना
-
सभी विभागों में पीआईओ और एपीआईओ (Assistant PIO) को RTI नियमों की व्यापक ट्रेनिंग दी जाए।
-
सूचना न देने पर संबंधित अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई हो।
🧾 ऑनलाइन RTI प्रणाली को बढ़ावा देना
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सभी राज्यों में ई-RTI पोर्टल शुरू किया जाए ताकि नागरिक घर बैठे आवेदन कर सकें।
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हर विभाग की वेबसाइट पर RTI से संबंधित प्रश्नोत्तर (FAQs), वार्षिक रिपोर्ट, और प्रोएक्टिव डिसक्लोजर प्रकाशित किए जाएं।
🧑⚖️ सूचना आयोगों की स्वायत्तता सुनिश्चित करना
-
सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में पारदर्शिता और आयोग की स्वतंत्रता को बनाए रखा जाए।
-
लंबित मामलों को तेजी से निपटाने के लिए अधिकारियों की संख्या बढ़ाई जाए।
🔒 RTI कार्यकर्ताओं की सुरक्षा
-
RTI उपयोगकर्ताओं के लिए सीटिज़न व्हिसलब्लोअर प्रोटेक्शन एक्ट को सख्ती से लागू किया जाए।
-
RTI फाइल करने वालों की गोपनीयता सुनिश्चित की जाए।
🧑🏫 शिक्षा प्रणाली में RTI को शामिल करना
-
RTI को नागरिक शास्त्र और प्रशासनिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए ताकि युवा पीढ़ी इससे परिचित हो।
✅ निष्कर्ष: जवाबदेही और पारदर्शिता की ओर एक जरूरी कदम
सूचना का अधिकार अधिनियम भारतीय लोकतंत्र की आँख और कान है। यह नागरिकों को सरकार से सवाल पूछने और जवाब मांगने का अधिकार देता है।
लेकिन जब इस अधिकार को प्रयोग करने में भय, देरी, प्रशासनिक जटिलताएँ और रुकावटें सामने आती हैं, तो इसका उद्देश्य कमजोर पड़ जाता है।
प्रश्न 05. पंचायती राज से आप क्या समझते हैं? इसके विकास पर विस्तार से चर्चा करें।
🌿 पंचायती राज की संकल्पना
पंचायती राज भारतीय लोकतंत्र की नींव है, जो स्थानीय स्तर पर जनता की भागीदारी और स्वशासन को सुनिश्चित करता है। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण को सशक्त बनाना है ताकि विकास योजनाओं में जनता की सहभागिता सुनिश्चित की जा सके।
🏛️ पंचायती राज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
🔹 प्राचीन भारत में पंचायती व्यवस्था
भारत में पंचायती परंपरा प्राचीन काल से विद्यमान रही है। "ग्राम्य सभाएं" या "ग्राम पंचायतें" स्थानीय विवादों का निपटारा करती थीं और गांव के प्रशासनिक कार्यों को देखती थीं।
🔹 ब्रिटिश काल में पंचायती व्यवस्था का ह्रास
औपनिवेशिक शासन के दौरान ग्राम पंचायतों का महत्व कम हो गया और अधिकांश प्रशासनिक अधिकार ब्रिटिश अधिकारियों के पास चले गए।
📜 स्वतंत्रता के बाद पंचायती राज की स्थापना
🔹 संविधान सभा की भूमिका
भारत की संविधान सभा ने पंचायती व्यवस्था की आवश्यकता महसूस की, लेकिन इसे एक दिशा देने के लिए स्पष्ट प्रावधान नहीं किया गया था।
🔹 बलवंत राय मेहता समिति (1957)
इस समिति ने तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली की सिफारिश की:
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ग्राम पंचायत
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पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर)
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जिला परिषद
🔹 पंचायती राज की शुरुआत (1959)
राजस्थान के नागौर जिले में 2 अक्टूबर 1959 को पहली बार पंचायती राज प्रणाली को लागू किया गया।
🧱 पंचायती राज का ढांचा
🔸 ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर)
ग्रामसभा का गठन सभी वयस्क मतदाताओं से होता है। ग्राम पंचायत प्रशासन का प्राथमिक स्तर है।
🔸 पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर)
ब्लॉक या तहसील स्तर पर पंचायत समिति कार्य करती है। यह ग्राम पंचायतों की योजनाओं और विकास कार्यों का समन्वय करती है।
🔸 जिला परिषद (जिला स्तर)
यह सर्वोच्च इकाई होती है, जो पूरे जिले की योजनाओं को समन्वित करती है और ब्लॉक स्तर पर निगरानी रखती है।
🧾 पंचायती राज का संवैधानिक दर्जा: 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992
1992 में संसद द्वारा पारित 73वें संविधान संशोधन ने पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया। इसके तहत भाग IX जोड़ा गया तथा 11वीं अनुसूची शामिल की गई।
🌟 मुख्य विशेषताएं:
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त्रिस्तरीय ढांचा
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नियमित चुनाव हर 5 वर्ष में
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महिलाओं, अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आरक्षण
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वित्त आयोग की स्थापना
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ग्राम सभा की भूमिका को मान्यता
📊 पंचायती राज का विकास
🔹 संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद सुधार
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सभी राज्यों ने पंचायती राज अधिनियम पारित किया।
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महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि हुई।
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ग्रामीण विकास योजनाओं का विकेन्द्रीकरण हुआ।
🔹 पंचायती राज संस्थाओं का डिजिटलीकरण
ई-गवर्नेंस, ऑनलाइन बजट और योजना प्रबंधन ने पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ाया है।
🔹 आर्थिक सशक्तिकरण
वित्तीय शक्तियों के हस्तांतरण से पंचायतें अपनी योजनाएं स्वयं बना और लागू कर सकती हैं।
🚧 पंचायती राज की प्रमुख चुनौतियाँ
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पर्याप्त वित्तीय संसाधनों की कमी
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राजनीतिक हस्तक्षेप
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प्रशासनिक कर्मचारियों की कमी
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ग्राम सभा की निष्क्रियता
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भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की कमी
🌱 पंचायती राज के विकास के लिए उपाय
🔸 वित्तीय स्वतंत्रता
राज्य सरकारों को पंचायतों को उचित वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए।
🔸 प्रशिक्षण और जागरूकता
पंचायत प्रतिनिधियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों की आवश्यकता है जिससे वे अपनी भूमिका को प्रभावी ढंग से निभा सकें।
🔸 तकनीकी सहायता
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और डेटा प्रबंधन प्रणाली पंचायतों की दक्षता को बढ़ा सकते हैं।
🔸 ग्रामसभा को सक्रिय बनाना
ग्रामसभा की बैठकों को अनिवार्य और प्रभावी बनाया जाना चाहिए जिससे स्थानीय निर्णयों में जनभागीदारी सुनिश्चित हो।
📌 निष्कर्ष
पंचायती राज भारत के लोकतंत्र की आत्मा है। यह केवल प्रशासनिक ढांचा नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण का माध्यम भी है। इसके माध्यम से ग्रामीण जनता की समस्याओं का समाधान स्थानीय स्तर पर किया जा सकता है। हालांकि इसे सफल बनाने के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति, पारदर्शिता, प्रशिक्षण और संसाधनों की पूर्ति आवश्यक है। जब पंचायतें सशक्त होंगी, तभी भारत का गांव सशक्त होगा, और जब गांव सशक्त होंगे, तब भारत सशक्त होगा।
प्रश्न 01. सामाजिक अंकेक्षण से पारदर्शिता कैसे बढ़ती है ?
📌 सामाजिक अंकेक्षण की अवधारणा
सामाजिक अंकेक्षण (Social Audit) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सरकारी योजनाओं, परियोजनाओं या कार्यक्रमों की निगरानी और मूल्यांकन जनता द्वारा किया जाता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि योजनाएं वास्तव में ज़मीनी स्तर पर लागू हो रही हैं या नहीं, और संसाधनों का सही उपयोग हो रहा है या नहीं।
🔍 सामाजिक अंकेक्षण और पारदर्शिता का संबंध
सामाजिक अंकेक्षण का मूल उद्देश्य प्रशासनिक कार्यप्रणाली में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना होता है। पारदर्शिता बढ़ाने के कई तरीके हैं, जो सामाजिक अंकेक्षण के माध्यम से संभव होते हैं:
🧩 जनता की भागीदारी बढ़ाना
जब ग्रामीण या शहरी नागरिक किसी योजना की निगरानी में भाग लेते हैं, तो प्रशासनिक गतिविधियाँ छुपाई नहीं जा सकतीं।
✅ उदाहरण:
मनरेगा (MGNREGA) योजना के तहत सामाजिक अंकेक्षण से यह सामने आया कि मजदूरी समय से नहीं दी जा रही थी। लोगों ने इसकी शिकायत की और फिर सुधार हुआ।
📂 सूचनाओं की खुली उपलब्धता
सामाजिक अंकेक्षण के दौरान सभी दस्तावेज़ जैसे – बजट, मजदूरी रजिस्टर, कार्य आदेश, बिल और वाउचर आदि सार्वजनिक किए जाते हैं। इससे आम जनता को योजनाओं की सही जानकारी मिलती है।
🧾 जवाबदेही तय करना
अंकेक्षण के दौरान यदि कोई भ्रष्टाचार या अनियमितता पाई जाती है, तो संबंधित अधिकारी, ठेकेदार या पंचायत प्रतिनिधि से जवाब माँगा जाता है।
🔍 इससे क्या होता है?
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अधिकारी अधिक सतर्क रहते हैं।
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भ्रष्टाचार की संभावनाएं कम हो जाती हैं।
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कार्यों की गुणवत्ता में सुधार होता है।
🏗️ संसाधनों के कुशल प्रबंधन में मदद
जब लोगों की निगरानी बनी रहती है, तो परियोजनाओं में संसाधनों की बर्बादी कम होती है।
🧰 उदाहरण:
कई जगहों पर सामाजिक अंकेक्षण से यह सामने आया कि स्कूलों में मिड-डे मील का सामान घटिया गुणवत्ता का है। इसके बाद गुणवत्ता में सुधार हुआ।
🗣️ भ्रष्टाचार का पर्दाफाश
सामाजिक अंकेक्षण के ज़रिए कई बार ऐसे घोटाले सामने आए हैं, जिन्हें अन्य माध्यमों से पकड़ पाना कठिन था।
🛡️ यह कैसे होता है?
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स्थानीय लोग भौतिक निरीक्षण करते हैं।
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दस्तावेज़ों की जाँच करते हैं।
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भ्रष्टाचार की सूचना सार्वजनिक रूप से साझा करते हैं।
🧭 लोकतंत्र को मजबूत बनाना
सामाजिक अंकेक्षण से नागरिकों को यह अहसास होता है कि वे केवल वोट देने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि योजनाओं की निगरानी और मूल्यांकन में भी भागीदार हैं।
🎯 परिणामस्वरूप:
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लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं सशक्त होती हैं।
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जनता की नीति निर्माण में सहभागिता बढ़ती है।
📊 सामाजिक अंकेक्षण के प्रमुख लाभ
लाभ | विवरण |
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पारदर्शिता | योजनाओं की वास्तविक स्थिति सामने आती है। |
उत्तरदायित्व | अधिकारियों से जवाबदेही सुनिश्चित होती है। |
भ्रष्टाचार नियंत्रण | अनियमितताओं का पर्दाफाश होता है। |
जनता की भागीदारी | स्थानीय लोग योजनाओं में सक्रिय होते हैं। |
संसाधनों का सही उपयोग | धन और सामग्री का दुरुपयोग नहीं होता। |
🛠️ सामाजिक अंकेक्षण की प्रमुख चुनौतियाँ
हालाँकि यह प्रक्रिया बेहद प्रभावी है, लेकिन इसके सामने कुछ चुनौतियाँ भी होती हैं:
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लोगों में जागरूकता की कमी
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दस्तावेजों की उपलब्धता न होना
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प्रशासन का सहयोग न करना
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राजनीतिक हस्तक्षेप
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संसाधनों की कमी (मानवबल, प्रशिक्षण आदि)
💡 पारदर्शिता को बढ़ावा देने हेतु सुझाव
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सामाजिक अंकेक्षण को कानूनी दर्जा देना।
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हर योजना के लिए समयबद्ध अंकेक्षण अनिवार्य करना।
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स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित करना।
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सभी दस्तावेजों को डिजिटाइज़ कर ऑनलाइन सार्वजनिक करना।
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प्रशासनिक अधिकारियों को उत्तरदायी बनाना।
🔚 निष्कर्ष
सामाजिक अंकेक्षण लोकतंत्र की आत्मा है। यह केवल प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक सशक्त जन-भागीदारी का माध्यम है जो पारदर्शिता, जवाबदेही और सुशासन को बढ़ावा देता है। यदि इसे पूरी तरह से लागू किया जाए, तो यह ग्रामीण और शहरी योजनाओं की सफलता में क्रांतिकारी भूमिका निभा सकता है।
प्रश्न 02. अशोक मेहता समिति द्वारा दी गई सिफारिशों की व्याख्या कीजिए।
🧭 प्रस्तावना : पंचायती राज व्यवस्था और सुधार की आवश्यकता
भारत के ग्रामीण प्रशासन की जड़ों को मजबूत करने के लिए पंचायती राज प्रणाली को लागू किया गया था। हालांकि, इसके लागू होने के कुछ वर्षों बाद इसमें अनेक कमियाँ और व्यावहारिक कठिनाइयाँ सामने आने लगीं। इन्हीं कारणों से वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने पंचायती राज व्यवस्था की समीक्षा करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया, जिसे अशोक मेहता समिति के नाम से जाना जाता है।
📌 अशोक मेहता समिति का गठन
अशोक मेहता समिति का गठन 1977 में किया गया था। इसका उद्देश्य था – पंचायतों के पतन के कारणों का विश्लेषण करना तथा ग्रामीण स्थानीय स्वशासन को प्रभावी और उत्तरदायी बनाने के लिए आवश्यक सुधार सुझाना।
🌟 समिति की प्रमुख विशेषताएँ
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अध्यक्ष: अशोक मेहता
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सदस्य: विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े विशेषज्ञ
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कार्यकाल: 1977 में गठन, 1978 में रिपोर्ट प्रस्तुत
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कुल सिफारिशें: 132
🏛️ 🔹 समिति की प्रमुख सिफारिशें
✅ 1. द्विस्तरीय पंचायती राज प्रणाली का सुझाव
समिति ने त्रिस्तरीय प्रणाली (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, जिला परिषद) की बजाय द्विस्तरीय प्रणाली का सुझाव दिया:
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जिला स्तर पर ज़िला परिषद
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ब्लॉक स्तर पर मंडल पंचायत (Panchayat Samiti)
📌 तर्क: ग्राम पंचायतें प्रशासनिक रूप से कमजोर होती हैं, जबकि मंडल पंचायतें ज़्यादा सक्षम होती हैं।
✅ 2. पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने की सिफारिश
समिति ने पहली बार यह सुझाव दिया कि पंचायती राज संस्थाओं को संविधान में वैधानिक दर्जा मिलना चाहिए ताकि उनका अस्तित्व राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर न रहे।
✅ 3. नियमित चुनाव की व्यवस्था
समिति ने पंचायती संस्थाओं के चुनाव हर 5 वर्ष में नियमित रूप से कराने की सिफारिश की ताकि ये जन प्रतिनिधित्व को बनाए रखें।
✅ 4. राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापना
चुनावों की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए स्वतंत्र राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापना की सिफारिश की गई।
✅ 5. वित्तीय सशक्तिकरण
पंचायतों को स्वतंत्र वित्तीय स्रोत दिए जाने की सिफारिश की गई। साथ ही, केंद्र व राज्य सरकारों से निधियाँ सीधे पंचायतों को स्थानांतरित करने की बात कही गई।
✅ 6. योजनाओं में भागीदारी
समिति ने पंचायती संस्थाओं को विकास योजनाओं के निर्माण, कार्यान्वयन और मूल्यांकन में शामिल करने की वकालत की।
✅ 7. प्रशासनिक संरचना में सुधार
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जिला परिषद को जिला स्तरीय योजनाओं का प्रमुख नियामक बनाने की सिफारिश।
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सभी विकास विभागों को जिला परिषद के अधीन लाने की बात।
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IAS अधिकारियों को पंचायत से जोड़ा जाए, जिससे प्रशासनिक दक्षता बढ़े।
✅ 8. राजनीतिक दलों की भूमिका को स्वीकृति
समिति ने सुझाव दिया कि राजनीतिक दलों को पंचायत चुनावों में भाग लेने की अनुमति होनी चाहिए ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया अधिक मजबूत हो सके।
✅ 9. स्वैच्छिक संगठनों की भागीदारी
NGO और स्वयंसेवी संस्थाओं की ग्राम विकास में सहभागिता को प्रोत्साहित करने की सिफारिश की गई।
✅ 10. अनुसूचित जातियों और महिलाओं की भागीदारी
समिति ने महिला प्रतिनिधित्व बढ़ाने, दलितों व पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की बात की।
📉 अशोक मेहता समिति की रिपोर्ट का प्रभाव
🔹 सीधे संविधान संशोधन नहीं हुआ –
हालांकि समिति की सिफारिशों को व्यापक सराहना मिली, लेकिन तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरता के कारण इन्हें सीधे तौर पर लागू नहीं किया गया।
🔹 स्थानीय प्रशासन में सुधार की दिशा में एक आधार –
इन सिफारिशों ने आगे चलकर 73वें संविधान संशोधन अधिनियम (1992) का मार्ग प्रशस्त किया।
🔹 राज्यों की योजनाओं में समिति की झलक –
कई राज्यों ने पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त बनाने के लिए अपनी योजनाओं में समिति की सिफारिशों को समाहित किया।
📌 समिति की कुछ आलोचनाएँ भी
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ग्राम पंचायतों की भूमिका को कम करने की आलोचना हुई।
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द्विस्तरीय प्रणाली पर सवाल उठे कि क्या इससे लोकतंत्र का विकेन्द्रीकरण होगा या नहीं।
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वित्तीय निर्भरता को पूरी तरह समाप्त करने का व्यावहारिक खाका नहीं था।
🎯 निष्कर्ष : एक ऐतिहासिक पहल
अशोक मेहता समिति भारतीय पंचायती राज व्यवस्था के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर मानी जाती है। इसकी सिफारिशों ने न केवल पंचायतों की कमियों की पहचान की, बल्कि उनके सशक्तिकरण का ठोस रोडमैप भी तैयार किया। भले ही समिति की अधिकांश सिफारिशें तुरंत लागू नहीं हो पाईं, लेकिन इनका दूरगामी प्रभाव 73वें संविधान संशोधन के रूप में सामने आया।
प्रश्न 03. स्थानीय स्वशासन की दक्षता को कैसे बढ़ाया जा सकता है ?
🌍 स्थानीय स्वशासन की दक्षता : एक आवश्यक परिप्रेक्ष्य
स्थानीय स्वशासन लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करता है। यह नागरिकों को शासन प्रक्रिया में भाग लेने, निर्णय लेने और विकास कार्यों को नियंत्रित करने की शक्ति देता है। परंतु, कई बार यह तंत्र अपनी संभावनाओं के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाता। ऐसे में इसकी दक्षता को बढ़ाना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।
🔍 स्थानीय स्वशासन की वर्तमान स्थिति और इसकी प्रमुख समस्याएँ
स्थानीय स्वशासन की दक्षता बढ़ाने से पहले यह समझना जरूरी है कि वर्तमान में इसके समक्ष कौन-कौन सी चुनौतियाँ विद्यमान हैं।
🚫 सीमित वित्तीय संसाधन
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पंचायतों और नगर निकायों को आवश्यक कार्यों के लिए पर्याप्त वित्तीय सहायता नहीं मिलती।
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केंद्र और राज्य सरकार पर अत्यधिक निर्भरता रहती है।
📉 प्रशिक्षण और क्षमता की कमी
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निर्वाचित प्रतिनिधियों को शासन और प्रबंधन का पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं दिया जाता।
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तकनीकी और प्रशासनिक जानकारी का अभाव कार्य की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।
🏢 नौकरशाही में नियंत्रण की प्रवृत्ति
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उच्च स्तर के अधिकारियों द्वारा स्थानीय इकाइयों पर नियंत्रण रखा जाता है, जिससे स्थानीय स्वतंत्रता बाधित होती है।
👥 जनभागीदारी की कमी
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आम जनता को निर्णय प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाता, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही कमजोर हो जाती है।
✅ स्थानीय स्वशासन की दक्षता बढ़ाने के उपाय
💰 वित्तीय सुदृढ़ता सुनिश्चित करना
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स्थानीय निकायों को कर लगाने और राजस्व संग्रह की स्वतंत्रता दी जाए।
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राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार अनुदान दिया जाए।
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स्ववित्तपोषित योजनाओं को प्रोत्साहन दिया जाए।
🧠 क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण
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चुनाव जीतने के बाद प्रतिनिधियों को अनिवार्य प्रशासनिक प्रशिक्षण दिया जाए।
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ई-गवर्नेंस, लेखा प्रबंधन, नीति निर्माण जैसे विषयों पर नियमित कार्यशालाएं आयोजित हों।
📲 डिजिटल और तकनीकी सशक्तिकरण
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ई-गवर्नेंस प्लेटफार्म को अपनाकर कार्यों में पारदर्शिता लाई जाए।
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ऑनलाइन शिकायत निवारण, कार्यों की निगरानी, और जन सहभागिता के लिए पोर्टल विकसित किए जाएं।
👨👩👧👦 नागरिक सहभागिता बढ़ाना
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ग्राम सभा और नगर सभा की बैठकों को नियमित और प्रभावी बनाया जाए।
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जन प्रतिनिधियों को समुदाय के साथ संवाद बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाए।
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सामाजिक अंकेक्षण जैसे उपकरणों को अपनाकर जनता को निगरानी में भागीदार बनाया जाए।
🧾 जवाबदेही और पारदर्शिता के तंत्र को मजबूत करना
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RTI (सूचना का अधिकार) के प्रभावी उपयोग को बढ़ावा दिया जाए।
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जनता को सूचनाओं तक आसान पहुँच सुनिश्चित की जाए।
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स्थानीय अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की जाए और समय-समय पर मूल्यांकन हो।
🧑💼 नौकरशाही में सुधार
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स्थानीय अधिकारियों की भूमिका स्पष्ट रूप से परिभाषित की जाए।
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नौकरशाहों और जन प्रतिनिधियों के बीच सहयोगात्मक वातावरण बनाया जाए।
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राजनीतिक हस्तक्षेप को कम किया जाए।
📚 कानूनी एवं नीति संबंधी सुधार
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73वें और 74वें संविधान संशोधन को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।
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राज्य सरकारों द्वारा स्थानीय निकायों को बाधित करने वाली नीतियों की समीक्षा की जाए।
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स्थानीय शासन के लिए अलग और सशक्त प्रशासनिक ढांचा तैयार किया जाए।
🌱 महिलाओं और कमजोर वर्गों की भागीदारी बढ़ाना
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आरक्षण के प्रावधानों को ईमानदारी से लागू किया जाए।
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महिला प्रतिनिधियों को नेतृत्व कौशल का प्रशिक्षण दिया जाए।
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दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों की भागीदारी को बढ़ावा देने हेतु विशेष योजनाएं बनाई जाएं।
📈 सामाजिक अंकेक्षण और मूल्यांकन
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कार्य निष्पादन की नियमित निगरानी हो।
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तृतीय पक्ष मूल्यांकन तथा सामाजिक अंकेक्षण जैसे साधनों से कार्य की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाए।
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जनता को शिकायत दर्ज कराने के लिए स्वतंत्र मंच उपलब्ध हों।
✨ निष्कर्ष : एक प्रभावशाली स्थानीय शासन की ओर
स्थानीय स्वशासन की दक्षता बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि उसे वित्तीय, प्रशासनिक और तकनीकी दृष्टि से सशक्त किया जाए। इसके साथ ही नागरिक सहभागिता, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना भी उतना ही जरूरी है। जब स्थानीय स्तर पर निर्णय सशक्त, सहभागितापूर्ण और उत्तरदायी होंगे, तभी लोकतंत्र अपने सच्चे स्वरूप में विकसित हो पाएगा।
प्रश्न 04. विकेन्द्रीकरण के गुण और दोषों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
🌀 विकेन्द्रीकरण का परिचय
विकेन्द्रीकरण (Decentralization) का तात्पर्य सत्ता, अधिकार, जिम्मेदारी तथा संसाधनों को केंद्रीय सरकार से निचले स्तर की सरकारों जैसे राज्य, जिला, नगर निकाय और पंचायतों को सौंपने से है। यह प्रशासनिक प्रणाली अधिक उत्तरदायी, पारदर्शी और जन-केन्द्रित शासन सुनिश्चित करने में सहायक होती है।
🔑 विकेन्द्रीकरण के प्रमुख प्रकार
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प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण – कार्यों को विभिन्न स्तरों पर बाँटना।
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राजनीतिक विकेन्द्रीकरण – निर्णय लेने की शक्ति को स्थानांतरित करना।
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वित्तीय विकेन्द्रीकरण – आर्थिक संसाधनों की साझेदारी।
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सामाजिक विकेन्द्रीकरण – सामाजिक संगठनों की भागीदारी सुनिश्चित करना।
✅ विकेन्द्रीकरण के प्रमुख गुण (Advantages of Decentralization)
🌍 स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति
विकेन्द्रीकरण स्थानीय सरकारों को अपनी समस्याओं और जरूरतों के अनुसार नीति-निर्माण और क्रियान्वयन की स्वतंत्रता देता है। इससे योजनाएँ अधिक प्रभावशाली होती हैं।
🤝 जनभागीदारी में वृद्धि
यह प्रणाली नागरिकों को प्रशासन में सीधी भागीदारी का अवसर देती है जिससे शासन पारदर्शी और उत्तरदायी बनता है।
⏱️ निर्णय प्रक्रिया में तेजी
स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने से समस्याओं का समाधान शीघ्र होता है क्योंकि निर्णय प्रक्रिया में केंद्रीकरण की बाधाएँ नहीं होतीं।
🧑💼 प्रशासनिक दक्षता
स्थानीय अधिकारियों को क्षेत्र विशेष की अच्छी समझ होती है जिससे वे संसाधनों का प्रभावी उपयोग कर सकते हैं।
💬 उत्तरदायित्व और पारदर्शिता
स्थानीय प्रतिनिधि जनता के सीधे संपर्क में रहते हैं, इसलिए वे अधिक उत्तरदायी और पारदर्शी होते हैं।
📈 नवाचार और प्रयोग की सुविधा
विकेन्द्रीकरण के कारण स्थानीय निकाय अपनी क्षेत्रीय परिस्थितियों के अनुसार नवीन प्रयोग और योजनाएँ बना सकते हैं।
❌ विकेन्द्रीकरण के प्रमुख दोष (Disadvantages of Decentralization)
🧠 क्षमता की कमी
कई बार स्थानीय स्तर पर कुशल जनप्रतिनिधि या प्रशासनिक अधिकारी नहीं होते जिससे योजना का क्रियान्वयन प्रभावित होता है।
💸 वित्तीय संसाधनों की कमी
स्थानीय निकायों को पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध नहीं होते जिससे वे योजनाओं को ठीक प्रकार से लागू नहीं कर पाते।
⚖️ असमानता की संभावना
कुछ क्षेत्र समृद्ध और विकसित होते हैं, जबकि अन्य पिछड़े रह जाते हैं जिससे क्षेत्रीय विषमता बढ़ सकती है।
🧾 भ्रष्टाचार की संभावना
स्थानीय स्तर पर पारदर्शिता की कमी और प्रभावी निगरानी न होने से भ्रष्टाचार की संभावना अधिक रहती है।
⚠️ समन्वय में कठिनाई
केंद्र, राज्य और स्थानीय सरकारों के बीच समन्वय स्थापित करना कई बार चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
🏛️ राजनीति का अधिक हस्तक्षेप
स्थानीय राजनीति कई बार जातिवाद, क्षेत्रवाद या व्यक्तिगत हितों से प्रभावित होती है जिससे जनहित की योजनाएँ प्रभावित होती हैं।
🛠️ समाधान के उपाय
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स्थानीय अधिकारियों को प्रशिक्षण देना।
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स्थानीय निकायों के लिए स्थायी वित्तीय ढांचा सुनिश्चित करना।
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सभी स्तरों पर पारदर्शिता और जवाबदेही के तंत्र को मजबूत बनाना।
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एकीकृत सूचना प्रणाली और तकनीकी साधनों का प्रयोग।
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केंद्र और राज्य सरकारों से सहयोगात्मक संबंध बनाए रखना।
📌 निष्कर्ष
विकेन्द्रीकरण सुशासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जिससे शासन व्यवस्था को अधिक उत्तरदायी, उत्तरदायी और समावेशी बनाया जा सकता है। हालांकि इसके सफल क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है कि सभी स्तरों पर क्षमता निर्माण, वित्तीय सुदृढ़ता और पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए। यदि इन चुनौतियों का समाधान किया जाए तो विकेन्द्रीकरण ग्रामीण और शहरी दोनों स्तरों पर समग्र विकास का माध्यम बन सकता है।
प्रश्न 05. ग्राम पंचायत सदस्यों की जिम्मेदारियों की विवेचना कीजिए।
🌾 ग्राम पंचायत के सदस्यों की भूमिका: लोकतंत्र की नींव
ग्राम पंचायत भारतीय लोकतंत्र की सबसे निचली और सबसे महत्वपूर्ण इकाई है। इसके सदस्य ग्रामीण क्षेत्रों में शासन का संचालन करते हैं और जनता की समस्याओं का समाधान करते हैं। ग्राम पंचायत के सदस्यों की जिम्मेदारियाँ न केवल प्रशासनिक होती हैं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और विकासात्मक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती हैं।
📜 ग्राम पंचायत का परिचय
ग्राम पंचायत भारत के पंचायती राज व्यवस्था की पहली कड़ी है। इसमें ग्राम प्रधान (सरपंच) तथा पंच सदस्य होते हैं जो सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं। इनका कार्यकाल पाँच वर्षों का होता है।
🛠️ ग्राम पंचायत सदस्यों की प्रमुख जिम्मेदारियाँ
✅ प्रशासनिक कार्यों में सहभागिता
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ग्रामसभा की बैठकें आयोजित करना: सदस्य ग्रामसभा की नियमित बैठकें आयोजित करने में सहायता करते हैं और लोगों को इसमें भाग लेने के लिए प्रेरित करते हैं।
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प्रशासनिक योजनाओं की जानकारी देना: सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं की जानकारी ग्रामीणों तक पहुँचाना सदस्यों की अहम भूमिका है।
💰 आर्थिक कार्यों की निगरानी
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विकास योजनाओं में पारदर्शिता: पंचायत सदस्यों का कर्तव्य होता है कि किसी भी विकास कार्य में पारदर्शिता बनाए रखें।
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वित्तीय खर्च की समीक्षा: सदस्यों को यह देखना होता है कि पंचायत के फंड का दुरुपयोग न हो।
🏗️ विकास कार्यों का संचालन
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बुनियादी सुविधाओं का विकास: पानी, सड़क, स्वास्थ्य केंद्र, स्कूल आदि के निर्माण और मरम्मत में पंचायत सदस्य सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
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कृषि और पशुपालन में सहयोग: किसान कल्याण, सिंचाई योजनाएँ, और पशु चिकित्सा सेवाओं के क्रियान्वयन में भी सदस्य योगदान देते हैं।
👩👧👦 सामाजिक उत्तरदायित्व
🌱 महिला और बाल कल्याण
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पंचायत सदस्य महिलाओं और बच्चों से जुड़े कार्यक्रमों जैसे पोषण, स्वास्थ्य एवं शिक्षा से संबंधित योजनाओं की निगरानी करते हैं।
🧼 स्वच्छता और पर्यावरण
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स्वच्छ भारत अभियान, साफ-सफाई, और कचरा प्रबंधन की योजनाओं में पंचायत सदस्य गाँव को स्वच्छ रखने की दिशा में पहल करते हैं।
⚖️ कानून व्यवस्था बनाए रखना
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पंचायत सदस्य ग्रामीण विवादों को आपसी सहमति से सुलझाने का प्रयास करते हैं।
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प्राथमिक स्तर पर झगड़े, ज़मीन संबंधी समस्याओं आदि में मध्यस्थता करना इनकी ज़िम्मेदारी होती है।
📊 सूचना और पारदर्शिता बनाए रखना
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सूचना के अधिकार (RTI) के तहत जानकारी देना: ग्रामीणों को सूचना उपलब्ध कराना, पूछे गए सवालों का उत्तर देना।
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सामाजिक अंकेक्षण: विकास कार्यों का सामाजिक ऑडिट कराने में सदस्य भूमिका निभाते हैं।
🧭 ग्राम पंचायत सदस्यों के लिए अपेक्षित गुण
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ईमानदारी और निष्ठा: सदस्यों को पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए।
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समाजसेवा का भाव: समाज के हित में कार्य करना और जनता की समस्याओं को प्राथमिकता देना आवश्यक है।
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नेतृत्व क्षमता: निर्णय लेने की क्षमता और लोगों को साथ लेकर चलने की योग्यता होनी चाहिए।
🧩 ग्राम पंचायत सदस्य: समस्याएँ और समाधान
चुनौतियाँ:
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शिक्षा का अभाव
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भ्रष्टाचार की संभावना
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राजनीतिक हस्तक्षेप
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सीमित संसाधन और बजट
समाधान:
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सदस्यों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम
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पारदर्शी लेखा प्रणाली
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ई-गवर्नेंस के माध्यम से कार्य प्रणाली को डिजिटाइज करना
🏁 निष्कर्ष: लोकतंत्र का सच्चा प्रहरी
ग्राम पंचायत सदस्य न केवल प्रशासनिक तंत्र का हिस्सा हैं बल्कि समाज के सच्चे सेवक भी हैं। उनकी सक्रिय भागीदारी ही गाँव के समग्र विकास की कुंजी है। यदि पंचायत सदस्य अपनी जिम्मेदारियों का ईमानदारी से निर्वहन करें, तो न केवल ग्रामीण क्षेत्रों का चेहरा बदलेगा बल्कि भारतीय लोकतंत्र और भी मजबूत होगा।
प्रश्न 07: जिला पंचायत की संरचना और उसकी भूमिकाओं की व्याख्या करें
🏛️ जिला पंचायत की संरचना एवं भूमिका: एक समग्र विश्लेषण
भारत के त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में जिला पंचायत सबसे ऊपरी इकाई होती है, जो ग्राम पंचायत और पंचायत समिति के कार्यों की निगरानी करती है और उन्हें मार्गदर्शन प्रदान करती है। यह न केवल ग्रामीण विकास योजनाओं का समन्वय करती है, बल्कि जिला स्तर पर लोकतांत्रिक प्रशासन को सशक्त बनाती है।
🧱 जिला पंचायत की संरचना
(Structure of Zila Panchayat)
👤 अध्यक्ष और उपाध्यक्ष
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जिला पंचायत का प्रमुख अध्यक्ष होता है, जिसे निर्वाचित सदस्य चुनते हैं।
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इसके अलावा एक उपाध्यक्ष भी होता है, जो अध्यक्ष की अनुपस्थिति में कार्यभार संभालता है।
👥 सदस्यता की प्रकृति
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सदस्य दो प्रकार के होते हैं: प्रत्यक्ष रूप से चुने गए सदस्य और पंचायत समिति के प्रमुख।
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कुछ राज्यों में सांसद/विधायक भी जिला पंचायत के मनोनित सदस्य होते हैं।
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अनुसूचित जाति/जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षण प्रावधान होते हैं।
🏛️ कार्यकारी समिति एवं उप-समितियाँ
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जिला पंचायत में विभिन्न स्थायी समितियाँ होती हैं, जैसे:
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शिक्षा समिति
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स्वास्थ्य समिति
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कृषि एवं सिंचाई समिति
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महिला एवं बाल विकास समिति
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ये समितियाँ क्षेत्र विशेष की नीतियों और योजनाओं की निगरानी करती हैं।
🧑💼 मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO)
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एक राज्य सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी होता है जो जिला पंचायत का प्रशासनिक प्रमुख होता है।
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यह वित्तीय, प्रशासनिक और तकनीकी मामलों को संभालता है।
📜 जिला पंचायत की प्रमुख भूमिकाएँ
(Key Roles of the Zila Panchayat)
🏗️ ग्रामीण विकास योजनाओं का संचालन
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जिला पंचायत केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं जैसे:
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मनरेगा (MGNREGA)
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प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY)
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स्वच्छ भारत मिशन
इनका क्रियान्वयन सुनिश्चित करती है।
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📊 निगरानी एवं समन्वय
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ब्लॉक स्तर की पंचायत समितियों के कार्यों की निगरानी करना।
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विभिन्न योजनाओं के बीच समन्वय स्थापित करना ताकि विकास एकरूप हो।
🧾 बजट निर्माण और व्यय प्रबंधन
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जिला पंचायत विकास बजट बनाती है, जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, महिला कल्याण आदि क्षेत्र शामिल होते हैं।
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योजनाओं के लिए वित्तीय आवंटन और प्रगति की निगरानी करना।
🧑🏫 शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में योगदान
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सरकारी स्कूलों और अस्पतालों के संवर्धन और सुधार हेतु नीतियाँ बनाना।
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बालिका शिक्षा, स्वास्थ्य शिविर, और टीकाकरण जैसे कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करना।
👨🌾 कृषि और सिंचाई विकास
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किसान हितैषी योजनाओं का संचालन करना जैसे:
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बीज वितरण
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सिंचाई परियोजनाएँ
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कृषक प्रशिक्षण शिविर
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👩🦱 महिला सशक्तिकरण और समाज कल्याण
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महिला स्व-सहायता समूहों को प्रोत्साहित करना।
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वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन और विकलांग सहायता जैसी योजनाएँ लागू करना।
🚧 जिला पंचायत के समक्ष चुनौतियाँ
(Challenges Faced by Zila Panchayat)
🏢 प्रशासनिक स्वायत्तता की कमी
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कई बार राज्य सरकार का अधिक हस्तक्षेप कार्य को प्रभावित करता है।
💰 वित्तीय निर्भरता
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जिला पंचायत की अधिकांश योजनाएँ राज्य या केंद्र सरकार के वित्त पर निर्भर रहती हैं।
🧑🔧 प्रशिक्षित स्टाफ की कमी
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पंचायतों में तकनीकी और प्रशासनिक कुशल कर्मचारियों की कमी होती है।
🔍 पारदर्शिता और उत्तरदायित्व
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भ्रष्टाचार, सूचना के अभाव और जन भागीदारी की कमी से पारदर्शिता में बाधा आती है।
💡 सुधारात्मक उपाय
(Suggestions for Improvement)
📚 प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण
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जिला पंचायत के प्रतिनिधियों और कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
💸 वित्तीय स्वतंत्रता
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जिला पंचायत को स्वतंत्र वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था दी जानी चाहिए।
🛠️ ई-गवर्नेंस को अपनाना
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योजनाओं की डिजिटल निगरानी, ऑनलाइन रिपोर्टिंग और जन शिकायत तंत्र को मजबूत करना।
🙋 जनभागीदारी को बढ़ावा
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स्थानीय लोगों की सक्रिय भागीदारी से पंचायत की कार्यप्रणाली पारदर्शी बन सकती है।
🧩 निष्कर्ष
(Conclusion)
जिला पंचायत भारतीय ग्रामीण प्रशासन की रीढ़ है। इसकी संरचना जमीनी स्तर पर लोकतंत्र की सशक्त अभिव्यक्ति है, जो विकास को विकेन्द्रीकृत, समावेशी और उत्तरदायी बनाती है। हालाँकि यह संस्थान कई चुनौतियों से जूझ रही है, परंतु उपयुक्त सुधारात्मक कदमों द्वारा इसे एक प्रभावशाली और पारदर्शी संस्था में परिवर्तित किया जा सकता है।
प्रश्न 07. महिला सशक्तिकरण से सम्बन्धित किन्हीं दो सरकारी योजनाओं पर चर्चा करें।
भारत सरकार ने महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने के लिए अनेक योजनाएं शुरू की हैं। इनमें से दो प्रमुख योजनाएं इस प्रकार हैं:
1. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना
परिचय:
इस योजना की शुरुआत 22 जनवरी 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हरियाणा के पानीपत में की गई थी। इसका उद्देश्य लिंगानुपात को संतुलित करना और बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा देना है।
मुख्य उद्देश्य:
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बालिका भ्रूण हत्या को रोकना।
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बालिकाओं की शिक्षा और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना।
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समाज में बालिकाओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करना।
प्रमुख विशेषताएँ:
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यह एक संयुक्त योजना है जिसे महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, और मानव संसाधन विकास मंत्रालय मिलकर चलाते हैं।
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लिंगानुपात की निगरानी और सुधार के लिए जिलों का चयन किया जाता है।
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जागरूकता अभियान, रैली, पोस्टर, और मीडिया के माध्यम से बालिका शिक्षा और अधिकारों पर बल दिया जाता है।
महत्त्व:
इस योजना से समाज में बेटियों के प्रति सकारात्मक परिवर्तन आया है और कई जिलों में बाल लिंगानुपात में सुधार देखा गया है।
2. महिला शक्ति केंद्र योजना
परिचय:
यह योजना 2017-18 में शुरू की गई थी जिसका उद्देश्य ग्रामीण भारत की महिलाओं को सामुदायिक स्तर पर जानकारी, अवसर और सेवाएं उपलब्ध कराकर उन्हें सशक्त बनाना है।
मुख्य उद्देश्य:
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महिला कल्याण योजनाओं की जानकारी देना।
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महिला समूहों के माध्यम से उनके कौशल और नेतृत्व क्षमता को बढ़ावा देना।
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महिलाओं को सरकारी सेवाओं और योजनाओं से जोड़ना।
प्रमुख कार्य:
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जिला और ब्लॉक स्तर पर महिला शक्ति केंद्र स्थापित किए जाते हैं।
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इन केंद्रों के माध्यम से महिलाओं को प्रशिक्षण, सलाह, कानूनी सहायता और सरकारी लाभों की जानकारी दी जाती है।
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स्वयंसेवकों के माध्यम से गांव-गांव जाकर महिलाओं को जागरूक किया जाता है।
महत्त्व:
यह योजना महिलाओं को स्वावलंबी बनाने, उनकी भागीदारी बढ़ाने और प्रशासन से जोड़ने में सहायक है।
निष्कर्ष:
इन योजनाओं के माध्यम से भारत सरकार ने महिला सशक्तिकरण को प्राथमिकता दी है। बेटियों की शिक्षा, सुरक्षा, और आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देकर समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने की दिशा में यह योजनाएं एक सशक्त कदम हैं।
प्रश्न 08 पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय व्यवस्था का विस्तृत वर्णन करें।
✨ प्रस्तावना
भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र की जड़ें तब तक मजबूत नहीं हो सकतीं, जब तक कि गांवों के स्तर पर सुशासन और भागीदारी सुनिश्चित न की जाए। इसी उद्देश्य से पंचायती राज प्रणाली की स्थापना की गई। किंतु इन संस्थाओं की सफलता काफी हद तक उनकी वित्तीय व्यवस्था पर निर्भर करती है। यदि इनके पास पर्याप्त संसाधन नहीं होंगे, तो वे स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकेंगी।
💰 पंचायती राज संस्थाओं के वित्तीय स्रोत
पंचायती राज संस्थाओं को प्रभावशाली बनाने के लिए संविधान के 73वें संशोधन में उन्हें वित्तीय सशक्तता प्रदान की गई है। इनके प्रमुख वित्तीय स्रोत निम्नलिखित हैं:
🟢 1. कर और शुल्क (Taxes and Fees)
ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला पंचायत को निम्नलिखित कर लगाने और एकत्र करने का अधिकार होता है:
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संपत्ति कर
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जल कर
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पेशा कर
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बाजार शुल्क
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विवाह पंजीकरण शुल्क
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मेलों और हाटों से प्राप्त शुल्क
इनका उपयोग स्थानीय विकास योजनाओं और आधारभूत संरचनाओं की मरम्मत हेतु किया जाता है।
🟢 2. राज्य सरकार से अनुदान (Grants-in-aid)
राज्य सरकारें पंचायती राज संस्थाओं को विकास कार्यों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं। ये अनुदान योजनाबद्ध तरीके से होते हैं और अक्सर स्वास्थ्य, शिक्षा, सिंचाई, सड़कों, आदि जैसे क्षेत्रों में खर्च किए जाते हैं।
🟢 3. केंद्रीय वित्त आयोग की सहायता
संविधान के अनुसार, केन्द्र सरकार हर पांच वर्षों में वित्त आयोग नियुक्त करती है, जो पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय आवश्यकताओं का मूल्यांकन कर राज्य सरकारों को उनके लिए धनराशि आवंटित करने की अनुशंसा करता है।
🟢 4. योजनागत व्यय (Plan Expenditure)
कई बार पंचायती राज संस्थाओं को केंद्र या राज्य प्रायोजित योजनाओं के अंतर्गत धनराशि दी जाती है, जैसे:
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मनरेगा (MGNREGA)
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प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY)
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स्वच्छ भारत मिशन
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जल जीवन मिशन
यह राशि विशिष्ट उद्देश्यों के लिए होती है और उसकी निगरानी संबंधित एजेंसियां करती हैं।
🟢 5. गैर-कर स्रोत (Non-tax Revenues)
इनमें शामिल हैं:
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पंचायत की जमीन या भवनों का किराया
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मत्स्य पालन, वन उत्पादों से आय
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ट्रैक्टर, टंकी, सामुदायिक भवन इत्यादि के किराए से प्राप्त धन
📊 वित्तीय विकेंद्रीकरण का महत्व
✅ स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप व्यय
पंचायती राज संस्थाएं अपने स्थानीय क्षेत्र की प्राथमिकताओं को समझकर योजनाओं पर व्यय कर सकती हैं।
✅ पारदर्शिता और जवाबदेही
चूंकि ये संस्थाएं सीधे जनता के बीच कार्य करती हैं, अतः इनके कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेही अधिक होती है।
✅ आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम
स्वतंत्र वित्तीय आधार पंचायती राज संस्थाओं को राज्य सरकार पर निर्भरता से मुक्ति दिलाकर स्वावलंबी बनाता है।
⚠️ वित्तीय व्यवस्था की प्रमुख चुनौतियाँ
❌ अपर्याप्त संसाधन
अधिकांश ग्राम पंचायतों के पास स्वतंत्र रूप से कर एकत्र करने की क्षमता नहीं होती, जिससे उनकी वित्तीय स्थिति कमजोर रहती है।
❌ क्षमतावान मानव संसाधन की कमी
ग्राम स्तर पर प्रशिक्षित लेखाकार और वित्तीय योजनाकारों की कमी के कारण बजट का समुचित उपयोग नहीं हो पाता।
❌ राज्य सरकारों की अनिच्छा
कई राज्य सरकारें कर लगाने के अधिकार या पर्याप्त अनुदान देने में संकोच करती हैं, जिससे पंचायती संस्थाएं कमजोर बनी रहती हैं।
❌ पारदर्शिता की कमी
भ्रष्टाचार, गलत रिकॉर्ड और लेखा की असंगतियों के कारण जन विश्वास कमजोर होता है।
🛠️ समाधान के उपाय
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✅ स्थानीय स्तर पर कराधान प्रणाली को मजबूत किया जाए।
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✅ लेखा प्रणाली को डिजिटल और पारदर्शी बनाया जाए।
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✅ सरकार द्वारा नियमित और निश्चित अनुदान की व्यवस्था हो।
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✅ पंचायती राज प्रतिनिधियों और कर्मचारियों को वित्तीय प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया जाए।
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✅ सामाजिक अंकेक्षण (Social Audit) को बढ़ावा दिया जाए।
📝 निष्कर्ष
पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय व्यवस्था, इन संस्थाओं के प्रभावी संचालन की रीढ़ है। जब तक इनके पास स्वतंत्र और पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं होंगे, तब तक ये लोकतंत्र के मूल उद्देश्य को पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सकेंगी। अतः आवश्यकता है कि पंचायती संस्थाओं को सशक्त, पारदर्शी और उत्तरदायी वित्तीय व्यवस्था प्रदान की जाए जिससे वे जमीनी स्तर पर सुशासन और विकास को साकार कर सकें।