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AECC-G-101 SOLVED PAPER DECEMBER 2024, चयनित गढ़वाली पद्य

AECC-G-101 SOLVED PAPER DECEMBER 2024,  चयनित गढ़वाली पद्य


प्रश्न 01 गढ़वाली साहित्य का आदि काव्य किसे कहा जाता है? नाम बता कर वर्णन कीजिए।

गढ़वाली साहित्य का इतिहास केवल लिखित दस्तावेजों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें सदियों पुरानी मौखिक परंपरा में निहित हैं। आपके द्वारा दिए गए अंश के अनुसार, गढ़वाली का आदिकालीन पद्य इतिहास उन लोकगीतों, गाथाओं और काव्य रूपों से बनता है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से चले आ रहे हैं। ये मांगळ, जागर, और पंवाड़े न केवल साहित्य के प्रारंभिक रूप हैं, बल्कि ये गढ़वाली समाज, सभ्यता और संस्कृति के सबसे प्राचीन और प्रामाणिक दस्तावेज भी हैं।

गढ़वाली साहित्य के विद्वानों का मत है कि विश्व के शिष्ट साहित्य ने लोक साहित्य से ही प्रेरणा और तत्व ग्रहण किए हैं। यह बात गढ़वाली साहित्य पर भी पूरी तरह से लागू होती है। शिष्ट काव्य (लिखित और व्याकरणबद्ध साहित्य) की विवेचना से पहले, उसकी लोक काव्य परंपरा को समझना अत्यंत आवश्यक है। इस लोक काव्य का मुख्य उद्देश्य लोकाभिव्यक्ति था, जिसमें रचनाकार का नाम गौण था और लोकानुभूति ही सर्वोपरि थी। गढ़वाली लोक साहित्य को मुख्यतः चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है: लोकगाथा, लोकगीत, लोककथा और लोकोक्तियाँ। इनमें से, गढ़वाली काव्य के विकास में लोकगाथाओं और लोकगीतों का योगदान सबसे महत्वपूर्ण है।

1. लोकगाथाएँ: वीरता, प्रेम और धर्म की कहानियाँ

लोकगाथाएँ गढ़वाली साहित्य की नींव हैं। ये हमारे समाज के पौराणिक, ऐतिहासिक चरित्रों, वीर योद्धाओं और उनकी प्रेम कहानियों का काव्यमयी वर्णन हैं। इन गाथाओं में अद्भुत काव्य सौंदर्य, सुगढ़ शिल्प और अनूठी भाषा शैली का प्रयोग होता है, जो इन्हें उच्च कोटि के काव्य के बराबर खड़ा करता है। साहित्य मर्मज्ञों ने गढ़वाली लोकगाथाओं को चार प्रमुख वर्गों में विभाजित किया है:

(क) धार्मिक गाथाएँ

इन गाथाओं का आधार पौराणिक है। इनमें सृष्टि की उत्पत्ति, निरंकार, नागरजा और पांडवों से संबंधित जागर गाथाएँ प्रमुख हैं। ये गाथाएँ पीढ़ियों से जनमानस का मार्गदर्शन करती रही हैं। पांडवों की कथाओं का गढ़वाल में विशेष महत्व है। द्रौपदी स्वयंवर से संबंधित एक उदाहरण में कहा गया है:

"मिन त जाण बुधाजि वे माळा दगड़ा जो बाण-भेद माछी को नेत्र बेधलो जो छाति का बाळौंन किवाड़ ख्वाललो जो नौ दूण लिम्बा दूंगी मा बामलो।"

इसका अर्थ है कि द्रौपदी अपने पिता से कहती है कि वह उसी योद्धा से विवाह करेगी जो घूमती हुई मछली की आँख पर निशाना लगाए, अपनी छाती के बालों से दरवाजा खोल दे और नौ मन गलगल (नींबू) अपनी मूँछों में थाम ले। यह अंश उस समय के काव्य सौन्दर्य और कल्पनाशीलता का उत्कृष्ट उदाहरण है।

(ख) वीरगाथाएँ (पंवाड़े)

ये गाथाएँ ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हैं। विद्वानों ने इनका रचनाकाल सन् 800 से 1800 तक माना है। इनमें सामंती युग के युद्धों और संघर्षों का सजीव वर्णन मिलता है। गडु सुम्याळ, कफ्फू चौहान, जगदेव पंवार, जीतू बगड्वाल, और माधो सिंह भंडारी जैसे वीर नायकों की कहानियाँ इन गाथाओं के माध्यम से जीवित हैं। इन पंवाड़ों में युद्धों, नारी सौंदर्य और नायकों की शारीरिक विशेषताओं का वर्णन मिलता है, जैसे "पीठ में चन्द्रमा", "मुख मंडल सूर्य के समान दीप्त" और "पर्वत के समान कद-काठी"।

(ग) प्रणय गाथाएँ

गढ़वाली साहित्य की यह परंपरा इतनी महत्वपूर्ण थी कि आधुनिक साहित्य ने भी इसकी शरण ली। जीतू बगड्वाल, फ्यूली रौतेली, राजुला मालूशाही, और गजु मलारी जैसी प्रणय गाथाओं ने शिष्ट काव्य को भी प्रेमाभिव्यक्ति के लिए उपमाओं और प्रतीकों का भंडार प्रदान किया।


2. लोकगीत: अभिव्यक्ति का सरल और सशक्त माध्यम

गढ़वाली काव्य के उद्भव और विकास में लोकगीतों का योगदान भी अति महत्वपूर्ण है। इनके बिना लौकिक गढ़वाली पद्य साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। इन गीतों के रचनाकार भले ही अज्ञात हों, पर इनकी सर्वग्राह्यता और सम्प्रेषणीयता अत्यंत प्रभावी मानी जाती है। तारादत्त गैरोला, भजन सिंह 'सिंह', अबोधबन्धु बहुगुणा, डॉ. गोविन्द चातक और नरेन्द्र सिंह नेगी जैसे महान रचनाकारों ने भी लोकगीतों को लोकाभिव्यक्ति का सरल व सशक्त माध्यम बताया है।

लोकगीतों के कई प्रकार हैं, जैसे मांगल, जागर, बड़िया, चांचड़ी, चौंफला, झुमैलो, बाजूबन्द और छोपती। विषय-वस्तु के आधार पर इन्हें चार मुख्य वर्गों में बाँटा गया है: पूजा गीत, ऋतु गीत, प्रणय गीत और विविध गीत। ये गीत अपने मजबूत शिल्प और उत्कृष्ट काव्य सौंदर्य के कारण हजारों सालों से आज भी गाए और सुने जा रहे हैं।

3. राजाश्रय में लिखा गया प्रारंभिक काव्य

लोक परंपरा के अलावा, लिखित गढ़वाली काव्य का भी एक लंबा इतिहास है। राजाश्रय में लिखे गए काव्य का प्रारंभ 18वीं शताब्दी के मध्य से माना जाता है। राजा प्रदीप शाह के राज ज्योतिषी कवि पं. जयदेव बहुगुणा ने सन् 1750 में 'पक्षी संहार' नामक काव्य की रचना की। इस कविता में पक्षियों की एक सभा का मनोरंजक वर्णन है, जहाँ गरुड़ राजा के विवाह की तैयारी चल रही है।

"रंच जुड्यां पंच जुड्यां, जुड़िगे चिमसाण जी टोट्या ब्वाद गरुड़ राजा ब्यो मा मिन वि जाण जी..."

यह अंश उस समय की भाषा और कल्पना का परिचय देता है, जहाँ पक्षियों को मानवीय चरित्रों में ढाला गया है। हालाँकि, कुछ विद्वान इसकी प्रामाणिकता पर संदेह करते हैं। जयदेव बहुगुणा के अलावा, स्वामी शशिधर, सुदर्शन शाह, गुमानी पंत, मौलाराम और चंद्रकुंवर बर्त्वाल जैसे कवियों की भी कुछ गढ़वाली रचनाएँ इस काल में मिलती हैं।

4. गढ़वाली कविता की प्रारम्भिक त्रिमूर्ति

सन् 1850 से 1900 के कालखंड को गढ़वाली काव्य के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दौर में जिन कवियों ने गढ़वाली में प्रारंभिक सृजन किया, उन्हें "त्रिमूर्ति" कहा जाता है। ये हैं:

 * महंत हर्यपुरी गुसांई (1820-1905)

 * लीलानंद कोटनाला (1846-1926)

 * हरिकृष्ण दौर्गादत्ति (1855-1910)

इन तीनों कवियों ने अपने सृजन से गढ़वाली काव्य के उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया।

निष्कर्ष

संक्षेप में, गढ़वाली साहित्य का आदिकालीन पद्य इतिहास किसी एक रचना से नहीं, बल्कि एक समृद्ध मौखिक परंपरा से शुरू होता है। लोकगाथाओं, पंवाड़ों और लोकगीतों ने इस साहित्य की बुनियाद रखी। बाद में, जयदेव बहुगुणा जैसे कवियों ने लिखित काव्य की नींव डाली और 19वीं सदी के अंत तक त्रिमूर्ति कहे जाने वाले कवियों ने इसे एक नई दिशा दी। इस प्रकार, गढ़वाली साहित्य की यात्रा लोक परंपरा से होते हुए शिष्ट काव्य तक पहुँची, जिसने आगे चलकर विभिन्न उत्थानों में विकसित होकर आधुनिक स्वरूप ग्रहण किया।


प्रश्न 02 भजन सिंह 'सिंह' का जीवन परिचय दीजिए तथा उनकी रचनाओं के बारे में विस्तार से बताइए।


भजन सिंह 'सिंह': गढ़वाली साहित्य के एक युग प्रवर्तक
भजन सिंह 'सिंह' (1905-1996) गढ़वाली साहित्य के एक ऐसे महान कवि और साहित्यकार थे, जिनकी कलम ने न केवल लोकजीवन की भावनाओं को स्वर दिया, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना को भी जागृत किया। उनका जीवन और उनका साहित्य दोनों ही संघर्ष, समर्पण और रचनात्मकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। उन्हें गढ़वाली साहित्य में 'युग प्रवर्तक' की उपाधि से नवाजा गया, क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से एक नई सोच और दिशा प्रदान की।
जीवन परिचय
भजन सिंह 'सिंह' का जन्म 29 अक्टूबर 1905 को पौड़ी गढ़वाल जनपद की पट्टी सितोनस्यूँ के कोटसाड़ा गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई, लेकिन बाद में उन्होंने सेना में सेवा करते हुए भी अपने अध्ययन और लेखन को जारी रखा। सैनिक पृष्ठभूमि से होने के बावजूद, उनका मन हमेशा साहित्य, चिंतन और समाज सेवा में लगा रहा। उन्होंने पर्वतीय क्षेत्रों में सामाजिक सुधार के आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिसने उन्हें एक लेखक के साथ-साथ एक समाज सुधारक के रूप में भी स्थापित किया। स्वतंत्रता-पूर्व का वह दौर उनके विचारों और कार्यों से इतना प्रभावित था कि उस युग को 'सिंह' युग' के नाम से जाना जाने लगा।
भजन सिंह 'सिंह' ने एक लंबे और सार्थक जीवन को जिया। उन्होंने न केवल गढ़वाली भाषा को एक साहित्यिक पहचान दी, बल्कि इसे जन-जन तक पहुँचाने का भी काम किया। 10 अक्टूबर 1996 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनका साहित्यिक योगदान आज भी गढ़वाली साहित्य के लिए एक मील का पत्थर है।
प्रमुख रचनाएँ और उनका साहित्यिक महत्व
भजन सिंह 'सिंह' की रचनाएँ उनकी गहन चिंतनशीलता, सामाजिक चेतना और विलक्षण रचनात्मक प्रतिभा का प्रमाण हैं। उन्होंने विभिन्न विधाओं में लिखा, जिसमें ग़ज़ल, खंडकाव्य और लोकगीत प्रमुख हैं। उनकी कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है:
1. सिंहनाद
यह भजन सिंह 'सिंह' की सबसे प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है, जो ग़ज़ल शैली में लिखी गई कविताओं का एक संग्रह है। इस कृति में उनकी एक चर्चित रचना "मूर्त पत्थर की" शामिल है, जिसने समाज में गहरा प्रभाव डाला। 'सिंहनाद' में उन्होंने समाज में व्याप्त रूढ़ियों, अंधविश्वासों, और अमानवीय व्यवहारों पर तीखा प्रहार किया है। उनकी भाषा में एक प्रकार का विद्रोही स्वर है, लेकिन वह इतना मर्यादित और संयत है कि वह पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देता है, उन्हें भड़काता नहीं। इसी कारण साहित्य समालोचकों ने उन्हें "मर्यादित विद्रोह के अथक साधक" की उपाधि दी। यह कृति गढ़वाली साहित्य में सामाजिक चेतना के विकास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
2. सिंह सतसई
यह भजन सिंह 'सिंह' की एक और महत्वपूर्ण काव्यकृति है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की सतसई परंपरा से प्रेरणा लेते हुए, उन्होंने अपनी एक अनूठी सतसई की रचना की। आमतौर पर एक सतसई में 700 दोहे होते हैं, लेकिन भजन सिंह 'सिंह' की इस रचना में 1259 दोहे शामिल हैं। यह उनकी लीक से हटकर सोचने और अपनी रचनात्मकता के साथ प्रयोग करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। 'सिंह सतसई' में उन्होंने जीवन के विभिन्न पहलुओं, दर्शन, नैतिकता और समाज पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सतसई के पारंपरिक ढांचे को तोड़कर एक नई साहित्यिक विधा का निर्माण करती है, जो गढ़वाली साहित्य को एक नई पहचान देती है।
3. माँ
'माँ' भजन सिंह 'सिंह' द्वारा रचित एक खंडकाव्य है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह कृति मातृशक्ति, मातृभाषा और मातृभूमि को समर्पित है। इस काव्य में उन्होंने माँ के विराट स्वरूप का वर्णन किया है, जो न केवल जन्म देने वाली माँ है, बल्कि हमारी भाषा और हमारी धरती भी है। इस रचना में उनकी कल्पनाशीलता, संवेदनशीलता और असाधारण भाव-भंगिमाएँ देखने को मिलती हैं। उन्होंने अपनी भाषा के प्रति जो गहरा प्रेम व्यक्त किया है, वह हर गढ़वाली भाषी को अपनी मातृभाषा से जुड़ने के लिए प्रेरित करता है। 'माँ' खंडकाव्य भावनात्मक गहराई और साहित्यिक सौंदर्य का एक सुंदर संगम है।
4. खुदेड़-बेटी
यह भजन सिंह 'सिंह' द्वारा रचित एक अत्यंत लोकप्रिय लोकगीत है, जो आज भी लोकगीतों की तरह ही गाया जाता है। यह गीत एक बेटी की मायके की यादों और भावनाओं को मार्मिक ढंग से व्यक्त करता है। इसमें गाँव की प्राकृतिक सुंदरता, घर-परिवार के लोगों और बचपन की स्मृतियों का वर्णन किया गया है। 'खुदेड़' शब्द का अर्थ ही 'याद' या 'स्मृति' होता है, और यह गीत इस भावना को पूरी तरह से जीवंत कर देता है। इस गीत ने गढ़वाली लोक संस्कृति और भावनाओं को एक साहित्यिक स्वरूप दिया, जिससे यह हर घर की कहानी बन गया।
भजन सिंह 'सिंह' का साहित्यिक योगदान
भजन सिंह 'सिंह' का साहित्यिक योगदान केवल उनकी रचनाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि उन्होंने गढ़वाली भाषा और साहित्य को एक नई दिशा दी।
 * उर्दू शायरी का प्रभाव: भजन सिंह 'सिंह' उर्दू में भी अच्छी शायरी करते थे। उनकी इस विधा का प्रभाव उनकी गढ़वाली रचनाओं में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उनकी ग़ज़लों में उर्दू शायरी की नफासत और भावुकता का संगम देखने को मिलता है।
 * सामाजिक चेतना: उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से हमेशा सामाजिक कुरीतियों, जैसे कि अंधविश्वास, जातिवाद और अशिक्षा पर प्रहार किया। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज को जगाना भी है।
 * राष्ट्रीय भावना: उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना और देशप्रेम की भावना भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। वे अपने साहित्य को स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय गौरव से जोड़ते थे।
 * लोक साहित्य का सम्मान: उन्होंने लोक साहित्य की शक्ति को समझा और 'खुदेड़-बेटी' जैसी रचनाओं के माध्यम से उसे साहित्यिक पहचान दिलाई।

निष्कर्ष , भजन सिंह 'सिंह' एक ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने अपनी कलम से गढ़वाली भाषा को एक नया आयाम दिया। उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक है और नई पीढ़ी के लेखकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।


प्रश्न 03 गढ़वाल के किसी एक महाकाव्य का नाम लिख कर उसकी विशेषता को स्पष्ट कीजिए।


गढ़वाली साहित्य की समृद्ध काव्य परंपरा में, विभिन्न कालखंडों में अनेक महत्वपूर्ण रचनाएँ हुई हैं। इनमें से एक उल्लेखनीय महाकाव्य 'नागरजा' है, जिसकी रचना कन्हैयालाल डंडरियाल ने की है। यह महाकाव्य गढ़वाली काव्य के चतुर्थ उत्थान (सन् 1976 से 2000 तक) का एक महत्वपूर्ण प्रतिनिधि है। 'नागरजा' न केवल अपने समय की साहित्यिक प्रवृत्तियों को दर्शाता है, बल्कि गढ़वाली काव्य के विकास में भी एक मील का पत्थर है, विशेषकर तकनीकी और शिल्प की दृष्टि से, जिसे विद्वानों ने इस काल का स्वर्णयुग माना है

कवि परिचय: कन्हैयालाल डंडरियाल

'नागरजा' के रचयिता, कन्हैयालाल डंडरियाल, गढ़वाली साहित्य के एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे, जिनका जन्म 11 नवंबर, 1933 को पौड़ी गढ़वाल जिले के पट्टी मवालस्युं के नैलिंग गाँव में हुआ था। उन्होंने केवल कक्षा 8 तक ही स्कूली शिक्षा प्राप्त की। मात्र 16 वर्ष की आयु में अपनी माता के देहांत और परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण, उन्हें रोजगार की तलाश में दिल्ली जाना पड़ा, जहाँ उन्होंने एक मिल में मजदूरी की और बाद में घर-घर जाकर चायपत्ती भी बेची। वे एक सहज और सरल इंसान के रूप में जाने जाते थे
कन्हैयालाल डंडरियाल का साहित्यिक योगदान व्यापक है। उनके प्रकाशित खंडकाव्यों में 'मंगलू' (1960) और 'बागि उप्पनै लड़ै' (2021) शामिल हैं। कविता संग्रह में 'अंजवाल' (1978) और गीत संग्रह में 'कुयेड़ी' (1990) उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। 'नागरजा' उनका बहु-भागों वाला महाकाव्य है, जिसका पहला भाग 1993 में और दूसरा भाग 1999 में प्रकाशित हुआ, जिसके बाद इसके तीसरे और चौथे भाग भी सामने आए। इसके अतिरिक्त, उन्होंने 'चांठों का घ्वीड' (यात्रा वृत्तांत, 1998) और 'रुद्री' (उपन्यास, 2018) जैसी विभिन्न विधाओं में भी रचनाएँ कीं। उन्होंने 'कंसानुक्रम', 'स्वयंवर', 'भींचप्यल' और 'अबेर प अंधेरि नि स्वर्गलोक म कवि सम्मेलन' जैसे नाटक भी लिखे। उन्हें उनके साहित्यिक योगदान के लिए कई सम्मानों से नवाजा गया, जिनमें गढ़भारती पुरस्कार (1972), पंडित टीकाराम गौड़ सम्मान (1984), डॉ. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल पुरस्कार (1990), गढ़रत्न सम्मान (1998), और उत्तराखंड गौरव सम्मान (2001) प्रमुख हैं। उनका निधन 02 जून, 2004 को दिल्ली में हुआ
'नागरजा' की विशेषताएँ: चतुर्थ उत्थान के संदर्भ में
'नागरजा' महाकाव्य गढ़वाली काव्य के चतुर्थ उत्थान (1976-2000) में रचा गया था, और इसकी विशेषताएँ इस कालखंड की प्रमुख प्रवृत्तियों को पूरी तरह से आत्मसात करती हैं। यह उत्थान गढ़वाली कविता के लिए एक स्वर्णयुग माना जाता है, खासकर तकनीकी और शिल्प की दृष्टि से

1. यथार्थवादी दृष्टिकोण और विचार प्रधानता: चतुर्थ उत्थान के कवियों ने, जिनमें डंडरियाल भी शामिल थे, यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया। उनकी रचनाओं में भावना से अधिक विचार को प्रमुखता दी गई। 'नागरजा' जैसे महाकाव्य, भले ही उनकी पृष्ठभूमि लोकगाथाओं से जुड़ी हो (जैसा कि 'नागरजा' को लोकगाथाओं से कथावस्तु लेने वालों में सूचीबद्ध किया गया है), इस अवधि में इन्हें वास्तविक जीवन की परिस्थितियों और गहन विचारों के साथ प्रस्तुत किया गया होगा। यह केवल एक कथा का बयान नहीं, बल्कि उसके पीछे के सामाजिक, नैतिक या दार्शनिक विचारों का अन्वेषण भी रहा होगा। कवि ने मानवीय संवेदनाओं की अनुभूति और अभिव्यक्ति को प्रमुखता दी, जिससे महाकाव्य में गहरे विचार और अनुभव समाहित हो सके

2. राष्ट्रीयता की भावना और सामाजिक पुनर्निर्माण का लक्ष्य: इस काल की कविताओं में राष्ट्रीयता की भावना अधिक प्रबल दिखाई देती है। लोकगाथाओं और लोकगीतों में वर्णित भक्ति, धर्म, नीति, प्रेम, संघर्ष, जागरण, राष्ट्रीयता जैसे कई भावों को कवियों ने अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। 'नागरजा' जैसे महाकाव्य भी, अपने कथानक में, इस राष्ट्रीय या क्षेत्रीय चेतना को समाहित करते हुए, अपने समाज और संस्कृति को एक बड़े फलक पर प्रस्तुत करते होंगे। इस स्वर्णकाल में काव्य का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य सामाजिक पुनर्निर्माण करने वाली विचारधारा को स्थापित करना भी था। इसलिए, 'नागरजा' का उद्देश्य केवल एक कहानी सुनाना नहीं, बल्कि पाठकों को सामाजिक कुरीतियों या चुनौतियों के प्रति जागरूक करना और सकारात्मक बदलाव की दिशा में विचारोत्तेजित करना भी रहा होगा।
3. शिल्पगत सुदृढ़ता और छंदमुक्तता की ओर रुझान: चतुर्थ उत्थान की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इस दौरान काव्य को एक मजबूत शिल्प मिला। गढ़वाली कविता छंदमुक्तता की ओर बढ़ी, जैसा कि हिंदी साहित्य में छायावादोत्तर कविता में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के माध्यम से आधुनिक युग में प्रवेश हुआ। 'नागरजा' जैसे महाकाव्यों सहित इस उत्थान की रचनाओं में भाषा शैली में भी अभूतपूर्व बदलाव देखे गए। कवियों ने भाव और अभिव्यक्ति को नए आयाम दिए और नया शिल्प प्रदान किया, जिससे कविता का वैचारिक धरातल बहुत सुदृढ़ हुआ। यह दर्शाता है कि 'नागरजा' केवल अपनी कहानी के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी तकनीकी उत्कृष्टता और कलात्मक प्रस्तुति के लिए भी महत्वपूर्ण रहा होगा।
4. मानवीय संवेदनाओं पर बल: इस काल में मानवीय संवेदनाओं की अनुभूति और अभिव्यक्ति प्रमुखता से दृष्टगोचर होने लगी। महाकाव्य 'नागरजा' में भी मानवीय भावनाओं, संघर्षों और अनुभवों को गहराई से दर्शाया गया होगा। लोकगाथाओं के कथानकों का आधार अनेक कवियों ने ग्रहण किया, जिसमें 'नागरजा' भी शामिल है। इन लोकगाथाओं में वर्णित प्रेम, संघर्ष, पीड़ा और जीवन के विविध पहलुओं को डंडरियाल ने अपने महाकाव्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रस्तुत किया होगा, जिससे पाठक उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ सकें।
संक्षेप में, कन्हैयालाल डंडरियाल का महाकाव्य 'नागरजा' गढ़वाली साहित्य के चतुर्थ उत्थान की एक महत्वपूर्ण कृति है। यह उस काल की यथार्थवादी दृष्टि, विचार प्रधानता, राष्ट्रीय चेतना, मजबूत शिल्प और सामाजिक पुनर्निर्माण के लक्ष्य को अपने भीतर समेटे हुए है। 'नागरजा' गढ़वाली कविता के उस स्वर्णयुग का प्रतिनिधित्व करता है जब कवियों ने न केवल विषय-वस्तु में नवीनता लाई, बल्कि अभिव्यक्ति और शिल्प के स्तर पर भी उसे नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया।

प्रश्न 04 : कवि सुरेन्द्र पाल की 'क्यांकु सुख', 'कै गाँ का' व 'पसिन्या' नामक कविताओं का सार अपने शब्दों में लिखिए।


कवि सुरेंद्र पाल की कविताएं उत्तराखंड के जनजीवन की गहरी समझ और उसकी पीड़ा को दर्शाती हैं। उनकी रचनाएं न केवल सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डालती हैं, बल्कि समाज के दबे-कुचले, वंचित और शोषित वर्ग की आवाज भी बनती हैं। 'चुंग्टि' कविता संग्रह से ली गई इन कविताओं में पलायन, मानवीय मूल्यों का ह्रास, और मेहनतकशों के शोषण जैसे महत्वपूर्ण विषयों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है

1. 'क्यांकु सुख' कविता: पलायन का दर्द और सांस्कृतिक विस्मृति

इस कविता में उत्तराखंड की धरती अपनी संतानों के प्रति गहरी निराशा और दुख व्यक्त करती है । यह कविता पलायन की समस्या और उसके परिणामों को मार्मिक रूप से चित्रित करती है।

  • संतानों की विस्मृति: धरती बताती है कि उसने अपने बेटों को साहब, डॉक्टर, इंजीनियर और डायरेक्टर बनाया है लेकिन, जैसे-जैसे वे ऊँचे उठते गए, वे अपनी बोली, भाषा, सभ्यता और संस्कृति को भूलते गए उन पर अंग्रेजी का रंग चढ़ गया है


  • मंडुवे की रोटी का भूलना: वे अपनी जड़ों से इस कदर दूर हो गए हैं कि वे मंडुवे की रोटी का स्वाद भी भूल गए, जिसे वे बचपन में भूखे कुत्तों की तरह खाते थे यह मंडुवे की रोटी केवल भोजन नहीं, बल्कि उनकी पहचान और संस्कृति का प्रतीक है

  • हृदय की कठोरता: धरती अपनी व्यथा प्रकट करते हुए कहती है कि उनके गले मुलायम हो गए हैं और उनके हृदय बंजर खेतों की तरह कठोर हो गए हैं वे अपनी ही जन्मदात्री माँ से आँखें फेर लेते हैं ऐसे में, धरती पूछती है कि उसके लिए कैसा सुख है । यह प्रश्न उत्तराखंड के हर उस घर की कहानी है, जहाँ से लोग पलायन कर गए हैं।


2. 'कै गौं का' कविता: खोया हुआ अपनापन और मानवीय संवेदनाओं का ह्रास

यह कविता आधुनिक शहरी जीवन की भीड़ में खोए हुए अपनेपन और मानवीय संवेदनाओं के ह्रास को दर्शाती है

  • शहर की भीड़ में अकेलापन: कवि शहर की भीड़ में खुद को अकेला महसूस करता है, जहाँ उसका कोई अपना नहीं है लोग उसे देखते तो हैं, पर उनकी नजरों में अपनापन नहीं होता


  • पुरानी यादें और खोई हुई मानवता: कवि को अपने मुलुक की मानवता याद आती है वह याद करता है कि कैसे राह चलते बटोही से कोई ग्वाला, ससुराल जाती बेटी या बुजुर्ग पेंशनर पूछता था, "भैजी, किस गाँव के हो?" यह सवाल केवल एक परिचय नहीं, बल्कि एक दूसरे के प्रति प्रेम, अपनापन और सम्मान का प्रतीक था

  • मतलब का रिश्ता: शहर के जीवन में यह अपनापन खो गया है। वहाँ किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है, और कवि को केवल निराशा ही हाथ लगती है यह कविता प्रवासियों द्वारा अपनी भाषा और संस्कृति के तिरस्कार पर गहरी चिंता व्यक्त करती है ।

3. 'पसिन्या' कविता: मेहनतकशों का शोषण और अन्याय

यह कविता समाज के शोषित और वंचित वर्ग के दुख और संघर्ष को दर्शाती है

  • पसीने की कीमत: कवि खुद को एक मेहनतकश व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है वह कहता है कि वह पसीना बहाता है, और उसके पसीने की बूँद धरती पर गिरकर मोती बन जाती है

  • श्वेतपोशों का शोषण: लेकिन, उसके पीछे खड़े सफेदपोश (श्वेत वर्ण) बगुले उन मोतियों को चट कर जाते हैं यह सफेद बगुले समाज के उन शोषक वर्ग का प्रतीक हैं, जो मेहनत करने वालों का हक छीन लेते हैं

  • अनादि अन्याय: कवि इस बात पर दुख व्यक्त करता है कि यह अन्याय युगों-युगों से चला आ रहा है इस पर कोई फैसला नहीं हो रहा है, जिससे मेहनतकशों का शोषण लगातार जारी है यह कविता समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और शोषण की एक कड़वी सच्चाई को उजागर करती है


प्रश्न 05 . 'विसौणि कु ढुंगु' किसके जीवन संघर्ष का साक्षी है और केसे ? स्पष्ट कीजिए।

'बिसौणि कु ढुंगु' (विश्राम का पत्थर) कवयित्री बीना बेंजवाल की एक मार्मिक रचना है, जो एक निर्जीव पत्थर के माध्यम से पहाड़ी जीवन की कहानी, उसके संघर्ष और भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाती है। यह पत्थर सिर्फ एक शिला नहीं, बल्कि कई पीढ़ियों के सुख-दुख, आशाओं और संघर्षों का साक्षी है।

1. किसके जीवन संघर्ष का साक्षी?

'बिसौणि कु ढुंगु' निम्नलिखित के जीवन संघर्ष का साक्षी है:

  • बचपन की यादें: यह पत्थर उन बच्चों की हँसी-मजाक का गवाह है, जो जंगल से लौटते हुए उस पर बैठकर अखरोट फोड़ते थे और गिट्टियाँ खेलते थे यह पत्थर उन बचपन की यादों का हिस्सा है जहाँ खेलने और जीतने की होड़ लगी रहती थी

  • बहू-बेटियों की थकान: यह पत्थर जंगल जाने वाली बहू-बेटियों की थकान का साथी था जंगल से घास-लकड़ी का बोझ लेकर लौटते समय वे इस पर अपना बोझ उतारकर विश्राम करती थीं । यह पत्थर उनकी रोजमर्रा की मेहनत और संघर्ष को देखता था।

  • ग्वालों का जीवन: यह ग्वालों के जीवन का भी साक्षी है, जो इस पत्थर पर अपनी लाठी (छूटी डांढ) छोड़ जाते थे, और इस पर ही दरांती पर धार लगाते थे

  • दादी-नानी की पीढ़ियाँ: यह पत्थर सदियों पुराना है और दादी-नानी के जीवन संघर्ष का साक्षी रहा है यह कई पीढ़ियों की कहानियों और यादों को अपने भीतर समेटे हुए है

2. कैसे साक्षी?

यह पत्थर निम्नलिखित तरीकों से जीवन संघर्ष का साक्षी बनता है:

  • विश्राम का केंद्र: यह पत्थर उन सभी लोगों के लिए विश्राम का केंद्र था, जो कठिन परिश्रम के बाद अपनी थकान मिटाने के लिए इस पर बैठते थे यह लोगों को एक पल का सुकून देता था, जिससे वे अपने बोझ और चिंताओं को कुछ देर के लिए भूल जाते थे

  • भावनात्मक जुड़ाव: यह केवल एक भौतिक वस्तु नहीं, बल्कि लोगों के जीवन का एक भावनात्मक हिस्सा बन गया था बच्चों के खेल, बहू-बेटियों की थकान, और बुजुर्गों के अनुभव, सब इस पत्थर से जुड़े हुए थे


  • विकास की भेंट: कविता में यह भी बताया गया है कि कैसे विकास के नाम पर इस पत्थर को तोड़ दिया गया यह पत्थर अपनी वर्षों पुरानी जगह पर ही चकनाचूर हो गया यह घटना न केवल एक पत्थर का अंत है, बल्कि उन सभी यादों और संघर्षों का भी अंत है जो उससे जुड़ी थीं

  • भ्रष्टाचार का प्रतीक: कवयित्री भ्रष्टाचार और कुप्रशासन पर भी कटाक्ष करती हैं विकास की खुशी में लोगों ने पत्थर को तोड़े जाने की शिकायत नहीं की, लेकिन बाद में वही पत्थर सरकारी योजना की तरह बीच रास्ते में लटक गया हथौड़ों और बड़े साहबों के बूटों की आवाजें अब सुनाई नहीं देतीं, और पत्थर को अंततः पहाड़ी से नीचे लुढ़का दिया जाता है इस तरह यह पत्थर हिमालय के इतिहास की तरह हमेशा के लिए दफन हो जाता है



प्रश्न 01 गढ़वाली काव्य के उद्भव व विकास में लोकगीतों का क्या महत्व है?

गढ़वाली काव्य के उद्भव और विकास में लोकगीतों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है लोकगीत गढ़वाली आधुनिक साहित्य का प्राण माने जाते हैं । तारादत्त गैरोला, भजन सिंह 'सिंह', अबोधबंधु बहुगुणा, डॉ. गोविंद चातक, और नरेंद्र सिंह नेगी जैसे महान रचनाकारों ने लोकगीतों को लोकाभिव्यक्ति का सरल और सशक्त माध्यम बताया है


1. प्रेरणा और तत्व ग्रहण

गढ़वाली शिष्ट काव्य ने लोक साहित्य से तत्व और प्रेरणाएं ग्रहण की हैं लोकगीतों में मजबूत शिल्प के साथ उत्कृष्ट काव्य सौंदर्य पाया जाता है, जिसके कारण उनका भाव और कला पक्ष उत्तम कोटि का दिखाई देता है यह लोकगीतों की विशेषता ही है कि वे हजारों सालों से आज भी उसी तरह गाए जा रहे हैं


2. वर्ण्य विषय, भाषा-शैली और अलंकार पर प्रभाव

लोकगीतों ने गढ़वाली शिष्ट काव्य को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित किया है

  • वर्ण्य विषय: लोकगीतों में भक्ति, धर्म, नीति, प्रेम, संघर्ष, जागरण, और राष्ट्रीयता जैसे अनेक भावों का वर्णन मिलता है कवियों ने अपनी रचनाओं में इन विषयों को स्थान दिया है


  • भाषा-शैली: गढ़वाली खुदेड़ गीतों और नारी पीड़ा की शिष्ट रचनाओं में इतना साम्य है कि उन्हें अलग-अलग पहचानना मुश्किल हो जाता है लोकगीतों की भाषा शैली का प्रभाव अनेक कवियों पर देखा जा सकता है


  • अलंकार: गढ़वाली काव्य में प्रयुक्त होने वाली उपमाएं भी लोक काव्य परंपरा से ही ली गई हैं

  • छंद: अनेक कवियों ने अपनी कृतियों में लोक धुनों पर आधारित छंदों में अभिव्यक्ति दी है कई स्वातंत्र्योत्तर कवियों की मुक्तक रचनाओं में भी लोक काव्य का छंदगत प्रभाव देखा जा सकता है

3. लोकगीतों का वर्गीकरण और काव्य पर प्रभाव

साहित्यकारों ने गढ़वाली लोक साहित्य को लोकगाथा, लोकगीत, लोककथा और लोकोक्तियाँ में वर्गीकृत किया है गढ़वाली काव्य ने जिन विधाओं से कवित्व ग्रहण किया, उनमें लोकगाथा और लोकगीत प्रमुख हैं लोकगीतों के विभिन्न प्रकार हैं, जिनमें मांगल, जागर, थड़िया, चांचड़ी, चौंफला, झुमैलो, बाजूबन्द, और छोपती प्रमुख हैं वर्ण्य विषय के आधार पर लोकगीतों को पूजा गीत, ऋतु गीत, प्रणय गीत और विविध गीतों में बांटा गया है


  • प्रणय गीत: गढ़वाली लोकगीतों की शैलियों जैसे थड़िया, चौंफला, चांचरी, बाजूबन्द, और झुमैलो में प्रणय की गहरी अभिव्यंजना होती है ये प्रणय गीत मुख्य रूप से संवादात्मक होते हैं जिनमें प्रेम, संयोग, वियोग, श्रृंगार और मनुहार देखा जा सकता है

  • ऋतु गीत: चैती गीतों में ऋतुओं का वर्णन पाया जाता है, जिसमें प्राकृतिक सुषमा, प्रियजन से मिलने की आस, और व्याकुलता जैसी भावनाएं व्यक्त की जाती हैं

  • विविध गीत: इस श्रेणी के गीतों में हास्य और मनोविनोद जैसे विविध विषय होते हैं जो दैनिक जीवन से उपजते हैं


प्रश्न 02 पंवाड़ों का रचनाकाल कब से कब तक माना जाता है ?

खुदेड़ गीत गढ़वाली लोकगीतों की एक महत्वपूर्ण और मार्मिक विधा है जो पहाड़ी नारी की पीड़ा, विरह और संघर्ष की कहानी बयां करती है 'खुद' शब्द का अर्थ है याद या टीस ये गीत उन विवाहित बेटियों द्वारा गाए जाते थे, जिन्हें बचपन में ही दूर के गाँवों में ब्याह दिया जाता था ससुराल में कठोर जीवन, पति का विछोह और मायके से दूर रहने की पीड़ा उन्हें लगातार सताती थी इन्हीं भावनाओं की सहज और स्वतः स्फूर्त अभिव्यक्ति को खुदेड़ गीत कहा जाता है


खुदेड़ गीतों की विशेषताएँ:

  • करुण रस की प्रधानता: खुदेड़ गीत करुण रस से परिपूर्ण होते हैं इनमें एक विरहिणी बाला अपने प्रियजनों (माँ, पिता, भाई, बहन, पति, सहेलियों) और मायके के वातावरण (वन, पर्वत, पशु-पक्षी, फूल-फल) से मिलने की उत्कंठा व्यक्त करती है


  • संघर्ष और सहनशीलता: ये गीत पहाड़ी नारी के जीवन के संघर्षों को दर्शाते हैं ससुराल में यातना, सास का कटु व्यवहार, और पति का परदेश जाना उनकी पीड़ा को और बढ़ा देता था इन सभी कठिनाइयों के बावजूद, वह गृहस्थी और पतिव्रत धर्म का पालन करती थी खुदेड़ गीत ही इस लंबी लड़ाई में उसके हथियार और सहारे होते थे



  • प्रकृति से संवाद: खुदेड़ बेटी अपनी पीड़ा प्रकृति से साझा करती है वह हवा (पवन), पक्षियों (कफ्फू, हिलांस), और पहाड़ों से बात करती है, उनसे अपने मायके का हाल जानने और अपना संदेश पहुँचाने का अनुरोध करती है


  • सामाजिक कुरीतियों पर कटाक्ष: कुछ खुदेड़ गीतों में बाल-विवाह और विवाह में लड़की के पिता द्वारा रुपये लेने जैसी कुप्रथाओं पर भी कटाक्ष किया गया है यह गीत इन सामाजिक बुराइयों का दर्पण माने जाते हैं



उदाहरण: भजन सिंह 'सिंह' का 'खुदेड़ बेटी' गीत

भजन सिंह 'सिंह' जी की रचना 'खुदेड़ बेटी' एक उत्कृष्ट उदाहरण है जो इन सभी विशेषताओं को दर्शाती है गीत की नायिका, जो एक विरहिणी बाला है, अपनी माँ को संबोधित करते हुए कहती है:


  • मायके की याद: वह पौष महीने में मायके जाने वाली अन्य बहुओं और बेटियों को देखती है वह अपनी माँ को बताती है कि उसकी याद में उसके हृदय में कोहरा छा गया है उसे अपने मायके के पेड़-पौधे, पक्षी (मेल्वड़ी, हिलांस), और फल (काफल, हिंसर) याद आते हैं


  • सांसारिक पीड़ा: नायिका अपने पति के परदेश में रहने और उनके पत्र न आने से दुखी है उसे अपनी सास के कठोर व्यवहार और गाली-गलौज की पीड़ा भी सताती है



  • पिता पर दोषारोपण: वह अपने पिता को अपनी दुर्दशा के लिए कोसती है वह कहती है कि उसके पिता ने शादी में रुपये लेकर उसका सौदा कर दिया, जिसके कारण उसकी यह दुर्गति हुई उसकी सास उसे ताना देती है कि अगर उसके पिता ने रुपये न लिए होते तो उसका बेटा परदेश नहीं जाता



प्रश्न 03 द्वितीय उत्थान कब से कब तक माना जाता है ?


गढ़वाली काव्य का द्वितीय उत्थान काल सन् 1926 से 1950 ई० तक माना जाता है यह काल गढ़वाली कविता के लिए एक महत्वपूर्ण दौर था, जिसने इसकी धारा को तीव्र करके बदलने का साहस दिखाया इस युग में कवियों ने केवल इक्का-दुक्का कविताओं तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने कविता संग्रहों का सृजन और प्रकाशन भी किया उनकी रचनाएँ गढ़वाल और देश के विविध विषयों पर आधारित थीं



प्रमुख रचनाकार और उनकी कृतियाँ

इस उत्थान में कई महत्वपूर्ण रचनाकारों ने गढ़वाली साहित्य को समृद्ध किया। उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ निम्नलिखित हैं:

  • योगेन्द्र पुरी: 'फुलकण्डी'

  • चक्रधर बहुगुणा: 'मोछंग'

  • केशवानन्द कैन्थोला: 'मन तरंग'


  • भजन सिंह 'सिंह': 'सिंहनाद'


  • तारादत्त लखेड़ा: 'बिरहणी बाला'

  • भोलादत्त देवरानी: 'जुओ अर जनानी'

  • सदानन्द जखमोला: 'रैबार'

  • भगवती चरण निर्मोही: 'हिलाँस'

रचनाओं की विषय-वस्तु और विचारधारा

द्वितीय उत्थान की रचनाओं में समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी विचारधारा पर अधिक बल दिया गया इन कवियों ने सरल और मधुर आख्यानों को चुना, साथ ही नई कल्पनाशीलता का परिचय भी दिया उन्होंने अपनी कविताओं में सामाजिक मुद्दों और राष्ट्रीय भावनाओं को स्थान दिया, जिससे साहित्य का दायरा और भी व्यापक हुआ


शिल्प और कला-पक्ष

शिल्प की दृष्टि से भी इस युग में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले:

  • मौलिक अभिव्यक्ति: इस उत्थान में गढ़वाली काव्य में मौलिक अभिव्यक्ति अंकुरित हुई, और रस को प्रधानता देने वाली प्रतिभाएं भी सामने आईं

  • व्याकरण और छंद: कवियों ने संस्कृत छंदों का प्रयोग किया और व्याकरण के नियमों का भी पालन किया इसके अलावा, कुछ कवियों ने लोक में प्रचलित छंदों का भी अपनी कविताओं में सफल प्रयोग किया


  • सरल प्रयोग: कवियों ने शिल्प की दृष्टि से कुछ सरल प्रयोगों की आवश्यकता महसूस की, जिससे कविता आम लोगों तक आसानी से पहुँच सके

इस प्रकार, द्वितीय उत्थान ने गढ़वाली काव्य को एक नई दिशा दी। इस काल में न केवल मात्रात्मक वृद्धि हुई, बल्कि गुणात्मक रूप से भी साहित्य अधिक परिपक्व और सशक्त हुआ। इसने आने वाले वर्षों के लिए एक मजबूत नींव रखी, जिस पर गढ़वाली साहित्य का विकास हुआ।

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