भारतीय राजव्यवस्था
प्रश्न 01. ब्रिटिश काल में भारत के संवैधानिक विकास पर एक विस्तृत लेख लिखिए।
परिचय
भारत में संवैधानिक विकास की प्रक्रिया अंग्रेजों के शासनकाल में आरंभ हुई। जब अंग्रेजों ने भारत में शासन स्थापित किया, तब उनका उद्देश्य केवल व्यापार करना था, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने भारत पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया। इस शासन व्यवस्था को व्यवस्थित करने हेतु उन्होंने कई अधिनियमों और सुधारों की शृंखला प्रारंभ की, जो अंततः भारत में एक विधिसम्मत शासन व्यवस्था और स्वतंत्रता की नींव बन गए।
ब्रिटिश शासनकाल में भारत का संवैधानिक विकास मुख्य रूप से निम्नलिखित चरणों में हुआ:
1. रेगुलेटिंग एक्ट, 1773
यह अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियंत्रित करने हेतु पारित किया गया था। यह भारत में संवैधानिक विकास की दिशा में पहला कदम माना जाता है।
मुख्य विशेषताएँ:
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बंगाल के गवर्नर को ‘गवर्नर जनरल’ का पद प्रदान किया गया। पहला गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स बना।
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एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद का गठन हुआ।
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कंपनी के कर्मचारियों को भ्रष्टाचार से रोकने के लिए प्रावधान किए गए।
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ब्रिटिश संसद ने कंपनी के कार्यों की प्रतिवेदन रिपोर्ट की मांग शुरू की।
2. पिट्स इंडिया एक्ट, 1784
इस अधिनियम के द्वारा कंपनी और ब्रिटिश सरकार के बीच सत्ता का संतुलन स्थापित किया गया।
मुख्य विशेषताएँ:
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‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ की स्थापना हुई, जिससे कंपनी के राजनीतिक कार्यों पर नियंत्रण रखा गया।
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भारत में दोहरी सरकार की व्यवस्था (Dual System of Governance) शुरू हुई।
3. चार्टर एक्ट (1813, 1833, 1853)
चार्टर एक्ट 1813
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ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया, केवल चीन और चाय के व्यापार में विशेषाधिकार रहा।
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भारत में मिशनरियों को धर्म प्रचार की अनुमति मिली।
चार्टर एक्ट 1833
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भारत में एक केंद्रीय विधायिका की स्थापना की गई।
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लॉर्ड विलियम बेंटिक को भारत का पहला गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया।
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कानून बनाने की शक्ति गवर्नर जनरल की परिषद को दी गई।
चार्टर एक्ट 1853
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विधायिका में अलग-अलग विभागों के विशेषज्ञों की नियुक्ति की गई।
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पहली बार सिविल सेवा में प्रतियोगी परीक्षा द्वारा नियुक्तियों की व्यवस्था की गई।
4. भारत सरकार अधिनियम, 1858
1857 की विद्रोह (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम) के बाद यह अधिनियम पारित हुआ।
मुख्य विशेषताएँ:
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ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया।
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भारत का शासन ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दिया गया।
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ब्रिटेन में एक ‘भारत सचिव’ (Secretary of State for India) की नियुक्ति हुई।
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भारत में ‘वायसराय’ की नियुक्ति की गई, जो भारत में ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधि होता था।
5. भारतीय परिषद अधिनियम (1861, 1892, 1909)
अधिनियम 1861
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विधायी परिषद में गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों को नामित किया गया।
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वायसराय की कार्यकारी परिषद में कानून बनाने की शक्ति दी गई।
अधिनियम 1892
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परिषदों में चर्चा का अधिकार दिया गया।
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कुछ सदस्यों का अप्रत्यक्ष निर्वाचन शुरू हुआ।
मार्ले-मिंटो सुधार अधिनियम 1909
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मुस्लिमों को पृथक निर्वाचिका (Separate Electorate) की सुविधा दी गई।
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भारतीयों को पहली बार विधायी परिषदों में निर्वाचित सदस्य बनने का अधिकार मिला।
6. भारत सरकार अधिनियम, 1919 (मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार)
यह अधिनियम प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारतीयों की राष्ट्रवादी भावना को देखते हुए पारित किया गया।
मुख्य विशेषताएँ:
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प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली (Dyarchy) लागू की गई।
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विषयों को ‘प्रांतीय’ और ‘आरक्षित’ दो भागों में विभाजित किया गया।
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विधान परिषदों का आकार बढ़ाया गया और अधिक भारतीय सदस्यों को शामिल किया गया।
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निर्वाचन व्यवस्था को विस्तारित किया गया।
7. साइमन कमीशन, 1927
इस आयोग की नियुक्ति भारत सरकार अधिनियम 1919 की समीक्षा हेतु की गई, परंतु इसमें कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था।
प्रतिक्रिया:
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देशभर में “साइमन वापस जाओ” का नारा लगा।
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इसने भारत के संविधान में भारतीयों की भागीदारी की मांग को बल दिया।
8. नेहरू रिपोर्ट, 1928
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साइमन कमीशन के बहिष्कार के बाद भारत ने अपने लिए स्वयं संविधान तैयार करने की मांग की।
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पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नेहरू रिपोर्ट तैयार हुई।
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इसमें भारत को डोमिनियन स्टेटस (स्वायत्त राज्य) देने की मांग की गई।
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रिपोर्ट में धर्म के आधार पर पृथक निर्वाचिका का विरोध किया गया।
9. गोलमेज सम्मेलन (1930-1932)
तीन गोलमेज सम्मेलनों का आयोजन लंदन में हुआ, जिसमें भारतीयों ने भाग लिया और भारत के भविष्य के संविधान पर चर्चा हुई।
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पहला सम्मेलन बिना कांग्रेस के हुआ।
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दूसरे सम्मेलन में गांधीजी ने भाग लिया।
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तीसरे सम्मेलन में कोई ठोस परिणाम नहीं निकला।
10. भारत सरकार अधिनियम, 1935
यह अब तक का सबसे विस्तृत और महत्वपूर्ण अधिनियम था।
मुख्य विशेषताएँ:
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संघीय शासन प्रणाली की स्थापना की योजना बनी (हालाँकि संघ लागू नहीं हुआ)।
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प्रांतों में पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता दी गई।
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द्वैध शासन समाप्त कर दिया गया।
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द्विसदनीय विधानमंडल की स्थापना की गई।
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एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई।
यह अधिनियम ही स्वतंत्र भारत के संविधान का आधार बना और 1950 तक इसी व्यवस्था के अंतर्गत शासन चलता रहा।
11. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947
यह अधिनियम भारत की स्वतंत्रता की घोषणा करता है।
मुख्य विशेषताएँ:
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भारत और पाकिस्तान दो स्वतंत्र राष्ट्र बने।
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संविधान सभा को संविधान बनाने की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई।
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ब्रिटिश संसद का भारत पर सभी नियंत्रण समाप्त हुआ।
12. संविधान सभा और भारतीय संविधान का निर्माण
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संविधान सभा का गठन 1946 में हुआ था।
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डॉ. भीमराव अंबेडकर को संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया।
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संविधान का निर्माण लगभग 2 वर्ष, 11 महीने, और 18 दिनों में हुआ।
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26 नवम्बर 1949 को संविधान अंगीकृत हुआ और 26 जनवरी 1950 से यह लागू हुआ।
निष्कर्ष
ब्रिटिश शासनकाल में भारत का संवैधानिक विकास एक क्रमिक और जटिल प्रक्रिया थी। यह प्रक्रिया कंपनी शासन से शुरू होकर ब्रिटिश क्राउन के प्रत्यक्ष शासन, फिर स्वशासन की मांग और अंततः पूर्ण स्वतंत्रता की ओर बढ़ी। इस विकास यात्रा में अनेक अधिनियम, सुधार, आंदोलनों और विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारत सरकार अधिनियम 1935 को भारतीय संविधान का खाका कहा जाता है, क्योंकि इसका ढांचा संविधान सभा ने काफी हद तक अपनाया। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति और 1950 में संविधान लागू होने के साथ भारत ने अपने लोकतांत्रिक और संप्रभु राष्ट्र का सफर शुरू किया। ब्रिटिश काल के संवैधानिक विकास ने भारत को आधुनिक लोकतंत्र की ओर अग्रसर किया और एक मजबूत राजनीतिक व्यवस्था की नींव रखी।
प्रश्न 02. भारत शासन अधिनियम, 1935 का भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के निर्माण में कितना योगदान है।
भारत शासन अधिनियम, 1935 का भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के निर्माण में योगदान
परिचय
भारत शासन अधिनियम, 1935 (Government of India Act, 1935) ब्रिटिश संसद द्वारा पारित वह महत्वपूर्ण अधिनियम था जिसने भारत की प्रशासनिक एवं संवैधानिक संरचना को एक नया रूप प्रदान किया। यह अब तक का सबसे विस्तृत अधिनियम था और इसे भारतीय संविधान का "मूल खाका" (Blueprint) माना जाता है। यह अधिनियम भारत में उत्तरदायी शासन की दिशा में एक निर्णायक कदम था, जिसका प्रभाव स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण पर गहराई से पड़ा।
भारत शासन अधिनियम, 1935 की प्रमुख विशेषताएँ
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संघीय शासन की अवधारणा:
इस अधिनियम के तहत भारत में एक संघीय ढांचे की परिकल्पना की गई जिसमें प्रांतों और रियासतों को मिलाकर एक भारतीय संघ बनाया जाना था। यद्यपि यह संघ व्यवहार में कभी अस्तित्व में नहीं आया, फिर भी इससे भारतीय संविधान में संघीय ढांचे की नींव रखी गई। -
प्रांतीय स्वायत्तता:
अधिनियम ने प्रांतों को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान की, जिससे प्रांतीय मंत्रियों को कार्यपालिका के नियंत्रण की शक्ति प्राप्त हुई। यह व्यवस्था भारत में उत्तरदायी सरकार की दिशा में एक बड़ा कदम था। -
द्विसदनीय विधायिका की स्थापना:
अधिनियम के तहत केंद्र स्तर पर द्विसदनीय विधायिका की स्थापना की गई – 'फेडरल असेंबली' और 'काउंसिल ऑफ स्टेट्स', जो आगे चलकर भारतीय संसद (लोकसभा और राज्यसभा) की संरचना का आधार बना। -
विषयों का त्रि-सूची विभाजन:
पहली बार अधिनियम में विषयों को तीन सूचियों – संघ सूची, प्रांतीय सूची और समवर्ती सूची में बांटा गया। स्वतंत्र भारत के संविधान में भी यह व्यवस्था अपनाई गई। -
संविधान सभा की नींव:
भले ही अधिनियम में संविधान सभा का कोई उल्लेख नहीं था, लेकिन इसकी जटिलताओं और सीमाओं के कारण भारतीय नेताओं में यह भावना जागृत हुई कि भारत को अपना संविधान स्वयं बनाना चाहिए। इससे संविधान सभा के गठन की भूमि तैयार हुई।
स्वतंत्र भारत के संविधान पर अधिनियम, 1935 का प्रभाव
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संघीय संरचना की आधारशिला:
भारतीय संविधान ने संघीय शासन की जो व्यवस्था अपनाई, उसका प्रारूप 1935 के अधिनियम से ही लिया गया। आज भारत एक संघात्मक राज्य है जहां शक्तियों का विभाजन केंद्र और राज्यों के बीच होता है। -
प्रशासनिक ढांचे की निरंतरता:
अधिनियम के तहत स्थापित प्रशासनिक ढांचे – जैसे गवर्नर, वायसराय, कार्यपालिका प्रणाली आदि – स्वतंत्र भारत में राष्ट्रपति, राज्यपाल आदि के रूप में परिवर्तित होकर जारी रहे। -
अधिकारों का विभाजन:
भारतीय संविधान में भी अधिनियम 1935 की तरह विषयों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया है, जो केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के बंटवारे का आधार बनता है। -
न्यायिक व्यवस्था का विकास:
अधिनियम के तहत संघीय न्यायालय की स्थापना हुई थी। यह व्यवस्था स्वतंत्र भारत के सर्वोच्च न्यायालय की आधारशिला बनी। -
लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव:
अधिनियम में सीमित मताधिकार और चुनावी प्रक्रिया की व्यवस्था की गई थी। इससे भारतीय समाज में लोकतांत्रिक चेतना का विकास हुआ, जो संविधान निर्माण के समय अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ।
सीमाएँ और आलोचना
हालाँकि अधिनियम 1935 ने संवैधानिक व्यवस्था का ढाँचा प्रस्तुत किया, फिर भी इसकी कई सीमाएँ थीं:
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इसमें ब्रिटिश संसद और सम्राट को अत्यधिक शक्तियाँ दी गई थीं।
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भारतीयों को पूर्ण उत्तरदायित्व नहीं दिया गया था।
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संघीय व्यवस्था कभी लागू ही नहीं हो सकी क्योंकि देशी रियासतों ने इसमें भाग नहीं लिया।
इन कमियों के कारण भारतीय नेताओं ने यह महसूस किया कि भारत को अपना स्वतंत्र संविधान बनाना चाहिए।
निष्कर्ष
भारत शासन अधिनियम, 1935 ने भारतीय संवैधानिक विकास की प्रक्रिया में एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई। इसने न केवल एक प्रशासनिक ढांचे की नींव रखी, बल्कि भारतीयों को शासन में भागीदारी का अनुभव भी प्रदान किया। स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने में इस अधिनियम की कई संरचनात्मक विशेषताओं को अपनाया गया, जिससे यह कहा जा सकता है कि भारत सरकार अधिनियम, 1935 भारतीय संविधान का पूर्ववर्ती खाका था। इस अधिनियम ने भारत को आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली की ओर अग्रसर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
प्रश्न 03. दोहरे शासन से आप क्या समझते है? सन 1919 के एक्ट के अनुसार यह क्यों जारी किया गया? इसकी क्या विशेषता थी?
दोहरे शासन से आप क्या समझते हैं?
दोहरा शासन (Dyarchy) एक ऐसी शासन प्रणाली थी जिसमें सरकार के कार्यों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया – आरक्षित विषय और स्थानांतरित विषय। आरक्षित विषयों का संचालन ब्रिटिश गवर्नर और उनके सलाहकारों द्वारा किया जाता था, जबकि स्थानांतरित विषयों का कार्यभार भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया था। इस प्रणाली के तहत, एक ही सरकार में दो प्रकार के शासक कार्यरत होते थे – एक उत्तरदायी और दूसरा गैर-उत्तरदायी। इसीलिए इसे 'दोहरा शासन' कहा गया।
सन 1919 के अधिनियम के अनुसार यह क्यों जारी किया गया?
भारत सरकार अधिनियम, 1919 को मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (Montagu-Chelmsford Reforms) के तहत लागू किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य भारतीयों को शासन में अधिक भागीदारी देना था, लेकिन साथ ही ब्रिटिश नियंत्रण भी बनाए रखना था। इस अधिनियम के माध्यम से प्रांतीय स्तर पर ‘दोहरे शासन’ की अवधारणा लागू की गई।
दोहरे शासन को लागू करने के मुख्य कारण:
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भारतीयों की बढ़ती राजनीतिक जागरूकता:
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार का सहयोग किया था, जिसके बदले में उन्हें राजनीतिक अधिकारों की आशा थी। -
ब्रिटिश शासन की नीति:
ब्रिटिशों का उद्देश्य था भारतीयों को सत्ता में सीमित भागीदारी देकर उनके राजनीतिक आंदोलन को शांत करना। -
उत्तरदायित्व का क्रमिक विकास:
ब्रिटिश नीति के अनुसार भारतीयों को एक साथ पूर्ण उत्तरदायित्व नहीं दिया जा सकता था, इसलिए एक मध्यवर्ती व्यवस्था – दोहरा शासन – लागू की गई।
दोहरे शासन की विशेषताएँ
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विषयों का दो भागों में विभाजन:
प्रांतीय शासन को दो भागों में बांटा गया:-
आरक्षित विषय: पुलिस, न्याय, भूमि राजस्व, जेल आदि। ये विषय गवर्नर और उनके गैर-जिम्मेदार सलाहकारों के अधीन थे।
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स्थानांतरित विषय: शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, कृषि आदि। इनका कार्यभार भारतीय मंत्रियों को दिया गया जो जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी थे।
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गवर्नर के पास विशेष अधिकार:
गवर्नर के पास व्यापक अधिकार थे। वह मंत्रियों के निर्णयों को अस्वीकार कर सकता था और आरक्षित विषयों पर पूर्ण नियंत्रण रखता था। -
उत्तरदायित्व की असमानता:
मंत्रियों को स्थानांतरित विषयों पर कार्य करने की अनुमति थी, लेकिन वे पूर्णतः स्वतंत्र नहीं थे क्योंकि गवर्नर उनकी नीतियों को रोक सकता था। -
प्रांतीय विधानमंडलों का गठन:
अधिनियम के अंतर्गत प्रांतों में द्विसदनीय विधानमंडल की व्यवस्था की गई। कुछ सदस्यों का चुनाव होता था और कुछ को मनोनीत किया जाता था। -
वित्तीय अधिकार सीमित:
भारतीय मंत्रियों को बजट प्रस्ताव प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं था, जिससे वे वित्तीय रूप से निर्बल बने रहे।
दोहरे शासन की आलोचना
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सत्ता का अस्पष्ट वितरण:
दोहरे शासन में शक्तियों का बंटवारा स्पष्ट नहीं था, जिससे प्रशासन में भ्रम और टकराव उत्पन्न होता था। -
गवर्नर का अत्यधिक नियंत्रण:
भारतीय मंत्रियों के निर्णय गवर्नर की इच्छा पर निर्भर थे, जिससे वास्तविक उत्तरदायित्व का अभाव था। -
लोकप्रिय असंतोष:
भारतीय नेताओं और जनता ने इसे केवल एक "नाममात्र" सुधार मानकर अस्वीकार किया। महात्मा गांधी और अन्य नेताओं ने इसकी आलोचना की। -
प्रशासन में असंगति:
आरक्षित और स्थानांतरित विषयों में समन्वय का अभाव था, जिससे प्रभावी शासन में बाधा उत्पन्न होती थी।
निष्कर्ष
भारत सरकार अधिनियम, 1919 के अंतर्गत लागू दोहरा शासन भारतीयों को प्रशासन में भागीदारी देने का एक प्रारंभिक प्रयास था। हालांकि यह प्रणाली सफल नहीं रही, लेकिन इसने भारतीयों को शासन चलाने का अनुभव अवश्य प्रदान किया। इसकी कमियों के कारण ही बाद में भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से इस व्यवस्था को समाप्त कर पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता प्रदान की गई। इस प्रकार, दोहरे शासन की प्रणाली भारतीय संविधान के विकास में एक प्रयोगात्मक लेकिन महत्वपूर्ण चरण सिद्ध हुई।
प्रश्न 04: भारतीय संविधान के निर्माण के इतिहास का वर्णन कीजिए।
प्रस्तावना
भारत का संविधान विश्व के सबसे बड़े और विस्तृत लिखित संविधानों में से एक है। इसका निर्माण एक ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी प्रक्रिया का परिणाम है, जिसमें स्वतंत्रता संग्राम की भावना, भारतीय जनता की आकांक्षाएँ, और विविध सामाजिक-धार्मिक पृष्ठभूमियों को ध्यान में रखते हुए एक समावेशी लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव रखी गई। भारतीय संविधान का निर्माण स्वतंत्र भारत को एक सार्वभौम, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने की दिशा में एक निर्णायक कदम था।
संविधान निर्माण की पृष्ठभूमि
भारत में संविधान निर्माण की प्रक्रिया कोई अचानक शुरू हुई प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि यह कई दशकों के राजनीतिक संघर्ष, विचार विमर्श और ब्रिटिश शासन की संवैधानिक सुधारों की श्रृंखला का परिणाम थी।
1. 1858 का भारत शासन अधिनियम
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को समाप्त कर भारत की सत्ता सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दी गई। इसने प्रशासनिक केंद्रीकरण को बढ़ावा दिया।
2. 1861, 1892, और 1909 के अधिनियम
इन अधिनियमों ने धीरे-धीरे भारतीयों को शासन में सीमित भागीदारी देना शुरू किया, लेकिन ये पूरी तरह उत्तरदायी शासन की ओर कदम नहीं थे।
3. 1919 का भारत सरकार अधिनियम
मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के तहत ‘दोहरे शासन’ (Dyarchy) की व्यवस्था लाई गई, जो भारतीयों को स्थानांतरित विषयों पर अधिकार देता था। परंतु यह भी अपर्याप्त और असंतोषजनक सिद्ध हुआ।
4. 1935 का भारत सरकार अधिनियम
यह भारत का सबसे विस्तृत अधिनियम था, जिसमें संघीय ढाँचे, प्रांतीय स्वायत्तता, द्विसदनीय व्यवस्थाएँ और मौलिक अधिकारों की रूपरेखा दी गई। इसी अधिनियम को भारतीय संविधान का ब्लूप्रिंट कहा जाता है।
5. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सहित कई संगठनों ने पूर्ण स्वराज, मौलिक अधिकारों, समानता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र की माँग रखी। 1930 में लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा हुई और 1946 में अंतरिम सरकार का गठन संविधान निर्माण की दिशा में निर्णायक कदम था।
संविधान सभा का गठन
1. कैबिनेट मिशन योजना (1946)
ब्रिटिश सरकार द्वारा भेजे गए कैबिनेट मिशन ने भारत के संविधान निर्माण हेतु संविधान सभा के गठन की योजना बनाई। यह सभा भारत के विभिन्न राज्यों और प्रांतों से चुने गए प्रतिनिधियों का समूह थी।
2. संविधान सभा की रचना
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कुल सदस्य: प्रारंभ में 389 सदस्य (बाद में भारत-पाक विभाजन के बाद 299)
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कांग्रेस के सदस्य: लगभग 208
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अल्पसंख्यकों, रियासतों और अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया।
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सदस्यों का चुनाव प्रांतीय विधानसभाओं द्वारा किया गया।
3. प्रथम बैठक – 9 दिसंबर 1946
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई, जिसकी अध्यक्षता डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने की (अस्थायी अध्यक्ष के रूप में)। 11 दिसंबर को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को स्थायी अध्यक्ष चुना गया।
संविधान निर्माण की प्रक्रिया
1. उद्देशिका (Preamble) की घोषणा
13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ (Objectives Resolution) प्रस्तुत किया गया, जो आगे चलकर संविधान की प्रस्तावना का आधार बना।
2. समितियों का गठन
संविधान सभा ने विभिन्न कार्यों के लिए कुल 22 समितियों का गठन किया। इनमें प्रमुख थीं:
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संविधान प्रारूप समिति (Drafting Committee) – अध्यक्ष: डॉ. भीमराव अंबेडकर
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मौलिक अधिकार समिति – अध्यक्ष: सरदार वल्लभभाई पटेल
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संघीय संबंध समिति – अध्यक्ष: जवाहरलाल नेहरू
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अल्पसंख्यक अधिकार समिति – अध्यक्ष: सरदार पटेल
3. प्रारूप समिति का कार्य
डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में प्रारूप समिति ने विभिन्न संविधानों (अमेरिका, ब्रिटेन, आयरलैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि) का अध्ययन कर एक ऐसा संविधान तैयार किया, जो भारत की विविधता और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करता था।
4. प्रारूप का निर्माण और बहस
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प्रारूप को संविधान सभा के समक्ष 26 नवम्बर 1949 को पारित किया गया।
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इस पर विस्तार से चर्चा हुई, जिसमें कुल 114 दिन बहस हुई।
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संविधान सभा की कार्यवाही खुली और पारदर्शी थी, और प्रेस व जनता को इसमें शामिल होने की अनुमति थी।
संविधान की स्वीकृति और प्रवर्तन
1. संविधान को अंगीकार करना
26 नवम्बर 1949 को संविधान को विधिवत स्वीकार किया गया। इसी दिन को आज ‘संविधान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
2. संविधान का प्रवर्तन
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान पूरी तरह से लागू हुआ और भारत एक गणराज्य बन गया। इस दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में हर वर्ष मनाया जाता है।
संविधान निर्माण की विशेषताएँ
1. लोकतांत्रिक मूल्यों का समावेश
संविधान ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, मौलिक अधिकारों, न्याय, स्वतंत्रता, समानता, और बंधुता जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों को सुनिश्चित किया।
2. संघात्मक ढाँचा
भारत को संघीय ढाँचे में संगठित किया गया जिसमें केन्द्र और राज्य दोनों को शक्तियाँ दी गईं।
3. धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद
संविधान ने धर्म से परे शासन की व्यवस्था और सामाजिक-आर्थिक समानता सुनिश्चित करने हेतु समाजवाद को आधार बनाया।
4. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण
तीनों अंगों की स्पष्ट परिभाषा और शक्तियों का पृथक्करण कर शासन प्रणाली को संतुलित और उत्तरदायी बनाया गया।
5. संशोधन की व्यवस्था
संविधान को समय के अनुसार परिवर्तित और अनुकूल करने के लिए अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधन की व्यवस्था की गई।
महत्वपूर्ण योगदानकर्ताओं की भूमिका
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डॉ. भीमराव अंबेडकर – संविधान के निर्माता और सामाजिक न्याय के प्रबल पक्षधर।
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पंडित जवाहरलाल नेहरू – उद्देश्य प्रस्ताव और संघीय ढाँचे के प्रणेता।
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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद – संविधान सभा के अध्यक्ष और संयमित नेतृत्वकर्ता।
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सरदार पटेल – राज्यों का एकीकरण और प्रशासनिक ढाँचे के सूत्रधार।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान का निर्माण एक दूरदर्शी, विचारशील और समावेशी प्रक्रिया थी, जो विभिन्न विचारधाराओं, वर्गों, भाषाओं और धार्मिक समूहों को साथ लेकर चली। संविधान सभा ने भारतीय समाज की विविधता को समझते हुए एक ऐसा दस्तावेज तैयार किया जो आज भी देश की एकता, अखंडता और लोकतंत्र की रीढ़ बना हुआ है। यह संविधान न केवल एक विधिक दस्तावेज है, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा का संवैधानिक रूपांतरण है।
प्रश्न 05: भारतीय संविधान के देशी तथा विदेशी स्रोतों का वर्णन कीजिए।
प्रस्तावना
भारतीय संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। इसकी विशेषता यह है कि यह न केवल भारतीय संदर्भों, आवश्यकताओं और परंपराओं को समाहित करता है, बल्कि इसमें विभिन्न देशों के संविधानों से प्रेरणा लेकर कई प्रावधानों को सम्मिलित किया गया है। संविधान निर्माताओं ने देशी और विदेशी दोनों स्रोतों से सर्वोत्तम तत्त्व लेकर एक समावेशी और प्रभावी संविधान की रचना की।
A. भारतीय संविधान के देशी (भारतीय) स्रोत
भारतीय संविधान की रचना में भारतीय परंपराओं, सामाजिक-राजनीतिक अनुभवों और ऐतिहासिक विकास की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन देशी स्रोतों में निम्नलिखित प्रमुख हैं:
1. मनुस्मृति और अन्य धर्मशास्त्र
मनु, याज्ञवल्क्य और नारद जैसे धर्मशास्त्रों में विधि, दायित्व और न्याय प्रणाली से संबंधित कई सिद्धांत मौजूद थे, जिन्होंने प्रारंभिक कानूनों की अवधारणा को प्रभावित किया।
2. मौर्य और गुप्त शासन प्रणाली
मौर्यकालीन ‘अर्थशास्त्र’ (कौटिल्य) और गुप्तकालीन प्रशासन में केंद्रीयकृत शासन, कर प्रणाली, न्यायिक व्यवस्था आदि की नींव रखी गई। इन ऐतिहासिक व्यवस्थाओं से प्रशासनिक अनुशासन और उत्तरदायित्व की भावना प्राप्त हुई।
3. मुगल प्रशासन प्रणाली
मुगल शासनकाल की दीवान, फौजदार, सुभेदार प्रणाली ने कार्यपालिका और राजस्व प्रशासन के कुछ तत्त्वों को जन्म दिया। हालाँकि ये तत्त्व ब्रिटिश काल में अधिक व्यवस्थित हुए।
4. ब्रिटिश शासनकाल के अधिनियम
भारत सरकार अधिनियम 1919 और 1935 ने भारत के संविधान का ढांचा तैयार किया:
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1935 का अधिनियम भारतीय संविधान का आधार बना।
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संघात्मक ढांचा, द्विसदनीय व्यवस्था, राज्यों की स्वायत्तता जैसे तत्त्व इसी अधिनियम से लिए गए।
5. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और संविधान सभा
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से प्राप्त लोकतांत्रिक मूल्यों (जैसे मौलिक अधिकार, समानता, स्वतंत्रता, न्याय) ने संविधान के सामाजिक न्याय और लोकतंत्र संबंधी प्रावधानों को मजबूती दी। संविधान सभा द्वारा प्रस्तुत 'उद्देश्य प्रस्ताव' (Objective Resolution) देशी संदर्भों का सार था।
B. भारतीय संविधान के विदेशी स्रोत
संविधान निर्माताओं ने विभिन्न देशों के संविधानों और शासन प्रणालियों का गहन अध्ययन किया और वहाँ से उपयुक्त तत्त्वों को अपनाया। प्रमुख विदेशी स्रोत निम्नलिखित हैं:
1. ब्रिटेन (United Kingdom)
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संसदीय प्रणाली
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विधायिका की सर्वोच्चता
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प्रधानमंत्री की भूमिका और मंत्रिमंडल
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एकल नागरिकता
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कानून के समक्ष समानता और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत
2. अमेरिका (United States of America)
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मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)
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स्वतंत्र न्यायपालिका
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न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review)
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राष्ट्रपति की महाभियोग प्रक्रिया
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उपराष्ट्रपति की भूमिका
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संघीय प्रणाली का कुछ हिस्सा
3. आयरलैंड (Ireland)
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नीति-निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy)
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राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रक्रिया
4. कनाडा (Canada)
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संघात्मक प्रणाली में केंद्र को अधिक शक्तियाँ
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अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र को
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राजपाल की नियुक्ति
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संविधान में संशोधन की प्रक्रिया (कुछ अंश)
5. ऑस्ट्रेलिया (Australia)
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समवर्ती सूची (Concurrent List)
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व्यापार, वाणिज्य और आवागमन की स्वतंत्रता
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अनुच्छेद 51 (पावर डिवीजन की अवधारणा)
6. जर्मनी (Weimar Republic of Germany)
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आपातकालीन शक्तियाँ
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अनुच्छेद 352 से 360 तक भारत में आपातकाल का प्रावधान जर्मन संविधान से प्रेरित है।
7. फ्रांस (France)
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स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व (Liberty, Equality, Fraternity) की भावना
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यह संविधान की प्रस्तावना और मूल अधिकारों में परिलक्षित होती है।
8. दक्षिण अफ्रीका (South Africa)
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संविधान संशोधन प्रक्रिया में कुछ तकनीकी प्रावधान
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राज्यसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व
9. जापान (Japan)
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प्रक्रिया द्वारा स्थापित कानून (Procedure established by law) का सिद्धांत
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भारत के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) में इसका समावेश हुआ।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान की विशेषता ही इसकी विविधता और समावेशिता है। यह न केवल भारतीय संस्कृति, सामाजिक संरचना और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से प्रेरित है, बल्कि विश्व के अनेक संविधानों से सर्वोत्तम तत्त्व लेकर उन्हें भारतीय संदर्भ में ढाला गया है। यह संविधान भारतीय लोकतंत्र की मजबूत नींव है, जो देश की एकता, अखंडता, और विविधता को बनाए रखने में सक्षम है। देशी और विदेशी स्रोतों का यह संयोजन भारतीय संविधान को विशिष्ट और जीवंत बनाता है।
प्रश्न 06: "भारतीय संविधान की उद्देशिका आज तक अंकित इस प्रकार के प्रलेखों में सबसे उत्तम है।" – इसकी व्याख्या कीजिए।
प्रस्तावना
भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) को संविधान की आत्मा कहा जाता है। यह न केवल संविधान की भूमिका है, बल्कि भारतीय गणराज्य की मूल भावना, उद्देश्य और सिद्धांतों को भी स्पष्ट रूप से व्यक्त करती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे संविधान की "संक्षिप्त प्रस्तावना" कहा है, जो इसकी आत्मा और दिशा दोनों को दर्शाती है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने उद्देशिका को “संविधान की पहचान का परिचय पत्र” माना।
उद्देशिका का पाठ
“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए; तथा उसके समस्त नागरिकों को:
न्याय – सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक;
स्वतंत्रता – विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की;
समता – प्रतिष्ठा और अवसर की समानता को सुनिश्चित करने के लिए;
और
उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली
बंधुता को बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर 1949 को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
उद्देशिका की विशेषताएँ जो इसे सर्वोत्तम बनाती हैं
1. “भारत के लोग” की संप्रभुता
उद्देशिका की शुरुआत “हम भारत के लोग” से होती है, जो यह स्पष्ट करता है कि सत्ता का अंतिम स्रोत जनता है, न कि कोई राजा, धर्मगुरु या सेना। यह लोकतंत्र की बुनियाद है।
2. स्पष्ट आदर्शों की घोषणा
संविधान के चार प्रमुख आदर्श – सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्नता, समाजवाद, पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र – उद्देशिका में स्पष्ट रूप से अंकित हैं, जो इसे आदर्श संविधान बनाते हैं।
3. व्यापक सामाजिक उद्देश्य
न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता जैसे मूल्यों को उद्देशिका में प्रमुखता दी गई है। ये सार्वभौमिक मूल्य हैं, जो प्रत्येक नागरिक के अधिकारों और कर्तव्यों की नींव रखते हैं।
4. एकता और अखंडता पर बल
भारत जैसे विविधताओं वाले देश में राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। उद्देशिका इस बात को सुनिश्चित करने की भावना को सशक्त करती है।
5. सभी नागरिकों के लिए समान अवसर
उद्देशिका प्रत्येक नागरिक को समान अवसर और प्रतिष्ठा देने की गारंटी देती है, जो एक समतामूलक समाज की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है।
अन्य देशों की उद्देशिकाओं से तुलना
दुनिया के कई देशों के संविधान में उद्देशिका होती है, जैसे अमेरिका, फ्रांस, जापान आदि। लेकिन भारतीय संविधान की उद्देशिका को विशेष रूप से सराहा गया है क्योंकि इसमें न केवल कानूनी दृष्टिकोण बल्कि नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आदर्शों को भी शामिल किया गया है।
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और अन्य अंतरराष्ट्रीय विचारकों ने भी भारतीय उद्देशिका को मानव मूल्यों की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति कहा है।
न्यायिक व्याख्या और महत्व
1. केशवानंद भारती केस (1973)
इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उद्देशिका संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का अभिन्न हिस्सा है और इसे बदला नहीं जा सकता।
2. उद्देशिका का न्यायिक उपयोग
न्यायालयों ने अनेक बार उद्देशिका का उपयोग संविधान की व्याख्या करने और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा हेतु किया है।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान की उद्देशिका केवल शब्दों का समूह नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र, समता, सामाजिक न्याय और मानव गरिमा की गहराई से प्रतिबद्ध अभिव्यक्ति है। इसकी भाषा, उद्देश्य और सार्वभौमिकता इसे विश्व के किसी भी संविधान की उद्देशिका से श्रेष्ठ बनाते हैं। यही कारण है कि यह कहा गया है –
“भारतीय संविधान की उद्देशिका आज तक अंकित इस प्रकार के प्रलेखों में सबसे उत्तम है।”
प्रश्न 07: आप इस बात से कहाँ तक सहमत हैं कि भारतीय संविधान एकात्मक लक्षणों वाले संघात्मक शासन की स्थापना करता है?
प्रस्तावना
भारतीय संविधान का संघात्मक ढांचा (Federal Structure) उसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। संविधान ने भारत को एक ऐसा संघ बनाया है जिसमें राज्यों और केंद्र दोनों के अधिकार स्पष्ट रूप से विनियमित हैं। परंतु, यह संघ केवल कठोर संघ (Rigid Federation) नहीं, बल्कि एक ऐसा मिश्रित स्वरूप है जिसमें एकात्मक (Unitary) लक्षण भी दिखाई देते हैं। इसलिए इसे एक “एकात्मक लक्षणों वाला संघात्मक शासन” कहा जाता है।
मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि भारतीय संविधान ने एक ऐसे संघ की स्थापना की है जो संघात्मक होने के साथ-साथ एकात्मक तत्व भी समाहित करता है। इसके कई कारण और उदाहरण निम्नलिखित हैं।
भारतीय संविधान में संघात्मक शासन के लक्षण
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दो स्तरों की सरकारें:
भारतीय संविधान ने केंद्र और राज्यों की दो अलग-अलग सरकारों की व्यवस्था की है, जिनके अधिकार और कार्य स्पष्ट रूप से वर्णित हैं। -
संविधान की सर्वोच्चता:
संविधान केंद्र और राज्यों दोनों के लिए सर्वोच्च कानून है। -
विधायी शक्तियों का विभाजन:
विधायी शक्तियों को संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची में बाँटा गया है। -
संघीय न्यायपालिका:
संघीय विवादों को निपटाने के लिए उच्चतम न्यायालय का प्रावधान है।
भारतीय संविधान में एकात्मक लक्षण
भारतीय संविधान की संघात्मक व्यवस्था में कुछ ऐसे तत्व भी हैं जो इसे एकात्मक शासन की ओर ले जाते हैं, जैसे:
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संघ की सर्वोच्चता:
संघ की सरकार के पास राज्यों पर नियंत्रण करने के लिए व्यापक अधिकार हैं। उदाहरण के लिए, आपातकाल की स्थिति में केंद्र की सत्ता बढ़ जाती है। -
राज्यों का अधीनस्थ होना:
राज्य सरकारें संविधान के प्रति उत्तरदायी हैं, और केंद्र के आदेशों का पालन करना अनिवार्य है। -
विधान सभा का विघटन:
केंद्र के पास राज्यों की विधान सभाओं को भंग करने का अधिकार है (आर्टिकल 356 के तहत)। -
वित्तीय निर्भरता:
राज्यों की वित्तीय निर्भरता केंद्र पर बहुत अधिक है, जो संघ की एकात्मकता को बढ़ाता है। -
संविधान संशोधन की एकात्मक प्रक्रिया:
अधिकांश संवैधानिक संशोधन केंद्र की सहमति से होते हैं।
संघात्मक और एकात्मक तत्त्वों का संतुलन
भारतीय संविधान निर्माताओं ने संघात्मक और एकात्मक तत्वों का संतुलन साधा है। भारत जैसे विशाल, विविध और बहुभाषी देश के लिए यह संतुलन अत्यंत आवश्यक था। यदि संविधान केवल कठोर संघात्मक होता, तो राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ सकती थी। दूसरी ओर, यदि वह पूरी तरह एकात्मक होता, तो राज्यों की स्वायत्तता बाधित होती।
इस प्रकार, भारतीय संविधान में संघीयता के साथ-साथ एकात्मक शासन के तत्व इस प्रकार मिश्रित हैं कि यह दोनों के बीच एक संतुलित और व्यवहारिक शासन व्यवस्था प्रदान करता है।
निष्कर्ष
मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि भारतीय संविधान एकात्मक लक्षणों वाले संघात्मक शासन की स्थापना करता है। इसका संघीय ढांचा केंद्र और राज्यों को अधिकार देता है, लेकिन साथ ही केंद्र को राज्य सरकारों पर आवश्यक नियंत्रण भी देता है। इस संतुलन ने भारत के लोकतंत्र और एकता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसलिए भारतीय संघ को एक “संयुक्त राज्य” या “संघात्मक एकात्मकता” कहा जा सकता है।
प्रश्न 08: नागरिकता का अर्थ बताते हुए इसके ऐतिहासिक विकास पर विस्तृत विवेचना प्रस्तुत कीजिए।
1. नागरिकता का अर्थ
नागरिकता (Citizenship) का अर्थ है किसी व्यक्ति का एक विशेष देश का सदस्य होना, जिसके साथ वह देश का राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी सम्बन्ध होता है। नागरिकता के तहत व्यक्ति को उस देश के अधिकार, कर्तव्य, और संरक्षण प्राप्त होते हैं। सरल शब्दों में, नागरिकता वह सामाजिक-राजनैतिक स्थिति है जिसके माध्यम से व्यक्ति को देश की जनता का अधिकार प्राप्त होता है और वह राज्य के संविधान एवं कानूनों का पालन करने के साथ-साथ राज्य से भी संरक्षण प्राप्त करता है।
नागरिकता के मुख्य तत्व हैं:
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सदस्यता: व्यक्ति का किसी देश के राजनीतिक समुदाय में सम्मिलित होना।
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अधिकार: चुनाव, संपत्ति, न्याय, स्वतंत्रता आदि अधिकार।
-
कर्तव्य: राज्य के प्रति निष्ठा, कानून पालन, कर भुगतान आदि।
-
संबंध: व्यक्ति और राज्य के बीच कानूनी और राजनीतिक संबंध।
2. नागरिकता का ऐतिहासिक विकास
(1) प्राचीन काल में नागरिकता
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ग्रीक नगर-राज्य (City-State):
प्राचीन यूनान में नागरिकता का जन्म हुआ। उस समय के नगर-राज्यों (जैसे एथेंस) में नागरिकता सीमित थी। केवल वे व्यक्ति जिन्हें माता-पिता से नागरिकता मिली थी या जिन्होंने विशेष अधिकार प्राप्त किए थे, उन्हें ही नागरिक माना जाता था। नागरिकों को शासन में भाग लेने, मतदान करने और सार्वजनिक कार्यों में नियुक्त होने के अधिकार प्राप्त थे। इसके विपरीत, महिलाएँ, दास और विदेशी नागरिकता के बाहर थे। -
रोमन गणराज्य और साम्राज्य:
रोम में नागरिकता का विस्तार हुआ। रोमन नागरिकता एक कानूनी स्थिति थी, जो व्यक्ति को न्यायिक सुरक्षा, संपत्ति के अधिकार और राजनीतिक भागीदारी देती थी। बाद में, रोमन साम्राज्य ने अपनी नागरिकता को अन्य क्षेत्रों तक फैलाया, जिससे नागरिकता का एक अधिक व्यापक और समावेशी स्वरूप विकसित हुआ।
(2) मध्यकालीन काल में नागरिकता
मध्यकालीन यूरोप में नागरिकता की अवधारणा अधिक स्थानीय और सीमित हो गई। इस समय राज्य की सत्ता राजा या स्थानीय फ्यूडल लॉर्ड के हाथ में थी और नागरिकता का अधिकार एक व्यक्तिगत या सामंती संरचना में सीमित था।
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फ्यूडल सिस्टम:
राजा के प्रति निष्ठा और सामंती कर्तव्यों को अधिक महत्व दिया गया। किसी क्षेत्र का निवासी होने का अधिकार और स्थायी निवास ही नागरिकता के समान माना जाता था, लेकिन राजनीतिक अधिकार सीमित थे। -
शहरों और नगरों का विकास:
शहरीकरण के साथ कुछ शहरों ने अपने नागरिकों को विशेष अधिकार और संरक्षण देना शुरू किया, जिसे "बर्गेज" (Burgess) कहा गया। ये नागरिक शहर की दीवारों के भीतर निवास करने वाले स्वतंत्र नागरिक होते थे।
(3) आधुनिक काल में नागरिकता का विकास
आधुनिक युग में नागरिकता की अवधारणा लोकतंत्र, मानवाधिकार, और राष्ट्रीयता के विकास के साथ विकसित हुई।
-
फ्रांसीसी क्रांति और नागरिकता:
1789 की फ्रांसीसी क्रांति ने नागरिकता को लोकतांत्रिक अधिकारों से जोड़ा। “समानता, स्वतंत्रता, बंधुता” के सिद्धांतों के तहत नागरिकता सभी को समान अधिकार देने का प्रतीक बनी। -
राष्ट्रीय राज्य की स्थापना:
19वीं और 20वीं सदी में राष्ट्र-राज्य (Nation-State) के उदय के साथ नागरिकता का संबंध केवल स्थानिक सदस्यता से बढ़कर एक राष्ट्रीय पहचान में बदल गया। -
नागरिक अधिकार और मताधिकार का विस्तार:
समय के साथ महिलाओं, अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़े वर्गों को भी नागरिक अधिकार प्राप्त हुए।
(4) आधुनिक समय में नागरिकता
आज की नागरिकता केवल राष्ट्रीयता तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें कई आधुनिक सिद्धांत शामिल हैं:
-
बहु-आयामी नागरिकता: व्यक्ति के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक अधिकारों का समावेश।
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वैश्वीकरण का प्रभाव: आज नागरिकता का अर्थ वैश्विक संदर्भ में भी समझा जाने लगा है, जहाँ प्रवासियों और द्वि-नागरिकता की अवधारणा भी सामने आई है।
-
मानवाधिकार: नागरिकता के अधिकारों का आधार अब मानवाधिकार सिद्धांत भी बन गया है।
3. भारतीय संदर्भ में नागरिकता का विकास
प्राचीन भारत में नागरिकता
-
प्राचीन भारत में भी नागरिकता के समान अवधारणा थी, जहाँ व्यक्ति का सामाजिक और धार्मिक कर्तव्य महत्वपूर्ण था। राजा के प्रति निष्ठा और समाज के प्रति दायित्व नागरिकता के हिस्से थे।
ब्रिटिश शासनकाल में नागरिकता की समझ
-
ब्रिटिश शासनकाल में नागरिकता की अवधारणा सीमित और असमान थी। केवल कुछ वर्गों को ही राजनीतिक अधिकार मिले थे।
-
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नागरिकता की आधुनिक अवधारणा उभरी, जिसमें सभी नागरिकों को समान अधिकार देने की माँग हुई।
स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान में नागरिकता
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भारतीय संविधान ने नागरिकता को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया।
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भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के माध्यम से नागरिकता के नियम बनाए गए।
-
संविधान की धारा 5 से 11 तक नागरिकता के प्रावधान हैं, जिसमें जन्म, वंश, पंजीकरण, स्वीकृति आदि के आधार पर नागरिकता दी जाती है।
4. निष्कर्ष
नागरिकता का अर्थ किसी व्यक्ति का अपने देश के साथ कानूनी, राजनीतिक और सामाजिक संबंध होता है। इसका ऐतिहासिक विकास प्राचीन नगर-राज्यों से लेकर आधुनिक राष्ट्र-राज्यों तक हुआ है। समय के साथ यह अधिकारों और कर्तव्यों का एक समुच्चय बन गया है। भारतीय संदर्भ में भी नागरिकता की परिभाषा और अधिकारों का विकास स्वतंत्रता संग्राम से लेकर संविधान के निर्माण तक हुआ है। इसलिए नागरिकता आज लोकतंत्र का आधार और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण पक्ष है।
प्रश्न 09: भारतीय नागरिकता के अर्जन एवं समाप्ति की विधियों का वर्णन कीजिए।
परिचय
भारतीय नागरिकता किसी व्यक्ति का भारत देश का वैधानिक सदस्य होना है, जिसके आधार पर उसे देश के संविधान, कानूनों और सरकारी नीतियों के तहत अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। भारतीय संविधान एवं भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 में नागरिकता प्राप्त करने और समाप्त होने के नियम स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं। इस उत्तर में हम नागरिकता के अर्जन और समाप्ति के प्रमुख तरीकों का विवरण करेंगे।
1. भारतीय नागरिकता के अर्जन की विधियाँ
भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के निम्नलिखित मुख्य तरीके हैं:
(1) जन्म के आधार पर नागरिकता
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भारत में जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति नागरिक माना जाता है, लेकिन इसके लिए कुछ नियम हैं।
-
संविधान के अनुसार, 26 जनवरी 1950 से पहले जन्मे व्यक्तियों को स्वतः भारतीय नागरिक माना गया।
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26 जनवरी 1950 से 1 जुलाई 1987 तक जन्मे व्यक्ति को भारत में जन्म लेने पर नागरिकता मिलती है यदि उनके माता-पिता में से कोई भी भारतीय नागरिक हो।
-
1 जुलाई 1987 के बाद जन्मे व्यक्ति को तब ही नागरिकता प्राप्त होगी जब उसके पिता या माता दोनों में से कोई एक भारतीय नागरिक हो।
(2) वंश के आधार पर (वंशवाद - Jus sanguinis)
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यदि किसी व्यक्ति के माता-पिता भारतीय नागरिक हैं, तो वह व्यक्ति स्वचालित रूप से भारतीय नागरिक होता है, चाहे उसका जन्म भारत में हो या विदेश में।
-
भारतीय नागरिकता अधिनियम की धारा 3 इसके लिए प्रावधान करती है।
(3) पंजीकरण (Registration)
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कुछ विशेष वर्गों के लिए नागरिकता पंजीकरण के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है, जैसे पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थी, एनआरआई, गोवा के निवासी आदि।
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यह विधि विशेष परिस्थितियों में लागू होती है, जैसे विवाह के आधार पर या किसी राज्य की सरकार द्वारा अनुमति मिलने पर।
(4) स्वीकृति (Naturalization)
-
यह विधि विदेशी नागरिकों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने के लिए है।
-
इसके लिए विदेशी व्यक्ति को भारत में लगातार 12 वर्ष निवास करना आवश्यक है।
-
स्वीकृति के लिए आवेदन करना पड़ता है और यह भारत सरकार की मंजूरी के अधीन होता है।
-
स्वीकृति मिलने पर व्यक्ति को भारतीय नागरिकता का प्रमाणपत्र दिया जाता है।
(5) वापसी की नागरिकता (Citizenship by Resumption)
-
पूर्व में भारतीय नागरिक रहे व्यक्ति जो विदेश में स्थायी निवासी बन गया था, वह कुछ शर्तों के अधीन पुनः भारतीय नागरिकता प्राप्त कर सकता है।
2. भारतीय नागरिकता की समाप्ति की विधियाँ
भारतीय नागरिकता समाप्त होने के कुछ प्रमुख कारण हैं:
(1) त्यागपत्र (Renunciation)
-
कोई भी भारतीय नागरिक अपनी इच्छा से नागरिकता त्याग सकता है।
-
इसके लिए केंद्र सरकार को लिखित आवेदन देना होता है।
-
त्यागपत्र देने वाला व्यक्ति भारतीय नागरिकता खो देता है लेकिन वह देश से बाहर भी जा सकता है।
(2) विसर्जन (Deprivation)
-
यदि कोई व्यक्ति धोखे, झूठ, या गलत तरीके से नागरिकता प्राप्त करता है, तो उसे सरकार द्वारा नागरिकता से वंचित किया जा सकता है।
-
यह प्रावधान अनुच्छेद 11 के तहत भारतीय नागरिकता अधिनियम में भी शामिल है।
-
उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति देश के खिलाफ साजिश करता है या गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त पाया जाता है, तो उसकी नागरिकता समाप्त की जा सकती है।
(3) विदेशी नागरिकता प्राप्त करना (Acquisition of Foreign Citizenship)
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यदि कोई भारतीय नागरिक किसी अन्य देश की नागरिकता स्वीकार करता है, तो भारतीय कानून के अनुसार उसकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाती है।
-
भारत बहु-नागरिकता की अनुमति नहीं देता।
(4) मृत्यु
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किसी व्यक्ति की मृत्यु के साथ उसकी नागरिकता स्वतः समाप्त हो जाती है।
निष्कर्ष
भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के अनेक विधि-व्यवस्था संविधान और भारतीय नागरिकता अधिनियम के अंतर्गत निर्धारित हैं। जन्म, वंश, पंजीकरण, स्वीकृति एवं वापसी के माध्यम से नागरिकता अर्जित की जा सकती है, जबकि त्यागपत्र, विसर्जन, विदेशी नागरिकता स्वीकारना एवं मृत्यु के कारण नागरिकता समाप्त हो जाती है। यह स्पष्ट नियम भारत में नागरिकता के न्यायसंगत एवं सुव्यवस्थित प्रबंधन को सुनिश्चित करते हैं।
प्रश्न 10: मौलिक अधिकार से आप क्या समझते हैं? मौलिक अधिकारों की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
परिचय
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) वे बुनियादी अधिकार हैं जो प्रत्येक भारतीय नागरिक को समान रूप से प्राप्त होते हैं। ये अधिकार संविधान के अनुच्छेद 12 से 35 तक विस्तृत रूप में दिये गए हैं। मौलिक अधिकारों का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता, गरिमा और न्याय को सुनिश्चित करना है। ये अधिकार भारतीय लोकतंत्र का आधार हैं, जो नागरिकों को सरकार के दुरुपयोग से बचाते हैं और उन्हें स्वतंत्र एवं सम्मानपूर्वक जीवन बिताने का अवसर देते हैं।
मौलिक अधिकार का अर्थ
‘मौलिक’ का अर्थ है ‘अत्यंत आवश्यक’ या ‘आधारभूत’। ‘अधिकार’ का अर्थ है ‘कानूनी अधिकार’। अतः मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्ति के स्वाभाविक और न्यायसंगत अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं। ये अधिकार न केवल व्यक्ति की रक्षा करते हैं, बल्कि उसे अपनी प्रतिभा का विकास करने, अपनी इच्छा-स्वतंत्रता का प्रयोग करने तथा सामाजिक-राजनीतिक जीवन में भाग लेने की स्वतंत्रता भी देते हैं।
मौलिक अधिकारों का महत्व
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व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा: सरकार के अधीन व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं अधिकारों की रक्षा।
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समानता और न्याय का संरक्षण: जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव रोकना।
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लोकतंत्र को सशक्त बनाना: प्रत्येक नागरिक को सरकार के निर्णयों में भागीदारी और अपनी आवाज़ उठाने का अवसर।
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सामाजिक सुधार: कमजोर वर्गों को अधिकार देकर समाज में समानता स्थापित करना।
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संविधान की संप्रभुता का संरक्षण: मौलिक अधिकार संविधान की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करते हैं।
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का विकास
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की अवधारणा ब्रिटिश शासनकाल के बाद स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा से आई। स्वतंत्रता संग्राम के नेता जैसे महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और न्याय के अधिकारों पर बल दिया। संविधान सभा ने ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस और आयरलैंड के संविधान से प्रभावित होकर मौलिक अधिकारों का समावेश किया।
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के प्रकार
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार मुख्यतः छह श्रेणियों में विभाजित हैं:
1. समानता का अधिकार (Right to Equality) — अनुच्छेद 14 से 18
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सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार।
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राज्य द्वारा किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव न करना।
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समान अवसर और अभेद्यता से बचाव।
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जाति, धर्म, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेदभाव निषेध।
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जाति प्रथा और अछूत व्यवस्था का अंत।
2. स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) — अनुच्छेद 19 से 22
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व्यक्तियों को अपने विचार व्यक्त करने, सभा करने, संघ बनाने, आवागमन, निवास परिवर्तन, व्यवसाय करने की स्वतंत्रता।
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अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार।
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गिरफ्तारी और निरुद्धि के उचित नियम।
3. शोषण से सुरक्षा (Protection against Exploitation) — अनुच्छेद 23 और 24
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मानव व्यापार और दासता निषेध।
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बाल श्रम निषेध।
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) — अनुच्छेद 25 से 28
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किसी भी धर्म को मानने, पालन करने, प्रचार करने की स्वतंत्रता।
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धार्मिक स्थलों की रक्षा।
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धार्मिक शिक्षा की स्वतंत्रता।
5. संवैधानिक उपचार का अधिकार (Cultural and Educational Rights) — अनुच्छेद 29 और 30
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अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति, भाषा, धर्म का संरक्षण।
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अल्पसंख्यक समुदायों को शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार।
6. संवैधानिक उपचार (Right to Constitutional Remedies) — अनुच्छेद 32
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मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर सुप्रीम कोर्ट से प्रत्यक्ष न्याय की मांग करने का अधिकार।
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इसे ‘संविधान का हृदय’ माना जाता है।
मौलिक अधिकारों के विशेष गुण
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सर्वप्रिय अधिकार: ये सभी नागरिकों को समान रूप से मिलते हैं।
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संवैधानिक सुरक्षा: मौलिक अधिकारों का उल्लंघन संविधान विरोधी माना जाता है।
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न्यायालयीन संरक्षण: नागरिक उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकते हैं।
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न्यूनतम हस्तक्षेप: राज्य को इन्हें प्रतिबंधित करने के लिए सख्त कारण और प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।
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समय-समय पर संशोधन: संविधान में संशोधन के माध्यम से मौलिक अधिकारों में सुधार या संशोधन किया जा सकता है।
मौलिक अधिकारों के प्रतिबंध और सीमाएँ
मौलिक अधिकार पूर्णतया अविनाशी नहीं हैं, इन्हें कुछ सीमाओं और प्रतिबंधों के अधीन रखा गया है ताकि वे सामाजिक व्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित न करें।
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अनुच्छेद 19 में कुछ स्वतंत्रताओं पर ‘सार्वजनिक व्यवस्था’, ‘सुरक्षा’, ‘नैतिकता’ जैसे कारणों से प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं।
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सार्वजनिक स्वास्थ्य, राज्य सुरक्षा, नैतिकता, और अन्य नागरिक अधिकारों के संरक्षण के लिए सीमाएं आवश्यक हैं।
मौलिक अधिकारों का सामाजिक एवं राजनैतिक महत्व
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नागरिकों का सशक्तिकरण: ये अधिकार नागरिकों को अपने हितों की रक्षा के लिए सक्षम बनाते हैं।
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समाज में न्याय: जाति, धर्म या आर्थिक स्थिति के बावजूद समान अधिकार सुनिश्चित करते हैं।
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लोकतंत्र की मजबूती: सरकार पर नियंत्रण रखकर लोकतांत्रिक प्रणाली को स्वस्थ रखते हैं।
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मानवाधिकार संरक्षण: मौलिक अधिकार मानवाधिकारों का एक रूप हैं, जो व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करते हैं।
निष्कर्ष
मौलिक अधिकार भारतीय संविधान की आत्मा हैं, जो नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता, न्याय और सम्मान प्रदान करते हैं। ये अधिकार न केवल व्यक्तिगत विकास का आधार हैं, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय एकता को भी सुदृढ़ करते हैं। संविधान ने इन अधिकारों को सशक्त और प्रभावी बनाने के लिए कई न्यायिक एवं कानूनी व्यवस्थाएँ की हैं, ताकि भारत एक लोकतांत्रिक, समावेशी और न्यायसंगत राष्ट्र बन सके। मौलिक अधिकारों की रक्षा करना हर नागरिक और सरकार का कर्तव्य है।
दोस्तों , बाकी के प्रश्न आपको अगली पोस्ट में मिलेंगे , और जल्द ही यह पोस्ट अपलोड कर दी जाएगी। धन्यवाद!