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UOU BAPS(N)202 , भारतीय राजव्यवस्था TOP 25 MOST IMPORTANT SOLVED QUESTION 2025

नमस्कार दोस्तों,
आज की इस पोस्ट के माध्यम से हम आपके लिए लेकर आए हैं, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के बीए० के 4th सेमेस्टर के विषय BAPS(N)202 से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण सॉल्व्ड प्रश्न।

भारतीय राजव्यवस्था 

BAPS(N)202 भारतीय राजव्यवस्था
BA 4th Sem - Important Q&A PDF
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प्रश्न 01. ब्रिटिश काल में भारत के संवैधानिक विकास पर एक विस्तृत लेख लिखिए।

परिचय
भारत में संवैधानिक विकास की प्रक्रिया अंग्रेजों के शासनकाल में आरंभ हुई। जब अंग्रेजों ने भारत में शासन स्थापित किया, तब उनका उद्देश्य केवल व्यापार करना था, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने भारत पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया। इस शासन व्यवस्था को व्यवस्थित करने हेतु उन्होंने कई अधिनियमों और सुधारों की शृंखला प्रारंभ की, जो अंततः भारत में एक विधिसम्मत शासन व्यवस्था और स्वतंत्रता की नींव बन गए।

ब्रिटिश शासनकाल में भारत का संवैधानिक विकास मुख्य रूप से निम्नलिखित चरणों में हुआ:


1. रेगुलेटिंग एक्ट, 1773

यह अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियंत्रित करने हेतु पारित किया गया था। यह भारत में संवैधानिक विकास की दिशा में पहला कदम माना जाता है।

मुख्य विशेषताएँ:

  • बंगाल के गवर्नर को ‘गवर्नर जनरल’ का पद प्रदान किया गया। पहला गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स बना।

  • एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद का गठन हुआ।

  • कंपनी के कर्मचारियों को भ्रष्टाचार से रोकने के लिए प्रावधान किए गए।

  • ब्रिटिश संसद ने कंपनी के कार्यों की प्रतिवेदन रिपोर्ट की मांग शुरू की।


2. पिट्स इंडिया एक्ट, 1784

इस अधिनियम के द्वारा कंपनी और ब्रिटिश सरकार के बीच सत्ता का संतुलन स्थापित किया गया।

मुख्य विशेषताएँ:

  • ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ की स्थापना हुई, जिससे कंपनी के राजनीतिक कार्यों पर नियंत्रण रखा गया।

  • भारत में दोहरी सरकार की व्यवस्था (Dual System of Governance) शुरू हुई।


3. चार्टर एक्ट (1813, 1833, 1853)

चार्टर एक्ट 1813

  • ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया, केवल चीन और चाय के व्यापार में विशेषाधिकार रहा।

  • भारत में मिशनरियों को धर्म प्रचार की अनुमति मिली।

चार्टर एक्ट 1833

  • भारत में एक केंद्रीय विधायिका की स्थापना की गई।

  • लॉर्ड विलियम बेंटिक को भारत का पहला गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया।

  • कानून बनाने की शक्ति गवर्नर जनरल की परिषद को दी गई।

चार्टर एक्ट 1853

  • विधायिका में अलग-अलग विभागों के विशेषज्ञों की नियुक्ति की गई।

  • पहली बार सिविल सेवा में प्रतियोगी परीक्षा द्वारा नियुक्तियों की व्यवस्था की गई।


4. भारत सरकार अधिनियम, 1858

1857 की विद्रोह (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम) के बाद यह अधिनियम पारित हुआ।

मुख्य विशेषताएँ:

  • ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया।

  • भारत का शासन ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दिया गया।

  • ब्रिटेन में एक ‘भारत सचिव’ (Secretary of State for India) की नियुक्ति हुई।

  • भारत में ‘वायसराय’ की नियुक्ति की गई, जो भारत में ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधि होता था।


5. भारतीय परिषद अधिनियम (1861, 1892, 1909)

अधिनियम 1861

  • विधायी परिषद में गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों को नामित किया गया।

  • वायसराय की कार्यकारी परिषद में कानून बनाने की शक्ति दी गई।

अधिनियम 1892

  • परिषदों में चर्चा का अधिकार दिया गया।

  • कुछ सदस्यों का अप्रत्यक्ष निर्वाचन शुरू हुआ।

मार्ले-मिंटो सुधार अधिनियम 1909

  • मुस्लिमों को पृथक निर्वाचिका (Separate Electorate) की सुविधा दी गई।

  • भारतीयों को पहली बार विधायी परिषदों में निर्वाचित सदस्य बनने का अधिकार मिला।


6. भारत सरकार अधिनियम, 1919 (मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार)

यह अधिनियम प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारतीयों की राष्ट्रवादी भावना को देखते हुए पारित किया गया।

मुख्य विशेषताएँ:

  • प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली (Dyarchy) लागू की गई।

  • विषयों को ‘प्रांतीय’ और ‘आरक्षित’ दो भागों में विभाजित किया गया।

  • विधान परिषदों का आकार बढ़ाया गया और अधिक भारतीय सदस्यों को शामिल किया गया।

  • निर्वाचन व्यवस्था को विस्तारित किया गया।


7. साइमन कमीशन, 1927

इस आयोग की नियुक्ति भारत सरकार अधिनियम 1919 की समीक्षा हेतु की गई, परंतु इसमें कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था।

प्रतिक्रिया:

  • देशभर में “साइमन वापस जाओ” का नारा लगा।

  • इसने भारत के संविधान में भारतीयों की भागीदारी की मांग को बल दिया।


8. नेहरू रिपोर्ट, 1928

  • साइमन कमीशन के बहिष्कार के बाद भारत ने अपने लिए स्वयं संविधान तैयार करने की मांग की।

  • पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नेहरू रिपोर्ट तैयार हुई।

  • इसमें भारत को डोमिनियन स्टेटस (स्वायत्त राज्य) देने की मांग की गई।

  • रिपोर्ट में धर्म के आधार पर पृथक निर्वाचिका का विरोध किया गया।


9. गोलमेज सम्मेलन (1930-1932)

तीन गोलमेज सम्मेलनों का आयोजन लंदन में हुआ, जिसमें भारतीयों ने भाग लिया और भारत के भविष्य के संविधान पर चर्चा हुई।

  • पहला सम्मेलन बिना कांग्रेस के हुआ।

  • दूसरे सम्मेलन में गांधीजी ने भाग लिया।

  • तीसरे सम्मेलन में कोई ठोस परिणाम नहीं निकला।


10. भारत सरकार अधिनियम, 1935

यह अब तक का सबसे विस्तृत और महत्वपूर्ण अधिनियम था।

मुख्य विशेषताएँ:

  • संघीय शासन प्रणाली की स्थापना की योजना बनी (हालाँकि संघ लागू नहीं हुआ)।

  • प्रांतों में पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता दी गई।

  • द्वैध शासन समाप्त कर दिया गया।

  • द्विसदनीय विधानमंडल की स्थापना की गई।

  • एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई।

यह अधिनियम ही स्वतंत्र भारत के संविधान का आधार बना और 1950 तक इसी व्यवस्था के अंतर्गत शासन चलता रहा।


11. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947

यह अधिनियम भारत की स्वतंत्रता की घोषणा करता है।

मुख्य विशेषताएँ:

  • भारत और पाकिस्तान दो स्वतंत्र राष्ट्र बने।

  • संविधान सभा को संविधान बनाने की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई।

  • ब्रिटिश संसद का भारत पर सभी नियंत्रण समाप्त हुआ।


12. संविधान सभा और भारतीय संविधान का निर्माण

  • संविधान सभा का गठन 1946 में हुआ था।

  • डॉ. भीमराव अंबेडकर को संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया।

  • संविधान का निर्माण लगभग 2 वर्ष, 11 महीने, और 18 दिनों में हुआ।

  • 26 नवम्बर 1949 को संविधान अंगीकृत हुआ और 26 जनवरी 1950 से यह लागू हुआ।


निष्कर्ष

ब्रिटिश शासनकाल में भारत का संवैधानिक विकास एक क्रमिक और जटिल प्रक्रिया थी। यह प्रक्रिया कंपनी शासन से शुरू होकर ब्रिटिश क्राउन के प्रत्यक्ष शासन, फिर स्वशासन की मांग और अंततः पूर्ण स्वतंत्रता की ओर बढ़ी। इस विकास यात्रा में अनेक अधिनियम, सुधार, आंदोलनों और विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारत सरकार अधिनियम 1935 को भारतीय संविधान का खाका कहा जाता है, क्योंकि इसका ढांचा संविधान सभा ने काफी हद तक अपनाया। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति और 1950 में संविधान लागू होने के साथ भारत ने अपने लोकतांत्रिक और संप्रभु राष्ट्र का सफर शुरू किया। ब्रिटिश काल के संवैधानिक विकास ने भारत को आधुनिक लोकतंत्र की ओर अग्रसर किया और एक मजबूत राजनीतिक व्यवस्था की नींव रखी।



प्रश्न 02. भारत शासन अधिनियम, 1935 का भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के निर्माण में कितना योगदान है। 



भारत शासन अधिनियम, 1935 का भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के निर्माण में योगदान

परिचय
भारत शासन अधिनियम, 1935 (Government of India Act, 1935) ब्रिटिश संसद द्वारा पारित वह महत्वपूर्ण अधिनियम था जिसने भारत की प्रशासनिक एवं संवैधानिक संरचना को एक नया रूप प्रदान किया। यह अब तक का सबसे विस्तृत अधिनियम था और इसे भारतीय संविधान का "मूल खाका" (Blueprint) माना जाता है। यह अधिनियम भारत में उत्तरदायी शासन की दिशा में एक निर्णायक कदम था, जिसका प्रभाव स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण पर गहराई से पड़ा।


भारत शासन अधिनियम, 1935 की प्रमुख विशेषताएँ

  1. संघीय शासन की अवधारणा:
    इस अधिनियम के तहत भारत में एक संघीय ढांचे की परिकल्पना की गई जिसमें प्रांतों और रियासतों को मिलाकर एक भारतीय संघ बनाया जाना था। यद्यपि यह संघ व्यवहार में कभी अस्तित्व में नहीं आया, फिर भी इससे भारतीय संविधान में संघीय ढांचे की नींव रखी गई।

  2. प्रांतीय स्वायत्तता:
    अधिनियम ने प्रांतों को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान की, जिससे प्रांतीय मंत्रियों को कार्यपालिका के नियंत्रण की शक्ति प्राप्त हुई। यह व्यवस्था भारत में उत्तरदायी सरकार की दिशा में एक बड़ा कदम था।

  3. द्विसदनीय विधायिका की स्थापना:
    अधिनियम के तहत केंद्र स्तर पर द्विसदनीय विधायिका की स्थापना की गई – 'फेडरल असेंबली' और 'काउंसिल ऑफ स्टेट्स', जो आगे चलकर भारतीय संसद (लोकसभा और राज्यसभा) की संरचना का आधार बना।

  4. विषयों का त्रि-सूची विभाजन:
    पहली बार अधिनियम में विषयों को तीन सूचियों – संघ सूची, प्रांतीय सूची और समवर्ती सूची में बांटा गया। स्वतंत्र भारत के संविधान में भी यह व्यवस्था अपनाई गई।

  5. संविधान सभा की नींव:
    भले ही अधिनियम में संविधान सभा का कोई उल्लेख नहीं था, लेकिन इसकी जटिलताओं और सीमाओं के कारण भारतीय नेताओं में यह भावना जागृत हुई कि भारत को अपना संविधान स्वयं बनाना चाहिए। इससे संविधान सभा के गठन की भूमि तैयार हुई।


स्वतंत्र भारत के संविधान पर अधिनियम, 1935 का प्रभाव

  1. संघीय संरचना की आधारशिला:
    भारतीय संविधान ने संघीय शासन की जो व्यवस्था अपनाई, उसका प्रारूप 1935 के अधिनियम से ही लिया गया। आज भारत एक संघात्मक राज्य है जहां शक्तियों का विभाजन केंद्र और राज्यों के बीच होता है।

  2. प्रशासनिक ढांचे की निरंतरता:
    अधिनियम के तहत स्थापित प्रशासनिक ढांचे – जैसे गवर्नर, वायसराय, कार्यपालिका प्रणाली आदि – स्वतंत्र भारत में राष्ट्रपति, राज्यपाल आदि के रूप में परिवर्तित होकर जारी रहे।

  3. अधिकारों का विभाजन:
    भारतीय संविधान में भी अधिनियम 1935 की तरह विषयों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया है, जो केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के बंटवारे का आधार बनता है।

  4. न्यायिक व्यवस्था का विकास:
    अधिनियम के तहत संघीय न्यायालय की स्थापना हुई थी। यह व्यवस्था स्वतंत्र भारत के सर्वोच्च न्यायालय की आधारशिला बनी।

  5. लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव:
    अधिनियम में सीमित मताधिकार और चुनावी प्रक्रिया की व्यवस्था की गई थी। इससे भारतीय समाज में लोकतांत्रिक चेतना का विकास हुआ, जो संविधान निर्माण के समय अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ।


सीमाएँ और आलोचना

हालाँकि अधिनियम 1935 ने संवैधानिक व्यवस्था का ढाँचा प्रस्तुत किया, फिर भी इसकी कई सीमाएँ थीं:

  • इसमें ब्रिटिश संसद और सम्राट को अत्यधिक शक्तियाँ दी गई थीं।

  • भारतीयों को पूर्ण उत्तरदायित्व नहीं दिया गया था।

  • संघीय व्यवस्था कभी लागू ही नहीं हो सकी क्योंकि देशी रियासतों ने इसमें भाग नहीं लिया।

इन कमियों के कारण भारतीय नेताओं ने यह महसूस किया कि भारत को अपना स्वतंत्र संविधान बनाना चाहिए।


निष्कर्ष

भारत शासन अधिनियम, 1935 ने भारतीय संवैधानिक विकास की प्रक्रिया में एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई। इसने न केवल एक प्रशासनिक ढांचे की नींव रखी, बल्कि भारतीयों को शासन में भागीदारी का अनुभव भी प्रदान किया। स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने में इस अधिनियम की कई संरचनात्मक विशेषताओं को अपनाया गया, जिससे यह कहा जा सकता है कि भारत सरकार अधिनियम, 1935 भारतीय संविधान का पूर्ववर्ती खाका था। इस अधिनियम ने भारत को आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली की ओर अग्रसर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।



प्रश्न 03.  दोहरे शासन से आप क्या समझते है? सन 1919 के एक्ट के अनुसार यह क्यों जारी किया गया? इसकी क्या विशेषता थी?



दोहरे शासन से आप क्या समझते हैं?

दोहरा शासन (Dyarchy) एक ऐसी शासन प्रणाली थी जिसमें सरकार के कार्यों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया – आरक्षित विषय और स्थानांतरित विषय। आरक्षित विषयों का संचालन ब्रिटिश गवर्नर और उनके सलाहकारों द्वारा किया जाता था, जबकि स्थानांतरित विषयों का कार्यभार भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया था। इस प्रणाली के तहत, एक ही सरकार में दो प्रकार के शासक कार्यरत होते थे – एक उत्तरदायी और दूसरा गैर-उत्तरदायी। इसीलिए इसे 'दोहरा शासन' कहा गया।


सन 1919 के अधिनियम के अनुसार यह क्यों जारी किया गया?

भारत सरकार अधिनियम, 1919 को मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (Montagu-Chelmsford Reforms) के तहत लागू किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य भारतीयों को शासन में अधिक भागीदारी देना था, लेकिन साथ ही ब्रिटिश नियंत्रण भी बनाए रखना था। इस अधिनियम के माध्यम से प्रांतीय स्तर पर ‘दोहरे शासन’ की अवधारणा लागू की गई।

दोहरे शासन को लागू करने के मुख्य कारण:

  1. भारतीयों की बढ़ती राजनीतिक जागरूकता:
    प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार का सहयोग किया था, जिसके बदले में उन्हें राजनीतिक अधिकारों की आशा थी।

  2. ब्रिटिश शासन की नीति:
    ब्रिटिशों का उद्देश्य था भारतीयों को सत्ता में सीमित भागीदारी देकर उनके राजनीतिक आंदोलन को शांत करना।

  3. उत्तरदायित्व का क्रमिक विकास:
    ब्रिटिश नीति के अनुसार भारतीयों को एक साथ पूर्ण उत्तरदायित्व नहीं दिया जा सकता था, इसलिए एक मध्यवर्ती व्यवस्था – दोहरा शासन – लागू की गई।


दोहरे शासन की विशेषताएँ

  1. विषयों का दो भागों में विभाजन:
    प्रांतीय शासन को दो भागों में बांटा गया:

    • आरक्षित विषय: पुलिस, न्याय, भूमि राजस्व, जेल आदि। ये विषय गवर्नर और उनके गैर-जिम्मेदार सलाहकारों के अधीन थे।

    • स्थानांतरित विषय: शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, कृषि आदि। इनका कार्यभार भारतीय मंत्रियों को दिया गया जो जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी थे।

  2. गवर्नर के पास विशेष अधिकार:
    गवर्नर के पास व्यापक अधिकार थे। वह मंत्रियों के निर्णयों को अस्वीकार कर सकता था और आरक्षित विषयों पर पूर्ण नियंत्रण रखता था।

  3. उत्तरदायित्व की असमानता:
    मंत्रियों को स्थानांतरित विषयों पर कार्य करने की अनुमति थी, लेकिन वे पूर्णतः स्वतंत्र नहीं थे क्योंकि गवर्नर उनकी नीतियों को रोक सकता था।

  4. प्रांतीय विधानमंडलों का गठन:
    अधिनियम के अंतर्गत प्रांतों में द्विसदनीय विधानमंडल की व्यवस्था की गई। कुछ सदस्यों का चुनाव होता था और कुछ को मनोनीत किया जाता था।

  5. वित्तीय अधिकार सीमित:
    भारतीय मंत्रियों को बजट प्रस्ताव प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं था, जिससे वे वित्तीय रूप से निर्बल बने रहे।


दोहरे शासन की आलोचना

  1. सत्ता का अस्पष्ट वितरण:
    दोहरे शासन में शक्तियों का बंटवारा स्पष्ट नहीं था, जिससे प्रशासन में भ्रम और टकराव उत्पन्न होता था।

  2. गवर्नर का अत्यधिक नियंत्रण:
    भारतीय मंत्रियों के निर्णय गवर्नर की इच्छा पर निर्भर थे, जिससे वास्तविक उत्तरदायित्व का अभाव था।

  3. लोकप्रिय असंतोष:
    भारतीय नेताओं और जनता ने इसे केवल एक "नाममात्र" सुधार मानकर अस्वीकार किया। महात्मा गांधी और अन्य नेताओं ने इसकी आलोचना की।

  4. प्रशासन में असंगति:
    आरक्षित और स्थानांतरित विषयों में समन्वय का अभाव था, जिससे प्रभावी शासन में बाधा उत्पन्न होती थी।


निष्कर्ष

भारत सरकार अधिनियम, 1919 के अंतर्गत लागू दोहरा शासन भारतीयों को प्रशासन में भागीदारी देने का एक प्रारंभिक प्रयास था। हालांकि यह प्रणाली सफल नहीं रही, लेकिन इसने भारतीयों को शासन चलाने का अनुभव अवश्य प्रदान किया। इसकी कमियों के कारण ही बाद में भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से इस व्यवस्था को समाप्त कर पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता प्रदान की गई। इस प्रकार, दोहरे शासन की प्रणाली भारतीय संविधान के विकास में एक प्रयोगात्मक लेकिन महत्वपूर्ण चरण सिद्ध हुई।



प्रश्न 04: भारतीय संविधान के निर्माण के इतिहास का वर्णन कीजिए।


प्रस्तावना

भारत का संविधान विश्व के सबसे बड़े और विस्तृत लिखित संविधानों में से एक है। इसका निर्माण एक ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी प्रक्रिया का परिणाम है, जिसमें स्वतंत्रता संग्राम की भावना, भारतीय जनता की आकांक्षाएँ, और विविध सामाजिक-धार्मिक पृष्ठभूमियों को ध्यान में रखते हुए एक समावेशी लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव रखी गई। भारतीय संविधान का निर्माण स्वतंत्र भारत को एक सार्वभौम, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने की दिशा में एक निर्णायक कदम था।


संविधान निर्माण की पृष्ठभूमि

भारत में संविधान निर्माण की प्रक्रिया कोई अचानक शुरू हुई प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि यह कई दशकों के राजनीतिक संघर्ष, विचार विमर्श और ब्रिटिश शासन की संवैधानिक सुधारों की श्रृंखला का परिणाम थी।

1. 1858 का भारत शासन अधिनियम

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को समाप्त कर भारत की सत्ता सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दी गई। इसने प्रशासनिक केंद्रीकरण को बढ़ावा दिया।

2. 1861, 1892, और 1909 के अधिनियम

इन अधिनियमों ने धीरे-धीरे भारतीयों को शासन में सीमित भागीदारी देना शुरू किया, लेकिन ये पूरी तरह उत्तरदायी शासन की ओर कदम नहीं थे।

3. 1919 का भारत सरकार अधिनियम

मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के तहत ‘दोहरे शासन’ (Dyarchy) की व्यवस्था लाई गई, जो भारतीयों को स्थानांतरित विषयों पर अधिकार देता था। परंतु यह भी अपर्याप्त और असंतोषजनक सिद्ध हुआ।

4. 1935 का भारत सरकार अधिनियम

यह भारत का सबसे विस्तृत अधिनियम था, जिसमें संघीय ढाँचे, प्रांतीय स्वायत्तता, द्विसदनीय व्यवस्थाएँ और मौलिक अधिकारों की रूपरेखा दी गई। इसी अधिनियम को भारतीय संविधान का ब्लूप्रिंट कहा जाता है।

5. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सहित कई संगठनों ने पूर्ण स्वराज, मौलिक अधिकारों, समानता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र की माँग रखी। 1930 में लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा हुई और 1946 में अंतरिम सरकार का गठन संविधान निर्माण की दिशा में निर्णायक कदम था।


संविधान सभा का गठन

1. कैबिनेट मिशन योजना (1946)

ब्रिटिश सरकार द्वारा भेजे गए कैबिनेट मिशन ने भारत के संविधान निर्माण हेतु संविधान सभा के गठन की योजना बनाई। यह सभा भारत के विभिन्न राज्यों और प्रांतों से चुने गए प्रतिनिधियों का समूह थी।

2. संविधान सभा की रचना

  • कुल सदस्य: प्रारंभ में 389 सदस्य (बाद में भारत-पाक विभाजन के बाद 299)

  • कांग्रेस के सदस्य: लगभग 208

  • अल्पसंख्यकों, रियासतों और अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया।

  • सदस्यों का चुनाव प्रांतीय विधानसभाओं द्वारा किया गया।

3. प्रथम बैठक – 9 दिसंबर 1946

संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई, जिसकी अध्यक्षता डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने की (अस्थायी अध्यक्ष के रूप में)। 11 दिसंबर को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को स्थायी अध्यक्ष चुना गया।


संविधान निर्माण की प्रक्रिया

1. उद्देशिका (Preamble) की घोषणा

13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ (Objectives Resolution) प्रस्तुत किया गया, जो आगे चलकर संविधान की प्रस्तावना का आधार बना।

2. समितियों का गठन

संविधान सभा ने विभिन्न कार्यों के लिए कुल 22 समितियों का गठन किया। इनमें प्रमुख थीं:

  • संविधान प्रारूप समिति (Drafting Committee) – अध्यक्ष: डॉ. भीमराव अंबेडकर

  • मौलिक अधिकार समिति – अध्यक्ष: सरदार वल्लभभाई पटेल

  • संघीय संबंध समिति – अध्यक्ष: जवाहरलाल नेहरू

  • अल्पसंख्यक अधिकार समिति – अध्यक्ष: सरदार पटेल

3. प्रारूप समिति का कार्य

डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में प्रारूप समिति ने विभिन्न संविधानों (अमेरिका, ब्रिटेन, आयरलैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि) का अध्ययन कर एक ऐसा संविधान तैयार किया, जो भारत की विविधता और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करता था।

4. प्रारूप का निर्माण और बहस

  • प्रारूप को संविधान सभा के समक्ष 26 नवम्बर 1949 को पारित किया गया।

  • इस पर विस्तार से चर्चा हुई, जिसमें कुल 114 दिन बहस हुई

  • संविधान सभा की कार्यवाही खुली और पारदर्शी थी, और प्रेस व जनता को इसमें शामिल होने की अनुमति थी।


संविधान की स्वीकृति और प्रवर्तन

1. संविधान को अंगीकार करना

26 नवम्बर 1949 को संविधान को विधिवत स्वीकार किया गया। इसी दिन को आज ‘संविधान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

2. संविधान का प्रवर्तन

26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान पूरी तरह से लागू हुआ और भारत एक गणराज्य बन गया। इस दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में हर वर्ष मनाया जाता है।


संविधान निर्माण की विशेषताएँ

1. लोकतांत्रिक मूल्यों का समावेश

संविधान ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, मौलिक अधिकारों, न्याय, स्वतंत्रता, समानता, और बंधुता जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों को सुनिश्चित किया।

2. संघात्मक ढाँचा

भारत को संघीय ढाँचे में संगठित किया गया जिसमें केन्द्र और राज्य दोनों को शक्तियाँ दी गईं।

3. धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद

संविधान ने धर्म से परे शासन की व्यवस्था और सामाजिक-आर्थिक समानता सुनिश्चित करने हेतु समाजवाद को आधार बनाया।

4. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण

तीनों अंगों की स्पष्ट परिभाषा और शक्तियों का पृथक्करण कर शासन प्रणाली को संतुलित और उत्तरदायी बनाया गया।

5. संशोधन की व्यवस्था

संविधान को समय के अनुसार परिवर्तित और अनुकूल करने के लिए अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधन की व्यवस्था की गई।


महत्वपूर्ण योगदानकर्ताओं की भूमिका

  • डॉ. भीमराव अंबेडकर – संविधान के निर्माता और सामाजिक न्याय के प्रबल पक्षधर।

  • पंडित जवाहरलाल नेहरू – उद्देश्य प्रस्ताव और संघीय ढाँचे के प्रणेता।

  • डॉ. राजेन्द्र प्रसाद – संविधान सभा के अध्यक्ष और संयमित नेतृत्वकर्ता।

  • सरदार पटेल – राज्यों का एकीकरण और प्रशासनिक ढाँचे के सूत्रधार।


निष्कर्ष

भारतीय संविधान का निर्माण एक दूरदर्शी, विचारशील और समावेशी प्रक्रिया थी, जो विभिन्न विचारधाराओं, वर्गों, भाषाओं और धार्मिक समूहों को साथ लेकर चली। संविधान सभा ने भारतीय समाज की विविधता को समझते हुए एक ऐसा दस्तावेज तैयार किया जो आज भी देश की एकता, अखंडता और लोकतंत्र की रीढ़ बना हुआ है। यह संविधान न केवल एक विधिक दस्तावेज है, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा का संवैधानिक रूपांतरण है।



प्रश्न 05: भारतीय संविधान के देशी तथा विदेशी स्रोतों का वर्णन कीजिए।



प्रस्तावना

भारतीय संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। इसकी विशेषता यह है कि यह न केवल भारतीय संदर्भों, आवश्यकताओं और परंपराओं को समाहित करता है, बल्कि इसमें विभिन्न देशों के संविधानों से प्रेरणा लेकर कई प्रावधानों को सम्मिलित किया गया है। संविधान निर्माताओं ने देशी और विदेशी दोनों स्रोतों से सर्वोत्तम तत्त्व लेकर एक समावेशी और प्रभावी संविधान की रचना की।


A. भारतीय संविधान के देशी (भारतीय) स्रोत

भारतीय संविधान की रचना में भारतीय परंपराओं, सामाजिक-राजनीतिक अनुभवों और ऐतिहासिक विकास की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन देशी स्रोतों में निम्नलिखित प्रमुख हैं:

1. मनुस्मृति और अन्य धर्मशास्त्र

मनु, याज्ञवल्क्य और नारद जैसे धर्मशास्त्रों में विधि, दायित्व और न्याय प्रणाली से संबंधित कई सिद्धांत मौजूद थे, जिन्होंने प्रारंभिक कानूनों की अवधारणा को प्रभावित किया।

2. मौर्य और गुप्त शासन प्रणाली

मौर्यकालीन ‘अर्थशास्त्र’ (कौटिल्य) और गुप्तकालीन प्रशासन में केंद्रीयकृत शासन, कर प्रणाली, न्यायिक व्यवस्था आदि की नींव रखी गई। इन ऐतिहासिक व्यवस्थाओं से प्रशासनिक अनुशासन और उत्तरदायित्व की भावना प्राप्त हुई।

3. मुगल प्रशासन प्रणाली

मुगल शासनकाल की दीवान, फौजदार, सुभेदार प्रणाली ने कार्यपालिका और राजस्व प्रशासन के कुछ तत्त्वों को जन्म दिया। हालाँकि ये तत्त्व ब्रिटिश काल में अधिक व्यवस्थित हुए।

4. ब्रिटिश शासनकाल के अधिनियम

भारत सरकार अधिनियम 1919 और 1935 ने भारत के संविधान का ढांचा तैयार किया:

  • 1935 का अधिनियम भारतीय संविधान का आधार बना।

  • संघात्मक ढांचा, द्विसदनीय व्यवस्था, राज्यों की स्वायत्तता जैसे तत्त्व इसी अधिनियम से लिए गए।

5. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और संविधान सभा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से प्राप्त लोकतांत्रिक मूल्यों (जैसे मौलिक अधिकार, समानता, स्वतंत्रता, न्याय) ने संविधान के सामाजिक न्याय और लोकतंत्र संबंधी प्रावधानों को मजबूती दी। संविधान सभा द्वारा प्रस्तुत 'उद्देश्य प्रस्ताव' (Objective Resolution) देशी संदर्भों का सार था।


B. भारतीय संविधान के विदेशी स्रोत

संविधान निर्माताओं ने विभिन्न देशों के संविधानों और शासन प्रणालियों का गहन अध्ययन किया और वहाँ से उपयुक्त तत्त्वों को अपनाया। प्रमुख विदेशी स्रोत निम्नलिखित हैं:

1. ब्रिटेन (United Kingdom)

  • संसदीय प्रणाली

  • विधायिका की सर्वोच्चता

  • प्रधानमंत्री की भूमिका और मंत्रिमंडल

  • एकल नागरिकता

  • कानून के समक्ष समानता और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत

2. अमेरिका (United States of America)

  • मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)

  • स्वतंत्र न्यायपालिका

  • न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review)

  • राष्ट्रपति की महाभियोग प्रक्रिया

  • उपराष्ट्रपति की भूमिका

  • संघीय प्रणाली का कुछ हिस्सा

3. आयरलैंड (Ireland)

  • नीति-निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy)

  • राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रक्रिया

4. कनाडा (Canada)

  • संघात्मक प्रणाली में केंद्र को अधिक शक्तियाँ

  • अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र को

  • राजपाल की नियुक्ति

  • संविधान में संशोधन की प्रक्रिया (कुछ अंश)

5. ऑस्ट्रेलिया (Australia)

  • समवर्ती सूची (Concurrent List)

  • व्यापार, वाणिज्य और आवागमन की स्वतंत्रता

  • अनुच्छेद 51 (पावर डिवीजन की अवधारणा)

6. जर्मनी (Weimar Republic of Germany)

  • आपातकालीन शक्तियाँ

  • अनुच्छेद 352 से 360 तक भारत में आपातकाल का प्रावधान जर्मन संविधान से प्रेरित है।

7. फ्रांस (France)

  • स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व (Liberty, Equality, Fraternity) की भावना

  • यह संविधान की प्रस्तावना और मूल अधिकारों में परिलक्षित होती है।

8. दक्षिण अफ्रीका (South Africa)

  • संविधान संशोधन प्रक्रिया में कुछ तकनीकी प्रावधान

  • राज्यसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व

9. जापान (Japan)

  • प्रक्रिया द्वारा स्थापित कानून (Procedure established by law) का सिद्धांत

  • भारत के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) में इसका समावेश हुआ।


निष्कर्ष

भारतीय संविधान की विशेषता ही इसकी विविधता और समावेशिता है। यह न केवल भारतीय संस्कृति, सामाजिक संरचना और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से प्रेरित है, बल्कि विश्व के अनेक संविधानों से सर्वोत्तम तत्त्व लेकर उन्हें भारतीय संदर्भ में ढाला गया है। यह संविधान भारतीय लोकतंत्र की मजबूत नींव है, जो देश की एकता, अखंडता, और विविधता को बनाए रखने में सक्षम है। देशी और विदेशी स्रोतों का यह संयोजन भारतीय संविधान को विशिष्ट और जीवंत बनाता है।



प्रश्न 06: "भारतीय संविधान की उद्देशिका आज तक अंकित इस प्रकार के प्रलेखों में सबसे उत्तम है।" – इसकी व्याख्या कीजिए।



प्रस्तावना

भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) को संविधान की आत्मा कहा जाता है। यह न केवल संविधान की भूमिका है, बल्कि भारतीय गणराज्य की मूल भावना, उद्देश्य और सिद्धांतों को भी स्पष्ट रूप से व्यक्त करती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे संविधान की "संक्षिप्त प्रस्तावना" कहा है, जो इसकी आत्मा और दिशा दोनों को दर्शाती है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने उद्देशिका को “संविधान की पहचान का परिचय पत्र” माना।


उद्देशिका का पाठ

हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए; तथा उसके समस्त नागरिकों को:
न्याय – सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक;
स्वतंत्रता – विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की;
समता – प्रतिष्ठा और अवसर की समानता को सुनिश्चित करने के लिए;
और
उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली
बंधुता को बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर 1949 को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”


उद्देशिका की विशेषताएँ जो इसे सर्वोत्तम बनाती हैं

1. “भारत के लोग” की संप्रभुता

उद्देशिका की शुरुआत “हम भारत के लोग” से होती है, जो यह स्पष्ट करता है कि सत्ता का अंतिम स्रोत जनता है, न कि कोई राजा, धर्मगुरु या सेना। यह लोकतंत्र की बुनियाद है।

2. स्पष्ट आदर्शों की घोषणा

संविधान के चार प्रमुख आदर्श – सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्नता, समाजवाद, पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र – उद्देशिका में स्पष्ट रूप से अंकित हैं, जो इसे आदर्श संविधान बनाते हैं।

3. व्यापक सामाजिक उद्देश्य

न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता जैसे मूल्यों को उद्देशिका में प्रमुखता दी गई है। ये सार्वभौमिक मूल्य हैं, जो प्रत्येक नागरिक के अधिकारों और कर्तव्यों की नींव रखते हैं।

4. एकता और अखंडता पर बल

भारत जैसे विविधताओं वाले देश में राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। उद्देशिका इस बात को सुनिश्चित करने की भावना को सशक्त करती है।

5. सभी नागरिकों के लिए समान अवसर

उद्देशिका प्रत्येक नागरिक को समान अवसर और प्रतिष्ठा देने की गारंटी देती है, जो एक समतामूलक समाज की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है।


अन्य देशों की उद्देशिकाओं से तुलना

दुनिया के कई देशों के संविधान में उद्देशिका होती है, जैसे अमेरिका, फ्रांस, जापान आदि। लेकिन भारतीय संविधान की उद्देशिका को विशेष रूप से सराहा गया है क्योंकि इसमें न केवल कानूनी दृष्टिकोण बल्कि नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आदर्शों को भी शामिल किया गया है।

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और अन्य अंतरराष्ट्रीय विचारकों ने भी भारतीय उद्देशिका को मानव मूल्यों की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति कहा है।


न्यायिक व्याख्या और महत्व

1. केशवानंद भारती केस (1973)

इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उद्देशिका संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का अभिन्न हिस्सा है और इसे बदला नहीं जा सकता।

2. उद्देशिका का न्यायिक उपयोग

न्यायालयों ने अनेक बार उद्देशिका का उपयोग संविधान की व्याख्या करने और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा हेतु किया है।


निष्कर्ष

भारतीय संविधान की उद्देशिका केवल शब्दों का समूह नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र, समता, सामाजिक न्याय और मानव गरिमा की गहराई से प्रतिबद्ध अभिव्यक्ति है। इसकी भाषा, उद्देश्य और सार्वभौमिकता इसे विश्व के किसी भी संविधान की उद्देशिका से श्रेष्ठ बनाते हैं। यही कारण है कि यह कहा गया है –
“भारतीय संविधान की उद्देशिका आज तक अंकित इस प्रकार के प्रलेखों में सबसे उत्तम है।”



प्रश्न 07: आप इस बात से कहाँ तक सहमत हैं कि भारतीय संविधान एकात्मक लक्षणों वाले संघात्मक शासन की स्थापना करता है?

प्रस्तावना

भारतीय संविधान का संघात्मक ढांचा (Federal Structure) उसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। संविधान ने भारत को एक ऐसा संघ बनाया है जिसमें राज्यों और केंद्र दोनों के अधिकार स्पष्ट रूप से विनियमित हैं। परंतु, यह संघ केवल कठोर संघ (Rigid Federation) नहीं, बल्कि एक ऐसा मिश्रित स्वरूप है जिसमें एकात्मक (Unitary) लक्षण भी दिखाई देते हैं। इसलिए इसे एक “एकात्मक लक्षणों वाला संघात्मक शासन” कहा जाता है।

मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि भारतीय संविधान ने एक ऐसे संघ की स्थापना की है जो संघात्मक होने के साथ-साथ एकात्मक तत्व भी समाहित करता है। इसके कई कारण और उदाहरण निम्नलिखित हैं।


भारतीय संविधान में संघात्मक शासन के लक्षण

  1. दो स्तरों की सरकारें:
    भारतीय संविधान ने केंद्र और राज्यों की दो अलग-अलग सरकारों की व्यवस्था की है, जिनके अधिकार और कार्य स्पष्ट रूप से वर्णित हैं।

  2. संविधान की सर्वोच्चता:
    संविधान केंद्र और राज्यों दोनों के लिए सर्वोच्च कानून है।

  3. विधायी शक्तियों का विभाजन:
    विधायी शक्तियों को संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची में बाँटा गया है।

  4. संघीय न्यायपालिका:
    संघीय विवादों को निपटाने के लिए उच्चतम न्यायालय का प्रावधान है।


भारतीय संविधान में एकात्मक लक्षण

भारतीय संविधान की संघात्मक व्यवस्था में कुछ ऐसे तत्व भी हैं जो इसे एकात्मक शासन की ओर ले जाते हैं, जैसे:

  1. संघ की सर्वोच्चता:
    संघ की सरकार के पास राज्यों पर नियंत्रण करने के लिए व्यापक अधिकार हैं। उदाहरण के लिए, आपातकाल की स्थिति में केंद्र की सत्ता बढ़ जाती है।

  2. राज्यों का अधीनस्थ होना:
    राज्य सरकारें संविधान के प्रति उत्तरदायी हैं, और केंद्र के आदेशों का पालन करना अनिवार्य है।

  3. विधान सभा का विघटन:
    केंद्र के पास राज्यों की विधान सभाओं को भंग करने का अधिकार है (आर्टिकल 356 के तहत)।

  4. वित्तीय निर्भरता:
    राज्यों की वित्तीय निर्भरता केंद्र पर बहुत अधिक है, जो संघ की एकात्मकता को बढ़ाता है।

  5. संविधान संशोधन की एकात्मक प्रक्रिया:
    अधिकांश संवैधानिक संशोधन केंद्र की सहमति से होते हैं।


संघात्मक और एकात्मक तत्त्वों का संतुलन

भारतीय संविधान निर्माताओं ने संघात्मक और एकात्मक तत्वों का संतुलन साधा है। भारत जैसे विशाल, विविध और बहुभाषी देश के लिए यह संतुलन अत्यंत आवश्यक था। यदि संविधान केवल कठोर संघात्मक होता, तो राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ सकती थी। दूसरी ओर, यदि वह पूरी तरह एकात्मक होता, तो राज्यों की स्वायत्तता बाधित होती।

इस प्रकार, भारतीय संविधान में संघीयता के साथ-साथ एकात्मक शासन के तत्व इस प्रकार मिश्रित हैं कि यह दोनों के बीच एक संतुलित और व्यवहारिक शासन व्यवस्था प्रदान करता है।


निष्कर्ष

मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि भारतीय संविधान एकात्मक लक्षणों वाले संघात्मक शासन की स्थापना करता है। इसका संघीय ढांचा केंद्र और राज्यों को अधिकार देता है, लेकिन साथ ही केंद्र को राज्य सरकारों पर आवश्यक नियंत्रण भी देता है। इस संतुलन ने भारत के लोकतंत्र और एकता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसलिए भारतीय संघ को एक “संयुक्त राज्य” या “संघात्मक एकात्मकता” कहा जा सकता है।




प्रश्न 08: नागरिकता का अर्थ बताते हुए इसके ऐतिहासिक विकास पर विस्तृत विवेचना प्रस्तुत कीजिए।



1. नागरिकता का अर्थ

नागरिकता (Citizenship) का अर्थ है किसी व्यक्ति का एक विशेष देश का सदस्य होना, जिसके साथ वह देश का राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी सम्बन्ध होता है। नागरिकता के तहत व्यक्ति को उस देश के अधिकार, कर्तव्य, और संरक्षण प्राप्त होते हैं। सरल शब्दों में, नागरिकता वह सामाजिक-राजनैतिक स्थिति है जिसके माध्यम से व्यक्ति को देश की जनता का अधिकार प्राप्त होता है और वह राज्य के संविधान एवं कानूनों का पालन करने के साथ-साथ राज्य से भी संरक्षण प्राप्त करता है।

नागरिकता के मुख्य तत्व हैं:

  • सदस्यता: व्यक्ति का किसी देश के राजनीतिक समुदाय में सम्मिलित होना।

  • अधिकार: चुनाव, संपत्ति, न्याय, स्वतंत्रता आदि अधिकार।

  • कर्तव्य: राज्य के प्रति निष्ठा, कानून पालन, कर भुगतान आदि।

  • संबंध: व्यक्ति और राज्य के बीच कानूनी और राजनीतिक संबंध।


2. नागरिकता का ऐतिहासिक विकास

(1) प्राचीन काल में नागरिकता

  • ग्रीक नगर-राज्य (City-State):
    प्राचीन यूनान में नागरिकता का जन्म हुआ। उस समय के नगर-राज्यों (जैसे एथेंस) में नागरिकता सीमित थी। केवल वे व्यक्ति जिन्हें माता-पिता से नागरिकता मिली थी या जिन्होंने विशेष अधिकार प्राप्त किए थे, उन्हें ही नागरिक माना जाता था। नागरिकों को शासन में भाग लेने, मतदान करने और सार्वजनिक कार्यों में नियुक्त होने के अधिकार प्राप्त थे। इसके विपरीत, महिलाएँ, दास और विदेशी नागरिकता के बाहर थे।

  • रोमन गणराज्य और साम्राज्य:
    रोम में नागरिकता का विस्तार हुआ। रोमन नागरिकता एक कानूनी स्थिति थी, जो व्यक्ति को न्यायिक सुरक्षा, संपत्ति के अधिकार और राजनीतिक भागीदारी देती थी। बाद में, रोमन साम्राज्य ने अपनी नागरिकता को अन्य क्षेत्रों तक फैलाया, जिससे नागरिकता का एक अधिक व्यापक और समावेशी स्वरूप विकसित हुआ।

(2) मध्यकालीन काल में नागरिकता

मध्यकालीन यूरोप में नागरिकता की अवधारणा अधिक स्थानीय और सीमित हो गई। इस समय राज्य की सत्ता राजा या स्थानीय फ्यूडल लॉर्ड के हाथ में थी और नागरिकता का अधिकार एक व्यक्तिगत या सामंती संरचना में सीमित था।

  • फ्यूडल सिस्टम:
    राजा के प्रति निष्ठा और सामंती कर्तव्यों को अधिक महत्व दिया गया। किसी क्षेत्र का निवासी होने का अधिकार और स्थायी निवास ही नागरिकता के समान माना जाता था, लेकिन राजनीतिक अधिकार सीमित थे।

  • शहरों और नगरों का विकास:
    शहरीकरण के साथ कुछ शहरों ने अपने नागरिकों को विशेष अधिकार और संरक्षण देना शुरू किया, जिसे "बर्गेज" (Burgess) कहा गया। ये नागरिक शहर की दीवारों के भीतर निवास करने वाले स्वतंत्र नागरिक होते थे।

(3) आधुनिक काल में नागरिकता का विकास

आधुनिक युग में नागरिकता की अवधारणा लोकतंत्र, मानवाधिकार, और राष्ट्रीयता के विकास के साथ विकसित हुई।

  • फ्रांसीसी क्रांति और नागरिकता:
    1789 की फ्रांसीसी क्रांति ने नागरिकता को लोकतांत्रिक अधिकारों से जोड़ा। “समानता, स्वतंत्रता, बंधुता” के सिद्धांतों के तहत नागरिकता सभी को समान अधिकार देने का प्रतीक बनी।

  • राष्ट्रीय राज्य की स्थापना:
    19वीं और 20वीं सदी में राष्ट्र-राज्य (Nation-State) के उदय के साथ नागरिकता का संबंध केवल स्थानिक सदस्यता से बढ़कर एक राष्ट्रीय पहचान में बदल गया।

  • नागरिक अधिकार और मताधिकार का विस्तार:
    समय के साथ महिलाओं, अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़े वर्गों को भी नागरिक अधिकार प्राप्त हुए।

(4) आधुनिक समय में नागरिकता

आज की नागरिकता केवल राष्ट्रीयता तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें कई आधुनिक सिद्धांत शामिल हैं:

  • बहु-आयामी नागरिकता: व्यक्ति के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक अधिकारों का समावेश।

  • वैश्वीकरण का प्रभाव: आज नागरिकता का अर्थ वैश्विक संदर्भ में भी समझा जाने लगा है, जहाँ प्रवासियों और द्वि-नागरिकता की अवधारणा भी सामने आई है।

  • मानवाधिकार: नागरिकता के अधिकारों का आधार अब मानवाधिकार सिद्धांत भी बन गया है।


3. भारतीय संदर्भ में नागरिकता का विकास

प्राचीन भारत में नागरिकता

  • प्राचीन भारत में भी नागरिकता के समान अवधारणा थी, जहाँ व्यक्ति का सामाजिक और धार्मिक कर्तव्य महत्वपूर्ण था। राजा के प्रति निष्ठा और समाज के प्रति दायित्व नागरिकता के हिस्से थे।

ब्रिटिश शासनकाल में नागरिकता की समझ

  • ब्रिटिश शासनकाल में नागरिकता की अवधारणा सीमित और असमान थी। केवल कुछ वर्गों को ही राजनीतिक अधिकार मिले थे।

  • स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नागरिकता की आधुनिक अवधारणा उभरी, जिसमें सभी नागरिकों को समान अधिकार देने की माँग हुई।

स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान में नागरिकता

  • भारतीय संविधान ने नागरिकता को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया।

  • भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के माध्यम से नागरिकता के नियम बनाए गए।

  • संविधान की धारा 5 से 11 तक नागरिकता के प्रावधान हैं, जिसमें जन्म, वंश, पंजीकरण, स्वीकृति आदि के आधार पर नागरिकता दी जाती है।


4. निष्कर्ष

नागरिकता का अर्थ किसी व्यक्ति का अपने देश के साथ कानूनी, राजनीतिक और सामाजिक संबंध होता है। इसका ऐतिहासिक विकास प्राचीन नगर-राज्यों से लेकर आधुनिक राष्ट्र-राज्यों तक हुआ है। समय के साथ यह अधिकारों और कर्तव्यों का एक समुच्चय बन गया है। भारतीय संदर्भ में भी नागरिकता की परिभाषा और अधिकारों का विकास स्वतंत्रता संग्राम से लेकर संविधान के निर्माण तक हुआ है। इसलिए नागरिकता आज लोकतंत्र का आधार और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण पक्ष है।




प्रश्न 09: भारतीय नागरिकता के अर्जन एवं समाप्ति की विधियों का वर्णन कीजिए।


परिचय

भारतीय नागरिकता किसी व्यक्ति का भारत देश का वैधानिक सदस्य होना है, जिसके आधार पर उसे देश के संविधान, कानूनों और सरकारी नीतियों के तहत अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। भारतीय संविधान एवं भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 में नागरिकता प्राप्त करने और समाप्त होने के नियम स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं। इस उत्तर में हम नागरिकता के अर्जन और समाप्ति के प्रमुख तरीकों का विवरण करेंगे।


1. भारतीय नागरिकता के अर्जन की विधियाँ

भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के निम्नलिखित मुख्य तरीके हैं:

(1) जन्म के आधार पर नागरिकता

  • भारत में जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति नागरिक माना जाता है, लेकिन इसके लिए कुछ नियम हैं।

  • संविधान के अनुसार, 26 जनवरी 1950 से पहले जन्मे व्यक्तियों को स्वतः भारतीय नागरिक माना गया।

  • 26 जनवरी 1950 से 1 जुलाई 1987 तक जन्मे व्यक्ति को भारत में जन्म लेने पर नागरिकता मिलती है यदि उनके माता-पिता में से कोई भी भारतीय नागरिक हो।

  • 1 जुलाई 1987 के बाद जन्मे व्यक्ति को तब ही नागरिकता प्राप्त होगी जब उसके पिता या माता दोनों में से कोई एक भारतीय नागरिक हो।

(2) वंश के आधार पर (वंशवाद - Jus sanguinis)

  • यदि किसी व्यक्ति के माता-पिता भारतीय नागरिक हैं, तो वह व्यक्ति स्वचालित रूप से भारतीय नागरिक होता है, चाहे उसका जन्म भारत में हो या विदेश में।

  • भारतीय नागरिकता अधिनियम की धारा 3 इसके लिए प्रावधान करती है।

(3) पंजीकरण (Registration)

  • कुछ विशेष वर्गों के लिए नागरिकता पंजीकरण के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है, जैसे पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थी, एनआरआई, गोवा के निवासी आदि।

  • यह विधि विशेष परिस्थितियों में लागू होती है, जैसे विवाह के आधार पर या किसी राज्य की सरकार द्वारा अनुमति मिलने पर।

(4) स्वीकृति (Naturalization)

  • यह विधि विदेशी नागरिकों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने के लिए है।

  • इसके लिए विदेशी व्यक्ति को भारत में लगातार 12 वर्ष निवास करना आवश्यक है।

  • स्वीकृति के लिए आवेदन करना पड़ता है और यह भारत सरकार की मंजूरी के अधीन होता है।

  • स्वीकृति मिलने पर व्यक्ति को भारतीय नागरिकता का प्रमाणपत्र दिया जाता है।

(5) वापसी की नागरिकता (Citizenship by Resumption)

  • पूर्व में भारतीय नागरिक रहे व्यक्ति जो विदेश में स्थायी निवासी बन गया था, वह कुछ शर्तों के अधीन पुनः भारतीय नागरिकता प्राप्त कर सकता है।


2. भारतीय नागरिकता की समाप्ति की विधियाँ

भारतीय नागरिकता समाप्त होने के कुछ प्रमुख कारण हैं:

(1) त्यागपत्र (Renunciation)

  • कोई भी भारतीय नागरिक अपनी इच्छा से नागरिकता त्याग सकता है।

  • इसके लिए केंद्र सरकार को लिखित आवेदन देना होता है।

  • त्यागपत्र देने वाला व्यक्ति भारतीय नागरिकता खो देता है लेकिन वह देश से बाहर भी जा सकता है।

(2) विसर्जन (Deprivation)

  • यदि कोई व्यक्ति धोखे, झूठ, या गलत तरीके से नागरिकता प्राप्त करता है, तो उसे सरकार द्वारा नागरिकता से वंचित किया जा सकता है।

  • यह प्रावधान अनुच्छेद 11 के तहत भारतीय नागरिकता अधिनियम में भी शामिल है।

  • उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति देश के खिलाफ साजिश करता है या गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त पाया जाता है, तो उसकी नागरिकता समाप्त की जा सकती है।

(3) विदेशी नागरिकता प्राप्त करना (Acquisition of Foreign Citizenship)

  • यदि कोई भारतीय नागरिक किसी अन्य देश की नागरिकता स्वीकार करता है, तो भारतीय कानून के अनुसार उसकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाती है।

  • भारत बहु-नागरिकता की अनुमति नहीं देता।

(4) मृत्यु

  • किसी व्यक्ति की मृत्यु के साथ उसकी नागरिकता स्वतः समाप्त हो जाती है।


निष्कर्ष

भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के अनेक विधि-व्यवस्था संविधान और भारतीय नागरिकता अधिनियम के अंतर्गत निर्धारित हैं। जन्म, वंश, पंजीकरण, स्वीकृति एवं वापसी के माध्यम से नागरिकता अर्जित की जा सकती है, जबकि त्यागपत्र, विसर्जन, विदेशी नागरिकता स्वीकारना एवं मृत्यु के कारण नागरिकता समाप्त हो जाती है। यह स्पष्ट नियम भारत में नागरिकता के न्यायसंगत एवं सुव्यवस्थित प्रबंधन को सुनिश्चित करते हैं।




प्रश्न 10: मौलिक अधिकार से आप क्या समझते हैं? मौलिक अधिकारों की विस्तृत व्याख्या कीजिए।



परिचय

भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) वे बुनियादी अधिकार हैं जो प्रत्येक भारतीय नागरिक को समान रूप से प्राप्त होते हैं। ये अधिकार संविधान के अनुच्छेद 12 से 35 तक विस्तृत रूप में दिये गए हैं। मौलिक अधिकारों का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता, गरिमा और न्याय को सुनिश्चित करना है। ये अधिकार भारतीय लोकतंत्र का आधार हैं, जो नागरिकों को सरकार के दुरुपयोग से बचाते हैं और उन्हें स्वतंत्र एवं सम्मानपूर्वक जीवन बिताने का अवसर देते हैं।


मौलिक अधिकार का अर्थ

‘मौलिक’ का अर्थ है ‘अत्यंत आवश्यक’ या ‘आधारभूत’। ‘अधिकार’ का अर्थ है ‘कानूनी अधिकार’। अतः मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्ति के स्वाभाविक और न्यायसंगत अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं। ये अधिकार न केवल व्यक्ति की रक्षा करते हैं, बल्कि उसे अपनी प्रतिभा का विकास करने, अपनी इच्छा-स्वतंत्रता का प्रयोग करने तथा सामाजिक-राजनीतिक जीवन में भाग लेने की स्वतंत्रता भी देते हैं।


मौलिक अधिकारों का महत्व

  1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा: सरकार के अधीन व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं अधिकारों की रक्षा।

  2. समानता और न्याय का संरक्षण: जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव रोकना।

  3. लोकतंत्र को सशक्त बनाना: प्रत्येक नागरिक को सरकार के निर्णयों में भागीदारी और अपनी आवाज़ उठाने का अवसर।

  4. सामाजिक सुधार: कमजोर वर्गों को अधिकार देकर समाज में समानता स्थापित करना।

  5. संविधान की संप्रभुता का संरक्षण: मौलिक अधिकार संविधान की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करते हैं।


भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का विकास

भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की अवधारणा ब्रिटिश शासनकाल के बाद स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा से आई। स्वतंत्रता संग्राम के नेता जैसे महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और न्याय के अधिकारों पर बल दिया। संविधान सभा ने ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस और आयरलैंड के संविधान से प्रभावित होकर मौलिक अधिकारों का समावेश किया।


भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के प्रकार

भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार मुख्यतः छह श्रेणियों में विभाजित हैं:

1. समानता का अधिकार (Right to Equality) — अनुच्छेद 14 से 18

  • सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार।

  • राज्य द्वारा किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव न करना।

  • समान अवसर और अभेद्यता से बचाव।

  • जाति, धर्म, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेदभाव निषेध।

  • जाति प्रथा और अछूत व्यवस्था का अंत।

2. स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) — अनुच्छेद 19 से 22

  • व्यक्तियों को अपने विचार व्यक्त करने, सभा करने, संघ बनाने, आवागमन, निवास परिवर्तन, व्यवसाय करने की स्वतंत्रता।

  • अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार।

  • गिरफ्तारी और निरुद्धि के उचित नियम।

3. शोषण से सुरक्षा (Protection against Exploitation) — अनुच्छेद 23 और 24

  • मानव व्यापार और दासता निषेध।

  • बाल श्रम निषेध।

4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) — अनुच्छेद 25 से 28

  • किसी भी धर्म को मानने, पालन करने, प्रचार करने की स्वतंत्रता।

  • धार्मिक स्थलों की रक्षा।

  • धार्मिक शिक्षा की स्वतंत्रता।

5. संवैधानिक उपचार का अधिकार (Cultural and Educational Rights) — अनुच्छेद 29 और 30

  • अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति, भाषा, धर्म का संरक्षण।

  • अल्पसंख्यक समुदायों को शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार।

6. संवैधानिक उपचार (Right to Constitutional Remedies) — अनुच्छेद 32

  • मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर सुप्रीम कोर्ट से प्रत्यक्ष न्याय की मांग करने का अधिकार।

  • इसे ‘संविधान का हृदय’ माना जाता है।


मौलिक अधिकारों के विशेष गुण

  • सर्वप्रिय अधिकार: ये सभी नागरिकों को समान रूप से मिलते हैं।

  • संवैधानिक सुरक्षा: मौलिक अधिकारों का उल्लंघन संविधान विरोधी माना जाता है।

  • न्यायालयीन संरक्षण: नागरिक उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकते हैं।

  • न्यूनतम हस्तक्षेप: राज्य को इन्हें प्रतिबंधित करने के लिए सख्त कारण और प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।

  • समय-समय पर संशोधन: संविधान में संशोधन के माध्यम से मौलिक अधिकारों में सुधार या संशोधन किया जा सकता है।


मौलिक अधिकारों के प्रतिबंध और सीमाएँ

मौलिक अधिकार पूर्णतया अविनाशी नहीं हैं, इन्हें कुछ सीमाओं और प्रतिबंधों के अधीन रखा गया है ताकि वे सामाजिक व्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित न करें।

  • अनुच्छेद 19 में कुछ स्वतंत्रताओं पर ‘सार्वजनिक व्यवस्था’, ‘सुरक्षा’, ‘नैतिकता’ जैसे कारणों से प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं।

  • सार्वजनिक स्वास्थ्य, राज्य सुरक्षा, नैतिकता, और अन्य नागरिक अधिकारों के संरक्षण के लिए सीमाएं आवश्यक हैं।


मौलिक अधिकारों का सामाजिक एवं राजनैतिक महत्व

  • नागरिकों का सशक्तिकरण: ये अधिकार नागरिकों को अपने हितों की रक्षा के लिए सक्षम बनाते हैं।

  • समाज में न्याय: जाति, धर्म या आर्थिक स्थिति के बावजूद समान अधिकार सुनिश्चित करते हैं।

  • लोकतंत्र की मजबूती: सरकार पर नियंत्रण रखकर लोकतांत्रिक प्रणाली को स्वस्थ रखते हैं।

  • मानवाधिकार संरक्षण: मौलिक अधिकार मानवाधिकारों का एक रूप हैं, जो व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करते हैं।


निष्कर्ष

मौलिक अधिकार भारतीय संविधान की आत्मा हैं, जो नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता, न्याय और सम्मान प्रदान करते हैं। ये अधिकार न केवल व्यक्तिगत विकास का आधार हैं, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय एकता को भी सुदृढ़ करते हैं। संविधान ने इन अधिकारों को सशक्त और प्रभावी बनाने के लिए कई न्यायिक एवं कानूनी व्यवस्थाएँ की हैं, ताकि भारत एक लोकतांत्रिक, समावेशी और न्यायसंगत राष्ट्र बन सके। मौलिक अधिकारों की रक्षा करना हर नागरिक और सरकार का कर्तव्य है।


प्रश्न 11 भारत के नीति निर्देशक तत्व का विस्तृत वर्णन करते हुए, मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व में अंतर बताइए।


🎯 प्रस्तावना

भारतीय संविधान केवल एक विधिक दस्तावेज नहीं, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का घोषणापत्र है। संविधान के दो प्रमुख भाग — भाग 3 (मौलिक अधिकार) और भाग 4 (नीति निर्देशक तत्व) — मिलकर भारत को एक आदर्श लोकतांत्रिक और कल्याणकारी राष्ट्र बनाने की नींव रखते हैं। नीति निर्देशक तत्व राज्य को यह निर्देश देते हैं कि उसे शासन करते समय किन-किन सामाजिक और आर्थिक मूल्यों को अपनाना चाहिए।


🧭 नीति निर्देशक तत्व का परिचय

नीति निर्देशक तत्व संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 तक वर्णित हैं। इनका मुख्य स्रोत आयरलैंड का संविधान है, और इसका उद्देश्य भारत को एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय पर आधारित कल्याणकारी राज्य बनाना है।

🔹 ये तत्व न्यायालय में लागू नहीं किए जा सकते, परंतु राज्य का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह इनका पालन करे।
🔹 इनका प्रयोग सरकार की नीति निर्माण प्रक्रिया को दिशा देने हेतु किया जाता है।


📌 नीति निर्देशक तत्वों के प्रमुख उद्देश्य

🔸 सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को कम करना
🔸 सभी नागरिकों को समान अवसर और सुविधाएं देना
🔸 कमजोर वर्गों जैसे अनुसूचित जाति, जनजाति और स्त्रियों की उन्नति
🔸 संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करना
🔸 श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करना


📖 नीति निर्देशक तत्वों के प्रकार

भारत के नीति निर्देशक तत्वों को तीन प्रमुख श्रेणियों में बांटा जा सकता है:


🛠️ 1. सामाजिक एवं आर्थिक कल्याण से संबंधित तत्व

✔️ नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराना
✔️ पुरुषों और महिलाओं को समान वेतन देना
✔️ निर्धनों के लिए पोषण, स्वास्थ्य, और आवास की सुविधाएं
✔️ बच्चों को 6 से 14 वर्ष की आयु तक नि:शुल्क शिक्षा देना


⚖️ 2. न्यायिक और प्रशासनिक दिशा-निर्देश

✔️ समाज के सभी वर्गों को समान न्याय
✔️ मजदूरों को काम करने की उचित परिस्थितियाँ
✔️ श्रमिकों को सामूहिक सौदेबाजी और यूनियन बनाने का अधिकार
✔️ बचपन और मातृत्व की रक्षा


🌿 3. अंतर्राष्ट्रीय नीति और पर्यावरणीय तत्व

✔️ अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना
✔️ युद्ध की नीति का त्याग
✔️ पर्यावरण और वन्य जीवन की रक्षा
✔️ देश के सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा


🔍 मौलिक अधिकार बनाम नीति निर्देशक तत्व – प्रमुख अंतर

क्रममौलिक अधिकारनीति निर्देशक तत्व
1️⃣ये न्यायालय में लागू करने योग्य हैंये न्यायालय में लागू नहीं किए जा सकते
2️⃣नागरिकों को संरक्षित अधिकार प्रदान करते हैंराज्य को कर्तव्यों और दिशा का बोध कराते हैं
3️⃣भाग 3 में वर्णित (अनुच्छेद 12-35)भाग 4 में वर्णित (अनुच्छेद 36-51)
4️⃣व्यक्तिवादी दृष्टिकोण को बढ़ावासमाजवादी और सामूहिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहन
5️⃣संवैधानिक गारंटी प्राप्तकेवल नैतिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता


🚨 मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों के बीच संतुलन की आवश्यकता

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार यह माना है कि संविधान के इन दोनों हिस्सों को एक-दूसरे के पूरक की तरह देखा जाना चाहिए, ना कि विरोधाभासी के रूप में। खासकर केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) और मिनर्वा मिल्स मामला (1980) जैसे निर्णयों में यह स्पष्ट किया गया कि मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व, दोनों मिलकर संविधान के मूल ढांचे को निर्धारित करते हैं।


🌟 उपसंहार

नीति निर्देशक तत्व भारत के संविधान का ऐसा अंग हैं जो राज्य को एक आदर्श और नैतिक दिशा प्रदान करते हैं। यद्यपि ये बाध्यकारी नहीं हैं, परंतु ये भारत को एक समता, न्याय और स्वतंत्रता आधारित समाज बनाने की प्रेरणा देते हैं। मौलिक अधिकार जहाँ नागरिकों को शक्ति प्रदान करते हैं, वहीं नीति निर्देशक तत्व राज्य की जिम्मेदारी तय करते हैं। दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना एक सशक्त और समावेशी राष्ट्र की पहचान है।




प्रश्न 12 भारत में संविधान संशोधन की विस्तृत विवेचना कीजिए।


🎯 प्रस्तावना

भारत का संविधान एक ऐसा जीवंत दस्तावेज है, जो समय और परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालने की क्षमता रखता है। इस लचीलापन और विकासशीलता का सबसे बड़ा प्रमाण है – संविधान संशोधन की प्रक्रिया। संविधान निर्माताओं ने यह सुनिश्चित किया कि यदि भविष्य में सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक आवश्यकताओं में परिवर्तन हो, तो संविधान को संशोधित कर उसे प्रासंगिक बनाया जा सके।


📌 संविधान संशोधन की आवश्यकता

🔹 समाज में निरंतर परिवर्तन के साथ कानूनी ढांचे में सुधार की जरूरत
🔹 शासन प्रणाली को समयानुकूल बनाए रखना
🔹 न्याय, समानता और स्वतंत्रता जैसे मूल्यों को मजबूती देना
🔹 नए सामाजिक-आर्थिक मुद्दों का समाधान
🔹 प्रशासनिक ढांचे को अधिक उत्तरदायी और पारदर्शी बनाना

संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन की प्रक्रिया का स्पष्ट वर्णन है।


📖 अनुच्छेद 368: संविधान संशोधन की प्रक्रिया

अनुच्छेद 368 संविधान के संशोधन की विधि को निर्धारित करता है। इसके अनुसार, भारत में तीन प्रकार की संशोधन प्रक्रियाएँ अपनाई जाती हैं:


🛠️ 1. साधारण बहुमत से संशोधन (Simple Majority)

✔️ यह संशोधन संसद के सामान्य कानून बनाने की प्रक्रिया के अनुसार होता है।
✔️ इसमें केवल संसद के दोनों सदनों में साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है।
✔️ राज्य विधानसभाओं की सहमति आवश्यक नहीं होती।

उदाहरण:

  • संसद के नियम

  • राज्यों की संख्या बढ़ाना

  • राज्यों का नाम बदलना


⚖️ 2. विशेष बहुमत से संशोधन (Special Majority)

✔️ संसद के दोनों सदनों में उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित करना होता है।
✔️ यह सबसे सामान्य प्रक्रिया है जो अधिकांश संवैधानिक संशोधनों में लागू होती है।

उदाहरण:

  • मूल अधिकारों में संशोधन

  • नीति निर्देशक तत्वों में परिवर्तन

  • राष्ट्रपति और संसद की शक्तियों से संबंधित संशोधन


📜 3. विशेष बहुमत + राज्यों की सहमति (Special Majority + Consent of Half of the States)

✔️ कुछ मामलों में केवल संसद का विशेष बहुमत पर्याप्त नहीं होता, बल्कि कम से कम आधी राज्यों की विधानसभाओं की सहमति भी जरूरी होती है।
✔️ यह संशोधन प्रक्रिया संघीय ढांचे की रक्षा के लिए आवश्यक है।

उदाहरण:

  • उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय की शक्तियाँ

  • राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया

  • संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण


🔍 संविधान संशोधन की प्रक्रिया के चरण

🔸 प्रस्तावना (Introduction of Bill)
🔸 संसद में पारित करना (Passage by Parliament)
🔸 राष्ट्रपति की स्वीकृति (Assent of President)
🔸 संबंधित मामलों में राज्यों की सहमति लेना


📚 महत्वपूर्ण संविधान संशोधन और उनका प्रभाव

भारत में अब तक 100 से अधिक संविधान संशोधन हो चुके हैं। कुछ प्रमुख संशोधन निम्नलिखित हैं:

✔️ पहला संशोधन (1951): अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएँ निर्धारित की गईं।
✔️ 24वां संशोधन (1971): संसद को संविधान संशोधित करने की पूर्ण शक्ति प्रदान की गई।
✔️ 42वां संशोधन (1976): इसे ‘मिनी संविधान’ कहा जाता है; प्रस्तावना में "समाजवादी", "धर्मनिरपेक्ष", और "राष्ट्रीय एकता" जैसे शब्द जोड़े गए।
✔️ 44वां संशोधन (1978): आपातकाल के दुरुपयोग को रोकने हेतु कई संशोधन किए गए।
✔️ 73वां और 74वां संशोधन (1992): पंचायती राज और नगर निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
✔️ 86वां संशोधन (2002): 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया गया।


⚖️ संविधान संशोधन पर न्यायपालिका की भूमिका

भारत में न्यायपालिका विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान संशोधन की वैधता को लेकर कई ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं:

🔹 केशवानंद भारती मामला (1973):
सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संविधान संशोधित किया जा सकता है, परंतु उसका मूल ढांचा (Basic Structure) नहीं बदला जा सकता।

🔹 मिनर्वा मिल्स मामला (1980):
इसमें यह स्पष्ट किया गया कि संसद की संशोधन शक्ति भी सीमित है और वह लोकतांत्रिक मूल्यों को नष्ट नहीं कर सकती।


🚩 संविधान संशोधन की सीमाएँ

✔️ मूल ढांचे को नष्ट नहीं किया जा सकता
✔️ न्यायपालिका की स्वतंत्रता बरकरार रहनी चाहिए
✔️ लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और विधि का शासन कायम रहना चाहिए
✔️ संशोधन अधिकार का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता


🌐 अन्य देशों से तुलना

भारत में संविधान संशोधन की प्रक्रिया न तो अमेरिका जितनी कठोर है और न ही इंग्लैंड जैसी सरल। यह संविधान को स्थिरता और लचीलापन दोनों प्रदान करती है।


🌟 उपसंहार

भारत का संविधान एक ऐसा जीवंत दस्तावेज है जो समय और परिस्थितियों के अनुसार अपने आप को ढालने में सक्षम है। संविधान संशोधन की प्रक्रिया संविधान की आत्मा को सुरक्षित रखते हुए राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप बदलाव की सुविधा देती है। न्यायपालिका द्वारा तय की गई मूल ढांचे की सीमा इस प्रक्रिया को संतुलित और लोकतांत्रिक बनाए रखती है। इसलिए संविधान संशोधन केवल एक कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि यह राष्ट्र की लोकतांत्रिक चेतना और विकास का प्रतीक है।




प्रश्न 13 भारत के प्रधानमंत्री के पद एवं स्थिति की विवेचना कीजिए।


🎯 प्रस्तावना

भारत का संविधान एक संसदीय लोकतंत्र की स्थापना करता है, जिसमें कार्यपालिका की असली शक्ति प्रधानमंत्री के हाथों में होती है। यद्यपि राष्ट्रपति भारत का संवैधानिक प्रमुख है, परंतु वास्तविक कार्यपालिका का संचालन प्रधानमंत्री द्वारा ही किया जाता है। प्रधानमंत्री को भारतीय राजनीति का "मुख्य धुरी", "शासन की आत्मा", और "नेतृत्व का चेहरा" कहा जाता है।


📌 प्रधानमंत्री पद का संवैधानिक आधार

🔹 प्रधानमंत्री का पद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 और 75 के अंतर्गत वर्णित है।
🔹 अनुच्छेद 74(1) के अनुसार, "राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों की सहायता और सलाह से कार्य करेगा।"
🔹 प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, जो उस व्यक्ति को नियुक्त करता है जिसके पास लोकसभा में बहुमत होता है।


📖 प्रधानमंत्री बनने की आवश्यक योग्यताएँ

✔️ वह व्यक्ति भारत का नागरिक होना चाहिए।
✔️ उसे लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य होना चाहिए।
✔️ यदि वह नियुक्ति के समय संसद का सदस्य नहीं है, तो 6 महीने के भीतर संसद का सदस्य बनना अनिवार्य है।
✔️ उसकी आयु कम से कम 25 वर्ष (लोकसभा) या 30 वर्ष (राज्यसभा) होनी चाहिए।
✔️ वह मानसिक रूप से स्वस्थ और विधि द्वारा अयोग्य न ठहराया गया हो।


🛠️ प्रधानमंत्री की नियुक्ति प्रक्रिया

➤ आमतौर पर लोकसभा चुनावों के पश्चात जिस दल या गठबंधन को बहुमत प्राप्त होता है, उसके नेता को राष्ट्रपति प्रधानमंत्री नियुक्त करता है।
➤ यह प्रक्रिया पूरी तरह लोकतांत्रिक है, परंतु कुछ असामान्य स्थितियों में राष्ट्रपति को विवेकाधिकार का प्रयोग करना पड़ता है — जैसे त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में।


⚖️ प्रधानमंत्री की शक्तियाँ और कार्य

प्रधानमंत्री के पास विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ होती हैं, जो उसे शासन की शीर्ष स्थिति पर स्थापित करती हैं।


📋 1. कार्यपालिका संबंधी शक्तियाँ

🔹 प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद का प्रमुख होता है।
🔹 राष्ट्रपति को मंत्रियों की नियुक्ति और इस्तीफे की सिफारिश प्रधानमंत्री ही करता है।
🔹 मंत्रियों के विभागों का आवंटन भी प्रधानमंत्री के अधिकार क्षेत्र में आता है।
🔹 प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है और उनके कार्यों में समन्वय स्थापित करता है।


🏛️ 2. विधायी शक्तियाँ

✔️ प्रधानमंत्री संसद में सरकार का नेता होता है।
✔️ वह संसद के दोनों सदनों में सरकार की नीतियों का प्रतिनिधित्व करता है।
✔️ लोकसभा में विश्वास मत या अविश्वास प्रस्ताव के समय सरकार की प्रतिष्ठा प्रधानमंत्री से जुड़ी होती है।
✔️ संसद के अधिवेशन को बुलाने और स्थगित करने में भी प्रधानमंत्री की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।


🌐 3. विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा में भूमिका

🔹 प्रधानमंत्री विदेशी राष्ट्राध्यक्षों से मिलने और भारत का प्रतिनिधित्व करने का कार्य करता है।
🔹 वह राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद का प्रमुख होता है।
🔹 युद्ध, समझौते, रक्षा नीति आदि में प्रधानमंत्री की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।


👥 4. प्रशासनिक और नीतिगत नेतृत्व

➤ प्रधानमंत्री नीति आयोग का अध्यक्ष होता है।
➤ वह विभिन्न राष्ट्रीय समितियों, जैसे कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्योरिटी, कैबिनेट कमिटी ऑन इकोनॉमिक अफेयर्स आदि का प्रमुख होता है।
➤ देश की आंतरिक नीतियों, प्रशासनिक निर्णयों और योजनाओं का संचालन भी प्रधानमंत्री के अधीन होता है।


📊 प्रधानमंत्री की स्थिति: शक्ति और मर्यादा

प्रधानमंत्री की स्थिति को लेकर यह कहा जाता है कि —

“The Prime Minister is the first among equals.”

इसका अर्थ है कि यद्यपि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है, फिर भी प्रधानमंत्री उसका सबसे प्रभावशाली सदस्य होता है।


📌 प्रधानमंत्री की शक्तियों पर सीमाएँ

✔️ प्रधानमंत्री को मंत्रिपरिषद की सामूहिक जिम्मेदारी के अंतर्गत कार्य करना होता है।
✔️ लोकसभा का विश्वास प्राप्त होना अनिवार्य है, अन्यथा प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देना पड़ता है।
✔️ राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार नियुक्ति और निष्कासन संभव है।
✔️ न्यायपालिका प्रधानमंत्री के कार्यों की संवैधानिक वैधता की समीक्षा कर सकती है।


📚 कुछ ऐतिहासिक प्रधानमंत्री और उनकी भूमिका

🔹 पंडित जवाहरलाल नेहरू – आधुनिक भारत के निर्माता, गुटनिरपेक्ष आंदोलन के स्थापक
🔹 इंदिरा गांधी – दृढ़ निर्णयों की प्रतीक, आपातकाल लागू करने वाली
🔹 अटल बिहारी वाजपेयी – उदार और सर्वसम्मति वाले प्रधानमंत्री
🔹 नरेंद्र मोदी – वैश्विक मंच पर भारत की सशक्त उपस्थिति और मजबूत नेतृत्व की छवि


🌟 उपसंहार

भारत का प्रधानमंत्री न केवल कार्यपालिका का प्रमुख होता है, बल्कि वह देश की राजनीतिक दिशा, आर्थिक नीति, कूटनीति और प्रशासन का मार्गदर्शक भी होता है। उसकी भूमिका संसद, मंत्रिपरिषद और राष्ट्रपति से जुड़ी होने के बावजूद, उसकी केन्द्रीय स्थिति और प्रभाव निर्विवाद है। लोकतांत्रिक मर्यादाओं और संवैधानिक सीमाओं के भीतर रहते हुए, प्रधानमंत्री देश की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है और भारत को सशक्त बनाने की दिशा में अग्रसर रहता है।




प्रश्न 14 प्रधानमंत्री की सदन के नेता और सरकार के मुखिया के रूप में महत्व की व्याख्या कीजिए।


🎯 प्रस्तावना

भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री की भूमिका अत्यंत केंद्रीय और प्रभावशाली है। प्रधानमंत्री न केवल सरकार का मुखिया होता है, बल्कि वह संसद, विशेषकर लोकसभा में, सदन का नेता भी होता है। यह दोहरी भूमिका प्रधानमंत्री को शासन के सभी प्रमुख आयामों — विधायी, कार्यपालिका और राजनीतिक — में निर्णायक बनाती है। वास्तव में, प्रधानमंत्री ही वह धुरी है, जिसके चारों ओर भारत का प्रशासनिक पहिया घूमता है।


📌 प्रधानमंत्री की दो प्रमुख भूमिकाएँ

🔹 सरकार के मुखिया के रूप में – कार्यपालिका का संचालन, मंत्री परिषद का नेतृत्व, नीतियों का निर्धारण
🔹 सदन के नेता के रूप में – लोकसभा में बहुमत दल का प्रतिनिधित्व, विधेयकों का संचालन, विपक्ष से संवाद

इन दोनों भूमिकाओं का समन्वय भारतीय शासन प्रणाली की कुशलता को दर्शाता है।


🏛️ सरकार के मुखिया के रूप में प्रधानमंत्री का महत्व

प्रधानमंत्री भारत सरकार की कार्यपालिका का वास्तविक प्रमुख होता है। वह राष्ट्रपति के अधीन रहते हुए पूरे प्रशासन की योजना और संचालन का नेतृत्व करता है।


📖 1. मंत्रिपरिषद का नेतृत्व

✔️ प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष होता है।
✔️ अन्य मंत्रियों की नियुक्ति, विभाग वितरण तथा उनका निष्कासन प्रधानमंत्री की सलाह से होता है।
✔️ वह मंत्रिपरिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है और उनके कार्यों में समन्वय बनाए रखता है।

🔹 मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है, लेकिन इस उत्तरदायित्व का भार सबसे अधिक प्रधानमंत्री पर होता है।


🧭 2. नीतियों का निर्माण और दिशा-निर्देशन

🔹 सरकार की नीतियाँ और कार्यक्रम प्रधानमंत्री की सोच और दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करते हैं।
🔹 राष्ट्रीय योजनाओं, विदेशी नीति, आंतरिक सुरक्षा, कृषि, शिक्षा और अन्य प्रमुख क्षेत्रों में नीति-निर्धारण में प्रधानमंत्री की केंद्रीय भूमिका होती है।
🔹 नीति आयोग, कैबिनेट कमेटियों, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाओं का नेतृत्व प्रधानमंत्री करता है।


🛡️ 3. संकट काल में निर्णायक नेतृत्व

✔️ प्रधानमंत्री राष्ट्रीय आपातकाल, युद्ध या आतंक जैसी स्थितियों में देश का नेतृत्व करता है।
✔️ वह रक्षा, गृह, वित्त आदि महत्वपूर्ण मंत्रालयों के साथ समन्वय करता है और त्वरित निर्णय लेता है।
✔️ कोविड-19 महामारी, पुलवामा हमला और बालाकोट स्ट्राइक जैसे मामलों में प्रधानमंत्री की भूमिका रणनीतिक और निर्णायक रही है।


👥 सदन के नेता के रूप में प्रधानमंत्री की भूमिका

लोकसभा में प्रधानमंत्री सत्तारूढ़ दल या गठबंधन का प्रमुख होता है। वह न केवल बहुमत दल का नेतृत्व करता है, बल्कि पूरे सदन में सरकार का चेहरा होता है।


📘 1. विधायी कार्यों का संचालन

🔹 संसद में प्रस्तुत अधिकांश विधेयक प्रधानमंत्री के निर्देश पर ही लाए जाते हैं।
🔹 वह संसद में सरकार की नीति और प्रस्तावों का प्रतिनिधित्व करता है।
🔹 लोकसभा में किसी भी विषय पर बहस का संचालन प्रधानमंत्री की रणनीति के अनुसार होता है।

✔️ प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए भाषण संसद में सरकार की नीति का प्रतिबिंब होते हैं। ये नीतिगत दिशाओं को स्पष्ट करते हैं।


🤝 2. विपक्ष और जनमत के साथ संवाद

✔️ प्रधानमंत्री का कर्तव्य होता है कि वह विपक्ष को सुने, प्रश्नों का उत्तर दे और संसद के संचालन को सुचारु बनाए।
✔️ प्रधानमंत्री की संवादात्मक क्षमता संसदीय लोकतंत्र को सशक्त बनाती है।
✔️ उसका आचरण संसदीय परंपराओं की गरिमा को बनाए रखने में सहायक होता है।


🗳️ 3. विश्वास मत और अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में केंद्रीय भूमिका

🔹 सरकार का अस्तित्व प्रधानमंत्री के नेतृत्व पर निर्भर करता है।
🔹 यदि प्रधानमंत्री लोकसभा में विश्वास खो देता है, तो पूरी मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना पड़ता है।
🔹 इसलिए, प्रधानमंत्री की संसदीय स्थिति न केवल राजनैतिक बल्कि संवैधानिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।


📚 ऐतिहासिक उदाहरण

🔸 पंडित नेहरू – संसद में बहस के दौरान उनकी तार्किक शक्ति उन्हें सर्वप्रिय बनाती थी।
🔸 इंदिरा गांधी – उन्होंने अपने निर्णयों से सरकार और संसद दोनों पर गहरी छाप छोड़ी।
🔸 अटल बिहारी वाजपेयी – उनके वक्तृत्व कौशल और सदन में मर्यादित व्यवहार की सराहना सभी दल करते थे।
🔸 नरेंद्र मोदी – संसद में उनकी सक्रियता, योजनाओं की प्रस्तुति और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर स्पष्टता उल्लेखनीय है।


⚖️ प्रधानमंत्री की दोनों भूमिकाओं का समन्वय

प्रधानमंत्री की यह दोहरी भूमिका उसे प्रशासन और विधायिका के बीच सेतु बनाती है। सरकार की नीतियाँ तभी प्रभावी बन सकती हैं जब वे संसद में पारित हों और प्रशासन द्वारा क्रियान्वित की जाएँ — और यह समन्वय केवल प्रधानमंत्री ही सुनिश्चित करता है।

✔️ वह विधायिका से नीति को पारित करवाता है
✔️ फिर कार्यपालिका से उस नीति को लागू करवाता है


🌟 उपसंहार

प्रधानमंत्री की भूमिका केवल प्रशासनिक प्रमुख तक सीमित नहीं है, बल्कि वह संसद का भी नेता होता है। इन दोनों भूमिकाओं का सफलतापूर्वक निर्वहन ही भारत के लोकतंत्र की जीवंतता का प्रमाण है। एक प्रभावी प्रधानमंत्री वह होता है जो संसद में उत्तरदायी नेता और सरकार में दूरदर्शी योजनाकार दोनों भूमिकाएँ समान रूप से निभाए। इस प्रकार, प्रधानमंत्री भारतीय लोकतंत्र का आधारस्तंभ है — जो विचारधारा, संवाद और कार्यान्वयन तीनों का नेतृत्व करता है।




प्रश्न 15 संसद के संगठन और कार्यों की विस्तृत विवेचना कीजिए।


🎯 प्रस्तावना

भारतीय संसद देश की सर्वोच्च विधायिका है, जो लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभों में से एक – विधायिका – का प्रतिनिधित्व करती है। यह वह मंच है जहाँ जनप्रतिनिधि बैठकर देश की कानून व्यवस्था, नीतियाँ और बजट निर्धारित करते हैं। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में संसद का संगठन एवं कार्य प्रणाली अत्यंत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि यह न केवल कानून बनाती है, बल्कि सरकार को उत्तरदायी भी ठहराती है।


📌 भारतीय संसद का संगठन

भारतीय संसद का संगठन संविधान के अनुच्छेद 79 से 122 तक वर्णित है। संसद तीन घटकों से मिलकर बनती है:

🔹 राष्ट्रपति
🔹 राज्यसभा (उच्च सदन)
🔹 लोकसभा (निचला सदन)

हालाँकि राष्ट्रपति संसद का अंग होता है, लेकिन वह किसी सदन का सदस्य नहीं होता। वह संसद का हिस्सा होकर विधायी प्रक्रिया का आवश्यक अंग बनता है।


🏛️ 1. राष्ट्रपति (President)

✔️ राष्ट्रपति संसद का एक अनिवार्य घटक है।
✔️ कोई भी विधेयक तब तक कानून नहीं बन सकता जब तक राष्ट्रपति उसे अपनी स्वीकृति न दे।
✔️ राष्ट्रपति ही संसद के अधिवेशन बुलाता, स्थगित करता और विघटन करता है।


📘 2. राज्यसभा (Rajya Sabha)

राज्यसभा को संसद का उच्च सदन कहा जाता है। इसे स्थायी सदन भी कहते हैं क्योंकि इसे भंग नहीं किया जा सकता।

🔹 राज्यसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 250 हो सकती है।
🔹 इनमें से 238 सदस्य राज्य विधानसभाओं द्वारा निर्वाचित होते हैं और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामित किए जाते हैं।
🔹 राज्यसभा के सदस्य 6 वर्षों के लिए चुने जाते हैं, और हर दो वर्ष में 1/3 सदस्य सेवानिवृत्त होते हैं।
🔹 इसके अध्यक्ष भारत के उपराष्ट्रपति होते हैं।


📗 3. लोकसभा (Lok Sabha)

लोकसभा को संसद का निचला लेकिन अधिक शक्तिशाली सदन माना जाता है। यह सीधे जनता द्वारा चुनी जाती है।

🔹 इसकी अधिकतम सदस्य संख्या 552 हो सकती है।
🔹 530 सदस्य राज्यों से, 20 केंद्रशासित प्रदेशों से और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामित हो सकते हैं।
🔹 लोकसभा का कार्यकाल सामान्यतः 5 वर्षों का होता है, परंतु आपातकाल में इसे बढ़ाया जा सकता है।
🔹 इसके अध्यक्ष को स्पीकर कहते हैं।


📖 संसद के प्रमुख कार्य

भारतीय संसद केवल कानून बनाने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके विविध कार्य होते हैं:


📜 1. विधायी कार्य (Legislative Functions)

✔️ संसद का सबसे प्रमुख कार्य कानून बनाना है।
✔️ संसद केंद्र सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।
✔️ विधेयक पहले किसी एक सदन में प्रस्तुत किया जाता है, दोनों सदनों द्वारा पारित होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति से वह कानून बनता है।
✔️ दो प्रकार के विधेयक होते हैं – साधारण विधेयक और वित्त विधेयक


💰 2. वित्तीय कार्य (Financial Functions)

🔹 संसद ही सरकार के वित्तीय संसाधनों का नियंत्रण करती है।
🔹 प्रत्येक वित्तीय वर्ष की शुरुआत में बजट संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
🔹 बिना संसद की अनुमति के कोई कर नहीं लगाया जा सकता, और न ही कोई धन खर्च किया जा सकता है।
🔹 लोकसभा का वित्तीय मामलों में अधिक अधिकार होता है क्योंकि वित्त विधेयक केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत हो सकता है


🔍 3. कार्यपालिका पर नियंत्रण (Control Over Executive)

✔️ संसद के माध्यम से सरकार को उत्तरदायी ठहराया जाता है।
✔️ लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर सरकार को त्यागपत्र देना पड़ता है।
✔️ संसद प्रश्न पूछकर, चर्चा और प्रस्तावों के माध्यम से सरकार से जवाबदेही सुनिश्चित करती है।
✔️ संसद में मंत्रीगण अपने विभागों की कार्यवाही के लिए जवाबदेह होते हैं।


⚖️ 4. संशोधन कार्य (Amending the Constitution)

🔹 संसद को संविधान संशोधन का अधिकार है जो अनुच्छेद 368 के अंतर्गत आता है।
🔹 कुछ संशोधन साधारण बहुमत से, कुछ विशेष बहुमत से, और कुछ विशेष बहुमत + राज्यों की सहमति से किए जाते हैं।
🔹 संसद अब तक 100 से अधिक संशोधन कर चुकी है।


🌐 5. न्यायिक कार्य (Judicial Functions)

✔️ संसद के पास राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति या उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को महाभियोग के माध्यम से हटाने की शक्ति है।
✔️ यह कार्य बहुत कठिन और प्रक्रियात्मक होता है, लेकिन संसद को यह शक्ति संविधान द्वारा दी गई है।


🤝 6. अन्य महत्वपूर्ण कार्य

🔹 राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव
🔹 राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव
🔹 विभिन्न समितियों का गठन (जैसे – लोक लेखा समिति, स्थायी समिति)
🔹 अंतर्राष्ट्रीय संधियों की समीक्षा और प्रभाव


📚 संसद की कार्यवाही की विशेषताएँ

✔️ संसद की कार्यवाही सार्वजनिक होती है और इसे मीडिया के माध्यम से देश की जनता तक पहुँचाया जाता है।
✔️ संसद में बहस, तर्क, चर्चा, और संवाद लोकतंत्र की आत्मा हैं।
✔️ संसद ही वह मंच है जहाँ देश की जनता की आवाज़ को उनके प्रतिनिधि द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।


🌟 उपसंहार

भारतीय संसद का संगठन और उसकी कार्यप्रणाली लोकतंत्र की सुदृढ़ नींव है। राष्ट्रपति, राज्यसभा और लोकसभा मिलकर न केवल देश का कानून बनाते हैं, बल्कि सरकार को उत्तरदायी और पारदर्शी भी बनाए रखते हैं। संसद वह स्थान है जहाँ देश की नीतियाँ बनती हैं, समस्याएँ उठाई जाती हैं और समाधान खोजे जाते हैं। एक मजबूत, सतर्क और उत्तरदायी संसद ही किसी लोकतंत्र की पहचान होती है — और भारत इस पहचान पर खरा उतरता है।




प्रश्न 16 सर्वोच्च न्यायालय के संगठन और कार्यों का वर्णन करें।


🎯 प्रस्तावना

भारत का सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) भारतीय न्याय प्रणाली का शीर्ष और सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह संविधान की व्याख्या करता है, विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की न्यायिक समीक्षा करता है, और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है। संविधान का अनुच्छेद 124 से 147 तक सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित प्रावधानों का वर्णन करता है।


📌 सर्वोच्च न्यायालय का संगठन

सर्वोच्च न्यायालय का गठन भारत के संविधान द्वारा किया गया है और इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है। यह भारत का संवैधानिक न्यायालय, अपील न्यायालय, और मौलिक अधिकारों का रक्षक है।


📖 1. न्यायाधीशों की संख्या

🔹 सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India) और अन्य न्यायाधीश होते हैं।
🔹 प्रारंभ में यह संख्या 7 थी, लेकिन समय के साथ बढ़ती गई।
🔹 वर्ष 2019 में एक संशोधन के बाद, अधिकतम न्यायाधीशों की संख्या 34 (मुख्य न्यायाधीश सहित) कर दी गई है।


📘 2. न्यायाधीशों की नियुक्ति

✔️ मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
✔️ अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह पर होती है।
✔️ इस प्रणाली को कोलेजियम प्रणाली कहा जाता है।


📜 3. योग्यता

न्यायाधीश बनने के लिए निम्न योग्यताएं आवश्यक हैं:

🔹 वह भारत का नागरिक हो।
🔹 उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो (5 वर्षों के लिए), या
🔹 उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो (10 वर्षों तक), या
🔹 राष्ट्रपति की दृष्टि में वह एक प्रतिष्ठित न्यायविद् हो।


⚖️ 4. कार्यकाल और सेवा शर्तें

✔️ सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष है।
✔️ उन्हें केवल संसद के विशेष प्रक्रिया द्वारा ही हटाया जा सकता है, जिसे महाभियोग कहते हैं।


📚 सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख कार्य

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के कार्य अत्यंत विविध और संवैधानिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन्हें निम्नलिखित वर्गों में समझा जा सकता है:


⚖️ 1. मूल अधिकारों का रक्षक

🔹 सर्वोच्च न्यायालय संविधान के भाग 3 में वर्णित मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है।
🔹 कोई भी नागरिक यदि यह माने कि उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है, तो वह अनुच्छेद 32 के अंतर्गत सीधे सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है।
🔹 डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का "हृदय और आत्मा" कहा था।


📜 2. मूल अधिकारिता क्षेत्र (Original Jurisdiction)

✔️ यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 131 में वर्णित है।
✔️ केंद्र और राज्यों या दो राज्यों के बीच संवैधानिक विवादों का समाधान सर्वोच्च न्यायालय करता है।
✔️ इस क्षेत्र में यह सीधे मामलों की सुनवाई कर सकता है — जैसे संघीय विवाद, सीमांकन, अधिकारों का टकराव आदि।


🧭 3. अपीली अधिकारिता (Appellate Jurisdiction)

🔹 यह सर्वोच्च न्यायालय का सबसे बड़ा क्षेत्र है।
🔹 उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों के विरुद्ध अपील की जा सकती है।
🔹 इसमें नागरिक, दंडात्मक, कर, संपत्ति, विवाह आदि विषय आते हैं।


📘 4. परामर्शदात्री क्षेत्र (Advisory Jurisdiction)

✔️ अनुच्छेद 143 के अंतर्गत राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय से किसी भी विधिक प्रश्न पर परामर्श मांग सकता है।
✔️ यह परामर्श बाध्यकारी नहीं होता, परंतु इसका महत्व अत्यधिक होता है।


🔍 5. न्यायिक समीक्षा (Judicial Review)

🔹 सर्वोच्च न्यायालय संसद द्वारा पारित कानूनों की संवैधानिक वैधता की समीक्षा कर सकता है।
🔹 यदि कोई कानून संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध है, तो उसे असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है।
🔹 केशवानंद भारती मामला (1973) में यह सिद्धांत स्थापित हुआ।


📑 6. विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition – SLP)

✔️ अनुच्छेद 136 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह किसी भी निर्णय, आदेश या निर्णय के विरुद्ध विशेष अनुमति याचिका स्वीकार कर सुनवाई कर सकता है।
✔️ यह सबसे अधिक प्रयुक्त अधिकार है जिससे आम जनता न्याय प्राप्त करती है।


🔒 7. न्यायिक स्वतंत्रता का प्रतीक

🔹 सर्वोच्च न्यायालय एक स्वतंत्र संस्था है जिसे कार्यपालिका या विधायिका से अलग रखा गया है।
🔹 न्यायाधीशों की नियुक्ति, कार्यकाल और हटाने की प्रक्रिया इतनी सख्त है कि कोई राजनीतिक दबाव काम नहीं कर सकता।


🌟 उपसंहार

भारत का सर्वोच्च न्यायालय केवल एक न्यायालय नहीं, बल्कि संविधान का संरक्षक, लोकतंत्र का प्रहरी और नागरिक अधिकारों का रक्षक है। इसका संगठन प्रभावशाली, शक्तियाँ व्यापक और भूमिका निर्णायक है। चाहे वह मौलिक अधिकारों की रक्षा हो या संसद के कानूनों की समीक्षा — सर्वोच्च न्यायालय देश में न्याय, स्वतंत्रता और समानता की भावना को जीवित रखने वाला सर्वोच्च मंच है। इसकी निष्पक्षता, प्रभावशीलता और संवैधानिक प्रतिबद्धता ही भारतीय लोकतंत्र की असली ताकत है।


प्रश्न 17  संविधान और मौलिक अधिकारों के रक्षक के रूप में सर्वोच्च न्यायालय किस तरह भूमिका निभाता है? बताइए।


🎯 प्रस्तावना

भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का आधार संविधान है, और उस संविधान का रक्षक है — भारत का सर्वोच्च न्यायालय। संविधान ने प्रत्येक नागरिक को कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किए हैं, जिनकी सुरक्षा करना न केवल न्यायपालिका का कर्तव्य है, बल्कि उसका नैतिक और संवैधानिक दायित्व भी है। इस भूमिका में सर्वोच्च न्यायालय न केवल न्याय प्रदान करता है, बल्कि लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता जैसे मूल्यों की रक्षा भी करता है।


📌 सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका का संवैधानिक आधार

🔹 संविधान के अनुच्छेद 32 को मौलिक अधिकारों की रक्षा का मूल स्तंभ माना गया है।
🔹 डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसे "संविधान की आत्मा और हृदय" कहा था।
🔹 सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 131 से 147 तक शक्तियाँ दी गई हैं।
🔹 यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और दायरे को निश्चित करता है।


📖 मौलिक अधिकारों की रक्षा में सर्वोच्च न्यायालय की विशेष शक्तियाँ


⚖️ 1. अनुच्छेद 32 के तहत रिट्स (Writs) जारी करने का अधिकार

✔️ सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर प्रत्यक्ष राहत देने का अधिकार रखता है।
✔️ यह कार्य वह रिट याचिकाओं के माध्यम से करता है, जो निम्न प्रकार की होती हैं:

🔹 हैबियस कॉर्पस (Habeas Corpus) – किसी व्यक्ति को अवैध हिरासत से मुक्त कराना
🔹 मैंडेमस (Mandamus) – किसी सरकारी अधिकारी को उसका वैधानिक कर्तव्य पूरा करने का आदेश देना
🔹 सर्टियोरारी (Certiorari) – किसी निचली अदालत से मामला मंगवाकर निरस्त करना
🔹 प्रोसीडेंटो (Prohibition) – निचली अदालत को किसी कार्यवाही से रोकना
🔹 क्यू वारंटो (Quo Warranto) – किसी व्यक्ति को उसके पद पर वैधानिक अधिकार के अभाव में हटाना

इन रिट्स के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों की सीधी सुरक्षा करता है।


🛡️ 2. न्यायिक समीक्षा (Judicial Review)

🔹 यह सर्वोच्च न्यायालय की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है।
🔹 न्यायालय किसी भी कानून, कार्यपालिका आदेश या सरकारी निर्णय की संवैधानिक वैधता की समीक्षा कर सकता है।
🔹 यदि कोई कानून या निर्णय संविधान के मौलिक ढांचे या अधिकारों के विरुद्ध है, तो उसे अवैध (Unconstitutional) घोषित किया जा सकता है।

✔️ यह शक्ति लोकतंत्र में सत्ता का संतुलन बनाए रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण है।


📜 3. मूल अधिकारों के व्यापक व्याख्या की शक्ति

🔹 सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर मौलिक अधिकारों की व्यापक व्याख्या करता है और उन्हें युगानुकूल बनाता है।
🔹 कुछ उदाहरण:

✔️ “जीवन का अधिकार” (Right to Life - अनुच्छेद 21) में केवल जीवन नहीं, बल्कि सम्मानपूर्वक जीवन, शिक्षा, पर्यावरण, स्वास्थ्य, आवास आदि को भी शामिल किया गया।
✔️ मानव गरिमा, निजता का अधिकार (Right to Privacy), ट्रांसजेंडर अधिकार, सूचना का अधिकार (RTI) — सभी की पुष्टि न्यायालय द्वारा की गई।


📘 4. जनहित याचिका (Public Interest Litigation – PIL)

🔹 यह एक विशेष प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से कोई भी नागरिक, स्वयं पीड़ित न होते हुए भी, किसी सार्वजनिक हित के मामले को न्यायालय में ला सकता है।
🔹 PIL ने सामाजिक न्याय और अधिकारों की रक्षा को एक नया आयाम दिया है।

उदाहरण:
✔️ बंधुआ मजदूरी
✔️ पर्यावरण प्रदूषण
✔️ जेल सुधार
✔️ बाल श्रम
✔️ महिला अधिकार

इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा की।


🔍 5. स्वतः संज्ञान लेना (Suo Moto Cognizance)

✔️ सर्वोच्च न्यायालय कभी-कभी किसी समाजिक समस्या, मीडिया रिपोर्ट या गंभीर जनहित के मामले पर स्वयं याचिका का रूप देकर सुनवाई करता है।
✔️ इससे मौलिक अधिकारों की रक्षा और तेज, संवेदनशील व न्यायपूर्ण बनती है।


📚 महत्वपूर्ण ऐतिहासिक निर्णय

🔸 केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):
मौलिक अधिकारों को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना गया।
संविधान संशोधन की शक्ति सीमित की गई।

🔸 मनु शर्मा बनाम दिल्ली सरकार (2006):
राजनीतिक मामलों में पारदर्शिता और निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित की गई।

🔸 जस्टिस के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत सरकार (2017):
निजता का अधिकार (Right to Privacy) को मौलिक अधिकार घोषित किया गया।

🔸 शाह बानो मामला (1985):
महिलाओं के अधिकारों को मजबूती प्रदान की गई।


🌐 संविधान का संरक्षक और लोकतंत्र का प्रहरी

🔹 सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने वाला अंतिम और सर्वोच्च निकाय है।
🔹 यह सुनिश्चित करता है कि संविधान का कोई भी अंग, विशेष रूप से कार्यपालिका और विधायिका, अपनी सीमाओं का उल्लंघन न करे
🔹 न्यायालय का हर निर्णय लोकतंत्र को और मजबूत बनाता है।


🌟 उपसंहार

भारत का सर्वोच्च न्यायालय केवल एक न्याय प्रदान करने वाला मंच नहीं, बल्कि संविधान और मौलिक अधिकारों का संरक्षक है। न्यायालय ने समय-समय पर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करते हुए यह सिद्ध किया है कि भारत में न्यायपालिका स्वतंत्र, निष्पक्ष और सशक्त है। संविधान की आत्मा को जीवित रखने में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका मील का पत्थर है। वह न केवल न्याय करता है, बल्कि सामाजिक बदलाव और जनहित के लिए दिशा भी देता है।



प्रश्न 18  केंद्र तथा राज्यों के मध्य विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय संबंधों का विस्तृत वर्णन कीजिए।


🎯 प्रस्तावना

भारत एक संघात्मक राष्ट्र (Federal Nation) है, जहाँ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का संविधान द्वारा विभाजन किया गया है। यह विभाजन केवल विधायी (Legislative) ही नहीं, बल्कि प्रशासनिक (Administrative) और वित्तीय (Financial) क्षेत्रों में भी स्पष्ट रूप से किया गया है। इस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में एकता और अखंडता बनाए रखना, साथ ही राज्यों को स्वायत्तता प्रदान करना है।


📌 संविधान में संघीय संबंधों का आधार

🔹 संविधान के भाग-11 (अनुच्छेद 245 से 263) और भाग-12 में केंद्र और राज्यों के संबंधों का विस्तृत वर्णन है।
🔹 तीन प्रमुख प्रकार के संबंध हैं:
 ✔️ विधायी संबंध
 ✔️ प्रशासनिक संबंध
 ✔️ वित्तीय संबंध


📖 1. विधायी संबंध (Legislative Relations)

विधायी संबंध यह निर्धारित करते हैं कि कौन सरकार किन विषयों पर कानून बना सकती है।


📘 संविधान द्वारा तीन सूची प्रणाली (Three Lists)

✔️ 1. संघ सूची (Union List)
🔹 इसमें 100 विषय (2024 तक) शामिल हैं, जैसे — रक्षा, विदेश नीति, परमाणु ऊर्जा।
🔹 केवल संसद ही इन विषयों पर कानून बना सकती है।

✔️ 2. राज्य सूची (State List)
🔹 इसमें 61 विषय हैं, जैसे — पुलिस, स्वास्थ्य, कृषि।
🔹 इन विषयों पर सामान्यतः राज्य विधानसभा कानून बनाती है।

✔️ 3. समवर्ती सूची (Concurrent List)
🔹 इसमें 52 विषय हैं, जैसे — शिक्षा, विवाह, वन, श्रम।
🔹 इस पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं।
🔹 टकराव की स्थिति में केंद्र का कानून प्रभावी होता है (अनुच्छेद 254)।


📜 अन्य विशेष प्रावधान

🔹 अनुच्छेद 249: राज्य सूची पर भी संसद को कानून बनाने का अधिकार है यदि राज्यसभा विशेष प्रस्ताव पारित करे।
🔹 अनुच्छेद 252: दो या दो से अधिक राज्य यदि केंद्र से आग्रह करें, तो केंद्र उनके लिए कानून बना सकता है।
🔹 आपातकाल में (अनुच्छेद 356) केंद्र को राज्य सूची पर भी कानून बनाने का पूर्णाधिकार प्राप्त होता है।


🏛️ 2. प्रशासनिक संबंध (Administrative Relations)

यह संबंध यह निर्धारित करते हैं कि प्रशासनिक दृष्टि से केंद्र और राज्य सरकारें कैसे कार्य करेंगी और उनका आपसी समन्वय कैसे होगा।


📌 प्रमुख प्रशासनिक प्रावधान

✔️ अनुच्छेद 256: राज्यों को यह सुनिश्चित करना होता है कि उनकी कार्यवाही संसद के कानूनों के अनुरूप हो।
✔️ अनुच्छेद 257: राज्य केंद्र के नियंत्रण के अधीन होंगे जब केंद्रीय निर्देशों की आवश्यकता हो।
✔️ केंद्र और राज्य के अधिकारी एक-दूसरे के कार्यों में सहयोग करने के लिए बाध्य होते हैं।


📘 संयुक्त प्रशासन की व्यवस्था

🔹 अखिल भारतीय सेवाएँ (All India Services): जैसे IAS, IPS, IFoS — ये सेवाएँ दोनों सरकारों के लिए कार्य करती हैं।
🔹 सहायता और समन्वय: केंद्र राज्यों को प्राकृतिक आपदा, शिक्षा, स्वास्थ्य, और राष्ट्रीय कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में सहायता करता है।
🔹 राज्यपाल की भूमिका: राज्यपाल को केंद्र नियुक्त करता है और वह केंद्र व राज्य के बीच संवैधानिक सेतु की तरह कार्य करता है।


📚 अंतरराज्यीय परिषद (Inter-State Council)

✔️ अनुच्छेद 263 के अंतर्गत अंतरराज्यीय विवादों का समाधान और समन्वय के लिए यह परिषद बनाई गई है।
✔️ केंद्र और राज्यों के बीच बेहतर संवाद व नीति निर्धारण में सहायक।


💰 3. वित्तीय संबंध (Financial Relations)

किसी भी संघात्मक प्रणाली की सफलता के लिए वित्तीय संतुलन आवश्यक होता है। संविधान ने केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व प्राप्ति और व्यय का भी निर्धारण किया है।


📘 राजस्व के स्रोतों का विभाजन

✔️ केवल केंद्र को मिलने वाले कर:
🔹 आयकर (कार्पोरेट टैक्स छोड़कर), कस्टम ड्यूटी, एक्साइज ड्यूटी

✔️ केवल राज्यों को मिलने वाले कर:
🔹 भूमि राजस्व, स्टाम्प ड्यूटी, राज्य आबकारी, वाहन कर

✔️ GST (वस्तु एवं सेवा कर):
🔹 यह एक साझा कर प्रणाली है (अनुच्छेद 246A), जिसमें केंद्र और राज्य दोनों की भागीदारी होती है।


📖 राज्यों को केंद्र से वित्तीय सहायता

🔹 अनुदान (Grants-in-aid): अनुच्छेद 275 के तहत विशेष जरूरतों के लिए
🔹 राजस्व वितरण: केंद्र द्वारा एकत्रित कुछ कर राज्यों में बाँटे जाते हैं
🔹 वित्त आयोग (Finance Commission):
 ✔️ संविधान के अनुच्छेद 280 के अंतर्गत गठित
 ✔️ यह आयोग प्रत्येक 5 वर्ष में राज्यों को वित्तीय संसाधन कैसे बाँटे जाएँ, इसका सुझाव देता है।


📌 गुड गवर्नेंस के लिए समन्वय की आवश्यकता

🔹 संविधान ने भले ही अधिकारों का विभाजन कर दिया हो, परंतु प्रशासनिक वास्तविकता यह है कि दोनों सरकारों को सहयोगपूर्वक कार्य करना पड़ता है।
🔹 केंद्र को राज्यों की स्वायत्तता का सम्मान करना चाहिए, और राज्यों को राष्ट्रहित में केंद्र की नीतियों में सहयोग देना चाहिए।


🌟 उपसंहार

भारत की संघीय प्रणाली "सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism)" पर आधारित है। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय संबंधों की यह जटिल, फिर भी संतुलित संरचना भारत को एक एकीकृत लेकिन विविधतापूर्ण राष्ट्र बनाए रखती है।
संपूर्ण व्यवस्था का उद्देश्य यही है कि भारत में एकता भी बनी रहे और राज्यों की स्वायत्तता भी सुरक्षित रहे।


प्रश्न 19 . मंत्रिपरिषद क्या है? मुख्यमंत्री से उसके संबंध क्या हैं?


🎯 प्रस्तावना

भारत के राज्यों में शासन व्यवस्था के संचालन हेतु कार्यपालिका का प्रमुख हिस्सा होती है — मंत्रिपरिषद। यह एक सामूहिक संस्था होती है, जो राज्य के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में कार्य करती है। मंत्रिपरिषद ही वह मंच है जहाँ राज्य की नीतियाँ बनाई जाती हैं, निर्णय लिए जाते हैं और उन्हें क्रियान्वित किया जाता है। मुख्यमंत्री इस परिषद के केंद्र में होते हैं और उसकी दिशा, दशा और निर्णयों को नियंत्रित करते हैं।


📌 मंत्रिपरिषद क्या है?

🔹 भारत के प्रत्येक राज्य में मंत्रियों का एक समूह होता है जिसे मंत्रिपरिषद कहा जाता है।
🔹 यह राज्य की सर्वोच्च कार्यपालिका संस्था होती है।
🔹 संविधान का अनुच्छेद 163 मंत्रिपरिषद के गठन और उसके कार्य का उल्लेख करता है।


📖 मंत्रिपरिषद की संरचना

✔️ मंत्रिपरिषद को तीन श्रेणियों में बाँटा गया है:

🔹 कैबिनेट मंत्री (Cabinet Ministers): नीति निर्धारण और महत्वपूर्ण विभाग
🔹 राज्य मंत्री (Ministers of State): विशिष्ट विभाग या कैबिनेट मंत्री के अधीन
🔹 उपमंत्री / सहायक मंत्री (Deputy Ministers): राज्य मंत्रियों की सहायता करते हैं

📌 सभी मंत्री मुख्यमंत्री की सिफारिश पर राज्यपाल द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।


📘 मुख्यमंत्री की भूमिका मंत्रिपरिषद में

🔹 मुख्यमंत्री मंत्रिपरिषद का प्रमुख, संचालक और नेता होता है।
🔹 संविधान के अनुसार, राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है।
🔹 मुख्यमंत्री मंत्रिपरिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है और उनकी कार्यप्रणाली को निर्धारित करता है।


🧭 मंत्रिपरिषद और मुख्यमंत्री के संबंध

मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद के बीच संबंध अत्यंत घनिष्ठ, उत्तरदायित्वपूर्ण और व्यावहारिक होते हैं। नीचे इनके मुख्य पहलुओं की विवेचना की गई है:


⚖️ 1. नियुक्ति में मुख्यमंत्री की भूमिका

✔️ मुख्यमंत्री की सिफारिश पर ही राज्यपाल मंत्रियों की नियुक्ति करता है।
✔️ वह यह तय करता है कि कौन मंत्री बनेगा, किसे कौन-सा विभाग मिलेगा, और किसे हटाया जाएगा।
✔️ इसलिए मंत्रिपरिषद का गठन वास्तव में मुख्यमंत्री की राजनीतिक रणनीति और संतुलन पर आधारित होता है।


📑 2. नीति निर्धारण में नेतृत्व

🔹 मुख्यमंत्री राज्य सरकार की नीतियों का मुख्य सूत्रधार होता है।
🔹 कैबिनेट की बैठकों में वह एजेंडा तय करता है, बहस का नेतृत्व करता है, और अंतिम निर्णय पर पहुँचता है।
🔹 सभी महत्वपूर्ण निर्णयों पर उसकी सहमति आवश्यक होती है।


🔄 3. समन्वय और संचालन का कार्य

✔️ मंत्रिपरिषद के सभी मंत्रियों के कार्यों में समन्वय बनाए रखने की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री की होती है।
✔️ विभिन्न विभागों के बीच टकराव या अड़चन होने पर वह मध्यस्थ की भूमिका निभाता है।
✔️ वह शासन व्यवस्था को एक सूत्र में बाँधकर सामूहिक निर्णय सुनिश्चित करता है।


📜 4. मंत्रियों पर नियंत्रण और अनुशासन

🔹 मुख्यमंत्री मंत्रियों के आचरण और कार्यों की निगरानी करता है।
🔹 यदि कोई मंत्री असहमति में जाए या अनुशासनहीनता करे, तो मुख्यमंत्री उसकी इस्तीफा देने की सिफारिश राज्यपाल से कर सकता है।
🔹 इस प्रकार मंत्रियों की उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यशैली सुनिश्चित की जाती है।


🗳️ 5. विधानसभा में नेतृत्व

✔️ मुख्यमंत्री, मंत्रिपरिषद का नेता होने के साथ-साथ विधानमंडल में भी सरकार का चेहरा होता है।
✔️ मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है, लेकिन यह उत्तरदायित्व सीधे मुख्यमंत्री के माध्यम से आता है।
✔️ विश्वास मत, बजट पारित करना, कानून का बचाव आदि कार्यों में मुख्यमंत्री निर्णायक होता है।


📚 6. राज्यपाल और मुख्यमंत्री की संयुक्त भूमिका

🔹 राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख होता है, लेकिन उसकी सहायता और सलाह के लिए मंत्रिपरिषद होती है।
🔹 मुख्यमंत्री राज्यपाल और मंत्रिपरिषद के बीच सेतु का कार्य करता है।
🔹 राज्यपाल मंत्रिपरिषद के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता, परंतु यदि वह सलाह चाहता है तो वह केवल मुख्यमंत्री से करेगा।


🔍 मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद के संबंधों के उदाहरण

🔸 उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ:
उनकी मंत्रिपरिषद में निर्णायक और केंद्रीय भूमिका से स्पष्ट होता है कि कैसे मुख्यमंत्री नीति निर्धारण, प्रशासन और अनुशासन को नियंत्रित करता है।

🔸 पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी:
राज्य की अधिकांश योजनाओं और निर्णयों की पहल मुख्यमंत्री के स्तर से ही होती है, जो मंत्रिपरिषद को दिशा प्रदान करती है।


🌟 उपसंहार

मंत्रिपरिषद किसी राज्य की शासन व्यवस्था का मुख्य इंजन है और मुख्यमंत्री उसका ड्राइवर। मंत्रिपरिषद सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना से कार्य करती है, लेकिन यह सामूहिकता तभी संभव है जब उसका नेतृत्व दृढ़, कुशल और संवादशील हो। यही भूमिका मुख्यमंत्री निभाता है।
इस प्रकार, मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद के बीच संबंध नेतृत्व और सहयोग, संविधान और प्रशासन, तथा नीति और कार्यान्वयन का संतुलित संयोजन है — जो राज्य की सुचारु शासन प्रणाली को बनाए रखता है।




प्रश्न 20 . राज्यपाल और मुख्यमंत्री के संबंधों की समीक्षा कीजिए।


🎯 प्रस्तावना

भारतीय संविधान के अंतर्गत, राज्यपाल और मुख्यमंत्री राज्य की कार्यपालिका के दो मुख्य अंग हैं। एक ओर राज्यपाल को राज्य का संवैधानिक प्रमुख (Constitutional Head) माना गया है, वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री राज्य सरकार का वास्तविक प्रमुख (Real Head) होता है। यद्यपि राज्यपाल का पद संवैधानिक है और वह केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन उसका कार्य मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर आधारित होता है। इन दोनों के बीच सामंजस्यपूर्ण संबंध राज्य में स्थिर और प्रभावी शासन के लिए आवश्यक होते हैं।


📌 राज्यपाल और मुख्यमंत्री के संवैधानिक पद

🔹 राज्यपाल (Governor):
राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है (अनुच्छेद 153)।
उसे राष्ट्रपति नियुक्त करता है और वह राज्य में केंद्र का प्रतिनिधि होता है।

🔹 मुख्यमंत्री (Chief Minister):
राज्य सरकार का वास्तविक प्रमुख।
विधानसभा में बहुमत प्राप्त पार्टी का नेता राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री नियुक्त किया जाता है (अनुच्छेद 164)।


📖 राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच संबंधों की प्रकृति

राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच संबंधों की प्रकृति को सहयोग, मार्गदर्शन, एवं संतुलन के रूप में देखा जाता है। यह संबंध निम्नलिखित आधारों पर आधारित होते हैं:


📘 1. मुख्यमंत्री की नियुक्ति में राज्यपाल की भूमिका

✔️ विधानसभा चुनावों के बाद, राज्यपाल उस नेता को मुख्यमंत्री नियुक्त करता है जो बहुमत प्राप्त करता है
✔️ कभी-कभी त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में राज्यपाल का निर्णायक अधिकार होता है, जो राजनीतिक विवाद का कारण बन सकता है।
✔️ मुख्यमंत्री की नियुक्ति के बाद अन्य मंत्रियों की नियुक्ति भी राज्यपाल करता है — परंतु मुख्यमंत्री की सलाह पर


📜 2. सलाह और सहायता का संवैधानिक दायित्व

🔹 संविधान का अनुच्छेद 163 कहता है कि राज्यपाल, मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करेगा
🔹 इसका तात्पर्य है कि राज्यपाल के अधिकांश निर्णय मुख्यमंत्री की सलाह और सहमति से होते हैं।
🔹 राज्यपाल अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं कर सकता, वह एक निष्पक्ष मध्यस्थ की तरह काम करता है।


🧭 3. मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद से संवाद

✔️ मुख्यमंत्री को यह कर्तव्य होता है कि वह राज्यपाल को प्रशासन के सभी निर्णयों से अवगत कराए।
✔️ राज्यपाल मुख्यमंत्री से किसी भी प्रशासनिक विषय पर सूचना मांग सकता है
✔️ मुख्यमंत्री की यह ज़िम्मेदारी होती है कि वह मंत्रिपरिषद के निर्णयों को राज्यपाल के समक्ष रखे।


📚 4. विधानमंडल के संचालन में भूमिका

🔹 राज्यपाल विधानसभा का अधिवेशन बुलाता, स्थगित करता और आवश्यक हो तो विघटन भी कर सकता है — परंतु यह कार्य भी मुख्यमंत्री की सलाह पर ही होता है
🔹 बजट अभिभाषण, विशेष सत्र, अध्यादेश – सभी कार्यों में मुख्यमंत्री की भूमिका प्राथमिक होती है, जबकि राज्यपाल संवैधानिक औपचारिकता निभाते हैं


📌 5. आपातकालीन स्थितियाँ और राज्यपाल की विवेकाधिकार शक्ति

✔️ कुछ स्थितियों में राज्यपाल को विवेकाधिकार (Discretionary Powers) प्राप्त होते हैं —
 🔹 जैसे राष्ट्रपति शासन की सिफारिश (अनुच्छेद 356),
 🔹 मुख्यमंत्री को हटाना,
 🔹 विधानसभा भंग करना इत्यादि।

➡️ इन मामलों में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के संबंध तनावपूर्ण भी हो सकते हैं, खासकर जब केंद्र और राज्य में भिन्न राजनीतिक दल हों।


🔍 6. अध्यादेश जारी करने में संबंध

🔹 राज्यपाल अध्यादेश तभी जारी करता है जब विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा हो और मंत्रिपरिषद की सलाह प्राप्त हो।
🔹 यह प्रक्रिया भी मुख्यमंत्री की सिफारिश पर आधारित होती है।


🗳️ 7. मुख्यमंत्री की रिपोर्ट और राज्यपाल की सिफारिशें

✔️ मुख्यमंत्री राज्यपाल को समय-समय पर राज्य की प्रशासनिक स्थिति की जानकारी देता है
✔️ राज्यपाल अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजता है, खासकर जब राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न होता है।


🧾 राज्यपाल और मुख्यमंत्री के संबंधों में संभावित समस्याएँ

➤ यदि राज्यपाल राजनीतिक पक्षपात करे तो मुख्यमंत्री के साथ टकराव की स्थिति बन सकती है।
➤ भिन्न दलों की सरकार होने पर मुख्यमंत्री को राज्यपाल से बाधाएँ झेलनी पड़ सकती हैं।
➤ राज्यपाल द्वारा बिना सलाह के कार्य करना संवैधानिक संकट उत्पन्न कर सकता है।

उदाहरण:
🔹 पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच कई बार प्रशासनिक टकराव हुए हैं।
🔹 महाराष्ट्र, दिल्ली, केरल जैसे राज्यों में भी ऐसे उदाहरण देखे गए हैं।


🌐 सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्याएँ

✔️ शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974):
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि राज्यपाल केवल मुख्यमंत्री की सलाह पर कार्य करेगा।
उसकी स्वतंत्र शक्ति बहुत सीमित है।

✔️ सरकारिया आयोग (1983):
इस आयोग ने सुझाव दिया कि राज्यपाल को गैर-राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए, ताकि वह मुख्यमंत्री के साथ निष्पक्ष संबंध बनाए रख सके।


🌟 उपसंहार

राज्यपाल और मुख्यमंत्री के संबंध भारतीय संघवाद की जड़ में मौजूद संतुलन और सहयोग का परिचायक हैं। जहाँ राज्यपाल संवैधानिक मर्यादा का प्रतीक है, वहीं मुख्यमंत्री लोकतांत्रिक जनादेश का प्रतिनिधि। दोनों का परस्पर संवाद, सहयोग और समझदारी — ही एक राज्य की स्थिर और प्रभावी शासन व्यवस्था का आधार बनता है।
यदि राज्यपाल संविधान की मर्यादा में रहते हुए मुख्यमंत्री की सलाह पर कार्य करे, तो यह संबंध राजनीतिक टकराव से ऊपर उठकर लोकतांत्रिक आदर्श का प्रतीक बन सकता है।


 21 . राज्य में वास्तविक कार्यपालिका क्या है और उसका स्वरूप क्या है?


🎯 प्रस्तावना

भारत के राज्यों में शासन प्रणाली संविधान के संघीय ढांचे पर आधारित है, जहाँ कार्यपालिका दो स्तरों पर कार्य करती है — राज्यपाल (संवैधानिक प्रमुख) और मुख्यमंत्री एवं मंत्रिपरिषद (वास्तविक कार्यपालिका)
यद्यपि राज्यपाल राज्य का औपचारिक मुखिया होता है, परंतु वास्तविक शासन मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद के माध्यम से ही चलता है।
इस उत्तर में हम राज्य की वास्तविक कार्यपालिका कौन है, उसका स्वरूप कैसा है, और वह कैसे कार्य करती है — इन सभी बिंदुओं पर विस्तृत रूप से चर्चा करेंगे।


📌 वास्तविक कार्यपालिका का तात्पर्य

🔹 वास्तविक कार्यपालिका वह संस्था होती है जो सरकार के सभी निर्णयों को लेती, लागू करती और प्रशासनिक कार्यों का संचालन करती है
🔹 राज्य के संदर्भ में, वास्तविक कार्यपालिका का नेतृत्व करता है — मुख्यमंत्री
🔹 मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में गठित मंत्रिपरिषद (Council of Ministers) ही राज्य की वास्तविक कार्यपालिका होती है।


📖 संविधान में उल्लेख

✔️ भारतीय संविधान का अनुच्छेद 163 कहता है कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता से कार्य करना चाहिए।
✔️ अनुच्छेद 164 मुख्यमंत्री और मंत्रियों की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
✔️ इन प्रावधानों के अनुसार राज्यपाल एक प्रतीकात्मक प्रमुख है जबकि मुख्यमंत्री और उसकी मंत्रिपरिषद ही सारे कार्यों की वास्तविक जिम्मेदारी निभाती है।


📘 वास्तविक कार्यपालिका की संरचना

राज्य की वास्तविक कार्यपालिका मुख्यतः निम्न तीन स्तरों पर कार्य करती है:


⚖️ 1. मुख्यमंत्री (Chief Minister)

✔️ राज्य की वास्तविक कार्यपालिका का केंद्र बिंदु मुख्यमंत्री होता है।
✔️ मुख्यमंत्री राज्य की नीतियों का निर्धारण करता है, कार्यपालिका का मार्गदर्शन करता है और मंत्रिपरिषद का नेतृत्व करता है।
✔️ मुख्यमंत्री विधान सभा में सरकार का नेता होता है और राज्यपाल से सीधा संवाद रखता है।


🏛️ 2. मंत्रिपरिषद (Council of Ministers)

🔹 मंत्रिपरिषद वह सामूहिक संस्था है जो प्रशासन, विधायी निर्णय और नीतियों का संचालन करती है।
🔹 इसमें तीन प्रकार के मंत्री होते हैं:
 🔸 कैबिनेट मंत्री – प्रमुख विभागों के प्रभारी
 🔸 राज्य मंत्री – विशिष्ट क्षेत्रों का कार्यभार
 🔸 उप मंत्री – सहायक भूमिकाएं निभाते हैं

✔️ सभी मंत्री, मुख्यमंत्री की सिफारिश पर राज्यपाल द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।
✔️ मंत्रिपरिषद, सामूहिक रूप से विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होती है।


📜 3. प्रशासनिक अधिकारी (Bureaucracy)

✔️ यद्यपि ये स्थायी कर्मचारी होते हैं, परंतु वे भी मुख्यमंत्री और मंत्रियों के निर्देशों के अनुसार कार्य करते हैं।
✔️ सचिव, आयुक्त, और विभागीय प्रमुख — सभी प्रशासनिक आदेशों को कार्यान्वित करते हैं।


📚 वास्तविक कार्यपालिका के स्वरूप की विशेषताएँ

वास्तविक कार्यपालिका केवल निर्णयकर्ता नहीं बल्कि राज्य प्रशासन की रीढ़ होती है। इसके स्वरूप को निम्न बिंदुओं से समझा जा सकता है:


🔹 1. लोकतांत्रिक स्वरूप

मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद जनता द्वारा निर्वाचित विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
इस कारण इनका कार्य लोकतांत्रिक जिम्मेदारी और पारदर्शिता से भरा होता है।


🔹 2. सामूहिक उत्तरदायित्व

✔️ राज्य की मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होती है।
✔️ यदि मुख्यमंत्री पर अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाए तो पूरी मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना होता है।
✔️ यह व्यवस्था सहभागिता और जिम्मेदारी सुनिश्चित करती है।


🔹 3. नेतृत्व आधारित कार्यप्रणाली

मुख्यमंत्री का नेतृत्व वास्तविक कार्यपालिका का मुख्य स्तंभ होता है।
नीतियाँ तय करने से लेकर प्रशासन के कार्यान्वयन तक, हर स्तर पर मुख्यमंत्री की भूमिका सर्वोपरि होती है।


🔹 4. नीति निर्धारण और क्रियान्वयन

वास्तविक कार्यपालिका राज्य की नीतियों का निर्माण, बजट की योजना, जनहित योजनाओं की क्रियान्विति और प्रशासनिक नियंत्रण सुनिश्चित करती है।
यह शासन के हर स्तर पर निर्णय और उनके क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार होती है।


📖 कार्यपालिका की प्रमुख शक्तियाँ और कार्य

🔸 नीतिगत निर्णय लेना
🔸 कानूनों के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी
🔸 बजट प्रस्ताव और वित्तीय नियंत्रण
🔸 कानून बनाने की पहल
🔸 विधानसभा को भंग करने की सिफारिश
🔸 मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच संवाद बनाना
🔸 आपात स्थितियों में त्वरित निर्णय लेना


🧾 वास्तविक कार्यपालिका के उदाहरण

🔹 उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा विभिन्न योजनाओं की शुरुआत और उनका क्रियान्वयन — वास्तविक कार्यपालिका की सक्रियता को दर्शाता है।
🔹 तमिलनाडु में मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन की नीतियों में मंत्रिपरिषद और प्रशासन का सहयोग, कार्यपालिका के लोकतांत्रिक और जवाबदेह स्वरूप को प्रमाणित करता है।


🌐 वास्तविक कार्यपालिका और राज्यपाल का संबंध

✔️ राज्यपाल संविधान का प्रतीकात्मक प्रमुख होता है, परंतु उसके अधिकांश कार्य मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर आधारित होते हैं।
✔️ केवल कुछ विशेष स्थितियों (जैसे राष्ट्रपति शासन की सिफारिश) में राज्यपाल स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकता है।
✔️ अन्यथा, वास्तविक निर्णय-शक्ति मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद के पास होती है।


🌟 उपसंहार

राज्य में वास्तविक कार्यपालिका वह संस्था है जो जनता के प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन का संचालन करती है। इसका स्वरूप लोकतांत्रिक, जिम्मेदार, और निर्णयात्मक होता है।
मुख्यमंत्री इसका मुख्य चेहरा होता है और मंत्रिपरिषद उसके हाथ-पैर की तरह कार्य करती है।
प्रशासनिक अधिकारियों के सहयोग से यह कार्यपालिका राज्य की योजनाओं, विकास, कानून व्यवस्था और जनहित की आवश्यकताओं को पूरा करती है।
इस प्रकार वास्तविक कार्यपालिका ही राज्य शासन का असली आधार और शक्ति केंद्र होती है।




प्रश्न 22 राज्य विधानमंडल का वर्णन करते हुए इसकी शक्तियों के बारे में बताइए।


🎯 प्रस्तावना

भारत में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को मजबूत बनाने हेतु प्रत्येक राज्य में एक विधानमंडल (Legislature) की व्यवस्था की गई है। यह संस्था राज्य स्तर पर कानून बनाने, बजट पारित करने और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने का कार्य करती है।
राज्य विधानमंडल वह स्थान है जहाँ जनता के चुने हुए प्रतिनिधि राज्य की समस्याओं पर चर्चा करते हैं, निर्णय लेते हैं और नीतियों का निर्माण करते हैं।


📌 राज्य विधानमंडल की संरचना

भारत के संविधान के अनुसार, राज्य विधानमंडल दो प्रकार के हो सकते हैं:

🔹 एकसदनीय विधानमंडल (Unicameral):
अधिकांश राज्यों में केवल एक सदन — विधान सभा (Legislative Assembly) होती है।

🔹 द्विसदनीय विधानमंडल (Bicameral):
कुछ राज्यों में दो सदन होते हैं —
 ✔️ विधान सभा (Vidhan Sabha)
 ✔️ विधान परिषद (Vidhan Parishad)
 उदाहरण: उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना।


📖 विधान सभा (Legislative Assembly)

🔸 यह राज्य का नीचला सदन होता है और इसकी रचना सीधे जनता के द्वारा निर्वाचन के माध्यम से होती है।
🔸 सदस्यों की संख्या राज्य की जनसंख्या के आधार पर होती है (न्यूनतम 60 और अधिकतम 500)।
🔸 कार्यकाल सामान्यतः 5 वर्ष का होता है।
🔸 विधानसभा ही राज्य में वास्तविक विधायी शक्ति का केंद्र होती है।


📘 विधान परिषद (Legislative Council)

🔸 यह एक स्थायी सदन होता है, जिसकी रचना विभिन्न क्षेत्रों से नामांकित और निर्वाचित सदस्यों द्वारा होती है।
🔸 सभी राज्यों में यह सदन नहीं होता।
🔸 इसके सदस्यों का चुनाव आंशिक रूप से शिक्षक, स्नातक, स्थानीय निकायों और विधान सभा के सदस्यों द्वारा होता है।
🔸 कुल सदस्यों का एक-तिहाई हर दो वर्ष में सेवानिवृत्त होता है।


🗂️ राज्य विधानमंडल की प्रमुख शक्तियाँ

राज्य विधानमंडल को अनेक संवैधानिक शक्तियाँ प्राप्त हैं, जिन्हें हम निम्न रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं:


📜 1. विधायी शक्ति (Legislative Powers)

✔️ विधानमंडल राज्य सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बना सकता है।
✔️ यदि कोई विषय राज्य की आवश्यकता के अनुसार कानून की माँग करता है, तो विधानमंडल उस पर कानून पारित कर सकता है।
✔️ विधेयक को पारित करने के बाद उसे राज्यपाल की सहमति प्राप्त करनी होती है।

🔹 विशेष बात: यदि कोई विषय समवर्ती सूची में आता है और केंद्र पहले से उस पर कानून बना चुका है, तो राज्य का कानून केंद्र से भिन्न होने पर राज्यपाल की सिफारिश पर राष्ट्रपति की मंजूरी जरूरी होती है।


💰 2. वित्तीय शक्ति (Financial Powers)

✔️ राज्य का वार्षिक बजट केवल विधान सभा में प्रस्तुत होता है।
✔️ वित्तीय विधेयक (Money Bill) केवल विधानसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है।
✔️ विधानमंडल को यह अधिकार होता है कि वह:
 🔸 कर निर्धारित करे
 🔸 व्यय की अनुमति दे
 🔸 ऋण ले
 🔸 आर्थिक नीतियों को पारित करे

🔹 विधान परिषद का वित्तीय विधेयकों पर अधिकार सीमित होता है; वह केवल 14 दिन की देरी कर सकती है।


🧾 3. नियंत्रण संबंधी शक्तियाँ (Control Over Executive)

राज्य विधानमंडल का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है — सरकार को उत्तरदायी बनाना। इसमें मुख्य रूप से शामिल हैं:

✔️ प्रश्नोत्तर काल (Question Hour): मंत्री से प्रश्न पूछकर जवाब मांगा जा सकता है।
✔️ स्थगन प्रस्ताव और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव: किसी आपात विषय पर चर्चा।
✔️ अविश्वास प्रस्ताव (No Confidence Motion): पारित हो जाए तो सरकार को त्यागपत्र देना पड़ता है।
✔️ कटौती प्रस्ताव (Cut Motion): बजट में कटौती की मांग करके सरकार पर दबाव बनाना।


📚 4. निर्वाचन संबंधी शक्तियाँ

🔹 विधान सभा के सदस्य राज्यसभा में प्रतिनिधियों के चुनाव में भाग लेते हैं।
🔹 विधानमंडल राज्यपाल के माध्यम से राष्ट्रपति चुनाव में भी भाग लेता है।
🔹 विधानसभा राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव करती है।


🧩 5. अन्य शक्तियाँ

✔️ राज्य की नीति निर्धारण और योजनाओं की समीक्षा।
✔️ राज्यपाल के द्वारा भेजे गए किसी विषय पर चर्चा करना।
✔️ विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना पर निर्णय लेना।
✔️ अनुसूचित जाति/जनजाति से संबंधित कानूनों पर चर्चा करना।


🧭 राज्य विधानमंडल और राज्यपाल का संबंध

🔹 राज्यपाल विधानमंडल का संवैधानिक प्रमुख होता है।
🔹 वह अधिवेशन बुलाता है, सत्र स्थगित करता है, और आवश्यक हो तो विधानसभा को भंग कर सकता है — परंतु ये सारे कार्य मुख्यमंत्री की सलाह पर करता है।
🔹 राज्यपाल के अभिभाषण से ही विधानमंडल का पहला सत्र प्रारंभ होता है।


🔍 कुछ उल्लेखनीय उदाहरण

🔸 उत्तर प्रदेश विधानसभा: देश की सबसे बड़ी विधान सभा, जहाँ विभिन्न योजनाओं पर गहन चर्चा होती है।
🔸 केरल विधानमंडल: शिक्षा और स्वास्थ्य नीतियों पर विशिष्ट कानूनों के निर्माण में अग्रणी।


🌟 उपसंहार

राज्य विधानमंडल, लोकतंत्र की वह संस्था है जो जनता के प्रतिनिधियों को नीति निर्माण, सरकार की निगरानी और प्रशासनिक पारदर्शिता का अधिकार देती है। इसकी शक्तियाँ राज्य के विकास की दिशा और स्वरूप को प्रभावित करती हैं।
विधानमंडल की प्रभावशीलता ही राज्य की सरकार की कार्यकुशलता को दर्शाती है।
इसलिए, एक मजबूत विधानमंडल, उत्तरदायी कार्यपालिका और जागरूक जनता — मिलकर एक प्रभावी शासन प्रणाली का निर्माण करते हैं।




प्रश्न 23 स्थानीय स्वशासन का अर्थ बताते हुए, इसकी विशेषताएं और चुनौतियों का वर्णन कीजिए।


🎯 प्रस्तावना

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में शासन की सारी जिम्मेदारी केंद्र और राज्य सरकारों पर डालना व्यावहारिक नहीं है। इसी उद्देश्य से, शासन को नीचे के स्तर तक पहुँचाने, जनता की भागीदारी बढ़ाने और प्रशासन को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने के लिए स्थानीय स्वशासन (Local Self-Government) की व्यवस्था की गई है। यह लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने वाला और जनसहभागिता आधारित तंत्र है।


📌 स्थानीय स्वशासन का अर्थ

🔹 स्थानीय स्वशासन का तात्पर्य उस प्रशासनिक व्यवस्था से है, जिसमें स्थानीय क्षेत्र के लोग ही अपने क्षेत्र की समस्याओं का समाधान करने हेतु चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन करते हैं।
🔹 यह स्वशासन गाँव (Panchayati Raj) और नगरों (Urban Local Bodies) – दोनों स्तरों पर कार्य करता है।
🔹 इसका मुख्य उद्देश्य जनता के द्वार तक शासन लाना और नीतियों के निर्माण में आम नागरिक की भागीदारी सुनिश्चित करना है।


📖 स्थानीय स्वशासन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

✔️ भारत में स्थानीय स्वशासन की अवधारणा प्राचीन काल से रही है।
✔️ महात्मा गांधी ने इसे 'ग्राम स्वराज' कहा और इसे भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला माना।
✔️ स्वतंत्रता के बाद इस प्रणाली को सुदृढ़ बनाने हेतु संविधान में 73वां और 74वां संशोधन (1992) किया गया, जिससे पंचायती राज संस्थाएँ और शहरी स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ।


📘 स्थानीय स्वशासन की प्रमुख विशेषताएं


🔹 1. लोकतांत्रिक संरचना

✔️ स्थानीय निकायों के सदस्य जनता द्वारा सीधे चुने जाते हैं, जिससे ये पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक बनते हैं।
✔️ यह नागरिकों को शासन में भागीदारी और निर्णय लेने का अधिकार देता है।


🔹 2. तीन-स्तरीय पंचायत व्यवस्था

ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायत राज की तीन स्तरीय संरचना होती है:
➤ ग्राम पंचायत (गाँव स्तर)
➤ पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर)
➤ जिला परिषद (जिला स्तर)

✔️ यह संरचना नीचे से ऊपर की ओर निर्णय प्रक्रिया को सक्षम बनाती है।


🔹 3. शहरी क्षेत्रों में निकाय

शहरों में स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ होती हैं:
➤ नगर पंचायत (छोटे कस्बे)
➤ नगरपालिका (मध्यम शहर)
➤ नगर निगम (बड़े शहर)

✔️ ये संस्थाएँ नगर नियोजन, स्वच्छता, जल आपूर्ति, सड़क, प्रकाश व्यवस्था आदि का कार्य करती हैं।


🔹 4. नियत कार्यकाल और चुनाव प्रक्रिया

✔️ स्थानीय निकायों का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है।
✔️ राज्य चुनाव आयोग इनके चुनाव आयोजित करता है।


🔹 5. वित्तीय सशक्तिकरण

✔️ संविधान के अनुसार, राज्य सरकारें इन निकायों को राजस्व व कर लगाने के अधिकार देती हैं।
✔️ साथ ही, केंद्र और राज्य सरकार से वित्तीय अनुदान भी मिलता है।


🔹 6. महिलाओं और कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण

✔️ महिलाओं, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
✔️ इससे समावेशी लोकतंत्र को बढ़ावा मिलता है।


🧾 स्थानीय स्वशासन की प्रमुख भूमिकाएँ और कार्य

🔸 शिक्षा, स्वास्थ्य, जल आपूर्ति और सफाई
🔸 सड़क निर्माण और मरम्मत
🔸 रोजगार योजनाओं का क्रियान्वयन
🔸 सार्वजनिक वितरण प्रणाली का संचालन
🔸 सामाजिक सुरक्षा और विकास योजनाएँ
🔸 पर्यावरण संरक्षण और जन-जागरूकता कार्यक्रम


🧩 स्थानीय स्वशासन से जुड़े लाभ

✔️ लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं।
✔️ जनता की जरूरतों के अनुसार नीतियाँ बनती हैं।
✔️ प्रशासन में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व आता है।
✔️ तेजी से निर्णय लिए जाते हैं और स्थानीय समस्याओं का समाधान संभव होता है।
✔️ महिलाओं और वंचित वर्गों की भागीदारी बढ़ती है।


📉 स्थानीय स्वशासन की प्रमुख चुनौतियाँ


🔹 1. वित्तीय निर्भरता

➤ स्थानीय निकाय पर्याप्त राजस्व नहीं जुटा पाते और राज्य सरकारों पर निर्भर रहते हैं।
➤ इससे इनकी आत्मनिर्भरता सीमित हो जाती है।


🔹 2. प्रशिक्षण और दक्षता की कमी

➤ प्रतिनिधियों को प्रशासनिक एवं वित्तीय मामलों की समझ कम होती है।
प्रशिक्षण की कमी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती है।


🔹 3. भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप

✔️ कई स्थानों पर स्थानीय निकायों में भ्रष्टाचार और पक्षपात की शिकायतें सामने आती हैं।
✔️ राज्य सरकारों द्वारा अत्यधिक नियंत्रण भी स्वतंत्रता को बाधित करता है।


🔹 4. महिला प्रतिनिधियों की निष्क्रियता

➤ आरक्षण से महिलाएं तो चुनी जाती हैं, लेकिन कई बार उनके स्थान पर परिवार के पुरुष सदस्य निर्णय लेते हैं (प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व)।
➤ इससे सशक्तिकरण का उद्देश्य कमजोर पड़ता है।


🔹 5. संसाधनों और तकनीकी सहायता की कमी

✔️ कई निकायों के पास आधुनिक तकनीकी संसाधनों की भारी कमी है।
✔️ इससे योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो पाता


🌟 उपसंहार

स्थानीय स्वशासन भारतीय लोकतंत्र का आधार स्तंभ है, जो शासन को जनता के द्वार तक पहुंचाता है।
यह तंत्र न केवल शासन की प्रभावशीलता बढ़ाता है, बल्कि नागरिकों को सशक्त और जागरूक बनाता है।
हालाँकि, इसके सामने कई चुनौतियाँ हैं — जैसे वित्तीय निर्भरता, दक्षता की कमी, और भ्रष्टाचार — लेकिन यदि इन्हें दूर कर दिया जाए तो स्थानीय स्वशासन भारत को नीचे से ऊपर तक मज़बूत और उत्तरदायी लोकतंत्र बना सकता है।




प्रश्न 24  . 73वें और 74वें संविधान संशोधन का वर्णन कीजिए।


🎯 प्रस्तावना

भारत में लोकतंत्र को केवल संसद और राज्य विधानसभाओं तक सीमित न रखते हुए, उसे ग्रामों और नगरों तक पहुँचाने की आवश्यकता महसूस की गई।
इसी उद्देश्य से 73वां और 74वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 लाया गया, जिससे स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
ये संशोधन भारतीय लोकतंत्र को नींव से मजबूत करने के लिए एक ऐतिहासिक कदम साबित हुए।


📘 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 (पंचायती राज व्यवस्था)


📜 1. अधिनियम की प्रमुख बातें

✔️ लागू तिथि: 24 अप्रैल 1993
✔️ संविधान में नया भाग IX (Part IX) जोड़ा गया
✔️ अनुच्छेद 243 से 243-O तक शामिल किए गए
✔️ 11वीं अनुसूची जोड़ी गई जिसमें पंचायतों के लिए 29 विषयों की सूची है


🏛️ 2. पंचायती राज की तीन-स्तरीय संरचना

🔹 ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर)
🔹 पंचायत समिति (खंड/ब्लॉक स्तर)
🔹 जिला परिषद (जिला स्तर)

✔️ यह व्यवस्था स्थानीय प्रशासन को जनता के निकट लाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।


📥 3. पंचायतों के चुनाव और कार्यकाल

🔸 पंचायतों के सदस्यों का चुनाव प्रत्येक 5 वर्ष में कराना अनिवार्य है
🔸 राज्य चुनाव आयोग इन चुनावों का संचालन करता है
🔸 यदि पंचायत भंग होती है तो 6 माह में चुनाव कराना अनिवार्य है


👥 4. आरक्षण की व्यवस्था

✔️ अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया
✔️ महिलाओं के लिए कुल सीटों में से 33% आरक्षण अनिवार्य है
✔️ कुछ राज्यों ने इसे बढ़ाकर 50% तक कर दिया है (जैसे बिहार, मध्यप्रदेश)


💰 5. वित्तीय सशक्तिकरण

🔹 पंचायतों को राजस्व वसूली, कर लगाने और वित्त आयोग के माध्यम से अनुदान प्राप्त करने का अधिकार मिला
🔹 प्रत्येक राज्य में राज्य वित्त आयोग का गठन आवश्यक कर दिया गया


📖 6. ग्राम सभा की भूमिका

✔️ प्रत्येक गाँव में ग्राम सभा का गठन अनिवार्य किया गया
✔️ ग्राम सभा में वयस्क मतदाता शामिल होते हैं
✔️ यह पंचायतों की कार्यप्रणाली की समीक्षा करती है


📌 निष्कर्ष (73वां संशोधन)

73वें संशोधन ने ग्राम स्तर तक लोकतंत्र को मजबूत किया और ग्रामीण जनता को सशक्त शासन में भाग लेने का अवसर दिया।


🏙️ 74वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 (शहरी स्थानीय स्वशासन)


📜 1. अधिनियम की प्रमुख बातें

✔️ लागू तिथि: 1 जून 1993
✔️ संविधान में नया भाग IX-A (Part IX-A) जोड़ा गया
✔️ अनुच्छेद 243P से 243ZG तक जोड़े गए
✔️ 12वीं अनुसूची जोड़ी गई, जिसमें 18 कार्यों की सूची है


🏢 2. शहरी निकायों के प्रकार

🔹 नगर पंचायत (Nagar Panchayat): वे क्षेत्र जो ग्रामीण से शहरी में बदल रहे हों
🔹 नगरपालिका (Municipality): छोटे और मध्यम शहरों के लिए
🔹 नगर निगम (Municipal Corporation): बड़े शहरों के लिए

✔️ सभी निकायों को लोकतांत्रिक रूप से चुना जाता है और 5 वर्ष का कार्यकाल होता है


📥 3. नगर निकायों के चुनाव

🔸 चुनाव हर 5 वर्ष में कराना अनिवार्य
🔸 राज्य चुनाव आयोग इसका संचालन करता है
🔸 भंग होने की स्थिति में 6 महीने के भीतर पुनः चुनाव कराना आवश्यक


👥 4. आरक्षण की व्यवस्था

✔️ अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षण
✔️ महिलाओं के लिए 33% आरक्षण, जो कई राज्यों में 50% तक बढ़ाया गया


💰 5. वित्तीय प्रावधान

🔹 निकायों को कर वसूलने और राजस्व प्राप्त करने के अधिकार
🔹 प्रत्येक राज्य में राज्य वित्त आयोग का गठन अनिवार्य
🔹 केंद्र और राज्य सरकार द्वारा वित्तीय अनुदान की व्यवस्था


📊 6. नगर नियोजन एवं विकास की भूमिका

✔️ शहरी निकायों को नगर नियोजन, जल आपूर्ति, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, सड़क निर्माण, प्रकाश व्यवस्था, आदि कार्य सौंपे गए
✔️ शहरी क्षेत्रों के समग्र विकास में इनकी भूमिका निर्णायक होती है


📌 निष्कर्ष (74वां संशोधन)

74वें संशोधन ने शहरी स्थानीय निकायों को संवैधानिक मान्यता देकर उन्हें आत्मनिर्भर और उत्तरदायी बनाया।


🧩 73वें और 74वें संशोधन की समानताएँ

🔹 दोनों संशोधन स्थानीय स्वशासन को संविधानिक दर्जा प्रदान करते हैं
🔹 चुनावों की समयबद्धता, आरक्षण, वित्तीय आयोग, और लोकतांत्रिक संरचना की समान व्यवस्थाएँ
🔹 दोनों ही लोकतंत्र को नीचे से ऊपर तक मजबूत करने के उद्देश्य से लागू किए गए


📉 मुख्य चुनौतियाँ

✔️ चुनावों में राजनीतिक हस्तक्षेप
✔️ वित्तीय संसाधनों की कमी
✔️ प्रशिक्षित जनप्रतिनिधियों की कमी
✔️ भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की समस्या
✔️ योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन नहीं होना


🌟 उपसंहार

73वां और 74वां संविधान संशोधन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक मील का पत्थर हैं।
इनके माध्यम से भारत में जनता को प्रशासन में भाग लेने का सीधा अवसर मिला है।
हालाँकि, चुनौतियाँ मौजूद हैं, परंतु यदि ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ इन व्यवस्थाओं को लागू किया जाए, तो ये संशोधन ग्राम और शहरों में सुशासन की नींव बन सकते हैं




प्रश्न 25 स्थानीय स्वशासन और पंचायतों के आपसी संबंध को स्पष्ट कीजिए।


🎯 प्रस्तावना

भारत के लोकतांत्रिक शासन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि सरकार जनता के जितना निकट हो, उतनी ही अधिक प्रभावशीलता और पारदर्शिता से कार्य कर सकती है।
इसी विचार के अंतर्गत भारत में स्थानीय स्वशासन की अवधारणा विकसित की गई, जिसके केंद्र में है — पंचायती राज व्यवस्था
स्थानीय स्वशासन और पंचायतें आपस में गहराई से जुड़ी हुई हैं, जहाँ पंचायतें स्थानीय स्वशासन की मुख्य इकाइयाँ हैं और स्वशासन को व्यवहारिक रूप प्रदान करती हैं।


📌 स्थानीय स्वशासन का अर्थ

🔹 स्थानीय स्वशासन का तात्पर्य ऐसी शासन व्यवस्था से है, जिसमें स्थानीय जनता स्वयं अपने क्षेत्र के प्रशासनिक, सामाजिक और विकास कार्यों में भागीदारी करती है।
🔹 यह शासन ग्रामों, कस्बों और शहरों में कार्य करता है और जनता को नीतियों के निर्माण और कार्यान्वयन में सीधी भागीदारी प्रदान करता है।


📖 पंचायती राज व्यवस्था का परिचय

✔️ पंचायतें स्थानीय स्वशासन का ग्रामीण रूप हैं।
✔️ 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के अंतर्गत इनका संवैधानिक दर्जा तय किया गया।
✔️ यह एक तीन-स्तरीय संरचना है:

ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर)
पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर)
जिला परिषद (जिला स्तर)


🧩 स्थानीय स्वशासन और पंचायतों के आपसी संबंध

पंचायतें स्थानीय स्वशासन का प्रमुख आधार होती हैं। दोनों के बीच के संबंध निम्नलिखित बिंदुओं में स्पष्ट किए जा सकते हैं:


🔹 1. पंचायतें = स्थानीय स्वशासन की इकाई

✔️ पंचायतें ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय शासन का वास्तविक संचालन करती हैं।
✔️ ये स्वशासन को जमीनी स्तर पर लागू करने वाली संस्थाएँ हैं।


🔹 2. संविधान में स्पष्ट प्रावधान

✔️ संविधान के अनुच्छेद 243 से लेकर 243-ओ तक पंचायतों की संरचना, शक्तियाँ और कार्य निर्धारित हैं।
✔️ यह भाग IX स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक आधार प्रदान करता है।


🔹 3. लोकतांत्रिक भागीदारी का माध्यम

✔️ पंचायतें स्थानीय जनता को शासन प्रक्रिया में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने का मंच देती हैं।
✔️ ग्राम सभा जैसी संस्थाएं जनता की सीधी सहभागिता सुनिश्चित करती हैं।


🔹 4. योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन

✔️ स्थानीय स्वशासन के अंतर्गत पंचायती संस्थाएं विकास योजनाओं की रूपरेखा बनाती, उन्हें लागू करती और समीक्षा भी करती हैं
✔️ जैसे - प्रधानमंत्री आवास योजना, मनरेगा, स्वच्छ भारत अभियान आदि।


🔹 5. वित्तीय स्वायत्तता का साधन

✔️ पंचायती संस्थाओं को स्थानीय कर, शुल्क और सरकारी अनुदानों के माध्यम से कार्यशील बनाया गया है।
✔️ यह वित्तीय आधार उन्हें स्वावलंबी बनाता है, जो स्वशासन की आत्मा है।


🔹 6. प्रशासनिक विकेंद्रीकरण का परिणाम

✔️ पंचायतों का निर्माण केन्द्र और राज्य सरकार की शक्तियों को विकेंद्रीकृत करके किया गया।
✔️ इससे निर्णय प्रक्रिया और विकास दोनों स्थानीय ज़रूरतों के अनुसार संचालित हो सके।


🔍 स्थानीय स्वशासन के भीतर पंचायतों की भूमिका


🔸 ग्राम पंचायत – सबसे निचली इकाई, जो स्थानीय समस्याओं को सीधे हल करती है (जैसे – जल आपूर्ति, सड़क, स्वास्थ्य)।
🔸 पंचायत समिति – ब्लॉक स्तर की संस्था जो ग्राम पंचायतों का समन्वय करती है।
🔸 जिला परिषद – पूरे जिले की निगरानी करने वाली इकाई, जो जिला स्तरीय योजनाओं को लागू करती है।

✔️ ये तीनों मिलकर स्थानीय स्वशासन के सफल संचालन में सहायक होते हैं।


📊 स्थानीय स्वशासन और पंचायतों के समान उद्देश्य

🔹 लोकतंत्र का विस्तार
🔹 प्रशासन में पारदर्शिता
🔹 योजना निर्माण में जनभागीदारी
🔹 विकास योजनाओं की निगरानी
🔹 महिला और कमजोर वर्गों को नेतृत्व का अवसर


💡 महात्मा गांधी की ग्राम स्वराज की कल्पना और पंचायतें

✔️ महात्मा गांधी ने कहा था:

“गाँवों को आत्मनिर्भर बनाना ही सच्चा स्वराज है।”

✔️ पंचायतें इसी विचार को व्यवहारिक रूप देती हैं और ग्राम स्वराज की संकल्पना को साकार करती हैं।


📉 संबंधित समस्याएं और चुनौतियाँ

हालांकि पंचायतें स्थानीय स्वशासन का आधार हैं, लेकिन इन दोनों के बीच के संबंध को मजबूत करने में कुछ बाधाएँ हैं:

🔸 राजस्व की कमी और वित्तीय निर्भरता
🔸 राजनीतिक हस्तक्षेप
🔸 भ्रष्टाचार
🔸 शिक्षित नेतृत्व की कमी
🔸 निर्णय लेने में देरी


🌟 उपसंहार

स्थानीय स्वशासन और पंचायतों का रिश्ता शरीर और आत्मा की तरह है।
जहाँ स्थानीय स्वशासन एक सैद्धांतिक और संवैधानिक अवधारणा है, वहीं पंचायतें उसकी व्यावहारिक इकाइयाँ हैं।
दोनों मिलकर भारत के लोकतंत्र को नीचे से ऊपर तक मजबूती प्रदान करते हैं।
यदि पंचायतों को सही प्रशिक्षण, वित्तीय सहायता और स्वतंत्रता मिले तो वे स्थानीय स्वशासन को सार्थक और प्रभावी रूप में लागू कर सकती हैं।



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