UOU BAPS(N)102 SOLVED PAPER DECEMBER 2024, तुलनात्मक राजनीतिक व्यवस्था : विश्व के प्रमुख संविधान

 BAPS(N)102 SOLVED PAPER DECEMBER 2024, 

प्रश्न 01. तुलनात्मक राजनीति को परिभाषित करते हुए इसकी प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र का विस्तृत विवरण दीजिए।

🔹 प्रस्तावना (Introduction)

राजनीति विज्ञान का एक महत्वपूर्ण और व्यापक क्षेत्र है तुलनात्मक राजनीति (Comparative Politics)। यह शाखा विभिन्न देशों की राजनीतिक प्रणालियों, संस्थाओं, प्रक्रियाओं और व्यवहारों का तुलनात्मक अध्ययन करती है। इसका उद्देश्य है – विभिन्न राजनीतिक संरचनाओं के बीच समानताएं और भिन्नताओं को समझना, तथा राजनीतिक सिद्धांतों का व्यवहार में विश्लेषण करना।


🔹 तुलनात्मक राजनीति की परिभाषा (Definition of Comparative Politics)

🔸 📘 परंपरागत दृष्टिकोण

✅ परंपरागत विद्वान तुलनात्मक राजनीति को केवल शासन-प्रणालियों, संविधान और संस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन तक सीमित मानते थे।

🔸 📚 आधुनिक दृष्टिकोण

✅ आधुनिक काल में तुलनात्मक राजनीति का दायरा केवल संस्थाओं तक सीमित न होकर, राजनीतिक व्यवहार, संस्कृति, विचारधारा, नीति-निर्माण, राजनीतिक दलों और जन आंदोलनों तक फैल गया है।

📝 उदाहरण:

जैसे भारत और अमेरिका की लोकतांत्रिक प्रणाली, जापान और चीन की राजनीतिक संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन।


🔹 तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति (Nature of Comparative Politics)

🔸 🔍 वैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित

✅ तुलनात्मक राजनीति आधुनिक समाजविज्ञान के तरीकों को अपनाकर राजनीतिक विषयों का तथ्यात्मक और विश्लेषणात्मक अध्ययन करती है।
✅ यह वर्णनात्मक (descriptive) के साथ-साथ विश्लेषणात्मक (analytical) भी होती है।

🔸 🌐 बहु-विषयक प्रकृति (Interdisciplinary Nature)

✅ इसमें समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, अर्थशास्त्र जैसे विषयों के सिद्धांतों का प्रयोग होता है।
✅ इससे राजनीति को व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझने में सहायता मिलती है।

🔸 🔁 तुलनात्मक विधि का प्रयोग

✅ विभिन्न देशों की राजनीतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं की तुलना के लिए तुलनात्मक विधि का उपयोग किया जाता है।
✅ इससे समान पैटर्न और सिद्धांतों की पहचान होती है।

🔸 📊 अनुभवजन्य और व्यवहारवादी प्रवृत्ति

✅ यह राजनीति को मापने योग्य तथ्यों के रूप में देखती है और व्यवहार के आधार पर निष्कर्ष निकालती है।


🔹 तुलनात्मक राजनीति का विषय-क्षेत्र (Scope of Comparative Politics)

🔸 🏛️ राजनीतिक संस्थाएं (Political Institutions)

✅ विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका
✅ संघीय और एकात्मक व्यवस्थाएं
✅ संविधान और न्यायिक समीक्षा
📝 उदाहरण: भारत और अमेरिका की संघीय व्यवस्था की तुलना

🔸 🗳️ चुनाव प्रणाली और राजनीतिक दल

✅ चुनाव पद्धति, बहुदलीय और द्विदलीय प्रणाली
✅ चुनावों की पारदर्शिता और भागीदारी
📝 उदाहरण: भारत की निर्वाचन प्रणाली बनाम इंग्लैंड की प्रणाली

🔸 👥 राजनीतिक संस्कृति और राजनीतिक सामाजिकरण

✅ नागरिकों की राजनीतिक चेतना, विचारधाराएं
✅ परिवार, शिक्षा और मीडिया का राजनीतिक सोच पर प्रभाव
📝 उदाहरण: एशियाई देशों में सामूहिक राजनीतिक संस्कृति

🔸 ⚖️ सार्वजनिक नीति और प्रशासन

✅ विभिन्न सरकारों की नीतियों का तुलनात्मक अध्ययन
✅ नीति निर्माण की प्रक्रिया और उसका समाज पर प्रभाव

🔸 🔄 शासन प्रणाली और राजनीतिक व्यवहार

✅ लोकतंत्र, अधिनायकवाद, राजशाही, तानाशाही
✅ विभिन्न देशों में शासन के स्वरूप और नागरिकों का व्यवहार

🔸 📉 विकासशील बनाम विकसित देश

✅ लोकतंत्र की स्थायित्वता, संस्थागत परिपक्वता
✅ विकासशील देशों में राजनीतिक अस्थिरता के कारण


🔹 तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के उद्देश्य (Objectives of Comparative Politics)

🔸 ✅ राजनीतिक सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप में समझना

तुलनात्मक अध्ययन से हम राजनीतिक सिद्धांतों की व्यवहारिक उपयोगिता को समझ सकते हैं।

🔸 ✅ राजनीतिक संस्थाओं के क्रियान्वयन का विश्लेषण

देश-विशेष की संस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन, उनके प्रभावी संचालन की समझ देता है।

🔸 ✅ राजनीतिक समस्याओं के समाधान की खोज

दूसरे देशों के मॉडल से प्रेरणा लेकर घरेलू समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है।

🔸 ✅ लोकतंत्र की गहराई से व्याख्या

लोकतंत्र की विभिन्न व्याख्याएं और उनका व्यवहारिक स्वरूप स्पष्ट होता है।


🔹 तुलनात्मक राजनीति में प्रयुक्त विधियाँ (Methods Used in Comparative Politics)

🔸 🧪 वैज्ञानिक विधि (Scientific Method)

✅ परिकल्पना बनाना, आंकड़ों का संग्रह, परीक्षण और निष्कर्ष

🔸 📚 ऐतिहासिक विधि (Historical Method)

✅ ऐतिहासिक घटनाओं और संस्थाओं का तुलनात्मक विश्लेषण

🔸 🧾 अध्ययन-विषय विधि (Case Study Method)

✅ किसी एक देश की राजनीति का गहन विश्लेषण

🔸 ⚖️ तुलनात्मक विधि (Comparative Method)

✅ दो या अधिक देशों के राजनीतिक तंत्रों की तुलना


🔹 निष्कर्ष (Conclusion)

तुलनात्मक राजनीति आज राजनीति विज्ञान का सबसे गतिशील और व्यवहारिक क्षेत्र बन चुका है। यह न केवल विभिन्न शासन प्रणालियों की तुलनात्मक समझ प्रदान करता है, बल्कि वैश्विक राजनीतिक संरचना की समग्र दृष्टि भी देता है। इसका अध्ययन छात्रों, शोधकर्ताओं और नीति-निर्माताओं के लिए अत्यंत उपयोगी है।

इसका महत्व निरंतर बढ़ रहा है, विशेष रूप से वैश्वीकरण, लोकतंत्र, मानव अधिकारों और विकासशील देशों की राजनीति को समझने में।




प्रश्न 2. संविधानवाद की उदारवादी लोकतांत्रिक अवधारणा व साम्यवादी अवधारणा की विवेचना कीजिए।

🔹 प्रस्तावना

संविधानवाद (Constitutionalism) एक ऐसी राजनीतिक विचारधारा है जो यह सुनिश्चित करती है कि शासक और राज्य के सभी अंग संविधान के अधीन रहें। यह एक ऐसा सिद्धांत है जो सत्ता के प्रयोग को सीमित करने, नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करने और न्यायपूर्ण शासन को बढ़ावा देने का कार्य करता है।

संविधानवाद के भीतर दो प्रमुख विचारधाराएं विकसित हुई हैं – उदारवादी लोकतांत्रिक अवधारणा और साम्यवादी अवधारणा। दोनों विचारधाराएं संविधान के महत्व को स्वीकार करती हैं, लेकिन उसकी संरचना, उद्देश्य और कार्यप्रणाली में भिन्न दृष्टिकोण रखती हैं।


🔹 उदारवादी लोकतांत्रिक संविधानवाद की अवधारणा

उदारवादी लोकतांत्रिक संविधानवाद की जड़ें पाश्चात्य राजनीतिक विचारों में हैं, विशेषतः इंग्लैंड, अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों में। इस विचारधारा के अनुसार, संविधान का मुख्य उद्देश्य नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करना, सरकारी शक्तियों को सीमित करना, और न्यायिक निगरानी स्थापित करना है।

🔸 प्रमुख विशेषताएँ

शक्ति का विभाजन – कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच स्पष्ट विभाजन।
न्यायिक पुनरावलोकन – यदि कोई कानून संविधान के विरुद्ध है, तो न्यायपालिका उसे निरस्त कर सकती है।
मौलिक अधिकारों की गारंटी – नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त होती है।
लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था – आम चुनावों के माध्यम से सरकार का गठन।
न्याय के सिद्धांत – कानून के समक्ष सब समान, और विधिसम्मत प्रक्रिया का पालन।

🔸 उदाहरण

• अमेरिका का संविधान, जहां न्यायपालिका स्वतंत्र है और मौलिक अधिकार सर्वोपरि हैं।
• भारत का संविधान, जो मौलिक अधिकारों, शक्ति-विभाजन और न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था करता है।

🔸 उद्देश्य

उदारवादी संविधानवाद का उद्देश्य है – व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना, लोकतंत्र को संस्थागत बनाना और सत्ता के दुरुपयोग को रोकना।


🔹 साम्यवादी संविधानवाद की अवधारणा

साम्यवाद (Communism) एक वैचारिक आंदोलन है जिसका मुख्य उद्देश्य है – वर्गहीन समाज की स्थापना और संपत्ति का सामूहिक स्वामित्व। साम्यवादी संविधानवाद इसी सोच से प्रेरित है।

यह विचारधारा मानती है कि राज्य का मुख्य कार्य केवल अधिकारों की रक्षा करना नहीं है, बल्कि समाज के आर्थिक और सामाजिक ढांचे को बदलकर समानता पर आधारित व्यवस्था को लागू करना है।

🔸 प्रमुख विशेषताएँ

संपत्ति का राष्ट्रीयकरण – निजी संपत्ति का अंत, और साधनों पर राज्य का नियंत्रण।
एकदलीय शासन प्रणाली – सत्ता पर एक ही दल का नियंत्रण (जैसे – सोवियत संघ में)।
क्रांतिकारी बदलाव – संविधान समाज के पुनर्निर्माण का साधन है।
व्यक्ति से ऊपर समाज का महत्व – व्यक्तिगत अधिकारों से अधिक सामूहिक हित को प्राथमिकता दी जाती है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता सीमित – न्यायपालिका पर राजनीतिक नेतृत्व का प्रभाव।

🔸 उदाहरण

• सोवियत संघ का संविधान – जहां श्रमिकों की तानाशाही को वैधता प्रदान की गई थी।
• चीन का संविधान – जो कम्युनिस्ट पार्टी की सर्वोच्चता को मान्यता देता है।

🔸 उद्देश्य

साम्यवादी संविधानवाद का उद्देश्य है – आर्थिक और सामाजिक समानता की स्थापना, और पूंजीवादी शोषण को समाप्त करना।


🔹 दोनों अवधारणाओं की तुलना

तत्वउदारवादी संविधानवादसाम्यवादी संविधानवाद
स्वतंत्रताव्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकतासामूहिक हित को प्राथमिकता
सत्ता संरचनाशक्ति का विभाजन, बहुदलीय प्रणालीकेंद्रीकृत सत्ता, एकदलीय प्रणाली
न्यायपालिकास्वतंत्र और निष्पक्षदल के अधीन, स्वतंत्रता सीमित
संविधान का उद्देश्यसत्ता को सीमित करना, अधिकारों की रक्षासमाज को बदलना, समानता की स्थापना
चुनाव प्रणालीआम चुनाव, मताधिकारसीमित या नियंत्रित चुनाव प्रणाली
अधिकारमौलिक अधिकारों की स्पष्ट सूचीअधिकार दिए जाते हैं, पर सीमित

🔹 आलोचना

🔸 उदारवादी संविधानवाद की आलोचना

• केवल औपचारिक स्वतंत्रता प्रदान करता है, सामाजिक या आर्थिक समानता नहीं।
• शक्तिशाली वर्गों का हित सुरक्षित रखता है।
• गरीब और हाशिए पर रहने वाले वर्गों के लिए अधिकार केवल कागज़ी होते हैं।

🔸 साम्यवादी संविधानवाद की आलोचना

• लोकतांत्रिक मूल्यों की कमी।
• सत्ता का केंद्रीकरण, नागरिक स्वतंत्रता का हनन।
• अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित या निषिद्ध।


🔹 निष्कर्ष

संविधानवाद एक ऐसी संकल्पना है जो यह सुनिश्चित करती है कि शासन में नियम, प्रक्रिया और नागरिक अधिकारों का सम्मान हो। परंतु उदारवादी और साम्यवादी विचारधाराएं इसे अलग-अलग दृष्टिकोणों से परिभाषित करती हैं।

जहां उदारवादी संविधानवाद नागरिक स्वतंत्रता और सत्ता पर नियंत्रण को प्रमुख मानता है, वहीं साम्यवादी संविधानवाद सामाजिक क्रांति और समानता पर केंद्रित है।

आज के समय में अधिकांश लोकतंत्रों ने उदारवादी ढांचे को स्वीकार किया है, लेकिन उसमें साम्यवादी अवधारणाओं की कुछ झलकियाँ जैसे – सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, कल्याणकारी राज्य – भी देखी जाती हैं। यही संविधानवाद की प्रगतिशील और समायोजक प्रकृति को दर्शाता है।




प्रश्न 3. संसदात्मक और अध्यक्षात्मक शासन प्रणालियों का अर्थ समझाते हुए इनके मध्य अंतर स्पष्ट कीजिए।

🔹 प्रस्तावना

राजनीति विज्ञान में शासन प्रणालियों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जाता है — संसदात्मक शासन प्रणाली और अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली। ये दोनों व्यवस्थाएं लोकतांत्रिक शासन के ही रूप हैं, जिनका उद्देश्य है लोकतंत्र का सुचारू संचालन। परंतु इन दोनों में सत्ता के वितरण, कार्यपालिका और विधायिका के संबंध, तथा कार्यप्रणाली में मूलभूत अंतर होता है।

इन प्रणालियों की समझ आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था को जानने के लिए अत्यंत आवश्यक है।


🔹 संसदात्मक शासन प्रणाली का अर्थ

संसदात्मक शासन प्रणाली (Parliamentary System) वह व्यवस्था है जिसमें कार्यपालिका, विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है। इसमें कार्यपालिका को उसके कार्यकाल के लिए विधायिका का विश्वास प्राप्त होना आवश्यक होता है। प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद, संसद के भीतर से ही चुने जाते हैं और सदन के प्रति जवाबदेह होते हैं।

🔸 प्रमुख विशेषताएँ

• कार्यपालिका दो भागों में – नाममात्र प्रमुख (राष्ट्रपति/राजा) और वास्तविक प्रमुख (प्रधानमंत्री)
• मंत्रिपरिषद संसद के प्रति उत्तरदायी
• कार्यपालिका और विधायिका के बीच घनिष्ठ संबंध
• मंत्रिपरिषद कभी भी अविश्वास प्रस्ताव से हटाई जा सकती है
• राष्ट्रपति या राजा केवल औपचारिक/संवैधानिक प्रमुख होता है

🔸 उदाहरण

भारत, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में संसदात्मक शासन प्रणाली प्रचलित है।


🔹 अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली का अर्थ

अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली (Presidential System) वह व्यवस्था है जिसमें कार्यपालिका और विधायिका स्पष्ट रूप से अलग होती हैं। राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख कार्यकारी होता है और वह प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुना जाता है। इस प्रणाली में कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती।

🔸 प्रमुख विशेषताएँ

• राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख और कार्यपालिका का प्रमुख होता है
• कार्यपालिका और विधायिका में स्पष्ट पृथक्करण
• राष्ट्रपति अपने कार्यकाल के लिए सुरक्षित होता है (Impeachment को छोड़कर)
• मंत्रिपरिषद नहीं होती या यदि हो भी तो वह राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होती है
• विधायिका राष्ट्रपति को हटाने की शक्ति सामान्यतः नहीं रखती

🔸 उदाहरण

अमेरिका, ब्राजील, इंडोनेशिया, अर्जेंटीना आदि देश अध्यक्षात्मक प्रणाली अपनाते हैं।


🔹 संसदात्मक और अध्यक्षात्मक प्रणाली के बीच अंतर

नीचे सारणी के माध्यम से दोनों प्रणालियों के बीच मुख्य अंतर प्रस्तुत किए गए हैं:

आधारसंसदात्मक प्रणालीअध्यक्षात्मक प्रणाली
कार्यपालिका का गठनविधायिका के भीतर सेस्वतंत्र रूप से, प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा
कार्यपालिका की जवाबदेहीसंसद के प्रति उत्तरदायीसंसद के प्रति जवाबदेह नहीं
कार्यकालअस्थिर (संसद के विश्वास पर निर्भर)स्थिर (निर्धारित कार्यकाल)
शक्ति का वितरणकार्यपालिका और विधायिका के बीच सहयोगकार्यपालिका और विधायिका में पृथक्करण
कार्यपालिका प्रमुखप्रधानमंत्रीराष्ट्रपति
पदच्युत करने की प्रक्रियाअविश्वास प्रस्ताव द्वारामहाभियोग प्रक्रिया द्वारा
निर्णय प्रक्रियासामूहिक (कॉलिजियल)व्यक्तिगत (सेंट्रलाइज़्ड)
राजनीतिक दलों की भूमिकाअत्यधिक महत्वपूर्णअपेक्षाकृत सीमित


🔹 संसदात्मक शासन प्रणाली की विशेषताएं

🔸 दोहरी कार्यपालिका

• एक नाममात्र कार्यपालिका (राष्ट्रपति/राजा) और एक वास्तविक कार्यपालिका (प्रधानमंत्री) होती है।

🔸 कार्यपालिका की उत्तरदायित्व

• प्रधानमंत्री और मंत्रीगण संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं और उन्हें सदन का विश्वास प्राप्त होना चाहिए।

🔸 गठबंधन सरकारों की संभावना

• संसद में बहुमत न होने की स्थिति में गठबंधन सरकारें बनती हैं जो अक्सर अल्पकालिक होती हैं।

🔸 शीघ्र परिवर्तन की संभावना

• सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव आने पर कार्यपालिका को हटाया जा सकता है।


🔹 अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली की विशेषताएं

🔸 एकल कार्यपालिका

• राष्ट्रपति ही राष्ट्र और सरकार का प्रमुख होता है, जिसमें सभी कार्यकारी शक्तियाँ निहित होती हैं।

🔸 शक्ति का पृथक्करण

• विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं।

🔸 स्थायित्व

• राष्ट्रपति अपने कार्यकाल के दौरान अपने पद पर बना रहता है, जिससे सरकार अधिक स्थिर होती है।

🔸 निर्णय प्रक्रिया में शीघ्रता

• राष्ट्रपति स्वतंत्र निर्णय ले सकता है, जिससे नीतियों का निर्माण तेज़ी से होता है।


🔹 संसदात्मक प्रणाली की कमियाँ

• बार-बार सरकार का गिरना (गठबंधन की स्थिति में)
• राजनीतिक अस्थिरता
• कार्यपालिका पर विधायिका का अत्यधिक प्रभाव
• निर्णय प्रक्रिया में विलंब


🔹 अध्यक्षात्मक प्रणाली की कमियाँ

• कार्यपालिका की अत्यधिक शक्ति – अधिनायकवाद का खतरा
• उत्तरदायित्व की कमी
• सत्ता का केंद्रीकरण
• संसद से टकराव की संभावना


🔹 भारत और अमेरिका: एक तुलनात्मक दृष्टिकोण

भारत और अमेरिका दो प्रमुख लोकतंत्र हैं लेकिन दोनों की शासन प्रणाली भिन्न है:

• भारत में प्रधानमंत्री संसद का हिस्सा होता है और कार्यपालिका संसद को उत्तरदायी होती है।
• अमेरिका में राष्ट्रपति कार्यपालिका का प्रमुख होता है और कांग्रेस के प्रति उत्तरदायी नहीं होता।

यह तुलनात्मक विश्लेषण बताता है कि दोनों प्रणालियों की अपनी विशेषताएँ, लाभ और सीमाएँ हैं।


🔹 निष्कर्ष

संसदात्मक और अध्यक्षात्मक शासन प्रणालियाँ लोकतंत्र के दो रूप हैं, जो विभिन्न सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों में विकसित हुई हैं।

जहाँ संसदात्मक प्रणाली सहयोग, उत्तरदायित्व और लचीलापन प्रदान करती है, वहीं अध्यक्षात्मक प्रणाली स्थायित्व, दृढ़ निर्णय और स्पष्ट शक्ति संरचना पर बल देती है।

वर्तमान समय में कई देश इन दोनों प्रणालियों के मिश्रित रूप को अपनाकर शासन की प्रभावशीलता को बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। भारत जैसे देश में संसदात्मक प्रणाली ने लोकतांत्रिक परंपराओं को मज़बूती दी है, वहीं अमेरिका में अध्यक्षात्मक प्रणाली ने स्थिर शासन और स्पष्ट निर्णय प्रदान किए हैं।




प्रश्न 4. ब्रिटेन की संसदीय व्यवस्था को मंत्रिमण्डल शासन व्यवस्था क्यों कहते हैं? मंत्रिमण्डल की शक्तियों का विस्तृत वर्णन कीजिए।

🔹 प्रस्तावना

ब्रिटेन को आधुनिक संसदीय लोकतंत्र का जन्मस्थान माना जाता है। वहां की शासन प्रणाली को "मंत्रिमंडल शासन प्रणाली" (Cabinet System of Government) कहा जाता है, क्योंकि वहां पर वास्तविक शासन शक्ति मंत्रिमंडल के हाथों में निहित होती है, न कि सम्राट (राजा या रानी) या संसद के पास।

ब्रिटेन का संविधान लिखित नहीं है, बल्कि परंपराओं, अधिनियमों और न्यायिक निर्णयों का संगठित रूप है। इस प्रणाली में मंत्रिमंडल को शासन का "मुख्य केन्द्र" माना जाता है।


🔹 मंत्रिमंडल शासन प्रणाली का अर्थ

ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका दो भागों में विभाजित होती है:
नाममात्र कार्यपालिका – राजा या रानी
वास्तविक कार्यपालिका – मंत्रिमंडल, जिसकी अगुवाई प्रधानमंत्री करता है।

मंत्रिमंडल ही वह संस्था है जो नीतियाँ बनाता है, निर्णय करता है और देश का प्रशासन चलाता है। इसलिए ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली को मंत्रिमंडल शासन प्रणाली कहा जाता है।


🔹 ब्रिटेन में मंत्रिमंडल की विशेषताएँ

🔸 मंत्रिमंडल का गठन

• संसद के उस दल या गठबंधन के सदस्य जो हाउस ऑफ कॉमन्स में बहुमत में हो
• प्रधानमंत्री द्वारा चुने गए वरिष्ठ सांसदों में से बनता है

🔸 सामूहिक उत्तरदायित्व

• संपूर्ण मंत्रिमंडल संसद विशेषतः हाउस ऑफ कॉमन्स के प्रति उत्तरदायी होता है
• एक मंत्री की विफलता पूरी मंत्रिपरिषद की विफलता मानी जाती है

🔸 गोपनीयता और एकरूपता

• मंत्रिपरिषद की बैठकों की चर्चा सार्वजनिक नहीं होती
• सभी निर्णय एकमत से लिए जाते हैं – भले ही आंतरिक मतभेद हों


🔹 मंत्रिमंडल की शक्तियाँ: एक विस्तृत विश्लेषण

ब्रिटेन के मंत्रिमंडल को 'The Steering Wheel of the State' यानी "राज्य की दिशा तय करने वाला पहिया" कहा जाता है। इसके पास व्यापक विधायी, कार्यकारी, वित्तीय और अन्य प्रशासनिक शक्तियाँ होती हैं।


🔹 विधायी शक्तियाँ (Legislative Powers)

🔸 संसद में कानून निर्माण की पहल

• अधिकतर विधेयक मंत्रिमंडल द्वारा तैयार किए जाते हैं
• हाउस ऑफ कॉमन्स में वे मंत्रियों के द्वारा प्रस्तुत होते हैं

🔸 नीतियों का निर्धारण

• मंत्रिमंडल ही संसद में होने वाली बहसों और कानूनों की विचारधारा और दिशा तय करता है

🔸 संसदीय बहुमत पर नियंत्रण

• चूंकि मंत्रिमंडल बहुमत वाले दल से होता है, इसलिए वह विधायी एजेंडा को प्रभावी रूप से नियंत्रित करता है


🔹 कार्यपालिका शक्तियाँ (Executive Powers)

🔸 प्रशासनिक नियंत्रण

• मंत्रिमंडल देश के सभी विभागों, नौकरशाही, पुलिस और प्रशासन पर नियंत्रण रखता है
• सभी सरकारी कार्य मंत्रालयों के माध्यम से मंत्रिपरिषद की निगरानी में होते हैं

🔸 विदेश नीति और रक्षा

• विदेश मामलों, रक्षा, युद्ध, समझौतों जैसे निर्णय मंत्रिमंडल की स्वीकृति से होते हैं
• प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री इन विषयों में मुख्य भूमिका निभाते हैं

🔸 नियुक्तियाँ

• उच्च पदों पर नियुक्तियाँ जैसे – उच्च न्यायाधीश, राजदूत, गवर्नर आदि मंत्रिमंडल की सलाह पर होती हैं


🔹 वित्तीय शक्तियाँ (Financial Powers)

🔸 बजट तैयार करना

• वार्षिक बजट, कर प्रस्ताव, सरकारी व्यय और आर्थिक नीति का निर्धारण मंत्रिमंडल करता है

🔸 संसदीय स्वीकृति प्राप्त करना

• चूंकि मंत्रिमंडल बहुमत में होता है, इसलिए बजट आसानी से पारित करवा लेता है

🔸 आर्थिक नीतियों का निर्माण

• आर्थिक सुधार, आय-व्यय का संतुलन, मुद्रा प्रबंधन आदि निर्णय मंत्रिपरिषद द्वारा होते हैं


🔹 न्यायिक एवं संवैधानिक भूमिका

🔸 न्यायपालिका पर सीमित प्रभाव

• मंत्रिमंडल की सीधी भूमिका न्यायिक निर्णयों में नहीं होती, परंतु न्यायिक नियुक्तियों और न्याय प्रशासन में उसकी भूमिका होती है

🔸 संविधानिक प्रावधानों की व्याख्या

• चूंकि ब्रिटेन का संविधान unwritten है, इसलिए परंपराएं और मंत्रिमंडल के निर्णय ही शासन के व्यवहारिक नियम बनाते हैं


🔹 सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व

🔸 जनमत का प्रतिनिधित्व

• चूंकि मंत्रिमंडल आम चुनाव के माध्यम से चुने गए सांसदों में से बनता है, इसलिए वह जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है

🔸 राष्ट्रीय संकट का नेतृत्व

• संकट के समय (युद्ध, महामारी आदि) मंत्रिमंडल ही निर्णय और क्रियान्वयन में नेतृत्व करता है


🔹 ब्रिटेन में प्रधानमंत्री की भूमिका

ब्रिटेन के मंत्रिमंडल का नेतृत्व करता है प्रधानमंत्री। उसे 'First among Equals' कहा जाता है, परंतु व्यावहारिक रूप में उसकी शक्ति सर्वाधिक होती है।

• मंत्रियों की नियुक्ति और निष्कासन का अधिकार
• मंत्रिपरिषद की बैठकें बुलाना और एजेंडा तय करना
• विदेश नीति, रक्षा, और प्रशासनिक निर्णयों में केंद्रीय भूमिका


🔹 मंत्रिमंडल शासन प्रणाली की विशेष सफलता

ब्रिटेन में यह प्रणाली पिछले कई दशकों से सफलतापूर्वक कार्य कर रही है क्योंकि –
• राजनीतिक परिपक्वता
• दो प्रमुख दलों की परंपरा
• प्रभावी विपक्ष
• लोकतांत्रिक परंपराओं का सम्मान
• सुचालन और स्थायित्व


🔹 निष्कर्ष

ब्रिटेन की संसदीय व्यवस्था को मंत्रिमंडल शासन प्रणाली इसलिए कहा जाता है क्योंकि वहां की पूरी शासन व्यवस्था प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद के अधीन होती है

सत्ता का केन्द्र बिंदु मंत्रिमंडल ही है, और सम्राट केवल एक संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करता है। यह व्यवस्था ब्रिटेन में न केवल स्थायित्व और उत्तरदायित्व प्रदान करती है, बल्कि लोकतंत्र की असली भावना को भी बनाए रखती है।

आज भी ब्रिटेन का मंत्रिमंडल शासन प्रणाली अन्य देशों के लिए आदर्श मॉडल के रूप में देखा जाता है।




प्रश्न 5. तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागम के विकास और विशेषताओं की विवेचना कीजिए।

🔹 प्रस्तावना

तुलनात्मक राजनीति (Comparative Politics) राजनीति विज्ञान की एक प्रमुख शाखा है, जिसका उद्देश्य विभिन्न देशों की राजनीतिक प्रणालियों, संस्थाओं, व्यवहारों और प्रक्रियाओं का तुलनात्मक अध्ययन करना है। परंतु 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक इसका अध्ययन परंपरागत दृष्टिकोण से होता था, जिसमें केवल संस्थाओं की तुलना होती थी।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, विशेष रूप से 1950 के दशक में, तुलनात्मक राजनीति में एक नई लहर आई जिसे आधुनिक उपागम (Modern Approach) कहा जाता है। इसने राजनीति के अध्ययन को एक नया दृष्टिकोण, नई पद्धति और व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया।


🔹 आधुनिक उपागम का विकास

🔸 द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव

• युद्ध के बाद वैश्विक राजनीतिक समीकरण बदल गए।
• नव स्वतंत्र देशों की संख्या बढ़ी, जिससे पश्चिमी संस्थाओं की तुलना सीमित हो गई।
• इसने अध्ययन को केवल संविधान तक सीमित रखने की बजाय, राजनीतिक प्रक्रिया और व्यवहार की ओर मोड़ा।

🔸 अमेरिका में व्यवहारवाद का उदय

• 1950 के दशक में अमेरिकी विद्वानों जैसे – डेविड ईस्टन, गैब्रियल आलमंड, सिडनी वर्बा आदि ने behavioral revolution शुरू किया।
• उन्होंने राजनीति को अनुभवजन्य (empirical), तुलनात्मक और वैज्ञानिक रूप में देखने पर बल दिया।

🔸 विकासशील देशों पर ध्यान

• पारंपरिक दृष्टिकोण पश्चिमी संस्थाओं पर केंद्रित था, लेकिन नए उपागम ने एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका जैसे विकासशील देशों की राजनीति का भी अध्ययन शुरू किया।
• इससे तुलनात्मक राजनीति का क्षेत्र और भी व्यापक हो गया।

🔸 बहुविषयक दृष्टिकोण का समावेश

• समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि के सिद्धांतों को शामिल किया गया।
• राजनीतिक व्यवहार और संस्कृति को समझने के लिए इन विषयों का सहारा लिया गया।


🔹 आधुनिक उपागम की प्रमुख विशेषताएँ

आधुनिक उपागम ने तुलनात्मक राजनीति को संस्थाओं की तुलना से निकालकर व्यवहार, संस्कृति, प्रणाली और नीति के विश्लेषण तक पहुंचाया।

🔸 • अनुभवजन्य और वैज्ञानिक दृष्टिकोण

• आधुनिक उपागम अनुभवजन्य तथ्यों, आँकड़ों और सांख्यिकीय विधियों पर आधारित होता है।
• यह राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण एक वैज्ञानिक पद्धति से करता है, न कि केवल सैद्धांतिक दृष्टि से।

🔸 • प्रणाली दृष्टिकोण (System Approach)

• डेविड ईस्टन ने राजनीति को एक प्रणाली के रूप में देखा जिसमें इनपुट (मांग और समर्थन) और आउटपुट (निर्णय और नीति) के बीच संबंध होता है।
• यह दृष्टिकोण राजनीति को एक गतिशील प्रक्रिया के रूप में देखने में सहायक हुआ।

🔸 • राजनीतिक संस्कृति का अध्ययन

• गैब्रियल आलमंड और सिडनी वर्बा ने 'The Civic Culture' के माध्यम से यह बताया कि राजनीतिक व्यवहार और नागरिकों की सोच राजनीतिक प्रणाली को कैसे प्रभावित करती है।
• इससे विभिन्न देशों की राजनीतिक स्थिरता को समझने में मदद मिली।

🔸 • तुलनात्मक विधि का उपयोग

• आधुनिक उपागम तुलनात्मक विधि (Comparative Method) का सशक्त प्रयोग करता है।
• यह केवल संस्थाओं की नहीं, बल्कि प्रक्रियाओं, दलों, आंदोलनों, नीतियों और राजनीतिक संस्कृति की भी तुलना करता है।

🔸 • विकासशील देशों पर जोर

• उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देशों की राजनीतिक समस्याओं जैसे – अस्थिरता, भ्रष्टाचार, जातिवाद, सैन्य हस्तक्षेप आदि पर ध्यान केंद्रित किया गया।
• पश्चिमी मॉडल की अंधानुकरण की बजाय स्थानीय वास्तविकताओं पर आधारित विश्लेषण किया गया।

🔸 • नीति निर्माण और क्रियान्वयन का अध्ययन

• आधुनिक उपागम में केवल नीतियाँ कैसे बनती हैं, यह नहीं देखा जाता, बल्कि यह भी देखा जाता है कि वे कैसे लागू होती हैं और उनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है।
• इससे शासन की प्रभावशीलता का मूल्यांकन संभव होता है।


🔹 प्रमुख आधुनिक उपागम

🔸 • व्यवहारवादी उपागम (Behavioural Approach)

• राजनीति को वैज्ञानिक, वस्तुनिष्ठ और आंकड़ों पर आधारित विषय के रूप में प्रस्तुत करता है।
• व्यक्ति के व्यवहार, दृष्टिकोण, मनोवृत्ति आदि का अध्ययन करता है।

🔸 • प्रणाली उपागम (Systems Approach)

• राजनीति को इनपुट-आउटपुट मॉडल के रूप में देखता है।
• सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारकों को राजनीति से जोड़ता है।

🔸 • संरचनात्मक-क्रियात्मक उपागम (Structural-Functional Approach)

• विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं की भूमिका और कार्यों का तुलनात्मक अध्ययन करता है।
• यह देखने का प्रयास करता है कि कोई संस्था समाज में कौन-से कार्य कर रही है।

🔸 • राजनीतिक संस्कृति उपागम (Political Culture Approach)

• नागरिकों की सोच, विश्वास, दृष्टिकोण और मूल्य क्या हैं – इनका अध्ययन करता है।
• यह बताता है कि लोकतंत्र क्यों कुछ देशों में सफल होता है और कुछ में नहीं।


🔹 आधुनिक उपागम के लाभ

• तुलनात्मक राजनीति को व्यापक और व्यवहारिक बनाया
• केवल पश्चिमी देशों तक सीमित नहीं रहा
• नागरिकों की भूमिका और सोच को केंद्र में रखा
• सरकारों की नीति निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन संभव हुआ
• अनुभवजन्य पद्धतियों से राजनीति का वैज्ञानिक अध्ययन बढ़ा


🔹 आलोचना

हालाँकि आधुनिक उपागम ने तुलनात्मक राजनीति को नया जीवन दिया, फिर भी इसकी कुछ आलोचनाएँ भी की गईं:

• अत्यधिक आंकड़ों और तकनीकी विधियों पर निर्भरता
• राजनीतिक नैतिकता और सिद्धांतों की उपेक्षा
• पश्चिमी मूल्यों का प्रभुत्व बना रहा
• व्यवहार और सांस्कृतिक अध्ययन की सीमाएं


🔹 निष्कर्ष

आधुनिक उपागम ने तुलनात्मक राजनीति को संस्थागत सीमाओं से निकालकर व्यवहारिक यथार्थ की ओर मोड़ा है। इससे यह अध्ययन अधिक वैज्ञानिक, समसामयिक और उपयोगी हो गया है।

व्यवहार, संस्कृति, नीति और नागरिक दृष्टिकोण जैसे तत्वों के अध्ययन ने इसे जीवंत और वैश्विक बनाया है। आज के जटिल और बहुपरिप्रेक्ष्य राजनीतिक परिवेश को समझने के लिए आधुनिक उपागम अनिवार्य हो चुका है।


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SECTION B 


प्रश्न 01. संविधानवाद के प्रमुख तत्वों की व्याख्या कीजिए।

🔹 प्रस्तावना

संविधानवाद (Constitutionalism) एक राजनीतिक सिद्धांत है जो यह सुनिश्चित करता है कि सरकार की शक्तियाँ सीमित, उत्तरदायी और विधिसम्मत हों। यह केवल एक संविधान की उपस्थिति मात्र नहीं है, बल्कि इस बात की गारंटी है कि सत्ता का प्रयोग संविधान की सीमाओं के भीतर ही हो, और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाए।

संविधानवाद लोकतंत्र का आत्मा है। यह शासन में न्याय, स्वतंत्रता और कानून के शासन की स्थापना करता है। इस उत्तर में हम संविधानवाद के प्रमुख तत्वों की विस्तृत विवेचना करेंगे।


🔹 संविधानवाद का तात्पर्य

संविधानवाद का मूल उद्देश्य है — यह सुनिश्चित करना कि शासक वर्ग मनमानी न करे और उनका हर कार्य संवैधानिक सीमाओं में हो। इसमें निम्न बातें निहित होती हैं:

• सत्ता का सीमांकन
• नागरिक अधिकारों की गारंटी
• सरकार की जवाबदेही
• न्यायपालिका की स्वतंत्रता
• कानून का शासन


🔹 संविधानवाद के प्रमुख तत्व

अब हम संविधानवाद के उन मूलभूत तत्वों को समझते हैं जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ होते हैं:


🔹 1. लिखित या अलिखित संविधान की उपस्थिति

• संविधानवाद की पहली और सबसे मूलभूत शर्त है कि देश में एक संविधान हो – वह चाहे लिखित हो (जैसे भारत में) या अलिखित हो (जैसे ब्रिटेन में)।
• संविधान सरकार के विभिन्न अंगों के अधिकारों और दायित्वों को परिभाषित करता है।
• यह शासकों और शासितों दोनों के लिए एक मार्गदर्शक दस्तावेज़ होता है।


🔹 2. शक्ति का विभाजन (Separation of Powers)

• कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच स्पष्ट शक्ति का विभाजन संविधानवाद का मुख्य आधार है।
• इसका उद्देश्य सत्ता के केंद्रीकरण को रोकना और एक अंग को दूसरे पर नियंत्रण से बचाना है।
• इससे शासन में संतुलन और पारदर्शिता बनी रहती है।


🔹 3. कानून का शासन (Rule of Law)

• संविधानवाद के अंतर्गत सभी व्यक्ति – चाहे वे सामान्य नागरिक हों या प्रधानमंत्री – कानून के अधीन होते हैं।
• कानून सभी के लिए समान होता है और न्यायिक प्रक्रिया निष्पक्ष होती है।
• कोई भी कार्य कानून के विरुद्ध नहीं होना चाहिए, चाहे वह बहुमत से ही क्यों न लिया गया हो।


🔹 4. मौलिक अधिकारों की गारंटी

• नागरिकों को संविधान द्वारा कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किए जाते हैं, जैसे – जीवन का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता का अधिकार आदि।
• ये अधिकार राज्य के किसी भी अंग द्वारा अतिक्रमित नहीं किए जा सकते।
• यह संविधानवाद की आत्मा है, जो व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करता है।


🔹 5. न्यायपालिका की स्वतंत्रता

• संविधानवाद तभी संभव है जब न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष हो।
• एक स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान की व्याख्या करती है और सरकार के कार्यों की संवैधानिक वैधता की निगरानी करती है।
• यह नागरिकों के अधिकारों की अंतिम रक्षक होती है।


🔹 6. विधि का शासन और विधिसम्मत प्रक्रिया

• संविधानवाद इस बात पर बल देता है कि शासन द्वारा कोई भी निर्णय विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Due Process of Law) के अनुसार ही हो।
• बिना उचित प्रक्रिया के किसी को दंड देना या अधिकार छीनना संवैधानिक अपराध माना जाता है।


🔹 7. उत्तरदायी और जवाबदेह सरकार

• सरकार की संसद, न्यायपालिका और जनता के प्रति जवाबदेही संविधानवाद का एक प्रमुख तत्त्व है।
• इसका अर्थ है कि शासक वर्ग अपनी नीतियों और निर्णयों के लिए उत्तरदायी है।
• लोकतांत्रिक चुनाव, प्रेस की स्वतंत्रता और नागरिक जागरूकता इसमें सहायक होती है।


🔹 8. लोकहित की सर्वोच्चता

• संविधानवाद इस विचार पर आधारित है कि राज्य जनता के कल्याण के लिए है, न कि सत्ता में बैठे व्यक्तियों के स्वार्थ के लिए।
• सभी कानून, नीतियाँ और निर्णय जनता की सेवा और सुरक्षा को केंद्र में रखकर लिए जाने चाहिए।


🔹 9. अधिकारों और कर्तव्यों में संतुलन

• केवल अधिकार देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि संविधानवाद यह भी सुनिश्चित करता है कि नागरिक अपने कर्तव्यों को निभाएं।
• इस संतुलन से ही लोकतांत्रिक समाज टिकाऊ और अनुशासित बनता है।


🔹 10. असंवैधानिक कार्यों पर रोक

• संविधानवाद यह मानता है कि यदि कोई कार्य संविधान के विरुद्ध होता है, तो न्यायपालिका उसे अवैध और निरस्त घोषित कर सकती है।
• यह प्रणाली संवैधानिक सर्वोच्चता को बनाए रखने में मदद करती है।


🔹 भारत में संविधानवाद की झलक

भारत में संविधानवाद की अवधारणा प्रारंभ से ही संविधान के केंद्र में रही है:

• मौलिक अधिकारों का भाग III
• न्यायपालिका की स्वतंत्रता
• शक्ति का विभाजन – केंद्र और राज्य
• न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review)
• संविधान की सर्वोच्चता की उद्घोषणा – अनुच्छेद 13

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई ऐतिहासिक निर्णयों में संविधानवाद को मजबूत किया है, जैसे —
• केशवानंद भारती मामला (1973) – जिसमें संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) को अतिक्रमित न करने का सिद्धांत स्थापित हुआ।


🔹 निष्कर्ष

संविधानवाद केवल एक राजनीतिक या कानूनी सिद्धांत नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक शासन की आत्मा है। यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता सीमित हो, विधिसम्मत हो और जनता के प्रति जवाबदेह हो।

जिस शासन में संवैधानिक सीमाओं, अधिकारों की गारंटी, शक्ति के संतुलन और न्यायपालिका की स्वतंत्रता जैसे तत्व उपस्थित हों – वही वास्तविक संविधानवाद कहलाता है।

आज के समय में जब लोकतंत्र कई देशों में संकट में है, संविधानवाद की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है – ताकि जनता के अधिकार, स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा की जा सके।




प्रश्न 2. संसदात्मक शासन प्रणाली के गुण और दोषों की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।

🔹 प्रस्तावना

संसदात्मक शासन प्रणाली (Parliamentary System of Government) वह शासन व्यवस्था है जिसमें कार्यपालिका, विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है और दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध होता है। इस प्रणाली में प्रधानमंत्री और मंत्रीगण संसद के सदस्य होते हैं और उन्हें विधायिका का विश्वास प्राप्त रहना अनिवार्य होता है।

यह प्रणाली मुख्यतः ब्रिटेन, भारत, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देशों में अपनाई गई है। इसे लोकतंत्र की एक उत्तरदायी और लचीली व्यवस्था के रूप में देखा जाता है, परंतु इसकी कुछ सीमाएँ और आलोचनाएं भी हैं।


🔹 संसदात्मक शासन प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ

• कार्यपालिका दो भागों में विभाजित – नाममात्र प्रमुख (राष्ट्रपति/राजा) और वास्तविक प्रमुख (प्रधानमंत्री)
• प्रधानमंत्री और मंत्री संसद के सदस्य होते हैं
• कार्यपालिका संसद के प्रति जवाबदेह होती है
• कार्यपालिका और विधायिका में सहयोग और तालमेल
• अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से सरकार को हटाया जा सकता है


🔹 संसदात्मक शासन प्रणाली के गुण

संसदात्मक शासन प्रणाली के कई गुण हैं जो इसे लोकतांत्रिक शासन की प्रभावी पद्धति बनाते हैं:


🔹 1. उत्तरदायी शासन

• इस प्रणाली में कार्यपालिका, विशेष रूप से मंत्रिपरिषद, संसद के प्रति जवाबदेह होती है
• यदि सरकार जनता के हित में कार्य नहीं करती, तो उसे अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से हटाया जा सकता है।
• इससे जनता की इच्छा का सम्मान होता है और सरकार पर निरंतर निगरानी बनी रहती है।


🔹 2. लचीलापन (Flexibility)

• संसदात्मक प्रणाली में सरकार को संसद में बहुमत खोने पर तत्काल बदलने की सुविधा होती है।
• नए नेता या गठबंधन द्वारा बिना किसी क्रांति या अशांति के सत्ता परिवर्तन संभव होता है।
• इससे राजनीतिक स्थायित्व और लोकतांत्रिक परंपराओं को बल मिलता है।


🔹 3. शक्ति का संतुलन

• कार्यपालिका और विधायिका के बीच सहयोग होता है, जिससे नीतियों को लागू करना सरल हो जाता है।
• न्यायपालिका स्वतंत्र होती है, जो सत्ता के दुरुपयोग को रोकती है।


🔹 4. अनुभव आधारित नेतृत्व

• प्रधानमंत्री और मंत्री संसद में कार्यरत होते हैं, उन्हें नीतिगत बहसों और जमीनी मुद्दों की जानकारी होती है।
• यह प्रशासन में व्यावहारिकता और उत्तरदायित्व लाता है।


🔹 5. गठबंधन और समावेशी निर्णय

• बहु-दलीय राजनीति के चलते गठबंधन सरकारें बनती हैं, जिससे विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों को प्रतिनिधित्व मिलता है।
• यह संवेदनशील और समावेशी नीतियों को जन्म देती है।


🔹 6. तानाशाही की संभावना कम

• चूंकि कार्यपालिका संसद के अधीन होती है, इसलिए किसी एक नेता के द्वारा तानाशाही स्थापित करना कठिन होता है।
• इससे लोकतंत्र की रक्षा होती है।


🔹 संसदात्मक शासन प्रणाली के दोष

जहाँ संसदात्मक प्रणाली के कई गुण हैं, वहीं इसके कुछ गंभीर दोष और चुनौतियाँ भी हैं:


🔹 1. अस्थिरता की संभावना

• यदि संसद में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिले तो गठबंधन सरकार बनती है, जो अक्सर अस्थिर और अल्पकालिक होती है।
• इससे नीतियों का निरंतरता से क्रियान्वयन नहीं हो पाता।


🔹 2. पार्टी तानाशाही

• अक्सर प्रधानमंत्री और मंत्रीगण पार्टी हाईकमान के आदेशों पर निर्भर रहते हैं।
• इससे नीति निर्धारण में स्वतंत्रता और पारदर्शिता का अभाव हो सकता है।


🔹 3. निर्णय प्रक्रिया में विलंब

• गठबंधन सरकारों में विभिन्न दलों के बीच मतभेद और समझौते करने पड़ते हैं, जिससे निर्णय लेने में विलंब होता है।
• इससे नीतिगत कार्यों की गति धीमी हो जाती है।


🔹 4. अनुभवहीन नेताओं का आना

• कई बार क्षेत्रीय, जातिगत या दलगत समीकरणों के चलते अनुभवहीन व्यक्तियों को भी मंत्री बना दिया जाता है।
• इससे शासन की गुणवत्ता प्रभावित होती है।


🔹 5. प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप

• संसदात्मक प्रणाली में ब्यूरोक्रेसी पर राजनीतिक दबाव अधिक होता है।
• कई बार योग्य अधिकारियों की बजाय पार्टी वफादारों को प्राथमिकता दी जाती है।


🔹 6. अल्पकालिक नीतियाँ

• चूंकि सरकार अपने कार्यकाल तक ही ध्यान केंद्रित करती है, इसलिए दीर्घकालिक और स्थायी विकास योजनाएँ नहीं बन पातीं।
• इससे नीति निर्माण में दूरदर्शिता की कमी होती है।


🔹 भारत में संसदात्मक प्रणाली की स्थिति

भारत ने ब्रिटेन की तर्ज पर संसदात्मक शासन प्रणाली को अपनाया है। यह प्रणाली मौलिक अधिकारों, शक्ति के विभाजन और जवाबदेही को सुनिश्चित करती है।

हालाँकि, भारत में यह प्रणाली समय-समय पर राजनीतिक अस्थिरता, गठबंधन की मजबूरियाँ और क्षेत्रीय दलों के दबाव जैसी चुनौतियों से जूझती रही है। फिर भी, भारतीय लोकतंत्र ने इस प्रणाली के माध्यम से बहुसांस्कृतिक समाज में प्रतिनिधित्व और संतुलन बनाए रखा है।


🔹 निष्कर्ष

संसदात्मक शासन प्रणाली लोकतंत्र की आत्मा को जीवंत बनाए रखने वाली प्रणाली है। इसमें जवाबदेही, पारदर्शिता, और लचीलापन जैसे गुण हैं, जो इसे लोकप्रिय बनाते हैं।

लेकिन इसके कुछ दोष — जैसे राजनीतिक अस्थिरता, गठबंधन की मजबूरियाँ और निर्णयों में विलंब — इसके प्रभाव को कमजोर करते हैं। इन दोषों को संस्थागत सुधार, राजनीतिक शिक्षा और जन-जागरूकता के माध्यम से कम किया जा सकता है।

अंततः, संसदात्मक प्रणाली वही देशों में अधिक सफल हो सकती है जहाँ राजनीतिक परिपक्वता, स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराएँ और जिम्मेदार विपक्ष हो।




प्रश्न 03. रूस के संविधान में विधायिका और कार्यपालिका की स्थिति का वर्णन कीजिए।

🔹 प्रस्तावना

रूस का संविधान, जिसे 1993 में अपनाया गया, आधुनिक रूसी संघ की राजनीतिक संरचना का मूल आधार है। यह संविधान राष्ट्रपति को सबसे शक्तिशाली अंग बनाता है, जबकि संसद और प्रधानमंत्री की भूमिकाएँ सशक्त लेकिन सीमित होती हैं।

इस संविधान ने अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली को अपनाया है जिसमें कार्यपालिका और विधायिका के बीच स्पष्ट पृथक्करण तो है, लेकिन राष्ट्रपति की भूमिका अत्यधिक प्रभावशाली है।

इस उत्तर में हम रूस के संविधान के अंतर्गत विधायिका (Legislature) और कार्यपालिका (Executive) की स्थिति का विश्लेषण करेंगे।


🏛️ रूस की विधायिका की स्थिति

रूस की विधायिका को "संघीय विधानसभा" (Federal Assembly) कहा जाता है। यह द्विसदनीय है – यानी इसमें दो सदन होते हैं:

राज्य डूमा (State Duma) – निचला सदन
संघ परिषद (Federation Council) – उच्च सदन


🔹 राज्य डूमा (State Duma)

🔸 गठन और संरचना

• इसमें कुल 450 सदस्य होते हैं
• सदस्य 5 वर्षों के लिए निर्वाचित होते हैं
• इनमें से कुछ सदस्य पार्टी लिस्ट प्रणाली और कुछ एकल निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाते हैं

🔸 शक्तियाँ और कार्य

• प्रधानमंत्री के नामांकन को स्वीकृति देना
कानूनों का प्रारूप तैयार करना और पारित करना
• राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाना (परंतु इस प्रक्रिया में बाधाएँ अत्यधिक हैं)
• राष्ट्रपति द्वारा घोषित आपातकाल, युद्ध, या अंतरराष्ट्रीय संधियों पर चर्चा

🔸 सीमाएँ

• हालांकि डूमा के पास विधायी शक्तियाँ हैं, लेकिन राष्ट्रपति को संसद भंग करने का अधिकार प्राप्त है
• डूमा प्रधानमंत्री को अस्वीकार कर सकती है, लेकिन तीन बार इनकार के बाद राष्ट्रपति संसद भंग कर सकता है


🔹 संघ परिषद (Federation Council)

🔸 गठन

• यह रूस के प्रत्येक संघीय इकाई से दो प्रतिनिधियों से मिलकर बनता है
• इसका सदस्य कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि क्षेत्रीय प्रशासनिक इकाई होती है

🔸 कार्य

• युद्ध की घोषणा और आपातकालीन स्थिति को अनुमोदन
• राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों और अटॉर्नी जनरल की पुष्टि
• सीमाओं में परिवर्तन की स्वीकृति
• राष्ट्रपति के महाभियोग प्रस्ताव पर अंतिम निर्णय

🔸 सीमाएँ

• संघ परिषद की भूमिका अपेक्षाकृत औपचारिक और अनुमोदन देने वाली होती है
• यह स्वतंत्र रूप से विधायी कार्य नहीं करती


🔹 विधायिका की आलोचना

• रूस की संसद को लोकतांत्रिक रूप से चुना जाता है, लेकिन उसकी शक्तियाँ राष्ट्रपति की तुलना में कमजोर हैं
• कई मामलों में संसद केवल रबर स्टांप संस्था के रूप में कार्य करती है
• विपक्षी दलों की उपस्थिति तो है, परंतु निर्णय प्रक्रिया पर उनका प्रभाव सीमित होता है


🏢 रूस की कार्यपालिका की स्थिति

रूस में कार्यपालिका दो प्रमुख भागों में विभाजित है:

राष्ट्रपति (President)
प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद (Council of Ministers)


🔹 राष्ट्रपति – कार्यपालिका का सर्वोच्च प्रमुख

🔸 चुनाव और कार्यकाल

• राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता द्वारा 6 वर्षों के लिए किया जाता है
• एक व्यक्ति लगातार दो बार राष्ट्रपति रह सकता है, लेकिन बाद में सुधारों से यह सीमा बदलती रही है

🔸 शक्तियाँ

प्रधानमंत्री की नियुक्ति (राज्य डूमा की स्वीकृति से)
सीनियर न्यायाधीशों, गवर्नरों, और अटॉर्नी जनरल की नियुक्ति
• देश की विदेश नीति और रक्षा नीति का निर्धारण
• संसद को भंग करने, आपातकाल घोषित करने, आदेश और डिक्री जारी करने का अधिकार
सशस्त्र सेनाओं का प्रमुख (Commander-in-Chief) होता है

🔸 आलोचना

• राष्ट्रपति के पास अत्यधिक शक्तियाँ हैं जिससे यह प्रणाली एक प्रकार की "निर्देशात्मक अध्यक्षात्मक प्रणाली" बन जाती है
कार्यपालिका पर विधायिका और न्यायपालिका की पकड़ कमजोर रहती है


🔹 प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद

🔸 भूमिका

• प्रधानमंत्री राष्ट्रपति का अधीनस्थ होता है, परंतु सरकार के दैनिक कार्यों का संचालन करता है
• वह विभिन्न मंत्रालयों का प्रमुख होता है और आर्थिक, सामाजिक योजनाओं को क्रियान्वित करता है

🔸 शक्तियाँ

• बजट प्रस्ताव तैयार करना
• राष्ट्रीय नीतियों को लागू करना
• राष्ट्रपति को नीति सुझाव देना
• संसद को कार्यों की रिपोर्ट देना

🔸 सीमाएँ

• प्रधानमंत्री का चयन राष्ट्रपति करता है और संसद केवल अनुमोदन देती है
• कई बार प्रधानमंत्री केवल प्रशासनिक प्रमुख बनकर रह जाता है


🔹 कार्यपालिका में शक्ति का केंद्रीकरण

रूस की कार्यपालिका में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लगभग सारी शक्ति राष्ट्रपति के हाथों में केंद्रित है। प्रधानमंत्री और मंत्रीगण राष्ट्रपति के अधीन कार्य करते हैं।


🔹 न्यायपालिका और कार्यपालिका का संबंध

• राष्ट्रपति संवैधानिक न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय और अन्य न्यायिक संस्थाओं में जजों की नियुक्ति करता है
• हालाँकि न्यायपालिका स्वतंत्र मानी जाती है, लेकिन प्रभाव और नियंत्रण की संभावना बनी रहती है


🔍 आलोचनात्मक विश्लेषण

✔️ सकारात्मक पक्ष

• निर्णय प्रक्रिया में गति और स्पष्टता
• शक्तिशाली कार्यपालिका के कारण आंतरिक स्थिरता
• केंद्र सरकार की मजबूत पकड़

❌ नकारात्मक पक्ष

• शक्ति का अत्यधिक केंद्रीकरण – सत्तावाद की संभावना
संसद और न्यायपालिका कमजोर स्थिति में
• लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व में कमी
• सत्ता में विपक्ष की भागीदारी सीमित


🔚 निष्कर्ष

रूस के संविधान के अंतर्गत विधायिका और कार्यपालिका की स्थिति स्पष्ट रूप से अध्यक्षात्मक प्रणाली पर आधारित है, लेकिन इसमें राष्ट्रपति को असाधारण शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। संसद की भूमिका सीमित है और कार्यपालिका, विशेषकर राष्ट्रपति, शासन की धुरी बना हुआ है।

हालाँकि यह प्रणाली राजनीतिक स्थायित्व और निर्णय की गति तो देती है, लेकिन इससे लोकतांत्रिक संतुलन और अधिकारों की रक्षा को खतरा भी हो सकता है। इसीलिए रूस की राजनीतिक प्रणाली को अक्सर "केंद्रीकृत लोकतंत्र" या "प्रबंधित लोकतंत्र" भी कहा जाता है।




प्रश्न 4. स्विट्ज़रलैण्ड के संविधान पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।

🔹 प्रस्तावना

स्विट्ज़रलैण्ड यूरोप का एक छोटा, लेकिन अत्यधिक समृद्ध और लोकतांत्रिक देश है, जो अपनी संघीय संरचना, प्रत्यक्ष लोकतंत्र और राजनीतिक स्थिरता के लिए प्रसिद्ध है। इसका संविधान इसकी राजनीतिक पहचान और जन-भागीदारी आधारित शासन प्रणाली का मूल स्तंभ है।

स्विट्ज़रलैण्ड का वर्तमान संविधान, जिसे 18 अप्रैल 1999 को पारित किया गया था, पुराने 1874 के संविधान को प्रतिस्थापित करता है। हालांकि इसकी जड़ें 1848 में बने पहले आधुनिक संविधान से जुड़ी हैं, लेकिन समय के साथ इसे कई बार संशोधित और अद्यतन किया गया है।


🔹 स्विट्ज़रलैण्ड के संविधान का ऐतिहासिक विकास

🔸 1848 का पहला संविधान

• 1848 में, स्विट्ज़रलैण्ड ने अपना पहला आधुनिक संघीय संविधान अंगीकृत किया।
• यह संघीय राष्ट्र की नींव रखता है और राष्ट्र को 26 राज्यों (कैंटनों) में बाँटता है।

🔸 1874 का संशोधन

• 1874 में संविधान को संघीय सरकार को अधिक शक्तियाँ देने हेतु संशोधित किया गया।
• इसमें प्रत्यक्ष लोकतंत्र के रूपों जैसे जनमत संग्रह और पहल प्रणाली की शुरुआत की गई।

🔸 1999 का आधुनिक संविधान

• यह मूलतः 1874 वाले संविधान का पुनर्लेखन था — आधुनिक भाषा और प्रावधानों के साथ।
• यह मानवाधिकार, सामाजिक न्याय और नागरिक स्वतंत्रताओं पर विशेष ज़ोर देता है।


🔹 संविधान की प्रमुख विशेषताएँ

स्विट्ज़रलैण्ड का संविधान अपने आप में अद्वितीय है। इसमें संघीय ढाँचा, प्रत्यक्ष लोकतंत्र और शक्ति का विकेंद्रीकरण प्रमुख स्तंभ हैं।


🔹 1. संघीय ढाँचा (Federal Structure)

• देश को 26 कैंटनों (Cantons) में बाँटा गया है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी सरकार और संविधान है।
• केंद्र सरकार और कैंटनों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है।
• कैंटन शिक्षा, स्वास्थ्य, और संस्कृति जैसे क्षेत्रों में स्वतंत्र हैं।


🔹 2. प्रत्यक्ष लोकतंत्र

स्विट्ज़रलैण्ड में लोकतंत्र केवल प्रतिनिधियों के ज़रिए नहीं चलता, बल्कि जनता स्वयं नीति निर्धारण में भाग लेती है।

🔸 जनमत संग्रह (Referendum)

• जनता किसी पारित कानून को स्वीकृति या अस्वीकृति दे सकती है।
• यदि 50,000 नागरिक हस्ताक्षर करते हैं, तो किसी भी कानून पर राष्ट्रीय जनमत संग्रह कराया जा सकता है।

🔸 जन पहल (Popular Initiative)

• 1,00,000 नागरिक यदि किसी नये कानून या संविधान संशोधन का प्रस्ताव रखते हैं, तो सरकार को उसे जनमत के लिए प्रस्तुत करना अनिवार्य होता है।
• यह नागरिकों को सीधा विधि निर्माण का अधिकार देता है।


🔹 3. शक्ति का विकेंद्रीकरण

• केवल संघीय और राज्य स्तर पर ही नहीं, बल्कि स्थानीय स्तर पर भी नागरिकों को सत्ता में भागीदारी मिलती है।
• नगरपालिका (communes) अपने स्कूल, सड़क, कर और सार्वजनिक सेवाओं के लिए उत्तरदायी होती हैं।


🔹 4. धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक विविधता

• संविधान प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है।
• स्विट्ज़रलैण्ड में 4 राष्ट्रीय भाषाएं (जर्मन, फ्रेंच, इतालवी और रोमांश) हैं, और संविधान सभी भाषाओं की समानता सुनिश्चित करता है।


🔹 5. नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताएँ

• स्विट्ज़रलैण्ड का संविधान मानव गरिमा, जीवन के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, गोपनीयता, शिक्षा, और सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करता है।
• यह महिलाओं और पुरुषों की समानता, विकलांगों के अधिकार, और बाल अधिकारों को मान्यता देता है।


🔹 6. तटस्थता की नीति

• यद्यपि यह संवैधानिक स्तर पर स्पष्ट नहीं है, लेकिन स्विट्ज़रलैण्ड की नीति सदैव राजनैतिक तटस्थता की रही है।
• देश युद्धों में भाग नहीं लेता, न ही किसी सैन्य गठबंधन का सदस्य है।


🔹 स्विट्ज़रलैण्ड की विधायिका और कार्यपालिका

🔸 द्विसदनीय संसद

नेशनल काउंसिल (National Council) – 200 सदस्य, आनुपातिक प्रतिनिधित्व
काउंसिल ऑफ स्टेट्स (Council of States) – 46 सदस्य, कैंटनों का प्रतिनिधित्व

🔸 कार्यपालिका: संघीय परिषद (Federal Council)

• कुल 7 सदस्य, जो सामूहिक रूप से राष्ट्रपति समेत कार्य करते हैं
• हर वर्ष एक सदस्य रोटेशन द्वारा राष्ट्रपति बनता है
• निर्णय सामूहिक रूप से लिया जाता है – व्यक्तिगत नेतृत्व का अभाव


🔹 न्यायपालिका की स्वतंत्रता

संघीय सर्वोच्च न्यायालय (Federal Supreme Court) संविधान की व्याख्या करता है
• लेकिन अदालतें संघीय संसद के कानूनों की संवैधानिक समीक्षा नहीं कर सकतीं – यह एक अनूठा पहलू है


🔹 आलोचना और सीमाएँ

हालाँकि स्विट्ज़रलैण्ड का संविधान अत्यंत सफल और लोकतांत्रिक माना जाता है, परंतु इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं:

प्रत्यक्ष लोकतंत्र की प्रक्रिया कई बार धीमी और जटिल होती है
• जनमत संग्रह से कभी-कभी अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर खतरा हो सकता है
• अत्यधिक विकेंद्रीकरण से नीति समरूपता में बाधा आती है


🔹 निष्कर्ष

स्विट्ज़रलैण्ड का संविधान प्रत्यक्ष लोकतंत्र, संघीय ढाँचे और नागरिक अधिकारों का श्रेष्ठ उदाहरण है। यह एक ऐसा संविधान है जो न केवल राजनीतिक स्थिरता प्रदान करता है, बल्कि जनता को शासन में वास्तविक भागीदारी भी देता है।

विश्व के अनेक लोकतांत्रिक देश स्विट्ज़रलैण्ड की संवैधानिक व्यवस्था से प्रेरणा लेते हैं। इसकी प्रणाली यह सिद्ध करती है कि जब नागरिकों को अधिकारों के साथ-साथ जिम्मेदारियाँ दी जाती हैं, तो लोकतंत्र और संविधान दोनों अधिक सशक्त और स्थायी होते हैं।




प्रश्न 05. संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के न्यायिक प्रक्रियाओं का तुलनात्मक विश्लेषण कीजिए।

🔹 प्रस्तावना

संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) और चीन (People’s Republic of China) — ये दो वैश्विक शक्तियाँ हैं जिनकी राजनीतिक व्यवस्थाएँ, शासन संरचनाएँ और न्यायिक प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं। अमेरिका का न्यायिक तंत्र लोकतांत्रिक, स्वतंत्र और संवैधानिक समीक्षा पर आधारित है, जबकि चीन का तंत्र साम्यवादी विचारधारा और पार्टी नियंत्रण से संचालित होता है।

इस उत्तर में हम दोनों देशों की न्यायिक प्रणालियों के ढाँचे, सिद्धांत, प्रक्रिया और स्वायत्तता का तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे।


🔹 अमेरिका की न्यायिक प्रणाली

🔸 1. संविधान आधारित न्यायिक संरचना

• अमेरिका का संविधान 1787 में बना और यह न्यायपालिका को स्वतंत्र एवं शक्तिशाली बनाता है।
• न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका की संवैधानिक समीक्षा (Judicial Review) का अधिकार प्राप्त है।

🔸 2. संघीय ढाँचा

• अमेरिका में न्यायपालिका दो स्तरों पर कार्य करती है:
संघीय न्यायपालिका (Federal Judiciary)
राज्य न्यायपालिका (State Judiciary)

• संघीय अदालतों में प्रमुख हैं:
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court)
कोर्ट ऑफ अपील्स (Courts of Appeals)
डिस्ट्रिक्ट कोर्ट्स (District Courts)

🔸 3. स्वतंत्र न्यायपालिका

• न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है, परंतु सीनेट की मंज़ूरी आवश्यक होती है।
• सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश आजीवन कार्यकाल तक सेवा करते हैं।
• कार्यपालिका और विधायिका से न्यायपालिका को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है।

🔸 4. न्यायिक समीक्षा

• अमेरिका की न्यायपालिका कानूनों और नीतियों की संवैधानिकता की समीक्षा कर सकती है।
• ऐतिहासिक "Marbury v. Madison (1803)" मामले में यह सिद्धांत स्थापित हुआ।


🔹 चीन की न्यायिक प्रणाली

🔸 1. पार्टी-नियंत्रित संरचना

• चीन का संविधान 1982 में लागू हुआ, जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (CPC) सर्वोच्च संस्था है।
• न्यायपालिका संविधान और कानून के अधीन है, लेकिन पार्टी की नीति और दिशा सर्वोपरि रहती है।

🔸 2. एकीकृत न्यायिक तंत्र

• चीन में एकल संरचना है — कोई संघीय व्यवस्था नहीं।
• प्रमुख न्यायिक संस्थाएँ हैं:
सुप्रीम पीपल्स कोर्ट (Supreme People's Court)
हाई पीपल्स कोर्ट्स
इंटरमीडिएट कोर्ट्स
बेसिक कोर्ट्स

🔸 3. सीमित स्वतंत्रता

• न्यायाधीशों की नियुक्ति स्थानीय पीपल्स कांग्रेस करती है, जो स्वयं पार्टी के अधीन होती है।
• न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं मानी जाती, क्योंकि उसका संचालन पार्टी के सिद्धांतों के अनुरूप होता है।

🔸 4. न्यायिक समीक्षा का अभाव

• चीन की अदालतें संसद (National People's Congress) द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिक समीक्षा नहीं कर सकतीं
संविधान सर्वोच्च तो है, परंतु व्यावहारिक नियंत्रण पार्टी के पास होता है।


🔹 न्यायिक प्रक्रिया की तुलना

विशेषताअमेरिकाचीन
शासन प्रणालीलोकतांत्रिक गणराज्यएकदलीय साम्यवादी राज्य
न्यायपालिका की संरचनाद्विस्तरीय (संघीय और राज्य स्तरीय)एकीकृत राष्ट्रीय प्रणाली
न्यायिक स्वतंत्रतापूर्णतः स्वतंत्रसीमित, पार्टी के नियंत्रण में
न्यायिक समीक्षाहै – सर्वोच्च अधिकारनहीं – संसद सर्वोच्च है
जजों की नियुक्तिराष्ट्रपति द्वारा, सीनेट की सहमति सेस्थानीय पीपल्स कांग्रेस द्वारा
कार्यकालआजीवननिश्चित अवधि के लिए
निर्णय की पारदर्शितासार्वजनिक सुनवाई, प्रेस की स्वतंत्रतासीमित पारदर्शिता, मीडिया पर नियंत्रण
मानवाधिकार संरक्षणमजबूत प्रणाली, अदालतें स्वतंत्र फैसले देती हैंसीमित अधिकार, पार्टी नीति सर्वोपरि

🔹 नागरिकों की न्याय तक पहुँच

🔸 अमेरिका में

• नागरिकों को न्याय प्राप्त करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
• वकीलों की स्वतंत्रता, मीडिया की निगरानी और निष्पक्ष सुनवाई की परंपरा प्रबल है।

🔸 चीन में

• कानूनी सहायता प्रणाली विकसित हो रही है, लेकिन पार्टी के विरोध में न्याय मिलना कठिन होता है।
• राजनीतिक मामलों में अदालतें अक्सर सरकार समर्थक निर्णय देती हैं।


🔹 मानवाधिकार और न्यायपालिका

🔸 अमेरिका

• स्वतंत्र न्यायपालिका मानवाधिकारों की सुरक्षा की गारंटी देती है।
• नागरिक अदालतों में सरकार के विरुद्ध याचिका दायर कर सकते हैं।

🔸 चीन

• मानवाधिकारों को संविधान में स्थान तो मिला है, लेकिन उनकी व्यवहारिक सुरक्षा सीमित है।
• अदालतें अक्सर पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों के अधीन काम करती हैं।


🔹 व्यावहारिक उदाहरण

🔸 अमेरिका

Roe v. Wade (1973) — महिलाओं के गर्भपात के अधिकार पर ऐतिहासिक निर्णय
Brown v. Board of Education (1954) — नस्लीय भेदभाव पर प्रतिबंध

🔸 चीन

Dissidents मामलों में कठोर सजाएँ — जैसे लियू शियाओबो को जेल
• इंटरनेट सेंसरशिप से संबंधित अदालतों का पार्टी के पक्ष में झुकाव


🔹 निष्कर्ष

संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन की न्यायिक प्रक्रियाएँ दो विपरीत ध्रुवों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अमेरिका में न्यायपालिका संविधान की रक्षक और लोकतंत्र की आत्मा है, जबकि चीन में न्यायपालिका सत्तारूढ़ दल के अधीन कार्य करती है।

जहाँ अमेरिका में नागरिकों को निष्पक्ष सुनवाई, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की गारंटी है, वहीं चीन में राजनीतिक स्थिरता और पार्टी अनुशासन को प्राथमिकता दी जाती है।

इस तुलना से स्पष्ट होता है कि एक स्वतंत्र न्यायपालिका लोकतंत्र और मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए अनिवार्य है, जबकि राजनीतिक नियंत्रण वाली न्यायपालिका शासन को तो स्थिर बना सकती है, लेकिन नागरिक स्वतंत्रताओं को सीमित करती है।




प्रश्न 06. अमेरिका के संविधान की प्रमुख विशेषताओं की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।

🔹 प्रस्तावना
संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान दुनिया का सबसे पुराना और सफल लिखित संविधान है, जो 17 सितंबर 1787 को अंगीकृत हुआ और 1789 में लागू किया गया। यह संविधान एक लोकतांत्रिक गणराज्य की नींव पर आधारित है और इसमें शक्ति का विभाजन, स्वतंत्र न्यायपालिका, और मौलिक अधिकार जैसे अनेक महत्वपूर्ण तत्त्व शामिल हैं। इसकी विशेषताएँ अन्य देशों के संविधानों के लिए प्रेरणास्त्रोत रही हैं, किंतु इसके साथ-साथ इसकी आलोचना भी होती रही है।


🔹 अमेरिका के संविधान की प्रमुख विशेषताएँ

1. लिखित और संहिताबद्ध संविधान
• अमेरिका का संविधान एक संगठित और संहिताबद्ध दस्तावेज़ है।
• इसमें 7 अनुच्छेद और 27 संशोधन शामिल हैं।
• यह स्पष्ट रूप से संघीय ढांचे, सरकार के तीन अंगों (कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका) की शक्तियों को परिभाषित करता है।

आलोचना:
• इसकी भाषा पुरानी है और कई स्थानों पर अस्पष्टता पाई जाती है।
• समय के साथ उत्पन्न हुई जटिल परिस्थितियों को हल करने के लिए यह कई बार अपर्याप्त प्रतीत होता है।


2. शक्ति का पृथक्करण और नियंत्रण
• अमेरिका का संविधान कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति का स्पष्ट विभाजन करता है।
• प्रत्येक अंग दूसरे पर निगरानी रखता है (checks and balances)।

आलोचना:
• अत्यधिक पृथक्करण के कारण सरकार के अंगों में सहयोग की कमी देखी जाती है।
• कई बार राजनीतिक गतिरोध उत्पन्न हो जाता है, जिससे निर्णय लेने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है।


3. संघीय व्यवस्था
• अमेरिका में संघीय ढाँचा अपनाया गया है, जिसमें शक्तियाँ संघ और राज्यों के बीच बाँटी गई हैं।
• प्रत्येक राज्य का अपना संविधान, कानून और न्यायालय होता है।

आलोचना:
• संघ और राज्यों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
• विभिन्न राज्यों के कानूनों में विविधता के कारण नागरिकों को भ्रम की स्थिति हो सकती है।


4. मौलिक अधिकार (Bill of Rights)
• पहले 10 संशोधन मौलिक अधिकारों के रूप में शामिल किए गए हैं, जैसे — अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, हथियार रखने का अधिकार, आदि।
• ये अधिकार नागरिकों को सरकार के अत्याचार से सुरक्षा प्रदान करते हैं।

आलोचना:
• कुछ अधिकार जैसे हथियार रखने की स्वतंत्रता (Second Amendment) आज के समय में विवादास्पद हो गए हैं।
• कई बार इन अधिकारों की गलत व्याख्या हिंसा और सामाजिक असमानता को जन्म देती है।


5. न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था
• अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा कर सकता है।
• यह सिद्धांत “Marbury v. Madison” (1803) केस में स्थापित हुआ था।

आलोचना:
• न्यायपालिका के पास अत्यधिक शक्ति होने से लोकतंत्र के सिद्धांतों पर प्रश्न उठते हैं।
• सुप्रीम कोर्ट के जजों की आजीवन नियुक्ति भी विवाद का विषय रही है।


6. कठोर संशोधन प्रक्रिया
• अमेरिका के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया बहुत कठिन है।
• किसी संशोधन को संसद के दोनों सदनों से दो-तिहाई बहुमत और राज्यों के तीन-चौथाई से मंजूरी मिलनी चाहिए।

आलोचना:
• संविधान में समय के अनुरूप आवश्यक परिवर्तन लाना मुश्किल हो जाता है।
• कई आवश्यक सामाजिक सुधार देर से हो पाते हैं या रुक जाते हैं।


7. राष्ट्रपति पद की विशेष स्थिति
• अमेरिका का राष्ट्रपति राज्य प्रमुख और सरकार प्रमुख दोनों होता है।
• उसे व्यापक कार्यपालिका शक्तियाँ प्राप्त होती हैं, जैसे — सेना का नेतृत्व, अंतरराष्ट्रीय संधियाँ, आदेश जारी करना आदि।

आलोचना:
• राष्ट्रपति पद पर अत्यधिक शक्तियाँ केंद्रित हैं, जिससे राष्ट्रपति तानाशाही की दिशा में जा सकता है।
• कभी-कभी संसद को दरकिनार करके निर्णय लेने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।


8. धर्मनिरपेक्षता और स्वतंत्रता
• संविधान में चर्च और राज्य को अलग रखने की व्यवस्था है।
• धार्मिक स्वतंत्रता को संवैधानिक रूप से मान्यता दी गई है।

आलोचना:
• व्यवहार में धार्मिक असहिष्णुता और नस्लीय भेदभाव की घटनाएँ संविधान की भावना को चोट पहुँचाती हैं।
• जातीय और नस्लीय अल्पसंख्यकों को बराबरी का अनुभव नहीं होता।


🔹 निष्कर्ष
अमेरिका का संविधान लोकतंत्र, स्वतंत्रता और मानव अधिकारों का मजबूत आधार है। इसकी विशेषताएँ जैसे — शक्ति का विभाजन, मौलिक अधिकार, न्यायिक समीक्षा और संघीय ढाँचा — इसे विश्व के सबसे सफल संविधानों में स्थान दिलाती हैं।

लेकिन इसके साथ कुछ कमियाँ और चुनौतियाँ भी जुड़ी हैं — जैसे कठोर संशोधन प्रक्रिया, राष्ट्रपति की अत्यधिक शक्ति, और सामाजिक विषमताओं को ठीक से संबोधित न कर पाना।

इसलिए, अमेरिका का संविधान एक ओर जहां लोकतंत्र का आदर्श मॉडल है, वहीं दूसरी ओर इसमें समयानुसार सुधार की आवश्यकता भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।




प्रश्न 07. आधुनिक विश्व व्यवस्था में ब्रिटेन का क्या योगदान है? चर्चा कीजिए।

🔹 प्रस्तावना
ब्रिटेन, जिसे यूनाइटेड किंगडम (UK) भी कहा जाता है, आधुनिक इतिहास की उन प्रमुख शक्तियों में से एक रहा है जिसने राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य और सांस्कृतिक दृष्टि से वैश्विक व्यवस्था को आकार देने में अहम भूमिका निभाई है। औद्योगिक क्रांति से लेकर संसदीय लोकतंत्र की परंपरा तक, उपनिवेशवाद से लेकर संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक संस्थाओं में भागीदारी तक — ब्रिटेन का योगदान बहुआयामी और ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण रहा है।

इस उत्तर में हम ब्रिटेन के आधुनिक विश्व व्यवस्था में प्रमुख योगदानों की क्रमबद्ध चर्चा करेंगे।


🔹 औद्योगिक क्रांति का नेतृत्व
• 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटेन वह पहला देश था जहाँ औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई।
• इससे वैश्विक उत्पादन, व्यापार, परिवहन और तकनीकी नवाचार में जबरदस्त बदलाव आया।
• ब्रिटेन ने कारखाना प्रणाली, रेलवे नेटवर्क, और मशीन आधारित उत्पादन को बढ़ावा दिया जो बाद में वैश्विक मानक बन गए।

👉 इससे पूरी दुनिया में आर्थिक आधुनिकीकरण और पूँजीवाद के प्रसार की नींव पड़ी।


🔹 संसदीय लोकतंत्र और संवैधानिक शासन की मिसाल
• ब्रिटेन ने आधुनिक संसदीय लोकतंत्र की अवधारणा को विकसित किया और विश्व को दिखाया कि कैसे राजा के बजाय जनता की संप्रभुता को स्वीकारा जा सकता है।
• "मैग्ना कार्टा" (1215) से लेकर "ग्लोरियस रेवोल्यूशन" (1688) और आधुनिक हाउस ऑफ कॉमन्स तक — ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली एक राजनीतिक मॉडल बनी।
• आज भी कई देशों ने ब्रिटेन की प्रणाली को अपनाया है — जैसे भारत, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि।

👉 लोकतंत्र, विधि का शासन और नागरिक अधिकारों की अवधारणाओं को वैश्विक रूप देने में ब्रिटेन का योगदान अविस्मरणीय है।


🔹 उपनिवेशवाद और वैश्विक संपर्क
• 17वीं से 20वीं शताब्दी तक, ब्रिटेन ने एक विशाल उपनिवेश साम्राज्य खड़ा किया, जिसे "ब्रिटिश साम्राज्य" कहा जाता था।
• ब्रिटेन का नारा था — "The Sun never sets on the British Empire"
• इसके माध्यम से ब्रिटेन ने भाषा, कानून, शिक्षा, प्रशासन, रेलवे और खेल जैसी अनेक चीज़ें उपनिवेशों में पहुँचाईं।

👉 भले ही उपनिवेशवाद की आलोचना की जाती है, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि ब्रिटेन ने आधुनिक वैश्विक संपर्कों, शिक्षा प्रणाली और प्रशासनिक ढाँचों का विस्तार किया।


🔹 अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना और सहयोग
• द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, ब्रिटेन ने संयुक्त राष्ट्र (UN), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), विश्व बैंक (World Bank), NATO आदि जैसे वैश्विक संगठनों की स्थापना और संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
• ब्रिटेन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है और उसकी वैश्विक नीति निर्धारण में भागीदारी है।

👉 ये संस्थाएँ आज भी वैश्विक स्थिरता, शांति और सहयोग की आधारशिला हैं, और ब्रिटेन उनकी नीति प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।


🔹 अंग्रेजी भाषा और वैश्विक संचार
अंग्रेजी भाषा, जो ब्रिटेन की मूल भाषा है, आज वैश्विक व्यापार, शिक्षा, विज्ञान, तकनीक और कूटनीति की प्रमुख भाषा बन चुकी है।
• दुनिया के अधिकांश देशों में अंग्रेजी या तो प्राथमिक या द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है।

👉 वैश्वीकरण, डिजिटल युग और अंतरराष्ट्रीय संचार में अंग्रेजी की भूमिका ब्रिटेन के सांस्कृतिक प्रभाव को दर्शाती है।


🔹 कॉमनवेल्थ (राष्ट्रमंडल) का नेतृत्व
• ब्रिटेन ने 20वीं सदी में कॉमनवेल्थ ऑफ नेशंस (Commonwealth) की स्थापना की, जिसमें आज भी 50+ देश शामिल हैं — जिनमें अधिकांश पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश हैं।
• यह संस्था व्यापार, शिक्षा, मानवाधिकार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देती है।

👉 ब्रिटेन आज भी इस संगठन का एक सांकेतिक और प्रेरक नेता बना हुआ है।


🔹 विज्ञान, तकनीक और शिक्षा में योगदान
• ब्रिटेन ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में अनेक महान योगदान दिए — जैसे न्यूटन, डार्विन, टिम बर्नर्स-ली (www के जनक)।
• ब्रिटेन के विश्वविद्यालय जैसे — ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज — आज भी वैश्विक शिक्षा के सर्वोच्च केंद्र माने जाते हैं।
• AI, फार्मास्यूटिकल्स, चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान आदि क्षेत्रों में ब्रिटेन की शोध प्रतिष्ठाएँ अग्रणी हैं।

👉 इससे ज्ञान आधारित वैश्विक व्यवस्था को अत्यधिक लाभ मिला है।


🔹 वैश्विक मानवाधिकार और कूटनीति में भूमिका
• ब्रिटेन ने मानवाधिकारों की रक्षा, शरणार्थियों की मदद और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार में अपनी भूमिका निभाई है।
• वह कूटनीतिक वार्ताओं, मध्यस्थता और अंतरराष्ट्रीय संघर्षों में शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में भी कार्य करता है।

👉 यूक्रेन युद्ध, ब्रेक्सिट, जलवायु परिवर्तन, और अफगान संकट जैसे मुद्दों पर ब्रिटेन ने स्पष्ट नीतियाँ अपनाईं।


🔹 संस्कृति और मीडिया का वैश्विक प्रभाव
• ब्रिटेन की फिल्में, टीवी सीरिज़ (जैसे BBC), साहित्य (शेक्सपीयर से लेकर जे.के. रोलिंग तक) और संगीत ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया है।
• ब्रिटिश मॉडल ऑफ ह्यूमर, ड्रामा और नाटक वैश्विक स्तर पर सराहे जाते हैं।

👉 सॉफ्ट पावर के रूप में ब्रिटेन की सांस्कृतिक उपस्थिति आज भी प्रभावशाली है।


🔹 आलोचनात्मक पक्ष
• ब्रिटेन के उपनिवेशवादी इतिहास में शोषण, नस्लवाद और सांस्कृतिक विनाश की भी आलोचना होती है।
• ब्रेक्सिट के बाद उसकी यूरोप में भूमिका सीमित हुई है।
• अफ्रीका और एशिया में कुछ देश अब ब्रिटेन के राजनैतिक दखल पर सवाल उठाते हैं

👉 इसके बावजूद, आज भी ब्रिटेन की राजनैतिक सूझबूझ, संस्थागत स्थायित्व और वैश्विक समझ उल्लेखनीय बनी हुई है।


🔹 निष्कर्ष
ब्रिटेन का आधुनिक विश्व व्यवस्था में योगदान बहुआयामी और ऐतिहासिक है। इसने न केवल आर्थिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभाई, बल्कि वैश्विक संवाद, सहयोग और शिक्षा के क्षेत्र में भी एक मजबूत पहचान बनाई है।

हालांकि, इसके उपनिवेशवादी अतीत की आलोचना भी होती है, लेकिन आज के समय में ब्रिटेन शांति, लोकतंत्र और अंतरराष्ट्रीय सहयोग का एक सशक्त समर्थक और प्रेरक शक्ति बना हुआ है।




प्रश्न 08. एकात्मक शासन प्रणाली की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

🔹 प्रस्तावना
एकात्मक शासन प्रणाली (Unitary System of Government) वह शासन प्रणाली है जिसमें राज्य की समस्त सत्ता केन्द्र सरकार में निहित होती है। इस प्रणाली में कोई भी स्वतंत्र या स्वायत्त इकाई नहीं होती, बल्कि सभी प्रशासनिक इकाइयाँ केन्द्र सरकार के अधीन होती हैं। ऐसी प्रणाली का मुख्य उद्देश्य शासन की एकरूपता, त्वरित निर्णय और केंद्रीकृत नियंत्रण को सुनिश्चित करना होता है।

विश्व में कई देश जैसे — ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, चीन, इटली आदि — एकात्मक शासन प्रणाली अपनाते हैं। भारत भी मूलतः संघीय देश है, लेकिन कुछ तत्वों में इसकी एकात्मक प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।


🔹 एकात्मक शासन प्रणाली की परिभाषा

गैर्नर के अनुसार — "एकात्मक सरकार वह है जिसमें सारी शक्ति केन्द्र में निहित होती है और राज्य तथा स्थानीय संस्थाएँ केवल उसके द्वारा सौंपी गई शक्तियों का प्रयोग करती हैं।"
• इसमें संविधानिक अधिकारों का वितरण नहीं होता, जैसा कि संघीय प्रणाली में होता है।


🔹 एकात्मक शासन प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ

1. सत्ता का केंद्रीकरण
• एकात्मक शासन प्रणाली की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है कि समस्त शक्तियाँ केन्द्र सरकार में निहित होती हैं
• राज्य या प्रांतीय सरकारें केवल केन्द्र की इच्छा से कार्य करती हैं और उसके आदेशानुसार कार्यान्वयन करती हैं।

👉 इससे शासन में नियंत्रण और एकरूपता बनी रहती है।


2. एक ही सरकार और संसद
• एकात्मक प्रणाली में आमतौर पर एक ही संसद और एक ही सरकार होती है।
• यही संस्था विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियों का संचालन करती है
• स्थानीय सरकारें केवल प्रशासनिक कार्यों के लिए होती हैं।

👉 इससे नीतियों का क्रियान्वयन सरल और तेज होता है।


3. संविधान में शक्ति वितरण का अभाव
• एकात्मक प्रणाली में संविधान द्वारा राज्य और केन्द्र के बीच शक्तियों का कोई स्थायी विभाजन नहीं होता
• यदि स्थानीय इकाइयों को कोई अधिकार दिए भी जाते हैं, तो वे रद्द किए जा सकते हैं

👉 इससे संविधान में लचीलापन और केंद्र को सर्वोच्चता मिलती है।


4. समान कानून और नीतियाँ
• पूरे देश में एक समान कानून, कर प्रणाली और नीतियाँ लागू होती हैं।
• इससे प्रशासनिक जटिलता कम होती है और नीति निर्धारण में स्पष्टता आती है।

👉 उदाहरण: ब्रिटेन में पूरे देश में एक ही नागरिक और आपराधिक कानून लागू होता है।


5. एकीकृत न्याय प्रणाली
• न्यायपालिका केन्द्र सरकार के अधीन होती है और पूरे देश में एक जैसी न्यायिक प्रणाली लागू होती है
• सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च होता है, और निचली अदालतें केन्द्र के नियमों के अधीन होती हैं।

👉 इससे न्याय प्रणाली में एकरूपता और समानता बनी रहती है।


6. स्थानीय सरकारें केन्द्र पर निर्भर
• राज्य या स्थानीय सरकारों को केवल प्रशासनिक कार्यों के लिए अधिकार दिए जाते हैं
• वे संविधानिक नहीं बल्कि कानूनी सृजन होती हैं, जिन्हें केन्द्र कभी भी समाप्त कर सकता है।

👉 उदाहरण: फ्रांस और ब्रिटेन में स्थानीय सरकारों को केन्द्र द्वारा नियुक्त किया जाता है।


7. संविधान का लचीलापन
• एकात्मक शासन प्रणाली का संविधान सामान्यतः लचीला (Flexible) होता है।
• इसे सामान्य प्रक्रिया से ही संशोधित किया जा सकता है, और संविधानिक बदलाव जल्दी संभव होते हैं

👉 इससे समयानुकूल नीति परिवर्तन करना सरल होता है।


🔹 एकात्मक शासन प्रणाली के लाभ

✅ त्वरित निर्णय और नीति क्रियान्वयन
• केन्द्र में शक्ति केंद्रित होने से निर्णय प्रक्रिया में गति आती है।
• नीतियाँ बिना बाधा के पूरे देश में लागू की जा सकती हैं।

✅ राष्ट्रीय एकता और अखंडता
• एकरूप शासन प्रणाली से क्षेत्रीय अलगाववाद की प्रवृत्ति पर नियंत्रण रहता है।
• देश की एकता और अखंडता को बढ़ावा मिलता है।

✅ प्रशासनिक लागत में कमी
• एक ही सरकार और संसद होने से खर्च कम होता है
• दोहरी शासन व्यवस्था से बचाव होता है।

✅ जनता में समानता की भावना
• पूरे देश में एक समान कानून होने से नागरिकों को समान अवसर और अधिकार मिलते हैं।


🔹 एकात्मक शासन प्रणाली की सीमाएँ / आलोचना

❌ सत्ता का अत्यधिक केंद्रीकरण
• केन्द्र को असीमित शक्ति मिलने से तानाशाही की संभावना बढ़ जाती है।
• जनता की स्थानीय समस्याओं की उपेक्षा हो सकती है।

❌ स्थानीय आवश्यकताओं की अनदेखी
• पूरे देश पर एक समान नीति लागू करना प्रादेशिक विविधता की उपेक्षा करता है।
• इससे कई बार स्थानीय मुद्दों का समाधान नहीं हो पाता।

❌ लोकतंत्र की कमजोरी
• स्थानीय इकाइयों की स्वायत्तता न होने से जनभागीदारी कम होती है
• नीति निर्धारण में आम जनता की आवाज़ कमजोर हो सकती है।

❌ प्रशासनिक बोझ
• सभी निर्णय केन्द्र से होने के कारण प्रशासन पर बोझ अधिक हो जाता है, जिससे कार्य क्षमता प्रभावित होती है।


🔹 एकात्मक प्रणाली के प्रमुख उदाहरण

🇬🇧 ब्रिटेन: सबसे सफल और प्राचीन एकात्मक शासन प्रणाली।
🇫🇷 फ्रांस: एक मजबूत केन्द्र सरकार वाला एकात्मक राष्ट्र।
🇨🇳 चीन: साम्यवादी ढाँचे में एकात्मक शासन प्रणाली का प्रयोग।
🇯🇵 जापान: तकनीकी रूप से उन्नत लेकिन शासन संरचना में एकात्मक।


🔹 निष्कर्ष

एकात्मक शासन प्रणाली एकीकृत प्रशासन, राष्ट्रीय एकता और प्रभावी नियंत्रण की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है। यह छोटे और सामाजिक रूप से समान देशों के लिए अत्यधिक अनुकूल मानी जाती है।

हालाँकि, बड़े और विविधतापूर्ण देशों में इसकी सीमाएँ भी सामने आती हैं — जैसे सामाजिक विषमता की अनदेखी, स्थानीय अधिकारों की उपेक्षा और केन्द्र पर अत्यधिक निर्भरता

इसलिए, एकात्मक शासन प्रणाली को प्रभावी बनाने के लिए उसमें लोकल गवर्नेंस और विकेन्द्रीकरण के तत्वों को भी जोड़ा जाना चाहिए, जिससे यह प्रणाली अधिक उत्तरदायी, लोकतांत्रिक और व्यावहारिक बन सके।



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