BAEC(N)201 SOLVED PAPER
नमस्कार दोस्तों,
आज की इस पोस्ट के माध्यम से हम आपके लिए लेकर आए हैं, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के बीए ० के अर्थशास्त्र विषय का सॉल्व्ड पेपर ।
जिसका कोड है, BAEC(N)201
यह विषय बीए के तृतीय सेमेस्टर के विद्यार्थियों का है, DECEMBER 2024 इसका परीक्षा सत्र था और फरवरी से मार्च 2025 के बीच ये परीक्षा कराई गई थी। आशा करता हूं आपको इससे कुछ मदद जरूर मिलेगी।
1. लोक वित्त की प्रकृति को स्पष्ट कीजिए। इसे निजी वित्त से कैसे भिन्न माना जाता है, विस्तारपूर्वक समझाइए।
लोक वित्त की प्रकृति (Nature of Public Finance):
लोक वित्त (Public Finance) वह शाखा है जो सरकार के आय (Revenue) और व्यय (Expenditure) से संबंधित होती है। इसका उद्देश्य सामाजिक कल्याण को अधिकतम करना होता है। यह सरकार की नीतियों, योजनाओं और सार्वजनिक सेवाओं के वित्तीय पक्ष का अध्ययन करती है।
लोक वित्त की प्रमुख विशेषताएँ:
-
सामूहिक हित में कार्य: लोक वित्त का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और सार्वजनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है, न कि लाभ अर्जन करना।
-
सरकारी आय और व्यय: इसमें सरकार की आय के स्रोत जैसे कर (Taxes), शुल्क (Fees), कर्ज (Loans) और व्यय जैसे कल्याणकारी योजनाओं, रक्षा, शिक्षा आदि का अध्ययन किया जाता है।
-
राजकोषीय नीति (Fiscal Policy): यह अर्थव्यवस्था में स्थिरता, विकास और रोजगार सुनिश्चित करने हेतु उपयोग की जाती है।
-
वितरणात्मक न्याय: यह समाज में धन का न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करने का प्रयास करता है।
-
राजनीतिक और प्रशासनिक नियंत्रण: लोक वित्त पर संसद, लेखा परीक्षक (CAG), और अन्य संस्थानों का नियंत्रण रहता है।
निजी वित्त से भिन्नता (Difference between Public Finance and Private Finance):
पक्ष | लोक वित्त (Public Finance) | निजी वित्त (Private Finance) |
---|---|---|
उद्देश्य | सामाजिक कल्याण | व्यक्तिगत लाभ |
आय के स्रोत | कर, शुल्क, कर्ज | वेतन, व्यवसाय, निवेश |
व्यय का स्वरूप | सामूहिक हित के कार्य जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य | व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति जैसे आवास, मनोरंजन |
लचीलापन (Flexibility) | सीमित लचीलापन – नियमों और नियंत्रणों के अधीन | अधिक लचीलापन – व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर |
लेखा परीक्षा | नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा लेखा परीक्षण | आमतौर पर निजी या व्यक्तिगत नियंत्रण |
नियोजन अवधि | दीर्घकालिक – बजट और योजनाओं के माध्यम से | अल्पकालिक या मध्यम अवधि में योजना |
कर्ज का दृष्टिकोण | सरकार सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए कर्ज ले सकती है और उसे पुनर्भुगतान में लचीलापन होता है | निजी कर्ज को समय पर चुकाना अनिवार्य होता है, अन्यथा दंडात्मक कार्रवाई हो सकती है |
निष्कर्ष:
लोक वित्त और निजी वित्त दोनों वित्तीय प्रबंधन की अलग-अलग प्रकृतियाँ हैं। लोक वित्त का दायरा व्यापक और सार्वजनिक हित से जुड़ा होता है, जबकि निजी वित्त सीमित और व्यक्तिगत आवश्यकताओं तक सीमित होता है। दोनों में आय और व्यय का प्रबंधन आवश्यक है, परंतु उनके उद्देश्य, नियंत्रण और प्रभाव की दिशा भिन्न होती है।
2. निजी वस्तुओं, लोक वस्तुओं और मेरिट वस्तुओं की परिभाषा देते हुए उनके बीच के मुख्य अंतर स्पष्ट कीजिए।
(क) निजी वस्तुएँ (Private Goods):
निजी वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जिनका उपभोग एक व्यक्ति द्वारा करने पर दूसरा व्यक्ति उनका उपभोग नहीं कर सकता। ये वस्तुएँ बाज़ार में मूल्य चुकाकर खरीदी जाती हैं।
मुख्य विशेषताएँ:
-
प्रतिस्पर्धी उपभोग (Rival Consumption): एक व्यक्ति का उपभोग दूसरों के लिए उसे कम कर देता है।
-
बहिष्करणीयता (Excludability): जो भुगतान नहीं करता, उसे वस्तु से बाहर रखा जा सकता है।
उदाहरण: भोजन, कपड़े, मोबाइल, कार आदि।
(ख) लोक वस्तुएँ (Public Goods):
लोक वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जिनका उपभोग सभी लोग एक साथ कर सकते हैं, और किसी को उससे वंचित नहीं किया जा सकता।
मुख्य विशेषताएँ:
-
गैर-प्रतिस्पर्धी उपभोग (Non-Rival Consumption): एक व्यक्ति के उपयोग से अन्य का उपभोग प्रभावित नहीं होता।
-
गैर-बहिष्करणीयता (Non-Excludability): किसी को भी इसके उपयोग से वंचित नहीं किया जा सकता।
उदाहरण: सड़क प्रकाश, राष्ट्रीय रक्षा, सार्वजनिक पार्क।
(ग) मेरिट वस्तुएँ (Merit Goods):
मेरिट वस्तुएँ वे होती हैं जिन्हें सरकार इस आधार पर बढ़ावा देती है कि उनका उपभोग समाज के लिए लाभकारी होता है, चाहे व्यक्ति स्वयं उसकी आवश्यकता न समझे।
मुख्य विशेषताएँ:
-
व्यक्ति के लाभ के साथ-साथ सामाजिक लाभ भी।
-
सरकार द्वारा सब्सिडी या निःशुल्क उपलब्ध कराई जाती हैं।
-
इन वस्तुओं का उपभोग समाज के दीर्घकालीन विकास के लिए आवश्यक समझा जाता है।
उदाहरण: शिक्षा, टीकाकरण, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ।
अंतर सारणी (Differences Table):
पहलू | निजी वस्तुएँ | लोक वस्तुएँ | मेरिट वस्तुएँ |
---|---|---|---|
उपभोग प्रकृति | प्रतिस्पर्धी | गैर-प्रतिस्पर्धी | आंशिक रूप से प्रतिस्पर्धी |
बहिष्करणीयता | हाँ | नहीं | कभी-कभी (सरकार नियंत्रित करती है) |
उपलब्धता | बाजार द्वारा | सरकार द्वारा | सरकार द्वारा प्रोत्साहित |
उपभोग का लाभ | केवल उपभोक्ता को | पूरे समाज को | उपभोक्ता व समाज दोनों को |
उदाहरण | टीवी, कार | स्ट्रीट लाइट, सेना | शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ |
निष्कर्ष:
निजी, लोक और मेरिट वस्तुओं में मुख्य अंतर उनके उपभोग की प्रकृति और समाज पर प्रभाव के आधार पर होता है। निजी वस्तुएँ व्यक्तिगत लाभ के लिए होती हैं, लोक वस्तुएँ सामूहिक उपभोग के लिए और मेरिट वस्तुएँ ऐसे लाभों के लिए होती हैं जिन्हें सरकार आवश्यक मानती है, भले ही व्यक्ति स्वयं उसकी उपयोगिता न समझे।
3. वैगनर और वाइजमैन-पीकॉक दोनों के सिद्धांतों का आलोचनात्मक विश्लेषण करें और उनकी व्यावहारिक प्रासंगिकता का मूल्यांकन करें।
🟠 A. वैगनर का विकास सिद्धांत (Wagner’s Law of Increasing State Activities):
🔷 सिद्धांत की मूल धारणा:
जर्मन अर्थशास्त्री एडोल्फ वैगनर ने यह सिद्धांत दिया कि जैसे-जैसे कोई राष्ट्र आर्थिक रूप से विकसित होता है, राज्य का व्यय स्वाभाविक रूप से बढ़ता है। इसे "वैगनर का नियम" कहा जाता है।
🔷 मुख्य बिंदु:
-
आर्थिक प्रगति के साथ सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार।
-
सामाजिक सेवाओं की बढ़ती मांग: शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा।
-
कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्था में विस्तार।
-
संघटनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु खर्च में वृद्धि।
🔍 आलोचनात्मक विश्लेषण:
पक्ष | विश्लेषण |
---|---|
✅ सकारात्मक | - दीर्घकालीन रुझानों को समझने में सहायक।- सामाजिक कल्याण और सार्वजनिक सेवाओं के विस्तार को तर्कसंगत ठहराता है। |
❌ नकारात्मक | - सभी देशों पर लागू नहीं होता (कुछ विकासशील देश विकास के बावजूद सीमित सरकारी व्यय करते हैं)।- यह कारण और परिणाम के बीच स्पष्ट संबंध नहीं दर्शाता। |
🟢 B. वाइजमैन-पीकॉक विस्थापन प्रभाव सिद्धांत (Wiseman-Peacock Hypothesis / Displacement Effect Theory):
🔷 सिद्धांत की मूल धारणा:
यह सिद्धांत वाइजमैन और पीकॉक ने 1960 में दिया था, जिसमें उन्होंने बताया कि सरकारी व्यय में वृद्धि "विस्थापन प्रभाव" के कारण होती है, विशेषकर आपातकालीन परिस्थितियों (जैसे युद्ध, आपदा) के दौरान।
🔷 मुख्य बिंदु:
-
"विस्थापन प्रभाव" (Displacement Effect): संकट के समय खर्च बढ़ता है और फिर वही नया उच्च स्तर स्थायी हो जाता है।
-
"संवर्धन प्रभाव" (Inspection Effect): नागरिक राज्य की भूमिका की सराहना करते हैं, जिससे राज्य का आकार स्थायी रूप से बढ़ जाता है।
-
"आय प्रभाव" (Income Effect): जैसे-जैसे राष्ट्रीय आय बढ़ती है, सरकार के पास खर्च करने की अधिक क्षमता होती है।
🔍 आलोचनात्मक विश्लेषण:
पक्ष | विश्लेषण |
---|---|
✅ सकारात्मक | - इतिहास में अनेक उदाहरण (जैसे द्वितीय विश्व युद्ध) इस सिद्धांत को प्रमाणित करते हैं।- यह दिखाता है कि खर्च में वृद्धि अचानक और स्थायी रूप से कैसे होती है। |
❌ नकारात्मक | - यह केवल संकटकालीन परिस्थिति पर केंद्रित है।- दीर्घकालीन वृद्धि की व्याख्या नहीं करता।- सभी प्रकार के खर्च इसमें शामिल नहीं हैं (जैसे कल्याणकारी योजनाएँ)। |
⚖️ दोनों सिद्धांतों की व्यावहारिक प्रासंगिकता का मूल्यांकन:
पहलू | वैगनर का सिद्धांत | वाइजमैन-पीकॉक सिद्धांत |
---|---|---|
प्रासंगिकता | आज भी आर्थिक विकास और सामाजिक मांगों के बीच संबंध दिखाता है। | संकटों के दौरान सरकारी व्यय में होने वाली वृद्धि को स्पष्ट करता है। |
उदाहरण | भारत में डिजिटल भारत, शिक्षा, स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च। | कोविड-19 महामारी के दौरान स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च में अचानक वृद्धि। |
सीमाएँ | सब देशों और समयों पर लागू नहीं। | सीमित समय और घटनाओं पर केंद्रित। |
✅ निष्कर्ष:
वैगनर और वाइजमैन-पीकॉक दोनों सिद्धांत अलग-अलग दृष्टिकोण से सरकारी व्यय में वृद्धि को समझाने का प्रयास करते हैं। जहाँ वैगनर दीर्घकालिक विकास से जोड़ते हैं, वहीं वाइजमैन-पीकॉक आपातकालीन परिस्थितियों में सरकारी व्यय के व्यवहारिक बदलाव को दर्शाते हैं। दोनों सिद्धांत आज भी सार्वजनिक वित्त के अध्ययन में प्रासंगिक हैं, किंतु इनकी सीमाओं को समझना और देश-विशेष परिस्थितियों में विवेकपूर्ण ढंग से लागू करना आवश्यक है।
4. कार्यात्मक वित्त और आर्थिक स्थिरीकरण के बीच संबंध पर चर्चा कीजिए। इसे मुद्रास्फीति और बेरोजगारी के संदर्भ में समझाइए।
🔷 कार्यात्मक वित्त का अर्थ (Functional Finance):
कार्यात्मक वित्त का सिद्धांत ए. पी. लर्नर (A.P. Lerner) द्वारा प्रस्तुत किया गया था। इसके अनुसार, सरकार का उद्देश्य केवल संतुलित बजट बनाए रखना नहीं है, बल्कि अर्थव्यवस्था को स्थिर रखना और पूर्ण रोजगार व मूल्य स्थिरता प्राप्त करना है।
👉 मुख्य विचार:
-
सरकार को अपने राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) — यानी राजस्व (कर) और व्यय को देश की आर्थिक स्थिति के अनुसार समायोजित करना चाहिए।
-
यदि बेरोजगारी है, तो सरकार को खर्च बढ़ाकर मांग को प्रोत्साहित करना चाहिए।
-
यदि मुद्रास्फीति है, तो सरकार को कर बढ़ाकर या व्यय घटाकर मांग को नियंत्रित करना चाहिए।
🔷 आर्थिक स्थिरीकरण (Economic Stabilization):
आर्थिक स्थिरीकरण का अर्थ है अर्थव्यवस्था को अत्यधिक उतार-चढ़ाव (जैसे मुद्रास्फीति या मंदी) से बचाना और स्थिर विकास, मूल्य स्थिरता व पूर्ण रोजगार सुनिश्चित करना।
इसके दो मुख्य उद्देश्य हैं:
-
मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना।
-
बेरोजगारी को कम करना।
🔁 कार्यात्मक वित्त और आर्थिक स्थिरीकरण के बीच संबंध:
तत्व | कार्यात्मक वित्त | आर्थिक स्थिरीकरण |
---|---|---|
उद्देश्य | आर्थिक स्थायित्व व विकास | अस्थिरता से रक्षा करना |
साधन | सरकारी व्यय, कर नीति, ऋण | मौद्रिक और राजकोषीय नीति |
दृष्टिकोण | लचीला और उद्देश्यपरक | स्थिति आधारित प्रतिक्रियात्मक |
मुख्य उद्देश्य | पूर्ण रोजगार और स्थिर कीमतें | मुद्रास्फीति व बेरोजगारी पर नियंत्रण |
➡️ कार्यात्मक वित्त को आर्थिक स्थिरीकरण का उपकरण माना जा सकता है। यह नीति निर्धारकों को सुझाव देती है कि कैसे वे अपने वित्तीय निर्णयों के माध्यम से अर्थव्यवस्था को स्थिर रख सकते हैं।
🔍 मुद्रास्फीति (Inflation) के संदर्भ में:
-
जब मांग बहुत अधिक होती है और कीमतें तेजी से बढ़ रही होती हैं:
-
कार्यात्मक वित्त सुझाव देता है कि सरकार कर बढ़ाए या व्यय कम करे, जिससे मांग घटे और मूल्य स्थिर हों।
-
यह अत्यधिक मांग आधारित मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में सहायक होता है।
-
🔍 बेरोजगारी (Unemployment) के संदर्भ में:
-
जब अर्थव्यवस्था में मांग की कमी के कारण रोजगार घट रहा हो:
-
कार्यात्मक वित्त के अनुसार, सरकार को बजट घाटे की परवाह किए बिना अधिक खर्च करना चाहिए — जैसे कि सार्वजनिक निर्माण, सब्सिडी, या सीधे नकद हस्तांतरण।
-
यह कुंठित मांग (Deficient Demand) को बढ़ाता है, रोजगार उत्पन्न करता है और Keynesian सिद्धांत को लागू करता है।
-
✅ निष्कर्ष:
कार्यात्मक वित्त, आर्थिक स्थिरीकरण के लिए एक सक्रिय और व्यावहारिक दृष्टिकोण है। यह सिद्धांत मानता है कि सरकार को अपने वित्तीय साधनों का उपयोग संतुलन बनाए रखने के लिए करना चाहिए, न कि केवल बजट संतुलन के लिए। मुद्रास्फीति की स्थिति में यह मांग को घटाता है, और बेरोजगारी की स्थिति में यह मांग को बढ़ाता है। इसलिए यह एक लचीला और उद्देश्य-केंद्रित नीति ढांचा प्रदान करता है।
5. भारत जैसे विकासशील देशों में करारोपण का प्रभाव आर्थिक विकास, गरीबी उन्मूलन और सामाजिक न्याय पर किस प्रकार पड़ता है? इसके प्रभावी सुधारों की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।
🔷 I. करारोपण का प्रभाव (Impact of Taxation) — भारत जैसे विकासशील देशों में:
1. आर्थिक विकास (Economic Development):
-
सकारात्मक प्रभाव:
-
सरकार को बुनियादी ढाँचा, शिक्षा, स्वास्थ्य में निवेश के लिए संसाधन मिलते हैं।
-
प्रत्यक्ष करों (जैसे आयकर) से धन का पुनर्वितरण होता है, जो संतुलित विकास को बढ़ावा देता है।
-
-
नकारात्मक प्रभाव:
-
अत्यधिक या जटिल कर प्रणाली निजी निवेश को हतोत्साहित कर सकती है।
-
अनौपचारिक क्षेत्र पर कर प्रणाली का सीमित प्रभाव होता है।
-
2. गरीबी उन्मूलन (Poverty Alleviation):
-
सकारात्मक प्रभाव:
-
करों के माध्यम से प्राप्त राजस्व से कल्याणकारी योजनाएँ चलाई जाती हैं (जैसे मनरेगा, पीएम-किसान)।
-
सब्सिडी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली आदि कर राजस्व से संभव होती हैं।
-
-
नकारात्मक प्रभाव:
-
अप्रत्यक्ष कर (जैसे GST) का प्रभाव गरीबों पर तुलनात्मक रूप से अधिक होता है, क्योंकि यह प्रतिगामी कर (regressive) होता है।
-
3. सामाजिक न्याय (Social Justice):
-
करों का पुनर्वितरण प्रभाव (Redistributive Effect) समाज में असमानता को घटा सकता है।
-
यदि अमीरों पर प्रगतिशील कर और गरीबों को रियायतें मिलती हैं, तो सामाजिक संतुलन बढ़ता है।
-
लेकिन यदि कर चोरी, कर छूट और कर अपवंचन होता है, तो यह सामाजिक अन्याय को बढ़ावा देता है।
🔶 II. सुधारों की आवश्यकता (Need for Reforms in Taxation):
🔸 1. प्रत्यक्ष करों की मजबूती:
-
आयकर को अधिक प्रगतिशील बनाना चाहिए ताकि अमीर वर्ग अधिक योगदान दे।
-
कॉर्पोरेट टैक्स छूटों की समीक्षा की जाए।
🔸 2. अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में सुधार:
-
GST की दरों को सरल और तर्कसंगत बनाया जाए।
-
आवश्यक वस्तुओं पर कम दरें, विलासिता पर उच्च दरें लागू हों।
🔸 3. कर प्रशासन का आधुनिकीकरण:
-
डिजिटलीकरण और AI आधारित कर निगरानी से कर चोरी को रोका जा सकता है।
-
करदाता के लिए प्रणाली को सरल और पारदर्शी बनाया जाए।
🔸 4. कर आधार का विस्तार:
-
अनौपचारिक क्षेत्र को धीरे-धीरे औपचारिक प्रणाली में लाना।
-
प्रॉपर्टी टैक्स, कार्बन टैक्स, संपत्ति कर जैसे स्रोतों का प्रभावी उपयोग।
🔸 5. राज्यों की कर आय में वृद्धि:
-
राज्यों को भी स्वतंत्र और स्थिर कर संसाधन मिलें ताकि वे अपनी विकास योजनाओं को लागू कर सकें।
✅ निष्कर्ष:
भारत जैसे विकासशील देश में कर प्रणाली न केवल राजस्व जुटाने का साधन है, बल्कि यह आर्थिक विकास, सामाजिक समानता और गरीबी उन्मूलन के लिए एक नीतिगत उपकरण भी है।
परंतु इसके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए प्रगतिशील, सरल, न्यायसंगत और डिजिटल कर व्यवस्था की आवश्यकता है, जो आर्थिक रूप से सक्षम वर्ग से राजस्व ले और वंचित वर्ग को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करे।
प्रश्न 01 . राज्य की आर्थिक क्रियाओं के संदर्भ में आय वितरण और धन असमानता को कम करने के प्रयासों का विश्लेषण कीजिए।
राज्य की आर्थिक क्रियाओं के संदर्भ में आय वितरण और धन असमानता को कम करने के प्रयासों का विश्लेषण करते समय हमें यह समझना आवश्यक है कि राज्य (सरकार) विभिन्न नीतियों और कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में आर्थिक न्याय और समानता स्थापित करने का प्रयास करता है। इस विश्लेषण को हम निम्नलिखित बिंदुओं में बाँट सकते हैं:
1. प्रत्यक्ष हस्तांतरण और सब्सिडी योजनाएं
राज्य निम्न आय वर्गों को सहायता प्रदान करने के लिए विभिन्न प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) और सब्सिडी योजनाएं चलाता है:
-
राशन सब्सिडी (PDS): गरीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराना।
-
मनरेगा (MGNREGA): ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन।
-
प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि: किसानों को नकद सहायता।
यह प्रयास निम्न आय वर्ग की क्रय शक्ति बढ़ाकर आय असमानता को कम करने में सहायक होता है।
2. प्रगतिशील कर प्रणाली
राज्य ऐसी कर व्यवस्था लागू करता है जिसमें उच्च आय वालों से अधिक कर वसूला जाता है और निम्न आय वालों को छूट दी जाती है:
-
आयकर स्लैब प्रणाली
-
कॉर्पोरेट टैक्स
-
गुड्स एंड सर्विस टैक्स (GST) में कुछ आवश्यक वस्तुओं पर कम या शून्य दर
यह नीति धन के पुनर्वितरण (Redistribution) को संभव बनाती है।
3. सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं
राज्य द्वारा निशुल्क या सस्ती शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था की जाती है ताकि गरीब वर्गों को समान अवसर मिल सके:
-
सरकारी स्कूल और छात्रवृत्ति योजनाएं
-
आयुष्मान भारत योजना जैसी स्वास्थ्य योजनाएं
इससे सामाजिक गतिशीलता (social mobility) बढ़ती है और दीर्घकाल में आर्थिक असमानता घटती है।
4. सामाजिक सुरक्षा योजनाएं
राज्य वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन आदि योजनाएं चलाकर कमजोर वर्गों की सुरक्षा करता है।
5. नियामक और कानूनी उपाय
-
न्यूनतम मजदूरी कानून
-
श्रम कानूनों का सख्त अनुपालन
-
भूमि सुधार नीतियाँ (हालाँकि कई राज्यों में अधूरी हैं)
यह उपाय श्रमिकों और किसानों के अधिकारों की रक्षा कर आर्थिक असमानता को नियंत्रित करते हैं।
निष्कर्ष:
राज्य द्वारा आय वितरण और धन असमानता को कम करने हेतु अनेक प्रयास किए जाते हैं। यद्यपि इन प्रयासों से कुछ हद तक सफलता मिली है, फिर भी व्यावहारिक चुनौतियाँ जैसे भ्रष्टाचार, नीति का सही क्रियान्वयन, और शहरी-ग्रामीण असंतुलन इस लक्ष्य की पूर्ति में बाधा बनते हैं। इसलिए इन नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन और निगरानी की आवश्यकता बनी रहती है।
प्रश्न 02. लोक व्यय के माध्यम से सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं का वितरण कैसे सुनिश्चित किया जाता है ? इसके सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का मूल्यांकन कीजिए।
प्रश्न 02: लोक व्यय के माध्यम से सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं का वितरण कैसे सुनिश्चित किया जाता है? इसके सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का मूल्यांकन कीजिए।
1. लोक व्यय का आशय:
लोक व्यय (Public Expenditure) वह व्यय है जो सरकार द्वारा जनता की भलाई, विकास कार्यों तथा प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा, परिवहन, बुनियादी ढाँचा, कानून व्यवस्था, एवं सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में खर्च शामिल होता है।
2. सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं का वितरण:
सरकार लोक व्यय के माध्यम से ऐसी वस्तुएँ और सेवाएँ प्रदान करती है जो निजी क्षेत्र द्वारा पर्याप्त रूप से नहीं दी जातीं, जैसे:
-
शिक्षा: सरकारी स्कूल, उच्च शिक्षा संस्थान, छात्रवृत्तियाँ
-
स्वास्थ्य: सरकारी अस्पताल, टीकाकरण, स्वास्थ्य बीमा योजनाएँ
-
सुरक्षा: पुलिस व्यवस्था, न्यायालय, सेना
-
सार्वजनिक ढांचा: सड़क, पुल, जल आपूर्ति, सफाई
-
पर्यावरण सुरक्षा: वनीकरण, प्रदूषण नियंत्रण
ये सेवाएँ समान रूप से समाज के सभी वर्गों को उपलब्ध कराई जाती हैं, जिससे सार्वजनिक कल्याण और समावेशी विकास सुनिश्चित होता है।
3. सामाजिक प्रभाव:
(i) समानता और सामाजिक न्याय:
-
गरीब, वंचित और पिछड़े वर्गों को शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध करवा कर समाज में समान अवसर प्रदान किए जाते हैं।
(ii) सामाजिक स्थिरता:
-
बेरोजगारी भत्ते, खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण विकास योजनाओं से असंतोष कम होता है।
(iii) साक्षरता और स्वास्थ्य में सुधार:
-
दीर्घकाल में मानव संसाधन का विकास होता है, जिससे समाज का समग्र विकास होता है।
4. आर्थिक प्रभाव:
(i) बुनियादी ढाँचे का विकास:
-
निवेश में वृद्धि होती है और व्यापार की सुविधा बढ़ती है।
(ii) रोजगार सृजन:
-
सरकारी योजनाओं और परियोजनाओं के माध्यम से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार पैदा होता है।
(iii) मांग में वृद्धि:
-
सरकारी व्यय गरीबों की आय में वृद्धि करता है जिससे उनकी उपभोग क्षमता बढ़ती है और समग्र आर्थिक गतिविधियाँ तेज होती हैं।
(iv) धन का पुनर्वितरण (Redistribution of Wealth):
-
प्रगतिशील कर व्यवस्था से एकत्र राजस्व का उपयोग गरीबों के हित में कर लोक व्यय असमानता को घटाने में सहायक होता है।
निष्कर्ष:
लोक व्यय न केवल सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं का वितरण सुनिश्चित करता है, बल्कि यह सामाजिक समानता, आर्थिक विकास, और स्थिरता का आधार भी है। हालाँकि इसके लिए सतत निगरानी, पारदर्शिता, और प्रभावी क्रियान्वयन की आवश्यकता है ताकि व्यय का अधिकतम लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुँच सके।
प्रश्न 03. लोक व्यय के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों का विश्लेषण करते हुए सुझाव दीजिए कि इसे अधिक प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है ?
I. लोक व्यय के सकारात्मक प्रभाव
-
आर्थिक विकास को बढ़ावा:
-
बुनियादी ढाँचे, शिक्षा, स्वास्थ्य व कृषि पर खर्च से समग्र आर्थिक गतिविधियाँ तेज होती हैं।
-
-
रोजगार सृजन:
-
सरकारी योजनाओं और निर्माण कार्यों से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रोजगार उत्पन्न होते हैं (जैसे मनरेगा)।
-
-
धन का पुनर्वितरण (Redistribution of Wealth):
-
समाज के वंचित वर्गों को सहायता देकर आय और अवसर की असमानता को कम किया जाता है।
-
-
सामाजिक सेवाओं की उपलब्धता:
-
जनता को सस्ती या निःशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन आदि मिलते हैं, जिससे जीवन स्तर बेहतर होता है।
-
-
स्थिरता और आत्मनिर्भरता:
-
संकटकाल (जैसे महामारी, सूखा आदि) में लोक व्यय अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने में सहायक होता है।
-
II. लोक व्यय के नकारात्मक प्रभाव
-
राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit):
-
अधिक व्यय के कारण सरकार पर कर्ज का बोझ बढ़ता है, जिससे आर्थिक स्थिरता प्रभावित हो सकती है।
-
-
अप्रभावी कार्यान्वयन:
-
योजनाओं का ज़मीन पर सही क्रियान्वयन न होने से संसाधनों की बर्बादी होती है।
-
-
भ्रष्टाचार और लीकेज:
-
कई योजनाओं में धन गंतव्य तक पूरी तरह नहीं पहुँच पाता; बिचौलिए और भ्रष्टाचार इसमें बाधा डालते हैं।
-
-
निर्भरता की प्रवृत्ति:
-
अधिक सब्सिडी या सहायता लोगों में आत्मनिर्भरता की भावना को कम कर सकती है।
-
-
राजनीतिक लोकलुभावन व्यय:
-
कई बार लोक व्यय का उद्देश्य केवल चुनावी लाभ होता है, जिससे दीर्घकालिक विकास को नुकसान होता है।
-
III. लोक व्यय को अधिक प्रभावी बनाने हेतु सुझाव
-
नियोजन और प्राथमिकता निर्धारण:
-
व्यय को विकासोन्मुख क्षेत्रों (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, इंफ्रास्ट्रक्चर) में प्राथमिकता दी जाए।
-
-
पारदर्शिता और जवाबदेही:
-
योजनाओं की निगरानी के लिए ई-गवर्नेंस, सामाजिक अंकेक्षण (social audit), और रियल टाइम ट्रैकिंग को बढ़ावा दिया जाए।
-
-
जनभागीदारी:
-
योजनाओं की योजना और क्रियान्वयन में स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
-
-
भ्रष्टाचार पर नियंत्रण:
-
कड़े दंड, तकनीकी निगरानी, और स्वतंत्र निगरानी संस्थाओं की सहायता से लीकेज रोका जाए।
-
-
प्रभाव मूल्यांकन (Impact Assessment):
-
हर योजना के प्रभाव और परिणाम का मूल्यांकन किया जाए ताकि अनावश्यक व्यय रोका जा सके।
-
-
स्थायित्व और दीर्घकालिक दृष्टिकोण:
-
तात्कालिक लाभ से अधिक दूरदर्शी योजनाओं में निवेश किया जाए (जैसे कौशल विकास, डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर)।
-
निष्कर्ष:
लोक व्यय, यदि विवेकपूर्ण ढंग से नियोजित और निष्पादित किया जाए, तो यह आर्थिक विकास, सामाजिक समानता और राष्ट्र की समृद्धि का सशक्त साधन बन सकता है। इसके प्रभाव को अधिकतम करने के लिए पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और जनसंवेदनशीलता आवश्यक है।
प्रश्न 04: करापात के विभिन्न उपायों का मूल्यांकन कीजिए। क्या कर प्रणाली को सरल और पारदर्शी बनाकर करापात को कम किया जा सकता है?
I. करापात (Tax Evasion) का अर्थ:
करापात का आशय है — कानूनी रूप से कर देय होने के बावजूद उसे जानबूझकर न चुकाना। यह एक अवैध गतिविधि है और इससे सरकार के राजस्व में भारी कमी आती है, जिससे विकास योजनाएँ बाधित होती हैं।
II. करापात को रोकने के लिए उठाए गए प्रमुख उपाय:
1. कर सुधार (Tax Reforms):
-
GST (वस्तु एवं सेवा कर): अप्रत्यक्ष करों का समेकन कर पारदर्शिता और अनुपालन में सुधार।
-
प्रत्यक्ष कर संहिता (DTC): प्रत्यक्ष कर प्रणाली को सरल बनाने की दिशा में कदम।
2. डिजिटल निगरानी और सूचना प्रणाली:
-
पैन और आधार लिंकिंग: लेन-देन की निगरानी आसान बनाना।
-
टीडीएस और टीसीएस: स्रोत पर कर कटौती से अपवंचन की संभावना कम।
-
बिग डेटा और AI की मदद: संदिग्ध लेन-देन की पहचान।
3. सख्त प्रवर्तन और दंड:
-
IT छापे और जांच: काले धन की खोज।
-
काले धन (अघोषित विदेशी आय) पर विशेष कानून, जैसे – Black Money Act, 2015।
-
बेनामी संपत्ति कानून का प्रवर्तन।
4. स्वैच्छिक खुलासा योजनाएँ (VDIS):
-
करदाता को पुराने अघोषित आय पर कर चुकाकर वैधता प्रदान करना।
III. कर प्रणाली की सरलता और पारदर्शिता का प्रभाव:
(i) सरल कर प्रणाली के लाभ:
-
समझने में आसानी: जटिलताओं के कारण कई व्यक्ति अनजाने में भी कर चोरी करते हैं।
-
कम अनुपालन लागत: सरल प्रक्रिया से टैक्स भरना सस्ता और सुगम हो जाता है।
-
छूट व रियायतों की सीमित संख्या: जटिल छूट व्यवस्था कर अपवंचन के रास्ते खोलती है।
(ii) पारदर्शिता के लाभ:
-
विश्वास निर्माण: करदाताओं में यह भावना कि उनके द्वारा दिया गया कर सार्वजनिक कल्याण में उपयोग हो रहा है।
-
रिश्वत व भ्रष्टाचार में कमी: पारदर्शी और स्वतः संचालित प्रणाली इंस्पेक्टर राज को कम करती है।
IV. चुनौतियाँ और सीमाएँ:
-
छाया अर्थव्यवस्था (Informal Economy): नकद आधारित लेन-देन की अधिकता।
-
कम करदाताओं का आधार: भारत में आज भी एक बड़ी जनसंख्या आयकर के दायरे से बाहर है।
-
प्रवर्तन में राजनीतिक हस्तक्षेप: प्रभावशाली लोगों पर कार्यवाही में संकोच।
V. सुझाव: करापात को कम करने के उपाय
-
कर दरों को यथासंभव कम और स्थिर रखना — ताकि लोग स्वेच्छा से कर देने के लिए प्रोत्साहित हों।
-
ई-गवर्नेंस और डिजिटल फाइलिंग को बढ़ावा देना — प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी बनाना।
-
कर शिक्षा और जागरूकता अभियान — कर नैतिकता को बढ़ावा देना।
-
प्रोत्साहन आधारित अनुपालन — ईमानदार करदाताओं को सार्वजनिक रूप से सम्मान या विशेष सुविधाएँ।
-
व्यापार और पेशेवर संगठनों के साथ सहयोग — स्वनियमन को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष:
कर प्रणाली की सरलता और पारदर्शिता न केवल करापात को कम करने में सहायक सिद्ध होती है, बल्कि यह कर नैतिकता, राजस्व संग्रह और सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। अतः भारत जैसे देश में कर सुधार केवल तकनीकी उपाय नहीं, बल्कि एक सामाजिक और नीतिगत पहल भी है।
प्रश्न 05: लोक ऋण के प्रबंधन के विभिन्न उपायों का विश्लेषण कीजिए।
I. लोक ऋण का अर्थ:
लोक ऋण (Public Debt) वह ऋण है जो सरकार अपने राजकोषीय घाटे (fiscal deficit) को पूरा करने के लिए लेती है। यह ऋण देश के भीतर (आंतरिक ऋण) या विदेशी स्त्रोतों से (बाह्य ऋण) लिया जा सकता है।
यदि लोक ऋण का उपयोग विकासोन्मुख योजनाओं में हो और उसका प्रबंधन सुदृढ़ हो, तो यह अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देता है। लेकिन यदि यह अनुत्पादक व्ययों में चला जाए, तो यह वित्तीय संकट का कारण बन सकता है।
II. लोक ऋण प्रबंधन के उद्देश्य:
-
ऋण को दीर्घकालिक रूप से सतत (sustainable) बनाए रखना।
-
ऋण सेवा (interest payments) पर बोझ को कम करना।
-
राजकोषीय स्थिरता बनाए रखना।
-
ऋण के जोखिमों (interest rate, maturity, currency) को नियंत्रित करना।
III. लोक ऋण प्रबंधन के प्रमुख उपाय:
1. ऋण संरचना का विविधीकरण (Debt Diversification):
-
सरकार विभिन्न स्त्रोतों से ऋण लेती है — जैसे बॉन्ड, ट्रेजरी बिल, विदेशी सहायता इत्यादि।
-
इससे किसी एक स्रोत पर निर्भरता कम होती है और जोखिम संतुलित रहता है।
2. दीर्घकालिक बनाम अल्पकालिक ऋण का संतुलन:
-
अल्पकालिक ऋण पर ब्याज कम होता है पर वह जल्दी चुकाना पड़ता है।
-
दीर्घकालिक ऋण से पुनर्भुगतान का समय बढ़ता है लेकिन ब्याज दर अधिक हो सकती है।
3. ऋण पुनर्गठन (Debt Restructuring):
-
पुराने ऋणों को नए शर्तों (कम ब्याज, अधिक अवधि) पर पुनः जारी करना।
-
इससे ब्याज भुगतान का बोझ कम होता है और नकदी प्रवाह सुधरता है।
4. प्राथमिकता आधारित ऋण उपयोग:
-
केवल उत्पादक और पूंजी निर्माण वाली योजनाओं में ऋण का प्रयोग करना।
-
इससे दीर्घकाल में ऋण चुकाने की क्षमता बढ़ती है।
5. ऋण की पारदर्शिता और जवाबदेही:
-
सभी ऋण और उनकी शर्तों की सार्वजनिक जानकारी होना।
-
संसद और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा निगरानी।
6. ऋण-सेवा अनुपात पर नियंत्रण:
-
Debt Service Ratio = ऋण चुकाने का व्यय / कुल राजस्व
यदि यह अनुपात अधिक हो, तो विकास योजनाओं पर खर्च घटता है।
7. स्वायत्त ऋण प्रबंधन प्राधिकरण:
-
भारत में सरकार ने एक स्वतंत्र Public Debt Management Agency (PDMA) स्थापित करने का प्रस्ताव दिया है ताकि ऋण प्रबंधन और मौद्रिक नीति को अलग रखा जा सके।
8. वित्तीय अनुशासन और खर्च नियंत्रण:
-
यदि सरकार गैर-ज़रूरी खर्चों को नियंत्रित करे, तो उसे अधिक ऋण की आवश्यकता नहीं पड़ती।
IV. चुनौतियाँ:
-
बढ़ती ब्याज देनदारी: भारत के कुल व्यय में ब्याज भुगतान की बड़ी हिस्सेदारी है।
-
राज्यों का बढ़ता ऋण: केवल केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारें भी ऋण में डूब रही हैं।
-
विकास बनाम वित्तीय अनुशासन का द्वंद्व: सरकारें लोकलुभावन योजनाओं के कारण राजकोषीय अनुशासन से समझौता करती हैं।
V. निष्कर्ष:
लोक ऋण एक आवश्यक वित्तीय साधन है, परंतु उसका प्रबंधन संतुलित, पारदर्शी और रणनीतिक होना चाहिए। यदि ऋण का उपयोग विकासात्मक परियोजनाओं, पूंजी निर्माण और उत्पादक गतिविधियों में किया जाए तथा उसकी निगरानी उचित रूप से हो, तो यह राष्ट्र की आर्थिक प्रगति में सहायक बनता है।
लोक ऋण प्रबंधन के लिए एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण और सख्त वित्तीय अनुशासन आवश्यक है।
प्रश्न 06: बाजार असफलता (Market Failure) की अवधारणा को परिभाषित कीजिए और इसे दूर करने में लोक वित्त की भूमिका का विश्लेषण कीजिए।
I. बाजार असफलता की परिभाषा:
बाजार असफलता (Market Failure) वह स्थिति है जब मुक्त बाजार (free market) संसाधनों का सुनियोजित और कुशल आवंटन करने में विफल रहता है। यानी, जब बाजार ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है जो सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय, असमान या अलाभकारी होती है।
यह तब होता है जब:
-
सभी को वस्तुएँ और सेवाएँ समान रूप से नहीं मिलतीं,
-
बाह्यताएँ (externalities) अनियंत्रित हो जाती हैं,
-
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन होता है,
-
और निजी लाभ को प्राथमिकता दी जाती है सार्वजनिक हित की तुलना में।
II. बाजार असफलता के प्रमुख कारण:
-
सार्वजनिक वस्तुएँ (Public Goods):
जैसे — रक्षा, सड़क, स्ट्रीट लाइट आदि, जिनका लाभ सभी को मिलता है पर कोई व्यक्ति इनकी कीमत नहीं देना चाहता। बाजार इन्हें स्वयं उपलब्ध नहीं कराता। -
बाह्यताएँ (Externalities):
-
नकारात्मक बाह्यता: जैसे – प्रदूषण (उत्पादन से दूसरों को हानि)
-
सकारात्मक बाह्यता: जैसे – टीकाकरण (सभी को लाभ लेकिन बाजार इसका मूल्य नहीं वसूल पाता)
-
-
अधूरी प्रतिस्पर्धा (Imperfect Competition):
जैसे – एकाधिकार (monopoly) जहां विक्रेता मनमानी कीमत तय करता है। -
सूचना की असमानता (Information Asymmetry):
जब एक पक्ष के पास ज्यादा जानकारी हो और दूसरा पक्ष निर्णय नहीं ले पाता (जैसे बीमा क्षेत्र में)। -
गरीबी और असमानता:
बाजार केवल मांग और क्रयशक्ति के आधार पर वस्तुएँ प्रदान करता है, जिससे गरीब वर्ग उपेक्षित रह जाता है।
III. बाजार असफलता को दूर करने में लोक वित्त की भूमिका:
लोक वित्त (Public Finance) यानी सरकार द्वारा कर संग्रह, लोक व्यय और ऋण के माध्यम से बाजार की असफलताओं को सुधारने और सामाजिक कल्याण सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करना।
1. सार्वजनिक वस्तुओं की आपूर्ति:
-
सरकार करों से प्राप्त राजस्व द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा, कानून व्यवस्था जैसी सेवाएँ उपलब्ध कराती है।
2. बाह्यताओं को नियंत्रित करना:
-
प्रदूषण नियंत्रण कानून, कार्बन टैक्स, हरित सब्सिडी जैसे उपायों से नकारात्मक बाह्यताओं को कम किया जाता है।
-
टीकाकरण, शौचालय निर्माण, जल जीवन मिशन जैसी योजनाएँ सकारात्मक बाह्यताओं को बढ़ावा देती हैं।
3. असमानता में सुधार:
-
प्रगतिशील कर प्रणाली (अमीरों से अधिक कर लेना) और कल्याणकारी योजनाएँ (मनरेगा, खाद्य सुरक्षा आदि) आय वितरण को संतुलित करती हैं।
4. सूचना की उपलब्धता:
-
नियामक संस्थाएँ (जैसे – IRDAI, SEBI) पारदर्शिता सुनिश्चित करती हैं जिससे सूचना असमानता कम होती है।
5. प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा:
-
प्रतिस्पर्धा आयोग (CCI) एकाधिकार और कर्ता-धर्ताओं के दुरुपयोग को रोकता है।
IV. निष्कर्ष:
बाजार असफलता यह सिद्ध करती है कि केवल मुक्त बाजार प्रणाली पर निर्भर रहकर समाज का समग्र और न्यायपूर्ण विकास संभव नहीं है। ऐसे में लोक वित्त के माध्यम से सरकार न केवल आर्थिक संसाधनों का पुनर्वितरण करती है, बल्कि सामाजिक न्याय, समानता और सार्वजनिक कल्याण को भी सुनिश्चित करती है।
इसलिए लोक वित्त, बाजार की खामियों को दूर करने का एक आवश्यक औजार है, न कि केवल राजस्व-संग्रह की प्रक्रिया।
प्रश्न 07: लोक ऋण का प्रभाव किस प्रकार संसाधनों के आवंटन (Resource Allocation) और समाज के विभिन्न वर्गों पर पड़ता है?
I. लोक ऋण का संक्षिप्त परिचय:
लोक ऋण (Public Debt) वह ऋण है जिसे सरकार अपने खर्चों (विशेषकर राजकोषीय घाटे) को पूरा करने के लिए लेती है। यह ऋण या तो आंतरिक (देश के भीतर से) लिया जाता है या बाह्य (विदेशी स्रोतों से)। इसका सीधा प्रभाव संसाधनों के उपयोग, आर्थिक प्राथमिकताओं और सामाजिक वर्गों पर पड़ता है।
II. संसाधनों के आवंटन पर लोक ऋण का प्रभाव:
1. सरकारी व्यय में प्राथमिकता बदलाव:
-
यदि सरकार ऋण का उपयोग उत्पादक गतिविधियों (जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर) में करे, तो संसाधन विकास क्षेत्र में जाते हैं।
-
लेकिन यदि ऋण का उपयोग राजस्व व्यय (जैसे वेतन, सब्सिडी) में होता है, तो संसाधनों का कुशल उपयोग नहीं हो पाता।
2. निजी निवेश पर प्रभाव (Crowding Out Effect):
-
जब सरकार बाजार से अधिक ऋण लेती है, तो ब्याज दरें बढ़ जाती हैं, जिससे निजी क्षेत्र को ऋण महंगा पड़ता है।
-
इससे निजी निवेश घटता है, और संसाधन सरकार की ओर स्थानांतरित हो जाते हैं।
3. पूंजी निर्माण बनाम उपभोग:
-
यदि ऋण का प्रयोग पूंजी निर्माण में हो (जैसे सड़क, ऊर्जा), तो यह भविष्य की उत्पादकता बढ़ाता है।
-
लेकिन अल्पकालिक उपभोग के लिए ऋण लेने से संसाधनों की बर्बादी हो सकती है।
4. ऋण सेवा भार (Debt Servicing Burden):
-
भविष्य में ब्याज और मूलधन चुकाने के लिए राजस्व का बड़ा हिस्सा ऋण भुगतान में चला जाता है।
-
इससे स्वास्थ्य, शिक्षा, गरीबी उन्मूलन जैसी योजनाओं में संसाधन कम पड़ जाते हैं।
III. समाज के विभिन्न वर्गों पर लोक ऋण का प्रभाव:
1. निम्न वर्ग (गरीब और वंचित वर्ग):
-
यदि ऋण का उपयोग कल्याणकारी योजनाओं (जैसे मनरेगा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली) में होता है, तो इस वर्ग को सीधा लाभ।
-
परंतु यदि भविष्य में कर बढ़ते हैं या महंगाई बढ़ती है, तो इसका सबसे अधिक असर इसी वर्ग पर पड़ता है।
2. मध्यम वर्ग:
-
बढ़ते सरकारी ऋण के कारण सरकार को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि करनी पड़ती है, जिससे यह वर्ग प्रभावित होता है।
-
साथ ही, ब्याज दरों में उतार-चढ़ाव से उनकी बचत और निवेश भी प्रभावित होते हैं।
3. उच्च वर्ग:
-
अक्सर यह वर्ग वित्तीय निवेशकों के रूप में सरकार को ऋण देता है और ब्याज से लाभ कमाता है।
-
परंतु दीर्घकाल में यदि आर्थिक असंतुलन होता है, तो इसके व्यवसाय और संपत्तियाँ भी प्रभावित हो सकती हैं।
IV. दीर्घकालिक प्रभाव:
-
अंतर-पुस्त पीढ़ीय बोझ (Inter-generational Burden):
आज लिए गए ऋण का भुगतान भविष्य की पीढ़ियाँ करेंगी — यदि ऋण का उपयोग सतत विकास में नहीं हुआ तो यह अन्यायपूर्ण होगा। -
वित्तीय असंतुलन:
अत्यधिक ऋण से सरकार के पास नई योजनाओं में निवेश की क्षमता कम हो जाती है, जिससे समाज के समग्र विकास पर असर पड़ता है। -
आर्थिक असमानता में वृद्धि:
यदि ऋण से पूंजीपति वर्ग को लाभ और गरीब वर्ग को कर और महंगाई का बोझ मिले, तो सामाजिक विषमता बढ़ती है।
V. निष्कर्ष:
लोक ऋण एक द्वि-धारी तलवार है — यदि इसे सुनियोजित और उत्पादक ढंग से उपयोग किया जाए, तो यह संसाधनों का उचित आवंटन और सामाजिक कल्याण सुनिश्चित कर सकता है। लेकिन अनुत्पादक खर्च, राजकोषीय लापरवाही, और अप्रभावी प्रबंधन से यह वित्तीय असंतुलन, सामाजिक असमानता और भविष्य की पीढ़ियों पर बोझ बन सकता है।
इसलिए, लोक ऋण का प्रभावी प्रबंधन आर्थिक दक्षता, सामाजिक न्याय, और सतत विकास के लिए आवश्यक है।
प्रश्न 08: "आंतरिक ऋण का भुगतान बाहरी ऋण की तुलना में सरल होता है।" इस कथन पर विस्तृत चर्चा कीजिए और आंतरिक ऋण और बाहरी ऋण के बीच अंतर को स्पष्ट कीजिए।
I. प्रस्तावना (Introduction):
भारत जैसे विकासशील देशों के लिए लोक ऋण एक आवश्यक साधन है ताकि वे विकासात्मक कार्यक्रमों के लिए संसाधन जुटा सकें। यह ऋण मुख्यतः दो प्रकार का होता है:
-
आंतरिक ऋण (Internal Debt) – देश के भीतर के स्त्रोतों से
-
बाहरी ऋण (External Debt) – विदेशों या अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से
यह कहा जाता है कि "आंतरिक ऋण का भुगतान बाहरी ऋण की तुलना में सरल होता है", जिसका आधार सामाजिक, मौद्रिक और राजनीतिक कारकों से जुड़ा है।
II. आंतरिक ऋण और बाहरी ऋण के बीच अंतर:
बिंदु | आंतरिक ऋण (Internal Debt) | बाहरी ऋण (External Debt) |
---|---|---|
स्रोत | देश के भीतर (बैंक, नागरिक, कंपनियाँ) | विदेशी सरकारें, IMF, World Bank, विदेशी बाजार |
मुद्रा | स्थानीय मुद्रा (जैसे INR) | विदेशी मुद्रा (जैसे USD, EUR) |
ब्याज भुगतान | देश में ही होता है | विदेशी अर्थव्यवस्था को भुगतान होता है |
संकट की स्थिति में | मुद्रास्फीति, मौद्रिक नीति से समाधान संभव | विदेशी मुद्रा की कमी एक बड़ी चुनौती बनती है |
प्रभाव | घरेलू निवेश, मुद्रा आपूर्ति प्रभावित होती है | विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव पड़ता है |
III. "आंतरिक ऋण का भुगतान सरल है" – विस्तृत चर्चा:
✅ 1. भुगतान अपनी मुद्रा में:
-
आंतरिक ऋण स्थानीय मुद्रा (जैसे रुपया) में लिया जाता है, जिसे सरकार जरूरत पड़ने पर छाप सकती है या मौद्रिक नीति के माध्यम से प्रबंध कर सकती है।
-
जबकि बाहरी ऋण विदेशी मुद्रा में होता है, जिसकी आपूर्ति सरकार के नियंत्रण में नहीं होती।
✅ 2. ब्याज भुगतान का राष्ट्रीय प्रभाव:
-
आंतरिक ऋण पर ब्याज भुगतान घरेलू बचतकर्ताओं (जैसे EPF, बैंक) को होता है, जिससे राष्ट्रीय आय में पुनः प्रवाह होता है।
-
बाहरी ऋण पर ब्याज विदेशी एजेंसियों को देना पड़ता है, जिससे राष्ट्रीय आय का बाहर प्रवाह होता है।
✅ 3. अधिक लचीलापन (Flexibility):
-
आंतरिक ऋण को री-फाइनेंस या रोल-ओवर करना अपेक्षाकृत आसान होता है।
-
बाहरी ऋण के साथ कड़ी शर्तें (जैसे IMF की शर्तें) जुड़ी होती हैं।
✅ 4. राजनीतिक और आर्थिक आत्मनिर्भरता:
-
आंतरिक ऋण देश की आर्थिक संप्रभुता को प्रभावित नहीं करता।
-
लेकिन बाहरी ऋण के बदले कई बार नीति-निर्धारण पर विदेशी हस्तक्षेप होता है (उदाहरण: IMF की structural adjustment policies)।
IV. आंतरिक ऋण से जुड़ी सीमाएँ:
-
यदि सरकार बहुत अधिक आंतरिक ऋण लेती है, तो इससे मुद्रास्फीति और ब्याज दरों में वृद्धि हो सकती है।
-
निजी निवेश (Private Investment) प्रभावित हो सकता है (Crowding Out Effect)।
V. निष्कर्ष:
आंतरिक ऋण का पुनर्भुगतान अधिक सरल और प्रबंधनीय होता है क्योंकि यह अपनी मुद्रा में होता है, घरेलू अर्थव्यवस्था के भीतर ही परिसंचारित रहता है और इसकी शर्तें अधिक लचीली होती हैं। इसके विपरीत, बाहरी ऋण विदेशी मुद्रा में होता है, जिस पर ब्याज और पुनर्भुगतान देश के विदेशी मुद्रा भंडार पर सीधा दबाव डालता है।
इसलिए, सतर्क नियोजन और संतुलित ऋण नीति के माध्यम से दोनों प्रकार के ऋणों का विवेकपूर्ण उपयोग आवश्यक है, लेकिन दीर्घकाल में आंतरिक ऋण अधिक आत्मनिर्भर और सुरक्षित विकल्प माना जाता है।
Social Plugin