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प्रश्न: 01. योग का अर्थ स्पष्ट करते हुए इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
योग का अर्थ
योग एक प्राचीन भारतीय जीवन पद्धति है, जो शरीर, मन और आत्मा के बीच सामंजस्य स्थापित करने का कार्य करता है। संस्कृत शब्द "योग" की उत्पत्ति "युज्" धातु से हुई है, जिसका अर्थ होता है – जोड़ना, मिलाना या एकीकृत करना। इस प्रकार, योग आत्मा का परमात्मा से मिलन, चेतना का ब्रह्म चेतना में विलीन होना है।
परिभाषाएँ
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पतंजलि के अनुसार – “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
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भगवद्गीता में – “योगः कर्मसु कौशलम्” अर्थात कर्मों में कुशलता ही योग है।
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स्वामी विवेकानंद के अनुसार – योग आत्मा की अंतःविकास यात्रा है।
योग के प्रकार
योग का उद्देश्य सिर्फ शारीरिक व्यायाम नहीं है, बल्कि यह जीवन के समग्र विकास की प्रक्रिया है। इसके प्रमुख प्रकार हैं:
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राजयोग – ध्यान और समाधि पर आधारित।
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हठयोग – शारीरिक आसनों और शुद्धि क्रियाओं पर आधारित।
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भक्तियोग – ईश्वर के प्रति समर्पण और भक्ति पर आधारित।
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ज्ञानयोग – आत्मज्ञान और विवेक आधारित।
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कर्मयोग – निष्काम कर्म पर बल देता है।
योग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
वैदिक काल (1500 ई.पू. - 500 ई.पू.)
योग का सबसे प्रारंभिक उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में मिलता है। उस समय योग मुख्यतः ध्यान, यज्ञ, मंत्रों के उच्चारण और तपस्या तक सीमित था। वैदिक ऋषि ध्यान द्वारा ब्रह्म से एकात्म होने की चेष्टा करते थे।
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ऋग्वेद में ध्यान, समाधि और मंत्रों के माध्यम से ब्रह्म को पाने की प्रक्रिया का उल्लेख है।
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उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए योग को एक साधन माना गया।
उपनिषद काल और ब्राह्मण ग्रंथ
इस काल में ध्यान, प्राणायाम और आत्मचिंतन की विधियों को विशेष स्थान मिला। श्वेताश्वतर उपनिषद में योग को आत्मा के अंतर्मन से जुड़ने का माध्यम बताया गया है।
उदाहरण: “ध्यायतो योगमेत्यन्तं” अर्थात ध्यान से ही योग की पूर्णता संभव है।
महाभारत और भगवद्गीता में योग
महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग की व्याख्या दी। भगवद्गीता योग का दार्शनिक आधार बनती है।
तीन मुख्य योग:
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कर्मयोग – बिना फल की इच्छा के कार्य करना।
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ज्ञानयोग – आत्मा और ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना।
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भक्तियोग – पूर्ण श्रद्धा और प्रेम के साथ ईश्वर की आराधना करना।
श्रीकृष्ण कहते हैं – “योगस्थः कुरु कर्माणि” अर्थात योग में स्थित होकर कार्य करो।
पतंजलि योगसूत्र (500 ई.पू.)
योग को एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप देने का श्रेय महर्षि पतंजलि को जाता है। उन्होंने “योगसूत्र” की रचना की, जिसमें योग के आठ अंगों (अष्टांग योग) का वर्णन है।
अष्टांग योग के आठ अंग:
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यम – नैतिक नियम
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नियम – व्यक्तिगत अनुशासन
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आसन – शरीर की स्थिति
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प्राणायाम – श्वास नियंत्रण
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प्रत्याहार – इंद्रियों को नियंत्रित करना
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धारणा – एकाग्रता
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ध्यान – ध्यान साधना
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समाधि – आत्मा और परमात्मा का मिलन
यह योग अब राजयोग के नाम से जाना जाता है।
मध्यकालीन भारत में योग
भक्ति आंदोलन का प्रभाव
मध्यकाल में संतों जैसे तुलसीदास, कबीर, मीराबाई आदि ने योग को भक्ति और साधना से जोड़ा। उनका मानना था कि ईश्वर से प्रेम भी योग का एक रूप है।
नाथ संप्रदाय और हठयोग
गोरखनाथ और उनके अनुयायियों ने हठयोग को बढ़ावा दिया, जिसमें शारीरिक साधना, शुद्धि क्रियाएँ, बंध, मुद्रा और प्राणायाम शामिल थे। उन्होंने शरीर को योग का एक महत्वपूर्ण माध्यम माना।
आधुनिक काल में योग का विकास
स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद ने योग को पाश्चात्य दुनिया से परिचित कराया। उन्होंने चार योगों – ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और राजयोग को व्याख्यायित किया।
श्री अरविंद
उन्होंने योग को “इंटीग्रल योग” का रूप दिया, जिसमें ध्यान, साधना, सेवा और आत्मविकास को एक साथ साधने की बात की।
परमहंस योगानंद
इन्होंने पश्चिम में क्रिया योग का प्रचार किया और आत्मा की शुद्धि की प्रक्रिया पर बल दिया।
रामदेव और आधुनिक योग
21वीं सदी में बाबा रामदेव ने योग को जन-जन तक पहुँचाया। टीवी और सोशल मीडिया के माध्यम से योग एक घरेलू क्रिया बन गया।
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस
21 जून को हर साल अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है। इसकी शुरुआत भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से हुई और 2014 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे मान्यता दी।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा: "योग भारत की प्राचीन परंपरा का अमूल्य उपहार है... यह सिर्फ व्यायाम नहीं, बल्कि शरीर और मन, विचार और कर्म, संयम और पूर्ति का समागम है।"
निष्कर्ष
योग केवल एक शारीरिक अभ्यास नहीं है, बल्कि यह एक सम्पूर्ण जीवन पद्धति है। यह व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास का माध्यम है। योग की ऐतिहासिक यात्रा वैदिक काल से लेकर आज तक निरंतर विकसित होती रही है और आज यह न केवल भारत में बल्कि संपूर्ण विश्व में शांति, स्वास्थ्य और संतुलन का प्रतीक बन गया है। योग का अभ्यास हमें न केवल रोगों से दूर रखता है, बल्कि हमारे जीवन में स्थिरता, शांति और आत्मिक संतुलन भी लाता है।
प्रश्न: 02. पातंजल योगसूत्र के अनुसार पुरुष व प्रकृति के स्वरूप का समझाइए।
भूमिका
भारतीय दर्शन में "सांख्य" और "योग" दर्शन का गहरा संबंध है। योग दर्शन का प्रवर्तन महर्षि पतंजलि ने किया, लेकिन इसकी दार्शनिक नींव सांख्य दर्शन में है। पातंजल योगसूत्र में पुरुष (Purusha) और प्रकृति (Prakriti) को सृष्टि के दो मूल तत्वों के रूप में माना गया है। इन दोनों का स्वरूप जानना योग के अभ्यास और मुक्ति के मार्ग को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
पातंजल योगदर्शन की मूल अवधारणा
पातंजल योगसूत्र में द्वैतवाद (Dualism) की भावना है, जिसमें दो प्रमुख तत्व माने गए हैं –
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पुरुष – चेतन तत्त्व (Conscious Principle)
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प्रकृति – अचेतन तत्त्व (Unconscious Principle)
इन दोनों के संयोग से ही संसार की उत्पत्ति, अनुभव और बंधन की स्थिति बनती है।
पुरुष का स्वरूप (Nature of Purusha)
पुरुष की परिभाषा
पातंजल योगसूत्र के अनुसार, पुरुष वह तत्व है जो निरपेक्ष, निष्क्रिय, शुद्ध चेतना स्वरूप है। वह न तो सृष्टि करता है, न ही बदलता है। वह केवल साक्षी भाव में स्थित रहता है।
पुरुष की विशेषताएँ
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शुद्ध चैतन्य (Pure Consciousness):
पुरुष साक्षी स्वरूप है, वह देखता है लेकिन कोई कर्म नहीं करता। -
निष्क्रिय (Inactive):
वह स्वयं कोई क्रिया नहीं करता, केवल प्रकृति के कार्यों का दर्शन करता है। -
नित्य (Eternal):
न वह जन्म लेता है, न मरता है – वह शाश्वत है। -
अकर्ता और भोक्ता (Non-Doer & Observer):
संसार के सुख-दुख का अनुभव प्रकृति के माध्यम से होता है, पुरुष स्वयं अप्रभावित रहता है।
योगसूत्र 2.20 में कहा गया है –
“द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।”
अर्थात् – द्रष्टा (पुरुष) शुद्ध होते हुए भी बुद्धि के माध्यम से जगत का अनुभव करता है।
प्रकृति का स्वरूप (Nature of Prakriti)
प्रकृति की परिभाषा
प्रकृति वह मूल कारण है जिससे संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति होती है। यह अचेतन, गतिशील और परिवर्तनशील तत्व है, जिसमें त्रिगुण विद्यमान रहते हैं।
प्रकृति के तीन गुण (Trigunas)
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सत्त्व (Satva): शुद्धता, ज्ञान, प्रकाश
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रजस् (Rajas): गति, ऊर्जा, क्रिया
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तमस् (Tamas): जड़ता, अज्ञान, अवरोध
प्रकृति इन्हीं तीन गुणों के संतुलन से संचालित होती है।
प्रकृति की विशेषताएँ
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प्राकृतिक और अचेतन (Unconscious):
यह स्वयं चेतन नहीं होती, केवल पुरुष की उपस्थिति से ही क्रियाशील बनती है। -
परिवर्तनशील (Mutable):
प्रकृति में निरंतर बदलाव होता है – जन्म, वृद्धि, क्षय और मृत्यु। -
कारण रूप (Causal):
संपूर्ण भौतिक जगत – मन, बुद्धि, अहंकार, इंद्रियाँ – सब प्रकृति के उत्पाद हैं। -
सृजनशील (Creative):
सृष्टि, अनुभव और भौतिक जगत की रचना में प्रकृति ही मुख्य भूमिका निभाती है।
पुरुष और प्रकृति का संबंध
संयोग और बंधन
जब पुरुष और प्रकृति का संयोग होता है, तब अनुभव, अहंकार और बंधन उत्पन्न होते हैं। यह संयोग ही जीवन का मूल कारण है, और इसी से कर्म बंधन का जन्म होता है।
योगसूत्र 2.23 में पतंजलि कहते हैं –
“स्वार्थ परार्थसंघातः पुरुषस्य दर्शना अर्थत्वं प्रकृतेः।”
अर्थात – पुरुष और प्रकृति का संयोग इसलिए होता है ताकि पुरुष अनुभव के माध्यम से स्वयं को जान सके।
मोक्ष का मार्ग
पातंजल योगसूत्र का अंतिम लक्ष्य है – कैवल्य, अर्थात पुरुष और प्रकृति का वियोग। जब पुरुष यह जान लेता है कि वह प्रकृति नहीं है, तब वह प्रकृति के प्रभाव से मुक्त हो जाता है।
अज्ञान के कारण बंधन
अविवेक (Ignorance)
अज्ञानवश पुरुष प्रकृति को स्वयं समझ लेता है और उसी से उसका बंधन प्रारंभ होता है। यह "अविवेक" ही जीवन के दुःखों का मूल कारण है।
विवेक (Discrimination)
जब पुरुष में विवेक जाग्रत होता है, वह प्रकृति और स्वयं के बीच का भेद समझ लेता है। यही विवेक उसकी मुक्ति का साधन बनता है।
योग के माध्यम से मुक्ति
योग का लक्ष्य
योग एक ऐसी विधा है जो पुरुष को प्रकृति से भिन्न कर, उसे शुद्ध चेतना स्वरूप में स्थिर करता है। योग के माध्यम से चित्तवृत्तियों का निरोध कर पुरुष अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता है।
अष्टांग योग की भूमिका
पतंजलि द्वारा बताए गए अष्टांग योग – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – पुरुष को प्रकृति के बंधन से मुक्त कराने के लिए साधन हैं।
कैवल्य: अंतिम उद्देश्य
कैवल्य क्या है?
जब पुरुष प्रकृति के संपूर्ण अनुभव से गुजर कर यह जान लेता है कि वह शरीर, मन और बुद्धि से भिन्न है, तब उसे "कैवल्य" की प्राप्ति होती है। यही योग का अंतिम फल है।
योगसूत्र 4.34 में पतंजलि कहते हैं –
“पुरुषार्थ शून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यम्।”
अर्थात – जब प्रकृति के गुण निष्क्रिय हो जाते हैं, तब पुरुष को कैवल्य प्राप्त होता है।
निष्कर्ष
पातंजल योगसूत्र में पुरुष और प्रकृति को जीवन के मूल तत्त्व माना गया है। पुरुष शुद्ध, निरपेक्ष चेतना है और प्रकृति सृजनशील, अचेतन शक्ति। इनके संयोग से अनुभव, बंधन और जीवन की प्रक्रिया आरंभ होती है। योग का लक्ष्य है – इस संयोग से पुरुष को मुक्त करना, जिससे वह अपने शुद्ध रूप को पहचान सके और कैवल्य की प्राप्ति कर सके। इस दर्शन में केवल सिद्धांत नहीं, बल्कि व्यावहारिक मार्ग भी बताया गया है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाता है।
प्रश्न: 03. भक्ति योग एवं ज्ञान योग को विस्तारपूर्वक समझाइए।
भूमिका
भारतीय दर्शन में योग का विशेष स्थान है। योग केवल शरीर साधना नहीं, बल्कि आत्मा के विकास और परमात्मा से मिलन की प्रक्रिया है। श्रीमद्भगवद्गीता में योग के विभिन्न मार्ग बताए गए हैं, जिनमें भक्ति योग (Bhakti Yoga) और ज्ञान योग (Gyan Yoga) विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। दोनों का लक्ष्य आत्मा की मुक्ति है, परंतु मार्ग अलग-अलग हैं। एक में ईश्वर के प्रति प्रेम है, तो दूसरे में विवेक और ज्ञान का सहारा।
भक्ति योग (Bhakti Yoga)
भक्ति योग की परिभाषा
भक्ति योग का अर्थ है — ईश्वर के प्रति पूर्ण प्रेम, श्रद्धा और समर्पण का मार्ग। यह योग हृदय से निकलता है, जिसमें साधक अपने ईश्वर को प्रेम का केंद्र मानकर उसकी उपासना करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता (12.2) में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
“मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥”
अर्थात् जो श्रद्धा और प्रेम से निरंतर मेरा स्मरण करते हैं, वे मुझसे अत्यंत जुड़े हुए हैं।
भक्ति योग का स्वरूप
1. ईश्वर पर अटूट विश्वास
भक्ति योग में साधक का जीवन ईश्वर पर पूर्ण निर्भरता का प्रतीक होता है। वह अपने जीवन की हर परिस्थिति को ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार करता है।
2. प्रेम का माध्यम
ईश्वर के प्रति निस्वार्थ प्रेम ही भक्ति योग का मूल आधार है। यहाँ न ज्ञान की आवश्यकता है, न ही विशेष कर्मों की – केवल हृदय से प्रेम आवश्यक है।
3. अहंकार का लोप
भक्ति योग में साधक “मैं” और “मेरा” की भावना से ऊपर उठ जाता है। वह स्वयं को ईश्वर की कृपा का पात्र मानता है और अपने अहंकार को समर्पण में बदल देता है।
भक्ति योग के प्रकार
1. साकार भक्ति:
जिसमें साधक भगवान को एक रूप विशेष जैसे राम, कृष्ण, शिव आदि के रूप में पूजता है।
2. निर्गुण भक्ति:
जिसमें ईश्वर को बिना रूप, गुण, आकार के रूप में माना जाता है – जैसे कबीर और नानक की भक्ति।
3. शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य भक्ति:
इनमें भक्त और भगवान के संबंध को विभिन्न भावनाओं से व्यक्त किया जाता है – जैसे मीरा की माधुर्य भक्ति, हनुमान की दास्य भक्ति आदि।
भक्ति योग के साधन
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नाम स्मरण (ईश्वर का नाम जपना)
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कीर्तन एवं भजन
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पूजा और उपासना
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ध्यान और जप
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सत्संग और संत सेवा
ज्ञान योग (Gyan Yoga)
ज्ञान योग की परिभाषा
ज्ञान योग वह मार्ग है जिसमें साधक विवेक और आत्मचिंतन के द्वारा यह जानने का प्रयास करता है कि “मैं कौन हूँ?” “यह जगत क्या है?” और “परम सत्य क्या है?”। यह योग ज्ञान, तर्क, विवेक और आत्मबोध पर आधारित है।
भगवद्गीता (4.38) में कहा गया है –
“न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।”
अर्थात – इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र कुछ नहीं है।
ज्ञान योग का स्वरूप
1. आत्मा और ब्रह्म का भेद
ज्ञान योग का मूल उद्देश्य है – आत्मा और ब्रह्म का साक्षात्कार। साधक यह समझता है कि वह शरीर नहीं, अपितु शुद्ध चैतन्य आत्मा है।
2. अविद्या का नाश
ज्ञान योग में अज्ञान (अविद्या) को ही बंधन का मूल कारण माना जाता है। विवेक और स्वाध्याय के द्वारा साधक अज्ञान का नाश करता है।
3. माया से मुक्त होना
ज्ञानयोगी माया, मोह, भ्रम और बंधनों से मुक्त होकर ब्रह्म के स्वरूप को समझता है।
ज्ञान योग के चरण
1. श्रवण (श्रुति सुनना):
वेदों, उपनिषदों, गीता आदि का अध्ययन करना।
2. मनन (चिंतन करना):
सुने गए ज्ञान पर गहराई से विचार करना।
3. निदिध्यास (ध्यान करना):
उस ज्ञान को ध्यान में लाकर आत्मसात करना।
4. साक्षात्कार (Realization):
जब साधक स्वयं को ब्रह्म के रूप में अनुभव करता है, तब ज्ञान योग की सिद्धि होती है।
भक्ति योग और ज्ञान योग की तुलना
विषय | भक्ति योग | ज्ञान योग |
---|---|---|
मार्ग | प्रेम और समर्पण | विवेक और बौद्धिकता |
उद्देश्य | ईश्वर से एकत्व | आत्मा और ब्रह्म की एकता |
साधन | भजन, कीर्तन, पूजा | अध्ययन, ध्यान, आत्मचिंतन |
भावना | भावुकता (Emotional) | तर्कशीलता (Rational) |
साधक का भाव | सेवक | साक्षी/द्रष्टा |
दोनों का समन्वय
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि चाहे कोई भी मार्ग अपनाओ – यदि उसमें श्रद्धा है, तो वह साधक को मोक्ष की ओर ले जाता है। इसलिए आधुनिक समय में कई संतों और विचारकों ने भक्ति और ज्ञान के समन्वय को ही श्रेष्ठ मार्ग माना है।
रामकृष्ण परमहंस ने कहा था –
“ज्ञान ही सत्य है, परंतु भक्ति ही उस सत्य तक पहुँचने की सीढ़ी है।”
निष्कर्ष
भक्ति योग और ज्ञान योग, दोनों ही आत्मा को परमात्मा से मिलाने के मार्ग हैं। एक में प्रेम, श्रद्धा और समर्पण है, तो दूसरे में विवेक, आत्मचिंतन और आत्मसाक्षात्कार। जहाँ भक्ति योग हृदय को पवित्र करता है, वहीं ज्ञान योग बुद्धि को निर्मल बनाता है। इन दोनों का समन्वय जीवन को संपूर्णता की ओर ले जाता है। योग का वास्तविक उद्देश्य – स्वयं की पहचान और परमात्मा की प्राप्ति – इन दोनों मार्गों से संभव है।
प्रश्न:04 चित्त प्रसाधन के उपायों का संक्षेप में वर्णन करें।
भूमिका
योग दर्शन में “चित्त” को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। पतंजलि के योगसूत्र में चित्त की शुद्धि और स्थिरता को योग की आवश्यक शर्त माना गया है। चित्त की वृत्तियाँ जब अशांत होती हैं, तो साधक आत्म-साक्षात्कार नहीं कर सकता। इसलिए चित्त को शुद्ध, स्थिर और एकाग्र बनाना योग का मूल उद्देश्य है। इसी प्रक्रिया को चित्त प्रसाधन कहा गया है।
चित्त प्रसाधन का अर्थ
“प्रसाधन” का अर्थ है – शुद्ध करना, सजाना, स्थिर करना या नियंत्रित करना।
इस प्रकार, चित्त प्रसाधन का अर्थ है – चित्त को अशुद्धियों, विक्षेपों और चंचलता से मुक्त कर, उसे शांत, स्थिर और एकाग्र बनाना।
पतंजलि योगसूत्र 1.33 में कहा गया है:
“मैत्री करुणा मुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्त प्रसादनम्।”
अर्थात – चित्त को प्रसन्न और स्थिर बनाने के लिए मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा का अभ्यास आवश्यक है।
चित्त प्रसाधन के उपाय (Means for Chitta Prasadhana)
पातंजल योगसूत्र में चित्त प्रसाधन के अनेक उपाय बताए गए हैं, जिनका उद्देश्य चित्त को शुद्ध, प्रसन्न और स्थिर बनाना है।
1. मैत्री (Friendliness)
अर्थ
सुखी व्यक्तियों के प्रति मैत्रीभाव रखना – उनके प्रति ईर्ष्या न करना, बल्कि उनके सुख में सहभागी होना।
लाभ
इससे चित्त में शांति, संतोष और अहंकार की कमी आती है। दूसरों की सफलता से प्रेरणा मिलती है, जलन नहीं।
2. करुणा (Compassion)
अर्थ
दुखी, पीड़ित या असहाय व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति और सहायता की भावना रखना।
लाभ
करुणा का अभ्यास मन को कोमल, संवेदनशील और विनम्र बनाता है। इससे अहंकार नष्ट होता है और चित्त में दया का संचार होता है।
3. मुदिता (Gladness or Appreciation)
अर्थ
सज्जनों और पुण्यात्माओं की अच्छाइयों में प्रसन्नता का अनुभव करना।
लाभ
जब हम अच्छे कार्यों और सद्गुणों को देखकर प्रसन्न होते हैं, तो हमारे भीतर भी वे गुण उत्पन्न होने लगते हैं। यह चित्त को सकारात्मक बनाता है।
4. उपेक्षा (Equanimity or Indifference)
अर्थ
दुष्ट, पापी और बुरे व्यक्तियों के प्रति तटस्थता और मानसिक संतुलन बनाए रखना।
लाभ
उपेक्षा से मन बुरे लोगों की नकारात्मक ऊर्जा से प्रभावित नहीं होता। यह चित्त को विकारों से बचाता है।
5. प्राणायाम (Breathing Techniques)
अर्थ
श्वास को नियंत्रित करने की प्रक्रिया – जैसे अनुलोम-विलोम, भस्त्रिका, कपालभाति आदि।
लाभ
प्राणायाम चित्त को शुद्ध करता है, मानसिक तनाव घटाता है और ध्यान के लिए आवश्यक एकाग्रता को बढ़ाता है।
6. ध्यान (Meditation)
अर्थ
मन को एक विषय या वस्तु पर स्थिर करना, जैसे – ओम का जप, ईश्वर का ध्यान या किसी ज्योति बिंदु पर एकाग्रता।
लाभ
ध्यान चित्त की चंचलता को समाप्त कर, उसे स्थिर और प्रसन्न बनाता है। यह चित्त प्रसाधन का सर्वोत्तम उपाय है।
7. स्वाध्याय (Self-study and Study of Scriptures)
अर्थ
धार्मिक ग्रंथों, योगसूत्रों और आत्मविकास से संबंधित साहित्य का अध्ययन करना।
लाभ
ज्ञान से अज्ञान दूर होता है, जिससे चित्त में स्पष्टता, आत्मविश्वास और आत्मदर्शन की क्षमता आती है।
8. ईश्वर प्राणिधान (Surrender to God)
अर्थ
सभी कार्यों और उनके फलों को ईश्वर को समर्पित करना, अहंकार से मुक्त होकर जीवन जीना।
लाभ
यह साधक को चिंता, भय और मोह से मुक्त करता है। जब सब कुछ ईश्वर को समर्पित होता है, तो चित्त स्वाभाविक रूप से शांत और स्थिर हो जाता है।
9. सत्त्विक आहार और आचरण
अर्थ
शुद्ध, हल्का, सात्विक भोजन और संयमित जीवनशैली।
लाभ
भोजन और दिनचर्या का सीधा प्रभाव चित्त पर पड़ता है। सत्त्विक आहार से चित्त निर्मल होता है, जबकि तामसिक भोजन उसे विचलित करता है।
10. सत्संग (Holy Company)
अर्थ
संतों, विद्वानों और सच्चे साधकों की संगति में रहना।
लाभ
सत्संग से चित्त प्रेरित होता है, और बुरे विचारों से दूरी बनती है। इससे साधना में रुचि और स्थिरता आती है।
निष्कर्ष
पातंजल योगसूत्र में चित्त को शुद्ध और स्थिर करने के लिए बहुत ही सरल, व्यवहारिक और गहन उपाय सुझाए गए हैं। मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा जैसे मानसिक अभ्यासों से लेकर प्राणायाम, ध्यान और ईश्वर प्राणिधान जैसे साधनों तक – सभी का लक्ष्य यही है कि चित्त को प्रसन्न, निर्मल और योग के लिए उपयुक्त बनाया जाए। चित्त प्रसाधन न केवल योग साधना की सफलता की कुंजी है, बल्कि यह मानसिक स्वास्थ्य, आत्मिक संतुलन और आंतरिक शांति का भी मार्ग है।
प्रश्न:05 श्री अरविन्द की योग के क्षेत्र में भूमिका पर प्रकाश डालिए।
भूमिका
श्री अरविन्द (Sri Aurobindo) भारत के एक महान योगी, दार्शनिक, स्वतंत्रता सेनानी और आध्यात्मिक विचारक थे। उन्होंने योग को केवल मोक्ष का साधन नहीं, बल्कि मानव जीवन के समग्र विकास का माध्यम माना। पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त होने के बावजूद उनका झुकाव भारतीय आध्यात्मिक परंपरा की ओर हुआ। उन्होंने एक नया और समन्वित योग मार्ग प्रस्तुत किया जिसे उन्होंने “पूर्ण योग” (Integral Yoga) या “अरविन्द योग” कहा।
श्री अरविन्द का जीवन परिचय
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जन्म: 15 अगस्त 1872, कोलकाता
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शिक्षा: इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय से
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राजनीतिक जीवन: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका
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आध्यात्मिक जीवन: 1908 में जेल में ध्यान और साधना का अनुभव
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स्थापना: पांडिचेरी में श्री अरविन्द आश्रम की स्थापना
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मृत्यु: 5 दिसंबर 1950
श्री अरविन्द की योग संबंधी दृष्टि
योग का उद्देश्य
श्री अरविन्द के अनुसार योग का उद्देश्य केवल आत्मा की मुक्ति नहीं, बल्कि मानव जीवन को दिव्यता की ओर ले जाना है। उन्होंने कहा कि योग को संसार से भागने का नहीं, बल्कि संसार को रूपांतरित करने का साधन होना चाहिए।
उन्होंने कहा – “All life is Yoga.” अर्थात जीवन का प्रत्येक पक्ष योग है।
परंपरागत योग से भिन्न दृष्टिकोण
परंपरागत योग — जैसे हठयोग, राजयोग, भक्ति योग या ज्ञान योग — व्यक्ति को मोक्ष दिलाने पर केंद्रित हैं, जबकि श्री अरविन्द का पूर्ण योग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आध्यात्मिक विकास को आवश्यक मानता है – चाहे वह शिक्षा हो, कार्य हो या सामाजिक जीवन।
पूर्ण योग (Integral Yoga)
परिभाषा
श्री अरविन्द ने जो योग पद्धति विकसित की, उसे उन्होंने “Integral Yoga” कहा। इसमें व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक सभी पक्षों का समन्वय किया जाता है।
उद्देश्य
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मानव चेतना का विकास
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आत्मा, मन और शरीर का संतुलन
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पृथ्वी पर दिव्यता का अवतरण (Divine Manifestation on Earth)
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व्यक्ति और समाज का आध्यात्मिक रूपांतरण
पूर्ण योग के अंग
1. मानसिक योग (Psychic Transformation)
साधक अपने अंतर्मन में उतरकर आत्मा से जुड़ने का प्रयास करता है। इससे अहंकार दूर होता है और आत्मा का प्रकाश प्राप्त होता है।
2. मानसिक रूपांतरण (Mental Transformation)
मन की सभी चंचलता, अव्यवस्था और भ्रांतियों को हटाकर उसे उच्च चेतना के अनुरूप बनाना।
3. शारीरिक रूपांतरण (Physical Transformation)
शरीर को भी आध्यात्मिक जीवन के अनुरूप बनाना – जैसे शुद्ध आहार, नियमितता, संयम और सत्वगुण का पालन।
4. आध्यात्मिक समर्पण
संपूर्ण अस्तित्व को ईश्वर को समर्पित करना, जिसमें व्यक्ति अपना कोई भी निजी स्वार्थ नहीं रखता।
श्री अरविन्द का योग दर्शन
1. अवतरित चेतना (Supramental Consciousness)
श्री अरविन्द ने योग द्वारा “अवतरित चेतना” (Supramental Consciousness) की संकल्पना दी। उनका मानना था कि यह चेतना मानव जाति को दिव्यता की ओर ले जा सकती है।
2. सावित्री महाकाव्य
उनका लिखा महाकाव्य “सावित्री” योग, आत्मा और चेतना के गहन स्तरों का दार्शनिक काव्य है। यह उनकी योगीय यात्रा और दर्शन का संपूर्ण चित्रण है।
3. श्री मां (The Mother)
मीर्रा अल्फास्सा जिन्हें “श्री माँ” कहा जाता है, उन्होंने श्री अरविन्द के योग दर्शन को मूर्त रूप दिया और श्री अरविन्द आश्रम का संचालन किया।
श्री अरविन्द का सामाजिक योग
श्री अरविन्द ने योग को केवल व्यक्तिगत मोक्ष तक सीमित नहीं किया, बल्कि समाज को एक आध्यात्मिक राष्ट्र बनाने की कल्पना की। उनका मानना था कि जब व्यक्ति भीतर से बदलेगा, तभी समाज भी बदलेगा।
शिक्षा में योग
उन्होंने शिक्षा को भी योग का एक अंग माना। उनका उद्देश्य था – ऐसा शिक्षण तंत्र जो केवल जानकारी नहीं दे, बल्कि आत्मा का विकास करे।
कार्य में योग
उन्होंने बताया कि कार्य करते समय ईश्वर का स्मरण और पूर्ण समर्पण होना चाहिए। हर कर्म योग बन सकता है यदि वह ईश्वर को अर्पित हो।
आधुनिक काल में प्रभाव
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श्री अरविन्द आश्रम, पांडिचेरी आज भी उनके योग के प्रचार-प्रसार का केंद्र है।
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ऑरोविल (Auroville) – एक अंतरराष्ट्रीय आध्यात्मिक नगर जिसकी स्थापना उनके विचारों पर हुई।
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उनके योग दर्शन को आज शिक्षा, प्रशासन, चिकित्सा और समाज सुधार के क्षेत्र में प्रयोग किया जा रहा है।
निष्कर्ष
श्री अरविन्द ने योग को भारतीय जीवन-दर्शन का आधुनिक, समन्वित और व्यावहारिक रूप प्रदान किया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि योग केवल साधना या ध्यान की क्रिया नहीं है, बल्कि जीवन का एक समग्र दृष्टिकोण है। उन्होंने व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को एक साथ आत्मिक रूपांतरण की ओर प्रेरित किया। श्री अरविन्द का योग मानवता के लिए आध्यात्मिक विकास का द्वार है, जिसमें संपूर्ण जीवन को दिव्य चेतना के प्रकाश में ढालने का सामर्थ्य है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न: 01. योग का सामान्य अर्थ एवं परिभाषित बताइए।
भूमिका
योग भारतीय संस्कृति की एक ऐसी अद्भुत देन है, जिसने न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण विश्व को मानसिक, शारीरिक और आत्मिक शांति का मार्ग दिखाया है। योग केवल शारीरिक क्रियाओं या आसनों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की एक वैज्ञानिक और दार्शनिक पद्धति है। यह मानव जीवन के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास का समन्वित रूप है।
आज के समय में जब व्यक्ति तनाव, चिंता, रोग, और असंतुलन से ग्रसित है, तब योग उसे शांति, संतुलन और स्वास्थ्य की दिशा में ले जाता है। योग केवल एक व्यायाम नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्म के साथ एकत्व की प्रक्रिया है।
योग का सामान्य अर्थ
शाब्दिक अर्थ
संस्कृत शब्द “योग” की उत्पत्ति “युज” धातु से हुई है, जिसका अर्थ है – "जोड़ना" या "एकत्रित करना"। इस जोड़ने का अर्थ आत्मा को परमात्मा से, शरीर को मन से, और मन को चेतना से जोड़ने से है।
सामान्य अर्थ
सामान्य भाषा में योग का अर्थ है – "शरीर, मन और आत्मा का समन्वय"। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने भीतर के और बाहरी वातावरण के साथ तालमेल बिठाकर संपूर्ण रूप से स्वस्थ, संतुलित और जागरूक होता है।
योग की परिभाषाएँ
1. पतंजलि द्वारा दी गई परिभाषा
महर्षि पतंजलि, जिन्होंने योगसूत्र की रचना की, योग को परिभाषित करते हैं:
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः"
अर्थात् – योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है।
इसका आशय यह है कि मन में उत्पन्न होने वाली विभिन्न विचार तरंगों, इच्छाओं और भावनाओं को नियंत्रित करना ही योग है। जब मन स्थिर हो जाता है, तब व्यक्ति आत्मा के स्वरूप को जानने योग्य बनता है।
2. भगवद्गीता में योग की परिभाषा
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कई प्रकार से योग को परिभाषित किया है:
"योगः कर्मसु कौशलम्"
अर्थात् – योग कर्मों में कुशलता है।
यह परिभाषा बताती है कि जीवन में संतुलन के साथ अपने कार्यों को करना भी योग है।
"सामत्वं योग उच्यते"
अर्थात् – योग समत्व (समभाव) का नाम है।
यहां योग को मन की स्थिरता और समता की अवस्था के रूप में समझाया गया है।
3. कठोपनिषद में
"तं योगमिति मन्यंते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्"
अर्थात् – इन्द्रियों की स्थिरता को योग कहा गया है।
यह परिभाषा बताती है कि जब व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है और उनका उपयोग संयमपूर्वक करता है, तभी वह सच्चे अर्थों में योगी कहलाता है।
4. आधुनिक परिभाषाएँ
स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, और महर्षि महेश योगी जैसे आधुनिक संतों ने योग को एक आत्मोन्नति और आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया बताया है। योग उनके अनुसार केवल साधना नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का सीधा मार्ग है।
योग के विभिन्न आयाम
1. शारीरिक आयाम
योग आसनों के माध्यम से शरीर को लचीला, स्वस्थ और ऊर्जावान बनाता है। नियमित अभ्यास से रोगों की रोकथाम होती है।
2. मानसिक आयाम
योग, विशेष रूप से ध्यान और प्राणायाम, मानसिक एकाग्रता, शांति और तनावमुक्ति प्रदान करते हैं।
3. आत्मिक आयाम
योग आत्मा की यात्रा है – अपने अंदर झांकने, चेतना को जागृत करने और ब्रह्म से मिलन की प्रक्रिया।
निष्कर्ष
योग एक समग्र जीवन शैली है। यह मात्र एक क्रिया नहीं, बल्कि एक साधना है जो व्यक्ति को शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति, और आत्मिक ज्ञान की ओर ले जाती है। योग न केवल एक व्यक्तिगत साधना है, बल्कि यह समाज और विश्व के लिए भी शांति और संतुलन का आधार बन सकता है।
वर्तमान युग में, जब मानव तनाव, प्रतिस्पर्धा और भौतिकता में उलझा हुआ है, तब योग ही वह मार्ग है जो उसे स्थायित्व, संतुलन और सच्ची खुशी की ओर ले जा सकता है।
प्रश्न:02 हठप्रदीपिका के अनुसार किन्हीं दो आसनों की विधि एवं लाभ बताइए।
भूमिका
योगशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में हठप्रदीपिका एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसकी रचना योगी स्वात्माराम ने की थी। यह ग्रंथ हठयोग की प्रमुख विधियों को सरल और व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करता है। हठयोग में आसनों, प्राणायाम, बंध, मुद्राओं और ध्यान की विस्तृत चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है कि आसन शरीर की स्थिरता, स्वास्थ्य और ध्यान की तैयारी के लिए आवश्यक हैं।
हठप्रदीपिका में कुल 84 लाख आसनों की बात की गई है, लेकिन इनमें से 15 मुख्य आसनों का उल्लेख विशेष रूप से मिलता है। यहां हम हठप्रदीपिका में वर्णित दो प्रमुख आसनों की विधि और लाभों की चर्चा करेंगे: पद्मासन और भद्रासन।
1. पद्मासन (कमलासन)
हठप्रदीपिका के अनुसार वर्णन
“वामोरु परिकल्प्य दक्षिणोरु स्थितो भवेत्।
दक्षिणोरु परिकल्प्य वामोरु स्थितो भवेत्॥”
अर्थात् – बाएँ पैर को दाएँ जांघ पर और दाएँ पैर को बाएँ जांघ पर रखना चाहिए।
विधि
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एक समतल स्थान पर चटाई या योगा मैट बिछाएं।
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दंडासन की स्थिति में बैठें (पैर सीधे सामने फैलाकर)।
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अब बाएँ पैर को उठाकर दाएँ जांघ पर रखें। पैर का तलवा ऊपर की ओर हो।
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फिर दाएँ पैर को उठाकर बाईं जांघ पर रखें।
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दोनों घुटने ज़मीन से स्पर्श करते हुए हों और रीढ़ की हड्डी सीधी रखें।
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हाथों को ज्ञान मुद्रा में घुटनों पर रखें और आँखें बंद करके ध्यान की स्थिति में रहें।
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प्रारंभ में 1-2 मिनट, फिर धीरे-धीरे समय बढ़ाएँ।
लाभ
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मानसिक एकाग्रता को बढ़ाता है।
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ध्यान और प्राणायाम के लिए यह सबसे उपयुक्त आसन है।
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मेरुदंड को सीधा और मजबूत बनाता है।
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तनाव, चिंता और अनिद्रा में लाभकारी।
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पाचन प्रणाली को उत्तेजित करता है और रक्त संचार में सुधार लाता है।
2. भद्रासन (गोरक्षासन / सुखासन का प्रकार)
हठप्रदीपिका के अनुसार वर्णन
“पद्मासनं तु संसिद्धं कुर्यात् पुनर् भद्रकं।
गुल्फौ च वृषणस्याधः स्थाप्य आँगुष्ठयोः ततोऽधः॥”
अर्थात् – पद्मासन सिद्ध हो जाने पर भद्रासन का अभ्यास करें। इसमें एड़ियों को गुप्तांग के नीचे रखा जाता है।
विधि
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एक समतल स्थान पर आराम से बैठें।
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दोनों पैरों को घुटनों से मोड़कर तलवों को आमने-सामने मिलाएं।
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एड़ियों को शरीर के करीब लाएं, ताकि पेल्विक एरिया में खिंचाव हो।
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दोनों हाथों से पैरों को पकड़ें या घुटनों पर ध्यान मुद्रा में रखें।
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रीढ़ सीधी रखें और आँखें बंद करके श्वास पर ध्यान केंद्रित करें।
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इसे प्रारंभ में 2–3 मिनट करें, फिर धीरे-धीरे समय बढ़ाएँ।
लाभ
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जांघों और पेल्विक क्षेत्र की मांसपेशियों को मजबूत करता है।
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प्रजनन अंगों को शक्ति देता है।
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मासिक धर्म संबंधित समस्याओं में लाभकारी।
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ध्यान, प्राणायाम और जप के लिए उपयोगी आसन।
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पाचन को सुधारता है और शरीर में शांति का अनुभव कराता है।
निष्कर्ष
हठप्रदीपिका में वर्णित आसनों का अभ्यास न केवल शरीर को स्वस्थ और लचीला बनाता है, बल्कि मानसिक शांति और ध्यान की गहराई को भी बढ़ाता है। पद्मासन और भद्रासन दोनों ही ध्यान के लिए श्रेष्ठ माने गए हैं और इनके निरंतर अभ्यास से व्यक्ति स्थिरता, संतुलन और आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होता है।
इन आसनों को यदि नियमित रूप से और सही विधि के साथ किया जाए, तो यह न केवल रोगों से मुक्ति दिलाते हैं बल्कि शरीर, मन और आत्मा का संतुलन भी स्थापित करते हैं – जो कि योग का मूल उद्देश्य है।
प्रश्न: 03. नादानुसंधान की अवस्थाओं को संक्षिप्त में समझाइए।
भूमिका
योगशास्त्र में नादानुसंधान एक अत्यंत गूढ़ और सूक्ष्म ध्यान की पद्धति है, जिसका उद्देश्य आंतरिक ध्वनियों (नाद) के माध्यम से आत्मा की अनुभूति प्राप्त करना होता है। ‘नाद’ का अर्थ है ध्वनि, और ‘अनुसंधान’ का अर्थ है खोज या अनुसरण। इस प्रकार नादानुसंधान का आशय है – आंतरिक ध्वनि का अनुसरण करके ध्यान को गहराई में ले जाना।
हठयोग के प्रमुख ग्रंथ हठप्रदीपिका और शिव संहिता में नादानुसंधान को ध्यान की एक सर्वोत्तम विधि के रूप में बताया गया है। यह अभ्यास शरीर के भीतर उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित करने की प्रक्रिया है, जो अंततः साधक को समाधि की ओर ले जाती है।
नादानुसंधान की आवश्यकता
नाद ध्यान का एक ऐसा रूप है, जो:
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मन को स्थिर करता है
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इंद्रियों को अंतर्मुखी बनाता है
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आत्मिक उन्नति में सहायक होता है
जब साधक सांस, शरीर और बाहरी वातावरण से ऊपर उठकर अपने भीतर के स्वर (नाद) को सुनने लगता है, तब नादानुसंधान की यात्रा आरंभ होती है।
नादानुसंधान की अवस्थाएँ
हठप्रदीपिका के अनुसार नादानुसंधान की चार मुख्य अवस्थाएँ बताई गई हैं। यह अवस्थाएँ साधक की आंतरिक ध्वनि के प्रति संवेदनशीलता और साधना की गहराई के अनुसार क्रमशः विकसित होती हैं।
1. आरम्भावस्था (प्रारंभिक अवस्था)
विशेषताएँ:
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इस अवस्था में साधक को विभिन्न प्रकार की मोटी और स्पष्ट ध्वनियाँ सुनाई देती हैं।
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ये ध्वनियाँ बाहरी लग सकती हैं, परन्तु वे अंदर से ही उत्पन्न होती हैं।
उदाहरण:
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मृदंग, डमरू, घण्टा, शंख आदि की ध्वनि
उद्देश्य:
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इस अवस्था में मन को ध्वनि पर एकाग्र करने का अभ्यास होता है।
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बाहरी इंद्रियों की सक्रियता कम होती है और साधक का ध्यान अंतर्मुखी होने लगता है।
2. घटावस्था (मध्यवर्ती अवस्था)
विशेषताएँ:
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इस अवस्था में ध्वनियाँ और अधिक सूक्ष्म हो जाती हैं।
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साधक का मन स्थिर होने लगता है और बाहरी संवेदनाएँ कम हो जाती हैं।
उदाहरण:
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मुरली, वीणा, झंकार, मधुर स्वर
लाभ:
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मानसिक चंचलता कम होती है।
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ध्यान की स्थिति गहरी होने लगती है।
3. परिचयावस्था (गहन अवस्था)
विशेषताएँ:
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साधक को अब ध्वनियाँ सुनाई तो देती हैं, परंतु उनका स्रोत समझ से परे होता है।
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ध्वनियाँ अब बाह्य नहीं, बल्कि चित्त के भीतर गूँजती हैं।
प्रभाव:
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साधक चेतना के सूक्ष्म स्तर पर प्रवेश करता है।
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समय और स्थान का बोध कम हो जाता है।
अनुभव:
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आंतरिक शांति, प्रकाश, और ध्यान की पराकाष्ठा
4. निष्पत्त्यवस्था (समाधि अवस्था)
विशेषताएँ:
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यह नादानुसंधान की अंतिम और उच्चतम अवस्था होती है।
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यहाँ न तो साधक को ध्वनि सुनाई देती है, और न ही कोई विचार उठता है।
स्थिति:
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साधक पूर्णतः निर्विचार अवस्था में होता है – जिसे समाधि कहते हैं।
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आत्मा और परमात्मा का एकत्व अनुभव होता है।
उद्देश्य:
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मुक्ति की ओर प्रस्थान, ब्रह्म के साथ मिलन
निष्कर्ष
नादानुसंधान योग का एक अत्यंत सूक्ष्म, परंतु प्रभावशाली अंग है, जो साधक को आंतरिक यात्रा के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है। इसकी चार अवस्थाएँ — आरम्भावस्था, घटावस्था, परिचयावस्था, और निष्पत्त्यवस्था — साधना की प्रगति का संकेत देती हैं।
इस प्रक्रिया में साधक आंतरिक ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित कर मन को शांत करता है और धीरे-धीरे उसे समाधि की स्थिति प्राप्त होती है। यह साधना केवल धैर्य, नियमित अभ्यास और गुरु मार्गदर्शन से ही संभव होती है।
प्रश्न: 04. घेरंड संहिता के अनुसार भ्रामरी एवं उज्जायी प्राणायाम की विधि एवं लाभ बताइए।
भूमिका
योगशास्त्र में प्राणायाम का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। यह श्वास-प्रश्वास की एक नियंत्रित प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से शरीर में प्राण (जीवन ऊर्जा) का संचार संतुलित होता है। प्राचीन योग ग्रंथों में "घेरंड संहिता" एक विशेष स्थान रखती है, जो सात अंगों के योग की संपूर्ण प्रक्रिया का वर्णन करती है – जिसे "सप्तसाधन" भी कहते हैं।
इस ग्रंथ में विविध प्राणायामों का उल्लेख किया गया है, जिनमें भ्रामरी प्राणायाम और उज्जायी प्राणायाम प्रमुख हैं। ये दोनों प्राणायाम मानसिक एकाग्रता, शांति, और शारीरिक स्वास्थ्य को प्राप्त करने के लिए अत्यंत उपयोगी माने जाते हैं।
भ्रामरी प्राणायाम (Bhramari Pranayama)
विधि
घेरंड संहिता के अनुसार भ्रामरी प्राणायाम की प्रक्रिया इस प्रकार है:
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किसी शांत और स्वच्छ स्थान पर पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएं।
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रीढ़ को सीधा रखें और आँखें बंद कर लें।
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दोनों हाथों की तर्जनी अंगुलियों से कानों को हल्के से बंद करें (इसे 'शणमुखी मुद्रा' भी कहते हैं)।
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अब गहरी सांस लें और श्वास छोड़ते समय मधुमक्खी जैसी गूंजती हुई ध्वनि (भ्रर्रर्र…) उत्पन्न करें।
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यह प्रक्रिया श्वास को धीरे-धीरे छोड़ते हुए पूरी करें।
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इस प्राणायाम को प्रारंभ में 5 से 7 बार करें, फिर अभ्यास बढ़ने पर इसकी संख्या बढ़ाई जा सकती है।
लाभ
मानसिक लाभ:
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मन को शांति और स्थिरता मिलती है।
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तनाव, चिंता और गुस्से को कम करता है।
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ध्यान में सहायक होता है।
शारीरिक लाभ:
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मस्तिष्क की नसों को आराम मिलता है।
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नींद की समस्या में राहत देता है।
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उच्च रक्तचाप को संतुलित करने में सहायक।
आध्यात्मिक लाभ:
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अंतर्मुखी ध्यान को प्रोत्साहित करता है।
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आंतरिक ध्वनि के अनुभव (नाद) की तैयारी करता है।
उज्जायी प्राणायाम (Ujjayi Pranayama)
विधि
घेरंड संहिता में उज्जायी प्राणायाम को श्वास पर नियंत्रण की एक सूक्ष्म तकनीक के रूप में वर्णित किया गया है।
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किसी ध्यान की स्थिति में बैठ जाएं – जैसे पद्मासन, सिद्धासन आदि।
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गले को थोड़ा संकुचित करते हुए नाक से धीरे-धीरे सांस अंदर लें। इस दौरान गले से एक विशेष ध्वनि (साँप की सिसकारी जैसी) उत्पन्न होती है।
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अब सांस को कुछ क्षण रोकें (कुंभक) – यदि संभव हो तो।
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फिर उसी ध्वनि के साथ धीरे-धीरे श्वास को बाहर निकालें।
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इस अभ्यास को दिन में 5 से 10 बार करें। धीरे-धीरे अभ्यास के अनुसार इसकी अवधि और आवृत्ति बढ़ाई जा सकती है।
लाभ
शारीरिक लाभ:
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गले, थायरॉइड और श्वसन प्रणाली को लाभ मिलता है।
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पाचन क्रिया को सुधारता है।
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हृदय गति को नियंत्रित करता है।
मानसिक लाभ:
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मन में शांति और स्थिरता लाता है।
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मानसिक ऊर्जा को जागृत करता है।
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स्मरण शक्ति और ध्यान को बढ़ाता है।
विशेष लाभ:
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गर्मी प्रदान करता है, इसलिए इसे "ऊर्जावान प्राणायाम" कहा जाता है।
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शरीर को भीतर से शुद्ध करता है और टॉक्सिन्स को बाहर निकालता है।
निष्कर्ष
घेरंड संहिता में वर्णित भ्रामरी और उज्जायी प्राणायाम योग के अत्यंत प्रभावशाली साधन हैं। ये न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को बढ़ाते हैं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक रूप से भी व्यक्ति को उन्नत करते हैं।
भ्रामरी जहां आंतरिक ध्वनि के माध्यम से ध्यान को गहराई में ले जाती है, वहीं उज्जायी प्राणायाम शरीर में ऊर्जा का संचार करता है और आंतरिक अंगों को शुद्ध करता है। इन दोनों प्राणायामों का नियमित अभ्यास आधुनिक जीवन की समस्याओं जैसे तनाव, चिंता, अनिद्रा और उच्च रक्तचाप में विशेष लाभकारी सिद्ध हो सकता है।
नियमितता, सही विधि, और सावधानी के साथ इन प्राणायामों का अभ्यास व्यक्ति को एक संतुलित, शांत और सशक्त जीवन प्रदान कर सकता है।
प्रश्न: 05. पंचक्लेश क्या है? समझाइए।
भूमिका
योगदर्शन में “क्लेश” शब्द का अर्थ है – मानसिक और आत्मिक पीड़ा या विक्षोभ। यह वे बाधाएँ हैं जो आत्मा के वास्तविक स्वरूप की अनुभूति में रुकावट डालती हैं। महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योगसूत्र में इन क्लेशों को गहराई से विश्लेषित किया गया है। पतंजलि के अनुसार, मनुष्य की पीड़ाओं का मूल कारण उसके भीतर मौजूद पांच प्रकार के क्लेश (दुखों के मूल कारण) हैं, जिन्हें “पंचक्लेश” कहा गया है।
पंचक्लेश व्यक्ति के मन, बुद्धि और अहंकार पर प्रभाव डालते हैं और उसे आत्म-साक्षात्कार से दूर कर देते हैं। योग की साधना का मुख्य उद्देश्य इन क्लेशों का शमन (दमन) कर व्यक्ति को समाधि की अवस्था तक ले जाना है।
पंचक्लेश की परिभाषा
महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र (साधनपाद – सूत्र 2.3) में लिखा है:
“अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः”
अर्थात् — अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश – ये पाँच क्लेश हैं।
पंचक्लेश का विस्तार
1. अविद्या (अज्ञान)
अर्थ:
यह सबसे मूल क्लेश है, जिससे सभी अन्य क्लेश उत्पन्न होते हैं। अविद्या का अर्थ है – वास्तविकता की गलत समझ।
लक्षण:
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अनित्य को नित्य समझना
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अशुचि को शुचि समझना
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दुःख को सुख मानना
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अनात्मा को आत्मा समझना
प्रभाव:
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व्यक्ति भ्रम में जीता है
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निर्णय और व्यवहार में भूल करता है
2. अस्मिता (अहंकार)
अर्थ:
अहंकार या आत्मबोध में भ्रांति, अर्थात् बुद्धि और आत्मा का अभिन्न भाव मान लेना।
लक्षण:
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"मैं" और "मेरा" की भावना
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अपनी पहचान शरीर, बुद्धि, मन या भूमिका से जोड़ लेना
प्रभाव:
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यह आत्मकेंद्रितता, अभिमान और अलगाव को जन्म देता है
3. राग (आसक्ति)
अर्थ:
इच्छित वस्तुओं, अनुभवों या संबंधों से जुड़ाव।
लक्षण:
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सुखद अनुभवों की पुनरावृत्ति की लालसा
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विषयों में आसक्ति
प्रभाव:
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मोह, लालच, और भटकाव को जन्म देता है
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मनुष्य भूतकाल की सुखद स्मृतियों में उलझा रहता है
4. द्वेष (घृणा)
अर्थ:
अप्रिय वस्तुओं या अनुभवों से घृणा या विरोध।
लक्षण:
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नकारात्मक अनुभवों से बचने की तीव्र इच्छा
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क्रोध, ईर्ष्या और चिड़चिड़ापन
प्रभाव:
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द्वेष मानसिक अशांति, द्वंद्व और आंतरिक संघर्ष को बढ़ाता है
5. अभिनिवेश (मृत्यु का भय)
अर्थ:
मृत्यु का भय या अस्तित्व की रक्षा की प्रवृत्ति।
लक्षण:
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शरीर या जीवन को खोने का डर
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यह भय ज्ञानी और अज्ञानी दोनों में पाया जाता है
प्रभाव:
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साधक साधना के मार्ग में आगे नहीं बढ़ पाता
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भय, चिंता, और सुरक्षा के मोह में फँसा रहता है
पंचक्लेशों का आपसी संबंध
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अविद्या इन सभी क्लेशों की जड़ है।
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अविद्या से अस्मिता उत्पन्न होती है।
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अस्मिता से राग और द्वेष का जन्म होता है।
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राग-द्वेष से अभिनिवेश अर्थात मृत्यु का भय आता है।
इन क्लेशों के कारण ही मनुष्य संसार (माया) में बंध जाता है और जन्म-मृत्यु के चक्र में उलझा रहता है।
क्लेशों का निवारण कैसे हो?
1. अष्टांग योग के अभ्यास से:
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यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के माध्यम से क्लेशों को क्रमशः शांत किया जा सकता है।
2. ज्ञान और विवेक से:
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आत्मा और अनात्मा का भेद जानकर अविद्या का नाश किया जा सकता है।
3. वैराग्य और अभ्यास:
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सांसारिक सुखों से विरक्ति और नियमित साधना से राग-द्वेष शांत होते हैं।
निष्कर्ष
पंचक्लेश योगदर्शन की दृष्टि से मानवीय दुःखों का मूल कारण हैं। ये क्लेश न केवल मानसिक और आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालते हैं, बल्कि जीवन में निरंतर तनाव, द्वंद्व और अशांति पैदा करते हैं। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश – ये पाँचों तत्व मन को अस्थिर बनाते हैं और आत्मसाक्षात्कार से दूर करते हैं।
योग के अभ्यास और आत्मबोध के माध्यम से इन क्लेशों का क्षय संभव है। जब व्यक्ति इन क्लेशों को पहचान कर उनसे ऊपर उठता है, तभी वह सच्चे अर्थों में मुक्त (कैवल्य) की ओर बढ़ता है। यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
प्रश्न: 06. पातंजल योगसूत्र के अनुसार क्रियायोग को संक्षिप्त में समझाइए।
भूमिका
योग के आठ अंगों की चर्चा तो अधिकांश लोग करते हैं, लेकिन योग की साधना का प्रारंभ क्रियायोग से होता है। महर्षि पतंजलि द्वारा रचित “पातंजल योगसूत्र” योगदर्शन का मूल आधार है। इसमें पतंजलि ने साधक की मानसिक, शारीरिक एवं आत्मिक शुद्धि के लिए विविध साधन प्रस्तुत किए हैं, जिनमें से क्रियायोग एक महत्वपूर्ण मार्ग है।
क्रियायोग का उद्देश्य साधक को मानसिक एकाग्रता, शुद्धता और आत्मबोध की ओर अग्रसर करना है। यह साधना में प्रवेश की पहली सीढ़ी है, जिसके बिना ध्यान, समाधि आदि की सिद्धि कठिन मानी जाती है।
क्रियायोग की परिभाषा
पातंजल योगसूत्र (साधनपाद, सूत्र 2.1) में महर्षि पतंजलि कहते हैं:
"तपः स्वाध्याय ईश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः"
अर्थात् — तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान – ये तीन तत्व मिलकर क्रियायोग की रचना करते हैं।
क्रियायोग के तीन अंग
1. तप (आत्मअनुशासन)
अर्थ:
तप का अर्थ है – संयम, साधना और कष्ट सहन करने की क्षमता।
यह शरीर और मन की इंद्रियों को नियंत्रण में रखने की प्रक्रिया है।
विशेषताएँ:
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अनुकूल–प्रतिकूल परिस्थितियों में मन की स्थिरता बनाए रखना।
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नियमित अभ्यास और अनुशासन को बनाए रखना।
लाभ:
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इच्छाओं और वासनाओं पर नियंत्रण।
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आत्मबल, सहनशक्ति और निष्ठा का विकास।
2. स्वाध्याय (आत्मअध्ययन)
अर्थ:
स्वाध्याय का अर्थ है – धार्मिक ग्रंथों, शास्त्रों और मंत्रों का स्व-अध्ययन तथा आत्मनिरीक्षण।
दो रूप:
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शास्त्रों का अध्ययन – जैसे भगवद्गीता, उपनिषद, योगसूत्र आदि का स्वाध्याय।
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मंत्र जप – विशेष रूप से 'ॐ' या ईष्ट देवता के मंत्रों का जाप।
लाभ:
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आत्मज्ञान की प्राप्ति।
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मन की एकाग्रता और विचारों की शुद्धता।
3. ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में समर्पण)
अर्थ:
ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है – अपने समस्त कर्मों और परिणामों को ईश्वर को समर्पित करना।
यह अहंकार का परित्याग और पूर्ण श्रद्धा का भाव है।
विशेषताएँ:
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निष्काम भाव से कार्य करना।
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ईश्वर में आस्था और समर्पण रखना।
लाभ:
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मानसिक शांति और आत्मविश्वास में वृद्धि।
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जीवन के प्रति संतुलित दृष्टिकोण।
क्रियायोग का उद्देश्य
पातंजल योगसूत्र (2.2) के अनुसार:
“समाधि-भावनार्थः क्लेश-तनूकरणार्थश्च”
अर्थात् — क्रियायोग का उद्देश्य है:
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समाधि की भावना को विकसित करना (मन की एकाग्रता एवं शांति की ओर अग्रसर होना)
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क्लेशों को क्षीण करना (अविद्या, राग, द्वेष आदि मानसिक दोषों का नाश करना)
क्रियायोग का महत्व
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यह योगमार्ग की प्रारंभिक, लेकिन अत्यंत मजबूत नींव है।
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यह साधक को आत्मानुशासन, ज्ञान और भक्ति से युक्त करता है।
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यह मन को शुद्ध कर ध्यान एवं समाधि की उन्नत अवस्थाओं के लिए तैयार करता है।
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यह पंचक्लेशों के क्षय में सहायक होता है।
आधुनिक जीवन में क्रियायोग की उपयोगिता
वर्तमान समय में जब व्यक्ति तनाव, असंतुलन और अशांति से जूझ रहा है, तब क्रियायोग उसकी मानसिक एवं आत्मिक शुद्धि का सरल और प्रभावशाली साधन बन सकता है।
-
तप से आत्म-नियंत्रण आता है
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स्वाध्याय से आत्मज्ञान और विवेक जागता है
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ईश्वर प्रणिधान से जीवन में श्रद्धा और समर्पण का विकास होता है
निष्कर्ष
क्रियायोग योग की वह सीढ़ी है जो साधक को आत्मबोध की दिशा में स्थिरता से आगे बढ़ने में सहायता करता है। यह तीन सरल लेकिन गहन साधनों – तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान – के माध्यम से व्यक्ति के भीतर शुद्धता, दृढ़ता और समर्पण की भावना का विकास करता है।
पातंजल योगसूत्र में क्रियायोग को केवल साधना की एक प्रक्रिया नहीं, बल्कि आत्मसाक्षात्कार की यात्रा का प्रारंभिक और आवश्यक पथ माना गया है। इसके अभ्यास से न केवल क्लेशों का क्षय होता है, बल्कि साधक ध्यान, समाधि और कैवल्य की ओर बढ़ता है – जो योग का अंतिम लक्ष्य है।
प्रश्न: 07. श्रीमद्भगवत गीता के अनुसार भक्त के प्रकार बताइए।
भूमिका
श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय दर्शन का एक अद्वितीय ग्रंथ है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धर्म, कर्म, ज्ञान, भक्ति और योग का उपदेश दिया है। गीता में भक्ति को मुक्ति का सबसे सरल, सुलभ और श्रेष्ठ मार्ग बताया गया है। श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि जो भी भक्त भाव से उनकी शरण में आता है, वे उसे निश्चित रूप से स्वीकार करते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भक्तों के चार प्रकार बताए हैं, जो विभिन्न कारणों से उनकी भक्ति करते हैं। यह वर्गीकरण गीता के सप्तम अध्याय (ज्ञान विज्ञान योग) में आया है, जो भक्तों की प्रवृत्तियों और उद्देश्यों के आधार पर उन्हें चार श्रेणियों में विभाजित करता है।
भक्तों के चार प्रकार – श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 7, श्लोक 16)
“चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥”
अर्थात् — हे अर्जुन! चार प्रकार के पुण्यात्मा व्यक्ति मेरी भक्ति करते हैं –
-
आर्त
-
जिज्ञासु
-
अर्थार्थी
-
ज्ञानी
1. आर्त भक्त (पीड़ित भाव से भक्ति करने वाला)
अर्थ:
जो व्यक्ति किसी शारीरिक, मानसिक या सांसारिक कष्ट से पीड़ित होता है और उस दुख से मुक्ति के लिए भगवान की शरण में आता है, वह आर्त भक्त कहलाता है।
विशेषताएँ:
-
यह भक्त ईश्वर को एक सहारा और रक्षक के रूप में देखता है।
-
इसका उद्देश्य कष्ट से छुटकारा पाना होता है।
उदाहरण:
-
जैसे कोई रोगी व्यक्ति भगवान से स्वास्थ्य की प्रार्थना करता है।
-
संकट में पड़ा हुआ व्यक्ति ईश्वर की शरण लेता है।
2. जिज्ञासु भक्त (ज्ञान की जिज्ञासा रखने वाला)
अर्थ:
यह वह भक्त होता है जो संसार, आत्मा, परमात्मा, मोक्ष आदि के रहस्यों को जानने की तीव्र इच्छा रखता है। वह भगवान की भक्ति इसलिए करता है ताकि उसे सत्य का बोध हो।
विशेषताएँ:
-
इसमें धार्मिक जिज्ञासा प्रमुख होती है।
-
यह भक्ति ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से की जाती है।
उदाहरण:
-
जो व्यक्ति वेद, उपनिषद, गीता आदि पढ़कर परम सत्य को जानने की लालसा रखता है।
3. अर्थार्थी भक्त (सांसारिक लाभ की इच्छा रखने वाला)
अर्थ:
जो भक्त भगवान से धन, पद, संतान, सुख-संपत्ति आदि सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए भक्ति करता है, उसे अर्थार्थी भक्त कहते हैं।
विशेषताएँ:
-
यह भक्त अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ईश्वर की स्तुति करता है।
-
इसका उद्देश्य सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति होता है।
उदाहरण:
-
जैसे किसी छात्र का परीक्षा में पास होने के लिए प्रार्थना करना।
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व्यवसायी का धन लाभ हेतु भगवान से याचना करना।
4. ज्ञानी भक्त (सच्चे ज्ञान से युक्त भक्त)
अर्थ:
यह भक्त भगवान को ही सबकुछ मानता है, उसे ईश्वर से कोई सांसारिक लाभ नहीं चाहिए। वह भगवान को आत्मा का परम स्वरूप मानकर निःस्वार्थ भाव से प्रेम करता है।
विशेषताएँ:
-
यह भक्त निष्काम भाव से केवल ईश्वर के प्रेम में लीन रहता है।
-
इसे ईश्वर और आत्मा में कोई भेद नहीं लगता।
श्रीकृष्ण का मत:
“प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥”
(गीता – अध्याय 7, श्लोक 17)
अर्थात् – ज्ञानी भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है और मैं भी उसे अत्यंत प्रिय हूँ।
चारों भक्तों की तुलना
प्रकार | उद्देश्य | भावना | उदाहरण |
---|---|---|---|
आर्त | कष्ट से मुक्ति | रक्षक भाव | बीमार व्यक्ति |
जिज्ञासु | सत्य को जानना | खोजी भाव | दार्शनिक साधक |
अर्थार्थी | सांसारिक लाभ | स्वार्थ भाव | धन/संतान की इच्छा रखने वाला |
ज्ञानी | आत्मा-परमात्मा का एकत्व | निःस्वार्थ प्रेम | पूर्ण समर्पित भक्त |
निष्कर्ष
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट किया है कि सभी प्रकार के भक्त उनके लिए प्रिय हैं, क्योंकि वे सभी धर्म, विश्वास और भक्ति के मार्ग पर हैं। किंतु ज्ञानी भक्त सबसे श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि वह निःस्वार्थ, निष्काम और पूर्ण समर्पण भाव से भक्ति करता है।
सभी भक्त किसी न किसी रूप में ईश्वर की ओर अग्रसर होते हैं। प्रारंभ में भले ही उनकी भक्ति स्वार्थयुक्त हो, लेकिन निरंतर साधना के माध्यम से वे ज्ञानी की अवस्था की ओर बढ़ सकते हैं। यही गीता का संदेश है – भक्ति का कोई भी प्रारूप हो, यदि वह श्रद्धा और विश्वास से की जाए तो वह निश्चित रूप से परम लक्ष्य की ओर ले जाती है।
प्रश्न: 08. घेरंड संहिता के अनुसार कपालभाति क्रिया के प्रकार एवं लाभ बताइए।
भूमिका
योगशास्त्र में शुद्धि क्रियाओं का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि ये शरीर और मन की गहराई से शुद्धि करती हैं। घेरंड संहिता, जो कि हठयोग के प्रमुख ग्रंथों में से एक है, उसमें षटकर्म (छह शुद्धि क्रियाएँ) का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन षटकर्मों में से एक प्रमुख क्रिया है — कपालभाति।
"कपालभाति" शब्द दो भागों से बना है:
-
कपाल = माथा या मस्तिष्क
-
भाति = प्रकाश या चमक
इसका शाब्दिक अर्थ है – मस्तिष्क को प्रकाशित करने वाली क्रिया। यह क्रिया ना केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक रूप से भी अत्यंत प्रभावशाली मानी जाती है।
कपालभाति का उल्लेख – घेरंड संहिता (अध्याय 1, श्लोक 14)
“धौतिर् भस्त्रि स्तथैव कपालभातिश्च नेति च।
त्राटकं नौलिका चेति षट्कर्माणि प्रचक्षते॥”
अर्थात – धौति, भस्त्रिका, कपालभाति, नेति, त्राटक और नौलि – ये षटकर्म की छह क्रियाएँ हैं।
कपालभाति के प्रकार (घेरंड संहिता के अनुसार)
घेरंड संहिता और परंपरागत योगशास्त्रों में कपालभाति के मुख्यतः तीन प्रकार माने गए हैं:
1. वातक्रिया कपालभाति
विधि:
-
इसमें जोर-जोर से सांस को नाक से बाहर फेंका जाता है।
-
श्वास का निष्कासन बलपूर्वक होता है, जबकि श्वास लेना सामान्य रूप से होता है।
-
पेट की मांसपेशियों को सक्रिय रूप से अंदर की ओर खींचा जाता है।
उद्देश्य:
-
शरीर से वायु दोष को बाहर निकालना।
लाभ:
-
श्वसन तंत्र को मजबूत करता है।
-
मस्तिष्क की कार्यक्षमता को बढ़ाता है।
2. व्युत्क्रमा कपालभाति
विधि:
-
इसमें जल को नाक के माध्यम से खींचकर मुंह से बाहर निकाला जाता है।
-
यह नेति क्रिया की एक विशेष विधि जैसी होती है।
उद्देश्य:
-
नासिका मार्ग की सफाई और ब्रेन को शीतलता प्रदान करना।
लाभ:
-
सिरदर्द, सर्दी-जुकाम, एलर्जी में राहत।
-
मन को ठंडक और स्थिरता मिलती है।
3. शीतकर्मा कपालभाति
विधि:
-
इसमें ठंडी हवा को मुंह से अंदर लिया जाता है और नाक से बाहर छोड़ा जाता है।
-
यह क्रिया शरीर को शीतलता प्रदान करती है।
उद्देश्य:
-
शरीर की अधिक गर्मी को संतुलित करना।
लाभ:
-
शरीर को ठंडक देता है, त्वचा में चमक आती है।
-
जठराग्नि संतुलित होती है और पेट के रोगों में लाभ होता है।
कपालभाति के सामान्य लाभ
1. शारीरिक लाभ:
-
पाचन तंत्र को सशक्त करता है।
-
वजन घटाने में सहायक।
-
कब्ज, गैस, एसिडिटी जैसे विकारों में लाभदायक।
-
हृदय और फेफड़ों की क्षमता में वृद्धि करता है।
2. मानसिक लाभ:
-
मस्तिष्क को ऊर्जा और शांति प्रदान करता है।
-
एकाग्रता बढ़ाता है।
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तनाव, चिंता और मानसिक थकान को कम करता है।
3. सौंदर्य एवं ऊर्जा:
-
चेहरे पर चमक आती है।
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त्वचा की झाइयाँ और मुंहासे कम होते हैं।
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शरीर में ऊर्जा और सक्रियता का संचार होता है।
अभ्यास संबंधी सावधानियाँ
-
गर्भवती महिलाएं, उच्च रक्तचाप और हृदय रोगी इसे चिकित्सकीय सलाह के बिना न करें।
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कपालभाति खाली पेट करें।
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अधिक जोर से या अत्यधिक समय तक न करें — अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाएँ।
निष्कर्ष
कपालभाति क्रिया, घेरंड संहिता में वर्णित षटकर्मों में एक अत्यंत प्रभावशाली शुद्धि प्रक्रिया है, जो शरीर, मन और मस्तिष्क तीनों को शुद्ध और सक्रिय करती है। इसके तीन प्रकार — वातक्रिया, व्युत्क्रमा और शीतकर्मा — शरीर की अलग-अलग समस्याओं के समाधान हेतु उपयुक्त हैं।
यदि नियमित रूप से और सही विधि से इसका अभ्यास किया जाए, तो यह न केवल रोगों से रक्षा करता है, बल्कि एक शांत, सशक्त और तेजस्वी जीवन की ओर भी मार्ग प्रशस्त करता है।
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