GEYS-01 SOLVED PAPER JUNE 2024

 GEYS-01 SOLVED PAPER JUNE 2024



LONG ANSWER TYPE QUESTIONS 


01. वर्तमान परिदृश्य में योग के महत्व पर एक निबंध लिखिए।




भूमिका


योग भारत की प्राचीन परंपरा का एक अभिन्न हिस्सा है, जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में सहायक है। वर्तमान समय में, जब जीवनशैली में तनाव, प्रदूषण और असंतुलित खान-पान की समस्या बढ़ रही है, योग का महत्व पहले से अधिक बढ़ गया है। योग न केवल शरीर को स्वस्थ रखता है बल्कि मानसिक शांति और आत्म-संतुलन प्रदान करता है।


योग का वर्तमान संदर्भ में महत्व


शारीरिक स्वास्थ्य के लिए योग

योग का नियमित अभ्यास शरीर को लचीला, सशक्त और ऊर्जावान बनाता है। यह रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है और हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा, उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों से बचाव करता है। वर्तमान समय में, जब लोग जंक फूड और अनियमित दिनचर्या के कारण बीमारियों का शिकार हो रहे हैं, योग एक प्रभावी समाधान प्रदान करता है।


मानसिक स्वास्थ्य और योग

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में मानसिक तनाव, अवसाद और चिंता जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं। योग, विशेष रूप से प्राणायाम और ध्यान (मेडिटेशन), मानसिक शांति प्रदान करता है। यह तनाव को कम करने, एकाग्रता बढ़ाने और आत्म-नियंत्रण विकसित करने में सहायक है।


रोग प्रतिरोधक क्षमता और योग

कोरोना महामारी के दौरान योग की महत्ता और भी अधिक स्पष्ट हुई। इस कठिन समय में योग ने लोगों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद की। "अनुलोम-विलोम," "भस्त्रिका," और "कपालभाति" जैसे प्राणायाम श्वसन तंत्र को मजबूत बनाते हैं, जिससे शरीर विषाणुओं और बैक्टीरिया से लड़ने में सक्षम बनता है।


आध्यात्मिक और नैतिक विकास

योग केवल एक शारीरिक व्यायाम नहीं है, बल्कि यह आत्म-जागरूकता और आत्म-विकास का माध्यम भी है। यह व्यक्ति को नैतिक मूल्यों, अनुशासन और संयम का पाठ पढ़ाता है। योग का अभ्यास करने से व्यक्ति के विचारों में सकारात्मकता आती है और वह दूसरों के प्रति अधिक दयालु बनता है।


आधुनिक जीवनशैली में योग की आवश्यकता

आज की डिजिटल दुनिया में लोग शारीरिक श्रम कम करते हैं और अधिकतर समय मोबाइल, कंप्यूटर और टीवी के सामने बिताते हैं। इससे आंखों की समस्या, पीठ दर्द, मोटापा और तनाव जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। योग इन समस्याओं को कम करने में सहायक है। "सूर्य नमस्कार," "भुजंगासन," और "वृक्षासन" जैसे योगासन शरीर को फिट रखते हैं और ऊर्जा प्रदान करते हैं।


वैश्विक स्तर पर योग का प्रभाव


भारत सरकार द्वारा योग को विश्व स्तर पर प्रचारित करने के प्रयासों के फलस्वरूप 21 जून को "अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" के रूप में मनाया जाता है। इससे न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में योग की लोकप्रियता बढ़ी है। कई देशों में योग चिकित्सा के रूप में अपनाया जा रहा है और इसे आधुनिक चिकित्सा पद्धति के पूरक के रूप में देखा जा रहा है।


निष्कर्ष


वर्तमान समय में योग केवल एक प्राचीन परंपरा नहीं, बल्कि जीवनशैली का एक अभिन्न अंग बन गया है। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के साथ-साथ आध्यात्मिक शांति भी प्रदान करता है। बदलते समय के साथ योग का महत्व और भी बढ़ता जा रहा है। प्रत्येक व्यक्ति को इसे अपने दैनिक जीवन में अपनाना चाहिए ताकि वह न केवल स्वस्थ और संतुलित जीवन जी सके, बल्कि समाज में भी सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर सके।




02. योग के अर्थ को स्पष्ट करते हुए उपनिषदों में योग के स्वरूप का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिए।




भूमिका


योग भारतीय आध्यात्मिक परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग है, जो आत्मा, मन और शरीर को संतुलित करने की प्रक्रिया है। यह केवल शारीरिक व्यायाम तक सीमित नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति का भी साधन है। उपनिषदों में योग का विस्तृत वर्णन मिलता है, जहाँ इसे आत्म-साक्षात्कार, मोक्ष और ब्रह्म के साथ एकत्व प्राप्त करने का मार्ग बताया गया है।


योग का अर्थ


संस्कृत शब्द "योग" की व्युत्पत्ति "युज" धातु से हुई है, जिसका अर्थ है "जोड़ना" या "समाधान"। योग आत्मा और परमात्मा के मिलन की प्रक्रिया को दर्शाता है। यह साधक को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से उन्नत करता है। भारतीय दर्शन में योग को केवल आसनों तक सीमित न रखकर इसे जीवन का एक साधन माना गया है।


उपनिषदों में योग का स्वरूप


उपनिषद भारतीय दर्शन का महत्वपूर्ण अंग हैं, जिनमें योग का दार्शनिक और आध्यात्मिक पक्ष विस्तृत रूप से वर्णित है। योग को मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया गया है। उपनिषदों में योग के निम्नलिखित प्रमुख स्वरूपों का उल्लेख मिलता है—


1. कर्मयोग (Karma Yoga)


ईशोपनिषद में कर्मयोग की अवधारणा दी गई है, जिसमें कहा गया है कि बिना आसक्ति के कर्म करने से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।


"तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः" का तात्पर्य यह है कि त्याग और निष्काम कर्म ही योग का वास्तविक स्वरूप है।


2. ज्ञानयोग (Jnana Yoga)


बृहदारण्यक उपनिषद और छांदोग्य उपनिषद में ज्ञानयोग पर विशेष बल दिया गया है।


आत्मा और ब्रह्म के ज्ञान के द्वारा मुक्ति संभव है। "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) और "तत्त्वमसि" (तू वही है) जैसे महावाक्य ज्ञानयोग की प्रमुख अवधारणाएँ हैं।


3. भक्तियोग (Bhakti Yoga)


श्वेताश्वतर उपनिषद में भक्तियोग का उल्लेख मिलता है।


इसमें कहा गया है कि ईश्वर में अटूट भक्ति और समर्पण से मोक्ष की प्राप्ति संभव है।


"यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" का तात्पर्य यह है कि भक्ति के माध्यम से ही परम सत्य की प्राप्ति संभव है।


4. ध्यानयोग (Dhyana Yoga)


माण्डूक्य उपनिषद और कैवल्य उपनिषद में ध्यानयोग को महत्वपूर्ण साधन बताया गया है।


इसमें बताया गया है कि मन की एकाग्रता और ध्यान के द्वारा आत्म-साक्षात्कार किया जा सकता है।


"ओम् इत्येतदक्षरं ब्रह्म" का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ओंकार का ध्यान परम सत्य की प्राप्ति का मार्ग है।


5. हठयोग (Hatha Yoga)


योगतत्वोपनिषद में हठयोग का उल्लेख मिलता है।


इसमें बताया गया है कि आसन, प्राणायाम और बंधों के माध्यम से शरीर और मन को नियंत्रण में रखा जा सकता है।


हठयोग का उद्देश्य शरीर को शुद्ध करना और मन को ध्यान के लिए तैयार करना है।


योग के अभ्यास के लिए उपनिषदों में वर्णित प्रमुख साधन


1. प्राणायाम


श्वेताश्वतर उपनिषद में बताया गया है कि श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करके आत्मा को जाग्रत किया जा सकता है।


"प्राणायामेन युक्तेन सर्वं शुद्ध्यन्ति योगिनः"—प्राणायाम के माध्यम से शरीर और मन की शुद्धि होती है।


2. ध्यान और समाधि


कैवल्य उपनिषद में ध्यान की महत्ता बताते हुए कहा गया है कि ध्यान से आत्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है।


"ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति"—ध्यान गुरु का स्वरूप है और इससे आत्म-साक्षात्कार संभव है।


3. आत्मसंयम और सदाचार


छांदोग्य उपनिषद में बताया गया है कि संयम और नैतिकता के बिना योग संभव नहीं है।


सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, तप और शौच को योग का आधार माना गया है।


निष्कर्ष


उपनिषदों में योग को केवल एक साधना पद्धति नहीं, बल्कि मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया गया है। इसमें ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग और हठयोग के विभिन्न रूपों का उल्लेख मिलता है। उपनिषदों के अनुसार, योग केवल शरीर को स्वस्थ रखने का माध्यम नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन का मार्ग है। अतः योग का अनुसरण करने से व्यक्ति न केवल शारीरिक और मानसिक रूप से सशक्त बनता है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति भी प्राप्त करता है।




03. कर्मयोग से आप क्या समझते है कर्मयोग का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिए।



भूमिका


भारतीय दर्शन में योग के विभिन्न मार्गों का उल्लेख किया गया है, जिनमें कर्मयोग (Karma Yoga) एक प्रमुख मार्ग है। यह निष्काम कर्म (स्वार्थ रहित कर्म) का सिद्धांत है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में विशेष रूप से समझाया है। कर्मयोग का उद्देश्य व्यक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्त करते हुए आध्यात्मिक उन्नति प्रदान करना है। यह साधना का एक ऐसा मार्ग है, जिसमें व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ता है।


कर्मयोग का अर्थ


संस्कृत में "कर्म" का अर्थ है "किया गया कार्य" और "योग" का अर्थ है "मिलन"। इस प्रकार, कर्मयोग का अर्थ है—कर्म के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करना। यह किसी भी कार्य को बिना किसी स्वार्थ या फल की चिंता किए करने की विधि है।


भगवद्गीता (अध्याय 2, श्लोक 47) में श्रीकृष्ण कहते हैं:


"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।"


अर्थात्—मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं। इसलिए फल की चिंता किए बिना अपना कर्तव्य निभाना ही कर्मयोग है।


कर्मयोग के प्रमुख सिद्धांत


1. निष्काम कर्म (Nishkam Karma)


कर्मयोग का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि व्यक्ति को बिना किसी स्वार्थ या फल की अपेक्षा के कार्य करना चाहिए। जब व्यक्ति किसी कार्य को केवल अपने कर्तव्य के रूप में करता है और उसमें किसी प्रकार का लोभ या व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं होता, तो वह कर्मयोग कहलाता है।


2. समत्वभाव (Samattva Bhava)


श्रीकृष्ण के अनुसार, सफलता और असफलता, लाभ और हानि, सुख और दुःख में समान भाव रखना ही कर्मयोग है। जब कोई व्यक्ति बिना किसी मानसिक तनाव के अपने कर्म करता है, तो वह आध्यात्मिक रूप से आगे बढ़ता है।


3. कर्तव्य पालन (Duty-Oriented Action)


भगवद्गीता में कर्मयोग को धर्म और कर्तव्य से जोड़कर देखा गया है। व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा के साथ करना चाहिए, चाहे वह समाज, परिवार या राष्ट्र के प्रति हो।


4. ईश्वर अर्पण भाव (Dedication to God)


कर्मयोग में किए गए कार्य को ईश्वर को समर्पित करने की भावना रखनी चाहिए। जब व्यक्ति अपने कर्मों को प्रभु को अर्पित करता है, तो अहंकार और ममता समाप्त हो जाती है और वह मुक्ति के मार्ग पर बढ़ता है।


5. लोकसंग्रह (Welfare of Society)


कर्मयोग का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत मोक्ष नहीं, बल्कि समाज की भलाई करना भी है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया कि एक सच्चा कर्मयोगी वही है जो दूसरों की भलाई के लिए कार्य करता है और समाज की सेवा में समर्पित रहता है।


कर्मयोग के लाभ


1. मानसिक शांति और संतुलन


कर्मयोग व्यक्ति को मानसिक शांति प्रदान करता है क्योंकि वह किसी भी कार्य को फल की चिंता किए बिना करता है।


2. आत्मा की शुद्धि


जब व्यक्ति स्वार्थ और अहंकार से मुक्त होकर कार्य करता है, तो उसकी आत्मा शुद्ध होती है और वह मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।


3. कार्यक्षमता में वृद्धि


फल की चिंता से मुक्त होकर कार्य करने से व्यक्ति की एकाग्रता और कार्यक्षमता बढ़ती है।


4. सामाजिक कल्याण


कर्मयोग का अभ्यास करने वाले व्यक्ति न केवल स्वयं का उत्थान करते हैं, बल्कि समाज की भलाई के लिए भी कार्य करते हैं।


कर्मयोग का उपनिषदों और गीता में वर्णन


1. उपनिषदों में कर्मयोग


ईशोपनिषद: "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः"—त्यागपूर्वक कर्म करने का महत्व बताया गया है।


कठोपनिषद: इसमें कर्म और आत्मा के संबंध को स्पष्ट किया गया है।


2. भगवद्गीता में कर्मयोग


भगवद्गीता के विभिन्न श्लोकों में कर्मयोग का वर्णन किया गया है, जैसे:


अध्याय 3, श्लोक 19:

"तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।"

(अतः बिना आसक्ति के निरंतर कर्तव्य का पालन करो, क्योंकि ऐसा करने से व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त करता है।)


अध्याय 5, श्लोक 10:

"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।"

(जो व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देता है और आसक्ति को त्याग देता है, वह पाप से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है जैसे जल में कमल का पत्ता।)


कर्मयोग और अन्य योगमार्गों की तुलना


कर्मयोग को अन्य योगमार्गों का आधार माना गया है। यह सामान्य व्यक्ति के लिए सबसे सरल और व्यावहारिक साधना मार्ग है।


निष्कर्ष


कर्मयोग भारतीय दर्शन और गीता का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो बताता है कि जीवन में कर्म तो करना ही होगा, लेकिन फल की इच्छा को छोड़कर किया गया कर्म ही मोक्ष का मार्ग है। वर्तमान समय में भी, जब लोग तनाव, चिंता और अस्थिरता से ग्रसित हैं, कर्मयोग का पालन मानसिक शांति और आत्मिक उत्थान प्रदान कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को इसे अपने जीवन में अपनाकर समाज और स्वयं के कल्याण के लिए कार्य करना चाहिए।




04. अन्तरंग योग पर एक निबंध लिखिए।




भूमिका


योग भारतीय आध्यात्मिक परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग है, जो शरीर, मन और आत्मा को संतुलित करने का माध्यम है। योग को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया गया है—बहिरंग योग (बाह्य साधन) और अन्तरंग योग (आंतरिक साधन)। बहिरंग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम शामिल होते हैं, जबकि अन्तरंग योग ध्यान, धारणा और समाधि पर केंद्रित होता है। अन्तरंग योग व्यक्ति के मानसिक और आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है और उसे परमात्मा से जोड़ने में सहायता करता है।


अन्तरंग योग का अर्थ


संस्कृत में "अन्तरंग" का अर्थ है "आंतरिक" और "योग" का अर्थ है "जोड़ना" या "समाधान"। इस प्रकार, अन्तरंग योग वह साधना है, जिसमें व्यक्ति अपनी आत्मा की गहराइयों में प्रवेश करके आत्मसाक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास करता है। यह योग का गूढ़ और उच्चतम स्तर है, जिसमें मन, इंद्रियों और विचारों पर नियंत्रण पाया जाता है।


पतंजलि के अष्टांग योग में अन्तिम तीन अंग—धारणा, ध्यान और समाधि—को अन्तरंग योग कहा गया है। ये तीनों चरण साधक को आंतरिक शुद्धि और आत्मा की उच्च अवस्था तक पहुँचाने में सहायक होते हैं।


अन्तरंग योग के प्रमुख चरण


1. धारणा (Concentration)


धारणा का अर्थ है—मन को एक निश्चित बिंदु या विषय पर केंद्रित करना।


इसमें व्यक्ति अपने चित्त को किसी मंत्र, ध्यान केंद्र, ईश्वर, या आत्मा पर स्थिर करता है।


योग सूत्र में कहा गया है—"देशबन्धश्चित्तस्य धारणा" अर्थात मन को किसी एक स्थान पर रोकना ही धारणा है।


यह एकाग्रता विकसित करता है और मन को बाहरी विक्षेपों से मुक्त करता है।


2. ध्यान (Meditation)


ध्यान का अर्थ है—लंबे समय तक मन को एक ही वस्तु, विचार या ईश्वर पर केंद्रित रखना।


यह धारणा से अगला चरण है, जिसमें व्यक्ति अपने चित्त को पूर्ण शांति और स्थिरता की अवस्था में रखता है।


श्रीमद्भगवद्गीता में ध्यान को "योगस्थ: कुरु कर्माणि" के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका तात्पर्य है कि ध्यानस्थ रहकर अपने कर्मों का पालन करना चाहिए।


ध्यान मानसिक शांति प्रदान करता है और आत्मिक चेतना को जागृत करता है।


3. समाधि (Self-Realization)


समाधि अन्तरंग योग का अंतिम और सर्वोच्च चरण है।


यह वह अवस्था है, जिसमें साधक आत्मा और परमात्मा के मिलन का अनुभव करता है।


पतंजलि योग सूत्र में समाधि को दो भागों में विभाजित किया गया है—


सविकल्प समाधि—इसमें ध्यान के दौरान मन में कुछ न कुछ विचार बना रहता है।


निर्विकल्प समाधि—इसमें मन पूरी तरह से विचारशून्य और शांत हो जाता है।


समाधि की अवस्था में व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार कर सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।


अन्तरंग योग का महत्व


1. मानसिक शांति और संतुलन


अन्तरंग योग व्यक्ति के मन को पूर्ण रूप से शांत और स्थिर बनाता है। इससे तनाव, चिंता और अवसाद जैसी समस्याओं का समाधान होता है।


2. आत्मज्ञान और आत्मसाक्षात्कार


अन्तरंग योग का मुख्य उद्देश्य आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना है। यह साधक को आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।


3. इंद्रिय-नियंत्रण और अनुशासन


यह योग व्यक्ति को अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखने और संयमित जीवन जीने की प्रेरणा देता है।


4. आध्यात्मिक उन्नति और मोक्ष प्राप्ति


समाधि की अवस्था में साधक आत्मा और परमात्मा के मिलन का अनुभव करता है, जिससे उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।


अन्तरंग योग और आधुनिक जीवन


आज की भागदौड़ भरी दुनिया में लोग मानसिक तनाव, अवसाद और अशांति से ग्रस्त हैं। अन्तरंग योग इन समस्याओं को दूर करने का एक प्रभावी उपाय है। विभिन्न वैज्ञानिक शोधों ने यह सिद्ध किया है कि ध्यान और समाधि के अभ्यास से मस्तिष्क की कार्यक्षमता बढ़ती है, एकाग्रता में सुधार होता है और भावनात्मक स्थिरता मिलती है।


आधुनिक जीवनशैली में अन्तरंग योग के अभ्यास से व्यक्ति अपने कार्यों में अधिक कुशल बन सकता है और मानसिक रूप से अधिक मजबूत रह सकता है।


निष्कर्ष


अन्तरंग योग केवल आध्यात्मिक मार्ग नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक स्थिरता प्राप्त करने का भी साधन है। यह आत्म-जागरूकता, आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। आज के समय में, जब बाहरी विक्षेप अधिक हैं, अन्तरंग योग का अभ्यास व्यक्ति को आंतरिक शांति और संतुलन प्रदान कर सकता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को इसे अपने जीवन में अपनाकर आत्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर होना चाहिए।




05. महर्षि अरविंद का जीवन परिचय लिखते हुए वर्तमान परिदृश्य में महर्षि अरविंद के विचारों की प्रासंगिकता का वर्णन कीजिए।




भूमिका


महर्षि अरविंद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी, योगी, दार्शनिक और कवि थे। वे केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के पक्षधर नहीं थे, बल्कि भारत के आध्यात्मिक पुनर्जागरण के भी प्रवर्तक थे। उनके विचार और शिक्षाएँ न केवल उनके समय में बल्कि आज के सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में भी अत्यंत प्रासंगिक हैं।


महर्षि अरविंद का जीवन परिचय


1. प्रारंभिक जीवन और शिक्षा


महर्षि अरविंद का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता (तत्कालीन बंगाल) में हुआ था।


उनके पिता डॉ. कृष्णधन घोष एक प्रसिद्ध चिकित्सक थे और वे चाहते थे कि अरविंद पूरी तरह से पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करें।


मात्र 7 वर्ष की आयु में अरविंद को इंग्लैंड भेज दिया गया, जहाँ उन्होंने सेंट पॉल स्कूल, लंदन और किंग्स कॉलेज, कैम्ब्रिज में शिक्षा प्राप्त की।


वे एक मेधावी छात्र थे और भारतीय सिविल सेवा (ICS) की परीक्षा भी उत्तीर्ण की, लेकिन घुड़सवारी परीक्षा में अनुपस्थित रहने के कारण सरकारी सेवा में नहीं जा सके।


2. भारत वापसी और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान


1893 में भारत लौटने के बाद वे बड़ौदा राज्य की सेवा में कार्यरत हुए और भारतीय संस्कृति तथा आध्यात्मिकता का अध्ययन किया।


1905 के बंग-भंग आंदोलन के दौरान वे स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गए और ब्रिटिश शासन के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाने लगे।


उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ नामक समाचार पत्र का संपादन किया और ब्रिटिश सरकार की नीतियों की कड़ी आलोचना की।


1908 में उन्हें अलीपुर बम केस के अंतर्गत जेल भेजा गया, जहाँ उन्होंने गीता, उपनिषदों और वेदों का गहन अध्ययन किया।


3. आध्यात्मिक जीवन और पांडिचेरी गमन


जेल में रहते हुए उन्हें दिव्य अनुभव हुए, जिसके बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास लेकर आध्यात्मिक साधना का मार्ग अपनाया।


1910 में वे पांडिचेरी (अब पुडुचेरी) चले गए और वहाँ योग तथा ध्यान में लीन हो गए।


उन्होंने ‘इंटीग्रल योग’ (संपूर्ण योग) की अवधारणा दी, जो आध्यात्मिक उन्नति के साथ जीवन के हर क्षेत्र में विकास का मार्ग दिखाती है।


1926 में उन्होंने श्री अरविंद आश्रम की स्थापना की, जहाँ उनके शिष्य आध्यात्मिक मार्ग पर चलने लगे।


5 दिसंबर 1950 को उन्होंने समाधि ग्रहण कर लिया।


महर्षि अरविंद के प्रमुख विचार


1. संपूर्ण योग (Integral Yoga)


महर्षि अरविंद ने योग को केवल व्यक्तिगत मुक्ति तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान का साधन बताया।


उनका संपूर्ण योग जीवन के सभी पहलुओं—शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक—का समन्वय करता है।


2. आध्यात्मिक राष्ट्रवाद (Spiritual Nationalism)


वे मानते थे कि भारत केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक शक्ति है।


उन्होंने भारत को ‘विश्वगुरु’ बनाने का सपना देखा और स्वतंत्रता संग्राम को एक आध्यात्मिक आंदोलन के रूप में देखा।


3. उन्नत चेतना और दिव्य जीवन (Higher Consciousness and Divine Life)


उनके अनुसार, मनुष्य केवल भौतिक शरीर नहीं, बल्कि एक उच्च चेतना से युक्त प्राणी है, जिसे दिव्यता की ओर बढ़ना चाहिए।


उन्होंने ‘दिव्य जीवन’ की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसमें मनुष्य को आत्मोन्नति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।


4. शिक्षा का आध्यात्मिक स्वरूप


वे शिक्षा को केवल रोजगार प्राप्त करने का साधन नहीं, बल्कि व्यक्तित्व के समग्र विकास का माध्यम मानते थे।


उनके अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास होना चाहिए।


5. मानवता और वैश्विक एकता (Human Unity and Global Harmony)


महर्षि अरविंद का विचार था कि संपूर्ण मानव जाति को भेदभाव से ऊपर उठकर एकता की ओर बढ़ना चाहिए।


वे ‘विश्व-राज्य’ की अवधारणा के समर्थक थे, जिसमें समस्त मानव जाति शांति और प्रेम के साथ रह सके।


वर्तमान परिदृश्य में महर्षि अरविंद के विचारों की प्रासंगिकता


1. आध्यात्मिक राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति


आज जब भारत आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ओर बढ़ रहा है, महर्षि अरविंद के विचार अत्यंत प्रासंगिक हो गए हैं।


उनके द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जागरण का भी प्रतीक है।


2. शिक्षा में आध्यात्मिकता का समावेश


आज की आधुनिक शिक्षा प्रणाली में नैतिकता और मूल्यों की कमी देखी जा रही है।


महर्षि अरविंद का शिक्षा दर्शन हमें बताता है कि शिक्षा केवल सूचनाओं का संकलन नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण और आत्मविकास का माध्यम होनी चाहिए।


3. वैश्विक एकता और शांति


वर्तमान समय में जब दुनिया आतंकवाद, युद्ध और सांप्रदायिक तनाव से ग्रस्त है, अरविंद की ‘मानव एकता’ की अवधारणा और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।


उनका विचार था कि भौतिक समृद्धि के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति पर भी ध्यान देना आवश्यक है।


4. संपूर्ण योग और मानसिक स्वास्थ्य


आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में तनाव, अवसाद और मानसिक विकार बढ़ते जा रहे हैं।


महर्षि अरविंद का ‘संपूर्ण योग’ व्यक्ति को मानसिक शांति, आत्मबल और संतुलित जीवन प्रदान करने में सहायक हो सकता है।


5. आत्मनिर्भर भारत और नवोन्मेष


महर्षि अरविंद ने कहा था कि भारत को केवल पश्चिमी नीतियों का अनुकरण नहीं करना चाहिए, बल्कि अपनी मौलिकता को बनाए रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।


आज भारत विज्ञान, प्रौद्योगिकी और आध्यात्मिकता के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की ओर अग्रसर है, जो उनके विचारों की प्रासंगिकता को सिद्ध करता है।


निष्कर्ष


महर्षि अरविंद केवल एक दार्शनिक या योगी नहीं थे, बल्कि वे एक महान क्रांतिकारी, शिक्षाविद् और आध्यात्मिक चिंतक थे। उनके विचार न केवल स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बल्कि वर्तमान समय में भी अत्यंत प्रासंगिक हैं। भारत के आध्यात्मिक पुनर्जागरण, वैश्विक एकता, शिक्षा सुधार और योग के प्रसार में उनकी शिक्षाएँ मार्गदर्शक के रूप में कार्य कर सकती हैं। आज की दुनिया, जो भौतिकता में उलझी हुई है, को महर्षि अरविंद के विचारों को अपनाकर आत्मिक विकास की ओर बढ़ना चाहिए।


SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS 

01. योग के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।

परिचय:
योग एक प्राचीन भारतीय जीवनशैली और आध्यात्मिक साधना है, जिसका उद्देश्य शरीर, मन और आत्मा को संतुलित करना है। यह न केवल शारीरिक व्यायाम है, बल्कि मानसिक और आत्मिक शांति प्राप्त करने का भी एक साधन है।

योग का शाब्दिक अर्थ:
संस्कृत में "योग" शब्द की उत्पत्ति "युज" धातु से हुई है, जिसका अर्थ है "जोड़ना" या "एकीकृत करना"। इसका आशय व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा को एक साथ जोड़कर परमात्मा से एकाकार करना है।

योग की परिभाषाएँ:

पतंजलि के अनुसार: महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में योग को परिभाषित किया है—
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः", जिसका अर्थ है कि योग मन की चंचल वृत्तियों को नियंत्रित करने की प्रक्रिया है।

भगवद गीता में: श्रीकृष्ण ने कहा है—
"योगः कर्मसु कौशलम्", यानी योग जीवन में कुशलता और संतुलन लाने का मार्ग है।

उपनिषदों में: योग को आत्मा और परमात्मा के मिलन का साधन बताया गया है।

योग के मुख्य उद्देश्य:

शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को सुधारना

आत्मज्ञान और मोक्ष प्राप्त करना

ध्यान और एकाग्रता बढ़ाना

आध्यात्मिक शांति और आंतरिक संतुलन प्राप्त करना

निष्कर्ष:
योग केवल आसनों या प्राणायाम का अभ्यास नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण जीवनशैली है जो व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाती है। इसके अभ्यास से न केवल शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर होता है, बल्कि मानसिक शांति और आत्मिक उत्थान भी संभव होता है।



02. पुराणों में योग के स्वरूप का वर्णन कीजिए।


परिचय:
योग भारतीय संस्कृति और दर्शन का एक अभिन्न अंग है, जिसका उल्लेख वेदों, उपनिषदों, महाभारत, गीता, योगसूत्रों और पुराणों में मिलता है। पुराणों में योग का वर्णन एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में किया गया है, जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का मार्ग प्रदान करता है।

पुराणों में योग का स्वरूप:

पुराणों में योग को भक्ति, ध्यान, ज्ञान और कर्म के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति का साधन माना गया है। विभिन्न पुराणों में योग के स्वरूप को विस्तार से समझाया गया है—

1. भागवत पुराण में योग:

भागवत पुराण में योग को भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि भक्ति के माध्यम से योग की सर्वोच्च स्थिति प्राप्त की जा सकती है।

इसमें नवधा भक्ति का उल्लेख मिलता है, जिससे व्यक्ति ईश्वर के साथ एकत्व स्थापित कर सकता है।

2. शिव पुराण में योग:

इसमें योग को शिव के ध्यान और तंत्र साधना से जोड़ा गया है।

शिव को ‘आदियोगी’ माना गया है, जिन्होंने योग का ज्ञान सप्तऋषियों को दिया था।

इसमें कुंडलिनी जागरण, ध्यान और प्राणायाम का विशेष उल्लेख है।

3. गरुड़ पुराण में योग:

इसमें मृत्यु के बाद आत्मा की यात्रा और मोक्ष प्राप्ति में योग की भूमिका का वर्णन किया गया है।

ध्यान और समाधि द्वारा आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का मार्ग बताया गया है।

4. मार्कंडेय पुराण में योग:

इसमें योग को तपस्या और आत्मसंयम का माध्यम बताया गया है।

योग द्वारा व्यक्ति सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है।

5. लिंग पुराण में योग:

इसमें योग को आत्मा के शुद्धिकरण का माध्यम बताया गया है।

इसे पंचतत्त्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) पर नियंत्रण प्राप्त करने की विधि के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

योग के प्रकार (पुराणों के अनुसार):

राजयोग – ध्यान और समाधि के माध्यम से आत्मा का उन्नयन।

ज्ञानयोग – ज्ञान और वैराग्य के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति।

भक्तियोग – ईश्वर की आराधना और भक्ति द्वारा मुक्ति।

कर्मयोग – निष्काम कर्म द्वारा आत्मा की उन्नति।

निष्कर्ष:

पुराणों में योग को केवल शारीरिक अभ्यास तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि इसे आत्मा और परमात्मा के मिलन का दिव्य मार्ग बताया गया है। इसमें ध्यान, भक्ति, ज्ञान और कर्म के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया गया है। पुराणों में योग को जीवन को शुद्ध और संतुलित बनाने की एक दिव्य प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया गया है।



03. घेरण्ड संहिता के अनुसार वस्ति के प्रकारों का वर्णन कीजिए।



परिचय:
घेरंड संहिता हठयोग के प्रमुख ग्रंथों में से एक है, जिसे महर्षि घेरंड ने लिखा था। यह ग्रंथ योग की सप्तसाधना (शुद्धि, दृढ़ता, स्थिरता, धैर्य, लघुता, ध्यान और समाधि) पर आधारित है। इसमें शरीर को शुद्ध करने के लिए षट्कर्मों (छह शुद्धिकरण क्रियाओं) का विशेष उल्लेख किया गया है, जिनमें वस्ति (आतंरिक शुद्धि क्रिया) एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है।

वस्ति का अर्थ और उद्देश्य

संस्कृत में "वस्ति" का अर्थ "बस्ति" या "मलाशय" (गुदा) होता है। वस्ति क्रिया का उद्देश्य शरीर के निचले भाग को शुद्ध करना, मल त्याग को नियंत्रित करना और पाचन तंत्र को स्वस्थ रखना है। यह एक प्रकार की योगिक एनिमा है, जो मलाशय की शुद्धि के लिए की जाती है।

घेरंड संहिता में वस्ति के प्रकार

घेरंड संहिता में वस्ति को दो प्रकारों में विभाजित किया गया है—

1. जल वस्ति (जल से शुद्धि)

इसे जल वस्ति या जलधारा वस्ति भी कहा जाता है।

इसमें योगी अपने शरीर को पानी में डुबोकर मलाशय के माध्यम से जल को अंदर खींचता है और फिर उसे बाहर निकालता है।

यह प्रक्रिया मलाशय की शुद्धि, कब्ज से मुक्ति और पाचन क्रिया को सुधारने में सहायक होती है।

इसे स्नान वस्ति भी कहा जाता है, क्योंकि इसे पानी में बैठकर किया जाता है।

2. सुख वस्ति (हवा से शुद्धि)

इसे वायु वस्ति या शुष्क वस्ति भी कहा जाता है।

इसमें बिना जल के, केवल वायु को अंदर खींचकर और बाहर निकालकर मलाशय को शुद्ध किया जाता है।

यह क्रिया पेट की गैस को नियंत्रित करने, आंतों को मजबूत बनाने और वात दोष को संतुलित करने में सहायक होती है।

इसे निषेक वस्ति भी कहा जाता है, क्योंकि यह वायु प्रवाह पर आधारित है।

वस्ति के लाभ

आंतों की शुद्धि: मलाशय की गहराई से सफाई करके कब्ज और अपच को दूर करता है।

वात-पित्त-कफ संतुलन: त्रिदोष को नियंत्रित करने में सहायक।

आंतरिक अंगों को शक्ति: पाचन तंत्र, मूत्राशय और मलाशय को स्वस्थ बनाए रखता है।

शरीर को हल्का और ऊर्जावान बनाना: शरीर को विषाक्त पदार्थों से मुक्त कर हल्का महसूस कराता है।

प्राकृतिक मल त्याग में सुधार: कब्ज, बवासीर और अन्य पाचन समस्याओं को दूर करता है।

निष्कर्ष

घेरंड संहिता में वस्ति को एक महत्वपूर्ण योगिक शुद्धिकरण प्रक्रिया के रूप में बताया गया है। यह दो प्रकार की होती है—जल वस्ति और सुख वस्ति। जल वस्ति जल के माध्यम से आंतों की सफाई करती है, जबकि सुख वस्ति वायु प्रवाह के माध्यम से पाचन तंत्र को संतुलित करती है। इन दोनों प्रक्रियाओं का अभ्यास करने से शरीर शुद्ध होता है और संपूर्ण स्वास्थ्य में सुधार आता है।



04. गीता का सामान्य परिचय दीजिए।



गीता का सामान्य परिचय

परिचय:
भगवद गीता हिन्दू धर्म का एक महान ग्रंथ है, जिसे "गीता" के नाम से भी जाना जाता है। यह महाभारत के भीष्म पर्व के अंतर्गत आता है और इसे महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित माना जाता है। गीता को "श्रीमद्भगवद्गीता" भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कही गई दिव्य वाणी"। यह ग्रंथ जीवन, धर्म, कर्म, योग और मोक्ष से संबंधित गहन दार्शनिक सिद्धांत प्रस्तुत करता है।

गीता की उत्पत्ति और ऐतिहासिक संदर्भ

स्थान: महाभारत युद्ध के समय कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में।

संवाद: अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच।

प्रसंग: जब अर्जुन युद्ध करने से हतोत्साहित हो जाते हैं, तब श्रीकृष्ण उन्हें कर्तव्य, धर्म और आत्मा के ज्ञान का उपदेश देते हैं।

उद्देश्य: अर्जुन को मोह और संशय से मुक्त करके कर्तव्य-पथ पर चलने के लिए प्रेरित करना।

गीता के प्रमुख तथ्य

कुल अध्याय: 18

श्लोकों की संख्या: 700

अवस्थिति: महाभारत के भीष्म पर्व के अंतर्गत (अध्याय 23-40)

भाषा: संस्कृत

प्रमुख विषय: कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और ध्यानयोग

गीता का मूल संदेश

कर्मयोग: निष्काम कर्म करो और फल की चिंता मत करो (कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन)।

ज्ञानयोग: आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है।

भक्तियोग: ईश्वर की भक्ति से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।

ध्यानयोग: मन को नियंत्रित करके ध्यान के माध्यम से परमात्मा को पाया जा सकता है।

धर्म और कर्तव्य: प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

निष्कर्ष:

भगवद गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक कला है। इसमें न केवल आध्यात्मिक, बल्कि नैतिक और दार्शनिक शिक्षाएँ भी दी गई हैं। यह हर युग और परिस्थिति में प्रासंगिक है और मनुष्य को सच्चे ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाती है।



05. नियमों के प्रकारों का वर्णन कीजिए।


परिचय:
नियम किसी भी समाज, संगठन या व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक होते हैं। नियमों का पालन व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के सुचारू संचालन के लिए किया जाता है। ये नियम विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं, जिनका आधार उनका उद्देश्य और कार्यक्षेत्र होता है।

नियमों के प्रमुख प्रकार:

1. प्राकृतिक नियम (Natural Rules)

ये नियम प्रकृति के वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित होते हैं।

इनका पालन स्वतः ही होता है, जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम, न्यूटन के गति के नियम आदि।

उदाहरण: सूर्य का पूर्व से उगना, जल का प्रवाहित होना।

2. सामाजिक नियम (Social Rules)

ये नियम समाज में शांति, व्यवस्था और सद्भाव बनाए रखने के लिए बनाए जाते हैं।

समाज के लोग परंपराओं, रीति-रिवाजों और नैतिकता के अनुसार इनका पालन करते हैं।

उदाहरण: बड़ों का सम्मान करना, मेल-जोल में शिष्टाचार रखना।

3. नैतिक नियम (Moral Rules)

ये नियम सही और गलत के बीच अंतर करने में सहायता करते हैं।

व्यक्ति की नैतिकता, सदाचार और मानवता से जुड़े होते हैं।

उदाहरण: झूठ न बोलना, चोरी न करना, दूसरों की मदद करना।

4. कानूनी नियम (Legal Rules)

ये नियम सरकार या किसी प्राधिकरण द्वारा बनाए जाते हैं और सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य होते हैं।

इनका उल्लंघन करने पर दंड का प्रावधान होता है।

उदाहरण: यातायात नियम, कर भुगतान के नियम, संविधान द्वारा निर्धारित नियम।

5. धार्मिक नियम (Religious Rules)

ये नियम धर्मग्रंथों, परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित होते हैं।

इनका पालन धार्मिक समुदायों के लोग अपने विश्वास के अनुसार करते हैं।

उदाहरण: हिंदू धर्म में व्रत-उपवास, इस्लाम में नमाज पढ़ना, ईसाई धर्म में चर्च जाना।

6. प्रशासनिक नियम (Administrative Rules)

किसी संस्था, संगठन या सरकार द्वारा कार्य संचालन के लिए बनाए गए नियम।

इन नियमों का पालन कर्मचारियों और अधिकारियों द्वारा किया जाता है।

उदाहरण: कार्यालय आने-जाने का समय, सरकारी नीतियों का पालन।

7. आर्थिक नियम (Economic Rules)

ये नियम देश की अर्थव्यवस्था और व्यापार से संबंधित होते हैं।

इनका उद्देश्य आर्थिक स्थिरता और विकास को सुनिश्चित करना होता है।

उदाहरण: बैंकिंग नियम, कर प्रणाली, व्यापारिक विनियम।

8. वैज्ञानिक नियम (Scientific Rules)

ये नियम परीक्षणों और प्रयोगों के आधार पर बनाए जाते हैं।

ये सार्वभौमिक और अपरिवर्तनीय होते हैं।

उदाहरण: ऊष्मा का संचरण, धातुओं के संघटन के नियम।

निष्कर्ष:

नियमों का मुख्य उद्देश्य समाज में अनुशासन, शांति और व्यवस्था बनाए रखना है। ये प्राकृतिक, सामाजिक, नैतिक, कानूनी, धार्मिक, प्रशासनिक, आर्थिक और वैज्ञानिक रूप में विभिन्न क्षेत्रों में लागू होते हैं। नियमों का पालन करने से व्यक्ति और समाज दोनों का समुचित विकास संभव होता है।



06. महर्षि पंतजलि जी का जीवन परिचय लिखिए।



परिचय:
महर्षि पतंजलि योग दर्शन के प्रणेता माने जाते हैं। वे न केवल योगशास्त्र के रचयिता थे, बल्कि व्याकरण और आयुर्वेद के भी महान विद्वान थे। उनके द्वारा रचित योगसूत्र संपूर्ण योग दर्शन का आधार ग्रंथ माना जाता है। पतंजलि को योग का संस्थापक और प्रथम व्यवस्थित रूप से योग के सिद्धांतों को प्रस्तुत करने वाला महान ऋषि माना जाता है।

महर्षि पतंजलि का जीवन परिचय

1. जन्म और कालखंड:

महर्षि पतंजलि के जन्म के विषय में स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन विद्वानों के अनुसार वे लगभग 200-300 ईसा पूर्व हुए थे।

कुछ मान्यताओं के अनुसार, वे शिव के नंदी स्वरूप से उत्पन्न हुए और मानव कल्याण के लिए योग का ज्ञान प्रदान किया।

कुछ पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि वे अनंत शेषनाग के अवतार थे।

2. पतंजलि का योगदान:

महर्षि पतंजलि ने तीन प्रमुख विषयों पर ग्रंथ लिखे—

योगशास्त्र (योगसूत्र): योग दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ।

व्याकरण (महाभाष्य): पाणिनि के अष्टाध्यायी पर लिखा गया भाष्य।

आयुर्वेद: पतंजलि ने चिकित्सा शास्त्र में भी योगदान दिया।

3. पतंजलि द्वारा रचित योगसूत्र:

योगसूत्र 195 सूत्रों का एक संकलन है, जिसमें योग के आठ अंगों (अष्टांग योग) का विस्तार से वर्णन किया गया है।

इसमें योग को आत्मा और परमात्मा के मिलन का साधन बताया गया है।

पतंजलि ने योग को "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" (मन की चंचलता को रोकना) के रूप में परिभाषित किया।

4. योग के आठ अंग (अष्टांग योग):

यम – नैतिक अनुशासन (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह)।

नियम – आत्म-अनुशासन (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान)।

आसन – शरीर को स्थिर और स्वस्थ बनाने की क्रिया।

प्राणायाम – श्वास नियंत्रण।

प्रत्याहार – इंद्रियों पर नियंत्रण।

धारणा – एकाग्रता।

ध्यान – ध्यान और मनःस्थिति की स्थिरता।

समाधि – परम शांति और आत्मसाक्षात्कार।

5. पतंजलि की शिक्षा और प्रभाव:

उनके योगसूत्र ने संपूर्ण विश्व में योग की एक वैज्ञानिक और दार्शनिक पद्धति स्थापित की।

पतंजलि का योग केवल शारीरिक व्यायाम नहीं, बल्कि मानसिक शांति और आत्मिक उत्थान का साधन है।

आज भी उनके योगसूत्र का अध्ययन और अभ्यास दुनियाभर में किया जाता है।

निष्कर्ष:

महर्षि पतंजलि एक महान योगाचार्य, व्याकरणाचार्य और आयुर्वेदाचार्य थे। उनके योगसूत्र ने योग को वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से परिभाषित किया। योग के आठ अंगों की संकल्पना आज भी योग साधकों के लिए मार्गदर्शक है। उनके योगदान से संपूर्ण विश्व ने योग के महत्व को समझा और उसे अपनाया। इसलिए पतंजलि को "योग के जनक" के रूप में भी जाना जाता है।