प्रश्न 01: संस्कृति की प्रकृति को समझने में सहायक विशेषताएँ क्या हैं?
🌟 संस्कृति: मानव समाज का आधार
संस्कृति (Culture) वह जटिल संकल्पना है, जो किसी समाज के जीवन जीने के तरीके, उसकी मान्यताओं, परंपराओं, रीति-रिवाज़ों, भाषाओं, कला, धर्म, रहन-सहन, पहनावे और ज्ञान को दर्शाती है। यह समाज द्वारा अर्जित की गई वह विरासत है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है। संस्कृति न केवल बाह्य गतिविधियों तक सीमित है, बल्कि यह मानवीय सोच, व्यवहार और मूल्यों को भी आकार देती है।
🧭 संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ: समझने के सूत्र
संस्कृति की प्रकृति को समझने में कई महत्वपूर्ण विशेषताएँ सहायक होती हैं। नीचे इन विशेषताओं को विस्तारपूर्वक बताया गया है:
📚 1. संस्कृति अर्जित की जाती है (Culture is Learned)
🧒🏻 सामाजिकरण से प्राप्त
मनुष्य संस्कृति को जन्म के साथ प्राप्त नहीं करता, बल्कि समाज के संपर्क में आकर इसे सीखता है। परिवार, विद्यालय, धर्म, समाज आदि इसके मुख्य स्रोत होते हैं।
🔁 अनुभव और व्यवहार के माध्यम से
व्यक्ति अपने आस-पास के वातावरण और अनुभवों से संस्कृति को आत्मसात करता है। यह सीखने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है।
🔗 2. संस्कृति एक सामाजिक प्रक्रिया है (Culture is Social)
👨👩👧👦 समाज में ही संस्कृति विकसित होती है
संस्कृति का अस्तित्व समाज के बिना अधूरा है। यह व्यक्तियों के बीच पारस्परिक संपर्क और सह-अस्तित्व के कारण बनती और विकसित होती है।
🤝 सांस्कृतिक आदान-प्रदान
समाज के विभिन्न वर्गों, जातियों, और समूहों के बीच सतत बातचीत से संस्कृति का विस्तार और परिवर्तन होता है।
🧬 3. संस्कृति विरासतस्वरूप है (Culture is Transmitted)
📜 पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण
संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती है — मौखिक, लिखित या व्यवहारिक रूप से। इस प्रक्रिया को 'सांस्कृतिक संक्रमण' कहा जाता है।
🧓 परंपराओं का संरक्षण
परंपराएँ, लोककथाएँ, धार्मिक अनुष्ठान आदि इस सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखते हैं।
🧩 4. संस्कृति एकीकृत होती है (Culture is Integrated)
⚙️ विभिन्न तत्त्वों का समन्वय
संस्कृति के सभी अंग जैसे भाषा, धर्म, रीति-रिवाज, कला आदि एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। किसी एक में बदलाव आने से अन्य भी प्रभावित होते हैं।
🧱 एक संयुक्त संरचना
संस्कृति को एक संरचना के रूप में देखा जा सकता है जिसमें प्रत्येक भाग का अपना महत्त्व है और यह एक दूसरे के पूरक होते हैं।
🔄 5. संस्कृति गतिशील होती है (Culture is Dynamic)
🔁 परिवर्तनशील प्रकृति
संस्कृति समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। तकनीक, शिक्षा, वैश्वीकरण आदि इसके स्वरूप को प्रभावित करते हैं।
📱 आधुनिकता का प्रभाव
आज के समय में सोशल मीडिया, इंटरनेट, और वैश्विक संचार ने सांस्कृतिक स्वरूप को अत्यधिक प्रभावित किया है।
🧠 6. संस्कृति विचारात्मक होती है (Culture is Ideational)
🧭 मूल्य और मान्यताएँ
संस्कृति केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह विचारों, विश्वासों, आदर्शों और मूल्यों से भी जुड़ी होती है।
🔍 चेतना का निर्माण
यह व्यक्तियों की सोचने की क्षमता, दृष्टिकोण और व्यवहार को निर्देशित करती है।
🎭 7. संस्कृति प्रतीकात्मक होती है (Culture is Symbolic)
🕊️ प्रतीकों का प्रयोग
ध्वनि, रंग, संकेत, भाषा, परिधान, और धार्मिक चिह्न सभी सांस्कृतिक प्रतीकों के रूप में कार्य करते हैं।
📌 अर्थ का संचार
इन प्रतीकों के माध्यम से समाज में अर्थों का आदान-प्रदान होता है और सामाजिक पहचान बनती है।
📦 8. संस्कृति बहुआयामी होती है (Culture is Multidimensional)
🖼️ भौतिक और अमूर्त पक्ष
संस्कृति के भौतिक तत्त्व जैसे भवन, कला, वस्त्र आदि के साथ-साथ अमूर्त पक्ष जैसे मूल्य, नैतिकता, आचार-विचार आदि भी उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं।
🧭 विविधता में एकता
भारत जैसी विविधताओं वाले देश में विभिन्न भाषाएं, धर्म, खान-पान और वेशभूषा होते हुए भी एक सांस्कृतिक एकता का भाव देखा जाता है।
🌐 9. संस्कृति सार्वभौमिक होती है (Culture is Universal)
🌏 हर समाज में संस्कृति
हर समाज, चाहे वह किसी भी देश, धर्म या जाति का हो, उसकी अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि संस्कृति एक सार्वभौमिक अवधारणा है।
🧑🤝🧑 मानव जीवन का अनिवार्य हिस्सा
जहां मनुष्य है, वहां संस्कृति है — यह एक अपराजेय सत्य है।
📈 10. संस्कृति विकासशील होती है (Culture Evolves Gradually)
📆 समय के साथ विकास
संस्कृति का विकास एक सतत प्रक्रिया है जो सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक परिवर्तनों से प्रभावित होती है।
🌱 अनुकूलन की क्षमता
संस्कृति में ऐसी लचीलापन होता है कि यह समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल लेती है।
✅ निष्कर्ष: संस्कृति को समझने की कुंजी
संस्कृति की ये सभी विशेषताएँ हमें यह समझने में सहायता करती हैं कि संस्कृति एक व्यापक, बहुआयामी और अनवरत प्रवाहमान प्रक्रिया है। यह मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करती है और समाज की पहचान को परिभाषित करती है। संस्कृति को केवल परंपराओं और अनुष्ठानों तक सीमित नहीं किया जा सकता, बल्कि यह मानव के अनुभव, सोच, व्यवहार और विकास का दर्पण है। अतः इसे समझना और संरक्षित रखना हमारी सामाजिक जिम्मेदारी भी है।
🗿 प्रश्न 2: सिंधु सभ्यता के कला स्वरूपों की विवेचना कीजिए।
🧱 सिंधु सभ्यता: भारत की प्राचीनतम नगरीय संस्कृति
सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) विश्व की प्राचीनतम और अत्यधिक विकसित सभ्यताओं में से एक थी, जो लगभग 2500 ईसा पूर्व से 1750 ईसा पूर्व तक अस्तित्व में रही। यह सभ्यता मुख्यतः आधुनिक भारत और पाकिस्तान के क्षेत्रों में फैली थी। इसकी प्रमुख नगरों में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हुदड़ो, राखीगढ़ी, लोथल आदि शामिल हैं।
इस सभ्यता की सबसे उल्लेखनीय विशेषता उसकी कला, स्थापत्य, मूर्तिकला, चित्रकला, और शिल्पकला है, जो तत्कालीन समाज की उन्नत मानसिकता, सौंदर्यबोध, और तकनीकी समझ को दर्शाती है।
🗿 1. मूर्तिकला (Sculpture) – पत्थर, धातु और टेराकोटा की अद्भुत अभिव्यक्ति
🧔♂️ प्रसिद्ध पुजारी पुरुष (Priest King)
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स्थान: मोहनजोदड़ो से प्राप्त
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विवरण: यह मूर्ति शिस्ट पत्थर से बनी है। पुरुष की दाढ़ी, वस्त्र की डिजाइन, और आंखों की गंभीरता अद्वितीय है।
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यह मूर्ति तत्कालीन धार्मिक विश्वास और सामाजिक व्यवस्था की झलक देती है।
💃 नृत्य करती बालिका (Dancing Girl)
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स्थान: मोहनजोदड़ो से प्राप्त
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विवरण: यह कांस्य से बनी 10.5 सेमी लंबी प्रतिमा है। यह बालिका बाएं हाथ पर हाथ रखे, दाएं हाथ को मोड़े हुए, और पूरे आत्मविश्वास के साथ खड़ी है।
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यह मूर्ति उस युग की धातु ढलाई तकनीक और सौंदर्यशास्त्र को दर्शाती है।
🐘 पशु आकृतियाँ और टेराकोटा खिलौने
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बैल, हाथी, गैंडा आदि की मूर्तियाँ टेराकोटा (पकी हुई मिट्टी) से बनी हैं।
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ये धार्मिक प्रतीक भी हो सकते हैं और बच्चों के खिलौने भी।
🧱 2. स्थापत्य कला (Architecture) – नगर योजना का चमत्कार
🏙️ नियोजित नगर व्यवस्था
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नगरों की सड़कों को ग्रिड पैटर्न में बनाया गया था, जो एक उन्नत नगरीय योजना को दर्शाता है।
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हर घर में स्नानगृह, कुएँ, जल निकासी तंत्र, और वेंटिलेशन का विशेष ध्यान रखा गया था।
🏛️ ग्रेट बाथ (महास्नानागार)
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स्थान: मोहनजोदड़ो
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विशेषता: यह ईंटों से बना एक बड़ा जलकुंड था, जिसमें जल-निकासी की अत्याधुनिक व्यवस्था थी।
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यह संभवतः किसी धार्मिक अनुष्ठान के लिए प्रयुक्त होता था।
🧱 अन्नागार (Granaries)
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हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में बड़े-बड़े अन्न भंडारण गृह मिले हैं।
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इनकी बनावट दर्शाती है कि उस समय अन्न-संग्रहण और वितरण प्रणाली सुव्यवस्थित थी।
🪵 3. शिल्पकला (Craftsmanship) – धातु, मिट्टी और मनकों का सौंदर्य
🧶 मिट्टी के बर्तन
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रेड वियर (लाल मृद्भांड) पर काले रंग से चित्रित डिज़ाइनों का प्रयोग किया गया है।
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इनमें ज्यामितीय आकृतियाँ, पशु-पक्षियों की चित्रकारी, और दैनिक जीवन के दृश्य दर्शाए गए हैं।
🪙 धातु शिल्प
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कांस्य, तांबा, सोना, चांदी आदि का उपयोग किया गया।
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धातु से बनी वस्तुएँ जैसे – चाकू, भाला, बर्तन, आभूषण आदि उस युग की तकनीकी प्रगति दर्शाते हैं।
📿 मनकों का निर्माण (Bead Making)
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हड़प्पावासियों को मनकों (beads) के निर्माण में महारत थी।
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ये मनके कांच, पत्थर, शंख, कड़ी मिट्टी और अर्ध-कीमती पत्थरों से बनाए जाते थे।
🐘 4. मुद्रा कला (Seals) – लिपि, पशु और प्रतीकों की छाप
🧊 स्टेअटाइट की मुद्राएँ
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हड़प्पा से प्राप्त मुद्राएं (Seals) स्टेअटाइट पत्थर से बनी हैं।
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इनमें मुख्यतः पशु आकृतियाँ, मानव-आकृतियाँ, पूजा की मुद्रा में व्यक्ति, और अज्ञात लिपि अंकित होती है।
🐂 एकाश्म बैल और पशुपति मुहर
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प्रसिद्ध पशुपति महादेव मुहर में एक देवता योगमुद्रा में बैठे हैं, जिनके चारों ओर पशु दिखाई देते हैं।
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यह संभवतः शिव के आदिम स्वरूप का प्रमाण हो सकता है।
🎨 5. चित्रकला के प्रमाण (Painting and Artistic Design)
🏺 बर्तनों पर चित्रांकन
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मिट्टी के बर्तनों पर की गई चित्रकारी से यह सिद्ध होता है कि हड़प्पा निवासी चित्रकला में भी दक्ष थे।
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इन चित्रों में मुख्यतः पुष्प, पत्तियाँ, पशु-पक्षी, मानव और ज्यामितीय आकारों का प्रयोग मिलता है।
🖼️ अलंकरण और सौंदर्यबोध
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उनके वस्त्रों, आभूषणों, और दैनिक उपयोग की वस्तुओं में कला की स्पष्ट झलक मिलती है।
🧩 6. हड़प्पा कला की विशिष्टताएँ
💡 मुख्य विशेषताएँ:
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यथार्थपरकता (Realism): मूर्तियाँ और चित्र वास्तविक जीवन को दर्शाते हैं।
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तकनीकी दक्षता: धातु ढलाई, मुहर-निर्माण और नगर-योजना में श्रेष्ठ तकनीक।
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सौंदर्यबोध (Aesthetic Sense): रूप, आकार और अनुपात का बेजोड़ संतुलन।
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प्रायोगिकता और उपयोगिता: अधिकांश वस्तुएँ सुंदर होने के साथ-साथ उपयोगी भी थीं।
🔚 निष्कर्ष: सिंधु कला – सभ्यता की आत्मा
सिंधु सभ्यता की कला उनके उन्नत और सुसंस्कृत जीवन की प्रतीक है। चाहे वह मूर्तिकला हो, मुहरें हों, स्थापत्य या शिल्प – हर क्षेत्र में उन्होंने उच्चतम स्तर की रचनात्मकता और तकनीकी दक्षता का परिचय दिया।
उनकी कला धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से समृद्ध थी, और आज भी हमें यह सिखाती है कि वास्तविक प्रगति केवल तकनीकी नहीं, बल्कि सौंदर्य, संवेदना और संतुलन में निहित होती है।
👑 प्रश्न 03: वैदिक काल की राजनीतिक स्थिति की समीक्षा कीजिए।
🕰️ वैदिक काल: भारत के प्राचीन राजनीतिक जीवन की नींव
वैदिक काल भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण युग था, जो मुख्यतः दो भागों में विभाजित है:
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पूर्व वैदिक काल (1500 ई.पू.–1000 ई.पू.),
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उत्तर वैदिक काल (1000 ई.पू.–600 ई.पू.)
यह काल भारतीय उपमहाद्वीप में आर्यों के आगमन, उनके गठनशील समाज, और राजनीतिक व्यवस्था के विकास का साक्षी रहा। वैदिक साहित्य, विशेष रूप से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, और उपनिषद, इस काल की राजनीतिक संरचना को जानने के प्रमुख स्रोत हैं।
🛖 1. वैदिक समाज की राजनीतिक इकाइयाँ
👨👩👧👦 (a) कुटुंब (Family)
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समाज की सबसे छोटी इकाई थी।
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परिवार का मुखिया ‘गृहपति’ कहलाता था, जिसकी सामाजिक और धार्मिक जिम्मेदारियाँ थीं।
🏘️ (b) ग्राम (Village)
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कई कुटुंब मिलकर एक ग्राम बनाते थे।
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ग्राम का प्रमुख 'ग्रामिणी' कहलाता था, जो रक्षा और न्याय व्यवस्था संभालता था।
🌍 (c) विश और जन (Clan and Tribe)
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‘विश’ कई ग्रामों का समूह था और ‘जन’ एक बड़ी जनजातीय इकाई थी।
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जन का प्रमुख 'राजन्' कहलाता था।
👑 2. वैदिक कालीन राजा और राजसत्ता
🏹 राजा का चयन और कार्य
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राजा का चयन जनसभा के माध्यम से होता था।
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वह धार्मिक, सैन्य और न्यायिक कर्तव्यों का पालन करता था।
🪔 धार्मिक भूमिका
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राजा को देवताओं का प्रतिनिधि माना जाता था।
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वह यज्ञ करता और पुरोहितों को संरक्षण देता था।
🛡️ सैन्य भूमिका
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राजा को जन की रक्षा, युद्ध में नेतृत्व और शांति की स्थापना करना होता था।
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‘संग्राम, अभियान, विजय’ जैसी संज्ञाएँ उसकी सैन्य भूमिका को दर्शाती हैं।
👨⚖️ 3. वैदिक कालीन सभा एवं समिति
🏛️ सभा (Sabha)
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यह एक परामर्शदाता निकाय थी जिसमें बुज़ुर्ग और प्रमुख सदस्य शामिल होते थे।
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न्याय और महत्वपूर्ण निर्णयों में यह राजा की सहायता करती थी।
🧩 समिति (Samiti)
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यह एक प्रकार की जनसभा थी जिसमें समाज के सभी पुरुष सदस्य भाग ले सकते थे।
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राजा का चयन, नीति निर्माण और युद्ध जैसे मामलों पर यह विचार करती थी।
⚖️ अन्य संस्थाएँ
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गण, विदथ, और पौर जैसे संस्थान भी स्थानीय प्रशासनिक और सामाजिक भूमिकाएँ निभाते थे।
🧙♂️ 4. पुरोहितों और मंत्रियों की भूमिका
🪔 पुरोहित वर्ग (Brahmins)
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राजा की धार्मिक गतिविधियों के संचालन में मुख्य भूमिका निभाते थे।
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मंत्रियों की तरह ये नीति-निर्माण में भी प्रभावशाली थे।
🧠 प्रमुख पद:
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होटा – ऋचाओं का उच्चारण करता था
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उद्गाता – सामवेद के मंत्र गाता था
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अध्वर्यु – यज्ञ की विधियाँ करता था
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ब्राह्मा – यज्ञ का पर्यवेक्षक होता था
📜 मंत्री मंडल
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राजा के सहायक के रूप में कुछ मंत्री नियुक्त होते थे जैसे –
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सेनानी (सैन्य प्रमुख)
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स्पश (गुप्तचर प्रमुख)
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ग्रामिणी (ग्राम व्यवस्था प्रमुख)
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⚔️ 5. सैन्य संगठन और युद्ध नीति
🏇 अश्वबल और रथबल
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वैदिक युग के युद्धों में रथ और घोड़े प्रमुख अस्त्र थे।
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राजा का सेनानी युद्ध की रणनीति बनाता था।
🎯 युद्धों का उद्देश्य
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गो (गाय), जल, भूमि और सम्मान के लिए युद्ध होते थे।
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‘गविष्टि’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ही ‘गाय की खोज में युद्ध’ है।
⚖️ 6. न्याय व्यवस्था: धर्म और नीति के आधार पर
🧑⚖️ राजा का न्यायिक कार्य
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राजा प्रमुख न्यायाधीश होता था।
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न्याय धर्मशास्त्रों और वेदों के अनुसार होता था।
📚 अपराध और दंड
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चोरी, हत्या, असत्य भाषण आदि को गंभीर अपराध माना गया।
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दंड का उद्देश्य सुधार और समाज में संतुलन बनाए रखना था।
🏙️ 7. उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक परिवर्तन
👑 राजसत्ता का विस्तार
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उत्तर वैदिक काल में राजतंत्र अधिक सशक्त हुआ।
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राजा अब केवल प्रमुख नहीं, बल्कि देवता के तुल्य समझा जाने लगा।
🌾 राज्य का आकार और प्रशासन
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जन से जनपदों का निर्माण हुआ।
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शासन व्यवस्था में कर (tax), स्थायी सेना, और भूमि नियंत्रण जैसी व्यवस्थाएँ जुड़ने लगीं।
🪙 उत्तर वैदिक काल में स्थायी शक्ति
-
राजा की शक्ति वंशानुगत होने लगी।
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वैदिक साहित्य में सम्राट, एकराट, जैसे शब्द आने लगे।
🔍 8. वैदिक कालीन राजनीतिक जीवन की विशेषताएँ
📌 प्रमुख बिंदु:
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राजा का चुनाव जन से होता था, बाद में वंशानुगत बनने लगा
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सभा और समिति जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएँ विद्यमान थीं
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धार्मिक और राजनीतिक शक्ति का घनिष्ठ संबंध था
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न्याय व्यवस्था धार्मिक सिद्धांतों पर आधारित थी
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उत्तर वैदिक काल में केंद्रीकरण और राजशाही का विकास हुआ
🧾 निष्कर्ष: वैदिक काल – राजनैतिक चेतना की शुरुआत
वैदिक कालीन राजनीतिक व्यवस्था हमें प्राचीन भारत की लोकतांत्रिक परंपरा, प्रशासनिक सोच और सामाजिक संगठन की झलक देती है।
जहाँ पूर्व वैदिक काल में राजसत्ता सीमित और सामूहिक सोच पर आधारित थी, वहीं उत्तर वैदिक काल में सत्ता अधिक केंद्रीकृत और वंशानुगत हो गई। सभा-समिति जैसे संस्थान भारत की प्रारंभिक लोकतांत्रिक सोच को दर्शाते हैं।
इस प्रकार वैदिक काल भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक चेतना और शासन व्यवस्था के विकास का एक महत्वपूर्ण चरण है।
🏛️ प्रश्न 04: मौर्य काल में कला के विकास पर चर्चा कीजिए।
🕰️ मौर्य काल: भारतीय कला के स्वर्णिम युग की शुरुआत
मौर्य साम्राज्य (322 ई.पू. – 185 ई.पू.) प्राचीन भारत का पहला विशाल और केंद्रीकृत साम्राज्य था, जिसकी स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने की और जिसकी चरम सीमा सम्राट अशोक के शासनकाल में आई।
यह काल न केवल राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि भारतीय कला, स्थापत्य और मूर्तिकला के विकास के लिए भी स्वर्ण युग माना जाता है। मौर्य काल में कला का विकास शाही संरक्षण, धार्मिक विस्तार, और सामाजिक समृद्धि से प्रेरित था।
🗿 1. मौर्य काल की मूर्तिकला: पत्थर में सौंदर्य का जादू
🐘 हाथी की मूर्ति – आश्चर्यजनक यथार्थता
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स्थान: दृष्टि क्षेत्र अशोक के स्तंभों से प्राप्त
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विवरण: मौर्य काल की हाथी की मूर्तियाँ अत्यंत यथार्थवादी और जीवंत हैं।
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प्रसिद्ध उदाहरण: धौली हाथी मूर्ति, जिसमें एक विशाल हाथी उकेरा गया है जो बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में ख्यात है।
💃 यक्ष-यक्षिणी मूर्तियाँ
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स्थान: दीदारगंज (पटना), बेसनगर, मथुरा
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विशेषता: इन मूर्तियों में भारी आभूषण, गोलाकार चेहरा, तथा चमकदार सतह ‘पॉलिश’ की विशेष शैली में उकेरा गया है।
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यह उस काल की धार्मिक मान्यताओं और शिल्पकला की दक्षता को दर्शाती हैं।
🏛️ 2. स्तंभ स्थापत्य: अशोक स्तंभों का स्थापत्य सौंदर्य
🪨 अशोक स्तंभों की विशेषताएँ
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ये स्तंभ बलुआ पत्थर से बने होते थे और एक ही पत्थर से तराशे जाते थे।
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ऊँचाई में 40 से 50 फीट तक होते थे और इन पर बौद्ध धर्म संबंधी धम्म लेख खुदे होते थे।
🦁 सारनाथ का सिंह स्तंभ (राष्ट्रीय प्रतीक)
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स्थान: सारनाथ
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विशेषता: स्तंभ के शीर्ष पर चार मुख वाले शेर हैं जो चारों दिशाओं में मुख किए हुए हैं।
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यह शेरचतुर्मुख भारत का राष्ट्रीय प्रतीक बन चुका है।
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इसके नीचे खुदा हुआ चक्र 'धम्म चक्र' और अश्व, हाथी व बैल की आकृतियाँ अद्वितीय हैं।
🌟 पॉलिशिंग शैली (Mauryan Polish)
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मौर्य कला की सबसे अनूठी पहचान उसकी चिकनी पॉलिशिंग है जो पत्थर को कांच की तरह चमकदार बना देती है।
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यह पॉलिश पर्शियन (ईरानी) प्रभाव से विकसित हुई मानी जाती है।
🏯 3. स्थापत्य कला: ईंट और लकड़ी से बने भव्य निर्माण
🏰 राजकीय भवन और महल
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चंद्रगुप्त मौर्य के महल का विवरण यूनानी दूत मेगस्थनीज़ ने दिया है।
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इन भवनों में पत्थर, लकड़ी और ईंट का सुंदर समन्वय होता था।
⛩️ स्तूप निर्माण की शुरुआत
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सम्राट अशोक के काल में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु स्तूपों का निर्माण प्रारंभ हुआ।
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सांची, भारहुत, और धमेख स्तूप इस काल की पहचान हैं।
🚪 प्रवेशद्वार और रेलिंग
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प्रारंभिक स्तूपों में लकड़ी की रेलिंग और तोरण (प्रवेश द्वार) बनाए गए थे, जो बाद में पत्थर में रूपांतरित हुए।
📜 4. लेखन एवं अभिलेख कला
🧾 अशोक के अभिलेख (Edicts of Ashoka)
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सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म और नीति संबंधी सन्देशों को आम जनता तक पहुँचाने के लिए लेखों का प्रयोग किया।
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ये लेख प्राकृत भाषा और ब्रह्मी लिपि में लिखे गए।
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अभिलेखों में नैतिकता, दया, अहिंसा, और धर्म की बातें की गई हैं।
🌍 प्रमुख स्थलों पर स्थित अभिलेख
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गिरनार, कंधार, लुम्बिनी, कालसी (उत्तराखंड), रुम्मिनदेई, आदि स्थानों पर अशोक के अभिलेख प्राप्त हुए हैं।
🎨 5. चित्रकला एवं सौंदर्यबोध
🖼️ चित्रकला के अप्रत्यक्ष प्रमाण
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यद्यपि मौर्य काल की चित्रकला के प्रत्यक्ष प्रमाण कम हैं, लेकिन मेगस्थनीज़ के विवरण और गुफाओं में दीवारों के अवशेषों से संकेत मिलता है कि उस युग में भित्ति चित्रकला का विकास हुआ था।
🌺 सौंदर्य की समझ
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मूर्तियों और स्तंभों की कलात्मकता, अनुपातबद्धता और बारीकी से की गई नक्काशी इस युग के सौंदर्यबोध को दर्शाती है।
🛕 6. मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव
🏛️ ईरानी एवं यूनानी प्रभाव
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मौर्य स्तंभों की बनावट और पॉलिशिंग शैली पर पर्शियन (ईरानी) प्रभाव स्पष्ट है।
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अशोक स्तंभों की चापदार शैली, बेलबूटे और आधारशिला में यूनानी वास्तुकला की झलक भी देखी जा सकती है।
🤝 भारतीय और विदेशी शैली का संगम
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मौर्य कला ने विदेशी प्रभावों को अपनाते हुए भी भारतीय संस्कृति और परंपरा को सजीव बनाए रखा।
📌 मौर्य कला की विशेषताएँ: एक दृष्टि में
✅ मुख्य विशेषताएँ:
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उच्च गुणवत्ता की मूर्तिकला और यथार्थपरक अभिव्यक्ति
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अशोक स्तंभों का तकनीकी और सौंदर्यात्मक विकास
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धार्मिक प्रेरणाओं से प्रेरित स्थापत्य – विशेषकर बौद्ध धर्म
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पॉलिश की विशिष्ट शैली – ‘Mauryan polish’
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शाही संरक्षण और विदेशी प्रभावों का समावेश
🧾 निष्कर्ष: मौर्य कला – शक्ति और शांति का संगम
मौर्य काल की कला शक्ति, नीति, धर्म और सौंदर्य का अद्भुत संगम है। इस युग में कला को केवल सजावट या धार्मिक उद्देश्य तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि इसे सार्वजनिक संचार, नैतिक शिक्षा, और राजनीतिक सन्देश का माध्यम भी बनाया गया।
सम्राट अशोक के संरक्षण में कला को जो व्यापकता और उद्देश्य प्राप्त हुआ, उसने आने वाली शताब्दियों की भारतीय कला पर अमिट छाप छोड़ी।
🕌 प्रश्न 05: प्राचीन भारतीय कला की क्या विशेषताएँ रही हैं?
🎨 प्राचीन भारतीय कला का सारतत्त्व
प्राचीन भारतीय कला न केवल सौंदर्य की दृष्टि से समृद्ध है, बल्कि यह आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का भी दर्पण है। यह कला केवल सजावटी या भौतिक न होकर, आत्मा को परम तत्व से जोड़ने का माध्यम रही है। इसकी जड़ें भारतीय दर्शन, धर्म और परंपरा में गहराई से जुड़ी हुई हैं।
🪔 1. आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता का प्रधान स्वरूप
📿 धर्म आधारित कलाकृतियाँ
प्राचीन भारतीय कला में धार्मिक विश्वासों की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। अधिकांश मूर्तियाँ, चित्रकला, वास्तुकला और शिल्पकला धार्मिक प्रेरणाओं से ही विकसित हुईं। बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्मों के प्रतीकात्मक चिह्नों, देवी-देवताओं, स्तूपों, मंदिरों, एवं मंडपों की रचना इसी भावना की उपज हैं।
🧘 ध्यान एवं मोक्ष का संदेश
कला में केवल भौतिक सौंदर्य नहीं, बल्कि मोक्ष की ओर प्रेरित करने वाला गूढ़ भाव भी समाहित होता था। यह कला मानव और ब्रह्म के संबंध को दर्शाने का साधन रही है।
🏺 2. प्रतीकात्मकता (Symbolism)
भारतीय कला में प्रतीकात्मकता अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। एक साधारण वस्तु को भी गहरे अर्थों में रूपांतरित किया गया है। जैसे:
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कमल – पवित्रता एवं आत्मज्ञान का प्रतीक
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चक्र – धर्मचक्र, जीवनचक्र और गति का संकेत
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त्रिशूल – ब्रह्मा, विष्णु और महेश के शक्तियों का प्रतीक
इस प्रकार, कला केवल दृश्य रूप नहीं, अपितु आध्यात्मिक संदेश की वाहक होती थी।
🛕 3. वास्तुकला की विशेषताएँ
🧱 विविध निर्माण शैली
भारत में मंदिर, स्तूप, गुंबद, गुफाएँ, स्तंभ इत्यादि वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। जैसे:
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सांची का स्तूप – बौद्ध कला का अद्भुत नमूना
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एल्लोरा और अजन्ता गुफाएँ – चित्रकला और मूर्तिकला का संगम
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दक्षिण भारतीय मंदिर – विस्तृत गोपुरम और डॉविडियन शैली
🪨 शिल्पकला में उत्कृष्टता
पत्थर, ईंट, लकड़ी, धातु आदि माध्यमों में भारतीय शिल्पियों ने अद्भुत कला रचनाएँ गढ़ीं।
🧑🎨 4. मूर्तिकला की सजीवता
💫 जीवन्त अभिव्यक्ति
प्राचीन मूर्तियों में भाव, मुद्रा, और सौंदर्य की बारीकियों को अत्यंत कुशलता से उकेरा गया है। नटराज की मूर्ति में शिव का तांडव नृत्य जीवन्त प्रतीत होता है।
⛩️ धार्मिक मूर्तियाँ
विष्णु, शिव, बुद्ध, महावीर आदि की मूर्तियाँ न केवल भक्ति भाव उत्पन्न करती थीं, बल्कि कलात्मक दृष्टि से भी विलक्षण थीं।
🖼️ 5. चित्रकला की विविध शैलियाँ
🏞️ प्राकृतिक रंगों का प्रयोग
चित्रकला में प्राकृतिक रंगों और ब्रश का प्रयोग होता था। अजन्ता की गुफाओं की चित्रकला इसका सजीव प्रमाण है।
🎨 विषय-वस्तु
चित्रों में धार्मिक गाथाएँ, जातक कथाएँ, रामायण-महाभारत के प्रसंग, तथा प्रकृति चित्रण मिलते हैं।
🕊️ 6. सौंदर्यबोध और भावाभिव्यक्ति
भारतीय कला केवल सौंदर्य प्रदर्शन तक सीमित नहीं थी, वह मानव भावना, करुणा, प्रेम, वीरता और भक्ति को भी प्रकट करती थी। "नव रसा" के सिद्धांत के अनुसार कला में सभी रसों को समाहित किया गया।
🌐 7. क्षेत्रीय विविधता
भारत एक विशाल देश है, जहाँ विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग कला शैलियाँ विकसित हुईं:
-
राजस्थानी चित्रकला – रंग-बिरंगी, सूक्ष्म रेखाओं वाली
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मधुबनी चित्रकला – मिथिला क्षेत्र की लोककला
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मुगल चित्रकला – फारसी और भारतीय मिश्रण
🧩 8. तकनीकी नवाचार और शिल्प कौशल
भारतीय शिल्पकारों की तकनीकी दक्षता अत्यंत उच्च रही है। चाहे वह लोहे का लौह स्तंभ हो (जो बिना जंग लगे आज भी खड़ा है), या काजुराहो के मंदिरों की जटिल मूर्तिकला, सभी में कौशल की चरम सीमा देखी जा सकती है।
🧱 9. कला का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
👥 सामाजिक एकता
कला ने समाज को एक सूत्र में बाँधने का कार्य किया। सभी वर्गों और समुदायों ने कला के माध्यम से सांस्कृतिक एकता प्राप्त की।
🌾 ग्राम्य जीवन का चित्रण
कई चित्रों और शिल्पों में ग्रामीण जीवन, पशु-पक्षी, त्योहार, लोक कथाएँ, और सामाजिक क्रियाएँ दर्शाई गईं, जिससे लोक संस्कृति को संजोकर रखा गया।
📜 निष्कर्ष: भारतीय कला की चिरस्थायिता
प्राचीन भारतीय कला ने केवल अपने समय की अभिव्यक्ति नहीं की, बल्कि आज भी वह प्रेरणा का स्रोत है। इसकी विशेषताएँ जैसे – आध्यात्मिकता, प्रतीकात्मकता, भावाभिव्यक्ति, शिल्प कौशल, क्षेत्रीय विविधता और तकनीकी श्रेष्ठता – इसे विश्वभर में एक अद्वितीय स्थान प्रदान करती हैं। यह कला समय की सीमाओं को लांघकर आज भी जीवित है और भारत की पहचान को वैश्विक स्तर पर दर्शाती है।
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🌀 प्रश्न 01: कर्म और पुनर्जन्म
🔎 भूमिका: भारतीय दर्शन की दो आधारशिलाएँ
भारतीय दर्शन में कर्म (Karma) और पुनर्जन्म (Rebirth) दो ऐसी महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं जो मानव जीवन के उद्देश्य, नैतिकता और मोक्ष की दिशा को स्पष्ट करती हैं। इन दोनों की चर्चा वेदों, उपनिषदों, गीता, बौद्ध व जैन ग्रंथों में विस्तार से की गई है।
⚖️ कर्म: कार्य और उसका फल
🧩 कर्म का अर्थ
'कर्म' का शाब्दिक अर्थ होता है — 'कार्य' या 'किया गया कार्य'। यह न केवल भौतिक क्रियाओं को संदर्भित करता है बल्कि विचार, वाणी और मनोवृत्तियों तक का विस्तार करता है।
🔄 कर्म के प्रकार
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संचित कर्म – पूर्वजन्मों के सभी कर्मों का संग्रह
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प्रारब्ध कर्म – वर्तमान जीवन में भोगे जाने वाले कर्मफल
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क्रियमान कर्म – वर्तमान जीवन में किए जा रहे कर्म
📜 भगवद्गीता में कर्म
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
अर्थात् व्यक्ति का अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं।
🔁 पुनर्जन्म: आत्मा का पुनरागमन
🌱 पुनर्जन्म की अवधारणा
पुनर्जन्म का अर्थ है – आत्मा का एक शरीर त्यागकर पुनः किसी अन्य शरीर में प्रवेश करना। भारतीय दर्शन आत्मा को अमर मानता है और शरीर को एक वस्त्र की तरह — जो जन्म और मृत्यु के चक्र में बार-बार बदलता है।
📚 उपनिषदों में उल्लेख
उपनिषदों के अनुसार आत्मा अविनाशी, अनंत और नित्य है। शरीर नष्ट होता है परंतु आत्मा अपने कर्मों के अनुसार नया शरीर धारण करती है।
🔗 कर्म और पुनर्जन्म का संबंध
🧠 सिद्धांत
कर्म और पुनर्जन्म का आपसी गहरा संबंध है। व्यक्ति जो भी कर्म करता है, उसका फल अवश्य प्राप्त होता है — यदि इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में। इसलिए हर जन्म, पिछले जन्म के कर्मों का परिणाम और अगले जन्म की तैयारी होता है।
🪔 उदाहरण
यदि किसी व्यक्ति ने इस जीवन में अच्छे कर्म किए हैं, तो अगला जन्म सुखमय और आध्यात्मिक प्रगति वाला होगा। वहीं बुरे कर्म उसे कष्टप्रद परिस्थितियों में जन्म लेने को बाध्य कर सकते हैं।
☸️ विभिन्न दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म
🕉️ हिन्दू दर्शन
हिन्दू धर्म में आत्मा को ब्रह्म का अंश माना गया है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को सद्कर्म, ध्यान, भक्ति, और ज्ञान का पालन करना होता है।
🪷 बौद्ध दर्शन
बौद्ध धर्म में आत्मा की धारणा नहीं है, परंतु चेतना का पुनरुत्थान (re-becoming) होता है। कर्म चक्र (Karma Cycle) के आधार पर ही जन्म तय होता है।
🌿 जैन दर्शन
जैन धर्म कर्म को एक सूक्ष्म पदार्थ मानता है, जो आत्मा के साथ चिपक जाता है और मोक्ष के मार्ग में बाधा बनता है। तपस्या और संयम से ही यह कर्म हटता है।
🧘 मोक्ष: कर्म और पुनर्जन्म से मुक्ति
🕯️ मोक्ष का अर्थ
मोक्ष का अर्थ है – पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति। जब आत्मा अपने सारे कर्मफल भोग चुकी होती है और कोई नया कर्म नहीं करती, तब वह जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाती है।
📿 मोक्ष के मार्ग
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ज्ञान योग – आत्मा और ब्रह्म की एकता का बोध
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भक्ति योग – ईश्वर में पूर्ण समर्पण
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कर्म योग – निःस्वार्थ सेवा
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राज योग – ध्यान और समाधि
🧠 आधुनिक संदर्भ में कर्म और पुनर्जन्म
आज के वैज्ञानिक युग में भी अनेक लोग कर्म और पुनर्जन्म की अवधारणाओं को आत्मिक विकास, नैतिक मूल्यों और सामाजिक उत्तरदायित्व से जोड़ते हैं। मनोवैज्ञानिक भी पिछले जन्म की यादों और अनुभवों को कुछ विशेष मानसिक अवस्थाओं से जोड़ते हैं।
📝 निष्कर्ष
कर्म और पुनर्जन्म की अवधारणाएँ भारतीय जीवन-दर्शन की आधारशिला हैं। ये न केवल व्यक्ति को नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं, बल्कि यह भी सिखाती हैं कि हर कार्य का परिणाम होता है, और हमारे वर्तमान और भविष्य का निर्धारण हमारे कर्मों से ही होता है। पुनर्जन्म इस दृष्टिकोण को और सुदृढ़ करता है कि जीवन एक सतत यात्रा है, जहाँ हर जन्म हमें मोक्ष की दिशा में एक कदम आगे ले जा सकता है — यदि हम अपने कर्मों को जानकर और विवेकपूर्वक करें।
🏛️ प्रश्न 02: कुषाण काल में सामाजिक स्थिति
👑 भूमिका: एक शक्तिशाली युग की सामाजिक झलक
कुषाण वंश (प्रमुखतः कनिष्क के शासनकाल में) का समय भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण कालखंड रहा। यह न केवल राजनैतिक एकता का युग था, बल्कि सामाजिक संरचना, धार्मिक सहिष्णुता, जातिगत वर्गीकरण, महिलाओं की स्थिति, तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान के स्तर पर भी उल्लेखनीय बदलावों का समय था। कुषाण काल की सामाजिक स्थिति को समझने के लिए हमें जातीय, धार्मिक, आर्थिक, और लैंगिक पहलुओं पर दृष्टि डालनी होगी।
🧭 जातीय विविधता और सामाजिक वर्गीकरण
कुषाण साम्राज्य बहुजातीय था, जहाँ भारतीय, यूनानी, शक, पहलव, कुषाण, और अन्य मध्य एशियाई जनजातियाँ एकसाथ निवास करती थीं।
📌 जाति व्यवस्था
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चार वर्णों की परंपरागत व्यवस्था (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) प्रचलन में थी, लेकिन इसमें काफी लचीलापन देखा गया।
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ब्राह्मणों को धार्मिक मामलों में उच्च स्थान प्राप्त था लेकिन क्षत्रियों के साथ-साथ व्यापारिक वर्ग (विशेषतः वैश्य) भी अत्यंत प्रभावशाली हो गया था।
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शूद्रों की सामाजिक स्थिति में धीरे-धीरे सुधार हो रहा था, विशेषतः बौद्ध और क्षत्रप शासकों के प्रभाव में।
📌 विदेशी जातियों का समावेश
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कुषाण स्वयं एक विदेशी जनजाति थे, परंतु उन्होंने भारतीय संस्कृति को आत्मसात किया।
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शक-पहलव जैसे विदेशी भी भारतीय समाज में धीरे-धीरे शामिल हो गए और संस्कृत तथा बौद्ध धर्म को अपनाया।
🕊️ धार्मिक सहिष्णुता और विविधता
🛕 बहुधर्मीय समाज
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कुषाण काल में हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, और जैन धर्म का सह-अस्तित्व था।
-
विशेषतः कनिष्क ने महायान बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया। उनके शासन में बौद्ध धर्म एशिया में फैला।
🔯 अन्य धर्म
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ईरानी प्रभाव के कारण जोरास्ट्रीअनीज़्म और यूनानी प्रभाव से ग्रीक-देवताओं की पूजा भी सीमित स्तर पर जारी रही।
💼 आर्थिक समृद्धि और सामाजिक गतिशीलता
कुषाण काल व्यापार और शहरीकरण का युग था, जिससे समाज में नए वर्ग और सामाजिक गतिशीलता उत्पन्न हुई।
🏙️ व्यापारी वर्ग का उत्कर्ष
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अंतरराष्ट्रीय व्यापार (विशेषतः सिल्क रूट) के कारण व्यापारियों की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ी।
-
वैश्य वर्ग ने केवल आर्थिक ही नहीं, धार्मिक क्षेत्रों में भी निवेश किया – स्तूप निर्माण, बौद्ध विहार, और मंदिरों को दान देना।
🧑🏭 कारीगर और श्रमिक वर्ग
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दस्तकार, चित्रकार, मूर्तिकार, तथा अन्य श्रमिक वर्गों की माँग बढ़ गई, जिससे उनकी स्थिति बेहतर हुई।
-
शिल्पकला, विशेषतः गांधार व मथुरा शैली के विकास ने इस वर्ग की भूमिका को महत्वपूर्ण बना दिया।
👩🦱 महिलाओं की सामाजिक स्थिति
📚 शिक्षा और धर्म में सहभागिता
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कुछ शिलालेखों और बौद्ध ग्रंथों से जानकारी मिलती है कि महिलाएँ धार्मिक गतिविधियों में भाग लेती थीं।
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मठों और विहारों में भिक्षुणियों की उपस्थिति बौद्ध धर्म में महिलाओं की सक्रिय भूमिका दर्शाती है।
💍 विवाह और परिवार
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समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था विद्यमान थी, लेकिन कुछ क्षेत्रों में मातृसत्ता के संकेत भी मिलते हैं।
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विवाह संस्था मजबूत थी, परंतु बहुपत्नी प्रथा, विशेषकर उच्च वर्ग में, प्रचलित थी।
📖 शिक्षा और संस्कृति
🏫 शैक्षिक संस्थान
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इस काल में नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों का अस्तित्व रहा।
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महायान बौद्ध ग्रंथों की रचना और संस्कृत साहित्य का विकास भी इसी युग में हुआ।
🎭 सांस्कृतिक आदान-प्रदान
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यूनानी, ईरानी और भारतीय सांस्कृतिक तत्वों का मिश्रण देखा गया।
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कपड़ों, आभूषणों और जीवनशैली में भी मिश्रित संस्कृति की छाप थी।
🧘 धार्मिक आंदोलनों का सामाजिक प्रभाव
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महायान बौद्ध धर्म ने करुणा, समानता और दान को प्राथमिकता दी, जिससे समाज में समरसता की भावना बढ़ी।
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जाति व्यवस्था पर धार्मिक आंदोलन का सकारात्मक प्रभाव पड़ा।
📌 निष्कर्ष: सामाजिक समरसता और विविधता का युग
कुषाण काल की सामाजिक स्थिति एक मिश्रित और गतिशील समाज की तस्वीर प्रस्तुत करती है। इस काल में:
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जातीय विविधता को सामाजिक एकता में बदला गया।
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धर्मों में सह-अस्तित्व और सहिष्णुता को बढ़ावा मिला।
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व्यापार और शिल्पकला के माध्यम से आर्थिक और सामाजिक वर्गों का पुनर्गठन हुआ।
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महिलाओं की स्थिति में आंशिक सुधार और धार्मिक सहभागिता रही।
इस प्रकार, कुषाण काल एक ऐसा युग था जिसमें समाज ने विविधता को अपनाया और सामाजिक संरचना में अनेक सकारात्मक बदलावों को देखा।
🛕 प्रश्न 03: मथुरा कला की विवेचना कीजिए।
🎨 मथुरा कला: एक ऐतिहासिक झलक
मथुरा कला प्राचीन भारत की एक समृद्ध और विशिष्ट कला परंपरा है, जिसका विकास मथुरा नगर (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में मुख्य रूप से शुंग, कुषाण और गुप्त काल में हुआ। यह कला शैली अपने जीवंत, भावप्रधान और भारतीय संस्कृति से गहराई से जुड़े स्वरूप के लिए प्रसिद्ध है।
🏛️ मथुरा कला का उद्भव और विकास
📍 भौगोलिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
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मथुरा उत्तर भारत का एक प्रमुख धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र था।
-
यह हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मों का संगम स्थल रहा है।
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इसकी स्थिति व्यापार मार्गों के निकट होने के कारण यहाँ अनेक सांस्कृतिक प्रभाव आए।
🕰️ ऐतिहासिक कालखंड
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शुंग काल (185–73 ई.पू.): मथुरा कला का प्रारंभिक विकास।
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कुषाण काल (1st–3rd शताब्दी ई.): मथुरा कला का स्वर्ण युग।
-
गुप्त काल (4th–6th शताब्दी ई.): इस कला का शुद्धिकरण और भारतीयकरण।
👁️ मथुरा कला की प्रमुख विशेषताएँ
🧍 मूर्तिकला में भावाभिव्यक्ति
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मूर्तियाँ अत्यंत जीवंत, स्वाभाविक और गतिशील दिखाई देती हैं।
-
चेहरे पर भाव, हल्की मुस्कान और आत्मिक शांति झलकती है।
👑 भारतीय तत्वों की प्रधानता
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देवताओं, तीर्थंकरों एवं बुद्ध की प्रतिमाओं में भारतीय रूप और वस्त्रों की स्पष्टता।
-
यवन शैली की तुलना में अधिक भारतीय भावनाओं का समावेश।
🪨 लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग
-
मथुरा की मूर्तियाँ मुख्यतः स्थानीय लाल बलुआ पत्थर से बनाई जाती थीं।
-
इस पत्थर में गहराई से नक्काशी करना संभव था जिससे मूर्तियों में विवरण अधिक सूक्ष्म होता था।
🧘 धार्मिक मूर्तिकला का विविध रूप
☸️ बौद्ध मूर्तियाँ
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बुद्ध की प्रतिमाओं की शुरुआत यहीं से मानी जाती है।
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बुद्ध को मनुष्य रूप में पहली बार मथुरा शैली में दर्शाया गया।
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ध्यान मुद्रा, अभय मुद्रा आदि मुद्राओं में बुद्ध की मूर्तियाँ बनाई गईं।
🕉️ हिन्दू मूर्तियाँ
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विष्णु, शिव, लक्ष्मी, गणेश आदि देवताओं की मूर्तियाँ।
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नारी रूपों में सौंदर्य और मातृत्व की भावना को दर्शाया गया।
🕊️ जैन मूर्तियाँ
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तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ ध्यान मुद्रा में, अत्यंत सरल और गंभीर रूप में।
-
इन मूर्तियों में आभूषण या सजावट नहीं होती थी।
🪑 स्थापत्य कला में योगदान
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मंदिरों, चैत्य-गृहों और स्तूपों की सजावट में उपयोग।
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मथुरा कला की मूर्तियाँ दीवारों, द्वारों और वेदिकाओं पर उकेरी जाती थीं।
🧱 प्रमुख उदाहरण और स्थल
🏺 महत्वपूर्ण मूर्तियाँ
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कनिष्क की मूर्ति: कुशाण शासक की शक्तिशाली मूर्ति।
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बुद्ध की ध्यानमग्न मूर्तियाँ, विशेषकर 'सारनाथ बुद्ध'।
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ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ जैसे जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ।
📍 संग्रहालय
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मथुरा संग्रहालय (Government Museum, Mathura) में हजारों मथुरा कला की दुर्लभ प्रतिमाएँ संरक्षित हैं।
⚖️ गांधार कला और मथुरा कला का तुलनात्मक दृष्टिकोण
पक्ष | मथुरा कला | गांधार कला |
---|---|---|
शैली | भारतीय | ग्रीको-रोमन |
सामग्री | लाल बलुआ पत्थर | स्लेट पत्थर |
भाव | आध्यात्मिक, भावप्रधान | यथार्थपरक, सौंदर्यपरक |
विषय | हिंदू, बौद्ध, जैन | मुख्यतः बौद्ध |
🧠 मथुरा कला का प्रभाव और महत्व
🪔 सांस्कृतिक प्रभाव
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मथुरा कला ने भारतीय धार्मिक मूर्तिकला की नींव रखी।
-
भारतीयता और भावनात्मक अभिव्यक्ति को केंद्र में रखा गया।
🏆 कलात्मक उपलब्धियाँ
-
विश्व की पहली मानवीय बुद्ध प्रतिमा का निर्माण यहीं हुआ।
-
शुद्ध भारतीय शैली की शुरुआत मथुरा से ही मानी जाती है।
🌍 वैश्विक प्रभाव
-
भारत के बाहर नेपाल, चीन, जापान आदि देशों में इस शैली का प्रभाव देखा गया।
📝 निष्कर्ष: मथुरा कला — भारतीय आत्मा की अभिव्यक्ति
मथुरा कला केवल पत्थरों की नक्काशी नहीं थी, बल्कि यह भारतीय आत्मा की एक गहन अभिव्यक्ति थी। इसकी मूर्तियाँ आज भी हमें भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और कलात्मक समृद्धि की कहानी सुनाती हैं। इसकी विशेषताएँ, भावप्रवणता और भारतीयता इसे न केवल विशिष्ट बनाती हैं, बल्कि इसे विश्व कला के मंच पर एक महत्वपूर्ण स्थान भी प्रदान करती हैं।
प्रश्न 04: गुप्तकालीन आर्थिक स्थिति
📜 प्रस्तावना
गुप्त काल (लगभग 320 ई. से 550 ई.) को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। इस काल में न केवल कला, संस्कृति और साहित्य का उत्कर्ष हुआ, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी भारत ने एक समृद्ध और संतुलित विकास प्राप्त किया। कृषि, उद्योग, व्यापार और मुद्रा व्यवस्था – सभी क्षेत्रों में आर्थिक उन्नति देखी गई।
🌾 कृषि: अर्थव्यवस्था की रीढ़
🧑🌾 कृषि का विकास
गुप्त काल में कृषि भारत की प्रमुख आर्थिक गतिविधि रही। सिंचाई की उन्नत व्यवस्थाओं (नहरें, कुएं, तालाब) का विकास हुआ जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई।
🌱 फसलें और कृषि विविधता
-
प्रमुख फसलें: गेहूं, चावल, जौ, गन्ना, तिल, सरसों।
-
कृषकों को भूमि पर स्वामित्व नहीं होता था, वे राजा को कर देकर खेती करते थे।
💸 कर व्यवस्था
-
कृषकों से "भोग", "उदक", "कर" आदि कर लिए जाते थे।
-
कर प्राकृतिक या नकद दोनों रूप में लिया जाता था।
🏭 उद्योग एवं शिल्पकला
🧵 हस्तशिल्प का विकास
गुप्तकालीन समाज में हथकरघा, मिट्टी के बर्तन, आभूषण, धातु कला और मूर्तिकला का बड़ा महत्व था।
🪔 प्रमुख उद्योग
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वस्त्र उद्योग: कौशेय (रेशम), कार्पास (कपास) वस्त्रों का निर्माण।
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धातु उद्योग: लौह, तांबा, सोना, चांदी की मूर्तियाँ एवं वस्तुएँ।
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कांच, मृदभांड, मणि-मुक्ता, चमड़ा, इत्र आदि का उत्पादन।
🛣️ व्यापार एवं वाणिज्य
🌐 आंतरिक और बाह्य व्यापार
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आंतरिक व्यापार: नगरों और ग्रामों के बीच वस्तुओं का आदान-प्रदान।
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बाह्य व्यापार: रोम, चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार संबंध।
⚓ प्रमुख व्यापारिक केंद्र
-
पाटलिपुत्र, उज्जयिनी, वाराणसी, मथुरा, ताम्रलिप्ति।
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बंदरगाहों के माध्यम से जलमार्ग से व्यापार होता था।
💰 मुद्रा प्रणाली
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गुप्त शासकों ने सोने की स्वर्ण मुद्राएं (Dinar) जारी कीं।
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इन मुद्राओं पर शासकों के नाम और चित्र खुदे होते थे।
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यह दर्शाता है कि व्यापारिक लेन-देन में नकदी का प्रयोग बढ़ा।
🏙️ नगरीकरण एवं शहरी अर्थव्यवस्था
🏘️ नगरों का विकास
गुप्त काल में कई नगर व्यापार, शिक्षा और प्रशासनिक दृष्टि से विकसित हुए। नगरों में शिल्पकार, व्यापारी, ब्राह्मण, चिकित्सक, शिक्षक आदि निवास करते थे।
🛍️ बाजार व्यवस्था
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हर नगर में 'हाट' या बाजार होते थे।
-
व्यापारिक गिल्ड (श्रेणियाँ) भी विकसित हो चुकी थीं, जो वस्तुओं की गुणवत्ता व दाम नियंत्रित करती थीं।
🧾 भूमिदान एवं समाज में आर्थिक परिवर्तन
🪔 ब्राह्मणों और मंदिरों को भूमि दान
गुप्त शासकों ने धार्मिक कार्यों के लिए भूमि दान की परंपरा शुरू की जिससे कई गांव और कृषि क्षेत्र मठों व मंदिरों के अधीन हो गए।
📜 भूमि दानपत्र
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भूमि दान के प्रमाणपत्र ताम्रपत्रों पर खुदे होते थे।
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ये अर्थव्यवस्था के दस्तावेजीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम थे।
🧠 शिक्षा एवं अर्थव्यवस्था का संबंध
🎓 शिक्षा का प्रोत्साहन
गुप्त काल में शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में भी विकास हुआ, जिससे व्यवसायिक प्रशिक्षण (विशेषतः आयुर्वेद, गणित, खगोलशास्त्र) ने आर्थिक गतिविधियों को सुदृढ़ किया।
🔬 तकनीकी कौशल
विशेषज्ञ कारीगरों और इंजीनियरों ने सिंचाई, निर्माण और औद्योगिक क्षेत्रों में नई तकनीकें अपनाई, जिससे उत्पादन में वृद्धि हुई।
🧭 निष्कर्ष
गुप्तकालीन भारत की आर्थिक स्थिति अत्यंत सुदृढ़ और समृद्ध थी। कृषि, उद्योग, व्यापार, मुद्रा व्यवस्था, नगरीकरण सभी क्षेत्रों में संतुलित विकास देखने को मिला। यही कारण है कि यह युग "भारत का स्वर्ण युग" कहलाता है। गुप्त शासकों की कुशल नीति, व्यापारिक संबंध और सांस्कृतिक समृद्धि ने इस युग को आर्थिक दृष्टि से भी स्वर्णिम बना दिया।
🕍 प्रश्न 05: गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य कला
🎨 गुप्तकाल: भारतीय कला का स्वर्ण युग
गुप्तकाल (चौथी से छठी शताब्दी ईस्वी) को भारतीय इतिहास का "स्वर्ण युग" कहा जाता है। इस युग में न केवल साहित्य, विज्ञान, गणित और धर्म का विकास हुआ, बल्कि मंदिर स्थापत्य कला ने भी एक नई ऊँचाई प्राप्त की। गुप्त शासकों ने कला को शाही संरक्षण दिया, जिससे धार्मिक वास्तुकला विशेष रूप से मंदिरों का निर्माण सुविकसित और संगठित रूप में हुआ।
🏛️ गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएँ
🔸 1. मंदिर निर्माण की प्रारंभिक शैली
गुप्तकाल से पहले अधिकतर पूजा स्थलों का निर्माण लकड़ी या अस्थायी सामग्री से होता था। परंतु गुप्तकाल में पहली बार पत्थरों से स्थायी मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ। इससे भारतीय स्थापत्य में एक नया युग आरंभ हुआ।
🔸 2. गर्भगृह (Garbhagriha)
गुप्त मंदिरों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है "गर्भगृह" – जहाँ देवता की मूर्ति स्थापित की जाती थी। यह पूजा का मुख्य स्थान होता था, और श्रद्धालु इस स्थान के चारों ओर घूमकर परिक्रमा करते थे।
🔸 3. शिखर का विकास
गुप्तकाल में मंदिरों के ऊपर शिखर (superstructure) बनने की शुरुआत हुई। यह शिखर बाद में उत्तर भारतीय नागर शैली का आधार बना।
🔸 4. मण्डप का प्रयोग
कुछ गुप्त मंदिरों में मण्डप (सभा स्थल या बरामदा) भी जोड़ा गया, जहाँ श्रद्धालु इकट्ठा होकर पूजा कर सकते थे।
🧱 निर्माण शैली और सामग्री
🧱 पत्थर और ईंटों का उपयोग
गुप्तकाल में मंदिरों का निर्माण प्रायः रेत के पत्थरों या पकी हुई ईंटों से किया गया। ईंटों का प्रयोग विशेष रूप से उत्तर भारत में देखा गया है।
🧵 अलंकरण
गुप्तकालीन मंदिरों पर अत्यधिक नक्काशी नहीं होती थी। अलंकरण सरल, सूक्ष्म और धार्मिक प्रतीकों पर आधारित होते थे। मुख्य ध्यान देवमूर्ति और स्थापत्य संतुलन पर दिया गया।
🏞️ प्रमुख गुप्तकालीन मंदिरों का विवरण
1️⃣ दशावतार मंदिर, देवगढ़ (उत्तर प्रदेश)
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यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है।
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इसमें चारों ओर से प्रवेश द्वार हैं और अंदर गर्भगृह है।
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शिखर की योजना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
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बाहरी दीवारों पर रामायण और महाभारत के दृश्य अंकित हैं।
2️⃣ भीतरी गांव मंदिर (उत्तर प्रदेश)
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यह उत्तर भारत का सबसे प्राचीन पत्थर का मंदिर माना जाता है।
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इसकी छत सपाट है और शिखर नहीं है, जिससे पता चलता है कि यह मंदिर निर्माण की प्रारंभिक अवस्था में है।
3️⃣ सांची मंदिर संख्या 17 (मध्य प्रदेश)
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यह मंदिर एक सीधा-सादा वर्गाकार ढांचा है।
-
इसमें गर्भगृह और स्तंभों वाला बरामदा (मण्डप) है।
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यह बौद्ध वास्तुकला से हिंदू मंदिर शैली की ओर बढ़ते हुए परिवर्तन का परिचायक है।
🧭 स्थापत्य शैलियों की नींव
🔹 नागर शैली का आरंभ
गुप्तकाल में उत्तर भारत में जो मंदिर निर्माण प्रारंभ हुआ, वह आगे चलकर नागर शैली का आधार बना। इसमें शिखर सीधा ऊँचाई की ओर बढ़ता है।
🔹 द्रविड़ शैली पर प्रभाव
हालाँकि गुप्तकाल मुख्यतः उत्तर भारत में प्रभावी रहा, पर दक्षिण भारत की द्रविड़ शैली के आरंभिक रूपों पर भी इसका परोक्ष प्रभाव रहा।
🎭 मूर्तिकला और धार्मिक चेतना
गुप्तकालीन मंदिर न केवल वास्तुकला के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि उनमें स्थापित मूर्तियाँ भी धार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक दृष्टि से उच्च कोटि की मानी जाती हैं। इन मूर्तियों में:
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देवताओं की सौम्यता और गहराई
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भावों की प्रकृतिपूर्ण अभिव्यक्ति
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शरीर की संगत अनुपात
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वस्त्र और आभूषणों का सूक्ष्म विवरण देखा जा सकता है।
🧠 गुप्तकालीन स्थापत्य का प्रभाव और विरासत
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गुप्त मंदिरों ने भारतीय उपमहाद्वीप में मंदिर निर्माण की मूलभूत योजनाओं की नींव रखी।
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बाद में राजपूत, चालुक्य, पल्लव, चोल और अन्य शासकों ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया।
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गुप्तकाल का प्रभाव सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय पहचान के निर्माण में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
📌 निष्कर्ष
गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य भारतीय वास्तुकला की आधारशिला है। इन मंदिरों ने केवल धार्मिक केंद्र के रूप में ही नहीं, बल्कि कला, संस्कृति और स्थापत्य उत्कृष्टता के प्रतीक के रूप में कार्य किया। गुप्त शासकों के संरक्षण में जो मंदिर शैली विकसित हुई, उसने भारत की भावी कला यात्रा को एक स्थायी दिशा दी। इन मंदिरों में सादगी, श्रद्धा, संतुलन और कलात्मक उत्कृष्टता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
🏛️ प्रश्न 06: चोल प्रशासन
📜 चोल वंश का ऐतिहासिक परिचय
दक्षिण भारत के इतिहास में चोल वंश एक अत्यंत महत्वपूर्ण राजवंश रहा है। यह वंश प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक, विशेष रूप से 9वीं से 13वीं शताब्दी तक, अत्यंत शक्तिशाली और संगठित प्रशासन के लिए प्रसिद्ध रहा। चोल राजाओं ने न केवल दक्षिण भारत बल्कि श्रीलंका, मालदीव और दक्षिण-पूर्व एशिया तक अपने प्रभाव का विस्तार किया।
🧭 चोल प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ
🧑⚖️ 1. राजा की सर्वोच्चता
चोल शासन प्रणाली में राजा को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। उसकी आज्ञा को कानून समझा जाता था। वह न्याय, सेना, धर्म और प्रशासन का केंद्र था।
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राजा अपने मंत्रियों की सलाह लेता था लेकिन निर्णय लेने का अंतिम अधिकार उसी का होता था।
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राजराज चोल और राजेंद्र चोल जैसे शासकों ने प्रशासन में अनुशासन और कुशलता का उदाहरण प्रस्तुत किया।
🏰 2. केंद्रीकृत और विकेंद्रीकृत शासन का संतुलन
चोलों ने प्रशासन में केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण दोनों का समन्वय किया।
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साम्राज्य को मंडलों (मंडलम), जिलों (वलनाडु), उप-जिलों (नाडु), और गांवों (उर) में विभाजित किया गया।
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प्रत्येक स्तर पर अधिकारी नियुक्त होते थे और उन्हें स्वतंत्रता भी दी जाती थी।
🏘️ ग्राम प्रशासन: चोलों की अद्वितीय देन
🗳️ 1. स्वशासन की परंपरा
चोलों का ग्राम प्रशासन अत्यंत व्यवस्थित था। गाँव के लोग स्वयं अपने प्रतिनिधि चुनते थे। यह प्रणाली उत्तरमेरी शिलालेखों से ज्ञात होती है।
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प्रत्येक गाँव में सभा (ब्राह्मणों की समिति) और उर (गैर-ब्राह्मणों की समिति) होती थी।
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निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाते थे और गांव के विकास हेतु योजनाएँ बनाई जाती थीं।
📝 2. समिति प्रणाली
ग्राम सभा में विभिन्न कार्यों के लिए अलग-अलग समितियाँ होती थीं, जैसे:
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एरीवारीम समिति (सिंचाई)
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पंचवारा समिति (न्याय)
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धर्म समिति (धार्मिक कार्य)
इन समितियों के सदस्य चयन की प्रक्रिया अत्यंत लोकतांत्रिक थी – कुडवोलाई प्रणाली के अंतर्गत चिट्ठियों द्वारा नाम चयन किया जाता था।
⚔️ चोलों की सैन्य व्यवस्था
🛡️ 1. स्थायी सेना
चोलों के पास एक संगठित और स्थायी सेना थी, जिसमें पैदल सैनिक, अश्वारोही, रथ और हाथी सेना शामिल थे।
🚢 2. नौसेना की शक्ति
चोलों की नौसेना अत्यंत शक्तिशाली थी। उन्होंने श्रीलंका, जावा, सुमात्रा, और मलाया जैसे क्षेत्रों पर समुद्री आक्रमण किए।
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समुद्री शक्ति के लिए चोलों को "भारत के प्रथम समुद्री सम्राट" भी कहा जाता है।
📊 राजस्व और कर प्रणाली
💰 1. भूमि कर
भूमि कर चोल शासन की आय का मुख्य स्रोत था। भूमि को उपज के आधार पर वर्गीकृत किया जाता था।
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कृषि भूमि से अधिक कर लिया जाता था।
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भूमि का सर्वेक्षण और अभिलेखों का संधारण किया जाता था।
🧾 2. अन्य कर
इसके अतिरिक्त व्यापार, दस्तकारी, पशुपालन आदि से भी कर वसूला जाता था।
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बाजारों से शुल्क
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व्यापार मार्गों से टोल टैक्स
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मंदिरों को मिलने वाली भूमि पर विशेष व्यवस्था
⛩️ धर्म और मंदिर प्रशासन
चोल शासक शैव धर्म के अनुयायी थे लेकिन उन्होंने सभी धर्मों को संरक्षण दिया।
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मंदिर न केवल धार्मिक स्थल थे बल्कि शैक्षणिक, सामाजिक और प्रशासनिक केंद्र भी थे।
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मंदिरों की भूमि से प्राप्त आय का प्रयोग विद्यालयों, अनाथालयों और सार्वजनिक कार्यों में किया जाता था।
🗂️ दस्तावेज़ीकरण और लेखा प्रणाली
चोल प्रशासन में लेखन व्यवस्था अत्यंत विकसित थी। ताम्रपत्र और शिलालेखों के माध्यम से राजाज्ञाएँ, भूमि दान, और प्रशासनिक निर्णय दर्ज किए जाते थे।
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इससे पारदर्शिता बनी रहती थी।
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ब्राह्मण और कायस्थ वर्ग इस कार्य में विशेष रूप से संलग्न था।
🏛️ न्याय प्रणाली
चोलों ने न्याय व्यवस्था को भी सुदृढ़ किया।
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राजा न्याय का सर्वोच्च स्रोत था।
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ग्राम स्तर पर पंचायतें न्याय करती थीं।
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दंड व्यवस्था कठोर थी लेकिन न्यायिक प्रक्रिया व्यवस्थित थी।
📈 चोल प्रशासन की विशेषताएँ: एक सारांश
क्षेत्र | विशेषताएँ |
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शासन प्रणाली | केंद्रीकृत+विकेंद्रीकृत |
ग्राम प्रशासन | स्वायत्त ग्राम सभाएँ |
सेना | शक्तिशाली थल और नौसेना |
कर व्यवस्था | भूमि आधारित और व्यापारिक कर |
न्याय | राजा और ग्राम स्तर पर व्यवस्था |
मंदिर प्रशासन | धर्म, शिक्षा, प्रशासन का केंद्र |
🧠 निष्कर्ष: क्यों था चोल प्रशासन अनूठा?
चोलों की प्रशासनिक प्रणाली न केवल संगठित थी बल्कि स्थानीय स्वशासन को भी महत्व देती थी। उनकी लोकतांत्रिक ग्राम व्यवस्थाएँ, दस्तावेज आधारित शासन, और संगठित सैन्य शक्ति उन्हें अन्य समकालीन शासकों से अलग बनाती हैं।
चोल प्रशासन आज भी स्थानीय स्वशासन के आदर्श मॉडल के रूप में अध्ययन का विषय है।
🏛️ प्रश्न 07: गुर्जर प्रतिहार स्थापत्य की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
🧱 गुर्जर प्रतिहार वंश: एक संक्षिप्त परिचय
गुर्जर प्रतिहार वंश (8वीं से 11वीं शताब्दी) उत्तर भारत का एक शक्तिशाली राजवंश था। इस वंश ने न केवल राजनीतिक स्थिरता प्रदान की, बल्कि कला, संस्कृति एवं स्थापत्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह काल उत्तर भारत के मंदिर स्थापत्य के "शिखर युग" के रूप में जाना जाता है।
🏗️ स्थापत्य शैली की विशेषताएँ 🔎
गुर्जर प्रतिहारों की स्थापत्य शैली को "नागर शैली" (North Indian Style of Architecture) के अंतर्गत रखा जाता है। इसकी विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
🛕 1. नागर शैली का उत्कर्ष
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गुर्जर प्रतिहारों ने नागर शैली को विकसित किया।
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इसमें शिखर (Spire) का विशेष महत्व होता है।
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गर्भगृह (Sanctum), मंडप (Mandapa) और प्रवेशद्वार (Torana) स्पष्ट रूप से परिभाषित रहते हैं।
🧩 2. उत्कृष्ट शिल्पकारी
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पत्थरों की नक्काशी अत्यंत सूक्ष्म और कलात्मक होती थी।
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देवी-देवताओं, यक्ष-यक्षिणियों, गंधर्वों और मिथुन युग्मों की आकृतियाँ उकेरी जाती थीं।
🧱 3. सैंडस्टोन (लाल बलुआ पत्थर) का प्रयोग
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अधिकांश मंदिरों का निर्माण बलुआ पत्थर से किया गया।
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इस पत्थर पर बारीक नक्काशी करना संभव होता था।
🛕 प्रमुख स्थापत्य उदाहरण 🏞️
गुर्जर प्रतिहारों ने कई महत्वपूर्ण मंदिरों और स्थापत्य स्मारकों का निर्माण कराया। उनमें से कुछ प्रसिद्ध उदाहरण निम्नलिखित हैं:
🛕 1. तीजा जी का मंदिर (ओसियां, राजस्थान)
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यह मंदिर प्रतिहार काल की स्थापत्य प्रतिभा का अद्वितीय उदाहरण है।
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इसमें बहुस्तरीय शिखर, नक्काशीदार द्वार और स्तंभों पर अत्यंत सुंदर मूर्तियाँ हैं।
🛕 2. सूर्य मंदिर (ओसियां)
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गुर्जर प्रतिहार काल का एक और प्रसिद्ध मंदिर, जिसमें सूर्य देव की भव्य मूर्ति और अलंकृत मंडप हैं।
🛕 3. खजुराहो के प्रारंभिक मंदिर
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यद्यपि खजुराहो मंदिरों का अधिकांश निर्माण चंदेलों ने कराया, लेकिन प्रारंभिक मंदिरों पर प्रतिहारों का प्रभाव देखा गया है।
✍️ स्थापत्य की कलात्मक विशेषताएँ 🖌️
🎨 1. मूर्तिकला और सज्जा
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दीवारों और स्तंभों पर मिथकीय कथाएँ, देवी-देवताओं के रूप, प्राकृतिक दृश्य और मानव आकृतियाँ उकेरी जाती थीं।
📐 2. सममिति और अनुपात
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मंदिरों की संरचना में संतुलन और सममिति का विशेष ध्यान रखा जाता था।
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शिखर और गर्भगृह का अनुपात वैज्ञानिक और सुंदर होता था।
🎭 3. धार्मिक विविधता
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मंदिरों में विष्णु, शिव, दुर्गा आदि सभी प्रमुख देवताओं की पूजा होती थी।
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स्थापत्य में सभी संप्रदायों की कला झलकती है।
🌍 क्षेत्रीय विस्तार और प्रभाव 🗺️
गुर्जर प्रतिहारों का स्थापत्य उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसका प्रभाव मध्य भारत और राजस्थान तक फैला।
🏞️ 1. राजस्थान में मंदिर निर्माण
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ओसियां, आबू पर्वत, रणकपुर आदि क्षेत्रों में गुर्जर स्थापत्य शैली की झलक मिलती है।
📍 2. मध्य भारत पर प्रभाव
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उज्जैन, ग्वालियर आदि क्षेत्रों में नागर शैली के मंदिरों पर प्रतिहारों का सीधा प्रभाव देखा गया है।
🏆 स्थापत्य की ऐतिहासिक महत्ता 📚
गुर्जर प्रतिहार स्थापत्य भारतीय कला के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान रखता है:
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यह काल भारतीय मंदिर स्थापत्य के परिपक्व चरण को दर्शाता है।
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बाद के चंदेल, परमार, चालुक्य वंशों ने इसी शैली को आगे बढ़ाया।
🧩 निष्कर्ष ✨
गुर्जर प्रतिहारों ने न केवल एक सशक्त साम्राज्य खड़ा किया बल्कि भारतीय स्थापत्य को भी समृद्ध किया। उनके द्वारा निर्मित मंदिरों में शिल्पकला, समरूपता और धार्मिक चेतना का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। उनकी स्थापत्य शैली ने उत्तर भारत की सांस्कृतिक विरासत को सुदृढ़ किया और भावी पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणास्रोत बन गई।
🏛️ प्रश्न 08: पल्लवकालीन कला
🎨 पल्लव वंश का सांस्कृतिक योगदान
पल्लव वंश (300 ई. – 900 ई.) दक्षिण भारत के प्राचीनतम राजवंशों में से एक था, जिसने कला, स्थापत्य, मूर्तिकला और संस्कृति के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया। पल्लवकालीन कला मुख्यतः मंदिर स्थापत्य, गुफा स्थापत्य और मूर्तिकला के रूप में दृष्टिगोचर होती है।
🏗️ स्थापत्य कला की विशेषताएँ
🪨 हाइब्रिड स्थापत्य शैली
पल्लवों ने दो प्रमुख स्थापत्य शैलियों का विकास किया:
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मोनोलिथिक रॉक कट स्टाइल (Shore Temples & Rathas)
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स्ट्रक्चरल मंदिर स्थापत्य (Masonry Temples)
🛕 रॉक कट मंदिर (गुफा मंदिर)
🧱 विशेषताएँ:
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चट्टानों को काटकर बनाए गए।
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शुरुआत महेंद्रवर्मन प्रथम के काल में हुई।
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स्तंभों पर उत्कृष्ट नक़्क़ाशी।
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आंतरिक गर्भगृह और मंडप।
🌟 प्रमुख उदाहरण:
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मामल्लपुरम की मंडप गुफाएँ जैसे – महिषासुरमर्दिनी गुफा, वराह गुफा, कृष्णा मंडप।
🏰 रथ मंदिर शैली
🐘 ‘पंच रथ’ मंदिर
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यह मंदिर "महाबलीपुरम" में स्थित हैं।
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चट्टानों से काटकर रथों के आकार में बनाए गए।
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इनमें से प्रत्येक रथ किसी पौराणिक पात्र के नाम पर है:
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धर्मराज रथ
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भीम रथ
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अर्जुन रथ
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नकुल-सहदेव रथ
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द्रौपदी रथ
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🎯 विशेषताएँ:
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इनमें नागर और द्रविड़ शैली का समन्वय दिखता है।
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वास्तुकला में सुंदर अनुपातबद्धता और साज-सज्जा।
⛩️ स्ट्रक्चरल मंदिर स्थापत्य
🔨 नरेश राजसिंह प्रथम के समय का उत्कर्ष
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मंदिर अब पत्थरों को जोड़कर बनाए गए (structural temples)।
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वास्तुकला में संतुलन, स्थायित्व और सौंदर्य।
🌊 प्रमुख उदाहरण:
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शोर मंदिर, महाबलीपुरम: यह विश्व धरोहर सूची में शामिल है। इसमें भगवान विष्णु और शिव की मूर्तियाँ हैं।
🗿 मूर्तिकला की विशेषताएँ
✨ मानव आकृतियाँ और देवी-देवता
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मूर्तियों में भाव-भंगिमा और जीवंतता।
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देवताओं की शांति व शक्ति का संतुलित चित्रण।
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नरसिंह, विष्णु, शिव और दुर्गा की अनेक प्रतिमाएँ।
🐅 प्रमुख उदाहरण:
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महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की गुफा मूर्ति।
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वराह अवतार की गुफा मूर्ति – जहाँ वराह पृथ्वी को जल से निकालते हैं।
📐 वास्तुकला के तकनीकी पक्ष
🏛️ स्तंभ एवं छत डिज़ाइन
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पल्लव स्तंभों में घंटा आभूषण, कमल आकृति आदि आम है।
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छतें समकोण त्रिकोणीय होती थीं।
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वास्तुशिल्पियों ने सुंदर छायांकन का उपयोग किया।
📏 योजना
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गर्भगृह, अंतराल, सभा मंडप और मुख मंडप – चार मुख्य भागों में मंदिर विभाजित।
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दिशाओं का ध्यान रखा जाता था।
🏅 पल्लव कला की वैश्विक मान्यता
🌍 यूनेस्को की विश्व धरोहर
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महाबलीपुरम समूह (Group of Monuments at Mahabalipuram) को यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित किया है।
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यह स्थल न केवल स्थापत्य के लिए, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर के लिए भी प्रसिद्ध है।
🧳 पर्यटन स्थल
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आज भी महाबलीपुरम एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल है।
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कला प्रेमियों के लिए यह स्थल एक जीता-जागता संग्रहालय है।
🧠 निष्कर्ष: पल्लवकालीन कला की पहचान
🔍 मुख्य बिंदु:
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रॉक कट से स्ट्रक्चरल स्थापत्य की ओर संक्रमण।
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मूर्तिकला में शारीरिक सौंदर्य, भावनात्मक अभिव्यक्ति।
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वास्तु शास्त्र और धार्मिकता का अनूठा समन्वय।
🏁 समापन टिप्पणी:
पल्लवकालीन कला न केवल दक्षिण भारत की सांस्कृतिक पहचान है, बल्कि सम्पूर्ण भारत के प्राचीन वास्तुकला विकास का एक गौरवशाली अध्याय भी है। उनकी स्थापत्य कला आज भी प्रेरणा का स्रोत है और यह दर्शाती है कि किस प्रकार शासकों ने कला को राजसत्ता का उपकरण नहीं, बल्कि संस्कृति का संवाहक बनाया।