BAHI(N)220 SOLVED QUESTION PAPER 2024
LONG ANSWER TYPE QUESTIONS
प्रश्न 01 सभ्यता और संस्कृति पर एक निबंध लिखिए।
मनुष्य का विकास केवल शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक, सामाजिक और नैतिक रूप से भी हुआ है। इस विकास की प्रक्रिया में सभ्यता और संस्कृति दो महत्वपूर्ण घटक हैं, जो किसी समाज की पहचान और उसके ऐतिहासिक विकास को दर्शाते हैं। ये दोनों शब्द परस्पर जुड़े हुए हैं, लेकिन इनमें मौलिक अंतर भी है। सभ्यता भौतिक प्रगति और तकनीकी उन्नति से जुड़ी होती है, जबकि संस्कृति समाज के नैतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक पहलुओं से संबंधित होती है।
सभ्यता का अर्थ और विशेषताएँ
सभ्यता का संबंध किसी समाज की भौतिक उपलब्धियों से होता है। इसमें विज्ञान, तकनीक, वास्तुकला, शासन प्रणाली, यातायात के साधन, चिकित्सा और औद्योगीकरण जैसी भौतिक प्रगति शामिल होती है। सभ्यता समाज के बाहरी ढांचे को निर्धारित करती है और यह समय के साथ निरंतर विकसित होती रहती है। प्राचीन काल में सिंधु घाटी, मिस्र, मेसोपोटामिया और यूनानी सभ्यताएँ अपनी भव्य नगर योजनाओं, व्यापारिक व्यवस्था और वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण जानी जाती थीं। आधुनिक सभ्यता विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में तीव्र गति से आगे बढ़ रही है, जिससे संचार, परिवहन और चिकित्सा के क्षेत्र में अद्वितीय प्रगति हुई है।
संस्कृति का अर्थ और विशेषताएँ
संस्कृति किसी समाज की आत्मा होती है। यह उसके विचारों, परंपराओं, धर्म, नैतिकता, भाषा, साहित्य, कला, संगीत और मानवीय मूल्यों का परिचायक होती है। संस्कृति वह विरासत है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती है और समाज को एक विशेष पहचान प्रदान करती है। भारतीय संस्कृति अपनी आध्यात्मिकता, सहिष्णुता, विविधता और समृद्ध परंपराओं के कारण विश्वभर में प्रसिद्ध है। संस्कृति का विकास समाज की सोच और मूल्यों के आधार पर होता है, जो उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनाते हैं।
सभ्यता और संस्कृति में अंतर
सभ्यता और संस्कृति में मुख्य अंतर यह है कि सभ्यता भौतिक उन्नति का प्रतीक होती है, जबकि संस्कृति समाज के नैतिक और आध्यात्मिक विकास को दर्शाती है। सभ्यता नष्ट हो सकती है, लेकिन संस्कृति विचारों के रूप में बनी रहती है और पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रहती है। उदाहरण के लिए, रोमन साम्राज्य की सभ्यता समाप्त हो गई, लेकिन उसकी संस्कृति आज भी कला, वास्तुकला और भाषा के रूप में जीवित है।
सभ्यता और संस्कृति का परस्पर संबंध
यद्यपि सभ्यता और संस्कृति में अंतर है, फिर भी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। सभ्यता के बिना संस्कृति का विकास संभव नहीं है, और संस्कृति के बिना सभ्यता मात्र एक यांत्रिक ढांचा बनकर रह जाती है। यदि कोई समाज केवल भौतिक उन्नति पर ध्यान देता है और नैतिक व सांस्कृतिक मूल्यों की उपेक्षा करता है, तो वह भौतिक रूप से समृद्ध होते हुए भी आंतरिक रूप से खोखला हो जाता है।
निष्कर्ष
सभ्यता और संस्कृति किसी भी समाज की पहचान और उसकी प्रगति के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। सभ्यता हमें भौतिक संसाधन और तकनीकी विकास प्रदान करती है, जबकि संस्कृति हमें नैतिकता, आदर्श और सामाजिक मूल्यों से जोड़ती है। यदि सभ्यता और संस्कृति का संतुलन बना रहे, तो समाज समग्र रूप से विकसित हो सकता है और मानवता की सच्ची उन्नति संभव हो सकती है।
प्रश्न 02 प्राचीन भारत में वास्तुकला की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
प्राचीन भारत में वास्तुकला की विशेषताएँ
भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाने वाले महत्वपूर्ण पहलुओं में वास्तुकला का विशेष स्थान है। प्राचीन भारतीय वास्तुकला न केवल तकनीकी कौशल का परिचायक थी, बल्कि उसमें धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की झलक भी मिलती है। यह वास्तुकला विभिन्न कालों में विकसित हुई और इसमें कई शैलियों, तकनीकों और निर्माण सामग्री का उपयोग किया गया।
1. हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की नगर योजना
प्राचीन भारत की वास्तुकला का पहला महत्वपूर्ण उदाहरण सिंधु घाटी सभ्यता (2600-1900 ईसा पूर्व) में मिलता है। इस काल की विशेषताएँ थीं—
सुव्यवस्थित नगर योजना, जिसमें सड़कें ग्रिड पद्धति पर बनाई गई थीं।
पक्की ईंटों से निर्मित मकान, जल निकासी प्रणाली और स्नानागार।
सबसे प्रसिद्ध संरचना 'महान स्नानागार' थी, जो जल प्रबंधन की उत्कृष्टता दर्शाती है।
अन्नागार और किलेबंदी जैसी विशाल संरचनाएँ भी पाई जाती हैं।
2. वैदिक काल की वास्तुकला
वैदिक काल में नगरों का विस्तार हुआ और इस दौरान कुटिया, यज्ञ वेदियाँ और सभागार जैसे निर्माण देखने को मिले। हालांकि इस काल की वास्तुकला मुख्य रूप से लकड़ी और मिट्टी से बनी होने के कारण टिकाऊ नहीं रही।
3. बौद्ध वास्तुकला
बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ भारतीय वास्तुकला में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। इस काल की प्रमुख विशेषताएँ थीं—
स्तूप: बौद्ध धर्म से जुड़े स्मारक, जिनमें साँची का स्तूप सर्वाधिक प्रसिद्ध है। स्तूप गोलाकार होते थे और इनमें बुद्ध के अवशेष रखे जाते थे।
गुहा मंदिर: पहाड़ों को काटकर बनाए गए मंदिर, जैसे कि अजन्ता, एलोरा और कार्ले की गुफाएँ।
विहार और चैत्यगृह: बौद्ध भिक्षुओं के निवास स्थान (विहार) और पूजा स्थल (चैत्यगृह) बनाए गए।
4. मौर्य और गुप्त काल की वास्तुकला
मौर्य और गुप्त काल में भारतीय वास्तुकला का स्वर्ण युग था। इस काल की प्रमुख विशेषताएँ थीं—
अशोक के स्तंभ, जिनमें सारनाथ का सिंह स्तंभ प्रसिद्ध है।
पत्थरों से निर्मित विशाल स्तूप और मंदिर।
गुप्त काल में मंदिर निर्माण शैली विकसित हुई, जिसमें नागर, द्रविड़ और वेसर शैली शामिल थीं।
5. हिंदू मंदिर वास्तुकला
हिंदू मंदिर वास्तुकला में तीन प्रमुख शैलियाँ थीं—
नागर शैली (उत्तर भारत): उड़ीसा के कोणार्क सूर्य मंदिर और खजुराहो के मंदिर इसके उदाहरण हैं।
द्रविड़ शैली (दक्षिण भारत): मीनाक्षी मंदिर, बृहदेश्वर मंदिर और महाबलीपुरम के रथ मंदिर प्रसिद्ध हैं।
वेसर शैली (मध्य भारत): यह नागर और द्रविड़ शैली का मिश्रण थी, जो चालुक्य और राष्ट्रकूट शासकों द्वारा अपनाई गई।
6. मिश्रित वास्तुकला
भारत में समय-समय पर विदेशी प्रभाव भी देखने को मिले। यूनानी, शक, कुषाण और फारसी स्थापत्य कला से प्रभावित भवनों का निर्माण हुआ, जिनमें गांधार शैली विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
निष्कर्ष
प्राचीन भारत की वास्तुकला केवल भव्यता और सौंदर्य का प्रतीक नहीं थी, बल्कि उसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण, धार्मिक आस्था और सामाजिक संरचना का भी समावेश था। इसने न केवल भारतीय समाज को दिशा दी, बल्कि पूरे विश्व में अपनी पहचान बनाई।
प्रश्न 03 गुप्तकालीन मंदिर स्थाप्य का विस्तृत रूप से विवेचना कीजिए।
गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य का विस्तृत विवेचन
गुप्त काल (चौथी से छठी शताब्दी ईस्वी) को भारतीय कला और संस्कृति का स्वर्ण युग कहा जाता है। इस काल में मंदिर स्थापत्य में महत्वपूर्ण प्रगति हुई और भारतीय मंदिर निर्माण की परिपक्व शैली विकसित हुई। गुप्त शासकों ने कला, साहित्य और स्थापत्य को संरक्षण दिया, जिससे इस काल की मंदिर निर्माण शैली एक उत्कृष्ट कृति के रूप में उभरकर सामने आई।
गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य की विशेषताएँ
1. मंदिर निर्माण की प्रारंभिक विशेषताएँ
गुप्त काल से पहले मंदिरों का निर्माण मुख्यतः लकड़ी, मिट्टी और ईंटों से किया जाता था, लेकिन इस काल में पत्थर से निर्मित भव्य मंदिर बनने लगे। मंदिर निर्माण में नियमित योजना, ऊँचाई, भव्यता और अलंकरण की नई शैली अपनाई गई।
2. पंचायतन शैली
गुप्तकालीन मंदिरों में पंचायतन शैली प्रचलित थी, जिसमें एक मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर छोटे-छोटे चार सहायक मंदिर बनाए जाते थे। यह मंदिर संरचना हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप थी और इसे धार्मिक अनुष्ठानों के लिए उपयुक्त बनाया गया।
3. गर्भगृह (संजीवनी स्थल) का निर्माण
गुप्त काल में मंदिरों में गर्भगृह (Garbhagriha) की स्थापना की गई, जो मंदिर का सबसे पवित्र स्थान होता था। इसमें देवता की मूर्ति स्थापित की जाती थी और यह एक छोटे, अंधकारमय और शांत वातावरण वाला कक्ष होता था।
4. शिखर (ऊँचा गुंबदनुमा भाग)
गुप्तकालीन मंदिरों में शिखर निर्माण की शुरुआत हुई। यह उत्तर भारतीय मंदिर वास्तुकला की महत्वपूर्ण विशेषता बनी। शिखर मंदिर की ऊँचाई और भव्यता को बढ़ाने वाला एक महत्वपूर्ण तत्व था।
5. मंडप (सभा स्थल) का विकास
गुप्तकालीन मंदिरों में मंडप या सभा स्थल की योजना भी विकसित हुई। यह गर्भगृह के सामने स्थित एक खुला या अर्ध-खुला स्थान होता था, जहाँ श्रद्धालु एकत्र होकर पूजा करते थे।
6. स्तंभयुक्त प्रवेशद्वार और अलंकरण
गुप्त काल के मंदिरों में भव्य स्तंभयुक्त प्रवेशद्वार बनाए गए, जिनमें सुंदर मूर्तिकारी और अलंकरण किया जाता था। स्तंभों और दीवारों पर देवी-देवताओं, मिथकीय कथाओं और धार्मिक प्रतीकों की नक्काशी होती थी।
7. देव प्रतिमा और मूर्तिकला
गुप्त काल में मंदिरों में देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियाँ स्थापित की जाती थीं। इन मूर्तियों में सुंदरता, सौम्यता और भावाभिव्यक्ति का उत्कृष्ट संयोजन देखने को मिलता है। इस काल की मूर्तियाँ प्राकृतिक सौंदर्य और मानव आकृतियों की आदर्श प्रस्तुति का बेहतरीन उदाहरण थीं।
प्रमुख गुप्तकालीन मंदिर
1. दशावतार मंदिर, देवगढ़ (उत्तर प्रदेश)
यह गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण है।
मंदिर में विष्णु की मूर्तियों के साथ-साथ उनके विभिन्न अवतारों का चित्रण किया गया है।
इसमें पंचायतन शैली का प्रयोग किया गया है।
2. भूमरा शिव मंदिर (मध्य प्रदेश)
यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और गुप्तकालीन वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है।
इसकी दीवारों पर उत्कृष्ट मूर्तिकला देखने को मिलती है।
3. तिगवा विष्णु मंदिर (मध्य प्रदेश)
यह प्रारंभिक गुप्तकालीन मंदिरों में से एक है।
मंदिर में विष्णु की भव्य मूर्ति स्थापित है और इसका निर्माण सरल लेकिन मजबूत है।
4. पार्वती मंदिर, नाचना-कुठार (मध्य प्रदेश)
यह मंदिर देवी पार्वती को समर्पित है और इसमें ऊँचा शिखर नहीं है।
इसके दीवारों और स्तंभों पर सुंदर नक्काशी की गई है।
5. ईंटों से निर्मित मंदिर
गुप्त काल में कुछ मंदिर ईंटों से भी बनाए गए थे, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध कंकाली देवी मंदिर (दतिया, मध्य प्रदेश) है।
ये मंदिर सीमित संख्या में थे, लेकिन इनमें भी सुंदर नक्काशी देखने को मिलती है।
गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य की महत्ता
इस काल में मंदिर निर्माण की एक व्यवस्थित शैली विकसित हुई, जो बाद की भारतीय वास्तुकला का आधार बनी।
गर्भगृह, शिखर और मंडप जैसी अवधारणाओं की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर मंदिर वास्तुकला के महत्वपूर्ण अंग बन गए।
इस काल की स्थापत्य कला ने न केवल उत्तर भारत बल्कि दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली को भी प्रभावित किया।
निष्कर्ष
गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य भारतीय वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण चरण था, जिसमें मंदिरों की संरचना, मूर्तिकला और धार्मिक भावनाओं का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है। इस काल की स्थापत्य शैली ने भविष्य के मंदिर निर्माण की दिशा तय की और भारतीय कला को एक नई ऊँचाई प्रदान की।
प्रश्न 04 विजयनगर साम्राज्य की संस्कृति का विस्तृत रूप से विवरण दीजिए।
विजयनगर साम्राज्य की संस्कृति का विस्तृत विवरण
विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ई.) दक्षिण भारत का एक महत्वपूर्ण हिन्दू साम्राज्य था, जिसे हरिहर और बुक्का नामक संगम वंश के शासकों ने स्थापित किया था। यह साम्राज्य लगभग 300 वर्षों तक दक्षिण भारत की राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति का केंद्र रहा। विजयनगर की संस्कृति अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण थी, जिसमें हिन्दू धर्म, कला, साहित्य, स्थापत्य और सामाजिक जीवन के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं का विकास हुआ।
1. धर्म और धार्मिक सहिष्णुता
विजयनगर साम्राज्य की संस्कृति में हिन्दू धर्म की गहरी जड़ें थीं। वैष्णव और शैव संप्रदायों को राज्याश्रय प्राप्त था। इस काल में विभिन्न मंदिरों का निर्माण हुआ, जिसमें हंपी का विट्ठल मंदिर और वीरुपाक्ष मंदिर प्रमुख हैं।
राज्य में धार्मिक सहिष्णुता थी, और मुस्लिम व्यापारियों एवं सैनिकों को भी सम्मानजनक स्थान प्राप्त था।
संत परंपरा का विकास हुआ, जिसमें श्री वैष्णव परंपरा के संतों, जैसे कि रामानुजाचार्य और माधवाचार्य की शिक्षाएँ महत्वपूर्ण थीं।
2. कला और स्थापत्य
विजयनगर काल की वास्तुकला भव्यता और उत्कृष्टता के लिए प्रसिद्ध है। इसमें द्रविड़ शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
मंदिर निर्माण: विजयनगर के शासकों ने विशाल मंदिरों का निर्माण किया। इन मंदिरों की प्रमुख विशेषताएँ थीं— ऊँचे गोपुरम (प्रवेशद्वार), पत्थरों पर सुंदर नक्काशी, विस्तृत मंडप और विशाल स्तंभ।
उत्कृष्ट मूर्तिकला: हंपी के विट्ठल मंदिर में प्रसिद्ध 'पत्थर का रथ' इस काल की मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
संगीत स्तंभ: मंदिरों में ऐसे स्तंभ बनाए गए, जिन्हें बजाने पर संगीत के स्वर निकलते थे।
3. साहित्य और भाषा
विजयनगर साम्राज्य में संस्कृत, तेलुगु, कन्नड़ और तमिल भाषाओं को बढ़ावा मिला।
संस्कृत में कई ग्रंथों की रचना हुई, जिनमें धार्मिक ग्रंथ, काव्य और नाटकों की प्रमुखता थी।
तेलुगु भाषा का विशेष विकास हुआ और कई तेलुगु कवियों ने राजाश्रय प्राप्त किया।
शासकों ने साहित्यकारों को संरक्षण दिया, जिनमें प्रसिद्ध कवि अंडाल, हरिहर और पुरंदरदास महत्वपूर्ण थे।
4. संगीत और नृत्य
विजयनगर काल में संगीत और नृत्य कला का भी व्यापक विकास हुआ।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में कर्नाटक संगीत प्रणाली का विशेष रूप से प्रचार हुआ।
पुरंदरदास और अन्य संत कवियों ने भक्ति संगीत को लोकप्रिय बनाया।
भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी जैसे नृत्य शैलियों को शाही संरक्षण मिला।
5. सामाजिक और आर्थिक जीवन
विजयनगर साम्राज्य में समाज चार वर्णों में विभाजित था, लेकिन सामाजिक समरसता बनी रही।
महिलाओं को शिक्षा और कला में भाग लेने की स्वतंत्रता थी।
व्यापार और वाणिज्य अत्यधिक विकसित था। राज्य के बंदरगाहों (गोवा, कलिकट, पुडुचेरी) से अरब और यूरोपीय देशों के साथ व्यापार किया जाता था।
विजयनगर की राजधानी हंपी विश्व का एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र थी।
6. सैन्य संगठन और प्रशासन
विजयनगर साम्राज्य की सैन्य शक्ति अत्यंत मजबूत थी। इसमें घुड़सवार सेना, हाथियों की टुकड़ी और नौसेना शामिल थी।
प्रशासन में केंद्रीकृत व्यवस्था थी, जिसमें राजा सर्वोच्च शासक होता था और उसे धर्मशास्त्रों का पालन करना आवश्यक था।
साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों में विभाजित किया गया था, जिनका प्रशासनिक कार्य सुचारु रूप से चलता था।
7. विदेशी यात्रियों के विवरण
विजयनगर साम्राज्य की संस्कृति का उल्लेख विदेशी यात्रियों ने भी किया है।
अब्दुर रज्जाक (ईरान) ने हंपी की भव्यता और समृद्धि का वर्णन किया।
डोमिंगो पेस (पुर्तगाल) ने विजयनगर की सेना और व्यापारिक व्यवस्था पर प्रकाश डाला।
निकोलो कॉंटी (इटली) ने विजयनगर की संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा की।
निष्कर्ष
विजयनगर साम्राज्य की संस्कृति कला, साहित्य, संगीत, स्थापत्य और धर्म का अनूठा मिश्रण थी। इस काल में भारतीय संस्कृति का पुनर्जागरण हुआ, जिसने दक्षिण भारत को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाया। हंपी और अन्य क्षेत्रों में बने भव्य मंदिर, संगीत एवं नृत्य की परंपराएँ, और साहित्यिक रचनाएँ इस काल की गौरवशाली विरासत हैं।
प्रश्न 05 मुगलकालीन सभ्यता और संस्कृति का वर्णन कीजिए।
मुगलकालीन सभ्यता और संस्कृति का वर्णन
मुगलकाल (1526-1857 ई.) भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण चरण था, जिसने देश की सभ्यता और संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया। इस काल में कला, स्थापत्य, साहित्य, संगीत, प्रशासन और समाज में उल्लेखनीय विकास हुआ। मुगल शासकों ने भारतीय और फारसी परंपराओं का सुंदर समन्वय करके एक समृद्ध संस्कृति का निर्माण किया।
1. धर्म और धार्मिक नीति
मुगल शासकों में विभिन्न धार्मिक नीतियाँ अपनाई गईं—
बाबर और हुमायूँ: उन्होंने इस्लाम का पालन किया लेकिन धार्मिक सहिष्णुता भी रखी।
अकबर: उन्होंने "सुलह-ए-कुल" की नीति अपनाई और सभी धर्मों को समान मान्यता दी। उन्होंने दीन-ए-इलाही नामक नया धर्म चलाने का प्रयास किया।
जहाँगीर और शाहजहाँ: इन्होंने भी धार्मिक सहिष्णुता बरती और कला-संस्कृति को बढ़ावा दिया।
औरंगजेब: उन्होंने कट्टर इस्लामी नीति अपनाई और हिंदू मंदिरों को नष्ट करवाया।
2. स्थापत्य कला
मुगलकालीन स्थापत्य भारतीय वास्तुकला का स्वर्णिम युग माना जाता है। इसमें फारसी, तुर्की और भारतीय स्थापत्य शैलियों का मिश्रण था।
बाबर और हुमायूँ: उन्होंने बागों और किलों का निर्माण करवाया। हुमायूँ का मकबरा इस काल की पहली भव्य इमारत थी।
अकबर: फतेहपुर सीकरी में बुलंद दरवाजा, जामा मस्जिद और पंचमहल का निर्माण हुआ।
शाहजहाँ: उनकी वास्तुकला की शैली अत्यंत विकसित थी। ताजमहल, लाल किला (दिल्ली), जामा मस्जिद, मोती मस्जिद आदि विश्व प्रसिद्ध हैं।
औरंगजेब: उनके काल में स्थापत्य कला में अधिक धार्मिकता आ गई। उन्होंने बादशाही मस्जिद (लाहौर) और मोती मस्जिद (दिल्ली) का निर्माण करवाया।
3. चित्रकला
मुगलकाल में चित्रकला अत्यधिक विकसित हुई, जिसे "मुगल चित्रकला" कहा जाता है।
हुमायूँ ने फ़ारसी कलाकारों को भारत बुलाया।
अकबर ने "मुगल मिनिएचर पेंटिंग" की नींव रखी। उन्होंने कई प्रसिद्ध चित्रकारों को संरक्षण दिया।
जहाँगीर चित्रकला का स्वर्ण युग लेकर आए। उन्होंने प्राकृतिक चित्रण को अधिक महत्व दिया।
शाहजहाँ के काल में चित्रकला में शाही भव्यता झलकने लगी।
4. साहित्य और भाषा
मुगलकाल में फारसी, संस्कृत और हिंदी साहित्य का खूब विकास हुआ।
अकबर के दरबार में अब्दुर रहमान खान-ए-खाना, तुलसीदास, अबुल फ़ज़ल और फ़ैज़ी जैसे विद्वान थे।
जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा ‘तूज़ुक-ए-जहाँगीरी’ लिखी।
शाहजहाँ और औरंगजेब के समय फारसी साहित्य का विकास जारी रहा, लेकिन हिंदी और उर्दू भाषा का भी प्रचलन बढ़ा।
5. संगीत और नृत्य
मुगलकाल में भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य को बढ़ावा मिला।
अकबर के दरबार में तानसेन जैसे महान संगीतज्ञ थे, जिन्होंने ध्रुपद गायकी को ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
वीणा, सितार, तबला और पखावज का प्रचलन बढ़ा।
कत्थक नृत्य को शाही संरक्षण मिला।
6. समाज और आर्थिक जीवन
मुगलकाल में समाज मुख्यतः हिंदू और मुस्लिम वर्गों में बँटा था।
व्यापार और वाणिज्य अत्यधिक विकसित था। मुगल भारत अंतरराष्ट्रीय व्यापार का केंद्र बन गया था।
कृषि मुगलकाल की अर्थव्यवस्था का आधार थी और ज़मींदारी व्यवस्था लागू थी।
7. प्रशासन और न्याय व्यवस्था
मुगल शासकों ने केंद्रीकृत प्रशासन प्रणाली अपनाई।
अकबर ने मनसबदारी व्यवस्था लागू की, जिससे सेना और प्रशासन में अनुशासन आया।
न्याय प्रणाली में शरिया कानून का पालन किया जाता था।
निष्कर्ष
मुगलकालीन सभ्यता और संस्कृति ने भारतीय समाज को गहराई से प्रभावित किया। स्थापत्य, कला, साहित्य, संगीत और प्रशासन के क्षेत्र में इस काल में अभूतपूर्व विकास हुआ। मुगलकालीन संस्कृति हिंदू और मुस्लिम परंपराओं का संगम थी, जिसने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध बनाया।
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प्रश्न 01 हड़प्पा की कला ।
हड़प्पा की कला पर टिप्पणी
हड़प्पा सभ्यता (लगभग 2600-1900 ईसा पूर्व) की कला उस काल की उन्नत शिल्पकला, मूर्तिकला और चित्रकला को दर्शाती है। इस सभ्यता में विभिन्न कला रूप विकसित हुए, जिनमें मूर्तिकला, मुहरें, धातु-कला, टेराकोटा की आकृतियाँ और वास्तुकला प्रमुख हैं।
हड़प्पा की मूर्तिकला में पत्थर, धातु और मिट्टी की मूर्तियाँ बनाई जाती थीं। सबसे प्रसिद्ध कांस्य प्रतिमा "नृत्य करती हुई लड़की" है, जो उच्च स्तर की धातु-कला को दर्शाती है। इसके अलावा, "याजक-राजा" की मूर्ति भी एक महत्वपूर्ण खोज है, जो हड़प्पाई समाज की सामाजिक संरचना और कलात्मक संवेदनशीलता को प्रकट करती है।
इस सभ्यता में खुदी हुई मुहरों का भी प्रचलन था, जो मुख्य रूप से स्टियाटाइट (सोपस्टोन) से बनी होती थीं। इनमें जानवरों और प्रतीकों की चित्रकारी होती थी, जो शायद धार्मिक या व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए प्रयुक्त की जाती थीं।
टेराकोटा की मूर्तियाँ भी इस युग में लोकप्रिय थीं, जिनमें मुख्यतः देवी-देवताओं, पशुओं और घरेलू जीवन से जुड़ी आकृतियाँ बनाई जाती थीं। हड़प्पाई कलाकारों ने धातु और मिट्टी के अलावा मनके, आभूषण और अन्य कलात्मक वस्तुओं का भी निर्माण किया।
वास्तुकला की दृष्टि से, हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना अत्यंत उन्नत थी। यहाँ के मकान पक्की ईंटों से बने होते थे और सड़कों का सुव्यवस्थित जाल बिछा हुआ था। जल निकासी प्रणाली और सार्वजनिक स्नानागार जैसे निर्माण इस सभ्यता की स्थापत्य कला की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं।
कुल मिलाकर, हड़प्पा की कला इस सभ्यता की सांस्कृतिक और तकनीकी प्रगति का प्रमाण है। यह कला न केवल उनकी धार्मिक मान्यताओं को दर्शाती है, बल्कि उनके सौंदर्यबोध और कुशल कारीगरी को भी उजागर करती है।
प्रश्न 02 अष्टांगिक मार्ग
अष्टांगिक मार्ग पर टिप्पणी
अष्टांगिक मार्ग बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों में से एक है, जिसे भगवान बुद्ध ने दुःख के निवारण और मोक्ष प्राप्ति के लिए बताया था। यह मार्ग "चत्वारि आर्य सत्यानि" (चार आर्य सत्य) का अंतिम तत्व है और इसे ‘मध्य मार्ग’ के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यह न तो कठोर तपस्या की अनुशंसा करता है और न ही भोग-विलास का समर्थन करता है।
अष्टांगिक मार्ग आठ अंगों से मिलकर बना है:
सम्यक दृष्टि – सत्य को सही रूप में देखना और समझना।
सम्यक संकल्प – अहिंसा, त्याग और करुणा का पालन करना।
सम्यक वचन – सत्य बोलना, कठोर या अपशब्दों से बचना।
सम्यक कर्मांत – हिंसा, चोरी और अनैतिक आचरण से दूर रहना।
सम्यक आजीविका – ईमानदार और नैतिक तरीके से जीवनयापन करना।
सम्यक प्रयास – बुरी आदतों और विचारों को त्यागकर अच्छे विचारों को अपनाना।
सम्यक स्मृति – अपने शरीर, मन और भावनाओं पर सतर्कता रखना।
सम्यक समाधि – ध्यान और आत्मसंयम के माध्यम से मन की एकाग्रता विकसित करना।
अष्टांगिक मार्ग आत्मशुद्धि और आत्मज्ञान का मार्ग है, जो व्यक्ति को मानसिक शांति, नैतिकता और अंततः निर्वाण की ओर ले जाता है। यह मार्ग केवल बौद्ध धर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में नैतिकता और अनुशासन को स्थापित करने में सहायक हो सकता है।
प्रश्न 03 जैन धर्म
जैन धर्म पर टिप्पणी
जैन धर्म एक प्राचीन धर्म और दर्शन प्रणाली है, जिसका मूल उद्देश्य आत्मशुद्धि और मोक्ष प्राप्ति है। यह धर्म अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य और ब्रह्मचर्य जैसे सिद्धांतों पर आधारित है। जैन धर्म के प्रवर्तक ऋषभदेव माने जाते हैं, लेकिन इसके वर्तमान स्वरूप को महावीर स्वामी (24वें तीर्थंकर) ने 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में स्थापित किया।
जैन धर्म में कर्म सिद्धांत का विशेष महत्व है, जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार सुख या दुःख भोगता है। यह धर्म ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं करता, बल्कि आत्मा को सर्वोच्च मानता है। जैन ग्रंथों के अनुसार, आत्मा के शुद्धिकरण और मोक्ष के लिए पंच महाव्रतों का पालन आवश्यक है।
जैन धर्म मुख्य रूप से दो संप्रदायों में विभाजित है:
दिगंबर संप्रदाय – जिसके अनुयायी पूर्णतः वस्त्रत्याग कर कठोर तपस्या करते हैं।
श्वेतांबर संप्रदाय – जिसके अनुयायी सफेद वस्त्र धारण करते हैं और कुछ व्यावहारिक नियमों का पालन करते हैं।
इस धर्म में अहिंसा का अत्यधिक महत्व है, जिससे इसकी भोजन, व्यापार और दैनिक जीवन शैली प्रभावित होती है। जैन धर्म में तपस्या, ध्यान और त्याग को मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख साधन माना जाता है।
संक्षेप में, जैन धर्म आत्मानुशासन, नैतिकता और अहिंसा का अद्भुत उदाहरण है, जो केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
प्रश्न 04 आश्रम व्यवस्था
आश्रम व्यवस्था पर टिप्पणी
आश्रम व्यवस्था प्राचीन हिंदू समाज की एक महत्वपूर्ण सामाजिक और धार्मिक प्रणाली थी, जो व्यक्ति के जीवन को चार चरणों में विभाजित करती थी। इसका उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को संतुलित और अनुशासित बनाना था, जिससे वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
चार आश्रम इस प्रकार हैं:
ब्रह्मचर्य आश्रम (शिक्षा काल) – यह जीवन का पहला चरण होता है, जिसमें व्यक्ति गुरुकुल में रहकर वेद, शास्त्र और अन्य विद्याओं का अध्ययन करता है। इसमें संयम, अनुशासन और गुरु भक्ति पर विशेष बल दिया जाता था।
गृहस्थ आश्रम (परिवार और समाज की जिम्मेदारी) – इस चरण में व्यक्ति विवाह करके पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों का पालन करता है। इसे समाज का आधार माना जाता था, क्योंकि इसमें धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति संभव होती थी।
वानप्रस्थ आश्रम (संन्यास की तैयारी) – इस अवस्था में व्यक्ति अपने सांसारिक दायित्वों को संतान को सौंपकर ध्यान, अध्ययन और समाज सेवा की ओर प्रवृत्त होता था। यह आत्मचिंतन और मोक्ष की ओर बढ़ने का चरण था।
संन्यास आश्रम (मोक्ष की साधना) – इस अंतिम चरण में व्यक्ति सभी सांसारिक बंधनों को त्यागकर मोक्ष प्राप्ति के लिए तपस्या, ध्यान और आध्यात्मिक साधना करता था।
आश्रम व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति को एक सुव्यवस्थित जीवन पथ प्रदान करना था, जिससे वह व्यक्तिगत, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास कर सके। यह व्यवस्था आज भी नैतिकता, अनुशासन और जीवन दर्शन का आदर्श उदाहरण बनी हुई है।
प्रश्न 05 गांधार कला
गांधार कला पर टिप्पणी
गांधार कला प्राचीन भारत की एक महत्वपूर्ण कला शैली है, जो मुख्यतः मथुरा कला के समकालीन थी और लगभग पहली शताब्दी ईसा पूर्व से पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक विकसित हुई। यह कला ग्रीक, रोमन और भारतीय प्रभावों का अद्भुत मिश्रण थी, जिसे "ग्रेको-बौद्ध कला" भी कहा जाता है।
गांधार कला की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
बुद्ध प्रतिमाएँ – इसमें बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियाँ प्रमुख थीं, जिनमें ग्रीक शैली की यथार्थवादी आकृतियाँ, सुगठित शरीर, घुंघराले बाल और बहने वाले वस्त्र दर्शाए जाते थे।
संगमरमर और शिल्प कला – गांधार कला मुख्य रूप से स्लेट और ग्रे पत्थर पर निर्मित होती थी, जिससे इसमें महीन नक्काशी और गहराई दिखाई देती थी।
अश्वगोष्ठी और जातक कथाएँ – बुद्ध के जीवन से जुड़े विभिन्न प्रसंग और जातक कथाएँ मूर्तियों और स्तूपों पर उकेरी जाती थीं।
हेलनिस्टिक प्रभाव – गांधार कला में ग्रीक और रोमन मूर्तिकला की तरह यथार्थवादी चेहरे, सुडौल शरीर और कपड़ों में गहरी सिलवटों की विशेषता थी।
इस कला का विकास मुख्य रूप से कुषाण काल (विशेषकर कनिष्क के शासन) में हुआ और यह तक्षशिला, पेशावर और स्वात घाटी जैसे क्षेत्रों में फैली। गांधार कला ने भारतीय बौद्ध कला को नई दिशा दी और बाद में चीन, जापान और अन्य एशियाई देशों में बौद्ध कला के प्रसार में योगदान दिया।
संक्षेप में, गांधार कला भारतीय, यूनानी और रोमन कलात्मक परंपराओं का सुंदर समन्वय थी, जिसने बौद्ध कला को एक नया आयाम दिया और मूर्तिकला के क्षेत्र में एक अनूठी पहचान बनाई।
प्रश्न 06 सूफीवाद
सूफीवाद पर टिप्पणी
सूफीवाद इस्लाम की एक रहस्यवादी धारा है, जो आध्यात्मिकता, प्रेम, भक्ति और मानवता पर बल देती है। यह इस्लाम के भीतर एक सूक्ष्म आध्यात्मिक परंपरा है, जिसमें आत्मा की शुद्धि, ईश्वर के प्रति प्रेम और सेवा भाव को प्राथमिकता दी जाती है। सूफी संतों ने कठोर धार्मिक कर्मकांडों के बजाय प्रेम, करुणा और साधना के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताया।
सूफीवाद की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
ईश्वर के प्रति प्रेम – सूफीवाद में ईश्वर को पाने का सर्वोत्तम मार्ग प्रेम और भक्ति को माना गया है।
साधना और ध्यान – सूफी संत ध्यान, संगीत (कव्वाली), और नृत्य (धमाल) के माध्यम से ईश्वर से जुड़ने का प्रयास करते हैं।
अहंकार का त्याग – सूफीवाद अहंकार, लोभ और सांसारिक इच्छाओं को त्यागने पर बल देता है।
सर्वधर्म समभाव – सूफी संतों ने सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता और सद्भाव का संदेश दिया।
सूफी सिलसिले – सूफीवाद कई प्रमुख सिलसिलों (परंपराओं) में विकसित हुआ, जैसे कि चिश्ती, सुहरवर्दी, नक्शबंदी और कादिरी सिलसिला।
भारत में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, बाबा फरीद, निज़ामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो जैसे सूफी संतों ने धार्मिक सहिष्णुता और मानवता का संदेश दिया। उनकी कविताएँ, भजन और शिक्षाएँ आज भी समाज को प्रेम और एकता का मार्ग दिखाती हैं।
संक्षेप में, सूफीवाद केवल एक धार्मिक परंपरा ही नहीं, बल्कि प्रेम, करुणा और अध्यात्म का संदेश देने वाली एक अनूठी विचारधारा है, जो मानवता को जोड़ने का कार्य करती है।
प्रश्न 07 भारत में जाति व्यवस्था
भारत में जाति व्यवस्था पर टिप्पणी
भारत में जाति व्यवस्था एक प्राचीन सामाजिक संरचना है, जो जन्म आधारित विभाजन पर आधारित रही है। इसकी जड़ें वेदों और मनुस्मृति जैसे प्राचीन ग्रंथों में मिलती हैं, जहाँ समाज को चार प्रमुख वर्णों में विभाजित किया गया था – ब्राह्मण (ज्ञान और शिक्षा), क्षत्रिय (शासन और रक्षा), वैश्य (व्यापार और कृषि) और शूद्र (सेवा कार्य)। बाद में, यह व्यवस्था और जटिल होकर हजारों उपजातियों में बँट गई।
जाति व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
जन्म आधारित वर्गीकरण – व्यक्ति की जाति उसके जन्म से निर्धारित होती थी, जिससे सामाजिक गतिशीलता सीमित हो गई।
पेशे का निर्धारण – प्रत्येक जाति के लिए एक निश्चित व्यवसाय तय किया गया था, जिससे आर्थिक अवसरों में असमानता आई।
छुआछूत और भेदभाव – निचली जातियों के लोगों के साथ भेदभाव और सामाजिक अन्याय किया गया, जिससे उनके अधिकार सीमित हो गए।
सामाजिक अनुशासन – जाति व्यवस्था ने समाज में एक निश्चित अनुशासन बनाए रखा, लेकिन धीरे-धीरे यह कठोर और असमान होती गई।
धार्मिक प्रभाव – धर्म और कर्म सिद्धांत के माध्यम से जाति को एक दैवीय व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया गया।
हालाँकि, आधुनिक भारत में जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन हुए हैं। स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया और अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू की। सामाजिक सुधारकों जैसे महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर, ज्योतिबा फुले और पेरियार ने जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए।
आज जाति व्यवस्था का प्रभाव शहरी क्षेत्रों में कम हो रहा है, लेकिन ग्रामीण समाज में यह अभी भी मौजूद है। आधुनिक शिक्षा, आर्थिक विकास और सरकारी नीतियों के कारण जातिगत भेदभाव में कमी आ रही है, लेकिन पूर्ण समानता की ओर अभी भी प्रयास जारी हैं।
प्रश्न 08 प्रिंट मीडिया
प्रिंट मीडिया पर टिप्पणी
प्रिंट मीडिया संचार का एक प्रमुख माध्यम है, जो समाचार, जानकारी और विचारों के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसमें समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें, विज्ञापन, पंपलेट और अन्य मुद्रित सामग्री शामिल होती हैं। डिजिटल युग से पहले प्रिंट मीडिया सूचना के प्रसार का मुख्य स्रोत था और आज भी यह जनमत निर्माण और सामाजिक जागरूकता में योगदान देता है।
प्रिंट मीडिया की विशेषताएँ:
सूचना का विश्वसनीय स्रोत – प्रिंट मीडिया को उसकी प्रामाणिकता और गहराई से विश्लेषण करने की क्षमता के कारण विश्वसनीय माना जाता है।
स्थायित्व और पुनः संदर्भ – अखबार और पत्रिकाएँ पढ़ने के बाद सुरक्षित रखी जा सकती हैं और जरूरत पड़ने पर फिर से देखी जा सकती हैं।
विस्तृत कवरेज – यह राजनीति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, खेल और मनोरंजन सहित विभिन्न क्षेत्रों को कवर करता है।
विज्ञापन और व्यवसाय – प्रिंट मीडिया व्यापार, उत्पादों और सेवाओं के प्रचार के लिए एक प्रभावी मंच प्रदान करता है।
शिक्षा और जनजागृति – यह सामाजिक मुद्दों, सरकारी योजनाओं और नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने का माध्यम है।
आधुनिक युग में प्रिंट मीडिया की स्थिति:
हालाँकि, डिजिटल मीडिया के विकास के कारण प्रिंट मीडिया की लोकप्रियता कुछ हद तक घटी है, लेकिन यह अब भी अपनी साख बनाए हुए है। ऑनलाइन समाचार पोर्टल, ई-पेपर और सोशल मीडिया की बढ़ती पहुँच के बावजूद, प्रिंट मीडिया की गहरी विश्लेषणात्मक रिपोर्टिंग और विस्तृत सामग्री इसे प्रासंगिक बनाए हुए हैं।
संक्षेप में, प्रिंट मीडिया सूचना प्रसार, जनमत निर्माण और लोकतंत्र को मजबूत करने में एक प्रभावी भूमिका निभाता है। डिजिटल क्रांति के बावजूद, यह अभी भी समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
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