BAEC(N)120 SOLVED QUESTION PAPER 2024

 BAEC(N)120 SOLVED QUESTION PAPER 2024



LONG ANSWER TYPE QUESTIONS 


प्रश्न 01 उत्तराखण्ड के पर्वतीय व मैदानी जिलों की जनांकिकीय विशेषताओं का तुलनात्मक अध्ययन कीजिए।




उत्तराखण्ड एक पहाड़ी राज्य है, जिसमें पर्वतीय और मैदानी जिलों की भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक संरचना में स्पष्ट भिन्नताएँ पाई जाती हैं। इन भिन्नताओं का तुलनात्मक अध्ययन जनांकिकीय विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है।


1. जनसंख्या घनत्व


पर्वतीय जिलों में जनसंख्या घनत्व अपेक्षाकृत कम है, क्योंकि यहाँ की भौगोलिक संरचना कठिन और संसाधन सीमित हैं। जबकि मैदानी जिलों में, विशेष रूप से हरिद्वार, देहरादून और उधमसिंह नगर में जनसंख्या घनत्व अधिक है।


पर्वतीय जिले – चमोली, उत्तरकाशी, बागेश्वर आदि में जनसंख्या घनत्व कम (लगभग 50-150 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) है।


मैदानी जिले – हरिद्वार और उधमसिंह नगर जैसे जिलों में जनसंख्या घनत्व अधिक (500+ व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) है।


2. साक्षरता दर


मैदानी जिलों में साक्षरता दर अधिक देखी जाती है क्योंकि यहाँ शैक्षिक सुविधाएँ बेहतर हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में स्कूलों और कॉलेजों की सीमित संख्या के कारण साक्षरता दर तुलनात्मक रूप से कम रहती है।


मैदानी जिले – देहरादून और हरिद्वार में साक्षरता दर 80% से अधिक है।


पर्वतीय जिले – उत्तरकाशी, चंपावत आदि में साक्षरता दर 65-75% के बीच है।


3. लैंगिक अनुपात


पर्वतीय जिलों में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक होती है, जबकि मैदानी जिलों में यह अनुपात तुलनात्मक रूप से कम होता है।


पर्वतीय जिले – अधिकतर जिलों में 1000 पुरुषों पर 1030-1100 महिलाएँ होती हैं।


मैदानी जिले – हरिद्वार, उधमसिंह नगर में यह अनुपात लगभग 900-950 महिलाएँ प्रति 1000 पुरुष है।


4. आजीविका के साधन


पर्वतीय जिलों में कृषि, पशुपालन और पारंपरिक हस्तशिल्प आजीविका के प्रमुख साधन हैं। जबकि मैदानी जिलों में औद्योगिकीकरण और व्यापारिक गतिविधियाँ अधिक हैं।


पर्वतीय जिले – कृषि, बागवानी, पर्यटन, वन आधारित उद्योग।


मैदानी जिले – उद्योग, व्यापार, सेवा क्षेत्र और कृषि में आधुनिक तकनीक का उपयोग।


5. शहरीकरण


मैदानी जिलों में शहरीकरण की दर अधिक है, जबकि पर्वतीय जिलों में अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है।


मैदानी जिले – देहरादून, हरिद्वार में शहरीकरण 50% से अधिक है।


पर्वतीय जिले – अधिकांश जिले 80% ग्रामीण आबादी पर निर्भर हैं।


निष्कर्ष


उत्तराखण्ड के पर्वतीय और मैदानी जिलों की जनांकिकीय विशेषताओं में स्पष्ट भिन्नताएँ हैं। जहाँ पर्वतीय क्षेत्र कम जनसंख्या घनत्व, अधिक लैंगिक अनुपात, कम साक्षरता दर और पारंपरिक आजीविका पर निर्भर हैं, वहीं मैदानी जिले अधिक जनसंख्या घनत्व, शहरीकरण, औद्योगिकरण और आधुनिक सुविधाओं की उपलब्धता से प्रभावित हैं। इन असमानताओं को कम करने के लिए सरकार को पर्वतीय जिलों में रोजगार, शिक्षा और बुनियादी ढांचे के विकास पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।



प्रश्न 02 उत्तराखण्ड में औषधीय कृषि क्षेत्र में राज्य सरकार द्वारा किये गये कार्यों पर एक लेख लिखिए।



उत्तराखण्ड में औषधीय कृषि क्षेत्र में राज्य सरकार द्वारा किए गए कार्य


उत्तराखण्ड अपनी भौगोलिक स्थिति और जैव विविधता के कारण औषधीय एवं सुगंधित पौधों की खेती के लिए उपयुक्त राज्य है। यहाँ की पर्वतीय जलवायु कई दुर्लभ जड़ी-बूटियों के उत्पादन के लिए अनुकूल है। राज्य सरकार ने औषधीय कृषि के क्षेत्र में किसानों को प्रोत्साहित करने, अनुसंधान बढ़ाने और विपणन सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न योजनाएँ और नीतियाँ लागू की हैं।


1. औषधीय एवं सुगंधित पौधों की खेती को प्रोत्साहन


राज्य सरकार ने औषधीय खेती को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएँ चलाई हैं, जिससे किसानों की आय बढ़ाई जा सके और परंपरागत कृषि की निर्भरता को कम किया जा सके। प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं:


हिमालयी जैवसंसाधन विकास केंद्र (HRDC) की स्थापना की गई है, जो औषधीय पौधों की पहचान, संरक्षण और संवर्धन पर कार्य करता है।


किसानों को अनुदान और सब्सिडी प्रदान की जा रही है ताकि वे औषधीय खेती को अपना सकें।


2. औषधीय पौधों के अनुसंधान एवं संरक्षण के प्रयास


राज्य में औषधीय पौधों के संरक्षण और अनुसंधान के लिए कई संस्थान कार्यरत हैं, जो किसानों को नई तकनीकों से जोड़ने का कार्य कर रहे हैं।


फ्लोरिकल्चर रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर (FRDC) पौधों की जैव-विविधता पर शोध कर रहा है।


भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के सहयोग से राज्य में औषधीय पौधों की खेती को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया जा रहा है।


3. औषधीय पौधों का विपणन और व्यापार


औषधीय कृषि के उत्पादों को बाजार में उचित मूल्य दिलाने के लिए सरकार ने निम्नलिखित कदम उठाए हैं:


औषधीय उत्पादों की ब्रांडिंग और निर्यात को बढ़ावा देने के लिए बाजार उपलब्ध कराए जा रहे हैं।


किसानों के लिए विपणन चैनल विकसित किए गए हैं, जिससे वे सीधे औषधीय कंपनियों से जुड़ सकें।


औषधीय खेती को औद्योगिक रूप देने के लिए निजी कंपनियों को निवेश के लिए आमंत्रित किया जा रहा है।


4. प्रमुख औषधीय पौधे और उनके विकास हेतु योजनाएँ


उत्तराखण्ड में निम्नलिखित औषधीय पौधों की खेती को विशेष रूप से बढ़ावा दिया जा रहा है:


अश्वगंधा, ब्राह्मी, शतावरी, जटामांसी, कुटकी, तुलसी, तेजपात आदि।


सरकार ने जैविक खेती मिशन के तहत औषधीय खेती को जैविक पद्धतियों से जोड़ने पर बल दिया है।


5. किसान प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम


औषधीय कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकार द्वारा किसानों को प्रशिक्षित किया जा रहा है।


ग्राम स्तर पर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं।


ऋषिकेश और नैनीताल में औषधीय खेती कार्यशालाएँ आयोजित की गई हैं।


निष्कर्ष


उत्तराखण्ड सरकार औषधीय कृषि के क्षेत्र में कई प्रभावी कदम उठा रही है, जिससे किसानों को आर्थिक लाभ हो और राज्य को औषधीय हब के रूप में विकसित किया जा सके। सरकार द्वारा अनुदान, अनुसंधान, विपणन सहायता और जैविक खेती को बढ़ावा देने से यह क्षेत्र लगातार प्रगति कर रहा है। यदि इन प्रयासों को और अधिक सशक्त किया जाए, तो उत्तराखण्ड भविष्य में औषधीय कृषि का एक प्रमुख केंद्र बन सकता है।



प्रश्न 03 लघु उद्योग क्या है? लघु उद्योगों के मुख्य उद्देश्य व विशेषताएँ क्या हैं? लघु उद्योगों के संरक्षण की आवश्यकता क्यों है?



लघु उद्योग: परिचय


लघु उद्योग ऐसे उद्यम होते हैं जिनमें सीमित पूँजी, कम श्रमशक्ति और स्थानीय संसाधनों का उपयोग किया जाता है। ये उद्योग मुख्य रूप से घरेलू, कुटीर एवं लघु स्तर पर उत्पादन करते हैं और ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में रोजगार प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत सरकार के अनुसार, वे उद्योग जिनका निवेश 10 करोड़ रुपये तक (निर्माण क्षेत्र में) और 5 करोड़ रुपये तक (सेवा क्षेत्र में) हो, उन्हें लघु उद्योग की श्रेणी में रखा जाता है।


लघु उद्योगों के मुख्य उद्देश्य


रोजगार सृजन – ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में अधिक से अधिक लोगों को रोजगार प्रदान करना।


स्थानीय संसाधनों का उपयोग – क्षेत्रीय संसाधनों का कुशल उपयोग कर आर्थिक विकास को गति देना।


स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा – आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देते हुए विदेशी वस्तुओं पर निर्भरता कम करना।


संतुलित क्षेत्रीय विकास – बड़े उद्योगों के बजाय छोटे-छोटे उद्योगों के माध्यम से सभी क्षेत्रों का समान विकास करना।


निर्यात को बढ़ावा – कई लघु उद्योग उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद बनाकर विदेशी बाजार में निर्यात करते हैं।


उद्यमिता विकास – नए उद्यमियों को प्रोत्साहित करना और छोटे स्तर पर व्यवसाय स्थापित करने के अवसर प्रदान करना।


लघु उद्योगों की विशेषताएँ


कम पूँजी निवेश – इन उद्योगों को कम पूँजी में शुरू किया जा सकता है, जिससे नए उद्यमियों के लिए यह एक अच्छा विकल्प बनता है।


अधिक श्रम प्रधान – लघु उद्योगों में श्रमिकों की आवश्यकता अधिक होती है, जिससे रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।


स्थानीय कच्चे माल का उपयोग – ये उद्योग क्षेत्रीय संसाधनों का उपयोग करके उत्पादन करते हैं, जिससे परिवहन लागत कम होती है।


लचीला प्रबंधन – छोटे पैमाने पर संचालित होने के कारण इनमें त्वरित निर्णय लेने की क्षमता होती है।


कम तकनीकी निर्भरता – ये उद्योग अधिकतर पारंपरिक तकनीकों का उपयोग करते हैं, जिससे तकनीकी प्रशिक्षण की आवश्यकता कम होती है।


ग्रामीण विकास में सहायक – लघु उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्थापित किए जा सकते हैं, जिससे शहरों की ओर पलायन कम होता है।


लघु उद्योगों के संरक्षण की आवश्यकता


लघु उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और इनका संरक्षण आवश्यक है क्योंकि –


रोजगार उपलब्धता – ये बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देते हैं, खासकर अनपढ़ एवं अर्ध-शिक्षित श्रमिकों को।


संतुलित आर्थिक विकास – ये उद्योग छोटे शहरों और गाँवों में भी स्थापित होते हैं, जिससे क्षेत्रीय असमानता कम होती है।


स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा – इन उद्योगों से स्थानीय उत्पादों का निर्माण और खपत बढ़ती है, जिससे आत्मनिर्भरता बढ़ती है।


बड़े उद्योगों पर निर्भरता कम करना – ये बड़े उद्योगों के लिए सहायक इकाइयों के रूप में कार्य करते हैं, जिससे उत्पादन लागत में कमी आती है।


निर्यात में योगदान – भारतीय हथकरघा, हस्तशिल्प, खिलौने, कृषि आधारित उत्पाद जैसे कई लघु उद्योग अंतरराष्ट्रीय बाजार में निर्यात किए जाते हैं।


महिला सशक्तिकरण – कई लघु उद्योग विशेष रूप से महिलाओं द्वारा संचालित किए जाते हैं, जिससे उनकी आर्थिक स्वतंत्रता बढ़ती है।


नवाचार और उद्यमिता को प्रोत्साहन – लघु उद्योग नए उद्यमियों को नवाचार और रचनात्मकता के अवसर प्रदान करते हैं।


निष्कर्ष


लघु उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास, रोजगार वृद्धि और स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन्हें उचित संरक्षण और सहायता प्रदान करके आर्थिक असमानता को कम किया जा सकता है तथा आत्मनिर्भर भारत की दिशा में प्रभावी कदम उठाया जा सकता है। सरकार को लघु उद्योगों के लिए वित्तीय सहायता, तकनीकी प्रशिक्षण और विपणन सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए ताकि वे वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भी मजबूती से खड़े रह सकें।



प्रश्न 04 राज्य में पर्यटन क्षेत्र की संभावनाओं पर चर्चा करते हुए इसका आर्थिक विकास में महत्व बताइये।




उत्तराखण्ड में पर्यटन क्षेत्र की संभावनाएँ और आर्थिक विकास में महत्व


उत्तराखण्ड को "देवभूमि" कहा जाता है क्योंकि यहाँ धार्मिक, प्राकृतिक और साहसिक पर्यटन की अपार संभावनाएँ हैं। हिमालयी पर्वत, हरे-भरे जंगल, पवित्र नदियाँ, धार्मिक स्थलों और वन्यजीव अभयारण्यों के कारण यह राज्य पर्यटन के लिए अत्यंत आकर्षक स्थल बन चुका है।


उत्तराखण्ड में पर्यटन क्षेत्र की संभावनाएँ


1. धार्मिक पर्यटन


उत्तराखण्ड में कई प्रसिद्ध धार्मिक स्थल हैं, जो देश-विदेश से श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं।


चारधाम यात्रा (बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री) विश्व प्रसिद्ध है।


हरिद्वार और ऋषिकेश गंगा आरती और योग केंद्रों के लिए प्रसिद्ध हैं।


जागेश्वर धाम, बैजनाथ मंदिर और हेमकुंड साहिब धार्मिक आस्था का केंद्र हैं।


2. साहसिक पर्यटन


उत्तराखण्ड की भौगोलिक संरचना इसे साहसिक खेलों के लिए आदर्श स्थान बनाती है।


ट्रेकिंग – रूपकुंड, हर की दून, पिंडारी ग्लेशियर।


रिवर राफ्टिंग – ऋषिकेश गंगा में विश्व प्रसिद्ध रिवर राफ्टिंग केंद्र है।


पैराग्लाइडिंग और कैंपिंग – नैनीताल, भीमताल, औली और मसूरी में इसकी अपार संभावनाएँ हैं।


स्कीइंग – औली को एशिया के बेहतरीन स्कीइंग स्थलों में गिना जाता है।


3. इको-टूरिज्म और वन्यजीव पर्यटन


उत्तराखण्ड में कई राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव अभयारण्य स्थित हैं, जो जैव विविधता को संरक्षित करते हुए पर्यटन को बढ़ावा देते हैं।


जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क – बाघों के लिए प्रसिद्ध।


राजाजी नेशनल पार्क – हाथियों और पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियों के लिए लोकप्रिय।


नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व – यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल।


4. सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पर्यटन


उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति, हस्तशिल्प, लोकनृत्य और पारंपरिक मेलों (नंदा देवी मेला, उत्तरायणी मेला) को देखने के लिए पर्यटक यहाँ आते हैं।


अल्मोड़ा, चंपावत, पौड़ी और नैनीताल में कई ऐतिहासिक स्थल स्थित हैं।


पर्यटन का उत्तराखण्ड के आर्थिक विकास में योगदान


1. रोजगार सृजन


पर्यटन क्षेत्र से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। होटल, परिवहन, गाइड सेवाएँ, हस्तशिल्प और स्थानीय बाजारों को इससे लाभ होता है।


2. राजस्व और विदेशी मुद्रा अर्जन


चारधाम यात्रा और साहसिक पर्यटन से प्रतिवर्ष हजारों करोड़ रुपये की आय होती है।


विदेशी पर्यटकों से विदेशी मुद्रा अर्जित होती है, जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती है।


3. बुनियादी ढांचे का विकास


बेहतर सड़कें, होटल, रेस्तरां, परिवहन सेवाएँ और डिजिटल कनेक्टिविटी का विकास पर्यटन से जुड़ा हुआ है।


स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के तहत देहरादून, हरिद्वार और नैनीताल को विकसित किया जा रहा है।


4. कृषि और हस्तशिल्प को बढ़ावा


स्थानीय किसानों और उत्पादकों को पर्यटन से सीधा लाभ मिलता है, क्योंकि पर्यटक स्थानीय फल, जैविक उत्पाद और पहाड़ी मसाले खरीदते हैं।


उत्तराखण्ड के हस्तशिल्प, लकड़ी की नक्काशी, ऊनी वस्त्र और जड़ी-बूटियों की माँग पर्यटन से बढ़ती है।


5. ग्रामीण विकास और पलायन रोकने में सहायक


पर्यटन से गाँवों में होमस्टे, ईको-टूरिज्म और स्थानीय उद्योगों का विकास हो रहा है।


इससे रोजगार के अवसर बढ़ते हैं और पर्वतीय क्षेत्रों से होने वाले पलायन को रोकने में मदद मिलती है।


निष्कर्ष


पर्यटन उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, जो रोजगार, राजस्व और बुनियादी ढांचे के विकास में योगदान देता है। धार्मिक, साहसिक, इको-टूरिज्म और सांस्कृतिक पर्यटन की व्यापक संभावनाओं को देखते हुए सरकार को पर्यटन नीतियों को और अधिक सुदृढ़ बनाना चाहिए। पर्यावरण संतुलन बनाए रखते हुए सतत पर्यटन विकास से उत्तराखण्ड को देश के प्रमुख पर्यटन केंद्रों में स्थान दिलाया जा सकता है।




प्रश्न 05 ग्रामीण और कृषि वित्त में किसान क्रेडिट कार्ड की उपयोगिता और प्रगति पर एक लेख लिखिए।



किसान क्रेडिट कार्ड: ग्रामीण और कृषि वित्त में उपयोगिता और प्रगति


परिचय


भारतीय कृषि क्षेत्र में किसानों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ष 1998 में किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) योजना की शुरुआत की गई। इस योजना का उद्देश्य किसानों को सुलभ, त्वरित और किफायती ऋण प्रदान करना है, जिससे वे अपनी कृषि आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। यह योजना भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) और नाबार्ड (NABARD) के मार्गदर्शन में कार्यान्वित की जाती है।


किसान क्रेडिट कार्ड की उपयोगिता


आसान और सुलभ ऋण


किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से किसानों को उनकी फसल उत्पादन, पशुपालन और कृषि उपकरणों के लिए त्वरित ऋण उपलब्ध कराया जाता है।


बैंकिंग प्रक्रिया सरल होने के कारण किसानों को साहूकारों से ऊँची ब्याज दरों पर ऋण लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती।


कम ब्याज दर और अनुदानित ऋण


सरकार इस योजना के तहत 7% वार्षिक ब्याज दर पर ऋण प्रदान करती है। समय पर भुगतान करने वाले किसानों को 3% तक की ब्याज सब्सिडी भी दी जाती है।


यह दर निजी साहूकारों की तुलना में बहुत कम होती है, जिससे किसानों पर ऋण का बोझ कम पड़ता है।


लचीला और बहुउद्देश्यीय उपयोग


किसान इस ऋण का उपयोग बीज, उर्वरक, कीटनाशक, कृषि यंत्रों की खरीद, सिंचाई व्यवस्था, पशुपालन और मत्स्य पालन के लिए कर सकते हैं।


यह योजना छोटे और सीमांत किसानों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है, जो सीमित संसाधनों में खेती करते हैं।


सुरक्षा और बीमा कवर


किसान क्रेडिट कार्ड धारकों को फसल बीमा योजना और व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना का लाभ मिलता है।


इससे किसानों को प्राकृतिक आपदाओं, फसल हानि और आकस्मिक दुर्घटनाओं से आर्थिक सुरक्षा मिलती है।


डिजिटल बैंकिंग और वित्तीय समावेशन


आज के दौर में किसान क्रेडिट कार्ड को ATM कार्ड और मोबाइल बैंकिंग से जोड़ा गया है, जिससे किसानों को डिजिटल लेनदेन की सुविधा मिलती है।


इससे गाँवों में बैंकिंग सेवाओं का विस्तार हुआ है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली है।


किसान क्रेडिट कार्ड की प्रगति और उपलब्धियाँ


किसानों की संख्या में वृद्धि


सरकार ने 2020 तक 2.5 करोड़ से अधिक किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड उपलब्ध कराया।


2023 तक इस योजना के तहत ₹20 लाख करोड़ से अधिक का ऋण वितरण किया गया।


मत्स्य पालन और पशुपालन क्षेत्र में विस्तार


2018 में सरकार ने इस योजना का विस्तार मत्स्य पालन और डेयरी किसानों तक किया, जिससे गैर-कृषि गतिविधियों को भी वित्तीय सहायता मिलने लगी।


इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली और वैकल्पिक रोजगार के अवसर बढ़े।


आधुनिक तकनीक का उपयोग


PM-KISAN और किसान क्रेडिट कार्ड को जोड़ा गया, जिससे किसानों को सीधे बैंक खातों में वित्तीय सहायता प्राप्त होने लगी।


डिजिटल बैंकिंग के माध्यम से अब किसान मोबाइल से KCC लोन के लिए आवेदन कर सकते हैं और इसकी स्थिति की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।


कोविड-19 के दौरान राहत


महामारी के दौरान सरकार ने किसानों को वित्तीय संकट से बचाने के लिए ₹2 लाख करोड़ तक के KCC ऋण को पुनर्गठित किया।


समय पर ऋण चुकाने वाले किसानों को अतिरिक्त छूट भी प्रदान की गई।


चुनौतियाँ और समाधान


सभी किसानों तक पहुँच की समस्या


कई छोटे और सीमांत किसान अभी भी इस योजना से वंचित हैं।


समाधान: बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार और अधिक जागरूकता अभियान चलाना।


दस्तावेज़ी प्रक्रिया जटिल होना


कुछ किसानों को KCC के लिए आवेदन करते समय बैंकिंग प्रक्रियाओं की जटिलता का सामना करना पड़ता है।


समाधान: ऑनलाइन आवेदन प्रक्रिया को और सरल बनाना और ग्राम स्तरीय बैंकिंग सेवाओं को मजबूत करना।


ऋण चुकौती में कठिनाई


प्राकृतिक आपदाओं या फसल हानि के कारण किसान ऋण चुकाने में असमर्थ हो सकते हैं।


समाधान: ऋण पुनर्भुगतान की शर्तों को अधिक लचीला बनाना और अधिक अनुदान प्रदान करना।


निष्कर्ष


किसान क्रेडिट कार्ड योजना ने ग्रामीण और कृषि वित्त क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाए हैं। इससे किसानों को किफायती और सुलभ ऋण उपलब्ध हुआ, जिससे उनकी कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली। सरकार को इस योजना का दायरा और बढ़ाने, इसके लाभों को अधिक किसानों तक पहुँचाने और डिजिटल बैंकिंग को बढ़ावा देने के लिए निरंतर प्रयास करने चाहिए, जिससे आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को साकार किया जा सके।



SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS 




प्रश्न 01 उत्तराखण्ड अर्थव्यवस्था की आधारभूत विशेषताएँ क्या है?




उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि, पर्यटन, वानिकी, जल विद्युत, और औद्योगिक विकास पर आधारित है। इसकी कुछ प्रमुख आधारभूत विशेषताएँ इस प्रकार हैं—


1. कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था – उत्तराखंड में अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। यहाँ की कृषि पारंपरिक और वर्षा-आधारित है, जिससे उत्पादन सीमित रहता है। पर्वतीय क्षेत्रों में छोटे खेतों और सीढ़ीदार कृषि का प्रचलन है। प्रमुख फसलें गेहूँ, धान, मक्का, जौ, दालें और आलू हैं।


2. पर्यटन उद्योग का विकास – उत्तराखंड को 'देवभूमि' कहा जाता है और यह धार्मिक एवं साहसिक पर्यटन के लिए प्रसिद्ध है। केदारनाथ, बद्रीनाथ, हरिद्वार, ऋषिकेश जैसे धार्मिक स्थल, तथा औली, मसूरी, नैनीताल, रानीखेत जैसे हिल स्टेशन पर्यटन को बढ़ावा देते हैं।


3. वन एवं जैव विविधता पर निर्भरता – उत्तराखंड में वन क्षेत्र का बड़ा हिस्सा है, जिससे लकड़ी, जड़ी-बूटी और अन्य वन उत्पाद मिलते हैं। यह राज्य औषधीय पौधों और जैव विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है, जो अर्थव्यवस्था को सहयोग देते हैं।


4. जल विद्युत उत्पादन केंद्र – उत्तराखंड में हिमालयी नदियों के कारण जल विद्युत उत्पादन की अपार संभावनाएँ हैं। टिहरी, श्रीनगर और मनेरी-भाली जैसी जल विद्युत परियोजनाएँ राज्य को ऊर्जा उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में सहायक हैं।


5. औद्योगिक विकास एवं निवेश – हरिद्वार, देहरादून, काशीपुर और रुद्रपुर में औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना की गई है। राज्य सरकार द्वारा कर प्रोत्साहन योजनाओं के कारण यहाँ ऑटोमोबाइल, फार्मास्यूटिकल्स, और खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों का विकास हुआ है।


6. हस्तशिल्प एवं स्थानीय उद्योग – उत्तराखंड में हस्तशिल्प, ऊनी वस्त्र, लकड़ी की नक्काशी, और पारंपरिक हस्तनिर्मित उत्पादों का निर्माण होता है। विशेष रूप से उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ जिलों में यह कार्य प्रमुखता से होता है।


7. सेवा क्षेत्र का योगदान – शिक्षा, स्वास्थ्य, बैंकिंग और आईटी सेवाओं में राज्य का विकास हो रहा है। देहरादून, हरिद्वार और हल्द्वानी जैसे शहरों में शिक्षा और चिकित्सा संस्थानों की बढ़ती संख्या अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी को बढ़ा रही है।


8. प्रवास और आर्थिक चुनौतियाँ – पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार के सीमित अवसरों के कारण बड़ी संख्या में लोग पलायन कर रहे हैं। इससे गाँव खाली हो रहे हैं और शहरी क्षेत्रों पर जनसंख्या का दबाव बढ़ रहा है।


निष्कर्ष – उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों, पर्यटन, और कृषि पर आधारित है। हालाँकि, सतत विकास और औद्योगिकरण की ओर बढ़ते प्रयासों से राज्य की आर्थिक स्थिति में सुधार की संभावनाएँ बढ़ रही हैं।




प्रश्न 02 उत्तराखण्ड में विकास की समस्याएँ क्या है?




उत्तराखंड में विकास की कई चुनौतियाँ हैं, जो इसकी भौगोलिक स्थिति, सामाजिक संरचना और आर्थिक संसाधनों से जुड़ी हुई हैं। राज्य की आर्थिक और सामाजिक प्रगति को प्रभावित करने वाली कुछ प्रमुख समस्याएँ इस प्रकार हैं—


1. भौगोलिक कठिनाइयाँ – उत्तराखंड का अधिकांश क्षेत्र पर्वतीय और दुर्गम है, जिससे बुनियादी ढाँचा (सड़क, बिजली, संचार) विकसित करना कठिन होता है। पहाड़ों में भूस्खलन, बादल फटने और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ विकास कार्यों को बाधित करती हैं।


2. रोजगार की कमी और पलायन – राज्य में उद्योग और रोजगार के अवसर सीमित हैं, जिससे लोग बेहतर आजीविका की तलाश में मैदानी क्षेत्रों और अन्य राज्यों की ओर पलायन कर रहे हैं। इसके कारण गाँव खाली हो रहे हैं और शहरी क्षेत्रों पर जनसंख्या का दबाव बढ़ रहा है।


3. कृषि का पिछड़ापन – उत्तराखंड में कृषि पारंपरिक और वर्षा-आधारित है, जिससे उत्पादकता कम रहती है। पहाड़ी क्षेत्रों में छोटे जोत और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण आधुनिक कृषि तकनीकों का प्रयोग सीमित है।


4. औद्योगिक विकास की चुनौतियाँ – पहाड़ी क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करना कठिन है, क्योंकि वहाँ परिवहन, बिजली और श्रम की उपलब्धता सीमित रहती है। हालाँकि, हरिद्वार, देहरादून, और उधमसिंह नगर जैसे मैदानी जिलों में उद्योग विकसित हुए हैं, लेकिन यह संतुलित औद्योगीकरण नहीं कहा जा सकता।


5. पर्यटन उद्योग में चुनौतियाँ – पर्यटन उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन अव्यवस्थित पर्यटन विकास से पर्यावरणीय असंतुलन, कचरा प्रबंधन की समस्याएँ और स्थानीय संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। अतः सतत पर्यटन विकास की आवश्यकता है।


6. पर्यावरणीय असंतुलन – वनों की कटाई, अनियंत्रित शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और अवैज्ञानिक निर्माण कार्यों से राज्य में पारिस्थितिकीय असंतुलन बढ़ रहा है। यह जल स्रोतों के सूखने, भूस्खलन और जैव विविधता के संकट का कारण बन रहा है।


7. स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं की कमी – पहाड़ी क्षेत्रों में बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं का अभाव है। सरकारी अस्पतालों और स्कूलों में संसाधनों की कमी, डॉक्टरों और शिक्षकों की अनुपलब्धता तथा बेहतर चिकित्सा के लिए लोगों का मैदानी क्षेत्रों में पलायन एक गंभीर समस्या है।


8. आधारभूत संरचना का अभाव – उत्तराखंड के दूरस्थ गाँवों में अच्छी सड़कों, बिजली, जल आपूर्ति और इंटरनेट जैसी मूलभूत सुविधाओं की कमी है। इससे आर्थिक गतिविधियों का विस्तार नहीं हो पाता और लोगों का जीवन स्तर निम्न बना रहता है।


9. प्राकृतिक आपदाओं का खतरा – उत्तराखंड भूकंप, भूस्खलन, बादल फटना और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील है। ये आपदाएँ न केवल जन-धन की हानि पहुँचाती हैं, बल्कि विकास कार्यों को भी बाधित करती हैं।


10. जल संसाधनों का अपर्याप्त उपयोग – उत्तराखंड में जल विद्युत उत्पादन की अपार संभावनाएँ हैं, लेकिन उचित नीतियों और संसाधनों के अभाव में इनका पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है।


निष्कर्ष – उत्तराखंड में विकास की राह में कई चुनौतियाँ हैं, जिनमें रोजगार, आधारभूत ढाँचे, पर्यावरणीय संतुलन और प्राकृतिक आपदाओं का प्रभाव प्रमुख हैं। राज्य सरकार को संतुलित औद्योगिकीकरण, सतत पर्यटन, कृषि सुधार, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं पर ध्यान देना होगा ताकि विकास को समग्र रूप से आगे बढ़ाया जा सके।




प्रश्न 03 उत्तराखण्ड में डेयरी विकास की स्थिति पर प्रकाश डालिए।




उत्तराखंड में डेयरी विकास कृषि के साथ एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है, जो ग्रामीण लोगों के लिए आय और पोषण का एक प्रमुख स्रोत है। हालाँकि, राज्य में डेयरी उद्योग को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उत्तराखंड में डेयरी विकास की स्थिति को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है—


1. प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता – उत्तराखंड में हरे-भरे चारागाह, स्वच्छ जल स्रोत और ठंडा जलवायु होने के कारण डेयरी पालन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानीय नस्लों की गायों और भैंसों को पाला जाता है, जबकि मैदानी क्षेत्रों में अधिक दुग्ध उत्पादन देने वाली नस्लों को प्राथमिकता दी जाती है।


2. दुग्ध उत्पादन और पशुपालन – राज्य में पारंपरिक रूप से अधिकतर किसान छोटे स्तर पर डेयरी पालन करते हैं। उत्तराखंड में प्रमुख रूप से गीर, साहीवाल, जर्सी और होल्स्टीन फ्रिजियन नस्लों की गायों तथा मुर्रा और जाफराबादी नस्लों की भैंसों का पालन किया जाता है।


3. सहकारी डेयरी विकास – राज्य में डेयरी सहकारी समितियों की स्थापना की गई है, जिसमें प्रमुख रूप से उत्तराखंड दुग्ध उत्पादक सहकारी संघ (उत्तराखंड मिल्कफेड) कार्यरत है। यह संघ दूध खरीद, प्रसंस्करण और विपणन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मिल्कफेड के तहत 'आनंदा' ब्रांड का दुग्ध और दुग्ध उत्पाद विपणन किया जाता है।


4. डेयरी उद्योग की संभावनाएँ – उत्तराखंड में डेयरी उद्योग की अपार संभावनाएँ हैं, विशेषकर मसूरी, नैनीताल, पिथौरागढ़, देहरादून और हरिद्वार जैसे क्षेत्रों में। जैविक दुग्ध उत्पादन, पनीर, घी, मक्खन और अन्य दुग्ध उत्पादों के उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सकता है।


5. डेयरी क्षेत्र में सरकारी योजनाएँ – उत्तराखंड सरकार डेयरी विकास को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न योजनाएँ चला रही है, जिनमें दुग्ध उत्पादकों को सब्सिडी, पशु आहार आपूर्ति, कृत्रिम गर्भाधान, टीकाकरण और दुग्ध प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना शामिल हैं।


6. चुनौतियाँ और समस्याएँ –


पर्वतीय क्षेत्रों में दुग्ध उत्पादन कम – दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में पशुपालन कठिन होता है, जिससे वहाँ दुग्ध उत्पादन सीमित रहता है।


आधुनिक तकनीक की कमी – दुग्ध प्रसंस्करण और विपणन के लिए आधुनिक तकनीकों की कमी है, जिससे किसान उचित लाभ नहीं कमा पाते।


पशु आहार की समस्या – हरे चारे की कमी और महंगे पशु आहार के कारण दुग्ध उत्पादन प्रभावित होता है।


संगठन और विपणन की समस्याएँ – दूध उत्पादन करने वाले किसानों को बाजार तक पहुँचाने के लिए उचित बुनियादी ढाँचा और ठंडा भंडारण सुविधाएँ पर्याप्त नहीं हैं।


7. डेयरी विकास के लिए उपाय – उत्तराखंड में डेयरी उद्योग को बढ़ाने के लिए सरकार को सहकारी समितियों का विस्तार, दुग्ध प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना, जैविक डेयरी को प्रोत्साहित करने, और पशुपालन के लिए वैज्ञानिक तकनीकों को अपनाने पर जोर देना होगा।


निष्कर्ष – उत्तराखंड में डेयरी विकास की स्थिति संतोषजनक है, लेकिन इसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए आधुनिक तकनीक, सरकारी सहायता और सहकारी संगठनों के सुदृढ़ीकरण की आवश्यकता है। यदि इन चुनौतियों पर ध्यान दिया जाए, तो उत्तराखंड का डेयरी उद्योग ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।




प्रश्न 04 उत्तराखण्ड में निम्न कृषि उत्पादकता के कारणों को लिखिए।




उत्तराखंड में कृषि प्रमुख आर्थिक गतिविधियों में से एक है, लेकिन यहाँ की कृषि उत्पादकता अपेक्षाकृत निम्न बनी हुई है। इसके कई भौगोलिक, आर्थिक, तकनीकी और सामाजिक कारण हैं। निम्न कृषि उत्पादकता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं—


1. पहाड़ी भौगोलिक संरचना – उत्तराखंड का अधिकांश भाग पहाड़ी और दुर्गम क्षेत्र में स्थित है, जहाँ खेत छोटे और सीढ़ीनुमा होते हैं। इन खेतों में आधुनिक मशीनों का प्रयोग कठिन होता है, जिससे कृषि उत्पादन सीमित रहता है।


2. सिंचाई की समस्या – राज्य में सिंचाई के लिए बड़े जल स्रोत उपलब्ध होने के बावजूद पहाड़ी क्षेत्रों में उचित सिंचाई व्यवस्था का अभाव है। वर्षा-आधारित कृषि के कारण सूखे और असमय वर्षा से फसलों को नुकसान होता है।


3. पारंपरिक कृषि प्रणाली – उत्तराखंड में अभी भी पारंपरिक कृषि तकनीकों का अधिक प्रयोग होता है। उन्नत बीज, जैविक खाद, और नवीनतम कृषि तकनीकों का सीमित उपयोग होने से उत्पादकता प्रभावित होती है।


4. उर्वरता की कमी – पहाड़ी मिट्टी की उर्वरता मैदानी क्षेत्रों की तुलना में कम होती है। मिट्टी के कटाव और अत्यधिक उपयोग के कारण भूमि बंजर हो रही है, जिससे उत्पादन घटता जा रहा है।


5. उच्च उत्पादन लागत – खाद, बीज, कीटनाशक और मशीनरी की अधिक लागत छोटे किसानों के लिए चुनौतीपूर्ण है। सरकारी सहायता और सब्सिडी की सीमित पहुँच के कारण किसान उन्नत तकनीकों को अपनाने में असमर्थ रहते हैं।


6. विपणन और भंडारण की समस्याएँ – उत्तराखंड के किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए उचित बाजार सुविधाएँ नहीं मिल पातीं। ठंडा भंडारण, परिवहन और प्रसंस्करण इकाइयों की कमी के कारण किसानों को फसलों का उचित मूल्य नहीं मिलता।


7. मानव संसाधन और पलायन – रोजगार की कमी और कृषि से कम आय के कारण बड़ी संख्या में युवा मैदानी क्षेत्रों या अन्य राज्यों की ओर पलायन कर रहे हैं। इससे कृषि कार्यबल की कमी हो रही है और उत्पादन प्रभावित हो रहा है।


8. जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाएँ – उत्तराखंड में भूस्खलन, अतिवृष्टि, सूखा, और ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाएँ कृषि उत्पादकता को प्रभावित करती हैं। बदलते मौसम के कारण पारंपरिक फसलें प्रभावित हो रही हैं।


9. फसलों का सीमित विकल्प – उत्तराखंड में पारंपरिक रूप से गेहूँ, मक्का, जौ, और दालें उगाई जाती हैं, लेकिन नई व्यावसायिक फसलों को अपनाने की गति धीमी है। इससे किसानों को अधिक लाभ नहीं मिल पाता।


10. सरकार की नीतियों की सीमित प्रभावशीलता – कृषि सुधार और योजनाओं का सही क्रियान्वयन न होने के कारण किसान पूरी तरह लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। तकनीकी सहायता, ऋण सुविधा और बाजार उपलब्धता की समस्याएँ बनी हुई हैं।


निष्कर्ष – उत्तराखंड में निम्न कृषि उत्पादकता के पीछे प्राकृतिक, तकनीकी, आर्थिक और प्रशासनिक कारण जिम्मेदार हैं। यदि राज्य सरकार उन्नत तकनीक, सिंचाई सुविधाओं, जैविक कृषि और कृषि सहकारी समितियों को बढ़ावा दे तो उत्तराखंड में कृषि उत्पादकता को प्रभावी रूप से बढ़ाया जा सकता है।




प्रश्न 05 उत्तराखण्ड में सिडकुल का निर्माण कब हुआ तथा इसके उद्देश्य क्या हैं?




उत्तराखंड में सिडकुल (SIDCUL - State Infrastructure and Industrial Development Corporation of Uttarakhand Limited) की स्थापना 2002 में की गई थी। यह उत्तराखंड सरकार द्वारा स्थापित एक सार्वजनिक उपक्रम है, जिसका उद्देश्य राज्य में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित करना और निवेशकों को आवश्यक बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराना है।


सिडकुल के प्रमुख उद्देश्य –


औद्योगीकरण को बढ़ावा देना – उत्तराखंड में औद्योगिक विकास को तेज करना और राज्य को एक उन्नत औद्योगिक केंद्र के रूप में स्थापित करना।


निवेश को आकर्षित करना – देश-विदेश की कंपनियों को उत्तराखंड में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना और उद्योगों के अनुकूल वातावरण तैयार करना।


बुनियादी ढाँचे का विकास – औद्योगिक क्षेत्रों में सड़क, बिजली, जल आपूर्ति, और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना, जिससे उद्योगों का संचालन सुगम हो।


रोजगार के अवसर सृजित करना – उत्तराखंड के स्थानीय लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना और पलायन की समस्या को कम करना।


लघु, मध्यम और बड़े उद्योगों का विकास – राज्य में विभिन्न प्रकार के उद्योगों (मैन्युफैक्चरिंग, फार्मा, ऑटोमोबाइल, फूड प्रोसेसिंग, आदि) को बढ़ावा देना।


पर्यावरण अनुकूल औद्योगिक विकास – सतत विकास को ध्यान में रखते हुए पर्यावरणीय मानकों के अनुसार उद्योगों की स्थापना को बढ़ावा देना।


सिडकुल के प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र –


सिडकुल ने उत्तराखंड में कई औद्योगिक क्षेत्रों का विकास किया है, जिनमें प्रमुख हैं—


हरिद्वार सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र


रुद्रपुर (उधमसिंह नगर) औद्योगिक क्षेत्र


सिटारगंज औद्योगिक क्षेत्र


कोटद्वार औद्योगिक क्षेत्र


पंतनगर औद्योगिक क्षेत्र


देहरादून आईटी पार्क


निष्कर्ष –


सिडकुल उत्तराखंड में औद्योगीकरण को बढ़ावा देने और आर्थिक विकास को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इसके कारण राज्य में रोजगार के नए अवसर सृजित हुए हैं और बाहरी निवेश आकर्षित हुआ है, जिससे उत्तराखंड का औद्योगिक परिदृश्य लगातार विकसित हो रहा है।




प्रश्न 06 उत्तराखण्ड में औद्योगिक विकास हेतु सहयोगी संस्थानों का विवरण दीजिए।




उत्तराखंड में औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए कई सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएँ कार्यरत हैं। ये संस्थाएँ राज्य में निवेश को प्रोत्साहित करने, उद्यमियों को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराने, और औद्योगिक आधारभूत संरचना के विकास में सहायता प्रदान करती हैं। प्रमुख सहयोगी संस्थाओं का विवरण निम्नलिखित है—


1. सिडकुल (SIDCUL - State Infrastructure and Industrial Development Corporation of Uttarakhand Limited)


स्थापना वर्ष: 2002

उद्देश्य:


औद्योगिक क्षेत्रों का विकास और प्रबंधन


निवेशकों को भूमि, बिजली, पानी और अन्य सुविधाएँ प्रदान करना


लघु, मध्यम और बड़े उद्योगों को प्रोत्साहित करना


विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) और औद्योगिक हब की स्थापना


2. उत्तराखंड औद्योगिक विकास निदेशालय (DIC - Directorate of Industries, Uttarakhand)


उद्देश्य:


लघु, कुटीर और मध्यम उद्योगों को प्रोत्साहित करना


औद्योगिक नीतियों का क्रियान्वयन और निगरानी


सरकारी योजनाओं के तहत ऋण एवं सब्सिडी उपलब्ध कराना


स्वरोजगार और कौशल विकास को बढ़ावा देना


3. उत्तराखंड राज्य लघु उद्योग निगम (USIC - Uttarakhand Small Industries Corporation)


उद्देश्य:


लघु और कुटीर उद्योगों को सहायता प्रदान करना


कच्चे माल और विपणन सेवाएँ उपलब्ध कराना


हथकरघा, हस्तशिल्प और स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देना


4. उत्तराखंड खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड


उद्देश्य:


ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे उद्योगों और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन


खादी और हस्तशिल्प उत्पादों के निर्माण और विपणन में सहयोग


महिला उद्यमिता और स्वरोजगार को बढ़ावा देना


5. उत्तराखंड राज्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद (UCOST - Uttarakhand State Council for Science & Technology)


उद्देश्य:


विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से औद्योगिक नवाचार को प्रोत्साहित करना


अनुसंधान एवं विकास (R&D) के लिए सहायता प्रदान करना


नई तकनीकों को उद्योगों में अपनाने हेतु मार्गदर्शन देना


6. भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI - Small Industries Development Bank of India)


उद्देश्य:


सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) को वित्तीय सहायता


नवाचार और तकनीकी उन्नयन हेतु ऋण उपलब्ध कराना


उद्यमिता विकास कार्यक्रमों का संचालन


7. राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम (NSIC - National Small Industries Corporation)


उद्देश्य:


लघु उद्योगों को वित्तीय सहायता, तकनीकी प्रशिक्षण और विपणन सुविधा प्रदान करना


उद्योगों के लिए कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित करना


निर्यात संवर्धन और नए बाजारों तक पहुँच में सहायता देना


8. उत्तराखंड हैंडलूम एंड हैंडीक्राफ्ट डेवलपमेंट काउंसिल (UHHDC)


उद्देश्य:


राज्य के पारंपरिक हस्तशिल्प और हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देना


हस्तशिल्प कारीगरों को प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता प्रदान करना


स्थानीय उत्पादों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों तक पहुँचाना


9. उत्तराखंड कृषि विपणन बोर्ड (UKAMB - Uttarakhand Agriculture Marketing Board)


उद्देश्य:


कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देना


जैविक उत्पादों के प्रसंस्करण और विपणन में सहायता


किसानों और उद्यमियों के लिए आधुनिक विपणन सुविधाएँ उपलब्ध कराना


10. उत्तराखंड कौशल विकास मिशन (UKSDM - Uttarakhand Skill Development Mission)


उद्देश्य:


औद्योगिक जरूरतों के अनुसार युवाओं को प्रशिक्षण देना


राज्य में कुशल कार्यबल तैयार करना


स्वरोजगार और स्टार्टअप संस्कृति को प्रोत्साहित करना


निष्कर्ष


उत्तराखंड में औद्योगिक विकास को गति देने के लिए अनेक संस्थाएँ कार्य कर रही हैं। सिडकुल, औद्योगिक विकास निदेशालय, लघु उद्योग निगम और अन्य सरकारी एजेंसियाँ उद्योगों को वित्तीय, तकनीकी और विपणन सहायता प्रदान करती हैं। यदि इन संस्थानों को और अधिक सशक्त किया जाए, तो राज्य में औद्योगिक विकास को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया जा सकता है।




प्रश्न 07 सूक्ष्म वित्त पर टिप्पणी लिखिए।




सूक्ष्म वित्त पर टिप्पणी


परिचय

सूक्ष्म वित्त (Microfinance) एक वित्तीय प्रणाली है, जो निम्न आय वर्ग के लोगों को छोटे ऋण, बचत योजनाएँ, बीमा और अन्य वित्तीय सेवाएँ प्रदान करती है। इसका मुख्य उद्देश्य उन लोगों को आर्थिक सहायता देना है जो पारंपरिक बैंकिंग सेवाओं से वंचित रहते हैं। सूक्ष्म वित्त प्रणाली विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों, छोटे व्यापारियों, किसानों और महिलाओं के सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


सूक्ष्म वित्त की विशेषताएँ


छोटे ऋण (Microcredit) – यह छोटे व्यापारों, स्वयं सहायता समूहों (SHG), किसानों और महिलाओं को बिना गारंटी के ऋण प्रदान करता है।


कम ब्याज दरें – पारंपरिक बैंकों की तुलना में इसकी ब्याज दरें तुलनात्मक रूप से कम होती हैं।


आसान पुनर्भुगतान प्रणाली – ऋणों को छोटे-छोटे मासिक या साप्ताहिक किस्तों में चुकाने की सुविधा दी जाती है।


ग्रामीण और गरीब वर्ग को लक्ष्य बनाना – इसका मुख्य उद्देश्य उन लोगों तक बैंकिंग सेवाएँ पहुँचाना है, जो औपचारिक वित्तीय सेवाओं का उपयोग नहीं कर पाते।


महिला सशक्तिकरण – महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता देने में सूक्ष्म वित्त की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिससे वे स्वयं का व्यवसाय शुरू कर पाती हैं।


सूक्ष्म वित्त के लाभ


आर्थिक आत्मनिर्भरता – यह गरीब वर्ग को स्वरोजगार और छोटे व्यवसायों को शुरू करने में मदद करता है।


गरीबी उन्मूलन – इससे निर्धन लोगों को आय का स्रोत उपलब्ध होता है, जिससे गरीबी दर में कमी आती है।


ग्रामीण विकास – गाँवों में छोटे उद्योगों, कृषि और व्यापार को बढ़ावा मिलता है।


वित्तीय समावेशन – बैंकिंग सेवाओं से वंचित लोगों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली से जोड़ा जाता है।


सूक्ष्म वित्त की चुनौतियाँ


उच्च ब्याज दरें – कुछ सूक्ष्म वित्त संस्थाएँ (MFIs) उच्च ब्याज दरों पर ऋण देती हैं, जिससे गरीब लोग कर्ज के जाल में फँस सकते हैं।


ऋण चूक (Loan Default) – कुछ लोग ऋण चुकाने में असमर्थ होते हैं, जिससे वित्तीय संस्थानों को नुकसान होता है।


प्रबंधन और जागरूकता की कमी – ग्रामीण इलाकों में लोगों को वित्तीय सेवाओं और ऋण प्रबंधन की उचित जानकारी नहीं होती।


वित्तीय संसाधनों की सीमित उपलब्धता – सूक्ष्म वित्त संस्थानों को भी पूंजी की उपलब्धता में दिक्कतें आती हैं।


निष्कर्ष

सूक्ष्म वित्त एक प्रभावी आर्थिक साधन है, जो गरीब और वंचित वर्ग को आत्मनिर्भर बनाने में सहायक है। हालांकि, इसकी चुनौतियों को दूर करने के लिए पारदर्शिता, वित्तीय जागरूकता और सरकारी नियमन की आवश्यकता है। यदि इसे सही ढंग से लागू किया जाए, तो यह गरीबी उन्मूलन और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।




प्रश्न 08 वस्तु और सेवा कर (GST) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।




वस्तु और सेवा कर (GST) पर संक्षिप्त टिप्पणी


परिचय

वस्तु और सेवा कर (GST) एक अप्रत्यक्ष कर प्रणाली है, जिसे भारत में 1 जुलाई 2017 से लागू किया गया। यह "एक राष्ट्र, एक कर" की अवधारणा पर आधारित है और पूर्व में लागू विभिन्न अप्रत्यक्ष करों (जैसे वैट, सेवा कर, उत्पाद शुल्क, आदि) को एकीकृत करके पूरे देश में एक समान कर ढाँचा प्रदान करता है।


GST की विशेषताएँ


एकीकृत कर प्रणाली – GST ने केंद्रीय और राज्य स्तर के करों को एक कर प्रणाली में समाहित किया।


गंतव्य-आधारित कर प्रणाली – कर का भुगतान उपभोग के स्थान (गंतव्य) पर किया जाता है, न कि उत्पादन के स्थान पर।


मल्टी-स्टेज टैक्सेशन – यह उत्पादन से लेकर अंतिम उपभोक्ता तक प्रत्येक चरण पर लगाया जाता है, लेकिन इनपुट टैक्स क्रेडिट की सुविधा से दोहरे कराधान की समस्या समाप्त हो जाती है।


पाँच कर दरें – 0%, 5%, 12%, 18% और 28% की दरें विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं पर लागू की जाती हैं।


ऑनलाइन कर प्रणाली – GST पंजीकरण, रिटर्न दाखिल करना और भुगतान पूरी तरह ऑनलाइन होता है।


GST के लाभ


कर प्रणाली की सरलता – कई करों के स्थान पर एकल कर प्रणाली लागू होने से जटिलता कम हुई।


दोहरा कराधान समाप्त – पहले के कर ढाँचे में "कर पर कर" की समस्या थी, जिसे इनपुट टैक्स क्रेडिट से समाप्त कर दिया गया।


व्यापार को बढ़ावा – पूरे देश में एक समान कर व्यवस्था होने से वस्तुओं और सेवाओं का निर्बाध व्यापार संभव हुआ।


राजस्व में वृद्धि – कर चोरी पर रोक लगने और अधिक करदाताओं के दायरे में आने से सरकारी राजस्व बढ़ा।


मूल्य स्थिरता – कई वस्तुओं और सेवाओं पर कर भार कम होने से उपभोक्ताओं को लाभ मिला।


GST से जुड़ी चुनौतियाँ


तकनीकी और प्रशासनिक समस्याएँ – छोटे व्यापारियों के लिए ऑनलाइन प्रक्रिया जटिल हो सकती है।


कुछ क्षेत्रों को बाहर रखा गया – पेट्रोलियम उत्पाद, शराब और बिजली पर अभी भी पुरानी कर प्रणाली लागू है।


राज्यों के राजस्व में अस्थायी कमी – प्रारंभ में राज्यों को नुकसान हुआ, जिसके लिए केंद्र सरकार ने मुआवजा दिया।


निष्कर्ष

GST भारत में कर सुधारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जिसने कर प्रणाली को अधिक पारदर्शी और सरल बनाया। हालाँकि, अभी भी कुछ चुनौतियाँ बनी हुई हैं, लेकिन समय के साथ इसमें और सुधार किए जा सकते हैं। GST के माध्यम से भारत को एकीकृत बाजार बनाने और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने में मदद मिली है।