प्रश्न 01. सतत विकास के प्रमुख सिद्धान्त कौन कौन से हैं और ये सिद्धान्त किस प्रकार पर्यावरणीय संरक्षण, सामाजिक समानता और आर्थिक व्यवहार्यता के बीच संतुलन स्थापित करने में मदद करते हैं ? इसके सिद्धान्तों के प्रमुख बिन्दुओं को विस्तार से समझाइए।
🌱 सतत विकास की अवधारणा: भविष्य के लिए वर्तमान का संतुलित प्रयोग
सतत विकास (Sustainable Development) वह प्रक्रिया है जिसमें वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति इस प्रकार की जाती है कि भविष्य की पीढ़ियाँ भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। इसका उद्देश्य पर्यावरणीय संरक्षण, सामाजिक न्याय और आर्थिक वृद्धि के बीच संतुलन बनाए रखना है।
🔍 सतत विकास की परिभाषा
👉 ब्रंटलैंड कमीशन (1987) की रिपोर्ट के अनुसार:
"सतत विकास ऐसा विकास है जो वर्तमान की आवश्यकताओं को इस प्रकार पूरा करता है कि भविष्य की पीढ़ियों की जरूरतें भी प्रभावित न हों।"
⚖️ सतत विकास के तीन मुख्य स्तंभ (Three Pillars of Sustainability)
♻️ 1. पर्यावरणीय संरक्षण (Environmental Protection)
-
प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग
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जैव विविधता का संरक्षण
-
प्रदूषण नियंत्रण
-
जलवायु परिवर्तन का सामना करना
🧑🤝🧑 2. सामाजिक समानता (Social Equity)
-
हर व्यक्ति को बराबरी का अवसर
-
गरीबी उन्मूलन
-
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच
-
लैंगिक समानता और मानवाधिकार संरक्षण
💹 3. आर्थिक व्यवहार्यता (Economic Viability)
-
संसाधनों का कुशल उपयोग
-
दीर्घकालिक निवेश
-
रोजगार सृजन
-
टिकाऊ औद्योगीकरण
🧩 सतत विकास के प्रमुख सिद्धांत (Major Principles of Sustainable Development)
🔄 सिद्धांत 1: अंतःपीढ़ीय समानता (Intergenerational Equity)
🔸 विवरण:
यह सिद्धांत बताता है कि हमें प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इस प्रकार करना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियाँ भी उनका उपयोग कर सकें।
📌 उदाहरण:
वनों की अंधाधुंध कटाई भविष्य के लिए खतरा बन सकती है। सतत विकास इस दोहन को नियंत्रित करने की बात करता है।
🧑🤝🧑 सिद्धांत 2: अंतर्जातीय समानता (Intragenerational Equity)
🔸 विवरण:
वर्तमान पीढ़ी में सभी को विकास के समान अवसर मिलने चाहिए, चाहे वे किसी भी वर्ग, जाति, लिंग या क्षेत्र से हों।
📌 उदाहरण:
शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं में समानता सुनिश्चित करना।
🔍 सिद्धांत 3: सतत उपभोग और उत्पादन (Sustainable Consumption and Production)
🔸 विवरण:
हमारी जीवनशैली और औद्योगिक प्रक्रियाएँ ऐसी होनी चाहिए जो संसाधनों की बर्बादी को रोकें।
📌 उपाय:
-
ऊर्जा कुशल उत्पादों का उपयोग
-
प्लास्टिक का सीमित प्रयोग
-
नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को अपनाना
🌿 सिद्धांत 4: जैव विविधता का संरक्षण (Conservation of Biodiversity)
🔸 विवरण:
वन, वन्यजीव, जलस्रोत, वायु आदि सभी की जैव विविधता को संरक्षित करना आवश्यक है क्योंकि वे पारिस्थितिकी संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं।
📌 प्रयास:
-
जैव अभ्यारण्य और नेशनल पार्कों की स्थापना
-
संवेदनशील प्रजातियों की रक्षा
⚖️ सिद्धांत 5: भागीदारी और न्याय (Participation and Justice)
🔸 विवरण:
सतत विकास में हर व्यक्ति, समुदाय और संस्था की भागीदारी आवश्यक है। इससे नीतियाँ और योजनाएँ अधिक समावेशी बनती हैं।
📌 उपाय:
-
ग्राम सभा की भूमिका को मजबूत करना
-
महिला एवं युवाओं को निर्णय प्रक्रिया में शामिल करना
💡 सिद्धांत 6: निवारक उपायों की प्राथमिकता (Precautionary Principle)
🔸 विवरण:
जहाँ पर्यावरणीय प्रभाव के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं होती, वहाँ भी निवारक कदम उठाना जरूरी होता है।
📌 उदाहरण:
नवीन रसायनों या GM फसलों के प्रयोग से पहले प्रभाव का अध्ययन।
🔧 सिद्धांत 7: उत्तरदायित्व और जवाबदेही (Accountability and Responsibility)
🔸 विवरण:
हर नागरिक, संस्था, उद्योग और सरकार को पर्यावरण के प्रति जवाबदेह होना चाहिए।
📌 उपाय:
-
पर्यावरणीय लेखांकन
-
ग्रीन टैक्स जैसे साधनों का प्रयोग
🔄 सिद्धांत 8: पुनर्चक्रण और पुनः उपयोग (Recycle and Reuse)
🔸 विवरण:
अपशिष्ट पदार्थों को दोबारा प्रयोग करने से संसाधनों की बचत होती है और प्रदूषण कम होता है।
📌 उदाहरण:
-
कागज, प्लास्टिक, धातु आदि का रीसायकल करना
-
घरेलू स्तर पर किचन वेस्ट से खाद बनाना
🌐 पर्यावरणीय संरक्षण, सामाजिक समानता और आर्थिक विकास के बीच संतुलन कैसे स्थापित होता है?
🌳 पर्यावरणीय संरक्षण द्वारा
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प्राकृतिक संसाधनों का दीर्घकालिक उपयोग संभव होता है
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प्रदूषण और जलवायु संकट को रोका जा सकता है
🧑⚖️ सामाजिक समानता द्वारा
-
समाज में सभी को समान अवसर मिलते हैं
-
अशिक्षा, गरीबी और भेदभाव को समाप्त किया जा सकता है
💼 आर्थिक व्यवहार्यता द्वारा
-
लंबी अवधि में स्थिर आर्थिक प्रणाली
-
कम संसाधनों में अधिक उत्पादकता
-
रोजगार और निवेश की निरंतरता
📊 भारत में सतत विकास के प्रयास
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राष्ट्रीय जैव विविधता मिशन
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राष्ट्रीय कार्य योजना जलवायु परिवर्तन पर (NAPCC)
-
स्वच्छ भारत मिशन
-
हरित भारत अभियान (Green India Mission)
-
स्मार्ट सिटी योजना
-
SDGs (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) को अपनाना
✅ निष्कर्ष: संतुलन ही सततता की कुंजी है
सतत विकास के सिद्धांत हमें यह सिखाते हैं कि केवल आर्थिक प्रगति ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि हमें प्रकृति, समाज और अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन बनाकर चलना होगा। ये सिद्धांत न केवल नीति-निर्माताओं के लिए, बल्कि प्रत्येक नागरिक के लिए मार्गदर्शक बन सकते हैं।
प्रश्न 02: सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रभावी नीतियों और वैश्विक साझेदारी की आवश्यकता को विस्तार से समझाइए।
🌍 परिचय: सतत विकास लक्ष्यों की वैश्विक प्रतिबद्धता
सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals - SDGs) संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2015 में निर्धारित 17 लक्ष्य हैं, जिन्हें वर्ष 2030 तक प्राप्त करना है। इन लक्ष्यों का उद्देश्य दुनिया को गरीबी, भूख, असमानता, जलवायु परिवर्तन और अन्य वैश्विक समस्याओं से मुक्त करना है।
🎯 SDGs की रूपरेखा: 17 लक्ष्य, एक साझा भविष्य
🔖 प्रमुख लक्ष्य:
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गरीबी उन्मूलन
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भूख समाप्त करना
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गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
-
लैंगिक समानता
-
स्वच्छ जल और स्वच्छता
-
स्वच्छ ऊर्जा
-
जलवायु परिवर्तन पर कार्यवाही
-
शांति, न्याय और सशक्त संस्थान
-
साझेदारी के माध्यम से लक्ष्य प्राप्ति
👉 इन लक्ष्यों की पूर्ति तभी संभव है जब सरकारें, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं, निजी क्षेत्र, और आमजन मिलकर कार्य करें।
🏛️ प्रभावी नीतियों की आवश्यकता: दिशा और दृष्टिकोण
सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सिर्फ नीयत नहीं, नीति भी होनी चाहिए। नीचे कुछ प्रमुख नीतिगत क्षेत्रों को समझा गया है:
📚 1. शिक्षा और जागरूकता नीति
📌 विवरण:
शिक्षा वह माध्यम है जिससे लोगों में सतत जीवनशैली, पर्यावरणीय जिम्मेदारी और नागरिक सहभागिता की समझ पैदा की जा सकती है।
📎 नीति उपाय:
-
स्कूली पाठ्यक्रम में SDG आधारित शिक्षा
-
सामुदायिक जागरूकता अभियान
-
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर जानकारी का प्रचार
🏥 2. स्वास्थ्य और पोषण नीति
📌 विवरण:
स्वस्थ समाज के बिना सतत विकास संभव नहीं। बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ और पोषण सुरक्षा सतत विकास लक्ष्यों का आधार हैं।
📎 नीति उपाय:
-
सार्वभौमिक स्वास्थ्य बीमा योजनाएँ
-
कुपोषण विरोधी मिशन (POSHAN Abhiyan)
-
मातृ-शिशु स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार
🌾 3. पर्यावरणीय और जलवायु नीति
📌 विवरण:
जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, जल संकट जैसी समस्याओं के समाधान हेतु प्रभावी पर्यावरणीय नीतियाँ आवश्यक हैं।
📎 नीति उपाय:
-
कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए नीति
-
जल संरक्षण योजनाएँ (जल जीवन मिशन)
-
वन क्षेत्र को बढ़ाने की रणनीति
💼 4. आर्थिक विकास और रोजगार नीति
📌 विवरण:
समावेशी और टिकाऊ आर्थिक विकास SDG का मूल है। इसके लिए लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) को प्रोत्साहन जरूरी है।
📎 नीति उपाय:
-
स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया जैसी योजनाएँ
-
ग्रीन नौकरियों का सृजन
-
युवाओं और महिलाओं को उद्यमिता में भागीदारी
🏛️ 5. संस्थागत सुदृढ़ीकरण और पारदर्शिता
📌 विवरण:
भ्रष्टाचार मुक्त, जवाबदेह और पारदर्शी संस्थान ही विकास के साधक बन सकते हैं।
📎 नीति उपाय:
-
ई-गवर्नेंस का विस्तार
-
डेटा पारदर्शिता और निगरानी प्रणाली
-
विकेन्द्रीकरण और स्थानीय निकायों को सशक्त करना
🤝 वैश्विक साझेदारी की भूमिका: ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा
SDGs केवल किसी एक देश का कार्य नहीं, बल्कि यह वैश्विक समुदाय का सामूहिक प्रयास है। इसके लिए विभिन्न देशों, संस्थाओं, और संगठनों के बीच मजबूत साझेदारी आवश्यक है।
🌐 1. देशों के बीच सहयोग
🌏 विवरण:
विकसित और विकासशील देशों को एक-दूसरे की तकनीकी, आर्थिक और बौद्धिक क्षमताओं को साझा करना चाहिए।
🤝 उदाहरण:
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International Solar Alliance (ISA) में भारत की पहल
-
जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता
-
कोविड वैक्सीन वितरण में COVAX की साझेदारी
💰 2. वित्तीय सहायता और संसाधनों की साझेदारी
💸 विवरण:
विकासशील देशों को सतत विकास योजनाओं के लिए वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती है।
📎 उदाहरण:
-
विकास ऋण (Development Loans)
-
ग्रीन बॉन्ड्स
-
अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसियों की अनुदान योजनाएँ
💻 3. प्रौद्योगिकी और नवाचार साझेदारी
🔬 विवरण:
तकनीक का उपयोग गरीबी, कृषि, शिक्षा और पर्यावरण जैसी समस्याओं के समाधान में निर्णायक भूमिका निभा सकता है।
📎 उदाहरण:
-
स्मार्ट खेती हेतु ड्रोन तकनीक
-
सौर ऊर्जा तकनीक का ट्रांसफर
-
डिजिटल हेल्थ सॉल्यूशंस
🏢 4. निजी क्षेत्र और CSR की भूमिका
🏭 विवरण:
कॉर्पोरेट सेक्टर को सामाजिक जिम्मेदारी (CSR) के माध्यम से SDG की दिशा में योगदान देना चाहिए।
📎 उदाहरण:
-
शिक्षा और स्वच्छता पर CSR निवेश
-
ग्रीन एनर्जी परियोजनाओं में निजी भागीदारी
-
महिला सशक्तिकरण के लिए स्किल ट्रेनिंग प्रोग्राम
🧑💼 5. नागरिक सहभागिता और समुदाय आधारित साझेदारी
🧍 विवरण:
स्थानीय स्तर पर लोगों की भागीदारी से योजनाओं का कार्यान्वयन अधिक प्रभावशाली होता है।
📎 उदाहरण:
-
ग्राम सभाओं की भूमिका
-
स्वयंसेवी संस्थाओं (NGOs) का सहयोग
-
स्थानीय नवाचारों को बढ़ावा देना
📊 भारत का प्रयास: SDGs की दिशा में मजबूत पहल
🇮🇳 राष्ट्रीय स्तर की योजनाएँ:
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नीति आयोग द्वारा SDG इंडेक्स की शुरुआत
-
जल जीवन मिशन, स्वच्छ भारत अभियान, उज्ज्वला योजना
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ग्रीन इंडिया मिशन, स्किल इंडिया, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ
📈 उपलब्धियाँ:
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करोड़ों लोगों को शौचालय और स्वच्छ जल उपलब्ध
-
शिक्षा और स्वास्थ्य तक बेहतर पहुँच
-
अक्षय ऊर्जा में वैश्विक नेतृत्व की ओर भारत
✅ निष्कर्ष: साझा लक्ष्य, साझी जिम्मेदारी
सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए केवल सरकार की इच्छाशक्ति ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसके लिए प्रभावी नीतियाँ, कार्यक्षम संस्थान, तकनीकी नवाचार और अंतरराष्ट्रीय सहयोग अनिवार्य हैं। वैश्विक साझेदारी से संसाधनों, ज्ञान और अनुभवों का आदान-प्रदान संभव होता है, जिससे SDG की प्राप्ति और अधिक प्रभावी बनती है।
👉 जब नीति, नियत और सहभागिता का संतुलन बनता है, तब विकास सतत बनता है।
प्रश्न 03: पर्वतीय क्षेत्रों में आजीविका को समझाइए एवं पर्वतीय क्षेत्रों में आजीविका के अंतर्गत आने वाली कठिनाइयों की भी व्याख्या कीजिए।
🏔️ परिचय: पर्वतीय क्षेत्रों में जीवन और आजीविका की जटिलता
भारत के पर्वतीय क्षेत्र जैसे – उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्वी राज्य – प्राकृतिक सौंदर्य और संसाधनों से भरपूर होते हुए भी कठिन जीवनशैली के लिए जाने जाते हैं। यहाँ की भौगोलिक विषमताएँ, संसाधनों की सीमाएँ, और अवसंरचना की कमी आजीविका को विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण बनाती हैं।
🌾 पर्वतीय क्षेत्रों में प्रमुख आजीविका के स्रोत
🌿 1. कृषि और बागवानी (Farming & Horticulture)
पर्वतीय क्षेत्रों में अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है, लेकिन भूमि की ढलान, जलवायु की अनिश्चितता, और सिंचाई के साधनों की कमी के कारण यह जीविका का सीमित और अस्थिर स्रोत बन जाती है।
✅ प्रमुख फसलें:
-
मक्का, झंगोरा, मंडुवा, राजमा, आलू
-
बागवानी: सेब, संतरा, नाशपाती, अखरोट आदि
🐐 2. पशुपालन और डेयरी व्यवसाय (Animal Husbandry)
पर्वतीय क्षेत्रों में पशुपालन एक महत्वपूर्ण सहायक व्यवसाय है। खासतौर पर बकरी पालन, भेड़ पालन, और दूध उत्पादन आम हैं।
✅ लाभ:
-
दूध, ऊन और मांस का उत्पादन
-
पर्वतीय चरागाहों की उपलब्धता
-
घरेलू खपत व बाज़ार में बिक्री
🏡 3. हस्तशिल्प और पारंपरिक उद्योग (Handicrafts & Cottage Industries)
यहाँ की पारंपरिक कलाएं – जैसे ऊनी वस्त्र, लकड़ी की नक्काशी, बांस-कार्य, और लोक शिल्प – आजीविका का एक अहम स्रोत हैं।
✅ उदाहरण:
-
उत्तराखण्ड की ‘रिंगाल’ कला
-
हिमाचल का ऊनी कपड़ा और शॉल
🛤️ 4. पर्यटन आधारित रोजगार (Tourism-based Livelihood)
पर्वतीय क्षेत्रों में प्राकृतिक सौंदर्य, धार्मिक स्थल, ट्रेकिंग स्थल आदि पर्यटन को प्रोत्साहित करते हैं, जिससे लोगों को गाइड, होटल व्यवसाय, होम-स्टे, और परिवहन सेवाओं से आय होती है।
✅ उदाहरण:
-
चारधाम यात्रा
-
मसूरी, मनाली, शिलॉन्ग जैसे हिल स्टेशन
🌲 5. वनों पर आधारित आजीविका (Forest-based Livelihood)
वनों से लकड़ी, औषधीय पौधे, शहद, लाह, फल, और जलाऊ लकड़ी जैसी सामग्रियाँ एकत्र की जाती हैं, जो घरेलू उपयोग और बाजार दोनों के लिए महत्वपूर्ण हैं।
🛠️ 6. असंगठित श्रम और पलायन (Seasonal Labor & Migration)
विकास की कमी के कारण कई लोग मैदानी क्षेत्रों की ओर पलायन करते हैं, जहाँ वे निर्माण कार्य, घरेलू कामकाज या छोटी फैक्ट्रियों में काम करते हैं।
⚠️ पर्वतीय क्षेत्रों में आजीविका से जुड़ी कठिनाइयाँ
अब जबकि आजीविका के स्रोत हैं, तो उनके साथ कई कठिनाइयाँ और सीमाएँ भी हैं, जो पर्वतीय जीवन को अधिक संघर्षपूर्ण बनाती हैं।
🌧️ 1. भौगोलिक और जलवायु संबंधित चुनौतियाँ
⛰️ ऊबड़-खाबड़ और ढलानदार ज़मीन
-
खेती के लिए सीमित और असमतल भूमि
-
यांत्रिक कृषि मुश्किल या असंभव
🌦️ जलवायु परिवर्तन और आपदाएँ
-
अत्यधिक वर्षा, भूस्खलन और बर्फबारी
-
खेती और पर्यटकों पर नकारात्मक असर
🚫 2. सीमित बुनियादी ढाँचा और सुविधाएँ
🛣️ परिवहन की कमी
-
दुर्गम गाँवों तक पहुँच नहीं
-
बाजार से दूरी बढ़ने पर लागत अधिक
📡 सूचना और तकनीक की कमी
-
इंटरनेट, मोबाइल नेटवर्क, और तकनीकी सहायता सीमित
-
डिजिटल इंडिया का लाभ नहीं पहुँच पाता
📉 3. आर्थिक और संस्थागत समस्याएँ
💸 वित्तीय संसाधनों की कमी
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खेती या व्यवसाय के लिए पूँजी नहीं
-
बैंकिंग सुविधाएँ कम
🏛️ सरकारी योजनाओं की धीमी पहुँच
-
योजनाओं की जानकारी का अभाव
-
कागजी कार्यवाही जटिल
👨👩👧👦 4. सामाजिक और मानव संसाधन से जुड़ी समस्याएँ
🧑🎓 शिक्षित युवाओं का पलायन
-
स्थानीय अवसरों की कमी
-
प्रतिभा का बाहर जाना
👩 महिलाओं की सीमित भागीदारी
-
आजीविका में महिलाएँ योगदान देती हैं, लेकिन संसाधनों और निर्णय में भागीदारी नहीं मिलती
🌐 5. जलवायु और पर्यावरणीय दबाव
🔥 वनाग्नि और जैव विविधता का ह्रास
-
वनों की कटाई और वनाग्नि से नुकसान
-
वनों पर निर्भर आजीविका संकट में
🌡️ जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
-
फसलें प्रभावित, जल स्रोत सूख रहे हैं
-
पारंपरिक मौसम चक्र में बदलाव
✅ समाधान और सुधार की दिशा में प्रयास
अब हमें इन कठिनाइयों को समझकर उनके समाधान की दिशा में काम करने की आवश्यकता है।
🛠️ 1. क्षेत्रीय आधारित विकास नीतियाँ
-
पर्वतीय क्षेत्रों के अनुसार विशेष योजनाओं का निर्माण
-
भौगोलिक अनुकूल कृषि और व्यवसायों का प्रोत्साहन
📲 2. तकनीकी और डिजिटल पहुँच
-
गाँवों तक इंटरनेट और मोबाइल नेटवर्क
-
ऑनलाइन बाज़ारों से जोड़ना (जैसे – Amazon, Flipkart आदि में लोकल प्रोडक्ट्स)
🚌 3. बेहतर परिवहन और बाज़ार पहुँच
-
सड़क निर्माण, पुल और ट्रांसपोर्ट सुधार
-
मोबाइल मंडियाँ और खरीदी केंद्र
👩🌾 4. महिला और युवा सशक्तिकरण
-
स्वयं सहायता समूह (SHGs) का गठन
-
महिला कृषि उद्यमिता और स्किल ट्रेनिंग
🏞️ 5. पर्यटन के सतत विकास की योजना
-
होम-स्टे को बढ़ावा
-
लोक संस्कृति, हस्तशिल्प और जैविक उत्पादों का प्रचार
🧑💼 6. सरकारी योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन
-
स्थानीय निकायों को सशक्त बनाना
-
जागरूकता अभियान और सरल प्रक्रिया
🔚 निष्कर्ष: पर्वतीय आजीविका – संघर्ष से समाधान की ओर
पर्वतीय क्षेत्रों में आजीविका के स्रोत सीमित लेकिन विविध हैं। वहाँ के लोगों की सहजता, मेहनत और प्राकृतिक अनुकूलता अद्भुत है, लेकिन संसाधनों और अवसरों की कमी उन्हें पीछे कर देती है। अगर सरकार, समुदाय और तकनीक मिलकर काम करें, तो पर्वतीय जीवन भी स्वावलंबी, सुरक्षित और समृद्ध बन सकता है।
प्रश्न 04. पर्यावरण नीति और नियमन के महत्व को समझाते हुए उनके विभिन्न उद्देश्यों, तात्पर्य और भारत में उनके क्रियान्वयन की संरचना पर विस्तृत चर्चा कीजिए।
🌍 भूमिका: विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की आवश्यकता
21वीं सदी में विकास की दौड़ के साथ-साथ पर्यावरणीय संकट भी गहराता जा रहा है। प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता की हानि और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन – ये सभी समस्याएँ मानव सभ्यता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा रही हैं।
👉 ऐसे में पर्यावरण नीति और नियमन की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है, ताकि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन सुनिश्चित किया जा सके।
📜 पर्यावरण नीति का तात्पर्य (Meaning of Environmental Policy)
📖 परिभाषा:
पर्यावरण नीति एक दस्तावेज या दिशानिर्देश है, जिसमें सरकार या संस्था यह निर्धारित करती है कि वह किस प्रकार पर्यावरण की रक्षा, सुधार और प्रबंधन करेगी।
🧩 तात्पर्य:
-
प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को नियंत्रित करना
-
प्रदूषण नियंत्रण के उपाय निर्धारित करना
-
विकास योजनाओं में पर्यावरणीय मूल्यांकन को शामिल करना
-
दीर्घकालिक पर्यावरणीय संतुलन बनाना
⚖️ पर्यावरण नियमन का तात्पर्य (Meaning of Environmental Regulation)
🔍 परिभाषा:
पर्यावरणीय नियमन वे कानूनी और प्रशासनिक तंत्र हैं, जिनके माध्यम से पर्यावरण की रक्षा हेतु नियमों को लागू किया जाता है।
⚙️ कार्य:
-
प्रदूषण फैलाने वालों पर नियंत्रण
-
लाइसेंस, परमिट, जुर्माना आदि की व्यवस्था
-
मानकों (Standards) का निर्धारण
-
निगरानी और प्रवर्तन (Enforcement)
🎯 पर्यावरण नीति और नियमन के प्रमुख उद्देश्य (Key Objectives)
🌱 1. पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखना
✅ विवरण:
प्राकृतिक संसाधनों जैसे – जल, वायु, मिट्टी, वन, और जैव विविधता – का संतुलित और टिकाऊ उपयोग सुनिश्चित करना।
💨 2. प्रदूषण नियंत्रण
✅ विवरण:
जल, वायु, ध्वनि, और मृदा प्रदूषण को सीमित करने और रोकने के लिए मानक निर्धारित करना।
🌐 3. जलवायु परिवर्तन से निपटना
✅ विवरण:
ग्लोबल वार्मिंग, बर्फ पिघलना, सूखा और बाढ़ जैसी आपदाओं से बचने के लिए नीति आधारित प्रतिक्रियाएँ देना।
👩🌾 4. आजीविका और संसाधनों का सतत उपयोग
✅ विवरण:
गरीब और ग्रामीण समुदायों की आजीविका प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर होती है, इसलिए उनका संरक्षण और पुनर्भरण आवश्यक है।
📢 5. जनभागीदारी और जागरूकता बढ़ाना
✅ विवरण:
लोगों को स्वेच्छा से पर्यावरण संरक्षण में भागीदार बनाना और सामाजिक उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करना।
🛠️ भारत में पर्यावरण नीति की रूपरेखा और संरचना
भारत में पर्यावरण नीति की नींव संविधान के अनुच्छेद 48A और 51A(g) में रखी गई है, जिसमें पर्यावरण की रक्षा करना राज्य और नागरिक दोनों का कर्तव्य बताया गया है।
📜 प्रमुख पर्यावरणीय नीतियाँ (Major Environmental Policies in India)
🌲 1. राष्ट्रीय पर्यावरण नीति (NEP) 2006
📌 विशेषताएँ:
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सतत विकास के सिद्धांतों पर आधारित
-
सभी विकास योजनाओं में पर्यावरणीय दृष्टिकोण को शामिल करना
-
पर्यावरणीय शासन में पारदर्शिता बढ़ाना
🏞️ 2. राष्ट्रीय जैव विविधता कार्य योजना
📌 उद्देश्य:
-
जैव विविधता का संरक्षण
-
परंपरागत ज्ञान और स्थानीय समुदायों की भागीदारी
-
विलुप्त प्रजातियों का संरक्षण
💨 3. राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP)
📌 उद्देश्य:
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2024 तक वायु प्रदूषण में 20-30% की कमी
-
निगरानी स्टेशन और रियल टाइम डेटा
-
नगर निकायों की भागीदारी
🌦️ 4. जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC)
📌 8 मिशन शामिल हैं:
-
नेशनल सोलर मिशन
-
एनर्जी एफिशिएंसी मिशन
-
ग्रीन इंडिया मिशन
-
जल संरक्षण मिशन
🏛️ पर्यावरणीय नियमन की संस्थागत संरचना (Regulatory Framework in India)
🧑⚖️ 1. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC)
🔧 कार्य:
-
नीति निर्माण और क्रियान्वयन
-
प्रदूषण नियंत्रण निकायों का संचालन
-
पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA) की देखरेख
🧪 2. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB)
🔧 कार्य:
-
वायु, जल और मृदा गुणवत्ता के लिए मानक निर्धारित करना
-
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों का समन्वय
-
प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं की निगरानी
🏢 3. राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (SPCBs)
🔧 कार्य:
-
स्थानीय स्तर पर पर्यावरणीय नियमों का पालन
-
उद्योगों को अनुमति देना
-
निरीक्षण और सैंपलिंग
📝 4. पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA)
🔧 प्रक्रिया:
-
परियोजना के पर्यावरण पर प्रभाव का पूर्व अनुमान
-
जन सुनवाई और रिपोर्ट विश्लेषण
-
अनुमति मिलने से पहले नियमों की समीक्षा
⚖️ 5. राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT)
🔧 उद्देश्य:
-
पर्यावरणीय मामलों का त्वरित निपटारा
-
पर्यावरणीय हानि के लिए दंड और जुर्माना
-
नागरिकों को न्याय उपलब्ध कराना
🔎 चुनौतियाँ और सुधार की संभावनाएँ
🚫 प्रमुख चुनौतियाँ
❌ नीति और कार्यान्वयन में अंतर
❌ भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप
❌ जनभागीदारी की कमी
❌ तकनीकी और वित्तीय संसाधनों की सीमाएँ
🔧 संभावित समाधान
✔️ पारदर्शी और डिजिटल निगरानी प्रणाली
✔️ स्थानीय समुदायों को पर्यावरण प्रहरी बनाना
✔️ CSR और निजी निवेश को प्रोत्साहन
✔️ शिक्षण संस्थानों में पर्यावरण शिक्षा का विस्तार
✅ निष्कर्ष: पर्यावरण नीति – विकास की संरक्षक शक्ति
भारत जैसे विविध और विशाल देश में पर्यावरण नीति और नियमन केवल एक प्रशासनिक ढाँचा नहीं, बल्कि समाज के अस्तित्व और भविष्य की सुरक्षा का माध्यम हैं। इन नीतियों का उद्देश्य केवल संसाधनों की रक्षा नहीं बल्कि विकास को टिकाऊ और समावेशी बनाना है।
प्रश्न 05. भारत में राष्ट्रीय वन नीति की रणनीति का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
🌳 राष्ट्रीय वन नीति: एक परिचय
राष्ट्रीय वन नीति (National Forest Policy) का उद्देश्य देश के वन संसाधनों का संरक्षण, विकास और सतत उपयोग सुनिश्चित करना है। भारत में अब तक तीन प्रमुख वन नीतियाँ बनाई जा चुकी हैं – 1894, 1952 और 1988 की राष्ट्रीय वन नीति, जो वर्तमान में लागू है।
📜 1988 की राष्ट्रीय वन नीति के प्रमुख उद्देश्य
🔹 पर्यावरण संतुलन बनाए रखना
वनों के माध्यम से जलवायु, जल चक्र और मृदा संरक्षण सुनिश्चित करना।
🔹 पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा
जैव विविधता, वन्यजीवों और पारिस्थितिकीय संतुलन की रक्षा करना।
🔹 स्थानीय समुदायों की भागीदारी
वनों की सुरक्षा एवं प्रबंधन में ग्रामीण और जनजातीय समुदायों की सक्रिय भूमिका।
🔹 वनों की आर्थिक उपयोगिता
लकड़ी, बांस, जड़ी-बूटियाँ आदि वनों से प्राप्त संसाधनों का टिकाऊ उपयोग।
🧩 रणनीतियों का विस्तृत विश्लेषण
🌱 1. वृक्षावरण बढ़ाने की रणनीति
लक्ष्य: देश के कुल क्षेत्रफल का 33% हिस्सा वन क्षेत्र होना चाहिए।
मूल्यांकन:
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✔️ सकारात्मक: दीर्घकालिक पर्यावरणीय संतुलन के लिए आवश्यक।
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❌ नकारात्मक: शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण यह लक्ष्य अभी तक पूरा नहीं हो पाया।
🧍♂️ 2. लोगों की भागीदारी (Joint Forest Management)
लक्ष्य: स्थानीय लोगों को वन संरक्षण और प्रबंधन में शामिल करना।
मूल्यांकन:
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✔️ सकारात्मक: सामुदायिक चेतना बढ़ी और वनों की रक्षा में सहायक रहा।
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❌ नकारात्मक: कई क्षेत्रों में पारदर्शिता की कमी और अधिकारियों द्वारा अनदेखी।
🛑 3. वनों की अवैध कटाई रोकना
लक्ष्य: वनों की अवैध कटाई और अतिक्रमण को रोकना।
मूल्यांकन:
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✔️ सकारात्मक: सख्त कानून बनाए गए।
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❌ नकारात्मक: भ्रष्टाचार और निगरानी की कमी से अपेक्षित परिणाम नहीं मिले।
🏞️ 4. संवेदनशील क्षेत्रों की सुरक्षा
लक्ष्य: हिमालयी क्षेत्र, पश्चिमी घाट, मरुस्थल जैसे संवेदनशील पारिस्थितिक क्षेत्रों की रक्षा।
मूल्यांकन:
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✔️ सकारात्मक: नीति में विशेष ध्यान दिया गया।
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❌ नकारात्मक: क्रियान्वयन की गति धीमी और संसाधनों की कमी।
📊 नीति की सफलता और असफलता का विश्लेषण
✅ नीति की सफलताएँ
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🌐 सार्वजनिक चेतना में वृद्धि हुई।
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🌲 वनावरण में मामूली वृद्धि दर्ज की गई।
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👥 जनभागीदारी आधारित कार्यक्रमों की शुरुआत हुई।
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📚 स्कूलों में पर्यावरण शिक्षा अनिवार्य की गई।
❌ नीति की सीमाएँ
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🧾 कानूनों का प्रभावी कार्यान्वयन नहीं हो पाया।
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🏗️ औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से वनों पर दबाव बढ़ा।
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📉 33% वनों के लक्ष्य से अब भी बहुत दूर हैं।
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⚖️ नीति में आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन नहीं बन पाया।
🔄 वर्तमान संदर्भ में नीति की प्रासंगिकता
🌐 जलवायु परिवर्तन और वन नीति
वन कार्बन सिंक (carbon sink) का कार्य करते हैं। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए इनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।
🧑🌾 आजीविका और आदिवासी समुदाय
आज भी कई आदिवासी समुदाय वनों पर निर्भर हैं। उनके अधिकारों और आजीविका को सुरक्षित रखने हेतु नीति की भूमिका महत्वपूर्ण है।
🏛️ न्यायिक एवं संवैधानिक समर्थन
भारत के संविधान में अनुच्छेद 48A में राज्य को पर्यावरण की रक्षा करने का निर्देश है, जो इस नीति को संवैधानिक आधार प्रदान करता है।
💡 सुझाव और सुधार के उपाय
🛠️ नीति के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए सुझाव:
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📍 जमीनी स्तर पर निगरानी बढ़ाई जाए।
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📈 डेटा आधारित रणनीतियाँ अपनाई जाएं।
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🤝 स्थानीय समुदायों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाया जाए।
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💰 वन प्रबंधन के लिए अलग बजट और फंडिंग सुनिश्चित की जाए।
📝 निष्कर्ष
राष्ट्रीय वन नीति 1988 ने वनों के संरक्षण की दिशा में एक सशक्त नींव रखी है। इसके अंतर्गत वनों की पारिस्थितिकी, सामाजिक और आर्थिक महत्ता को स्वीकार किया गया। हालांकि, इसके क्रियान्वयन में कई चुनौतियाँ सामने आई हैं। वर्तमान समय की आवश्यकताओं के अनुसार नीति का अद्यतन और अधिक प्रभावशाली बनाना अनिवार्य है ताकि भारत सतत विकास के मार्ग पर अग्रसर रह सके।
SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS
🌍 प्रश्न 01: सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों की व्याख्या कीजिए।
सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (Millennium Development Goals - MDGs) 21वीं सदी की शुरुआत में वैश्विक स्तर पर तय किए गए ऐसे उद्देश्य थे, जिनका उद्देश्य गरीबी, भूख, स्वास्थ्य, शिक्षा, लैंगिक समानता और पर्यावरण संरक्षण जैसे जटिल मुद्दों को हल करना था। इन लक्ष्यों ने वैश्विक विकास की दिशा को 2000 से 2015 तक के लिए निर्देशित किया।
🎯 सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों की अवधारणा
🔹 क्या हैं सहस्राब्दि विकास लक्ष्य?
सहस्राब्दि विकास लक्ष्य संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2000 में आयोजित "सहस्राब्दि शिखर सम्मेलन" में 189 देशों की सहमति से निर्धारित किए गए थे। ये कुल 8 लक्ष्य थे, जिनकी पूर्ति का समय सीमा वर्ष 2015 तय की गई थी।
🔹 उद्देश्य
इन लक्ष्यों का उद्देश्य एक अधिक समावेशी, न्यायसंगत और सतत समाज की स्थापना करना था, जिसमें मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो।
🧩 आठ प्रमुख सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (MDGs)
1️⃣ अत्यधिक गरीबी और भूख को समाप्त करना
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गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या को घटाना।
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भूखमरी से ग्रसित जनसंख्या का प्रतिशत कम करना।
2️⃣ सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित करना
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सभी लड़के-लड़कियों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूर्ण कराने हेतु प्रेरित करना।
3️⃣ लैंगिक समानता को बढ़ावा देना और महिलाओं को सशक्त बनाना
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विशेष रूप से शिक्षा, रोजगार और राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना।
4️⃣ बाल मृत्यु दर को घटाना
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पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर में कमी लाना।
5️⃣ मातृ स्वास्थ्य में सुधार करना
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मातृ मृत्यु दर को कम करने के लिए स्वास्थ्य सेवाएं और जागरूकता बढ़ाना।
6️⃣ एचआईवी/एड्स, मलेरिया और अन्य रोगों का मुकाबला करना
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रोग नियंत्रण हेतु जागरूकता, चिकित्सा और टीकाकरण कार्यक्रम चलाना।
7️⃣ पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना
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सतत विकास की नीतियों को अपनाना और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करना।
-
स्वच्छ जल और स्वच्छता की उपलब्धता बढ़ाना।
8️⃣ वैश्विक साझेदारी को बढ़ावा देना
-
विकासशील देशों की सहायता के लिए विकसित देशों के साथ साझेदारी बनाना।
-
व्यापार, तकनीक और आर्थिक सहायता की व्यवस्था करना।
🔍 सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों की विशेषताएँ
📌 मापन योग्य लक्ष्य
इन सभी लक्ष्यों को आँकड़ों के माध्यम से मापा जा सकता था, जिससे प्रगति की निगरानी करना संभव हुआ।
📌 समयबद्ध योजना
2000 से 2015 तक का एक निर्धारित समय-सीमा दी गई थी, जिससे लक्ष्यों की पूर्ति के लिए दिशा स्पष्ट रही।
📌 वैश्विक सहमति
इन लक्ष्यों पर लगभग सभी देशों की सहमति थी, जिससे अंतरराष्ट्रीय सहयोग और संसाधनों का उपयोग बेहतर हुआ।
🇮🇳 भारत और सहस्राब्दि विकास लक्ष्य
✔️ भारत की भूमिका
भारत ने भी इन लक्ष्यों को अपनाया और विभिन्न योजनाओं जैसे सर्व शिक्षा अभियान, जननी सुरक्षा योजना, मिशन इंद्रधनुष, और मनरेगा के माध्यम से इन्हें लागू करने का प्रयास किया।
✔️ प्राप्तियाँ
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प्राथमिक शिक्षा में नामांकन बढ़ा।
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मातृ मृत्यु दर और बाल मृत्यु दर में सुधार हुआ।
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गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या में कमी आई।
❌ चुनौतियाँ
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कुछ क्षेत्रों में असमान प्रगति रही जैसे कि महिला सशक्तिकरण और पोषण स्तर।
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ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में सेवाओं की पहुँच सीमित रही।
📊 आलोचनात्मक मूल्यांकन
✅ सकारात्मक पक्ष
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वैश्विक स्तर पर ध्यान केंद्रित करने से सरकारें अधिक उत्तरदायी बनीं।
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स्वास्थ्य, शिक्षा, और गरीबी जैसे क्षेत्रों में योजनाओं को मजबूती मिली।
❌ सीमाएँ
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लक्ष्यों की सामान्य भाषा और कुछ अस्पष्ट मापदंड।
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स्थानीय परिस्थितियों और सांस्कृतिक विविधता की उपेक्षा।
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डेटा की गुणवत्ता और संग्रहण में कमी।
🔄 सहस्राब्दि विकास लक्ष्य से सतत विकास लक्ष्य तक
🟢 SDGs की ओर संक्रमण
2015 के बाद MDGs की समाप्ति पर संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals - SDGs) लागू किए जो अधिक व्यापक, समावेशी और दीर्घकालिक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।
🌐 अंतर
बिंदु | MDGs | SDGs |
---|---|---|
कुल लक्ष्य | 8 | 17 |
लक्ष्य की प्रकृति | सीमित और विशिष्ट | व्यापक और समावेशी |
केंद्र | विकासशील देश | सभी देश |
🧠 निष्कर्ष: सहस्राब्दि विकास लक्ष्य की प्रासंगिकता
सहस्राब्दि विकास लक्ष्य भले ही 2015 में समाप्त हो गए, परंतु उन्होंने विकास की सोच को बदल दिया। अब सरकारें, संस्थाएं और नागरिक समाज एक अधिक मानव-केंद्रित, टिकाऊ और समावेशी विकास की ओर अग्रसर हैं। इन लक्ष्यों की सीख से ही सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की नींव रखी गई, जो अब 2030 तक की वैश्विक प्राथमिकता हैं।
प्रश्न 02. सतत विकास के आर्थिक संधारणीयता मापदंड का विस्तार से विश्लेषण कीजिए।
🌱 आर्थिक संधारणीयता: एक परिचय
आर्थिक संधारणीयता (Economic Sustainability) सतत विकास का एक प्रमुख स्तंभ है, जिसका उद्देश्य आर्थिक विकास को इस प्रकार बनाए रखना है कि वह न केवल वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करे, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी संसाधनों की उपलब्धता को सुनिश्चित करे। यह दृष्टिकोण प्राकृतिक संसाधनों की सीमितता को समझते हुए आर्थिक प्रगति को दीर्घकालिक और समावेशी बनाने की ओर अग्रसर करता है।
📈 आर्थिक संधारणीयता के प्रमुख उद्देश्य
🔹 समावेशी विकास
सभी वर्गों तक आर्थिक संसाधनों और अवसरों की पहुँच सुनिश्चित करना।
🔹 संसाधनों का कुशल उपयोग
प्राकृतिक, मानवीय और वित्तीय संसाधनों का संतुलित एवं दीर्घकालिक उपयोग।
🔹 दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता
ऐसी आर्थिक नीतियों का निर्माण जो भविष्य में भी स्थिरता बनाए रखें।
🔹 गरीबी उन्मूलन और रोजगार सृजन
स्थायी और गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसरों का सृजन।
💡 आर्थिक संधारणीयता के प्रमुख मापदंड (Indicators)
📊 1. सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि
हालाँकि GDP विकास का संकेतक है, परन्तु आर्थिक संधारणीयता के लिए यह देखा जाता है कि GDP वृद्धि पर्यावरणीय या सामाजिक नुकसान के बिना हो रही है या नहीं।
🏞️ 2. प्राकृतिक पूंजी का संरक्षण
जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था बढ़ती है, प्राकृतिक संसाधनों (जैसे जल, भूमि, वनों) का अधिक उपयोग होता है। आर्थिक संधारणीयता का उद्देश्य इन संसाधनों का संरक्षण सुनिश्चित करना है।
👥 3. मानव संसाधन में निवेश
स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल विकास में निवेश दीर्घकालिक आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।
🧾 4. वित्तीय प्रबंधन और उत्तरदायित्व
सरकारों और संस्थानों का पारदर्शी और जिम्मेदार वित्तीय प्रबंधन आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में सहायक होता है।
♻️ 5. हरित अर्थव्यवस्था (Green Economy)
ऐसी अर्थव्यवस्था जो कार्बन उत्सर्जन को कम करे, ऊर्जा दक्षता बढ़ाए और जैव विविधता को संरक्षित करे।
🌐 आर्थिक संधारणीयता और सतत विकास लक्ष्य (SDGs)
आर्थिक संधारणीयता को बढ़ावा देने वाले संयुक्त राष्ट्र के कई सतत विकास लक्ष्य (SDGs) हैं, जैसे:
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SDG 1: गरीबी हटाना
-
SDG 8: सभ्य कार्य और आर्थिक विकास
-
SDG 9: औद्योगिकीकरण, नवाचार और बुनियादी ढाँचा
-
SDG 10: असमानता को घटाना
-
SDG 12: जिम्मेदार खपत और उत्पादन
इन लक्ष्यों का उद्देश्य विकास को ऐसा स्वरूप देना है जिसमें आर्थिक वृद्धि, सामाजिक समावेशन और पर्यावरणीय संरक्षण एक साथ चलें।
🏛️ भारत में आर्थिक संधारणीयता की दिशा में प्रयास
💼 1. स्टार्टअप इंडिया और मेक इन इंडिया
रोजगार सृजन और स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए यह पहलें महत्वपूर्ण हैं।
🌾 2. कृषि सुधार और किसान सम्मान योजना
कृषि क्षेत्र में आर्थिक स्थिरता लाने और किसानों की आय बढ़ाने हेतु प्रयास।
💡 3. नवाचार और डिजिटल इंडिया
डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर और तकनीकी विकास को बढ़ावा देकर आर्थिक दक्षता को बढ़ाना।
📉 4. वित्तीय समावेशन
जन-धन योजना, मुद्रा योजना जैसी योजनाओं से आर्थिक सेवाओं की पहुँच को गरीबों तक पहुँचाया गया।
🔍 आर्थिक संधारणीयता के समक्ष चुनौतियाँ
🚧 1. असमान विकास
भारत जैसे देशों में ग्रामीण-शहरी और समृद्ध-वंचित क्षेत्रों में असमानता एक प्रमुख समस्या है।
🌪️ 2. प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध दोहन
तेजी से हो रहा औद्योगिक विकास कई बार संसाधनों का असंतुलित उपयोग करता है।
💵 3. वित्तीय अस्थिरता और बेरोजगारी
विकास के साथ यदि रोजगार नहीं बढ़ता, तो आर्थिक असंतुलन उत्पन्न होता है।
🛢️ 4. पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता
कोयला और तेल जैसे प्रदूषक ऊर्जा स्रोतों पर अधिक निर्भरता दीर्घकालिक संधारणीयता में बाधा है।
📘 आर्थिक संधारणीयता हेतु सुझाव
✅ 1. हरित निवेश को बढ़ावा दें
सौर, पवन, और अन्य अक्षय ऊर्जा स्रोतों में निवेश को प्रोत्साहित किया जाए।
✅ 2. स्थानीय उद्यमिता को बढ़ावा दें
स्थानीय संसाधनों पर आधारित लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए।
✅ 3. शिक्षा और कौशल विकास में निवेश करें
जनसंख्या को आर्थिक रूप से सक्षम बनाना दीर्घकालिक विकास का आधार है।
✅ 4. सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को सशक्त बनाना
गरीबी और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए सरकार को योजनाओं की पहुँच बढ़ानी चाहिए।
🔚 निष्कर्ष
आर्थिक संधारणीयता, सतत विकास की रीढ़ है, जो सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं के साथ समन्वय स्थापित करते हुए एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत करती है जो न केवल वर्तमान, बल्कि भविष्य की आवश्यकताओं को भी पूरा करने में सक्षम हो। भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि विकास की दौड़ में आर्थिक संधारणीयता को नज़रअंदाज़ न किया जाए, बल्कि उसे केंद्रीय दृष्टिकोण बनाया जाए। इस प्रकार हम एक सशक्त, समावेशी और टिकाऊ भविष्य की ओर बढ़ सकते हैं।
प्रश्न 03. पर्वतीय क्षेत्रों की भौगोलिक, पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण विकास की चुनौतियों को लिखिए।
🌄 भौगोलिक दृष्टिकोण से पर्वतीय क्षेत्र: एक संक्षिप्त परिचय
पर्वतीय क्षेत्र वे क्षेत्र होते हैं जो ऊँचाई, ढलान, और जटिल स्थलाकृति से युक्त होते हैं। भारत जैसे देश में हिमालय, पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट जैसे पर्वतीय क्षेत्र विविध प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होते हुए भी विकास की दिशा में पिछड़े हुए हैं। इन क्षेत्रों की भौगोलिक बनावट ही इनकी सबसे बड़ी चुनौती बन जाती है।
🗺️ भौगोलिक परिस्थितियाँ और विकास की बाधाएँ
🧭 1. दुर्गम स्थलाकृति और पहुंच की कठिनाई
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तीव्र ढलान, गहरी घाटियाँ और संकीर्ण मार्गों के कारण भौतिक पहुंच सीमित होती है।
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सड़क और परिवहन संरचना विकसित करना अत्यंत महंगा और समयसाध्य होता है।
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मानसून के समय भूस्खलन और बर्फबारी से क्षेत्र कई बार अन्य हिस्सों से कट जाता है।
🏔️ 2. प्राकृतिक आपदाओं की अधिकता
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भूस्खलन, बाढ़, भूकंप और हिमस्खलन जैसे आपदाओं का खतरा अधिक रहता है।
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आपदाओं के कारण निर्माण कार्य बार-बार नष्ट हो जाते हैं जिससे निवेशकों का विश्वास कम होता है।
🧊 3. सीमित कृषि योग्य भूमि
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समतल भूमि की अत्यंत कमी के कारण कृषि सीमित होती है।
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टेढ़े-मेढ़े खेतों में यांत्रिक कृषि कठिन होती है, जिससे उत्पादन कम होता है।
🌿 पर्यावरणीय परिस्थितियाँ और उनके प्रभाव
🌲 1. पारिस्थितिक संतुलन की संवेदनशीलता
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पर्वतीय पारिस्थितिकी अत्यंत नाजुक होती है।
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अंधाधुंध निर्माण, पर्यटन और वनों की कटाई से जैव विविधता को खतरा होता है।
💧 2. जल स्रोतों पर दबाव
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हिमनदों और प्राकृतिक स्रोतों पर बढ़ता दबाव, विशेषतः गर्मियों में जल संकट उत्पन्न करता है।
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ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर पिघलने लगे हैं जिससे जलवायु परिवर्तन तीव्र हुआ है।
🔥 3. पारिस्थितिकीय संकट और आपात स्थिति
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वनों की आग, जलवायु असंतुलन और जैव विविधता ह्रास जैसे मुद्दे पर्यावरणीय संकट को बढ़ाते हैं।
👥 सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ और विकास की चुनौतियाँ
📚 1. शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी
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दुर्गम क्षेत्रों में विद्यालयों और अस्पतालों की संख्या कम होती है।
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प्रशिक्षित शिक्षक और चिकित्सकों की भारी कमी होती है।
👩🌾 2. सीमित आजीविका विकल्प
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कृषि, पशुपालन और हस्तशिल्प ही मुख्य साधन होते हैं जो सीमित आय प्रदान करते हैं।
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औद्योगिक विकास नगण्य होता है, जिससे युवा वर्ग रोजगार हेतु पलायन करता है।
🧳 3. पलायन और जनसंख्या असंतुलन
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रोज़गार, शिक्षा और बेहतर जीवनशैली के लिए लोगों का मैदानी क्षेत्रों की ओर पलायन होता है।
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इससे स्थानीय संस्कृति और सामाजिक संरचना पर भी असर पड़ता है।
🏚️ 4. बुनियादी ढांचे की कमी
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बिजली, पानी, संचार और इंटरनेट जैसी मूलभूत सुविधाओं की कमी होती है।
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सरकारी योजनाओं का लाभ हर व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाता।
🔄 अन्य प्रमुख विकासात्मक चुनौतियाँ
💸 1. निवेश की कमी
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भौगोलिक और पर्यावरणीय जोखिमों के कारण निजी निवेशक पर्वतीय क्षेत्रों में निवेश करने से कतराते हैं।
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सरकार द्वारा दी जाने वाली रियायतें भी कई बार पर्याप्त सिद्ध नहीं होतीं।
🛡️ 2. पारंपरिक ज्ञान की अनदेखी
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पर्वतीय समुदायों के पास पारंपरिक कृषि, जल प्रबंधन, और वनों के संरक्षण का विशिष्ट ज्ञान होता है।
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आधुनिक योजनाओं में इनकी भागीदारी नहीं होने से विकास असंतुलित हो जाता है।
🧠 निष्कर्ष: एक संतुलित विकास रणनीति की आवश्यकता
पर्वतीय क्षेत्रों की भौगोलिक, पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ इन्हें विशिष्ट बनाती हैं, लेकिन साथ ही विकास की दिशा में अनेक प्रकार की बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। इन क्षेत्रों में सतत और समावेशी विकास के लिए विशेष रणनीतियाँ अपनाने की आवश्यकता है:
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स्थानीय भागीदारी को बढ़ावा देना
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पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीक का समन्वय
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आपदा प्रबंधन और अनुकूल बुनियादी ढाँचा
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शिक्षा, स्वास्थ्य और डिजिटल सुविधा का विस्तार
यदि इन चुनौतियों का समुचित समाधान किया जाए, तो पर्वतीय क्षेत्र न केवल आत्मनिर्भर बन सकते हैं, बल्कि देश के सतत विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे सकते हैं।
🌐 प्रश्न 04: संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 2015 पर संक्षिप्त में टिप्पणी लिखिए।
🌍 भूमिका (Introduction)
2015 में आयोजित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (United Nations Summit) मानवता के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। इस सम्मेलन में "सतत विकास लक्ष्यों" (Sustainable Development Goals - SDGs) को अपनाया गया, जो वर्ष 2030 तक दुनिया को एक बेहतर, सुरक्षित, और न्यायपूर्ण स्थान बनाने की दिशा में एक वैश्विक संकल्प था।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 193 सदस्य देशों की भागीदारी से यह रणनीति तैयार की और इसे "Transforming our world: the 2030 Agenda for Sustainable Development" शीर्षक के साथ पारित किया गया। यह एजेंडा सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल थी।
🎯 सम्मेलन के प्रमुख उद्देश्य (Key Objectives of the Summit)
🏆 1. एक साझा वैश्विक लक्ष्य निर्धारित करना
इस सम्मेलन का प्रमुख उद्देश्य विश्व भर के देशों को एक समान दिशा में काम करने के लिए प्रेरित करना था, ताकि गरीबी, असमानता, जलवायु परिवर्तन, और पर्यावरणीय क्षरण जैसी वैश्विक समस्याओं का समाधान मिल सके।
💡 2. सतत विकास लक्ष्यों को अंगीकृत करना
सम्मेलन में 17 सतत विकास लक्ष्यों को पारित किया गया, जिनका उद्देश्य 2030 तक समावेशी, समान और टिकाऊ विकास को सुनिश्चित करना था।
🤝 3. वैश्विक साझेदारी को बढ़ावा देना
सम्मेलन ने सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों, निजी क्षेत्रों, और नागरिक समाज के बीच सहयोग और समन्वय को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया।
📋 17 सतत विकास लक्ष्य (17 Sustainable Development Goals - SDGs)
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गरीबी उन्मूलन
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भूख मिटाना
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अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण
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गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
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लैंगिक समानता
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स्वच्छ जल और स्वच्छता
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सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा
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सभ्य कार्य और आर्थिक वृद्धि
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उद्योग, नवाचार और अवसंरचना
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असमानता में कमी
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सतत शहर और समुदाय
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जिम्मेदार खपत और उत्पादन
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जलवायु कार्रवाई
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जलमंडल जीवन
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स्थलीय जीवन
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शांति, न्याय और मजबूत संस्थान
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साझेदारी के माध्यम से लक्ष्य प्राप्त करना
🏛️ 2015 सम्मेलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
📍 स्थान और तिथि
संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 2015 का आयोजन 25 से 27 सितम्बर 2015 के बीच न्यूयॉर्क शहर, अमेरिका में हुआ था। इसमें सभी देशों के राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्रियों और प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
📘 2030 एजेंडा की स्वीकृति
सम्मेलन के अंतिम दिन 2030 एजेंडा को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। यह एजेंडा मानव अधिकारों की रक्षा, आर्थिक प्रगति, और पर्यावरणीय संरक्षण के त्रिस्तरीय दृष्टिकोण पर आधारित था।
🌱 सम्मेलन का सतत विकास में योगदान
🌐 1. वैश्विक दृष्टिकोण की स्थापना
पहली बार विश्व स्तर पर सभी देशों ने मिलकर एक साझा विकास मॉडल को अपनाया, जो कि विकसित और विकासशील दोनों प्रकार के देशों के लिए समान रूप से लागू होता है।
👨👩👧👦 2. मानव केंद्रित दृष्टिकोण
इस सम्मेलन में गरीबी, भूख, असमानता, शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार जैसे मानव कल्याण से जुड़े मुद्दों को प्राथमिकता दी गई।
🌿 3. पर्यावरणीय संतुलन
सम्मेलन ने प्राकृतिक संसाधनों के सतत उपयोग और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए ठोस रणनीति पर बल दिया।
📊 भारत की भागीदारी और रणनीति
🇮🇳 भारत का दृष्टिकोण
भारत ने संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 2015 में सक्रिय भागीदारी की और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सतत विकास लक्ष्यों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता जताई। उन्होंने कहा कि "भारत का विकास, दुनिया के विकास में योगदान देगा।"
🛠️ भारत में उठाए गए कदम:
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नीति आयोग को SDGs के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार बनाया गया।
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स्वच्छ भारत अभियान, उज्ज्वला योजना, स्मार्ट सिटी, आयुष्मान भारत, आदि योजनाएं सतत विकास लक्ष्यों से मेल खाती हैं।
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राज्य सरकारों को लक्ष्यों के अनुरूप बजट आवंटन और योजना क्रियान्वयन के लिए दिशा निर्देश दिए गए।
📌 सम्मेलन की आलोचनात्मक समीक्षा (Critical Evaluation)
✅ सकारात्मक पक्ष:
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सभी देशों की सर्वसम्मति से भागीदारी।
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सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय पहलुओं का समावेश।
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मानवता के लिए समर्पित दीर्घकालिक दृष्टिकोण।
❌ नकारात्मक पक्ष:
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कुछ लक्ष्यों को मापने योग्य बनाने में कठिनाई।
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विकासशील देशों के लिए वित्तीय और तकनीकी संसाधनों की कमी।
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जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं पर विकसित देशों की धीमी प्रतिबद्धता।
🔚 निष्कर्ष (Conclusion)
संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 2015 ने सतत विकास की अवधारणा को वैश्विक नीति और योजना में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया। यह सम्मेलन एक वैश्विक बदलाव की शुरुआत का प्रतीक था, जिसने दुनिया को गरीबी, असमानता और पर्यावरणीय संकटों से बाहर निकालने की दिशा में ठोस मार्गदर्शन प्रदान किया।
आज भी यह सम्मेलन और इसके द्वारा निर्धारित सतत विकास लक्ष्य सभी देशों के लिए एक प्रेरणा स्रोत हैं, और यह सुनिश्चित करते हैं कि विकास का मार्ग केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय रूप से भी टिकाऊ होना चाहिए।
🌍 प्रश्न 05: जलवायु परिवर्तन से आप क्या समझते हैं?
जलवायु परिवर्तन (Climate Change) आज की दुनिया की सबसे गंभीर और व्यापक समस्या बन चुका है। यह एक ऐसा वैश्विक संकट है जो न केवल पर्यावरण, बल्कि मानव स्वास्थ्य, जैव विविधता, खाद्य सुरक्षा, जल संसाधन, और आर्थिक विकास पर भी गहरा प्रभाव डाल रहा है। यह उत्तर जलवायु परिवर्तन की परिभाषा, कारण, प्रभाव और समाधान को व्यवस्थित और विस्तारपूर्वक समझाता है।
🔍 जलवायु परिवर्तन की परिभाषा
🌡️ क्या है जलवायु परिवर्तन?
जलवायु परिवर्तन का तात्पर्य पृथ्वी के सामान्य जलवायु पैटर्न में दीर्घकालिक और स्थायी परिवर्तन से है। यह परिवर्तन प्राकृतिक कारणों से भी हो सकता है, लेकिन 20वीं सदी के बाद इसके पीछे मानवीय गतिविधियों की भूमिका अधिक मानी गई है।
🌀 स्थायी बनाम अस्थायी परिवर्तन
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स्थायी परिवर्तन: जैसे औसत वैश्विक तापमान में दीर्घकालिक वृद्धि।
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अस्थायी परिवर्तन: जैसे मौसमी बदलाव या अल्पकालिक मौसमीय घटनाएँ।
⚙️ जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारण
🔥 1. ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन
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कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), मीथेन (CH₄), नाइट्रस ऑक्साइड (N₂O) जैसी गैसें वातावरण में गर्मी को रोकती हैं।
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ये गैसें मुख्यतः जीवाश्म ईंधन (कोयला, पेट्रोल, डीजल) के जलने, औद्योगीकरण, कृषि और परिवहन से निकलती हैं।
🏭 2. औद्योगीकरण और शहरीकरण
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बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन और शहरों का तेजी से विस्तार पर्यावरण पर दबाव डालता है।
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यह जंगलों की कटाई, भूमि उपयोग में बदलाव और अधिक ऊर्जा खपत को बढ़ावा देता है।
🌳 3. वनों की कटाई (Deforestation)
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पेड़ कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं। जब पेड़ों की कटाई होती है तो यह संतुलन बिगड़ जाता है।
🛢️ 4. प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन
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अनियंत्रित खनन, जल स्रोतों का अत्यधिक उपयोग, और भूमि क्षरण जलवायु को अस्थिर करते हैं।
🌪️ जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
🌊 1. समुद्र स्तर में वृद्धि
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ध्रुवीय बर्फ के पिघलने से समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, जिससे तटीय क्षेत्रों में बाढ़ और डूबने का खतरा है।
🔥 2. तापमान में वृद्धि
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वैश्विक औसत तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है जिससे गर्म हवाएं, हीटवेव और सूखा जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं।
🌾 3. कृषि पर प्रभाव
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वर्षा चक्र में असंतुलन, जल की कमी और कीटों की वृद्धि से कृषि उत्पादन प्रभावित होता है।
🐾 4. जैव विविधता का संकट
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पर्यावरणीय असंतुलन के कारण कई जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं।
🏥 5. मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
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जलवायु परिवर्तन से जुड़ी बीमारियाँ जैसे डेंगू, मलेरिया, और हीट स्ट्रोक बढ़ रही हैं।
🌐 वैश्विक और भारतीय परिप्रेक्ष्य में जलवायु परिवर्तन
🌍 संयुक्त राष्ट्र का दृष्टिकोण
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संयुक्त राष्ट्र ने जलवायु परिवर्तन को मानवता के लिए एक वैश्विक खतरा माना है।
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2015 में पेरिस समझौता (Paris Agreement) के तहत देशों ने तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे रखने का संकल्प लिया।
🇮🇳 भारत की स्थिति
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भारत जलवायु परिवर्तन से गंभीर रूप से प्रभावित देशों में से एक है।
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हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना, मानसून चक्र में असंतुलन, और बढ़ती गर्मी देश के लिए चिंता का विषय हैं।
🎯 जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपाय
♻️ 1. नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग
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सौर, पवन और जल ऊर्जा जैसी स्वच्छ ऊर्जा स्त्रोतों को बढ़ावा देना।
🌲 2. वनों की सुरक्षा और पुनर्वनीकरण
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अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना और वन क्षेत्र को सुरक्षित रखना।
🚴 3. पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली
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साइकिल चलाना, सार्वजनिक परिवहन का उपयोग, और ऊर्जा की बचत करना।
📜 4. सरकार और नीति निर्माण की भूमिका
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कार्बन टैक्स, पर्यावरणीय कानूनों का सख्त पालन, और ग्रीन इकोनॉमी को बढ़ावा देना।
📚 5. शिक्षा और जागरूकता
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आम जनता में पर्यावरणीय शिक्षा और जागरूकता का प्रसार अत्यंत आवश्यक है।
📊 भारत सरकार की पहल
🛑 राष्ट्रीय कार्य योजना जलवायु परिवर्तन पर (NAPCC)
भारत सरकार ने 2008 में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए 8 मिशनों की शुरुआत की:
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राष्ट्रीय सौर मिशन
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ऊर्जा दक्षता बढ़ाने का मिशन
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टिकाऊ कृषि मिशन
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जल संरक्षण मिशन
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हिमालयी पारिस्थितिकी मिशन
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शहरी टिकाऊ विकास मिशन
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जलवायु परिवर्तन की रणनीति पर ज्ञान मिशन
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हरित भारत मिशन
🔚 निष्कर्ष
जलवायु परिवर्तन एक जटिल और व्यापक समस्या है जो आज मानवता के अस्तित्व को ही चुनौती दे रही है। इसका समाधान केवल सरकारों, वैज्ञानिकों या संगठनों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है। पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाकर, सतत विकास के मार्ग पर चलकर, और हर स्तर पर जागरूकता बढ़ाकर ही हम इस वैश्विक संकट से निपट सकते हैं।
प्रश्न 06. मानव-पर्यावरण संबंधों की किसी दो प्रमुख अवधारणाओं की व्याख्या कीजिए।
🌍 मानव और पर्यावरण: एक परस्पर निर्भर संबंध
मानव और पर्यावरण के बीच संबंध अत्यंत जटिल, गहरे और परस्पर निर्भर होते हैं। मानव अपने जीवन की समस्त आवश्यकताओं के लिए पर्यावरण पर निर्भर रहता है, वहीं दूसरी ओर मानव की गतिविधियाँ पर्यावरण को प्रभावित करती हैं। इस संबंध को स्पष्ट रूप से समझने के लिए भूगोल और पर्यावरण अध्ययन में अनेक अवधारणाएँ विकसित की गई हैं। इनमें दो प्रमुख अवधारणाएँ निम्नलिखित हैं:
🔹 1. पर्यावरण निर्धारणवाद (Environmental Determinism)
🧭 अवधारणा का परिचय
पर्यावरण निर्धारणवाद यह मानता है कि मानव का जीवन और उसकी गतिविधियाँ पूरी तरह पर्यावरण द्वारा नियंत्रित होती हैं। इस विचारधारा के अनुसार, जलवायु, स्थलरूप, वनस्पति, मिट्टी, और जल जैसे प्राकृतिक तत्व मानव समाज और संस्कृति के स्वरूप को निर्धारित करते हैं।
🏛️ मुख्य प्रवर्तक
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फ्रेडरिक रैट्ज़ेल (Friedrich Ratzel)
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एलन हंटिंगटन (Ellsworth Huntington)
📌 मुख्य विशेषताएँ
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प्राकृतिक नियंत्रण: मानव गतिविधियाँ प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुसार संचालित होती हैं।
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सीमित विकल्प: मानव के पास निर्णय लेने के सीमित अवसर होते हैं क्योंकि उसका जीवन पर्यावरण की सीमाओं में बंधा होता है।
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उदाहरण:
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रेगिस्तानी क्षेत्रों में लोग ऊँटों का प्रयोग करते हैं और सीमित कृषि करते हैं।
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आर्कटिक क्षेत्रों में लोग शिकार और मछली पालन पर निर्भर होते हैं।
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📉 आलोचना
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यह अवधारणा मानव की रचनात्मकता और तकनीकी विकास को नकारती है।
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यह मानती है कि सभी मानव समाज केवल पर्यावरण के अनुसार ही विकसित होते हैं, जो हमेशा सच नहीं होता।
🔹 2. संभाव्यवाद (Possibilism)
🌐 अवधारणा का परिचय
संभाव्यवाद के अनुसार, पर्यावरण मानव जीवन को प्रभावित करता है, लेकिन वह मानव के कार्यों को पूरी तरह नियंत्रित नहीं करता। यह विचारधारा मानती है कि मानव के पास विकल्प होते हैं और वह पर्यावरण को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ढाल सकता है।
🧠 मुख्य प्रवर्तक
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पॉल विडाल डी ला ब्लाश (Paul Vidal de la Blache)
📌 मुख्य विशेषताएँ
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मानव प्रधान दृष्टिकोण: मानव को सक्रिय और रचनात्मक माना जाता है।
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तकनीक की भूमिका: तकनीकी विकास के माध्यम से मानव ने प्राकृतिक सीमाओं को पार किया है।
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पर्यावरण + विकल्प: पर्यावरण मानव को विकल्प प्रदान करता है, लेकिन अंतिम निर्णय मानव स्वयं लेता है।
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उदाहरण:
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नहरों और डैम के माध्यम से रेगिस्तानों में कृषि संभव हुई है।
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पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों और सुरंगों का निर्माण किया गया है।
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📉 आलोचना
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यह विचारधारा कभी-कभी मानव की शक्ति को अधिक महत्व देती है और पर्यावरणीय सीमाओं को कम आँकती है।
⚖️ पर्यावरण निर्धारणवाद बनाम संभाव्यवाद: तुलनात्मक विश्लेषण
तत्व | पर्यावरण निर्धारणवाद | संभाव्यवाद |
---|---|---|
मानव की भूमिका | निष्क्रिय (Passive) | सक्रिय (Active) |
पर्यावरण की भूमिका | पूर्ण नियंत्रण | सीमित नियंत्रण |
तकनीक का स्थान | गौण | महत्वपूर्ण |
दृष्टिकोण | प्रकृति प्रधान | मानव प्रधान |
🌱 निष्कर्ष (Conclusion)
मानव और पर्यावरण के संबंध को समझने के लिए इन दोनों अवधारणाओं को संतुलित रूप में देखना आवश्यक है। आधुनिक समय में यह स्पष्ट हो गया है कि मानव और पर्यावरण के बीच द्विपक्षीय प्रभाव है। जहां एक ओर पर्यावरण मानव जीवन की दिशा तय करता है, वहीं दूसरी ओर मानव अपनी तकनीकी और रचनात्मक क्षमताओं से पर्यावरण को भी प्रभावित करता है। इसलिए, आज की वैश्विक चुनौतियों जैसे जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय क्षरण और सतत विकास के संदर्भ में इस परस्पर संबंध को समझना अत्यंत आवश्यक है।
प्रश्न 07. सामाजिक आयाम एवं पर्यावरणीय नीतियों के उद्देश्य लिखिए।
✅ परिचय
आज के समय में सतत विकास (Sustainable Development) की दिशा में कार्य करने के लिए सामाजिक आयाम और पर्यावरणीय नीतियों का विशेष महत्व है। ये दोनों न केवल पर्यावरण संरक्षण को सुनिश्चित करते हैं, बल्कि समाज में समावेशिता, समानता और विकास की दिशा को भी तय करते हैं।
🧩 सामाजिक आयाम (Social Dimensions)
सामाजिक आयाम का तात्पर्य उन कारकों से है जो किसी समाज के विकास और स्थिरता में योगदान देते हैं। इसमें शामिल हैं:
🔹 1. सामाजिक समानता:
हर वर्ग और समुदाय को विकास की मुख्यधारा से जोड़ना।
उदाहरण: पिछड़े वर्गों, महिलाओं और आदिवासियों को विशेष योजनाओं से लाभ देना।
🔹 2. शिक्षा और स्वास्थ्य:
जनसंख्या को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना ताकि उनका जीवनस्तर सुधरे।
🔹 3. रोजगार और आजीविका:
स्थानीय संसाधनों के अनुरूप रोज़गार के अवसर पैदा करना, जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि, हस्तशिल्प आदि को बढ़ावा देना।
🔹 4. सांस्कृतिक संरक्षण:
स्थानीय परंपराओं, भाषाओं और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण भी सामाजिक आयाम का हिस्सा है।
🌿 पर्यावरणीय नीतियों के उद्देश्य (Objectives of Environmental Policies)
पर्यावरणीय नीतियां प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए बनाई जाती हैं। इनके मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
🔹 1. संसाधनों का संरक्षण:
वन, जल, मृदा, वायु जैसे संसाधनों का सतत उपयोग और संरक्षण सुनिश्चित करना।
🔹 2. प्रदूषण नियंत्रण:
वायु, जल, मृदा और ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए मानक और नियम बनाना।
उदाहरण: जल अधिनियम 1974, वायु अधिनियम 1981 आदि।
🔹 3. जैव विविधता की रक्षा:
वन्य जीवों, पौधों और पारिस्थितिकी तंत्र की विविधता को संरक्षित रखना।
🔹 4. जनजागरूकता और भागीदारी:
जनता को पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाना और उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित करना।
🔹 5. सतत विकास का समर्थन:
ऐसी नीतियां बनाना जो आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाएं।
📌 निष्कर्ष
सामाजिक आयाम और पर्यावरणीय नीतियां मिलकर सामाजिक समावेश, न्याय, और प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग को प्रोत्साहित करती हैं। ये दोनों पहलू सतत विकास की दिशा में भारत सहित पूरी दुनिया के लिए अनिवार्य हैं।
प्रश्न 08: भारत में पर्यावरणीय तथा पारिस्थितकीय आंदोलनों के कारण लिखिए।
परिचय :
भारत जैसे विशाल एवं विविधता से परिपूर्ण देश में जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण, शहरीकरण और संसाधनों के अत्यधिक दोहन ने पर्यावरणीय संतुलन को गम्भीर रूप से प्रभावित किया है। परिणामस्वरूप, देश में विभिन्न पर्यावरणीय और पारिस्थितकीय आंदोलनों का जन्म हुआ, जिनका उद्देश्य पर्यावरण की रक्षा, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण तथा स्थानीय समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा रहा है।
✳️ भारत में पर्यावरणीय एवं पारिस्थितकीय आंदोलनों के प्रमुख कारण:
1️⃣ वनों की अंधाधुंध कटाई:
वनों को कृषि, निर्माण और औद्योगीकरण के लिए बड़े पैमाने पर काटा गया, जिससे पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ा। इसने अनेक आंदोलनों को जन्म दिया, जैसे चिपको आंदोलन, जहाँ ग्रामीण महिलाओं ने पेड़ों को बचाने के लिए उन्हें गले लगाया।
2️⃣ जल संसाधनों का दुरुपयोग:
बाँधों, नहरों और औद्योगिक परियोजनाओं ने जल स्रोतों को प्रदूषित और सीमित किया। नर्मदा बचाओ आंदोलन इसी कारण शुरू हुआ, जिसमें बड़े बाँधों के कारण विस्थापन और पारिस्थितिक क्षति का विरोध किया गया।
3️⃣ खनिज दोहन और खनन परियोजनाएँ:
खनिज संपदा के अत्यधिक दोहन और भूमि के विनाश के विरोध में कई जनजातीय और ग्रामीण आंदोलनों ने जन्म लिया। जैसे कोल आंदोलन और झारखंड क्षेत्र में आदिवासियों द्वारा चलाए गए आंदोलन।
4️⃣ औद्योगिक प्रदूषण:
औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे और रसायनों ने नदियों, वायु और भूमि को प्रदूषित किया, जिससे लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हुआ। उदाहरण: भोपल गैस त्रासदी के बाद पर्यावरणीय जागरूकता और आंदोलन बढ़े।
5️⃣ वन्यजीवों और जैव विविधता का खतरा:
बढ़ते शिकार और निवास स्थानों के विनाश से जैव विविधता पर खतरा मंडराने लगा। इसके परिणामस्वरूप संरक्षणवादी आंदोलनों की शुरुआत हुई।
6️⃣ स्थानीय समुदायों के अधिकारों का हनन:
सरकारी योजनाओं और परियोजनाओं में स्थानीय समुदायों की अनदेखी हुई, जिससे उनके परंपरागत संसाधनों और आजीविका पर संकट आया। इससे भूमि अधिकार आंदोलन और वन अधिकार आंदोलन जैसे आंदोलनों ने जन्म लिया।
🔍 निष्कर्ष:
भारत में पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य केवल प्रकृति की रक्षा नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, पारंपरिक ज्ञान की मान्यता और स्थानीय समुदायों के अधिकारों की रक्षा भी रहा है। ये आंदोलन पर्यावरणीय चेतना फैलाने, नीति निर्माण को प्रभावित करने और सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।