BAHL(N)201 IMPORTANT SOLVED QUESTIONS 2025
रीतिकालीन काव्य
प्रश्न 01 रीतिकालीन कविताओं का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
रीतिकालीन कविता हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह काल मुख्यतः संवत् 1700 से 1900 तक माना जाता है। इस काल की कविताओं में विशेष रूप से शृंगार रस की प्रधानता रही, जिसमें नायक-नायिका भेद, नायिका-भेद, प्रेम, सौंदर्य, विरह, और संयोग के चित्रण को प्रमुखता दी गई।
रीतिकालीन कविता की विशेषताएँ
शृंगार रस की प्रधानता – इस युग की कविताओं में प्रेम, सौंदर्य, नायक-नायिका के भावों का सुंदर चित्रण मिलता है।
काव्य-कला और अलंकारों पर जोर – इस काल में कवियों ने अलंकार, रस, छंद और काव्यशास्त्र को विशेष महत्व दिया।
नायिका-भेद का विस्तार – इस युग में नायिकाओं के भेद, उनके गुण-दोष, स्वभाव और मनोभावों का गहराई से विश्लेषण किया गया।
नीति और भक्ति का स्थान – कुछ कवियों ने नीति संबंधी विचारों को भी व्यक्त किया, जबकि कुछ कवियों ने भक्ति और भजन परंपरा को अपनाया।
दरबारी संस्कृति का प्रभाव – अधिकतर रीतिकालीन कवि राजा-महाराजाओं के आश्रय में रहे, जिससे उनकी कविताओं में दरबारी रंग झलकता है।
महत्वपूर्ण रीतिकालीन कवि और उनकी कृतियाँ
भूषण – वीर रस के प्रसिद्ध कवि, जिन्होंने शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णन किया।
केशवदास – ‘रसिकप्रिया’ और ‘कविप्रिया’ जैसे ग्रंथों के रचयिता, जिन्होंने काव्यशास्त्र और शृंगार रस को उत्कृष्ट रूप में प्रस्तुत किया।
बिहारी – ‘बिहारी सतसई’ के रचयिता, जो दोहे लिखने में निपुण थे।
घनानंद – प्रेम और विरह को अद्भुत रूप में व्यक्त करने वाले कवि।
मतिराम – ‘रसराज’ और ‘छंद-छंदोदय’ के लेखक, जिन्होंने नायिका भेद को विशेष रूप से विकसित किया।
रीतिकालीन काव्य की आलोचना
इस काल की कविता पर अलंकारवाद और शृंगारप्रधानता का इतना अधिक प्रभाव था कि सामाजिक और व्यावहारिक जीवन के यथार्थ चित्रण की कमी रही।
कई कविताएँ सिर्फ राजाओं और दरबारों की प्रशंसा में लिखी गईं, जिससे इनमें कृत्रिमता आ गई।
भक्ति और वीर रस की परंपरा अपेक्षाकृत कमजोर हो गई।
निष्कर्ष
रीतिकालीन कविता हिंदी साहित्य का एक समृद्ध और कलात्मक युग था, जिसमें प्रेम, सौंदर्य और नायिका भेद को महत्वपूर्ण स्थान मिला। हालांकि इस युग की कविताएँ सामाजिक समस्याओं और जनजीवन से दूर रहीं, फिर भी इनकी कलात्मकता, रस-संयोजन और भाषा सौंदर्य आज भी हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
प्रश्न 02 रीतिबद्ध कविता की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
रीतिबद्ध कविता की प्रमुख विशेषताएँ
रीतिबद्ध कविता रीतिकाल का एक महत्वपूर्ण अंग है, जिसमें काव्यशास्त्र, अलंकार, रस और छंद को विशेष महत्व दिया गया। यह कविता संवत् 1700 से 1850 के बीच विकसित हुई और मुख्य रूप से दरबारी संस्कृति से प्रभावित रही। इसे श्रृंगारिक काव्य परंपरा भी कहा जाता है क्योंकि इसमें प्रेम, सौंदर्य और नायिका-भेद का विस्तृत वर्णन मिलता है।
1. शृंगार रस की प्रधानता
रीतिबद्ध कविता में मुख्य रूप से शृंगार रस को स्थान दिया गया। इसमें नायक-नायिका के प्रेम, संयोग-वियोग, श्रृंगारिक भावनाओं और सौंदर्य के विविध रूपों को दर्शाया गया।
2. नायिका भेद और नायक भेद
इस कविता में नायिका भेद और नायक भेद का विस्तार से वर्णन मिलता है। नायिकाओं को स्वकीया, परकीया और सांध्य नायिका आदि वर्गों में बाँटा गया। बिहारी, केशवदास और मतिराम जैसे कवियों ने नायिका भेद पर विशेष ध्यान दिया।
3. काव्यशास्त्र और अलंकारों का प्रयोग
रीतिबद्ध कविता में अलंकारों (उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि) का अधिक प्रयोग किया गया, जिससे कविता में कलात्मकता और सौंदर्य बढ़ा। भाषा को अलंकृत और संगीतात्मक बनाने के लिए छंदों (सोरठा, दोहा, कवित्त आदि) का कुशल प्रयोग किया गया।
4. दरबारी संस्कृति और राजाओं की स्तुति
इस कविता पर राजदरबारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कवि अपने आश्रयदाताओं (राजाओं) की प्रशंसा में कविताएँ लिखते थे और उनकी वीरता, उदारता तथा प्रेम-कला का गुणगान करते थे।
5. नीति और भक्ति तत्व का समावेश
हालाँकि रीतिबद्ध कविता मुख्य रूप से शृंगारिक थी, लेकिन इसमें नीति संबंधी काव्य भी मिलता है। बिहारी के ‘बिहारी सतसई’ में नीति, समाज और व्यवहार से जुड़े दोहे मिलते हैं। कुछ कवियों ने भक्ति रस को भी अपनाया, जैसे कि घनानंद की कविताओं में कृष्ण-प्रेम झलकता है।
6. प्रकृति और सौंदर्य वर्णन
रीतिबद्ध कविता में प्राकृतिक सौंदर्य का भी सुंदर चित्रण किया गया। नायिका के भावों को व्यक्त करने के लिए वसंत, वर्षा, संध्या और चंद्रमा जैसे प्राकृतिक तत्वों का उपयोग किया गया।
7. भाषा और शैली
इस युग की कविताएँ ब्रज भाषा में लिखी गईं, जो कोमलता और माधुर्य से भरपूर होती है।
संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का भी प्रयोग किया गया, जिससे कविता का शास्त्रीय पक्ष मजबूत बना।
छंदों का प्रयोग अत्यंत सुव्यवस्थित और संगीतात्मक रूप में किया गया।
निष्कर्ष
रीतिबद्ध कविता हिंदी साहित्य में कलात्मकता और सौंदर्यबोध का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसमें रस, अलंकार, छंद और भाषा का अद्भुत प्रयोग हुआ। हालाँकि यह कविता सामाजिक यथार्थ से दूर थी और दरबारी प्रभाव में बंधी हुई थी, फिर भी इसकी साहित्यिक श्रेष्ठता और काव्य-कला की उत्कृष्टता हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
प्रश्न 03 बिहारी की कविता पर विचार कीजिए।
बिहारी की कविता पर विचार
बिहारीलाल हिंदी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में प्रमुख स्थान रखते हैं। वे संवत् 1603-1663 के बीच हुए और मुख्य रूप से श्रृंगार रस के कवि माने जाते हैं। उनकी प्रमुख रचना ‘बिहारी सतसई’ है, जिसमें सात सौ से अधिक दोहे संकलित हैं। बिहारी की कविता संक्षिप्तता, सौंदर्य, गूढ़ अर्थ और काव्य-कला की दृष्टि से अत्यंत प्रभावशाली है।
बिहारी की कविता की प्रमुख विशेषताएँ
1. शृंगार रस की प्रधानता
बिहारी की कविताओं में मुख्य रूप से शृंगार रस मिलता है। वे प्रेम, नायक-नायिका के संयोग-वियोग और सौंदर्य का अत्यंत कोमलता और कलात्मकता से चित्रण करते हैं। उनके दोहों में श्रृंगारिक भावनाओं की गहराई स्पष्ट दिखाई देती है—
"नैनन् में बास, रहत उर मा, कहिए कइसे ना।
जो नैना सो जाइत है, त उर को हौं न ठाँ॥"
2. संक्षिप्तता और अर्थ-गहनता
बिहारी अपने दोहों में कम शब्दों में गहरी भावनाएँ व्यक्त करने में निपुण थे। उनके दोहे संक्षिप्त, किंतु अर्थपूर्ण होते हैं। यह विशेषता उन्हें अन्य रीतिकालीन कवियों से अलग बनाती है।
3. अलंकारों का उत्कृष्ट प्रयोग
उनकी कविताओं में रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, उपमा जैसे अलंकारों का सुंदर प्रयोग मिलता है। उदाहरण—
"ललित लालसा लीन ह्वै, लपटि गई उर माहीं।
चंचली चितचोरि हठ, बसी बनी बन माहीं॥"
4. नायिका भेद का सूक्ष्म चित्रण
बिहारी ने नायिका भेद को अत्यंत सुंदरता से प्रस्तुत किया है। उनकी कविताओं में स्वकीया, परकीया और अभिसारिका नायिकाओं का प्रभावी चित्रण मिलता है।
5. नीति और जीवन दर्शन
यद्यपि बिहारी मुख्य रूप से श्रृंगार रस के कवि थे, फिर भी उनके कई दोहे नीति और समाज पर आधारित हैं। उन्होंने प्रेम, नीति, समाज और राजनीति पर भी गहरे विचार प्रकट किए। उदाहरण—
"सरसि सराहिअ सबै कहि, रसिक रही नहिं मौन।
सरस बसै रसलोक में, रसना रसिकन सौन॥"
6. भाषा और शैली
बिहारी ने ब्रज भाषा का प्रयोग किया, जो हिंदी काव्य की सबसे मधुर भाषा मानी जाती है।
उनकी कविता में छंदों का संक्षिप्त और सुंदर प्रयोग हुआ है, विशेषकर दोहा छंद में वे अत्यंत निपुण थे।
भाषा में लालित्य, माधुर्य और प्रवाह है, जिससे उनकी कविता अत्यंत प्रभावशाली बन जाती है।
निष्कर्ष
बिहारी की कविता हिंदी साहित्य में संक्षिप्तता, सौंदर्यबोध और काव्य-कला का सर्वोत्तम उदाहरण है। उनकी ‘बिहारी सतसई’ नायिका भेद, श्रृंगार, नीति और प्रकृति चित्रण के लिए प्रसिद्ध है। उनकी काव्य-प्रतिभा इतनी प्रभावशाली है कि उनके दोहे आज भी प्रेम, नीति और सौंदर्य की दृष्टि से प्रासंगिक बने हुए हैं।
प्रश्न 04 रीतिसिद्ध कविता कविता की विशेषता बताइए।
रीतिसिद्ध कविता रीतिकाल का एक प्रमुख काव्य-धारा है, जिसमें काव्यशास्त्र के नियमों के अनुसार कविता रचना को प्राथमिकता दी गई। इस धारा के कवि रस, अलंकार, छंद और काव्य-शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए साहित्य सृजन करते थे। इनके काव्य में शृंगार रस, विशेष रूप से नायिका भेद, प्रेम, सौंदर्य और काव्य-कला का प्रमुख स्थान था।
1. काव्यशास्त्र का पालन
रीतिसिद्ध कविता पूरी तरह से काव्यशास्त्र पर आधारित थी। इसमें अलंकार, रस, छंद, रीति (शैली) और नायिका भेद का विशेष ध्यान रखा गया। कवियों ने अपनी रचनाओं में काव्यशास्त्रीय नियमों का पालन करते हुए ही भावों की अभिव्यक्ति की।
2. शृंगार रस की प्रधानता
इस धारा में शृंगार रस सबसे महत्वपूर्ण था। इसमें संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सुंदर चित्रण किया गया। नायिका-नायक के प्रेम, सौंदर्य और मनोभावों को विस्तार से प्रस्तुत किया गया।
3. अलंकारों का उत्कृष्ट प्रयोग
रीतिसिद्ध कवियों ने अपने काव्य में रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, उपमा, संदेह, श्लेष आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया। इससे कविता अधिक कलात्मक और प्रभावशाली बन गई।
4. नायिका भेद का विस्तृत वर्णन
इस काव्य-धारा में नायिका भेद का विशेष अध्ययन किया गया। नायिकाओं को उनके रूप, गुण, स्वभाव और व्यवहार के आधार पर वर्गीकृत किया गया। मतिराम, केशवदास और बिहारी ने नायिका भेद का सुंदर चित्रण किया।
5. प्रकृति और सौंदर्य का चित्रण
रीतिसिद्ध कवियों ने प्राकृतिक सौंदर्य का भी सुंदर वर्णन किया। ऋतु परिवर्तन, पुष्पों की सुंदरता, नदी-तालाबों का दृश्य आदि इनकी कविताओं में मिलता है। प्रकृति को नायिका के मनोभावों के अनुरूप चित्रित किया गया।
6. दरबारी संस्कृति का प्रभाव
अधिकतर रीतिसिद्ध कवि राजाओं और दरबारों के आश्रय में थे, जिससे उनकी कविताओं में दरबारी चमक-दमक झलकती है। राजाओं की वीरता, दानशीलता और प्रेम-कला की प्रशंसा करना एक महत्वपूर्ण विशेषता थी।
7. भाषा और शैली
इस धारा की कविताएँ मुख्यतः ब्रज भाषा में लिखी गईं।
भाषा में सरलता, माधुर्य और लालित्य था, जो काव्य को प्रभावशाली बनाता था।
दोहा, कवित्त, सोरठा आदि छंदों का सुंदर प्रयोग किया गया।
महत्वपूर्ण रीतिसिद्ध कवि और उनकी रचनाएँ
केशवदास – ‘रसिकप्रिया’, ‘कविप्रिया’
बिहारी – ‘बिहारी सतसई’
मतिराम – ‘रसराज’
चिंतामणि त्रिपाठी – काव्यशास्त्र पर आधारित कविताएँ
निष्कर्ष
रीतिसिद्ध कविता हिंदी साहित्य में कलात्मकता और शृंगार रस की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति का प्रतीक है। यह काव्य परंपरा नायिका भेद, रस, अलंकार, छंद और काव्यशास्त्र के नियमों पर आधारित थी। हालाँकि इसमें सामाजिक यथार्थ और जनसामान्य के जीवन का चित्रण कम था, फिर भी इसकी कलात्मकता और शास्त्रीय परिपूर्णता इसे हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है।
प्रश्न 05 रीतिमुक्त साहित्य की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए ।
रीतिकाल में एक धारा ऐसी भी विकसित हुई जो रीति (काव्यशास्त्र) के बंधनों से मुक्त थी। इसे रीतिमुक्त काव्य कहा जाता है। इस धारा के कवियों ने व्यक्तिगत भावनाओं, समाज, भक्ति और यथार्थपरक विषयों को अपनी कविता में स्थान दिया। इसमें प्रेम, भक्ति, नीति और समाज सुधार के विषयों पर विशेष ध्यान दिया गया।
1. काव्यशास्त्र से स्वतंत्रता
रीतिमुक्त कवियों ने काव्यशास्त्र के कठोर नियमों (अलंकार, नायिका भेद, शृंगार रस आदि) की अनिवार्यता को नहीं माना। उनकी कविताएँ अधिक स्वाभाविक और भावप्रधान थीं।
2. भक्ति और आध्यात्मिकता
इस धारा में भक्ति रस को विशेष महत्व दिया गया। कवियों ने भगवान कृष्ण और राम की महिमा का गुणगान किया। भक्तिकाल की तरह इसमें भी ईश्वर भक्ति, प्रेम और भजन परंपरा देखने को मिलती है।
3. प्रेम की भावनात्मक अभिव्यक्ति
हालाँकि रीतिकाल में प्रेम विषयक काव्य प्रचलित था, लेकिन रीतिमुक्त कवियों ने इसे आत्मीय और गहरी भावना के साथ प्रस्तुत किया। इसमें आध्यात्मिक प्रेम, समर्पण और नैतिक प्रेम को प्रमुखता दी गई।
4. सामाजिक और नैतिक विचारधारा
इस काव्यधारा में समाज की वास्तविकताओं और नैतिक मूल्यों पर ध्यान दिया गया। इसमें नीति, समाज सुधार, मानवीय संवेदनाएँ और जीवन दर्शन की झलक मिलती है।
5. प्रकृति और मानवीय संवेदनाओं का चित्रण
रीतिमुक्त काव्य में प्रकृति का चित्रण केवल सौंदर्य वर्णन के लिए नहीं, बल्कि मानवीय भावनाओं से जोड़कर किया गया। इससे कविता अधिक संवेदनशील और भावनात्मक हो गई।
6. भाषा और शैली
इस धारा की कविताएँ सरल, सहज और प्रवाहमयी भाषा में लिखी गईं।
भाषा में भक्तिकाल की सादगी और लोकभाषा की झलक देखने को मिलती है।
ब्रज भाषा, अवधी और खड़ी बोली का प्रयोग अधिक हुआ।
महत्वपूर्ण रीतिमुक्त कवि और उनकी रचनाएँ
घनानंद – प्रेम और विरह के सजीव चित्रण के लिए प्रसिद्ध
भूषण – वीर रस के महान कवि, जिन्होंने छत्रपति शिवाजी और बुंदेलखंड के वीरों का वर्णन किया
देव – श्रृंगार और भक्ति दोनों पर रचनाएँ लिखीं
प्रियादास – भक्ति और नीति संबंधी काव्य लिखने वाले कवि
निष्कर्ष
रीतिमुक्त साहित्य हिंदी काव्य परंपरा का एक महत्वपूर्ण चरण था। इसमें कवियों ने काव्यशास्त्र के बंधनों से मुक्त होकर प्रेम, भक्ति, समाज, नीति और यथार्थ को कविता में स्थान दिया। इसकी सरल भाषा, भावनात्मक गहराई और स्वाभाविक अभिव्यक्ति इसे हिंदी साहित्य के विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान बनाती है।
प्रश्न 06 प्रमुख रीतिमुक्त कवि और उनकी रचनाओं का वर्णन कीजिए।
रीतिकालीन हिंदी साहित्य में एक धारा ऐसी भी थी, जो रीति (काव्यशास्त्र) के बंधनों से मुक्त होकर व्यक्तिगत भावनाओं, भक्ति, नीति और सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करती थी। इसे रीतिमुक्त काव्य धारा कहा जाता है। इस धारा के कवियों ने न तो दरबारी संस्कृति को अपनाया और न ही काव्यशास्त्र के नियमों पर अधिक ध्यान दिया।
1. घनानंद (1689–1739)
विषय – प्रेम, विरह, आध्यात्मिकता
रचनाएँ – सुजान-शतक
घनानंद रीतिमुक्त काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उनकी कविता में प्रेम की सच्ची भावना और विरह का गहरा अनुभव मिलता है। उन्होंने प्रेम को केवल श्रृंगार तक सीमित न रखकर उसे हृदय की गहराइयों से जोड़ा। उनकी शैली स्वाभाविक और मार्मिक थी—
"मोहि चाँदनि चरचरी गनि गुनै हाय हाय हाय।
मोहि चित्त चपल चकोर की गति, चाँदनि अजहूँ न भाय॥"
2. भूषण (1613–1715)
विषय – वीर रस, राजनीति, युद्ध वर्णन
रचनाएँ – शिवराज भूषण, चित्रगुप्त भूषण, भूपाल भूषण
भूषण वीर रस के महान कवि थे। उन्होंने छत्रपति शिवाजी और बुंदेलखंड के वीरों की प्रशंसा में ओजस्वी काव्य लिखा। उनके काव्य में वीरता, साहस और राष्ट्रभक्ति की भावना स्पष्ट दिखाई देती है—
"जहाँ बसैं बलवीर, भूपति, बागी, राजन रे।
तहाँ भूषण की रैन, दिवस गिनै काजन रे॥"
3. देव (1673–1750)
विषय – श्रृंगार रस, भक्ति
रचनाएँ – कवित्त रत्नाकर, भाव विचार, देव सतसई
देव ने प्रेम और भक्ति दोनों विषयों पर उत्कृष्ट काव्य रचा। उनके काव्य में नायिका भेद, प्रेम के विभिन्न रूप और भक्ति भावनाएँ देखने को मिलती हैं। उनका भाषा-शैली पर विशेष अधिकार था और उन्होंने ब्रजभाषा को काव्य में प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया।
4. लालकवि (17वीं शताब्दी)
विषय – वीर रस, राष्ट्र प्रेम
रचनाएँ – लाल ग्रंथावली
लालकवि ने वीर रस को अपनाते हुए अपने काव्य में राजनीतिक चेतना और राष्ट्र प्रेम को स्थान दिया। उन्होंने युद्ध, शौर्य और वीरता का यथार्थ चित्रण किया।
5. ठाकुर (18वीं शताब्दी)
विषय – प्रेम, भक्ति और नीति
रचनाएँ – वंश भास्कर, रस बिंदु
ठाकुर का काव्य प्रेम और भक्ति का उत्कृष्ट संगम है। उनकी कविता में भावुकता, सरलता और गहराई पाई जाती है।
निष्कर्ष
रीतिमुक्त कवियों ने काव्यशास्त्र के बंधनों से मुक्त होकर भक्ति, प्रेम, वीरता और समाज की वास्तविकताओं को अभिव्यक्त किया। इनकी कविताओं में यथार्थ, संवेदनशीलता और भावुकता अधिक देखने को मिलती है। इनकी रचनाएँ आज भी हिंदी साहित्य में प्रेरणा और सौंदर्यबोध का प्रतीक बनी हुई हैं।
प्रश्न 07 नीति कविता और भक्ति कविता का परिचय दीजिए।
हिंदी साहित्य में नीति कविता और भक्ति कविता दो महत्वपूर्ण काव्य धाराएँ हैं, जिनका संबंध नैतिक शिक्षा और ईश्वर भक्ति से है। नीति कविता समाज को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है, जबकि भक्ति कविता ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण को दर्शाती है।
1. नीति कविता का परिचय
नीति कविता वह काव्य है जो सदाचार, नैतिक मूल्यों, समाज सुधार और जीवन के व्यवहारिक ज्ञान को व्यक्त करती है। इसमें कवि मानव जीवन में सत्य, धर्म, कर्तव्य, न्याय और सद्गुणों का प्रचार करता है। नीति कविता लोकमंगल की भावना से प्रेरित होती है और व्यक्ति को सही दिशा में चलने का मार्ग दिखाती है।
नीति कविता की विशेषताएँ
नैतिक शिक्षा – नीति कविता में जीवन के नैतिक नियमों और आदर्शों का उल्लेख किया जाता है।
सरल भाषा – इसकी भाषा सहज और स्पष्ट होती है, ताकि जनसामान्य इसे आसानी से समझ सके।
अनुभवजन्य ज्ञान – नीति काव्य जीवन के अनुभवों और व्यवहारिक ज्ञान पर आधारित होता है।
उदाहरणात्मक शैली – इसमें कहावतों, दृष्टांतों और लोककथाओं का प्रयोग किया जाता है।
लोकहितकारी दृष्टिकोण – इसका उद्देश्य समाज को सही मार्ग दिखाना और बुराइयों से बचाना होता है।
प्रमुख नीति कवि और उनकी रचनाएँ
विद्यापति – नैतिक और नीति संबंधी कविताएँ
तुलसीदास – रामचरितमानस (नीति शिक्षाएँ)
भर्तृहरि – नीतिशतक
केशवदास – रामचंद्रिका (नीति और आदर्शों का वर्णन)
उदाहरण (तुलसीदास)
"परहित सरिस धरम नहि भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥"
(अर्थ – दूसरों की भलाई से बढ़कर कोई धर्म नहीं और दूसरों को कष्ट देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं।)
2. भक्ति कविता का परिचय
भक्ति कविता का संबंध ईश्वर प्रेम, आध्यात्मिकता, धार्मिकता और आत्मसमर्पण से है। यह काव्यधारा भक्तिकाल में सबसे अधिक विकसित हुई, जिसमें कवियों ने ईश्वर के प्रति प्रेम, भक्ति और भजन परंपरा को अपनाया।
भक्ति कविता की विशेषताएँ
ईश्वर की स्तुति – इसमें ईश्वर की महिमा, गुणगान और उसके प्रति भक्ति का वर्णन किया जाता है।
भावुकता और सरलता – इसकी भाषा और शैली हृदयस्पर्शी और सहज होती है।
आध्यात्मिकता – यह सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठने और ईश्वर से एकात्मकता स्थापित करने की प्रेरणा देती है।
निर्गुण और सगुण भक्ति –
निर्गुण भक्ति – इसमें ईश्वर को निराकार और ब्रह्म रूप में माना जाता है (जैसे कबीर, नानक)।
सगुण भक्ति – इसमें ईश्वर को साकार रूप में पूजा जाता है (जैसे तुलसीदास, सूरदास)।
सामाजिक चेतना – कई भक्ति कवियों ने सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों के विरुद्ध भी आवाज उठाई।
प्रमुख भक्ति कवि और उनकी रचनाएँ
कबीरदास – साखी, दोहे, बीजक (निर्गुण भक्ति)
संत तुलसीदास – रामचरितमानस, विनय पत्रिका (सगुण भक्ति)
सूरदास – सूरसागर (कृष्ण भक्ति)
मीराबाई – भजन संग्रह (कृष्ण भक्ति)
उदाहरण (कबीरदास)
"मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना तीरथ में, ना मूरत में, ना एकांत निवास में॥"
(अर्थ – ईश्वर को बाहर मत ढूँढो, वह तुम्हारे हृदय में ही निवास करता है।)
निष्कर्ष
नीति कविता और भक्ति कविता दोनों ही समाज और व्यक्ति को सही दिशा में ले जाने का कार्य करती हैं। नीति कविता व्यक्ति को नैतिकता और सद्गुणों का पाठ पढ़ाती है, जबकि भक्ति कविता उसे आध्यात्मिकता और ईश्वर प्रेम की ओर ले जाती है। हिंदी साहित्य में इन दोनों काव्यधाराओं का विशेष महत्व है और ये आज भी समाज के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई हैं।
प्रश्न 08 हिंदी रीतिकालीन कविता का परिचय देते हुए हिंदी आलोचना की प्रवृति पर एक निबंध लिखिए।
भूमिका
हिंदी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल (1650-1850 ई.) को एक महत्वपूर्ण युग माना जाता है। यह काल मुख्य रूप से श्रृंगार रस, नायिका भेद, अलंकार और काव्यशास्त्र की परंपरा पर केंद्रित था। इस काल की कविता राजदरबारों तक सीमित हो गई और इसमें भक्ति तथा समाज सुधार की अपेक्षा सौंदर्य, प्रेम और काव्य कौशल को अधिक महत्व दिया गया। हिंदी आलोचना की दृष्टि से भी रीतिकालीन कविता पर विभिन्न मत उभरकर सामने आए, जिनमें कुछ ने इसे हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल माना, तो कुछ ने इसे कलात्मक परिष्कार का युग कहकर सीमित मान्यता दी।
हिंदी रीतिकालीन कविता का परिचय
1. रीतिकाल का स्वरूप
रीतिकाल की कविता मुख्य रूप से दरबारी संस्कृति से प्रभावित थी। इसमें कवियों ने राजाओं, दरबारियों और नायिका भेद का सूक्ष्म वर्णन किया। इस काल को तीन भागों में विभाजित किया जाता है—
रीतिबद्ध काव्य – जिसमें काव्यशास्त्र के नियमों का पालन किया गया (जैसे केशवदास)।
रीतिसिद्ध काव्य – जिसमें शृंगार और अलंकारों की प्रधानता रही (जैसे बिहारी, मतिराम)।
रीतिमुक्त काव्य – जो काव्यशास्त्र से मुक्त होकर भावनाओं को महत्व देता है (जैसे घनानंद, भूषण)।
2. रीतिकाव्य की विशेषताएँ
शृंगार रस की प्रधानता (संयोग और वियोग दोनों रूपों में)।
अलंकारों और लक्षणाओं का अत्यधिक प्रयोग।
नायिका भेद और सौंदर्य वर्णन की परंपरा।
दरबारी संस्कृति और राजाओं की प्रशंसा।
कुछ रचनाओं में नीति और भक्ति का समावेश।
3. प्रमुख रीतिकालीन कवि और उनकी रचनाएँ
केशवदास – रसिकप्रिया, कविप्रिया
बिहारी – बिहारी सतसई
भूषण – शिवराज भूषण (वीर रस)
मतिराम – रसराज
देव – कवित्त रत्नाकर
घनानंद – सुजान-शतक (रीतिमुक्त)
हिंदी आलोचना की प्रवृत्ति और रीतिकाल
1. पारंपरिक आलोचना (संस्कृत काव्यशास्त्र की दृष्टि से)
रीतिकालीन कविता को प्रारंभ में संस्कृत काव्यशास्त्र के आधार पर परखा गया। इसमें रस, अलंकार, ध्वनि और रीति को केंद्र में रखकर आलोचना की गई। आचार्य केशवदास और भामह ने काव्यशास्त्र के नियमों को इस काल में लागू किया, जिससे यह युग शास्त्रीय बंधनों में बंधा हुआ रहा।
2. आधुनिक आलोचना (भारतेन्दु युग और छायावाद की दृष्टि से)
भारतेन्दु हरिश्चंद्र और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने रीतिकालीन कविता की आलोचना करते हुए इसे कृत्रिम, दरबारी और जनसामान्य से दूर बताया। छायावाद काल में भी रीतिकाल की कविता को शास्त्रीय बंधनों में जकड़ी हुई कला माना गया।
3. स्वतंत्रता के बाद आलोचना (रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी की दृष्टि से)
रामचंद्र शुक्ल ने इसे स्वाभाविकता से दूर और नायिका केंद्रित बताया, जबकि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने घनानंद और भूषण जैसे कवियों को रीतिमुक्त परंपरा के आधार पर श्रेष्ठ बताया।
निष्कर्ष
रीतिकालीन कविता ने हिंदी साहित्य में शैलीगत परिष्कार, काव्यशास्त्र की परंपरा और अलंकारिक सौंदर्य को स्थापित किया, लेकिन यह आम जनता के जीवन से कहीं न कहीं कट गई। हिंदी आलोचना ने इसे कई दृष्टिकोणों से देखा—कुछ ने इसे कलात्मक उत्कृष्टता का युग माना, तो कुछ ने इसे दरबारी और शृंगारप्रधान साहित्य कहकर सीमित कर दिया। फिर भी, यह काल हिंदी साहित्य की सौंदर्य चेतना और भाषा परिष्कार की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है।
प्रश्न 9 रीतिकालीन काव्य के अंतर्गत प्रमुख उर्दू कवियों का परिचय दीजिए।
भूमिका
रीतिकाल (1650-1850 ई.) हिंदी साहित्य का वह युग है जिसमें मुख्य रूप से शृंगार रस, अलंकारिक भाषा और नायिका भेद की प्रधानता रही। यह काल दरबारी संस्कृति से प्रभावित था और हिंदी के साथ-साथ उर्दू साहित्य में भी इस दौरान महत्वपूर्ण कवि उभरकर सामने आए। रीतिकाल में उर्दू कविता ने ग़ज़ल, मसनवी, रुबाई और नज़्म के रूप में प्रेम, सौंदर्य और भक्ति के विषयों को प्रस्तुत किया।
रीतिकालीन उर्दू कवि और उनकी रचनाएँ
1. वली दक्कनी (1667-1707)
रचनाएँ – दीवान-ए-वली
वली दक्कनी को उर्दू ग़ज़ल का जनक कहा जाता है। इन्होंने प्रेम, शृंगार और भक्ति को अपने काव्य में अभिव्यक्त किया। उनकी कविता में प्राकृतिक सौंदर्य, प्रेम की अनुभूति और रहस्यवाद देखने को मिलता है।
उदाहरण:
"दिल को आराम भी, जान को सुकूं भी मिलता
यार गर अपने मकां में मुझे इक रात रखे।"
2. सिराजुद्दीन अली खान आरज़ू (1687-1756)
रचनाएँ – ग़ज़ल संग्रह
आरज़ू ने हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में कविता की और इन्हें हिंदी-उर्दू के मध्य सेतु माना जाता है। उन्होंने भाषा को परिष्कृत करने का कार्य किया और उनकी ग़ज़लों में नायिका भेद और शृंगार रस की झलक मिलती है।
3. मीर तकी मीर (1723-1810)
रचनाएँ – दीवान-ए-मीर
मीर तकी मीर उर्दू ग़ज़ल के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उनकी कविता में विरह, प्रेम, वेदना और मानवीय संवेदनाएँ प्रमुख रूप से मिलती हैं।
उदाहरण:
"इश्क़ इक मीर भारी पत्थर है
बोझ उठता नहीं है हौले से।"
4. सौदा (1713-1781)
रचनाएँ – दीवान-ए-सौदा
मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा ने उर्दू में व्यंग्य और सामाजिक कटाक्ष को स्थान दिया। उन्होंने प्रेम और शृंगार के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक विषमताओं को भी उजागर किया।
5. नज़ीर अकबराबादी (1740-1830)
रचनाएँ – नज़्म संग्रह
नज़ीर अकबराबादी ने जनता से जुड़े विषयों पर कविताएँ लिखीं। वे प्रेम के साथ-साथ भारतीय समाज, संस्कृति और त्यौहारों को भी अपनी कविताओं में स्थान देते थे।
उदाहरण:
"बंसी बजाकर प्यार का, ऐसा बिछाया जाल।
जिसमें फंसा के छोड़ दिया, ब्रज का हर एक ग्वाल।"
निष्कर्ष
रीतिकाल में हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रेम, शृंगार और भक्ति को केंद्र में रखकर कविता रची गई। वली दक्कनी, मीर तकी मीर और सौदा जैसे कवियों ने ग़ज़ल, नज़्म और मसनवी के माध्यम से रीतिकालीन प्रवृत्तियों को उर्दू साहित्य में विकसित किया। इन कवियों ने न केवल सौंदर्यबोध को विस्तार दिया, बल्कि समाज, राजनीति और आध्यात्मिकता के विषयों को भी अपने काव्य में शामिल किया।
प्रश्न 10 ब्रजभाषा गद्य और खड़ी बोली गद्य पर टिप्पणी लिखिए।
भूमिका
हिंदी भाषा के विकास में ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ब्रजभाषा गद्य मध्यकालीन हिंदी साहित्य की प्रमुख भाषा थी, जबकि खड़ी बोली गद्य आधुनिक हिंदी गद्य का आधार बनी। इन दोनों रूपों ने हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं को समृद्ध किया और अपने-अपने युग में साहित्यिक अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम रहीं।
ब्रजभाषा गद्य
1. ब्रजभाषा का स्वरूप
ब्रजभाषा हिंदी की प्रमुख बोली रही है, जो उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में बोली जाती थी। यह भाषा काव्यप्रधान रही और विशेष रूप से भक्तिकाल और रीतिकाल में अधिक प्रचलित थी। गद्य में इसका प्रयोग अपेक्षाकृत कम हुआ, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण गद्य रचनाएँ उपलब्ध हैं।
2. ब्रजभाषा गद्य की विशेषताएँ
मुख्य रूप से काव्यात्मक शैली में प्रयुक्त।
भाषा में माधुर्य, लय और प्रवाह होता है।
रीतिकालीन और भक्तिकालीन साहित्य में अधिक प्रयोग हुआ।
शृंगार रस और भक्ति रस की प्रधानता।
गद्य की अपेक्षा पद्य में अधिक सृजन।
3. ब्रजभाषा गद्य के प्रमुख रचनाकार
गोकुलनाथ – भागवत गीता का ब्रजभाषा गद्य रूपांतरण।
लालचंद अवधूत – ब्रजभाषा में धार्मिक और दार्शनिक गद्य रचनाएँ।
हरिदास स्वामी – भक्तिपरक ब्रजभाषा गद्य साहित्य के रचनाकार।
4. ब्रजभाषा गद्य का प्रभाव
ब्रजभाषा गद्य अपने समय में लोकप्रिय था, लेकिन आधुनिक हिंदी गद्य के विकास के साथ इसका प्रयोग कम होता गया। फिर भी, ब्रजभाषा की मिठास और काव्यात्मकता ने हिंदी साहित्य पर स्थायी प्रभाव डाला।
खड़ी बोली गद्य
1. खड़ी बोली का स्वरूप
खड़ी बोली हिंदी की वह शैली है, जिसने आधुनिक हिंदी गद्य को जन्म दिया। यह भाषा साधु हिंदी और नागरी हिंदी के रूप में विकसित हुई और आज हिंदी साहित्य, पत्रकारिता और प्रशासनिक कार्यों की मुख्य भाषा है।
2. खड़ी बोली गद्य की विशेषताएँ
सरल, व्याकरण सम्मत और स्पष्ट भाषा।
व्यवहारिक और संप्रेषणीय शैली।
गद्य लेखन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त।
समकालीन समाज, राजनीति और विचारधारा को अभिव्यक्त करने में सक्षम।
आधुनिक हिंदी साहित्य, उपन्यास, निबंध, पत्रकारिता और प्रशासनिक भाषा के रूप में स्थापित।
3. खड़ी बोली गद्य के प्रमुख रचनाकार
भारतेंदु हरिश्चंद्र – हिंदी गद्य के जनक (हिंदी नाटक, निबंध, पत्रकारिता)।
बालकृष्ण भट्ट – हिंदी गद्य के उन्नायक।
महावीर प्रसाद द्विवेदी – हिंदी निबंध और संपादन के क्षेत्र में योगदान।
प्रेमचंद – आधुनिक हिंदी उपन्यास और कहानी के जनक।
4. खड़ी बोली गद्य का प्रभाव
खड़ी बोली ने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी। यह भाषा आज हिंदी साहित्य, शिक्षण, संचार और प्रशासन की मुख्य भाषा बन गई है।
निष्कर्ष
ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों का हिंदी साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ब्रजभाषा गद्य ने माधुर्य और काव्यात्मकता को प्रकट किया, जबकि खड़ी बोली गद्य ने व्यवहारिक, संप्रेषणीय और आधुनिक हिंदी साहित्य को जन्म दिया। आज खड़ी बोली हिंदी की मुख्य भाषा है, लेकिन ब्रजभाषा का साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्व अब भी बना हुआ है।
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