BAHI(N)102 SOLVED QUESTION PAPER 2025
SECTION (A) खंड "क"
प्रश्न 01 प्रयाग प्रशस्ति को आधार बनाते हुए समुद्रगुप्त की दिग्विजय का विवरण दीजिए।
उत्तर:
प्रयाग प्रशस्ति, जिसे इलाहाबाद प्रशस्ति भी कहा जाता है, गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के विजय अभियानों का महत्वपूर्ण स्रोत है। यह प्रशस्ति उनके दरबारी कवि हरिषेण द्वारा संस्कृत में लिखी गई थी और इसे प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) के अशोक स्तंभ पर अंकित किया गया था। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के युद्ध अभियानों, उनकी विजयों और उनकी नीति का विस्तार से वर्णन मिलता है।
समुद्रगुप्त की दिग्विजय
समुद्रगुप्त ने अपने शासनकाल में कई सफल सैन्य अभियान चलाए, जिन्हें मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है—उत्तर भारत का विजय अभियान, दक्षिण भारत का अभियान और सीमावर्ती तथा मित्र राज्यों की नीति।
1. उत्तर भारत की विजय
समुद्रगुप्त ने सबसे पहले उत्तर भारत के विभिन्न राजाओं को हराकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार, उन्होंने आर्यावर्त (उत्तर भारत) के नौ राजाओं को पराजित कर अपने साम्राज्य में मिला लिया। इन राजाओं में कोशल, कांची, अहिच्छत्र, पाद्रावती, मालवा, अजमेर और अन्य क्षेत्र शामिल थे। इन राज्यों को पूरी तरह गुप्त साम्राज्य में समाहित कर लिया गया।
2. दक्षिण भारत की विजय (दक्षिणापथ विजय)
उत्तर भारत पर विजय प्राप्त करने के बाद समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत की ओर कूच किया। प्रयाग प्रशस्ति में बारह दक्षिण भारतीय राजाओं का उल्लेख है, जिनमें कांची के पल्लव राजा विष्णुगोप, वेंगी के सालंकायन, कोसल, अवंती, और अन्य क्षेत्र शामिल थे। समुद्रगुप्त ने इन राजाओं को पराजित तो किया, लेकिन उन्हें संप्रभुता बनाए रखने दी और उनसे कर तथा अधीनता की स्वीकृति प्राप्त की।
3. सीमावर्ती और मित्र राज्यों की नीति
समुद्रगुप्त की नीति केवल युद्ध तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने कूटनीति का भी सहारा लिया। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार, उन्होंने नेपाल, असम, बंगाल, पश्चिमी भारत और अन्य सीमावर्ती क्षेत्रों के राजाओं को अधीनता स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया। इसके अलावा, उन्होंने शक, हूण, पार्थियन, और श्रीलंका के राजा मेघवर्ण के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए।
समुद्रगुप्त की दिग्विजय की विशेषताएँ
समुद्रगुप्त की विजय नीति में प्रत्यक्ष अधिग्रहण और अधीनता दोनों शामिल थे।
उन्होंने दक्षिण भारत में पूर्ण अधिग्रहण के बजाय राजाओं को करदाता बनाकर अधीन रखा।
उन्होंने केवल सैनिक शक्ति का ही नहीं, बल्कि कूटनीति और सांस्कृतिक प्रभाव का भी उपयोग किया।
प्रयाग प्रशस्ति में उन्हें 'चक्रवर्ती सम्राट' और 'भारत का नेपोलियन' कहकर गौरवान्वित किया गया है।
निष्कर्ष
प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त की दिग्विजय का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करती है और उनकी महानता को दर्शाती है। उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति, रणनीतिक सोच और कूटनीतिक नीतियों से उत्तर और दक्षिण भारत में विजय प्राप्त की और एक सुदृढ़ गुप्त साम्राज्य की स्थापना की। उनकी विजय नीति ने गुप्त वंश को स्वर्ण युग तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रश्न 02 भारत पर हूंड आक्रमण की चर्चा कीजिए तथा इसने किस प्रकार गुप्त साम्राज्य के पतन में भी योगदान दिया, इसकी विवेचना कीजिए।
उत्तर:
हूणों का परिचय
हूण एक क्रूर और युद्धप्रिय जनजाति थी, जो मध्य एशिया के स्टेपी क्षेत्र से संबंधित थी। ये मूल रूप से खानाबदोश थे और अपनी आक्रामकता तथा सैन्य कौशल के लिए प्रसिद्ध थे। चौथी और पाँचवीं शताब्दी में, हूणों ने विभिन्न क्षेत्रों पर आक्रमण किए, जिनमें यूरोप, फारस और भारत भी शामिल थे।
भारत पर हूण आक्रमण
भारत पर हूणों के आक्रमण मुख्यतः पाँचवीं और छठी शताब्दी में हुए, जब गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष पर था। इन आक्रमणों का नेतृत्व दो प्रमुख हूण शासकों ने किया—तोर्माण और मिहिरकुल।
1. तोर्माण (490-515 ई.) का आक्रमण
तोर्माण मध्य एशिया का एक शक्तिशाली हूण शासक था।
उसने पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर आक्रमण कर उन्हें गुप्त साम्राज्य से अलग कर लिया।
उसने मालवा और राजस्थान के कुछ हिस्सों को भी जीत लिया।
2. मिहिरकुल (515-540 ई.) का आक्रमण
मिहिरकुल तोर्माण का पुत्र था और अधिक क्रूर तथा महत्वाकांक्षी था।
उसने गुप्त साम्राज्य पर कई आक्रमण किए और उनकी सत्ता को कमजोर कर दिया।
कश्मीर और गांधार में उसने अपनी सत्ता स्थापित की, लेकिन अंततः मालवा और अन्य भारतीय राजाओं ने उसे पराजित किया।
हूण आक्रमणों के प्रभाव और गुप्त साम्राज्य का पतन
हूणों के आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य को कमजोर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका प्रभाव निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है—
1. राजनीतिक अस्थिरता
हूणों के आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य की सीमाओं को कमजोर कर दिया।
गुप्त शासकों को निरंतर आक्रमणों का सामना करना पड़ा, जिससे उनकी शक्ति क्षीण होती गई।
2. सैन्य और आर्थिक क्षति
हूणों के आक्रमणों से गुप्त साम्राज्य की सेना को भारी नुकसान पहुँचा।
व्यापार और कृषि प्रभावित हुए, जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था कमजोर हो गई।
3. प्रशासनिक विघटन
हूणों के आक्रमणों के कारण गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा गई।
कई प्रांत स्वतंत्र हो गए और केंद्रीय सत्ता कमजोर पड़ गई।
4. सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव
हूणों ने भारतीय संस्कृति और समाज पर भी प्रभाव डाला।
उन्होंने बौद्ध विहारों और मंदिरों को नष्ट किया, जिससे धार्मिक उथल-पुथल हुई।
निष्कर्ष
हूण आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य के पतन की गति को तेज कर दिया। हालाँकि गुप्त शासकों ने कुछ समय तक प्रतिरोध किया, लेकिन इन आक्रमणों से साम्राज्य की राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य स्थिति इतनी कमजोर हो गई कि वह पुनः अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सका। अंततः गुप्त साम्राज्य छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया और छठी शताब्दी के अंत तक पूरी तरह समाप्त हो गया।
प्रश्न 03 गुप्तकालीन आंतरिक और बाह्य व्यापार का विवरण दीजिए।
उत्तर:
गुप्तकाल (चौथी से छठी शताब्दी ईस्वी) को भारतीय इतिहास का "स्वर्ण युग" कहा जाता है। इस काल में आर्थिक समृद्धि, व्यापार और वाणिज्य में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। गुप्त शासकों की स्थिर शासन व्यवस्था, सुव्यवस्थित प्रशासन और व्यापार को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों ने आंतरिक एवं बाह्य व्यापार को बढ़ावा दिया।
गुप्तकालीन आंतरिक व्यापार
गुप्तकाल में आंतरिक व्यापार काफी विकसित था। विभिन्न नगरों, ग्रामों और व्यावसायिक केंद्रों के बीच व्यापारिक गतिविधियाँ सक्रिय थीं।
1. प्रमुख व्यापारिक केंद्र
पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) – प्रमुख व्यापारिक और प्रशासनिक केंद्र।
वाराणसी – सूती वस्त्र और हस्तशिल्प उद्योग के लिए प्रसिद्ध।
उज्जयिनी – उत्तरी और दक्षिणी भारत के व्यापार का प्रमुख केंद्र।
कांचीपुरम – दक्षिण भारत का व्यापारिक केंद्र, विशेष रूप से वस्त्र उद्योग के लिए प्रसिद्ध।
तमिलनाडु और केरल के बंदरगाह – बाह्य व्यापार के प्रमुख केंद्र।
2. व्यापारिक मार्ग और परिवहन
गुप्तकाल में सड़क मार्ग और नदी मार्ग दोनों का प्रयोग किया जाता था।
सड़क मार्ग: राजमार्गों से विभिन्न नगर जुड़े हुए थे, जो व्यापार को सुगम बनाते थे।
नदी मार्ग: गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा और कृष्णा जैसी नदियाँ व्यापार के लिए महत्वपूर्ण थीं।
वाहन: व्यापारी बैलगाड़ियों, घोड़ों और हाथियों का उपयोग करते थे।
3. व्यापारिक वस्तुएँ
गुप्तकाल में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का व्यापार किया जाता था—
कृषि उत्पाद: धान, गेहूँ, जौ, तिलहन, गन्ना आदि।
हस्तशिल्प उत्पाद: सोने-चाँदी के आभूषण, मिट्टी के बर्तन, मूर्तियाँ आदि।
कपड़ा उद्योग: सूती और रेशमी वस्त्र, विशेष रूप से वाराणसी और मधुराई के वस्त्र प्रसिद्ध थे।
धातु और हथियार: तांबा, कांस्य, लोहे और अन्य धातुओं से बने औजार एवं हथियार।
गुप्तकालीन बाह्य व्यापार
गुप्तकाल में भारत का विदेशों के साथ व्यापार भी समृद्ध था। यह व्यापार जल और थल मार्गों दोनों से संचालित होता था।
1. प्रमुख व्यापारिक भागीदार
पश्चिमी देश: रोम (बाइज़ेंटाइन साम्राज्य), ईरान और अरब।
दक्षिण-पूर्व एशियाई देश: म्यांमार (बर्मा), कंबोडिया, जावा, सुमात्रा, श्रीलंका।
चीन और तिब्बत: रेशम मार्ग (Silk Route) के माध्यम से व्यापार।
2. समुद्री व्यापार के प्रमुख बंदरगाह
तमिलनाडु: कावेरीपट्टनम, महाबलीपुरम।
गुजरात: भृगुकच्छ (भड़ौंच), सोपारा।
ओडिशा: ताम्रलिप्ति, पलूर।
केरल: मुज़िरिस, कोडुंगल्लूर।
3. व्यापारिक वस्तुएँ
भारत से निर्यात: सूती और रेशमी वस्त्र, मसाले (काली मिर्च, इलायची), कीमती पत्थर, हाथी दाँत, धातु के औजार।
भारत में आयात: चीनी रेशम, रोमन सोने के सिक्के, घोड़े, काँच और सुगंधित तेल।
व्यापार की समृद्धि के कारण
सुरक्षित मार्ग – गुप्त शासकों ने राजमार्गों और व्यापार मार्गों की सुरक्षा सुनिश्चित की।
मुद्रा प्रणाली – सोने के सिक्के (दीनार), चाँदी और तांबे के सिक्कों का प्रचलन था।
शांतिपूर्ण शासन – राजनीतिक स्थिरता के कारण व्यापार फला-फूला।
अंतरराष्ट्रीय संबंध – दक्षिण-पूर्व एशिया और रोम के साथ व्यापारिक संबंध थे।
गुप्तकालीन व्यापार का पतन
गुप्त साम्राज्य के अंतिम चरण में हूणों के आक्रमण और राजनीतिक अस्थिरता के कारण व्यापारिक गतिविधियाँ प्रभावित हुईं। विदेशी व्यापार कमजोर हो गया और भारतीय नगरों की आर्थिक समृद्धि घटने लगी।
निष्कर्ष
गुप्तकालीन व्यापार अत्यधिक विकसित था और यह भारत की आर्थिक उन्नति का आधार था। आंतरिक व्यापार में कृषि, वस्त्र, धातु और हस्तशिल्प की महत्वपूर्ण भूमिका थी, जबकि बाह्य व्यापार चीन, रोम और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ फलता-फूलता रहा। हालाँकि, गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ व्यापार भी धीरे-धीरे कमजोर होता चला गया।
प्रश्न 04 पूर्व मध्यकालीन राज व्यवस्था को समझने के लिए दी गई विभिन्न संकल्पनाओं की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
पूर्व मध्यकाल (लगभग 750 ई. से 1200 ई.) भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण चरण था, जिसमें गुप्तोत्तर काल से लेकर दिल्ली सल्तनत की स्थापना तक की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं का विकास हुआ। इस काल की राजव्यवस्था को समझने के लिए इतिहासकारों ने विभिन्न संकल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं। इनमें मुख्यतः सामंतवाद, प्रशासनिक विकेंद्रीकरण, राजसत्ता की प्रकृति, एवं भू-राजस्व प्रणाली की अवधारणाएँ शामिल हैं।
1. सामंतवाद की संकल्पना
पूर्व मध्यकालीन भारत की राजव्यवस्था को समझने के लिए सामंतवाद (Feudalism) एक महत्वपूर्ण संकल्पना है। इस अवधारणा को भारतीय संदर्भ में कई इतिहासकारों ने परिभाषित किया है।
(i) आर. एस. शर्मा का दृष्टिकोण (भारतीय सामंतवाद)
आर. एस. शर्मा ने भारतीय सामंतवाद को यूरोपीय सामंतवाद के समान माना और कहा कि यह भूमि अनुदान प्रणाली से उत्पन्न हुआ।
गुप्तकाल के बाद राजा बड़े भू-भाग को ब्राह्मणों, अधिकारियों और सैनिकों को अनुदान में देने लगे, जिससे सामंतों की शक्ति बढ़ी।
इन सामंतों ने अपने अधीनस्थ सैनिकों और किसानों पर कर लगाया और स्वतंत्र शासन करने लगे।
धीरे-धीरे ये सामंत राजसत्ता को चुनौती देने लगे, जिससे प्रशासनिक नियंत्रण कमजोर हुआ।
(ii) हरबंस मुखिया का दृष्टिकोण
हरबंस मुखिया ने भारतीय सामंतवाद की अवधारणा को यूरोपीय सामंतवाद से अलग बताया।
उनके अनुसार, भारतीय सामंतवाद में किसानों की स्थिति यूरोप की तुलना में बेहतर थी क्योंकि यहाँ सामंती व्यवस्था पूरी तरह से कृषि उत्पादन पर निर्भर नहीं थी।
भारत में राज्य की शक्ति काफी हद तक केंद्र में बनी रही, जबकि यूरोपीय सामंतवाद में राजा की शक्ति कमजोर हो गई थी।
(iii) ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण
कुछ इतिहासकारों का मत है कि गुप्तकाल के बाद भूमि अनुदान की परंपरा बढ़ी, जिससे ब्राह्मणों और मंदिरों को अधिक भूमि प्राप्त हुई।
इसने एक धार्मिक-सामंती संरचना को जन्म दिया, जहाँ ब्राह्मण और मंदिर सामंती व्यवस्था का एक प्रमुख हिस्सा बन गए।
2. प्रशासनिक विकेंद्रीकरण की संकल्पना
गुप्तकालीन केंद्रीकृत प्रशासन धीरे-धीरे कमजोर पड़ा और राजकाज स्थानीय सामंतों, मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में चला गया।
चालुक्य, राष्ट्रकूट, पाल और चोल शासनों में इस विकेंद्रीकरण को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
ग्राम पंचायतें और स्थानीय प्रशासनिक इकाइयाँ अधिक शक्तिशाली हो गईं।
3. राजसत्ता की प्रकृति
पूर्व मध्यकालीन भारत की राजसत्ता को समझने के लिए दो प्रमुख दृष्टिकोण हैं—
(i) दैवीय अधिकार की संकल्पना
कई राजवंशों ने अपनी सत्ता को ईश्वरीय कृपा का परिणाम बताया।
पाल, प्रतिहार, राष्ट्रकूट और चोल शासकों ने स्वयं को "राज्य का पालनहार" कहा और अपनी शक्ति को धर्म से जोड़ा।
(ii) शाक्ति के विकेंद्रीकरण की संकल्पना
इस काल में राजा की शक्ति सीमित हो गई और सामंत, ब्राह्मण, मंदिर, व्यापारी वर्ग और ग्राम समितियाँ प्रभावी हो गईं।
चोल शासन में स्थानीय प्रशासनिक इकाइयाँ जैसे "उर" और "सभा" प्रभावशाली थीं, जो राजसत्ता की विकेंद्रित प्रकृति को दर्शाती हैं।
4. भू-राजस्व प्रणाली की संकल्पना
इस काल में भूमि ही सत्ता और राजस्व का मुख्य स्रोत बन गई।
भूमि को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया—
राजकीय भूमि: जिसे सीधे राजा नियंत्रित करता था।
ब्राह्मदाय भूमि: ब्राह्मणों को दान में दी गई भूमि।
देवदाय भूमि: मंदिरों और धार्मिक संस्थानों को दी गई भूमि।
सामंती भूमि: जिसे राजा अपने जागीरदारों और सामंतों को सौंपता था।
भूमि कर (भू-राजस्व) राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था, जिसे विभिन्न रूपों में लिया जाता था।
निष्कर्ष
पूर्व मध्यकालीन भारत की राजव्यवस्था को समझने के लिए विभिन्न संकल्पनाएँ महत्वपूर्ण हैं। सामंतवाद, प्रशासनिक विकेंद्रीकरण, राजसत्ता की प्रकृति और भू-राजस्व प्रणाली की समीक्षा से स्पष्ट होता है कि इस काल में राजनीतिक शक्ति का विकेंद्रीकरण हुआ और सामंतों, ब्राह्मणों तथा स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों की भूमिका बढ़ी। हालाँकि, यह संपूर्ण रूप से यूरोपीय सामंतवाद जैसा नहीं था, बल्कि भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप विकसित हुआ था।
प्रश्न 05 भारत में तुर्क आक्रमण के समय राजनीतिक स्थिति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत में तुर्क आक्रमण मुख्य रूप से 11वीं और 12वीं शताब्दी के दौरान हुए, जब महमूद गज़नवी और मुहम्मद गौरी ने उत्तर भारत पर आक्रमण किए। इस समय भारत की राजनीतिक स्थिति अत्यंत जटिल और बिखरी हुई थी। देश में कई छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य थे, जो आपसी संघर्षों में उलझे हुए थे। यह विखंडन तुर्क आक्रमणों के सफल होने का एक प्रमुख कारण बना।
1. राजनैतिक विखंडन और क्षेत्रीय राज्य
तुर्क आक्रमणों के समय भारत में कोई केंद्रीकृत सत्ता नहीं थी। विभिन्न क्षेत्रों में शक्तिशाली राजवंश शासन कर रहे थे, जिनमें प्रमुख थे—
(i) ग़ज़नवी आक्रमणों (1000-1030 ई.) के समय की स्थिति
गुरजर-प्रतिहार वंश (कन्नौज): कमजोर पड़ चुका था और उसकी शक्ति कम हो रही थी।
पल वंश (बंगाल और बिहार): पाल शासक महिपाल तुर्कों के विरुद्ध कोई प्रभावी प्रतिरोध नहीं कर सका।
शाही वंश (पंजाब और अफगानिस्तान): जयपाल और आनन्दपाल ने ग़ज़नवी से युद्ध किया, लेकिन पराजित हुए।
चोल साम्राज्य (दक्षिण भारत): शक्तिशाली था, लेकिन उत्तर भारतीय राजनीति से अलग था।
(ii) गौरी आक्रमणों (1175-1206 ई.) के समय की स्थिति
गहड़वाल वंश (बनारस और कन्नौज): शासक जयचंद आपसी संघर्षों में उलझे थे।
चौहान वंश (दिल्ली और अजमेर): पृथ्वीराज चौहान सबसे शक्तिशाली शासक थे, लेकिन गौरी से हार गए।
परमार वंश (मालवा): परमार शासक भी बाहरी आक्रमणों के प्रति प्रभावी नीति नहीं अपना सके।
सेन वंश (बंगाल और बिहार): उनकी शक्ति सीमित थी और वे आक्रमणों को रोकने में अक्षम रहे।
2. आपसी संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता
भारतीय राजाओं के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा और संघर्ष तुर्क आक्रमणों के सफल होने का मुख्य कारण बना।
पृथ्वीराज चौहान और जयचंद की प्रतिद्वंद्विता ने तुर्कों को भारत में प्रवेश का अवसर दिया।
बंगाल, कन्नौज और दिल्ली के शासकों के बीच कोई राजनीतिक एकता नहीं थी।
कुछ स्थानीय राजाओं ने तुर्कों के विरुद्ध सहयोग करने के बजाय अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराने में रुचि दिखाई।
3. सैन्य और प्रशासनिक कमजोरी
भारतीय राज्यों की सेनाएँ मुख्य रूप से हाथियों और भारी कवचधारी सैनिकों पर निर्भर थीं, जबकि तुर्क घुड़सवार सेना और तेज़ गति से लड़ने की रणनीति अपनाते थे।
तुर्क सेनाएँ अधिक अनुशासित और संगठित थीं, जबकि भारतीय सेनाओं में एकता की कमी थी।
भारतीय राज्यों में जमींदार और सामंत अधिक शक्तिशाली हो गए थे, जिससे केंद्रीय सत्ता कमजोर पड़ गई।
4. धार्मिक और सामाजिक कारक
इस काल में भारतीय समाज धार्मिक कर्मकांडों और आडंबरों में उलझा हुआ था, जिससे राजनीतिक चेतना कमजोर हो गई।
जातिवाद और समाज में ऊँच-नीच की भावना ने एकता को और अधिक कमजोर कर दिया।
निष्कर्ष
तुर्क आक्रमणों के समय भारत की राजनीतिक स्थिति अत्यंत दुर्बल थी। एकता के अभाव, आपसी संघर्षों, सैन्य और प्रशासनिक कमजोरियों तथा धार्मिक और सामाजिक विभाजन के कारण तुर्कों को भारत पर अधिकार जमाने में आसानी हुई। अगर भारतीय शासकों ने आपसी मतभेद भुलाकर संगठित रूप से प्रतिरोध किया होता, तो तुर्कों की विजय कठिन हो सकती थी।
खंड "ख" (SECTION "B")
प्रश्न 01 त्रिपक्षीय संघर्ष का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मध्यकालीन भारतीय इतिहास में त्रिपक्षीय संघर्ष (Triple Alliance Struggle) 8वीं से 10वीं शताब्दी के बीच उत्तर भारत में तीन प्रमुख राजवंशों – गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकूट और पाल वंश – के बीच हुआ था। यह संघर्ष मुख्य रूप से उत्तर भारत की राजनीतिक सत्ता और विशेष रूप से कन्नौज पर अधिकार के लिए लड़ा गया।
त्रिपक्षीय संघर्ष के प्रमुख कारण
कन्नौज की रणनीतिक और आर्थिक महत्ता – कन्नौज गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र में स्थित था और व्यापारिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण नगर था। इस पर नियंत्रण पाने से किसी भी राज्य की आर्थिक स्थिति मज़बूत हो सकती थी।
राजनीतिक वर्चस्व की होड़ – गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकूट और पाल वंश अपने-अपने क्षेत्रों में शक्तिशाली थे और पूरे उत्तरी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे।
धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव – इन तीनों राजवंशों की अपनी-अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक नीतियाँ थीं, जिनके माध्यम से वे जनता का समर्थन प्राप्त करना चाहते थे।
संघर्ष में भाग लेने वाले प्रमुख राजवंश
गुर्जर-प्रतिहार वंश – इस वंश की स्थापना नागभट्ट प्रथम (725-740 ई.) ने की थी। इनके प्रमुख शासकों में मिहिरभोज (836-885 ई.) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसने राष्ट्रकूटों और पालों के विरुद्ध कन्नौज पर अपना अधिकार बनाए रखने के लिए संघर्ष किया।
राष्ट्रकूट वंश – यह वंश दक्षिण भारत में प्रभावी था और इसके शासक बार-बार उत्तरी भारत पर आक्रमण करते थे। गोविंद तृतीय (793-814 ई.) और इंद्र तृतीय (914-928 ई.) जैसे राष्ट्रकूट शासकों ने कन्नौज पर आक्रमण कर प्रतिहारों की शक्ति को कमजोर किया।
पाल वंश – इस वंश की स्थापना गोपाल (750-770 ई.) ने बंगाल में की थी। धर्मपाल (770-810 ई.) और देवपाल (810-850 ई.) जैसे शासकों ने कन्नौज पर नियंत्रण के लिए प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों से संघर्ष किया।
संघर्ष की घटनाएँ और परिणाम
सबसे पहले पाल वंश के शासक धर्मपाल ने कन्नौज पर अधिकार किया, लेकिन राष्ट्रकूटों ने उस पर आक्रमण कर दिया।
राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय ने प्रतिहारों और पालों को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
बाद में प्रतिहारों ने अपनी शक्ति बढ़ाकर कन्नौज पर पुनः कब्ज़ा कर लिया।
यह संघर्ष लगभग दो शताब्दियों तक चलता रहा, लेकिन किसी भी एक राजवंश को स्थायी विजय नहीं मिली।
त्रिपक्षीय संघर्ष का प्रभाव
उत्तर भारत की स्थिरता प्रभावित हुई – लगातार युद्धों के कारण उत्तर भारत में शांति स्थापित नहीं हो सकी, जिससे आर्थिक और सांस्कृतिक विकास प्रभावित हुआ।
प्रतिहारों की शक्ति क्षीण हो गई – लंबे संघर्ष के कारण प्रतिहारों की शक्ति कमजोर पड़ गई और 10वीं शताब्दी के अंत तक वे पतन की ओर बढ़ने लगे।
तुर्क आक्रमणों के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ – इस संघर्ष ने उत्तर भारत को कमजोर कर दिया, जिससे 11वीं शताब्दी में महमूद गजनवी और बाद में मुहम्मद गोरी के आक्रमणों का रास्ता खुला।
निष्कर्ष
त्रिपक्षीय संघर्ष मध्यकालीन भारत का एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम था, जिसने उत्तर भारत की शक्ति-संतुलन को गहराई से प्रभावित किया। इस संघर्ष ने भारत में राजनैतिक अस्थिरता को बढ़ावा दिया और यह प्रमुख कारणों में से एक था कि बाद में विदेशी आक्रमणकारी इस क्षेत्र में आसानी से अपना प्रभुत्व स्थापित कर सके।
प्रश्न 02 राजपूतों की उत्पति
उत्तर:
राजपूत भारतीय उपमहाद्वीप के एक प्रमुख योद्धा वर्ग रहे हैं, जिन्होंने मध्यकालीन भारत के विभिन्न क्षेत्रों में राज किया। राजपूतों की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न मत और सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं, जिनमें पौराणिक, ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टिकोण शामिल हैं।
1. पौराणिक दृष्टिकोण
भारतीय ग्रंथों और लोककथाओं में राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न उल्लेख मिलते हैं। प्रमुख मान्यताएँ इस प्रकार हैं:
अग्निकुंड सिद्धांत – चंदबरदाई की 'पृथ्वीराज रासो' और अन्य ग्रंथों के अनुसार, राजपूतों की उत्पत्ति माउंट आबू के अग्निकुंड से हुई थी। इस मत के अनुसार, चार प्रमुख राजपूत वंश अग्निकुंड से उत्पन्न हुए:
प्रतिहार वंश
परमार वंश
सोलंकी वंश
चौहान वंश
सूर्यवंश और चंद्रवंश सिद्धांत – राजपूत स्वयं को प्राचीन क्षत्रियों की संतान मानते हैं। वे मुख्य रूप से दो वंशों में विभाजित किए जाते हैं:
सूर्यवंशी राजपूत – जिनका संबंध भगवान राम के वंश से बताया जाता है (जैसे सिसोदिया वंश)।
चंद्रवंशी राजपूत – जिनका संबंध चंद्रदेव या यदुवंश से बताया जाता है (जैसे कच्छवाहा वंश)।
2. ऐतिहासिक दृष्टिकोण
इतिहासकारों ने राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न मत दिए हैं:
विदेशी मूल सिद्धांत – कुछ यूरोपीय इतिहासकारों जैसे जेम्स टॉड का मत था कि राजपूत मध्य एशिया से आए हूण, शक, कुषाण और अन्य जनजातियों के वंशज हैं, जिन्होंने भारत में आकर क्षत्रिय समाज में स्थान प्राप्त किया।
स्थानीय उत्पत्ति सिद्धांत – कुछ भारतीय इतिहासकारों का मानना है कि राजपूत भारत की ही आदिवासी और क्षत्रिय जातियों से विकसित हुए, जिन्होंने 7वीं से 12वीं शताब्दी के बीच स्वयं को एक प्रभावशाली योद्धा वर्ग के रूप में स्थापित किया।
3. सामाजिक एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य
राजपूतों का उदय मुख्य रूप से 7वीं से 12वीं शताब्दी के बीच हुआ, जब उन्होंने विभिन्न उत्तर और पश्चिम भारतीय क्षेत्रों में राज्य स्थापित किए।
उन्होंने छोटे-छोटे राज्यों के रूप में शासन किया और अपनी वीरता, शौर्य तथा स्वाभिमान के लिए प्रसिद्ध रहे।
वे हिंदू धर्म के कट्टर समर्थक थे और मंदिरों तथा संस्कृति के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
4. राजपूतों का विभाजन
राजपूत कई वंशों में विभाजित हैं, जिनमें प्रमुख रूप से निम्नलिखित हैं:
सिसोदिया वंश (मेवाड़) – राणा सांगा और महाराणा प्रताप जैसे वीर योद्धा इसी वंश से थे।
कच्छवाहा वंश (अमेर) – जयपुर के कच्छवाहा राजपूत अकबर के दरबार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
राठौर वंश (मारवाड़) – जोधपुर के राठौर राजपूतों ने वीरता के लिए ख्याति प्राप्त की।
चौहान वंश (अजमेर एवं दिल्ली) – पृथ्वीराज चौहान इस वंश के प्रसिद्ध शासक थे।
निष्कर्ष
राजपूतों की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न मत हैं, लेकिन ऐतिहासिक रूप से वे मध्यकालीन भारत के योद्धा वर्ग के रूप में उभरे और भारतीय इतिहास में वीरता, स्वाभिमान और संघर्ष के प्रतीक बने। उन्होंने भारतीय संस्कृति और शासन प्रणाली में गहरी छाप छोड़ी और आज भी उनका गौरवशाली इतिहास प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।
प्रश्न 03 महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण
उत्तर:
महमूद गजनवी (971-1030 ई.) गजनी (आधुनिक अफगानिस्तान) का शासक था, जिसने 11वीं शताब्दी में भारत पर कई आक्रमण किए। उसका मुख्य उद्देश्य भारत की संपत्ति लूटना और इस्लाम का प्रसार करना था। उसके आक्रमणों ने भारत की राजनीति और समाज पर गहरा प्रभाव डाला।
1. महमूद गजनवी का परिचय
महमूद गजनवी का जन्म 971 ई. में हुआ था।
वह 997 ई. में गजनी का सुल्तान बना और उसने अपने शासनकाल में कई सैन्य अभियान चलाए।
उसने अपने राज्य का विस्तार मध्य एशिया, ईरान और उत्तर-पश्चिम भारत तक किया।
2. भारत पर महमूद गजनवी के प्रमुख आक्रमण
महमूद गजनवी ने 1000 ई. से 1027 ई. के बीच भारत पर कुल 17 आक्रमण किए। उसके प्रमुख आक्रमण इस प्रकार हैं:
पहला आक्रमण (1000 ई.) – हिंदूशाही शासक जयपाल पर हमला किया और उसे हराया।
दूसरा आक्रमण (1001 ई.) – पुनः जयपाल को हराकर उसे आत्मदाह करने के लिए मजबूर किया।
तीसरा आक्रमण (1008 ई.) – जयपाल के पुत्र आनंदपाल के नेतृत्व में हिंदू राजाओं ने महमूद के खिलाफ युद्ध किया, लेकिन वे पराजित हुए।
मथुरा और कन्नौज पर आक्रमण (1018 ई.) – महमूद ने मथुरा और कन्नौज पर हमला कर वहां की अपार संपत्ति लूटी।
सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण (1025 ई.) – यह महमूद का सबसे प्रसिद्ध आक्रमण था। उसने गुजरात में स्थित सोमनाथ मंदिर को लूटा और वहाँ की संपत्ति गजनी ले गया।
अंतिम आक्रमण (1027 ई.) – महमूद ने सिंध के कुछ इलाकों पर अंतिम बार आक्रमण किया और फिर वापस गजनी लौट गया।
3. महमूद गजनवी के आक्रमणों के प्रभाव
धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव – महमूद ने कई हिंदू मंदिरों को नष्ट किया, जिससे भारतीय समाज में धार्मिक असंतोष बढ़ा।
आर्थिक प्रभाव – उसने भारत से अपार संपत्ति लूटी, जिससे गजनी समृद्ध हुआ लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ।
राजनीतिक प्रभाव – भारतीय राजाओं की आपसी फूट और सैन्य कमजोरी उजागर हुई, जिससे आगे चलकर तुर्कों और मुगलों को भारत पर आक्रमण करने का अवसर मिला।
इस्लामी प्रभाव – उसके आक्रमणों से इस्लाम का प्रभाव बढ़ा और बाद में दिल्ली सल्तनत की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ।
4. निष्कर्ष
महमूद गजनवी के आक्रमण केवल लूटमार तक सीमित थे, उसने भारत में स्थायी शासन स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। लेकिन उसके हमलों से उत्तर भारत की राजनीतिक अस्थिरता बढ़ गई और इससे आगे चलकर मुस्लिम शासकों के लिए भारत पर विजय प्राप्त करना आसान हो गया।
प्रश्न 04 भारत पर अरब आक्रमण के प्रभाव
उत्तर:
भारत पर अरबों का आक्रमण मुख्य रूप से 8वीं शताब्दी में हुआ, जब 711 ई. में मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध और मुल्तान पर विजय प्राप्त की। यह आक्रमण केवल सैन्य विजय तक सीमित नहीं था, बल्कि इसके दूरगामी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी पड़े।
1. राजनीतिक प्रभाव
सिंध में इस्लामी शासन की स्थापना – मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर विजय प्राप्त कर वहाँ इस्लामी शासन की नींव रखी। हालाँकि, यह अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सका।
उत्तर भारत के राजाओं की सतर्कता – अरब आक्रमणों ने भारतीय राजाओं को इस्लामी सेनाओं की शक्ति का आभास कराया, जिससे वे भविष्य में होने वाले विदेशी आक्रमणों के प्रति सतर्क हुए।
दिल्ली सल्तनत की स्थापना का मार्ग प्रशस्त – अरबों का आक्रमण भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामी विस्तार की शुरुआत थी, जिसने आगे चलकर तुर्कों और मुगलों को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।
2. सामाजिक प्रभाव
हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों का मिलन – इस आक्रमण के बाद भारतीय और अरबी संस्कृति के बीच संपर्क बढ़ा, जिससे भाषा, खान-पान और रहन-सहन पर प्रभाव पड़ा।
इस्लाम का प्रसार – सिंध और मुल्तान में इस्लाम का प्रचार हुआ, जिससे वहाँ की धार्मिक संरचना में परिवर्तन आया।
सामाजिक संरचना में बदलाव – इस्लामी शासन के कारण कुछ स्थानीय लोगों ने इस्लाम धर्म ग्रहण किया, जिससे भारतीय समाज में एक नया धार्मिक वर्ग उभरा।
3. आर्थिक प्रभाव
व्यापार पर प्रभाव – अरबों ने भारत और पश्चिम एशिया के बीच व्यापार मार्गों को नियंत्रित किया, जिससे भारतीय व्यापारियों को लाभ और हानि दोनों हुई।
नए सिक्कों और राजस्व प्रणाली का प्रभाव – अरबों ने अपने प्रशासन में कराधान और सिक्का प्रणाली को लागू किया, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर कुछ प्रभाव पड़ा।
4. सांस्कृतिक और बौद्धिक प्रभाव
विज्ञान और गणित का आदान-प्रदान – भारतीय गणित (जैसे दशमलव प्रणाली और शून्य) अरबों के माध्यम से यूरोप पहुँची।
फारसी और अरबी भाषा का प्रभाव – भारतीय भाषाओं पर अरबी और फारसी शब्दों का प्रभाव पड़ा, जो आगे चलकर मध्यकालीन भारत की भाषाई संरचना में दिखा।
भारतीय ग्रंथों का अनुवाद – अरबों ने भारतीय ज्योतिष, चिकित्सा और गणित के कई ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया, जिससे भारतीय ज्ञान पश्चिम एशिया तक पहुँचा।
5. धार्मिक प्रभाव
बौद्ध धर्म पर प्रभाव – अरबों के आक्रमण से सिंध और मुल्तान में बौद्ध धर्म की स्थिति कमजोर हुई।
हिंदू-मुस्लिम सहिष्णुता की शुरुआत – कुछ क्षेत्रों में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच सहिष्णुता और मेल-जोल की परंपरा भी शुरू हुई।
निष्कर्ष
भारत पर अरब आक्रमण केवल एक सैन्य विजय नहीं थी, बल्कि इसने भारत की राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला। हालाँकि, अरब भारत में स्थायी राज्य स्थापित नहीं कर सके, लेकिन उन्होंने इस्लामी प्रभाव की नींव रखी, जिसने आगे चलकर तुर्कों, अफगानों और मुगलों के शासन का मार्ग प्रशस्त किया।
प्रश्न 05 चोलों का स्थानीय प्रशासन
उत्तर:
चोल वंश (9वीं से 13वीं शताब्दी) दक्षिण भारत का एक शक्तिशाली राजवंश था, जिसने प्रशासनिक दक्षता और सुव्यवस्थित शासन प्रणाली के लिए प्रसिद्धि प्राप्त की। चोलों का स्थानीय प्रशासन अत्यंत संगठित और लोकतांत्रिक स्वरूप का था, जिसमें ग्राम पंचायतों की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
1. चोल प्रशासन की विशेषताएँ
चोलों का प्रशासन तीन स्तरों पर संगठित था – केंद्रीय, प्रांतीय और स्थानीय प्रशासन।
स्थानीय प्रशासन को स्वायत्तता प्राप्त थी, और इसमें ग्राम सभाओं की प्रमुख भूमिका थी।
प्रशासनिक इकाइयाँ स्पष्ट रूप से विभाजित थीं, जिससे शासन को प्रभावी ढंग से संचालित किया जा सकता था।
2. स्थानीय प्रशासन की प्रमुख इकाइयाँ
चोल प्रशासन में स्थानीय शासन को तीन मुख्य इकाइयों में विभाजित किया गया था:
उर (Ur) – सामान्य ग्राम पंचायत, जहाँ भूमि के छोटे और मध्यम स्तर के किसान रहते थे।
सभा (Sabha) – बड़े गाँवों और ब्राह्मणों द्वारा बसाई गई बस्तियों (ब्राह्मदया गाँवों) की पंचायत, जो अधिक संगठित और शक्तिशाली थी।
नागरम् (Nagaram) – व्यापारिक नगरों की प्रशासनिक इकाई, जो व्यापारियों और शिल्पकारों द्वारा संचालित की जाती थी।
3. ग्राम प्रशासन और पंचायत प्रणाली
प्रत्येक गाँव में एक सभा या महसभा होती थी, जो गाँव की सभी प्रशासनिक गतिविधियों का संचालन करती थी।
पंचायत के सदस्य पेरुमकुली कहलाते थे, जिन्हें चुनाव के माध्यम से चुना जाता था।
चोल काल में प्रशासन में भाग लेने के लिए कठोर योग्यता मापदंड तय किए गए थे, जैसे कि शिक्षा, संपत्ति, आयु और ईमानदारी।
प्रशासनिक कार्यों का विवरण ताम्रपत्रों और शिलालेखों में पाया गया है, जैसे उत्तरमेरूर शिलालेख, जो ग्राम पंचायतों की विस्तृत जानकारी देता है।
4. पंचायत की जिम्मेदारियाँ
चोलकालीन पंचायतें निम्नलिखित कार्यों के लिए उत्तरदायी थीं:
कर वसूली और वित्तीय प्रबंधन – गाँव के राजस्व को एकत्र करना और उसका उचित उपयोग करना।
सिंचाई व्यवस्था – जलाशयों और नहरों का निर्माण और रखरखाव।
न्यायिक कार्य – छोटे-मोटे विवादों का निपटारा।
सड़क, मंदिर और सार्वजनिक भवनों का निर्माण।
सैन्य सहायता – युद्ध के समय राज्य को सैनिक और संसाधन उपलब्ध कराना।
5. निष्कर्ष
चोलों की स्थानीय प्रशासन प्रणाली स्वशासन, विकेंद्रीकरण और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित थी। यह प्रणाली न केवल दक्षिण भारत में प्रभावी रही, बल्कि आगे चलकर भारतीय प्रशासनिक प्रणाली के विकास में भी सहायक बनी। चोल प्रशासन की यह विशेषता इसे अन्य राजवंशों से अलग बनाती है और इसे भारत के सबसे संगठित प्रशासनिक ढाँचों में से एक के रूप में स्थापित करती है।
प्रश्न 06 कुमारगुप्त से संबंधित प्रमुख अभिलेख
उत्तर:
कुमारगुप्त प्रथम (राज्यकाल: 415-455 ई.) गुप्त वंश के एक महत्वपूर्ण शासक थे। उन्होंने अपने शासनकाल में गुप्त साम्राज्य की स्थिरता बनाए रखी और कई अभिलेखों के माध्यम से अपने शासन, विजय, धार्मिक कार्यों और दान-पुण्य का विवरण दिया। उनके शासन से संबंधित प्रमुख अभिलेख निम्नलिखित हैं:
1. मंदसौर अभिलेख (Mandsaur Inscription)
यह अभिलेख मंदसौर, मध्य प्रदेश में पाया गया है।
इसमें कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में दशपुर (वर्तमान मंदसौर) के मालवा क्षेत्र में शैव भक्तों द्वारा एक मंदिर के निर्माण का उल्लेख है।
अभिलेख से पता चलता है कि उनके शासन में स्थिरता और समृद्धि थी।
2. भितरी स्तंभ अभिलेख (Bhitari Pillar Inscription)
यह अभिलेख उत्तर प्रदेश के भितरी (गाजीपुर जिला) में पाया गया है।
इसे स्कंदगुप्त (कुमारगुप्त के पुत्र) ने स्थापित किया था।
इसमें कुमारगुप्त प्रथम को महेंद्रादित्य और परमभागवत कहा गया है, जिससे उनका वैष्णव धर्म के प्रति झुकाव स्पष्ट होता है।
3. कूर्मीय पत्थर लेख (Kūrma Inscription)
यह अभिलेख आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के कूर्मीय गाँव में स्थित है।
इसमें कुमारगुप्त के शासनकाल का उल्लेख मिलता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि गुप्त शासन का प्रभाव दक्षिण भारत तक था।
4. बांसी अभिलेख (Bansi Inscription)
यह उत्तर प्रदेश के बांसी (गोरखपुर) में मिला है।
इसमें कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल का उल्लेख है और उनके धार्मिक कार्यों की जानकारी मिलती है।
5. एरण अभिलेख (Eran Inscription)
यह अभिलेख मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित एरण से प्राप्त हुआ है।
इसमें कुमारगुप्त को "महेंद्रादित्य" की उपाधि दी गई है।
यह अभिलेख गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था और सैन्य शक्ति का संकेत देता है।
6. बुद्धगया अभिलेख (Bodh Gaya Inscription)
यह बिहार के बोधगया में स्थित है।
इसमें कुमारगुप्त के शासनकाल में बौद्ध धर्म से जुड़े निर्माण कार्यों का उल्लेख मिलता है।
7. दमोधरपुर ताम्रपत्र (Damodarpur Copper Plate Inscription)
यह बंगाल क्षेत्र (वर्तमान बांग्लादेश) में मिला है।
इसमें गुप्त प्रशासन, भूमि अनुदान और कर प्रणाली की जानकारी मिलती है।
निष्कर्ष
कुमारगुप्त से संबंधित अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि उनका शासनकाल समृद्ध और स्थिर था। उनके अभिलेख प्रशासन, धार्मिक नीति, सैन्य शक्ति और सांस्कृतिक गतिविधियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।
प्रश्न 07 गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण
उत्तर:
गुप्त साम्राज्य (लगभग 319-550 ई.) को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है, लेकिन 5वीं शताब्दी के अंत और 6वीं शताब्दी के मध्य तक इसका पतन हो गया। गुप्त साम्राज्य के पतन के पीछे कई आंतरिक और बाह्य कारण थे।
1. हूणों के आक्रमण
गुप्त साम्राज्य के पतन का सबसे बड़ा कारण हूणों के लगातार आक्रमण थे।
तोमर (तोरमाण) और मिहिरकुल जैसे हूण शासकों ने उत्तर-पश्चिमी भारत पर आक्रमण किया।
स्कंदगुप्त ने हूणों को पराजित किया, लेकिन ये युद्ध आर्थिक रूप से गुप्त साम्राज्य को कमजोर कर गए।
बाद में, हूणों ने मालवा और राजस्थान जैसे क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया, जिससे गुप्तों की शक्ति घट गई।
2. कमजोर उत्तराधिकारी
चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय जैसे महान शासकों के बाद गुप्तों के शासक कमजोर साबित हुए।
कुमारगुप्त और स्कंदगुप्त के बाद शासन कमजोर होता चला गया।
इनके बाद के शासक प्रशासन और सैन्य शक्ति को बनाए नहीं रख सके।
3. प्रांतीय शासकों की स्वायत्तता
गुप्त प्रशासन विकेंद्रीकरण की ओर बढ़ रहा था।
बड़े-बड़े सामंतों और प्रांतीय शासकों ने धीरे-धीरे स्वतंत्रता घोषित कर दी।
उदाहरण के लिए, मालवा, बंगाल, कन्नौज और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में स्थानीय राजवंश स्वतंत्र हो गए।
4. आर्थिक संकट
हूणों के आक्रमणों और लगातार युद्धों के कारण आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई।
व्यापार और कृषि व्यवस्था प्रभावित हुई।
गुप्तों की स्वर्ण मुद्राओं (गुप्तकालीन सिक्कों) की संख्या में कमी आने लगी, जिससे उनकी आर्थिक कमजोरी का संकेत मिलता है।
5. प्रशासनिक कमजोरी
गुप्त प्रशासन शुरू में मजबूत था, लेकिन बाद में कमजोर होता चला गया।
राजा और प्रशासनिक अधिकारियों की शक्ति कम हो गई।
स्थानीय स्तर पर प्रशासन पर राजा का नियंत्रण कमजोर पड़ गया।
6. बाहरी आक्रमणों की पुनरावृत्ति
हूणों के अलावा, उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में अन्य बाहरी आक्रमणकारियों का प्रभाव बढ़ता गया।
पश्चिमी भारत और मध्य भारत में नई शक्तियाँ उभरने लगीं, जिससे गुप्त साम्राज्य का नियंत्रण घटता गया।
7. धार्मिक और सामाजिक परिवर्तन
गुप्त काल में ब्राह्मण धर्म (हिंदू धर्म) का प्रभाव बढ़ा, जिससे बौद्ध धर्म और जैन धर्म कमजोर हुए।
सामाजिक असमानता और जातीय विभाजन भी बढ़ने लगे, जिससे आंतरिक असंतोष बढ़ा।
निष्कर्ष
गुप्त साम्राज्य का पतन किसी एक कारण से नहीं, बल्कि कई कारणों के संयुक्त प्रभाव से हुआ। हूणों के आक्रमण, कमजोर प्रशासन, आर्थिक समस्याएँ, प्रांतीय शासकों की स्वायत्तता और बाहरी आक्रमणों ने मिलकर इस साम्राज्य को समाप्त कर दिया। 550 ई. के बाद गुप्त साम्राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया और भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया।
प्रश्न 08 विखंडित राज्य (segmentary state)
विखंडित राज्य (Segmentary State) का अर्थ
विखंडित राज्य एक ऐसी शासन व्यवस्था को कहा जाता है, जिसमें केंद्रीय सत्ता बहुत मजबूत नहीं होती, बल्कि शासन कई स्तरों में विभाजित रहता है। इस प्रणाली में शासक का नियंत्रण पूरे राज्य पर समान रूप से नहीं होता, बल्कि कुछ क्षेत्र स्वायत्तता या अर्ध-स्वायत्तता का आनंद लेते हैं।
विखंडित राज्य की विशेषताएँ
केंद्र की सीमित शक्ति – राजा की शक्ति पूरे राज्य पर समान रूप से लागू नहीं होती थी, बल्कि स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय शासकों की अधिक स्वायत्तता होती थी।
स्थानीय प्रशासन का प्रभाव – प्रशासनिक कार्यों में स्थानीय सरदारों, मुखियाओं और सामंतों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी।
राजस्व और कर प्रणाली – राजा को कर की प्राप्ति विभिन्न स्तरों पर स्थानीय शासकों के माध्यम से होती थी, जो कर का एक भाग केंद्र को देते थे।
सामंती संरचना – क्षेत्रीय शासक (सामंत) राजा के अधीन होते थे, लेकिन वे अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से शासन करते थे।
सांस्कृतिक और धार्मिक स्वायत्तता – स्थानीय क्षेत्रों में अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएँ बनी रहती थीं, क्योंकि राजा इन मामलों में हस्तक्षेप कम करता था।
सैन्य संगठन – राजा की केंद्रीय सेना के साथ-साथ स्थानीय शासकों की अपनी सेनाएँ भी होती थीं, जिन्हें युद्ध के समय राजा को सहायता देनी पड़ती थी।
भारत में विखंडित राज्य का उदाहरण
चोल प्रशासन – दक्षिण भारत में चोल शासन को विखंडित राज्य की अवधारणा के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ स्थानीय ग्राम सभाओं और मंदिरों को प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका प्राप्त थी।
गुप्त काल के बाद का भारत – गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद, भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया, जहाँ क्षेत्रीय शासकों की शक्ति अधिक थी और केंद्रीय सत्ता कमजोर हो गई थी।
राजपूत काल (7वीं से 12वीं शताब्दी) – इस काल में कई स्वतंत्र या अर्ध-स्वतंत्र राजपूत राज्य उभरे, जहाँ राजा एक सर्वोच्च शासक होते हुए भी क्षेत्रीय सरदारों पर पूरी तरह नियंत्रण नहीं रख पाता था।
निष्कर्ष
विखंडित राज्य की अवधारणा यह दिखाती है कि मध्यकालीन भारत में शासन प्रणाली पूरी तरह केंद्रीकृत नहीं थी, बल्कि विभिन्न स्तरों पर स्वायत्त प्रशासनिक इकाइयाँ कार्य कर रही थीं। यह प्रणाली भारतीय इतिहास के कई कालखंडों में देखी जा सकती है, विशेष रूप से गुप्त काल के बाद और मध्यकालीन दक्षिण भारत में।
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