BAHI(N) 202
प्रश्न: 01 . मुग़ल काल के संस्कृत और हिंदी स्रोतों पर विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
मुग़ल काल (1526-1857) भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण युग था, जिसमें न केवल राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियाँ विकसित हुईं, बल्कि साहित्य, कला, संस्कृति और इतिहासलेखन के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान हुआ। यद्यपि मुग़ल शासन की प्रशासनिक भाषा फ़ारसी थी, फिर भी इस काल में संस्कृत और हिंदी में भी पर्याप्त साहित्य रचा गया, जो उस समय की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक झलक प्रस्तुत करता है।
1. संस्कृत स्रोत:
संस्कृत, यद्यपि इस काल में शासकीय भाषा नहीं थी, फिर भी धार्मिक, दार्शनिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में इसका व्यापक प्रयोग होता रहा। मुग़ल शासकों, विशेषकर अकबर और शाहजहाँ के शासनकाल में संस्कृत विद्वानों को संरक्षण मिला।
-
अकबर का संरक्षण: अकबर के दरबार में पंडितों को आमंत्रित किया गया। उन्होंने महाभारत का फ़ारसी अनुवाद ‘राजा बीरबल’ और अन्य विद्वानों की सहायता से ‘रज़्मनामा’ के नाम से कराया। इसके लिए संस्कृत मूल ग्रंथ का अध्ययन आवश्यक था।
-
महत्त्वपूर्ण संस्कृत रचनाएँ:
-
महाकाव्य और नाटक: इस काल में जगन्नाथ पंडित जैसे विद्वानों ने संस्कृत में महत्त्वपूर्ण रचनाएँ कीं।
-
धार्मिक ग्रंथ: वेद, उपनिषद, गीता आदि की व्याख्याएँ और टीकाएँ भी इस काल में लिखी गईं।
-
दर्शन और व्याकरण: नव्य-न्याय, मीमांसा, और संस्कृत व्याकरण पर अनेक ग्रंथों की रचना हुई।
-
2. हिंदी स्रोत:
हिंदी साहित्य का यह काल ‘रीति काल’ और ‘भक्ति काल’ के रूप में विभाजित किया जाता है। मुग़ल काल में हिंदी में कई महत्त्वपूर्ण काव्य और गद्य रचनाएँ हुईं।
-
भक्ति आंदोलन: संत कवि जैसे तुलसीदास, सूरदास, मीरा बाई, रैदास आदि ने हिंदी को भक्तिपूर्ण साहित्य से समृद्ध किया। इनकी रचनाओं में मुग़ल समाज, धर्म, जातिवाद, नैतिकता आदि का चित्रण मिलता है।
-
तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है जो तत्कालीन समाज का चित्र प्रस्तुत करती है।
-
सूरदास की रचनाएँ ब्रजभाषा में थीं और उन्होंने भगवान कृष्ण की लीलाओं को केंद्र में रखा।
-
-
रीति कालीन काव्य: मुग़ल दरबारों में ब्रजभाषा के कवियों को संरक्षण मिला। कवियों जैसे केशवदास, बिहारी, कविंद्राचार्य ने दरबारी रीति काव्य की रचना की, जिसमें श्रृंगार रस प्रधान था।
-
ऐतिहासिक और समाजिक दृष्टिकोण से उपयोगी ग्रंथ:
-
हिंदी में लिखे गए चरित, नीतिशास्त्र, और समाजिक विषयों पर आधारित रचनाएँ भी इस काल में मिलती हैं।
-
3. ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्व:
-
संस्कृत और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखे गए स्रोत तत्कालीन भारतीय समाज, धर्म, संस्कृति और भाषा के बारे में मूल्यवान जानकारी देते हैं।
-
ये स्रोत मुग़ल शासन की धार्मिक सहिष्णुता, लोक संस्कृति, और साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने में सहायक हैं।
निष्कर्ष:
संक्षेप में, मुग़ल काल में संस्कृत और हिंदी साहित्य का योगदान बहुआयामी रहा। संस्कृत जहाँ धार्मिक और दार्शनिक विमर्श का माध्यम बनी, वहीं हिंदी ने जनमानस से जुड़कर सामाजिक, धार्मिक और भावनात्मक अभिव्यक्तियों को सजीव रूप में प्रस्तुत किया। इन स्रोतों का ऐतिहासिक अध्ययन हमें मुग़ल काल के भारतीय समाज की गहराई से समझ प्रदान करता है।
प्रश्न:02. अकबर के काल के प्रमुख फ़ारसी स्रोतों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
अकबर (1556–1605) का शासनकाल मुग़ल काल का स्वर्ण युग माना जाता है। इस काल में न केवल राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से प्रगति हुई, बल्कि साहित्य, इतिहास और संस्कृति के क्षेत्र में भी गहरा विकास हुआ। अकबर ने फ़ारसी भाषा को शाही दरबार की भाषा के रूप में अपनाया और अनेक विद्वानों, लेखकों व इतिहासकारों को संरक्षण दिया। फलस्वरूप, अकबर के समय में कई महत्त्वपूर्ण फ़ारसी स्रोतों की रचना हुई, जो इतिहास के अध्ययन के लिए अत्यंत उपयोगी हैं।
1. अकबरनामा और आइने-अकबरी – अबुल फ़ज़ल द्वारा
-
लेखक: अबुल फ़ज़ल, अकबर के नवरत्नों में से एक, विद्वान और दरबारी इतिहासकार थे।
-
रचना:
-
अकबरनामा – यह तीन खंडों में विभाजित ग्रंथ है, जिसमें पहले दो खंड अकबर के पूर्वजों और अकबर के प्रारंभिक जीवन व शासन का वर्णन करते हैं।
-
आइने-अकबरी – इसका तीसरा खंड है, जिसमें अकबर के प्रशासनिक ढांचे, राजस्व व्यवस्था, सेना, धर्म, शिक्षा, भूगोल, जनसंख्या, कृषि, आदि का विवरण मिलता है।
-
-
महत्त्व: यह अकबर के शासन की आंतरिक संरचना और समग्र सामाजिक स्थिति का विस्तृत चित्र प्रस्तुत करता है। यह एक प्रकार का प्रशासनिक दस्तावेज़ भी है।
2. तुज़ुक-ए-जहाँगीरी (यद्यपि जहांगीर का ग्रंथ है, परंतु अकबर के काल से जुड़ी घटनाएँ)
-
संबंधित कारण: इस ग्रंथ में जहाँगीर ने अकबर के शासनकाल की कई घटनाओं का उल्लेख किया है, जिससे हमें उस समय की नीतियों और व्यक्तिगत संबंधों की जानकारी मिलती है।
3. मुन्तख़ब-उत-तवारीख – बदायूनी द्वारा
-
लेखक: अब्दुल कादिर बदायूनी, एक कट्टर सुन्नी विचारधारा से जुड़े विद्वान थे और अकबर के धार्मिक उदारवाद के आलोचक थे।
-
रचना: यह ग्रंथ तीन भागों में है – इसमें पहले भाग में पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों का वर्णन, दूसरे में अकबर का शासन और तीसरे में प्रमुख सूफियों व संतों का वर्णन है।
-
महत्त्व: बदायूनी अकबर की दीन-ए-इलाही और धार्मिक सहिष्णुता की नीतियों की आलोचना करते हैं, जिससे हमें अकबर की धार्मिक नीति के प्रति समकालीन विरोधी दृष्टिकोण की जानकारी मिलती है।
4. तारीख-ए-अल्फी – कई लेखकों द्वारा
-
प्रस्तावना: यह ग्रंथ अकबर के आदेश पर लिखा गया, जिसमें हिजरी वर्ष 1 से 1000 (622–1591 ई.) तक के इस्लामिक इतिहास को समाहित किया गया।
-
लेखक: मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका सहित कई विद्वानों ने मिलकर इसे लिखा।
-
महत्त्व: यह ग्रंथ अकबर के समय के इतिहासलेखन की व्यापकता और विचारधारा को दर्शाता है।
5. तवारीख-ए-रस़ीदी – मिर्ज़ा हैदर दुग़लत द्वारा
-
यद्यपि यह ग्रंथ अकबर से पहले लिखा गया, लेकिन इसमें मुग़लों के उद्भव और भारत में उनके आगमन का उल्लेख है, जो अकबर के काल के इतिहास को समझने में सहायक है।
निष्कर्ष:
अकबर के काल के फ़ारसी स्रोत न केवल शाही दरबार और प्रशासन की गहराई को उजागर करते हैं, बल्कि उस युग की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को भी स्पष्ट करते हैं। अबुल फ़ज़ल का अकबरनामा और आइने-अकबरी सर्वाधिक प्रमाणिक और विस्तृत स्रोत हैं, जबकि बदायूनी का मुन्तख़ब-उत-तवारीख अकबर की नीतियों के आलोचक की दृष्टि से मूल्यवान है। ये सभी ग्रंथ अकबर के शासन की समग्र समझ प्रदान करते हैं।
प्रश्न:03. हुमायूं के पतन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
हुमायूं (1530–1556 ई.) बाबर का उत्तराधिकारी था, जिसने मुग़ल साम्राज्य की बागडोर संभाली। वह बुद्धिमान, सभ्य और कला-प्रेमी शासक था, किंतु प्रशासनिक दृष्टि से कमजोर और परिस्थितियों का सही मूल्यांकन न कर पाने के कारण वह अपने शासन को स्थिर नहीं रख सका। उसके शासनकाल में अफगान नेता शेरशाह सूरी के हाथों उसकी पराजय और देश से निर्वासन ने उसके शासन के पतन की भूमिका तय की।
1. हुमायूं के पतन के प्रमुख कारण:
(क) कमजोर नेतृत्व क्षमता:
-
हुमायूं में बाबर जैसी संगठन शक्ति और दृढ़ संकल्प की कमी थी।
-
वह निर्णय लेने में अस्थिर और विलंबकारी था, जिससे राजनीतिक और सैन्य अवसर उसके हाथ से निकल गए।
(ख) भाइयों से असहमति और विद्रोह:
-
हुमायूं के तीनों भाई – कामरान, हिंदाल और अस्करी – उसके प्रति वफादार नहीं थे।
-
उन्होंने समय-समय पर विद्रोह किया और शेरशाह से हुमायूं के खिलाफ समझौते किए।
(ग) शेरशाह सूरी का उत्थान:
-
शेरशाह एक योग्य, परिश्रमी और दूरदर्शी अफगान नेता था।
-
उसने बिहार और बंगाल पर अधिकार कर लिया और मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की।
-
1539 ई. में चौसा और 1540 ई. में कन्नौज की लड़ाइयों में शेरशाह ने हुमायूं को हराया।
(घ) युद्धनीति और सैन्य व्यवस्था में कमजोरी:
-
हुमायूं की सेना अनुशासनहीन थी और उसकी युद्धनीति भ्रमित थी।
-
शेरशाह की सेना संगठित और रणनीतिक दृष्टि से श्रेष्ठ थी।
(ङ) धार्मिक व व्यक्तिगत प्रवृत्तियाँ:
-
हुमायूं ज्योतिष, खगोलशास्त्र और अफीम सेवन में अधिक रुचि रखता था।
-
उसके निर्णय अक्सर ज्योतिषीय विचारों पर आधारित होते थे, जिससे प्रशासनिक कार्यों में बाधा आई।
(च) बंगाल अभियान की असफलता:
-
हुमायूं ने बंगाल के शासक महमूद लोदी के विरुद्ध अभियान छेड़ा, लेकिन वहाँ अधिक समय व्यतीत किया और पीछे से शेरशाह ने अपनी शक्ति बढ़ा ली।
2. पतन की परिणति:
1540 ई. में कन्नौज की लड़ाई के बाद हुमायूं को भारत छोड़कर सिंध, फिर कंधार, फारस और बाद में अफगानिस्तान जाना पड़ा। लगभग 15 वर्षों तक वह निर्वासन में रहा। अंततः 1555 ई. में उसने शेरशाह के उत्तराधिकारियों से लड़कर दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया, किंतु 1556 में सीढ़ियों से गिरकर उसकी मृत्यु हो गई।
3. ऐतिहासिक मूल्यांकन:
-
हुमायूं एक सहृदय और उदार शासक था, किंतु एक सफल सम्राट नहीं।
-
उसके पतन का कारण केवल बाहरी आक्रमण नहीं, बल्कि आंतरिक विघटन, प्रशासनिक अक्षमता और व्यक्तिगत कमज़ोरियाँ भी थीं।
निष्कर्ष:
हुमायूं का पतन उसकी व्यक्तिगत कमजोरियों, परिवारिक कलह, शेरशाह की योग्यता और सैन्य असफलताओं का परिणाम था। वह एक अच्छे इंसान थे, लेकिन उनके भीतर सफल शासक बनने की आवश्यक राजनीतिक चातुर्य और संगठन क्षमता का अभाव था। उसका पतन एक सबक है कि साम्राज्य को केवल उत्तराधिकार से नहीं, बल्कि बुद्धिमत्ता, दृढ़ता और राजनीतिक कुशलता से बचाया जा सकता है।
प्रश्न:04. शेरशाह सूरी की प्रशासनिक व्यवस्था पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
शेरशाह सूरी (1540–1545 ई.) भारतीय इतिहास के महान प्रशासकों में से एक था। वह अफगान मूल का शासक था, जिसने हुमायूं को हराकर दिल्ली की गद्दी पर अधिकार किया और एक संगठित, न्यायपूर्ण तथा सुव्यवस्थित प्रशासनिक प्रणाली की नींव रखी। यद्यपि उसका शासनकाल मात्र पाँच वर्षों का था, किंतु उसकी प्रशासनिक व्यवस्था इतनी प्रभावशाली थी कि बाद में मुग़ल सम्राट अकबर ने भी अनेक सुधारों को अपनाया।
1. केन्द्रीय प्रशासन:
-
शेरशाह स्वयं प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी था। उसने सुलतान को राज्य का रक्षक और न्याय का आधार माना।
-
प्रशासन को केंद्रीय, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर विभाजित किया गया था।
-
महत्वपूर्ण मंत्री:
-
वज़ीर: वित्त और राजस्व का प्रमुख।
-
दीवान-ए-रियासत: राजस्व विभाग का प्रमुख अधिकारी।
-
मीर बख्शी: सेना प्रमुख।
-
मुख्तसिब: नैतिकता और धार्मिक कर्तव्यों की देखरेख।
-
2. प्रांतीय प्रशासन:
-
राज्य को सरकारों (प्रांतों) में विभाजित किया गया था।
-
प्रत्येक सरकार के प्रमुख को शिकदार कहा जाता था।
-
सरकारें परगनों में विभाजित थीं, जिनके प्रमुख अमीन (राजस्व अधिकारी) और मुखिया (स्थानीय अधिकारी) थे।
3. राजस्व व्यवस्था:
-
शेरशाह की राजस्व व्यवस्था उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है।
-
भूमि की पैमाइश और उपज के आधार पर कर निर्धारण किया गया, जिसे जरीब (मापदंड) प्रणाली कहते हैं।
-
भूमि को तीन भागों में बाँटा गया – अच्छी, मध्यम और खराब।
-
किसानों से सीधे कर वसूला जाता था, जिसमें बिचौलियों की भूमिका समाप्त कर दी गई।
-
नकद कर संग्रह की व्यवस्था की गई, जिससे सरकारी खजाने में स्थिरता आई।
4. न्याय व्यवस्था:
-
शेरशाह ने न्याय को शासन का मूल स्तंभ माना।
-
हर स्तर पर न्यायालय स्थापित किए गए – केन्द्रीय, प्रांतीय और ग्राम स्तर तक।
-
अपराधियों के लिए कठोर दंड निर्धारित थे।
-
हिन्दू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग कानूनों की व्यवस्था थी।
5. सैन्य व्यवस्था:
-
प्रत्यक्ष नियंत्रण प्रणाली: शेरशाह ने सेनानायकों के माध्यम से नहीं, बल्कि राज्य द्वारा सैनिकों की भर्ती और भुगतान की व्यवस्था की।
-
सेना का दाखिल-ए-रजिस्टर (रजिस्ट्रेशन) किया जाता था और प्रत्येक घोड़े की पहचान हेतु दग़ (चिन्ह) और सैनिकों की पहचान हेतु हुलिया तैयार किया जाता था।
-
यह प्रणाली बाद में अकबर की मंसबदारी व्यवस्था का आधार बनी।
6. सड़कों और संचार व्यवस्था:
-
शेरशाह ने अनेक सड़कों का निर्माण कराया, जिनमें सबसे प्रसिद्ध सड़क-ए-आज़म (आज की ग्रैंड ट्रंक रोड) है, जो बंगाल से पंजाब तक जाती थी।
-
सड़कों के किनारे सरायें (धर्मशालाएँ), कुएँ और वृक्ष लगवाए गए।
-
डाक व्यवस्था के लिए हर दो कोस पर घोड़ा डाक और हवालदार नियुक्त किए गए।
7. मुद्रा व्यवस्था:
-
शेरशाह ने एक मजबूत और सुव्यवस्थित मुद्रा प्रणाली की शुरुआत की।
-
उसने चाँदी का सिक्का "रुपया" नाम से जारी किया, जिसका भार लगभग 178 ग्रेन था।
-
यह रुपया आगे चलकर भारत की मौद्रिक प्रणाली का आधार बना।
निष्कर्ष:
शेरशाह सूरी की प्रशासनिक व्यवस्था एक सुविचारित, न्यायपूर्ण और कुशल शासन प्रणाली थी। उसकी भूमि व्यवस्था, सैन्य सुधार, सड़क निर्माण और मुद्रा प्रणाली इतने सुदृढ़ थे कि मुग़ल काल में भी इन्हें अपनाया गया। वह केवल एक विजेता नहीं, बल्कि एक कुशल प्रशासक था, जिसकी योजनाएँ भारतीय प्रशासनिक इतिहास में स्थायी प्रभाव छोड़ गईं। उसकी नीतियाँ आधुनिक प्रशासनिक ढाँचे की नींव कही जा सकती हैं।
प्रश्न 05: शेरशाह सूरी द्वारा लड़े गए युद्धों के बारे में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शेरशाह सूरी (1472–1545 ई.) भारतीय इतिहास का एक महान योद्धा और कुशल प्रशासक था। उसका मूल नाम फरीद था। हुमायूं को पराजित कर दिल्ली की गद्दी पर अधिकार करने के लिए उसने कई युद्ध किए। इसके अतिरिक्त, उसने अपने शासनकाल में अनेक युद्धों के माध्यम से भारत के बड़े भूभाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसके द्वारा लड़े गए युद्धों में उसकी सैन्य कुशलता, रणनीतिक योग्यता और नेतृत्व क्षमता स्पष्ट दिखाई देती है।
1. हुमायूं के विरुद्ध युद्ध
(क) चौसा का युद्ध (1539 ई.):
-
यह युद्ध बंगाल के निकट स्थित चौसा नामक स्थान पर हुआ था।
-
शेरशाह ने चतुराई से हुमायूं की सेना को पराजित किया।
-
इस युद्ध के बाद शेरशाह ने "शेरशाह" की उपाधि धारण की और अपने नाम से सिक्के जारी किए।
-
हुमायूं युद्ध में घायल होकर किसी तरह भाग निकला।
(ख) कन्नौज का युद्ध (1540 ई.):
-
यह युद्ध उत्तर प्रदेश के कन्नौज में हुआ।
-
हुमायूं की निर्णायक हार हुई और वह भारत छोड़कर फारस भाग गया।
-
इस युद्ध के बाद शेरशाह दिल्ली का शासक बन गया और सूरी वंश की स्थापना की।
2. अफगानों एवं स्थानीय राजाओं के विरुद्ध युद्ध
(क) बंगाल अभियान:
-
शेरशाह ने बंगाल के शासक महमूद शाह को पराजित कर पूरे बंगाल पर अधिकार किया।
-
उसने बंगाल में प्रशासनिक सुधार लागू किए और विद्रोहियों को शांत किया।
(ख) रोहतासगढ़ किला अभियान:
-
बिहार का यह किला सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था।
-
शेरशाह ने चालाकी से इसे कब्जे में लिया और अपने प्रशासन का विस्तार किया।
3. राजपूतों के विरुद्ध युद्ध
(क) रायसीन युद्ध (1543 ई.):
-
मध्यप्रदेश के रायसीन के राजपूत शासक पुरंदरदास ने शेरशाह का विरोध किया।
-
शेरशाह ने उन्हें पराजित कर रायसीन को अपने अधीन कर लिया।
(ख) मारवाड़ अभियान – राव मालदेव से संघर्ष (1544 ई.):
-
मारवाड़ (जोधपुर) के शासक राव मालदेव एक शक्तिशाली राजपूत राजा थे।
-
शेरशाह ने युद्ध में जीत हासिल की और कहा —
"मैं दो मुट्ठी बाजरे के लिए हिंदुस्तान की सल्तनत खो बैठा होता!" -
इससे शेरशाह की उस युद्ध में कठिनाई और राव मालदेव की वीरता का पता चलता है।
4. कालिंजर युद्ध और शेरशाह की मृत्यु (1545 ई.):
-
कालिंजर का किला बुंदेलखंड क्षेत्र में था और वहां के शासक राजा कीर्ति सिंह ने अधीनता स्वीकार नहीं की थी।
-
शेरशाह ने किले पर आक्रमण किया और विजयी हुआ, परंतु युद्ध के दौरान तोप का गोला उसके बारूद के भंडार में गिर गया।
-
विस्फोट में शेरशाह बुरी तरह जल गया और उसकी मृत्यु हो गई।
निष्कर्ष:
शेरशाह ने अपने अल्पकालीन शासन (1540–1545 ई.) में अनेक युद्ध लड़े और भारत के विशाल क्षेत्र को अपने अधीन किया। उसके युद्धों में उसकी रणनीतिक कुशलता, साहस और दृढ़ता झलकती है। वह केवल एक विजेता नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी शासक भी था। उसके युद्धों ने न केवल मुग़ल साम्राज्य को चुनौती दी, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक परिदृश्य को भी परिवर्तित कर दिया।
प्रश्न 06: अकबर की धार्मिक नीति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अकबर (1556–1605 ई.) मुग़ल साम्राज्य का महानतम सम्राट था, जो न केवल एक कुशल प्रशासक और सेनानायक था, बल्कि उसकी धार्मिक नीति भी उसकी महानता का प्रमाण है। अकबर की धार्मिक नीति सहिष्णुता, उदारता और धार्मिक समन्वय पर आधारित थी। उसने हिंदू-मुस्लिम संबंधों को सुधारने, समाज में सौहार्द स्थापित करने और राज्य की एकता को मजबूत करने के लिए एक उदार एवं धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाया।
1. धार्मिक सहिष्णुता की नीति (Policy of Religious Tolerance)
अकबर ने सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता और सम्मान की नीति अपनाई। वह किसी भी धर्म के अनुयायी के साथ भेदभाव नहीं करता था। उसने यह समझा कि एक बहुधार्मिक समाज में स्थायी शासन केवल सहिष्णुता से ही संभव है।
2. जजिया कर का उन्मूलन
-
1564 ई. में अकबर ने गैर-मुस्लिमों पर लगाए जाने वाले जजिया कर को समाप्त कर दिया।
-
यह निर्णय हिंदुओं के प्रति उसकी उदार नीति का प्रमाण था, जिससे उसने उनके दिलों में विश्वास अर्जित किया।
3. हिंदुओं के साथ वैवाहिक संबंध
-
अकबर ने हिंदू राजकुमारियों से विवाह कर हिंदू राजाओं से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए।
-
उसका विवाह आमेर (जयपुर) के राजा भारमल की पुत्री हीरकुंवरी (जो बाद में जोधा बाई के नाम से प्रसिद्ध हुई) से हुआ।
-
इससे राजपूतों में उसका समर्थन बढ़ा और साम्राज्य की नींव मजबूत हुई।
4. इबादतखाना की स्थापना (1575 ई.)
-
अकबर ने फतेहपुर सीकरी में एक धार्मिक सभा स्थल की स्थापना की जिसे इबादतखाना कहा गया।
-
इसमें विभिन्न धर्मों – इस्लाम, हिंदू, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई धर्मों के विद्वानों को बुलाकर धर्म संबंधी चर्चाएँ करवाई जाती थीं।
-
इससे अकबर को सभी धर्मों की गहरी समझ प्राप्त हुई।
5. महज़-ए-इलाही (दीन-ए-इलाही) की स्थापना (1582 ई.)
-
अकबर ने सभी धर्मों की अच्छी बातों को मिलाकर दीन-ए-इलाही नामक एक नया धार्मिक विचार प्रस्तुत किया।
-
यह धर्म एक नैतिक जीवन जीने, ईश्वर में विश्वास रखने, संयम, दया, और समर्पण पर आधारित था।
-
यह कोई व्यापक जनधर्म नहीं बना, परंतु यह अकबर की धर्म-समन्वय की सोच का प्रतीक है।
6. उलेमाओं की शक्ति का ह्रास
-
अकबर ने धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध कार्य किया।
-
उसने उलेमाओं की धार्मिक सत्ता को कम कर दिया और खुद को "पादशाह" के साथ-साथ "धार्मिक प्रमुख" भी घोषित किया।
-
1579 ई. में "इन्फालिबल डिक्री" (महज़र) की घोषणा की, जिससे धार्मिक मामलों में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार अकबर को मिला।
7. अन्य धर्मों के प्रति सम्मान
-
अकबर ने हिंदू मंदिरों को संरक्षण दिया और उन्हें करों से मुक्त किया।
-
उसने जैन मुनियों और पारसी विद्वानों को दरबार में सम्मान दिया।
-
ईसाई पादरियों को भी आमंत्रित किया और उनके धर्मग्रंथों का अध्ययन किया।
निष्कर्ष:
अकबर की धार्मिक नीति भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी। उसकी नीति केवल उदारता तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह एक दूरदर्शी राजा की सोच थी, जो एक बहुजातीय और बहुधार्मिक समाज में स्थायी एकता लाने की दिशा में कार्य कर रही थी। अकबर की धार्मिक सहिष्णुता, विवेक और समन्वय की भावना ने न केवल मुग़ल साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान किया, बल्कि भारतीय संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता की नींव भी मजबूत की। अतः, अकबर की धार्मिक नीति को "सर्वधर्म समभाव" की उत्कृष्ट मिसाल माना जा सकता है।
प्रश्न:07. अकबर की राजपूत नीति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
अकबर की राजपूत नीति उसके राजनीतिक कौशल, दूरदर्शिता और प्रशासनिक विवेक का एक अद्भुत उदाहरण है। उसने समझा कि यदि मुग़ल साम्राज्य को स्थायित्व देना है तो उसे भारत की प्रमुख योद्धा जाति — राजपूतों को अपने साथ मिलाना होगा। राजपूतों के सहयोग से न केवल उसने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि एक सशक्त और संगठित प्रशासनिक व्यवस्था भी स्थापित की।
1. राजपूतों से मैत्रीपूर्ण संबंध
अकबर ने राजपूतों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने हेतु युद्ध की अपेक्षा संधि और विवाह को प्राथमिकता दी। इससे उसने उनके मन में विश्वास उत्पन्न किया।
2. राजपूतों से वैवाहिक संबंध
-
अकबर ने आमेर (जयपुर) के राजा भारमल की पुत्री हीरकुंवरी (जोधाबाई) से विवाह किया।
-
इसके बाद आमेर, बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, ओरछा आदि कई राज्यों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए।
-
इन संबंधों ने राजनीतिक स्तर पर स्थायित्व और विश्वास का वातावरण बनाया।
3. राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्ति
-
अकबर ने राजपूतों को मुग़ल प्रशासन में महत्वपूर्ण स्थान दिए।
-
आमेर के राजा मान सिंह को सूबेदार, सेनापति और नवरत्नों में शामिल किया गया।
-
राजा भगवंत दास, राजा तोदरमल, आदि अनेक राजपूत उच्च पदों पर नियुक्त हुए।
-
यह अकबर की समावेशी नीति का हिस्सा था, जिससे उसने हिंदू-मुस्लिम एकता को बल दिया।
4. स्वतंत्रता और सम्मान की नीति
-
जो राजपूत उसकी अधीनता स्वीकार करते थे, उन्हें अपने राज्य का स्वशासन और परंपराएं बनाए रखने की अनुमति थी।
-
उन्होंने अकबर की संप्रभुता स्वीकार की, लेकिन उन्हें पर्याप्त स्वायत्तता भी दी गई।
-
इससे राजपूतों को अपमानित नहीं होना पड़ा और वे स्वयं को मुग़ल सत्ता का हिस्सा समझने लगे।
5. जिन राजपूतों ने विरोध किया
कुछ राजपूत राज्यों ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इंकार किया, जैसे:
-
मेवाड़ (चित्तौड़) के राणा उदय सिंह और उनके पुत्र राणा प्रताप।
-
अकबर ने 1568 ई. में चित्तौड़गढ़ पर विजय प्राप्त की, परंतु राणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध (1576 ई.) में वीरतापूर्वक संघर्ष किया।
-
हालांकि यह युद्ध अकबर की विजय के रूप में देखा जाता है, लेकिन राणा प्रताप की स्वतंत्रता की भावना को भी सम्मान मिला।
6. राजपूतों से एकता और साम्राज्य विस्तार
-
राजपूतों के सहयोग से अकबर ने गुजरात, बंगाल, काबुल, कश्मीर, सिंध, और दक्कन तक साम्राज्य का विस्तार किया।
-
ये युद्ध राजपूत सेनानायकों के सहयोग से ही सफल हुए।
निष्कर्ष:
अकबर की राजपूत नीति उसकी दूरदर्शिता और कूटनीति का प्रतीक है। उसने तलवार की अपेक्षा संबंधों और सम्मान को महत्व दिया, जिससे राजपूत मुग़ल सत्ता का अभिन्न अंग बन गए। इससे न केवल साम्राज्य का क्षेत्र बढ़ा, बल्कि एक सशक्त और स्थायी प्रशासनिक ढांचा भी तैयार हुआ। अकबर की यह नीति हिंदू-मुस्लिम एकता, धार्मिक सहिष्णुता और राजनीतिक समरसता की दृष्टि से भारतीय इतिहास में एक आदर्श मानी जाती है।
प्रश्न: 08. दीन-ए-इलाही का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
दीन-ए-इलाही मुग़ल सम्राट अकबर द्वारा 1582 ई. में स्थापित एक धार्मिक-सामाजिक पंथ था। इसका उद्देश्य विभिन्न धर्मों की श्रेष्ठ बातों को एकत्रित कर एक ऐसा नैतिक मार्ग प्रस्तुत करना था जो धार्मिक सहिष्णुता और मानवता के मूल्यों को बढ़ावा दे सके। यद्यपि अकबर ने इसे एक धर्म न कहकर एक नैतिक व्यवस्था कहा, फिर भी इतिहास में इसे एक नवीन धर्म के रूप में देखा गया है। इस पर समय-समय पर कई आलोचनाएँ भी हुई हैं।
1. दीन-ए-इलाही की प्रमुख विशेषताएँ
-
यह किसी ग्रंथ, पूजा-पद्धति या मंदिर पर आधारित नहीं था।
-
इसमें हिंदू, इस्लाम, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई धर्म की अच्छी बातों को सम्मिलित किया गया।
-
ईश्वर में विश्वास, अहिंसा, सत्य, संयम, उदारता, त्याग, और समर्पण इसके मूल तत्व थे।
-
अनुयायियों को रोज़ाना सूर्य को प्रणाम करना, राजा के चरणों पर झुकना और मासाहार छोड़ना अनिवार्य था।
-
इसमें "अल्लाहो अकबर" (ईश्वर महान है) को प्रमुख मंत्र माना गया।
2. दीन-ए-इलाही की उपलब्धियाँ
-
यह एकता और धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक बना।
-
धार्मिक मतभेदों को मिटाने और साम्राज्य में स्थायित्व लाने के उद्देश्य से यह प्रयास सराहनीय था।
-
इसने अकबर की उदार सोच और मानवतावादी दृष्टिकोण को दर्शाया।
3. दीन-ए-इलाही की आलोचना
(क) सीमित प्रभाव
-
दीन-ए-इलाही का प्रभाव बहुत सीमित था।
-
सम्राट के निकटस्थ कुछ दरबारी जैसे बीरबल ही इसके सदस्य बने।
-
आम जनता और धर्मगुरुओं ने इसे स्वीकार नहीं किया।
(ख) धार्मिक कट्टरपंथियों का विरोध
-
मुस्लिम उलेमा और हिंदू पंडित दोनों ने इसे धार्मिक मूल्यों का अपमान माना।
-
इसे इस्लाम विरोधी और “कुफ्र” तक कहा गया।
(ग) जनता में लोकप्रियता का अभाव
-
जनता का इस नए विचार में विश्वास नहीं जमा।
-
चूँकि यह कर्मकांड, तीर्थ, या पूजा-पद्धति से रहित था, इसलिए आम जनमानस इससे जुड़ नहीं पाया।
(घ) व्यक्तिगत प्रयास का सीमित दायरा
-
यह अकबर की व्यक्तिगत सोच और प्रयास था।
-
उसके उत्तराधिकारी जहाँगीर और शाहजहाँ ने इसका कोई समर्थन नहीं किया, जिससे यह अकबर की मृत्यु के साथ समाप्त हो गया।
(ङ) राजनीति बनाम धर्म
-
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह अकबर की सत्ता को धार्मिक मान्यता दिलाने का प्रयास था।
-
उसने अपने निर्णयों को धार्मिक अधिकार देकर उलेमाओं की शक्ति को कम करना चाहा।
4. समकालीन आलोचना
-
अबुल फज़ल जैसे दरबारी इसे “रूहानी आदेश” कहते हैं, लेकिन
-
बदायूँनी जैसे समकालीन इतिहासकारों ने इसे “गैर-इस्लामी विचारधारा” कहकर निंदा की।
निष्कर्ष:
दीन-ए-इलाही अकबर के धार्मिक सहिष्णुता और एकता के प्रयासों का प्रतीक था। यह उस समय की धार्मिक कट्टरता को तोड़ने की दिशा में एक साहसिक पहल थी। परंतु यह न तो एक जन-आंदोलन बन सका और न ही कोई संगठित धर्म। इसके सीमित प्रभाव और कट्टरपंथियों के विरोध के कारण यह अल्पकालिक रहा। फिर भी, यह भारत के इतिहास में धर्म-निरपेक्ष सोच और सामाजिक समरसता की दिशा में एक महत्वपूर्ण अध्याय है।
प्रश्न: 09. औरंगज़ेब की दक्षिण नीति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
औरंगज़ेब की दक्षिण नीति (Dakshin Neeti) मुगल साम्राज्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इस नीति का मुख्य उद्देश्य दक्षिण भारत के स्वतंत्र और शक्तिशाली राज्यों को मुगल साम्राज्य के अधीन लाना था। यह नीति औरंगज़ेब के शासनकाल (1658-1707) के अंतिम वर्षों में विशेष रूप से सक्रिय रही।
1. दक्षिण नीति के प्रमुख उद्देश्य:
-
शिवाजी और मराठों को नियंत्रित करना:
मराठा शक्ति, विशेषकर शिवाजी के नेतृत्व में, तेजी से उभर रही थी। औरंगज़ेब ने उन्हें रोकने का प्रयास किया। -
बीजापुर और गोलकुंडा को जीतना:
दक्षिण के ये दो शक्तिशाली मुस्लिम राज्य मुगलों के लिए चुनौती बने हुए थे। औरंगज़ेब ने इन्हें मुगल साम्राज्य में मिलाने का संकल्प लिया। -
दक्षिण में मुगलों का प्रभाव बढ़ाना:
औरंगज़ेब चाहता था कि दक्षिण के सभी प्रमुख राज्य दिल्ली की सल्तनत के अधीन हो जाएं।
2. दक्षिण नीति की प्रमुख घटनाएँ:
-
बीजापुर और गोलकुंडा की विजय (1686-87):
औरंगज़ेब ने लंबी घेराबंदी और युद्धों के बाद इन राज्यों को जीत लिया। -
शिवाजी से संघर्ष:
औरंगज़ेब ने शिवाजी को एक बार आगरा बुलाया, लेकिन शिवाजी वहां से चकमा देकर भाग निकले। इसके बाद मराठों से लम्बा संघर्ष चला। -
संभाजी की हत्या (1689):
शिवाजी के पुत्र संभाजी को पकड़कर औरंगज़ेब ने मरवा दिया, परन्तु इससे मराठों की प्रतिरोध शक्ति और बढ़ गई। -
मराठा छापामार युद्ध:
मराठों ने छापामार युद्ध नीति अपनाई, जिससे औरंगज़ेब की सेना को भारी नुकसान हुआ।
3. दक्षिण नीति की विफलता के कारण:
-
लंबे समय तक युद्ध:
लगभग 27 वर्षों तक दक्षिण में युद्ध चलता रहा, जिससे मुगल सैन्य शक्ति और संसाधनों का क्षय हुआ। -
मराठों का बढ़ता प्रतिरोध:
मराठा शक्ति लगातार बढ़ती गई और उन्होंने मुगलों को कई बार पराजित किया। -
राजकोष पर बोझ:
इन युद्धों में धन और जनशक्ति की बहुत क्षति हुई, जिससे आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ। -
प्रशासनिक कमजोरी:
औरंगज़ेब की अनुपस्थिति में उत्तर भारत का प्रशासन कमजोर हो गया।
4. निष्कर्ष:
औरंगज़ेब की दक्षिण नीति अल्पकालिक विजय तो दिला सकी, परंतु दीर्घकालिक दृष्टि से यह पूरी तरह विफल रही। इस नीति के कारण मुगल साम्राज्य की नींव हिल गई। दक्षिण में विस्तार करने की उसकी महत्वाकांक्षा ने अंततः मुगलों के पतन की नींव रखी। उसकी मृत्यु के बाद मुगलों की स्थिति और अधिक कमजोर हो गई।
प्रश्न 10: उत्तराधिकार के युद्ध में औरंगज़ेब की सफलता के कारणों का परीक्षण कीजिए।
उत्तर:
शाहजहाँ के अंतिम वर्षों में उसके चार पुत्रों—दारा शिकोह, शाह शुजा, मुराद बख़्श और औरंगज़ेब—के बीच उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हुआ। यह युद्ध 1657 से 1659 तक चला और अंततः औरंगज़ेब की जीत हुई। उसकी यह सफलता अचानक नहीं थी, बल्कि कई रणनीतिक, सैन्य और राजनीतिक कारणों पर आधारित थी।
1. औरंगज़ेब की राजनीतिक चतुराई:
औरंगज़ेब अत्यंत चालाक, धूर्त और कूटनीतिक शासक था। उसने अपने भाइयों के विरुद्ध षड्यंत्र और राजनीतिक दांवपेंचों का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया। उसने मुराद बख़्श से पहले संधि की और फिर बाद में उसे कैद कर लिया।
2. दारा शिकोह की कमजोरियाँ:
दारा शिकोह शाहजहाँ का प्रिय पुत्र था और उसे उत्तराधिकारी घोषित किया गया था, परंतु उसमें सैनिक नेतृत्व और राजनीतिक व्यवहार की कमी थी। वह युद्धकला में कुशल नहीं था और आम सैनिकों तथा दरबारियों का विश्वास नहीं जीत सका।
3. औरंगज़ेब की सैन्य क्षमता:
औरंगज़ेब एक कुशल सेनापति था। उसने दक्षिण में पहले ही कई युद्धों में सफलता पाई थी। उत्तराधिकार युद्ध के दौरान उसने योजनाबद्ध रूप से युद्धों में भाग लिया और रणनीतिक दृष्टिकोण से अपनी सेनाओं का संचालन किया।
4. धार्मिकता की छवि का लाभ:
औरंगज़ेब ने अपने आपको "इस्लाम का रक्षक" और शुद्ध मुसलमान के रूप में प्रस्तुत किया, जबकि दारा शिकोह को धर्मद्रोही और हिन्दू-समर्थक बताया। इस्लामी उलेमाओं और रूढ़िवादी वर्ग का समर्थन उसे प्राप्त हुआ।
5. सहयोगियों का उचित चयन और विश्वासघात की नीति:
औरंगज़ेब ने मुराद बख़्श को सहयोगी बनाकर शाह शुजा और दारा के खिलाफ मोर्चा खोला, परंतु बाद में अवसर देखकर उसे भी बंदी बना लिया। उसने सत्ता प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार का नैतिक बंधन नहीं माना।
6. शाहजहाँ की निष्क्रियता:
शाहजहाँ अपने पुत्र दारा शिकोह के पक्ष में था, परंतु औरंगज़ेब ने आगरा पर अधिकार कर लिया और शाहजहाँ को ही कैद में डाल दिया। इससे औरंगज़ेब को दारा के विरुद्ध निर्णायक बढ़त मिल गई।
7. निर्णायक युद्धों में विजय:
-
धर्मत का युद्ध (1658): औरंगज़ेब और मुराद बख़्श ने इस युद्ध में दारा की सेना को हराया।
-
समुगढ़ का युद्ध (1658): यह निर्णायक युद्ध था जिसमें दारा की हार हुई और उसे भागना पड़ा।
-
क्होजवा का युद्ध (1659): शाह शुजा को हराकर औरंगज़ेब ने उसे भागने पर मजबूर किया।
8. कठोर निर्णय और शक्ति का प्रयोग:
विजय के बाद औरंगज़ेब ने अपने भाइयों को या तो मार डाला या जेल में डाल दिया। दारा को राजद्रोही घोषित करके हत्या करवा दी गई। मुराद और शुजा को भी समाप्त कर दिया गया।
निष्कर्ष:
औरंगज़ेब की उत्तराधिकार युद्ध में सफलता उसकी राजनीतिक सूझबूझ, सैन्य कौशल, धार्मिक कार्ड खेलने की रणनीति और क्रूर परंतु प्रभावी निर्णयों का परिणाम थी। वह अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों से एक कदम आगे रहा और अवसरों का लाभ उठाकर मुगल साम्राज्य का एकछत्र शासक बन गया।