प्रश्न 01: भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रवाद के विकास के क्या कारण रहे? विस्तारपूर्वक समझाइए।
🇮🇳 परिचय
उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध भारतीय इतिहास में एक ऐसा कालखंड था जब राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ और संगठित राष्ट्रवाद की नींव रखी गई। इस दौर में विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक कारकों ने मिलकर एक ऐसा वातावरण तैयार किया जिसने भारतीय जनता को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एकजुट होने के लिए प्रेरित किया।
📜 राष्ट्रवाद के विकास के प्रमुख कारण
🏛 1. ब्रिटिश शासन की नीतियाँ और शोषण
ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति पर गहरा असर पड़ा।
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आर्थिक शोषण: भारतीय उद्योग, विशेषकर कपड़ा उद्योग, ब्रिटिश नीतियों के कारण बर्बाद हुआ।
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भारी कर व्यवस्था: किसानों पर अत्यधिक लगान और कर लगाए गए।
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निर्यात-आयात नीति: ब्रिटेन से मशीन-निर्मित वस्तुओं का आयात बढ़ा और भारत से कच्चे माल का निर्यात किया गया, जिससे भारतीय कारीगर बेरोजगार हुए।
📚 2. अंग्रेजी शिक्षा और नई बौद्धिक वर्ग का उदय
अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय समाज में एक नए बौद्धिक वर्ग को जन्म दिया।
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राजनीतिक चेतना: अंग्रेजी शिक्षा से भारतीयों को यूरोप के स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के विचारों से परिचित होने का अवसर मिला।
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अखबार-पत्रिकाओं का योगदान: समाचार पत्रों ने राष्ट्रीय विचारों का प्रसार किया और लोगों को अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया।
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नेतृत्व का निर्माण: अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त वर्ग ने आगे चलकर राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व संभाला।
🏺 3. सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन
राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे समाज सुधारकों ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों को दूर करने का प्रयास किया।
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ब्राह्मो समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज जैसे संगठनों ने आधुनिक सोच और समानता के विचार फैलाए।
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इससे भारतीय समाज में आत्मविश्वास और जागरूकता बढ़ी, जो राष्ट्रवाद के लिए आवश्यक थी।
⚖️ 4. राजनीतिक संगठनों का गठन
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में कई राजनीतिक संगठनों की स्थापना हुई, जिन्होंने राष्ट्रवादी चेतना को संगठित किया।
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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885): ए. ओ. ह्यूम की पहल से स्थापित कांग्रेस ने भारतीय जनता को एक साझा मंच दिया।
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भारतीय संघ, पूना सार्वजनिक सभा, बंबई एसोसिएशन जैसे संगठनों ने राजनीतिक अधिकारों की मांग को बल दिया।
📰 5. प्रेस और साहित्य का प्रभाव
भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में प्रकाशित समाचार पत्रों और पत्रिकाओं ने राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई।
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अखबार: अमृत बाजार पत्रिका, हिंदू, केसरी, मराठा आदि ने ब्रिटिश नीतियों की आलोचना की।
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साहित्य: भारतेंदु हरिश्चंद्र, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे साहित्यकारों ने अपने लेखन से राष्ट्रीय भावनाओं को जागृत किया।
🌍 6. विश्व की घटनाओं का प्रभाव
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही घटनाओं ने भी भारतीयों को प्रेरित किया।
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जापान की जीत (1905): रूस-जापान युद्ध में जापान की विजय ने एशियाई देशों में आत्मविश्वास जगाया।
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आयरलैंड का स्वतंत्रता आंदोलन: इस आंदोलन ने भारतीय नेताओं को प्रेरणा दी कि संगठित संघर्ष से स्वतंत्रता पाई जा सकती है।
🚂 7. संचार साधनों का विकास
रेलवे, टेलीग्राफ और डाक प्रणाली के विकास ने लोगों को आपस में जोड़ने और विचारों के आदान-प्रदान में मदद की।
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देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले लोग एक-दूसरे से संपर्क करने लगे।
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राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा और आंदोलन का समन्वय आसान हुआ।
⚔️ 8. 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा
यद्यपि 1857 का विद्रोह सफल नहीं हो सका, लेकिन उसने भारतीयों के मन में स्वतंत्रता की लौ जगा दी।
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इस संग्राम ने यह साबित कर दिया कि अंग्रेजों के खिलाफ संगठित होकर संघर्ष किया जा सकता है।
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विद्रोह के नायकों की वीरता की कहानियों ने राष्ट्रवादी भावना को बल दिया।
🏆 9. भारतीयों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार
सरकारी नौकरियों, शिक्षा और सामाजिक अवसरों में भारतीयों के साथ भेदभाव किया जाता था।
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उच्च पदों पर केवल अंग्रेजों की नियुक्ति होती थी।
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भारतीयों के साथ रंगभेद और नस्लीय अहंकार का व्यवहार किया जाता था।
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इस अन्याय ने असंतोष और एकजुटता को जन्म दिया।
🏛 10. ब्रिटिश दमन और अत्याचार
ब्रिटिश शासन द्वारा दमनकारी कानून, कठोर सजा और स्वतंत्रता के दमन ने जनता को आक्रोशित किया।
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रॉलेट एक्ट जैसे कानूनों ने असंतोष को और गहरा किया।
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किसानों और मजदूरों के आंदोलनों को बलपूर्वक दबाया गया।
🌟 राष्ट्रवाद के विकास की परिणति
इन सभी कारणों का परिणाम यह हुआ कि भारत में एक संगठित राष्ट्रीय आंदोलन की नींव पड़ी।
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प्रारंभिक राष्ट्रवाद (1885–1905) में कांग्रेस और अन्य संगठनों ने संवैधानिक तरीकों से मांगें रखीं।
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आगे चलकर गरम दल और उग्र राष्ट्रवादियों के नेतृत्व में आंदोलन तेज हुआ।
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सामाजिक सुधार, शिक्षा, प्रेस और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं ने राष्ट्रवाद को निरंतर मजबूती दी।
📝 निष्कर्ष
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में राष्ट्रवाद का विकास अचानक नहीं हुआ, बल्कि यह विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कारकों के संयुक्त प्रभाव का परिणाम था। ब्रिटिश शोषण और अन्याय ने भारतीयों को एकजुट किया, जबकि शिक्षा, प्रेस और सुधार आंदोलनों ने उन्हें दिशा दी। यह वही राष्ट्रवाद था जिसने आगे चलकर 20वीं शताब्दी में आजादी के संग्राम को निर्णायक मोड़ दिया।
प्रश्न 02: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से पूर्व के राजनीतिक संगठनों की गतिविधियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
🇮🇳 परिचय
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई, लेकिन इससे पहले भी भारत में कई राजनीतिक संगठन अस्तित्व में आ चुके थे। इन संगठनों का कार्यक्षेत्र सीमित था, परंतु इन्होंने भारतीयों को राजनीतिक अधिकारों के प्रति जागरूक करने और अंग्रेजी शासन की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने की नींव रखी। इन प्रारंभिक संगठनों की गतिविधियों का अध्ययन हमें यह समझने में मदद करता है कि कैसे संगठित राष्ट्रवाद का मार्ग प्रशस्त हुआ।
🏛 प्रारंभिक राजनीतिक संगठनों का उद्भव
🔹 समय और परिस्थितियाँ
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक सुधार आंदोलन, अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार और नई बौद्धिक वर्ग की उत्पत्ति ने राजनीतिक संगठनों की नींव रखी।
🔹 उद्देश्य
इन संगठनों का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी शासन से सीधे टकराव की बजाय सुधार की मांग करना और भारतीयों की प्रशासनिक भागीदारी बढ़ाना था।
📜 प्रमुख प्रारंभिक राजनीतिक संगठन और उनकी गतिविधियाँ
🏢 1. बंगाल ब्रिटिश एसोसिएशन (1851)
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संस्थापक: देवेंद्रनाथ ठाकुर, राधाकांत देव आदि।
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मुख्य कार्य: अंग्रेजी शासन में सुधार और भारतीय हितों की रक्षा।
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सीमा: यह संगठन मुख्यतः बंगाल के उच्चवर्गीय शिक्षित हिंदुओं तक सीमित था।
📚 2. ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन (1851)
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संस्थापक: राधाकांत देव और अन्य बंगाली नेता।
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मांगें:
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प्रशासन में भारतीयों की अधिक भागीदारी।
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न्यायालयों में भारतीयों को उच्च पद देना।
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विशेषता: इसने पहली बार संसद में भारत से संबंधित याचिका भेजी।
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सीमा: अभिजात्य वर्ग तक सीमित, जनता से सीधा जुड़ाव नहीं।
📰 3. पूना सार्वजनिक सभा (1870)
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संस्थापक: महादेव गोविंद रानाडे।
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मुख्य कार्य:
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प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी।
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शिक्षा और सामाजिक सुधार।
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सीमा: ग्रामीण जनता की भागीदारी नगण्य।
📖 4. इंडियन एसोसिएशन (1876)
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संस्थापक: सुरेंद्रनाथ बनर्जी और आनंद मोहन बोस।
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उद्देश्य:
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प्रशासनिक सुधार।
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उच्च शिक्षा का प्रसार।
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प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा।
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गतिविधियाँ:
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1883 में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा की आयु सीमा घटाने का विरोध।
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जनसभाओं और सम्मेलनों का आयोजन।
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सीमा: यद्यपि यह संगठन अपेक्षाकृत व्यापक था, परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी पहुँच सीमित रही।
⚖️ 5. मद्रास महाजन सभा (1884)
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संस्थापक: जी. सुब्रमण्य अय्यर, अण्णा सुभ्रमण्यम अय्यर और पांडित आर. रंगैया।
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मुख्य कार्य:
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सरकारी नीतियों की समीक्षा।
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प्रशासनिक सुधार की मांग।
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ब्रिटिश संसद में याचिकाएं भेजना।
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सीमा: यह संगठन भी क्षेत्रीय स्तर पर केंद्रित रहा।
🌏 6. बॉम्बे एसोसिएशन (1852)
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संस्थापक: जगन्नाथ शंकरशेठ।
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मांगें:
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न्यायपालिका और प्रशासन में सुधार।
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आर्थिक शोषण को कम करना।
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सीमा: केवल बंबई प्रेसीडेंसी तक सीमित।
🔍 इन संगठनों की गतिविधियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन
🌟 सकारात्मक योगदान
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राजनीतिक चेतना का प्रसार
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पहली बार भारतीय समाज ने संगठित रूप से अंग्रेजी शासन के खिलाफ अपनी मांगें रखीं।
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याचिकाओं और प्रतिनिधिमंडलों के माध्यम से जनता में अधिकारों के प्रति जागरूकता फैली।
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नेतृत्व का निर्माण
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इन संगठनों ने ऐसे नेताओं को जन्म दिया जिन्होंने आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया, जैसे सुरेंद्रनाथ बनर्जी और रानाडे।
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प्रेस और शिक्षा का सहयोग
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इन संगठनों ने पत्र-पत्रिकाओं का उपयोग कर विचारों का प्रसार किया।
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अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में लेखन द्वारा जनजागरण किया गया।
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संविधानिक मार्ग का उपयोग
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सीधा विद्रोह न करके संवैधानिक तरीकों से सुधार की मांग की गई, जिससे ब्रिटिश सरकार से संवाद के रास्ते खुले।
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⚠️ सीमाएँ और कमजोरियाँ
🎯 1. सीमित दायरा
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ये संगठन मुख्यतः अंग्रेजी शिक्षित मध्यमवर्ग और अभिजात्य वर्ग तक सीमित रहे।
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ग्रामीण और मजदूर वर्ग की भागीदारी नगण्य थी।
🏙 2. क्षेत्रीय प्रतिबंध
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अधिकांश संगठन केवल अपने प्रांत तक सीमित रहे और राष्ट्रीय स्तर पर एकजुटता का अभाव रहा।
📉 3. जनता से दूरी
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जनता के वास्तविक मुद्दे जैसे कृषि संकट, भूखमरी और मजदूरों की समस्याएँ इनके एजेंडे में प्रमुख स्थान पर नहीं थीं।
🕊 4. अत्यधिक नरम रुख
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अंग्रेजों से सीधे टकराव के बजाय सुधार और रियायतों की उम्मीद पर निर्भरता।
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ब्रिटिश शासन के प्रति वफादारी व्यक्त करना आम था।
📌 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में भूमिका
यद्यपि इन संगठनों में कई कमजोरियाँ थीं, फिर भी इन्होंने राजनीतिक संगठन और संवाद की परंपरा को जन्म दिया।
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विभिन्न प्रांतों के नेताओं के बीच संपर्क स्थापित हुआ।
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प्रशासनिक सुधार और अधिकारों की मांग का वातावरण बना।
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कांग्रेस की स्थापना के लिए सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक आधार तैयार हुआ।
📝 निष्कर्ष
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से पूर्व के राजनीतिक संगठन राष्ट्रवाद की प्रारंभिक पाठशाला थे। इनकी गतिविधियाँ सीमित होने के बावजूद, इन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा और नेतृत्व तैयार किया। हालांकि इनका दायरा छोटा और रुख नरम था, फिर भी इनकी विरासत ने आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत दिशा दी।
प्रश्न 03: बंगाल में उग्र राष्ट्रवाद के उदय एवं विकास के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
🇮🇳 परिचय
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने एक नया रूप धारण किया, जिसे "उग्र राष्ट्रवाद" कहा जाता है। इसका केंद्र मुख्य रूप से बंगाल रहा। यहाँ के युवा, साहित्यकार, पत्रकार और क्रांतिकारी नेताओं ने नरमपंथी नीतियों की सीमाओं को महसूस करते हुए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध उग्र और प्रत्यक्ष संघर्ष का मार्ग अपनाया।
📜 उग्र राष्ट्रवाद का अर्थ
उग्र राष्ट्रवाद (Extremism) का मतलब था —
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प्रत्यक्ष और सक्रिय संघर्ष द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करना।
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ब्रिटिश शासन के प्रति समझौता न करके पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करना।
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आंदोलन में जनभागीदारी, बहिष्कार, स्वदेशी और स्वराज्य जैसे उपाय अपनाना।
🌟 बंगाल में उग्र राष्ट्रवाद के उदय के प्रमुख कारण
⚖️ 1. नरमपंथी राजनीति की असफलता
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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक चरण (1885–1905) में नरमपंथियों ने संवैधानिक और याचिकाओं के माध्यम से सुधार की मांग की।
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अंग्रेजों की उपेक्षा और अस्वीकृति ने युवाओं को निराश किया।
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परिणामस्वरूप, एक नया उग्र नेतृत्व उभरा, जो सीधी कार्रवाई में विश्वास रखता था।
📜 2. बंगाल विभाजन (1905)
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लॉर्ड कर्ज़न ने 1905 में प्रशासनिक सुविधा के नाम पर बंगाल का विभाजन किया।
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वास्तव में इसका उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ना और राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना था।
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विभाजन ने बंगाल के लोगों में जबरदस्त आक्रोश पैदा किया और उग्र राष्ट्रवाद का विस्फोट हुआ।
📰 3. स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन
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बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ।
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विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार ने आंदोलन को जनांदोलन बना दिया।
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यह आर्थिक स्वावलंबन और राजनीतिक प्रतिरोध, दोनों का प्रतीक बना।
📚 4. शिक्षित वर्ग की जागरूकता
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कलकत्ता विश्वविद्यालय और अन्य शैक्षिक संस्थानों से पढ़े-लिखे युवाओं में स्वतंत्रता की ललक जागी।
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यूरोपीय क्रांतियों और जापान की विजय से प्रेरणा मिली।
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यह वर्ग अंग्रेजी शासन की आर्थिक लूट और राजनीतिक दमन को समझने लगा।
⚔️ 5. ब्रिटिश दमन और अत्याचार
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आंदोलन को दबाने के लिए लाठीचार्ज, गिरफ्तारी, प्रेस सेंसरशिप और दमनकारी कानून लागू किए गए।
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इससे जनता का गुस्सा बढ़ा और शांतिपूर्ण आंदोलन से हटकर उग्र कदम उठाए गए।
🌏 6. अंतरराष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव
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रूस-जापान युद्ध (1904–05) में जापान की जीत ने यह साबित कर दिया कि एशियाई देश भी यूरोपीय ताकत को हरा सकते हैं।
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आयरलैंड, इटली और रूस के क्रांतिकारी आंदोलनों ने बंगाल के युवाओं को प्रेरित किया।
📖 7. राष्ट्रवादी साहित्य और पत्रकारिता
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बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का "वंदे मातरम्" गीत, अरविंदो घोष और बाल गंगाधर तिलक के लेखन ने उग्र राष्ट्रवाद की विचारधारा को बल दिया।
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"युगांतर" और "वंदे मातरम्" जैसे पत्र क्रांतिकारी विचार फैलाने में अग्रणी रहे।
👥 8. युवा और गुप्त क्रांतिकारी संगठन
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अनुशीलन समिति, जुगंतर दल जैसे संगठनों ने हथियारबंद संघर्ष की राह अपनाई।
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युवाओं ने बम, हथियार और गुप्त प्रशिक्षण के माध्यम से अंग्रेजों पर सीधा हमला करने की योजना बनाई।
📌 बंगाल में उग्र राष्ट्रवाद के प्रमुख नेता
🌟 बिपिन चंद्र पाल
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स्वदेशी आंदोलन के प्रबल समर्थक।
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बहिष्कार और स्वदेशी शिक्षा के प्रचारक।
🌟 अरविंदो घोष
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उग्र राष्ट्रवाद के दार्शनिक और क्रांतिकारी।
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"पूर्ण स्वतंत्रता" के प्रथम प्रवक्ता।
🌟 चित्तरंजन दास
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कानूनी मोर्चे पर अंग्रेजों का सामना करने वाले प्रमुख वकील।
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जनसभाओं और भाषणों के माध्यम से आंदोलन को तेज किया।
🌟 बग्हा जतिन (जतीन्द्रनाथ मुखर्जी)
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गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों के नेतृत्वकर्ता।
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हथियार उठाकर अंग्रेजी शासन को चुनौती दी।
🔍 उग्र राष्ट्रवाद की विशेषताएँ
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पूर्ण स्वतंत्रता की मांग
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जनभागीदारी पर जोर
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स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन का नेतृत्व
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गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन
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अंतरराष्ट्रीय प्रेरणा और संगठनात्मक ताकत
⚠️ सीमाएँ
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ब्रिटिश दमन के कारण कई क्रांतिकारी गतिविधियाँ विफल हुईं।
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जनसंपर्क और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रभाव अपेक्षाकृत कम रहा।
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हिंसक तरीकों से आंदोलन के व्यापक समर्थन में कमी आई।
📈 परिणाम
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बंगाल में उग्र राष्ट्रवाद ने स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा और ऊर्जा दी।
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इसने नरमपंथियों पर दबाव बनाया कि वे भी मांगों में कठोरता लाएं।
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आने वाले वर्षों में यह आंदोलन पूरे भारत में फैल गया और कांग्रेस के गरम दल को मजबूत आधार मिला।
📝 निष्कर्ष
बंगाल में उग्र राष्ट्रवाद का उदय संयोग नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों, नरमपंथी असफलताओं, बंगाल विभाजन, और शिक्षित युवाओं की क्रांतिकारी सोच का परिणाम था। इसने स्वतंत्रता संग्राम को नया जोश और आक्रामक रुख प्रदान किया, जिसने अंततः भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया।
प्रश्न 04: साम्प्रदायिकता की अवधारणा को समझाते हुए आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता के स्वरूप का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
🇮🇳 परिचय
साम्प्रदायिकता भारतीय समाज के सामने एक गंभीर सामाजिक और राजनीतिक चुनौती है। यह ऐसी मानसिकता है जिसमें व्यक्ति या समूह अपने धर्म, जाति या संप्रदाय को अन्य के मुकाबले श्रेष्ठ मानते हुए भेदभाव, अविश्वास और टकराव की प्रवृत्ति अपनाते हैं। आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता का स्वरूप और गहराई, दोनों बदल चुके हैं। आज यह केवल धार्मिक टकराव तक सीमित नहीं, बल्कि राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हितों से भी गहराई से जुड़ चुकी है।
📜 साम्प्रदायिकता की अवधारणा
🔹 परिभाषा
साम्प्रदायिकता वह दृष्टिकोण है जिसमें किसी व्यक्ति या समूह की निष्ठा मुख्यतः अपने धर्म या संप्रदाय तक सीमित होती है, और वह अन्य संप्रदायों के प्रति नकारात्मक सोच और पूर्वाग्रह रखता है।
🔹 मुख्य विशेषताएँ
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धार्मिक पहचान को सर्वोपरि मानना
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अन्य धर्मों या समूहों के प्रति अविश्वास
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राजनीतिक और आर्थिक लाभ के लिए धर्म का उपयोग
🌟 साम्प्रदायिकता के प्रकार
🕊 1. धार्मिक साम्प्रदायिकता
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यह दो या अधिक धार्मिक समूहों के बीच टकराव के रूप में प्रकट होती है।
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उदाहरण: हिंदू-मुस्लिम दंगे।
🏛 2. राजनीतिक साम्प्रदायिकता
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राजनीतिक दल या नेता धार्मिक भावनाओं का उपयोग कर समर्थन प्राप्त करते हैं।
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चुनावी राजनीति में ध्रुवीकरण इसका परिणाम है।
🏢 3. सामाजिक-सांस्कृतिक साम्प्रदायिकता
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सांस्कृतिक श्रेष्ठता या अलगाव की भावना से प्रेरित।
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उदाहरण: त्योहारों, परंपराओं या भाषाओं को लेकर विवाद।
📚 भारत में साम्प्रदायिकता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
🔹 औपनिवेशिक काल
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ब्रिटिश शासन की "फूट डालो और राज करो" नीति ने साम्प्रदायिकता को गहरा किया।
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अलग-अलग धार्मिक समुदायों के लिए अलग निर्वाचक मंडल (Separate Electorate) बनाए गए।
🔹 विभाजन का प्रभाव
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1947 में भारत का विभाजन साम्प्रदायिक हिंसा के चरम पर पहुंचने का परिणाम था।
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लाखों लोगों का विस्थापन और जनसंहार साम्प्रदायिकता की भयावहता को दर्शाता है।
🏙 आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता का स्वरूप
📢 1. राजनीतिक लाभ के लिए धर्म का उपयोग
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कई राजनीतिक दल चुनावों में धार्मिक मुद्दों को हवा देते हैं।
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धार्मिक ध्रुवीकरण से अल्पकालिक राजनीतिक फायदे होते हैं, लेकिन दीर्घकालिक सामाजिक नुकसान।
📰 2. मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका
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कुछ मीडिया हाउस और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पक्षपातपूर्ण खबरें फैलाकर साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाते हैं।
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फेक न्यूज़ और अफवाहें त्वरित रूप से हिंसा भड़का सकती हैं।
🏛 3. धार्मिक आयोजनों में टकराव
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जुलूस, त्योहार या धार्मिक स्थल पर विवाद बढ़ना।
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स्थानीय स्तर पर छोटी घटनाओं का बड़े दंगे में बदल जाना।
⚖️ 4. कानून-व्यवस्था की चुनौतियाँ
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साम्प्रदायिक दंगों के दौरान पुलिस और प्रशासन पर पक्षपात का आरोप लगना।
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समय पर कार्रवाई न होने से हिंसा फैलना।
🔍 आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता के कारण
📉 1. आर्थिक असमानता और बेरोजगारी
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बेरोजगार युवाओं को साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा भड़काना आसान होता है।
🏫 2. शिक्षा का अभाव
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वैज्ञानिक और तर्कसंगत शिक्षा के अभाव में धार्मिक अंधविश्वास और पूर्वाग्रह बढ़ते हैं।
🏢 3. ऐतिहासिक गलतफहमियाँ
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इतिहास की गलत या पक्षपातपूर्ण व्याख्या से समुदायों में अविश्वास पैदा होता है।
📢 4. धार्मिक संगठनों की भड़काऊ भूमिका
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कुछ धार्मिक संगठन कट्टरता को बढ़ावा देते हैं और हिंसा को उचित ठहराते हैं।
📈 साम्प्रदायिकता के परिणाम
⚠️ सामाजिक विघटन
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समाज में भाईचारे और विश्वास की कमी।
⚠️ आर्थिक हानि
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दंगों में संपत्ति का नुकसान, व्यवसायों का ठप होना।
⚠️ राजनीतिक अस्थिरता
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लोकतंत्र की नींव कमजोर होना।
⚠️ अंतरराष्ट्रीय छवि पर असर
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साम्प्रदायिक हिंसा से भारत की छवि को नुकसान।
📌 साम्प्रदायिकता से निपटने के उपाय
🏫 1. शिक्षा और जनजागरण
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वैज्ञानिक सोच और सहिष्णुता का प्रचार।
📰 2. मीडिया की जिम्मेदारी
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तथ्यपरक और निष्पक्ष रिपोर्टिंग।
⚖️ 3. सख्त कानूनी कार्रवाई
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दंगा भड़काने वालों पर त्वरित और निष्पक्ष कार्रवाई।
🤝 4. अंतर-धार्मिक संवाद
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विभिन्न समुदायों के बीच संवाद और मेल-मिलाप कार्यक्रम।
📝 आलोचनात्मक मूल्यांकन
आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता का स्वरूप जटिल और बहुआयामी है।
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एक ओर यह धार्मिक आस्थाओं के दुरुपयोग का परिणाम है, तो दूसरी ओर यह सामाजिक-आर्थिक असमानताओं से भी जुड़ा है।
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राजनीतिक महत्वाकांक्षा और मीडिया की नकारात्मक भूमिका ने इसे और खतरनाक बना दिया है।
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हालांकि, संवैधानिक प्रावधान, नागरिक समाज की सक्रियता और युवा पीढ़ी की जागरूकता इस समस्या से निपटने में आशा की किरण हैं।
🏁 निष्कर्ष
साम्प्रदायिकता केवल धार्मिक मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों का मिश्रण है। आधुनिक भारत के लोकतंत्र और एकता को बनाए रखने के लिए इसे जड़ से खत्म करना आवश्यक है। इसके लिए न केवल कानून और प्रशासन, बल्कि नागरिकों को भी अपनी सोच और व्यवहार में बदलाव लाना होगा। तभी हम "विविधता में एकता" के आदर्श को जीवित रख पाएंगे।
प्रश्न 05: भारत के विभिन्न प्रान्तों में उदित होने वाले क्रांतिकारी संगठनों का विवरण दीजिए।
भूमिका
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में क्रांतिकारी संगठनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। जहाँ एक ओर गांधीजी और अन्य नेता अहिंसात्मक आंदोलनों के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्ति के पक्षधर थे, वहीं दूसरी ओर अनेक युवाओं ने सशस्त्र क्रांति को स्वतंत्रता का एकमात्र मार्ग माना। इन संगठनों ने भारत के विभिन्न प्रान्तों में ब्रिटिश शासन को चुनौती दी और अपने प्राणों की आहुति देकर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।
1. बंगाल प्रान्त में क्रांतिकारी संगठन
(क) अनुशीलन समिति
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स्थापना: 1902 ई. में प्रमथनाथ मित्रा, अरबिन्दो घोष, और बारीन्द्रकुमार घोष ने की।
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उद्देश्य: युवाओं को शारीरिक, मानसिक और सैन्य दृष्टि से प्रशिक्षित कर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रांति के लिए तैयार करना।
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प्रमुख गतिविधियाँ: राजनीतिक हत्याएँ, बम निर्माण, गुप्त प्रशिक्षण।
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उल्लेखनीय घटना: 1908 का अलीपुर षड्यंत्र केस।
(ख) युगांतर पार्टी
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गठन: 1906 ई. में बारीन्द्रकुमार घोष और बिपिन चंद्र पाल के सहयोग से।
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कार्यप्रणाली: गुप्त सभाएँ, हथियारों की आपूर्ति, ब्रिटिश अधिकारियों पर हमले।
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प्रसिद्ध क्रांतिकारी: खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी।
2. महाराष्ट्र प्रान्त में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
(क) अभिनव भारत संस्था
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स्थापना: 1904 ई. में विनायक दामोदर सावरकर और उनके भाई गणेश सावरकर द्वारा।
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उद्देश्य: सशस्त्र क्रांति के माध्यम से ब्रिटिश शासन का अंत।
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गतिविधियाँ: हथियारों की तस्करी, सैन्य प्रशिक्षण, ब्रिटिश अधिकारियों पर हमले।
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प्रसिद्ध घटना: 1909 में कलेक्टर जैक्सन की हत्या (नासिक षड्यंत्र केस)।
3. पंजाब प्रान्त में क्रांतिकारी आंदोलन
(क) गदर पार्टी
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स्थापना: 1913 ई. में अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में लाला हरदयाल, सोहन सिंह भकना और करतार सिंह सराभा द्वारा।
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उद्देश्य: विदेशी भारतीयों को एकजुट कर भारत में सशस्त्र क्रांति।
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गतिविधियाँ: गुप्त प्रचार, हथियारों की आपूर्ति, विद्रोह की योजना।
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उल्लेखनीय घटना: 1915 का गदर आंदोलन असफल रहा, लेकिन इसने क्रांति की चिंगारी को प्रज्वलित रखा।
4. उत्तर प्रदेश और बिहार में क्रांतिकारी संगठन
(क) हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA)
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स्थापना: 1924 ई. में चंद्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, सचिन्द्रनाथ सान्याल द्वारा।
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उद्देश्य: ब्रिटिश शासन का अंत और लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना।
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प्रमुख घटनाएँ:
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1925 का काकोरी कांड।
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बाद में इसका नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) रखा गया।
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प्रसिद्ध क्रांतिकारी: भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु।
5. अन्य प्रान्तों में संगठन
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आंध्र प्रदेश में: अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में आदिवासी विद्रोह।
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मद्रास प्रेसीडेंसी में: वान्डेय मातरम् ग्रुप और अन्य गुप्त संगठन।
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केरल में: वैकोम सत्याग्रह में सक्रिय क्रांतिकारी समूह, हालांकि अधिकांश अहिंसक थे।
मूल्यांकन
क्रांतिकारी संगठनों ने स्वतंत्रता संग्राम में कई प्रकार से योगदान दिया—
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युवाओं में त्याग, बलिदान और साहस की भावना का संचार किया।
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ब्रिटिश शासन के आतंक को चुनौती दी।
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देश में राष्ट्रीय जागृति को प्रोत्साहित किया।
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अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्वतंत्रता की मांग को उजागर किया।
हालाँकि, इनकी गतिविधियाँ अक्सर दमन, गिरफ्तारी और मृत्यु दंड के कारण अल्पकालिक रहीं, फिर भी इनका योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर है।
निष्कर्ष
भारत के विभिन्न प्रान्तों में उदित हुए क्रांतिकारी संगठनों ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा और ऊर्जा प्रदान की। इनके त्याग और बलिदान ने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित किया और अंततः 1947 में भारत को स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 01 : 1892 के इंडियन काउंसिल एक्ट की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
भूमिका
1892 का इंडियन काउंसिल एक्ट ब्रिटिश भारत में विधायी परिषदों के पुनर्गठन से संबंधित एक महत्वपूर्ण अधिनियम था। यह 1861 के इंडियन काउंसिल एक्ट में संशोधन के रूप में आया और भारतीयों को परिषदों में सीमित रूप से भागीदारी का अवसर प्रदान करता था। हालांकि यह सुधार बहुत सीमित और सतही थे, फिर भी इसने भारतीय राजनीति में एक नई दिशा दी।
पृष्ठभूमि
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1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद भारतीयों द्वारा अधिक राजनीतिक अधिकारों और प्रशासन में भागीदारी की मांग तेज हो गई थी।
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ब्रिटिश सरकार ने इन मांगों के दबाव में 1892 का एक्ट पारित किया, लेकिन यह केवल प्रतीकात्मक सुधार था।
मुख्य विशेषताएँ
1. विधायी परिषदों का विस्तार
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केंद्रीय एवं प्रांतीय दोनों स्तरों पर विधायी परिषदों के सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई।
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केंद्रीय विधायी परिषद में अब 10 से 16 तक गैर-सरकारी सदस्य हो सकते थे।
2. नामांकन की व्यवस्था
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परिषदों के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता था, बल्कि उनका नामांकन किया जाता था।
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नामांकन की सिफारिश प्रांतीय विधान परिषदें, नगरपालिकाएं, जिला बोर्ड और विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं करती थीं, लेकिन अंतिम नियुक्ति का अधिकार गवर्नर-जनरल या गवर्नर के पास था।
3. परिषद के अधिकारों में सीमित वृद्धि
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परिषद को बजट पर चर्चा करने का अधिकार दिया गया, लेकिन उसे मतदान द्वारा अस्वीकृत करने का अधिकार नहीं था।
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सदस्यों को सार्वजनिक हित से जुड़े प्रश्न पूछने की अनुमति थी, परंतु पूरक प्रश्न पूछने और प्रस्ताव लाने का अधिकार नहीं था।
4. कार्यपालिका पर नियंत्रण का अभाव
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परिषदें केवल सलाहकारी निकाय बनी रहीं।
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कार्यपालिका के निर्णयों पर वे बाध्यकारी प्रभाव नहीं डाल सकती थीं।
5. प्रांतीय परिषदों का पुनर्गठन
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विभिन्न प्रांतों की परिषदों में भी सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई और स्थानीय निकायों को नामांकन की सिफारिश का अधिकार दिया गया।
सीमाएँ
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प्रत्यक्ष चुनाव का अभाव – भारतीयों को वास्तविक मताधिकार नहीं मिला।
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अधिकार सीमित – परिषदों के पास केवल चर्चा का अधिकार था, निर्णय का नहीं।
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सरकार का पूर्ण नियंत्रण – नामांकन प्रक्रिया और निर्णयों पर ब्रिटिश सरकार का प्रभुत्व बना रहा।
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भारतीयों की अपेक्षाओं पर खरा न उतरना – भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसे अपर्याप्त सुधार बताया।
महत्व
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इस एक्ट ने पहली बार भारतीयों को सीमित रूप में विधायी परिषदों में प्रवेश दिलाया।
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नामांकन के माध्यम से भारतीय राजनीति में ‘चुनाव’ की अवधारणा का बीजारोपण हुआ।
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इसके बाद भारतीयों की राजनीतिक जागरूकता और अधिकारों की मांग और तेज हो गई, जो आगे चलकर 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधार तक पहुंची।
निष्कर्ष
1892 का इंडियन काउंसिल एक्ट भारतीय राजनीति में सुधार की दिशा में एक छोटा, लेकिन महत्वपूर्ण कदम था। हालांकि इसमें वास्तविक शक्ति भारतीयों को नहीं दी गई, फिर भी यह राजनीतिक चेतना के विकास और भविष्य के संवैधानिक सुधारों की नींव रखने वाला अधिनियम सिद्ध हुआ।
प्रश्न 02 : स्वामी विवेकानंद एवं रामकृष्ण मिशन
1. भूमिका
स्वामी विवेकानंद आधुनिक भारत के महान संत, विचारक और समाज सुधारक थे, जिन्होंने भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता को विश्व मंच पर स्थापित किया। उन्होंने अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के आदर्शों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। यह मिशन आज भी सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य और आध्यात्मिक जागरण के क्षेत्र में कार्य कर रहा है।
2. स्वामी विवेकानंद का परिचय
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जन्म: 12 जनवरी 1863, कोलकाता
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मूल नाम: नरेंद्रनाथ दत्त
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गुरु: श्री रामकृष्ण परमहंस
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मुख्य योगदान: भारतीय दर्शन वेदांत और योग का पश्चिम में प्रचार, युवाओं में आत्मविश्वास और राष्ट्रभक्ति का संचार।
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प्रसिद्ध भाषण: 1893 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में “सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ अमेरिका” से शुरू हुआ भाषण, जिसने विश्व में भारत की गरिमा बढ़ाई।
3. रामकृष्ण मिशन की स्थापना
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स्थापना वर्ष: 1 मई 1897
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मुख्यालय: बेलूर मठ, पश्चिम बंगाल
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उद्देश्य: सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य और आध्यात्मिक जागरण
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मिशन का नारा: "आत्मनो मोक्षार्थम् जगद्धिताय च" (अपने मोक्ष और विश्व कल्याण के लिए)
4. रामकृष्ण मिशन के प्रमुख उद्देश्य
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आध्यात्मिक जागरण – वेदांत और रामकृष्ण परमहंस के सार्वभौमिक धर्म के सिद्धांतों का प्रचार।
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सामाजिक सेवा – निर्धनों, पीड़ितों और जरूरतमंदों की सेवा।
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शिक्षा – विद्यालय, महाविद्यालय और व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करना।
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स्वास्थ्य सेवा – अस्पताल, चिकित्सालय और चिकित्सा शिविर चलाना।
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संकट राहत कार्य – बाढ़, भूकंप, चक्रवात जैसी आपदाओं में राहत और पुनर्वास।
5. कार्यक्षेत्र
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शैक्षिक कार्य – अनेक विद्यालय, महाविद्यालय और पुस्तकालय संचालित।
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स्वास्थ्य सेवा – अस्पताल, होमियोपैथिक और आयुर्वेदिक केंद्र।
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ग्रामीण विकास – रोजगार, कृषि सुधार और महिला सशक्तिकरण।
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आध्यात्मिक कार्य – ध्यान केंद्र, प्रवचन और धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन।
6. स्वामी विवेकानंद के विचार और दर्शन
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व्यक्ति निर्माण – शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण और आत्मनिर्भरता होना चाहिए।
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धर्म का सार – सभी धर्म सत्य की ओर ले जाते हैं, इसलिए सहिष्णुता आवश्यक है।
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सेवा ही पूजा – गरीब, बीमार और अशिक्षित की सेवा ईश्वर की सेवा है।
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युवा शक्ति – राष्ट्र निर्माण में युवाओं की सबसे बड़ी भूमिका है।
7. निष्कर्ष
स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण मिशन ने भारतीय संस्कृति को नई पहचान दी और सामाजिक व आध्यात्मिक जीवन में सेवा, शिक्षा और एकता का संदेश फैलाया। आज भी रामकृष्ण मिशन का कार्य भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में मानवता के उत्थान की प्रेरणा देता है।
प्रश्न 03 लाला लाजपत राय
1. प्रस्तावना
लाला लाजपत राय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं में से एक थे। उन्हें उनके अदम्य साहस, संघर्षशील व्यक्तित्व और राष्ट्रभक्ति के कारण "पंजाब केसरी" कहा जाता था। वे न केवल एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि एक समाज सुधारक, लेखक, और शिक्षाविद भी थे। उनके विचारों और कार्यों ने भारत में राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
2. प्रारंभिक जीवन
लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी 1865 को पंजाब के फिरोजपुर जिले के धुरी गाँव में हुआ था। उनके पिता लाला राधा कृष्ण अग्रवाल एक सरकारी शिक्षक थे और माता गुलाब देवी धार्मिक एवं संस्कारशील महिला थीं। बचपन से ही लाजपत राय में देशभक्ति और न्याय के प्रति गहरी भावना थी।
शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे लाहौर गए और गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से कानून की पढ़ाई की। शिक्षा के दौरान ही वे राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रभावित हुए और दयानंद सरस्वती के आर्य समाज आंदोलन से जुड़ गए।
3. राजनीतिक जीवन की शुरुआत
लाला लाजपत राय ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के लिए वकालत का पेशा छोड़ दिया। 1888 में इलाहाबाद में आयोजित राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में वे पहली बार सक्रिय रूप से शामिल हुए। धीरे-धीरे वे कांग्रेस के उग्रवादी गुट के प्रमुख नेताओं में गिने जाने लगे।
4. लाला लाजपत राय और लाला-बाल-पाल त्रिमूर्ति
1905 में बंग-भंग आंदोलन के समय लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल के साथ उग्रवादी विचारधारा के प्रतीक बने। इस त्रिमूर्ति को "लाल-बाल-पाल" के नाम से जाना जाता था। इनका उद्देश्य था ब्रिटिश शासन का विरोध करते हुए स्वदेशी आंदोलन को बल देना और बहिष्कार, स्वदेशी वस्त्र, तथा राष्ट्रीय शिक्षा को बढ़ावा देना।
5. स्वदेशी आंदोलन में योगदान
लाजपत राय ने स्वदेशी आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उन्होंने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया और भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन दिया। वे मानते थे कि जब तक भारत आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होगा, तब तक राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना कठिन होगा।
6. अमेरिका और इंग्लैंड यात्रा
1907 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें बिना मुकदमा चलाए मंडाले (बर्मा) में नजरबंद कर दिया, जिससे उनकी लोकप्रियता और बढ़ गई। 1914 में वे अमेरिका गए और वहां भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए समर्थन जुटाया। उन्होंने "इंडियन होमरूल लीग ऑफ अमेरिका" की स्थापना की और अनेक व्याख्यान दिए।
अमेरिका में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं, जैसे—
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Young India
-
England’s Debt to India
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The Problem of National Education in India
7. सामाजिक सुधार और शिक्षा में योगदान
लाला लाजपत राय केवल एक राजनीतिक नेता नहीं थे, बल्कि एक समाज सुधारक भी थे। उन्होंने महिला शिक्षा को बढ़ावा दिया और विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया। उन्होंने गुलाब देवी महिला विद्यालय, दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज (DAV College) जैसी संस्थाओं की स्थापना में योगदान दिया।
8. साइमन कमीशन का विरोध
1928 में ब्रिटिश सरकार ने साइमन कमीशन भारत भेजा, जिसमें कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था। पूरे देश में इस कमीशन का विरोध हुआ। 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में लाला लाजपत राय ने एक विशाल विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया। प्रदर्शन के दौरान पुलिस अधीक्षक जेम्स स्कॉट के आदेश पर लाठीचार्ज किया गया, जिसमें लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए।
9. अंतिम शब्द और बलिदान
घायल होने के बाद उन्होंने कहा था—
"मेरे शरीर पर पड़ा प्रत्येक प्रहार ब्रिटिश साम्राज्य के कफन में अंतिम कील साबित होगा।"
घाव गंभीर होने के कारण 17 नवंबर 1928 को उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु ने पूरे देश में आक्रोश की लहर पैदा कर दी। इसके प्रतिशोध में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने जेम्स स्कॉट को मारने का प्रयास किया, लेकिन गलती से जॉन सॉन्डर्स की हत्या हो गई।
10. लाला लाजपत राय का व्यक्तित्व
लाजपत राय एक साहसी, निडर और स्पष्टवादी नेता थे। वे कठोर अनुशासन और नैतिकता में विश्वास रखते थे। वे अपने लेखन, भाषण और कार्यों से युवाओं को प्रेरित करते थे। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि देशभक्ति केवल युद्ध के मैदान में ही नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार, शिक्षा और संगठन में भी दिखाई जा सकती है।
11. प्रमुख रचनाएँ
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Young India
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The Arya Samaj
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England’s Debt to India
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The Problem of National Education in India
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Unhappy India
12. उपाधियाँ और सम्मान
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"पंजाब केसरी" – उनके अदम्य साहस और नेतृत्व के कारण
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"भारत का शेर" – उनकी निडरता और देशभक्ति के कारण
13. निष्कर्ष
लाला लाजपत राय का जीवन स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। उन्होंने न केवल राजनीतिक आजादी के लिए संघर्ष किया, बल्कि सामाजिक और शैक्षिक सुधार के क्षेत्र में भी अद्वितीय योगदान दिया। उनका बलिदान और देशप्रेम आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरित करता रहेगा।
प्रश्न 04. रवीन्द्रनाथ टैगोर
भूमिका
रवीन्द्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) भारत के महान कवि, साहित्यकार, दार्शनिक, चित्रकार और शिक्षाविद थे। वे न केवल भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत थे, बल्कि विश्व साहित्य में भी उनका महत्वपूर्ण स्थान है। उन्हें "गुरुदेव" की उपाधि दी गई और वे पहले एशियाई थे जिन्हें साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार (1913) प्राप्त हुआ। टैगोर का जीवन मानवता, शिक्षा, राष्ट्रप्रेम और आध्यात्मिकता का अद्वितीय संगम था।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) के जोड़ासांको ठाकुर परिवार में हुआ। उनका परिवार साहित्य, संगीत, कला और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में प्रसिद्ध था। उनके पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ब्रह्म समाज के प्रमुख नेताओं में से एक थे।
टैगोर ने औपचारिक शिक्षा का अधिकांश भाग घर पर ही प्राप्त किया। वे बचपन से ही साहित्य और कविता लेखन में रुचि रखते थे। कुछ समय के लिए वे इंग्लैंड भी गए, लेकिन वहां की औपचारिक शिक्षा उन्हें रास नहीं आई और वे वापस भारत लौट आए।
साहित्यिक योगदान
रवीन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य अत्यंत व्यापक और बहुआयामी था। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, संगीत और चित्रकला सभी में उत्कृष्ट योगदान दिया।
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कविता संग्रह: गीतांजलि, गीतिमाल्य, मानसी, कणिका
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उपन्यास: गोरा, घरे-बाइरे, चोखेर बाली
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नाटक: डाकघर, रक्त करबी, मुक्तधारा
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गीत-संगीत: टैगोर ने लगभग 2,230 गीतों की रचना की, जिन्हें रवीन्द्र संगीत कहा जाता है।
उनकी रचनाएं मानवीय संवेदनाओं, प्रकृति प्रेम और आध्यात्मिकता से ओतप्रोत थीं।
गीतांजलि और नोबेल पुरस्कार
1910 में प्रकाशित गीतांजलि कविताओं का संग्रह टैगोर की सबसे प्रसिद्ध कृति है। इसमें ईश्वर और मानव के गहन संबंध, प्रकृति की सुंदरता और आध्यात्मिक अनुभूतियों का अद्भुत चित्रण है। गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद को पढ़कर पश्चिमी दुनिया मंत्रमुग्ध हो गई और 1913 में उन्हें साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
शिक्षा दर्शन और शांतिनिकेतन
टैगोर का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञानार्जन नहीं, बल्कि व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास होना चाहिए। इसी सोच के तहत उन्होंने 1901 में शांतिनिकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय की स्थापना की। यहां शिक्षा का वातावरण प्रकृति के बीच, कला, संगीत और साहित्य से परिपूर्ण था। उनका शिक्षा दर्शन आज भी आदर्श माना जाता है।
राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता आंदोलन
टैगोर का राष्ट्रवाद मानवता पर आधारित था। उन्होंने 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में जनजागरण अभियान चलाया। 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद उन्होंने अंग्रेज सरकार द्वारा दी गई "सर" की उपाधि लौटा दी। हालांकि वे चरमपंथी राष्ट्रवाद के बजाय अंतरराष्ट्रीयतावाद और मानव एकता के समर्थक थे।
दर्शन और विचारधारा
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मानवतावाद: टैगोर का मानना था कि सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं।
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प्रकृति प्रेम: उनकी कविताओं में प्रकृति की अद्भुत छटा देखने को मिलती है।
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शिक्षा: वे शिक्षा को स्वतंत्रता, सृजनशीलता और आत्म-अन्वेषण का माध्यम मानते थे।
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अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण: टैगोर ने भारत और विश्व के बीच सांस्कृतिक सेतु का कार्य किया।
सम्मान और पुरस्कार
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1913: साहित्य का नोबेल पुरस्कार (गीतांजलि के लिए)
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1915: ब्रिटिश सरकार द्वारा "सर" की उपाधि (1919 में लौटा दी)
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विश्व के कई विश्वविद्यालयों से मानद डिग्रियां प्राप्त
अंतिम समय और विरासत
रवीन्द्रनाथ टैगोर का निधन 7 अगस्त 1941 को हुआ, लेकिन उनकी साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर आज भी जीवित है। भारत का राष्ट्रीय गान "जन गण मन" और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान "आमार शोनार बांग्ला" उनकी रचनाएं हैं।
निष्कर्ष
रवीन्द्रनाथ टैगोर एक युगद्रष्टा थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल भारतीय साहित्य को ऊंचाई दी, बल्कि पूरी दुनिया में भारत की पहचान बनाई। उनका जीवन यह सिखाता है कि सच्ची शिक्षा, कला और मानवता ही राष्ट्र और विश्व की प्रगति का आधार हैं। वे हमेशा शांति, प्रेम और एकता के प्रतीक बने रहेंगे।
प्रश्न 05 – लखनऊ समझौता
भूमिका
लखनऊ समझौता भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था। यह 1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच हुआ एक राजनीतिक समझौता था, जिसने दोनों प्रमुख राजनीतिक संगठनों को एक साझा मंच पर ला दिया। इस समझौते का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संयुक्त रूप से संवैधानिक सुधारों और राजनीतिक अधिकारों की मांग करना था। इस समझौते ने राष्ट्रीय आंदोलन को नई दिशा दी और हिंदू-मुस्लिम एकता की भावना को मजबूत किया।
पृष्ठभूमि
लखनऊ समझौते के पीछे कई ऐतिहासिक और राजनीतिक कारण थे:
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ब्रिटिश शासन की नीतियाँ – बंगाल विभाजन (1905) और उसका विरोध, दमनकारी कानून, तथा राजनीतिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध ने भारतीय जनता में असंतोष बढ़ाया।
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कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच दूरी – 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद दोनों संगठनों के बीच मतभेद थे, लेकिन राष्ट्रीय हित के लिए एकता की आवश्यकता महसूस की गई।
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प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) – युद्ध में ब्रिटिशों की भागीदारी और भारतीयों की अपेक्षा थी कि युद्ध के बाद उन्हें राजनीतिक रियायतें मिलेंगी, जिससे संयुक्त आंदोलन की जरूरत महसूस हुई।
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एनी बेसेन्ट का होम रूल आंदोलन – इस आंदोलन ने स्वशासन की मांग को गति दी और कांग्रेस व लीग दोनों को एकजुट होने की प्रेरणा दी।
लखनऊ अधिवेशन (1916)
1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लखनऊ में हुआ। इस अधिवेशन की विशेषता यह थी कि लगभग एक दशक के बाद कांग्रेस के गरम दल और नरम दल के नेता एक मंच पर आए। साथ ही, कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने एक साझा समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसे लखनऊ समझौता कहा गया।
लखनऊ समझौते की मुख्य बातें
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संयुक्त संवैधानिक सुधारों की मांग – भारतीयों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व, विधायिकाओं की शक्तियों में वृद्धि, और कार्यपालिका पर नियंत्रण।
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अलग निर्वाचन प्रणाली (Separate Electorates) – मुस्लिम लीग की मांग पर, मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन प्रणाली को कांग्रेस ने स्वीकार किया।
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प्रांतीय स्वायत्तता – प्रांतीय विधानमंडलों में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत हो और सरकार का गठन भारतीय मंत्रियों के माध्यम से किया जाए।
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केंद्र एवं प्रांतों में समान अधिकार – विधायी निकायों में भारतीयों की भागीदारी बढ़ाने की मांग।
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न्यायपालिका की स्वतंत्रता – न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखने की मांग।
महत्व और उपलब्धियाँ
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हिंदू-मुस्लिम एकता – यह समझौता भारतीय राजनीति में पहली बार कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच औपचारिक गठबंधन का प्रतीक बना।
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राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूती – संयुक्त मोर्चे के कारण ब्रिटिश शासन पर दबाव बढ़ा।
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राजनीतिक चेतना का विकास – जनता में यह भावना पैदा हुई कि विभिन्न समुदाय मिलकर स्वतंत्रता की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
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संवैधानिक सुधारों की नींव – इस समझौते ने ब्रिटिश सरकार को 1919 के भारत सरकार अधिनियम (मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार) लाने के लिए प्रेरित किया।
आलोचनाएँ
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अलग निर्वाचन का प्रावधान – अलग निर्वाचन प्रणाली ने भविष्य में साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ावा दिया, जो अंततः 1947 में देश के विभाजन का एक कारण बना।
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मुस्लिम लीग को अधिक रियायतें – कुछ इतिहासकार मानते हैं कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को आवश्यकता से अधिक राजनीतिक रियायतें दे दीं।
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स्थायी एकता न रहना – लखनऊ समझौते की एकता अस्थायी थी, जो बाद के वर्षों में साम्प्रदायिक राजनीति के कारण टूट गई।
लखनऊ समझौते का प्रभाव
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1916 का लखनऊ समझौता भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक अनोखा अवसर था, जब हिंदू और मुसलमान एकजुट होकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ खड़े हुए।
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इसने भारतीय राजनीति में सामूहिक नेतृत्व और संवाद की परंपरा को मजबूत किया।
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हालांकि, अलग निर्वाचन की स्वीकृति ने भविष्य में साम्प्रदायिक तनाव की नींव रख दी, जो भारतीय इतिहास में एक विवादास्पद निर्णय माना जाता है।
निष्कर्ष
लखनऊ समझौता भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक ऐतिहासिक मोड़ था, जिसने हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल पेश की और राष्ट्रीय आंदोलन को नई ऊर्जा दी। यद्यपि इसके कुछ प्रावधान भविष्य में विभाजनकारी साबित हुए, फिर भी यह समझौता इस बात का प्रमाण है कि विभिन्न विचारधाराओं और समुदायों के बीच संवाद एवं समझौते के माध्यम से बड़े लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं। यह समझौता भारतीय राजनीति में सहयोग, एकता और साझा संघर्ष की भावना का प्रतीक बना, जो स्वतंत्रता के मार्ग पर एक महत्वपूर्ण पड़ाव था।
प्रश्न 06: दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी के द्वारा किए गए सुधारवादी आंदोलनों का मूल्यांकन कीजिए।
1. भूमिका
महात्मा गांधी का दक्षिण अफ्रीका प्रवास (1893-1914) उनके राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक विचारों के निर्माण की प्रयोगशाला सिद्ध हुआ। यहीं उन्होंने सत्याग्रह और अहिंसात्मक संघर्ष के सिद्धांत को विकसित और परखा। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने भारतीयों के अधिकारों की रक्षा हेतु अनेक सुधारवादी आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिनसे न केवल भारतीय समुदाय को सम्मान मिला बल्कि पूरे विश्व में अहिंसात्मक संघर्ष की एक नई राह प्रशस्त हुई।
2. दक्षिण अफ्रीका की पृष्ठभूमि
19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी।
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भारतीय मजदूरों को बंधुआ मजदूरी के रूप में लाया जाता था।
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व्यापार करने वाले भारतीयों पर कठोर कानून और कर लगाए जाते थे।
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नस्लभेद के कारण उन्हें सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी अधिकारों से वंचित रखा जाता था।
इसी संदर्भ में 1893 में गांधीजी एक वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे, लेकिन जल्द ही वे भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई में कूद पड़े।
3. गांधीजी के प्रमुख सुधारवादी आंदोलन
(क) नटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना (1894)
गांधीजी ने भारतीयों के राजनीतिक और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए नटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की।
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उद्देश्य: भारतीयों की समस्याओं को सरकार के सामने संगठित रूप से रखना।
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परिणाम: भारतीय समुदाय में संगठन और जागरूकता आई।
(ख) प्रेस और प्रचार का उपयोग
गांधीजी ने "इंडियन ओपिनियन" नामक समाचार पत्र शुरू किया, जिससे भारतीयों के अधिकारों और समस्याओं के बारे में प्रचार हुआ।
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इससे दक्षिण अफ्रीका और भारत दोनों में भारतीयों की स्थिति पर ध्यान गया।
(ग) 1906 का एशियाई पंजीकरण अधिनियम (ब्लैक एक्ट) के खिलाफ आंदोलन
सरकार ने एशियाई नागरिकों को पंजीकरण कराने और पहचान पत्र रखने के लिए मजबूर करने वाला कानून बनाया।
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गांधीजी ने इसका कड़ा विरोध किया और सत्याग्रह शुरू किया।
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सत्याग्रहियों ने पहचान पत्र जलाए और गिरफ्तारी दी।
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अंततः 1914 में समझौता हुआ और कानून में संशोधन किया गया।
(घ) बंधुआ मजदूरी और कर विरोध आंदोलन (1906-1913)
बंधुआ मजदूरी खत्म होने के बाद भारतीय मजदूरों पर तीन पाउंड का विशेष कर लगाया गया।
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गांधीजी ने इसके विरोध में मजदूरों को संगठित किया।
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व्यापक हड़ताल और प्रदर्शन हुए।
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सरकार को कर समाप्त करना पड़ा।
(ङ) रेल में नस्लभेद के खिलाफ संघर्ष
गांधीजी के जीवन की एक प्रसिद्ध घटना—पीटरमैरिट्जबर्ग स्टेशन पर प्रथम श्रेणी से धक्का देकर बाहर निकाले जाने—ने उनके संघर्ष की दिशा तय की।
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उन्होंने इसे व्यक्तिगत अपमान न मानकर नस्लभेद के खिलाफ जनांदोलन का रूप दिया।
4. गांधीजी के आंदोलनों की विशेषताएँ
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अहिंसा और सत्याग्रह – आंदोलनों में हिंसा का पूर्ण अभाव रहा।
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संगठन और जनजागरण – भारतीयों को एकजुट कर संघर्ष के लिए तैयार किया।
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नैतिक बल का प्रयोग – विरोधियों को नैतिक दृष्टि से प्रभावित करने का प्रयास।
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धार्मिक और सांस्कृतिक एकता – हिंदू, मुस्लिम और पारसी समुदाय को साथ लाना।
5. आंदोलनों के परिणाम
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भारतीयों के खिलाफ कई कठोर कानूनों में संशोधन हुआ।
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तीन पाउंड कर समाप्त हुआ।
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भारतीय समुदाय की सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।
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गांधीजी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नैतिक नेता के रूप में पहचान मिली।
6. मूल्यांकन
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के आंदोलनों का मूल्यांकन निम्न बिंदुओं पर किया जा सकता है—
(क) सकारात्मक पक्ष
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सत्याग्रह की प्रयोगशाला – गांधीजी ने अहिंसात्मक संघर्ष की एक प्रभावी पद्धति विकसित की, जिसका बाद में भारत में स्वतंत्रता संग्राम में व्यापक उपयोग हुआ।
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जनसंगठन का विकास – विभाजित और हतोत्साहित भारतीय समुदाय को संगठित और आत्मविश्वासी बनाया।
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वैश्विक प्रेरणा – उनके संघर्ष ने दुनिया भर में नागरिक अधिकार आंदोलनों को प्रेरित किया।
(ख) सीमाएँ
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आंदोलनों का दायरा मुख्य रूप से भारतीय समुदाय तक सीमित रहा, स्थानीय अश्वेत समुदाय के साथ व्यापक संयुक्त संघर्ष नहीं हुआ।
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कई समझौतों में सरकार ने आंशिक रियायतें दीं, पूर्ण समानता नहीं।
7. उपसंहार
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के सुधारवादी आंदोलनों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियाद तैयार की। यहाँ उन्होंने सत्याग्रह, अहिंसा, और नैतिक बल के प्रयोग की सफल पद्धति विकसित की, जिसने उन्हें महात्मा बना दिया। यद्यपि कुछ सीमाएँ थीं, फिर भी इन आंदोलनों ने साबित किया कि बिना हिंसा के भी बड़े परिवर्तन लाए जा सकते हैं। गांधीजी का दक्षिण अफ्रीका का संघर्ष केवल भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई नहीं था, बल्कि मानवता के सम्मान और न्याय के लिए एक ऐतिहासिक प्रयोग था।
प्रश्न 07 : लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
भूमिका
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन महान नेताओं में से एक थे, जिन्होंने देशवासियों में स्वतंत्रता के प्रति चेतना और संघर्ष की भावना जगाई। तिलक को "लोकमान्य" की उपाधि जनता ने उनके असाधारण नेतृत्व, त्याग और साहस के लिए दी थी। वे केवल एक राजनेता ही नहीं, बल्कि शिक्षाविद, पत्रकार, समाज-सुधारक और क्रांतिकारी विचारक भी थे। उन्होंने भारतीय राजनीति में "पूर्ण स्वराज" का विचार प्रस्तुत किया और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जन-आंदोलन की मजबूत नींव रखी।
प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा
बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में हुआ। उनके पिता गंगाधर रामचंद्र तिलक संस्कृत के विद्वान और शिक्षक थे। तिलक ने गणित और संस्कृत में गहरी रुचि दिखाई तथा 1877 में उन्होंने पुणे के डेक्कन कॉलेज से गणित में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई भी पूरी की। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने समाज सेवा और राष्ट्र सेवा को अपना जीवन-ध्येय बनाया।
शिक्षा के क्षेत्र में योगदान
तिलक का मानना था कि किसी भी राष्ट्र की उन्नति का आधार उसकी शिक्षा प्रणाली है। उन्होंने गोपाल गणेश आगरकर और अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर 1880 में "डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी" की स्थापना की, जिसके अंतर्गत फर्ग्यूसन कॉलेज, पुणे की स्थापना हुई। उनका उद्देश्य था कि भारतीय युवाओं को राष्ट्रवादी और वैज्ञानिक सोच के साथ शिक्षित किया जाए, ताकि वे देश की सेवा के लिए तैयार हो सकें।
पत्रकारिता और राष्ट्रवाद का प्रसार
तिलक ने पत्रकारिता को जन-जागरण का एक सशक्त माध्यम बनाया। उन्होंने दो प्रमुख समाचार पत्र शुरू किए—
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केसरी (मराठी में)
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मराठा (अंग्रेजी में)
इन पत्रों के माध्यम से उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों की आलोचना की, जनता में आत्मगौरव जगाया और स्वतंत्रता की आवश्यकता पर बल दिया। उनकी लेखनी तीखी, प्रभावशाली और प्रेरणादायक थी, जिसके कारण उन्हें कई बार ब्रिटिश शासन के दमन का सामना करना पड़ा।
राजनीतिक जीवन और विचारधारा
तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेता बने, लेकिन उनकी कार्यशैली और विचारधारा मध्यमपंथियों से अलग थी। उन्होंने कहा—
"स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।"
वे मानते थे कि केवल प्रार्थना और निवेदन से स्वतंत्रता नहीं मिलेगी, बल्कि इसके लिए संघर्ष और त्याग आवश्यक है। उन्होंने गरम दल का नेतृत्व किया और लाला लाजपत राय तथा बिपिन चंद्र पाल के साथ मिलकर "लाल-बाल-पाल" की त्रयी बनाई।
सांस्कृतिक पुनर्जागरण और जन-जागरण
तिलक ने धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों को जन-जागरण का माध्यम बनाया। उन्होंने गणेशोत्सव और शिवाजी महोत्सव को सार्वजनिक रूप में मनाने की शुरुआत की, जिससे जनता में एकता, राष्ट्रीय चेतना और स्वाभिमान की भावना जागृत हुई। इन आयोजनों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक जन-आंदोलन का रूप ले लिया।
क्रांतिकारी गतिविधियों में भूमिका
हालांकि तिलक स्वयं प्रत्यक्ष हिंसक क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल नहीं थे, लेकिन उनके लेखों और भाषणों ने क्रांतिकारी युवाओं को प्रेरित किया। 1908 में मुजफ्फरपुर बम कांड के संदर्भ में उन्हें गिरफ्तार कर बर्मा (मंडाले जेल) भेज दिया गया, जहाँ उन्होंने छह वर्ष का कारावास काटा। इसी दौरान उन्होंने गीता पर आधारित प्रसिद्ध ग्रंथ "गीतारहस्य" लिखा, जिसमें उन्होंने कर्मयोग का संदेश दिया।
होम रूल आंदोलन
1916 में, एनी बेसेंट के साथ मिलकर तिलक ने होम रूल आंदोलन की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य भारत में स्वशासन की स्थापना करना था। इस आंदोलन ने पूरे देश में स्वराज की मांग को प्रबल किया।
अंतरराष्ट्रीय योगदान
तिलक ने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी रखा। उन्होंने इंग्लैंड, अमेरिका और अन्य देशों में जाकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समर्थन में जनमत तैयार किया।
मृत्यु
1 अगस्त 1920 को बाल गंगाधर तिलक का निधन हो गया। उनकी मृत्यु पर पूरे भारत में शोक की लहर दौड़ गई। महात्मा गांधी ने उन्हें "भारत का निर्माता" कहा।
तिलक के प्रमुख योगदान
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शिक्षा के क्षेत्र में सुधार और राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना।
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पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रवाद का प्रचार।
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धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों के माध्यम से जन-एकता।
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होम रूल आंदोलन का नेतृत्व।
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"पूर्ण स्वराज" का नारा और जन-जागरण।
उपसंहार
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी थे। उन्होंने न केवल स्वतंत्रता का सपना देखा, बल्कि उसे पाने के लिए जन-आंदोलन की मजबूत नींव रखी। उनकी शिक्षाएं, विचार और संघर्ष आज भी प्रेरणा देते हैं। तिलक का जीवन यह सिद्ध करता है कि राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए निडर नेतृत्व, संघर्ष और बलिदान आवश्यक है।
प्रश्न 01: वी. डी. सावरकर
भूमिका
वीर विनायक दामोदर सावरकर (V.D. Savarkar) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान क्रांतिकारी, चिंतक, लेखक और राष्ट्रवादी नेता थे। उन्होंने अपने जीवन को देश की आज़ादी के लिए समर्पित किया और ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का प्रचार किया। सावरकर जी न केवल राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय थे, बल्कि उन्होंने सामाजिक सुधार और हिंदुत्व की वैचारिक व्याख्या में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी निडरता, दृढ़ संकल्प और त्याग की भावना के कारण उन्हें "स्वातंत्र्यवीर" की उपाधि प्राप्त हुई।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
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जन्म – 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भगूर गांव में।
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बचपन से ही उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी। उन्होंने शिवाजी और मराठा साम्राज्य की गौरवगाथाओं से प्रेरणा ली।
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प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई, आगे की पढ़ाई के लिए वे पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में गए।
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1906 में कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड के लंदन गए, जहां उन्होंने इंडिया हाउस में रहकर क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया।
क्रांतिकारी गतिविधियाँ
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अभिनव भारत की स्थापना – 1904 में अपने भाई के साथ ‘अभिनव भारत’ नामक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति द्वारा अंग्रेजों को भारत से बाहर करना था।
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1857 का स्वतंत्रता संग्राम – इंग्लैंड में रहते हुए उन्होंने "The First War of Indian Independence 1857" पुस्तक लिखी, जिसमें 1857 की क्रांति को स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई के रूप में प्रस्तुत किया।
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हथियारों की आपूर्ति – क्रांतिकारियों के लिए हथियारों की व्यवस्था और प्रशिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
गिरफ्तारी और कालापानी की सजा
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1909 में नासिक के कलेक्टर ए.एम. जैक्सन की हत्या में अप्रत्यक्ष संलिप्तता के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया गया।
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1910 में उन्हें भारत लाया गया, लेकिन रास्ते में फ्रांस के मार्से बंदरगाह पर भागने की कोशिश विफल रही।
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उन्हें दोहरे आजीवन कारावास (50 वर्ष) की सजा हुई और अंडमान-निकोबार के सेल्युलर जेल (कालापानी) भेजा गया।
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जेल में उन्होंने कठोर यातनाएँ सही—नारियल की रस्सी बनाना, तेल कोल्हू चलाना, और अमानवीय व्यवहार सहना पड़ा।
सामाजिक सुधारक के रूप में योगदान
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उन्होंने जाति प्रथा, अस्पृश्यता और सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया।
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‘अछूतों’ के लिए मंदिर प्रवेश, पानी के स्रोतों और सार्वजनिक स्थानों पर समान अधिकार के लिए आंदोलन चलाए।
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महिलाओं की शिक्षा और विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया।
राजनीतिक विचारधारा
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हिंदुत्व की अवधारणा – सावरकर ने 1923 में ‘हिंदुत्व: हू इज़ अ हिंदू?’ पुस्तक लिखी, जिसमें हिंदू संस्कृति, इतिहास और पहचान पर बल दिया।
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सशस्त्र संघर्ष का समर्थन – वे मानते थे कि केवल अहिंसा से स्वतंत्रता नहीं मिल सकती, इसके लिए बलिदान और संघर्ष आवश्यक है।
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संपूर्ण स्वतंत्रता की मांग – उन्होंने 1930 के दशक में ही भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग उठाई, जो बाद में 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बड़े पैमाने पर आई।
अंडमान से रिहाई और आगे का जीवन
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1924 में उन्हें कठोर शर्तों के साथ रिहा किया गया और रत्नागिरी में नजरबंद रखा गया।
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नजरबंदी के दौरान उन्होंने सामाजिक सुधार कार्यों पर ध्यान दिया।
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बाद में वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिशों को समर्थन देने की नीति अपनाई, ताकि भारत को सामरिक लाभ मिल सके।
विवाद और आलोचनाएँ
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महात्मा गांधी की हत्या के मामले में उन्हें अभियुक्त बनाया गया, लेकिन सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया।
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कुछ आलोचक उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद के कट्टर समर्थक मानते हैं, जबकि समर्थक उन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रवर्तक कहते हैं।
रचनाएँ
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1857 का स्वातंत्र्य समर
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हिंदुत्व: हू इज़ अ हिंदू?
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माझी जन्मठेप (आत्मकथा)
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अनेक कविताएँ और नाटक, जिनमें देशभक्ति और क्रांतिकारी चेतना झलकती है।
मृत्यु
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1 फरवरी 1966 को उन्होंने आत्म-निर्णय द्वारा उपवास शुरू किया और 26 फरवरी 1966 को उनका निधन हुआ।
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उन्होंने इसे "आत्मार्पण" कहा, यह मानते हुए कि उनका जीवन मिशन पूरा हो चुका है।
उपसंहार
वी.डी. सावरकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के ऐसे महानायक थे, जिन्होंने न केवल अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का आह्वान किया, बल्कि सामाजिक सुधार और राष्ट्रवाद की विचारधारा को भी नई दिशा दी। उनकी वीरता, त्याग और राष्ट्रप्रेम की भावना आज भी प्रेरणा देती है। वे निडर, दृढ़ और दूरदर्शी नेता थे, जिनका योगदान भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेगा।