GEHI-01 SOLVED PAPER JUNE 2024

 GEHI-01 SOLVED PAPER JUNE 2024




LONG ANSWER TYPE QUESTIONS 


01. क्या 1857 के विद्रोह ने भारतीयों में राजनैतिक चेतना विकसित करने में भूमिका निभाई?



1857 के विद्रोह और भारतीयों में राजनीतिक चेतना का विकास


1857 का विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम महत्वपूर्ण संगठित प्रयास था, जिसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है। यह विद्रोह केवल सैनिक विद्रोह तक सीमित नहीं था, बल्कि इसने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को ब्रिटिश शासन के प्रति एकजुट किया और भारतीयों में राजनीतिक चेतना विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


1. राष्ट्रीयता की भावना का विकास


1857 के विद्रोह ने विभिन्न जातियों, धर्मों और वर्गों के लोगों को एक साथ लाने का कार्य किया। भले ही यह विद्रोह सफल नहीं हुआ, लेकिन इसने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना जागृत की और उन्हें यह एहसास कराया कि वे एक विदेशी सत्ता के अधीन हैं।


2. ब्रिटिश शोषण के प्रति जागरूकता


विद्रोह के दौरान भारतीयों को ब्रिटिश नीतियों की क्रूरता का अनुभव हुआ। किसानों, जमींदारों, सैनिकों, और आम जनता ने महसूस किया कि ब्रिटिश हुकूमत केवल अपने स्वार्थ के लिए शासन कर रही है। यह समझ भारतीयों में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ जागरूकता और संघर्ष की भावना को प्रबल करने में सहायक बनी।


3. स्वतंत्रता संग्राम की नींव


हालांकि 1857 का विद्रोह असफल रहा, लेकिन इसने भविष्य के स्वतंत्रता आंदोलनों की नींव रखी। इस विद्रोह के बाद भारतीय समाज में संगठित विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी, जो आगे चलकर कांग्रेस और अन्य राजनीतिक संगठनों के गठन में सहायक बनी।


4. प्रेस और साहित्य के माध्यम से जागरूकता


1857 के विद्रोह के बाद भारतीय समाज में राजनीतिक चेतना को बढ़ावा देने के लिए समाचार पत्र, पत्रिकाएँ और साहित्य का सहारा लिया गया। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय और अन्य लेखकों ने अपने लेखन के माध्यम से लोगों में राष्ट्रभक्ति की भावना जगाई।


5. भारतीय नेताओं का उदय


विद्रोह के बाद भारतीय नेताओं को यह समझ में आया कि स्वतंत्रता केवल सशस्त्र संघर्ष से नहीं, बल्कि राजनीतिक संगठनों और आंदोलन के माध्यम से भी प्राप्त की जा सकती है। दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बाल गंगाधर तिलक और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश शासन की नीतियों का विरोध किया और भारतीयों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया।


निष्कर्ष


1857 के विद्रोह ने भारतीयों में राजनीतिक चेतना के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस विद्रोह ने भारतीयों को यह अनुभव कराया कि यदि वे संगठित होकर संघर्ष करें तो ब्रिटिश शासन को चुनौती दी जा सकती है। यद्यपि यह विद्रोह असफल रहा, लेकिन इसने आने वाले दशकों में स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी और भारतीय समाज को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रेरित किया।



02. भारत के स्वाधीनता संघर्ष में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भूमिका का विस्तार से वर्णन कीजिये।




भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress - INC) की स्थापना 28 दिसंबर 1885 को हुई थी। ए. ओ. ह्यूम, दादा भाई नौरोजी और सुरेंद्रनाथ बनर्जी सहित कई भारतीय राष्ट्रवादियों ने इसे एक राष्ट्रीय मंच के रूप में स्थापित किया। कांग्रेस ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और धीरे-धीरे एक मजबूत राजनीतिक संगठन के रूप में विकसित हुई।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भूमिका


1. प्रारंभिक चरण (1885-1905): उदारवादी रुख


कांग्रेस के प्रारंभिक वर्षों में उदारवादी (Moderates) नेता जैसे दादा भाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले और सुरेंद्रनाथ बनर्जी सक्रिय थे। इस दौर में कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार से सुधारों की माँग की और संवैधानिक तरीकों से भारतीयों के अधिकारों की रक्षा का प्रयास किया।


महत्वपूर्ण माँगें:


भारतीयों को प्रशासन में अधिक भागीदारी दी जाए।


ब्रिटिश सरकार भारतीयों का आर्थिक शोषण बंद करे।


न्यायिक और प्रशासनिक सुधार किए जाएं।


सफलताएँ:


कांग्रेस के प्रयासों से 1892 में भारतीय परिषद अधिनियम (Indian Councils Act) पारित हुआ, जिससे भारतीयों को सीमित प्रतिनिधित्व मिला।


2. गरमदल और उग्रवादी राष्ट्रवाद (1905-1919)


1905 में बंगाल विभाजन के बाद कांग्रेस के अंदर गरमदल (Extremists) और नरमदल (Moderates) में मतभेद उभरने लगे। बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय जैसे नेताओं ने उग्रवादी विचारधारा को बढ़ावा दिया और "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है" का नारा दिया।


स्वदेशी आंदोलन (1905):


विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने का आह्वान।


ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक विरोध।


होम रूल मूवमेंट (1916):


बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट के नेतृत्व में स्वशासन की माँग।


लखनऊ समझौता (1916):


कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एकता स्थापित हुई, जिससे स्वतंत्रता संग्राम को बल मिला।


3. महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस (1919-1947)


1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड और रौलट एक्ट के विरोध में कांग्रेस ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू किया। महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अहिंसक संघर्ष और जनांदोलन के माध्यम से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी।


असहयोग आंदोलन (1920-22):


ब्रिटिश संस्थानों, न्यायालयों और सरकारी नौकरियों का बहिष्कार।


खादी और स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की अपील।


चौरी-चौरा कांड के कारण गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया।


सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34):


1930 में दांडी मार्च के माध्यम से नमक कानून तोड़ने का ऐलान।


ब्रिटिश सरकार के अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन।


भारत छोड़ो आंदोलन (1942):


"अंग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा देकर गांधीजी ने व्यापक आंदोलन छेड़ा।


ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार किया।


द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार पर भारी दबाव डाला।


4. कांग्रेस की भूमिका स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) में


1946 में कांग्रेस ने अंतरिम सरकार बनाई, जिसमें जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने।


1947 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया और 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ।


स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस ने भारतीय संविधान निर्माण और लोकतांत्रिक प्रणाली को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


निष्कर्ष


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख संगठन था। इसने प्रारंभ में संवैधानिक सुधारों की माँग की, फिर उग्र राष्ट्रवाद को अपनाया और अंततः गांधीजी के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन चलाया। कांग्रेस ने भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में निर्णायक भूमिका निभाई और स्वतंत्र भारत के निर्माण में भी योगदान दिया।




03. भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में लोकमान्य तिलक के योगदान की व्याख्या कीजिये।




लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (1856-1920) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं में से एक थे। वे गरमदल (Extremists) के प्रखर नेता थे और उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा दी। तिलक ने "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूंगा" का नारा दिया, जिसने भारतीयों में स्वतंत्रता की चेतना को जागृत किया। वे एक प्रभावशाली राष्ट्रवादी, पत्रकार, समाज सुधारक और क्रांतिकारी विचारक थे।


1. स्वराज और राष्ट्रवाद का प्रचार


तिलक ने भारतीयों को यह समझाया कि स्वतंत्रता किसी बाहरी शक्ति से मांगने की चीज नहीं है, बल्कि यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ राष्ट्रवाद की भावना को प्रबल किया और जनता को स्वाधीनता संघर्ष के लिए प्रेरित किया।


"स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है" – यह नारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख प्रेरणास्त्रोत बना।


उन्होंने भारतीय समाज में राजनीतिक चेतना को बढ़ावा देने के लिए अखबारों और सभाओं का सहारा लिया।


2. पत्रकारिता और जनजागृति


तिलक ने पत्रकारिता को स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण हथियार बनाया। उन्होंने अपने समाचार पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनमत तैयार किया।


केसरी (मराठी) और मराठा (अंग्रेजी) – इन समाचार पत्रों के माध्यम से उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों की आलोचना की और जनता को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।


उनके लेखों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कई बार जेल में डाला, लेकिन वे अपने विचारों से पीछे नहीं हटे।


3. स्वदेशी आंदोलन और राष्ट्रीय शिक्षा


तिलक ने भारतीयों को आत्मनिर्भर बनने और विदेशी वस्त्रों और उत्पादों का बहिष्कार करने के लिए प्रेरित किया।


उन्होंने भारतीयों को स्वदेशी वस्त्रों, उद्योगों और शिक्षा को अपनाने पर जोर दिया।


राष्ट्रीय शिक्षा के लिए उन्होंने स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की, ताकि भारतीय युवाओं में राष्ट्रवादी चेतना उत्पन्न हो।


4. सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण


तिलक ने भारतीय समाज में राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों का सहारा लिया।


गणपति उत्सव (1893):


उन्होंने गणपति उत्सव को एक सार्वजनिक आयोजन के रूप में शुरू किया, जिससे लोगों को संगठित होकर एकजुट होने का अवसर मिला।


शिवाजी महोत्सव (1895):


इस उत्सव के माध्यम से उन्होंने छत्रपति शिवाजी की वीरता और राष्ट्रभक्ति की भावना को पुनर्जीवित किया।


5. होम रूल मूवमेंट (1916)


तिलक ने एनी बेसेंट के साथ मिलकर होम रूल मूवमेंट शुरू किया, जिसका उद्देश्य भारत में स्वशासन (Self-Government) की स्थापना करना था।


इस आंदोलन ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनमानस को संगठित किया और स्वतंत्रता की माँग को और मजबूत बनाया।


उन्होंने ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाने के लिए पूरे भारत में यात्राएँ कीं और जनता को संगठित किया।


6. ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष और जेल यात्रा


तिलक ने ब्रिटिश सरकार की नीतियों का लगातार विरोध किया, जिसके कारण उन्हें कई बार जेल में डाला गया।


1908 में सजा:


जब उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों का समर्थन किया, तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें छह साल की सजा देकर मांडले (बर्मा) जेल भेज दिया।


जेल में रहते हुए उन्होंने गीता रहस्य नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने कर्मयोग पर बल दिया और भारतीयों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया।


7. कांग्रेस में योगदान और स्वतंत्रता संग्राम की दिशा


तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। हालांकि 1907 में कांग्रेस में गरमदल और नरमदल के बीच मतभेद हुआ, लेकिन 1916 में तिलक ने पुनः कांग्रेस में अपनी भूमिका निभाई।


लखनऊ समझौता (1916):


इस समझौते के तहत कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच सहयोग बढ़ा और स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा मिली।


उन्होंने 1919 के खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन का समर्थन किया, जिससे स्वतंत्रता संग्राम को बल मिला।


निष्कर्ष


बाल गंगाधर तिलक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता थे, जिन्होंने भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना को जागृत किया। उन्होंने स्वराज, स्वदेशी, शिक्षा और जनजागरण के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूती दी। उनके विचार और नीतियाँ महात्मा गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणास्रोत बनीं। तिलक ने भारतीय समाज को आत्मनिर्भरता और संगठित संघर्ष की दिशा में अग्रसर किया, जिससे अंततः भारत को स्वतंत्रता प्राप्त करने में सहायता मिली।




04. ब्रिटिश भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन के स्वरूप और परिणामों का परीक्षण कीजिये।




ब्रिटिश भारत में क्रांतिकारी आंदोलन: स्वरूप और परिणाम


ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी आंदोलन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह आंदोलन 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान उभरकर सामने आया, जिसमें युवाओं और राष्ट्रवादियों ने सशस्त्र क्रांति और गुप्त संगठनों के माध्यम से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने का प्रयास किया।


क्रांतिकारी आंदोलन का स्वरूप


ब्रिटिश सरकार के दमनकारी नीतियों और अहिंसक आंदोलनों की सीमाओं के कारण युवाओं में क्रांतिकारी गतिविधियों की प्रवृत्ति बढ़ी। क्रांतिकारी आंदोलन का स्वरूप मुख्य रूप से निम्नलिखित रूपों में देखा गया:


1. गुप्त संगठन और क्रांतिकारी दल


क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित करने के लिए गुप्त संगठन बनाए गए, जिनका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करना था।


अनुशीलन समिति (1902): प्रमथनाथ मित्र और अरविंद घोष द्वारा स्थापित, जिसने बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों को संगठित किया।


युगांतर दल (1906): बारिंद्र कुमार घोष के नेतृत्व में सक्रिय, जिसने ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या के लिए बम विस्फोटों की योजना बनाई।


गदर पार्टी (1913): अमेरिका और कनाडा में बसे भारतीयों द्वारा गठित, जिसने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह की योजना बनाई।


2. बम विस्फोट और ब्रिटिश अधिकारियों की हत्याएँ


ब्रिटिश सरकार को चुनौती देने के लिए क्रांतिकारियों ने बम विस्फोट और ब्रिटिश अधिकारियों की हत्याएँ कीं।


1908: खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर बमकांड को अंजाम दिया।


1912: रासबिहारी बोस और बासंती लाल ने वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंका।


1925: काकोरी कांड, जिसमें चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान ने ब्रिटिश खजाने को लूटने का प्रयास किया।


3. विदेशी सहयोग और सशस्त्र विद्रोह


कुछ क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए विदेशी शक्तियों से समर्थन लिया।


गदर आंदोलन (1914-15): अमेरिका और कनाडा में भारतीय प्रवासियों द्वारा ब्रिटिश भारत में विद्रोह की योजना बनाई गई।


हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) (1928): भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और अन्य क्रांतिकारियों ने समाजवादी सिद्धांतों पर आधारित क्रांतिकारी आंदोलन को संगठित किया।


आजाद हिंद फौज (1943): सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में गठित सेना, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ लड़ाई लड़ी।


क्रांतिकारी आंदोलन के परिणाम


1. स्वतंत्रता संग्राम को बल मिला


क्रांतिकारी गतिविधियों ने ब्रिटिश शासन के प्रति भारतीयों में भय को समाप्त किया और स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। जनता में राष्ट्रवाद और बलिदान की भावना बढ़ी।


2. ब्रिटिश सरकार का दमन


क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने कठोर दमनकारी नीतियाँ अपनाईं, जैसे:


रौलट एक्ट (1919): सरकार को बिना मुकदमे के किसी को भी गिरफ्तार करने का अधिकार मिला।


जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919): शांतिपूर्ण सभा पर जनरल डायर ने गोलियाँ चलवा दीं।


3. क्रांतिकारी विचारधारा का विस्तार


भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके साथियों ने समाजवादी विचारधारा को अपनाया और ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ जनमत तैयार किया।


"इंकलाब जिंदाबाद" जैसे नारे क्रांतिकारी आंदोलन की प्रेरणा बने।


4. गांधीजी का अहिंसक आंदोलन प्रभावी हुआ


क्रांतिकारी आंदोलनों की कठोरता और उनके दमन के कारण जनता का समर्थन अहिंसक आंदोलनों की ओर बढ़ा।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अहिंसक आंदोलनों को प्राथमिकता दी, जिससे महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन को बल मिला।


5. ब्रिटिश शासन के अंत की नींव रखी


क्रांतिकारी आंदोलन ने भारतीयों में आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के प्रति जागरूकता बढ़ाई। इसके परिणामस्वरूप 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ।


निष्कर्ष


ब्रिटिश भारत में क्रांतिकारी आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नया आयाम दिया। यद्यपि क्रांतिकारी गतिविधियाँ सशस्त्र संघर्ष पर केंद्रित थीं और कई बार विफल रहीं, लेकिन उन्होंने भारतीयों में स्वतंत्रता की ललक को तेज किया। क्रांतिकारी विचारधारा ने ब्रिटिश शासन की नींव कमजोर कर दी और अंततः भारत को स्वतंत्रता प्राप्त करने में मदद की।




05. होमरूल आंदोलन से आप क्या समझते हैं? विस्तार से बताएं।




परिचय


होमरूल आंदोलन (Home Rule Movement) भारत में 1916-1918 के दौरान चला एक महत्वपूर्ण राष्ट्रवादी आंदोलन था, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के तहत स्वशासन (Self-Government) प्राप्त करना था। इस आंदोलन की शुरुआत बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट ने की थी। इसका मूल उद्देश्य भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत रहते हुए स्वायत्त शासन प्राप्त करना था, जैसा कि कनाडा और ऑस्ट्रेलिया को मिला था।


होमरूल आंदोलन की पृष्ठभूमि


ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियाँ: भारतीयों को राजनीतिक और प्रशासनिक अधिकारों से वंचित रखा गया।


प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918): युद्ध के दौरान भारतीयों से कर वसूली और सैनिक भर्ती बढ़ा दी गई, जिससे असंतोष बढ़ा।


1915 में कांग्रेस की निष्क्रियता: कांग्रेस का नेतृत्व नरमपंथियों के हाथ में था, जो सीधे संघर्ष से बच रहे थे।


आयरलैंड के होमरूल आंदोलन से प्रेरणा: आयरलैंड में होमरूल आंदोलन सफल हो रहा था, जिसने भारतीय नेताओं को प्रेरित किया।


होमरूल आंदोलन के प्रमुख नेता


1. बाल गंगाधर तिलक (महाराष्ट्र, 1916)


तिलक ने पुणे और मुंबई में होमरूल लीग की स्थापना की।


उनका नारा था "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।"


उन्होंने पूरे महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में आंदोलन को फैलाया।


2. एनी बेसेंट (मद्रास, 1916)


एनी बेसेंट ने मद्रास (अब चेन्नई) में अपनी होमरूल लीग की स्थापना की।


उन्होंने समाचार पत्र "न्यू इंडिया" और "कॉमनवील" के माध्यम से आंदोलन का प्रचार किया।


उन्होंने भारत को स्वशासन देने की मांग उठाई और महिलाओं को भी राजनीति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।


होमरूल आंदोलन के उद्देश्य


भारत में ब्रिटिश शासन के तहत स्वायत्त शासन की स्थापना।


भारतीयों को प्रशासन में अधिक अधिकार दिलाना।


ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध।


जनता में राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता की भावना को जागृत करना।


आंदोलन की रणनीति और प्रसार


जनसभाओं और भाषणों के माध्यम से जनता को जागरूक करना।


समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के जरिए ब्रिटिश नीतियों की आलोचना करना।


शिक्षा और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना।


कांग्रेस के भीतर समर्थन बढ़ाने का प्रयास करना।


ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया


सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए तिलक और एनी बेसेंट को गिरफ्तार किया।


प्रेस पर सेंसरशिप लागू की गई और आंदोलनों पर प्रतिबंध लगाया गया।


एनी बेसेंट की गिरफ्तारी के बाद पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुए, जिससे सरकार पर दबाव बढ़ा।


होमरूल आंदोलन के प्रभाव और परिणाम


1. कांग्रेस में उग्र राष्ट्रवाद का उदय


कांग्रेस में गरमपंथियों और नरमपंथियों के बीच मतभेद कम हुए।


1916 में लखनऊ समझौता हुआ, जिसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने मिलकर स्वशासन की मांग की।


2. ब्रिटिश सरकार पर दबाव बढ़ा


आंदोलन के प्रभाव को देखते हुए 1917 में ब्रिटिश सरकार ने मोंटेग्यू घोषणा की, जिसमें भारत को धीरे-धीरे स्वशासन देने की बात कही गई।


3. जनता में राष्ट्रीयता की भावना मजबूत हुई


यह आंदोलन गांधीजी के असहयोग आंदोलन (1920) के लिए प्रेरणा बना।


भारतीयों में आत्मनिर्भरता और स्वदेशी आंदोलन की भावना को बढ़ावा मिला।


निष्कर्ष


होमरूल आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण चरण था, जिसने भारतीयों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ाई और ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाया। हालांकि यह आंदोलन पूर्ण स्वराज हासिल नहीं कर सका, लेकिन इसने भविष्य के आंदोलनों के लिए नींव तैयार की। इसका प्रभाव गांधीजी के असहयोग आंदोलन और बाद के स्वतंत्रता संग्राम पर स्पष्ट रूप से देखा गया।


GEHI-01 SOLVED PAPER JUNE 2024

SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS 


01 . गांधी पर पाश्चात्य विचारकों का प्रभाव।


ChatGPT said:


गांधी पर पाश्चात्य विचारकों का प्रभाव


महात्मा गांधी के विचारों और उनके नेतृत्व की शैली पर भारतीय परंपराओं और धार्मिक ग्रंथों के साथ-साथ कई पाश्चात्य (पश्चिमी) विचारकों का भी गहरा प्रभाव पड़ा। गांधीजी ने अपने जीवन में कई यूरोपीय और अमेरिकी विचारकों के साहित्य का अध्ययन किया और उनमें से कुछ के विचारों को अपने जीवन तथा आंदोलन में अपनाया। निम्नलिखित पाश्चात्य विचारकों ने गांधीजी के चिंतन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला—


1. हेनरी डेविड थोरो (Henry David Thoreau)


थोरो के "सिविल डिसओबिडिएंस" (नागरिक अवज्ञा) नामक निबंध ने गांधीजी को अहिंसक प्रतिरोध और सत्याग्रह की अवधारणा को समझने में मदद की। थोरो ने यह विचार दिया था कि यदि कोई सरकार अन्यायपूर्ण कानून बनाती है, तो नागरिकों का कर्तव्य है कि वे अहिंसक रूप से उसका विरोध करें। गांधीजी ने इसी विचार को अपने स्वतंत्रता संग्राम में अपनाया।


2. लियो टॉल्सटॉय (Leo Tolstoy)


रूसी लेखक और दार्शनिक टॉल्सटॉय के विचारों ने गांधीजी को गहरे रूप से प्रभावित किया। टॉल्सटॉय की पुस्तक "The Kingdom of God is Within You" ने गांधीजी को अहिंसा, सादगी और सच्चाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। दोनों के बीच पत्र-व्यवहार भी हुआ और गांधीजी ने टॉल्सटॉय फार्म की स्थापना की, जो उनके विचारों से प्रभावित था।


3. जॉन रस्किन (John Ruskin)


रस्किन की पुस्तक "Unto This Last" का गांधीजी पर बहुत प्रभाव पड़ा। इस पुस्तक में सामाजिक न्याय, श्रम की गरिमा और समानता पर जोर दिया गया था। गांधीजी ने इस पुस्तक से प्रभावित होकर अपना जीवन सरल बनाया और श्रम के महत्व को स्वीकार किया। उन्होंने इसे गुजराती में "सर्वोदय" नाम से अनुवादित भी किया।


4. ईसाई धर्म और बाइबिल


गांधीजी ने ईसा मसीह के पर्वत उपदेश (Sermon on the Mount) को पढ़ा और इससे प्रेम, करुणा, क्षमा और अहिंसा के सिद्धांत सीखे। विशेष रूप से, "अगर कोई तुम्हारे दाएं गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरा भी उसके सामने कर दो" जैसी बातें उनके सत्याग्रह के विचार से मेल खाती थीं।


5. प्लेटो और अरस्तू


यद्यपि गांधीजी ने प्लेटो और अरस्तू के राजनीतिक सिद्धांतों को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया, लेकिन उनके कुछ विचारों, जैसे न्याय, नैतिकता और समाज के संगठन, ने गांधीजी के राजनीतिक और सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया।


6. रोमैँ रोलाँ (Romain Rolland)


फ्रांसीसी विचारक रोमैँ रोलाँ ने गांधीजी के विचारों का अध्ययन किया और उनके जीवन पर एक पुस्तक लिखी। उनकी पुस्तकों ने गांधीजी को यूरोपीय समाज की बारीकियों को समझने में मदद की।


निष्कर्ष


महात्मा गांधी पर भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही विचारधाराओं का गहरा प्रभाव था। पाश्चात्य विचारकों से उन्होंने अहिंसक प्रतिरोध, आत्मनिर्भरता, श्रम की गरिमा, नैतिकता और सत्याग्रह जैसे सिद्धांतों को ग्रहण किया और उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनाया। इस प्रकार, गांधीजी ने इन विचारों को भारतीय संदर्भ में ढालकर एक अनूठी विचारधारा विकसित की, जो आज भी प्रेरणादायक है।


02. ब्रह्म समाज




ब्रह्म समाज भारत के प्रमुख धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों में से एक था। इसकी स्थापना 1828 ई. में राजा राममोहन राय ने की थी। यह आंदोलन भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, कुरीतियों और धार्मिक कट्टरता को समाप्त कर तर्कसंगत, आधुनिक और प्रगतिशील विचारों को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया था।


ब्रह्म समाज की स्थापना और उद्देश्य


1. स्थापना:


ब्रह्म समाज की स्थापना राजा राममोहन राय ने 20 अगस्त 1828 को कोलकाता में की थी।


इसका मूल नाम "ब्रह्म सभा" था, जिसे बाद में "ब्रह्म समाज" कहा जाने लगा।


2. उद्देश्य:


समाज में सती प्रथा, बाल विवाह, जाति भेदभाव और मूर्तिपूजा जैसी कुरीतियों को समाप्त करना।


एकेश्वरवाद (केवल एक ईश्वर में विश्वास) को बढ़ावा देना।


वेदों और उपनिषदों की मूल शिक्षाओं के आधार पर धर्म को तर्कसंगत और वैज्ञानिक बनाना।


महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और उन्हें शिक्षा प्रदान करना।


विधवा विवाह को प्रोत्साहित करना और बहु विवाह पर रोक लगाना।


ब्रह्म समाज के प्रमुख सुधारक और उनके योगदान


1. राजा राममोहन राय (1772-1833)


उन्होंने सती प्रथा के खिलाफ आंदोलन चलाया, जिसके परिणामस्वरूप 1829 में इसे कानूनन प्रतिबंधित किया गया।


उन्होंने पश्चिमी शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया।


उन्होंने हिंदू धर्म में मूर्तिपूजा और बहुदेववाद का विरोध किया।


2. देवेंद्रनाथ ठाकुर (1817-1905)


1843 में वे ब्रह्म समाज से जुड़े और इसे संगठित रूप दिया।


उन्होंने तत्कालीन हिंदू धर्मग्रंथों की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत की।


उन्होंने ब्रह्म समाज को अधिक आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टिकोण दिया।


3. केशव चंद्र सेन (1838-1884)


1857 में वे ब्रह्म समाज से जुड़े और इसे सामाजिक सुधारों की ओर अधिक केंद्रित किया।


उन्होंने महिला शिक्षा, अंतरजातीय विवाह और विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा दिया।


उनके प्रयासों से 1872 में ब्रिटिश सरकार ने "विशेष विवाह अधिनियम" पारित किया, जिससे अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह कानूनी हो सके।


ब्रह्म समाज के प्रमुख विचार


एकेश्वरवाद: केवल एक ईश्वर की पूजा को मान्यता।


मूर्तिपूजा का विरोध: भगवान को निराकार और सर्वशक्तिमान मानना।


धार्मिक ग्रंथों की तार्किक व्याख्या: वेद, उपनिषद और गीता को नैतिकता और तर्क के आधार पर पढ़ना।


समाज सुधार: जातिवाद, छुआछूत, सती प्रथा और बहु विवाह का विरोध।


नारी सशक्तिकरण: महिलाओं को शिक्षा, संपत्ति के अधिकार और विवाह की स्वतंत्रता देना।


ब्रह्म समाज के प्रभाव


सामाजिक सुधार: भारत में आधुनिक समाज सुधार आंदोलनों की नींव रखी।


धार्मिक जागरूकता: हिंदू धर्म में व्याप्त अंधविश्वासों को समाप्त करने का प्रयास किया।


महिला अधिकार: सती प्रथा का अंत, विधवा विवाह को बढ़ावा और महिला शिक्षा को प्रोत्साहन मिला।


आधुनिक शिक्षा: पश्चिमी शिक्षा और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया।


निष्कर्ष


ब्रह्म समाज ने भारतीय समाज में व्यापक सुधार किए और इसे आधुनिकता की ओर अग्रसर किया। इसके प्रयासों से भारत में सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण संभव हुआ। राजा राममोहन राय और उनके उत्तराधिकारियों के योगदान से भारत में एक आधुनिक, तार्किक और प्रगतिशील समाज की नींव रखी गई, जिसका प्रभाव आज भी देखा जा सकता है।


03. औपनिवेशिक भारत में सांप्रदायिकता।



परिचय


औपनिवेशिक भारत में सांप्रदायिकता (Communalism) एक महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा था, जिसने भारतीय समाज को विभाजित किया और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई समस्याएँ खड़ी कीं। यह ब्रिटिश शासन की "फूट डालो और राज करो" (Divide and Rule) नीति का परिणाम था, जिसने धार्मिक और सांस्कृतिक मतभेदों को बढ़ावा दिया। इसने अंततः भारत के विभाजन (1947) का मार्ग प्रशस्त किया।


सांप्रदायिकता का अर्थ और स्वरूप


सांप्रदायिकता का तात्पर्य उस विचारधारा से है जिसमें एक समुदाय, विशेष रूप से धार्मिक आधार पर, दूसरे समुदाय के प्रति घृणा, संदेह या प्रतिस्पर्धा की भावना रखता है। औपनिवेशिक भारत में यह मुख्य रूप से हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में उभरी।


सांप्रदायिकता के प्रमुख स्वरूप निम्नलिखित थे—


धार्मिक पहचान पर आधारित राजनीति – राजनीतिक दलों और संगठनों ने धार्मिक भावनाओं का उपयोग किया।


सांप्रदायिक दंगे और हिंसा – ब्रिटिश शासन के दौरान कई हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए।


विभाजनकारी नीतियाँ – ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न समुदायों को अलग-अलग प्रतिनिधित्व देकर सामाजिक एकता को तोड़ा।


संस्थागत सांप्रदायिकता – ब्रिटिश सरकार द्वारा सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण और राजनीतिक अधिकार दिए गए।


औपनिवेशिक भारत में सांप्रदायिकता के कारण


1. ब्रिटिश शासन की "फूट डालो और राज करो" नीति


ब्रिटिश सरकार ने हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच मतभेद बढ़ाने के लिए अलग-अलग प्रतिनिधित्व और चुनाव प्रणाली लागू की।


1909 के मिंटो-मॉर्ले सुधार के तहत मुस्लिमों के लिए अलग निर्वाचक मंडल (Separate Electorate) की व्यवस्था की गई, जिससे सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिला।


2. सांप्रदायिक राजनीतिक दलों और संगठनों का उदय


1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद, ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिमों को कांग्रेस से दूर रखने के लिए 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना को प्रोत्साहित किया।


1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ाने के लिए की गई।


3. सांप्रदायिक दंगे और तनाव


1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय हिंदू-मुस्लिम एकता को देखकर ब्रिटिश सरकार चिंतित हो गई और उन्होंने सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा दिया।


1920 के दशक में कई हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए, जिनमें 1924 का कोहाट दंगा और 1927 का कानपुर दंगा प्रमुख थे।


1946 में "डायरेक्ट एक्शन डे" के दौरान बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई, जिसने भारत विभाजन को सुनिश्चित कर दिया।


4. मुस्लिम अलगाववाद और पाकिस्तान की मांग


1930 में अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान की अवधारणा प्रस्तुत की।


1940 में मुस्लिम लीग ने लाहौर प्रस्ताव पारित किया, जिसमें अलग पाकिस्तान की मांग की गई।


जिन्ना की दो राष्ट्र सिद्धांत (Two-Nation Theory) ने हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने का कार्य किया।


5. धार्मिक और सांस्कृतिक मतभेद


हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच सामाजिक और धार्मिक परंपराओं में अंतर था।


धार्मिक रूप से संवेदनशील मुद्दों जैसे गोहत्याबंदी, संगीत विवाद, शुद्धि आंदोलन आदि ने सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाया।


सांप्रदायिकता के प्रभाव


राष्ट्रीय एकता का विघटन – हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच बढ़ती दुश्मनी के कारण भारत में राष्ट्रीय एकता कमजोर हुई।


भारत विभाजन (1947) – सांप्रदायिकता का चरम परिणाम भारत और पाकिस्तान का विभाजन था, जिसमें लाखों लोगों की जान गई और करोड़ों विस्थापित हुए।


सांप्रदायिक दंगे – भारत छोड़ो आंदोलन (1942) और 1946-47 के दौरान बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई।


सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन – सांप्रदायिकता ने भारतीय समाज को विभाजित किया और आपसी अविश्वास को बढ़ाया।


निष्कर्ष


औपनिवेशिक भारत में सांप्रदायिकता ब्रिटिश शासन की नीतियों और भारतीय समाज की धार्मिक संरचना के कारण बढ़ी। यह समस्या आज भी भारत में विभिन्न रूपों में बनी हुई है। स्वतंत्रता के बाद सरकार ने सांप्रदायिकता को समाप्त करने के कई प्रयास किए, लेकिन यह समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकी। इसलिए, सांप्रदायिकता के प्रभाव को कम करने के लिए सामाजिक सौहार्द, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना आवश्यक है।




04. कोमागाटा मारु घटना।




परिचय


कोमागाटा मारु घटना 1914 में हुई एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी, जो ब्रिटिश शासन की नस्लभेदी नीतियों और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी थी। यह घटना कनाडा द्वारा भारतीय प्रवासियों पर लगाए गए प्रतिबंधों और ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीतियों को दर्शाती है। कोमागाटा मारु नामक जहाज पर सवार भारतीय यात्रियों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई, जिससे यह घटना औपनिवेशिक भेदभाव और भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गई।


कोमागाटा मारु जहाज का परिचय


जहाज का नाम: कोमागाटा मारु (Komagata Maru)


मालिक: गुरदित्त सिंह संधू, जो एक सिख व्यवसायी और गदर आंदोलन से जुड़े व्यक्ति थे।


कप्तान: जापानी नागरिक


यात्रियों की संख्या: 376 भारतीय यात्री (अधिकतर सिख, कुछ मुस्लिम और हिंदू)


गंतव्य: हांगकांग → शंघाई → योकोहामा → वैंकूवर (कनाडा)


कोमागाटा मारु घटना का घटनाक्रम


1. यात्रा और कनाडा पहुँचने का प्रयास


4 अप्रैल 1914 को कोमागाटा मारु जहाज हांगकांग से चला और 23 मई 1914 को कनाडा के वैंकूवर बंदरगाह पहुँचा।


कनाडा की सरकार ने नस्लभेदी नीतियों के कारण भारतीय प्रवासियों को देश में प्रवेश देने से इनकार कर दिया।


कनाडा का निरंतर यात्रा कानून (Continuous Journey Law, 1908) भारतीयों के आव्रजन (Immigration) पर रोक लगाने के लिए बनाया गया था।


2. कनाडा में प्रवासियों को रोकना


कनाडा सरकार ने जहाज को बंदरगाह पर खड़ा कर दिया और यात्रियों को उतरने की अनुमति नहीं दी।


भारतीय समुदाय और कानूनी वकीलों ने यात्रियों के पक्ष में संघर्ष किया, लेकिन कनाडा सरकार ने केवल 24 यात्रियों को प्रवेश की अनुमति दी, बाकी को वापस लौटने का आदेश दिया।


20 जुलाई 1914 को कनाडाई नौसेना ने जहाज को वापस भेजने के लिए मजबूर किया।


3. भारत लौटने पर ब्रिटिश दमन


27 सितंबर 1914 को कोमागाटा मारु जहाज कलकत्ता (अब कोलकाता) के बजबज बंदरगाह पहुँचा।


ब्रिटिश सरकार को संदेह था कि ये यात्री गदर आंदोलन से जुड़े हो सकते हैं और ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं।


जब यात्री उतरने लगे तो ब्रिटिश पुलिस ने अंधाधुंध गोलियाँ चला दीं, जिससे 19 यात्रियों की मृत्यु हो गई और कई लोग घायल हो गए।


कई यात्रियों को गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ भाग निकले।


कोमागाटा मारु घटना के कारण


1. कनाडा की नस्लभेदी नीतियाँ


कनाडा सरकार भारतीयों को वहाँ बसने नहीं देना चाहती थी।


निरंतर यात्रा कानून (Continuous Journey Regulation, 1908) के तहत केवल उन्हीं लोगों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति थी, जो बिना किसी स्टॉप के सीधे ब्रिटिश भारत से आते थे, जबकि भारत से कनाडा तक कोई सीधी जहाज सेवा नहीं थी।


2. भारतीयों की स्वतंत्रता की आकांक्षा


भारतीयों को ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा होने के बावजूद समान नागरिक अधिकार नहीं मिल रहे थे।


भारतीय प्रवासी, विशेष रूप से गदर पार्टी, ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ क्रांति की तैयारी कर रही थी।


3. ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियाँ


ब्रिटिश सरकार भारतीयों को संगठित नहीं होने देना चाहती थी, इसलिए उसने कोमागाटा मारु के यात्रियों को विद्रोही करार देकर दमन किया।


इस घटना से भारतीयों में ब्रिटिश शासन के प्रति आक्रोश और बढ़ गया।


कोमागाटा मारु घटना के प्रभाव


1. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को बढ़ावा


इस घटना ने भारतीयों को ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ जागरूक किया।


गदर पार्टी और अन्य क्रांतिकारी संगठनों को ब्रिटिश विरोधी अभियान तेज करने की प्रेरणा मिली।


2. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश सरकार की आलोचना


इस घटना से ब्रिटिश साम्राज्य की नस्लभेदी नीतियों की पोल खुली और दुनिया भर में इसकी आलोचना हुई।


3. प्रवासी भारतीयों में राजनीतिक चेतना


कनाडा, अमेरिका और अन्य देशों में बसे भारतीयों ने इस घटना के बाद स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लेना शुरू कर दिया।


4. ब्रिटिश सरकार पर दबाव


भारत में इस घटना के बाद 1919 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार लाया गया, जिससे भारतीयों को कुछ हद तक प्रशासनिक अधिकार मिले।


निष्कर्ष


कोमागाटा मारु घटना केवल एक जहाज से जुड़े यात्रियों की समस्या नहीं थी, बल्कि यह ब्रिटिश शासन की दमनकारी और नस्लभेदी नीतियों का प्रतीक थी। इस घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को और गति दी और भारतीयों में आत्मसम्मान तथा स्वतंत्रता की भावना को प्रबल किया। अंततः, यह घटना ब्रिटिश साम्राज्य के पतन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित हुई।




05. दक्षिण भारत में वन्देमातरम आंदोलन।



परिचय


वंदे मातरम् आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण आंदोलन था, जो विशेष रूप से बंगाल विभाजन (1905) के बाद राष्ट्रवादी भावना को बल देने के लिए उभरा। हालाँकि, यह आंदोलन मुख्य रूप से बंगाल में शुरू हुआ था, लेकिन इसका प्रभाव पूरे भारत में पड़ा, जिसमें दक्षिण भारत भी शामिल था। दक्षिण भारत में वंदे मातरम् आंदोलन ने राष्ट्रीय चेतना को मजबूत किया और स्वतंत्रता संग्राम में जनता की सक्रिय भागीदारी बढ़ाई।


वंदे मातरम् आंदोलन और दक्षिण भारत


1. बंगाल विभाजन और वंदे मातरम् आंदोलन का विस्तार


1905 में लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल का विभाजन किया, जिससे पूरे भारत में विरोध प्रदर्शन हुए।


"वंदे मातरम्" नारा स्वदेशी आंदोलन का प्रतीक बन गया और पूरे देश में इसकी गूँज सुनाई देने लगी।


दक्षिण भारत में भी बंगाल विभाजन का विरोध किया गया, और वंदे मातरम् आंदोलन ने स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलनों को गति दी।


2. दक्षिण भारत में आंदोलन की शुरुआत


मद्रास (अब चेन्नई) दक्षिण भारत में राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र बना।


1906-07 के दौरान मद्रास प्रेसिडेंसी में वंदे मातरम् आंदोलन तेज हुआ।


बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और अरविंदो घोष जैसे नेताओं ने मद्रास की यात्राएँ कीं और राष्ट्रीय चेतना को जागृत किया।


3. स्वदेशी आंदोलन और वंदे मातरम्


दक्षिण भारत में वंदे मातरम् आंदोलन स्वदेशी आंदोलन से गहराई से जुड़ा था।


मद्रास में ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार किया गया और स्वदेशी वस्त्रों, वस्तुओं और उद्योगों को बढ़ावा दिया गया।


भारतीय कपड़ा मिलों और स्थानीय उद्योगों को समर्थन मिलने लगा।


4. ब्रिटिश दमन और वंदे मातरम् पर प्रतिबंध


ब्रिटिश सरकार ने "वंदे मातरम्" के सार्वजनिक उच्चारण पर प्रतिबंध लगा दिया।


1907 में मद्रास में कई राष्ट्रवादियों को गिरफ्तार किया गया, क्योंकि वे इस नारे को सार्वजनिक रूप से बोल रहे थे।


दक्षिण भारत के कई अखबारों ने वंदे मातरम् और स्वदेशी आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उन पर सेंसरशिप लागू कर दी।


5. लोकमान्य तिलक और मद्रास प्रेसिडेंसी


बाल गंगाधर तिलक ने 1908 में मद्रास का दौरा किया और वंदे मातरम् आंदोलन को समर्थन दिया।


तिलक को ब्रिटिश सरकार ने 1908 में गिरफ्तार कर 6 साल के लिए मंडाले (बर्मा) भेज दिया, जिससे आंदोलन को झटका लगा लेकिन राष्ट्रवादी भावना और अधिक मजबूत हो गई।


दक्षिण भारत में वंदे मातरम् आंदोलन के प्रभाव


1. राष्ट्रवादी चेतना का विस्तार


दक्षिण भारत में राष्ट्रीय आंदोलन ने गति पकड़ी और लोगों में ब्रिटिश विरोधी भावना बढ़ी।


तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम भाषाओं में स्वदेशी आंदोलन और वंदे मातरम् गीत लोकप्रिय हुआ।


2. स्वदेशी उद्योगों का विकास


दक्षिण भारत में कपड़ा उद्योग और अन्य स्वदेशी व्यापारों को प्रोत्साहन मिला।


चेन्नई, तिरुनेलवेली, बैंगलोर और मैसूर में स्वदेशी आंदोलन तेज हुआ।


3. युवा और छात्रों की भागीदारी


कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्रों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाई।


मद्रास प्रेसिडेंसी के कई छात्रों ने विदेशी कपड़ों और ब्रिटिश सामानों की होली जलाई।


4. क्रांतिकारी आंदोलनों को बल


वंदे मातरम् आंदोलन ने दक्षिण भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों को भी प्रेरित किया।


सुभाष चंद्र बोस और अन्य राष्ट्रवादियों ने बाद में दक्षिण भारत को आज़ादी के आंदोलन का मजबूत केंद्र बनाया।


निष्कर्ष


दक्षिण भारत में वंदे मातरम् आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा दी। इसने ब्रिटिश शासन के खिलाफ राष्ट्रीय एकता, स्वदेशी भावना और स्वतंत्रता की चेतना को मजबूत किया। यद्यपि यह आंदोलन मुख्य रूप से बंगाल में शुरू हुआ था, लेकिन इसकी गूँज दक्षिण भारत तक पहुँची और स्वतंत्रता संग्राम को और अधिक व्यापक बना दिया।



06. बंगाल विभाजन ।




परिचय


बंगाल विभाजन 16 अक्टूबर 1905 को ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्ज़न द्वारा किया गया था। यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने भारतीय समाज में व्यापक विरोध और राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न की। विभाजन का मुख्य उद्देश्य प्रशासनिक सुधार बताया गया, लेकिन वास्तव में यह ब्रिटिश सरकार की "फूट डालो और राज करो" (Divide and Rule) नीति का हिस्सा था। बंगाल विभाजन के कारण भारत में स्वदेशी आंदोलन और राष्ट्रवादी आंदोलन को बल मिला।


बंगाल विभाजन के कारण


1. प्रशासनिक कारण (British Justification)


ब्रिटिश सरकार का तर्क था कि बंगाल प्रांत बहुत बड़ा (189,000 वर्ग मील क्षेत्र और 8 करोड़ जनसंख्या) हो गया है, जिससे प्रशासन कठिन हो रहा है।


इसलिए, बंगाल को दो भागों में विभाजित करने का निर्णय लिया गया।


2. "फूट डालो और राज करो" नीति


बंगाल विभाजन का वास्तविक कारण हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ना था।


ब्रिटिश सरकार ने एक ऐसा विभाजन किया जिससे पूर्वी बंगाल में मुस्लिम बहुसंख्यक और पश्चिमी बंगाल में हिंदू बहुसंख्यक हो गए।


इससे हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच दरार डालने की कोशिश की गई।


3. बंगाल में राष्ट्रवाद का उभार


बंगाल भारतीय राष्ट्रवाद का प्रमुख केंद्र बन चुका था।


ब्रिटिश सरकार बंगाल में बढ़ते राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर करना चाहती थी, इसलिए उसने इसे विभाजित करने की योजना बनाई।


बंगाल विभाजन का स्वरूप


नया विभाजित बंगाल दो हिस्सों में बाँटा गया—


पश्चिम बंगाल: बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल को मिलाकर बनाया गया।


पूर्वी बंगाल और असम: पूर्वी बंगाल को असम के साथ जोड़ा गया, जिसकी राजधानी ढाका बनाई गई।


पूर्वी बंगाल में मुस्लिम बहुसंख्यक और पश्चिम बंगाल में हिंदू बहुसंख्यक थे।


बंगाल विभाजन के प्रभाव


1. स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत


स्वदेशी आंदोलन (1905-1911) बंगाल विभाजन के विरोध में शुरू हुआ।


लोगों ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया और स्वदेशी वस्त्र, साबुन, दियासलाई, नमक आदि का उपयोग करने लगे।


2. ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार


बंगाल के लोगों ने ब्रिटिश वस्त्रों और उत्पादों को जलाया।


भारतीय मिलों और उद्योगों को प्रोत्साहित किया गया।


3. राष्ट्रवाद का प्रसार


"वंदे मातरम्" आंदोलन का प्रमुख नारा बन गया।


बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेता आगे आए।


बंगाल के बाहर भी पूरे भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ जागरूकता बढ़ी।


4. सांप्रदायिकता का बीजारोपण


ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम लीग (1906) की स्थापना को बढ़ावा दिया, जिससे हिंदू-मुस्लिम एकता कमजोर हुई।


इससे भारत में सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत हुई, जो बाद में विभाजन (1947) का कारण बनी।


5. अखिल भारतीय आंदोलन का रूप


पहले राष्ट्रवादी आंदोलन केवल कुछ क्षेत्रों तक सीमित थे, लेकिन बंगाल विभाजन के बाद यह पूरे भारत में फैल गया।


ब्रिटिश सरकार को अहसास हुआ कि भारतीय जनता अब उनके खिलाफ संगठित हो रही है।


बंगाल विभाजन की समाप्ति (1911)


ब्रिटिश सरकार को जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ा।


1911 में, किंग जॉर्ज पंचम ने घोषणा की कि बंगाल को फिर से एक कर दिया जाएगा।


साथ ही, ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की।


निष्कर्ष


बंगाल विभाजन ब्रिटिश सरकार की एक राजनीतिक चाल थी, जिसका उद्देश्य भारतीय राष्ट्रवाद को कमजोर करना था। हालाँकि, इसने उल्टा प्रभाव डाला और भारतीय जनता ने स्वदेशी आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम को और अधिक मजबूत किया। यह घटना भारत के स्वतंत्रता संग्राम में "फूट डालो और राज करो" नीति के खिलाफ पहली संगठित लड़ाई थी, जिसने भविष्य के आंदोलनों की नींव रखी।



07. औपनिवेशिक भारत में राष्ट्रीय शिक्षा




परिचय


औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश सरकार की शिक्षा नीति भारतीयों को अंग्रेज़ी शासन का समर्थक बनाने और प्रशासनिक नौकरियों के लिए तैयार करने पर केंद्रित थी। लेकिन भारतीय समाज और राष्ट्रवादियों को यह एहसास हुआ कि यह शिक्षा नीति भारतीय संस्कृति, परंपराओं और स्वदेशी मूल्यों को दबाने का एक माध्यम है। इस कारण राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसका उद्देश्य भारतीयों को स्वतंत्रता संग्राम के लिए जागरूक करना और स्वदेशी शिक्षा प्रणाली को विकसित करना था।


ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा नीति और उसकी सीमाएँ


1. मैकाले की शिक्षा नीति (1835)


लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेज़ी शिक्षा को बढ़ावा दिया और भारतीय भाषाओं को कम महत्व दिया।


इसका उद्देश्य भारतीयों को "अंग्रेज़ी जानने वाले क्लर्क" के रूप में तैयार करना था।


पारंपरिक गुरुकुल और मदरसा प्रणाली कमजोर हो गई।


2. वुड डिस्पैच (1854)


इसे भारतीय शिक्षा का मैग्ना कार्टा कहा जाता है।


अंग्रेज़ी के साथ-साथ स्थानीय भाषाओं को कुछ हद तक बढ़ावा दिया गया।


विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई (जैसे 1857 में कलकत्ता, बंबई और मद्रास विश्वविद्यालय)।


लेकिन इसकी मुख्य मंशा भारतीयों को ब्रिटिश प्रशासन के लिए प्रशिक्षित करना था।


3. हंटर आयोग (1882)


प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान देने की बात कही गई।


लेकिन उच्च शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन का समर्थन करने वाले भारतीयों को तैयार करना रहा।


राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन की पृष्ठभूमि


1. ब्रिटिश शिक्षा नीति के प्रति असंतोष


ब्रिटिश शिक्षा नीति भारतीय संस्कृति, परंपराओं और मूल्यों को कमज़ोर कर रही थी।


अंग्रेज़ी शिक्षा से केवल कुछ विशेष वर्गों को लाभ मिल रहा था, जबकि आम जनता इससे वंचित थी।


2. स्वदेशी आंदोलन (1905)


बंगाल विभाजन (1905) के विरोध में स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ, जिसने शिक्षा क्षेत्र में भी ब्रिटिश विरोधी भावना को जन्म दिया।


ब्रिटिश स्कूलों और कॉलेजों के बहिष्कार की अपील की गई।


राष्ट्रीय शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई संस्थानों की स्थापना हुई।


राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के प्रमुख पहलू


1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और शिक्षा सुधार


1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद, राष्ट्रीय शिक्षा को एक प्रमुख मुद्दा बनाया गया।


1906 के कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रीय शिक्षा को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया।


2. डॉ. एनी बेसेंट और "होम रूल लीग" (1916)


एनी बेसेंट ने "सेंट्रल हिंदू कॉलेज, बनारस" की स्थापना की, जिसे बाद में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के रूप में विकसित किया गया।


उन्होंने "होम रूल मूवमेंट" के दौरान भारतीय शिक्षा प्रणाली को स्वदेशी बनाने की बात की।


3. महात्मा गांधी और बुनियादी शिक्षा (नयी तालीम, 1937)


गांधी जी ने स्वदेशी शिक्षा प्रणाली पर ज़ोर दिया।


"बुनियादी शिक्षा योजना" के तहत हाथों से काम करने, कुटीर उद्योग और व्यावहारिक ज्ञान को शिक्षा का हिस्सा बनाने की बात कही।


इसका उद्देश्य स्वावलंबी और आत्मनिर्भर भारतीय युवाओं को तैयार करना था।


4. अलीगढ़ आंदोलन और मुस्लिम शिक्षा


सर सैयद अहमद खान ने 1875 में अलीगढ़ मुस्लिम स्कूल की स्थापना की, जो आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना।


यह आंदोलन मुस्लिम समाज में आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया था।


5. टैगोर का शांति निकेतन (1901)


रवींद्रनाथ टैगोर ने बंगाल में शांति निकेतन की स्थापना की।


यहाँ भारतीय परंपराओं, योग, कला, संगीत और प्रकृति के साथ जुड़ी शिक्षा दी जाती थी।


यह ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली से हटकर भारतीय मूल्यों पर आधारित था।


6. राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों की स्थापना


ब्रिटिश शिक्षा का बहिष्कार करने के लिए कई राष्ट्रीय विद्यालय और विश्वविद्यालय स्थापित किए गए, जैसे:


राष्ट्रीय शिक्षा परिषद (National Council of Education), बंगाल


गुजरात विद्यापीठ (1920) – महात्मा गांधी द्वारा स्थापित


जामिया मिलिया इस्लामिया (1920) – स्वतंत्र शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए


राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के प्रभाव


1. भारतीय जागरूकता बढ़ी


ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के खिलाफ राष्ट्रवादी चेतना बढ़ी।


भारतीय युवाओं को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा मिली।


2. स्वदेशी शिक्षा प्रणाली विकसित हुई


भारतीय भाषा, संस्कृति और परंपराओं पर आधारित शिक्षा संस्थान विकसित हुए।


व्यावहारिक और तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा मिला।


3. स्वतंत्रता संग्राम को बल मिला


राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन से जुड़े युवा बाद में स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से शामिल हुए।


स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की भावना मजबूत हुई।


4. भारतीय विश्वविद्यालयों का विकास


स्वतंत्रता से पहले और बाद में कई विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई।


भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार हुआ और अंग्रेज़ी के साथ भारतीय भाषाओं को भी बढ़ावा दिया गया।


निष्कर्ष


औपनिवेशिक भारत में राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के खिलाफ एक संगठित विरोध था। इस आंदोलन ने भारतीय समाज में स्वतंत्रता, स्वावलंबन और स्वदेशी भावना को मजबूत किया। महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, एनी बेसेंट और अन्य राष्ट्रवादियों के प्रयासों से भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार हुआ। यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बौद्धिक और सांस्कृतिक नींव बना, जिसने आगे चलकर एक स्वतंत्र भारत में शिक्षा नीति को नया स्वरूप दिया।




08. बिपिन चन्द्र पाल



परिचय


बिपिन चंद्र पाल (1858-1932) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं में से एक थे। वे लाल-बाल-पाल त्रयी (लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल) के महत्वपूर्ण स्तंभ थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ गरम दल की विचारधारा को आगे बढ़ाया। वे एक महान पत्रकार, समाज सुधारक, शिक्षक और स्वतंत्रता सेनानी थे। बिपिन चंद्र पाल ने भारतीय राष्ट्रवाद को नई दिशा दी और स्वदेशी आंदोलन, विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा को बढ़ावा दिया।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा


बिपिन चंद्र पाल का जन्म 7 नवंबर 1858 को सिलहट (अब बांग्लादेश) में एक हिंदू कायस्थ परिवार में हुआ था।


उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कलकत्ता (अब कोलकाता) और सिलहट में प्राप्त की।


वे एक मेधावी छात्र थे और शुरुआत में एक शिक्षक और लाइब्रेरियन के रूप में कार्य किया।


स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका


1. स्वदेशी आंदोलन और बहिष्कार नीति


1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में बिपिन चंद्र पाल ने स्वदेशी आंदोलन को बल दिया।


उन्होंने विदेशी वस्त्रों और ब्रिटिश सामानों के बहिष्कार का आह्वान किया।


स्वदेशी वस्त्रों और उद्योगों को अपनाने पर जोर दिया।


2. गरम दल के प्रमुख नेता


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में दो विचारधाराएँ थीं:


उदारवादी (नरम दल) – जो ब्रिटिश सरकार से सुधार की माँग करते थे।


क्रांतिकारी (गरम दल) – जो ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना चाहते थे।


बिपिन चंद्र पाल गरम दल के प्रमुख नेता बने और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आक्रामक नीति अपनाने की वकालत की।


3. पत्रकारीता और समाज सुधार


वे एक प्रभावशाली लेखक और पत्रकार थे। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए।


उन्होंने "न्यू इंडिया", "बंगवासी", "इंडिपेंडेंट" और "संदीप्ति" जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया।


उन्होंने भारतीय समाज में सामाजिक सुधारों की वकालत की, विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और जातिवाद के उन्मूलन पर जोर दिया।


4. बाल गंगाधर तिलक और अरविंदो घोष के सहयोगी


वे बाल गंगाधर तिलक और अरविंदो घोष के करीबी सहयोगी थे।


1907 के कांग्रेस अधिवेशन में, जब नरम दल और गरम दल में विभाजन हुआ, तो बिपिन चंद्र पाल गरम दल के पक्ष में खड़े रहे।


5. ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष और जेल यात्रा


1907 में उन्होंने क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस के पक्ष में लिखा, जो मुजफ्फरपुर में ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ बम हमले में शामिल थे।


ब्रिटिश सरकार ने उन्हें छह महीने की जेल की सजा दी, लेकिन वे अपने विचारों पर अडिग रहे।


महत्वपूर्ण योगदान


1. भारतीय राष्ट्रवाद को नई दिशा दी


बिपिन चंद्र पाल ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक क्रांतिकारी राष्ट्रवादी विचारधारा को जन्म दिया।


उन्होंने संपूर्ण स्वराज (Complete Independence) की बात कही, जब कांग्रेस अभी केवल सुधारों की माँग कर रही थी।


2. स्वदेशी आंदोलन को लोकप्रिय बनाया


उन्होंने भारतीय जनता को स्वदेशी वस्त्र अपनाने और विदेशी सामानों का बहिष्कार करने के लिए प्रेरित किया।


इस आंदोलन के कारण भारतीय उद्योगों को बढ़ावा मिला और ब्रिटिश व्यापार को नुकसान हुआ।


3. शिक्षा और समाज सुधार


उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के विकास की आवश्यकता पर बल दिया।


वे स्त्री शिक्षा, सामाजिक समानता और जातिवाद के उन्मूलन के प्रबल समर्थक थे।


4. पत्रकारिता और साहित्य में योगदान


उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रचार किया।


उनकी प्रमुख रचनाएँ "Nationality and Empire", "The Soul of India", और "Basic Facts of Indian History" हैं।


निष्कर्ष


बिपिन चंद्र पाल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी विचारक थे। उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीयों को जागरूक किया और राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत किया। हालाँकि वे गांधीजी की अहिंसक नीति से सहमत नहीं थे, लेकिन उनके विचार और योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नई चेतना का संचार करने में महत्वपूर्ण साबित हुए। 1932 में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी विचारधारा आज भी राष्ट्रवादियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई है।