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UOU BASO(N)102 , SOLVED PAPER DECEMBER 2024, भारत में समाज: संरचना एवं परिवर्तन

 

प्रश्न 01: भारतीय समाज के आधार कितने प्रकार के हैं? इनका विस्तार से वर्णन कीजिए।

✍️ प्रस्तावना : भारतीय समाज की विविधता का परिचय

भारत विश्व के उन गिने-चुने देशों में से एक है जहाँ सामाजिक संरचना अत्यधिक विविधतापूर्ण है। यहाँ भाषा, जाति, धर्म, क्षेत्र, संस्कृति, परंपरा आदि के अनेक रूप दिखाई देते हैं। इस बहुलता में एकता का स्वरूप ही भारतीय समाज को अद्वितीय बनाता है। भारतीय समाज अनेक आधारों पर खड़ा है जो इसकी संरचना, पहचान और संचालन को प्रभावित करते हैं। इन सामाजिक आधारों की समझ हमें भारतीय समाज की गहराई से पहचान कराती है।

📚 भारतीय समाज के प्रमुख आधार

भारतीय समाज अनेक तत्वों पर आधारित है जो मिलकर इसकी जटिलता को दर्शाते हैं। ये आधार केवल पहचान का माध्यम नहीं, बल्कि समाज की संरचना का मूल आधार भी हैं।

👉 1. जाति (Caste)

जाति भारतीय समाज की सबसे प्राचीन और प्रभावशाली संस्था है। यह जन्म पर आधारित होती है तथा समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित करती है। जाति व्यवस्था में ऊँच-नीच, छुआछूत और सामाजिक असमानता की अवधारणा पाई जाती है। हालांकि आधुनिक काल में इसके स्वरूप में परिवर्तन आया है, फिर भी यह आज भी समाज के कई हिस्सों में प्रभावी है।

👉 2. वर्ग (Class)

वर्ग एक आर्थिक और सामाजिक स्तर का संकेतक है। इसमें जन्म के बजाय व्यक्ति की आर्थिक स्थिति, शिक्षा, व्यवसाय आदि को आधार माना जाता है। आधुनिक समाज में वर्ग प्रणाली ने जातिगत भेदभाव को कुछ हद तक चुनौती दी है।

👉 3. धर्म (Religion)

भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि कई धर्मों के अनुयायी रहते हैं। धर्म न केवल लोगों की आस्था का विषय है, बल्कि सामाजिक गतिविधियों और परंपराओं को भी प्रभावित करता है। धार्मिक विविधता भारतीय समाज को विशेष पहचान देती है, परन्तु कभी-कभी यह टकराव और सामाजिक तनाव का कारण भी बन जाती है।

👉 4. भाषा (Language)

भारत में 22 मान्यता प्राप्त भाषाएँ और सैकड़ों बोलियाँ हैं। भाषा न केवल संप्रेषण का माध्यम है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान का भी आधार है। क्षेत्रीय भाषाएँ समाज में विशेष भूमिका निभाती हैं और सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण करती हैं।

👉 5. क्षेत्रीयता (Regionalism)

भारत एक विशाल भूगोल वाला देश है, जिसमें उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के क्षेत्रों की संस्कृति, बोली, खानपान, पहनावा आदि में भिन्नता पाई जाती है। क्षेत्रीयता कभी-कभी सामाजिक संघर्षों को जन्म देती है, परंतु यह सांस्कृतिक विविधता को भी बढ़ावा देती है।

👉 6. लिंग (Gender)

भारतीय समाज में पुरुष और महिला की भूमिका भिन्न रही है। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को कई बार दोयम दर्जे का स्थान दिया गया, परंतु शिक्षा और समानता की जागरूकता से अब यह अंतर धीरे-धीरे घट रहा है। लिंग का आधार सामाजिक स्थिति, अधिकार और अवसरों को प्रभावित करता है।

👉 7. जनजातीयता (Tribalism)

भारत में कई जनजातियाँ हैं जो सामाजिक मुख्यधारा से अलग जीवन जीती हैं। उनकी अपनी संस्कृति, परंपराएँ, विश्वास और जीवनशैली होती है। जनजातीय समाज भी भारतीय समाज का महत्वपूर्ण आधार हैं जिन्हें अब विकास की मुख्यधारा में लाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

🔍 भारतीय समाज में इन आधारों की भूमिका

इन सामाजिक आधारों ने भारतीय समाज को एक समृद्ध, विविध और जीवंत समाज बनाया है। ये आधार न केवल पहचान का साधन हैं, बल्कि समाज में संरचना, सत्ता, संसाधन वितरण और संबंधों की दिशा भी तय करते हैं।

👉 सामाजिक पहचान और सम्मान

व्यक्ति की जाति, धर्म या वर्ग उसके सामाजिक स्थान और व्यवहार को प्रभावित करती है। कई बार ये पहचान सामाजिक भेदभाव का कारण भी बनती हैं।

👉 संघर्ष और समन्वय

धार्मिक, भाषाई या क्षेत्रीय पहचान के कारण संघर्ष की स्थिति बनती है, लेकिन वहीं दूसरी ओर ये विविधताएं समन्वय और साझा संस्कृति को भी जन्म देती हैं।

👉 सामाजिक गतिशीलता

वर्ग और शिक्षा जैसे आधार समाज में परिवर्तन और आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। अब जाति और धर्म के साथ-साथ वर्गीय उन्नयन भी एक महत्वपूर्ण कारक बन चुका है।

📝 निष्कर्ष

भारतीय समाज एक बहुआयामी संरचना है जो विभिन्न सामाजिक आधारों पर टिका हुआ है। ये आधार भारतीय संस्कृति की विविधता और सामाजिक जीवन की गहराई को दर्शाते हैं। यद्यपि इन आधारों से कभी-कभी सामाजिक असमानता और संघर्ष उत्पन्न होता है, फिर भी इनकी उपस्थिति भारतीय समाज को अद्वितीय बनाती है। आधुनिक समय में हमें इन आधारों के बीच संतुलन और समरसता स्थापित करने की आवश्यकता है, ताकि एक न्यायपूर्ण, समान और प्रगतिशील समाज का निर्माण हो सके।



प्रश्न 02: आश्रम व्यवस्था कितने प्रकार की होती है? आश्रम व्यवस्था के प्रकारों का वर्णन कीजिए।

✍️ प्रस्तावना : भारतीय जीवन-दर्शन में आश्रम व्यवस्था की भूमिका

भारतीय संस्कृति में मानव जीवन को एक नियोजित और संतुलित ढंग से जीने के लिए विभिन्न व्यवस्थाओं की कल्पना की गई है। इन्हीं में से एक है आश्रम व्यवस्था, जो व्यक्ति के पूरे जीवन को चार चरणों में विभाजित करती है। इसका उद्देश्य मानव को सामाजिक, धार्मिक और आत्मिक रूप से परिपक्व बनाना है। यह व्यवस्था वैदिक काल से प्रचलित रही है और आज भी भारतीय जीवन-दर्शन में इसका महत्वपूर्ण स्थान है।

📚 आश्रम व्यवस्था की परिभाषा

'आश्रम' का शाब्दिक अर्थ है—"जहाँ पर पुरुषार्थ के लिए श्रम किया जाए"। आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति के जीवन को चार भागों में बाँटा गया है, जिसमें प्रत्येक चरण का अपना विशिष्ट उद्देश्य और कर्तव्य है। यह व्यवस्था व्यक्ति को व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर जिम्मेदारी निभाने की प्रेरणा देती है।

📌 आश्रम व्यवस्था के चार प्रमुख प्रकार

👉 1. ब्रह्मचर्य आश्रम (छात्र जीवन)

यह आश्रम जीवन का पहला चरण है, जो बाल्यकाल से युवावस्था तक माना जाता है। इस चरण में व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति और चरित्र निर्माण में संलग्न रहता है।

  • मुख्य उद्देश्य: शिक्षा प्राप्त करना, संयम और अनुशासन सीखना।

  • कर्तव्य: गुरु के पास रहकर वेदों, शास्त्रों, व्याकरण, गणित आदि की शिक्षा लेना, ब्रह्मचर्य का पालन करना।

  • महत्त्व: यह जीवन की नींव है जो आगे के तीनों आश्रमों की दिशा तय करता है।

👉 2. गृहस्थ आश्रम (गृहस्थ जीवन)

यह आश्रम युवावस्था से लेकर मध्यावस्था तक चलता है। इस चरण में व्यक्ति विवाह करता है और पारिवारिक व सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता है।

  • मुख्य उद्देश्य: परिवार का पालन-पोषण, समाज की सेवा, धर्म-कर्म में भागीदारी।

  • कर्तव्य: पत्नी, बच्चे, माता-पिता, अतिथि, ब्राह्मण आदि की सेवा करना; चार पुरुषार्थों—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—की प्राप्ति का प्रयास करना।

  • महत्त्व: यह आश्रम समाज की आधारशिला है क्योंकि अन्य तीन आश्रम इस पर निर्भर करते हैं।

👉 3. वानप्रस्थ आश्रम (सेवानिवृत्त जीवन)

यह आश्रम तब शुरू होता है जब व्यक्ति पारिवारिक दायित्वों को पूरा कर चुका होता है और धीरे-धीरे सांसारिक मोह से दूरी बनाने लगता है।

  • मुख्य उद्देश्य: आत्मचिंतन, समाज सेवा और साधना की ओर अग्रसर होना।

  • कर्तव्य: घर के कार्यभार को पुत्र या परिवार के अन्य सदस्यों को सौंपना, वन में रहकर ध्यान और तप करना, संयमित जीवन जीना।

  • महत्त्व: यह आत्मविकास और आत्म-साक्षात्कार का चरण होता है, जो मोक्ष की ओर ले जाता है।

👉 4. संन्यास आश्रम (वैराग्य जीवन)

यह आश्रम जीवन का अंतिम चरण है जिसमें व्यक्ति सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर केवल ईश्वर की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है।

  • मुख्य उद्देश्य: मोक्ष की प्राप्ति, आत्मा का परमात्मा से मिलन।

  • कर्तव्य: सम्पूर्ण त्याग, साधना, ध्यान, योग, और आत्मान्वेषण।

  • महत्त्व: यह मोक्ष प्राप्ति का अंतिम साधन है, जहाँ व्यक्ति केवल आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करता है।

🔍 आश्रम व्यवस्था का सामाजिक और आध्यात्मिक महत्व

भारतीय समाज में आश्रम व्यवस्था केवल व्यक्तिगत जीवन को नियंत्रित करने का साधन नहीं थी, बल्कि इसका गहरा सामाजिक और आध्यात्मिक उद्देश्य था।

👉 संतुलित जीवन जीने की प्रेरणा

यह व्यवस्था व्यक्ति को हर अवस्था में संतुलन बनाए रखने की सीख देती है—बचपन में शिक्षा, युवावस्था में कर्तव्य, वृद्धावस्था में वैराग्य और अंत में आत्मसाक्षात्कार।

👉 समाज में अनुशासन और मर्यादा की स्थापना

आश्रम व्यवस्था ने व्यक्ति को यह बोध कराया कि उसका जीवन केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि समाज और सृष्टि के लिए भी उपयोगी होना चाहिए।

👉 आध्यात्मिक उन्नति की सीढ़ियाँ

चारों आश्रम व्यक्ति को अंततः मोक्ष की ओर ले जाने के लिए ही बनाए गए हैं, जिससे वह जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सके।

📝 निष्कर्ष

आश्रम व्यवस्था भारतीय समाज की एक अत्यंत सुविचारित और सुनियोजित सामाजिक-धार्मिक संरचना है। यह व्यवस्था न केवल व्यक्ति के जीवन को चार चरणों में बाँटती है, बल्कि हर चरण में उसके कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को परिभाषित भी करती है। इस व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति को संतुलित, जिम्मेदार और आत्मविकसित बनाना है। आज के समय में भले ही इसका पारंपरिक स्वरूप पूर्णतः न देखा जाए, पर इसके मूल विचार आज भी व्यक्ति और समाज के लिए प्रेरणादायक हैं।



प्रश्न 03: संस्कार किसे कहते हैं? संस्कार के भेद एवं महत्व की विवेचना कीजिए।

✍️ प्रस्तावना : भारतीय संस्कृति में संस्कारों की भूमिका

भारतीय संस्कृति मूलतः जीवन के प्रत्येक पहलू को दिव्यता और मर्यादा से जोड़ती है। इसी दिशा में 'संस्कार' की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। संस्कार केवल सामाजिक रीति-रिवाज नहीं, बल्कि व्यक्ति के आंतरिक और बाह्य जीवन को परिष्कृत करने वाली प्रक्रिया है। यह जीवन की प्रत्येक अवस्था को मर्यादा और गरिमा के साथ जीने की प्रेरणा देता है।

📚 संस्कार की परिभाषा

संस्कार का शाब्दिक अर्थ है — "शुद्ध करना" या "संशोधन करना"।
मनुस्मृति के अनुसार – “संस्‍कारो हि गुणान् धारयति”, अर्थात् संस्कार ही मनुष्य में गुणों का धारक होता है।
संस्कार वे धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठान हैं जो व्यक्ति के जीवन को शुद्ध, संयमित, और सद्गुणों से युक्त बनाते हैं। ये व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा को पवित्र और अनुशासित बनाते हैं।

📌 संस्कार के प्रमुख भेद

भारतीय परंपरा में संस्कारों की संख्या विभिन्न ग्रंथों में अलग-अलग बताई गई है। परंतु प्राचीन धर्मशास्त्रों और मनुस्मृति में १६ संस्कारों को विशेष मान्यता दी गई है, जिन्हें षोडश संस्कार कहा जाता है।

👉 1. गर्भाधान संस्कार

यह विवाह के पश्चात संतान प्राप्ति की कामना से किया जाने वाला पहला संस्कार है।

👉 2. पुंसवन संस्कार

यह गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य और श्रेष्ठ लक्षणों की प्राप्ति के लिए तीसरे माह में किया जाता है।

👉 3. सीमन्तोन्नयन संस्कार

यह गर्भवती स्त्री के मानसिक और शारीरिक कल्याण हेतु किया जाता है।

👉 4. जातकर्म संस्कार

शिशु के जन्म के पश्चात किया जाने वाला संस्कार, जिसमें उसके स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना की जाती है।

👉 5. नामकरण संस्कार

जन्म के कुछ दिन बाद बच्चे को नाम देने की प्रक्रिया।

👉 6. निष्क्रमण संस्कार

बच्चे को पहली बार घर से बाहर निकालने का संस्कार।

👉 7. अन्नप्राशन संस्कार

जब शिशु को पहली बार अन्न (मुख्यतः चावल) खिलाया जाता है।

👉 8. चूड़ाकर्म संस्कार

बच्चे का सिर मुँड़वाने (मुंडन) का संस्कार।

👉 9. कर्णवेध संस्कार

कान छेदने का संस्कार, जो धार्मिक और स्वास्थ्य कारणों से किया जाता है।

👉 10. विद्यारंभ संस्कार

बच्चे को शिक्षा ग्रहण करने की शुरुआत का संस्कार।

👉 11. उपनयन संस्कार

बालक को गुरुकुल भेजने से पूर्व उसे ‘यज्ञोपवीत’ धारण कराकर दीक्षित करने का संस्कार।

👉 12. वेदाध्ययन संस्कार

गुरुकुल में वेदों और शास्त्रों का अध्ययन करने की विधिवत शुरुआत।

👉 13. केशान्त (समावर्तन) संस्कार

गुरुकुल शिक्षा समाप्ति के पश्चात किया जाने वाला संस्कार।

👉 14. विवाह संस्कार

यह व्यक्ति के सामाजिक और पारिवारिक जीवन की शुरुआत का संकेत है।

👉 15. वानप्रस्थ संस्कार

परिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त होकर आत्मिक चिंतन की ओर प्रवृत्त होने का संस्कार।

👉 16. संन्यास संस्कार

संपूर्ण संसार का त्याग कर ईश्वर की भक्ति और मोक्ष की प्राप्ति के लिए समर्पण का संस्कार।

🔍 संस्कारों का सामाजिक और आध्यात्मिक महत्व

👉 चार पुरुषार्थों की पूर्ति का साधन

संस्कार व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों की पूर्ति हेतु मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। जीवन के प्रत्येक चरण में उपयुक्त आचरण और मर्यादा को संस्कारों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है।

👉 व्यक्ति का चारित्रिक निर्माण

संस्कार व्यक्ति के भीतर संयम, शील, विनय, कर्तव्यनिष्ठा, सत्य, दया आदि गुणों का विकास करते हैं। ये उसके चरित्र और व्यक्तित्व को परिष्कृत करते हैं।

👉 सामाजिक अनुशासन की स्थापना

हर संस्कार सामाजिक जीवन के एक महत्वपूर्ण पड़ाव को निर्देशित करता है, जिससे समाज में अनुशासन, नैतिकता और सहिष्णुता की भावना बनी रहती है।

👉 जीवन को पवित्रता और गरिमा प्रदान करना

संस्कार व्यक्ति को यह अनुभूति कराते हैं कि जीवन केवल भोग का माध्यम नहीं, बल्कि एक उच्च उद्देश्य की पूर्ति का साधन है। वे जीवन को दिव्यता से जोड़ते हैं।

👉 परिवार और समाज में समरसता

संस्कार परिवार और समाज में एकता, प्रेम और परस्पर उत्तरदायित्व की भावना को बढ़ावा देते हैं। इनसे सामाजिक संबंधों में स्थायित्व आता है।

📝 निष्कर्ष

संस्कार भारतीय जीवन की आत्मा हैं। ये न केवल व्यक्ति के जीवन को दिशा देते हैं, बल्कि समाज को भी एक सुसंगठित रूप में स्थापित करते हैं। जन्म से मृत्यु तक की प्रत्येक अवस्था में संस्कार व्यक्ति को धार्मिक, नैतिक और सामाजिक रूप से सुदृढ़ बनाते हैं। आज के आधुनिक युग में जहाँ पश्चिमी प्रभाव बढ़ रहा है, वहाँ भी संस्कारों की उपयोगिता और महत्ता बनी हुई है। यदि संस्कारों की परंपरा को जागरूकता और विज्ञानसंगत दृष्टिकोण के साथ पुनर्जीवित किया जाए, तो यह आने वाली पीढ़ियों को नैतिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाए रखेगा।



प्रश्न 04: विवाह कितने प्रकार के होते हैं? विस्तार से समझाइए।

✍️ प्रस्तावना : विवाह की भारतीय अवधारणा

विवाह भारतीय समाज की एक अत्यंत पवित्र, सामाजिक और धार्मिक संस्था है। यह केवल स्त्री और पुरुष के बीच का शारीरिक अथवा भावनात्मक संबंध नहीं, बल्कि दो परिवारों, परंपराओं और संस्कृतियों का मिलन भी होता है। हिन्दू धर्म में विवाह को एक संस्कार माना गया है, जो व्यक्ति के जीवन को धर्म, कर्तव्य और उत्तरदायित्व से जोड़ता है।

📚 विवाह की परिभाषा

मनु के अनुसार – “धर्मः प्रजा तथा रतिश्च विवाहे त्रयो गुणाः।”
अर्थात् विवाह का उद्देश्य है – धर्म का पालन, संतान की प्राप्ति और जीवन में सुख की प्राप्ति।
विवाह वह सामाजिक अनुबंध है जिसमें एक स्त्री और एक पुरुष जीवन भर के लिए साथ रहने, संतान उत्पन्न करने और पारिवारिक उत्तरदायित्व निभाने की प्रतिज्ञा करते हैं।

📌 विवाह के प्रकार – हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार

प्राचीन भारतीय ग्रंथों में विवाह को आठ प्रकारों में विभाजित किया गया है। ये सभी विवाह प्रकार सामाजिक, धार्मिक और नैतिक आधारों पर भिन्न-भिन्न माने गए हैं।

👉 1. ब्राह्म विवाह (श्रेष्ठ विवाह)

इस प्रकार के विवाह में वर को उसकी विद्या, चरित्र और कुल के आधार पर वधू के पिता द्वारा कन्या प्रदान की जाती है।

  • विशेषता: सबसे उच्च और पवित्र विवाह प्रकार माना गया है।

  • उद्देश्य: धर्म की स्थापना और विद्या की गरिमा।

  • उदाहरण: प्राचीन काल में ऋषियों और ब्राह्मणों में प्रचलित।

👉 2. दैव विवाह

यह विवाह उस स्थिति में होता है जब वधू के पिता अपनी पुत्री को यज्ञकर्म के लिए बुलाए गए ब्राह्मण को दान में दे देता है।

  • विशेषता: धार्मिक कर्तव्य की पूर्ति के रूप में किया गया विवाह।

  • नजरिया: इसमें कन्या को "दान" के रूप में दिया जाता है।

👉 3. आर्ष विवाह

इस विवाह में वधू का पिता वर से गाय और बैल जैसे वस्त्र या धन लेकर विवाह करता है।

  • विशेषता: यह लेन-देन आधारित विवाह है।

  • आलोचना: इसे आज के संदर्भ में दहेज जैसी प्रथा से जोड़ा जा सकता है।

👉 4. प्राजापत्य विवाह

इसमें वधू का पिता वर से यह कहकर विवाह करता है कि – "धर्मपूर्वक मेरी कन्या के साथ जीवन यापन करो।"

  • विशेषता: धार्मिक और पारिवारिक उत्तरदायित्व को प्राथमिकता दी जाती है।

  • महत्व: यह विवाह ब्राह्म विवाह के समान ही माना गया है।

👉 5. गान्धर्व विवाह

यह प्रेम विवाह होता है, जिसमें स्त्री-पुरुष अपनी इच्छा से विवाह करते हैं।

  • विशेषता: इसमें माता-पिता की अनुमति आवश्यक नहीं होती।

  • आधुनिक दृष्टिकोण: आज के "लव मैरिज" इसी श्रेणी में आते हैं।

👉 6. असुर विवाह

इस प्रकार के विवाह में वर कन्या के पिता को धन देकर या रिश्वत देकर विवाह करता है।

  • विशेषता: यह विवाह विकृति और लेन-देन पर आधारित होता है।

  • नजरिया: इसे अधर्म और समाजविरुद्ध माना गया है।

👉 7. राक्षस विवाह

इस विवाह में कन्या को बलपूर्वक अपहरण करके उससे विवाह किया जाता है।

  • विशेषता: युद्ध या बल प्रयोग के द्वारा विवाह।

  • आलोचना: यह स्त्री की इच्छा के विरुद्ध होता है, अतः अनुचित माना गया है।

👉 8. पैशाच विवाह

यह सबसे नीच और निंदनीय विवाह है जिसमें स्त्री को मूर्छित, सोते हुए या नशे में धुत अवस्था में उसके साथ संबंध बनाकर विवाह कर लिया जाता है।

  • विशेषता: यह पूर्णतः अनैतिक और आपराधिक कृत्य है।

  • धर्मशास्त्रों में स्थिति: इस विवाह की निंदा की गई है और इसे अधर्म बताया गया है।

🔍 विवाह प्रकारों का तुलनात्मक विश्लेषण

प्राचीन समय में विवाह के इन विभिन्न प्रकारों को समाज की विविध स्थितियों और वर्गों के अनुसार मान्यता दी गई थी। कुछ विवाह प्रकार धार्मिक और नैतिक रूप से उच्च माने गए जैसे ब्राह्म और प्राजापत्य, वहीं कुछ जैसे राक्षस और पैशाच निंदनीय और अस्वीकार्य रहे।

👉 सामाजिक संदर्भ में परिवर्तन

आज के आधुनिक समाज में केवल दो प्रकार – ब्राह्म और गान्धर्व विवाह – ही स्वीकार्य हैं। प्रेम और सहमति के आधार पर विवाह को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है।

👉 कानूनी दृष्टिकोण

वर्तमान भारत में विवाह के लिए विशेष विवाह अधिनियम, हिन्दू विवाह अधिनियम आदि कानून लागू हैं जो समानता, सहमति, न्यूनतम आयु और पंजीकरण पर बल देते हैं।

📝 निष्कर्ष

विवाह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति में एक महान संस्कार है। इसके विविध प्रकार हमें यह बताते हैं कि भारतीय समाज में विभिन्न दृष्टिकोणों को किस प्रकार स्वीकारा और अस्वीकारा गया। आज के समय में केवल उन विवाहों को मान्यता मिलनी चाहिए जो सहमति, सम्मान, समानता और नैतिकता पर आधारित हों। तभी विवाह संस्था न केवल व्यक्ति बल्कि समाज के लिए भी एक सशक्त स्तंभ बन पाएगी।



प्रश्न 05: परिवार के प्रकार्य एवं महत्वपूर्ण स्वरूप को विस्तारपूर्वक समझाइए।

✍️ प्रस्तावना : भारतीय समाज में परिवार की भूमिका

परिवार सामाजिक संरचना की सबसे मूलभूत और प्राथमिक इकाई है। यह मानव जीवन की प्रारंभिक पाठशाला है जहाँ व्यक्ति को सामाजिक मूल्यों, परंपराओं, आचार-विचार और उत्तरदायित्वों का बोध होता है। भारतीय समाज में परिवार न केवल रक्त संबंधों का समूह होता है, बल्कि यह भावनात्मक, नैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आधारों पर जुड़ा हुआ होता है। परिवार समाज का आधार है, जो सामाजिक नियंत्रण, संरक्षण और सहयोग का केंद्र होता है।

📚 परिवार की परिभाषा

परिवार वह सामाजिक संस्था है जिसमें पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, बच्चे आदि मिलकर एक समूह के रूप में रहते हैं और एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। समाजशास्त्री मैकाइवर के अनुसार –
“परिवार वह समूह है जिसमें व्यक्ति जन्म लेता है और उसका पालन-पोषण होता है।”
यह सामाजिक संस्था व्यक्ति के जीवन के हर चरण में उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।

📌 परिवार के प्रमुख प्रकार्य (Functions of Family)

परिवार अनेक प्रकार के कार्य करता है जो समाज और व्यक्ति दोनों के लिए आवश्यक होते हैं। परिवार के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – प्राथमिक (Primary) और गौण (Secondary)

🔹 प्राथमिक प्रकार्य

👉 1. जैविक प्रकार्य (Biological Function)

परिवार मनुष्य की जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, जैसे – संतानोत्पत्ति और उनकी देखरेख।

👉 2. पालन-पोषण

बच्चों का भरण-पोषण, स्वास्थ्य की देखभाल, शिक्षा और अनुशासन का विकास परिवार में ही होता है।

👉 3. भावनात्मक सुरक्षा

परिवार व्यक्ति को प्रेम, अपनापन और सुरक्षा की भावना प्रदान करता है। यह मानसिक शांति और आत्मविश्वास का स्रोत होता है।

👉 4. सामाजिककरण (Socialization)

परिवार व्यक्ति को समाज के नियम, मूल्य, परंपराएँ और आचरण सिखाता है। यह सामाजिक बनने की पहली प्रक्रिया है।

👉 5. सांस्कृतिक स्थानांतरण

परिवार संस्कृति का संवाहक है। इसके माध्यम से भाषा, परंपराएं, धार्मिक विश्वास और संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होते हैं।

🔹 गौण प्रकार्य

👉 1. आर्थिक प्रकार्य

परिवार उत्पादन, उपभोग और वितरण की प्रक्रिया में भाग लेता है। पारिवारिक व्यवसाय, कृषि या अन्य आजीविका के साधन इसके अंतर्गत आते हैं।

👉 2. मनोरंजन

परिवार एक मनोरंजन का केंद्र भी होता है, जहाँ सामूहिक रूप से पर्व, त्योहार, गीत-संगीत, खेल आदि का आनंद लिया जाता है।

👉 3. सामाजिक नियंत्रण

परिवार व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करता है और समाज के अनुकूल ढालता है। इसमें अनुशासन, सम्मान और उत्तरदायित्व की भावना पनपती है।

👉 4. नैतिकता और धर्म की शिक्षा

परिवार ही व्यक्ति को नैतिकता, सत्य, अहिंसा, दया, धर्म आदि मूल्यों का ज्ञान कराता है।

🔍 परिवार के महत्वपूर्ण स्वरूप (Forms of Family)

👉 1. संरचना के आधार पर

  • संयुक्त परिवार: इसमें कई पीढ़ियाँ एक साथ रहती हैं, जैसे – दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-बहन आदि।
    विशेषता: सामूहिकता, सहयोग और परंपरा आधारित जीवन।

  • एकल परिवार: इसमें केवल माता-पिता और बच्चे रहते हैं।
    विशेषता: आधुनिक जीवनशैली, स्वतंत्रता और निजी निर्णय।

👉 2. विवाह के आधार पर

  • एक-पत्नी विवाह आधारित परिवार (Monogamous): इसमें एक पुरुष और एक स्त्री होते हैं।
    विशेषता: सामाजिक स्थिरता और संतुलन।

  • बहु-पत्नी विवाह आधारित परिवार (Polygamous): एक पुरुष की एक से अधिक पत्नियाँ होती हैं।
    विशेषता: यह प्रथा प्राचीन समाज में अधिक देखी जाती थी, अब प्रचलन में नहीं है।

👉 3. अधिकार के आधार पर

  • पितृसत्तात्मक परिवार (Patriarchal): इसमें पिता या पुरुष का वर्चस्व होता है।
    विशेषता: वंश, संपत्ति और नाम पुरुष के माध्यम से चलता है।

  • मातृसत्तात्मक परिवार (Matriarchal): इसमें माता या महिला का वर्चस्व होता है, जैसे – कुछ जनजातियों में।
    विशेषता: वंश और संपत्ति माता के नाम पर चलती है।

👉 4. निवास के आधार पर

  • पैतृक निवास (Patrilocal): विवाह के बाद स्त्री पति के घर जाती है।

  • मातृक निवास (Matrilocal): विवाह के बाद पुरुष पत्नी के घर निवास करता है।

  • नव निवास (Neolocal): पति-पत्नी अलग नया निवास स्थान बनाते हैं।

📝 निष्कर्ष

परिवार समाज की आत्मा है। यह न केवल व्यक्ति को जन्म देता है, बल्कि उसे सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से तैयार करता है। परिवार के प्रकार्य व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होते हैं, जबकि इसके स्वरूप सामाजिक संरचना को आकार देते हैं। आधुनिक समाज में परिवार के स्वरूप में परिवर्तन आया है, परन्तु उसकी आवश्यकता और महत्व आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
एक स्वस्थ, नैतिक और संगठित समाज के निर्माण के लिए मजबूत पारिवारिक व्यवस्था का होना अनिवार्य है।



BASO(N)102 OTHER SOLVED PAPER 


प्रश्न 01:  धर्म किसे कहते हैं? संक्षिप्त में समझाइए।

✨ धर्म की परिभाषा

भारतीय समाज में "धर्म" एक अत्यंत व्यापक एवं बहुआयामी अवधारणा है। यह केवल पूजा-पद्धति या आस्था से जुड़ा नहीं है, बल्कि यह एक नैतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक आचार-संहिता भी है। संस्कृत में "धृ" धातु से निकले शब्द 'धर्म' का अर्थ है – धारण करने योग्य वस्तु, अर्थात् जो व्यक्ति, समाज और ब्रह्मांड को टिकाए रखे।

महर्षि व्यास के अनुसार –

“धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।”
अर्थात जो सभी प्राणियों को धारण (संयमित एवं संरक्षित) करता है, वही धर्म है।

🌿 धर्म के मुख्य तत्त्व

📜 1. सत्य (Truth)

हर स्थिति में सत्य बोलना, सत्य पर आचरण करना।

⚖️ 2. न्याय (Justice)

सबके साथ निष्पक्ष व्यवहार करना।

💖 3. अहिंसा (Non-violence)

शारीरिक, मानसिक और वाचिक हिंसा से बचना।

🤝 4. सेवा (Service)

परहित का भाव रखना और दूसरों की सहायता करना।

📚 5. कर्तव्यपरायणता (Duty)

अपने कर्तव्यों को ईमानदारी से निभाना — चाहे वह पारिवारिक हो, सामाजिक हो या राष्ट्रीय।

📌 धर्म का उद्देश्य

धर्म का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति एवं समाज को संयमित, अनुशासित और नैतिक बनाना है। यह व्यक्ति को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सही और गलत के बीच अंतर करने की दृष्टि देता है। भारतीय दर्शन में धर्म को पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में प्रथम स्थान दिया गया है।

🛕 भारतीय समाज में धर्म का महत्व

🧘‍♂️ 1. आध्यात्मिक विकास

धर्म व्यक्ति को आत्मचिंतन, ध्यान और मोक्ष की दिशा में प्रेरित करता है।

🏡 2. सामाजिक समरसता

धार्मिक मूल्य जैसे करुणा, परोपकार, क्षमा आदि समाज को एकजुट रखते हैं।

🧑‍⚖️ 3. नैतिक दिशा

धर्म व्यक्ति को नैतिक दिशा देता है जिससे वह अपने कर्तव्यों का पालन ईमानदारी से करता है।

🧬 4. सांस्कृतिक संरक्षण

भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएं धर्म के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती आ रही हैं।

🌐 धर्म और आधुनिक युग

आधुनिक युग में धर्म केवल पूजा-पद्धति तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि यह अब मानवाधिकार, सामाजिक न्याय और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों से भी जुड़ गया है। धर्म अब एक समावेशी (inclusive) दृष्टिकोण अपनाकर मानवता के व्यापक कल्याण की ओर उन्मुख हो रहा है।


निष्कर्षतः, धर्म एक सार्वभौमिक, नैतिक और सामाजिक मार्गदर्शक है जो मानव जीवन को आदर्श, संयमित और उद्देश्यपूर्ण बनाता है। यह न केवल व्यक्ति के आंतरिक जीवन को बल्कि पूरे समाज के ढांचे को स्थायित्व प्रदान करता है।



प्रश्न 02: आश्रम व्यवस्था का अर्थ एवं परिभाषा लिखिए।

🧘 आश्रम व्यवस्था: भारतीय जीवन पद्धति की मूल आधारशिला

भारतीय संस्कृति में जीवन को चार चरणों में विभाजित किया गया है, जिसे ‘आश्रम व्यवस्था’ कहा जाता है। यह व्यवस्था व्यक्ति के जीवन को चार प्रमुख अवस्थाओं में बाँटती है, जिससे वह अपने कर्तव्यों को समयानुसार संतुलित रूप से निभा सके। यह केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक, नैतिक और मानसिक विकास की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।


📘 आश्रम व्यवस्था का अर्थ

‘आश्रम’ शब्द संस्कृत धातु श्रृम् (श्रम) से बना है, जिसका अर्थ है – परिश्रम करना या तपस्या करना। आश्रम का तात्पर्य जीवन के उस चरण से है जिसमें व्यक्ति विशेष प्रकार के कर्तव्यों का पालन करता है।

आश्रम व्यवस्था का अर्थ है – मानव जीवन को चार चरणों में बाँटना, जिनमें व्यक्ति विभिन्न कालावधि में विभिन्न उत्तरदायित्वों को निभाता है। ये चार चरण जीवन को संतुलित, सुव्यवस्थित और उद्देश्यपूर्ण बनाते हैं।


📖 प्रमुख विद्वानों द्वारा आश्रम की परिभाषाएँ

📌 १. मनुस्मृति के अनुसार:

"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।"

यहाँ वर्ण व्यवस्था की तरह, आश्रम व्यवस्था भी मनुष्य के कर्म और आयु के अनुसार विभाजित है।

📌 २. स्वामी विवेकानंद:

"आश्रम व्यवस्था मानव जीवन के उन चार पायदानों की तरह है, जो उसे आत्मविकास की दिशा में ले जाती है।"

📌 ३. महर्षि दयानंद:

"आश्रम व्यवस्था जीवन का एक वैज्ञानिक क्रम है, जो मानव के प्रत्येक चरण को व्यवस्थित करता है।"


🪔 आश्रम व्यवस्था का उद्देश्य

🌱 जीवन का संतुलित विकास

व्यक्ति की मानसिक, सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति को सुनिश्चित करना।

🎯 कर्तव्य आधारित जीवन

हर आश्रम में विशिष्ट कर्तव्य होते हैं, जिससे जीवन में अनुशासन और उद्देश्य का विकास होता है।

🙏 मोक्ष की प्राप्ति

आख़िरी आश्रम 'संन्यास' व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार और मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।


📌 निष्कर्ष

भारतीय संस्कृति में आश्रम व्यवस्था जीवन को न केवल व्यवस्थित करती है, बल्कि इसे एक धार्मिक अनुशासन, नैतिक कर्तव्य, और आध्यात्मिक लक्ष्य की दिशा में मार्गदर्शित करती है। यह व्यवस्था व्यक्ति को ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’ के संतुलित पालन का मार्ग दिखाती है।

👉 अतः, आश्रम व्यवस्था एक ऐसी जीवन प्रणाली है जो व्यक्ति को हर अवस्था में उसके उचित कर्तव्यों की याद दिलाती है और उसे सामाजिक, मानसिक और आत्मिक रूप से परिपक्व बनाती है।



प्रश्न 03: कर्म का अर्थ एवं प्रकार लिखिए।

🌿 कर्म का परिचय

भारतीय दर्शन और संस्कृति में "कर्म" का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। 'कर्म' शब्द संस्कृत की "कृ" धातु से बना है, जिसका अर्थ है – करना या कार्य करना। अतः, कर्म का सामान्य अर्थ होता है – कार्य या क्रिया। परंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में कर्म मात्र शारीरिक क्रिया ही नहीं, अपितु मानसिक एवं वाचिक (वाणी द्वारा किए गए कार्य) क्रियाओं को भी सम्मिलित करता है। यह व्यक्ति के आचरण, नैतिकता और जीवन के उद्देश्य से गहराई से जुड़ा हुआ है।

🔍 कर्म का दार्शनिक दृष्टिकोण

भारतीय दार्शनिक परंपराओं में कर्म को व्यक्ति के जीवन और पुनर्जन्म (पुनरावृत्ति) से जोड़ा गया है। यह मान्यता है कि व्यक्ति के वर्तमान जीवन की स्थिति उसके पिछले जन्मों के कर्मों का परिणाम है और वर्तमान कर्म उसके भविष्य का निर्धारण करते हैं। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं — "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन", अर्थात् मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिंता किए बिना।


🌀 कर्म के प्रमुख प्रकार

भारतीय दर्शनों, विशेषतः सांख्य और वेदांत परंपराओं में, कर्म को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया गया है। मुख्यतः कर्म के तीन प्रमुख प्रकार माने गए हैं:


🔸 1. संचित कर्म (Sanchit Karma)

परिभाषा: यह वे कर्म हैं जो पिछले जन्मों में किए गए हैं और जिनका फल अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है।
विशेषता:

  • यह प्रकार का कर्म व्यक्ति के जीवन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।

  • यह ‘कर्म बैंक’ के समान है जो व्यक्ति के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता है।


🔸 2. प्रारब्ध कर्म (Prarabdha Karma)

परिभाषा: यह वह भाग है संचित कर्मों का, जो वर्तमान जीवन में फल स्वरूप प्रकट होता है।
विशेषता:

  • यह हमारे जन्म, परिस्थिति, परिवार, शरीर आदि का निर्धारण करता है।

  • यह वर्तमान जीवन में नियति के रूप में सामने आता है और इससे बचना कठिन होता है।


🔸 3. क्रियमाण कर्म (Kriyaman Karma)

परिभाषा: यह वह कर्म है जिसे मनुष्य वर्तमान जीवन में कर रहा है।
विशेषता:

  • यह भविष्य के संचित कर्मों में जुड़ता है।

  • यह मनुष्य के विवेक और निर्णय क्षमता पर आधारित होता है।

  • इसके प्रभाव से व्यक्ति अपना भविष्य बदल सकता है।


🌼 अन्य प्रमुख कर्म भेद

🔹 नित्य कर्म (Nitya Karma)

  • ये वे कर्म हैं जिन्हें प्रतिदिन करना आवश्यक होता है जैसे – संध्या वंदन, पूजा, जप आदि।

  • इनका त्याग पाप का कारण बनता है।

🔹 नैमित्तिक कर्म (Naimittika Karma)

  • ये विशेष अवसरों पर किए जाने वाले कर्म हैं जैसे – श्राद्ध, संक्रांति, ग्रहणकाल में स्नान आदि।

  • इनका उद्देश्य विशेष फल की प्राप्ति नहीं बल्कि कर्तव्य पालन होता है।

🔹 काम्य कर्म (Kamya Karma)

  • ये वे कर्म होते हैं जिन्हें विशेष फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है, जैसे – पुत्रेष्ठि यज्ञ, धन प्राप्ति हेतु अनुष्ठान।

  • इन्हें इच्छा आधारित कर्म कहा जाता है।

🔹 निषिद्ध कर्म (Nishiddha Karma)

  • ये वे कर्म हैं जिन्हें शास्त्रों द्वारा वर्जित किया गया है जैसे – चोरी, हत्या, असत्य भाषण आदि।

  • इनका करना पाप का कारण बनता है और बुरे फल उत्पन्न होते हैं।


🌱 कर्म का महत्व

📌 आत्मविकास के लिए आवश्यक

कर्म के माध्यम से मनुष्य अपने व्यक्तित्व और आत्मा का विकास करता है। सत्कर्म से व्यक्ति ऊँचे आध्यात्मिक स्तर पर पहुँच सकता है।

📌 सामाजिक संतुलन बनाए रखने में सहायक

हर व्यक्ति का कर्म उसके सामाजिक उत्तरदायित्व से जुड़ा होता है। यदि सभी व्यक्ति अपने कर्मों को सही रूप से निभाएं, तो समाज में संतुलन एवं समरसता बनी रहती है।

📌 पुनर्जन्म के सिद्धांत से जुड़ा

कर्म के सिद्धांत के अनुसार, अच्छे कर्म सुखद पुनर्जन्म का कारण बनते हैं जबकि बुरे कर्म दुखद जन्मों की ओर ले जाते हैं।


🌟 निष्कर्ष

कर्म केवल एक क्रिया नहीं, बल्कि यह मनुष्य जीवन की दिशा तय करने वाली सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है। भारतीय संस्कृति में कर्म को ईश्वर से भी ऊपर माना गया है क्योंकि व्यक्ति अपने कर्मों से ही अपना भाग्य गढ़ता है। इसलिए कहा गया है —
"जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे।"

इस प्रकार, कर्म न केवल व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन का निर्धारण करता है, बल्कि सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक प्रगति में भी उसकी अहम भूमिका होती है।



प्रश्न 04. समावर्तन संस्कार तथा उपनयन संस्कार का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए।


📚 भूमिका

हिंदू धर्म में जीवन को चार आश्रमों और सोलह संस्कारों के माध्यम से सुव्यवस्थित किया गया है। इन संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बनाना है। उपनयन संस्कार और समावर्तन संस्कार इन्हीं सोलह संस्कारों में से दो महत्वपूर्ण संस्कार हैं, जो विशेष रूप से विद्यार्थी जीवन और उसके समापन से संबंधित हैं।


🎓 उपनयन संस्कार : शिक्षा का प्रारंभ

🔍 उपनयन संस्कार का अर्थ

"उपनयन" शब्द का अर्थ है "निकट लाना", यानी गुरु के निकट लाकर विद्यार्थी को शिक्षा ग्रहण हेतु तैयार करना। इसे विद्यारंभ संस्कार भी कहा जाता है।

📖 उपनयन संस्कार की विशेषताएं

  • यह संस्कार विशेष रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों के बालकों के लिए होता था।

  • इस संस्कार में विद्यार्थी को यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहनाया जाता है।

  • उसे गुरु के आश्रम में भेजा जाता है और गुरु को दक्षिणा दी जाती है।

  • विद्यार्थी गायत्री मंत्र का जाप करना सीखता है और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है।

👨‍🏫 उद्देश्य

  • बालक को आध्यात्मिक और बौद्धिक रूप से शिक्षित करना।

  • अनुशासन, संयम और आत्मनियंत्रण की शिक्षा देना।

  • समाज में एक ज़िम्मेदार नागरिक के रूप में उसका विकास करना।


🎓 समावर्तन संस्कार : शिक्षा का समापन

🔍 समावर्तन संस्कार का अर्थ

"समावर्तन" का अर्थ है "पुनः गमन" यानी आश्रम से घर की ओर लौटना। यह संस्कार उस समय किया जाता था जब विद्यार्थी ने गुरु से समस्त शिक्षा प्राप्त कर ली हो।

📜 समावर्तन संस्कार की प्रक्रिया

  • यह गुरुकुल जीवन के अंत और गृहस्थ जीवन की शुरुआत को दर्शाता है।

  • विद्यार्थी गुरु से आशीर्वाद लेकर और कुछ दक्षिणा अर्पित करके घर लौटता है।

  • इस समय वह सामाजिक रूप से स्नातक कहलाता है।

🎯 उद्देश्य

  • शिक्षा समाप्ति के बाद सामाजिक जीवन में प्रवेश को मान्यता देना।

  • बालक को अब गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों के लिए तैयार करना।

  • जीवन के अगले आश्रम – गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की पूर्वपीठिका तैयार करना।


🧩 निष्कर्ष

उपनयन संस्कार और समावर्तन संस्कार दोनों ही व्यक्ति के विद्यार्थी जीवन के आरंभ और समापन के प्रतीक हैं। जहाँ उपनयन संस्कार शिक्षा और संयम का द्वार खोलता है, वहीं समावर्तन संस्कार उस द्वार से बाहर निकलकर सामाजिक उत्तरदायित्वों को स्वीकार करने की शुरुआत करता है। इन संस्कारों की परंपरा आज भले ही शिथिल हो गई हो, लेकिन इनके पीछे छिपे नैतिक मूल्य और अनुशासन के आदर्श आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।



प्रश्न 05: विविधता में एकता से आप क्या समझते हैं? समझाइए।

🌍 "विविधता में एकता" का अर्थ

भारत जैसे बहुभाषी, बहुधार्मिक, बहुजातीय देश में विविधता में एकता (Unity in Diversity) एक अद्वितीय विशेषता है। इसका आशय है कि विभिन्न धर्म, जातियाँ, भाषाएँ, संस्कृतियाँ, परंपराएँ, वेशभूषा, खानपान और जीवनशैली होने के बावजूद लोग एक सूत्र में बंधे हुए हैं और राष्ट्रीय एकता को बनाए रखते हैं।

यह भावना दर्शाती है कि बाहरी विविधताओं के बावजूद समाज के अंदर एक भावनात्मक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता मौजूद रहती है।


🧩 भारत में विविधता के रूप

🗣️ भाषायी विविधता:

भारत में संविधान द्वारा 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है। हिंदी, बंगाली, तेलुगु, मराठी, तमिल, उर्दू, गुजराती, मलयालम आदि प्रमुख भाषाएँ हैं।

🙏 धार्मिक विविधता:

हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के अनुयायी भारत में रहते हैं। इन सभी का जीवन दर्शन अलग है, परंतु वे सभी समान रूप से भारत की संस्कृति में योगदान देते हैं।

👳‍♀️ वेशभूषा और खानपान:

उत्तर भारत में जहाँ लोग सर्दी के अनुसार ऊनी कपड़े पहनते हैं, वहीं दक्षिण भारत में हल्के वस्त्र आम हैं। पंजाब का भरवा खाना, बंगाल की माछ-भात, दक्षिण भारत का डोसा-सांभर, सब अपनी विशिष्टता रखते हैं।

🎉 त्योहार और परंपराएँ:

दिवाली, ईद, क्रिसमस, गुरु पर्व, बुद्ध पूर्णिमा, ओणम, लोहड़ी जैसे पर्व सभी धर्मों के लोग मिलकर मनाते हैं, जिससे सामाजिक सौहार्द और मेलजोल बढ़ता है।


🤝 विविधता में एकता की विशेषताएँ

🛡️ राष्ट्र की मजबूती:

विविधता को अपनाकर जब नागरिक एकजुट होते हैं, तो राष्ट्र मजबूत होता है और आंतरिक संघर्षों से बचा रहता है।

🧠 सांस्कृतिक आदान-प्रदान:

अलग-अलग समुदायों के बीच भाषा, साहित्य, कला, संगीत और रीति-रिवाज का आदान-प्रदान होता है, जिससे सांस्कृतिक समृद्धि होती है।

🌈 समावेशिता और सहिष्णुता:

विविधता को मान्यता देने से समाज में सहनशीलता, सम्मान और समावेश की भावना विकसित होती है, जो लोकतंत्र की नींव है।


⚖️ विविधता में एकता के सामने चुनौतियाँ

🔥 सांप्रदायिकता:

धर्म या जाति के नाम पर फैलाई जाने वाली नफरत एकता को खतरे में डाल सकती है।

🧱 भाषाई संघर्ष:

कभी-कभी भाषायी असहमति से क्षेत्रीय टकराव उत्पन्न होते हैं।

💰 आर्थिक असमानता:

धन का असमान वितरण भी सामाजिक दूरी बढ़ाकर एकता को कमजोर कर सकता है।


📚 भारतीय संविधान और एकता

भारतीय संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देता है - चाहे उनका धर्म, जाति, भाषा या लिंग कुछ भी हो।
"एकता में विविधता" की भावना संविधान की प्रस्तावना और मौलिक अधिकारों में स्पष्ट झलकती है।


🏛️ उदाहरण: स्वतंत्रता आंदोलन में एकता

महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था, तो हर क्षेत्र, धर्म और वर्ग के लोग इसमें एकजुट हुए। यह सबसे बड़ा उदाहरण है विविधता में एकता का।


🌟 निष्कर्ष (Conclusion)

विविधता में एकता भारतीय समाज की आत्मा है। यह केवल एक सामाजिक अवधारणा नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, संविधान और राष्ट्रीय चरित्र का मूल आधार है।
यदि हम विविधताओं का सम्मान करते हुए एकता को बनाए रखें, तो हम एक समृद्ध, सशक्त और शांतिपूर्ण राष्ट्र की ओर बढ़ सकते हैं।


👉 विशेष टिप्पणी:
"विविधता में एकता" भारत की वह सुंदरता है जो हमें वैश्विक मंच पर अलग पहचान देती है। यह हमारी राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सामंजस्य और लोकतांत्रिक भावना की गारंटी है।




06. अधिमान्य विवाह को परिभाषित करते हुए इसके प्रकारों का संक्षिप्त में वर्णन कीजिए।

💍 अधिमान्य विवाह की परिभाषा

"अधिमान्य विवाह (Preferential Marriage)" का अर्थ ऐसे विवाह से है जो सामाजिक, सांस्कृतिक या पारिवारिक रूप से विशेष प्राथमिकता रखते हैं। ये विवाह सामान्य विवाह से भिन्न होते हैं क्योंकि इनमें समाज या परिवार कुछ रिश्तों को विवाह के लिए अधिक उपयुक्त मानता है।

अधिमान्य विवाह का आधार अक्सर आर्थिक, सामाजिक और वंशानुगत कारण होते हैं। इन विवाहों में समाज द्वारा निर्धारित कुछ विशिष्ट संबंधों को ही वैध और उचित माना जाता है। यह परंपरा विशेष रूप से आदिवासी समाज, पारंपरिक ग्रामीण समाज, और कुछ जातीय समूहों में प्रचलित है।


🔎 अधिमान्य विवाह के प्रमुख उद्देश्य

  • 👨‍👩‍👦 वंश की शुद्धता बनाए रखना

  • 💰 पारिवारिक संपत्ति का संरक्षण

  • 🤝 पारिवारिक एकता और सहयोग बनाए रखना

  • 🔄 सामाजिक वर्जनाओं से बचाव


📚 अधिमान्य विवाह के प्रमुख प्रकार

अधिमान्य विवाह के कई प्रकार होते हैं जो समाज और संस्कृति के अनुसार भिन्न हो सकते हैं। नीचे इनके मुख्य प्रकारों का वर्णन किया गया है:


🧕 1. मातुल कन्या विवाह (Mother’s Brother’s Daughter Marriage)

यह विवाह उस स्थिति को दर्शाता है जब कोई पुरुष अपनी मामा की बेटी से विवाह करता है।
यह विवाह दक्षिण भारत में विशेष रूप से प्रचलित है। इसे अधिमान्य इसलिए माना जाता है क्योंकि:

  • पारिवारिक संबंध मजबूत होते हैं।

  • वंश की जानकारी रहती है।

  • लड़की का पालन-पोषण अक्सर लड़के के परिवार की निगरानी में होता है।

📝 उदाहरण: तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश में मातुल कन्या विवाह को अत्यंत मान्यता प्राप्त है।


🧑‍🤝‍🧑 2. क्रॉस कज़िन विवाह (Cross Cousin Marriage)

इसमें पुरुष अपनी फुफेरी या मौसेरी बहन से विवाह करता है। यह विवाह उन समाजों में प्रचलित है जहाँ कुल (clan) के बाहर विवाह को प्राथमिकता दी जाती है।

⚙️ विशेषताएँ:

  • यह एक्सोगैमी (Exogamy) के अंतर्गत आता है।

  • इससे दो परिवारों के बीच संबंध मजबूत होते हैं।

  • दहेज की समस्या कम होती है क्योंकि रिश्तेदारी पहले से होती है।


🧍‍♀️ 3. समांतर चचेरा विवाह (Parallel Cousin Marriage)

इस विवाह में कोई पुरुष अपनी ताई या चाची की बेटी से विवाह करता है यानी अपने पैतृक पक्ष की बहन से। कुछ समाजों में इसे वर्जित भी माना जाता है जबकि कुछ जगहों पर इसकी अनुमति है।

🔎 सामाजिक मान्यता:

  • यह एंडोगैमी (Endogamy) की श्रेणी में आता है।

  • वंश और संपत्ति का संरक्षण इस प्रकार के विवाह का मुख्य उद्देश्य होता है।


🧑‍🤝‍🧑 4. लेवीरेट विवाह (Levirate Marriage)

इस प्रकार के विवाह में जब किसी स्त्री का पति मर जाता है, तो उसका विवाह पति के छोटे भाई से करा दिया जाता है। इसे 'नीयोबेट विवाह' भी कहा जाता है।

📌 उद्देश्य:

  • विधवा स्त्री को संरक्षण देना।

  • बच्चों की देखभाल सुनिश्चित करना।

  • पारिवारिक उत्तरदायित्वों को निभाना।

📝 विशेष उल्लेख: यह विवाह अफ्रीका, भारत के कुछ आदिवासी क्षेत्रों और यहूदी समाज में प्रचलित था।


👰 5. सोरोरेट विवाह (Sororate Marriage)

इस विवाह में जब किसी पुरुष की पत्नी मर जाती है, तो उसका विवाह उसकी साली (पत्नी की बहन) से करा दिया जाता है।

📎 उद्देश्य:

  • बच्चों को मातृ-प्रेम मिलता रहे।

  • घर-परिवार का संतुलन बना रहे।

  • लड़की का पालन-पोषण उसी परिवार में हो चुका होता है, जिससे अनुकूलन आसान होता है।


📋 अन्य अधिमान्य विवाह की परंपराएँ

🔸 आदान-प्रदान विवाह (Exchange Marriage)

दो परिवार आपस में बेटे-बेटी का विवाह एक-दूसरे से करते हैं। इससे दहेज और लेन-देन की समस्या नहीं होती।

🔸 बहुविवाह में अधिमान्यता

कुछ समाजों में विशेष परिस्थिति में एक से अधिक विवाहों को भी अधिमान्यता दी जाती है, जैसे पुत्र प्राप्ति, वंशवृद्धि आदि।


🔍 अधिमान्य विवाह की विशेषताएँ

विशेषताविवरण
पारिवारिक नियंत्रणविवाह संबंधों पर परिवार का अधिक नियंत्रण होता है।
वंशगत शुद्धतासमाज वंश और कुल की शुद्धता बनाए रखना चाहता है।
सामाजिक स्वीकार्यताकुछ विशेष रिश्तों में विवाह को पूर्ण सामाजिक मान्यता मिलती है।
परंपरा और रीति-रिवाजये विवाह पारंपरिक रीति-नीति के अनुसार होते हैं।



📢 निष्कर्ष (Conclusion)

अधिमान्य विवाह न केवल पारिवारिक और सामाजिक संरचना को मजबूती प्रदान करते हैं, बल्कि ये विवाह संबंधों में विश्वास, नज़दीकी और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को भी मजबूत करते हैं। हालांकि बदलते समय और आधुनिक सोच के साथ इन विवाहों की प्रासंगिकता में कुछ बदलाव अवश्य आया है, फिर भी परंपरागत समाजों में आज भी ये प्रचलित हैं।

इसलिए, अधिमान्य विवाह भारतीय समाज की सामाजिक संरचना और विवाह संबंधों की जटिलता को समझने में सहायक होते हैं।




प्रश्न 07: जातीय गतिशीलता किसे कहते हैं? समझाइए।

जातीय गतिशीलता (Caste Mobility) भारतीय समाज में सामाजिक परिवर्तन और वर्गीय स्थिति में परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण पहलू है। भारत की जाति-व्यवस्था परंपरागत रूप से जन्म पर आधारित रही है, परंतु आधुनिक परिवर्तनों के चलते जातीय गतिशीलता एक सामाजिक वास्तविकता बन गई है। इस उत्तर में हम जातीय गतिशीलता का अर्थ, उसके प्रकार, कारण, प्रभाव और वर्तमान संदर्भ में उसकी स्थिति का विश्लेषण करेंगे।


🔍 जातीय गतिशीलता का अर्थ (Meaning of Caste Mobility)

जातीय गतिशीलता से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसके अंतर्गत कोई जाति या जाति समूह अपनी पारंपरिक सामाजिक स्थिति, पेशा, या मान्यता में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। यह परिवर्तन आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक या शैक्षिक माध्यम से संभव होता है।

🧭 सरल शब्दों में कहें तो:

"जातीय गतिशीलता वह प्रक्रिया है, जिसमें कोई जाति अपनी सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाने का प्रयास करती है, जिससे उसे समाज में उच्च दर्जा प्राप्त हो सके।"


📚 जातीय गतिशीलता के प्रकार (Types of Caste Mobility)

जातीय गतिशीलता को मुख्यतः दो प्रमुख प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है:

🔼 1. ऊर्ध्व गतिशीलता (Upward Mobility)

इस प्रकार की गतिशीलता में कोई जाति अपने सामाजिक दर्जे में उन्नति करती है। उदाहरण के लिए, निम्न वर्ण की जाति अपने आचरण, संस्कार, व्यवसाय, शिक्षा, एवं धार्मिक कार्यों के माध्यम से उच्च वर्ण की नकल करते हुए अपनी स्थिति को ऊँचा करने की कोशिश करती है।

🔽 2. अधः गतिशीलता (Downward Mobility)

कभी-कभी सामाजिक या आर्थिक कारणों से कोई जाति अपने पारंपरिक दर्जे से नीचे चली जाती है। इसे अधः गतिशीलता कहते हैं। यह बहुत दुर्लभ स्थिति होती है, परंतु अत्यधिक गरीबी, शिक्षा की कमी या सामाजिक बहिष्कार जैसी स्थितियों में यह संभव है।


🔧 जातीय गतिशीलता के प्रमुख कारक (Major Factors of Caste Mobility)

🏛️ 1. संस्कृतिकरण (Sanskritization)

यह शब्द समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास ने प्रस्तुत किया। इसमें निम्न जातियाँ उच्च जातियों की जीवनशैली, रीति-रिवाज, खान-पान और पूजा-पद्धति को अपनाकर सामाजिक उन्नति प्राप्त करने की कोशिश करती हैं।

🎓 2. शिक्षा

शिक्षा जातीय गतिशीलता का सबसे शक्तिशाली माध्यम है। जब कोई व्यक्ति या जाति उच्च शिक्षा प्राप्त करती है, तो वह समाज में एक सम्मानित स्थान प्राप्त कर सकती है।

💼 3. पेशागत परिवर्तन

यदि कोई जाति परंपरागत कार्यों को छोड़कर आधुनिक व्यवसायों में प्रवेश करती है, तो यह भी सामाजिक स्थिति को ऊँचा करने का माध्यम बनता है।

🗳️ 4. राजनीति में भागीदारी

राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने से जातीय पहचान को सामाजिक मान्यता मिलती है, जो जातीय गतिशीलता को बल देती है।

🏘️ 5. शहरीकरण और औद्योगिकीकरण

गाँव से शहरों की ओर पलायन और नए औद्योगिक कार्यों में संलग्न होना जातीय गतिशीलता का द्वार खोलता है। शहरों में जातिगत पहचान अक्सर धुंधली हो जाती है।


🧩 जातीय गतिशीलता के प्रभाव (Effects of Caste Mobility)

1. सामाजिक समरसता में वृद्धि

जातीय गतिशीलता से विभिन्न जातियों में आपसी संबंध बेहतर होते हैं और समाज में एकता बढ़ती है।

🔄 2. जाति व्यवस्था में शिथिलता

परंपरागत जाति व्यवस्था में कठोरता घटती है और लचीलेपन की शुरुआत होती है।

📊 3. आर्थिक विकास को बल

जब विभिन्न जातियाँ नए व्यवसायों में प्रवेश करती हैं तो आर्थिक क्षेत्र में विविधता और विकास संभव होता है।

⚠️ 4. जातीय संघर्ष भी संभव

कुछ मामलों में जातीय गतिशीलता से उच्च जातियों में असुरक्षा की भावना पनपती है, जिससे सामाजिक टकराव की स्थिति भी बन सकती है।


🧭 आधुनिक भारत में जातीय गतिशीलता की स्थिति (Present Context of Caste Mobility in India)

आधुनिक भारत में जातीय गतिशीलता का दायरा काफी विस्तृत हो गया है। शिक्षा, आरक्षण, राजनीतिक सशक्तिकरण, शहरीकरण और मीडिया की भूमिका ने इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है।

📌 कुछ उल्लेखनीय बिंदु:

  • अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों की राजनीतिक सहभागिता में वृद्धि।

  • आईएएस, आईपीएस और अन्य सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व बढ़ना।

  • दलित साहित्य और संस्कृति को सामाजिक मान्यता मिलना।


📎 निष्कर्ष (Conclusion)

जातीय गतिशीलता एक सतत प्रक्रिया है, जो समाज में बराबरी, समरसता और प्रगति की दिशा में एक सकारात्मक संकेत है। यद्यपि अभी भी जातिगत भेदभाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, परंतु जातीय गतिशीलता ने सामाजिक परिवर्तन की राह खोल दी है। यदि इस प्रक्रिया को शिक्षा, आर्थिक अवसरों और सामाजिक चेतना के साथ बल दिया जाए, तो भारतीय समाज और अधिक समतामूलक एवं उन्नतिशील बन सकता है।



08. नगरीय समाज किसे कहते हैं? नगरीय समाज की जीवनशैली का वर्णन कीजिए।


🏙️ नगरीय समाज का अर्थ (Urban Society Meaning)

नगरीय समाज (Urban Society) उस सामाजिक संरचना को कहते हैं, जो शहरों या नगरों में पाई जाती है। यह समाज आधुनिक जीवनशैली, तकनीकी प्रगति, आर्थिक विविधता, व्यावसायिक जटिलता, और सामाजिक गतिशीलता से परिपूर्ण होता है। यहाँ जनसंख्या घनत्व अधिक होता है और लोग विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, जातीय तथा भाषाई पृष्ठभूमियों से आते हैं। नगरीय समाज को ग्रामीण समाज की तुलना में अधिक औपचारिक, गतिशील और प्रतिस्पर्धात्मक माना जाता है।


🏗️ नगरीय समाज की प्रमुख विशेषताएँ (Key Characteristics of Urban Society)

🔹 1. जनसंख्या की अधिकता

नगरों में जनसंख्या बहुत अधिक होती है। एक सीमित भौगोलिक क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोग निवास करते हैं, जिससे जनसंख्या घनत्व बहुत बढ़ जाता है।

🔹 2. सामाजिक विविधता

नगरीय समाज में विभिन्न धर्म, जाति, भाषा और संस्कृति के लोग एक साथ रहते हैं। यह विविधता समाज को बहुपरिप्रेक्ष्यीय बनाती है।

🔹 3. औपचारिक संबंध

ग्रामीण समाज के विपरीत, नगरीय समाज में व्यक्तिगत और आत्मीय संबंधों की अपेक्षा औपचारिक और व्यावसायिक संबंध अधिक होते हैं।

🔹 4. पेशागत विविधता

शहरों में विभिन्न प्रकार की नौकरियाँ, उद्योग, व्यवसाय और सेवाएँ उपलब्ध होती हैं। यहाँ लोग कृषि पर निर्भर नहीं रहते, बल्कि सेवा और उत्पादन क्षेत्र में कार्य करते हैं।

🔹 5. सामाजिक गतिशीलता

नगरीय समाज में व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर सामाजिक स्थिति में परिवर्तन कर सकता है। सामाजिक उत्थान की संभावना अधिक होती है।


🏢 नगरीय जीवनशैली का वर्णन (Urban Lifestyle Description)

🌐 1. आधुनिकता और तकनीकी पर निर्भरता

नगरीय समाज की जीवनशैली अत्यधिक आधुनिक होती है। संचार, परिवहन, स्वास्थ्य, शिक्षा और मनोरंजन के क्षेत्र में तकनीकी साधनों का अधिकतम प्रयोग होता है।

👩‍💼 2. महिलाओं की भागीदारी

शहरों में महिलाएँ शिक्षा, रोजगार, प्रशासन, और व्यवसाय में सक्रिय भागीदारी निभाती हैं। महिला सशक्तिकरण के अनेक उदाहरण नगरीय समाज में देखे जा सकते हैं।

📚 3. शिक्षा का उच्च स्तर

नगरीय क्षेत्रों में उच्च गुणवत्ता वाली शैक्षिक संस्थाएँ होती हैं। लोग शिक्षा के प्रति अधिक जागरूक होते हैं और तकनीकी व व्यवसायिक शिक्षा को प्राथमिकता दी जाती है।

🏥 4. स्वास्थ्य सुविधाएँ

नगरों में अस्पताल, क्लीनिक, पैथोलॉजी लैब और विशेषज्ञ डॉक्टरों की सुविधा अधिक होती है, जिससे जीवन स्तर ऊँचा होता है।

🏠 5. आवासीय जटिलताएँ

जनसंख्या के दबाव के कारण आवास की समस्या नगरीय जीवनशैली की प्रमुख चुनौती है। बहुमंजिला इमारतों और अपार्टमेंट्स का प्रचलन अधिक होता है।

🚗 6. परिवहन की सुविधा और भीड़भाड़

शहरों में सार्वजनिक एवं निजी परिवहन की सुविधाएँ उपलब्ध हैं, परंतु ट्रैफिक जाम और प्रदूषण जीवन को प्रभावित करते हैं।

🎭 7. मनोरंजन के साधन

सिनेमा हॉल, मॉल, पार्क, रेस्तरां, क्लब आदि नगरीय जीवन का हिस्सा हैं। लोग विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेते हैं।


🧩 नगरीय जीवन की चुनौतियाँ (Challenges of Urban Life)

⚠️ 1. प्रदूषण की समस्या

वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण नगरीय जीवन की प्रमुख समस्याएँ हैं, जो स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती हैं।

🧍‍♂️ 2. सामाजिक अलगाव

यहाँ आत्मीय संबंधों की कमी होती है जिससे लोग अकेलेपन और मानसिक तनाव से ग्रसित हो सकते हैं।

💼 3. बेरोजगारी और प्रतिस्पर्धा

शिक्षित लोगों की संख्या अधिक होने के कारण रोजगार की प्रतिस्पर्धा भी अधिक होती है।

🧹 4. झुग्गी-झोपड़ी और असमानता

गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए आवास, स्वच्छता और स्वास्थ्य सुविधाएँ सीमित होती हैं।


✅ निष्कर्ष (Conclusion)

नगरीय समाज आधुनिकता, विविधता और गतिशीलता का प्रतीक है। इसमें जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति की संभावना मौजूद है, लेकिन इसके साथ-साथ अनेक सामाजिक और पर्यावरणीय चुनौतियाँ भी सामने आती हैं। नगरीय समाज की जीवनशैली जितनी सुविधाजनक प्रतीत होती है, उतनी ही जटिल भी होती है। यदि योजनाबद्ध विकास और सामाजिक संतुलन कायम रखा जाए, तो नगरीय समाज देश के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।



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