GEHI-01 SOLVED QUESTION PAPER 2024

 


GEHI-01 SOLVED QUESTION PAPER 2024


1. पूर्व आधुनिक भारत में राष्ट्रीयता की अवधारणा (Concept of Nationality in Pre-modern India)


पूर्व-आधुनिक भारत में राष्ट्रीयता की अवधारणा बहुत जटिल और विविध थी, जो विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक तत्वों पर आधारित थी। इस समय भारत विभिन्न छोटे-बड़े राज्यों, राजवंशों, और साम्राज्यों में विभाजित था। इन विभिन्न राज्यों और साम्राज्यों के लोगों में एक साझा सांस्कृतिक पहचान थी, लेकिन यह पहचान आधुनिक राष्ट्रवाद से भिन्न थी।


धार्मिक और सांस्कृतिक एकता:


भारत में विभिन्न धर्मों का सह-अस्तित्व था जैसे हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, और इस्लाम। धार्मिक त्यौहार, धार्मिक ग्रंथ, और तीर्थस्थल सांस्कृतिक एकता के प्रतीक थे। संस्कृत, पालि, फारसी, और अन्य भाषाओं का प्रचलन भी एक साझा सांस्कृतिक पहचान का निर्माण करता था।


राजनीतिक एकता का अभाव:


पूर्व-आधुनिक भारत में राष्ट्रीयता की भावना क्षेत्रीय थी। विभिन्न राज्यों के बीच राजनीतिक एकता का अभाव था। विभिन्न राजाओं और साम्राज्यों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व था, और वे अक्सर एक-दूसरे के साथ युद्ध में उलझे रहते थे। इस कारण राष्ट्रीयता की अवधारणा मुख्यतः सांस्कृतिक और धार्मिक स्तर पर ही सीमित थी।


सामाजिक संरचना:


जाति प्रथा और सामाजिक संरचना ने भी राष्ट्रीयता की भावना को प्रभावित किया। भारतीय समाज विभिन्न जातियों और समुदायों में विभाजित था, और प्रत्येक जाति की अपनी सामाजिक पहचान थी। सामाजिक गतिशीलता का अभाव राष्ट्रीयता की एकीकृत भावना को बाधित करता था।


बाहरी प्रभाव:


पूर्व-आधुनिक काल में भारत पर विभिन्न बाहरी आक्रमणों का भी प्रभाव पड़ा। इन आक्रमणों ने भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना को प्रभावित किया, लेकिन इसके बावजूद भारतीय समाज ने अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखा। मुस्लिम शासकों के आगमन और मुगल साम्राज्य के विस्तार ने भारतीय समाज में एक नई सांस्कृतिक मिश्रण को जन्म दिया।


निष्कर्ष:


पूर्व-आधुनिक भारत में राष्ट्रीयता की अवधारणा आज के आधुनिक राष्ट्रवाद से भिन्न थी। यह मुख्यतः सांस्कृतिक, धार्मिक, और सामाजिक तत्वों पर आधारित थी। राजनीतिक एकता का अभाव और सामाजिक संरचना के विभाजन ने राष्ट्रीयता की भावना को एकीकृत होने से रोका। हालांकि, भारतीय समाज ने अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखा और यही सांस्कृतिक पहचान आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की नींव बनी।


2. ब्रिटिश भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय और प्रकृति (Rise of Economic Nationalism in British India)


ब्रिटिश भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय एक महत्वपूर्ण और व्यापक आंदोलन था, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी। यह आंदोलन मुख्यतः भारतीय अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्त कराने और स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से शुरू हुआ।


स्वदेशी आंदोलन:


आर्थिक राष्ट्रवाद का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा स्वदेशी आंदोलन था, जो 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में शुरू हुआ। इस आंदोलन के तहत भारतीयों ने विदेशी वस्त्रों और अन्य उत्पादों का बहिष्कार किया और स्वदेशी उत्पादों को अपनाने का आह्वान किया। इस आंदोलन ने भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने और आत्मनिर्भरता की भावना को प्रोत्साहित किया।


प्रमुख नेता:


आर्थिक राष्ट्रवाद के प्रमुख नेताओं में दादाभाई नौरोजी, बाल गंगाधर तिलक, और महात्मा गांधी शामिल थे। नौरोजी ने ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियों की आलोचना की और इसे 'ड्रेन ऑफ वेल्थ' का नाम दिया, जिसमें भारत का धन ब्रिटेन की ओर बहता था। तिलक और गांधी ने स्वदेशी और स्वावलंबन की नीति को बढ़ावा दिया और भारतीयों को विदेशी उत्पादों का बहिष्कार करने के लिए प्रेरित किया।


आर्थिक नीति:


ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि आधारित थी, और अधिकांश उद्योग ब्रिटिश नियंत्रण में थे। ब्रिटिश शासन ने भारतीय उद्योगों के विकास को बाधित किया और कच्चे माल का निर्यात कर तैयार माल का आयात किया। आर्थिक राष्ट्रवाद का उद्देश्य भारतीय उद्योगों का विकास और आत्मनिर्भरता प्राप्त करना था।


सामाजिक प्रभाव:


आर्थिक राष्ट्रवाद ने भारतीय समाज में आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भावना को बढ़ावा दिया। इस आंदोलन ने भारतीय जनता को आर्थिक रूप से संगठित किया और ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के खिलाफ संगठित प्रतिरोध का मार्ग प्रशस्त किया।


निष्कर्ष:


ब्रिटिश भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय एक महत्वपूर्ण घटना थी जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी। स्वदेशी आंदोलन और आर्थिक आत्मनिर्भरता की नीति ने भारतीय समाज को संगठित किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आर्थिक प्रतिरोध की नींव रखी। आर्थिक राष्ट्रवाद ने भारतीय जनता में आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भावना को मजबूत किया और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया।


3. उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में भारत में पुनरुत्थानवादी आंदोलन की प्रकृति (Revivalist Movements in 19th Century India)


उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में भारत में पुनरुत्थानवादी आंदोलनों की प्रकृति मुख्यतः धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सुधार पर केंद्रित थी। इन आंदोलनों का उद्देश्य भारतीय समाज को पुनः जागरूक करना और उसे उसकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ना था। यह आंदोलन औपनिवेशिक आधुनिकता के प्रभावों के खिलाफ प्रतिक्रिया स्वरूप उभरे।


धार्मिक पुनरुत्थान:


आर्य समाज, ब्रह्म समाज, और रामकृष्ण मिशन जैसे धार्मिक पुनरुत्थानवादी आंदोलनों ने भारतीय समाज को उसकी धार्मिक जड़ों से जोड़ने का प्रयास किया। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने 'वेदों की ओर लौटो' का नारा दिया और हिंदू धर्म में सुधार की वकालत की। ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय ने मूर्तिपूजा और अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठाई और तर्कसंगत धार्मिक प्रथाओं को प्रोत्साहित किया।


सांस्कृतिक पुनरुत्थान:


इन आंदोलनों ने भारतीय कला, साहित्य, और संस्कृति को पुनः जागरूक करने का प्रयास किया। बंगाल पुनर्जागरण इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसमें रविंद्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, और ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे विद्वानों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस पुनर्जागरण ने भारतीय साहित्य, कला, और संगीत को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया।


सामाजिक सुधार:


पुनरुत्थानवादी आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण पहलू सामाजिक सुधार था। बाल विवाह, सती प्रथा, और जातिवाद जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई गई। आर्य समाज ने विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया और जातिवाद का विरोध किया। ब्रह्म समाज ने शिक्षा और महिला सशक्तिकरण पर बल दिया।


पश्चिमी प्रभाव:


इन आंदोलनों ने पश्चिमी शिक्षा और विज्ञान को भी अपनाया। हालांकि, इनका उद्देश्य भारतीय समाज को पश्चिमीकरण से बचाना और अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखना था। पुनरुत्थानवादी आंदोलनों ने पश्चिमी और भारतीय विचारों का समन्वय करने का प्रयास किया।


निष्कर्ष:


उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में भारत में पुनरुत्थानवादी आंदोलनों की प्रकृति धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सुधार पर आधारित थी। इन आंदोलनों ने भारतीय समाज को उसकी सांस्कृतिक और धार्मिक जड़ों से जोड़ने का प्रयास किया और आधुनिकता के साथ संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया। यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव बने और समाज को जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


4. लॉर्ड कर्जन की बंगाल विभाजन योजना का आलोचनात्मक परीक्षण (Lord Curzon’s Partition of Bengal)


लॉर्ड कर्जन द्वारा 1905 में बंगाल विभाजन की योजना ब्रिटिश भारत में एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह विभाजन प्रशासनिक सुधार के नाम पर किया गया था, लेकिन इसके पीछे मुख्य उद्देश्य भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना था।


विभाजन की योजना:


लॉर्ड कर्जन ने बंगाल को दो भागों में विभाजित किया: पूर्वी बंगाल और असम, और पश्चिमी बंगाल। पूर्वी बंगाल में मुस्लिम बहुल क्षेत्र था जबकि पश्चिमी बंगाल में हिंदू बहुल क्षेत्र था। इस विभाजन का मुख्य उद्देश्य हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच विभाजन करना और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रभाव को कम करना था।


जन प्रतिक्रिया:


बंगाल विभाजन के खिलाफ जन प्रतिक्रिया तीव्र और व्यापक थी। भारतीय जनता ने इसे 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत देखा। विभाजन के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन, हड़तालें, और रैलियां आयोजित की गईं। स्वदेशी आंदोलन का उदय हुआ, जिसमें भारतीयों ने ब्रिटिश उत्पादों का बहिष्कार किया और स्वदेशी उत्पादों को अपनाने का आह्वान किया।


राजनीतिक प्रभाव:


बंगाल विभाजन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी। भारतीय जनता में राष्ट्रीयता की भावना और मजबूत हुई। इस विभाजन ने कांग्रेस को संगठित किया और स्वदेशी आंदोलन को बढ़ावा दिया। विभाजन के खिलाफ विरोध ने भारतीय जनता को संगठित किया और उन्हें ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट किया।


विभाजन का अंत:


बंगाल विभाजन के खिलाफ लगातार विरोध के चलते 1911 में ब्रिटिश सरकार को विभाजन को रद्द करना पड़ा। हालांकि, इस विभाजन ने भारतीय समाज में धार्मिक आधार पर विभाजन की नींव रख दी, जिसका प्रभाव भारतीय राजनीति पर लंबे समय तक रहा।


निष्कर्ष:


लॉर्ड कर्जन की बंगाल विभाजन योजना प्रशासनिक सुधार के नाम पर की गई थी, लेकिन इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना था। हालांकि, इस विभाजन ने भारतीय जनता में राष्ट्रीयता की भावना को और मजबूत किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया।


5. दक्षिण अफ्रीकी राजनीतिक आंदोलन में गांधी की भूमिका (Role of Gandhi in South African Political Movements)


महात्मा गांधी का दक्षिण अफ्रीका में राजनीतिक आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा। 1893 में एक कानूनी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका जाने के बाद, गांधी ने वहां के भारतीय समुदाय के खिलाफ हो रहे अन्याय और भेदभाव का सामना किया और भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने का संकल्प लिया।


नस्लीय भेदभाव:


दक्षिण अफ्रीका में गांधी को नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ा, जब उन्हें ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया। यह घटना गांधी के राजनीतिक जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ थी। उन्होंने भारतीय समुदाय को संगठित किया और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करना शुरू किया।


सत्याग्रह का प्रयोग:


दक्षिण अफ्रीका में गांधी ने सत्याग्रह (अहिंसक प्रतिरोध) की अवधारणा विकसित की, जो उनके पूरे राजनीतिक जीवन की एक महत्वपूर्ण रणनीति बनी। सत्याग्रह का प्रयोग गांधी ने नस्लीय भेदभाव और अन्याय के खिलाफ किया। उन्होंने 'ब्लैक एक्ट' और 'पास लॉज' के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया और भारतीय समुदाय को संगठित किया।


सामूहिक आंदोलन:


गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के बीच एकजुटता और सहयोग की भावना को बढ़ावा दिया। उन्होंने सामूहिक रूप से विरोध प्रदर्शन और हड़तालें आयोजित कीं, जिनमें भारतीयों ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया। गांधी ने भारतीय समुदाय के आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए सामूहिक कार्रवाई की नींव रखी।


निष्कर्ष:


महात्मा गांधी का दक्षिण अफ्रीका में राजनीतिक आंदोलन में योगदान उनके राजनीतिक दर्शन और रणनीति का आधार बना। उन्होंने सत्याग्रह के माध्यम से अहिंसक प्रतिरोध की नीति को विकसित किया और भारतीय समुदाय के अधिकारों की रक्षा की। यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणादायक साबित हुआ।


SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS 


1. होमरूल आंदोलन (Home Rule Movement)


होमरूल आंदोलन 1916 में बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार से स्वशासन (होमरूल) की मांग करना था। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य भारतीयों को स्वशासन के लिए प्रेरित करना और देशव्यापी जागरूकता फैलाना था।

होमरूल आंदोलन भारतीय राजनीति के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ क्योंकि इसने जनता को बड़े पैमाने पर राजनीतिक रूप से जागरूक किया। इसके प्रभाव से कांग्रेस पार्टी ने भी अपनी नीतियों में बदलाव किया और स्वराज्य की मांग को प्रमुखता दी।


मुख्य बिंदु:


आंदोलन का उद्देश्य भारतीयों के लिए स्वशासन की मांग करना था।


इस आंदोलन में बड़ी संख्या में भारतीयों की भागीदारी हुई।


होमरूल आंदोलन ने कांग्रेस की स्वराज्य की मांग को बल प्रदान किया।


यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।


2. इंडियन ओपिनियन (Indian Opinion)


"इंडियन ओपिनियन" महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में 1903 में शुरू किया गया एक समाचार पत्र था। इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय समुदाय के अधिकारों और समस्याओं को उजागर करना था। यह समाचार पत्र अंग्रेजी, हिंदी, तमिल और गुजराती भाषाओं में प्रकाशित होता था, जिससे यह विभिन्न भाषाई समूहों तक पहुंचा।

इस समाचार पत्र ने भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और ब्रिटिश शासन के अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ आवाज उठाई। इसके माध्यम से गांधी ने सत्याग्रह के विचार को फैलाया और भारतीय समुदाय को संगठित किया।


मुख्य बिंदु:


समाचार पत्र भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ने का माध्यम था।


यह सत्याग्रह और अहिंसक प्रतिरोध के विचार को फैलाने में सहायक था।


इससे भारतीय समुदाय की समस्याओं को आवाज मिली।


भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए भी इसने एक मजबूत मंच प्रदान किया।


3. प्रवासी भारतीयों की क्रांतिकारी गतिविधियाँ (Revolutionary Activities of Non-Resident Indians)


प्रवासी भारतीयों की क्रांतिकारी गतिविधियाँ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण पहलू थीं। भारत से बाहर बसे भारतीयों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष को समर्थन दिया और कई महत्वपूर्ण आंदोलनों में हिस्सा लिया।

ग़दर आंदोलन इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जो अमेरिका और कनाडा में बसे भारतीयों द्वारा शुरू किया गया था। इस आंदोलन का उद्देश्य भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र कराना था। इसके अलावा, लाला हरदयाल जैसे नेताओं ने भी विदेशों में क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ावा दिया।


मुख्य बिंदु:


प्रवासी भारतीयों ने भारत की आज़ादी के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


ग़दर पार्टी और अन्य क्रांतिकारी संगठनों का गठन हुआ।


विदेशी भूमि से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन मिला।


ब्रिटिश शासन के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय जागरूकता फैलाने में प्रवासी भारतीयों का योगदान रहा।


4. लाला लाजपत राय (Lala Lajpat Rai)


लाला लाजपत राय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं में से एक थे। उन्हें "पंजाब केसरी" के नाम से भी जाना जाता है। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य थे और स्वराज्य की मांग के समर्थक थे।

लाजपत राय ने स्वदेशी आंदोलन और शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष करते हुए 1928 में सायमन कमीशन के खिलाफ एक प्रदर्शन के दौरान घायल हो गए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी शहादत ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को और भी प्रेरित किया।


मुख्य बिंदु:


वे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से एक थे।


उन्होंने स्वदेशी आंदोलन को बढ़ावा दिया।


सायमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन में उनकी शहादत महत्वपूर्ण रही।


उनकी मृत्यु ने भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के खिलाफ और भी संगठित किया।


5. आर्य समाज (Arya Samaj)


आर्य समाज 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित एक धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन था। इसका मुख्य उद्देश्य वैदिक सिद्धांतों को पुनर्जीवित करना और समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों को दूर करना था।

आर्य समाज ने भारतीय समाज में शिक्षा, सामाजिक सुधार, और धार्मिक पुनरुत्थान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस आंदोलन ने स्त्री शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, और जाति व्यवस्था के खिलाफ भी आवाज उठाई। यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी प्रेरणादायक साबित हुआ।


मुख्य बिंदु:


आर्य समाज का उद्देश्य वैदिक सिद्धांतों का पुनरुत्थान था।


यह समाज सुधार और शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय था।


जाति व्यवस्था, अंधविश्वास और कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन किया।


भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित किया और समाज में जागरूकता फैलाई।



6. 1892 का इंडियन काउंसिल एक्ट (Indian Council Act of 1892)


इंडियन काउंसिल एक्ट 1892 भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित एक महत्वपूर्ण विधायी सुधार था, जो ब्रिटिश संसद में भारतीय प्रतिनिधित्व बढ़ाने के उद्देश्य से लागू किया गया था। यह सुधार भारतीय समाज के उच्च वर्गों की मांगों को ध्यान में रखते हुए किया गया, हालांकि इसने वास्तविक राजनीतिक शक्ति प्रदान नहीं की।


प्रमुख विशेषताएँ:


विधान परिषदों का विस्तार: इस अधिनियम ने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों का विस्तार किया, जिनमें अब अधिक भारतीय सदस्य शामिल किए गए।


विधायी अधिकारों का विस्तार: सदस्यों को बजट पर चर्चा करने और सार्वजनिक मुद्दों पर प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया, हालांकि यह केवल सीमित था और इनमें से अधिकांश प्रस्तावों को सरकार ने नजरअंदाज कर दिया।


चुनाव प्रक्रिया का आंशिक सुधार: इस अधिनियम ने एक "अप्रत्यक्ष चुनाव" प्रणाली की शुरुआत की, जिसमें भारतीयों को सरकार की मंजूरी से विधान परिषदों में प्रतिनिधित्व करने की अनुमति दी गई। हालांकि यह चुनाव वास्तविक नहीं था, लेकिन यह एक प्रारंभिक कदम था।


भारतीय राजनीतिक जागरूकता का विकास: भारतीय समाज, विशेष रूप से कांग्रेस, ने इस अधिनियम को अपर्याप्त माना। इसने भारतीय जनता में राजनीतिक जागरूकता बढ़ाई और स्वराज की मांग को बढ़ावा दिया।


निष्कर्ष:


हालांकि 1892 का इंडियन काउंसिल एक्ट सुधार की दिशा में एक छोटा कदम था, इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआती चरणों को प्रेरित किया। यह अधिनियम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की बढ़ती राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए पारित किया गया था, लेकिन इसे भारतीय नेतृत्व ने नाकाफी माना और इसके बाद स्वराज की मांग और तेज हो गई।


7. स्वदेशी आंदोलन (Swadeshi Movement)


स्वदेशी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण आंदोलन था, जो ब्रिटिश वस्त्रों के बहिष्कार और भारतीय उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया था। यह आंदोलन 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध के रूप में शुरू हुआ, लेकिन बाद में यह एक व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन बन गया।


मुख्य उद्देश्य:


ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार: ब्रिटिश आर्थिक शोषण के विरोध में, भारतीय जनता को ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार करने और भारतीय उत्पादों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।


स्वदेशी उद्योगों का समर्थन: इस आंदोलन ने भारतीय कारीगरों और उद्योगों को बढ़ावा देने पर बल दिया, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को स्वावलंबी बनाया जा सके।


राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार: स्वदेशी आंदोलन ने भारतीयों के बीच राष्ट्रीयता और आत्मनिर्भरता की भावना को बढ़ावा दिया। इससे ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष बढ़ा और भारतीयों को संगठित किया गया।


प्रमुख घटनाएँ:


बंगाल विभाजन का विरोध: यह आंदोलन विशेष रूप से बंगाल विभाजन के खिलाफ एक मजबूत विरोध प्रदर्शन के रूप में उभरा।


स्वदेशी वस्त्रों का उत्पादन: भारतीय कपड़ा मिलों और अन्य घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहित किया गया, ताकि ब्रिटिश वस्त्रों के विकल्प उपलब्ध हो सकें।


शैक्षिक सुधार: स्वदेशी आंदोलन के तहत राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की गई, ताकि भारतीयों को औपनिवेशिक शिक्षा के स्थान पर राष्ट्रीय और सांस्कृतिक शिक्षा दी जा सके।


निष्कर्ष:


स्वदेशी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इसने भारतीयों को आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीयता की भावना सिखाई और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट किया। इस आंदोलन ने भारतीय अर्थव्यवस्था, समाज और राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव को और मजबूत किया।


8. लखनऊ समझौता (Lucknow Pact)


लखनऊ समझौता 1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच हुआ एक ऐतिहासिक समझौता था। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए किया गया एक महत्वपूर्ण प्रयास था। इस समझौते ने ब्रिटिश सरकार पर भारतीयों की राजनीतिक मांगों को मानने का दबाव बढ़ाया।


पृष्ठभूमि:


लखनऊ समझौता उस समय हुआ, जब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न समुदायों के बीच विभाजन की स्थिति थी। मुस्लिम लीग, जो 1906 में मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए स्थापित की गई थी, और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जो एक अखिल भारतीय संगठन थी, के बीच सहयोग की आवश्यकता महसूस की गई।


मुख्य बिंदु:


हिंदू-मुस्लिम एकता: इस समझौते का मुख्य उद्देश्य हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच राजनीतिक एकता स्थापित करना था, ताकि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को मजबूती मिले।


सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व: समझौते के तहत यह निर्णय लिया गया कि विधान परिषदों में मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। यह सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व मुस्लिम लीग की प्रमुख मांगों में से एक थी।


संवैधानिक सुधार की मांग: इस समझौते ने ब्रिटिश सरकार से संवैधानिक सुधार की मांग की, जिसमें भारतीयों को अधिक राजनीतिक अधिकार और प्रतिनिधित्व देने पर जोर दिया गया।


ब्रिटिश सरकार पर दबाव: लखनऊ समझौते के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने मिलकर ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाला, जिससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नया मोड़ आया।


निष्कर्ष:


लखनऊ समझौता भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसने हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत किया और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष करने का मार्ग प्रशस्त किया। हालांकि, यह एक अस्थायी एकता साबित हुई, लेकिन इसके प्रभाव से भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक मुद्दों पर ध्यान बढ़ा और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को गति मिली।