यह हल प्रश्नपत्र उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय के बी.ए. प्रथम सेमेस्टर के विषय “शिक्षा एवं समाज” [BAED(N)101] पर आधारित है। यह प्रश्नपत्र दिसम्बर 2024 सत्र की परीक्षा के अंतर्गत आया था, जिसका आयोजन फरवरी-मार्च 2025 में हुआ था। नीचे सभी प्रश्नों के उत्तर सरल, स्पष्ट भाषा और आकर्षक शैली में प्रस्तुत किए गए हैं।
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
❖ प्रश्न 01: शिक्षा दर्शन की परिभाषा के साथ दर्शन की आवश्यकता एवं क्षेत्र का विस्तृत वर्णन कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: शिक्षा और दर्शन – एक गहरा संबंध
शिक्षा और दर्शन दोनों मानव जीवन के दो ऐसे आधार स्तंभ हैं जो व्यक्ति को सोचने, समझने और जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाने की दिशा में अग्रसर करते हैं।
👉 दर्शन ज्ञान का मूल स्रोत है और शिक्षा उस ज्ञान को व्यवहार में लाने का माध्यम।
🌟 शिक्षा दर्शन की परिभाषा (Definition of Educational Philosophy)
शिक्षा दर्शन (Educational Philosophy) दो शब्दों से मिलकर बना है:
"शिक्षा", अर्थात ज्ञान, अनुभव, कौशल और नैतिकता का विकास।
"दर्शन", अर्थात सत्य की खोज और जीवन के रहस्यों पर चिंतन।
👉 अतः शिक्षा दर्शन वह शाखा है जो यह स्पष्ट करती है कि शिक्षा क्यों दी जाए, क्या सिखाया जाए, कैसे सिखाया जाए और किसके लिए सिखाया जाए।
🔸 प्रमुख परिभाषाएँ:
जॉन ड्यूई:
"शिक्षा दर्शन शिक्षा को दिशा देने वाला सिद्धांत है।"रॉस (Ross):
"शिक्षा दर्शन वह दृष्टिकोण है जिससे हम शिक्षा की प्रकृति, उद्देश्य, विधियों और मूल्यांकन को समझते हैं।"
🔷 दर्शन की आवश्यकता (Need of Philosophy)
मानव जीवन केवल भौतिक आवश्यकताओं तक सीमित नहीं है; उसकी चेतना, आत्मा और विचारशीलता उसे प्रश्न पूछने और सत्य खोजने की प्रेरणा देती है। यह प्रेरणा ही दर्शन की ओर ले जाती है।
🔸 1. जीवन के उद्देश्य को समझने के लिए
▪ दर्शन यह जानने में सहायक होता है कि मानव जीवन का उद्देश्य क्या है और हम किस दिशा में अग्रसर हों।
🔸 2. आचरण और नैतिकता का मार्गदर्शन
▪ क्या सही है और क्या गलत, यह तय करने में दर्शन नैतिक दृष्टिकोण प्रदान करता है।
🔸 3. समाज और संस्कृति की समझ के लिए
▪ दर्शन हमें हमारे सामाजिक मूल्य, सांस्कृतिक परंपराओं और विचारधाराओं की गहराई से समझ देता है।
🔸 4. वैज्ञानिक और तार्किक सोच के विकास में
▪ दर्शन तार्किक तर्क और विश्लेषण पर आधारित होता है जिससे व्यक्ति में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पनपता है।
🔸 5. शिक्षा को उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए
▪ शिक्षा दर्शन यह निश्चित करता है कि शिक्षा का अंतिम उद्देश्य केवल रोजगार नहीं, बल्कि जीवन के उच्च मूल्यों की स्थापना है।
🔷 दर्शन के प्रमुख क्षेत्र (Major Branches of Philosophy)
दर्शन की कई शाखाएँ हैं जो जीवन के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करती हैं। आइए इनके बारे में विस्तार से समझें:
🔹 1. मेटाफिजिक्स (Metaphysics) – तत्वमीमांसा
▪ यह दर्शन की वह शाखा है जो अस्तित्व, आत्मा, ब्रह्मांड और ईश्वर जैसे प्रश्नों पर विचार करती है।
▪ शिक्षा में यह प्रश्न उठाती है – "मनुष्य का स्वभाव क्या है?", "शिक्षा का अंतिम लक्ष्य क्या होना चाहिए?"
🔹 2. एपिस्टेमोलॉजी (Epistemology) – ज्ञान मीमांसा
▪ यह ज्ञान की प्रकृति, स्रोत और सीमाओं की खोज करती है।
▪ शिक्षा में यह प्रश्न उठती है – "ज्ञान कैसे प्राप्त होता है?", "कौन-सा ज्ञान अधिक महत्वपूर्ण है?"
🔹 3. एक्सियोलॉजी (Axiology) – मूल्य मीमांसा
▪ इसमें दो मुख्य उपविभाग हैं:
नैतिक मीमांसा (Ethics) – सही और गलत के मानदंड तय करती है।
सौंदर्य मीमांसा (Aesthetics) – सौंदर्य और कला की समझ विकसित करती है।
▪ शिक्षा में यह नैतिक शिक्षा, सौंदर्यबोध और मूल्य आधारित शिक्षा के स्वरूप को निर्धारित करती है।
🔹 4. तर्कशास्त्र (Logic)
▪ यह सोचने और तर्क करने की विधियों को स्पष्ट करता है।
▪ शिक्षा में यह विद्यार्थियों में तार्किक, विश्लेषणात्मक और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने में सहायक होता है।
🔹 5. समाज दर्शन (Social Philosophy)
▪ यह व्यक्ति और समाज के बीच के संबंधों, कर्तव्यों और अधिकारों का अध्ययन करता है।
▪ शिक्षा में यह समाजोपयोगी नागरिकों के निर्माण की दिशा तय करता है।
🔷 शिक्षा दर्शन और शिक्षण व्यवस्था का संबंध
शिक्षा दर्शन के सिद्धांतों के आधार पर ही शिक्षण की प्रक्रिया की दिशा तय की जाती है। यह शिक्षकों, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों और मूल्यांकन सभी को प्रभावित करता है।
✅ (1) शिक्षक की भूमिका
▪ दर्शन के अनुसार शिक्षक केवल विषय विशेषज्ञ नहीं, बल्कि मार्गदर्शक, चिंतक और प्रेरक होता है।
✅ (2) विद्यार्थी की भूमिका
▪ विद्यार्थी को जिज्ञासु, संवेदनशील और नैतिक रूप से जागरूक बनाना शिक्षा का लक्ष्य होता है।
✅ (3) शिक्षण विधियाँ
▪ विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों (जैसे आदर्शवाद, यथार्थवाद, प्रयोगवाद) के अनुसार शिक्षण पद्धति में विविधता लाई जाती है।
🟩 निष्कर्ष: शिक्षा का आत्मा है दर्शन
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दर्शन शिक्षा को दिशा, गहराई और उद्देश्य प्रदान करता है। बिना दर्शन के शिक्षा केवल सूचना का संचय बनकर रह जाती है, जबकि दर्शन उसे आत्म-विकास का माध्यम बनाता है।
👉 इसलिए, शिक्षा दर्शन न केवल अध्यापक और विद्यार्थियों के व्यवहार को प्रभावित करता है, बल्कि यह पूरे समाज की सोच और संस्कृति को आकार देता है।
❖ प्रश्न 02: आदर्शवाद से आप क्या समझते हैं, आदर्शवादी शिक्षक एवं बालक के गुणों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: आदर्शवाद — शिक्षा का दार्शनिक आधार
दर्शन के क्षेत्र में आदर्शवाद (Idealism) एक प्रमुख विचारधारा है, जिसने शिक्षा की दिशा और दृष्टिकोण को अत्यधिक प्रभावित किया है। आदर्शवाद का मूल विचार यह है कि वास्तविकता का आधार विचार, आत्मा और मूल्य हैं, न कि केवल भौतिक वस्तुएँ।
👉 शिक्षा में आदर्शवाद का उद्देश्य व्यक्ति के चारित्रिक, नैतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास को प्राथमिकता देना है।
🔷 आदर्शवाद की परिभाषा (Definition of Idealism)
आदर्शवाद वह दार्शनिक दृष्टिकोण है जो मानता है कि विचार, आत्मा और परम सत्ता (ईश्वर) ही सत्य हैं और भौतिक संसार केवल एक प्रतिबिंब है।
🔹 प्रमुख विचारक:
प्लेटो: आदर्शवाद के जनक माने जाते हैं।
स्वामी विवेकानंद, डॉ. राधाकृष्णन, और महर्षि अरविंद भी भारतीय संदर्भ में आदर्शवादी दृष्टिकोण रखते हैं।
🔹 परिभाषा (By J.S. Ross):
"Idealism emphasizes spiritual reality as against materialism, and it upholds the supremacy of ideas, values, and the mind."
🔷 शिक्षा में आदर्शवाद की भूमिका
आदर्शवाद यह मानता है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि व्यक्ति के चरित्र, नैतिकता, आत्मा और संस्कृति का विकास करना है।
✅ प्रमुख उद्देश्यों में शामिल हैं:
सत्य, शिव और सुंदर की प्राप्ति
आत्मानुशासन का विकास
नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन का निर्माण
आदर्श नागरिकों का निर्माण
🌟 आदर्शवादी शिक्षक के गुण (Qualities of an Idealistic Teacher)
आदर्शवाद शिक्षक को केवल ज्ञान का स्रोत नहीं मानता, बल्कि वह विद्यार्थियों के जीवन का मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत होता है।
🔷 1. चरित्रवान एवं नैतिक व्यक्तित्व
▪ आदर्शवादी शिक्षक स्वयं एक आदर्श चरित्र प्रस्तुत करता है।
▪ वह सत्य, ईमानदारी, सहिष्णुता, करुणा और संयम का पालन करता है।
🔷 2. आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला
▪ शिक्षक केवल भौतिक ज्ञान नहीं देता, बल्कि आध्यात्मिक जागरूकता भी उत्पन्न करता है।
🔷 3. प्रेरणादायक व्यक्तित्व
▪ वह अपने आचरण, भाषा, दृष्टिकोण और अनुशासन से छात्रों के लिए प्रेरणा बनता है।
🔷 4. ज्ञान का सागर
▪ शिक्षक ज्ञान का विस्तार करता है लेकिन ज्ञान को नैतिकता और संस्कारों से जोड़कर प्रस्तुत करता है।
🔷 5. शिष्य को आत्मविकास की ओर अग्रसर करना
▪ वह छात्र के अंदर छिपी प्रतिभा, आत्मा और आत्म-बल को विकसित करने में विश्वास करता है।
🌟 आदर्शवादी बालक के गुण (Qualities of an Idealistic Child)
आदर्शवादी दर्शन शिक्षा द्वारा ऐसे छात्रों का निर्माण चाहता है जो न केवल विद्वान हों, बल्कि चरित्रवान, नैतिक और जागरूक नागरिक भी हों।
🔷 1. सच्चरित्र और ईमानदार
▪ आदर्शवादी बालक सत्य और नैतिक मूल्यों का पालन करता है।
🔷 2. संयमित और अनुशासित
▪ वह अपने व्यवहार, भाषा और कार्यों में अनुशासित होता है।
🔷 3. उच्च आदर्शों वाला
▪ उसका उद्देश्य केवल भौतिक सफलता नहीं, बल्कि आध्यात्मिक एवं मानसिक विकास भी होता है।
🔷 4. ज्ञान के प्रति श्रद्धावान
▪ वह शिक्षकों का सम्मान करता है, ज्ञान को पूजनीय मानता है और निरंतर सीखने की जिज्ञासा रखता है।
🔷 5. सेवा भाव और सहयोगी दृष्टिकोण
▪ समाज, राष्ट्र और परिवार के प्रति उत्तरदायित्व को समझता है और सेवा-भाव रखता है।
🔷 शिक्षा के विभिन्न पक्षों पर आदर्शवाद का प्रभाव
🔸 1. पाठ्यक्रम (Curriculum)
▪ ऐसा पाठ्यक्रम जिसमें नैतिक, आध्यात्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक मूल्यों को महत्व दिया जाए।
▪ साहित्य, दर्शन, धर्म, संगीत, कला आदि विषयों को प्राथमिकता।
🔸 2. शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)
▪ आदर्शवाद में सocratic method, वार्तालाप, कथा-कहानी, आत्मचिंतन और नैतिक चर्चा प्रमुख होती है।
🔸 3. शिक्षक-छात्र संबंध
▪ यह संबंध प्रेम, श्रद्धा, प्रेरणा और विश्वास पर आधारित होता है।
🟥 आदर्शवाद की सीमाएँ
हालांकि आदर्शवाद की शिक्षा प्रणाली उच्च मूल्यों पर आधारित है, फिर भी इसमें कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं:
❌ 1. अत्यधिक आध्यात्मिकता
▪ केवल आत्मा और विचारों पर जोर देना वास्तविक जीवन की समस्याओं से दूर कर सकता है।
❌ 2. भौतिक और वैज्ञानिक विषयों की उपेक्षा
▪ आधुनिक युग में विज्ञान और तकनीकी ज्ञान की भी आवश्यकता है, जिसकी उपेक्षा हो सकती है।
❌ 3. सभी छात्रों पर समान दृष्टिकोण नहीं
▪ प्रत्येक छात्र की क्षमताएँ और पृष्ठभूमियाँ अलग होती हैं, एक आदर्श मानक सभी पर लागू नहीं हो सकता।
🟩 निष्कर्ष: आदर्शवाद — शिक्षा को उच्चतम मूल्यों की ओर ले जाने वाला दर्शन
आदर्शवाद शिक्षा को केवल आजीविका का माध्यम नहीं, बल्कि मानवता, आत्मा और नैतिकता का साधन मानता है। आदर्शवादी शिक्षक और छात्र का संबंध शिक्षा को पवित्र और समर्पणपूर्ण बनाता है।
👉 वर्तमान भौतिकतावादी युग में जहाँ शिक्षा केवल डिग्री तक सीमित हो रही है, वहीं आदर्शवाद पुनः यह याद दिलाता है कि शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण और आत्मविकास है।
❖ प्रश्न 03: राष्ट्रीय एकता के अर्थ को स्पष्ट करते हुए राष्ट्रीय एकता में शिक्षा की भूमिका का वर्णन कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: भारत जैसे विविधताओं वाले देश में एकता की आवश्यकता
भारत एक बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक देश है। यहां विभिन्न जातियाँ, धर्म, भाषाएँ और प्रांत हैं। इन विविधताओं के बावजूद यदि देश एक सूत्र में बंधा हुआ है, तो उसका कारण है – राष्ट्रीय एकता।
👉 इस एकता को बनाए रखने में शिक्षा एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
🌟 राष्ट्रीय एकता का अर्थ (Meaning of National Integration)
राष्ट्रीय एकता (National Integration) का अर्थ है –
देश के नागरिकों के बीच परस्पर सहयोग, समानता, भाईचारे और एक राष्ट्र की भावना का विकास।
यह एक ऐसी भावना है जो सभी नागरिकों को यह अहसास कराती है कि वे एक ही राष्ट्र के अंग हैं और उनके हित आपस में जुड़े हुए हैं।
🔹 राष्ट्रीय एकता के प्रमुख तत्व:
सांस्कृतिक एकता
भाषायी सामंजस्य
धार्मिक सहिष्णुता
राजनैतिक एकरूपता
आर्थिक समानता और समरसता
सामाजिक न्याय और भाईचारा
🔷 भारत में राष्ट्रीय एकता को प्रभावित करने वाले कारक
भारत जैसे विशाल और विविध देश में राष्ट्रीय एकता को कई तत्व प्रभावित करते हैं:
❌ 1. भाषाई भिन्नताएँ
▪ विभिन्न राज्यों की भाषाएँ एकता में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।
❌ 2. धार्मिक कट्टरता
▪ जब धर्म का उपयोग राजनीति या उग्रवाद के लिए होता है तो वह एकता को बाधित करता है।
❌ 3. जातिगत भेदभाव
▪ जाति आधारित अत्याचार और असमानता समाज में विभाजन पैदा करते हैं।
❌ 4. आर्थिक विषमता
▪ अमीर और गरीब के बीच गहरी खाई एकता को कमजोर करती है।
👉 इन समस्याओं को दूर करने में शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है।
🔷 राष्ट्रीय एकता में शिक्षा की भूमिका (Role of Education in National Integration)
शिक्षा न केवल व्यक्ति का बौद्धिक विकास करती है, बल्कि उसे सामाजिक और राष्ट्रीय जिम्मेदारियों के प्रति भी जागरूक बनाती है। आइए जानें कि कैसे:
✅ 1. राष्ट्रीय चेतना का विकास
▪ शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों में यह भावना उत्पन्न की जाती है कि वे केवल किसी जाति या राज्य से नहीं, बल्कि राष्ट्र से जुड़े हुए नागरिक हैं।
▪ राष्ट्रीय पर्वों, झंडा वंदन, राष्ट्रगान, और देशभक्ति गीतों के माध्यम से यह चेतना सशक्त होती है।
✅ 2. सांप्रदायिक सौहार्द की भावना का निर्माण
▪ पाठ्यक्रमों में विभिन्न धर्मों की शिक्षाओं, संतों की जीवनी और सर्वधर्म समभाव के सिद्धांतों को शामिल कर धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ाया जा सकता है।
✅ 3. भाषायी एकता का पोषण
▪ शिक्षा में राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं को महत्व देकर भाषा के आधार पर भेदभाव को समाप्त किया जा सकता है।
✅ 4. सांस्कृतिक विविधता की समझ
▪ शिक्षा हमें ‘विविधता में एकता’ की भावना सिखाती है।
▪ भारतीय संस्कृति, त्यौहारों, परंपराओं, संगीत, और लोक कलाओं का अध्ययन विद्यार्थियों को सांस्कृतिक एकता की अनुभूति कराता है।
✅ 5. समान अवसर और समता का निर्माण
▪ शिक्षा हर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के समान अवसर प्रदान कर समाज में समता और एकता को मजबूत करती है।
✅ 6. सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास
▪ शिक्षा से व्यक्ति अपने कर्तव्यों, संविधान, और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सजग बनता है।
▪ यह भावना उसे राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में सहभागी बनाती है।
✅ 7. चरित्र निर्माण एवं नैतिक शिक्षा
▪ राष्ट्रीय एकता के लिए ईमानदारी, सहिष्णुता, सेवा-भाव, करुणा जैसे मूल्यों का होना आवश्यक है।
▪ शिक्षा इन नैतिक मूल्यों को जीवन में स्थान देती है।
🌟 राष्ट्रीय एकता हेतु शिक्षण के उपाय
राष्ट्रीय एकता को शिक्षा के माध्यम से मजबूत करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण उपाय इस प्रकार हैं:
🔹 1. राष्ट्रीय एकता केंद्रित पाठ्यक्रम तैयार करना
▪ शिक्षा नीति में ऐसे विषयों को स्थान दिया जाए जिनसे देशभक्ति, एकता और सांस्कृतिक गौरव जागृत हो।
🔹 2. स्कूलों में विविध सांस्कृतिक गतिविधियाँ
▪ नृत्य, नाटक, वाद-विवाद, पोस्टर प्रतियोगिता जैसे माध्यमों से एकता का संदेश देना।
🔹 3. राष्ट्रीय सेवा योजना (NSS), एनसीसी (NCC) और स्काउट गाइड
▪ इन गतिविधियों में भाग लेकर विद्यार्थी सेवा, सहयोग, अनुशासन और एकता के मूल्य सीखते हैं।
🔹 4. शैक्षिक भ्रमण एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान
▪ विभिन्न राज्यों के छात्रों के बीच भ्रमण और संवाद से आपसी समझ और एकता को बढ़ावा मिलता है।
🟥 शिक्षा और राष्ट्रीय एकता: नई शिक्षा नीति 2020 का योगदान
नई शिक्षा नीति 2020 में भी राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक एकता पर विशेष बल दिया गया है:
▪ भारतीय भाषाओं के संरक्षण और प्रचार
▪ भारतीय संस्कृति, इतिहास और मूल्य आधारित शिक्षा
▪ एक भारत श्रेष्ठ भारत कार्यक्रम को बढ़ावा
🟩 निष्कर्ष: शिक्षा ही राष्ट्रीय एकता की नींव है
भारत की एकता उसकी सबसे बड़ी ताकत है, जिसे बनाए रखने में शिक्षा की भूमिका केंद्रीय और निर्णायक है। शिक्षा न केवल हमें एक जिम्मेदार नागरिक बनाती है, बल्कि यह हमें राष्ट्र के लिए समर्पित करने का मूल्य भी सिखाती है।
👉 अतः शिक्षा वह साधन है जिससे हम भारत को एक सशक्त, संगठित और अखंड राष्ट्र बना सकते हैं।
❖ प्रश्न 04: क्षेत्रवाद से आप क्या समझते हैं ? क्षेत्रवाद के कारणों का विस्तृत उल्लेख कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: एकता में बाधा बनता क्षेत्रवाद
भारत एक सांस्कृतिक, भाषायी और भौगोलिक विविधताओं वाला देश है। यहां विभिन्न क्षेत्र अपने-अपने इतिहास, परंपरा, भाषा और संस्कृति के लिए प्रसिद्ध हैं। परंतु जब कोई क्षेत्र अपने संकीर्ण हितों के लिए राष्ट्रहित को पीछे छोड़ देता है, तब वह भावना क्षेत्रवाद कहलाती है।
👉 यह भावना राष्ट्रीय एकता के लिए एक गंभीर खतरा बन सकती है।
🌟 क्षेत्रवाद का अर्थ (Meaning of Regionalism)
क्षेत्रवाद (Regionalism) एक ऐसी सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा है जिसमें व्यक्ति या समूह अपनी क्षेत्रीय पहचान, भाषा, संस्कृति, संसाधनों और अधिकारों को सर्वोपरि मानता है, और राष्ट्र की समग्र एकता को कम आंकता है।
🔹 परिभाषा:
"जब कोई राज्य या क्षेत्र अपने स्थानीय हितों को राष्ट्रीय हितों से ऊपर रखता है और अन्य क्षेत्रों से टकराव की स्थिति उत्पन्न करता है, तो उसे क्षेत्रवाद कहते हैं।"
🔷 क्षेत्रवाद के प्रकार (Types of Regionalism)
✅ 1. सकारात्मक क्षेत्रवाद (Positive Regionalism)
▪ जब कोई क्षेत्र अपनी भाषा, संस्कृति और संसाधनों को संरक्षित करते हुए राष्ट्र की एकता को भी महत्व देता है।
❌ 2. नकारात्मक क्षेत्रवाद (Negative Regionalism)
▪ जब क्षेत्रीय भावना इतनी अधिक हो जाती है कि वह अन्य क्षेत्रों से द्वेष, भेदभाव और अलगाव की भावना को जन्म देती है।
🔷 क्षेत्रवाद के प्रमुख कारण (Major Causes of Regionalism)
क्षेत्रवाद की भावना एक दिन में नहीं जन्म लेती, बल्कि यह कई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों से विकसित होती है।
🔸 1. आर्थिक असमानता और क्षेत्रीय पिछड़ापन
▪ कुछ क्षेत्र आर्थिक रूप से विकसित हो जाते हैं जबकि अन्य पिछड़े और उपेक्षित रह जाते हैं।
▪ जब कोई क्षेत्र यह महसूस करता है कि उसे विकास की पर्याप्त सुविधाएँ नहीं मिल रही हैं, तो वहाँ असंतोष और अलगाव की भावना जन्म लेती है।
उदाहरण: विदर्भ (महाराष्ट्र), बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश), झारखंड (पूर्व में बिहार)
🔸 2. राजनीतिक उपेक्षा और प्रशासनिक भेदभाव
▪ कुछ क्षेत्रों को राजनीतिक निर्णयों में नजरअंदाज कर दिया जाता है।
▪ शासन में भागीदारी की कमी और केंद्र की उपेक्षा भी क्षेत्रवाद को जन्म देती है।
🔸 3. भाषाई असमानता और पहचान का संकट
▪ जब एक विशेष भाषा को थोपने या प्राथमिकता देने का प्रयास होता है, तो अन्य भाषी समुदायों में अपमान और असंतोष की भावना आती है।
उदाहरण: दक्षिण भारत में हिन्दी विरोधी आंदोलन
🔸 4. सांस्कृतिक असुरक्षा और पहचान की चिंता
▪ क्षेत्रीय संस्कृति, त्योहार, परंपरा आदि को राष्ट्रीय पहचान में सम्मिलित न करने की स्थिति में लोग अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाने के लिए आंदोलन करते हैं।
🔸 5. अवैज्ञानिक राज्य पुनर्गठन
▪ कुछ राज्यों का गठन केवल राजनीतिक लाभ के लिए हुआ है, जिससे नए क्षेत्रों में असंतोष फैला है।
▪ क्षेत्रीय जनसंख्या को लगता है कि उन्हें उचित प्रतिनिधित्व और संसाधन नहीं मिल रहे हैं।
🔸 6. राजनीतिक दलों का क्षेत्रवाद को बढ़ावा देना
▪ कई बार क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए क्षेत्रीय अस्मिता की भावना को हवा देते हैं।
▪ वे केंद्र सरकार के विरुद्ध जनभावना भड़काते हैं।
🔸 7. शैक्षिक असमानता
▪ शिक्षा की कमी और क्षेत्रीय भाषा में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अनुपलब्धता से भी लोग अपने अधिकारों के प्रति असुरक्षित हो जाते हैं।
🔸 8. संसाधनों पर नियंत्रण की भावना
▪ कुछ क्षेत्रों में खनिज, जल, वन आदि प्राकृतिक संसाधन अधिक होते हैं।
▪ वहाँ के निवासी बाहरी लोगों द्वारा अपने संसाधनों के शोषण के विरुद्ध खड़े होते हैं।
🔷 क्षेत्रवाद के दुष्परिणाम (Negative Impacts of Regionalism)
❌ 1. राष्ट्रीय एकता पर खतरा
▪ जब क्षेत्रीय हित राष्ट्रीय हित से ऊपर आ जाते हैं तो देश की अखंडता और एकता को खतरा होता है।
❌ 2. सांप्रदायिकता और अलगाववाद को बढ़ावा
▪ यह धीरे-धीरे अलगाववाद और हिंसा का रूप ले सकता है।
❌ 3. राजनीतिक अस्थिरता
▪ सरकारों पर क्षेत्रीय दबाव बढ़ता है, जिससे निर्णयों में असंतुलन होता है।
❌ 4. सांस्कृतिक द्वेष
▪ एक क्षेत्र की संस्कृति को श्रेष्ठ मानकर अन्य को नीचा दिखाया जाता है।
🔷 क्षेत्रवाद की रोकथाम हेतु सुझाव (Suggestions to Control Regionalism)
✅ 1. समान विकास नीति अपनाना
▪ केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर सभी क्षेत्रों का संतुलित विकास करना चाहिए।
✅ 2. संविधान के अनुच्छेदों का प्रभावी क्रियान्वयन
▪ समानता, भाईचारा और स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले अनुच्छेदों को व्यवहार में लाना आवश्यक है।
✅ 3. राष्ट्रीय एकता आधारित शिक्षा
▪ शिक्षा प्रणाली में राष्ट्रप्रेम, सहिष्णुता, बहुलता और विविधता में एकता की भावना को शामिल किया जाए।
✅ 4. राजनीतिक जागरूकता और संवेदनशील प्रशासन
▪ जनसंख्या की समस्याओं को समझने वाला उत्तरदायी प्रशासन और संवेदनशील नेतृत्व जरूरी है।
✅ 5. भाषायी और सांस्कृतिक सम्मान
▪ क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृतियों को सम्मान और अवसर देकर एकता को सशक्त किया जा सकता है।
🟩 निष्कर्ष: एकता के मार्ग में बाधक क्षेत्रवाद को शिक्षा और समता से नियंत्रित करें
क्षेत्रवाद, यदि नियंत्रित न हो, तो वह देश की एकता और विकास को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। परंतु यदि शासन, शिक्षा और समाज मिलकर समान अवसर, सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक सम्मान को बढ़ावा दें, तो क्षेत्रीय भावना को राष्ट्रीय भावना में परिवर्तित किया जा सकता है।
👉 इसलिए, हमें “विविधता में एकता” की भारतीय भावना को सशक्त करना होगा और क्षेत्रवाद को एक स्वस्थ, सकारात्मक दिशा देनी होगी।
❖ प्रश्न 05: भारत के संविधान में वर्णित मूल अधिकारों एवं मूल कर्तव्यों का वर्णन कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: लोकतंत्र में अधिकार और कर्तव्य दोनों आवश्यक
भारत का संविधान एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और गणराज्य राष्ट्र का आधार स्तंभ है। यह संविधान प्रत्येक नागरिक को मूल अधिकार प्रदान करता है और साथ ही कुछ मूल कर्तव्यों का भी बोध कराता है।
👉 जहां अधिकार हमें स्वतंत्रता और गरिमा से जीने का अवसर देते हैं, वहीं कर्तव्य हमें राष्ट्र और समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना सिखाते हैं।
🌟 मूल अधिकार: नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का संवैधानिक प्रावधान
मूल अधिकार (Fundamental Rights) भारतीय संविधान के भाग-3 (अनुच्छेद 12 से 35) तक में वर्णित हैं। ये अधिकार प्रत्येक नागरिक को न्याय, स्वतंत्रता, समानता और गरिमा प्रदान करते हैं।
🔷 भारत के 6 प्रमुख मूल अधिकार (6 Fundamental Rights)
✅ 1. समानता का अधिकार (Right to Equality) – अनुच्छेद 14 से 18
▪ सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता प्राप्त है।
▪ जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव निषेध।
▪ समान अवसर की गारंटी (विशेष रूप से नौकरी और शिक्षा में)।
▪ छुआछूत का उन्मूलन और उपाधियों की समाप्ति (except academic/military titles)।
✅ 2. स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) – अनुच्छेद 19 से 22
▪ विचार, अभिव्यक्ति, सभा, संगठन, आंदोलन, निवास और व्यवसाय की स्वतंत्रता।
▪ नागरिकों को बिना भय के अपना जीवन जीने की आज़ादी।
▪ अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार – यह सबसे व्यापक अधिकार है।
▪ अनुच्छेद 22: गिरफ्तारी और नजरबंदी के समय सुरक्षा की गारंटी।
✅ 3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation) – अनुच्छेद 23 और 24
▪ मानव तस्करी, बेगार, जबरन श्रम पर रोक।
▪ 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को खतरनाक उद्योगों में काम करने से संरक्षण।
✅ 4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) – अनुच्छेद 25 से 28
▪ प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने, पालन करने, प्रचार करने की स्वतंत्रता।
▪ धर्मनिरपेक्षता को सुनिश्चित करता है – राज्य किसी धर्म का समर्थन या विरोध नहीं करता।
▪ धार्मिक संस्थानों को स्वतंत्रता से चलाने का अधिकार।
✅ 5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (Cultural and Educational Rights) – अनुच्छेद 29 और 30
▪ अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि, और संस्कृति को संरक्षित रखने का अधिकार।
▪ अल्पसंख्यक समुदायों को अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और संचालित करने की स्वतंत्रता।
✅ 6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies) – अनुच्छेद 32
▪ यदि किसी नागरिक का कोई मूल अधिकार उल्लंघन होता है, तो वह सीधे उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय में जा सकता है।
▪ यह अधिकार “संविधान का आत्मा” (Heart and Soul) कहलाता है – डॉ. भीमराव अंबेडकर।
🔷 विशेष टिप्पणियाँ:
▪ मौलिक अधिकार सिर्फ नागरिकों के लिए ही नहीं, कुछ अधिकार विदेशियों को भी दिए गए हैं (जैसे अनुच्छेद 21)।
▪ ये अधिकार न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय हैं।
🌟 मूल कर्तव्य: नागरिकों के नैतिक और राष्ट्रीय दायित्व
मूल कर्तव्य (Fundamental Duties) संविधान के अनुच्छेद 51(A) में वर्णित हैं। इन्हें 42वें संविधान संशोधन (1976) द्वारा जोड़ा गया था।
👉 वर्तमान में 11 मूल कर्तव्य हैं।
🔷 भारत के 11 मूल कर्तव्य (Fundamental Duties)
✅ 1. संविधान, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना।
▪ हमें अपने संवैधानिक प्रतीकों का मान रखना चाहिए।
✅ 2. देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करना।
▪ राष्ट्र के विरुद्ध कोई भी कार्य देशद्रोह के अंतर्गत आता है।
✅ 3. देश की रक्षा करना और सेवा देना।
▪ युद्ध या आपातकाल में राष्ट्रसेवा में योगदान देना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।
✅ 4. राष्ट्रीय एकता और भाईचारे की भावना बढ़ाना।
▪ जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के भेदभाव को मिटाकर एकता की भावना बढ़ाना।
✅ 5. महिलाओं की गरिमा का आदर और उनकी रक्षा।
▪ महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता को बढ़ावा देना।
✅ 6. समाज में समरसता बनाए रखना और कुरीतियों को मिटाना।
▪ छुआछूत, दहेज, भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों का विरोध करना।
✅ 7. भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का संरक्षण।
▪ भारतीय भाषा, कला, संगीत, साहित्य आदि की रक्षा।
✅ 8. प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करना।
▪ वनों, झीलों, नदियों, वन्य जीवों की सुरक्षा एवं प्रदूषण नियंत्रण।
✅ 9. वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवता और सुधार की भावना को बढ़ावा देना।
▪ अंधविश्वास से बचना और तर्क आधारित सोच को अपनाना।
✅ 10. सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना।
▪ रेल, सड़क, बिजली जैसी जनसंपत्ति का सम्मान करना।
✅ 11. नवाचार और उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए प्रयास करना।
▪ हर क्षेत्र में मेहनत, लगन और गुणवत्ता के साथ आगे बढ़ना।
🔷 मूल अधिकार और कर्तव्य का आपसी संबंध
मूल अधिकार | मूल कर्तव्य |
---|---|
व्यक्ति को स्वतंत्रता और संरक्षण प्रदान करते हैं | समाज और राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व सिखाते हैं |
न्यायालय द्वारा संरक्षित | नैतिक और संवैधानिक निर्देश |
लोकतंत्र को सशक्त बनाते हैं | लोकतंत्र को संतुलित और जिम्मेदार बनाते हैं |
👉 एक जागरूक नागरिक वह है जो अपने अधिकारों की जानकारी के साथ अपने कर्तव्यों को भी निभाता है।
🟩 निष्कर्ष: अधिकार और कर्तव्य – लोकतंत्र के दो पहिये
भारतीय संविधान एक संतुलन की स्थापना करता है – जहाँ मूल अधिकार नागरिक को सुरक्षा और स्वतंत्रता देते हैं, वहीं मूल कर्तव्य उसे अनुशासित और उत्तरदायी बनाते हैं।
👉 यदि हम केवल अधिकारों की माँग करें और कर्तव्यों की उपेक्षा करें, तो लोकतंत्र अधूरा और असंतुलित बन जाएगा।
इसलिए, प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है कि वह अपने अधिकारों का सम्मान करते हुए कर्तव्यों का पालन करे ताकि राष्ट्र एक सशक्त, समरस और उन्नत समाज की ओर अग्रसर हो सके।
JUNE 2024 का सॉल्व्ड प्रश्न पत्र देखें
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 01: शिक्षा के विभिन्न कार्यों का विस्तारपूर्वक विवेचन कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: शिक्षा का व्यापक अर्थ
शिक्षा केवल विद्यालयों में प्राप्त की जाने वाली औपचारिक जानकारी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व, व्यवहार, सोच, संस्कार और सामाजिक समायोजन को विकसित करती है। शिक्षा के माध्यम से न केवल ज्ञान और कौशल का विकास होता है, बल्कि यह समाज के निर्माण और राष्ट्र के विकास में भी अहम भूमिका निभाती है।
🔷 शिक्षा के कार्यों का वर्गीकरण
शिक्षा के कार्यों को सामान्यतः दो वर्गों में बाँटा जाता है:
-
व्यक्तिगत कार्य (Individual Functions)
-
सामाजिक कार्य (Social Functions)
🌟 I. शिक्षा के व्यक्तिगत कार्य
🔸 1. व्यक्तित्व विकास
शिक्षा व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक क्षमताओं का विकास करती है। इसके द्वारा वह अपने जीवन के उद्देश्य को समझता है और आत्मविश्वासी बनता है।
▪ मानसिक विकास
शिक्षा व्यक्ति की चिंतन, तर्क, स्मरण और कल्पना जैसी क्षमताओं को विकसित करती है।
▪ नैतिक विकास
शिक्षा व्यक्ति को सदाचार, अनुशासन, ईमानदारी जैसी नैतिक मूल्यों को आत्मसात करने की प्रेरणा देती है।
🔸 2. ज्ञान और बौद्धिक विकास
शिक्षा व्यक्ति को विविध विषयों का ज्ञान प्रदान करती है, जिससे वह संसार और अपने जीवन की समस्याओं को समझने और सुलझाने में सक्षम होता है। यह जिज्ञासा और अनुसंधान की भावना को भी प्रोत्साहित करती है।
🔸 3. भावनात्मक संतुलन
शिक्षा व्यक्ति को अपनी भावनाओं को नियंत्रित करना और दूसरों की भावनाओं को समझना सिखाती है। इससे वह आत्मनियंत्रित और सहनशील बनता है।
🔸 4. आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास
शिक्षा व्यक्ति को स्वावलंबी बनाती है और उसमें आत्मविश्वास का संचार करती है ताकि वह जीवन की चुनौतियों का सामना कर सके।
🔸 5. निर्णय क्षमता का विकास
शिक्षा व्यक्ति में तर्कपूर्ण और विवेकपूर्ण निर्णय लेने की योग्यता का विकास करती है, जिससे वह सही और गलत में अंतर कर सकता है।
🌟 II. शिक्षा के सामाजिक कार्य
🔸 1. सामाजिकता का विकास
शिक्षा व्यक्ति को समाज में रहने के लिए सामाजिक नियम, परंपराएं, रीति-रिवाज और कर्तव्यों का बोध कराती है। यह सह-अस्तित्व, सहयोग और सहनशीलता जैसे गुणों का विकास करती है।
🔸 2. सांस्कृतिक संरक्षण एवं संवर्धन
शिक्षा समाज की संस्कृति, परंपराओं, भाषाओं और मान्यताओं को अगली पीढ़ियों तक पहुँचाने का माध्यम है। यह सांस्कृतिक एकता को बनाए रखने में सहायक होती है।
🔸 3. राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्र निर्माण
शिक्षा देश के नागरिकों में देशभक्ति, कर्तव्यबोध, समानता और एकता की भावना को जागृत करती है। यह एक जिम्मेदार नागरिक बनाने का कार्य करती है जो राष्ट्र की उन्नति में योगदान देता है।
🔸 4. सामाजिक सुधार
शिक्षा अंधविश्वास, जातिवाद, लैंगिक भेदभाव जैसी कुरीतियों को दूर करने में सहायक है। यह व्यक्ति में सामाजिक न्याय और समानता की भावना उत्पन्न करती है।
🔸 5. आर्थिक प्रगति में योगदान
शिक्षा लोगों को रोजगार के योग्य बनाकर उनकी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करती है। इसके माध्यम से व्यक्ति उद्योग, तकनीक और व्यवसाय में योगदान देता है।
🔷 शिक्षा के अन्य महत्वपूर्ण कार्य
🔸 1. लोकतांत्रिक चेतना का विकास
शिक्षा व्यक्ति को लोकतांत्रिक मूल्यों जैसे स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय के प्रति सजग बनाती है। यह एक सजग मतदाता और जागरूक नागरिक तैयार करती है।
🔸 2. पर्यावरणीय जागरूकता
आधुनिक शिक्षा व्यक्ति को पर्यावरण संरक्षण, जलवायु परिवर्तन और सतत विकास के प्रति जागरूक करती है, जिससे वह प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके।
🔸 3. जीवन कौशल विकास
शिक्षा आज के समय में संचार, नेतृत्व, समय प्रबंधन, संकट समाधान जैसी जीवन आवश्यक क्षमताओं का भी विकास करती है, जो व्यक्ति को हर क्षेत्र में सक्षम बनाती है।
🟩 निष्कर्ष: शिक्षा – एक समग्र विकास की कुंजी
अतः स्पष्ट है कि शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति और समाज दोनों के सर्वांगीण विकास का आधार है। यह व्यक्तित्व निर्माण, सामाजिक समरसता, आर्थिक विकास, सांस्कृतिक संरक्षण और राष्ट्रीय एकता के लिए अत्यंत आवश्यक है। शिक्षा ही वह साधन है जिससे हम एक सशक्त, न्यायपूर्ण और उन्नत समाज की स्थापना कर सकते हैं।
❖ प्रश्न 02: प्रयोजनवाद का आधुनिक शिक्षा पर प्रभाव को स्पष्ट कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: शिक्षा के दार्शनिक आधार में प्रयोजनवाद की भूमिका
शिक्षा की प्रक्रिया में विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का गहरा प्रभाव होता है। इन्हीं में से एक प्रमुख विचारधारा है प्रयोजनवाद (Pragmatism)। यह एक व्यवहारवादी दर्शन है जो अनुभव, प्रयोग और व्यवहार को महत्व देता है। प्रयोजनवाद के अनुसार, सत्य वही है जो व्यवहार में सफल हो और शिक्षा का उद्देश्य व्यावहारिक जीवन की समस्याओं को हल करने की क्षमता विकसित करना है।
🔷 प्रयोजनवाद की मूल अवधारणा
🔸 प्रयोजनवाद का अर्थ
प्रयोजनवाद एक ऐसी दार्शनिक विचारधारा है जो मानती है कि ज्ञान, अनुभव और कार्य पर आधारित होना चाहिए। इसका मूल उद्देश्य है व्यक्ति को इस प्रकार तैयार करना कि वह बदलते हुए सामाजिक और व्यावसायिक परिवेश में अपने अनुभव से सीखते हुए समस्या-समाधान कर सके।
🔸 प्रमुख प्रवर्तक
प्रयोजनवाद के प्रमुख चिंतक हैं:
-
जॉन डेवी (John Dewey)
-
विलियम जेम्स (William James)
-
चार्ल्स एस. पियर्स (Charles S. Peirce)
🌟 प्रयोजनवाद के प्रमुख सिद्धांत
🔸 1. अनुभव आधारित शिक्षा
प्रयोजनवाद अनुभव को शिक्षा का मूल आधार मानता है।
🔸 2. बालक केंद्रित शिक्षा
शिक्षा का केंद्र बालक होता है, न कि पाठ्यक्रम या शिक्षक।
🔸 3. सक्रिय शिक्षण प्रक्रिया
प्रयोजनवाद में शिक्षा सक्रिय, प्रयोगात्मक और रचनात्मक होती है।
🔸 4. सामाजिक उद्देश्य
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को समाज के अनुरूप तैयार करना है।
🌈 आधुनिक शिक्षा पर प्रयोजनवाद का प्रभाव
अब हम विस्तारपूर्वक समझते हैं कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली पर प्रयोजनवाद का क्या प्रभाव पड़ा है।
🔷 1. शिक्षा का उद्देश्य – जीवन के लिए तैयारी
▪ वास्तविक जीवन से जुड़ी शिक्षा
प्रयोजनवाद ने शिक्षा को पुस्तक-केंद्रित न रखकर वास्तविक जीवन की आवश्यकताओं से जोड़ दिया। आज की शिक्षा प्रणाली बच्चों को रोजगार, समस्याओं के समाधान और जीवन कौशल प्रदान करने की ओर केंद्रित हो गई है।
▪ समग्र विकास पर बल
शिक्षा अब केवल ज्ञान देने का माध्यम नहीं रही, बल्कि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और नैतिक विकास का साधन बन गई है।
🔷 2. पाठ्यक्रम में व्यावहारिकता
▪ गतिविधि-आधारित पाठ्यक्रम
प्रयोजनवाद के प्रभाव से आधुनिक पाठ्यक्रम में प्रयोग, प्रोजेक्ट, फील्ड वर्क, लैब वर्क को महत्व दिया गया है।
▪ लचीलापन (Flexibility)
आज के पाठ्यक्रम लचीले हैं, जिनमें रुचियों और क्षमताओं के अनुसार विषय चुनने की स्वतंत्रता दी जाती है।
🔷 3. शिक्षण विधियों में परिवर्तन
▪ बालक केंद्रित शिक्षण
प्रयोजनवाद के अनुसार प्रत्येक बालक अलग अनुभव और क्षमताओं के साथ आता है, इसलिए उसकी आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षण पद्धति अपनाई जाती है।
▪ खोज आधारित शिक्षण (Discovery Learning)
शिक्षा अब तथ्य याद करने की बजाय खोज और निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया बन गई है।
🔷 4. शिक्षक की भूमिका में परिवर्तन
▪ निर्देशक नहीं, सहयोगी
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षक अब केवल ज्ञान देने वाला नहीं बल्कि मार्गदर्शक, प्रेरक और सहायक की भूमिका निभाता है।
▪ सह-शिक्षक की भूमिका
शिक्षक अब छात्र के साथ मिलकर सीखने की प्रक्रिया में भाग लेता है।
🔷 5. मूल्यांकन प्रणाली में बदलाव
▪ सतत मूल्यांकन
अब सिर्फ वार्षिक परीक्षा ही नहीं, बल्कि सतत एवं समग्र मूल्यांकन (CCE) पर ज़ोर दिया जा रहा है।
▪ व्यवहार और कार्य पर आधारित मूल्यांकन
छात्रों की प्रयोगात्मक क्षमता, व्यवहार, समस्या-समाधान कौशल और सामाजिक सहभागिता को भी मूल्यांकन का हिस्सा बनाया गया है।
🔶 शिक्षा के विविध क्षेत्रों में प्रयोजनवाद का प्रभाव
🔸 तकनीकी शिक्षा
प्रयोजनवाद के प्रभाव से शिक्षा में तकनीक, कंप्यूटर, वर्चुअल लैब, ई-लर्निंग जैसी चीज़ों का समावेश हुआ है, जिससे छात्र वास्तविक अनुभव ले सकते हैं।
🔸 व्यावसायिक शिक्षा
शिक्षा प्रणाली में इंटर्नशिप, व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास को प्रमुख स्थान मिला है, जिससे छात्र रोजगार योग्य बनें।
🔸 नैतिक एवं सामाजिक शिक्षा
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य एक उत्तरदायी नागरिक बनाना है, जो समाज की समस्याओं को समझे और समाधान कर सके।
🟩 निष्कर्ष: प्रयोजनवादी दर्शन – आधुनिक शिक्षा की आत्मा
अतः यह स्पष्ट है कि प्रयोजनवाद ने आधुनिक शिक्षा प्रणाली को व्यवहारिक, बालक-केंद्रित, अनुभवात्मक और समाजोपयोगी बनाया है। यह शिक्षा को एक सजीव प्रक्रिया मानता है जो केवल ज्ञान देने तक सीमित न होकर जीवन जीने की कला सिखाने का कार्य करती है।
आज के समय में प्रयोजनवाद का दृष्टिकोण ही शिक्षा को जीवंत, गतिशील और समाजोन्मुख बना रहा है।
❖ प्रश्न 03: राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: एक नवीन शैक्षिक क्रांति की ओर
भारत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 को एक ऐतिहासिक बदलाव के रूप में देखा जा रहा है। इससे पूर्व 1968 और 1986 में शिक्षा नीति लागू हुई थी, लेकिन समय के साथ समाज, तकनीक और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आए बदलावों को ध्यान में रखते हुए 34 वर्षों के अंतराल के बाद 29 जुलाई 2020 को नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई। इसका उद्देश्य एक समावेशी, लचीली, बहुआयामी और गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रणाली तैयार करना है।
🔷 राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 का उद्देश्य
“शिक्षा को व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के समग्र विकास का माध्यम बनाना।”
नीति का मुख्य उद्देश्य छात्रों में आवश्यक जीवन कौशल, रचनात्मकता, बहुभाषिकता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और नैतिक मूल्यों का विकास करना है।
🌟 राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की प्रमुख विशेषताएँ
🔸 1. नई शैक्षणिक संरचना: 5+3+3+4 प्रणाली
पारंपरिक 10+2 संरचना को समाप्त कर नई प्रणाली लागू की गई है:
▪ Foundation Stage (5 वर्ष) – 3 वर्ष प्री-स्कूल + कक्षा 1-2
▪ Preparatory Stage (3 वर्ष) – कक्षा 3 से 5 तक
▪ Middle Stage (3 वर्ष) – कक्षा 6 से 8 तक
▪ Secondary Stage (4 वर्ष) – कक्षा 9 से 12 तक
👉 यह प्रणाली बच्चे के विकास के अनुसार शिक्षण को प्रोत्साहित करती है।
🔸 2. मातृभाषा या स्थानीय भाषा में शिक्षा
कक्षा 5 (या यथासंभव 8वीं) तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा देने की सिफारिश की गई है।
➡️ इसका उद्देश्य बच्चों की समझ और अभिव्यक्ति को मजबूत करना है।
🔸 3. पूर्व-प्राथमिक शिक्षा (Early Childhood Care and Education - ECCE)
3 से 6 वर्ष की आयु को शिक्षा का आधार चरण माना गया है। इसके लिए 'राष्ट्रीय पाठ्यचर्या और शैक्षिक फ्रेमवर्क' विकसित किया जाएगा।
🔸 4. कौशल आधारित और बहु-विषयक शिक्षा
अब छात्रों को केवल विज्ञान या कला तक सीमित नहीं किया जाएगा।
▪ छात्र अब विषयों का चयन स्वतंत्र रूप से कर सकते हैं – जैसे गणित के साथ संगीत या भौतिकी के साथ कला।
▪ 10वीं और 12वीं में “स्ट्रीम” की बाध्यता समाप्त कर दी गई है।
➡️ इससे रुचि और क्षमता आधारित शिक्षा को बढ़ावा मिलेगा।
🔸 5. व्यावसायिक शिक्षा पर ज़ोर
कक्षा 6 से ही व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education) दी जाएगी।
▪ छात्रों को इंटर्नशिप के अवसर मिलेंगे।
▪ लक्ष्य है कि 2030 तक 50% छात्र व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करें।
🔸 6. मल्टीपल एंट्री और एग्जिट सिस्टम (Higher Education)
उच्च शिक्षा में मल्टीपल एंट्री और एग्जिट सिस्टम लागू किया गया है:
अध्ययन अवधि | प्रमाण पत्र |
---|---|
1 वर्ष | सर्टिफिकेट |
2 वर्ष | डिप्लोमा |
3 वर्ष | बैचलर डिग्री |
4 वर्ष | रिसर्च बैचलर डिग्री |
➡️ इससे शिक्षा में लचीलापन बढ़ेगा।
🔸 7. राष्ट्रीय शैक्षिक मूल्यांकन प्राधिकरण (PARAKH)
छात्रों के मूल्यांकन के लिए “PARAKH” नामक संस्था बनाई जाएगी, जो समान और गुणवत्ता युक्त मूल्यांकन प्रणाली तैयार करेगी।
🔸 8. NEAT - राष्ट्रीय शैक्षणिक तकनीकी मंच
डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा देने हेतु NEAT (National Educational Alliance for Technology) की स्थापना की गई है।
➡️ इसमें ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफॉर्म्स, AI आधारित मूल्यांकन, शैक्षिक एप्स को जोड़ा जाएगा।
🔸 9. राष्ट्रीय उच्च शिक्षा आयोग (HECI)
उच्च शिक्षा के नियमन के लिए HECI (Higher Education Commission of India) की स्थापना प्रस्तावित है, जो 4 शाखाओं में कार्य करेगा:
-
NHERC – नियामक
-
NAC – प्रत्यायन
-
HEGC – अनुदान
-
GENCI – शैक्षिक गुणवत्ता
➡️ इससे UGC, AICTE जैसी संस्थाओं का एकीकरण होगा।
🔸 10. शिक्षकों का प्रशिक्षण और गुणवत्ता
शिक्षक शिक्षा को सशक्त करने हेतु 2022 से B.Ed. कोर्स 4 वर्ष का अनिवार्य किया गया।
▪ नए शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम तैयार किए जा रहे हैं।
▪ नैतिकता, संवेदनशीलता और व्यावसायिकता पर बल दिया जा रहा है।
🔸 11. शिक्षा में समानता और समावेशिता
नीति का उद्देश्य है कि वंचित वर्गों, ग्रामीण क्षेत्र, दिव्यांग बच्चों को भी समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले।
🟩 निष्कर्ष: एक समावेशी, लचीली और भविष्यवादी नीति
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक समग्र और समसामयिक दृष्टिकोण पर आधारित है। इसका उद्देश्य भारत को ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में परिवर्तित करना है। यह नीति शिक्षा को केवल डिग्री प्राप्त करने तक सीमित नहीं रखती, बल्कि व्यक्ति के चारित्रिक, बौद्धिक, व्यावसायिक और सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।
👉 यदि इस नीति को सुनियोजित तरीके से लागू किया जाए, तो यह भारत के शैक्षिक परिदृश्य में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम होगी।
❖ प्रश्न 3: औपचारिक शिक्षा की विशेषताएँ बताइए।
🔶 प्रस्तावना: शिक्षा के संगठित रूप की आवश्यकता
शिक्षा मानव जीवन का मूल आधार है। यह व्यक्ति के ज्ञान, कौशल, व्यवहार और सामाजिक जिम्मेदारियों का विकास करती है। शिक्षा तीन रूपों में दी जाती है:
-
औपचारिक शिक्षा (Formal Education)
-
अनौपचारिक शिक्षा (Informal Education)
-
अप्रारूपिक शिक्षा (Non-Formal Education)
इनमें से औपचारिक शिक्षा सबसे व्यवस्थित, संगठित और संस्थागत रूप है, जिसमें निश्चित पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियाँ और मूल्यांकन प्रणाली होती है।
🌟 औपचारिक शिक्षा की परिभाषा
औपचारिक शिक्षा वह संस्थागत प्रक्रिया है, जिसमें किसी मान्यता प्राप्त संस्था (जैसे स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय) के अंतर्गत एक निश्चित पाठ्यक्रम के अनुसार नियोजित रूप से शिक्षा प्रदान की जाती है। इसमें शिक्षक, शिक्षार्थी, पाठ्यक्रम, समय-सारणी, कक्षा, मूल्यांकन, और प्रमाणपत्र जैसी संरचनाएँ होती हैं।
🔷 औपचारिक शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ
नीचे औपचारिक शिक्षा की विस्तृत विशेषताओं का उल्लेख किया गया है:
🔸 1. संस्थागत व्यवस्था
औपचारिक शिक्षा का संचालन विद्यालयों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और अन्य सरकारी/प्राइवेट शैक्षणिक संस्थानों के माध्यम से होता है।
👉 यह पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण और नियमन के अंतर्गत होती है।
🔸 2. पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम
औपचारिक शिक्षा में एक निर्धारित और मान्यता प्राप्त पाठ्यक्रम होता है जिसे विभिन्न स्तरों पर सरकार या शिक्षण संस्थान द्वारा तय किया जाता है।
▪ उदाहरण: CBSE, ICSE, UGC द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम।
🔸 3. नियत समय-सीमा और आयु सीमा
इस शिक्षा में छात्रों के लिए विशिष्ट आयु सीमा और शैक्षणिक समय-संरचना होती है।
▪ जैसे:
-
प्राथमिक शिक्षा: 6–10 वर्ष
-
माध्यमिक शिक्षा: 11–16 वर्ष
-
उच्च शिक्षा: 17 वर्ष से ऊपर
🔸 4. शिक्षकों की नियुक्ति और प्रशिक्षण
औपचारिक शिक्षा में शिक्षकों का चयन विशिष्ट योग्यता और प्रशिक्षण के आधार पर किया जाता है।
▪ उदाहरण: B.Ed., TET/NET जैसे परीक्षणों द्वारा योग्य शिक्षक चुने जाते हैं।
🔸 5. प्रमाणपत्र एवं डिग्री की मान्यता
औपचारिक शिक्षा में अध्ययन पूर्ण करने के बाद छात्रों को प्रमाणपत्र, अंकपत्र, डिग्री या डिप्लोमा प्रदान किए जाते हैं जो सरकारी व निजी क्षेत्रों में मान्यता प्राप्त होते हैं।
🔸 6. विषय विशेषज्ञता पर बल
इस शिक्षा प्रणाली में विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ शिक्षक होते हैं, जो संबंधित विषय की गहराई से जानकारी प्रदान करते हैं।
🔸 7. मूल्यांकन प्रणाली
औपचारिक शिक्षा में विद्यार्थियों की निरंतर और वार्षिक मूल्यांकन प्रणाली होती है।
▪ इसमें परीक्षा, प्रोजेक्ट, असाइनमेंट, टेस्ट आदि के माध्यम से मूल्यांकन किया जाता है।
🔸 8. अनुशासन और नियमों का पालन
इस शिक्षा प्रणाली में छात्रों को निश्चित नियमों, ड्रेस कोड, समय सारणी आदि का पालन करना होता है।
▪ यह छात्रों में अनुशासन, समय प्रबंधन और सामाजिक व्यवहार विकसित करता है।
🔸 9. क्रमिक स्तरों में शिक्षा
औपचारिक शिक्षा में शिक्षा का क्रम प्राथमिक → उच्च प्राथमिक → माध्यमिक → उच्चतर माध्यमिक → स्नातक → परास्नातक के रूप में होता है।
▪ यह छात्रों को सुनियोजित और गहन ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा देता है।
🔸 10. सरकारी निगरानी एवं नीति आधारित संचालन
औपचारिक शिक्षा का संचालन सरकारी नीतियों, शिक्षा विभागों, बोर्डों और आयोगों की निगरानी में होता है।
▪ जैसे:
-
NCERT, UGC, AICTE, NCTE आदि।
🔸 11. सामाजिकीकरण का माध्यम
इस प्रणाली में छात्र समूह में अध्ययन करते हैं, जिससे उनमें सामूहिक जीवन, सहयोग, नेतृत्व, प्रतिस्पर्धा जैसे सामाजिक गुणों का विकास होता है।
🔸 12. व्यावसायिक अवसरों से जुड़ाव
औपचारिक शिक्षा से प्राप्त डिग्री और प्रमाणपत्र व्यक्ति को नौकरी, प्रतियोगी परीक्षाओं और व्यावसायिक क्षेत्रों में अवसर प्रदान करते हैं।
🟩 निष्कर्ष: संगठित और उद्देश्यपूर्ण शिक्षा का आधार
अतः यह स्पष्ट है कि औपचारिक शिक्षा एक संगठित, संस्थागत और उद्देश्यपूर्ण शिक्षा प्रणाली है, जो व्यक्ति को सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक और व्यावसायिक रूप से सक्षम बनाती है। यह न केवल व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास का साधन है, बल्कि राष्ट्र निर्माण और सामाजिक संरचना में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
👉 आज के ग्लोबल युग में औपचारिक शिक्षा प्रणाली को तकनीकी नवाचार, कौशल विकास और नैतिक मूल्यों के साथ जोड़ना आवश्यक हो गया है।
❖ प्रश्न 05: समाज में विद्यालय की आवश्यकता एवं महत्व को स्पष्ट कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: समाज और शिक्षा के बीच सेतु – विद्यालय
विद्यालय को समाज का मूल स्तंभ माना जाता है। यह वह स्थान है जहाँ व्यक्ति का संगठित, उद्देश्यपूर्ण और मूल्यनिष्ठ विकास होता है। विद्यालय केवल शिक्षा का माध्यम नहीं है, बल्कि यह संस्कृति, नैतिकता, व्यक्तित्व और सामाजिक व्यवहार के विकास का केंद्र भी है।
➡️ आधुनिक समाज में, विद्यालय व्यक्ति को साक्षर, जिम्मेदार और उत्पादक नागरिक बनाने का कार्य करता है।
🔷 विद्यालय की समाज में आवश्यकता: क्यों जरूरी है विद्यालय?
🔸 1. संगठित शिक्षा का माध्यम
विद्यालय बच्चों को सुनियोजित पाठ्यक्रम, प्रशिक्षित शिक्षकों और सुव्यवस्थित वातावरण के साथ शिक्षा प्रदान करता है।
▪ यह शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं होती, बल्कि संपूर्ण व्यक्तित्व विकास में सहायक होती है।
🔸 2. सामाजिकरण (Socialization) का केंद्र
विद्यालय वह स्थान है जहाँ बच्चे अन्य बच्चों और शिक्षकों के साथ संपर्क में आते हैं।
▪ इससे उनमें सामूहिकता, अनुशासन, सहयोग, सहनशीलता जैसे सामाजिक गुणों का विकास होता है।
▪ वे नियमों, अधिकारों और कर्तव्यों को समझना सीखते हैं।
🔸 3. व्यक्तित्व विकास में सहायक
विद्यालय बच्चों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक और भावनात्मक पक्षों का संतुलित विकास करता है।
▪ खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम, वाद-विवाद, चित्रकला आदि से प्रतिभा का निखार होता है।
🔸 4. नैतिक और चारित्रिक शिक्षा का केंद्र
विद्यालय में केवल ज्ञान नहीं, बल्कि नैतिकता, अनुशासन, ईमानदारी और सह-अस्तित्व के मूल्य भी सिखाए जाते हैं।
▪ शिक्षक विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण में पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाते हैं।
🔸 5. राष्ट्रीय चेतना का विकास
विद्यालय बच्चों में देशभक्ति, नागरिकता, सामाजिक कर्तव्य, संविधानिक मूल्य और संस्कृति के प्रति सम्मान जाग्रत करता है।
▪ वे अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों का भी बोध करते हैं।
🔸 6. समता और समान अवसर का मंच
विद्यालय समाज के सभी वर्गों के बच्चों को एक समान अवसर प्रदान करता है।
▪ चाहे कोई गरीब, अमीर, ग्रामीण या शहरी हो, सभी को शिक्षा का समान हक मिलता है।
🔸 7. आर्थिक सशक्तिकरण की नींव
विद्यालय में प्राप्त शिक्षा व्यक्ति को स्वावलंबी बनाती है।
▪ वह आगे चलकर उच्च शिक्षा, रोजगार और उद्यमिता के माध्यम से आर्थिक रूप से सशक्त बन सकता है।
🔸 8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आलोचनात्मक सोच का विकास
विद्यालय में छात्र केवल रटकर नहीं सीखते, बल्कि विज्ञान, गणित, पर्यावरण, समाजशास्त्र जैसे विषयों के माध्यम से तार्किक और विश्लेषणात्मक सोच विकसित करते हैं।
🔸 9. संस्कृति और परंपराओं का संरक्षण
विद्यालय स्थानीय भाषा, लोक संस्कृति, त्योहार, रीति-रिवाज आदि के माध्यम से सांस्कृतिक धरोहर का संवर्धन करता है।
▪ इस प्रकार विद्यालय एक संस्कृति वाहक की भूमिका निभाता है।
🔸 10. समाज सुधार का केंद्र
विद्यालय कुरीतियों, अंधविश्वास, जातिवाद, लैंगिक भेदभाव जैसी सामाजिक समस्याओं के खिलाफ चेतना फैलाने में सहायक होता है।
▪ शिक्षित छात्र भविष्य में सामाजिक परिवर्तन के वाहक बनते हैं।
🌟 विद्यालय का समाज में महत्व: समाज के लिए क्यों महत्वपूर्ण है विद्यालय?
🔹 1. सशक्त नागरिक तैयार करता है
विद्यालय समाज को बुद्धिमान, जिम्मेदार और संवेदनशील नागरिक प्रदान करता है, जो लोकतंत्र को मजबूत बनाते हैं।
🔹 2. राष्ट्र निर्माण में योगदान
विद्यालय के छात्र आगे चलकर शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, किसान, नेता, कलाकार बनते हैं और राष्ट्र की प्रगति में योगदान करते हैं।
🔹 3. सामाजिक एकता और समरसता को बढ़ावा
विभिन्न पृष्ठभूमि के बच्चे एक साथ पढ़ते हैं, जिससे धर्म, जाति, भाषा, वर्ग के भेद मिटते हैं और समाज में एकता और सौहार्द बढ़ता है।
🔹 4. महिला सशक्तिकरण को बल
विद्यालय लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देकर लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को संभव बनाता है।
🔹 5. स्थानीय और वैश्विक समस्याओं के प्रति जागरूकता
विद्यालय बच्चों को जलवायु परिवर्तन, जनसंख्या वृद्धि, प्रदूषण, तकनीकी विकास आदि विषयों पर जागरूक करता है।
▪ यह उन्हें स्थानीय समस्याओं के समाधान और वैश्विक सोच के लिए तैयार करता है।
🟩 निष्कर्ष: विद्यालय – समाज का स्तंभ और भविष्य का निर्माता
अतः यह स्पष्ट है कि विद्यालय केवल एक शैक्षणिक संस्था नहीं, बल्कि समाज के निर्माण, सशक्तिकरण और सुधार का मूल केंद्र है। विद्यालय की भूमिका व्यक्ति और समाज दोनों के सर्वांगीण विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
👉 यदि विद्यालय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, समान अवसर, और नैतिक मूल्यों पर आधारित हों, तो वे न केवल अच्छे विद्यार्थी, बल्कि श्रेष्ठ नागरिक और सशक्त समाज के निर्माता बन सकते हैं।
❖ प्रश्न 06: मानव संसाधन विकास से आप क्या समझते हैं? विवेचना कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: मानव संसाधन — राष्ट्र की सबसे बड़ी पूंजी
किसी भी राष्ट्र की प्रगति केवल प्राकृतिक संसाधनों पर नहीं, बल्कि उस राष्ट्र के मानव संसाधनों की गुणवत्ता और दक्षता पर निर्भर करती है। एक शिक्षित, प्रशिक्षित, स्वस्थ और कुशल जनशक्ति किसी भी समाज की रीढ़ होती है।
👉 इसी मानव शक्ति के संवर्धन और सशक्तिकरण की प्रक्रिया को मानव संसाधन विकास (Human Resource Development - HRD) कहा जाता है।
🔷 मानव संसाधन विकास की परिभाषा
“मानव संसाधन विकास वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्तियों की क्षमता, ज्ञान, कौशल, रचनात्मकता और कार्य-क्षमता को बढ़ाकर उन्हें उत्पादक नागरिक के रूप में विकसित किया जाता है।”
यह विकास केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी परिवर्तन लाता है।
🌟 मानव संसाधन विकास के मुख्य घटक
मानव संसाधन विकास को समझने के लिए उसके प्रमुख तत्वों को जानना आवश्यक है:
🔸 1. शिक्षा (Education)
▪ शिक्षा व्यक्ति को ज्ञान, सोचने की क्षमता और सामाजिक समझ प्रदान करती है।
▪ प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक, हर स्तर पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मानव संसाधन विकास की नींव है।
🔸 2. प्रशिक्षण (Training)
▪ तकनीकी, व्यावसायिक और व्यवहारिक प्रशिक्षण व्यक्तियों को विशिष्ट कार्यों में दक्ष बनाता है।
▪ इससे कार्यस्थल की उत्पादकता में वृद्धि होती है।
🔸 3. स्वास्थ्य (Health)
▪ स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है।
▪ उचित पोषण, चिकित्सा सेवाएं, स्वच्छता आदि मानव संसाधनों की दक्षता को बढ़ाते हैं।
🔸 4. रोज़गार और आजीविका (Employment and Livelihood)
▪ रोजगार के अवसरों का सृजन मानव संसाधन विकास का अनिवार्य भाग है।
▪ स्वरोज़गार, उद्यमिता और कौशल विकास कार्यक्रम इसके तहत आते हैं।
🔸 5. महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment)
▪ समाज का आधा हिस्सा होने के कारण महिलाओं का विकास भी मानव संसाधन विकास का प्रमुख आधार है।
▪ शिक्षा, सुरक्षा, समान अवसर और नेतृत्व में भागीदारी को सुनिश्चित करना आवश्यक है।
🔸 6. सामाजिक मूल्य और नैतिकता (Social and Moral Development)
▪ केवल तकनीकी कौशल नहीं, बल्कि ईमानदारी, सहिष्णुता, सहयोग जैसे गुण भी मानव संसाधनों को श्रेष्ठ बनाते हैं।
🔷 मानव संसाधन विकास के उद्देश्य
मानव संसाधन विकास केवल व्यक्तियों को नौकरी दिलाने के लिए नहीं, बल्कि व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान हेतु किया जाता है।
🔹 1. जनसंख्या को उत्पादक शक्ति में बदलना
▪ शिक्षा और प्रशिक्षण के माध्यम से जनसंख्या को बोझ से अवसर में बदला जा सकता है।
🔹 2. आर्थिक विकास को गति देना
▪ कुशल और दक्ष मानव संसाधन उद्योग, कृषि, सेवाएं, प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में योगदान देकर आर्थिक विकास को बढ़ावा देते हैं।
🔹 3. समाज में समानता और समावेशन
▪ शिक्षा और अवसरों की समान उपलब्धता से जाति, वर्ग, लिंग और क्षेत्रीय विषमता को कम किया जा सकता है।
🔹 4. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और नवाचार को बढ़ाना
▪ अनुसंधान, प्रयोग और नवीनता को प्रोत्साहित करने से राष्ट्र वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा में अग्रणी बनता है।
🔷 भारत में मानव संसाधन विकास का परिदृश्य
भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए मानव संसाधन विकास अत्यधिक महत्वपूर्ण है। भारत में इस उद्देश्य से कई योजनाएँ और मंत्रालय कार्यरत हैं।
🔸 1. मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय)
▪ यह मंत्रालय शिक्षा के सभी स्तरों पर नीति निर्माण और क्रियान्वयन का कार्य करता है।
👉 जैसे: राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
🔸 2. राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन
▪ युवाओं को प्रशिक्षण देकर उन्हें रोजगार योग्य बनाया जाता है।
🔸 3. आयुष्मान भारत योजना
▪ स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच को बेहतर बनाकर स्वस्थ मानव संसाधन तैयार किया जा रहा है।
🔸 4. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
▪ महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के माध्यम से सामाजिक संतुलन सुनिश्चित किया जा रहा है।
🔸 5. PMKVY (प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना)
▪ युवाओं को मुफ्त कौशल प्रशिक्षण देकर रोजगार के अवसर सृजित किए जा रहे हैं।
🌟 मानव संसाधन विकास के लाभ
✅ 1. आर्थिक प्रगति
▪ कुशल मानव संसाधन उद्योग, व्यापार और सेवाओं में योगदान देकर अर्थव्यवस्था को बल देते हैं।
✅ 2. सामाजिक सुधार
▪ शिक्षित व्यक्ति सामाजिक कुरीतियों को समझते हैं और सुधार की दिशा में कार्य करते हैं।
✅ 3. तकनीकी उन्नति
▪ नवाचार और अनुसंधान को बढ़ावा मिलता है।
✅ 4. लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना
▪ शिक्षित नागरिक जागरूक होते हैं और राष्ट्रहित में भागीदारी करते हैं।
🟥 चुनौतियाँ
मानव संसाधन विकास में अभी भी कई चुनौतियाँ हैं:
▪ ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की कमी
▪ बाल मजदूरी और बाल विवाह
▪ गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव
▪ बेरोजगारी
▪ डिजिटल डिवाइड
🟩 निष्कर्ष: समग्र विकास का आधार – मानव संसाधन
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मानव संसाधन विकास राष्ट्र के समग्र विकास का मूल स्तंभ है। एक समृद्ध, विकसित और आत्मनिर्भर भारत का सपना तभी पूरा हो सकता है जब उसके नागरिक शिक्षित, स्वस्थ, कुशल और नैतिक हों।
👉 इसके लिए आवश्यक है कि सरकार, समाज और नागरिक मिलकर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार को प्राथमिकता दें, ताकि जनसंख्या को जनशक्ति में बदला जा सके।
❖ प्रश्न 07: आदर्शवाद में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: आदर्शवाद – विचार प्रधान दर्शन
आदर्शवाद (Idealism) एक ऐसा दार्शनिक दृष्टिकोण है जो यह मानता है कि विचार, आत्मा और चेतना ही वास्तविकता के मूल आधार हैं। यह दर्शन मानव जीवन के उच्चतम मूल्यों, जैसे — सत्य, सौंदर्य, धर्म और नैतिकता की सर्वोच्चता को स्वीकार करता है।
👉 जब इस दर्शन को शिक्षा में अपनाया जाता है तो शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्ति नहीं रह जाता, बल्कि चरित्र निर्माण, नैतिक विकास और आत्मोन्नति हो जाता है।
🔷 आदर्शवाद में शिक्षा का स्वरूप
आदर्शवाद शिक्षा को एक उच्चतम उद्देश्य की पूर्ति का साधन मानता है। इसके अनुसार, शिक्षा का कार्य केवल बाहरी दुनिया को समझना नहीं, बल्कि आत्मा की संभावनाओं को जाग्रत करना है।
🌟 आदर्शवाद में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य
अब हम आदर्शवादी शिक्षा में निर्धारित प्रमुख उद्देश्यों की विस्तार से चर्चा करते हैं:
🔸 1. आत्मिक विकास (Spiritual Development)
▪ आदर्शवाद मानता है कि प्रत्येक मानव में ईश्वरीय चेतना या आत्मा का अंश होता है।
▪ शिक्षा का उद्देश्य इस चेतना को पहचानना और विकसित करना होता है।
🔹 इसके लिए ध्यान, आत्मचिंतन, धार्मिक अध्ययन, और आचरण-शुद्धि पर बल दिया जाता है।
🔸 2. चरित्र निर्माण (Character Formation)
▪ शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य एक चरित्रवान, नैतिक और जिम्मेदार नागरिक बनाना है।
▪ सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, अनुशासन, सहिष्णुता जैसे गुणों का विकास किया जाता है।
🔹 आदर्शवादी शिक्षा में शिक्षक को आदर्श आचरण का प्रतिमान माना जाता है।
🔸 3. बौद्धिक विकास (Intellectual Development)
▪ शिक्षा का कार्य मस्तिष्क को प्रशिक्षित करना है, जिससे विद्यार्थी तार्किक सोच, विश्लेषणात्मक क्षमता और ज्ञान की गहराई में जा सके।
🔹 आदर्शवाद में दर्शन, साहित्य, गणित जैसे विषयों के अध्ययन को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि ये मानसिक अनुशासन को बढ़ाते हैं।
🔸 4. नैतिक और धार्मिक विकास (Moral and Religious Development)
▪ आदर्शवाद शिक्षा को केवल धर्म का प्रचार नहीं मानता, बल्कि उसका उद्देश्य धर्म की भावना को जाग्रत करना है — जैसे करुणा, सहनशीलता, और कर्तव्यपरायणता।
🔹 इससे व्यक्ति में सामाजिक उत्तरदायित्व और मानवीय संवेदनाएँ उत्पन्न होती हैं।
🔸 5. सामाजिक समायोजन और उत्तरदायित्व (Social Adjustment and Responsibility)
▪ आदर्शवादी शिक्षा व्यक्ति को समाज के प्रति कर्तव्यों का बोध कराती है।
▪ इसका उद्देश्य ऐसा नागरिक बनाना है जो सामाजिक सद्भाव, सेवा और सहयोग में विश्वास रखता हो।
🔸 6. स्वयं की अभिव्यक्ति और आत्मा की पूर्णता (Self-Realization)
▪ शिक्षा आत्मा की क्षमता को विकसित करने और आत्मबोध के द्वारा पूर्णता की प्राप्ति में सहायक होनी चाहिए।
🔹 यह आत्मबोध ही व्यक्ति को जीवन के उच्च आदर्शों की ओर अग्रसर करता है।
🔸 7. सत्य, सौंदर्य और धर्म के प्रति प्रेम (Love for Truth, Beauty, and Goodness)
▪ आदर्शवाद में शिक्षा इन तीनों सार्वभौमिक मूल्यों को आत्मसात करने का माध्यम मानी जाती है।
🔹 कला, संगीत, साहित्य आदि के माध्यम से विद्यार्थी में सौंदर्यबोध,
🔹 दर्शन व नैतिक शिक्षा के माध्यम से सत्य की खोज और
🔹 नैतिक अभ्यासों से धर्म का पालन कराया जाता है।
🔸 8. समग्र व्यक्तित्व विकास (Holistic Personality Development)
▪ आदर्शवादी शिक्षा केवल एक पक्षीय नहीं होती, इसका उद्देश्य व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आत्मिक विकास को सुनिश्चित करना होता है।
🔷 आदर्शवादी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका
▪ शिक्षक को गुरु, पथप्रदर्शक और प्रेरक की भूमिका में देखा जाता है।
▪ वह स्वयं एक आदर्श जीवन जीकर विद्यार्थियों को प्रेरणा देता है।
▪ वह केवल ज्ञान देने वाला नहीं, बल्कि आत्मा का जागरण कराने वाला होता है।
🔷 शिक्षण विधियाँ
▪ आदर्शवाद में मुख्यतः व्याख्यान पद्धति, चर्चा, संवाद (Socratic Method), नैतिक कथाएँ, ध्यान एवं चिंतन आदि को शिक्षण पद्धति के रूप में प्रयोग किया जाता है।
🟥 आदर्शवादी दृष्टिकोण की आलोचना
हालाँकि आदर्शवादी शिक्षा उच्च मूल्यों पर आधारित है, फिर भी इसकी कुछ आलोचनाएँ भी हैं:
▪ यह वास्तविक जीवन की समस्याओं से दूर दिखती है।
▪ अत्यधिक नैतिकता पर जोर देने से व्यावहारिक शिक्षा की उपेक्षा होती है।
▪ यह वैज्ञानिक और तकनीकी दृष्टिकोण की कमी रखती है।
🟩 निष्कर्ष: आदर्शों की ओर उन्मुख शिक्षा
इस प्रकार, आदर्शवाद में शिक्षा का उद्देश्य केवल पुस्तकीय ज्ञान देना नहीं, बल्कि मानव जीवन को आदर्शों की दिशा में उन्नत करना है। यह दर्शन व्यक्ति को एक सच्चा, सुंदर, और श्रेष्ठ बनने की प्रेरणा देता है।
👉 यदि आदर्शवादी शिक्षा को आधुनिक यथार्थवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ संतुलित किया जाए, तो यह एक समग्र, मूल्य आधारित और उद्देश्यपूर्ण शिक्षा प्रणाली के रूप में कार्य कर सकती है।
❖ प्रश्न 08: बेसिक एवं प्रारंभिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति का अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।
🔶 प्रस्तावना: शिक्षा की बुनियाद — बेसिक और प्रारंभिक स्तर
बेसिक एवं प्रारंभिक शिक्षा वह नींव है जिस पर पूरे जीवन की शिक्षा प्रणाली आधारित होती है। यह शिक्षा 3 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को दी जाती है और बच्चों के बौद्धिक, शारीरिक, भावनात्मक तथा सामाजिक विकास की दिशा तय करती है।
👉 भारत में यह शिक्षा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, समग्र शिक्षा अभियान और द राइट टू एजुकेशन एक्ट (RTE), 2009 जैसे कार्यक्रमों के तहत संचालित की जाती है।
🔷 बेसिक एवं प्रारंभिक शिक्षा का अर्थ
🔸 बेसिक शिक्षा (Basic Education)
▪ इसका विचार सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने प्रस्तुत किया था, जिसे ‘नई तालीम’ के नाम से जाना जाता है।
▪ इसमें शिक्षा के साथ श्रम, हस्तकला, जीवन कौशल और नैतिक मूल्यों को जोड़ा गया।
🔸 प्रारंभिक शिक्षा (Elementary Education)
▪ इसमें मुख्यतः बालवाड़ी से लेकर कक्षा 8वीं तक की शिक्षा शामिल होती है।
▪ इसका उद्देश्य बच्चों में पठन, लेखन, गणित, भाषा, सामाजिक ज्ञान और जीवन कौशल का विकास करना होता है।
🌟 भारत में प्रारंभिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति
भारत में पिछले दो दशकों में प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में कई सुधार हुए हैं, लेकिन कई चुनौतियाँ भी सामने आई हैं।
🔷 1. सुधारात्मक पहलें (Reformative Initiatives)
✅ (क) सर्व शिक्षा अभियान (SSA)
▪ 2001 में प्रारंभ हुआ यह अभियान 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए था।
✅ (ख) समग्र शिक्षा अभियान
▪ इसमें पूर्व-प्राथमिक से उच्च माध्यमिक तक एकीकृत ढांचा शामिल है।
✅ (ग) राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020)
▪ इस नीति के तहत 5+3+3+4 का नया संरचना मॉडल लागू किया गया।
▪ बेसिक शिक्षा को Foundational Stage (3–8 वर्ष) और Preparatory Stage (8–11 वर्ष) में बाँटा गया है।
✅ (घ) ECCE (Early Childhood Care & Education)
▪ 3 से 6 वर्ष के बच्चों के लिए आंगनवाड़ी केंद्रों को सशक्त करने की योजना लागू की गई है।
🔷 2. वर्तमान उपलब्धियाँ (Current Achievements)
✅ स्कूलों की संख्या में वृद्धि
▪ सरकारी व निजी दोनों क्षेत्रों में लाखों स्कूल प्रारंभिक शिक्षा प्रदान कर रहे हैं।
✅ बालिकाओं के नामांकन में वृद्धि
▪ योजनाओं जैसे "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ", "कस्तूरबा गांधी विद्यालय" आदि से बालिकाओं की भागीदारी बढ़ी है।
✅ डिजिटल शिक्षा का प्रवेश
▪ COVID-19 के बाद डिजिटल शिक्षण संसाधनों जैसे DIKSHA, SWAYAM आदि का उपयोग प्रारंभिक स्तर पर भी बढ़ा है।
🔷 बेसिक शिक्षा की वर्तमान चुनौतियाँ
भारत में शिक्षा की नींव मजबूत हो रही है, लेकिन अभी भी कई क्षेत्र में सुधार की आवश्यकता है:
🟥 1. शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट
▪ केवल नामांकन बढ़ने से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं होता।
▪ अनेक विद्यालयों में शिक्षकों की कमी, संसाधनों का अभाव और अनुशासनहीनता देखी जाती है।
🟥 2. ड्रॉप-आउट दर (Drop-out Rate)
▪ विशेष रूप से ग्रामीण, जनजातीय और दूरस्थ क्षेत्रों में अभी भी छात्र कक्षा 5 या 8 के पहले स्कूल छोड़ देते हैं।
🟥 3. आंगनवाड़ी केंद्रों की स्थिति
▪ ECCE का एक महत्वपूर्ण हिस्सा आंगनवाड़ी केंद्रों की कार्यप्रणाली है, लेकिन इनमें प्रशिक्षित कार्यकर्ता, खाद्य सुरक्षा, शिक्षण सामग्री आदि की कमी बनी हुई है।
🟥 4. डिजिटल डिवाइड
▪ ग्रामीण व निर्धन तबकों के पास इंटरनेट, मोबाइल और उपकरणों की अनुपलब्धता के कारण डिजिटल शिक्षा में असमानता है।
🟥 5. बहुस्तरीय पाठ्यचर्या की अनुपस्थिति
▪ छात्रों की भिन्न-भिन्न सीखने की क्षमताओं को ध्यान में रखकर लचीलापन युक्त पाठ्यक्रम की आवश्यकता है।
🔷 समाधान के सुझाव
✅ 1. शिक्षकों का प्रशिक्षण और नियुक्ति
▪ शिक्षकों की नियमित भर्ती और नवीनतम शिक्षण विधियों का प्रशिक्षण आवश्यक है।
✅ 2. विद्यालयों का आधारभूत ढांचा मजबूत करना
▪ साफ-सफाई, टॉयलेट, बिजली, पीने का पानी, खेल सामग्री आदि उपलब्ध कराना जरूरी है।
✅ 3. डिजिटल साक्षरता और उपकरणों की पहुँच
▪ सरकारी सहयोग से बच्चों को स्मार्ट डिवाइस और इंटरनेट की सुविधा देना आवश्यक है।
✅ 4. समीक्षा प्रणाली को मजबूत बनाना
▪ शिक्षा के परिणामों की समय-समय पर मूल्यांकन और निगरानी होनी चाहिए।
✅ 5. समुदाय की भागीदारी
▪ अभिभावकों, ग्राम सभाओं और समाज की सहभागिता से विद्यालयों को अधिक उत्तरदायी बनाया जा सकता है।
🟩 निष्कर्ष: शिक्षा सुधार की कुंजी — मजबूत प्रारंभिक शिक्षा
बेसिक और प्रारंभिक शिक्षा किसी भी राष्ट्र की शिक्षा पिरामिड की नींव होती है। यदि नींव मजबूत होगी, तो उच्च शिक्षा और कौशल विकास भी सार्थक होंगे।
👉 भारत ने इस दिशा में कई सफल प्रयास किए हैं, लेकिन गुणवत्ता, समावेशन और नवाचार पर ध्यान देकर ही हम सर्वांगीण शिक्षा लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो अपने सहपाठियों के साथ शेयर करें, और हमारे यूट्यूब चैनल, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप चैनल और टेलीग्राम चैनल को भी सब्सक्राइब जरूर करें, ताकि आपको उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय की नई अपडेट सबसे पहले प्राप्त हो।
धन्यवाद!