प्रश्न 01: भारत में नक्सल आंदोलन पर एक निबन्ध लिखिए
📜 भूमिका (Introduction)
भारत में नक्सल आंदोलन स्वतंत्रता के बाद उभरे उन प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में से एक है, जिसने ग्रामीण क्षेत्रों, विशेषकर आदिवासी और पिछड़े वर्गों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। यह आंदोलन मूलतः आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण के विरुद्ध उठी आवाज़ था, जो धीरे-धीरे हिंसात्मक स्वरूप ले बैठा। नक्सलवाद का नाम "नक्सलबाड़ी" गाँव (पश्चिम बंगाल) से पड़ा, जहाँ 1967 में किसानों ने जमींदारों और पुलिस के खिलाफ विद्रोह किया। समय के साथ यह आंदोलन भारत के कई राज्यों में फैल गया और आज भी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती बना हुआ है।
🌱 नक्सल आंदोलन की उत्पत्ति (Origin of Naxal Movement)
नक्सल आंदोलन की शुरुआत पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गाँव से हुई। इसका नेतृत्व चारु मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल जैसे नेताओं ने किया।
🔹 पृष्ठभूमि
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किसानों और आदिवासियों से उनकी ज़मीन छीनी जा रही थी।
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ज़मींदारी प्रथा, कर्ज और ऊँची ब्याज दरों से ग्रामीण परेशान थे।
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सरकार और प्रशासन की उदासीनता ने असंतोष को बढ़ाया।
🔹 नक्सलबाड़ी विद्रोह 1967
25 मई 1967 को नक्सलबाड़ी गाँव में एक भू-सर्वेक्षण दल पर किसानों ने हमला किया। यह घटना आंदोलन की चिंगारी बनी, जिसने पूरे देश का ध्यान खींचा।
📚 विचारधारा और उद्देश्य (Ideology and Objectives)
नक्सलवाद मार्क्सवाद, लेनिनवाद और माओवाद की विचारधारा पर आधारित है।
🎯 मुख्य उद्देश्य
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सशस्त्र क्रांति के माध्यम से शोषण समाप्त करना।
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भूमिहीन किसानों को भूमि का अधिकार दिलाना।
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आदिवासियों के पारंपरिक संसाधनों पर उनका हक सुनिश्चित करना।
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पूंजीवादी और सामंती व्यवस्था का अंत करना।
📍 नक्सलवाद का प्रसार (Spread of Naxalism)
शुरुआत में यह आंदोलन केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित था, लेकिन धीरे-धीरे यह झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों तक फैल गया।
🔹 रेड कॉरिडोर
भारत के उन क्षेत्रों को "रेड कॉरिडोर" कहा जाता है, जहाँ नक्सल गतिविधियाँ सबसे अधिक हैं। इनमें प्रमुख रूप से झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाके शामिल हैं।
⚠️ नक्सलवाद के कारण (Causes of Naxalism)
1️⃣ आर्थिक कारण
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गरीबी और बेरोजगारी।
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ज़मीन का असमान वितरण।
2️⃣ सामाजिक कारण
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जातिगत भेदभाव और शोषण।
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आदिवासी समुदाय की उपेक्षा।
3️⃣ राजनीतिक कारण
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भ्रष्टाचार और प्रशासनिक विफलता।
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लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विश्वास की कमी।
4️⃣ अन्य कारण
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शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी।
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प्राकृतिक संसाधनों पर बाहरी कंपनियों का कब्ज़ा।
💥 नक्सलवाद का प्रभाव (Impact of Naxalism)
🔹 सकारात्मक प्रभाव
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वंचित वर्गों की समस्याओं पर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा शुरू हुई।
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भूमि सुधार के लिए कुछ राज्यों में नीतिगत बदलाव हुए।
🔹 नकारात्मक प्रभाव
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आंतरिक सुरक्षा को खतरा — नक्सली हिंसा में हजारों लोग मारे गए।
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विकास कार्यों में बाधा — सड़क, बिजली और शिक्षा जैसी योजनाएँ प्रभावित हुईं।
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जनजीवन पर असर — ग्रामीणों में डर और असुरक्षा का माहौल।
🛠 नक्सलवाद से निपटने के उपाय (Measures to Tackle Naxalism)
1️⃣ विकास आधारित समाधान
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शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की सुविधाएँ बढ़ाना।
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आदिवासियों और किसानों को भूमि अधिकार देना।
2️⃣ सुरक्षा आधारित समाधान
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पुलिस और अर्धसैनिक बलों की क्षमता बढ़ाना।
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खुफिया तंत्र को मज़बूत करना।
3️⃣ वार्ता और समझौता
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नक्सली नेताओं से बातचीत के जरिए समाधान खोजने का प्रयास।
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हिंसा छोड़ने वालों के लिए पुनर्वास योजना।
4️⃣ प्रशासनिक सुधार
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भ्रष्टाचार पर कड़ी कार्रवाई।
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स्थानीय प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही।
📊 हाल के प्रयास (Recent Efforts)
भारत सरकार ने "समग्र विकास योजना" (Integrated Action Plan) लागू की है, जिसमें नक्सल प्रभावित जिलों में बुनियादी ढाँचे, शिक्षा और स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। साथ ही, सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ाई गई है और आधुनिक हथियार उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
नक्सल आंदोलन का मूल उद्देश्य सामाजिक न्याय था, लेकिन हिंसा ने इसकी छवि और प्रभाव को कमजोर कर दिया। केवल सैन्य कार्रवाई से यह समस्या हल नहीं होगी, बल्कि शिक्षा, रोज़गार, भूमि सुधार और जनकल्याणकारी योजनाओं को प्राथमिकता देनी होगी। जब तक ग्रामीण और आदिवासी समुदायों को न्याय, अवसर और सम्मान नहीं मिलेगा, नक्सलवाद पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकेगा। इसलिए, सरकार, समाज और स्वयं नक्सली समूहों को मिलकर शांति और विकास की राह अपनानी होगी।
प्रश्न 02: भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं को उद्घाटित कीजिए। क्या आप यह मानते है कि "यह अपनी संरचना में संघात्मक किन्तु भावना में एकात्मक है"?
📜 भूमिका (Introduction)
भारतीय संविधान विश्व का सबसे लंबा और विस्तृत लिखित संविधान है, जिसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। यह न केवल देश की शासन व्यवस्था का आधार है, बल्कि नागरिकों के अधिकार, कर्तव्य और राज्य के दायित्व भी निर्धारित करता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर को इसका मुख्य शिल्पकार माना जाता है। भारतीय संविधान में विभिन्न देशों के संविधानों की श्रेष्ठ विशेषताओं को अपनाकर भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुसार ढाला गया है।
🌟 भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएँ (Main Features of the Indian Constitution)
1️⃣ विस्तृत और लिखित संविधान
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भारतीय संविधान लगभग 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 12 अनुसूचियों के साथ प्रारंभ हुआ (वर्तमान में संशोधनों के कारण संख्या बदली है)।
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इसमें शासन के सभी अंगों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—के अधिकार और सीमाएँ स्पष्ट की गई हैं।
2️⃣ संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य
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प्रस्तावना में ही भारत को Sovereign, Socialist, Secular, Democratic, Republic घोषित किया गया है।
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यह न केवल राजनीतिक लोकतंत्र, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय पर भी बल देता है।
3️⃣ संघात्मक संरचना (Federal Structure)
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केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों—केंद्रीय, राज्य और समवर्ती सूची—के माध्यम से किया गया है।
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संविधान की अनुच्छेद 245 से 255 में विधायी शक्तियों का वितरण है।
4️⃣ एकात्मक झुकाव (Unitary Bias)
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आपातकाल की स्थिति में केंद्र सरकार राज्यों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण रख सकती है।
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राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है और वे केंद्र के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
5️⃣ स्वतंत्र न्यायपालिका (Independent Judiciary)
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उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय स्वतंत्र और निष्पक्ष हैं।
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न्यायिक पुनरीक्षण (Judicial Review) का अधिकार, जिससे असंवैधानिक कानूनों को निरस्त किया जा सकता है।
6️⃣ मौलिक अधिकार और कर्तव्य
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अनुच्छेद 12 से 35 तक नागरिकों को मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।
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42वें संविधान संशोधन (1976) से मौलिक कर्तव्य जोड़े गए।
7️⃣ राज्य के नीति निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy)
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आयरलैंड के संविधान से प्रेरित, जो सामाजिक-आर्थिक न्याय और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रोत्साहित करते हैं।
8️⃣ धर्मनिरपेक्षता (Secularism)
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राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है।
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सभी धर्मों को समान सम्मान और संरक्षण।
9️⃣ एकल नागरिकता (Single Citizenship)
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अमेरिका की तरह दोहरी नागरिकता का प्रावधान नहीं, पूरे भारत के लिए एक ही नागरिकता।
🔟 संसदीय शासन प्रणाली (Parliamentary System)
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ब्रिटेन से प्रेरित, जहाँ कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है।
⚖️ संघात्मक किन्तु एकात्मक प्रवृत्ति (Federal in Structure but Unitary in Spirit)
भारतीय संविधान में संघात्मक ढाँचा अपनाया गया है, लेकिन इसमें कई प्रावधान एकात्मक प्रवृत्ति दर्शाते हैं।
🔹 संघात्मक विशेषताएँ
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शक्तियों का विभाजन (केंद्रीय, राज्य और समवर्ती सूची)।
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लिखित और सर्वोच्च संविधान।
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स्वतंत्र न्यायपालिका।
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संविधान में संशोधन की विशेष प्रक्रिया।
🔹 एकात्मक विशेषताएँ
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मजबूत केंद्र — केंद्र को अधिक शक्तियाँ, विशेषकर आपातकालीन प्रावधानों में।
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राज्यपाल की भूमिका — केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य।
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एकल संविधान और नागरिकता।
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केंद्र को राज्यों के पुनर्गठन का अधिकार।
📌 क्यों कहा जाता है "संरचना में संघात्मक, भावना में एकात्मक"
भारतीय संविधान ने संघात्मकता को अपनाते समय भारतीय परिस्थितियों का ध्यान रखा।
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भारत का विशाल भू-भाग, विविध भाषाएँ, संस्कृतियाँ और सामाजिक परिस्थितियाँ एक मज़बूत केंद्र की माँग करती थीं।
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यदि पूर्ण संघात्मकता होती, तो अलगाववादी प्रवृत्तियाँ बढ़ सकती थीं।
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इसलिए संविधान निर्माताओं ने संघात्मक संरचना के साथ एकात्मक भावना का संतुलन बनाया।
उदाहरण:
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अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) के तहत केंद्र किसी भी राज्य की सरकार को बर्खास्त कर सकता है।
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आपातकाल के दौरान (अनुच्छेद 352, 356, 360) केंद्र सभी शक्तियाँ अपने हाथ में ले सकता है।
🛠 फायदे और चुनौतियाँ (Advantages and Challenges)
✅ फायदे
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राष्ट्रीय एकता और अखंडता बनाए रखना।
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संकट के समय तेज़ और प्रभावी निर्णय लेना।
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अलगाववादी और विद्रोही गतिविधियों पर नियंत्रण।
⚠️ चुनौतियाँ
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राज्यों की स्वायत्तता में कमी का खतरा।
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केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव।
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राजनीतिक दलों के बीच टकराव की संभावना।
📊 हाल के उदाहरण
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COVID-19 महामारी के समय केंद्र ने लॉकडाउन और स्वास्थ्य संबंधी नीतियों में राज्यों को दिशा-निर्देश दिए — यह एकात्मक प्रवृत्ति का उदाहरण है।
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GST (Goods and Services Tax) का लागू होना — संघ और राज्यों के संयुक्त निर्णय से — संघात्मकता का उदाहरण है।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
भारतीय संविधान एक अद्वितीय दस्तावेज़ है, जिसने संघात्मक ढाँचे के साथ एकात्मक भावना का सफल मिश्रण प्रस्तुत किया है। इसकी संरचना राज्यों को स्वायत्तता देती है, जबकि केंद्र को इतनी शक्ति देती है कि वह देश की अखंडता और एकता को बनाए रख सके। यह संतुलन ही भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती का आधार है। अतः यह कहना पूरी तरह सही है कि "भारतीय संविधान अपनी संरचना में संघात्मक किन्तु भावना में एकात्मक है"।
प्रश्न 03: भारत में आज़ादी के बाद से राजनीतिक दलों का विकास क्रम समझाइए
📜 भूमिका (Introduction)
भारत में राजनीतिक दल लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) के बाद से भारतीय राजनीति में अनेक बदलाव आए, और राजनीतिक दलों का स्वरूप, विचारधारा व भूमिका समय के साथ बदलती रही। प्रारंभिक वर्षों में एक-दलीय प्रभुत्व से शुरू हुई भारतीय राजनीति आज बहुदलीय प्रणाली में विकसित हो चुकी है। यह विकास क्रम देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों का आईना है।
🏛️ प्रारंभिक दौर (1947–1967) — एक-दलीय प्रभुत्व का युग
🔹 कांग्रेस का वर्चस्व
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स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देश के सबसे बड़े जन-आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी।
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स्वतंत्रता के बाद भी कांग्रेस का यह जनाधार कायम रहा और 1952, 1957, 1962 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने भारी बहुमत हासिल किया।
🔹 विपक्ष की सीमाएँ
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इस दौर में विपक्ष कमजोर और बिखरा हुआ था।
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सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टी आदि मौजूद थीं, लेकिन वे कांग्रेस को चुनौती देने की स्थिति में नहीं थीं।
🔄 दूसरा चरण (1967–1977) — बहुदलीय राजनीति की शुरुआत
🔹 1967 का मोड़
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1967 के आम चुनाव में कांग्रेस का वर्चस्व कई राज्यों में टूटा।
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विपक्षी दलों ने संयुक्त मोर्चा बनाकर कुछ राज्यों में सरकारें बनाई।
🔹 उभरते क्षेत्रीय दल
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तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) की जीत।
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पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में गठबंधन सरकारों का गठन।
⚠️ तीसरा चरण (1977–1989) — आपातकाल और विपक्ष का उदय
🔹 आपातकाल का प्रभाव
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1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल से जनता में असंतोष फैल गया।
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प्रेस की स्वतंत्रता सीमित हुई, राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाला गया।
🔹 जनता पार्टी का गठन
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1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस को हराकर सत्ता संभाली।
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यह पहली बार था जब केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी।
🔹 अस्थिर गठबंधन
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जनता पार्टी में आंतरिक कलह के कारण सरकार 1979 में गिर गई।
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1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस फिर सत्ता में लौटी।
📈 चौथा चरण (1989–1999) — गठबंधन राजनीति का दौर
🔹 कांग्रेस का पतन और गठबंधन का उदय
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1989 के चुनाव में कांग्रेस बहुमत खो बैठी।
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राष्ट्रीय मोर्चा (National Front) की सरकार बनी, जिसे भाजपा और वामपंथी दलों का समर्थन मिला।
🔹 मंडल आयोग और सामाजिक बदलाव
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1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने से राजनीति में जातिगत समीकरण बदल गए।
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क्षेत्रीय दल जैसे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल मजबूत हुए।
🔹 अस्थिरता का दौर
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1996 से 1999 के बीच कई गठबंधन सरकारें बनीं और गिरीं।
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भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) का गठन हुआ।
🚀 पाँचवाँ चरण (1999–2014) — गठबंधन से स्थिरता की ओर
🔹 एनडीए का शासन
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अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने 1999 से 2004 तक कार्यकाल पूरा किया।
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आर्थिक उदारीकरण और बुनियादी ढाँचा विकास पर जोर।
🔹 यूपीए का शासन
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2004 और 2009 में कांग्रेस नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) की जीत।
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मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आर्थिक विकास, लेकिन घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोप भी।
🌟 छठा चरण (2014–वर्तमान) — बहुमत की वापसी
🔹 भाजपा का उदय
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2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया।
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यह 30 साल बाद हुआ जब किसी एक दल को लोकसभा में बहुमत मिला।
🔹 प्रमुख नीतियाँ और बदलाव
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डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत जैसी योजनाएँ।
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अनुच्छेद 370 का निरसन, तीन तलाक कानून, जीएसटी का लागू होना।
🔹 विपक्ष की स्थिति
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2014 और 2019 दोनों चुनावों में विपक्ष बिखरा और कमजोर दिखा।
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क्षेत्रीय दल अब भी राज्यों की राजनीति में प्रभावी हैं।
📌 राजनीतिक दलों के विकास के प्रमुख रुझान
1️⃣ बहुदलीय प्रणाली का सशक्तिकरण
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आज भारत में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की संख्या बहुत अधिक है।
2️⃣ गठबंधन राजनीति का महत्व
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केंद्र और राज्यों में गठबंधन सरकारें आम हो गईं।
3️⃣ विचारधाराओं का लचीलापन
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अब दल विचारधारा से अधिक चुनावी रणनीति और गठबंधन पर निर्भर हैं।
4️⃣ क्षेत्रीय मुद्दों का प्रभाव
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राज्य स्तर पर स्थानीय मुद्दे और नेता चुनावी नतीजों को प्रभावित करते हैं।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
भारत में आज़ादी के बाद से राजनीतिक दलों का विकास क्रम एक सतत प्रक्रिया है, जिसमें एक-दलीय प्रभुत्व से लेकर बहुदलीय और फिर बहुमत आधारित राजनीति का सफर शामिल है। यह यात्रा भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता, सामाजिक विविधता और राजनीतिक जागरूकता का प्रतीक है। आज भी राजनीतिक दलों की भूमिका सिर्फ चुनाव जीतने तक सीमित नहीं है, बल्कि वे देश की नीतियों, आर्थिक दिशा और सामाजिक एकता को भी आकार देते हैं।
प्रश्न 04: भारतीय राजनीतिक तंत्र में जातिवाद की उभरती समस्या पर एक निबन्ध लिखिए
📜 भूमिका (Introduction)
भारत एक बहुजातीय, बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है, जहाँ जाति व्यवस्था का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। जाति मूलतः एक सामाजिक संगठन था, जिसका उद्देश्य कार्य विभाजन और समाज में व्यवस्था बनाए रखना था, लेकिन समय के साथ यह व्यवस्था कठोर और भेदभावपूर्ण हो गई। आज़ादी के बाद भारतीय संविधान ने जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए प्रावधान किए, लेकिन राजनीतिक तंत्र में जातिवाद ने नई रूपरेखा धारण कर ली। अब जाति केवल सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि राजनीतिक लाभ का माध्यम बन गई है।
📚 जातिवाद का अर्थ (Meaning of Casteism)
जातिवाद वह प्रवृत्ति है जिसमें व्यक्ति अपनी जाति के हित को सर्वोपरि मानता है और राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक मामलों में जातिगत आधार पर निर्णय करता है। यह प्रवृत्ति राजनीति में इस हद तक समा गई है कि चुनावी रणनीति, उम्मीदवारों का चयन, और नीतिगत निर्णय भी जातिगत समीकरणों के आधार पर होते हैं।
🏛️ भारतीय राजनीति में जातिवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
🔹 स्वतंत्रता से पहले
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ब्रिटिश शासन के दौरान जाति जनगणना ने लोगों में जातिगत पहचान को और मजबूत किया।
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विभाजन और "फूट डालो और राज करो" की नीति ने जातिवाद को बढ़ावा दिया।
🔹 स्वतंत्रता के बाद
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संविधान ने अनुच्छेद 15 और 17 के तहत जातिगत भेदभाव को गैरकानूनी घोषित किया।
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अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू की गई।
📊 जातिवाद के उभरने के प्रमुख कारण (Major Causes of Emerging Casteism in Politics)
1️⃣ आरक्षण राजनीति
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आरक्षण सामाजिक न्याय का साधन था, लेकिन समय के साथ यह राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक की रणनीति बन गया।
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चुनाव के समय आरक्षण बढ़ाने या नई जातियों को इसमें शामिल करने के वादे किए जाते हैं।
2️⃣ जातिगत वोट बैंक
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कई राज्यों में चुनाव जातिगत आधार पर ही लड़े जाते हैं।
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उम्मीदवारों का चयन अक्सर स्थानीय जाति समीकरण को देखकर किया जाता है।
3️⃣ सामाजिक-आर्थिक असमानता
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शिक्षा, रोजगार और आर्थिक अवसरों में असमानता जातिगत असंतोष को जन्म देती है।
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यह असंतोष राजनीतिक नेताओं के लिए समर्थन जुटाने का साधन बन जाता है।
4️⃣ जाति-आधारित संगठन
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जाति महासभाएँ और संघठन चुनावों में सक्रिय होकर अपने वर्ग के लिए विशेष लाभ की मांग करते हैं।
5️⃣ क्षेत्रीय राजनीति
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उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा जैसे राज्यों में जातिगत राजनीति अधिक प्रभावी है, जहाँ जाति पहचान सीधे सत्ता तक पहुँच का माध्यम है।
⚠️ भारतीय राजनीति पर जातिवाद के प्रभाव (Impacts of Casteism on Indian Politics)
🔹 सकारात्मक प्रभाव
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राजनीतिक भागीदारी में वृद्धि — पिछड़े वर्ग और दलित समुदाय को राजनीति में प्रतिनिधित्व मिला।
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सामाजिक जागरूकता — जातिगत आंदोलनों से शिक्षा और अधिकारों के प्रति जागरूकता फैली।
🔹 नकारात्मक प्रभाव
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राष्ट्रीय एकता पर खतरा — जातिगत विभाजन देश की अखंडता को कमजोर करता है।
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विकास कार्यों में बाधा — नीतियाँ जातिगत लाभ के हिसाब से बनाई जाती हैं, न कि सार्वभौमिक विकास के लिए।
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भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद — राजनीतिक नियुक्तियाँ और पद वितरण जातिगत वफादारी पर आधारित हो जाते हैं।
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लोकतंत्र की गुणवत्ता में गिरावट — योग्य उम्मीदवारों की बजाय जाति विशेष के व्यक्ति को प्राथमिकता दी जाती है।
📍 जातिवाद के उदाहरण (Illustrative Examples)
🔹 उत्तर प्रदेश की राजनीति
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दलित वोट बैंक के लिए बहुजन समाज पार्टी (BSP) का उदय।
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यादव-मुस्लिम समीकरण पर आधारित समाजवादी पार्टी (SP) की रणनीति।
🔹 बिहार की राजनीति
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मंडल आयोग (1990) के बाद पिछड़े वर्ग के दलों का सशक्तिकरण।
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जातिगत जनगणना की मांग का उभार।
🔹 महाराष्ट्र और हरियाणा
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मराठा और जाट आरक्षण आंदोलनों ने क्षेत्रीय राजनीति को प्रभावित किया।
🛠 जातिवाद की समस्या के समाधान (Solutions to the Problem of Casteism in Politics)
1️⃣ शिक्षा का प्रसार
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शिक्षा सामाजिक समानता लाने का सबसे प्रभावी साधन है।
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राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने से जातिगत वोटिंग पैटर्न कम हो सकता है।
2️⃣ आर्थिक समानता
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गरीब वर्ग को उनकी जाति की परवाह किए बिना समान आर्थिक अवसर प्रदान करना।
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रोजगार और उद्यमिता को बढ़ावा देना।
3️⃣ राजनीतिक सुधार
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उम्मीदवार चयन में जाति की बजाय योग्यता और ईमानदारी को महत्व देना।
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जातिगत आधार पर चुनाव प्रचार पर कड़ी निगरानी।
4️⃣ सामाजिक सुधार आंदोलन
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जातिगत भेदभाव के खिलाफ जन-जागरण अभियान चलाना।
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युवाओं को जाति से ऊपर उठकर सोचने के लिए प्रेरित करना।
5️⃣ मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका
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जातिवाद के खतरों और एकता के महत्व पर सकारात्मक सामग्री का प्रसार।
📊 हाल के रुझान (Recent Trends)
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जातिगत जनगणना की मांग कई राज्यों में बढ़ रही है, जिसे राजनीतिक दल अपने-अपने फायदे के लिए समर्थन या विरोध करते हैं।
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शहरी क्षेत्रों में जाति की पकड़ अपेक्षाकृत कमज़ोर हुई है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी यह निर्णायक है।
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युवा मतदाताओं में विकास और रोजगार जैसे मुद्दों पर ध्यान बढ़ा है, फिर भी चुनावी गणित में जाति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
भारतीय राजनीतिक तंत्र में जातिवाद एक जटिल समस्या है, जो लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर भी करती है और सामाजिक न्याय के अवसर भी प्रदान करती है। यदि जाति का प्रयोग केवल पिछड़े और वंचित वर्ग को आगे लाने तक सीमित रहे, तो यह सकारात्मक है, लेकिन जब यह राजनीतिक सत्ता के लिए विभाजन और भेदभाव का हथियार बन जाए, तो यह देश की एकता के लिए घातक है।
इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा, आर्थिक समानता और राजनीतिक सुधार के माध्यम से जातिवाद की नकारात्मक प्रवृत्तियों को रोका जाए, ताकि भारतीय लोकतंत्र अपनी असली भावना — समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व — को प्राप्त कर सके।
प्रश्न 05: भारत में चुनाव सुधारों पर एक लेख लिखिए
📜 भूमिका (Introduction)
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, और यहाँ चुनाव लोकतांत्रिक व्यवस्था की आत्मा हैं। लेकिन केवल चुनाव कराना ही पर्याप्त नहीं है, उन्हें निष्पक्ष, पारदर्शी और भागीदारीपूर्ण बनाना भी जरूरी है। समय के साथ भारतीय चुनाव प्रणाली में कई चुनौतियाँ आईं — धनबल, बाहुबल, जातिवाद, धार्मिक ध्रुवीकरण और मतदाता उदासीनता। इन समस्याओं से निपटने के लिए चुनाव सुधार (Electoral Reforms) की आवश्यकता हमेशा महसूस की गई है। चुनाव सुधार वे उपाय हैं जिनसे चुनाव की प्रक्रिया अधिक निष्पक्ष, पारदर्शी और लोकतांत्रिक बन सके।
📚 चुनाव सुधार की आवश्यकता (Need for Electoral Reforms)
1️⃣ लोकतंत्र की गुणवत्ता बनाए रखना
यदि चुनाव में गड़बड़ी, भ्रष्टाचार और हिंसा होगी, तो लोकतंत्र का भरोसा कमजोर हो जाएगा।
2️⃣ मतदाता का विश्वास
मतदाता तभी वोट देगा जब उसे लगे कि उसका वोट निष्पक्ष गिना जाएगा और उसका असर होगा।
3️⃣ समान अवसर
सभी उम्मीदवारों को चुनाव में बराबरी का मौका मिलना जरूरी है, चाहे वह गरीब हो या अमीर।
4️⃣ सामाजिक समावेशन
चुनाव प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि सभी वर्ग — महिला, दलित, अल्पसंख्यक, ग्रामीण — को समान भागीदारी का अवसर मिले।
🏛️ भारत में चुनाव सुधार का ऐतिहासिक विकास (Historical Development of Electoral Reforms)
🔹 1950–1970 का दौर
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चुनाव आयोग का गठन (1950)
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पहले आम चुनाव (1951–52) में बैलेट पेपर का प्रयोग
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खर्च की सीमा तय करने के प्रारंभिक प्रयास
🔹 1970–1990 का दौर
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भ्रष्ट आचरण को रोकने के लिए कानून सख्त हुए।
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चुनावी हिंसा और बूथ कैप्चरिंग को रोकने के लिए सेंट्रल फोर्स की तैनाती शुरू हुई।
🔹 1990 के बाद
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1996: उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड का खुलासा अनिवार्य।
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2003: चुनाव खर्च की पारदर्शिता पर जोर।
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2014 के बाद: VVPAT (Voter Verifiable Paper Audit Trail) का प्रयोग शुरू।
🔍 प्रमुख चुनाव सुधार (Major Electoral Reforms)
🗳️ 1. इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) और VVPAT
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EVM ने बैलेट पेपर की धांधली और गिनती की समस्याओं को कम किया।
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VVPAT से मतदाता अपने वोट की पुष्टि कर सकता है।
🛡️ 2. आपराधिक पृष्ठभूमि का खुलासा
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उम्मीदवार को अपना आपराधिक रिकॉर्ड नामांकन पत्र में देना अनिवार्य।
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यह मतदाताओं को सूचित निर्णय लेने में मदद करता है।
💰 3. चुनाव खर्च पर नियंत्रण
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खर्च की अधिकतम सीमा तय।
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राजनीतिक दलों को अपने चंदे के स्रोत का खुलासा करना अनिवार्य।
📰 4. मीडिया और आचार संहिता
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चुनाव आयोग आचार संहिता लागू करता है ताकि प्रचार निष्पक्ष रहे।
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"पेड न्यूज़" और फर्जी खबरों पर निगरानी।
📅 5. मतदाता सूची में सुधार
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समय-समय पर मतदाता सूची का अद्यतन।
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ऑनलाइन पंजीकरण की सुविधा।
📊 हाल के वर्षों में हुए महत्वपूर्ण चुनाव सुधार (Recent Electoral Reforms)
🔹 NOTA (None of the Above) विकल्प
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2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लागू।
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मतदाता किसी उम्मीदवार को पसंद न होने पर भी वोट डाल सकता है।
🔹 चुनाव में पारदर्शी फंडिंग
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2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था शुरू।
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उद्देश्य था कि चंदा देने वालों की पहचान गुप्त रखते हुए धन का रिकॉर्ड बैंकिंग चैनल से हो।
🔹 सोशल मीडिया मॉनिटरिंग
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फर्जी खबरों, नफरत फैलाने वाले कंटेंट और आचार संहिता उल्लंघन पर निगरानी।
🔹 दिव्यांग और वरिष्ठ नागरिकों के लिए सुविधा
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घर बैठे मतदान (Postal Ballot) का विस्तार।
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मतदान केंद्रों पर व्हीलचेयर और रैम्प की व्यवस्था।
⚠️ चुनाव सुधार की चुनौतियाँ (Challenges in Electoral Reforms)
💰 धनबल का बढ़ता प्रभाव
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बड़े उद्योगपतियों और धनाढ्य उम्मीदवारों का दबदबा।
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चुनाव खर्च की सीमा होने के बावजूद "अघोषित खर्च" बहुत ज्यादा।
🔫 बाहुबल और आपराधिक तत्व
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कई क्षेत्रों में आज भी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार जीतते हैं।
🗣️ जाति और धर्म आधारित राजनीति
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चुनाव प्रचार में सांप्रदायिक और जातिगत ध्रुवीकरण।
📰 पेड न्यूज़ और मीडिया प्रोपेगेंडा
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पैसों के बदले खबरें और विज्ञापन।
🏛️ राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी
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जो दल सत्ता में होते हैं, वे कई सुधारों को लागू करने में टालमटोल करते हैं।
💡 चुनाव सुधार के लिए सुझाव (Suggestions for Electoral Reforms)
1️⃣ चुनाव खर्च में पारदर्शिता
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सभी खर्च का डिजिटल रिकॉर्ड अनिवार्य।
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"कैश" के प्रयोग पर पूरी तरह रोक।
2️⃣ आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों पर रोक
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गंभीर आपराधिक मामलों में आरोप तय होते ही चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध।
3️⃣ एक साथ चुनाव (One Nation, One Election)
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लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं, ताकि खर्च और समय की बचत हो।
4️⃣ वोटिंग प्रतिशत बढ़ाने के उपाय
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मतदान को आसान बनाने के लिए ऑनलाइन और मोबाइल वोटिंग पर शोध।
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युवा मतदाताओं को प्रेरित करने के लिए कैंपेन।
5️⃣ इलेक्टोरल बॉन्ड की पारदर्शिता
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चंदा देने वालों की पहचान सार्वजनिक करना।
📌 अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण (International Practices)
🔹 अमेरिका
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वहाँ चुनावी फंडिंग का पूरा विवरण सार्वजनिक वेबसाइट पर उपलब्ध होता है।
🔹 ऑस्ट्रेलिया
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मतदान अनिवार्य है, और न डालने पर जुर्माना लगता है।
🔹 यूरोप
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कई देशों में चुनाव प्रचार की अवधि बहुत छोटी रखी जाती है ताकि खर्च और ध्रुवीकरण कम हो।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
भारत में चुनाव सुधार केवल तकनीकी बदलाव तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह एक सतत प्रक्रिया है जिसमें पारदर्शिता, निष्पक्षता और जनभागीदारी को बढ़ाना मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। अब जरूरत है कि चुनाव आयोग को और अधिक अधिकार और स्वतंत्रता मिले, राजनीतिक दल सुधारों में सहयोग करें और मतदाता भी जागरूक बने।
एक सशक्त लोकतंत्र तभी संभव है जब चुनाव "जनता के लिए, जनता द्वारा और जनता का" ही रहे, न कि धन और जातिगत समीकरणों का खेल।
SOLVED PAPER JUNE 2024
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 01: संविधान में ऐसे कौन से प्रावधान हैं जो धर्मनिरपेक्षता पर केंद्रित हैं?
📜 भूमिका (Introduction)
भारत एक बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है। यहाँ हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और अन्य धर्मों के लोग शांति से साथ रहते हैं। इस विविधता को बनाए रखने और धार्मिक भेदभाव से बचाने के लिए भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता (Secularism) की व्यवस्था की गई है।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है — राज्य का किसी एक धर्म को बढ़ावा न देना, सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना और नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देना।
🏛️ धर्मनिरपेक्षता का संवैधानिक आधार (Constitutional Basis of Secularism)
🔹 प्रास्तावना (Preamble)
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42वें संशोधन (1976) के बाद संविधान की प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" शब्द जोड़ा गया।
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यह सुनिश्चित करता है कि भारत का राज्य किसी भी धर्म को न अपनाएगा और सभी धर्मों को समान महत्व देगा।
🔹 मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)
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संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है।
📜 धर्मनिरपेक्षता से संबंधित प्रमुख संवैधानिक प्रावधान
🛡️ अनुच्छेद 14 — समानता का अधिकार
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कानून के समक्ष सभी नागरिक बराबर हैं।
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धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।
🛐 अनुच्छेद 15 — भेदभाव का निषेध
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राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
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सार्वजनिक स्थानों और सेवाओं तक सभी की समान पहुँच होगी।
✋ अनुच्छेद 16 — समान अवसर का अधिकार
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सरकारी नौकरियों में धर्म के आधार पर भेदभाव निषिद्ध है।
🙏 धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़े अनुच्छेद (Right to Freedom of Religion)
📖 अनुच्छेद 25 — धर्म की स्वतंत्रता
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प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने, उसका प्रचार करने और उसका पालन करने का अधिकार।
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यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है।
⛪ अनुच्छेद 26 — धार्मिक संस्थाओं का प्रबंधन
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प्रत्येक धार्मिक समूह को अपनी धार्मिक संस्थाएँ स्थापित और संचालित करने का अधिकार।
🏫 अनुच्छेद 27 — कर का प्रयोग
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किसी नागरिक को किसी विशेष धर्म के प्रचार के लिए कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
📚 अनुच्छेद 28 — धार्मिक शिक्षा
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सरकारी वित्तपोषित शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी, सिवाय उन संस्थानों के जिन्हें किसी विशेष धर्म के प्रचार के लिए स्थापित किया गया हो।
🎓 सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (Cultural & Educational Rights)
🛡️ अनुच्छेद 29
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किसी भी समुदाय को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार।
🏫 अनुच्छेद 30
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अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित और संचालित करने का अधिकार, चाहे वे धर्म या भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक हों।
⚖️ राज्य और धर्म का पृथक्करण (Separation of State & Religion)
🔹 अनुच्छेद 44 — समान नागरिक संहिता (Directive Principle)
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नागरिकों के लिए समान कानून लागू करने की परिकल्पना, जिससे धर्म आधारित व्यक्तिगत कानूनों में समानता लाई जा सके।
🔹 अनुच्छेद 51A — नागरिक कर्तव्य
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प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह साम्प्रदायिक सद्भाव और सहिष्णुता बनाए रखे।
🏛️ धर्मनिरपेक्षता को सशक्त करने वाले न्यायिक फैसले
📌 केस: S.R. Bommai vs. Union of India (1994)
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की बुनियादी संरचना का हिस्सा है।
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यदि कोई राज्य सरकार धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के विपरीत कार्य करती है, तो उसे बर्खास्त किया जा सकता है।
📌 केस: Kesavananda Bharati vs. State of Kerala (1973)
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"बेसिक स्ट्रक्चर" सिद्धांत स्थापित हुआ, जिसमें धर्मनिरपेक्षता को अपरिवर्तनीय हिस्सा माना गया।
🌍 भारतीय धर्मनिरपेक्षता की विशेषताएँ
1️⃣ सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान (Sarva Dharma Sambhav)
भारत में धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म का विरोध नहीं, बल्कि सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टि है।
2️⃣ राज्य और धर्म का सापेक्षिक पृथक्करण
राज्य धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है यदि वह सार्वजनिक हित या समानता के लिए आवश्यक हो।
3️⃣ बहुलतावादी दृष्टिकोण
संविधान सभी धार्मिक और सांस्कृतिक विविधताओं को मान्यता देता है।
🚧 धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौतियाँ
🗣️ सांप्रदायिक राजनीति
धार्मिक भावनाओं का चुनाव में दुरुपयोग।
⚠️ सांप्रदायिक दंगे
अलग-अलग धर्मों के बीच टकराव और हिंसा।
📢 धार्मिक कट्टरता
असहिष्णुता और कट्टर विचारधारा का प्रसार।
💡 धर्मनिरपेक्षता को सुदृढ़ करने के उपाय
1️⃣ शिक्षा के माध्यम से जागरूकता
धार्मिक सहिष्णुता और समानता पर आधारित शिक्षा व्यवस्था।
2️⃣ कानून का सख्त पालन
धर्म आधारित भेदभाव और हिंसा पर त्वरित कानूनी कार्रवाई।
3️⃣ मीडिया की जिम्मेदारी
सकारात्मक और संतुलित खबरों का प्रसार।
4️⃣ राजनीति का धर्म से अलगाव
चुनाव प्रचार में धर्म के इस्तेमाल पर कड़ी रोक।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
भारतीय संविधान ने धर्मनिरपेक्षता को केवल सैद्धांतिक अवधारणा के रूप में नहीं, बल्कि व्यवहारिक नीति के रूप में लागू किया है। यह प्रावधान सुनिश्चित करते हैं कि कोई भी नागरिक अपने धर्म के कारण वंचित, भेदभाव का शिकार या विशेषाधिकार प्राप्त न हो।
धर्मनिरपेक्षता केवल संविधान का शब्द नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है, जिसे हमें अपने व्यवहार, राजनीति और समाज में जीवित रखना होगा।
प्रश्न 02: कांग्रेस पार्टी के पतन के कारणों का परीक्षण कीजिए
📜 भूमिका (Introduction)
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस स्वतंत्रता संग्राम की अगुआ पार्टी थी। आज़ादी के बाद लंबे समय तक इसने केंद्र और अधिकांश राज्यों में अपना वर्चस्व बनाए रखा। 1952 से 1984 तक के दौर में कांग्रेस लगभग अपराजेय राजनीतिक शक्ति थी। लेकिन समय के साथ यह शक्ति कमजोर पड़ती गई और 21वीं सदी के दूसरे दशक में पार्टी का जनाधार बुरी तरह सिमट गया।
कांग्रेस के पतन के पीछे कई ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक और संगठनात्मक कारण हैं, जिन्हें समझना भारतीय राजनीति की दिशा और दशा को समझने के लिए जरूरी है।
🏛️ प्रारंभिक वर्चस्व और उसका धीरे-धीरे ह्रास
🔹 आज़ादी के बाद का प्रभुत्व
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स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस के योगदान के कारण जनता में अपार विश्वास।
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1952, 1957 और 1962 के लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत।
🔹 बदलाव की शुरुआत
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1967 के आम चुनाव में पहली बार कांग्रेस का कई राज्यों में पराजय होना।
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विपक्षी दलों के गठबंधन और क्षेत्रीय पार्टियों का उदय।
📉 कांग्रेस पतन के प्रमुख कारण
⚠️ 1. संगठनात्मक कमजोरी
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समय के साथ कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र कमजोर होता गया।
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पार्टी में "हाईकमान संस्कृति" हावी हो गई, जहाँ फैसले शीर्ष नेतृत्व से होते थे और जमीनी कार्यकर्ताओं की राय महत्वहीन हो गई।
🗳️ 2. करिश्माई नेतृत्व का अभाव
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नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बाद कांग्रेस में सर्वमान्य नेता की कमी रही।
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नेतृत्व में निरंतर बदलाव और अस्थिरता से कार्यकर्ताओं और मतदाताओं में भ्रम फैला।
🪙 3. भ्रष्टाचार और घोटाले
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बोफोर्स घोटाला (1980 के दशक के अंत) ने कांग्रेस की छवि को गहरा नुकसान पहुँचाया।
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बाद के वर्षों में 2G, कोयला आवंटन जैसे घोटालों ने पार्टी की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाए।
🏛️ 4. क्षेत्रीय दलों का उदय
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मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद जाति-आधारित राजनीति को बढ़ावा मिला, जिससे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, RJD जैसे दल मजबूत हुए।
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दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत में क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक को तोड़ा।
📢 5. जनसंपर्क में कमी
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जनता से सीधा संवाद और ग्राउंड लेवल कैडर नेटवर्क कमजोर हुआ।
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चुनाव के समय ही सक्रिय होने की प्रवृत्ति, जबकि विपक्षी दल लगातार जमीनी स्तर पर सक्रिय रहे।
📊 6. वैचारिक अस्पष्टता
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कांग्रेस ने एक समय समाजवादी नीतियाँ अपनाईं, फिर उदारीकरण का समर्थन किया।
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इस नीति बदलाव में स्पष्ट दृष्टिकोण की कमी दिखी, जिससे मतदाता भ्रमित हुए।
🗡️ 7. विपक्ष का रणनीतिक उदय
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भाजपा जैसे दलों ने संगठन, विचारधारा और प्रचार के स्तर पर मजबूत आधार तैयार किया।
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कांग्रेस की कमजोर रणनीति और सुस्त प्रचार शैली विपक्ष के आक्रामक रवैये के सामने फीकी पड़ी।
📺 8. मीडिया और सोशल मीडिया में पिछड़ना
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21वीं सदी में राजनीति में डिजिटल और सोशल मीडिया की भूमिका अत्यधिक बढ़ी।
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कांग्रेस की डिजिटल उपस्थिति और प्रचार की गति विपक्ष की तुलना में काफी धीमी रही।
💔 9. अंदरूनी गुटबाजी
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राज्यों और केंद्र में नेताओं के बीच गुटबाजी और आपसी संघर्ष।
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इससे संगठनात्मक एकता और चुनावी प्रदर्शन प्रभावित हुआ।
🕰️ ऐतिहासिक घटनाएँ जो पतन में मील का पत्थर बनीं
📌 1967 के चुनाव
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कई राज्यों में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं।
📌 1977 में हार
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आपातकाल (1975–77) के बाद जनता में असंतोष और कांग्रेस की ऐतिहासिक हार।
📌 1989 के बाद
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बोफोर्स घोटाले के बाद कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बाहर।
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गठबंधन राजनीति में कमजोर भूमिका।
📌 2014 और 2019
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दोनों लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का बेहद खराब प्रदर्शन (2014 में 44 सीटें, 2019 में 52 सीटें)।
🌍 सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में बदलाव
🔹 जातिगत और क्षेत्रीय पहचान की राजनीति
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पिछड़े वर्ग, दलित और क्षेत्रीय पहचान पर आधारित राजनीति ने कांग्रेस के पारंपरिक "छत्रछाया वोट बैंक" को बिखेरा।
🔹 शहरीकरण और युवा मतदाता
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नए शहरी और युवा मतदाताओं को कांग्रेस अपनी ओर आकर्षित करने में विफल रही।
🔹 राष्ट्रवाद की नई परिभाषा
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भाजपा ने आक्रामक राष्ट्रवाद को केंद्र में रखकर चुनावी नैरेटिव बनाया, जिसमें कांग्रेस की आवाज़ कमजोर पड़ी।
💡 कांग्रेस के पुनरुद्धार की संभावनाएँ
1️⃣ संगठनात्मक सुधार
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आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देकर जमीनी कार्यकर्ताओं को निर्णय प्रक्रिया में शामिल करना।
2️⃣ स्पष्ट वैचारिक दृष्टि
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नीतियों में स्थिरता और एक स्पष्ट विज़न प्रस्तुत करना।
3️⃣ युवा और नई नेतृत्व टीम
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युवाओं को नेतृत्व में अवसर और डिजिटल राजनीति में निवेश।
4️⃣ जनता से सतत संवाद
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चुनावी समय के अलावा भी आम जनता के मुद्दों पर सक्रिय रहना।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
कांग्रेस का पतन केवल चुनावी हार का परिणाम नहीं है, बल्कि यह वर्षों से चली आ रही संगठनात्मक कमजोरी, वैचारिक अस्पष्टता, गुटबाजी और जनता से दूरी का परिणाम है।
यदि कांग्रेस को पुनर्जीवित होना है तो उसे अपने गौरवशाली इतिहास से प्रेरणा लेते हुए नए जमाने की राजनीति, तकनीक और संगठनात्मक ढाँचे को अपनाना होगा। अन्यथा, यह कभी भारत की सबसे शक्तिशाली पार्टी रही कांग्रेस, इतिहास की किताबों में एक अध्याय बनकर रह जाएगी।
प्रश्न 03: भारत में राजनीतिक आधुनिकीकरण की प्रगति में बाधक बाधाओं का परीक्षण कीजिए
📜 भूमिका (Introduction)
राजनीतिक आधुनिकीकरण (Political Modernization) का अर्थ है — राजनीतिक संस्थाओं, प्रक्रियाओं और संस्कृति का आधुनिक, लोकतांत्रिक और जनोन्मुखी दिशा में विकास।
यह केवल तकनीकी सुधार नहीं, बल्कि राजनीतिक मूल्यों, प्रशासनिक दक्षता, पारदर्शिता और नागरिक सहभागिता में व्यापक बदलाव की प्रक्रिया है।
भारत में स्वतंत्रता के बाद से राजनीतिक आधुनिकीकरण की दिशा में काफी प्रयास हुए हैं, लेकिन कई बाधाएँ इसकी गति को धीमा करती रही हैं। इन बाधाओं का परीक्षण करना यह समझने के लिए आवश्यक है कि लोकतंत्र की जड़ें और गहरी कैसे की जा सकती हैं।
🏛️ राजनीतिक आधुनिकीकरण की अवधारणा और महत्व
🔹 राजनीतिक आधुनिकीकरण की परिभाषा
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समाजशास्त्री लूसियन पाई के अनुसार, "राजनीतिक आधुनिकीकरण वह प्रक्रिया है, जिसमें पारंपरिक राजनीतिक संरचनाओं का स्थान नई, तर्कसंगत, दक्ष और जनोन्मुख संरचनाएँ लेती हैं।"
🔹 भारत के लिए महत्व
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लोकतंत्र की मजबूती
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प्रशासनिक दक्षता में वृद्धि
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नागरिक अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता
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आर्थिक और सामाजिक विकास को गति
⚠️ राजनीतिक आधुनिकीकरण में बाधक मुख्य अवरोध
🪙 1. आर्थिक असमानता
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भारत में आय और संपत्ति का असमान वितरण राजनीतिक भागीदारी में असंतुलन पैदा करता है।
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गरीब वर्ग के पास शिक्षा और संसाधनों की कमी के कारण राजनीतिक प्रभाव कम होता है।
🗳️ 2. जातिवाद और सामुदायिक राजनीति
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जाति और धर्म पर आधारित राजनीति आज भी कई क्षेत्रों में प्रमुख है।
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चुनावी टिकट वितरण, प्रचार और मतदान में जातीय समीकरण का प्रभाव, मुद्दों को पीछे धकेल देता है।
📚 3. शिक्षा का निम्न स्तर
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व्यापक राजनीतिक साक्षरता का अभाव।
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अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे मतदाता प्रायः भावनात्मक या जातीय आधार पर मतदान करते हैं, न कि मुद्दों और नीतियों पर।
🏛️ 4. कमजोर राजनीतिक संस्थाएँ
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दलगत अनुशासन की कमी, बार-बार दल बदल, और दलबदल विरोधी कानून का सीमित असर।
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संसद और विधानसभाओं में सार्थक बहस की बजाय राजनीतिक टकराव का माहौल।
🪤 5. भ्रष्टाचार और घोटाले
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राजनीतिक दलों के वित्त पोषण में पारदर्शिता की कमी।
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सार्वजनिक पदों का निजी लाभ के लिए दुरुपयोग।
🛡️ 6. कानून का असमान प्रवर्तन
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राजनीतिक दबाव के कारण कानून का एकसमान और निष्पक्ष अनुपालन नहीं हो पाता।
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शक्तिशाली नेताओं और अपराधियों को कानून से छूट मिलना, जनता के विश्वास को कमजोर करता है।
📺 7. मीडिया का दुरुपयोग
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कई बार मीडिया निष्पक्ष सूचना के बजाय पक्षपाती प्रचार का माध्यम बन जाता है।
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फेक न्यूज और सोशल मीडिया पर भ्रामक सूचनाएँ जनमत को प्रभावित करती हैं।
🕰️ ऐतिहासिक और सामाजिक पृष्ठभूमि की बाधाएँ
🔹 औपनिवेशिक विरासत
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ब्रिटिश शासन ने लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव तो रखी, लेकिन जनसहभागिता सीमित रही।
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स्वतंत्रता के बाद भी प्रशासनिक ढाँचे में औपनिवेशिक सोच के अवशेष बने रहे।
🔹 सामंती मानसिकता
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ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जमींदार और स्थानीय प्रभावशाली लोग राजनीति को नियंत्रित करते हैं।
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यह आधुनिक राजनीतिक संस्कृति के विकास में बाधक है।
📊 संरचनात्मक बाधाएँ
🏢 राजनीतिक दलों की संरचना
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आंतरिक लोकतंत्र का अभाव।
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टिकट वितरण में पारिवारिक या आर्थिक प्रभाव का वर्चस्व।
🏛️ नौकरशाही का रवैया
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लालफीताशाही और जटिल प्रक्रियाएँ राजनीतिक सुधारों की गति धीमी करती हैं।
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कुछ मामलों में नौकरशाही राजनीतिक दबाव में निष्क्रिय हो जाती है।
🌍 वैश्विक चुनौतियाँ और भारत
🔹 वैश्वीकरण और असमानता
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वैश्विक आर्थिक नीतियों के असर से ग्रामीण-शहरी अंतर बढ़ा, जिससे राजनीतिक प्राथमिकताएँ बंटी हुई हैं।
🔹 अंतरराष्ट्रीय छवि और दबाव
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लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में पारदर्शिता की कमी, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की साख को प्रभावित करती है।
💡 राजनीतिक आधुनिकीकरण को बाधाओं से मुक्त करने के उपाय
1️⃣ शिक्षा और जागरूकता
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राजनीतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना।
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ग्रामीण क्षेत्रों में जन-जागरूकता अभियान।
2️⃣ चुनावी सुधार
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चुनाव खर्च पर सख्त नियंत्रण और पारदर्शिता।
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आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों पर रोक।
3️⃣ दलगत सुधार
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राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र और जवाबदेही को अनिवार्य करना।
4️⃣ तकनीकी नवाचार
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ई-गवर्नेंस और डिजिटल पारदर्शिता से भ्रष्टाचार में कमी।
5️⃣ मीडिया की जवाबदेही
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फेक न्यूज और भ्रामक सूचनाओं के खिलाफ सख्त कानून।
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स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया को बढ़ावा।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
भारत में राजनीतिक आधुनिकीकरण एक सतत प्रक्रिया है, लेकिन इसे वास्तविकता में बदलने के लिए केवल संस्थागत सुधार काफी नहीं हैं।
इसके लिए जनता की मानसिकता में बदलाव, राजनीतिक दलों की पारदर्शिता, शिक्षा का प्रसार और कानून के निष्पक्ष अनुपालन की आवश्यकता है।
जब तक आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाएँ दूर नहीं होंगी, तब तक भारत का लोकतंत्र अपनी पूरी क्षमता तक आधुनिकीकरण की मंज़िल नहीं पा सकेगा।
राजनीतिक आधुनिकीकरण केवल सरकार का दायित्व नहीं, बल्कि हर नागरिक का सामूहिक कर्तव्य है।
प्रश्न 04: चुनाव आयोग की संरचना बताइए
📜 भूमिका (Introduction)
भारत एक विशाल लोकतांत्रिक देश है जहाँ सरकार का गठन जनप्रतिनिधियों के चुनाव के माध्यम से होता है। चुनावों को स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी ढंग से संपन्न कराने की ज़िम्मेदारी भारत के चुनाव आयोग (Election Commission of India) पर है।
संविधान के अनुच्छेद 324 में चुनाव आयोग की स्थापना, शक्तियाँ और दायित्व निर्धारित किए गए हैं। यह एक स्वायत्त संवैधानिक निकाय है जो केंद्र और राज्यों में लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं और राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के चुनाव का संचालन करता है।
🏛️ संवैधानिक आधार (Constitutional Basis)
📌 अनुच्छेद 324
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अनुच्छेद 324 (1) में स्पष्ट प्रावधान है कि चुनावों के संचालन, नियंत्रण और पर्यवेक्षण का दायित्व चुनाव आयोग का होगा।
-
यह आयोग केंद्र और राज्यों — दोनों स्तर पर चुनाव प्रक्रिया की देखरेख करता है।
📌 स्वतंत्रता और स्वायत्तता
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चुनाव आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए इसके सदस्यों को केवल संसद द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के तहत ही हटाया जा सकता है।
🧩 चुनाव आयोग की संरचना (Structure of Election Commission)
🗳️ 1. प्रमुख घटक (Composition)
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प्रारंभ में (1950 से 1989 तक) यह एक एक-सदस्यीय निकाय था, जिसमें केवल मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner - CEC) होते थे।
-
16 अक्टूबर 1989 से इसमें दो और चुनाव आयुक्त (Election Commissioners) जोड़े गए, और इसे बहु-सदस्यीय आयोग में बदल दिया गया।
-
अब आयोग में तीन सदस्य होते हैं:
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मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC)
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दो चुनाव आयुक्त (ECs)
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📋 2. नियुक्ति प्रक्रिया (Appointment)
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राष्ट्रपति, मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करता है।
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नियुक्ति में परंपरागत रूप से प्रधानमंत्री और कैबिनेट की सलाह शामिल होती है।
📅 3. कार्यकाल (Tenure)
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मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों का कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु, इनमें से जो पहले हो, तक होता है।
🛡️ 4. पद से हटाने की प्रक्रिया (Removal)
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मुख्य चुनाव आयुक्त को सुप्रीम कोर्ट के जज की तरह ही, संसद में महाभियोग जैसी प्रक्रिया से ही हटाया जा सकता है।
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अन्य चुनाव आयुक्तों को राष्ट्रपति, मुख्य चुनाव आयुक्त की अनुशंसा पर हटा सकते हैं।
🏢 चुनाव आयोग के प्रमुख पदाधिकारी
👨⚖️ 1. मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC)
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आयोग का प्रमुख।
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सभी प्रशासनिक और नीतिगत निर्णयों में अंतिम अधिकार।
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आयोग की कार्यप्रणाली में निष्पक्षता बनाए रखना।
👨💼 2. चुनाव आयुक्त (ECs)
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मुख्य चुनाव आयुक्त की सहायता करते हैं।
-
आयोग में सभी फैसले सामूहिक रूप से लिए जाते हैं, बहुमत के आधार पर।
📌 आयोग का सचिवालय और सहायक तंत्र
🏛️ केंद्रीय सचिवालय (Central Secretariat)
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नई दिल्ली में स्थित मुख्यालय।
-
इसमें सचिव, उप-सचिव, निदेशक, और अन्य प्रशासनिक कर्मचारी होते हैं।
🌍 राज्य स्तर पर
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प्रत्येक राज्य और केंद्रशासित प्रदेश में मुख्य निर्वाचन अधिकारी (Chief Electoral Officer - CEO) नियुक्त होते हैं।
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प्रत्येक संसदीय/विधानसभा क्षेत्र में निर्वाचन रिटर्निंग अधिकारी (Returning Officer - RO) और सहायक रिटर्निंग अधिकारी (ARO) तैनात होते हैं।
🏙️ जिला स्तर पर
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जिला निर्वाचन अधिकारी (DEO), आमतौर पर जिलाधिकारी होते हैं, जो चुनाव प्रक्रिया की स्थानीय निगरानी करते हैं।
⚙️ चुनाव आयोग के कार्य और अधिकार (Brief Overview)
📋 चुनाव संचालन
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लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव करवाना।
🛡️ चुनावी आचार संहिता
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चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए आचार संहिता लागू करना।
📜 मतदाता सूची प्रबंधन
-
मतदाता सूची तैयार करना, उसका अद्यतन करना और शुद्धता सुनिश्चित करना।
🏛️ चुनावी विवाद
-
चुनाव प्रक्रिया में विवाद या उल्लंघन पर कार्रवाई करना।
🔍 चुनाव आयोग की संरचना की विशेषताएँ
🗝️ 1. स्वायत्तता
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सरकार के सीधे नियंत्रण से स्वतंत्र।
-
नियुक्ति और कार्यकाल के प्रावधान इसकी निष्पक्षता को मजबूत करते हैं।
📊 2. सामूहिक निर्णय प्रणाली
-
बहु-सदस्यीय आयोग में फैसले सामूहिक रूप से होते हैं, जिससे व्यक्तिगत पक्षपात की संभावना कम होती है।
🛠️ 3. व्यापक प्रशासनिक नेटवर्क
-
केंद्रीय से लेकर जिला स्तर तक फैला हुआ चुनाव प्रबंधन ढाँचा।
⚠️ संरचना से जुड़ी चुनौतियाँ
🔹 नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव
-
नियुक्ति में केवल कार्यपालिका की भूमिका होने से निष्पक्षता पर प्रश्न उठते हैं।
🔹 संसाधनों की कमी
-
विशाल देश में चुनाव संचालन के लिए अधिक तकनीकी और मानव संसाधनों की आवश्यकता।
🔹 राजनीतिक दबाव
-
यद्यपि संविधान इसकी स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन कभी-कभी राजनीतिक हस्तक्षेप की आशंका बनी रहती है।
💡 सुधार के सुझाव
1️⃣ नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार
-
नियुक्ति के लिए न्यायपालिका, कार्यपालिका और विपक्ष की संयुक्त समिति का गठन।
2️⃣ तकनीकी संसाधनों का विस्तार
-
ई-वोटिंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित निगरानी तंत्र।
3️⃣ राज्य चुनाव आयोगों के साथ बेहतर तालमेल
-
लोक और निकाय चुनावों में एकीकृत मानक प्रणाली अपनाना।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
भारत का चुनाव आयोग लोकतंत्र की रीढ़ है। इसकी संरचना को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि यह स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से चुनाव करवा सके।
हालाँकि, बदलते समय के साथ नई चुनौतियों को देखते हुए इसमें सुधार और तकनीकी सशक्तिकरण की आवश्यकता है।
जब चुनाव आयोग अपनी स्वायत्तता और निष्पक्षता बनाए रखता है, तभी जनता का लोकतंत्र में विश्वास अटूट बना रहता है।
प्रश्न 05: राष्ट्रीय एकीकरण के बाधक तत्वों और उनके निवारण के उपायों की संक्षिप्त विवेचना कीजिए
📜 भूमिका (Introduction)
राष्ट्रीय एकीकरण (National Integration) का अर्थ है — देश के सभी नागरिकों में एकता, समानता और राष्ट्रीय भावना का विकास, चाहे उनकी जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र या संस्कृति अलग-अलग क्यों न हो।
भारत एक बहुभाषी, बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश है, इसलिए यहाँ राष्ट्रीय एकीकरण को बनाए रखना एक सतत और चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया है।
हालाँकि स्वतंत्रता के बाद से राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए कई प्रयास हुए हैं, लेकिन आज भी कुछ सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बाधाएँ इस प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं।
⚠️ राष्ट्रीय एकीकरण के प्रमुख बाधक तत्व
🪙 1. आर्थिक असमानता
-
भारत में आय और संसाधनों का असमान वितरण।
-
गरीब और अमीर के बीच गहरी खाई, जिससे असंतोष और अलगाव की भावना पैदा होती है।
🗳️ 2. क्षेत्रीयता और प्रांतीयवाद
-
अपने राज्य या क्षेत्र की पहचान को राष्ट्रीय पहचान से ऊपर रखना।
-
कुछ क्षेत्रों में अलगाववादी आंदोलनों का जन्म।
🛐 3. सांप्रदायिकता
-
धर्म के आधार पर भेदभाव और नफरत।
-
सांप्रदायिक दंगे राष्ट्रीय एकता को सीधा नुकसान पहुँचाते हैं।
🏛️ 4. जातिवाद
-
जाति आधारित भेदभाव और राजनीति।
-
सामाजिक विभाजन, जिससे लोगों के बीच विश्वास कम होता है।
🗣️ 5. भाषाई भेदभाव
-
भाषा के आधार पर समूहों में विभाजन।
-
भाषाई आंदोलनों और विवादों से एकता पर असर।
🚫 6. राजनीतिक अस्थिरता
-
दलगत राजनीति और व्यक्तिगत स्वार्थ, राष्ट्रीय हितों को पीछे धकेलते हैं।
🌍 7. विदेशी हस्तक्षेप
-
कुछ क्षेत्रों में अलगाववादी प्रवृत्तियों को बाहरी ताकतों से समर्थन मिलना।
📚 ऐतिहासिक और सामाजिक कारक
🔹 औपनिवेशिक विरासत
-
ब्रिटिश शासन ने "फूट डालो और राज करो" की नीति से सामाजिक और धार्मिक विभाजन को गहरा किया।
🔹 सांस्कृतिक विविधता की चुनौती
-
विविधता भारत की ताकत है, लेकिन जब यह पारस्परिक समझ और सम्मान के बिना होती है, तो यह विभाजन का कारण बन सकती है।
💡 राष्ट्रीय एकीकरण के निवारण हेतु उपाय
📖 1. शिक्षा का प्रसार
-
ऐसी शिक्षा नीति जो समानता, सहिष्णुता और राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ाए।
-
पाठ्यक्रम में राष्ट्रीय एकता के उदाहरण और प्रेरक कहानियाँ शामिल करना।
🛡️ 2. आर्थिक समानता
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सभी क्षेत्रों और वर्गों में समान विकास।
-
पिछड़े और वंचित क्षेत्रों के लिए विशेष विकास योजनाएँ।
🤝 3. सांप्रदायिक सद्भाव
-
सभी धर्मों और समुदायों के बीच संवाद और आपसी सम्मान।
-
सांप्रदायिक हिंसा पर सख्त कानूनी कार्रवाई।
🏛️ 4. राजनीतिक सुधार
-
स्वच्छ और मुद्दा-आधारित राजनीति को बढ़ावा देना।
-
दलगत हितों से ऊपर राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देना।
🌐 5. सांस्कृतिक आदान-प्रदान
-
विभिन्न राज्यों और भाषाई क्षेत्रों के बीच सांस्कृतिक कार्यक्रम और आदान-प्रदान योजनाएँ।
📺 6. मीडिया की भूमिका
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सकारात्मक समाचार और एकता बढ़ाने वाली कहानियों का प्रसारण।
-
अफवाहों और नफरत फैलाने वाली सामग्री पर रोक।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
राष्ट्रीय एकीकरण केवल सरकार या किसी संस्था की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह हर नागरिक का कर्तव्य है।
जब तक हम जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र की संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर सोचेंगे नहीं, तब तक सच्चा राष्ट्रीय एकीकरण संभव नहीं।
भारत की विविधता उसकी सबसे बड़ी ताकत है, और इसे एकजुट रखने के लिए आवश्यक है कि हम एकता में विविधता के सिद्धांत को अपनाएँ और पीढ़ी दर पीढ़ी इसे मजबूत करते रहें।
प्रश्न 06: प्रतिनिधि लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के महत्व को स्पष्ट कीजिए
📜 भूमिका (Introduction)
प्रतिनिधि लोकतंत्र (Representative Democracy) वह प्रणाली है जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर शासन की जिम्मेदारी सौंपती है।
इस व्यवस्था में राजनीतिक दल (Political Parties) लोकतंत्र के संचालन की रीढ़ होते हैं।
ये दल न केवल चुनावों में उम्मीदवार खड़े करते हैं, बल्कि जनता और सरकार के बीच सेतु का कार्य भी करते हैं।
यदि लोकतंत्र को एक जीवंत और गतिशील व्यवस्था माना जाए, तो राजनीतिक दल उसकी धड़कन और दिशा दोनों हैं।
🏛️ राजनीतिक दल की परिभाषा और मूल उद्देश्य
📌 परिभाषा
राजनीतिक दल एक संगठित समूह है जो समान राजनीतिक विचारधारा, नीतियों और कार्यक्रमों के आधार पर संगठित होता है तथा सत्ता प्राप्त कर शासन चलाने का लक्ष्य रखता है।
🎯 मूल उद्देश्य
-
सत्ता प्राप्त करना
-
नीतियों का निर्माण और क्रियान्वयन
-
जनता की समस्याओं को राजनीतिक मंच पर उठाना
-
राष्ट्रीय हित में निर्णय लेना
🌟 प्रतिनिधि लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का महत्व
1️⃣ जन-प्रतिनिधित्व का माध्यम
-
राजनीतिक दल जनता के विचार, आकांक्षाएँ और समस्याएँ विधायिका में प्रतिनिधियों तक पहुँचाते हैं।
-
दल के उम्मीदवार चुनाव जीतकर जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी आवाज बनते हैं।
2️⃣ चुनाव प्रक्रिया का संगठन
-
चुनावी व्यवस्था को व्यवस्थित और प्रतिस्पर्धी बनाने में दलों की केंद्रीय भूमिका होती है।
-
वे उम्मीदवार चुनते हैं, प्रचार करते हैं और नीतियाँ प्रस्तुत करते हैं, जिससे मतदाता को स्पष्ट विकल्प मिलता है।
3️⃣ सरकार गठन और स्थिरता
-
बहुमत प्राप्त दल या गठबंधन सरकार बनाता है।
-
दल के भीतर अनुशासन और साझा विचारधारा से सरकार स्थिर और संगठित रहती है।
4️⃣ नीति निर्माण और क्रियान्वयन
-
दल अपने घोषणापत्र में किए गए वादों को नीतियों में बदलते हैं।
-
सत्ता में आने पर ये नीतियाँ देश की दिशा तय करती हैं।
5️⃣ जनता और सरकार के बीच सेतु
-
राजनीतिक दल जनता की शिकायतें, सुझाव और जरूरतें सरकार तक पहुँचाते हैं।
-
वे जनता को सरकारी योजनाओं और नीतियों की जानकारी भी देते हैं।
📚 राजनीतिक दल और लोकतांत्रिक मूल्य
🔹 जनमत निर्माण
-
दल जनता को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर जागरूक करते हैं।
-
वाद-विवाद, जनसभाओं और मीडिया के माध्यम से विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं।
🔹 समान अवसर और भागीदारी
-
दल सभी नागरिकों को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर देते हैं।
-
महिलाएँ, अल्पसंख्यक और वंचित वर्ग भी दलों के माध्यम से राजनीति में प्रवेश पाते हैं।
🔹 विपक्ष की भूमिका
-
विपक्षी दल सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करते हैं और सुधार के सुझाव देते हैं।
-
इससे लोकतंत्र में संतुलन और जवाबदेही बनी रहती है।
⚙️ प्रतिनिधि लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के बिना स्थिति
यदि राजनीतिक दल न हों, तो —
-
चुनाव व्यक्तिगत आधार पर होंगे, जिससे संगठित नीति और शासन कठिन हो जाएगा।
-
सरकार का गठन अस्थिर होगा और निरंतरता का अभाव रहेगा।
-
जनता को स्पष्ट विकल्प नहीं मिलेगा।
🛠 राजनीतिक दलों से जुड़ी चुनौतियाँ
🏷️ 1. दलगत राजनीति और ध्रुवीकरण
-
दल अपने हितों को राष्ट्रीय हित से ऊपर रखते हैं, जिससे निर्णय प्रक्रिया प्रभावित होती है।
💰 2. धनबल और बाहुबल का प्रभाव
-
चुनावी प्रक्रिया में धन और शक्ति का बढ़ता प्रभाव लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करता है।
📉 3. विचारधारात्मक विचलन
-
कुछ दल सत्ता पाने के लिए अपनी विचारधारा से समझौता कर लेते हैं।
🗳️ 4. वंशवाद और गुटबाज़ी
-
कई दलों में नेतृत्व परिवार-आधारित हो जाता है, जिससे योग्य लोगों के लिए अवसर कम हो जाते हैं।
💡 सुधार के सुझाव
📖 1. आंतरिक लोकतंत्र
-
दलों में नेतृत्व चयन, उम्मीदवार तय करने और नीति निर्माण की प्रक्रिया पारदर्शी और लोकतांत्रिक हो।
🛡️ 2. चुनावी सुधार
-
चुनाव में धन के उपयोग पर सख्त नियंत्रण।
-
चुनावी खर्च की पारदर्शी रिपोर्टिंग।
🌐 3. शिक्षा और जागरूकता
-
जनता को दलों के कार्यक्रम, नीतियों और कार्यप्रणाली के बारे में सही जानकारी।
🤝 4. राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता
-
दलों को व्यक्तिगत और क्षेत्रीय हितों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हित में काम करना चाहिए।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
प्रतिनिधि लोकतंत्र में राजनीतिक दल केवल चुनाव जीतने का साधन नहीं हैं, बल्कि वे लोकतंत्र की आत्मा हैं।
ये दल जनता और सरकार को जोड़ते हैं, नीतियाँ बनाते हैं, जनमत तैयार करते हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हैं।
हालाँकि, उनकी कार्यप्रणाली में सुधार की आवश्यकता है ताकि वे केवल सत्ता की राजनीति तक सीमित न रहें, बल्कि देश के सर्वांगीण विकास और स्थायी लोकतांत्रिक व्यवस्था की दिशा में कार्य करें।
यदि राजनीतिक दल अपने मूल उद्देश्य — जनसेवा और राष्ट्रीय हित — को सर्वोपरि रखें, तो प्रतिनिधि लोकतंत्र वास्तव में सफल और जीवंत रहेगा।
प्रश्न 07: भारत में सांप्रदायिकतावाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए
📜 भूमिका (Introduction)
सांप्रदायिकतावाद (Communalism) भारतीय समाज की उन सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है, जिसने न केवल हमारी सामाजिक एकता को चुनौती दी है, बल्कि राजनीतिक स्थिरता और राष्ट्रीय एकीकरण को भी प्रभावित किया है।
साधारण अर्थ में, सांप्रदायिकतावाद का मतलब है — धार्मिक पहचान को आधार बनाकर किसी व्यक्ति, समूह या समुदाय के हितों को बढ़ावा देना और अन्य धर्मों के प्रति नकारात्मक या शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण रखना।
भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश में, जहाँ विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों के लोग एक साथ रहते हैं, सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखना अनिवार्य है। लेकिन इतिहास और वर्तमान दोनों में ऐसे कई अवसर आए हैं जब सांप्रदायिक तनाव ने सामाजिक ताने-बाने को कमजोर किया।
🔍 सांप्रदायिकतावाद का अर्थ और स्वरूप
📌 अर्थ
-
सांप्रदायिकतावाद केवल धार्मिक भिन्नता नहीं है, बल्कि वह मानसिकता है जिसमें अपने धर्म को सर्वोपरि मानकर अन्य धर्मों के प्रति अविश्वास और घृणा रखी जाती है।
-
यह सामाजिक संबंधों में विभाजन, राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति और हिंसा तक का रूप ले सकता है।
🪞 स्वरूप
-
धार्मिक सांप्रदायिकता – धर्म के नाम पर विभाजन।
-
राजनीतिक सांप्रदायिकता – सत्ता पाने के लिए धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल।
-
सांस्कृतिक सांप्रदायिकता – सांस्कृतिक परंपराओं को धार्मिक श्रेष्ठता से जोड़ना।
🏛️ भारत में सांप्रदायिकतावाद के ऐतिहासिक कारण
1️⃣ औपनिवेशिक शासन की नीति
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ब्रिटिश शासन ने "फूट डालो और राज करो" की नीति के तहत हिंदू-मुस्लिम विभाजन को गहराया।
-
अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था और धार्मिक आधार पर जनगणना ने सांप्रदायिक सोच को बढ़ावा दिया।
2️⃣ विभाजन की त्रासदी
-
1947 में भारत का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर हुआ, जिससे करोड़ों लोग विस्थापित हुए और हिंसा फैली।
3️⃣ धार्मिक सुधार आंदोलनों की टकराहट
-
19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में विभिन्न धार्मिक सुधार आंदोलनों ने कभी-कभी एक-दूसरे के प्रति प्रतिस्पर्धा और कटुता को जन्म दिया।
⚠️ सांप्रदायिकतावाद के वर्तमान कारण
🗳️ 1. राजनीति में धर्म का प्रयोग
-
चुनावों में मतदाताओं को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करना।
📺 2. मीडिया और अफवाहें
-
सोशल मीडिया और गलत सूचनाओं के जरिए नफरत फैलाना।
🏷️ 3. आर्थिक और सामाजिक असमानता
-
बेरोजगारी और गरीबी के कारण लोग आसानी से सांप्रदायिक प्रचार के प्रभाव में आ जाते हैं।
🛐 4. धार्मिक कट्टरता
-
अपने धर्म के कठोर और संकीर्ण व्याख्यान को सर्वोच्च मानना, अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु होना।
📉 सांप्रदायिकतावाद के दुष्परिणाम
🕊️ 1. सामाजिक एकता का विघटन
-
सांप्रदायिक दंगे और हिंसा से समाज में अविश्वास और नफरत बढ़ती है।
🏛️ 2. लोकतांत्रिक मूल्यों पर आघात
-
धर्म के आधार पर मतदान और सत्ता प्राप्ति से लोकतंत्र का नैतिक आधार कमजोर होता है।
📉 3. आर्थिक नुकसान
-
दंगों और अशांति से व्यापार, निवेश और रोजगार प्रभावित होते हैं।
🌍 4. राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा
-
सांप्रदायिक तनाव का फायदा उठाकर बाहरी ताकतें देश में अस्थिरता पैदा कर सकती हैं।
💡 सांप्रदायिकतावाद के निवारण के उपाय
📖 1. शिक्षा और जागरूकता
-
ऐसी शिक्षा जो धार्मिक सहिष्णुता, समानता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करे।
-
इतिहास और संस्कृति को संतुलित और तथ्यपरक तरीके से पढ़ाना।
🛡️ 2. राजनीतिक सुधार
-
चुनावी प्रक्रिया में धर्म आधारित प्रचार पर सख्त रोक।
-
धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को चुनाव आयोग और न्यायपालिका के जरिए सख्ती से लागू करना।
🤝 3. सामाजिक संवाद
-
विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच संवाद और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन।
📺 4. मीडिया की जिम्मेदारी
-
सकारात्मक खबरों और साम्प्रदायिक सौहार्द के उदाहरणों को बढ़ावा देना।
-
अफवाहों और भड़काऊ सामग्री पर तुरंत कार्रवाई।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
भारत की पहचान "एकता में विविधता" के सिद्धांत पर आधारित है।
सांप्रदायिकतावाद इस नींव को कमजोर करता है और विकास की गति को धीमा करता है।
जरूरी है कि हम धर्म को व्यक्तिगत आस्था तक सीमित रखें और राजनीति, शासन तथा सामाजिक संबंधों में धर्मनिरपेक्षता, समानता और सहिष्णुता को सर्वोच्च स्थान दें।
यदि हम शिक्षा, संवाद और राजनीतिक सुधार के जरिए सांप्रदायिकता पर अंकुश लगा पाएँ, तो भारत न केवल आंतरिक रूप से मजबूत होगा, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी एक उदाहरण बन सकेगा।
प्रश्न 08: समकालीन समय में भारतीय राजनीतिक संस्कृति पर चर्चा कीजिए
📜 भूमिका (Introduction)
भारतीय राजनीतिक संस्कृति (Indian Political Culture) एक जटिल और बहुआयामी अवधारणा है, जो देश के ऐतिहासिक अनुभव, सामाजिक संरचना, आर्थिक परिस्थितियों, धार्मिक विविधता और वैश्विक प्रभावों के सम्मिलित प्रभाव से निर्मित हुई है।
समकालीन समय में भारतीय राजनीतिक संस्कृति केवल औपचारिक लोकतांत्रिक ढाँचे तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें लोगों की राजनीतिक मान्यताएँ, मूल्य, दृष्टिकोण और व्यवहार भी शामिल हैं।
आज की भारतीय राजनीति में परंपरा और आधुनिकता, दोनों का अनोखा संगम देखने को मिलता है।
🔍 राजनीतिक संस्कृति का अर्थ और स्वरूप
📌 राजनीतिक संस्कृति की परिभाषा
राजनीतिक संस्कृति वह सामूहिक दृष्टिकोण, विश्वास और भावनाएँ हैं, जो नागरिकों के राजनीतिक व्यवहार और शासन व्यवस्था से संबंध को परिभाषित करती हैं।
🪞 भारतीय राजनीतिक संस्कृति के स्वरूप
-
परंपरागत स्वरूप – जाति, धर्म, परिवार और स्थानीयता का गहरा प्रभाव।
-
आधुनिक स्वरूप – संविधानवाद, लोकतांत्रिक मूल्य, नागरिक अधिकार और वैश्वीकरण का असर।
-
मिश्रित स्वरूप – परंपरा और आधुनिकता का सह-अस्तित्व।
🏛️ भारतीय राजनीतिक संस्कृति का ऐतिहासिक विकास
1️⃣ प्राचीन काल
-
जनसभा और पंचायतों के रूप में स्थानीय स्वशासन की परंपरा।
-
धर्म और राजनीति का घनिष्ठ संबंध।
2️⃣ मध्यकालीन काल
-
सामंती और केंद्रीकृत शासन प्रणाली।
-
धार्मिक बहुलता और सांस्कृतिक समन्वय का विकास।
3️⃣ औपनिवेशिक काल
-
ब्रिटिश शासन के दौरान आधुनिक प्रशासनिक ढाँचे, कानून और राजनीतिक संगठनों का उदय।
-
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय एकता और लोकतांत्रिक चेतना का प्रसार।
4️⃣ स्वतंत्रता के बाद
-
संविधान पर आधारित लोकतांत्रिक ढाँचे की स्थापना।
-
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, संघीय संरचना और बहुदलीय व्यवस्था का विकास।
🌟 समकालीन भारतीय राजनीतिक संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ
🗳️ 1. लोकतांत्रिक मूल्य
-
जनता को मतदान का अधिकार और राजनीतिक भागीदारी का अवसर।
-
चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं के माध्यम से निष्पक्ष चुनाव का प्रयास।
🏷️ 2. बहुदलीय व्यवस्था
-
राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों का सह-अस्तित्व।
-
गठबंधन सरकारों का बढ़ता चलन।
🌐 3. वैश्वीकरण का प्रभाव
-
आर्थिक उदारीकरण के बाद विदेशी नीतियों और वैश्विक रुझानों का प्रभाव।
-
सोशल मीडिया और डिजिटल राजनीति का उदय।
🏛️ 4. जाति और धर्म की भूमिका
-
आधुनिकता के बावजूद चुनावी राजनीति में जातीय और धार्मिक पहचान का गहरा प्रभाव।
📺 5. मीडिया की सक्रियता
-
पारंपरिक और डिजिटल मीडिया के जरिए राजनीतिक विमर्श का विस्तार।
-
तथ्यों के साथ-साथ प्रचार और दुष्प्रचार दोनों का असर।
🛡️ 6. न्यायपालिका और नागरिक अधिकार
-
नागरिक अधिकारों की रक्षा में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका।
-
जनहित याचिकाओं और न्यायिक हस्तक्षेप का बढ़ता महत्व।
⚠️ समकालीन राजनीतिक संस्कृति की चुनौतियाँ
💰 1. धनबल और बाहुबल
-
चुनावी प्रक्रिया में पैसे और शक्ति का बढ़ता हस्तक्षेप।
🏷️ 2. जातिवाद और सांप्रदायिकता
-
राजनीतिक दलों द्वारा जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति।
📉 3. भ्रष्टाचार
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सत्ता और प्रशासन में भ्रष्टाचार से जनता का विश्वास कमजोर होना।
🗳️ 4. कम राजनीतिक साक्षरता
-
ग्रामीण और वंचित वर्ग में राजनीतिक जागरूकता की कमी।
📱 5. दुष्प्रचार और फेक न्यूज़
-
सोशल मीडिया पर गलत सूचनाओं का प्रसार, जिससे मतदाताओं पर नकारात्मक प्रभाव।
💡 सुधार और सकारात्मक दिशा
📖 1. राजनीतिक शिक्षा
-
नागरिकों को संविधान, लोकतांत्रिक प्रक्रिया और अधिकारों के प्रति जागरूक करना।
🛡️ 2. चुनावी सुधार
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चुनावी खर्च की सीमा का पालन, पारदर्शी फंडिंग व्यवस्था।
🤝 3. सामाजिक एकता
-
जातीय और धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता को प्राथमिकता।
🌐 4. डिजिटल साक्षरता
-
सोशल मीडिया के जिम्मेदार और सकारात्मक उपयोग को बढ़ावा देना।
⚖️ 5. जवाबदेही
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जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना।
🏁 निष्कर्ष (Conclusion)
समकालीन भारतीय राजनीतिक संस्कृति में परंपरा और आधुनिकता का अनूठा संगम है।
जहाँ एक ओर लोकतांत्रिक संस्थाएँ, नागरिक अधिकार और वैश्विक रुझान इसे आधुनिक स्वरूप देते हैं, वहीं दूसरी ओर जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय प्रभाव इसकी परंपरागत जड़ों को दर्शाते हैं।
जरूरी है कि हम लोकतांत्रिक मूल्यों, राष्ट्रीय एकता और पारदर्शी शासन को सर्वोपरि रखते हुए, राजनीतिक संस्कृति को अधिक जिम्मेदार, समावेशी और प्रगतिशील बनाएँ।
यदि नागरिक और नेता, दोनों अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति सजग हों, तो भारतीय राजनीतिक संस्कृति आने वाले समय में विश्व के लिए एक प्रेरणास्रोत बन सकती है।