GEPS-03 SOLVED QUESTION PAPER JUNE 2024

 GEPS-03 SOLVED QUESTION PAPER JUNE 2024


01. भारतीय संविधान की विशेषताओं की विवेचना कीजिये।



भारतीय संविधान दुनिया के सबसे विस्तृत और लिखित संविधानों में से एक है। इसे 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत किया गया और 26 जनवरी 1950 को यह प्रभावी हुआ। इसमें भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उद्देश्यों को समाहित किया गया है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—


1. विस्तृत और लिखित संविधान

भारतीय संविधान विश्व का सबसे विस्तृत लिखित संविधान है। इसमें 22 भाग, 395 अनुच्छेद (मूल रूप में), और 12 अनुसूचियाँ थीं। वर्तमान में संशोधन के बाद अनुच्छेदों की संख्या 470 से अधिक हो गई है।


2. संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य

संविधान के अनुसार भारत एक संप्रभु (स्वतंत्र), समाजवादी (सामाजिक न्याय आधारित), धर्मनिरपेक्ष (सभी धर्मों को समान अधिकार देने वाला) और लोकतांत्रिक गणराज्य (जनता द्वारा चुनी गई सरकार) है।


3. संसदीय शासन प्रणाली

भारतीय संविधान ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है, जिसमें सरकार कार्यपालिका और विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है। इसमें प्रधानमंत्री को वास्तविक कार्यकारी शक्ति प्राप्त होती है।


4. मौलिक अधिकारों की गारंटी

संविधान के भाग-3 में नागरिकों को छह मौलिक अधिकार दिए गए हैं—


समानता का अधिकार

स्वतंत्रता का अधिकार

शोषण के विरुद्ध अधिकार

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार

संस्कृति और शिक्षा का अधिकार

संवैधानिक उपचारों का अधिकार

5. नीति निदेशक तत्व

संविधान के भाग-4 में नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख है, जो सरकार को सामाजिक-आर्थिक नीतियाँ बनाने में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।


6. संघात्मक संरचना

भारत एक संघीय देश है, लेकिन इसमें एकात्मक विशेषताएँ भी हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन सातवीं अनुसूची के अनुसार किया गया है।


7. न्यायपालिका की स्वतंत्रता

भारतीय संविधान न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को सरकार से स्वतंत्र रखा गया है, जिससे न्याय प्रणाली निष्पक्ष बनी रहे।


8. संशोधन की प्रक्रिया

संविधान में संशोधन के लिए अनुच्छेद 368 के तहत लचीली और कठोर दोनों प्रक्रियाएँ अपनाई गई हैं। इससे संविधान को समयानुसार बदला जा सकता है।


9. आपातकालीन प्रावधान

संविधान में राष्ट्रीय आपातकाल, राज्य आपातकाल और वित्तीय आपातकाल की व्यवस्था की गई है, जिससे देश की सुरक्षा और स्थिरता बनी रहे।


10. एकल नागरिकता

संविधान भारत के सभी नागरिकों को एक समान नागरिकता प्रदान करता है, जिससे राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलता है।


11. पंचायती राज और नगर निकाय

73वें और 74वें संशोधन द्वारा पंचायती राज और नगर निकायों को संवैधानिक दर्जा दिया गया, जिससे स्थानीय स्वशासन को मजबूत किया गया।


निष्कर्ष

भारतीय संविधान की विशेषताएँ इसे अद्वितीय बनाती हैं। इसमें लोकतंत्र, समानता, न्याय और स्वतंत्रता के आदर्शों को अपनाया गया है। यह न केवल देश की शासन प्रणाली को दिशा प्रदान करता है, बल्कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा भी करता है।







02. मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति व उसकी शक्तियों को समझाइये। बताएं कि उसे पदच्युत कैसे किया जा सकता है?


मुख्य निर्वाचन आयुक्त: नियुक्ति, शक्तियाँ और पदच्युति

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324 देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के संचालन के लिए निर्वाचन आयोग की स्थापना का प्रावधान करता है। इसका नेतृत्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त (Chief Election Commissioner - CEC) करते हैं।


1. मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति

मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। उनके साथ अन्य निर्वाचन आयुक्त भी हो सकते हैं, जिनकी नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।


योग्यता

संविधान में मुख्य निर्वाचन आयुक्त की योग्यता का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन परंपरागत रूप से प्रशासनिक सेवा के अनुभवी अधिकारी को ही इस पद पर नियुक्त किया जाता है।


कार्यकाल और सेवा शर्तें

मुख्य निर्वाचन आयुक्त का कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु (जो पहले हो) तक होता है।

सरकार उनकी सेवा शर्तों को नुकसान नहीं पहुँचा सकती, जिससे उनकी स्वतंत्रता बनी रहे।

वे अपना पद छोड़ने के लिए स्वेच्छा से राष्ट्रपति को त्यागपत्र दे सकते हैं।

2. मुख्य निर्वाचन आयुक्त की शक्तियाँ एवं कार्य

मुख्य निर्वाचन आयुक्त देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए कई महत्वपूर्ण शक्तियों से लैस होते हैं।


(i) चुनावों का संचालन

लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं और राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनावों का आयोजन और नियंत्रण।

चुनाव की तारीखों की घोषणा और संपूर्ण प्रक्रिया का निर्धारण।

(ii) आचार संहिता लागू करना

राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए चुनाव आचार संहिता लागू करना।

आचार संहिता के उल्लंघन पर उचित कार्रवाई करना।

(iii) चुनावी गड़बड़ियों पर नियंत्रण

धनबल और बाहुबल के दुरुपयोग को रोकना।

चुनाव में भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी रोकने के लिए कड़े नियम बनाना।

(iv) मतदाता सूची का प्रबंधन

मतदाता सूची तैयार करना और उसमें संशोधन करना।

मतदाताओं की शिकायतों का निवारण करना।

(v) राजनीतिक दलों की मान्यता एवं प्रतीक आवंटन

राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को मान्यता देना।

चुनाव चिन्हों का आवंटन करना।

(vi) पुनर्मतदान और चुनाव रद्द करना

किसी चुनाव में अनियमितता पाए जाने पर पुनर्मतदान कराने का आदेश देना।

गंभीर अनियमितताओं की स्थिति में चुनाव को रद्द करना।

(vii) चुनाव से जुड़े मामलों पर सरकार को परामर्श देना

राष्ट्रपति को सलाह देना कि किसी सांसद या विधायक को अयोग्य ठहराया जाए या नहीं।

चुनाव से जुड़े विवादों को हल करने के लिए न्यायिक शक्तियाँ प्रयोग करना।

3. मुख्य निर्वाचन आयुक्त को पदच्युत करने की प्रक्रिया

मुख्य निर्वाचन आयुक्त को उनकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान सुरक्षा प्रदान की गई है।


पदच्युत करने की प्रक्रिया

संसद के दोनों सदनों में महाभियोग प्रस्ताव पारित करना होता है।

यह महाभियोग तभी पारित हो सकता है जब वे अयोग्यता या दुर्व्यवहार के दोषी पाए जाते हैं।

राष्ट्रपति महाभियोग पारित होने के बाद उन्हें पद से हटा सकते हैं।

अन्य निर्वाचन आयुक्तों की पदच्युति

अन्य निर्वाचन आयुक्तों को राष्ट्रपति हटा सकते हैं, लेकिन मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश आवश्यक होती है।

निष्कर्ष

मुख्य निर्वाचन आयुक्त भारतीय चुनावी प्रणाली की रीढ़ होते हैं। उन्हें स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, लेकिन उन्हें पद से हटाने की प्रक्रिया जटिल और सख्त है ताकि उनकी निष्पक्षता बनी रहे।








03. भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए दलित आन्दोलन के उद्धव और उसकी प्रकृति का वर्णन कीजिए।


भारतीय समाज में जाति एक महत्वपूर्ण सामाजिक संरचना रही है, जिसने राजनीति को भी गहराई से प्रभावित किया है। स्वतंत्रता के बाद भी जातिगत पहचान भारतीय राजनीति का एक प्रमुख कारक बनी हुई है। इसी संदर्भ में दलित आंदोलन का उद्भव हुआ, जिसका उद्देश्य समाज में हाशिए पर खड़े दलित वर्गों के अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें समान अवसर प्रदान करना था।


भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका

जाति प्रथा भारतीय समाज में सदियों से विद्यमान रही है और यह राजनीति को कई तरीकों से प्रभावित करती है—


1. जातिगत वोट बैंक

विभिन्न राजनीतिक दल जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए चुनावी रणनीतियाँ बनाते हैं।

कई राज्यों में जाति-आधारित दलों का उदय हुआ है, जैसे उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (BSP) और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (RJD)।

2. आरक्षण नीति और जाति

संविधान में अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।

यह नीति दलित वर्गों के सशक्तिकरण में सहायक रही, लेकिन राजनीतिक दल इसे अपने चुनावी लाभ के लिए भी उपयोग करते हैं।

3. जातिगत संघर्ष और सामाजिक न्याय आंदोलन

समय-समय पर जातिगत भेदभाव के खिलाफ सामाजिक आंदोलन हुए, जिनका प्रभाव राजनीति पर पड़ा।

मंडल आयोग (1990) के लागू होने से जाति-आधारित राजनीति और मजबूत हुई।

4. जाति और नेतृत्व

जातिगत समीकरणों के आधार पर कई नेता उभर कर आए, जैसे डॉ. भीमराव अंबेडकर, कांशीराम, मायावती, लालू प्रसाद यादव आदि।

कई क्षेत्रीय दल जाति-आधारित राजनीति को बढ़ावा देते हैं।

दलित आंदोलन का उद्भव एवं प्रकृति

1. दलित आंदोलन का उद्भव

दलित आंदोलन मुख्य रूप से जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता के खिलाफ संघर्ष के रूप में उभरा। इसका विकास विभिन्न चरणों में हुआ—


(i) प्राचीन और मध्यकालीन संघर्ष

प्राचीन काल से ही जातिगत भेदभाव मौजूद था, लेकिन कोई संगठित दलित आंदोलन नहीं था।

भक्ति आंदोलन (15वीं-16वीं शताब्दी) ने जातिवाद को चुनौती दी।

(ii) ब्रिटिश काल और सुधार आंदोलन

19वीं शताब्दी में ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पेरियार और नारायण गुरु जैसे समाज सुधारकों ने दलितों के अधिकारों की आवाज उठाई।

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए कई आंदोलन चलाए, जैसे महाड़ सत्याग्रह (1927) और कांग्रेस से अलग दलित वर्गों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व की माँग।

(iii) स्वतंत्रता के बाद

संविधान में दलितों को आरक्षण और विशेष अधिकार दिए गए।

1970-80 के दशक में कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी (BSP) का गठन हुआ, जिसने दलित राजनीति को एक नई दिशा दी।

2. दलित आंदोलन की प्रकृति

दलित आंदोलन की प्रकृति को विभिन्न पहलुओं में बाँटा जा सकता है—


(i) सामाजिक आंदोलन

अस्पृश्यता और जातिगत भेदभाव के खिलाफ संघर्ष।

शिक्षा और सामाजिक सुधार के माध्यम से दलितों को सशक्त बनाना।

(ii) राजनीतिक आंदोलन

दलितों के लिए आरक्षण और राजनीतिक भागीदारी की माँग।

अलग दलित नेतृत्व का निर्माण, जैसे BSP का उदय।

(iii) सांस्कृतिक आंदोलन

दलित समाज में सांस्कृतिक जागरूकता फैलाने के लिए अंबेडकरवादी विचारधारा का प्रसार।

हिंदू समाज व्यवस्था के खिलाफ विरोध, जैसे बौद्ध धर्म अपनाने की लहर।

(iv) हिंसक और अहिंसक संघर्ष

कुछ स्थानों पर दलितों के अधिकारों के लिए हिंसक संघर्ष भी हुए।

अधिकतर आंदोलन अहिंसक और संविधानसम्मत रहे।

निष्कर्ष

भारतीय राजनीति में जाति एक प्रमुख कारक बनी हुई है, और दलित आंदोलन ने इस राजनीतिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया है। यह आंदोलन न केवल सामाजिक न्याय की माँग करता है, बल्कि राजनीतिक अधिकारों के लिए भी संघर्ष करता है। डॉ. अंबेडकर, कांशीराम और अन्य नेताओं ने दलित राजनीति को एक नई पहचान दी, जिससे यह एक सशक्त सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ।








04.भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत को लोककल्याणकारी राज्य की दिशा में आगे बढ़ाती है, व्याख्या करें।


भारतीय संविधान की प्रस्तावना न केवल संविधान की आत्मा है, बल्कि यह भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की भी रूपरेखा प्रस्तुत करती है। यह भारत को एक लोककल्याणकारी राज्य (Welfare State) के रूप में स्थापित करने की दिशा में मार्गदर्शन करती है। लोककल्याणकारी राज्य का मुख्य उद्देश्य नागरिकों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाना, सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना और समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुत्व की भावना को सशक्त करना है।


1. भारतीय संविधान की प्रस्तावना: एक परिचय

भारतीय संविधान की प्रस्तावना निम्नलिखित मूल्यों को दर्शाती है—


"हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए संकल्पित हैं; और उसके समस्त नागरिकों को:


सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता

प्रतिष्ठा और अवसर की समानता

बंधुत्व की भावना, जिससे व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित हो"

इन आदर्शों के माध्यम से प्रस्तावना भारत को एक लोककल्याणकारी राज्य बनाने की नींव रखती है।


2. लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा

लोककल्याणकारी राज्य का अर्थ एक ऐसे शासन से है, जो सामाजिक न्याय, आर्थिक विकास और समानता के लिए कार्य करता है। इसमें सरकार केवल कानून-व्यवस्था बनाए रखने तक सीमित नहीं होती, बल्कि नागरिकों के समग्र विकास के लिए सक्रिय रूप से प्रयास करती है।


लोककल्याणकारी राज्य के मुख्य तत्व इस प्रकार हैं—


निर्धनों और कमजोर वर्गों के कल्याण के लिए योजनाएँ

सामाजिक न्याय और समानता की गारंटी

नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसर प्रदान करना

राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा

3. भारतीय संविधान की प्रस्तावना और लोककल्याणकारी राज्य

(i) समाजवादी राज्य की दिशा में प्रयास

प्रस्तावना में "समाजवादी" शब्द 42वें संशोधन (1976) के द्वारा जोड़ा गया।

यह सरकार को इस दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित करता है कि समाज में धन और संसाधनों का उचित वितरण हो, आर्थिक असमानता कम हो और गरीबों का उत्थान हो।

सरकार की विभिन्न योजनाएँ जैसे मनरेगा, जनधन योजना, खाद्य सुरक्षा योजना आदि समाजवादी सिद्धांतों पर आधारित हैं।

(ii) सामाजिक न्याय की स्थापना

प्रस्तावना में "सामाजिक न्याय" का उल्लेख किया गया है, जिसका अर्थ है कि हर नागरिक को समान अधिकार मिले, जाति, धर्म, लिंग और वर्ग के आधार पर कोई भेदभाव न हो।

संविधान के अनुच्छेद 15 और 17 अस्पृश्यता उन्मूलन और भेदभाव के विरुद्ध हैं।

अनुच्छेद 46 कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों की सुरक्षा का प्रावधान करता है।

(iii) आर्थिक न्याय और गरीबों का कल्याण

प्रस्तावना में "आर्थिक न्याय" का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को समान आर्थिक अवसर मिलें और कोई भी व्यक्ति अत्यधिक निर्धनता में न रहे।

सरकार ने रोजगार गारंटी योजना, सब्सिडी, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम जैसी योजनाएँ लागू की हैं।

अनुच्छेद 39(b) और (c) संसाधनों के समान वितरण और धन के एकत्रीकरण को रोकने पर बल देते हैं।

(iv) राजनीतिक न्याय और लोकतांत्रिक अधिकार

प्रस्तावना में "राजनीतिक न्याय" का अर्थ है कि हर व्यक्ति को चुनाव लड़ने और मतदान करने का समान अधिकार मिले।

संविधान का अनुच्छेद 326 वयस्क मताधिकार प्रदान करता है, जिससे हर नागरिक को राजनीति में भाग लेने का अवसर मिलता है।

महिलाओं और दलितों को समान राजनीतिक अधिकार दिए गए हैं, जिससे लोककल्याणकारी व्यवस्था मजबूत हुई है।

(v) समानता और स्वतंत्रता की गारंटी

संविधान की प्रस्तावना "समानता और स्वतंत्रता" की बात करती है।

संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 समानता के अधिकार को सुनिश्चित करते हैं।

अनुच्छेद 19 से 22 नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार की गारंटी देते हैं।

(vi) बंधुत्व और राष्ट्रीय एकता

प्रस्तावना में "बंधुत्व" शब्द राष्ट्र की एकता और अखंडता को मजबूत करने पर बल देता है।

संविधान का अनुच्छेद 51A (मौलिक कर्तव्य) हर नागरिक को बंधुत्व और सामाजिक सद्भाव बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है।

4. लोककल्याणकारी राज्य की दिशा में सरकार के प्रयास

भारतीय सरकार ने संविधान के लोककल्याणकारी सिद्धांतों को लागू करने के लिए कई योजनाएँ शुरू की हैं, जैसे—


क्षेत्र प्रमुख योजनाएँ

गरीबी उन्मूलन मनरेगा, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना

शिक्षा सर्वशिक्षा अभियान, मध्याह्न भोजन योजना

स्वास्थ्य आयुष्मान भारत, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन

महिला सशक्तिकरण बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, उज्ज्वला योजना

सामाजिक न्याय आरक्षण नीति, अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम

निष्कर्ष

भारतीय संविधान की प्रस्तावना देश को एक लोककल्याणकारी राज्य बनाने की दिशा में अग्रसर करती है। इसमें समाजवाद, समानता, न्याय और बंधुत्व जैसे मूल्यों को स्थान दिया गया है, जो सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुनिश्चित करते हैं। सरकार की विभिन्न नीतियाँ और कल्याणकारी योजनाएँ इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरंतर कार्य कर रही हैं। इस प्रकार, भारतीय संविधान की प्रस्तावना न केवल एक आदर्श प्रस्तुत करती है, बल्कि एक सक्रिय लोककल्याणकारी राज्य की नींव भी रखती है।








05. भारत की राजनीतिक संस्कृति पर चर्चा कीजिए। जाति, धर्म और क्षेत्रवाद जैसे विभिन्न कारक भारतीय राजनीतिक संस्कृति को कैसे प्रभावित करते हैं?


भारत की राजनीतिक संस्कृति (Political Culture) बहुआयामी और जटिल है, जो देश की विविधता, इतिहास, सामाजिक संरचना और परंपराओं से गहराई से प्रभावित होती है। भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, और यहाँ की राजनीतिक संस्कृति समय के साथ विकसित हुई है। यह संस्कृति जनता की राजनीतिक भागीदारी, लोकतांत्रिक मूल्यों, विचारधाराओं, और संस्थाओं के साथ संबंधों को दर्शाती है।


भारत की राजनीतिक संस्कृति को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं, जिनमें जाति, धर्म और क्षेत्रवाद प्रमुख भूमिका निभाते हैं। ये कारक कभी राजनीतिक स्थिरता को मजबूत करते हैं, तो कभी सामाजिक विभाजन को भी जन्म देते हैं।


1. भारत की राजनीतिक संस्कृति की विशेषताएँ

भारत की राजनीतिक संस्कृति निम्नलिखित विशेषताओं से युक्त है—


(i) लोकतांत्रिक संस्कृति

भारतीय संविधान ने संवैधानिक लोकतंत्र की स्थापना की है।

भारत में वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव होते हैं, जिसमें सभी नागरिक भाग ले सकते हैं।

राजनीतिक दल और चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए कार्य करते हैं।

(ii) विविधता और बहुलतावाद

भारत में भाषाई, जातीय, धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता है, जो राजनीतिक संस्कृति को प्रभावित करती है।

इस विविधता को ध्यान में रखते हुए सरकार नीतियाँ बनाती है, जिससे विभिन्न समुदायों को समान अधिकार मिल सकें।

(iii) जाति और धर्म का प्रभाव

जाति और धर्म भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

चुनावों में जातिगत और धार्मिक पहचान का उपयोग किया जाता है।

कई राजनीतिक दल जाति और धर्म को आधार बनाकर वोट बैंक तैयार करते हैं।

(iv) क्षेत्रीय और स्थानीय राजनीति

भारत में केंद्र और राज्यों के बीच सत्ता का बंटवारा हुआ है, जिससे क्षेत्रीय राजनीति को बढ़ावा मिला है।

क्षेत्रीय दल, जैसे शिवसेना, टीएमसी, डीएमके, बीजेडी, आदि राज्यों में मजबूत राजनीतिक शक्ति रखते हैं।

(v) सामाजिक न्याय और आरक्षण नीति

संविधान में अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को सामाजिक न्याय देने के लिए आरक्षण नीति अपनाई गई।

यह नीति सामाजिक असमानता को दूर करने का प्रयास करती है, लेकिन कई बार यह राजनीतिक विवादों का कारण भी बनती है।

2. भारतीय राजनीतिक संस्कृति को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक

(i) जाति और राजनीति

जाति भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण तत्व है। भारत में जातिगत संरचना प्राचीन काल से चली आ रही है, और यह आधुनिक राजनीति में भी प्रभावी है।


जाति का राजनीतिक प्रभाव:

जातिगत वोट बैंक: चुनावों में जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए उम्मीदवारों का चयन किया जाता है।

जातिगत संगठन और दल: कुछ राजनीतिक दल विशेष जातियों के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए काम करते हैं, जैसे बहुजन समाज पार्टी (BSP) और राष्ट्रीय जनता दल (RJD)।

आरक्षण और राजनीति: आरक्षण नीति को लेकर समय-समय पर राजनीतिक बहस और आंदोलन होते रहे हैं, जैसे मंडल आयोग (1990) के लागू होने पर हुआ था।

(ii) धर्म और राजनीति

भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, लेकिन फिर भी धर्म का राजनीति में गहरा प्रभाव है।


धर्म का राजनीतिक प्रभाव:

धार्मिक आधार पर वोट बैंक: कुछ राजनीतिक दल धार्मिक आधार पर वोट मांगते हैं।

धार्मिक मुद्दों का राजनीतिकरण: अयोध्या राम मंदिर विवाद, गोधरा कांड, धर्मांतरण विवाद आदि राजनीतिक बहस के मुद्दे बने।

सांप्रदायिक राजनीति: कभी-कभी राजनीतिक दल धार्मिक ध्रुवीकरण कर वोट प्राप्त करने की कोशिश करते हैं, जिससे समाज में सांप्रदायिक तनाव पैदा होता है।

(iii) क्षेत्रवाद और राजनीति

क्षेत्रवाद भारतीय राजनीति में एक प्रमुख कारक है, जो विभिन्न राज्यों की राजनीतिक प्राथमिकताओं को प्रभावित करता है।


क्षेत्रवाद का राजनीतिक प्रभाव:

क्षेत्रीय दलों का उदय: भारत में कई क्षेत्रीय दल अस्तित्व में आए हैं, जो स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रहते हैं। उदाहरण— शिवसेना (महाराष्ट्र), टीएमसी (पश्चिम बंगाल), डीएमके (तमिलनाडु), बीजेडी (ओडिशा) आदि।

अलगाववादी आंदोलन: कुछ राज्यों में क्षेत्रीय असंतोष के कारण अलगाववादी आंदोलन भी हुए हैं, जैसे असम में उल्फा, पंजाब में खालिस्तान आंदोलन आदि।

राज्यों की स्वायत्तता की माँग: कुछ राज्य अधिक स्वायत्तता की माँग करते हैं, जिससे केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव उत्पन्न हो सकता है।

3. भारतीय राजनीति में जाति, धर्म और क्षेत्रवाद के प्रभाव के सकारात्मक और नकारात्मक पहलू

(i) सकारात्मक प्रभाव

✔ लोकतंत्र को मजबूत करना: विविध समूहों की भागीदारी से लोकतंत्र को मजबूती मिलती है।

✔ राजनीतिक चेतना: जाति, धर्म और क्षेत्रीय पहचान के कारण लोग राजनीति में अधिक सक्रिय होते हैं।

✔ सामाजिक न्याय: कमजोर वर्गों और पिछड़े समुदायों को आरक्षण और अन्य योजनाओं से लाभ मिलता है।

✔ संविधान के आदर्शों की रक्षा: धर्मनिरपेक्षता, समानता और स्वतंत्रता के संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने में मदद मिलती है।


(ii) नकारात्मक प्रभाव

❌ वोट बैंक की राजनीति: जाति और धर्म के आधार पर चुनाव प्रचार और वोट माँगना लोकतंत्र को कमजोर करता है।

❌ सांप्रदायिकता और हिंसा: कभी-कभी धर्म और जाति के नाम पर सांप्रदायिक दंगे और हिंसा भड़क सकती है।

❌ राजनीतिक विभाजन: क्षेत्रीय राजनीति के कारण राष्ट्रीय एकता को खतरा हो सकता है।

❌ विकास में बाधा: जातिगत और क्षेत्रीय मुद्दों पर अत्यधिक ध्यान देने से विकास से जुड़े मुद्दे पीछे छूट सकते हैं।


निष्कर्ष

भारत की राजनीतिक संस्कृति लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक विविधता और ऐतिहासिक परंपराओं से प्रभावित है। जाति, धर्म और क्षेत्रवाद भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये कारक जहाँ एक ओर लोकतंत्र को सशक्त बनाते हैं, वहीं कभी-कभी सामाजिक विभाजन और राजनीतिक अस्थिरता का कारण भी बन सकते हैं।


राजनीतिक दलों और जनता को चाहिए कि वे लोकतंत्र और विकास को प्राथमिकता दें और जाति, धर्म और क्षेत्रवाद को राष्ट्रीय एकता और समृद्धि के लिए सकारात्मक दिशा में प्रयोग करें। इससे भारतीय लोकतंत्र और मजबूत होगा और देश सामाजिक और आर्थिक प्रगति की ओर बढ़ेगा।





SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS 



01. भारत में राष्ट्रीय दलों की विशेषताओं पर चर्चा करें।




भारत का लोकतंत्र बहुदलीय प्रणाली (Multi-Party System) पर आधारित है, जहाँ राजनीतिक दल लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। राजनीतिक दलों को उनके प्रभाव और कार्यक्षेत्र के आधार पर राष्ट्रीय दल (National Parties) और क्षेत्रीय दल (Regional Parties) में विभाजित किया गया है। राष्ट्रीय दल वे होते हैं जिनका प्रभाव पूरे देश में या कई राज्यों में होता है।


चुनाव आयोग द्वारा किसी दल को राष्ट्रीय दल का दर्जा देने के लिए कुछ मानदंड निर्धारित किए गए हैं। राष्ट्रीय दल न केवल केंद्र की राजनीति में बल्कि राज्यों की राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये दल राष्ट्रीय मुद्दों, नीतियों और कानूनों को प्रभावित करने की शक्ति रखते हैं।


राष्ट्रीय दलों की विशेषताएँ

1. अखिल भारतीय उपस्थिति

राष्ट्रीय दलों का प्रभाव पूरे देश में या कम से कम कई राज्यों में होता है। ये केवल किसी एक क्षेत्र या राज्य तक सीमित नहीं होते, बल्कि विभिन्न प्रदेशों में चुनाव लड़ते हैं और वहाँ सरकार बनाने का प्रयास करते हैं।


2. चुनाव आयोग द्वारा मान्यता

किसी दल को राष्ट्रीय दल का दर्जा प्राप्त करने के लिए उसे निम्नलिखित में से किसी एक शर्त को पूरा करना आवश्यक होता है—


कम से कम चार या अधिक राज्यों में मान्यता प्राप्त राज्य दल होना चाहिए।

लोकसभा चुनावों में कुल वैध मतों का कम से कम 6% प्राप्त करना और कम से कम चार लोकसभा सीटें जीतना।

लोकसभा चुनाव में कम से कम 2% सीटें (यानी 11 सीटें) जीतना, और ये सीटें कम से कम तीन अलग-अलग राज्यों से होनी चाहिए।

3. राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान

राष्ट्रीय दलों का ध्यान केवल किसी एक क्षेत्रीय या स्थानीय मुद्दे तक सीमित नहीं होता, बल्कि ये राष्ट्र स्तर पर आर्थिक, सामाजिक और विदेश नीति जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ये दल केंद्र सरकार की नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।


4. संगठित संरचना और नेतृत्व

राष्ट्रीय दलों की संगठनात्मक संरचना मजबूत होती है। इन दलों के पास केंद्रीय नेतृत्व, विभिन्न राज्यों में इकाइयाँ और स्थानीय स्तर तक पार्टी संगठन होता है। इनका कार्यकाल आदर्श, विचारधारा और संविधान के अनुसार होता है।


5. वैचारिक और नीति-निर्धारण की भूमिका

राष्ट्रीय दल किसी विशेष विचारधारा (Ideology) को अपनाते हैं, जैसे भारतीय जनता पार्टी (BJP) हिंदुत्व और राष्ट्रवाद पर जोर देती है, जबकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद पर आधारित है। ये विचारधाराएँ उनके नीतिगत निर्णयों और चुनावी घोषणापत्रों में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं।


6. संसदीय और विधानसभाओं में भागीदारी

राष्ट्रीय दल न केवल लोकसभा और राज्यसभा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, बल्कि वे विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में भी चुनाव लड़ते हैं और सरकार बनाने की कोशिश करते हैं। इनके प्रतिनिधि संसद और राज्यों की विधानसभाओं में नीति-निर्माण, कानून-निर्माण और प्रशासन में योगदान देते हैं।


7. राष्ट्रीय स्तर पर सरकार बनाने की क्षमता

राष्ट्रीय दल आमतौर पर केंद्र में सरकार बनाने के लिए प्रयासरत रहते हैं। वे अकेले या गठबंधन के माध्यम से सरकार बना सकते हैं। उदाहरण के लिए, बीजेपी ने 2014 और 2019 में बहुमत प्राप्त कर केंद्र में सरकार बनाई, जबकि कांग्रेस इससे पहले कई दशकों तक सत्ता में रही।


8. राष्ट्रीय दलों का गठबंधन (Coalition Politics)

कई बार कोई एक राष्ट्रीय दल अकेले बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता, तो वह अन्य दलों के साथ गठबंधन कर सरकार बनाता है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) दो प्रमुख गठबंधन रहे हैं, जिनमें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल शामिल होते हैं।


9. सामाजिक और आर्थिक सुधारों में योगदान

राष्ट्रीय दल आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय, महिला सशक्तिकरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी नीतियों पर ध्यान देते हैं। उनकी सरकारें विभिन्न कल्याणकारी योजनाएँ लागू करती हैं, जैसे मनरेगा, जनधन योजना, उज्ज्वला योजना, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया आदि।


10. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान

राष्ट्रीय दलों की विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में भी भूमिका होती है। केंद्र में सरकार बनाने वाले दल भारत की वैश्विक छवि, व्यापारिक समझौतों, कूटनीति और सैन्य नीतियों को प्रभावित करते हैं।


निष्कर्ष

राष्ट्रीय दल भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। वे पूरे देश में अपनी विचारधारा और नीतियों का प्रचार-प्रसार करते हैं तथा राष्ट्रीय स्तर पर सरकार बनाने का प्रयास करते हैं। इनकी संगठनात्मक संरचना मजबूत होती है, और ये देश के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालाँकि, कभी-कभी क्षेत्रीय दलों के साथ समन्वय और गठबंधन की राजनीति करना इनकी मजबूरी बन जाती है। फिर भी, राष्ट्रीय दल भारतीय लोकतंत्र को स्थायित्व और दिशा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।








02. जाति और मतदान व्यवहार पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखें।


भारत में जाति (Caste) सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण अंग है और यह राजनीतिक प्रक्रिया, विशेष रूप से मतदान व्यवहार (Voting Behavior) को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विभिन्न राज्यों में जातिगत समीकरण चुनावी परिणामों को प्रभावित करते हैं।


1. जाति आधारित वोट बैंक

भारत में कई राजनीतिक दल जाति-विशेष के समर्थन पर निर्भर करते हैं। यादव, जाट, दलित, ब्राह्मण, राजपूत, मुस्लिम आदि विभिन्न दलों के प्रमुख मतदाता समूह होते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश और बिहार में यादव और मुस्लिम आमतौर पर समाजवादी पार्टी (SP) और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) का समर्थन करते हैं, जबकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनिया समुदाय भारतीय जनता पार्टी (BJP) के समर्थन में रहते हैं।


2. जातिगत संगठन और राजनीति

कई जातीय समूह अपने अधिकारों और प्रतिनिधित्व के लिए संगठित होते हैं, जिससे जातिगत राजनीति को बढ़ावा मिलता है। जातिगत संगठन राजनीतिक दलों पर दबाव डालते हैं कि वे उनकी मांगों को अपने घोषणापत्र में शामिल करें।


3. आरक्षण और मतदान व्यवहार

अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण नीति भी मतदान को प्रभावित करती है। कुछ दल आरक्षण बढ़ाने का समर्थन करते हैं, जिससे वे पिछड़े वर्गों के मतदाताओं को आकर्षित कर पाते हैं।


4. चुनावी रणनीति और जातिगत समीकरण

राजनीतिक दल उम्मीदवारों के चयन में जातिगत समीकरणों का ध्यान रखते हैं। उदाहरण के लिए, किसी विधानसभा क्षेत्र में यदि किसी जाति के मतदाता बहुसंख्यक हैं, तो उसी जाति के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जाता है।


5. जाति और गठबंधन की राजनीति

जातिगत समीकरणों के आधार पर गठबंधन (Coalition Politics) बनते हैं। जैसे, BSP ने दलित-मुस्लिम गठबंधन बनाया, जबकि BJP ने गैर-यादव OBC और सवर्ण जातियों को जोड़ने की रणनीति अपनाई।


6. शहरीकरण और जातिगत प्रभाव में कमी

शहरीकरण, शिक्षा और आर्थिक विकास के कारण जाति का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो रहा है। हाल के चुनावों में विकास, रोजगार, भ्रष्टाचार और सुशासन जैसे मुद्दे जाति से अधिक प्रभावी होते जा रहे हैं।


निष्कर्ष

जाति भारतीय राजनीति और मतदान व्यवहार को गहराई से प्रभावित करती है। हालांकि, बदलते सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में जातिगत राजनीति का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो रहा है और मतदाता अब विकास व शासन से जुड़े मुद्दों पर भी ध्यान देने लगे हैं।








03. राजनीतिक आधुनिकीकरण से आप क्या समझते है?


परिचय

राजनीतिक आधुनिकीकरण (Political Modernization) एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें राजनीतिक व्यवस्था, संरचनाएँ, प्रक्रियाएँ और मूल्यों का विकास एवं परिवर्तन होता है। यह प्रक्रिया लोकतंत्र, जनसहभागिता, संस्थागत विकास और आधुनिक राजनीतिक सिद्धांतों को अपनाने पर आधारित होती है।


राजनीतिक आधुनिकीकरण का अर्थ

राजनीतिक आधुनिकीकरण का अर्थ परंपरागत राजनीतिक व्यवस्था से आधुनिक, लोकतांत्रिक और उत्तरदायी प्रणाली की ओर परिवर्तन से है। इसमें राजनीति का अधिक व्यवस्थित, न्यायसंगत और भागीदारीपरक होना शामिल है। यह प्रक्रिया समाज के बदलते आर्थिक, सामाजिक और तकनीकी परिवर्तनों के अनुरूप राजनीतिक व्यवस्था को ढालने में मदद करती है।


राजनीतिक आधुनिकीकरण की विशेषताएँ

लोकतंत्रीकरण (Democratization)


लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव

जनसहभागिता में वृद्धि

संस्थागत विकास (Institutional Development)


मजबूत संविधान और कानून व्यवस्था

स्वतंत्र न्यायपालिका और कार्यपालिका

विकेंद्रीकरण और स्थानीय शासन का विकास

धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक समानता


धर्म और राजनीति का अलगाव

जाति, वर्ग और लिंग आधारित भेदभाव का कम होना

राजनीतिक सहभागिता (Political Participation)


नागरिकों की बढ़ती राजनीतिक जागरूकता

विभिन्न समूहों और संगठनों की सक्रिय भूमिका

तकनीकी और संचार माध्यमों का प्रयोग


डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रभाव

ऑनलाइन मतदान और ई-गवर्नेंस का विकास

राजनीतिक आधुनिकीकरण के प्रमुख सिद्धांत

सेमुअल पी. हंटिंगटन (Samuel P. Huntington) के अनुसार, राजनीतिक आधुनिकीकरण तभी संभव है जब समाज में राजनीतिक भागीदारी और संस्थागत स्थिरता के बीच संतुलन बना रहे।

गैब्रियल आलमोंड (Gabriel Almond) और सिडनी वर्बा (Sidney Verba) ने इसे राजनीतिक संस्कृति से जोड़ा और कहा कि आधुनिक राजनीति में सहभागिता का स्तर बढ़ना चाहिए।

भारत में राजनीतिक आधुनिकीकरण

स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था का विकास

संविधान के माध्यम से समानता और अधिकारों की गारंटी

स्थानीय स्वशासन (पंचायती राज) का विस्तार

डिजिटल इंडिया, ई-गवर्नेंस और चुनाव सुधारों का क्रियान्वयन

निष्कर्ष

राजनीतिक आधुनिकीकरण एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जो लोकतंत्र, समानता और उत्तरदायी शासन को मजबूत करती है। यह समाज को परंपरागत राजनीतिक ढाँचे से निकालकर एक अधिक समावेशी और उत्तरदायी व्यवस्था की ओर ले जाता है।










04. भारत में राजनीतिक संस्कृति के विविध पक्षों की विवेचना कीजिये।


परिचय

राजनीतिक संस्कृति (Political Culture) किसी समाज की राजनीतिक धारणाओं, मूल्यों, विश्वासों और व्यवहारों का सम्मिश्रण होती है। यह इस बात को दर्शाती है कि नागरिक राजनीति और शासन व्यवस्था के प्रति किस प्रकार प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। भारत में राजनीतिक संस्कृति विविधताओं से भरी हुई है, क्योंकि यहाँ विभिन्न जातियाँ, धर्म, भाषाएँ और क्षेत्रीय पहचानें मौजूद हैं।


भारत में राजनीतिक संस्कृति के विविध पक्ष

1. सहभागी (Participant) राजनीतिक संस्कृति

इसमें नागरिक राजनीतिक प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं, जैसे मतदान करना, राजनीतिक बहस में हिस्सा लेना और आंदोलनों का समर्थन करना।

भारत में स्वतंत्रता संग्राम, 1975 का आपातकाल विरोध, अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जैसी घटनाएँ इस संस्कृति का उदाहरण हैं।

2. अधीनस्थ (Subject) राजनीतिक संस्कृति

इसमें नागरिक राजनीति से जुड़े रहते हैं लेकिन वे सक्रिय रूप से सत्ता परिवर्तन में भाग नहीं लेते।

वे सरकार की नीतियों को स्वीकार करते हैं लेकिन बदलाव के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं करते।

भारत में अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र अभी भी इस संस्कृति से प्रभावित हैं, जहाँ लोग सरकार की नीतियों को सहर्ष स्वीकारते हैं।

3. परंपरागत और आधुनिक संस्कृति का मिश्रण

भारत में कई स्थानों पर परंपरागत राजनीतिक मूल्य (जाति, धर्म, वंशवाद) और आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्य (विकास, सुशासन, पारदर्शिता) साथ-साथ चलते हैं।

कई बार राजनीतिक दल जाति और धर्म के आधार पर वोट माँगते हैं, जबकि कुछ दल विकास और भ्रष्टाचार मुक्त शासन पर ज़ोर देते हैं।

4. जातिगत राजनीतिक संस्कृति

जाति भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

कई राज्यों में जाति विशेष की ओर झुकाव रखने वाली पार्टियाँ चुनाव में प्रभावी होती हैं, जैसे उत्तर प्रदेश में यादव, दलित, ब्राह्मण, बिहार में भूमिहार, कुर्मी, पासवान, राजस्थान में राजपूत, जाट, आदि।

जातिगत समीकरण चुनावों को प्रभावित करते हैं और इससे वोट बैंक राजनीति को बढ़ावा मिलता है।

5. धर्म आधारित राजनीतिक संस्कृति

धर्म और राजनीति का संबंध भारत में गहरा रहा है।

कुछ पार्टियाँ धर्म विशेष के हितों को प्राथमिकता देती हैं, जिससे सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा मिलता है।

उदाहरण के लिए, हिन्दुत्व, मुस्लिम पर्सनल लॉ, धार्मिक आधार पर आरक्षण जैसे मुद्दे समय-समय पर राजनीति को प्रभावित करते हैं।

6. क्षेत्रवाद और भाषाई राजनीति

भारत में क्षेत्रीय पहचान और भाषाई राजनीति भी राजनीतिक संस्कृति का एक प्रमुख पहलू है।


कई राज्य अपनी संस्कृति, भाषा और स्थानीय हितों की रक्षा के लिए अलग राजनीतिक दल बनाते हैं, जैसे शिवसेना (महाराष्ट्र), डीएमके और एआईएडीएमके (तमिलनाडु), तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) आदि।


क्षेत्रीय पार्टियाँ अपने राज्यों के लिए अधिक वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता की माँग करती हैं।


7. वंशवादी राजनीति (Dynastic Politics)


भारत में कई राजनीतिक दलों में वंशवाद हावी है, जहाँ राजनीतिक परिवारों के सदस्य सत्ता पर काबिज रहते हैं।


उदाहरण: कांग्रेस (नेहरू-गांधी परिवार), समाजवादी पार्टी (यादव परिवार), डीएमके (करुणानिधि परिवार), शिवसेना (ठाकरे परिवार) आदि।


इससे लोकतंत्र में पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा कम होती है, लेकिन कई मतदाता अभी भी इसे स्वीकार करते हैं।


8. विकास और सुशासन पर आधारित राजनीतिक संस्कृति


हाल के वर्षों में भारत में एक नई राजनीतिक संस्कृति उभर रही है, जहाँ मतदाता जाति, धर्म और क्षेत्र से ऊपर उठकर विकास, सुशासन और पारदर्शिता को महत्व देने लगे हैं।


मोदी सरकार की "सबका साथ, सबका विकास" नीति, दिल्ली में आम आदमी पार्टी की भ्रष्टाचार विरोधी राजनीति इस प्रवृत्ति के उदाहरण हैं।


डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, मेक इन इंडिया जैसी योजनाएँ आधुनिक राजनीतिक संस्कृति को बढ़ावा देती हैं।


9. आंदोलन और विरोध प्रदर्शन की संस्कृति


भारत में आंदोलन और विरोध प्रदर्शन भी राजनीतिक संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।


चिपको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, किसान आंदोलन, महिला अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन आदि जनता की राजनीतिक भागीदारी को दर्शाते हैं।


सोशल मीडिया ने अब विरोध प्रदर्शनों को डिजिटल आंदोलन में बदल दिया है, जिससे सरकारें जनता की आवाज़ को अनदेखा नहीं कर सकतीं।


निष्कर्ष


भारत की राजनीतिक संस्कृति विविधता से भरी हुई है, जिसमें परंपरागत और आधुनिक तत्व मिलकर कार्य करते हैं। जाति, धर्म, क्षेत्रवाद, वंशवाद जैसे कारक अभी भी प्रभावी हैं, लेकिन अब लोग विकास, सुशासन और पारदर्शिता को भी प्राथमिकता देने लगे हैं। लोकतांत्रिक जागरूकता बढ़ने से भारत की राजनीतिक संस्कृति धीरे-धीरे और अधिक सहभागितापूर्ण तथा उत्तरदायी बन रही है।



05. भारत में धर्मनिरपेक्षता की क्या चुनौतियों हैं?



भारत में धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियाँ


परिचय


धर्मनिरपेक्षता (Secularism) का अर्थ है कि राज्य सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहेगा और किसी एक धर्म को विशेष महत्व नहीं देगा। भारत का संविधान भी धर्मनिरपेक्षता को अपनाता है और सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। हालाँकि, व्यावहारिक रूप में भारत में धर्मनिरपेक्षता को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।


भारत में धर्मनिरपेक्षता की प्रमुख चुनौतियाँ


1. सांप्रदायिकता (Communalism)


भारत में सांप्रदायिकता एक गंभीर समस्या है, जहाँ धर्म के नाम पर समाज को विभाजित किया जाता है।


हिंदू-मुस्लिम दंगे, सिख विरोधी दंगे, ईसाई मिशनरियों के खिलाफ हिंसा आदि धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करते हैं।


राजनीतिक दल भी सांप्रदायिकता का उपयोग अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए करते हैं।


2. राजनीतिक दलों की तुष्टिकरण नीति (Appeasement Politics)


कुछ राजनीतिक दल विशेष समुदायों को खुश करने के लिए नीतियाँ बनाते हैं, जिससे अन्य समुदायों में असंतोष फैलता है।


उदाहरण के लिए, अल्पसंख्यकों के लिए विशेष योजनाएँ या धार्मिक मामलों में विशेष हस्तक्षेप।


इससे धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना कमजोर होती है और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण (Polarization) बढ़ता है।


3. धर्म आधारित आरक्षण और विशेषाधिकार


भारत में धार्मिक आधार पर आरक्षण और विशेष सुविधाओं की माँग बढ़ रही है।


उदाहरण: मुस्लिम समुदाय के लिए विशेष आरक्षण, धार्मिक अल्पसंख्यकों को विशेष लाभ।


इससे समाज में असमानता बढ़ती है और अन्य वर्गों में असंतोष उत्पन्न होता है।


4. मंदिर-मस्जिद विवाद और धार्मिक स्थल संरक्षण


धार्मिक स्थलों से जुड़े विवाद, जैसे अयोध्या विवाद, ज्ञानवापी मस्जिद मुद्दा, मथुरा-काशी विवाद, आदि धर्मनिरपेक्षता के लिए बड़ी चुनौती हैं।


जब सरकारें इन मामलों में हस्तक्षेप करती हैं, तो उन पर पक्षपात के आरोप लगते हैं।


5. धर्मांतरण (Religious Conversion) का विवाद


जबरन या लालच देकर धर्म परिवर्तन (Conversion) कराना एक संवेदनशील मुद्दा है।


"घर वापसी" अभियान, लव जिहाद, ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मांतरण जैसे विषय विवाद उत्पन्न करते हैं।


इससे धार्मिक समुदायों में तनाव पैदा होता है और धर्मनिरपेक्षता को नुकसान पहुँचता है।


6. धार्मिक चरमपंथ और आतंकवाद


कुछ धार्मिक संगठनों और कट्टरपंथी समूहों द्वारा हिंसा फैलाना धर्मनिरपेक्षता के लिए बड़ी चुनौती है।


भारत को आतंकी हमले, मॉब लिंचिंग, उग्रवादी संगठनों जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।


इससे विभिन्न धर्मों के बीच अविश्वास बढ़ता है और धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था प्रभावित होती है।


7. धर्म और शिक्षा का संबंध


कुछ संस्थाएँ धार्मिक शिक्षा को प्राथमिकता देती हैं और आधुनिक शिक्षा से दूरी बनाए रखती हैं।


मदरसों और अन्य धार्मिक संस्थानों में मुख्यधारा की शिक्षा को शामिल करने का मुद्दा विवादित रहा है।


8. सोशल मीडिया और फेक न्यूज का प्रभाव


सोशल मीडिया के माध्यम से धार्मिक अफवाहें और फेक न्यूज तेजी से फैलती हैं।


इससे सांप्रदायिक दंगे और धार्मिक कट्टरता बढ़ती है।


9. समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) की बहस


भारत में सभी धर्मों के लिए समान कानून लागू करने की माँग उठती रही है, लेकिन यह संवेदनशील मुद्दा बना हुआ है।


शादी, तलाक, उत्तराधिकार, बहुविवाह जैसे मामलों में अलग-अलग धार्मिक कानून लागू होने से विवाद बढ़ता है।


10. धर्म और सरकारी नीतियों का टकराव


कई बार धार्मिक परंपराएँ और सरकारी नीतियाँ आपस में टकरा जाती हैं, जिससे विवाद उत्पन्न होता है।


उदाहरण: तीन तलाक पर प्रतिबंध, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश, हलाला और बहुविवाह पर बहस।


निष्कर्ष


भारत में धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, क्योंकि यहाँ विभिन्न धर्मों, समुदायों और परंपराओं का मिश्रण है। हालाँकि, संविधान, न्यायपालिका और जागरूक नागरिकों की भूमिका इसे मजबूत करने में सहायक हो सकती है। धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए जरूरी है कि सांप्रदायिकता, तुष्टिकरण और कट्टरता से बचते हुए सभी धर्मों को समान अधिकार और स्वतंत्रता दी जाए।



06. जाति व्यवस्था के गुण और दोष क्या हैं?



परिचय


जाति व्यवस्था (Caste System) भारत की सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण पहलू रही है। यह एक वर्णाश्रमी व्यवस्था के रूप में शुरू हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे विरासत में मिलने वाली जन्म आधारित व्यवस्था बन गई। इसका समाज पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़ा है।


जाति व्यवस्था के गुण (Merits of Caste System)


1. कार्य विभाजन (Division of Labor)


जाति व्यवस्था के अंतर्गत हर जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता था, जिससे समाज में कार्यों का बंटवारा सुनिश्चित होता था।


इससे सामाजिक और आर्थिक स्थिरता बनी रहती थी।


2. सामाजिक पहचान और सामूहिकता


जाति व्यक्ति को सामाजिक पहचान और सुरक्षा प्रदान करती है।


जातीय समुदायों के बीच एकजुटता और पारस्परिक सहयोग बना रहता है।


3. परंपराओं और संस्कृति का संरक्षण


जाति व्यवस्था ने धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं को संरक्षित रखने में योगदान दिया है।


विशेष रूप से कला, संगीत, शिल्प और व्यावसायिक ज्ञान को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित रखा गया।


4. नैतिक अनुशासन और सामाजिक नियंत्रण


जाति व्यवस्था ने लोगों के जीवन को एक नैतिक ढाँचे में ढाला, जिससे सामाजिक अनुशासन बना रहा।


विवाह, खान-पान और सामाजिक व्यवहार के नियम समाज में अनुशासन बनाए रखने में सहायक रहे।


5. आत्मनिर्भरता और पेशागत स्थिरता


जाति आधारित पेशों ने लोगों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया।


समाज के हर वर्ग की आर्थिक स्थिति सुनिश्चित करने में जाति व्यवस्था ने योगदान दिया।


जाति व्यवस्था के दोष (Demerits of Caste System)


1. सामाजिक असमानता और भेदभाव


जाति व्यवस्था ने समाज को उच्च और निम्न वर्गों में बाँट दिया।


निचली जातियों को शिक्षा, रोजगार और धार्मिक अधिकारों से वंचित रखा गया।


2. छुआछूत और जातिगत शोषण


जातिवाद ने छुआछूत और भेदभाव को जन्म दिया।


निम्न जातियों को अस्पृश्यता, सामाजिक बहिष्कार और अत्याचार का सामना करना पड़ा।


3. योग्यता की उपेक्षा (Neglect of Meritocracy)


जाति व्यवस्था ने व्यक्ति की योग्यता और प्रतिभा की अनदेखी की।


जन्म के आधार पर कार्य तय होने से कई प्रतिभाशाली व्यक्तियों को अपने इच्छित कार्य करने का अवसर नहीं मिला।


4. राष्ट्र की एकता में बाधा


जाति आधारित राजनीति और संघर्षों ने सामाजिक विभाजन को बढ़ावा दिया।


यह भारत की राष्ट्रीय एकता और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए बाधा बना।


5. सामाजिक गतिशीलता में बाधा


जाति आधारित पेशों ने लोगों की सामाजिक उन्नति (Social Mobility) को सीमित कर दिया।


निम्न जातियों के लोगों को ऊँचे पदों पर जाने के अवसर नहीं मिले।


6. अंतरजातीय विवाह पर प्रतिबंध


जाति व्यवस्था ने अंतरजातीय विवाह को हतोत्साहित किया, जिससे समाज में सामाजिक समरसता नहीं पनप सकी।


आज भी कई परिवार अंतरजातीय विवाह को स्वीकार नहीं करते।


7. जाति आधारित राजनीति और आरक्षण विवाद


जाति व्यवस्था ने जातिगत राजनीति को जन्म दिया, जिससे वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा मिला।


आरक्षण नीति पर जातिगत विवाद होते रहे हैं, जिससे समाज में असंतोष और टकराव बढ़ा है।


निष्कर्ष


जाति व्यवस्था के कुछ सकारात्मक पक्ष रहे हैं, लेकिन इसके नकारात्मक प्रभाव अधिक गहरे और व्यापक रहे हैं। आधुनिक समाज में जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने और समानता, स्वतंत्रता और अवसरों की उपलब्धता सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। भारतीय संविधान ने जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए कई प्रावधान किए हैं, जिससे समाज को अधिक समावेशी और प्रगतिशील बनाया जा सके।




07. धर्मनिरपेक्षता के लाभ बताइये।





परिचय


धर्मनिरपेक्षता (Secularism) का अर्थ है कि राज्य सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहेगा और किसी एक धर्म को विशेष महत्व नहीं देगा। भारतीय संविधान ने धर्मनिरपेक्षता को अपनाया है, जिससे सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता मिल सके और समाज में समरसता बनी रहे। धर्मनिरपेक्षता समाज में सहिष्णुता, समानता और लोकतंत्र को बढ़ावा देती है।


धर्मनिरपेक्षता के प्रमुख लाभ


1. धार्मिक स्वतंत्रता (Religious Freedom)


धर्मनिरपेक्षता सभी व्यक्तियों को अपने धर्म को मानने, उसका पालन करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता देती है।


इससे कोई भी व्यक्ति बिना किसी बाधा के अपने धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन कर सकता है।


2. सांप्रदायिक सौहार्द (Communal Harmony)


धर्मनिरपेक्षता से धार्मिक सहिष्णुता और भाईचारा बढ़ता है।


इससे विभिन्न धर्मों के लोग आपसी सौहार्द और शांति के साथ रहते हैं।


3. समानता और न्याय (Equality and Justice)


धर्मनिरपेक्षता के तहत सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त होते हैं।


सरकार किसी भी धर्म के प्रति पक्षपात नहीं करती और सभी नागरिकों को समान अवसर देती है।


4. लोकतंत्र को मजबूत बनाना (Strengthening Democracy)


धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र के मूल्यों जैसे समानता, स्वतंत्रता और न्याय को मजबूत करती है।


इससे देश में कोई धर्म विशेष शासन पर हावी नहीं होता और सभी को समान अधिकार मिलते हैं।


5. सामाजिक एकता और राष्ट्र की अखंडता (Social Unity and National Integrity)


धर्मनिरपेक्षता समाज को धार्मिक आधार पर विभाजन से बचाती है और राष्ट्रीय एकता को बनाए रखती है।


इससे देश की संवैधानिक व्यवस्था और बहुसांस्कृतिक समाज मजबूत बनता है।


6. धार्मिक भेदभाव से बचाव (Protection from Religious Discrimination)


धर्मनिरपेक्षता से कोई भी व्यक्ति धार्मिक कारणों से भेदभाव या उत्पीड़न का शिकार नहीं होता।


इससे धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी समान अधिकार मिलते हैं और वे अपने धर्म का पालन स्वतंत्र रूप से कर सकते हैं।


7. वैज्ञानिक सोच और प्रगति (Scientific Temper and Progress)


धर्मनिरपेक्ष समाज में तर्कसंगत सोच, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आधुनिकता को बढ़ावा मिलता है।


इससे अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और कट्टरता को कम किया जा सकता है।


8. राजनीति में धर्म का दखल कम करना (Reducing Religious Influence in Politics)


धर्मनिरपेक्षता राजनीति में धर्म के अनुचित प्रयोग को रोकती है।


इससे सरकारें जनहित और विकास कार्यों पर ध्यान केंद्रित कर पाती हैं, न कि धार्मिक आधार पर फैसले लेती हैं।


निष्कर्ष


धर्मनिरपेक्षता एक लोकतांत्रिक, समावेशी और प्रगतिशील समाज के निर्माण में सहायक होती है। इससे सभी धर्मों का सम्मान बना रहता है, सांप्रदायिक संघर्ष कम होते हैं, और देश की एकता मजबूत होती है। भारत में धर्मनिरपेक्षता का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि यहाँ विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं। इसे बनाए रखना सभी नागरिकों की जिम्मेदारी है।




08. राष्ट्रीय एकता को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक कौन-कौन से हैं?




परिचय


राष्ट्रीय एकता (National Unity) किसी भी देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए आवश्यक होती है। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीय विविधता होने के बावजूद राष्ट्रीय एकता बनाए रखना एक चुनौती है। कई कारक ऐसे हैं जो भारत की राष्ट्रीय एकता को प्रभावित करते हैं और सामाजिक समरसता में बाधा डालते हैं।


राष्ट्रीय एकता को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक


1. सांप्रदायिकता (Communalism)


धर्म के नाम पर समाज का विभाजन राष्ट्रीय एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।


सांप्रदायिक दंगे, धार्मिक कट्टरता और धर्म आधारित राजनीति राष्ट्रीय एकता को कमजोर करते हैं।


2. जातिवाद (Casteism)


जाति आधारित भेदभाव और ऊँच-नीच की भावना से समाज में विभाजन पैदा होता है।


जातिगत राजनीति, आरक्षण विवाद और सामाजिक बहिष्कार राष्ट्रीय एकता को प्रभावित करते हैं।


3. क्षेत्रीयता और अलगाववाद (Regionalism and Separatism)


कुछ क्षेत्रीय संगठन अपने राज्य या क्षेत्र के लिए विशेष दर्जे या अलगाव की माँग करते हैं।


उदाहरण: कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन, पूर्वोत्तर भारत में विद्रोही गुटों की माँग, महाराष्ट्र में बाहरी लोगों के खिलाफ अभियान।


क्षेत्रीय असंतोष राष्ट्रीय एकता के लिए गंभीर चुनौती बन सकता है।


4. भाषायी विवाद (Linguistic Conflicts)


भारत में 22 आधिकारिक भाषाएँ हैं और कई बार भाषा के आधार पर विवाद उत्पन्न होते हैं।


हिंदी बनाम क्षेत्रीय भाषाओं का मुद्दा, राज्यों के बीच भाषाई संघर्ष, और सरकारी कामकाज में भाषा को लेकर असहमति राष्ट्रीय एकता को प्रभावित करती है।


5. आर्थिक असमानता (Economic Inequality)


अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई, बेरोजगारी और संसाधनों का असमान वितरण राष्ट्रीय एकता को कमजोर करता है।


विकसित राज्यों (जैसे महाराष्ट्र, गुजरात) और पिछड़े राज्यों (जैसे बिहार, ओडिशा) के बीच आर्थिक असंतुलन भी एक चुनौती है।


6. भ्रष्टाचार (Corruption)


भ्रष्टाचार से जनता का सरकार और प्रशासन पर से विश्वास कम होता है।


इससे कानून-व्यवस्था कमजोर होती है और राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुँचता है।


7. आतंकवाद और उग्रवाद (Terrorism and Extremism)


आतंकवादी संगठन देश की एकता को कमजोर करने के लिए हिंसा और अलगाववाद को बढ़ावा देते हैं।


उदाहरण: जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद, नक्सलवाद, और पूर्वोत्तर भारत में उग्रवादी गतिविधियाँ।


इससे समाज में डर और अविश्वास फैलता है, जो राष्ट्रीय एकता के लिए गंभीर खतरा है।


8. राजनीतिक अस्थिरता (Political Instability)


जब सरकारें बार-बार बदलती हैं या राजनीतिक दल साम्प्रदायिक और जातिगत राजनीति करते हैं, तो राष्ट्रीय एकता प्रभावित होती है।


सरकारों द्वारा तुष्टिकरण की नीति अपनाना और राजनीतिक दलों द्वारा समाज को बाँटने की रणनीति देश की अखंडता के लिए खतरनाक होती है।


9. विदेशी हस्तक्षेप (Foreign Interference)


कुछ देशों द्वारा भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप और आतंकवाद को समर्थन देना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन सकता है।


सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से फर्जी खबरें और भड़काऊ सामग्री फैलाकर सामाजिक सद्भाव को नुकसान पहुँचाया जाता है।


10. सामाजिक असहिष्णुता (Social Intolerance)


विभिन्न समुदायों, विचारधाराओं और संस्कृतियों के प्रति असहिष्णुता से सामाजिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकता कमजोर होती है।


धार्मिक कट्टरता, जातिगत भेदभाव और सामाजिक तनाव से समाज में विभाजन बढ़ता है।


निष्कर्ष


राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषाई विवाद और आर्थिक असमानता जैसी चुनौतियों का समाधान किया जाए। सरकार, समाज और नागरिकों को मिलकर सहिष्णुता, समानता, और लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करना होगा ताकि भारत की एकता और अखंडता बनी रहे।