GEZO SOLVED PAPER 2024 JUNE
01. कितने रेशे से DNA डबल हेलिक्स बनता है?
DNA डबल हेलिक्स दो रेशों (strands) से मिलकर बना होता है। ये दोनों रेशे न्यूक्लियोटाइड के अनुक्रम से बने होते हैं और हाइड्रोजन बांड के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।
DNA डबल हेलिक्स की संरचना:
दो पूरक रेशे (Complementary Strands): DNA में दो रेशे होते हैं जो एक-दूसरे के पूरक होते हैं। एक रेशा 5' से 3' दिशा में और दूसरा 3' से 5' दिशा में होता है।
नाइट्रोजनी बेस जोड़े (Base Pairing): एडेनिन (A) थायमिन (T) के साथ और ग्वानिन (G) साइटोसिन (C) के साथ हाइड्रोजन बांड बनाकर जुड़े होते हैं।
डबल हेलिक्स संरचना: ये दोनों रेशे एक सर्पिल (helix) के रूप में मुड़े होते हैं, जिसे जेम्स वाटसन और फ्रांसिस क्रिक ने 1953 में खोजा था।
इस प्रकार, DNA डबल हेलिक्स दो रेशों से मिलकर बना होता है।
02. अर्धसूत्री विभाजन प्रथम के विभिन्न चरणों का वर्णन करें? प्रत्येक चरण के दौरान गुणसूत्रीय घटनाओं का उल्लेख करें।
अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis) वह प्रक्रिया है जिसमें एक कोशिका दो बार विभाजित होकर चार संतति कोशिकाएँ बनाती है, जिनमें प्रत्येक में मूल कोशिका के आधे गुणसूत्र होते हैं। इसका पहला चरण अर्धसूत्री विभाजन प्रथम (Meiosis-I) कहलाता है, जिसमें गुणसूत्रों की संख्या आधी हो जाती है। इसे चार चरणों में बाँटा जाता है:
1. प्रोफेज-I (Prophase-I)
यह सबसे लंबा और जटिल चरण होता है, जिसे पाँच उप-चरणों में विभाजित किया जाता है:
(i) लैप्टोटीन (Leptotene):
गुणसूत्र पतले धागों के रूप में दिखाई देने लगते हैं।
प्रत्येक गुणसूत्र में दो बहन क्रोमैटिड होते हैं।
(ii) ज़ीगोटीन (Zygotene):
समरूपी (homologous) गुणसूत्र जोड़े बनने लगते हैं, जिसे सिनैप्सिस (synapsis) कहते हैं।
यह जोड़े सिनैपटोनिमल कॉम्प्लेक्स के द्वारा जुड़े रहते हैं।
(iii) पैकिटीन (Pachytene):
क्रॉसिंग ओवर (crossing over) की प्रक्रिया होती है, जिसमें गैर-बहन क्रोमैटिड के बीच आनुवंशिक सामग्री का आदान-प्रदान होता है।
इससे आनुवंशिक विविधता उत्पन्न होती है।
(iv) डिप्लोटीन (Diplotene):
सिनैपटोनिमल कॉम्प्लेक्स टूटने लगता है।
क्रॉसिंग ओवर के कारण गुणसूत्र आपस में चियाज़्माटा (Chiasmata) के माध्यम से जुड़े रहते हैं।
(v) डायकिनेसिस (Diakinesis):
गुणसूत्र अधिक संघनित (condensed) हो जाते हैं।
न्यूक्लियर मेंब्रेन और न्यूक्लियोलस विघटित हो जाते हैं।
2. मेटाफेज-I (Metaphase-I)
समरूपी गुणसूत्र जोड़े (bivalents) कोशिका के मध्य भाग (equatorial plane) पर व्यवस्थित होते हैं।
गुणसूत्रों को किनेटोकोर माइक्रोट्यूब्यूल खींचते हैं।
प्रत्येक समरूपी गुणसूत्र जोड़ा विपरीत ध्रुवों की ओर उन्मुख होता है।
3. एनाफेज-I (Anaphase-I)
समरूपी गुणसूत्रों (homologous chromosomes) को स्पिंडल तंतु विपरीत ध्रुवों की ओर खींच लेते हैं।
बहन क्रोमैटिड जुड़े रहते हैं, लेकिन समरूपी गुणसूत्र अलग हो जाते हैं।
यहाँ गुणसूत्रों की संख्या आधी हो जाती है (haploid set बनता है)।
4. टेलोफेज-I (Telophase-I)
गुणसूत्र प्रत्येक ध्रुव पर पहुँच जाते हैं और न्यूक्लियर मेंब्रेन पुनः बनने लगता है।
इसके बाद साइटोप्लाज्म विभाजन (cytokinesis) होता है, जिससे दो संतति कोशिकाएँ बनती हैं।
प्रत्येक नई कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या मूल कोशिका से आधी होती है।
निष्कर्ष:
अर्धसूत्री विभाजन प्रथम में समरूपी गुणसूत्रों का अलगाव (segregation of homologous chromosomes) होता है, जिससे संतति कोशिकाएँ हैप्लॉइड (n) बनती हैं। यह आनुवंशिक विविधता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
03. प्राणीशास्त्रीय नामकरण की अंतर्राष्ट्रीय संहिता की व्याख्या करें।
परिचय:
प्राणीशास्त्रीय नामकरण की अंतर्राष्ट्रीय संहिता (ICZN) वह नियमावली है, जो जीवों (प्राणियों) के वैज्ञानिक नामकरण (Zoological Nomenclature) को नियमित और मानकीकृत करती है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक जीव का केवल एक मान्यता प्राप्त नाम हो, जिससे वैज्ञानिक संचार में स्पष्टता बनी रहे।
ICZN की प्रमुख विशेषताएँ:
1. द्विपद नामकरण प्रणाली (Binomial Nomenclature)
प्रत्येक प्राणी का वैज्ञानिक नाम दो शब्दों से मिलकर बनता है:
जाति (Genus) – पहला शब्द, जो प्राणी के वंश (Genus) को दर्शाता है और हमेशा अंडरलाइन या इटैलिक में लिखा जाता है।
प्रजाति (Species) – दूसरा शब्द, जो विशेष जीव को दर्शाता है और हमेशा छोटे अक्षरों में लिखा जाता है।
उदाहरण: Panthera leo (सिंह), Homo sapiens (मनुष्य)
2. सार्वभौमिकता (Universality)
सभी वैज्ञानिक नाम पूरी दुनिया में समान होते हैं और लैटिन या ग्रीक भाषा में होते हैं।
यह संहिता अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य होती है, जिससे वैज्ञानिक भ्रम की स्थिति न बने।
3. वरीयता का नियम (Law of Priority)
यदि किसी जीव के लिए दो या अधिक नाम प्रचलन में हैं, तो सबसे पहले प्रकाशित नाम को प्राथमिकता दी जाती है।
बाद में दिए गए नामों को अमान्य (Synonym) घोषित कर दिया जाता है।
4. नामकरण प्राधिकरण (Authority of Naming)
किसी भी नए प्राणी के नामकरण के लिए वैज्ञानिक को उसके वर्गीकरण, पहचान और प्रकाशन से संबंधित मान्य अनुसंधान पत्र प्रकाशित करना आवश्यक होता है।
5. प्रजाति समूह, वंश समूह और कुल समूह (Species, Genus & Family Groups)
ICZN के अनुसार, जीवों के नामकरण को तीन स्तरों पर व्यवस्थित किया जाता है:
प्रजाति समूह (Species-group) – प्रजाति और उप-प्रजाति (species & subspecies)
वंश समूह (Genus-group) – वंश और उपवंश (genus & subgenus)
कुल समूह (Family-group) – कुल (family), उपकुल (subfamily), गण (order), वर्ग (class) आदि।
6. नामों में परिवर्तन और संरक्षण (Amendments & Conservation of Names)
यदि कोई नाम वैज्ञानिक दृष्टि से गलत या भ्रमित करने वाला हो, तो इसे बदला जा सकता है।
कुछ ऐतिहासिक या व्यापक रूप से स्वीकृत नामों को विशेष परिस्थितियों में संरक्षित किया जा सकता है।
ICZN के अनुप्रयोग का महत्व
वैज्ञानिक नामकरण की एकरूपता बनाए रखना।
जीवों की पहचान और वर्गीकरण में सहायता करना।
जैव विविधता के अध्ययन और संरक्षण में योगदान देना।
निष्कर्ष:
ICZN जीवों के नामकरण को एकरूपता, स्थिरता और वैश्विक स्वीकृति प्रदान करने वाला महत्वपूर्ण नियम है। इसके नियम वैज्ञानिक संचार को स्पष्ट और व्यवस्थित रखते हैं, जिससे प्राणियों के अध्ययन और संरक्षण में सहायता मिलती है।
04. पर्यावरण प्रदूषण और प्रबंधन, बायोडिग्रेडेबल और गैर-बायोडिग्रेडेबल प्रदूषकों का वर्णन करें।
पर्यावरण प्रदूषण (Environmental Pollution)
जब प्राकृतिक संतुलन को हानि पहुँचाने वाले अवांछनीय पदार्थ (जैसे रसायन, धुआं, प्लास्टिक, विषाक्त गैसें आदि) पर्यावरण में मिलते हैं, तो इसे पर्यावरण प्रदूषण कहा जाता है। यह वायु, जल, मृदा और ध्वनि के माध्यम से संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है।
पर्यावरण प्रबंधन (Environmental Management)
पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने और प्राकृतिक संसाधनों का सतत उपयोग सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न नीतियाँ और विधियाँ अपनाई जाती हैं, जिन्हें पर्यावरण प्रबंधन कहा जाता है।
पर्यावरण प्रबंधन के प्रमुख उपाय:
प्रदूषकों का नियंत्रण: उद्योगों में फिल्टर और स्क्रबर लगाना, प्लास्टिक के उपयोग को कम करना।
नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग: सौर, पवन और जल ऊर्जा को बढ़ावा देना।
अपशिष्ट प्रबंधन: रीसाइक्लिंग (Recycling) और कचरे का पृथक्करण (Waste Segregation)।
वृक्षारोपण और हरित क्षेत्र का विस्तार।
सख्त पर्यावरणीय कानूनों का पालन।
बायोडिग्रेडेबल और गैर-बायोडिग्रेडेबल प्रदूषक (Biodegradable & Non-Biodegradable Pollutants)
1. बायोडिग्रेडेबल प्रदूषक (Biodegradable Pollutants)
वे प्रदूषक जो सूक्ष्मजीवों (Microorganisms) द्वारा प्राकृतिक रूप से विघटित (Decompose) किए जा सकते हैं, बायोडिग्रेडेबल प्रदूषक कहलाते हैं। ये आमतौर पर पर्यावरण के लिए कम हानिकारक होते हैं।
उदाहरण:
प्राकृतिक कचरा: पत्तियाँ, कागज, लकड़ी, खाद्य अपशिष्ट।
पशु एवं वनस्पति अपशिष्ट: गोबर, हड्डियाँ, फलों और सब्जियों के छिलके।
जैविक पदार्थ: कपास, ऊन, चमड़ा, खाद आदि।
प्रभाव और प्रबंधन:
इनका उचित अपशिष्ट प्रबंधन किया जाए तो ये खाद (Compost) बन सकते हैं।
जल और मृदा को ज्यादा हानि नहीं पहुँचाते।
2. गैर-बायोडिग्रेडेबल प्रदूषक (Non-Biodegradable Pollutants)
वे प्रदूषक जो प्राकृतिक रूप से विघटित नहीं होते और पर्यावरण में लंबे समय तक बने रहते हैं, गैर-बायोडिग्रेडेबल प्रदूषक कहलाते हैं। ये अत्यधिक हानिकारक होते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र में गंभीर असंतुलन उत्पन्न कर सकते हैं।
उदाहरण:
प्लास्टिक और पॉलिथीन (Plastic & Polythene)
कांच और धातु (Glass & Metals)
इलेक्ट्रॉनिक कचरा (E-waste): कंप्यूटर, मोबाइल बैटरी।
रासायनिक कचरा: कीटनाशक, पेंट, भारी धातुएँ (सीसा, पारा)।
प्रभाव और प्रबंधन:
लंबे समय तक पर्यावरण में बने रहते हैं, जिससे मृदा और जल प्रदूषण बढ़ता है।
प्लास्टिक कचरे का रीसाइक्लिंग (Recycling) और पुनः उपयोग (Reuse) आवश्यक है।
वैकल्पिक सामग्री: जैव-अपघटनशील प्लास्टिक और पेपर बैग को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष
पर्यावरण प्रदूषण आज की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है, जिसे उचित प्रबंधन द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। बायोडिग्रेडेबल प्रदूषक प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाते हैं, जबकि गैर-बायोडिग्रेडेबल प्रदूषक लंबे समय तक पर्यावरण में बने रहते हैं और अधिक हानिकारक होते हैं। इसलिए, अपशिष्ट प्रबंधन, पुनर्चक्रण और सतत विकास (Sustainable Development) को अपनाकर पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकता है।
05. प्रतिरक्षा प्रणाली की संरचना, जन्मजात प्रतिरक्षा और अनुकूली प्रतिरक्षा की व्याख्या करें।
प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) की संरचना
प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर की रक्षा तंत्र (Defense Mechanism) है, जो हानिकारक सूक्ष्मजीवों (बैक्टीरिया, वायरस, फंगस) और विषैले पदार्थों से बचाव करता है। यह दो प्रमुख भागों में विभाजित है:
प्राथमिक अंग (Primary Organs):
अस्थिमज्जा (Bone Marrow): सभी रक्त कोशिकाएँ यहीं बनती हैं, जिसमें श्वेत रक्त कणिकाएँ (WBCs) भी शामिल हैं।
थाइमस ग्रंथि (Thymus Gland): यहाँ टी-लिंफोसाइट्स (T-Cells) का परिपक्वन होता है।
द्वितीयक अंग (Secondary Organs):
लसीका ग्रंथियाँ (Lymph Nodes): संक्रमण से लड़ने के लिए एंटीजन को फिल्टर करती हैं।
प्लीहा (Spleen): पुरानी रक्त कोशिकाओं को नष्ट करता है और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया में सहायक होता है।
अलिंद ऊतक (MALT - Mucosa Associated Lymphoid Tissue): शरीर की श्लेष्म झिल्लियों (Mucous Membranes) में मौजूद होता है, जो संक्रमण रोकता है।
प्रतिरक्षा प्रणाली के प्रकार
प्रतिरक्षा प्रणाली को जन्मजात (Innate Immunity) और अनुकूली (Adaptive Immunity) में विभाजित किया जाता है।
1. जन्मजात प्रतिरक्षा (Innate Immunity)
यह प्रतिरक्षा प्रणाली जन्म से ही शरीर में मौजूद होती है और किसी विशेष रोगाणु (Pathogen) को पहचानने की आवश्यकता नहीं होती।
लक्षण:
यह तीव्र (Fast) और गैर-विशिष्ट (Non-Specific) होती है।
यह सभी प्रकार के संक्रमणों से पहली पंक्ति की रक्षा (First Line of Defense) प्रदान करती है।
अवयव:
भौतिक अवरोध (Physical Barriers):
त्वचा (Skin) – रोगाणुओं के प्रवेश को रोकती है।
श्लेष्म झिल्ली (Mucous Membrane) – श्वसन और पाचन तंत्र में प्रवेश करने वाले रोगाणुओं को रोकती है।
रासायनिक अवरोध (Chemical Barriers):
आँसू और लार (Tears & Saliva) में लाइसोज़ाइम एंजाइम, जो बैक्टीरिया को नष्ट करता है।
पेट में हाइड्रोक्लोरिक एसिड (HCl), जो भोजन में उपस्थित रोगाणुओं को मारता है।
कोशिकीय अवरोध (Cellular Barriers):
फैगोसाइट्स (Phagocytes): रोगाणुओं को निगलने और नष्ट करने वाली कोशिकाएँ।
नेचुरल किलर (NK) कोशिकाएँ: संक्रमित कोशिकाओं को नष्ट करती हैं।
प्राकृतिक प्रतिक्रियाएँ:
सूजन (Inflammation): संक्रमण वाले स्थान पर लालिमा और सूजन होती है।
बुखार (Fever): संक्रमण से लड़ने के लिए शरीर का तापमान बढ़ता है।
2. अनुकूली प्रतिरक्षा (Adaptive Immunity)
यह प्रतिरक्षा प्रणाली विशिष्ट (Specific) होती है और संक्रमण के संपर्क में आने के बाद विकसित होती है।
लक्षण:
यह धीमी (Slow) लेकिन विशिष्ट (Specific) होती है।
यह शरीर को लंबे समय तक प्रतिरक्षा स्मृति (Immunological Memory) प्रदान करती है।
यह टी-कोशिकाएँ (T-Cells) और बी-कोशिकाएँ (B-Cells) द्वारा नियंत्रित होती है।
प्रकार:
हासिल की गई प्रतिरक्षा (Active Immunity):
संक्रमण या टीकाकरण के बाद शरीर में विकसित होती है।
यह दीर्घकालिक (Long-term) होती है।
उदाहरण: टीकाकरण (Vaccination), चेचक के संक्रमण के बाद प्रतिरक्षा।
निष्क्रिय प्रतिरक्षा (Passive Immunity):
यह किसी अन्य स्रोत से एंटीबॉडी प्राप्त करके मिलती है।
यह अल्पकालिक (Short-term) होती है।
उदाहरण: माँ से शिशु को स्तनपान के दौरान एंटीबॉडी मिलना।
टी-कोशिकाएँ (T-Cells) और बी-कोशिकाएँ (B-Cells) का कार्य
टी-कोशिकाएँ (T-Cells):
ये कोशिकाएँ वायरस और संक्रमित कोशिकाओं से लड़ती हैं।
मुख्य प्रकार: हेल्पर टी-सेल्स (Helper T-Cells) और साइटोटॉक्सिक टी-सेल्स (Cytotoxic T-Cells)।
बी-कोशिकाएँ (B-Cells):
ये एंटीबॉडी (Antibodies) का निर्माण करती हैं, जो रक्त में रोगाणुओं से लड़ती हैं।
जब कोई संक्रमण होता है, तो बी-कोशिकाएँ उसे पहचानकर एंटीबॉडी उत्पन्न करती हैं।
निष्कर्ष
प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर को बाहरी संक्रमणों से बचाने वाली महत्वपूर्ण जैविक रक्षा प्रणाली है। जन्मजात प्रतिरक्षा तेज लेकिन गैर-विशिष्ट होती है, जबकि अनुकूली प्रतिरक्षा धीमी लेकिन विशिष्ट और दीर्घकालिक होती है। शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए यह दोनों प्रतिरक्षाएँ आपस में मिलकर कार्य करती हैं।
SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS
01. DNA में 5-सदस्यीय वलय कितने प्रकार के होते हैं?
DNA में 5-सदस्यीय वलय (Five-Membered Rings) मुख्य रूप से प्यूरीन (Purine) और पाइरीमिडीन (Pyrimidine) नाइट्रोजेनस बेस के संरचनात्मक भाग के रूप में पाए जाते हैं।
DNA में पाए जाने वाले 5-सदस्यीय वलयों के प्रकार:
इमिडाजोल वलय (Imidazole Ring) – प्यूरीन बेस में
अडेनिन (Adenine, A) और ग्वानिन (Guanine, G) में पाया जाता है।
प्यूरीन में एक 5-सदस्यीय इमिडाजोल वलय और एक 6-सदस्यीय पाइरीमिडीन वलय जुड़े होते हैं।
फ्यूरानोज वलय (Furanose Ring) – डीऑक्सीराइबोज शर्करा में
DNA की संरचना में मौजूद डीऑक्सीराइबोज (Deoxyribose) एक 5-सदस्यीय फ्यूरानोज वलय के रूप में होता है।
यह फॉस्फेट और नाइट्रोजेनस बेस से जुड़कर न्यूक्लियोटाइड बनाता है।
निष्कर्ष:
DNA में मुख्य रूप से दो प्रकार के 5-सदस्यीय वलय होते हैं:
इमिडाजोल वलय (Imidazole Ring) – प्यूरीन बेस में।
फ्यूरानोज वलय (Furanose Ring) – डीऑक्सीराइबोज शर्करा में।
02. अर्धसूत्रीविभाजन (प्रथम) के विभिन्न चरणों का वर्णन करें।
परिचय:
अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis) एक विशेष प्रकार का कोशिका विभाजन है, जो जनन कोशिकाओं (गैमेट्स) के निर्माण के लिए आवश्यक होता है। इसमें एक कोशिका दो बार विभाजित होकर चार संतति कोशिकाएँ बनाती है, जिनमें प्रत्येक में मूल कोशिका के आधे गुणसूत्र होते हैं।
अर्धसूत्री विभाजन को दो चरणों में विभाजित किया जाता है:
अर्धसूत्री विभाजन-I (Meiosis-I) – इसमें गुणसूत्रों की संख्या आधी हो जाती है।
अर्धसूत्री विभाजन-II (Meiosis-II) – यह एक सामान्य सूत्री विभाजन (Mitosis) की तरह कार्य करता है।
यहाँ अर्धसूत्री विभाजन-I के विभिन्न चरणों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
अर्धसूत्री विभाजन-I (Meiosis-I) के चरण:
1. प्रोफेज-I (Prophase-I):
यह सबसे लंबा और जटिल चरण होता है। इसमें गुणसूत्रों का संक्षेपण (Condensation), संयोग (Synapsis), और अदला-बदली (Crossing Over) जैसी घटनाएँ होती हैं। इसे पाँच उप-चरणों में विभाजित किया जाता है:
(i) लैप्टोटीन (Leptotene)
गुणसूत्र पतले धागों की तरह दिखाई देते हैं।
प्रत्येक गुणसूत्र में दो क्रोमैटिड्स होते हैं।
(ii) ज़ीगोटीन (Zygotene)
समजात गुणसूत्र (Homologous Chromosomes) आपस में जुड़कर संयुग्मन (Synapsis) बनाते हैं।
इस प्रक्रिया में सिनैपटोनेमल कॉम्प्लेक्स (Synaptonemal Complex) नामक संरचना बनती है।
(iii) पैकिटीन (Pachytene)
इस चरण में क्रॉसिंग ओवर (Crossing Over) की प्रक्रिया होती है, जिसमें समजात गुणसूत्रों के बीच डीएनए का आदान-प्रदान होता है।
इससे आनुवंशिक विविधता (Genetic Variation) उत्पन्न होती है।
(iv) डिप्लोटीन (Diplotene)
सिनैपटोनेमल कॉम्प्लेक्स टूटने लगता है।
समजात गुणसूत्र कायस्मा (Chiasmata) नामक संरचना के माध्यम से जुड़े रहते हैं।
(v) डायकिनीसिस (Diakinesis)
गुणसूत्र अधिक संकुचित (Condensed) हो जाते हैं।
न्यूक्लियस और न्यूक्लियोलस विलुप्त हो जाते हैं।
स्पिंडल तंतु (Spindle Fibers) बनना शुरू हो जाते हैं।
2. मेटाफेज-I (Metaphase-I):
समजात गुणसूत्रों की जोड़ी कोशिका के मध्य (Equatorial Plane) में पंक्तिबद्ध हो जाती है।
स्पिंडल तंतु गुणसूत्रों के काइनेटोकोर (Kinetochore) से जुड़ते हैं।
3. एनाफेज-I (Anaphase-I):
समजात गुणसूत्रों की जोड़ी एक-दूसरे से अलग हो जाती है और विपरीत ध्रुवों (Opposite Poles) की ओर खिंचती है।
यहाँ क्रोमैटिड्स अलग नहीं होते, बल्कि एक साथ रहते हैं।
इस चरण के कारण ही संतति कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या आधी (Haploid, n) हो जाती है।
4. टेलोफेज-I (Telophase-I):
गुणसूत्र ध्रुवों पर पहुँच जाते हैं।
न्यूक्लियर मेंब्रेन और न्यूक्लियोलस पुनः बनने लगते हैं।
इसके बाद साइटोकाइनेसिस (Cytokinesis) होता है, जिससे दो संतति कोशिकाएँ बनती हैं।
निष्कर्ष:
अर्धसूत्री विभाजन-I (Meiosis-I) का मुख्य कार्य गुणसूत्रों की संख्या को आधा करना और आनुवंशिक विविधता उत्पन्न करना होता है। यह प्रोफेज-I, मेटाफेज-I, एनाफेज-I और टेलोफेज-I चरणों में पूरा होता है। क्रॉसिंग ओवर और समजात गुणसूत्रों का पृथक्करण इस विभाजन की प्रमुख विशेषताएँ हैं, जो जीवों में आनुवंशिक परिवर्तन (Genetic Variation) को बढ़ावा देती हैं।
03. जीवन की उत्पत्ति की आधुनिक अवधारणा को समझाइये।
परिचय:
जीवन की उत्पत्ति (Origin of Life) एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक विषय है, जो यह समझाने का प्रयास करता है कि पृथ्वी पर सबसे पहले जीवन कैसे और कब विकसित हुआ। आधुनिक अवधारणा मुख्य रूप से रासायनिक उद्गम सिद्धांत (Chemical Origin of Life Theory) पर आधारित है, जिसे "एबायोजेनेसिस (Abiogenesis)" भी कहा जाता है।
इस अवधारणा का मुख्य आधार यह है कि जीवन की उत्पत्ति एक रासायनिक प्रक्रिया के रूप में हुई, जिसमें अकार्बनिक पदार्थों से कार्बनिक यौगिकों और फिर सरल जीवों का विकास हुआ।
जीवन की उत्पत्ति से संबंधित प्रमुख सिद्धांत:
स्वतः सृजन सिद्धांत (Spontaneous Generation Theory) – अस्वीकृत
यह प्राचीन धारणा थी कि जीवन अकार्बनिक और निर्जीव वस्तुओं से अचानक उत्पन्न हो सकता है।
फ्रांसेस्को रेडी (Francesco Redi) और लुई पाश्चर (Louis Pasteur) ने इस सिद्धांत को गलत साबित किया।
पैनस्पर्मिया सिद्धांत (Panspermia Theory)
इस सिद्धांत के अनुसार, जीवन के बीज (Germs of Life) ब्रह्मांड से उल्काओं और धूमकेतुओं के माध्यम से पृथ्वी पर आए।
हालांकि, इस सिद्धांत का वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है।
रासायनिक उद्गम सिद्धांत (Chemical Origin of Life) – आधुनिक अवधारणा
यह सिद्धांत ए.आई. ओपेरिन (A.I. Oparin) और जे.बी.एस. हाल्डेन (J.B.S. Haldane) द्वारा दिया गया।
इस सिद्धांत के अनुसार, प्रारंभिक पृथ्वी के वातावरण में सरल अकार्बनिक अणुओं से धीरे-धीरे जटिल कार्बनिक अणु बने, जिससे जीवन की उत्पत्ति हुई।
इस सिद्धांत को बाद में मिलर-उरे (Miller-Urey) प्रयोग द्वारा समर्थन मिला।
रासायनिक उद्गम सिद्धांत के चरण:
1. प्रारंभिक पृथ्वी की परिस्थितियाँ
पृथ्वी का वायुमंडल हाइड्रोजन (H₂), मीथेन (CH₄), अमोनिया (NH₃), और जल वाष्प (H₂O) से भरा था।
यहाँ कोई मुफ्त ऑक्सीजन (Free Oxygen) नहीं थी, जिससे यह एक अवायवीय (Anaerobic) वातावरण था।
उच्च तापमान, ज्वालामुखी विस्फोट, विद्युत-आवेश (Lightning) और पराबैंगनी किरणें (UV Rays) रासायनिक अभिक्रियाओं को प्रेरित कर रही थीं।
2. सरल कार्बनिक यौगिकों की उत्पत्ति
इन अकार्बनिक गैसों के बीच होने वाली रासायनिक अभिक्रियाओं के कारण सरल कार्बनिक यौगिक बने, जैसे:
एमिनो एसिड (Amino Acids) – प्रोटीन के मूल घटक।
शर्करा (Sugars) – कार्बोहाइड्रेट का आधार।
नाइट्रोजनी बेस (Nitrogenous Bases) – डीएनए और आरएनए के निर्माण के लिए आवश्यक।
3. जटिल कार्बनिक अणुओं का निर्माण
धीरे-धीरे ये सरल कार्बनिक यौगिक प्रोटीन (Proteins), लिपिड्स (Lipids), न्यूक्लिक एसिड (DNA/RNA) और अन्य बायोमोलेक्यूल्स में बदल गए।
इन कार्बनिक अणुओं ने जल में कोएरसेर्वेट्स (Coacervates) या प्रोटीनसियस माइक्रोस्फीयर (Proteinaceous Microspheres) बनाना शुरू किया, जो जीवन की ओर पहला कदम था।
4. प्री-सेलुलर संरचनाओं का विकास
ओपेरिन के अनुसार, कुछ कोएरसेर्वेट्स ने झिल्ली जैसी संरचना (Membrane-like Structure) बना ली, जिससे प्राचीन कोशिका जैसी संरचना बनी।
इन्हीं संरचनाओं ने धीरे-धीरे स्वयं प्रतिकृति (Self-Replication) और चयापचय (Metabolism) जैसी विशेषताएँ विकसित कर लीं।
5. प्रथम कोशिका और प्राकृतिक चयन
सबसे पहले आरएनए (RNA) आधारित अणुओं का निर्माण हुआ, जो स्वयं की नकल बना सकते थे।
बाद में डीएनए (DNA) विकसित हुआ, जिससे अधिक स्थायी जीवन-रूप बने।
धीरे-धीरे प्राकृतिक चयन (Natural Selection) के माध्यम से जटिल कोशिकाओं और जीवन-रूपों का विकास हुआ।
मिलर-उरे प्रयोग (Miller-Urey Experiment) – जीवन की उत्पत्ति का प्रमाण
1953 में स्टेनली मिलर (Stanley Miller) और हेरोल्ड उरे (Harold Urey) ने प्रयोग करके यह सिद्ध किया कि प्रारंभिक पृथ्वी की परिस्थितियों में कार्बनिक यौगिक बन सकते हैं।
प्रयोग का निष्कर्ष:
उन्होंने मीथेन (CH₄), अमोनिया (NH₃), हाइड्रोजन (H₂), और जल वाष्प (H₂O) का मिश्रण लेकर उसे विद्युत-आवेश (Electric Discharge) के संपर्क में रखा।
कुछ दिनों बाद इस मिश्रण में एमिनो एसिड (Amino Acids) और अन्य कार्बनिक यौगिक पाए गए।
इससे यह सिद्ध हुआ कि प्राकृतिक परिस्थितियों में सरल अणुओं से जटिल कार्बनिक अणु बन सकते हैं।
निष्कर्ष:
आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार, जीवन की उत्पत्ति एक रासायनिक और भौतिक प्रक्रिया का परिणाम थी। रासायनिक उद्गम सिद्धांत बताता है कि अकार्बनिक अणुओं से क्रमिक रूप से कार्बनिक अणु, प्री-सेलुलर संरचनाएँ और फिर जीवन का विकास हुआ।
मिलर-उरे प्रयोग इस सिद्धांत का सबसे बड़ा प्रमाण है। यह सिद्ध करता है कि जीवन के मूल तत्व प्राकृतिक परिस्थितियों में स्वयं ही बन सकते हैं।
04. जैव-विविधता की मूल अवधारणा का वर्णन करें।
परिचय:
जैव-विविधता (Biodiversity) का तात्पर्य पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीवों की विविधता से है, जिसमें सूक्ष्म जीवाणु से लेकर विशालकाय पेड़-पौधे और जंतु शामिल हैं। यह विविधता पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने और पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) की स्थिरता के लिए आवश्यक है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के अनुसार, "जैव-विविधता पृथ्वी पर जीवन के सभी रूपों का योग है, जिसमें जंतु, वनस्पति, सूक्ष्मजीव और पारिस्थितिक प्रक्रियाएँ शामिल हैं।"
जैव-विविधता की परिभाषा:
जैव-विविधता का अर्थ है किसी क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के जीवों, उनकी आनुवंशिक संरचना, तथा पारिस्थितिकी तंत्र की विविधता।
अमेरिकी जीवविज्ञानी एडवर्ड ओ. विल्सन (E.O. Wilson) ने इसे "संपूर्ण जैविक संपदा" के रूप में परिभाषित किया है।
जैव-विविधता के स्तर (Levels of Biodiversity):
जैव-विविधता को तीन मुख्य स्तरों में विभाजित किया जाता है:
1. आनुवंशिक विविधता (Genetic Diversity)
यह एक ही प्रजाति के विभिन्न व्यक्तियों में पाए जाने वाले आनुवंशिक भिन्नताओं को दर्शाती है।
उदाहरण:
गेहूँ (Wheat) की विभिन्न किस्में।
एक ही प्रजाति के कुत्तों में अलग-अलग रंग और आकार।
2. प्रजातीय विविधता (Species Diversity)
यह किसी क्षेत्र में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की प्रजातियों की संख्या को दर्शाती है।
उदाहरण:
वर्षावन में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे और जानवर।
भारत में पाए जाने वाले बाघ, शेर, हाथी आदि।
3. पारिस्थितिकी विविधता (Ecosystem Diversity)
यह विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्रों और उनके बीच अंतःक्रिया को दर्शाती है।
उदाहरण:
समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र (Marine Ecosystem)।
रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र (Desert Ecosystem)।
जैव-विविधता का महत्त्व:
पारिस्थितिकी तंत्र संतुलन बनाए रखना – विभिन्न जीव-जन्तु और पौधे पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बनाए रखते हैं।
भोजन और औषधियों का स्रोत – जैव-विविधता हमें भोजन, औषधि और अन्य संसाधन प्रदान करती है।
आर्थिक महत्त्व – कृषि, मत्स्य पालन और वन्यजीव पर्यटन जैव-विविधता पर निर्भर हैं।
पर्यावरणीय सेवाएँ – जैव-विविधता जल शुद्धि, वायु निस्पंदन और जलवायु नियंत्रण में मदद करती है।
निष्कर्ष:
जैव-विविधता पृथ्वी की जीवन-रेखा है। यह आनुवंशिक, प्रजातीय और पारिस्थितिकी विविधता से मिलकर बनी होती है और पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता के लिए आवश्यक है। लेकिन बढ़ती मानव गतिविधियों के कारण जैव-विविधता संकट में है। इसके संरक्षण के लिए संरक्षित क्षेत्र, पर्यावरणीय कानून और सतत विकास जैसी नीतियाँ अपनाई जानी चाहिए।
05. वन्य जीव संरक्षण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
परिचय:
वन्य जीव संरक्षण (Wildlife Conservation) का तात्पर्य प्राकृतिक आवासों और वन्य जीवों को संरक्षित करने से है। यह जैव-विविधता को बनाए रखने, पारिस्थितिक संतुलन को सुरक्षित रखने और विलुप्ति के खतरे से प्रजातियों को बचाने के लिए आवश्यक है।
वन्य जीवों के संरक्षण की आवश्यकता:
जैव-विविधता की रक्षा – वन्य जीव पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण घटक हैं और इनका संरक्षण जैव-विविधता को बनाए रखता है।
पारिस्थितिक संतुलन – वन्य जीव खाद्य श्रृंखला (Food Chain) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
आर्थिक और सांस्कृतिक महत्त्व – पर्यटन, आयुर्वेदिक दवाओं और स्थानीय परंपराओं में वन्य जीवों का योगदान होता है।
जलवायु संतुलन – वन्य जीवों और उनके आवासों का संरक्षण जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद करता है।
वन्य जीवों को होने वाले खतरे:
वनों की कटाई (Deforestation) – आवास नष्ट होने से कई जीव विलुप्त हो रहे हैं।
शिकार और तस्करी (Poaching & Illegal Trade) – बाघ, गैंडे, हाथी आदि की अवैध शिकार के कारण संख्या घट रही है।
प्रदूषण (Pollution) – जल और वायु प्रदूषण से जलीय और स्थलीय जीव प्रभावित हो रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन (Climate Change) – तापमान परिवर्तन से कई प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं।
वन्य जीव संरक्षण के उपाय:
राष्ट्रीय उद्यान (National Parks) और वन्यजीव अभयारण्य (Wildlife Sanctuaries) की स्थापना।
वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 जैसे कड़े कानून लागू करना।
पुनर्वास कार्यक्रम (Rehabilitation Programs) के माध्यम से लुप्तप्राय प्रजातियों की संख्या बढ़ाना।
सामुदायिक जागरूकता (Community Awareness) बढ़ाना और सतत विकास को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष:
वन्य जीव संरक्षण न केवल नैतिक जिम्मेदारी है बल्कि पारिस्थितिक संतुलन और मानव अस्तित्व के लिए भी आवश्यक है। सरकार, गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) और आम जनता को मिलकर इस दिशा में कार्य करना चाहिए ताकि प्राकृतिक धरोहरों को बचाया जा सके।
06. डीएनए की रासायनिक संरचना की व्याख्या करें।
परिचय:
डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (DNA) एक जटिल जैविक अणु है, जो आनुवंशिक सूचनाओं को संग्रहित और संप्रेषित करता है। यह लगभग सभी जीवों की कोशिकाओं में पाया जाता है और उनके विकास, वृद्धि और प्रजनन को नियंत्रित करता है। 1953 में जेम्स वाटसन (James Watson) और फ्रांसिस क्रिक (Francis Crick) ने डीएनए की द्विगुणित कुंडलित संरचना (Double Helix Structure) की खोज की थी।
डीएनए की रासायनिक संरचना:
डीएनए एक बहु-न्यूक्लियोटाइड श्रृंखला (Polynucleotide Chain) से बना होता है। प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड तीन मुख्य घटकों से मिलकर बना होता है:
1. नाइट्रोजनी बेस (Nitrogenous Bases):
डीएनए में चार प्रकार के नाइट्रोजनी बेस होते हैं:
प्यूरीन (Purines):
एडेनिन (Adenine - A)
ग्वानिन (Guanine - G)
पाइरीमिडीन (Pyrimidines):
थाइमिन (Thymine - T)
साइटोसिन (Cytosine - C)
एडेनिन (A) हमेशा थाइमिन (T) से और ग्वानिन (G) हमेशा साइटोसिन (C) से हाइड्रोजन बांड के माध्यम से जुड़ा होता है।
2. डीऑक्सीराइबोज शर्करा (Deoxyribose Sugar):
यह एक पाँच-कार्बन (Pentose) शर्करा होती है, जो नाइट्रोजनी बेस से जुड़कर न्यूक्लियोटाइड बनाती है।
इसमें हाइड्रॉक्सिल ग्रुप (-OH) के स्थान पर हाइड्रोजन (-H) होता है, जिससे यह RNA की तुलना में अधिक स्थिर होता है।
3. फॉस्फेट समूह (Phosphate Group):
यह डीऑक्सीराइबोज शर्करा के 5वें कार्बन से जुड़ा होता है।
यह एक न्यूक्लियोटाइड को दूसरे से जोड़ता है, जिससे डीएनए की रीढ़ (Backbone) बनती है।
डीएनए की संरचना:
1. द्विगुणित कुंडलित संरचना (Double Helix Structure):
डीएनए दो न्यूक्लियोटाइड श्रृंखलाओं (Polynucleotide Chains) से बना होता है, जो एक-दूसरे के चारों ओर घड़ी की सुई की दिशा (Right-handed Helix) में कुंडलित होती हैं।
ये दोनों श्रृंखलाएँ हाइड्रोजन बांड (Hydrogen Bonds) द्वारा जुड़ी होती हैं।
A = T (2 हाइड्रोजन बांड)
G ≡ C (3 हाइड्रोजन बांड)
2. एंटीपैरलल अभिविन्यास (Antiparallel Orientation):
डीएनए की दोनों श्रृंखलाएँ विपरीत दिशाओं में चलती हैं:
एक श्रृंखला 5' → 3' दिशा में।
दूसरी श्रृंखला 3' → 5' दिशा में।
3. प्रमुख और गौण गर्त (Major and Minor Grooves):
डीएनए के कुंडलन के कारण इसमें मुख्य (Major) और गौण (Minor) गर्त बनते हैं, जो प्रोटीन और एंजाइमों के लिए आवश्यक होते हैं।
निष्कर्ष:
डीएनए की रासायनिक संरचना में न्यूक्लियोटाइड, डीऑक्सीराइबोज शर्करा और फॉस्फेट समूह होते हैं। यह द्विगुणित कुंडलित संरचना में व्यवस्थित होता है, जिससे यह आनुवंशिक जानकारी को सहेजने और संप्रेषित करने में सक्षम होता है। डीएनए की यह अनूठी संरचना इसे प्रतिकृति (Replication), उत्परिवर्तन (Mutation) और जीन अभिव्यक्ति (Gene Expression) की अनुमति देती है, जिससे जीवन संभव होता है।
07. डीएनए के पुनर्संयोजन का वर्णन करें।
परिचय:
डीएनए पुनर्संयोजन (DNA Recombination) वह जैविक प्रक्रिया है, जिसमें दो अलग-अलग डीएनए अणुओं का आपस में आदान-प्रदान (Exchange) या पुनर्संयोजन होता है। यह आनुवंशिक विविधता (Genetic Variation) को बढ़ाने, कोशिकीय मरम्मत और विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
डीएनए पुनर्संयोजन मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है:
समसूत्री पुनर्संयोजन (Homologous Recombination)
असमसूत्री पुनर्संयोजन (Non-Homologous Recombination)
स्थान-विशिष्ट पुनर्संयोजन (Site-Specific Recombination)
डीएनए पुनर्संयोजन के प्रकार:
1. समसूत्री पुनर्संयोजन (Homologous Recombination):
इसमें समान (Homologous) डीएनए अनुक्रमों के बीच जीनों का आदान-प्रदान होता है।
यह अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis) के दौरान क्रॉसिंग ओवर (Crossing Over) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
हॉलिडे मॉडल (Holliday Model) इस प्रक्रिया की व्याख्या करता है।
उदाहरण:
कोशिकीय डीएनए की मरम्मत।
प्रतिरक्षा प्रणाली में एंटीबॉडी विविधता।
2. असमसूत्री पुनर्संयोजन (Non-Homologous Recombination):
इसमें असमान (Non-Homologous) डीएनए अनुक्रमों के बीच पुनर्संयोजन होता है।
यह डीएनए की मरम्मत (DNA Repair) और वायरल डीएनए के जीनोम में एकीकरण (Integration of Viral DNA) में सहायक होता है।
उदाहरण:
HIV वायरस का मानव जीनोम में एकीकरण।
कैंसर में असमसूत्री पुनर्संयोजन के कारण डीएनए अनुक्रमों में परिवर्तन।
3. स्थान-विशिष्ट पुनर्संयोजन (Site-Specific Recombination):
इसमें डीएनए पुनर्संयोजन विशिष्ट अनुक्रमों पर केंद्रित होता है।
यह प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) में एंटीबॉडी विविधता के लिए आवश्यक होता है।
उदाहरण:
बैक्टीरिया में लैम्डा फेज (Lambda Phage) वायरस का जीनोम में प्रवेश।
एंटीबॉडी उत्परिवर्तन (Antibody Mutation) जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को प्रभावित करता है।
डीएनए पुनर्संयोजन की प्रक्रिया:
1. डीएनए कटाव (DNA Cleavage):
पुनर्संयोजन की प्रक्रिया में पहले डीएनए में एक्सोन्यूक्लिएस (Exonuclease) द्वारा कटाव किया जाता है।
2. डीएनए अनुक्रमों का संरेखन (Strand Invasion & Alignment):
पुनर्संयोजन करने वाले दो डीएनए अनुक्रम आपस में जुड़ते हैं।
3. हॉलिडे जंक्शन (Holliday Junction) बनना:
दो डीएनए अणु आपस में क्रॉसिंग ओवर करते हैं और एक संयुक्त संरचना (Holliday Junction) बनती है।
4. डीएनए मरम्मत और पुनर्संयोजन पूर्ण होना:
पुनर्संयोजित डीएनए पुनः मरम्मत होकर अपनी नई संरचना ग्रहण कर लेता है।
डीएनए पुनर्संयोजन का महत्व:
आनुवंशिक विविधता को बढ़ावा देता है, जिससे जीवों में अनुकूलन क्षमता बढ़ती है।
अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis) के दौरान जीनों का पुनर्संयोजन, जिससे नई विशेषताओं का विकास होता है।
डीएनए क्षति की मरम्मत में सहायक होता है।
प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) में एंटीबॉडी निर्माण में सहायता करता है।
निष्कर्ष:
डीएनए पुनर्संयोजन आनुवंशिकता और जीवों के विकास (Evolution) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह कोशिका की मरम्मत, प्रतिरक्षा प्रणाली और आनुवंशिक विविधता को बनाए रखने में सहायक होता है। वैज्ञानिक इस प्रक्रिया का उपयोग जेनेटिक इंजीनियरिंग (Genetic Engineering) और रोगों के उपचार के लिए कर रहे हैं, जिससे भविष्य में चिकित्सा और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नई संभावनाएँ खुल सकती हैं।
08. सूक्ष्म जीव विज्ञान का मूल परिचय समझाइये।
परिचय:
सूक्ष्म जीव विज्ञान (Microbiology) जीव विज्ञान की वह शाखा है, जो सूक्ष्मजीवों (Microorganisms) का अध्ययन करती है। इसमें बैक्टीरिया, वायरस, फंगी, प्रोटोजोआ और शैवाल जैसे सूक्ष्मजीवों का अध्ययन किया जाता है, जिन्हें नग्न आंखों से नहीं देखा जा सकता।
इस विज्ञान की नींव एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक (Antonie van Leeuwenhoek) ने 17वीं शताब्दी में रखी थी, जब उन्होंने माइक्रोस्कोप की सहायता से सूक्ष्मजीवों को देखा।
सूक्ष्म जीव विज्ञान की परिभाषा:
सूक्ष्म जीव विज्ञान वह विज्ञान है, जिसमें सूक्ष्मजीवों की संरचना, कार्य, वंशानुक्रम, रोगजनकता, पारिस्थितिकी और औद्योगिक उपयोगिता का अध्ययन किया जाता है।
सूक्ष्म जीव विज्ञान के प्रकार:
सूक्ष्म जीव विज्ञान को इसके अध्ययन क्षेत्र के आधार पर विभिन्न शाखाओं में बाँटा गया है:
1. जीवाणु विज्ञान (Bacteriology):
इसमें बैक्टीरिया (Bacteria) का अध्ययन किया जाता है।
उदाहरण: ई.कोलाई (E. coli), साल्मोनेला (Salmonella)।
2. विषाणु विज्ञान (Virology):
इसमें विषाणु (Viruses) का अध्ययन किया जाता है।
उदाहरण: इन्फ्लुएंजा वायरस, कोरोना वायरस।
3. कवक विज्ञान (Mycology):
इसमें फंगी (Fungi) का अध्ययन किया जाता है।
उदाहरण: यीस्ट (Yeast), पेनिसिलियम (Penicillium)।
4. प्रोटोजोआ विज्ञान (Protozoology):
इसमें प्रोटोजोआ (Protozoa) का अध्ययन किया जाता है।
उदाहरण: अमीबा (Amoeba), प्लाज्मोडियम (Plasmodium)।
5. शैवाल विज्ञान (Phycology):
इसमें शैवाल (Algae) का अध्ययन किया जाता है।
उदाहरण: स्पाइरोगाइरा (Spirogyra), नॉस्टोक (Nostoc)।
6. औद्योगिक सूक्ष्म जीव विज्ञान (Industrial Microbiology):
इसमें सूक्ष्मजीवों का औद्योगिक उपयोग और उत्पाद निर्माण का अध्ययन किया जाता है।
उदाहरण: एंटीबायोटिक्स, शराब, डेयरी उत्पाद।
7. रोगाणु विज्ञान (Pathogenic Microbiology):
इसमें वे सूक्ष्मजीव शामिल हैं, जो बीमारियों (Diseases) का कारण बनते हैं।
उदाहरण: ट्यूबरकुलोसिस (TB) के लिए माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस।
सूक्ष्म जीव विज्ञान का महत्व:
चिकित्सा क्षेत्र (Medical Microbiology):
बैक्टीरिया और वायरस से होने वाले रोगों की पहचान और उनके उपचार के लिए उपयोगी।
उदाहरण: एंटीबायोटिक्स और वैक्सीन निर्माण।
कृषि क्षेत्र (Agricultural Microbiology):
जैव उर्वरकों (Biofertilizers) और नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen Fixation) में सहायक।
उदाहरण: राइजोबियम (Rhizobium) बैक्टीरिया।
पर्यावरण (Environmental Microbiology):
जल और वायु शुद्धिकरण में सहायक।
उदाहरण: कचरा निपटान (Waste Decomposition)।
खाद्य और डेयरी उद्योग (Food & Dairy Industry):
दही, पनीर, शराब आदि के निर्माण में उपयोगी।
उदाहरण: लैक्टोबैसिलस (Lactobacillus)।
अनुसंधान (Research):
जेनेटिक इंजीनियरिंग और बायोटेक्नोलॉजी में उपयोगी।
निष्कर्ष:
सूक्ष्म जीव विज्ञान चिकित्सा, कृषि, उद्योग और पर्यावरण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह न केवल बीमारियों के कारणों को समझने में मदद करता है, बल्कि उनके उपचार और रोकथाम में भी सहायक होता है। जैव प्रौद्योगिकी और अनुसंधान में इसके बढ़ते उपयोग से मानव जीवन की गुणवत्ता को और बेहतर बनाया जा सकता है।
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