GEPA-03 SOLVED PAPER JUNE 2024
01. नगर निकायों का गठन किस प्रकार किया जाता है? उसकी त्रिस्तरीय सांगठनिक संरचना पर प्रकाश डालें।
भारत में नगर निकायों (Urban Local Bodies) का गठन संविधान के 74वें संशोधन (1992) के तहत किया जाता है। यह संशोधन स्थानीय स्वशासन को अधिक सशक्त बनाने के लिए लागू किया गया था। नगर निकाय शहरी क्षेत्रों में शासन एवं प्रशासन के संचालन के लिए बनाए गए स्वायत्तशासी संस्थान होते हैं।
नगर निकायों का गठन
नगर निकायों का गठन निम्नलिखित कारकों के आधार पर किया जाता है:
जनसंख्या का आकार – बड़े शहरों में नगर निगम, मध्यम आकार के शहरों में नगरपालिका और छोटे कस्बों में नगर पंचायत बनाई जाती है।
आर्थिक संसाधन – स्थानीय निकायों की वित्तीय स्थिति और राजस्व संग्रहण की क्षमता को ध्यान में रखा जाता है।
राज्य सरकार का अधिनियम – नगर निकायों की स्थापना राज्य सरकार द्वारा अधिनियमित कानूनों के आधार पर की जाती है।
प्रशासनिक आवश्यकता – किसी क्षेत्र की शहरीकरण दर और प्रशासनिक सुविधा के अनुसार नगर निकायों की आवश्यकता तय की जाती है।
नगर निकायों की त्रिस्तरीय सांगठनिक संरचना
नगर निकायों को तीन प्रमुख स्तरों में विभाजित किया जाता है:
1. नगर निगम (Municipal Corporation)
यह बड़े शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि में कार्यरत होते हैं।
इसका प्रमुख अध्यक्ष महापौर (Mayor) होता है, जिसे पार्षदों द्वारा चुना जाता है।
नगर निगम का मुख्य कार्य शहर के बुनियादी ढांचे, जल आपूर्ति, सफाई, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा, और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं को सुचारू रूप से संचालित करना होता है।
इसमें एक स्थायी समिति (Standing Committee) और आयुक्त (Municipal Commissioner) होता है, जो प्रशासनिक कार्यों की निगरानी करता है।
2. नगरपालिका (Municipality)
यह मध्यम आकार के शहरों में स्थापित की जाती है।
नगरपालिका का प्रमुख अध्यक्ष (Chairperson/President) होता है, जिसे निर्वाचित पार्षदों द्वारा चुना जाता है।
इसका मुख्य कार्य स्थानीय विकास, सफाई व्यवस्था, जलापूर्ति, स्ट्रीट लाइट्स और अन्य नागरिक सेवाओं को उपलब्ध कराना होता है।
नगर पालिका में मुख्य कार्यकारी अधिकारी (Executive Officer) प्रशासनिक कार्यों को संभालता है।
3. नगर पंचायत (Nagar Panchayat)
यह छोटे कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में बदल रहे स्थानों के लिए बनाई जाती है।
नगर पंचायत का प्रमुख अध्यक्ष (Chairperson) होता है, जिसे निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुना जाता है।
इसका मुख्य कार्य बुनियादी शहरी सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना और क्षेत्र के विकास के लिए कार्य करना होता है।
नगर पंचायत में एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी (Executive Officer) होता है, जो प्रशासनिक कार्यों को संचालित करता है।
निष्कर्ष
नगर निकायों का गठन शहरी प्रशासन को प्रभावी बनाने और जनता को बेहतर नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से किया जाता है। इनकी त्रिस्तरीय संरचना (नगर निगम, नगरपालिका और नगर पंचायत) के माध्यम से विभिन्न स्तरों पर प्रशासनिक आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है। इस प्रकार, नगर निकाय शहरी विकास एवं प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
02. 74 वें संविधान संशोधन के उपरांत नगर निकायों के आय के स्रोत क्या हैं? नगर निकायों के वित्तीय प्रबंधन की प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डालें।
भारत में नगर निकायों (Urban Local Bodies) को 74वें संविधान संशोधन (1992) के बाद अधिक वित्तीय एवं प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान की गई। इस संशोधन के तहत नगर निकायों को शहरी क्षेत्रों के विकास एवं प्रशासन के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन जुटाने की शक्ति दी गई।
नगर निकायों के आय के स्रोत
नगर निकायों की आय के स्रोत मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किए जा सकते हैं:
1. आंतरिक स्रोत (Internal Sources)
नगर निकाय स्वयं कर एवं शुल्क लगाकर आय प्राप्त कर सकते हैं। इसके प्रमुख स्रोत हैं:
(क) करों से प्राप्त आय (Tax Revenue)
संपत्ति कर (Property Tax) – नगर क्षेत्र के भवनों एवं भूमियों पर लगाया जाने वाला कर।
व्यवसाय कर (Business Tax) – शहर में स्थित व्यवसायिक प्रतिष्ठानों पर लगाया जाता है।
मनोरंजन कर (Entertainment Tax) – सिनेमा, थिएटर, खेल आयोजन आदि पर लगाया जाता है।
वाहन कर (Vehicle Tax) – नगर क्षेत्र में पंजीकृत वाहनों पर लगाया जाता है।
जल कर (Water Tax) – जल आपूर्ति सेवाओं के लिए वसूला जाने वाला कर।
लाइसेंस शुल्क एवं बाजार शुल्क (License Fee & Market Fee) – व्यापारिक गतिविधियों के लिए नगर निकाय लाइसेंस जारी कर शुल्क वसूलते हैं।
स्वच्छता कर (Sanitation Tax) – सफाई और कचरा प्रबंधन के लिए लिया जाने वाला कर।
(ख) गैर-कर राजस्व (Non-Tax Revenue)
उपयोगकर्ता शुल्क (User Charges) – पानी, सीवरेज, स्ट्रीट लाइट जैसी सेवाओं के लिए लिया जाने वाला शुल्क।
किराए से प्राप्त आय (Rental Income) – नगर निकाय की संपत्तियों, जैसे बाजार, पार्किंग स्थल, सामुदायिक भवन आदि से किराए के रूप में प्राप्त आय।
ठेके एवं अनुबंध (Contracts & Tenders) – नगर निकायों द्वारा दी गई ठेकेदारी सेवाओं से प्राप्त राजस्व।
दंड और जुर्माने (Fines & Penalties) – अवैध निर्माण, प्रदूषण, यातायात उल्लंघन आदि पर लगाए गए दंड।
2. बाह्य स्रोत (External Sources)
नगर निकायों को राज्य एवं केंद्र सरकार से भी वित्तीय सहायता प्राप्त होती है। इनके प्रमुख स्रोत हैं:
राज्य सरकार की अनुदान राशि (State Government Grants) – राज्य सरकारें विभिन्न योजनाओं के तहत नगर निकायों को वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं।
केंद्र सरकार की वित्तीय सहायता (Central Government Assistance) – केंद्रीय योजनाओं जैसे स्मार्ट सिटी मिशन, AMRUT, स्वच्छ भारत मिशन आदि के तहत सहायता।
राज्य वित्त आयोग की अनुशंसाएं (State Finance Commission Recommendations) – संविधान के अनुसार प्रत्येक राज्य सरकार अपने नगर निकायों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए वित्त आयोग का गठन करती है।
ऋण एवं उधारी (Loans & Borrowings) – नगर निकाय वित्तीय संस्थानों, जैसे HUDCO, वाणिज्यिक बैंकों एवं अन्य एजेंसियों से ऋण ले सकते हैं।
जनसहयोग एवं CSR (Public Contributions & Corporate Social Responsibility) – निजी कंपनियों एवं नागरिकों से दान या CSR फंड के माध्यम से प्राप्त धन।
नगर निकायों के वित्तीय प्रबंधन की प्रक्रिया
नगर निकायों का वित्तीय प्रबंधन सुनियोजित ढंग से किया जाता है ताकि राजस्व का सही उपयोग हो और सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार किया जा सके। इसकी प्रक्रिया निम्नलिखित चरणों में होती है:
1. बजट निर्माण (Budget Preparation)
प्रत्येक वित्तीय वर्ष के लिए नगर निकायों द्वारा अनुमानित आय और व्यय का बजट तैयार किया जाता है।
यह बजट नगर परिषद या नगर निगम द्वारा अनुमोदित किया जाता है।
2. राजस्व संग्रह (Revenue Collection)
करों एवं शुल्कों को समय पर वसूलने के लिए नगर निकाय विभिन्न माध्यमों जैसे ऑनलाइन भुगतान, बैंक चालान, नगर निकाय कार्यालयों में भुगतान आदि का उपयोग करते हैं।
अवैतनिक करदाताओं पर दंड लगाया जाता है।
3. व्यय प्रबंधन (Expenditure Management)
प्राप्त राजस्व का उपयोग नगर विकास, बुनियादी ढांचे, सफाई, स्वास्थ्य सेवाओं, जलापूर्ति आदि में किया जाता है।
खर्चों को नियंत्रित करने और भ्रष्टाचार रोकने के लिए निगरानी तंत्र विकसित किया जाता है।
4. लेखा परीक्षा एवं वित्तीय नियंत्रण (Audit & Financial Control)
नगर निकायों के वित्तीय लेन-देन की पारदर्शिता बनाए रखने के लिए समय-समय पर लेखा परीक्षा की जाती है।
यह कार्य राज्य सरकार के महालेखाकार (Auditor General) या किसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा किया जाता है।
5. वित्तीय सशक्तिकरण (Financial Empowerment)
नगर निकायों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए विभिन्न उपाय किए जाते हैं, जैसे नई कर योजनाओं का क्रियान्वयन, निवेश के अवसरों की तलाश, और व्यय में पारदर्शिता।
निष्कर्ष
74वें संविधान संशोधन के बाद नगर निकायों को वित्तीय रूप से अधिक स्वतंत्रता दी गई, जिससे वे स्थानीय विकास कार्यों को प्रभावी ढंग से कर सकें। नगर निकायों की आय के स्रोत कर एवं गैर-कर दोनों होते हैं, जबकि इनकी वित्तीय प्रबंधन प्रक्रिया बजट निर्माण, राजस्व संग्रह, व्यय प्रबंधन, लेखा परीक्षा और वित्तीय सशक्तिकरण पर केंद्रित होती है। यदि नगर निकायों को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाया जाए, तो शहरी विकास को बेहतर ढंग से क्रियान्वित किया जा सकता है।
03. संविधान में 12वीं अनुसूची के अनुच्छेद 243 (W) के आलोक में नगर पालिकाओं की शक्तियाँ, प्राधिकार एवं उत्तरदायित्वों का उल्लेख करें।
संविधान के 74वें संशोधन अधिनियम, 1992 के तहत अनुच्छेद 243(W) को जोड़ा गया, जिसके अंतर्गत नगर पालिकाओं (Municipalities) की शक्तियों, प्राधिकार एवं उत्तरदायित्वों को परिभाषित किया गया है। इसके अंतर्गत संविधान की 12वीं अनुसूची में 18 विषयों की एक सूची दी गई है, जिन पर नगर पालिकाओं को कार्य करने का अधिकार दिया गया है।
1. नगर पालिकाओं की शक्तियाँ (Powers of Municipalities)
नगर पालिकाओं को निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं:
(क) विधायी शक्तियाँ (Legislative Powers)
नगर पालिकाएँ अपने क्षेत्र में शहरी प्रशासन से संबंधित नियम एवं उपनियम बना सकती हैं।
राज्य सरकार से अनुमोदन प्राप्त करने के बाद स्थानीय कानूनों को लागू कर सकती हैं।
(ख) कार्यकारी शक्तियाँ (Executive Powers)
नगर पालिकाओं को अपने अधिकार क्षेत्र में नागरिक सुविधाओं का प्रबंधन एवं संचालन करने की शक्ति दी गई है।
नगर नियोजन, सफाई, जल आपूर्ति, सड़क निर्माण, बाजार प्रबंधन आदि से जुड़े कार्य करने का अधिकार है।
(ग) वित्तीय शक्तियाँ (Financial Powers)
कर, शुल्क एवं अन्य राजस्व स्रोतों के माध्यम से वित्तीय संसाधन जुटाने की शक्ति प्रदान की गई है।
राज्य सरकार से अनुदान प्राप्त करने और बैंकों से ऋण लेने का अधिकार है।
2. नगर पालिकाओं के प्राधिकार (Authority of Municipalities)
संविधान में नगर पालिकाओं को निम्नलिखित प्रमुख प्राधिकार प्रदान किए गए हैं:
नगर नियोजन एवं विकास (Urban Planning & Development) – नगरों का सुव्यवस्थित विकास एवं भूमि उपयोग नियोजन।
निवेश एवं अवसंरचना (Investment & Infrastructure) – सार्वजनिक भवनों, सड़कों, पुलों, जल निकासी प्रणालियों का निर्माण एवं रखरखाव।
स्वास्थ्य एवं स्वच्छता (Public Health & Sanitation) – अस्पतालों का संचालन, स्वच्छता सेवाओं का प्रबंधन, कचरा निपटान एवं सीवरेज प्रणाली का रखरखाव।
जल आपूर्ति एवं निकासी (Water Supply & Drainage) – नगर क्षेत्र में पेयजल की आपूर्ति एवं जल निकासी की व्यवस्था।
पर्यावरण संरक्षण (Environmental Protection) – प्रदूषण नियंत्रण, वृक्षारोपण, जैव विविधता संरक्षण एवं हरित क्षेत्र का विस्तार।
शहरी गरीबी उन्मूलन (Urban Poverty Alleviation) – गरीबों के लिए आवास, रोजगार योजनाएँ एवं अन्य सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों का संचालन।
बाजार एवं व्यवसायिक स्थलों का प्रबंधन (Markets & Trade Regulation) – स्थानीय बाजारों एवं व्यवसायिक प्रतिष्ठानों की स्थापना एवं विनियमन।
शिक्षा एवं संस्कृति (Education & Culture) – नगर क्षेत्र में स्कूल, पुस्तकालय, कला एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देना।
3. नगर पालिकाओं के उत्तरदायित्व (Responsibilities of Municipalities)
नगर पालिकाओं पर विभिन्न सेवाओं को प्रभावी रूप से प्रदान करने की जिम्मेदारी होती है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित प्रमुख उत्तरदायित्व आते हैं:
(क) नागरिक सुविधाएँ प्रदान करना (Providing Civic Amenities)
स्वच्छ जल आपूर्ति, सार्वजनिक शौचालय, स्ट्रीट लाइट एवं सार्वजनिक पार्कों की व्यवस्था।
यातायात प्रबंधन, सार्वजनिक परिवहन एवं सड़क मरम्मत कार्य।
(ख) पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना (Maintaining Environmental Balance)
वृक्षारोपण एवं प्रदूषण नियंत्रण उपायों को लागू करना।
अपशिष्ट प्रबंधन और पुनःचक्रण (Recycling) की व्यवस्था करना।
(ग) स्वास्थ्य एवं स्वच्छता का प्रबंधन (Managing Public Health & Sanitation)
अस्पतालों एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का संचालन।
साफ-सफाई, कचरा निपटान एवं जल निकासी की व्यवस्था करना।
(घ) आर्थिक विकास को बढ़ावा देना (Promoting Economic Development)
छोटे व्यापारियों, स्टार्टअप्स एवं उद्यमियों को प्रोत्साहित करने के लिए बाजार एवं व्यावसायिक क्षेत्र विकसित करना।
श्रमशक्ति विकास कार्यक्रमों के माध्यम से रोजगार सृजन।
(ङ) कानून एवं व्यवस्था बनाए रखना (Maintaining Law & Order)
अनाधिकृत निर्माणों की रोकथाम, यातायात नियंत्रण एवं स्थानीय विवादों का समाधान।
नगर सुरक्षा योजनाओं को लागू करना, विशेष रूप से अग्निशमन सेवाओं का संचालन।
12वीं अनुसूची के अंतर्गत नगर पालिकाओं के 18 विषय
संविधान की 12वीं अनुसूची में नगर पालिकाओं को सौंपे गए 18 विषय निम्नलिखित हैं:
नगर नियोजन
भूमि उपयोग नियोजन एवं भवन निर्माण
आर्थिक और सामाजिक विकास की योजना
सड़कें एवं पुल
जल आपूर्ति
सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता एवं ठोस अपशिष्ट प्रबंधन
अग्नि सुरक्षा सेवाएँ
शहरी वानिकी एवं पर्यावरण संरक्षण
झुग्गी-बस्तियों का उन्नयन
गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम
सार्वजनिक सुविधाओं का प्रबंधन
सांस्कृतिक, शैक्षिक एवं सौंदर्यीकरण कार्य
नगर क्षेत्र में गोरक्षा एवं पशुपालन
नागरिक सुरक्षा सेवाएँ
स्ट्रीट लाइट एवं बिजली आपूर्ति
जलमार्गों, बस स्टैंड, पार्किंग स्थलों का प्रबंधन
सांख्यिकीय डेटा संग्रहण
किसी भी अन्य कार्य जिसे राज्य सरकार उचित समझे
निष्कर्ष
संविधान के अनुच्छेद 243(W) और 12वीं अनुसूची के तहत नगर पालिकाओं को कई महत्वपूर्ण शक्तियाँ, प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व प्रदान किए गए हैं। इनका उद्देश्य शहरी प्रशासन को अधिक प्रभावी बनाना और नागरिकों को बेहतर सेवाएँ उपलब्ध कराना है। यदि नगर पालिकाएँ अपनी वित्तीय एवं प्रशासनिक क्षमताओं का सही उपयोग करें, तो शहरों का समुचित विकास एवं सुशासन सुनिश्चित किया जा सकता है।
04. स्थानीय स्वशासन क्या है? इसे और मजबूत कैसे बनाया जा सकता है? अपने सुझाव प्रस्तुत करें।
1. स्थानीय स्वशासन का अर्थ
स्थानीय स्वशासन (Local Self-Government) वह प्रशासनिक व्यवस्था है जिसमें स्थानीय स्तर पर जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि अपने क्षेत्र की समस्याओं का समाधान करने और विकास कार्यों का संचालन करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। यह लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत बनाता है और शासन को जनता के नजदीक लाता है।
भारत में स्थानीय स्वशासन को 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन (1992) के माध्यम से संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
73वां संशोधन – ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पंचायत राज व्यवस्था स्थापित करता है।
74वां संशोधन – शहरी क्षेत्रों के लिए नगर पालिका प्रणाली लागू करता है।
2. स्थानीय स्वशासन को मजबूत बनाने के उपाय
स्थानीय स्वशासन को प्रभावी और सशक्त बनाने के लिए निम्नलिखित सुधार आवश्यक हैं:
(क) वित्तीय सशक्तिकरण (Financial Empowerment)
स्वतंत्र वित्तीय स्रोत – नगर निकायों और पंचायतों को कर लगाने एवं राजस्व जुटाने की अधिक स्वायत्तता दी जानी चाहिए।
राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों का क्रियान्वयन – राज्य सरकारों को समय-समय पर वित्त आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार स्थानीय निकायों को निधि प्रदान करनी चाहिए।
स्वतंत्र बजट प्रबंधन – स्थानीय निकायों को अपने बजट और व्यय की योजना स्वयं बनाने की शक्ति मिलनी चाहिए।
नवाचार वित्तीय मॉडल – पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) और CSR फंडिंग जैसी योजनाओं को अपनाना चाहिए।
(ख) प्रशासनिक सुधार (Administrative Reforms)
स्थानीय निकायों में पारदर्शिता – ई-गवर्नेंस और डिजिटल रिकॉर्ड रखने की व्यवस्था लागू की जानी चाहिए।
सक्षम नेतृत्व – निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्रशासनिक एवं प्रबंधकीय प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
राज्य सरकार का हस्तक्षेप सीमित किया जाए – स्थानीय निकायों को स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति दी जाए।
सशक्त ग्राम सभाएँ एवं वार्ड समितियाँ – जनता की सीधी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ग्राम सभाओं और वार्ड समितियों को अधिक अधिकार दिए जाएँ।
(ग) तकनीकी एवं डिजिटल सुधार (Technological & Digital Reforms)
ई-गवर्नेंस को बढ़ावा – ऑनलाइन सेवाएँ, कर भुगतान, शिकायत निवारण तंत्र और डिजिटल योजना प्रबंधन को लागू करना चाहिए।
स्मार्ट सिटीज़ एवं डिजिटल पंचायतें – स्मार्ट शहर योजनाओं की तरह डिजिटल पंचायतों की अवधारणा विकसित करनी चाहिए।
GIS आधारित शहरी नियोजन – नगरों में भूमि उपयोग और विकास योजनाओं के लिए GIS (Geographic Information System) तकनीक अपनाई जानी चाहिए।
(घ) जनभागीदारी एवं जागरूकता (Public Participation & Awareness)
स्थानीय लोगों की भागीदारी – जनता को योजनाओं में शामिल करने के लिए जन-सुनवाई एवं संवाद सत्र आयोजित किए जाने चाहिए।
शिक्षा और जागरूकता अभियान – नागरिकों को स्थानीय शासन की संरचना और उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित किया जाए।
सामाजिक अंकेक्षण (Social Audit) – योजनाओं के प्रभाव और भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए सामाजिक अंकेक्षण को अनिवार्य बनाया जाए।
(ङ) स्वायत्तता एवं राजनीतिक सुधार (Autonomy & Political Reforms)
स्वतंत्रता सुनिश्चित करना – स्थानीय निकायों को राज्य सरकारों के अनुचित हस्तक्षेप से बचाना चाहिए।
स्थानीय निकाय चुनावों को अधिक स्वतंत्र बनाना – राज्य चुनाव आयोग को अधिक शक्तियाँ दी जाएँ ताकि चुनाव निष्पक्ष तरीके से हो सकें।
स्थानीय प्रतिनिधियों के लिए उत्तरदायित्व तय करना – चुने गए सदस्यों के प्रदर्शन की निगरानी के लिए जन-अभियोग प्रणाली लागू की जानी चाहिए।
3. निष्कर्ष
स्थानीय स्वशासन लोकतंत्र की आत्मा है और नागरिकों को शासन में भागीदारी का अवसर देता है। इसे प्रभावी बनाने के लिए वित्तीय, प्रशासनिक, तकनीकी और राजनीतिक सुधार आवश्यक हैं। यदि स्थानीय निकायों को अधिक स्वायत्तता, वित्तीय संसाधन और आधुनिक तकनीकी सुविधाएँ प्रदान की जाएँ, तो वे शहरी और ग्रामीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
You said:
05. स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना (एस० जे०एस०आर०वाई) क्या थी? सामुदायिक विकास में इसकी भूमिका पर चर्चा करें।
ChatGPT said:
स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना (SJSRY): एक अवलोकन
स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना (Swarna Jayanti Shahari Rozgar Yojana - SJSRY) को भारत सरकार द्वारा 1 दिसंबर 1997 को शुरू किया गया था। यह योजना मुख्य रूप से शहरी गरीबों को रोजगार के अवसर प्रदान करने और उनके सामाजिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से शुरू की गई थी। इस योजना को राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (NULM) के तहत 2013 में पुनः संरचित कर दिया गया।
1. स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना (SJSRY) का उद्देश्य
शहरी गरीबों को स्वरोजगार एवं कुशलता आधारित रोजगार उपलब्ध कराना।
गरीबों के लिए स्वरोजगार एवं स्वयं सहायता समूह (SHG) के गठन को प्रोत्साहित करना।
शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी को कम करने के लिए कौशल प्रशिक्षण प्रदान करना।
गरीबों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना और गरीबी रेखा से ऊपर उठाना।
सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देना और महिलाओं एवं कमजोर वर्गों को लाभान्वित करना।
2. SJSRY की प्रमुख विशेषताएँ
(क) योजना के दो प्रमुख घटक
शहरी स्वरोजगार कार्यक्रम (Urban Self-Employment Programme - USEP)
शहरी गरीबों को व्यवसाय शुरू करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाती थी।
महिला उद्यमियों को विशेष प्राथमिकता दी गई।
ऋण एवं सब्सिडी के रूप में सहायता दी जाती थी।
शहरी वेतन रोजगार कार्यक्रम (Urban Wage Employment Programme - UWEP)
अर्ध-कुशल और अकुशल श्रमिकों को सार्वजनिक कार्यों में रोजगार प्रदान किया जाता था।
सड़कों, नालियों, सामुदायिक भवनों एवं अन्य आधारभूत ढांचे के निर्माण के लिए श्रमिकों को रोजगार दिया जाता था।
(ख) सामुदायिक भागीदारी का प्रावधान
योजना में महिला स्वयं सहायता समूहों (Self Help Groups - SHGs) और सामुदायिक विकास संगठनों (CDOs) की भागीदारी को प्रोत्साहित किया गया।
विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) और स्थानीय निकायों को योजना के क्रियान्वयन में शामिल किया गया।
(ग) महिला सशक्तिकरण पर जोर
योजना के तहत कम से कम 30% लाभार्थी महिलाएँ होनी चाहिए।
महिलाओं को स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षण एवं वित्तीय सहायता दी गई।
(घ) गरीबी रेखा से नीचे (BPL) परिवारों को प्राथमिकता
केवल गरीबी रेखा से नीचे (BPL) जीवनयापन करने वाले परिवारों को लाभ प्रदान किया गया।
कमजोर वर्गों जैसे अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), विकलांग एवं अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लोगों को प्राथमिकता दी गई।
3. सामुदायिक विकास में SJSRY की भूमिका
SJSRY ने शहरी गरीबों को रोजगार प्रदान करने और सामुदायिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके प्रभाव निम्नलिखित हैं:
(क) आर्थिक सशक्तिकरण
छोटे उद्योगों, दुकानों एवं सेवा क्षेत्र में रोजगार सृजन हुआ।
स्वरोजगार योजनाओं के तहत कई गरीबों को ऋण एवं सब्सिडी प्राप्त हुई, जिससे वे अपना खुद का व्यवसाय स्थापित कर सके।
(ख) कौशल विकास एवं शिक्षा
तकनीकी एवं व्यवसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों से शहरी गरीबों को प्रशिक्षित किया गया।
गरीब तबके को रोजगार के लिए आवश्यक कौशल विकसित करने का अवसर मिला।
(ग) आधारभूत संरचना में सुधार
सड़कों, नालियों, सामुदायिक भवनों का निर्माण कर शहरी क्षेत्रों के आधारभूत ढांचे में सुधार हुआ।
योजना के तहत स्लम क्षेत्रों के विकास पर भी ध्यान दिया गया।
(घ) महिला सशक्तिकरण
SHGs के गठन से महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता बढ़ी।
महिलाओं को रोजगार, वित्तीय सहायता और कौशल प्रशिक्षण दिया गया।
(ङ) सामुदायिक भागीदारी में वृद्धि
योजना में स्थानीय निकायों, गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) और सामुदायिक संगठनों (CDOs) की भागीदारी बढ़ी।
गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सामुदायिक नेतृत्व को बढ़ावा दिया गया।
4. योजना की सीमाएँ एवं चुनौतियाँ
क्रियान्वयन में देरी – कई राज्यों में योजना ठीक से लागू नहीं की गई।
वित्तीय समस्याएँ – धन की कमी और ऋण प्राप्ति में कठिनाई आई।
भ्रष्टाचार एवं पारदर्शिता की कमी – कुछ स्थानों पर भ्रष्टाचार के कारण लाभार्थियों तक पूरी सहायता नहीं पहुँच पाई।
शहरी निर्धनों की संख्या अधिक होने से चुनौतियाँ – सीमित संसाधनों के कारण सभी जरूरतमंदों को लाभ नहीं मिला।
5. SJSRY के स्थान पर नई योजना – राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (NULM)
2013 में SJSRY को "राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (National Urban Livelihood Mission - NULM)" से बदल दिया गया।
NULM की विशेषताएँ:
कौशल विकास एवं रोजगार सृजन पर अधिक ध्यान।
गरीबों को स्थायी रोजगार देने के लिए शहरी रोजगार प्रशिक्षण केंद्र (City Livelihood Centers - CLCs) की स्थापना।
स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए आसान ऋण प्रणाली।
शहरी गरीबों के लिए बेहतर आजीविका के अवसर उपलब्ध कराना।
6. निष्कर्ष
स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना (SJSRY) ने शहरी गरीबी उन्मूलन, रोजगार सृजन और सामुदायिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस योजना के माध्यम से शहरी गरीबों को स्वरोजगार, कौशल प्रशिक्षण और सामुदायिक भागीदारी का अवसर मिला। हालाँकि, इसे पूर्ण रूप से सफल बनाने के लिए और अधिक सुधारों की आवश्यकता थी, जिसके कारण इसे NULM योजना में परिवर्तित कर दिया गया।
अगर NULM को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए, तो यह शहरी गरीबों के लिए अधिक रोजगार एवं आत्मनिर्भरता सुनिश्चित कर सकता है।
SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS
01. नगरीय प्रशासन में राज्य सरकारों की भूमिका पर टिप्पणी करें।
नगरीय प्रशासन (Urban Administration) किसी भी देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत में, 74वां संविधान संशोधन (1992) के तहत शहरी स्थानीय निकायों (Urban Local Bodies - ULBs) को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया, जिससे वे शहरी क्षेत्रों के प्रशासन और विकास में स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें। हालांकि, नगरीय प्रशासन के प्रभावी संचालन में राज्य सरकारों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
1. नगरीय प्रशासन में राज्य सरकार की भूमिका
संविधान के अनुसार, नगरपालिका प्रणाली राज्य सूची (State List) के अंतर्गत आती है, जिसका अर्थ है कि राज्य सरकारों का शहरी प्रशासन पर सीधा नियंत्रण होता है। राज्य सरकार निम्नलिखित तरीकों से नगरीय प्रशासन को संचालित करती है:
(क) विधायी भूमिका (Legislative Role)
नगर निकायों के गठन एवं संरचना का निर्धारण – राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों में नगर निगम, नगर परिषद और नगर पंचायतों की स्थापना एवं उनकी संरचना तय करती हैं।
नगर निकायों के अधिकार एवं शक्तियों को परिभाषित करना – राज्य सरकारें नगरपालिका अधिनियम (Municipal Act) के माध्यम से नगर निकायों को उनके कर्तव्यों, अधिकारों और दायित्वों का निर्धारण करती हैं।
विकास योजनाओं का निर्माण – शहरी क्षेत्रों में विकास कार्यों के लिए नीतियाँ एवं योजनाएँ बनाई जाती हैं, जैसे कि स्मार्ट सिटी मिशन, अमृत योजना और प्रधानमंत्री आवास योजना।
(ख) वित्तीय भूमिका (Financial Role)
वित्तीय सहायता प्रदान करना – नगर निकायों को विभिन्न विकास योजनाओं के लिए राज्य सरकार अनुदान और सहायता राशि प्रदान करती है।
कर एवं राजस्व संग्रहण में मार्गदर्शन – राज्य सरकारें संपत्ति कर, जल कर, मनोरंजन कर एवं अन्य करों के संग्रहण और उपयोग की प्रक्रियाएँ निर्धारित करती हैं।
राज्य वित्त आयोग (SFC) का गठन – राज्य सरकारों द्वारा गठित राज्य वित्त आयोग (State Finance Commission) यह तय करता है कि राज्य के कर राजस्व का कितना हिस्सा नगर निकायों को दिया जाएगा।
(ग) प्रशासनिक एवं नियामक भूमिका (Administrative & Regulatory Role)
निगरानी एवं नियंत्रण – राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करती हैं कि नगर निकाय विकास योजनाओं और सेवाओं को प्रभावी ढंग से लागू करें।
नगर निकायों की क्षमता वृद्धि – स्थानीय प्रशासन को अधिक कुशल बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम और तकनीकी सहायता प्रदान की जाती है।
निगमायुक्तों (Municipal Commissioners) एवं अन्य अधिकारियों की नियुक्ति – राज्य सरकारें नगर निकायों के शीर्ष अधिकारियों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण करती हैं।
नगर निकायों के कार्यों का मूल्यांकन – राज्य सरकार यह सुनिश्चित करती है कि नगर निकाय पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ कार्य करें।
(घ) योजना एवं विकास में भूमिका (Role in Planning & Development)
शहरी नियोजन एवं आधारभूत संरचना विकास – राज्य सरकारें सड़क, परिवहन, जल आपूर्ति, स्वच्छता, कचरा प्रबंधन, स्ट्रीट लाइटिंग और अन्य बुनियादी सेवाओं के लिए नीतियाँ तैयार करती हैं।
शहरी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम – राज्य सरकारें केंद्र सरकार के सहयोग से राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (NULM), प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY), स्वच्छ भारत मिशन (SBM) जैसी योजनाओं को लागू करती हैं।
पर्यावरण संरक्षण एवं स्वच्छता – प्रदूषण नियंत्रण, हरित क्षेत्र विकसित करने, अपशिष्ट प्रबंधन एवं जल संरक्षण जैसे कार्यों में राज्य सरकारें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
(ङ) विवाद समाधान एवं कानूनी सहायता (Conflict Resolution & Legal Assistance)
नगर निकायों के बीच विवादों का समाधान – राज्य सरकारें स्थानीय प्रशासन के भीतर होने वाले विवादों को सुलझाने के लिए कानूनी सहायता एवं मध्यस्थता प्रदान करती हैं।
नए कानूनों का निर्माण – शहरी विकास से संबंधित नए कानूनों और नीतियों को लागू करने का कार्य राज्य सरकार द्वारा किया जाता है।
2. राज्य सरकार की भूमिका से उत्पन्न समस्याएँ
हालांकि राज्य सरकारों की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन कई बार यह नगरीय प्रशासन की स्वायत्तता को प्रभावित करती है। मुख्य समस्याएँ निम्नलिखित हैं:
राज्य सरकार का अत्यधिक नियंत्रण – कई मामलों में राज्य सरकारें नगर निकायों के निर्णयों को प्रभावित करती हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता सीमित हो जाती है।
वित्तीय निर्भरता – नगर निकायों की स्वतंत्र आय सीमित होती है और वे राज्य सरकार की अनुदान राशि पर निर्भर रहते हैं।
राजनीतिक हस्तक्षेप – कई बार राज्य सरकारें नगर निकायों के कार्यों में हस्तक्षेप करती हैं, जिससे प्रशासन की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
कमजोर प्रशासनिक क्षमता – कई नगर निकायों के पास कुशल प्रशासनिक तंत्र और संसाधनों की कमी होती है, जिससे वे अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर पाते।
3. नगरीय प्रशासन को अधिक प्रभावी बनाने के लिए सुझाव
नगर निकायों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाए – राज्य सरकारों को नगर निकायों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाए – नगर निकायों को अपनी आय बढ़ाने के लिए अधिक कर लगाने एवं वित्तीय संसाधन जुटाने की शक्ति दी जानी चाहिए।
ई-गवर्नेंस एवं पारदर्शिता को बढ़ावा दिया जाए – नगर प्रशासन को अधिक डिजिटल और पारदर्शी बनाया जाना चाहिए ताकि भ्रष्टाचार कम हो और जनता को बेहतर सेवाएँ मिलें।
स्थानीय नेतृत्व को सशक्त किया जाए – महापौर और अन्य निर्वाचित प्रतिनिधियों को निर्णय लेने की अधिक शक्तियाँ प्रदान की जाएं।
नगरपालिका सेवाओं में निजी भागीदारी को बढ़ावा दिया जाए – निजी क्षेत्र के सहयोग से शहरी सेवाओं में सुधार किया जा सकता है।
राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों को प्रभावी रूप से लागू किया जाए ताकि नगर निकायों को वित्तीय संसाधन समय पर मिलें।
4. निष्कर्ष
नगरीय प्रशासन के सुचारू संचालन और शहरी विकास में राज्य सरकारों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे नगर निकायों को वित्तीय, कानूनी, प्रशासनिक और तकनीकी सहायता प्रदान करती हैं। हालांकि, शहरी स्थानीय निकायों को अधिक स्वायत्तता, वित्तीय स्वतंत्रता और प्रशासनिक अधिकार दिए जाने की आवश्यकता है ताकि वे स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें और शहरी विकास को प्रभावी ढंग से बढ़ावा दे सकें।
यदि राज्य सरकारें सहायता करने वाली भूमिका में रहेंगी और नगर निकायों को स्वतंत्रता एवं संसाधन प्रदान करेंगी, तो नगरीय प्रशासन अधिक प्रभावी एवं उत्तरदायी बन सकेगा।
You said:
02. नगर पालिका एवं नगर निगम जैसे निकायों के गठन हेतु आवश्यक शर्तों का उल्लेख करें।
ChatGPT said:
नगर पालिका एवं नगर निगम के गठन हेतु आवश्यक शर्तें
भारत में नगर निकायों का गठन 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के तहत किया गया। इस संशोधन के तहत नगर पालिका (Municipality) एवं नगर निगम (Municipal Corporation) जैसी संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
नगर निकायों के गठन की प्रक्रिया राज्य सरकारों द्वारा संबंधित राज्य के नगरपालिका अधिनियमों के अनुसार निर्धारित की जाती है। इन निकायों की स्थापना के लिए कुछ मूलभूत शर्तों को पूरा करना आवश्यक होता है।
1. नगर निकायों का प्रकार
भारत में नगर निकायों को शहरी आबादी के आकार एवं आर्थिक स्थिति के आधार पर तीन प्रमुख श्रेणियों में बाँटा गया है:
नगर निगम (Municipal Corporation) – बड़े शहरों के लिए।
नगर परिषद (Municipal Council or Municipality) – मध्यम आकार के शहरों के लिए।
नगर पंचायत (Nagar Panchayat) – छोटे कस्बों या नगरों के लिए।
2. नगर पालिका एवं नगर निगम के गठन हेतु आवश्यक शर्तें
(क) जनसंख्या संबंधी मापदंड
नगर निगम (Municipal Corporation) का गठन आमतौर पर 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों में किया जाता है।
नगर पालिका (Municipality) का गठन 20,000 से 10 लाख तक की जनसंख्या वाले शहरों में किया जाता है।
नगर पंचायत (Nagar Panchayat) का गठन 10,000 से 20,000 की जनसंख्या वाले छोटे कस्बों के लिए किया जाता है।
राज्य सरकारें इन जनसंख्या मानकों को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित कर सकती हैं।
(ख) भौगोलिक क्षेत्र एवं शहरीकरण का स्तर
शहरी निकाय का गठन उन क्षेत्रों में किया जाता है जहाँ कृषि कार्य अपेक्षाकृत कम एवं औद्योगिक, व्यापारिक और व्यावसायिक गतिविधियाँ अधिक होती हैं।
शहरी क्षेत्र का भौगोलिक विस्तार भी नगर निगम या नगर पालिका के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
यदि कोई क्षेत्र तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रहा हो, तो उसे नगर निकाय का दर्जा दिया जा सकता है।
(ग) राजस्व एवं आर्थिक गतिविधियाँ
किसी क्षेत्र में स्थानीय प्रशासन को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए पर्याप्त कर संग्रहण क्षमता होनी चाहिए।
क्षेत्र में व्यापारिक एवं औद्योगिक गतिविधियाँ होनी चाहिए, जिससे नगर निकाय को कर एवं शुल्क के रूप में पर्याप्त राजस्व प्राप्त हो सके।
यदि कोई क्षेत्र मुख्यतः ग्रामीण है और वहाँ कर-संग्रहण की संभावना कम है, तो उसे नगर निकाय का दर्जा नहीं दिया जाता।
(घ) अधोसंरचना एवं सुविधाएँ
नगर निकाय उन्हीं क्षेत्रों में गठित किए जाते हैं जहाँ सड़क, जल आपूर्ति, बिजली, कचरा प्रबंधन, परिवहन एवं स्वास्थ्य सुविधाओं की आवश्यकता होती है।
किसी क्षेत्र में नगर निगम या पालिका तभी गठित की जाती है जब वहाँ की मूलभूत संरचना को उन्नत करने की आवश्यकता होती है।
(ङ) राजनीतिक एवं प्रशासनिक सहमति
नगर निकायों के गठन के लिए राज्य सरकार की सहमति आवश्यक होती है।
राज्य सरकार संबंधित क्षेत्र की समीक्षा करने के बाद ही नगर निगम या नगर पालिका के गठन की स्वीकृति प्रदान करती है।
नए नगर निकाय के गठन के लिए स्थानीय जनता एवं निर्वाचित प्रतिनिधियों की सहमति भी आवश्यक होती है।
(च) कानूनी प्रावधान एवं अधिनियम
प्रत्येक राज्य का अपना नगरपालिका अधिनियम (Municipal Act) होता है, जिसके तहत नगर निकायों के गठन की प्रक्रिया निर्धारित की जाती है।
नए नगर निगम या पालिका के गठन के लिए राज्य सरकार को एक अधिसूचना (Notification) जारी करनी होती है।
नगर निकायों की सीमाएँ एवं अधिकार क्षेत्र तय करने के लिए राज्य सरकार समय-समय पर संशोधन कर सकती है।
3. नगर पालिका एवं नगर निगम के गठन की प्रक्रिया
नगर निकायों का गठन एक विशिष्ट प्रक्रिया के तहत किया जाता है:
संभाव्यता अध्ययन (Feasibility Study) – संबंधित क्षेत्र की जनसंख्या, राजस्व, शहरीकरण स्तर एवं अधोसंरचना की समीक्षा की जाती है।
स्थानीय निकायों से परामर्श (Consultation with Local Bodies) – क्षेत्र की जनता, पंचायतों, जिला परिषदों एवं प्रशासनिक अधिकारियों से परामर्श किया जाता है।
राज्य सरकार की अनुशंसा (Recommendation by State Government) – राज्य सरकार नगर निकाय के गठन की अनुशंसा (Recommendation) करती है।
सरकारी अधिसूचना (Government Notification) – यदि राज्य सरकार संतुष्ट होती है, तो वह राजपत्र (Gazette) में अधिसूचना जारी करती है।
चुनाव प्रक्रिया (Election Process) – नगर निकाय के गठन के बाद निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव कराए जाते हैं, जिससे नगर निकाय के निर्वाचित प्रतिनिधि चुने जाते हैं।
4. नगर निकायों के गठन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण बिंदु
नगर निगम का नेतृत्व महापौर (Mayor) करते हैं, जबकि नगर पालिका का नेतृत्व अध्यक्ष (Chairperson) करता है।
नगर निकायों की संचालन अवधि 5 वर्ष की होती है।
नगर निगम या नगर पालिका को राज्य सरकार की स्वीकृति के बिना समाप्त नहीं किया जा सकता।
किसी क्षेत्र को नगर निकाय का दर्जा देने के बाद उसे ग्राम पंचायत से अलग कर दिया जाता है।
5. निष्कर्ष
नगर निगम एवं नगर पालिका जैसे निकायों के गठन के लिए जनसंख्या, राजस्व, शहरीकरण, बुनियादी ढाँचा एवं कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया जाता है। राज्य सरकारों की भूमिका इसमें अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
यदि कोई क्षेत्र शहरी सुविधाओं की मांग बढ़ने, राजस्व में वृद्धि और जनसंख्या विस्तार के कारण तेजी से विकसित हो रहा हो, तो उसे नगर निकाय का दर्जा देकर स्थानीय प्रशासन को मजबूत बनाया जाता है।
03. नगर निगम में महापौर (मेयर) की नियुक्ति प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए उसके दायित्वों की चर्चा करें।
नगर निगम (Municipal Corporation) भारत में एक स्थानीय स्वशासन निकाय है, जो बड़े शहरों और महानगरों के प्रशासन का कार्य करता है। नगर निगम का प्रमुख पदाधिकारी महापौर (Mayor) होता है, जो इस संस्था का नेतृत्व करता है और विभिन्न प्रशासनिक एवं कार्यकारी जिम्मेदारियों का निर्वहन करता है।
महापौर की नियुक्ति प्रक्रिया एवं दायित्वों को समझने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर चर्चा की जा सकती है:
1. महापौर (Mayor) की नियुक्ति प्रक्रिया
महापौर की नियुक्ति का तरीका राज्य सरकार के नगरपालिका अधिनियम पर निर्भर करता है। आमतौर पर, महापौर की नियुक्ति निम्नलिखित दो तरीकों से की जाती है:
(क) प्रत्यक्ष चुनाव (Direct Election)
कुछ राज्यों में महापौर का चुनाव जनता के प्रत्यक्ष मतदान द्वारा किया जाता है।
इसमें नगर निगम क्षेत्र में रहने वाले मतदाता सीधे अपने वोट के माध्यम से महापौर का चयन करते हैं।
यह प्रक्रिया लोकतांत्रिक और पारदर्शी होती है, जिससे महापौर को अधिक जनसमर्थन प्राप्त होता है।
(ख) परोक्ष चुनाव (Indirect Election)
कई राज्यों में महापौर का चुनाव नगर निगम के निर्वाचित पार्षदों (Corporators) द्वारा किया जाता है।
नगर निगम के चुनावों में विजयी हुए पार्षद अपनी बैठक में बहुमत से किसी एक को महापौर के रूप में चुनते हैं।
यह चुनाव राज्य सरकार द्वारा निर्धारित नियमों एवं अधिनियमों के अनुसार होता है।
(ग) महापौर का कार्यकाल
अधिकांश राज्यों में महापौर का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है, लेकिन कुछ राज्यों में यह 1 से 2 वर्ष का भी हो सकता है।
कार्यकाल समाप्त होने के बाद महापौर पुनः चुनाव लड़ सकता है।
2. महापौर के दायित्व (Responsibilities of Mayor)
महापौर नगर निगम का प्रमुख पदाधिकारी होने के नाते शहर के सुचारू प्रशासन और विकास से संबंधित विभिन्न कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है। उसके प्रमुख दायित्व निम्नलिखित हैं:
(क) प्रशासनिक दायित्व (Administrative Responsibilities)
नगर निगम की बैठकों की अध्यक्षता – महापौर नगर निगम की नियमित बैठकों की अध्यक्षता करता है और निर्णयों पर मुहर लगाता है।
नगर निगम के कर्मचारियों का पर्यवेक्षण – महापौर नगर आयुक्त (Municipal Commissioner) तथा अन्य अधिकारियों के कार्यों की निगरानी करता है।
विभिन्न विभागों का समन्वय – शहर के जल आपूर्ति, स्वच्छता, सड़क निर्माण, परिवहन आदि विभागों में समन्वय स्थापित करना।
विकास परियोजनाओं की निगरानी – शहर में चल रही विभिन्न विकास योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू करने की जिम्मेदारी महापौर की होती है।
(ख) विधायी दायित्व (Legislative Responsibilities)
शहरी नीतियों का निर्माण – नगर निगम में विभिन्न शहरी विकास एवं प्रशासनिक योजनाओं के लिए नीतियाँ बनाना।
नगर निगम अधिनियमों का पालन सुनिश्चित करना – महापौर यह सुनिश्चित करता है कि सभी पारित नियमों एवं अधिनियमों का उचित अनुपालन हो।
शहर की बजट योजना पर निर्णय लेना – नगर निगम की वार्षिक बजट बैठक में शहर के विकास कार्यों के लिए धन आवंटित करना।
(ग) वित्तीय दायित्व (Financial Responsibilities)
नगर निगम की आय और व्यय की निगरानी – महापौर को शहर के राजस्व स्रोतों (जैसे संपत्ति कर, जल कर, मनोरंजन कर आदि) की देखरेख करनी होती है।
विकास परियोजनाओं के लिए धन आवंटित करना – महापौर शहर के विभिन्न विकास कार्यों के लिए उचित धनराशि वितरित करता है।
राज्य एवं केंद्र सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त करना – विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत नगर निगम को अनुदान दिलाने का प्रयास करना।
(घ) नागरिक सेवाओं से संबंधित दायित्व (Civic Responsibilities)
स्वच्छता एवं पर्यावरण सुधार – शहर की सफाई व्यवस्था को सुचारू रखना और स्वच्छ भारत अभियान जैसी योजनाओं को लागू करना।
बिजली, पानी एवं सड़क व्यवस्था को सुधारना – नागरिकों को आवश्यक सेवाएँ उपलब्ध कराना।
अस्पताल एवं स्वास्थ्य सेवाएँ सुनिश्चित करना – नगर निगम के तहत आने वाले अस्पतालों और डिस्पेंसरियों की स्थिति में सुधार करना।
शिक्षा एवं सांस्कृतिक विकास – सरकारी स्कूलों एवं पुस्तकालयों के विकास के लिए कार्य करना।
(ङ) आपातकालीन प्रबंधन (Emergency Management)
प्राकृतिक आपदाओं के समय राहत कार्यों का संचालन – बाढ़, भूकंप, महामारी आदि के दौरान राहत योजनाएँ लागू करना।
अग्निशमन सेवाओं की निगरानी – शहर में अग्निशमन सेवाओं को प्रभावी रूप से संचालित करना।
महामारी नियंत्रण – कोरोना जैसी महामारियों के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं को सुचारू रूप से संचालित करना।
3. महापौर के अधिकार एवं सीमाएँ
(क) महापौर के प्रमुख अधिकार
नगर निगम की सभी बैठकों की अध्यक्षता करने का अधिकार।
आपातकालीन परिस्थितियों में विशेष आदेश जारी करने की शक्ति।
नगर निगम द्वारा पारित नीतियों को लागू कराने की शक्ति।
नगर निगम के कर्मचारियों एवं अधिकारियों की नियुक्ति की अनुशंसा करने का अधिकार।
(ख) महापौर की सीमाएँ
महापौर के पास स्वतंत्र निर्णय लेने की सीमित शक्तियाँ होती हैं, क्योंकि उसे कई मामलों में नगर आयुक्त एवं राज्य सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है।
नगर निगम के वित्तीय निर्णयों में राज्य सरकार का हस्तक्षेप होता है।
कई मामलों में नगर आयुक्त (जो राज्य सरकार का नियुक्त अधिकारी होता है) प्रशासनिक कार्यों में अधिक प्रभावी होता है।
4. महापौर के प्रभावी कार्यकाल के लिए सुझाव
महापौर की शक्तियों को बढ़ाया जाए ताकि वह स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सके।
नगर आयुक्त एवं महापौर के बीच संतुलन स्थापित किया जाए, ताकि प्रशासन अधिक सुचारू रूप से चले।
डिजिटल गवर्नेंस को बढ़ावा दिया जाए, जिससे प्रशासनिक प्रक्रियाएँ पारदर्शी हों।
वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाए, ताकि महापौर को विकास कार्यों के लिए राज्य सरकार पर अत्यधिक निर्भर न रहना पड़े।
5. निष्कर्ष
महापौर नगर निगम का प्रमुख होता है और वह नगर निगम की बैठकों की अध्यक्षता करने, प्रशासनिक कार्यों की निगरानी, नागरिक सेवाओं के प्रबंधन एवं आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए उत्तरदायी होता है।
हालांकि, उसकी शक्तियाँ सीमित होती हैं, क्योंकि कई निर्णयों के लिए उसे नगर निगम के पार्षदों, नगर आयुक्त और राज्य सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है। यदि महापौर को अधिक स्वायत्तता और वित्तीय स्वतंत्रता दी जाए, तो वह नगर प्रशासन को और अधिक प्रभावी बना सकता है।
04. नगर निगम के मुख्य लक्षणों की चर्चा करें।
नगर निगम (Municipal Corporation) भारत में स्थानीय स्वशासन की एक महत्वपूर्ण इकाई है, जो बड़े शहरी क्षेत्रों के प्रशासन एवं विकास के लिए उत्तरदायी होती है। 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के तहत नगर निगम को संवैधानिक दर्जा दिया गया, जिससे इसे अधिक स्वायत्तता एवं अधिकार प्राप्त हुए।
नगर निगम की संरचना एवं कार्यप्रणाली कुछ मुख्य लक्षणों पर आधारित होती है, जो इसे अन्य शहरी निकायों से अलग बनाते हैं।
1. गठन एवं अधिनियम (Formation and Legislation)
नगर निगम का गठन राज्य सरकार द्वारा अधिनियमित नगर निगम अधिनियम (Municipal Corporation Act) के तहत किया जाता है।
बड़े शहरों एवं महानगरों (आमतौर पर 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र) में नगर निगम का गठन किया जाता है।
नगर निगम को एक स्वायत्त निकाय (Autonomous Body) के रूप में कार्य करने की स्वतंत्रता प्राप्त होती है।
2. प्रशासनिक संरचना (Administrative Structure)
नगर निगम की प्रशासनिक संरचना त्रिस्तरीय होती है:
महापौर (Mayor) – नगर निगम का अध्यक्ष एवं निर्वाचित प्रतिनिधि होता है, जो निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है।
नगर आयुक्त (Municipal Commissioner) – यह एक IAS अधिकारी होता है, जिसे राज्य सरकार नियुक्त करती है और यह नगर निगम के दैनिक प्रशासन को संभालता है।
नगर निगम परिषद (Municipal Council) – इसमें विभिन्न वार्डों से चुने गए पार्षद (Councilors) होते हैं, जो नगर निगम की नीतियों और विकास कार्यों पर निर्णय लेते हैं।
3. स्थानीय स्वशासन की स्वायत्तता (Autonomy in Local Governance)
नगर निगम को स्वतंत्र रूप से शहरी प्रशासन एवं विकास कार्य करने की शक्ति प्राप्त होती है।
यह एक निर्वाचित निकाय होता है, जिसमें विभिन्न वार्डों से पार्षद चुने जाते हैं।
नगर निगम की अपनी वित्तीय, विधायी एवं कार्यकारी शक्तियाँ होती हैं, हालांकि इसे राज्य सरकार के निर्देशों का पालन करना होता है।
4. वित्तीय स्वायत्तता (Financial Autonomy)
नगर निगम की अपनी आय के विभिन्न स्रोत होते हैं, जिससे यह अपने कार्यों का संचालन करता है:
संपत्ति कर (Property Tax) – नगर निगम के आय का मुख्य स्रोत।
व्यवसाय कर (Business Tax) – नगर क्षेत्र में चलने वाले व्यापार एवं उद्यमों से लिया जाता है।
जल कर, मनोरंजन कर, वाहन कर आदि – शहर की सुविधाओं के लिए अलग-अलग कर वसूले जाते हैं।
राज्य सरकार से अनुदान (Grants from State Government) – नगर निगम को राज्य सरकार से वित्तीय सहायता भी मिलती है।
5. विधायी एवं नीतिगत शक्तियाँ (Legislative and Policy-Making Powers)
नगर निगम को शहरी नियोजन, भवन निर्माण, जल आपूर्ति, कचरा प्रबंधन, सड़क निर्माण जैसी सेवाओं के लिए नीति निर्माण करने की शक्ति प्राप्त होती है।
यह स्थानीय स्तर पर नए कानून एवं उपनियम (By-laws) बनाने का अधिकार रखता है।
नगर निगम विभिन्न योजनाओं और विकास परियोजनाओं को लागू करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों से समन्वय स्थापित करता है।
6. नागरिक सेवाओं का प्रबंधन (Management of Civic Services)
नगर निगम की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी शहर के नागरिकों को आवश्यक सेवाएँ प्रदान करना है, जिनमें शामिल हैं:
जल आपूर्ति एवं स्वच्छता (Water Supply and Sanitation) – शहर में स्वच्छ जल की आपूर्ति एवं सीवेज सिस्टम का रखरखाव।
सड़क एवं परिवहन व्यवस्था (Roads and Transport System) – सड़कों का निर्माण एवं सार्वजनिक परिवहन सुविधाओं का संचालन।
स्वास्थ्य एवं सफाई व्यवस्था (Health and Sanitation) – अस्पतालों, स्वास्थ्य केंद्रों एवं सफाई अभियान का प्रबंधन।
शिक्षा एवं पुस्तकालय सेवाएँ (Education and Library Services) – प्राथमिक विद्यालयों एवं सार्वजनिक पुस्तकालयों का संचालन।
कचरा प्रबंधन (Waste Management) – ठोस अपशिष्ट प्रबंधन एवं सफाई व्यवस्था को सुचारू रखना।
7. नगर निगम के कार्यों की जवाबदेही (Accountability of Municipal Corporation)
नगर निगम अपने कार्यों के लिए स्थानीय नागरिकों के प्रति जवाबदेह होता है।
नगर निगम परिषद की बैठकों में पार्षदों द्वारा चर्चा की जाती है और जनता की समस्याओं का समाधान निकाला जाता है।
पारदर्शिता बढ़ाने के लिए नगर निगम अपनी आय-व्यय और योजनाओं की जानकारी वेबसाइट एवं रिपोर्ट्स के माध्यम से जनता के सामने प्रस्तुत करता है।
8. विशेष समितियाँ (Special Committees)
नगर निगम के प्रभावी संचालन के लिए विभिन्न समितियाँ बनाई जाती हैं, जो विशिष्ट कार्यों की देखरेख करती हैं:
वित्त समिति (Finance Committee) – नगर निगम के बजट और वित्तीय मामलों की देखरेख करती है।
स्वास्थ्य समिति (Health Committee) – स्वास्थ्य सेवाओं, अस्पतालों और सफाई व्यवस्था से संबंधित निर्णय लेती है।
शिक्षा समिति (Education Committee) – नगर निगम क्षेत्र में शैक्षणिक विकास और स्कूलों के संचालन पर ध्यान देती है।
योजना एवं निर्माण समिति (Planning and Construction Committee) – शहरी नियोजन, भवन निर्माण एवं सड़क निर्माण से जुड़े मामलों को देखती है।
9. नगर निगम की सीमाएँ (Limitations of Municipal Corporation)
हालाँकि नगर निगम को व्यापक अधिकार प्राप्त होते हैं, फिर भी इसके कार्यों में कुछ बाधाएँ आती हैं:
राज्य सरकार का हस्तक्षेप – नगर निगम कई मामलों में राज्य सरकार पर निर्भर रहता है।
वित्तीय संसाधनों की कमी – कई नगर निगमों के पास विकास कार्यों के लिए पर्याप्त धन नहीं होता।
भ्रष्टाचार एवं प्रशासनिक अक्षमताएँ – कुछ नगर निगमों में भ्रष्टाचार एवं सुस्त प्रशासन के कारण समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
जनसंख्या वृद्धि और अव्यवस्थित शहरीकरण – तेजी से बढ़ते शहरों में अव्यवस्थित शहरीकरण को नियंत्रित करना कठिन होता है।
10. निष्कर्ष
नगर निगम एक महत्वपूर्ण शहरी प्रशासनिक निकाय है, जो स्थानीय स्वशासन, नागरिक सेवाओं की आपूर्ति, आर्थिक प्रबंधन एवं नीतिगत निर्णयों में प्रमुख भूमिका निभाता है। यह जनता के प्रति उत्तरदायी एवं लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत कार्य करता है।
हालाँकि नगर निगम को वित्तीय संसाधनों की कमी, प्रशासनिक बाधाओं एवं राज्य सरकार के हस्तक्षेप जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन यदि इसे अधिक स्वायत्तता और संसाधन प्रदान किए जाएँ, तो यह शहरों के कुशल प्रशासन एवं विकास में एक प्रभावी भूमिका निभा सकता है।
05. स्थानीय शहरी प्रशासन में जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए क्या तंत्र मौजूद है?
स्थानीय शहरी प्रशासन का उद्देश्य नागरिकों को बेहतर सेवाएँ प्रदान करना, शहर के समुचित विकास को सुनिश्चित करना और प्रशासन में नागरिकों की भागीदारी को बढ़ावा देना है। इसके लिए जवाबदेही (Accountability) और पारदर्शिता (Transparency) आवश्यक तत्व हैं, जो प्रशासन को अधिक प्रभावी और जनहितैषी बनाते हैं।
74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के बाद से स्थानीय शहरी प्रशासन में उत्तरदायित्व और पारदर्शिता को सुनिश्चित करने के कई तंत्र विकसित किए गए हैं। नीचे इन प्रमुख तंत्रों की चर्चा की गई है:
1. कानूनी एवं संवैधानिक प्रावधान (Legal and Constitutional Provisions)
स्थानीय प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न कानूनी प्रावधान मौजूद हैं:
(क) 74वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992
नगर निकायों को अधिक स्वायत्तता और शक्तियाँ प्रदान की गईं।
नगरपालिका चुनावों की अनिवार्यता को लागू किया गया, जिससे निर्वाचित प्रतिनिधि जवाबदेह बने।
12वीं अनुसूची में नगर निकायों के दायित्वों का स्पष्ट उल्लेख किया गया।
(ख) सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act, 2005)
यह कानून नागरिकों को सरकारी रिकॉर्ड तक पहुँच प्रदान करता है।
नगर निगम और नगर पालिकाओं के वित्तीय और प्रशासनिक निर्णयों की जानकारी माँगी जा सकती है।
यह भ्रष्टाचार को रोकने में सहायक होता है और प्रशासन को जवाबदेह बनाता है।
(ग) लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013
यह अधिनियम भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच और समाधान के लिए बनाया गया है।
नगर निकायों में भ्रष्टाचार रोकने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए लोकायुक्त की भूमिका होती है।
2. ई-गवर्नेंस एवं डिजिटल पहल (E-Governance and Digital Initiatives)
सूचना और संचार तकनीक (ICT) का उपयोग प्रशासन में पारदर्शिता बढ़ाने के लिए किया जा रहा है:
(क) नगर निगम की वेबसाइटें
अब अधिकांश नगर निगमों की आधिकारिक वेबसाइट होती है, जहाँ बजट, योजनाओं और नीतियों की जानकारी दी जाती है।
नागरिक ऑनलाइन भुगतान (Online Payment) प्रणाली का उपयोग करके संपत्ति कर, जल कर आदि भर सकते हैं।
(ख) जन सूचना पोर्टल (Public Information Portals)
राज्य सरकारें और नगर निगम ई-गवर्नेंस प्लेटफॉर्म विकसित कर रहे हैं।
नागरिक ऑनलाइन शिकायतें दर्ज कर सकते हैं और उनकी स्थिति को ट्रैक कर सकते हैं।
(ग) नगर निकायों में जियो टैगिंग और GIS तकनीक
संपत्तियों, जल आपूर्ति, सड़क निर्माण, कचरा प्रबंधन आदि की निगरानी के लिए GIS (Geographical Information System) का उपयोग किया जाता है।
इससे प्रशासन जवाबदेह और अधिक प्रभावी बनता है।
3. सामाजिक जवाबदेही तंत्र (Social Accountability Mechanisms)
(क) नागरिक चार्टर (Citizen Charter)
यह एक सरकारी दस्तावेज होता है, जिसमें नगर निकाय की सेवाओं, प्रक्रियाओं और समय-सीमा का उल्लेख होता है।
इससे नागरिकों को यह पता चलता है कि वे कौन-कौन सी सेवाएँ प्राप्त कर सकते हैं और कितनी जल्दी उन्हें सेवा दी जाएगी।
(ख) सार्वजनिक सुनवाई (Public Hearings)
नगर निगम समय-समय पर जन सुनवाई का आयोजन करता है, जिसमें नागरिक अपनी शिकायतें और सुझाव दे सकते हैं।
इससे जनता और प्रशासन के बीच संवाद स्थापित होता है।
(ग) सामाजिक लेखा परीक्षा (Social Audit)
विभिन्न शहरी विकास योजनाओं में सामाजिक लेखा परीक्षा (Social Audit) कराई जाती है।
नागरिक और स्वतंत्र एजेंसियाँ यह जाँचती हैं कि सरकारी योजनाओं में धन का सही उपयोग हुआ है या नहीं।
(घ) नागरिक शिकायत निवारण तंत्र (Citizen Grievance Redressal Mechanism)
नगर निगम शिकायत निवारण केंद्र (Grievance Redressal Cells) स्थापित करते हैं।
नागरिक अपनी शिकायतें ऑनलाइन, हेल्पलाइन नंबर या नगर निगम कार्यालय में दर्ज करा सकते हैं।
शिकायतों की स्थिति को ट्रैक करने के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म विकसित किए जा रहे हैं।
4. पारदर्शी वित्तीय प्रणाली (Transparent Financial System)
नगर निगमों की वित्तीय पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए कई कदम उठाए गए हैं:
(क) नगर निगम का बजट सार्वजनिक रूप से जारी किया जाता है
प्रत्येक नगर निगम वार्षिक बजट तैयार करता है, जिसे सार्वजनिक डोमेन में प्रकाशित किया जाता है।
इससे नागरिक जान सकते हैं कि नगर निगम किन कार्यों के लिए कितना धन आवंटित कर रहा है।
(ख) बाह्य लेखा परीक्षा (External Audit)
नगर निकायों के खातों का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा ऑडिट किया जाता है।
इससे वित्तीय अनियमितताओं को रोका जाता है।
(ग) नगर निगम बॉन्ड्स और PPP मॉडल
कई नगर निगम नगर निगम बॉन्ड्स जारी करते हैं, जिससे उन्हें निजी क्षेत्र से धन प्राप्त होता है।
सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) मॉडल के तहत कई शहरी विकास परियोजनाओं को वित्तपोषित किया जाता है।
5. मीडिया और नागरिक संगठनों की भूमिका (Role of Media and Civil Society Organizations)
(क) मीडिया निगरानी (Media Oversight)
प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया नगर निगमों के कामकाज पर निगरानी रखता है।
मीडिया भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और प्रशासनिक अक्षमताओं को उजागर करता है।
(ख) गैर-सरकारी संगठनों (NG
को पारदर्शी बनाने के लिए काम करते हैं।
ये संगठनों नागरिकों को शहरी योजनाओं और सरकारी सुविधाओं की जानकारी प्रदान करते हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)Os) की भागीदारी
विभिन्न NGOs नगर प्रशासन
स्थानीय शहरी प्रशासन में जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न संवैधानिक, कानूनी, तकनीकी और सामाजिक तंत्र विकसित किए गए हैं।
सूचना का अधिकार, ई-गवर्नेंस, नागरिक चार्टर, सामाजिक लेखा परीक्षा और बजट पारदर्शिता जैसे उपाय प्रशासन को जवाबदेह बनाते हैं।
शिकायत निवारण तंत्र, मीडिया की निगरानी और NGOs की भागीदारी पारदर्शिता को बढ़ावा देते हैं।
हालाँकि, इन तंत्रों को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए सुधारों की आवश्यकता है। यदि प्रशासन अधिक जनहितैषी, पारदर्शी और जवाबदेह बने, तो नागरिकों को बेहतर सेवाएँ प्राप्त हो सकती हैं और शहरी विकास अधिक प्रभावी हो सकता है।
06. उत्तराखंड राज्य द्वारा संचालित शहरी विकास योजनाओं पर एक लेख लिखिए।
उत्तराखंड सरकार शहरी विकास को प्राथमिकता देते हुए विभिन्न योजनाएँ और परियोजनाएँ संचालित कर रही है। इनका उद्देश्य शहरी क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं का विकास, आवास की उपलब्धता, जनसंख्या दबाव को कम करना और सतत विकास को प्रोत्साहित करना है। नीचे राज्य द्वारा संचालित प्रमुख शहरी विकास योजनाओं की चर्चा की गई है:
1. नए शहरों की स्थापना
शहरी क्षेत्रों में बढ़ते जनसंख्या दबाव को कम करने के लिए उत्तराखंड सरकार ने गढ़वाल और कुमाऊँ मंडलों में दो-दो नए शहर बसाने की योजना बनाई है। यह पहल वर्तमान शहरी केंद्रों पर दबाव को कम करेगी और नागरिकों को बेहतर नगरीय सुविधाएँ प्रदान करेगी।
2. उत्तराखंड आवास एवं शहरी विकास प्राधिकरण (UHUDA)
UHUDA राज्य में किफायती आवास उपलब्ध कराने, शहरी विकास को बढ़ावा देने और बेहतर बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए प्रतिबद्ध है। इसकी प्रमुख जिम्मेदारियाँ निम्नलिखित हैं:
शहरी विकास परियोजनाओं की योजना और क्रियान्वयन: सुनियोजित शहरीकरण सुनिश्चित करना।
किफायती आवास योजनाओं का विकास: आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आवास उपलब्ध कराना।
भूमि उपयोग और ज़ोनिंग नीतियों का विनियमन: सतत और पर्यावरण अनुकूल आवास को बढ़ावा देना।
बुनियादी ढाँचे का विकास: शहरी क्षेत्रों में आवश्यक सुविधाओं का विकास सुनिश्चित करना।
3. प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी)
राज्य में प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) के अंतर्गत EHP (Economically Weaker Section Housing Program) के माध्यम से 20 परियोजनाएँ संचालित हैं, जिनके तहत लगभग 15,960 आवास स्वीकृत किए गए हैं। इनमें से लगभग 14,248 आवासों का निर्माण कार्य प्रगति पर है, जिससे शहरी क्षेत्रों में आवास की कमी को पूरा किया जा सके।
4. शहरी बुनियादी ढाँचे का विकास
शहरी विकास को उच्च प्राथमिकता देते हुए राज्य सरकार निम्नलिखित क्षेत्रों में विशेष ध्यान दे रही है:
अवस्थापना सुविधाएँ: सड़कों, पुलों और सार्वजनिक परिवहन का विकास।
अर्बन मोबिलिटी: यातायात प्रबंधन और सार्वजनिक परिवहन में सुधार।
वेस्ट मैनेजमेंट: ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और स्वच्छता सेवाओं का सुदृढ़ीकरण।
सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट और वाटर रिसाइक्लिंग सिस्टम: जल संसाधनों का संरक्षण और पुनर्चक्रण।
5. स्मार्ट सिटी पहल
उत्तराखंड के प्रमुख शहरों को स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित करने के लिए विभिन्न परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं, जिनका उद्देश्य नागरिकों को आधुनिक सुविधाएँ प्रदान करना और शहरी जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना है।
6. झुग्गी पुनर्वास परियोजनाएँ
शहरी क्षेत्रों में झुग्गी बस्तियों के निवासियों के लिए पुनर्वास योजनाएँ लागू की जा रही हैं, ताकि उन्हें सुरक्षित और स्वच्छ आवास उपलब्ध हो सके।
निष्कर्ष
उत्तराखंड सरकार की ये शहरी विकास योजनाएँ राज्य के शहरी क्षेत्रों में संरचित विकास, किफायती आवास की उपलब्धता और नागरिक सुविधाओं में सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। इन पहलों से न केवल शहरी जीवन की गुणवत्ता में सुधार होगा, बल्कि सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी सहायता मिलेगी।
07. भारत में नगरीय स्वशासन की प्रमुख चुनौतियों पर अपने विचार प्रस्तुत करें।
भारत में नगरीय स्वशासन (Urban Governance) स्थानीय प्रशासन की एक महत्वपूर्ण इकाई है, जिसका उद्देश्य शहरों के सुचारू संचालन और विकास को सुनिश्चित करना है। हालाँकि, नगरीय स्वशासन को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जो इसके प्रभावी कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न कर रही हैं।
नीचे भारत में नगरीय स्वशासन की प्रमुख चुनौतियों की चर्चा की गई है:
1. वित्तीय संसाधनों की कमी
(क) सीमित राजस्व स्रोत
नगर निकायों को अपने खर्चों के लिए संपत्ति कर, जल कर, मनोरंजन कर, बाजार शुल्क आदि पर निर्भर रहना पड़ता है।
इन करों से पर्याप्त राजस्व नहीं मिलता, जिससे शहरी विकास परियोजनाओं पर प्रभाव पड़ता है।
(ख) केंद्र एवं राज्य सरकारों पर निर्भरता
अधिकांश नगर निगम और नगर पालिकाएँ केंद्र व राज्य सरकारों की वित्तीय सहायता पर निर्भर रहते हैं।
इससे उनकी आर्थिक स्वायत्तता प्रभावित होती है और वे स्वतंत्र रूप से विकास योजनाएँ लागू नहीं कर पाते।
2. अव्यवस्थित शहरीकरण और बुनियादी ढाँचे की कमी
(क) बढ़ती जनसंख्या और अव्यवस्थित विस्तार
शहरों में तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण बुनियादी सुविधाओं पर अत्यधिक दबाव पड़ता है।
अनियोजित शहरीकरण के कारण झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या बढ़ रही है।
(ख) आधारभूत संरचना की कमी
कई शहरों में सड़कें, सीवरेज सिस्टम, जल आपूर्ति और सार्वजनिक परिवहन की उचित व्यवस्था नहीं है।
बुनियादी सुविधाओं की अनुपलब्धता से नागरिकों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
3. भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता
(क) भ्रष्टाचार की व्यापकता
नगर निकायों में अनियमितताएँ और भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है।
कई बार नगर निगमों के ठेकेदारों और अधिकारियों के बीच अवैध गठजोड़ देखने को मिलता है, जिससे विकास कार्य प्रभावित होते हैं।
(ख) प्रशासनिक दक्षता की कमी
नगर निकायों के कर्मचारी अक्सर प्रशिक्षण और आधुनिक तकनीकी ज्ञान से वंचित रहते हैं।
इससे स्मार्ट सिटी और डिजिटल गवर्नेंस जैसी योजनाओं का समुचित कार्यान्वयन नहीं हो पाता।
4. पर्यावरणीय समस्याएँ और प्रदूषण
(क) वायु और जल प्रदूषण
भारत के अधिकांश बड़े शहर वायु प्रदूषण की समस्या से ग्रस्त हैं।
जल स्रोतों में गंदगी और अव्यवस्थित कचरा प्रबंधन भी एक बड़ी चुनौती है।
(ख) कचरा प्रबंधन की समस्या
नगर निकायों के पास कचरा निस्तारण और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के लिए समुचित व्यवस्था नहीं है।
कई शहरों में कचरा खुले में फेंक दिया जाता है, जिससे बीमारियाँ फैलती हैं।
5. कमजोर राजनीतिक और प्रशासनिक ढाँचा
(क) नगर निकायों की स्वायत्तता की कमी
नगर निगमों के पास अपने निर्णय लेने की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं होती।
कई बार राज्य सरकारें उनके अधिकारों में हस्तक्षेप करती हैं, जिससे योजनाओं का क्रियान्वयन प्रभावित होता है।
(ख) निर्वाचित प्रतिनिधियों और अधिकारियों में समन्वय की कमी
महापौर (Mayor) और नगर आयुक्त (Municipal Commissioner) के बीच संघर्ष देखने को मिलता है।
कई बार राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण निर्णय लेने की प्रक्रिया प्रभावित होती है।
6. डिजिटल गवर्नेंस और स्मार्ट सिटी योजनाओं का धीमा कार्यान्वयन
(क) ई-गवर्नेंस की धीमी प्रगति
कई नगर निकाय अभी भी पारंपरिक प्रशासनिक तरीकों पर निर्भर हैं।
ई-गवर्नेंस और स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के क्रियान्वयन में देरी होती है।
(ख) नागरिक भागीदारी की कमी
आम नागरिकों को नगरीय प्रशासन की योजनाओं में सही जानकारी नहीं मिलती।
निर्णय लेने की प्रक्रिया में नागरिकों की सीमित भागीदारी होती है, जिससे पारदर्शिता की कमी रहती है।
7. सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की कमजोर स्थिति
(क) यातायात जाम और अव्यवस्थित परिवहन
बड़े शहरों में यातायात जाम एक गंभीर समस्या बन चुका है।
सार्वजनिक परिवहन की उचित व्यवस्था न होने के कारण नागरिकों को निजी वाहनों पर निर्भर रहना पड़ता है।
(ख) मेट्रो और बस सेवाओं का सीमित विस्तार
कई शहरों में अभी भी मेट्रो, बस और अन्य सार्वजनिक परिवहन सेवाओं का समुचित विस्तार नहीं हुआ है।
यातायात प्रबंधन में तकनीकी नवाचारों की कमी भी एक बड़ी चुनौती है।
समाधान एवं सुझाव
भारत में नगरीय स्वशासन को अधिक प्रभावी बनाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:
1. वित्तीय सुधार
नगर निकायों को अधिक स्वतंत्र वित्तीय अधिकार दिए जाएँ।
नए राजस्व स्रोतों को विकसित किया जाए, जैसे कि म्युनिसिपल बॉन्ड्स और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मॉडल।
2. स्मार्ट सिटी और ई-गवर्नेंस को बढ़ावा देना
नगर निकायों में डिजिटल प्रशासन को लागू किया जाए।
नागरिकों को ऑनलाइन सेवाएँ प्रदान की जाएँ, जिससे पारदर्शिता बढ़े।
3. सार्वजनिक परिवहन का सुदृढ़ीकरण
मेट्रो, बस सेवाओं और ई-रिक्शा जैसी सुविधाओं को बेहतर बनाया जाए।
यातायात प्रबंधन में आधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जाए।
4. पर्यावरणीय सुधार
ठोस अपशिष्ट प्रबंधन (Solid Waste Management) को बेहतर बनाने के लिए स्वच्छता कार्यक्रम लागू किए जाएँ।
हरित शहरीकरण (Green Urbanization) को बढ़ावा दिया जाए।
5. नागरिक भागीदारी बढ़ाना
नागरिकों को शहरी योजनाओं में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाए।
लोकल बॉडी चुनावों में मतदान दर बढ़ाने के लिए अभियान चलाए जाएँ।
निष्कर्ष
भारत में नगरीय स्वशासन को प्रभावी बनाने के लिए वित्तीय सशक्तिकरण, प्रशासनिक सुधार, पारदर्शिता, नागरिक भागीदारी और आधुनिक तकनीकों का अधिकाधिक उपयोग आवश्यक है।
यदि राज्य और केंद्र सरकारें नगर निकायों को वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान करती हैं और ई-गवर्नेंस को प्राथमिकता देती हैं, तो नगरीय प्रशासन अधिक जवाबदेह, पारदर्शी और प्रभावी बन सकता है।
08. नगर निकायों की बैठक, कार्यवाहियों एवं निर्णयन प्रक्रिया पर संक्षिप्त लेख लिखें।
नगर निकाय (Urban Local Bodies) स्थानीय प्रशासन की महत्वपूर्ण इकाई हैं, जो नगर निगम (Municipal Corporation), नगर परिषद (Municipal Council) और नगर पंचायत (Nagar Panchayat) के रूप में कार्य करती हैं। ये निकाय शहरी क्षेत्रों में शासन, विकास और जनसेवा से संबंधित नीतियों को लागू करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। इनके संचालन के लिए बैठकों, कार्यवाहियों और निर्णयन प्रक्रिया का एक सुव्यवस्थित ढाँचा होता है।
1. नगर निकायों की बैठकें (Meetings of Urban Local Bodies)
नगर निकायों की बैठकों का आयोजन नगर के प्रशासनिक कार्यों की समीक्षा, योजनाओं को लागू करने और महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए किया जाता है। ये बैठकें तीन स्तरों पर होती हैं:
(क) साधारण बैठक (Ordinary Meetings)
प्रत्येक तीन से छह महीने में एक बार आयोजित की जाती हैं।
इसमें नगर निकाय के सामान्य प्रशासन, कराधान, सफाई व्यवस्था, जल आपूर्ति, सड़क निर्माण, परिवहन, आदि पर चर्चा की जाती है।
(ख) विशेष बैठक (Special Meetings)
जब कोई अत्यंत महत्वपूर्ण या आपातकालीन मामला होता है, तो विशेष बैठक बुलाई जाती है।
उदाहरण के लिए, महामारी, आपदा प्रबंधन, बजट स्वीकृति आदि के मामलों में यह बैठक की जाती है।
(ग) स्थायी समिति की बैठकें (Standing Committee Meetings)
नगर निकायों के विभिन्न विभागों, जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, जल आपूर्ति, योजना एवं विकास आदि से संबंधित समितियाँ होती हैं।
ये समितियाँ नियमित अंतराल पर बैठकें कर आवश्यक निर्णय लेती हैं।
2. नगर निकायों की कार्यवाहियाँ (Proceedings of Urban Local Bodies)
नगर निकायों की कार्यवाहियाँ स्थानीय प्रशासन और नगर विकास की योजनाओं को लागू करने के लिए संचालित की जाती हैं। इनमें प्रमुख कार्यवाहियाँ निम्नलिखित हैं:
(क) प्रस्तावों का प्रस्तुतिकरण (Presentation of Proposals)
नगर निकाय की बैठकों में नगर के विकास से जुड़े प्रस्ताव रखे जाते हैं।
ये प्रस्ताव निर्वाचित प्रतिनिधियों या प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा तैयार किए जाते हैं।
(ख) चर्चाएँ और बहस (Discussions & Debates)
प्रस्तावों पर चर्चा की जाती है और उनके लाभ-हानि पर विचार किया जाता है।
सभी निर्वाचित पार्षद या सदस्य अपनी राय प्रस्तुत करते हैं।
(ग) मतदान एवं निर्णय (Voting & Decision Making)
यदि प्रस्ताव पर सहमति नहीं बनती, तो उसे मतदान के माध्यम से पारित किया जाता है।
बहुमत (Majority) के आधार पर प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार किया जाता है।
(घ) निर्णयों का कार्यान्वयन (Implementation of Decisions)
स्वीकृत प्रस्तावों को कार्यान्वित करने के लिए नगर आयुक्त या कार्यकारी अधिकारी को निर्देश दिए जाते हैं।
विभिन्न विभागों को योजनाओं को लागू करने की जिम्मेदारी दी जाती है।
3. नगर निकायों की निर्णयन प्रक्रिया (Decision-Making Process of Urban Local Bodies)
नगर निकायों में निर्णय लेने की प्रक्रिया लोकतांत्रिक पद्धति पर आधारित होती है। इसमें निम्नलिखित चरण होते हैं:
(क) प्रस्ताव तैयार करना (Formulation of Proposal)
कोई भी नया विकास कार्य या नगर की आवश्यकता से जुड़ा विषय समिति या पार्षद द्वारा प्रस्तावित किया जाता है।
(ख) समिति द्वारा समीक्षा (Review by Committee)
स्थायी समिति या संबंधित विभाग प्रस्ताव की समीक्षा करता है और उसकी व्यवहारिकता का मूल्यांकन करता है।
(ग) आम सभा में चर्चा (Discussion in General Assembly)
सभी निर्वाचित सदस्यों द्वारा प्रस्ताव पर विस्तृत चर्चा की जाती है।
जनता की जरूरतों, बजट, तकनीकी और कानूनी पहलुओं पर विचार किया जाता है।
(घ) मतदान एवं अनुमोदन (Voting & Approval)
पार्षद या सदस्य प्रस्ताव के पक्ष या विपक्ष में मतदान करते हैं।
यदि बहुमत से प्रस्ताव पास हो जाता है, तो उसे स्वीकृति प्रदान की जाती है।
(ङ) क्रियान्वयन और निगरानी (Implementation & Monitoring)
नगर निकाय के अधिकारी स्वीकृत प्रस्ताव को लागू करने की जिम्मेदारी निभाते हैं।
नगर आयुक्त या कार्यकारी अधिकारी कार्य की प्रगति की निगरानी करते हैं।
निष्कर्ष
नगर निकायों की बैठकें, कार्यवाहियाँ और निर्णयन प्रक्रिया स्थानीय प्रशासन के प्रभावी संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत, विभिन्न चरणों में निर्णय लिए जाते हैं और उन्हें कार्यान्वित किया जाता है। यदि यह प्रक्रिया पारदर्शी, जवाबदेह और प्रभावी हो, तो शहरी विकास योजनाएँ सफलतापूर्वक लागू की जा सकती हैं और नागरिकों को बेहतर सेवाएँ प्रदान की जा सकती हैं।
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