GEPS-02 SOLVED QUESTION PAPER JUNE 2024

 GEPS-02 SOLVED QUESTION PAPER JUNE 2024 


LONG ANSWER TYPE QUESTIONS 


01. राज्य के नीति निदेशक तत्वों की प्रकृति का मूल्यांकन कीजिए। इनके पीछे क्या शक्त्ति है?



राज्य के नीति निदेशक तत्व भारतीय संविधान में राज्य की नीति के उन लक्ष्यों और उद्देश्यों को निर्दिष्ट करते हैं, जिन्हें राज्य को अपने संचालन में अनिवार्य रूप से ध्यान में रखना चाहिए। यह तत्व संविधान के भाग 4 में स्थित होते हैं और यह संविधान की धारा 36 से 51 तक विस्तारित हैं। ये तत्व केवल मार्गदर्शक होते हैं, जिसका अर्थ है कि इन्हें कानूनी रूप से लागू नहीं किया जा सकता, लेकिन ये राज्य की नीति निर्माण प्रक्रिया के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं।


प्रकृति का मूल्यांकन


मार्गदर्शक भूमिका: नीति निदेशक तत्व राज्य को सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। इन्हें लागू करना संविधान की प्राथमिक जिम्मेदारी नहीं है, लेकिन यह राज्य के नीति निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


सामाजिक और आर्थिक सुदृढ़ीकरण: ये तत्व राज्य को ऐसे उपायों को लागू करने के लिए प्रेरित करते हैं जो नागरिकों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुधारने में मदद करें। उदाहरण स्वरूप, गरीबी उन्मूलन, शैक्षिक और स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार, आदि।


लोक कल्याण के लिए अनिवार्यता: राज्य के नीति निदेशक तत्वों का उद्देश्य पूरे समाज के कल्याण को बढ़ावा देना है। इसमें सामाजिक समानता, लिंग समानता और वंचित वर्गों की उन्नति के लिए नीतियाँ बनाना शामिल है।


इनके पीछे शक्ति


राज्य के नीति निदेशक तत्वों के पीछे भारतीय संविधान की मंशा है कि यह सरकार को ऐसे उद्देश्यों के प्रति संवेदनशील बनाए, जो समाज के विभिन्न वर्गों की उन्नति और कल्याण को सुनिश्चित करें। हालांकि, इन तत्वों को लागू करने के लिए राज्य को संवैधानिक दायित्व नहीं होता, लेकिन इन्हें संविधान की आत्मा के रूप में देखा जाता है। राज्य को इन तत्वों को ध्यान में रखते हुए, नीतियाँ और योजनाएँ बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।


इनके पीछे शक्ति संविधान के अनुसार नैतिक और बौद्धिक जिम्मेदारी में निहित है, जिससे सरकार सामाजिक न्याय और समृद्धि की दिशा में कार्य कर सके। यद्यपि ये तत्व न्यायिक रूप से बाध्यकारी नहीं होते, लेकिन वे एक मजबूत कानूनी और नैतिक प्रभाव रखते हैं।







02. संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के महत्व की व्याख्या करें।


भारतीय संविधान नागरिकों को कुछ मूलभूत अधिकार प्रदान करता है, जिन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है। ये अधिकार संविधान के भाग 3 (अनुच्छेद 12 से 35) में वर्णित हैं और लोकतंत्र की मूल आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनका उद्देश्य नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता सुनिश्चित करना तथा राज्य के अनियंत्रित शक्ति प्रयोग को रोकना है।


मौलिक अधिकारों का महत्व

1. लोकतंत्र की आधारशिला

मौलिक अधिकार नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता की गारंटी देते हैं, जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है। ये अधिकार सरकार को निरंकुश बनने से रोकते हैं और नागरिकों को एक न्यायसंगत समाज में जीवन जीने का अधिकार प्रदान करते हैं।


2. व्यक्तित्व विकास का माध्यम

इन अधिकारों के माध्यम से नागरिकों को अपने विचार व्यक्त करने, धर्म को मानने, शिक्षा प्राप्त करने और अपने पेशे को चुनने की स्वतंत्रता मिलती है। इससे उनका सर्वांगीण विकास संभव होता है।


3. सामाजिक समानता और न्याय की स्थापना

संविधान में समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता मिले और किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो। यह जातिवाद, छुआछूत और ऊँच-नीच की भावना को समाप्त करने में मदद करता है।


4. व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा

स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) नागरिकों को स्वतंत्र रूप से विचार व्यक्त करने, किसी भी स्थान पर आने-जाने, किसी भी पेशे को अपनाने और जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रदान करता है।


5. धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28) नागरिकों को अपने धर्म को मानने, प्रचार करने और किसी भी धार्मिक रीति-रिवाज को अपनाने की आज़ादी देता है। यह भारत की धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करता है।


6. शोषण से मुक्ति

शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24) बाल श्रम और बंधुआ मजदूरी पर रोक लगाकर कमजोर वर्गों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।


7. सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की रक्षा

(अनुच्छेद 29-30) अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, संस्कृति और शैक्षिक संस्थान स्थापित करने तथा उनका प्रबंधन करने का अधिकार देते हैं।


8. संवैधानिक उपचार का अधिकार

(अनुच्छेद 32) डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने इसे "संविधान की आत्मा" कहा था। यदि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो वह सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में जाकर न्याय प्राप्त कर सकता है।


निष्कर्ष

मौलिक अधिकार भारतीय लोकतंत्र की नींव हैं। ये न केवल नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता प्रदान करते हैं, बल्कि राज्य को भी जवाबदेह बनाते हैं। इन अधिकारों की सुरक्षा और संवर्धन से ही भारत एक सशक्त, न्यायसंगत और समतामूलक समाज की ओर अग्रसर हो सकता है।











03. संसद के कार्यों की व्याख्या कीजिए। 


भारतीय संसद देश की सर्वोच्च विधायी संस्था है, जो लोकसभा और राज्यसभा—दो सदनों से मिलकर बनी होती है। यह सरकार की नीतियों को निर्धारित करने, कानून बनाने और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखने का कार्य करती है। भारतीय संविधान ने संसद को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की हैं, जिससे यह देश के लोकतांत्रिक शासन को सुचारू रूप से संचालित कर सके।


संसद के प्रमुख कार्य

1. विधायी (Law-making) कार्य

संसद का मुख्य कार्य देश के लिए नए कानून बनाना और पुराने कानूनों में आवश्यक संशोधन करना है। यह कार्य तीन प्रकार से किया जाता है:


सामान्य विधेयक (Ordinary Bills): लोकसभा और राज्यसभा द्वारा पारित किए जाते हैं और राष्ट्रपति की सहमति से कानून बनते हैं।

संविधान संशोधन विधेयक (Constitutional Amendment Bills): संविधान में संशोधन के लिए संसद द्वारा पारित किए जाते हैं।

वित्तीय विधेयक (Money Bills): लोकसभा में प्रस्तुत होते हैं और राज्यसभा केवल सुझाव दे सकती है।

2. वित्तीय नियंत्रण

बजट पारित करना: सरकार के वार्षिक आय-व्यय की योजना संसद में प्रस्तुत की जाती है और संसद द्वारा स्वीकृत की जाती है।

अनुदान की मांगों को स्वीकृति: विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के लिए आवश्यक धनराशि संसद द्वारा अनुमोदित की जाती है।

सीएजी (Comptroller and Auditor General) की रिपोर्ट पर विचार करना: यह रिपोर्ट सरकारी व्यय की जाँच के लिए संसद में प्रस्तुत की जाती है।

3. कार्यपालिका (Executive) पर नियंत्रण

अविश्वास प्रस्ताव (No-confidence Motion): यदि लोकसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है।

प्रश्नकाल (Question Hour): संसद सत्र के दौरान सांसद सरकार से प्रश्न पूछकर उसकी नीतियों और कार्यों की समीक्षा करते हैं।

संसदीय समितियाँ (Parliamentary Committees): सरकार की कार्यप्रणाली पर निगरानी रखने के लिए विभिन्न समितियाँ बनाई जाती हैं, जैसे लोक लेखा समिति और एस्टिमेट्स कमेटी।

4. न्यायिक कार्य

संसद के पास राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को महाभियोग के माध्यम से हटाने की शक्ति होती है।

संसद नागरिकों के मौलिक अधिकारों से जुड़े मामलों में नए कानून बना सकती है।

5. संविधान में संशोधन

संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है। यह प्रक्रिया विशेष बहुमत से होती है और कुछ मामलों में राज्य विधानसभाओं की सहमति भी आवश्यक होती है।


6. कूटनीतिक एवं आपातकालीन कार्य

संसद भारत की विदेश नीति को प्रभावित कर सकती है और महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों को स्वीकृति दे सकती है।

संसद को राष्ट्रीय आपातकाल, वित्तीय आपातकाल और राष्ट्रपति शासन लगाने की शक्ति प्राप्त है।

निष्कर्ष

भारतीय संसद का कार्य केवल कानून बनाना ही नहीं है, बल्कि यह सरकार की कार्यप्रणाली पर नजर रखने, वित्तीय नीतियों को नियंत्रित करने और संविधान की सुरक्षा सुनिश्चित करने की भी जिम्मेदारी निभाती है। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में संसद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि यह जनता की इच्छाओं और आकांक्षाओं को स्वर देती है।








04. "सर्वोच्च न्यायालय भारतीय संविधान का संरक्षक तथा मौलिक अधिकारों का रक्षक है" व्याख्या कीजिए।



भारतीय संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था के रूप में स्थापित किया है। यह न केवल संविधान की व्याख्या करता है, बल्कि इसे लागू करने और बनाए रखने की भी जिम्मेदारी निभाता है। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा प्रदान करता है और राज्य द्वारा किए गए किसी भी असंवैधानिक कार्य को रोक सकता है। इस कारण इसे भारतीय संविधान का संरक्षक और मौलिक अधिकारों का रक्षक कहा जाता है।


1. भारतीय संविधान का संरक्षक

(i) न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review)

अनुच्छेद 13 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार है कि वह संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए किसी भी कानून की समीक्षा कर सकता है और यदि वह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है, तो उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है।

यह शक्ति भारत को एक संवैधानिक लोकतंत्र बनाए रखने में मदद करती है।

(ii) संवैधानिक व्याख्या (Interpretation of Constitution)

सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करता है और यह सुनिश्चित करता है कि सरकार और प्रशासन संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य करें।

यह विभिन्न विवादों में संविधान की धाराओं का सही अर्थ निर्धारित करता है।

(iii) केंद्र और राज्यों के बीच विवादों का समाधान

अनुच्छेद 131 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय केंद्र और राज्यों के बीच या विभिन्न राज्यों के बीच उत्पन्न संवैधानिक विवादों को हल करता है।

यह भारत की संघीय संरचना को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

2. मौलिक अधिकारों का रक्षक

(i) मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर हस्तक्षेप

यदि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो वह अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है।

इस अनुच्छेद को "संविधान की आत्मा" कहा जाता है, क्योंकि यह नागरिकों को मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करने का अधिकार देता है।

(ii) रिट जारी करने की शक्ति

सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए विभिन्न प्रकार की रिट्स (Writs) जारी कर सकता है, जैसे:

हabeas Corpus – किसी व्यक्ति को अवैध हिरासत से मुक्त कराने के लिए।

Mandamus – सरकारी अधिकारियों को अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करने का आदेश देने के लिए।

Prohibition – किसी निचली अदालत को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने से रोकने के लिए।

Certiorari – किसी निचली अदालत के निर्णय की समीक्षा करने और उसे रद्द करने के लिए।

Quo-Warranto – यह जांचने के लिए कि कोई व्यक्ति किसी सार्वजनिक पद पर वैध रूप से बैठा है या नहीं।

(iii) संविधान के मूल ढांचे की रक्षा

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन इसके मूल ढांचे (Basic Structure) को नहीं बदल सकती।

इससे यह सुनिश्चित किया गया कि कोई भी सरकार संविधान को अपनी सुविधा के अनुसार न बदले।

निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय भारतीय लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए एक संवैधानिक प्रहरी की भूमिका निभाता है। यह संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखता है, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है और सरकार को संविधान के दायरे में कार्य करने के लिए बाध्य करता है। इस कारण इसे भारतीय संविधान का संरक्षक और मौलिक अधिकारों का रक्षक कहा जाता है।








05. लोकतन्त्र की आधारभूत संस्थाओं के रूप में पंचायतों की कार्य-प्रणाली का मूल्यांकन कीजिए।


परिचय

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहाँ शासन प्रणाली को "नीचे से ऊपर" के सिद्धांत पर संचालित करने के लिए पंचायती राज प्रणाली लागू की गई। 73वें संविधान संशोधन (1992) के माध्यम से पंचायती राज प्रणाली को संवैधानिक दर्जा दिया गया, जिससे ग्रामीण स्तर पर लोकतंत्र को सशक्त किया जा सके। पंचायतें लोकतंत्र की आधारभूत इकाइयाँ हैं, जो स्थानीय स्वशासन को सुनिश्चित करती हैं।


पंचायतों की कार्य-प्रणाली का मूल्यांकन

1. लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत करना

पंचायतें नागरिकों को अपनी समस्याओं के समाधान में प्रत्यक्ष भागीदारी का अवसर देती हैं।

ग्रामसभा के माध्यम से लोग अपनी राय व्यक्त कर सकते हैं और निर्णय प्रक्रिया में भाग ले सकते हैं।

2. विकेन्द्रीकृत शासन प्रणाली

पंचायती राज व्यवस्था विकेंद्रीकरण (Decentralization) के सिद्धांत पर आधारित है, जिससे प्रशासनिक निर्णय स्थानीय स्तर पर लिए जा सकते हैं।

इससे निर्णय प्रक्रिया तेज होती है और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार योजनाएँ बनाई जाती हैं।

3. ग्रामीण विकास में योगदान

पंचायतें सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, सिंचाई और रोजगार जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

मनरेगा जैसी योजनाएँ पंचायतों के माध्यम से लागू की जाती हैं, जिससे ग्रामीण लोगों को रोजगार मिलता है।

4. महिलाओं और कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण

73वें संशोधन के तहत महिलाओं के लिए 33% आरक्षण प्रदान किया गया, जिससे महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा मिला।

अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों को भी पंचायतों में आरक्षण दिया गया है, जिससे समाज के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व मिला।

5. जवाबदेही और पारदर्शिता

पंचायती राज प्रणाली में ग्रामसभा एक महत्वपूर्ण संस्था है, जहाँ पंचायतों के कार्यों की समीक्षा की जाती है।

इससे भ्रष्टाचार को कम करने और प्रशासन को अधिक जवाबदेह बनाने में मदद मिलती है।

चुनौतियाँ और समस्याएँ

1. वित्तीय संसाधनों की कमी

पंचायतों के पास अपनी स्वतंत्र वित्तीय शक्ति नहीं होती, जिससे वे विकास योजनाओं के लिए राज्य सरकारों पर निर्भर रहती हैं।

कर संग्रहण की सीमित शक्ति के कारण कई पंचायतें प्रभावी ढंग से कार्य नहीं कर पातीं।

2. भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप

कई पंचायतों में भ्रष्टाचार एक गंभीर समस्या है, जिससे सरकारी योजनाओं का सही क्रियान्वयन नहीं हो पाता।

राजनीतिक प्रभाव के कारण कभी-कभी पंचायती प्रतिनिधि स्वतंत्र निर्णय नहीं ले पाते।

3. प्रशासनिक दक्षता की कमी

पंचायतों के सदस्यों को प्रशासनिक और तकनीकी ज्ञान की कमी होती है, जिससे योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन बाधित होता है।

प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी से पंचायतों की कार्यप्रणाली कमजोर हो जाती है।

4. ग्रामसभा की प्रभावशीलता में कमी

कई स्थानों पर ग्रामसभा की बैठकें नियमित रूप से नहीं होतीं, जिससे जनता की भागीदारी सीमित रह जाती है।

कई बार प्रभावशाली लोग ग्रामसभा की कार्यवाही को नियंत्रित कर लेते हैं।

सुधार और सशक्तिकरण के उपाय

1. वित्तीय स्वायत्तता बढ़ाना

पंचायतों को स्वतंत्र रूप से कर वसूलने और अपनी आय बढ़ाने की शक्ति दी जानी चाहिए।

केंद्र और राज्य सरकारों को पंचायतों को समय पर अनुदान उपलब्ध कराना चाहिए।

2. पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना

पंचायतों में डिजिटल रिकॉर्ड प्रणाली लागू की जानी चाहिए, जिससे भ्रष्टाचार कम हो।

ग्रामसभाओं की नियमित बैठकें सुनिश्चित की जानी चाहिए।

3. पंचायत प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण देना

पंचायत सदस्यों को प्रशासनिक, वित्तीय और कानूनी प्रक्रियाओं की जानकारी देने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए।

पंचायतों में सूचना प्रौद्योगिकी (IT) का उपयोग बढ़ाया जाना चाहिए।

4. महिला और कमजोर वर्गों की भागीदारी बढ़ाना

पंचायतों में महिलाओं और दलितों की भागीदारी को और अधिक प्रभावी बनाया जाना चाहिए।

उनके लिए विशेष प्रशिक्षण और नेतृत्व विकास कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।

निष्कर्ष

पंचायती राज प्रणाली भारतीय लोकतंत्र की नींव को मजबूत करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। यह जनता को सीधे शासन प्रक्रिया में शामिल करने और स्थानीय विकास को बढ़ावा देने में सहायक है। हालाँकि, इसमें वित्तीय संसाधनों की कमी, प्रशासनिक अक्षमताएँ और भ्रष्टाचार जैसी चुनौतियाँ भी हैं। यदि इन समस्याओं का समाधान किया जाए, तो पंचायतें लोकतंत्र की सबसे प्रभावी इकाई बन सकती हैं और ग्रामीण भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।




SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS 




01. भारत एक संघीय राज्य है इस कथन के बारे में संक्षेप में समझाइए।


भारत एक संघीय राज्य (Federal State) है, जिसका अर्थ है कि इसमें सत्ता का विभाजन केंद्र और राज्यों के बीच संविधान द्वारा किया गया है। यह संघवाद (Federalism) के सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें सरकार के कार्यों और अधिकारों को विभिन्न स्तरों पर बाँटा जाता है।


संघीय विशेषताएँ

संविधान द्वारा शक्तियों का विभाजन – भारतीय संविधान के तहत, केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियाँ संविधान की सातवीं अनुसूची में दी गई तीन सूचियों के माध्यम से बाँटी गई हैं:


संघ सूची (Union List) – केंद्र सरकार के अधिकार, जैसे रक्षा, विदेश नीति, संचार।

राज्य सूची (State List) – राज्य सरकार के अधिकार, जैसे पुलिस, कृषि, स्वास्थ्य।

समवर्ती सूची (Concurrent List) – दोनों सरकारों के अधिकार, जैसे शिक्षा, वन, श्रम कानून।

लिखित और कठोर संविधान – भारत का संविधान विस्तृत और लिखित है, जिसमें केंद्र और राज्यों की शक्तियाँ स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं। इसे बदलना कठिन है, जिससे राज्यों के अधिकार सुरक्षित रहते हैं।


स्वतंत्र न्यायपालिका – भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को संघीय ढांचे की रक्षा करने और केंद्र-राज्य विवादों को हल करने का अधिकार प्राप्त है।


दोहरी सरकार – भारत में दो स्तर की सरकारें हैं:


केंद्र सरकार (राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और संसद)

राज्य सरकारें (मुख्यमंत्री और राज्य विधानमंडल)

एकात्मक (Unitary) विशेषताएँ

हालाँकि भारत संघीय राज्य है, लेकिन इसमें एकात्मक विशेषताएँ भी हैं, जैसे:


अधिक शक्तिशाली केंद्र – आपातकाल (अनुच्छेद 352, 356, 360) के दौरान केंद्र सरकार राज्यों के कार्यों को अपने हाथ में ले सकती है।

राज्यपाल की नियुक्ति – राज्यपाल, जो राज्य का प्रमुख होता है, केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है।

निष्कर्ष

भारत एक संघात्मक शासन प्रणाली अपनाता है, लेकिन इसकी कुछ विशेषताएँ एकात्मक प्रणाली जैसी भी हैं। इसलिए, इसे पूर्ण संघीय राज्य न कहकर "संघात्मक व्यवस्था वाला अर्ध-संघीय राज्य" कहा जाता है।








02. भारतीय संविधान के एकात्मक लक्षणों को स्पष्ट करें।


भारतीय संविधान को सामान्यतः संघीय (Federal) कहा जाता है, क्योंकि इसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया है। लेकिन इसमें कई ऐसे प्रावधान भी हैं जो इसे एकात्मक (Unitary) बनाते हैं। इसलिए भारत को "संघात्मक व्यवस्था वाला अर्ध-संघीय राज्य" (Quasi-Federal State) कहा जाता है।


भारतीय संविधान के प्रमुख एकात्मक लक्षण

1. शक्तिशाली केंद्र (Strong Centre)

भारतीय संविधान में केंद्र को राज्यों की तुलना में अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

संघ सूची (Union List) में अधिक विषय (97 विषय) हैं, जबकि राज्य सूची में कम विषय (66 से घटकर 61) हैं।

समवर्ती सूची के विषयों (Concurrent List) पर यदि राज्य और केंद्र दोनों कानून बनाते हैं, तो केंद्र का कानून प्रभावी होगा (अनुच्छेद 254)।

2. आपातकालीन प्रावधान (Emergency Provisions)

संविधान के अनुच्छेद 352, 356 और 360 के तहत जब आपातकाल लगाया जाता है, तो भारत की संघीय संरचना समाप्त होकर एकात्मक शासन प्रणाली में बदल जाती है।


राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) – केंद्र सरकार को राज्यों के विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है।

राज्य आपातकाल (अनुच्छेद 356) – यदि किसी राज्य में संवैधानिक संकट हो तो राष्ट्रपति वहां राष्ट्रपति शासन (President’s Rule) लागू कर सकते हैं।

वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360) – केंद्र सरकार सभी राज्यों के वित्तीय मामलों पर नियंत्रण कर सकती है।

3. राज्यपाल की केंद्र सरकार द्वारा नियुक्ति

अनुच्छेद 155 के तहत राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति (केंद्र सरकार) द्वारा की जाती है।

अनुच्छेद 156 के अनुसार राज्यपाल को राष्ट्रपति कभी भी हटा सकते हैं।

राज्यपाल केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है और संकट की स्थिति में वह राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर सकता है।

4. केंद्र का राज्यों के कानूनों पर नियंत्रण

राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी लेनी होती है।

राज्य सूची के कुछ विषयों पर भी संसद कानून बना सकती है यदि राज्यसभा विशेष प्रस्ताव पारित करे (अनुच्छेद 249)।

5. एकीकृत न्यायपालिका (Integrated Judiciary)

भारत में एकल न्यायपालिका प्रणाली (Single Judiciary) है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और निचली अदालतें एक-दूसरे से संबद्ध हैं।

संघीय व्यवस्था में आमतौर पर राज्यों की अलग-अलग न्यायपालिका होती है, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है।

6. समान नागरिकता (Single Citizenship)

भारत में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिकता है, जबकि संघीय देशों जैसे अमेरिका में राज्य स्तर पर अलग नागरिकता होती है।

इससे भारत में राष्ट्रवाद और एकता को बढ़ावा मिलता है।

7. अखिल भारतीय सेवाएँ (All India Services)

अखिल भारतीय सेवाओं जैसे IAS, IPS और IFS का संचालन केंद्र सरकार करती है।

राज्य सरकारें इन्हें बर्खास्त नहीं कर सकतीं, जिससे केंद्र सरकार का राज्यों के प्रशासन पर नियंत्रण रहता है।

8. संविधान का कठोर संशोधन (Rigid Constitutional Amendment Process)

राज्यों को संविधान संशोधन प्रक्रिया में सीमित भूमिका दी गई है।

अधिकांश संशोधन संसद द्वारा ही किए जाते हैं और केवल कुछ संशोधनों के लिए राज्यों की सहमति आवश्यक होती है (अनुच्छेद 368)।

9. संघीय इकाइयों का पृथक अस्तित्व नहीं

संघीय देशों में राज्यों को संविधान में दर्ज अलग-अलग अधिकार मिलते हैं, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है।

भारत में राज्यों का अस्तित्व केंद्र की इच्छा पर निर्भर करता है – अनुच्छेद 3 के तहत संसद नए राज्य बना सकती है, राज्य की सीमाएँ बदल सकती है या उसे समाप्त कर सकती है।

निष्कर्ष

हालाँकि भारतीय संविधान संघीय विशेषताओं को अपनाता है, लेकिन इसमें केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, जिससे यह एकात्मक व्यवस्था की ओर झुकता है। इसलिए भारत को "संघात्मक शासन प्रणाली वाला एकात्मक राज्य" (Quasi-Federal with Unitary Bias) कहा जाता है।








03. शोषण के विरूद्ध अधिकार का वर्णन कीजिए।


परिचय

भारतीय संविधान में नागरिकों को शोषण से बचाने के लिए अनुच्छेद 23 और 24 के तहत शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation) प्रदान किया गया है। यह मौलिक अधिकारों का एक महत्वपूर्ण भाग है, जिसका उद्देश्य समाज में किसी भी प्रकार के अन्यायपूर्ण श्रम, मानव तस्करी और शोषणकारी प्रथाओं को समाप्त करना है।


अनुच्छेद 23 – मानव तस्करी और जबरन श्रम पर प्रतिबंध

(i) मानव तस्करी का निषेध

मानव तस्करी (Human Trafficking) को पूरी तरह से प्रतिबंधित किया गया है।

इसमें वेश्यावृत्ति, बंधुआ मजदूरी, बाल श्रम और जबरन मजदूरी जैसी अमानवीय प्रथाएँ शामिल हैं।

कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को बेच नहीं सकता, खरीद नहीं सकता या किसी भी प्रकार से गुलामी के रूप में रख नहीं सकता।

(ii) बेगार और जबरन श्रम पर प्रतिबंध

बेगार (Begar) का मतलब बिना किसी पारिश्रमिक के जबरन श्रम कराना होता है, जिसे पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया है।

किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध बिना उचित वेतन के मजदूरी कराने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत मजदूरों को उचित वेतन देना अनिवार्य किया गया है।

(iii) राज्य को कानून बनाने का अधिकार

संसद को इस अनुच्छेद के अंतर्गत शोषण रोकने के लिए उचित कानून बनाने का अधिकार दिया गया है।

इस आधार पर सरकार ने बंधुआ मजदूर उन्मूलन अधिनियम, 1976 और मानव तस्करी रोकथाम अधिनियम, 1956 बनाए।

अनुच्छेद 24 – बाल श्रम पर प्रतिबंध

(i) 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से खतरनाक कार्य कराना निषेध

14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को खतरनाक उद्योगों, कारखानों या खानों में काम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

यह प्रावधान बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा की रक्षा करने के लिए है।

(ii) बाल श्रम निषेध और विनियमन अधिनियम, 1986

इस अधिनियम के तहत 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खतरनाक कार्यों में लगाने पर प्रतिबंध लगाया गया और इसके उल्लंघन पर कड़ी सजा का प्रावधान किया गया।

सरकार ने "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ", "मिड-डे मील योजना" जैसी योजनाएँ भी शुरू की हैं, ताकि बच्चों को शिक्षा मिले और वे मजदूरी करने को मजबूर न हों।

शोषण के विरुद्ध अधिकार का महत्व

मानव गरिमा की रक्षा – यह अधिकार समाज में मानवाधिकारों और गरिमा की रक्षा करता है।

समानता की स्थापना – यह अधिकार अमीर और गरीब के बीच समानता स्थापित करने में सहायक है।

बच्चों और श्रमिकों का संरक्षण – यह बच्चों और गरीब मजदूरों को अन्याय और शोषण से बचाने में सहायक होता है।

सामाजिक न्याय की स्थापना – यह अधिकार समाज में शोषण-मुक्त वातावरण बनाने में मदद करता है।

निष्कर्ष

शोषण के विरुद्ध अधिकार भारत में सामाजिक न्याय और समानता स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। इसके माध्यम से बंधुआ मजदूरी, मानव तस्करी और बाल श्रम जैसी अमानवीय प्रथाओं पर रोक लगाई गई है। हालाँकि, आज भी बाल श्रम और मानव तस्करी जैसी समस्याएँ बनी हुई हैं, जिनका समाधान करने के लिए सरकार को सख्त कानून लागू करने और जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है।








04. 86वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए शिक्षा के अधिकार का उल्लेख कीजिए।


परिचय

भारत में शिक्षा को प्रत्येक बच्चे का मौलिक अधिकार बनाने के लिए 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 लाया गया। इस संशोधन के तहत संविधान के अनुच्छेद 21A को जोड़ा गया, जिसने 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया। यह संशोधन भारत में सर्वशिक्षा अभियान और राष्ट्रीय शिक्षा नीति जैसी योजनाओं को मजबूती प्रदान करता है।


86वें संविधान संशोधन के प्रमुख प्रावधान

1. अनुच्छेद 21A – शिक्षा का मौलिक अधिकार

6 से 14 वर्ष के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान किया गया।

यह शिक्षा राज्य सरकार द्वारा संचालित या सहायता प्राप्त विद्यालयों में प्रदान की जाएगी।

यह मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) की सूची में जोड़ा गया, जिससे शिक्षा को कानूनी रूप से लागू किया जा सके।

2. अनुच्छेद 45 में संशोधन – प्रारंभिक शिक्षा का विस्तार

पहले अनुच्छेद 45 में राज्य को 6 वर्ष तक के बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा देने का निर्देश था।

86वें संशोधन के बाद इसे बदलकर "शिशु देखभाल और पूर्व-प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने" का प्रावधान किया गया।

3. अनुच्छेद 51A (क) – माता-पिता और अभिभावकों का कर्तव्य

इस संशोधन के माध्यम से मौलिक कर्तव्यों (Fundamental Duties) में एक नया प्रावधान जोड़ा गया।

इसमें कहा गया कि प्रत्येक माता-पिता और अभिभावक का यह कर्तव्य होगा कि वह 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा दिलाए।

शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE Act)

86वें संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (Right to Education - RTE Act) बनाया गया। इसके प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं:


6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का कानूनी अधिकार।

25% सीटों का आरक्षण निजी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के बच्चों के लिए।

सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता और उचित बुनियादी सुविधाओं का प्रावधान।

स्कूलों में शिक्षा के स्तर की निगरानी और बच्चों को किसी भी कारण से स्कूल से न निकालने का नियम।

86वें संविधान संशोधन का महत्व

यह साक्षरता दर बढ़ाने और अशिक्षा को खत्म करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है।

गरीब और वंचित वर्गों के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक समान पहुँच मिलती है।

यह बाल श्रम को रोकने में मदद करता है, क्योंकि अब सभी बच्चों को स्कूल जाना अनिवार्य है।

यह समानता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है, जिससे समाज में आर्थिक और सामाजिक असमानता कम होती है।

निष्कर्ष

86वें संविधान संशोधन के माध्यम से शिक्षा को कानूनी रूप से अनिवार्य और मौलिक अधिकार बनाया गया। इसके द्वारा अनुच्छेद 21A, अनुच्छेद 45 में संशोधन और अनुच्छेद 51A (क) को जोड़ा गया, जिससे बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का सशक्त अधिकार मिला। हालाँकि, अभी भी कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं, जैसे कि सरकारी स्कूलों में आधारभूत सुविधाओं की कमी, शिक्षकों की अनुपलब्धता और ड्रॉपआउट दर। इन समस्याओं को हल करने के लिए शिक्षा नीति को और अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।








05. हमारे संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों का वर्णन करें।


परिचय

भारतीय संविधान में नागरिकों के अधिकारों के साथ-साथ कुछ कर्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है, जिन्हें मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties) कहा जाता है। इन्हें 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा अनुच्छेद 51A में जोड़ा गया। मौलिक कर्तव्य देश के प्रति नागरिकों की ज़िम्मेदारियों को दर्शाते हैं और एक जागरूक, जिम्मेदार एवं नैतिक नागरिक बनने की प्रेरणा देते हैं।


मौलिक कर्तव्यों की सूची (अनुच्छेद 51A)

वर्तमान में संविधान में 11 मौलिक कर्तव्य शामिल हैं, जो इस प्रकार हैं:


संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना।

स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों को संजोकर रखना और उनका पालन करना।

भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करना और इसे बनाए रखना।

राष्ट्र की सेवा के लिए तैयार रहना और जब आवश्यक हो, राष्ट्र की रक्षा करना।

भारत की समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्व देना और उसकी रक्षा करना।

पर्यावरण की रक्षा करना और प्राकृतिक संसाधनों जैसे वन, झील, नदी एवं वन्यजीवों की सुरक्षा करना तथा दया भाव रखना।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन की भावना को बढ़ावा देना।

सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना और हिंसा से दूर रहना।

व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों के माध्यम से उत्कृष्टता प्राप्त करना, जिससे राष्ट्र की निरंतर प्रगति हो सके।

बच्चों को 6 से 14 वर्ष की आयु तक शिक्षा दिलाना। (यह कर्तव्य 86वें संविधान संशोधन, 2002 द्वारा जोड़ा गया)

मौलिक कर्तव्यों का महत्व

नागरिकों में देशभक्ति की भावना बढ़ाना – ये कर्तव्य नागरिकों में संविधान और राष्ट्र के प्रति निष्ठा विकसित करते हैं।

राष्ट्रीय एकता और अखंडता को मजबूत करना – ये कर्तव्य देश की संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखने में मदद करते हैं।

पर्यावरण संरक्षण में सहायक – नागरिकों को प्रकृति की सुरक्षा और स्वच्छता बनाए रखने के लिए प्रेरित करते हैं।

सामाजिक सद्भाव और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना – यह समाज में अंधविश्वासों को समाप्त करने और तर्कशील दृष्टिकोण को अपनाने पर बल देता है।

राष्ट्रीय विकास में योगदान – नागरिकों को अपने अधिकारों के साथ कर्तव्यों का भी पालन करने की प्रेरणा देता है, जिससे राष्ट्र उन्नति करता है।

मौलिक कर्तव्यों से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें

मौलिक कर्तव्य अनुच्छेद 51A के अंतर्गत संविधान के भाग 4A में दिए गए हैं।

ये कर्तव्य भारत के संविधान में सोवियत संघ (अब रूस) से प्रेरित होकर जोड़े गए।

यह न्यायालयों द्वारा सीधे लागू नहीं किए जा सकते, लेकिन सरकार इनका पालन सुनिश्चित करने के लिए कानून बना सकती है।

86वें संविधान संशोधन, 2002 द्वारा बच्चों को शिक्षा दिलाने का कर्तव्य जोड़ा गया।

निष्कर्ष

मौलिक कर्तव्य प्रत्येक नागरिक को यह याद दिलाते हैं कि उन्हें न केवल अपने मौलिक अधिकारों का उपयोग करना चाहिए, बल्कि अपने कर्तव्यों का पालन भी करना चाहिए। ये कर्तव्य भारतीय लोकतंत्र को सशक्त बनाते हैं और एक आदर्श नागरिक समाज के निर्माण में योगदान देते हैं। यदि नागरिक अपने मौलिक कर्तव्यों का पूरी तरह पालन करें, तो भारत एक सशक्त, समृद्ध और विकसित राष्ट्र बन सकता है।








06. राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रक्रिया की व्याख्या करें।


परिचय

भारत का राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च संवैधानिक प्रमुख होता है और उसकी चुनाव प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 54 और 55 में वर्णित है। भारत में राष्ट्रपति का चुनाव परोक्ष निर्वाचन प्रणाली (Indirect Election System) द्वारा किया जाता है, जिसमें संसद और राज्यों के निर्वाचित प्रतिनिधि भाग लेते हैं।


राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रक्रिया

1. निर्वाचन मंडल (Electoral College)

राष्ट्रपति का चुनाव एक विशेष निर्वाचन मंडल द्वारा किया जाता है, जिसमें शामिल होते हैं:


लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य।

सभी राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य।

केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली, पुडुचेरी और जम्मू-कश्मीर की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य।

ध्यान दें:


नामित (Nominated) सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में मतदान नहीं कर सकते।

विधान परिषदों (Legislative Councils) के सदस्य भी राष्ट्रपति चुनाव में भाग नहीं लेते।

2. निर्वाचन प्रणाली

भारत में राष्ट्रपति का चुनाव अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (Proportional Representation System) के आधार पर एकल संक्रमणीय मत (Single Transferable Vote) द्वारा होता है।


(i) मतों का मूल्य निर्धारण (Value of Votes)

राष्ट्रपति चुनाव में सभी सांसदों और विधायकों के मतों का मूल्य अलग-अलग होता है, जो इस प्रकार निर्धारित किया जाता है:


✅ विधानसभा सदस्यों के मत का मूल्य:


मत का मूल्य

=

संबंधित राज्य की जनसंख्या

उस राज्य की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों की संख्या

×

1000

मत का मूल्य= 

उस राज्य की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों की संख्या

संबंधित राज्य की जनसंख्या

×1000

✅ सांसदों के मत का मूल्य:


मत का मूल्य

=

सभी विधायकों के मतों का कुल योग

संसद के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या

मत का मूल्य= 

संसद के निर्वाचित सदस्यों की कुल संख्या

सभी विधायकों के मतों का कुल योग


महत्वपूर्ण तथ्य:


राष्ट्रपति के चुनाव में राज्यों की जनसंख्या को ध्यान में रखा जाता है, जिससे सभी राज्यों को उचित प्रतिनिधित्व मिले।

विधायकों के मतों का मूल्य राज्यों की जनसंख्या के आधार पर भिन्न-भिन्न होता है।

3. मतदान और गणना प्रक्रिया

(i) वरीयता मत प्रणाली (Preferential Voting System)

प्रत्येक मतदाता प्रत्याशियों की वरीयता (1st, 2nd, 3rd preference) के आधार पर मतदान करता है।

यदि किसी भी उम्मीदवार को पहले ही दौर में 50% से अधिक वैध मत नहीं मिलते, तो निम्न वरीयता वाले मतों की गणना की जाती है।


इस प्रक्रिया को तब तक दोहराया जाता है, जब तक कोई उम्मीदवार निर्वाचन योग्यता (Quota of Votes) प्राप्त नहीं कर लेता।


✅ निर्वाचन योग्यता (Quota) का निर्धारण:


Quota=कुल वैध मतों का योग2+1\text{Quota} = \frac{\text{कुल वैध मतों का योग}}{2} + 1Quota=2कुल वैध मतों का योग​+1


यदि किसी उम्मीदवार को प्रथम वरीयता के आधार पर यह कोटा नहीं मिलता, तो सबसे कम मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार को हटा दिया जाता है और उसके मतों को दूसरे वरीयता वाले उम्मीदवार को जोड़ दिया जाता है।


4. चुनाव से संबंधित प्रमुख तथ्य


राष्ट्रपति चुनाव के लिए भारत का मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) चुनाव प्रक्रिया का संचालन करता है।


राष्ट्रपति चुनाव गुप्त मतदान (Secret Ballot) द्वारा होता है।


निर्वाचित राष्ट्रपति को निर्वाचन आयोग द्वारा प्रमाण पत्र दिया जाता है।


राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है, लेकिन वह दोबारा चुनाव लड़ सकता है।


उम्मीदवार बनने की योग्यता (अनुच्छेद 58)


राष्ट्रपति पद के लिए कोई भी भारतीय नागरिक चुनाव लड़ सकता है यदि वह:


भारत का नागरिक हो।


कम से कम 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।


लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो।


किसी लाभ के पद (Office of Profit) पर न हो (सिवाय राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, मंत्री आदि के)।


निष्कर्ष


राष्ट्रपति का निर्वाचन पारदर्शी और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से किया जाता है, जिसमें संसद और राज्यों की विधानसभाओं की समान भागीदारी होती है। इस चुनाव में मतदान प्रणाली और मतों के मूल्य निर्धारण की विशेष व्यवस्था की गई है, जिससे विभिन्न राज्यों और केंद्र को संतुलित प्रतिनिधित्व मिले।




07. उच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।




उच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का वर्णन


परिचय


भारत में उच्च न्यायालय (High Court) किसी राज्य या राज्यों के समूह के लिए स्थापित न्यायालय होता है। उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र और शक्तियाँ संविधान के अनुच्छेद 214 से 231 के तहत निर्धारित की गई हैं। इसका प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction) उन मामलों से संबंधित होता है, जिन्हें उच्च न्यायालय सीधे सुन सकता है, बिना किसी निचली अदालत से अपील किए।


उच्च न्यायालय का प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction)


उच्च न्यायालय का प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार विभिन्न मामलों में लागू होता है, जिनमें संवैधानिक, नागरिक, और आपराधिक मुद्दे शामिल होते हैं।


1. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा (अनुच्छेद 226)


उच्च न्यायालय के पास मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का विशेषाधिकार है।


यदि किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो वह सीधे उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर सकता है।


उच्च न्यायालय हABEAS CORPUS, MANDAMUS, PROHIBITION, CERTIORARI, और QUO WARRANTO जैसी रिट जारी कर सकता है।


2. नागरिक एवं आपराधिक मामलों का क्षेत्राधिकार


उच्च न्यायालय कुछ महत्वपूर्ण नागरिक और आपराधिक मामलों को सीधे सुन सकता है, विशेषकर जब मामला राज्य की महत्वपूर्ण कानूनी व्याख्याओं से जुड़ा हो।


इसमें बड़े संपत्ति विवाद, अनुबंध संबंधी विवाद, और उच्च मूल्य के दावे शामिल हो सकते हैं।


3. विवाह, उत्तराधिकार, और कंपनी कानून से जुड़े मामले


उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार विवाह, तलाक, उत्तराधिकार (Succession), और दीवाला (Insolvency) से जुड़े मामलों में भी लागू होता है।


यह किसी कंपनी के पंजीकरण, उसे बंद करने, और अन्य कानूनी विवादों को भी देखता है।


4. अवमानना (Contempt of Court) के मामलों में क्षेत्राधिकार


उच्च न्यायालय के पास न्यायालय की अवमानना (Contempt of Court) करने वाले व्यक्तियों को दंडित करने का अधिकार है।


यदि कोई व्यक्ति न्यायालय के आदेशों की अवहेलना करता है, तो उच्च न्यायालय जुर्माना या सजा दे सकता है।


5. सेवा संबंधी मामले (Service Matters)


राज्य सरकार के अधीन कार्यरत कर्मचारियों के सेवा शर्तों, पदोन्नति, निलंबन, स्थानांतरण आदि से जुड़े विवादों को उच्च न्यायालय में सीधे चुनौती दी जा सकती है।


राज्य लोक सेवा आयोग और अन्य सरकारी एजेंसियों के निर्णयों के विरुद्ध भी याचिका दायर की जा सकती है।


6. चुनाव याचिकाएँ (Election Petitions)


विधानसभाओं और नगर निकायों से संबंधित चुनावों में गड़बड़ी होने पर, उम्मीदवार या मतदाता उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर सकते हैं।


हालाँकि, संसदीय चुनावों से संबंधित विवाद सीधे उच्चतम न्यायालय में जाते हैं।


निष्कर्ष


उच्च न्यायालय का प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार संविधान और कानूनों के तहत दी गई शक्तियों पर आधारित है। यह क्षेत्राधिकार विशेष रूप से संवैधानिक अधिकारों की रक्षा, नागरिक और आपराधिक मामलों, सेवा विवादों, और अवमानना मामलों में लागू होता है। उच्च न्यायालय का यह अधिकार नागरिकों को त्वरित न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करता है।




08. 74वें संविधान संशोधन के द्वारा लागू किए गए मुख्य सुधार क्या है?






परिचय


भारत में नगर निकायों (Municipalities) की सशक्तता और स्वायत्तता को सुनिश्चित करने के लिए 74वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 लागू किया गया। यह संशोधन अनुच्छेद 243-P से 243-ZG तक के नए प्रावधान जोड़ता है और शहरी स्थानीय शासन को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है। इस संशोधन के तहत, नगर निकायों की संरचना, शक्तियाँ, कार्य, वित्तीय सुदृढ़ता और चुनावों की प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया।


मुख्य सुधार (74वें संशोधन के प्रभावी प्रावधान)


1. नगर निकायों को संवैधानिक दर्जा (Constitutional Status to Municipalities)


74वें संशोधन से पहले नगर निकायों की स्थिति अस्थायी थी और वे राज्य सरकारों पर निर्भर थे।


इस संशोधन के तहत नगर निकायों को संवैधानिक दर्जा दिया गया, जिससे उनकी स्वायत्तता और प्रभावशीलता बढ़ी।


2. तीन स्तरीय नगर निकाय प्रणाली (Three-Tier System of Urban Local Governance)


इस संशोधन ने नगर निकायों को तीन स्तरों में विभाजित किया:


नगर निगम (Municipal Corporation) – बड़े शहरों के लिए।


नगर परिषद (Municipal Council) – मध्यम आकार के शहरों के लिए।


नगर पंचायत (Nagar Panchayat) – छोटे कस्बों और शहरीकरण की प्रक्रिया में आने वाले क्षेत्रों के लिए।


3. नियमित चुनावों की व्यवस्था (Regular Elections)


संशोधन के तहत नगर निकायों के चुनाव हर पाँच वर्ष में एक बार कराना अनिवार्य कर दिया गया।


चुनावों का संचालन राज्य चुनाव आयोग (State Election Commission) द्वारा किया जाता है।


4. महिला और वंचित वर्गों के लिए आरक्षण (Reservation for Women and Weaker Sections)


महिलाओं के लिए 33% सीटों का आरक्षण।


अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए भी सीटों का आरक्षण सुनिश्चित किया गया।


5. वित्तीय सुदृढ़ता (Financial Empowerment)


नगर निकायों को वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए राज्य वित्त आयोग (State Finance Commission) की स्थापना की गई।


इन निकायों को स्वयं कर लगाने (Property Tax, Entertainment Tax, Toll Tax, etc.) और राज्य सरकार से अनुदान प्राप्त करने का अधिकार दिया गया।


6. नगर योजना और विकास (Urban Planning and Development)


नगर निकायों को स्थानीय योजना निर्माण और विकास परियोजनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका दी गई।


12वीं अनुसूची (12th Schedule) में 18 विषयों को जोड़ा गया, जिन पर नगर निकाय कार्य कर सकते हैं, जैसे –


शहरी नियोजन


जल आपूर्ति


स्वच्छता एवं कचरा प्रबंधन


सार्वजनिक परिवहन


स्लम विकास


7. नगर प्रशासन में पारदर्शिता (Transparency in Urban Governance)


नगर निकायों को जनता की भागीदारी बढ़ाने और स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता देने के लिए सशक्त किया गया।


ई-गवर्नेंस (E-Governance) और सूचना के अधिकार (RTI) के माध्यम से प्रशासन में पारदर्शिता लाई गई।


निष्कर्ष


74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 ने भारत में नगर प्रशासन को संवैधानिक सुरक्षा, स्वायत्तता, वित्तीय स्वतंत्रता और महिलाओं सहित वंचित वर्गों के लिए प्रतिनिधित्व प्रदान किया। इससे शहरी विकास और स्थानीय शासन प्रणाली में जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ी, जिससे लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को बढ़ावा मिला।