AECC-K-101 कुमाऊनी भाषा साहित्य , uttrakhand Open University solved questions

 नमस्कार दोस्तों,

आज की इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको बताएंगे, उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी के बीए प्रथम और द्वितीय सेमेस्टर के सब्जेक्ट AECC-K-101 का हल प्रश्न पत्र, आशा करता हूं, आपको ये सारे प्रश्न, परीक्षा में मदद करेंगे।



प्रश्न 01  कुमाऊं क्षेत्र के लोक साहित्य का विस्तार पूर्वक परिचय दीजिए।

उत्तर:

कुमाऊनी लोक साहित्य:

लोकजीवन की विविध क्रियाएं वह अनुभूति जब अभिव्यक्ति के धरातल पर आती है, तब वह लोक साहित्य कहलाता है । लोक की अनुभूति की अभिव्यक्ति का दूसरा नाम है लोक साहित्य।  कुमाऊं क्षेत्र भौगोलिक रूप से पर्वतीय क्षेत्र कहलाता है , यहां की प्राचीन परंपराएं गीत संगीत और संस्कृति के मिश्रण से यहां के लोग साहित्य का निर्माण हुआ है । लोक साहित्य में परंपरागत लोक जीवन की धारणाओं विश्वासों तथा मान्यताओं का उल्लेख होता है कुमाऊं क्षेत्र की वार्षिक अथवा मौखिक परंपरा का एक दीर्घकालीन इतिहास रहा है,  परंपरा से चली आ रही मौखिक अभिव्यक्ति को कुमाऊनी लोक साहित्य कहा जाता है।

लोक साहित्य के मर्मज्ञ डॉक्टर वासुदेव शरण अग्रवाल ने लोक साहित्य के संबंध में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है, लोक हमारे जीवन का महासमुद्र है ,उसमें भूत, भविष्य, वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है, लोग क्रत्सन ज्ञान  और संपूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यावसान है।

अमरकोश में लोक साहित्य के लोक नामक अग्र शब्द के विभिन्न पर्यायवाची शब्द मिलते हैं , जैसे भुवन, जगती, जगत , लोक साहित्य पूरे जन समुदाय की अभिव्यक्ति का दर्पण होता है।


कुमाऊनी लोक साहित्य का इतिहास :

कुमाऊं में आरंभिक काल से प्रचलित मौखिक साहित्य को लोक साहित्य कहा जाता है। यद्यपि कुमाऊनी में हमें दो प्रकार का साहित्य मिलता है, किंतु मौखिक पारंपरिक साहित्य के निर्माता रचयिता अज्ञात होने के कारण लोगों के दंतवेद या टेप रिकॉर्डर आदि के माध्यम से लोक साहित्य यात्रा किसी रूप में उपलब्ध हो जाता है।

कुमाऊनी भाषा में  कविता, कहानी, निबंध तथा नाटक तथा अन्य विधाओं की रचनाओं का उल्लेख हुआ है। इतिहास काल में समय-समय पर विभिन्न शासनों का प्रभाव यहां के साहित्य पर भी पड़ा इसलिए संस्कृत, बांग्ला, उर्दू आदि भाषाओं का प्रभाव भी कुमाऊं लोक साहित्य में देखा जा सकता है।

प्रोफेसर शेर सिंह बिष्ट के अनुसार कुमाऊनी में लिखित शिष्ट साहित्य की परंपरा अधिक प्राचीन नहीं है यद्यपि लिखित रूप में कुमाऊनी भाषा का प्रयोग ग्यारहवीं सदी से उपलब्ध ताम्र पत्रों एवं सरकारी अभिलेखों में देखने को मिलता है।

परंतु साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में उसका लिखित रूप गुमानी (1790 से 1846) ईस्वी से प्रारंभ होता है। गुमानी जी ने जिस तरह परिष्कृत कुमाऊनी का प्रयोग अपनी कविताओं में किया है, उससे लगता है कि उससे पूर्व भी कुमाऊनी में साहित्य लिखा जाता होगा। डा. बिष्ट ने कुमाऊनी के लिखित साहित्य को कालक्रमानुसार तीन चरणों में बांटा हैं: 

(1) प्रारंभिक काल (1800 ई ० से 1900 ई ० तक)

(2) मध्य काल (1900 ई ० से 1950 ई ०)

(3) आधुनिक काल (1950 ई ० से अब तक) 


प्रारंभिक काल 

कुमाऊनी साहित्य का प्रारंभिक दौर काफी उतार-चढ़ावों से भरा था सन 1790 ईस्वी में चंद्र शासन के पाटन के बाद कुमाऊं क्षेत्र गोरख शासन के अधीन हो गया था इसके बाद सन 1815 में कुमाऊं अंग्रेजी शासन के कब्जे में आ गया । प्रत्येक शासन काल में तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक परिदृश्य का असर उसे समय की रचनाओं पर पड़ा।  गुमानी पंत ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध कविताओं के माध्यम से आवाज उठाई । लोकरत्न पंत गुमानी को लिखित कुमाऊनी साहित्य का प्रथम कवि माना जाता है इनका जन्म सन 1790 में काशीपुर में हुआ।  इन्होंने घस्यारी नाटक मित्र विनोद नमक की पुस्तक भी लिखी है।


मध्य काल:

गोरी दत्त पांडे " गौर्दा " भी मध्यकालीन कुमाऊनी कवियों में अपना अलग स्थान रखते हैं, इनका जन्म सन् 1872 को देहरादून हुआ।  इनकी रचनाओं के प्रासंगिकता के कारण हमें इन्हें वर्तमान पाठ्यक्रम में भी पढ़ते हैं, इनकी कविताओं का संकलन "गौरी गुटका" के नाम से प्रसिद्ध है इसके अलावा इनकी अन्य महत्वपूर्ण रचनाएं "प्रथम वाटिका "  तथा छोड़ो गुलामी खिताब है । अंग्रेजी शासक के अत्याचारों के विरुद्ध  इन्होंने बड़ा काव्यांदोलन  किया था .  

आधुनिक काल :

सन 1950 से लेकर वर्तमान समय तक का रचना काल आधुनिक काल कहलाता है।  स्वतंत्रता के बाद कुमाऊनी रचनकारों की  रचनाओं में आए बदलाव को हम आसानी से देख सकते हैं । समय के साथ ठेठ कुमाऊनी का रूप मानक भाषा की तरफ बढ़ता दिखाई देता है।  युगीन प्रभाव के साथ-साथ रचनाओं के अर्थ ग्रहण शैली में परिवर्तन देखा जा सकता है। 

आधुनिक युग के कवियों में सर्वप्रथम चारु चंद पांडे का नाम उल्लेखनीय है इनका जन्म सन 1923 को हुआ इनका प्रसिद्ध ग्रंथ अड़वाल  सन 1986 में प्रकाशित हुआ इन्होंने पूर्ववर्ती कभी गौर्दा के काव्य दर्शन पर चर्चित पुस्तक लिखी लोक साहित्य के मर्मज्ञ बृजेंद्र लाल साह  का जन्म 1928  ई ० को अल्मोड़ा में हुआ । रंगमंच से जुड़ा होने के कारण इनकी रचनाओं को पर्याप्त प्रसिद्धि मिली। 


प्रश्न 02  लोक साहित्य की अन्य प्रवृत्तियों के संदर्भ में कुमाऊनी साहित्य का विश्लेषण कीजिए।

उत्तर: 

कुमाउनी लोकसाहित्य की अन्य प्रवृत्तियाँ


कुमाऊँ में लोकगीत, लोककथा तथा लोकगाथा के अतिरिक्त अन्य लोक विधाएँ भी प्रचलित हैं। इनमें मुहावरे, कहावतें तथा पहेलियाँ प्रमुख हैं। ये सभी विधाएँ इतिहास काल के दीर्घ प्रवाह में अपना स्थान निर्धारित करती आई हैं। मुहावरे तथा कहावतों एवं पहेलियों की रचना किस व्यक्ति द्वारा की गई? किन परिस्थितियोंमें की गई? इस सम्बन्ध में आज तक ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। इतना अवश्य है कि ये विविध विधाएं तत्कालीन परिस्थितियों से लेकर आज तक हमारे समाज में पूरी तरह से जीवंत हैं। इन विधाओं को सूत्रकथन के रूप में जाना जाता है। लोकमानस की अभिव्यक्ति प्रायः मौखिक परंपरा द्वारा संचालित रही है। लोकजीवन से सम्बद्ध कई घटनाएं तथा विचार प्रायः मौखिक रूप में ही

अभिव्यक्त होते हैं। कुमाउनी मुहावरें तथा कहावतों को सूत्रकथन के रूप में समाज में बहुत प्रसिद्धि मिली है। मानव की सभ्यता व संस्कृति के अनेक तत्वों पर आधारित इन प्रकीर्ण विधाओं में संक्षिप्तता सारगर्भितता तथा चुटीलापन है। इनकी मूल विशेषता इनकी लोकप्रियता है। इसी कारण ये कहावतें मुहावरें आदि जनमानस की जिह्वा पर जीवित रहते हैं। कहावतों को विश्व नीति साहित्य का एक प्रमुख अंग माना जाता है। संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में कहावतों तथा मुहावरों के व्यापक प्रयोग हुए हैं।

कुमाउनी मुहावरे एवं कहावतें


कुमाउनी समाज में आरंभिक काल से मुहावरों तथा लोकोक्तियों की अनूठी परंपरा रही है। वाचिक (मौखिक) परंपरा के रूप में मुहावरे तथा कहावतें अपने लाक्षणिक अर्थ तथा व्यंग्यार्थ की अनुभूति के लिए प्रसिद्ध है। यदि लोकसाहित्य के विवेचन को ध्यान से देखा जाए तो मुहावरे तथा कहावतें किसी भी लोक समाज दर्शन से जुड़ी होती हैं। इनमें संक्षिप्त रूप से गहन भावार्थ छिपा रहता है। व्यंग्यार्थ की प्रतीति कराने वाली इन विधाओं के निर्माताओं के विषय में सटीक तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। इतना अवश्य है कि ये लोक के गूढ़ आख्यान तथा उक्ति चातुर्य के प्रदर्शन में सिद्धहस्त हैं। यहां हम कुमाउनी मुहावरे तथा कहावतों के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कुछ व्यावहारिक मुहावरें तथा कहावतों का अर्थ स्पष्ट करेंगे।


कुमाउनी मुहावरेः- मुहावरा शब्द की व्युत्पत्ति अरबी भाषा से मानी जाती हैं। अरबी भाषा में मुहावरे का अर्थ आपसी बातचीत, वार्ता या अभ्यास होता है। अंग्रेजी में मुहावरे कोईडियम कहा जाता है। देव सिंह पोखरिया के शब्दों में- इस दृष्टि से किसी भाषा के लिखित या मौखिक रूप में प्रचलित वे सभी वाक्यांश मुहावरों के अन्तर्गत आते हैं। जिनके द्वारा किसी साधारण अर्थ का बोध विलक्षण और प्रभावशाली ढंग से लक्षणा और व्यंजना के द्वारा प्रकट होता है।


मुहावरों का प्रयोग दीर्घकाल से समाज में होता रहा है। यह केवल हिन्दी या कुमाउनी या हिन्दी में ही नहीं, अपितु विश्व के सभी साहित्यों में अपने ढंग से व्यवहत है। मुहावरा एक छोटा वाक्यांश होता है। मुहावरे तथा कहावत में मूल अंतर यह है कि कहावत एक पूर्ण कथन या वाक्य होता है। तथा मुहावरा वाक्यांश। कहावत में कधात्मकता होती है। आप जान गए होंगे कि कथा के भाव को आत्मसात करने वाली विधा लोककथा कही जाती है। कहावत कथा के आख्यान को समेटे रखता है, जबकि मुहावरा लाक्षणिक अर्थ का बोध कराकर समाज में अर्थ प्रतीति को बढ़ाता है।


कुमाऊँ क्षेत्र में प्रचलित मुहावरों की संख्या लगभग चार हजार से अधिक होगी। ये संख्या यहां के ग्रामीणों की बोलचाल की भाषा में अधिक प्रभावी है। आपसी वार्तालाप के लिए कुमाउनी में विशिष्ट मुहावरे का प्रचलन है। जैसे- 'क्वीड़ करण' का अर्थ होता है महिलाओं की गपशप, किन्तु सामान्य गपशप के लिए 'फसक मारण' मुहावरा प्रचलन में है।

कुछ कुमाउनी मुहावरों को उनके हिन्दी अर्थ के साथ यहां प्रस्तुत किया जाता है-


(1) ख्वर कन्यूण- सिर खुजलाना


(2) बाग मारि बगम्बर में भैटण- बाघ मारकर बाघ की खाल पर बैठना।


(3) कन्यै कन्यै कोद करण- खुजला खुजला कर कोढ़ करना


(4) स्यैणि मैंसोंक दिशाण अलग करण- पति पत्नी का बिस्तर अलग करना।


(5) आंख मारण- आंख मारना (इशारा करना)


(6) लकीरक फकीर हुण- लकीर का फकीर होना।


(7) गाड़ बगूण-नदी में बहा देना।


(8) घुन टुटण- घुटने टूटना


कुमाउनी पहेलियाँ:

प्रकीर्ण विधाओं के अन्तर्गत कुमाउनी पहेलिया ने भी लोकसाहित्य में अपना एक अलग स्थान बनाया है। कुमाउनी में मुहावरे तथा कहावतों की भांति पहेलियों का प्रचलन भी काफी लम्बे समय से होता रहा हैं। अधिकांश पहेलियां घरेलू कामकाज की वस्तुओं तथा भोजन में काम आने वाली पदार्थों पर आधारित हैं। मानव तथा नियति सम्मत तत्वों पर भी


अनेक पहेलियों का निर्माण हुआ है। कुछ कुमाउनी पहेलियां (कुमाऊँ में जिन्हें आण कहते है) यहां प्रस्तुत हैं-


(1) धाई में डबल गिण नि सक चपकन सिकड़ टोड नि सक थाली में पैसें गिन न सके मुलायम छड़ तोड़ न सके। उत्तर- आकाश के तारे व सांप


(2) सफेद घ्वड़ पाणि पिहूँ जाणौ लाल घ्वड़ पाणि पि बेर ऊणौ- सफेद घोड़ा पानी पीने जा रहा है लाल घोड़ा पानी पीकर आ रहा है- उत्तर - पूड़ी तलने से पूर्व तथा पश्चात


(3) ठेकि मैं ठेकि बीचम भै गो पिरमू नेगि-बर्तन पर बर्तन बीच में बैठा पिरमू नेगी- उत्तर - गन्ना


(4) लाल लाल बटु भितर पितावक डबल- लाल लाल बुटआ भीतर पीतल के सिक्के उत्तर (लाल मिर्च)


(5) भल मैंसकि चेली छै कलेजा मजि बाव- अच्छे आदमी की लड़की बताते हहैं कलेजे में है बाल-उत्तर- आम


(6) काइ नथुली सुकीली बिन्दी काली नथ सफेद बिन्दी - उत्तर- तवा और रोटी


(7) तु हिट मी ऊनूं - तू चल मैं आता हूँ


उत्तर सुई तागा


(9) मोटि मोटि कपड़ा हजार- मोटा मोटा कपड़े हजार उत्तर प्याज



प्रश्न 03 मौखिक साहित्य से आप क्या समझते हैं? कुमाऊनी मौखिक साहित्य का विवेचन कीजिए।

उत्तर:

मौखिक साहित्य

मौखिक साहित्य उस साहित्य को कहते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप में ही प्रचलित होता है और इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं होता। यह साहित्य वाचिक परंपरा के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता है। इसमें लोकगीत, लोककथाएं, कहावतें, लोकोक्तियाँ, पहेलियाँ, और अन्य प्रकार के मौखिक विधाओं का समावेश होता है। मौखिक साहित्य समाज के सांस्कृतिक, धार्मिक, और सामाजिक जीवन का प्रतिबिंब होता है और यह समाज की सामूहिक स्मृति को जीवित रखता है।


कुमाऊनी मौखिक साहित्य

कुमाऊँ, उत्तराखंड का एक प्रमुख सांस्कृतिक क्षेत्र है, जिसकी अपनी समृद्ध लोक परंपराएँ और मौखिक साहित्य हैं। कुमाऊनी मौखिक साहित्य में लोकगीत, लोककथाएं, कहावतें, पहेलियाँ, और कुमाऊनी बोली में रची गईं अनगिनत लोक विधाएँ शामिल हैं। 


1. लोकगीत: 

कुमाऊनी लोकगीतों में 'झोड़ा', 'छपेली', 'चांचरी', और 'बाजुबंद' प्रमुख हैं। ये गीत मुख्यतः पर्व, उत्सव, सामाजिक कार्यक्रमों और धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान गाए जाते हैं। इन गीतों में जीवन की विभिन्न परिस्थितियों, प्रेम, वीरता, प्रकृति, और आध्यात्मिकता का वर्णन मिलता है।


2. लोककथाएं:

कुमाऊँ की लोककथाएं स्थानीय इतिहास, समाज, संस्कृति, और नैतिकता की कहानियाँ होती हैं। ये कहानियाँ अक्सर स्थानीय देवी-देवताओं, वीर पुरुषों, और सामान्य जनों के जीवन पर आधारित होती हैं। इनमें राजुला मालुसाही ' जैसी लोककथाएँ प्रचलित हैं।


3. कहावतें और लोकोक्तियाँ: 

कुमाऊनी मौखिक साहित्य में कहावतें और लोकोक्तियाँ भी महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। ये कहावतें स्थानीय बुद्धिमत्ता, जीवन के अनुभव, और सामाजिक मूल्यों को प्रकट करती हैं। उदाहरण के लिए, "जस घर की फिकर, तस घर की भितर"

(1) मुसकि ऐरै गाउ गाउ बिराउक है री खेल- चूहे की मुसीबत आई है, बिल्ली के लिए खेल जैसा हो रहा है।


(2) जो गर्गों जाण नै, वीक बाट के पुछण- जिस गांव में जाना नहीं, उसका पता पूछने (रास्ता मालूम करने) से क्या लाभ।


(3) भैसक सींग भैंस के भारि नि हुन- भैंस का सींग भैंस को भारी नहीं लगता अर्थात अपनी संतान को कोई भी व्यक्ति बोझ नहीं समझता।


(4) आपण सुन ख्वट परखणि के दोष दी अपना सोना खोटा परखने वाले को दोष।


(5) लुवक उजणण आय फाव बड़ाय, मैंसक उजड़ण आय ग्वाव बड़ाय-लोहे का उजड़ना आया तो फाल बनाया आदमी का उजड़ना आया तो उसे ग्वाला बनाया।


इस तरह की  कहावतें समाज में काफी प्रचलित हैं।


4. पहेलियाँ: 

कुमाऊनी पहेलियाँ भी मौखिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये पहेलियाँ बच्चों और बड़ों के बीच मनोरंजन का साधन होती हैं और ज्ञान एवं बुद्धि के विकास में सहायक होती हैं।

जैसे:

(1) थाई में डबल गिण नि सक चपकन सिकड़ टोड नि सक थाली में पैसें गिन न सके मुलायम छड़ तोड़ न सके।


उत्तर- आकाश के तारे व सांप


(2) सफेद ध्वड़ पाणि पिहूँ जाणौ लाल घ्वड़ पाणि पि बेर ऊणी- सफेद घोड़ा पानी पीने जा रहा है लाल घोड़ा पानी पीकर आ रहा है- उत्तर - पूड़ी तलने से पूर्व तथा पश्चात


(3) ठेकि मैं ठेकि बीचम भै गो पिरमू नेगि-चर्तन पर बर्तन बीच में बैठा पिरमू नेगी- उत्तर गन्ना


4) लाल लाल बटु भितर पितावक डबल- लाल लाल बुटआ भीतर पीतल के सिक्के उत्तर (लाल मिर्च) (


(5) भल मैंसकि चेली छ कलेजा मजि बाव- अच्छे आदमी की लड़की बताते हहैं कलेजे में है बाल-उत्तर- आम


(6) काइ नधुली सुकीली बिन्दी काली नथ सफेद बिन्दी - उत्तर- तवा और रोटी


(7) तु हिट मी ऊनूं - तू चल में आता हूँ


उत्तर सुई तागा


(9) मोटि मोटि कपड़ा हजार- मोटा मोटा कपड़े हजारउत्तर प्याज



कुमाऊनी मौखिक साहित्य की विशेषता यह है कि यह क्षेत्र की संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस साहित्य के माध्यम से समाज की परंपराएँ, मान्यताएँ, और लोक ज्ञान आगे की पीढ़ियों तक पहुंचते हैं, जिससे सांस्कृतिक धरोहर की निरंतरता बनी रहती है।


प्रश्न 04  कुमाऊनी भाषा एवं साहित्य के उद्भव एवं विकास पर एक निबंध लिखिए।

उत्तर:

कुमाऊनी भाषा का समृद्ध इतिहास रहा है । कुमाउनी भाषा के उद्धव के संदर्भ में दो मत प्रचलित रहे हैं। एक मत के अनुसार कुमाउनी भाषा का उद्भव दरद-खस प्राकृत से हुआ है। दूसरे मत के अनुसार सौरसेनी अपभ्रंश से कुमाउनी भाषा का विकास हुआ है। हम जानते हैं कि हिंदी भाषा की उत्पत्ति भी शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। कुमाउनी हिंदी भाषा की एक समृद्ध भाषा है। 


कुमाउनी भाषा की उत्पत्ति के संदर्भ में शौरसेनी अपभ्रंश का तर्क भी बहुत मजबूत है। बल्कि इस मत को मानने वालों के तर्क ज्यादा मजबूत हैं।  डॉ धीरेंद्र वर्मा मध्यकाल में कुमाउनी को राजस्थानी से प्रभावित मानते हैं तथा आधुनिक काल में हिंदी भाषा से। आज बहुत से विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि कुमाउनी में बहुत सी भाषाओं के तत्व विद्यमान हैं, किन्तु कुमाउनी हिंदी भाषा में अपने को सर्वाधिक निकट पाती है। कुमाऊनी भाषा की विकास प्रक्रिया को समझने के लिए उसके काल विभाजन को देखना उचित होगा कुमाऊनी के काल विभाजन को मुख्यतः निम्न ढंग से समझा जा सकता है:

प्रारंभिक काल (1100 ई से 1400 ई तक) 


इस कालखंड के कुमाउनी भाषा के विकास को मुख्यतः शिलालेखों, ताम्रपत्रों तथा अन्य अभिलेखों के माध्यम से देखा जा सकता है। इस संदर्भ में सन 1344 ई, 1389 ई, 1404 ई के ताम्रपत्र को देखा जा सकता है। सन 1344 ई के ताम्रपत्र के एक नमूने में कुछ इस तरह की भाषा उपयोग हुई थी।


"श्री शाके 1266 मास भाद्रपद राजा त्रिलोकचंद रामचंद्र चम्पाराज चिरजुयतु पछमुल बलदेव चडमुह को महराज दीनी।"


इस नमूने के आधार पर समझा जा सकता है कि कुमाउनी भाषा अपने बनने की प्रक्रिया में है। संस्कृत का प्रभाव शेष है।


पूर्व मध्यकाल (1400 ई-1700 ई तक)

इस काल में कुमाउनी भाषा के स्वरूप में बहुत अंतर तो न आया किन्तु उसका परिमार्जन अपेक्षाकृत ज्यादा ही हुआ।


इस काल में तद्भव एवं स्थानीय शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा। इस काल के अभिलेखों के कुछ नमूने 1446 ई, 1593 ई, 1664 ई में मिले हैं। सन 1664 ई का एक नमूना देखें- "महाराजाधिराज श्री राजा बज बहादुर चंद्र देव ले तमापत्रक करि कुमाऊं का... को मठ दिनु हंस गिरि ले पायो मठ बीच जोगी न दिजि मछयो फिरि रामगिरि भकि दसनाम सन्यासीन दिनु।"


ऊपर के नमूने देखने से पता चलता है कि कुमाउनी में लोकप्रचलित शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा था। अभिलेख की भाषा अब लोक भाषा की ओर उन्मुख होने लगी थी।


उत्तर मध्यकाल (1700 ई - 1900 ई तक)


इस कालखंड में ऐतिहासिक घटनाओं में तेजी से परिवर्तन हुए। आधुनिक जीवन जगत की गति ने भाषा में भी परिवर्तन उपस्थित किये। कारण यह कि भाषा का सामाजिक गतिक्रम से घनिष्ठ संबंध है। इस कालखंड में उत्तराखंड में चंद शासन का अंत हुआ। चंद शासन के उपरांत कुछ समय तक (1790 ई-1815 ई) गोरखा शासन रहा। किन्तु अंग्रेजों से पराजित होकर वे सत्ता से बेदखल कर दिए गए। इसके पश्चात उत्तराखंड पर अंग्रेजों का शासन रहा। इन सब घटनाओं का प्रभाव कुमाउनी भाषा पर भी पड़ा। चंद शासकों के मुगलों से संपर्क के कारण कुमाउनी भाषा में अरबी-फ़ारसी शब्दों का प्रयोग बढ़ा। इसी प्रकार गोरखा शासन व अंग्रेजी शासन के प्रभावस्वरूप नेपाली तथा अंग्रेजी भाषा के शब्द भी कुमाउनी भाषा में आये। इस सबसे कुमाउनी भाषा का विस्तार होता चला गया। जब तक चंद शासकों का राज्य रहा तब तक तो कुमाउनी को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त होता रहा। इसी दौर में गुमानी, कृष्ण पांडे, शिवदत्त सत्ती आदि कुमाउनी के कवि हुए, जिन्होंने कुमाउनी को साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध किया।


आधुनिक काल (1900 ई से आज तक)


इस कालखंड में राष्ट्रीय आंदोलन व स्वतंत्र भारत की राष्ट्रीय समस्याएं मुख्य रूप से प्रभावी भूमिका ग्रहण करती है। देश की आज़ादी का संघर्ष, कुमाउनी भाषी समाज का उसमें भाग लेना व विभिन्न आंदोलनों में हिस्सेदारी, यह भाषा के स्तर पर भी उसे व्यापक आधार देता है। हिंदी भाषा के ढेर सारे शब्दों के अलावा अंग्रेजी, फ़ारसी के अनेक शब्द कुमाउनी भाषा में घुलते-मिलते चले गए।


प्रश्न 05 कुमाऊनी भाषा की बोलियों और उपभाषाओं पर निबंध लिखिए।

उत्तर:   सुविधा की दृष्टि से एवं भाषाई वैविध्य को ध्यान में रखते हुए कुमाउनी को दो वर्गों में बाँटा गया है। 

1 - पूर्वी कुमाउनी      2- पश्चिमी कुमाउनी।


पूर्वी कुमाउनी को 4 उपबोलियों में विभक्त किया गया है। ये उपबोलियाँ हैं-

कुमय्यों, सोर्याली, सीराली, अस्कोटि। 

इसी प्रकार पश्चिमी कुमाउनी की मुख्यतः 6 उपबोलियाँ मानी गयी हैं। ये 6 उपबोलियाँ हैं-

खसपर्जिया, चौगर्खिया, गंगोली, वनपुरिया, पछाई, रौ चौबैंसी। इस प्रकार कुमाउनी भाषी क्षेत्र की ये मुख्य बोलियाँ मानी गयी हैं।

पूर्वी कुमाउनी की बोलियाँ


कुमच्यों (कुमाई) - यह काली कुमाऊं क्षेत्र की बोली है। काली (शारदा) नदी के किनारे बसे होने के कारण इस क्षेत्र को काली कुमाऊं के नाम से जाना जाता है। काली कुमाऊं की बोली कुमय्यां या कुमाई नाम से जानी जाती है। इसके उत्तर में पनार तथा सरयूं नदियां, पूर्व में काली नदी, दक्षिण में भाबर तथा पश्चिम में लधिया नदी से युक्त देवीधूरा पर्वतमाला है। लोहाघाट और चंपावत की बोली को ही कुमाई बोली कहते हैं। यह बोली पूर्वी कुमाउनी की प्रतिनिधि बोली है। सोर्याली- पिचौरागढ़ जिले के सोर परगने की बोली सोर्याली कहलाती है। सोर का मुख्य भू-भाग सैण या मैदानी है। शायद इसीलिए इस क्षेत्र को सैणी सोर कहते हैं। पूर्व में यह क्षेत्र काफी समय तक नेपाली शासन के अधीन रहा था। सोर शब्द नेपाली में सोहोर तीव्रगामी बहाव) के अर्थ में मिलता है। संभवतः इसके पूर्व इस स्थान पर झीलें रही हों। भौगोलिक दृष्टि से पिथौरागढ़ जिले का सोर परगना नेपाल का सीमावर्ती भाग है। नेपाल के निकट होने के कारण सोर्याली पर खसकुरा या नेपाली का प्रभाव दिखता है। कुछ विद्वान सोर्याली को ही पूर्वी कुमाउनी की प्रतिनिधि बोली मानने के पक्षधर हैं।


सीराली- यह पूर्वी कुमाउनी की बोली है। पिथौरागढ़ जिले में अस्कोट के पश्चिम तथा गंगोली के पूर्व का भूभाग सीरा कहलाता है। सीरा क्षेत्र की बोली सीराली या सीर्याली कहलाती है। सीराली बोली पर अस्कोटी, सोर्याली, गंगोली तथा जोहारी बोलियों का प्रभाव दिखाई देता है।


अस्कोटी- अस्कोटी पूर्वी कुमाउनी की बोली है। पिथौरागढ़ जिले के सीरा भूभाग के उत्तर-पूर्व में स्थित अस्कोट क्षेत्र की बोली को अस्कोटी कहा जाता है। अस्कोटी बोली, सोर्याली जैसी मानी जाती है। जोहार तथा नेपाल के निकटवर्ती क्षेत्र होने के कारण इसमें जोहारी व नेपाली का प्रभाव भी दिखता है। यह क्षेत्र राजी जनजाति का निवास स्थल भी है। इस कारण अस्कोटी पर राजी बोली का प्रभाव भी है।

पश्चिमी कुमाउनी की बोलियाँ


खसपर्जिया- यह पश्चिमी कुमाउनी की बोली है। इस बोली को खासपर्जिया या खासप्रजा भी कहते हैं। यह बोली मुख्यतः बारामंडल परगने में बोली जाती है। बारह मंडलों के सामूहिक क्षेत्र को ही बारामंडल कहा गया। अल्मोड़ा नगर में बोली जाने वाली इसपर्जिया को ही परिनिष्ठित कहते हैं। तथा इसी क्षेत्र की कुमाउनी को ही परिनिष्ठित कुमाउनी भी कहते हैं। खसपर्जिया खास लोगों द्वारा बोली जाती है। कुछ लोग इसे खस जाति की बोली कहते हैं।


चौगर्खिया- चौगर्खिया बोली भी पश्चिमी कुमाउनी की बोली है। चौगर्खिया बोली का क्षेत्र काली कुमाऊं परगने का उत्तरी पश्चिमी भाग है। चार दिशाओं की ओर फैली हुई चार पर्वत श्रेणियों के कारण इस क्षेत्र को चौगखां कहा जाता है। एक जनश्रुति के अनुसार इस क्षेत्र में कभी गोरखा वीर रहा करते थे। इसलिए यह क्षेत्र चौगखां कहलाया। 


इस क्षेत्र की बोली खसपर्जिया के अधिक निकट है। चौगर्खिया क्षेत्र खसपर्जिया, गंगोली, कुमय्यां तथा री-चौभैंसी से घिरा हुआ है। इस कारण इसका पश्चिमी क्षेत्र जहाँ खसपर्जिया से प्रभावित है, वहीं पूर्वी क्षेत्र में पूर्वी कुमाउनी की भी विशेषताएं मिलती हैं।  गंगोली या गंगोई गंगोली पश्चिमी कुमाउनी की बोली है।  यह बोली गंगोली तथा उत्तर में उससे लगे दानपुर परगने के कुछ गांवों में बोली जाती है। इसके अंतर्गत बेलबड़ाऊं, पुंगराऊँ, अठगांऊँ और कुमेश्वर पट्टियां आती हैं।


दनपुरिया- दनपुरिया पश्चिमी कुमाउनी की बोली है। दनपुरिया बोली का क्षेत्र दानपुर है। यह बोली दानपुर के अतिरिक्त तल्ला दानपुर, मल्ला कत्यूर, तल्ला कत्यूर, बिचला कत्यूर, पल्ला कमस्यार, यल्ला कमस्यार, डुंग, नाकुरी तथा मल्ला रीठागांड़ आदि क्षेत्रों मरण बोली जाती है। मल्ला दानपुर इस बोली का मुख्य केंद्र है। दानपुरिया बोली क्षेत्र से लगा गंगोली बोली क्षेत्र है। दानपुर परगने के पश्चिमी भाग में गोमती तथा सरयू हैं। ये दोनों नदियां बागेश्वर में मिलती हैं। इन क्षेत्रों की बोलियों का प्रभाव भी दनपुरिया पर दिखता है।


पछाई- पछाई पश्चिमी कुमाउनी की एक और बोली है। रामगंगा के ऊपर नैथाना पर्वत श्रेणी के निचले भाग में पाली नांमक कस्बे के नाम पर कुमाऊं का पश्चिमी भू-भाग पछाऊँ कहलाया। इस पाली पछाऊँ परगने की बोली ही पछाई कहलाती है।  पाली पछाऊँ परगने के ही कुछ पश्चिमी तथा उत्तर पश्चिमी गांवों में गढ़वाली बोली जाती है। 


रौ-चौभैंसी- इस बोली को रौ-चौबैंसी भी कहा जाता है। यह पश्चिमी कुमाउनी की ही बोली है। यह बोली नैनीताल जिले के रौ व चौभैंसी नांमक पट्टियों में बोली जाती है। इसके अतिरिक्त रामगढ़ तथा छखाता के पर्वतीय क्षेत्रों में भी इस बोली को बोला जाता है। नैनीताल जिले के कोसी नदी के खैरना से लेकर रामनगर तक फैले भाग को कोस्यां कहा जाता है। इस बोली पर खसपर्जिया का प्रभाव है। 


प्रश्न 02  कुमाऊनी मुहावरों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर:

बोलचाल की भाषा में मुहावरों का भी विशिष्ट स्थान होता है। इनका प्रयोग प्रत्येक भाषाओं में होता है कुमाऊनी भाषा में भी मुहावरों का प्रयोग होता है , मुहावरे किसी भी बात की कहानी को चुटीला और रोचक बनाते हैं, साथ ही यह मुहावरे लेकिन परंपरा में भी लेखन को कसावट व प्रामाणिक बनाते हैं।

कुछ प्रचलित मुहावरे :

1. हात मलन (पश्चताप)


2. चुड़ा पैरन (कायरता)


3. कान भरन (चुगली करना)


4. नाक राखन (इज्जत करना)


5. आंखा लागन (नींद लगना)


6. ख्वारा में चडूंन (अधिक लाड़ प्यार)


7. गांठा पाइन (याद रखना)


8. पठि देखूंन (भाग जाना)


9. खाप में जानि भरीन (ललचाना)


10. खुटा पकड़न (खुसामद करना)


11. म्नहार हुन (हिम्मत हारना)

12. आंखा बटे गिरन (अपमानित)


13. आंखा धेकून (धमकाना)


14. खाक छानन (मारा मार फिरना)


15. पौ वाराक तेल (लाभ होना)


16. पेट में मुसा दौड़ना (अत्यधिक भूख)


17. दैन हाथ (सच्चा सहायक)


18. टाङ छिरन (हार मानना)


19. झक मारन (मजबूर होना)


20. उमर ढलन (जीवन के थाड़े दिन शेष रहना)


21. आंसु पोछन (हिम्मत बधाना)


22. रीस को पुलो (अत्यधिक गुस्से वाला)


23. ऐना में मूंख चान (अपनी शकल देखना)


24. आवाज उठून (आन्दोलन करना)


25. आफत को मार्यो (मुसीबत में पड़ा हुआ)


26. अगासै चड़न (झूठी बड़ाई)


27. इमान ले कून (सत्य कहना)


28. उल्टी गंङ वगून (अनहोनी बात करना)




प्रश्न 03  कवि गुमानी पंत पर परिचयात्मक टिप्पणी लिखिए।


कुमाऊनी भाषा और साहित्य के इतिहास में कवि गुमानी पंत का विशेष स्थान है। उनका पूरा नाम लोक रत्न पंत गुमानी था और वे कुमाऊँ क्षेत्र के एक महान कवि, विद्वान और साहित्यकार थे। उनका जन्म 10 मार्च 1790 में हुआ था। गुमानी पंत का साहित्यिक जीवन समृद्ध और विविधतापूर्ण था, जिसमें कुमाऊनी, हिंदी, संस्कृत और ब्रज भाषाओं में रचनाएँ शामिल हैं।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा 

गुमानी पंत का जन्म कुमाऊँ के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उन्हें बचपन से ही साहित्य और भाषा का प्रेम था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में हुई, जिसने उनके साहित्यिक कौशल को और निखारा। संस्कृत भाषा और साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी, जिसके कारण उन्होंने इस भाषा में कई महत्त्वपूर्ण रचनाएँ कीं। 


साहित्यिक योगदान  

गुमानी पंत की रचनाएँ कुमाऊँ की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। उन्होंने कुमाऊनी भाषा में कई कविताएँ, गीत, और धार्मिक ग्रंथ लिखे, जो आज भी इस क्षेत्र के लोगों के बीच लोकप्रिय हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में उच्च कोटि की उक्त कृतियों के अलावा हिन्दी, कुमाऊंनी और नेपाली में भी कई कवितायें दुर्जन दूषण, संद्रजाष्टकम, गंजझाक्रीड़ा पद्धति, समस्यापूर्ति, लोकोक्ति अवधूत वर्णनम, अंग्रेजी राज्य वर्णनम, राजांगरेजस्य राज्य वर्णनम, रामाष्टपदी, देवतास्तोत्राणि आदि रचनाएं शामिल हैं।




शैली और भाषा 

गुमानी पंत की भाषा सरल और भावनात्मक थी। उनकी कविताएँ और रचनाएँ आम जनता के बीच लोकप्रिय थीं क्योंकि वे उनकी भाषा और जीवन के अनुभवों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करती थीं। उनकी रचनाओं में धार्मिक और नैतिक शिक्षा का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। 


महत्व और विरासत

गुमानी पंत ने कुमाऊनी भाषा और साहित्य को एक नई पहचान दी। उनकी रचनाओं ने कुमाऊनी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसे साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित किया। आज भी उनकी रचनाएँ कुमाऊँ क्षेत्र में व्यापक रूप से पढ़ी और सराही जाती हैं। उनके साहित्यिक योगदान के कारण उन्हें 'कुमाऊँ के कबीर' के रूप में भी जाना जाता है।


गुमानी पंत की साहित्यिक यात्रा एक प्रेरणास्रोत है और उन्होंने कुमाऊनी भाषा और संस्कृति को समृद्ध किया है। उनका साहित्यिक योगदान सदैव स्मरणीय रहेगा और कुमाऊँ के साहित्यिक धरोहर में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।


4. ऐणा (कुमाऊनी पहेलियाँ) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर:


कुमाऊनी साहित्य में 'ऐणा' का विशेष स्थान है। 'ऐणा' कुमाऊनी भाषा में पहेलियों को कहा जाता है, जो कि मौखिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये पहेलियाँ कुमाऊँ की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाती हैं और ग्रामीण जीवन के बुद्धिमत्ता और हास्य-व्यंग्य के मिश्रण को प्रकट करती हैं। कुमाऊनी पहेलियाँ बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के बीच मनोरंजन और ज्ञानवर्धन का प्रमुख स्रोत रही हैं।


विशेषताएँ और प्रकार  

कुमाऊनी पहेलियाँ आमतौर पर छोटे-छोटे वाक्यों या पदों में होती हैं जो किसी वस्तु, व्यक्ति, या स्थान का वर्णन करती हैं। इनका उद्देश्य सुनने वाले को सोचने पर मजबूर करना होता है। इन पहेलियों में प्रकृति, कृषि, दैनिक जीवन, जानवरों, और मानव शरीर के विभिन्न अंगों से संबंधित विषय होते हैं। उदाहरण के लिए, “सिर पर पिठी, पिठी पर पिठिया, घटी-घटी में पीती जाए।” इस पहेली का उत्तर है 'चक्की'।


महत्व और उपयोगिता  

कुमाऊनी पहेलियाँ न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि ये बच्चों और युवाओं के बीच ज्ञान और बुद्धि के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इनका उपयोग पारंपरिक शिक्षा में भी होता रहा है, जहाँ बच्चों को पहेलियों के माध्यम से सोचने-समझने की क्षमता का विकास होता है। 


समाज पर प्रभाव  

'ऐणा' कुमाऊँनी समाज के सांस्कृतिक जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। ये पहेलियाँ लोगों के बीच आपसी संबंधों को मजबूत करती हैं और सामूहिकता की भावना को प्रोत्साहित करती हैं। गाँवों में रात्रि चौपालों और मेलों में पहेलियों का आदान-प्रदान होता है, जो सामाजिक बंधन को मजबूत करता है।


5. कुमाऊनी लोक साहित्य पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर:


कुमाऊनी लोक साहित्य उस साहित्यिक धरोहर का हिस्सा है जो कुमाऊँ के समाज, संस्कृति और परंपराओं को परिलक्षित करता है। यह साहित्य मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपा जाता रहा है और इसमें लोकगीत, लोककथाएँ, कहावतें, लोकोक्तियाँ, और पहेलियाँ शामिल हैं। 


लोकगीत और लोककथाएँ  

कुमाऊनी लोकगीत जैसे 'झोड़ा', 'चांचरी', 'बाजुबंद', और 'छपेली' इस क्षेत्र की सामाजिक और धार्मिक परंपराओं का अभिन्न हिस्सा हैं। ये गीत जीवन के विभिन्न अवसरों पर गाए जाते हैं, जैसे कि पर्व, उत्सव, विवाह, और अन्य सामाजिक आयोजनों में। लोककथाओं में स्थानीय देवी-देवताओं, वीर नायकों, और आम जनमानस की कहानियाँ शामिल हैं, जो सांस्कृतिक मूल्य और नैतिकता को दर्शाती हैं।


कहावतें और लोकोक्तियाँ  

कुमाऊनी कहावतें और लोकोक्तियाँ समाज की सूझ-बूझ, जीवन के अनुभव और सामाजिक मूल्यों को प्रतिबिंबित करती हैं। ये कहावतें और लोकोक्तियाँ कुमाऊँनी जीवन की वास्तविकताओं को सरल और रोचक भाषा में व्यक्त करती हैं।


महत्त्व 

कुमाऊनी लोक साहित्य कुमाऊँ की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। यह न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि समाज की सामूहिक स्मृति, ज्ञान और अनुभव का वाहक भी है। यह साहित्यिक रूप में सामाजिक मूल्यों, परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करता है और अगली पीढ़ियों को सौंपता है।


6. गौरीदत्त पांडे 'गौर्दा' का साहित्यिक परिचय दीजिए।

उत्तर:


गौरीदत्त पांडे, जिन्हें स्नेहपूर्वक 'गौर्दा' के नाम से जाना जाता है, कुमाऊँ के एक प्रतिष्ठित लेखक, कवि और सामाजिक कार्यकर्ता थे। उनका जन्म अगस्त सन् 1872  में हुआ और उन्होंने कुमाऊनी साहित्य को एक नई दिशा और पहचान देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा 

गौरीदत्त पांडे का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था, लेकिन उनकी शिक्षा-दीक्षा उच्च स्तर की थी। वे बचपन से ही साहित्य और समाज सेवा के प्रति समर्पित थे। उनकी रचनाओं में कुमाऊँ की सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं का जीवंत चित्रण मिलता है।


साहित्यिक योगदान 

गौरीदत्त पांडे ने कुमाऊनी भाषा में अनेक कविताएँ, कहानियाँ, और निबंध लिखे, जो आज भी लोकप्रिय हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में गलहार बंधे मातरम , बुडज्यु गांधिज्यु ,शामिल हैं। उनकी कविताएँ और निबंध कुमाऊँ की सांस्कृतिक धरोहर को संजोने का कार्य करती हैं और समाज की समस्याओं और चुनौतियों पर विचार व्यक्त करती हैं।


शैली और भाषा

गौर्दा की रचनाओं की भाषा सरल, सरस और प्रभावशाली है। उन्होंने अपनी रचनाओं में कुमाऊँ की स्थानीय बोली का व्यापक प्रयोग किया है, जिससे उनकी रचनाएँ जनमानस के करीब बनी रहती हैं। 


सामाजिक योगदान

गौरीदत्त पांडे केवल साहित्यकार ही नहीं थे, बल्कि एक समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से समाज के विभिन्न मुद्दों पर जागरूकता फैलाने का प्रयास किया। वे समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक न्याय के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए भी जाने जाते थे।


7. लोक साहित्य एवं परिनिष्ठित साहित्य में अंतर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:


लोक साहित्य और परिनिष्ठित साहित्य दोनों ही महत्वपूर्ण साहित्यिक श्रेणियाँ हैं, लेकिन इन दोनों में कुछ मौलिक अंतर हैं।


लोक साहित्य  

लोक साहित्य वह साहित्य है जो समाज के सामान्य जनों के द्वारा रचा और मौखिक रूप में संरक्षित किया जाता है। यह साहित्य जनमानस की भावनाओं, अनुभवों, और समाज के विभिन्न पहलुओं को सरल और सहज भाषा में प्रस्तुत करता है। इसमें लोकगीत, लोककथाएँ, कहावतें, और पहेलियाँ शामिल हैं। लोक साहित्य का रचनाकार अज्ञात होता है और यह पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से चलता रहता है।


परिनिष्ठित साहित्य

परिनिष्ठित साहित्य वह साहित्य है जो शिक्षित और विद्वानों के द्वारा रचा जाता है और इसे लिखित रूप में संरक्षित किया जाता है। यह साहित्य शास्त्रीय भाषा और शैली का पालन करता है और इसमें उच्च मानदंडों और कलात्मक सौंदर्य का ध्यान रखा जाता है। परिनिष्ठित साहित्य में काव्य, नाटक, उपन्यास, निबंध, और आलोचना जैसी विधाएँ शामिल हैं। इसका उद्देश्य समाज को दिशा प्रदान करना और सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर को संरक्षित करना होता है।


अंतर 

लोक साहित्य और परिनिष्ठित साहित्य के बीच मुख्य अंतर रचनाकार, संरचना, और उद्देश्य में है। लोक साहित्य आम जनता के द्वारा रचा जाता है और मौखिक रूप में प्रचलित रहता है, जबकि परिनिष्ठित साहित्य शिक्षित वर्ग के द्वारा रचा जाता है और लिखित रूप में संरक्षित किया जाता है। लोक साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन और समाज की सामूहिक स्मृति को संजोना होता है, जबकि परिनिष्ठित साहित्य का उद्देश्य समाज को दिशा प्रदान करना और सांस्कृतिक मानकों को स्थापित करना होता है।


8. कुमाऊनी प्रकीर्ण साहित्य का महत्व बताइए।

उत्तर:


कुमाऊनी प्रकीर्ण साहित्य कुमाऊँ की सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। 'प्रकीर्ण' का अर्थ होता है 'विविध' या 'मिश्रित', और कुमाऊनी प्रकीर्ण साहित्य में विभिन्न प्रकार की साहित्यिक विधाएँ शामिल हैं, जैसे कि कविता, गीत, गद्य, निबंध, और लेख। 


प्रमुख विशेषताएँ  

कुमाऊनी प्रकीर्ण साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता इसकी विविधता और विषयों की व्यापकता है। इसमें सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक विषयों का समावेश होता है। यह साहित्य कुमाऊँ की पारंपरिक और आधुनिक धारणाओं का संगम है, जो समाज की सामूहिक चेतना और सांस्कृतिक पहचान को प्रकट करता है।


महत्व 

कुमाऊनी प्रकीर्ण साहित्य का महत्व इस बात में निहित है कि यह कुमाऊँ की सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता को प्रतिबिंबित करता है। यह साहित्य कुमाऊँ की लोक संस्कृति, परंपराओं, और रीति-रिवाजों का जीवंत चित्रण प्रस्तुत करता है। इसके माध्यम से न केवल कुमाऊँ की भाषा और बोली का संरक्षण होता है, बल्कि यह समाज की विभिन्न समस्याओं और मुद्दों पर विचार-विमर्श का मंच भी प्रदान करता है।


समाज पर प्रभाव

कुमाऊनी प्रकीर्ण साहित्य समाज में सामूहिकता, एकता, और आपसी सद्भाव को बढ़ावा देता है। यह साहित्यिक धरोहर समाज को न केवल मनोरंजन प्रदान करती है, बल्कि समाज के विभिन्न मुद्दों पर विचार करने और उन्हें हल करने की दिशा में भी प्रेरित करती है।