VAC 15 Important Solved Questions
प्रश्न 01 "भारतीय समाज में विविधता में एकता है" पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
भारतीय समाज में 'विविधता में एकता' की पुष्टि
भारत एक ऐसा देश है जहाँ अनेक धर्म, भाषाएँ, जातियाँ, संस्कृतियाँ, और परंपराएँ एक साथ अस्तित्व में हैं। भारतीय समाज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस विविधता में भी एक अद्वितीय एकता देखने को मिलती है। यह 'विविधता में एकता' की भावना भारतीय समाज की नींव है और सदियों से इस देश की पहचान रही है।
धार्मिक विविधता के संदर्भ में,
भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, और पारसी जैसे अनेक धर्मों के अनुयायी हैं। हर धर्म की अपनी अलग मान्यताएँ, रीति-रिवाज, और पूजा-पद्धति हैं। इसके बावजूद, सभी धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं, एक-दूसरे के त्योहारों में भाग लेते हैं और धार्मिक सहिष्णुता का परिचय देते हैं। विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के बीच जो आपसी सम्मान और मेलजोल है, वह भारतीय समाज में धार्मिक एकता का प्रतीक है।
भाषायी विविधता के मामले में,
भारत में 22 आधिकारिक भाषाएँ और 1,600 से अधिक बोली जाने वाली भाषाएँ और बोलियाँ हैं। हिंदी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, मराठी, गुजराती, पंजाबी, कन्नड़, मलयालम, और उर्दू जैसी भाषाएँ विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाती हैं। इतनी भाषायी विविधता के बावजूद, राष्ट्र की एकता बनी रहती है। भारतीय संविधान ने सभी भाषाओं को सम्मान दिया है, और विभिन्न भाषाओं के लोग अपनी मातृभाषा के साथ-साथ एक-दूसरे की भाषाओं का भी सम्मान करते हैं। हिंदी और अंग्रेजी जैसी संपर्क भाषाएँ राष्ट्रीय स्तर पर संवाद और प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
सांस्कृतिक विविधता
सांस्कृतिक विविधता भी भारतीय समाज का महत्वपूर्ण पहलू है। प्रत्येक राज्य और क्षेत्र की अपनी अलग संस्कृति, लोक कला, संगीत, नृत्य, और भोजन है। उदाहरण के लिए, पंजाब का भांगड़ा, राजस्थान का कालबेलिया नृत्य, तमिलनाडु का भरतनाट्यम, और बंगाल का रबींद्र संगीत, सभी अपनी-अपनी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। इतनी सांस्कृतिक विविधता के बावजूद, लोग एक-दूसरे की संस्कृति का सम्मान करते हैं और भारत की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में गर्व महसूस करते हैं। यही कारण है कि भारतीय समाज में सांस्कृतिक विविधता के बावजूद सामाजिक समरसता बनी रहती है।
प्रजातीय विविधता
प्रजातीय विविधता (Ethnic Diversity) भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। भारत में विभिन्न प्रजातियों और जातीय समूहों का अद्वितीय संगम है। इस विविधता में आदिवासी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और अन्य पिछड़े वर्ग शामिल हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों और संस्कृतियों से आते हैं। हर प्रजातीय समूह की अपनी विशिष्ट संस्कृति, भाषा, परंपराएँ, और जीवन शैली होती है।
प्रजातीय विविधता के बावजूद, भारतीय समाज में इन सभी समूहों के बीच एक आपसी सामंजस्य और सहिष्णुता पाई जाती है। भारत के संविधान ने सभी प्रजातीय समूहों को समान अधिकार दिए हैं और उनके कल्याण के लिए विशेष प्रावधान किए हैं। इस प्रजातीय विविधता का सम्मान और उसे संरक्षित करने की प्रवृत्ति भारत को एक समावेशी और विविधतापूर्ण समाज के रूप में प्रस्तुत करती है।
भारतीय समाज में 'विविधता में एकता' का सिद्धांत हमारे देश की विशेषता है। धर्म, भाषा, संस्कृति, समाज, और राजनीति की इतनी विविधता के बावजूद, भारतीय लोग एकता और अखंडता को महत्व देते हैं। यह एकता न केवल भारतीय समाज को समृद्ध और मजबूत बनाती है, बल्कि इसे विश्व में भी एक अनूठा स्थान प्रदान करती है। यही कारण है कि 'विविधता में एकता' भारतीय समाज की आत्मा है और इसे सदियों से पोषित किया जा रहा है।
प्रश्न 02 भारतीय संस्कृति की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम और समृद्धतम संस्कृतियों में से एक है। इसकी विशेषताएँ इसे अद्वितीय और बहुमूल्य बनाती हैं। भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलू निम्नलिखित हैं:
धार्मिक विविधता: भारतीय संस्कृति में धार्मिक विविधता का विशेष स्थान है। यहाँ हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख, मुस्लिम, ईसाई, और अन्य धर्मों के अनुयायी सहअस्तित्व में रहते हैं। हर धर्म की अपनी अलग मान्यताएँ, रीति-रिवाज, और त्योहार हैं, जिन्हें सभी लोग आपसी भाईचारे के साथ मनाते हैं।
परिवार की महत्ता: भारतीय संस्कृति में परिवार को समाज की आधारशिला माना जाता है। संयुक्त परिवार प्रणाली यहाँ की प्रमुख विशेषता है, जहाँ कई पीढ़ियाँ एक साथ रहती हैं। परिवार के सदस्यों के बीच आपसी प्रेम, सम्मान, और सहयोग की भावना प्रबल होती है।
आध्यात्मिकता: भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता और दर्शन का विशेष महत्व है। वेद, उपनिषद, भगवद गीता, और अन्य धार्मिक ग्रंथों ने भारतीय समाज को गहन आध्यात्मिक दृष्टिकोण प्रदान किया है। योग, ध्यान, और साधना जैसी परंपराएँ भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं।
भाषायी विविधता: भारत में अनेक भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। संस्कृत, हिंदी, तमिल, तेलुगु, बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी, और अन्य भाषाएँ यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं। इतनी भाषायी विविधता के बावजूद, भारतीय समाज में एकता बनी रहती है।
कला और साहित्य: भारतीय संस्कृति में कला और साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न शास्त्रीय और लोक कलाएँ, जैसे भरतनाट्यम, कथक, ओडिसी, और नृत्य-नाट्य, भारतीय संस्कृति की समृद्धि को दर्शाते हैं। संस्कृत, हिंदी, और अन्य भाषाओं का साहित्य भारतीय संस्कृति की गहराई को प्रकट करता है।
अतिथि देवो भवः: भारतीय संस्कृति में अतिथियों का विशेष सम्मान किया जाता है। "अतिथि देवो भवः" का अर्थ है कि अतिथि देवता के समान होता है। अतिथियों का स्वागत, सत्कार और उनकी सेवा करना भारतीय समाज की विशेषता है।
उत्सवों की धूम: भारतीय संस्कृति में त्योहारों का विशेष महत्व है। दीवाली, होली, ईद, क्रिसमस, बैसाखी, और अन्य त्योहार यहाँ के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। ये त्योहार समाज में सामूहिकता और एकता की भावना को मजबूत करते हैं।
नैतिक मूल्यों का आदर: भारतीय संस्कृति में नैतिक मूल्यों का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। सत्य, अहिंसा, करुणा, और परोपकार जैसे मूल्य भारतीय समाज की नींव हैं। महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम के समय भी इन मूल्यों को महत्व दिया गया।
समन्वय और सहिष्णुता: भारतीय संस्कृति की एक और महत्वपूर्ण विशेषता है विभिन्न विचारधाराओं, धर्मों, और संस्कृतियों के बीच समन्वय और सहिष्णुता। यहां सहअस्तित्व की भावना है, जो विभिन्न मतों और परंपराओं का आदर करना सिखाती है।
निष्कर्ष:
भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ इसे अद्वितीय और बहुमूल्य बनाती हैं। इसकी विविधता, सहिष्णुता, और आध्यात्मिकता ने इसे सदियों तक समृद्ध और सजीव बनाए रखा है। यही विशेषताएँ भारतीय समाज की नींव हैं, जो इसे विश्व में एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती हैं।
प्रश्न 03 प्राचीन भारतीय कला की विशेषताएं बताइए।
उत्तर:
प्राचीन भारतीय कला की विशेषताएँ
प्राचीन भारतीय कला अपने समय की विशिष्टता और समृद्धि को दर्शाती है। इसकी विशेषताएँ इस बात को स्पष्ट करती हैं कि भारतीय कला का विकास और प्रभाव किस प्रकार हुआ। भारतीय कला की विशेषताओं को समझने के लिए विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है।
धार्मिक और आध्यात्मिक प्रेरणा: प्राचीन भारतीय कला का प्रमुख प्रेरणास्त्रोत धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों से जुड़ा था। मंदिरों और स्तूपों की दीवारों पर उकेरे गए चित्र और मूर्तियाँ हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म के धार्मिक कथाओं और पात्रों को प्रदर्शित करती हैं। इस कला में भगवानों और देवी-देवताओं की मूर्तियों का चित्रण बहुत महत्वपूर्ण था, जैसे महाबोधि स्तूप पर भगवान बुद्ध के जीवन की घटनाओं को दर्शाया गया।
उत्कृष्ट शिल्प कौशल: प्राचीन भारतीय कला में शिल्पकला का महत्वपूर्ण स्थान था। मंदिरों और स्मारकों की निर्माण विधियाँ अत्यंत सुसज्जित और ठोस थीं। खजुराहो और अजन्ता-एलोरा की गुफाओं में उकेरे गए चित्र और मूर्तियाँ इस शिल्पकला की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं। इन कलाओं में पत्थर पर की गई बारीक नक्काशी और जटिल डिजाइन शिल्पकला के गहरे ज्ञान को प्रकट करती हैं।
चित्रकला और मूर्तिकला: प्राचीन भारतीय चित्रकला और मूर्तिकला की विशेषताएँ उनकी बारीकियों और परंपरागत शैली में निहित हैं। अजंता-एलोरा की गुफाओं की चित्रकला में भगवान बुद्ध के जीवन की कथाओं को जीवंत रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन चित्रों में रंगों का प्रयोग और आकृतियों का व्याख्यान एक विशेष सौंदर्यशास्त्र को दर्शाता है। मूर्तिकला में भी विविधता देखने को मिलती है, जिसमें गणेश, शिव, विष्णु और बुद्ध की मूर्तियाँ प्रमुख हैं। इन मूर्तियों की बनावट, मुद्रा और आकार प्राचीन भारतीय कला की भव्यता को प्रदर्शित करते हैं।
सांस्कृतिक विविधता और क्षेत्रीय विशेषताएँ: प्राचीन भारतीय कला में क्षेत्रीय विविधता स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। दक्षिण भारत के मंदिरों की कला, जैसे चोल और पल्लव काल की मूर्तियाँ, अपनी अलग शैली और तकनीक के लिए प्रसिद्ध हैं। वहीं, उत्तर भारत में गुप्त काल की कला ने शास्त्रीय और धार्मिक विषयों को केंद्रित किया। इस सांस्कृतिक विविधता ने भारतीय कला को समृद्ध और विविध बनाया।
वास्तुकला की उत्कृष्टता: प्राचीन भारतीय वास्तुकला ने भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। मंदिरों, महलों, और स्तूपों का निर्माण उत्कृष्ट वास्तुकला के उदाहरण हैं। उज्जैन के कालिदास मंदिर और ममता के चितरंजन मंदिर प्राचीन वास्तुकला की अनूठी मिसालें हैं, जो संरचनात्मक मजबूती और कलात्मक सौंदर्य को जोड़ती हैं।
प्रश्न 04 भारतीय अर्थव्यवस्था की परंपरागत और नवीनतम विशेषताएं बताइए।
उत्तर:
भारतीय अर्थव्यवस्था की परंपरागत और नवीनतम विशेषताएँ
परंपरागत विशेषताएँ:
1. आधारित कृषि अर्थव्यवस्था: भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला कृषि पर थी। अधिकांश जनसंख्या कृषि और संबंधित गतिविधियों पर निर्भर थी। पारंपरिक कृषि तकनीकों का उपयोग किया जाता था और मौसम की अनिश्चितता के चलते किसान आर्थिक असुरक्षा का सामना करते थे।
2. स्वावलंबी ग्राम अर्थव्यवस्था: प्राचीन भारत में, गाँव स्वावलंबी होते थे। ग्रामों में खुद के आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कृषि, हस्तशिल्प, और अन्य स्थानीय उद्योगों पर निर्भरता थी। यह आत्मनिर्भरता और स्थानीय व्यापार पर जोर देती थी।
3. हस्तशिल्प और उद्योग: भारत में विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्प और कुटीर उद्योग प्रचलित थे, जैसे रेशम, कपड़ा, और धातु शिल्प। ये उद्योग विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में व्यावसायिक गतिविधियों का मुख्य हिस्सा थे।
4. सार्वजनिक क्षेत्र का प्रमुख स्थान: स्वतंत्रता के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र का प्रमुख स्थान था। प्रमुख उद्योग, जैसे तेल, गैस, और ऊर्जा, सरकार के नियंत्रण में थे और कई उद्यम राष्ट्रीयकरण के तहत आए थे।
5. विनियामक और नियामक नीति: भारतीय अर्थव्यवस्था में नियामक नीतियों की प्रधानता थी, जिसमें लाइसेंस राज और सरकारी नियंत्रण शामिल थे। इसने व्यापार और उद्योगों की स्वतंत्रता को सीमित किया और आर्थिक विकास की गति को प्रभावित किया।
नवीनतम विशेषताएँ:
1. आधुनिकता और वैश्वीकरण:
भारतीय अर्थव्यवस्था ने वैश्वीकरण और तकनीकी उन्नति के साथ तेजी से विकास किया है। विदेशी निवेश, मुक्त व्यापार नीतियाँ, और वैश्विक बाजारों के साथ जुड़ाव ने आर्थिक विकास को गति दी है।
2. सेवा क्षेत्र की वृद्धि:
आज भारतीय अर्थव्यवस्था का सेवा क्षेत्र एक प्रमुख घटक बन गया है। आईटी, सॉफ्टवेयर, बैंकिंग, और वित्तीय सेवाओं जैसे क्षेत्रों ने अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
3. उदारीकरण और निजीकरण:
1991 के आर्थिक सुधारों के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण और निजीकरण की नीतियाँ लागू की गईं। इससे व्यापार और उद्योगों में प्रतिस्पर्धा बढ़ी और आर्थिक विकास को प्रोत्साहन मिला।
4. स्टार्ट-अप और उद्यमिता:
नवीनतम दौर में स्टार्ट-अप्स और उद्यमिता को बढ़ावा दिया गया है। सरकार की विभिन्न योजनाओं और प्रोत्साहन कार्यक्रमों के तहत नई उद्यमिता की वृद्धि हुई है, जो नवाचार और रोजगार सृजन को प्रोत्साहित करती है।
5. डिजिटल अर्थव्यवस्था:
डिजिटल तकनीकों और ऑनलाइन प्लेटफार्मों का उपयोग बढ़ा है। ई-कॉमर्स, डिजिटल भुगतान, और वित्तीय प्रौद्योगिकी (फिनटेक) ने भारतीय अर्थव्यवस्था में क्रांति ला दी है, जिससे लेन-देन और व्यापार की प्रक्रियाएँ और अधिक सुगम हो गई हैं।
6. सतत विकास और हरित प्रौद्योगिकियाँ:
नवीनतम नीतियों में सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण पर जोर दिया जा रहा है। हरित ऊर्जा, रिन्यूएबल एनर्जी, और पर्यावरणीय स्थिरता के पहलुओं को भारतीय अर्थव्यवस्था में शामिल किया गया है।
निष्कर्ष:
भारतीय अर्थव्यवस्था की परंपरागत विशेषताएँ कृषि, स्वावलंबी ग्राम अर्थव्यवस्था, और नियामक नीतियों पर आधारित थीं। नवीनतम विशेषताएँ उदारीकरण, सेवा क्षेत्र की वृद्धि, और डिजिटल अर्थव्यवस्था की ओर संकेत करती हैं। इन विशेषताओं के माध्यम से, भारतीय अर्थव्यवस्था ने एक संतुलित और विविधतापूर्ण विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
प्रश्न 05 नियोजन व्यवस्था कितने प्रकार की होती है, भारत में नियोजन निर्माण प्रक्रिया बताइए।
उत्तर:
नियोजन व्यवस्था के प्रकार
नियोजन व्यवस्था मुख्यतः दो प्रमुख प्रकार की होती है:
1. केंद्रीकृत नियोजन (Centralized Planning): इस प्रणाली में योजना निर्माण और कार्यान्वयन का पूरा नियंत्रण एक केंद्रीय प्राधिकरण (जैसे, सरकारी एजेंसियाँ) के पास होता है। निर्णय लेने की प्रक्रिया और संसाधनों का आवंटन केंद्रीय स्तर पर किया जाता है। यह प्रणाली बड़े पैमाने पर समानता और नियंत्रित विकास को सुनिश्चित करती है, लेकिन कभी-कभी यह स्थानीय आवश्यकताओं और विविधताओं को पूरी तरह से संबोधित नहीं कर पाती।
2. आवंटन आधारित नियोजन (Decentralized Planning): इस प्रणाली में योजना निर्माण और कार्यान्वयन का नियंत्रण स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर वितरित किया जाता है। यह स्थानीय सरकारों और समुदायों को अधिक स्वायत्तता प्रदान करता है, जिससे योजनाओं को क्षेत्रीय विशेषताओं और स्थानीय जरूरतों के अनुसार अनुकूलित किया जा सकता है। यह प्रणाली अधिक लचीलापन और स्थानीय विकास को प्रोत्साहित करती है।
भारत में नियोजन निर्माण प्रक्रिया
भारत में नियोजन निर्माण प्रक्रिया का स्वरूप एक केंद्रीयकृत दृष्टिकोण से प्रारंभ हुआ, लेकिन समय के साथ इसमें कई सुधार और बदलाव किए गए हैं। यहाँ की नियोजन प्रक्रिया की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
1. पंचवर्षीय योजनाएँ (Five-Year Plans): भारत में नियोजन प्रक्रिया की नींव पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से रखी गई है। भारतीय योजना आयोग (अब नीति आयोग) ने 1951 में पहला पंचवर्षीय योजना बनाई। प्रत्येक पंचवर्षीय योजना 5 वर्षों के लिए निर्धारित उद्देश्यों, लक्ष्यों और कार्यनीतियों को परिभाषित करती है। इन योजनाओं में आर्थिक विकास, सामाजिक कल्याण, और बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
2. नीति आयोग (NITI Aayog): 2014 में योजना आयोग की जगह नीति आयोग का गठन किया गया। नीति आयोग का उद्देश्य अधिक लचीलापन और स्थिरता के साथ नीतियों को बनाना और कार्यान्वित करना है। यह आयोग राज्य सरकारों के साथ मिलकर योजनाओं का निर्माण और कार्यान्वयन करता है और उन्हें क्षेत्रीय प्राथमिकताओं और आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलित करता है।
3. राज्य और जिला स्तर पर नियोजन: केंद्रीय योजनाओं के साथ-साथ राज्य और जिला स्तर पर भी नियोजन की प्रक्रिया लागू होती है। राज्यों के पास अपनी योजनाओं को बनाने और कार्यान्वित करने की स्वायत्तता होती है, जो राज्य की विशेष जरूरतों और विकासात्मक प्राथमिकताओं को ध्यान में रखती हैं। इसी प्रकार, जिला स्तर पर भी योजनाओं का निर्माण स्थानीय आवश्यकताओं और समस्याओं को ध्यान में रखते हुए किया जाता है।
4. संपर्क और समीक्षा: योजना निर्माण प्रक्रिया में विभिन्न चरणों पर समीक्षा और संपर्क की प्रक्रिया शामिल होती है। यह सुनिश्चित करता है कि योजनाएँ समय पर कार्यान्वित हों और उनका प्रभावी कार्यान्वयन हो। योजनाओं की प्रगति की नियमित समीक्षा की जाती है और आवश्यकतानुसार समायोजन किया जाता है।
5. साझेदारी और भागीदारी: नियोजन प्रक्रिया में सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ावा दिया गया है। नागरिकों, गैर-सरकारी संगठनों, और स्थानीय समुदायों के विचारों और सुझावों को योजनाओं में शामिल किया जाता है, जिससे योजनाओं की प्रभावशीलता और समाज पर प्रभाव बढ़ता है।
निष्कर्ष: भारत में नियोजन व्यवस्था मुख्यतः केंद्रीयकृत और आवंटन आधारित दृष्टिकोण से संचालित होती है। पंचवर्षीय योजनाओं, नीति आयोग, और राज्य-स्तरीय योजनाओं के माध्यम से इस प्रक्रिया का संचालन किया जाता है। समय के साथ, इस प्रक्रिया में सुधार और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलन किया गया है, जिससे समग्र विकास और सामाजिक समृद्धि को बढ़ावा मिल सके।
प्रश्न। 06 भारत में हरित क्रांति पर प्रकाश डालिए। कृषि से संबंधित नीति और योजना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में हरित क्रांति
हरित क्रांति (Green Revolution) भारत की कृषि क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी दौर था, जिसने देश को खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाने में मदद की। 1960 के दशक में शुरू हुई इस क्रांति ने कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि की और किसानों की जीवनशैली को बेहतर बनाया। हरित क्रांति की प्रमुख विशेषताएँ और कृषि से संबंधित योजनाओं पर चर्चा निम्नलिखित है:
हरित क्रांति की प्रमुख विशेषताएँ:
1. उन्नत बीज और तकनीक: हरित क्रांति के अंतर्गत उन्नत और उच्च उपज देने वाले बीजों का उपयोग किया गया। विशेष रूप से, उच्च उपज वाले गेहूं और चावल की किस्मों ने उत्पादन को बढ़ावा दिया। इसके अलावा, उन्नत कृषि तकनीकों, जैसे संकर बीज, उर्वरक, और कीटनाशकों का प्रयोग किया गया।
2. सिंचाई की सुधार: सिंचाई के आधुनिक साधनों की स्थापना की गई। ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर सिस्टम जैसे उन्नत सिंचाई तकनीकों को अपनाया गया, जिससे पानी का बेहतर उपयोग और फसलों की बेहतर सिंचाई संभव हुई।
3. सुधारित कृषि प्रबंधन: फसल चक्र, मिट्टी की उर्वरता प्रबंधन, और उचित खेत प्रबंधन के तरीकों को अपनाया गया। कृषि वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने किसानों को बेहतर कृषि प्रथाओं के बारे में प्रशिक्षित किया।
4. कृषि उर्वरक और कीटनाशक: उच्च गुणवत्ता वाले उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए किया गया। इन रसायनों के उपयोग ने फसलों की वृद्धि और पैदावार में वृद्धि की।
5. विस्तारित बाजार और समर्थन: हरित क्रांति के दौरान, सरकार ने कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और सरकारी खरीद की नीतियाँ लागू कीं, जिससे किसानों को उचित मूल्य प्राप्त हुआ और वे बाजार की अस्थिरता से सुरक्षित रहे।
कृषि से संबंधित योजनाएँ:
1. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY): यह योजना किसानों को प्राकृतिक आपदाओं, कीटों और रोगों से होने वाली फसल क्षति के खिलाफ बीमा कवरेज प्रदान करती है। इससे किसानों को फसल नुकसान के समय वित्तीय सहायता मिलती है।
2. राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY): यह योजना कृषि क्षेत्र में समग्र विकास को प्रोत्साहित करने के लिए है। इसमें फसल उत्पादन, सिंचाई, कृषि संसाधनों के प्रबंधन, और ग्रामीण बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
3. प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY): इस योजना का उद्देश्य कृषि सिंचाई के क्षेत्र में सुधार करना है। यह जल उपयोग की दक्षता को बढ़ावा देने और जल संसाधनों का प्रभावी प्रबंधन सुनिश्चित करने पर केंद्रित है।
4. कृषि जनसंख्या योजना (Kisan Credit Card): यह योजना किसानों को आसानी से क्रेडिट सुविधा प्रदान करती है, जिससे वे अपनी कृषि गतिविधियों के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन जुटा सकते हैं। इसके माध्यम से किसान उचित ब्याज दर पर ऋण प्राप्त कर सकते हैं।
5. स्मार्ट कृषि मिशन (Mission for Integrated Development of Horticulture): यह योजना बागवानी और फल उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए है। इसमें बागवानी की बेहतर तकनीकों, पौधों की नस्ल सुधार और विपणन व्यवस्था पर ध्यान दिया जाता है।
6. आत्मनिर्भर भारत योजना: इस योजना का उद्देश्य कृषि में स्वावलंबन और स्थानीय उत्पादकता को बढ़ावा देना है। इसमें कृषि के विविध पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जैसे कृषि उपकरणों का उत्पादन और किसानों के लिए प्रशिक्षण।
निष्कर्ष: हरित क्रांति ने भारतीय कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण बदलाव लाए और खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम बढ़ाए। इसके साथ ही, विभिन्न कृषि योजनाओं ने किसानों को वित्तीय, तकनीकी और प्रबंधन सहायता प्रदान की, जिससे कृषि क्षेत्र में सुधार और विकास संभव हुआ। इन पहलों ने भारतीय कृषि को आधुनिकतम तकनीक और समर्थन के साथ सशक्त किया है।
प्रश्न 07 : 1861 के इंडियन काउंसिल एक्ट के गुण और दोष बताइए।
उत्तर:
1861 का इंडियन काउंसिल एक्ट (Indian Councils Act) ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में संवैधानिक सुधारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस अधिनियम ने भारतीयों को सीमित लेकिन महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया। इसके गुण और दोष निम्नलिखित हैं:
गुण:
1. विधायी परिषदों की पुनः स्थापना:
- 1857 के विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि भारतीयों को शासन में शामिल करना आवश्यक है। 1861 के अधिनियम के तहत, भारतीयों को विधान परिषदों में शामिल किया गया। इसमें वायसराय की विधान परिषद और प्रांतीय विधान परिषदों का पुनर्गठन शामिल था, जिससे भारतीयों को सीमित प्रतिनिधित्व मिला।
2. वायसराय के लिए कानून बनाने की शक्ति:
- इस अधिनियम के तहत वायसराय को कानून बनाने की शक्ति दी गई, जिसमें वह अध्यादेशों (Ordinances) के माध्यम से छह महीने तक प्रभावी कानून बना सकता था। यह आपातकालीन परिस्थितियों में त्वरित निर्णय लेने के लिए उपयोगी साबित हुआ।
3. प्रांतीय स्वायत्तता की दिशा में पहला कदम:
- अधिनियम ने प्रांतीय विधान परिषदों को पुनः स्थापित किया और उन्हें विधायी शक्तियाँ दीं। इससे प्रांतों में स्वायत्तता की दिशा में कदम बढ़ा, जो आगे चलकर भारतीय संघीय ढांचे का आधार बना।
4. भारतीयों का विधान परिषद में नामांकन:
- इस अधिनियम ने भारतीयों को वायसराय की परिषद में नामित करने का प्रावधान किया, जिससे भारतीयों को प्रशासनिक प्रक्रियाओं में भाग लेने का मौका मिला। यद्यपि यह संख्या सीमित थी, फिर भी यह एक महत्वपूर्ण शुरुआत थी।
दोष:
1. सीमित प्रतिनिधित्व:
- यद्यपि भारतीयों को विधान परिषदों में शामिल किया गया, लेकिन उनकी संख्या बहुत सीमित थी। उनका प्रभावी योगदान बहुत ही मामूली था और वे ब्रिटिश अधिकारियों के अधीनस्थ ही रहे। इसने भारतीयों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा नहीं किया।
2. विधायी शक्तियों की सीमा:
- प्रांतीय और केंद्रीय विधान परिषदों को दी गई विधायी शक्तियाँ बहुत सीमित थीं। वे केवल सलाहकार निकाय के रूप में कार्य कर सकते थे, और उनके प्रस्तावों को लागू करने की शक्ति नहीं थी। अंतिम निर्णय लेने का अधिकार वायसराय और ब्रिटिश सरकार के पास ही रहा।
3. कोई वास्तविक स्वायत्तता नहीं:
- प्रांतीय विधान परिषदों को पुनः स्थापित किया गया, लेकिन उन्हें स्वायत्तता देने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदायित्व की कमी के कारण प्रांतीय सरकारें स्वतंत्र रूप से कार्य करने में असमर्थ रहीं।
4. सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा:
- इस अधिनियम के तहत, भारतीयों को प्रतिनिधित्व तो मिला, लेकिन यह बहुत ही सीमित और सांकेतिक था। इसे भारतीयों के बीच धार्मिक और सामाजिक विभाजन को और गहरा करने के रूप में देखा जा सकता है, जो बाद में सांप्रदायिक राजनीति के उभरने का कारण बना।
निष्कर्ष:
1861 का इंडियन काउंसिल एक्ट भारतीय राजनीति में एक सीमित लेकिन महत्वपूर्ण कदम था। इसने भारतीयों को शासन में शामिल करने की दिशा में कुछ प्रयास किए, लेकिन इसकी सीमाओं और दोषों ने इसे अधूरा सुधार बना दिया। इस अधिनियम की सबसे बड़ी खामी यह थी कि इसमें भारतीयों को वास्तविक स्वायत्तता और सत्ता में हिस्सेदारी नहीं दी गई, जिससे भारतीयों की राजनीतिक आकांक्षाएं पूरी नहीं हो सकीं। फिर भी, यह अधिनियम भारत में संवैधानिक विकास की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था, जिसने आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित किया।
प्रश्न 08 भारतीय संविधान के विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान दुनिया के सबसे विस्तृत और जटिल संविधानों में से एक है, जो भारत की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संरचना का आधार है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ इसे अद्वितीय बनाती हैं।
लिखित संविधान:
भारतीय संविधान एक विस्तृत लिखित दस्तावेज़ है, जिसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ शामिल हैं।
संघीय संरचना:
संविधान संघीय ढांचे पर आधारित है, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण किया गया है।
मौलिक अधिकार:
नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं, जैसे कि स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, और संवैधानिक उपचार का अधिकार। ये अधिकार नागरिकों की सुरक्षा और स्वतंत्रता की गारंटी हैं।
निर्देशक सिद्धांत:
राज्य की नीतियों के लिए मार्गदर्शन करने वाले निर्देशक सिद्धांत संविधान के भाग IV में शामिल हैं, जो सामाजिक-आर्थिक नीतियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
धर्मनिरपेक्षता:
भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, जहां राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और सभी धर्मों के लोगों को समान अधिकार दिए गए हैं।
न्यायिक समीक्षा:
संविधान न्यायालयों को न्यायिक समीक्षा का अधिकार देता है, जिससे वे यह सुनिश्चित करते हैं कि कानून संविधान के अनुरूप हों।
लचीला और कठोर प्रकृति:
संविधान संशोधन की प्रक्रिया लचीली और कठोर दोनों है, जिससे इसे समय के साथ आवश्यकतानुसार बदला जा सकता है।
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव:
चुनाव आयोग द्वारा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव प्रणाली सुनिश्चित की जाती है।
इन विशेषताओं के साथ, भारतीय संविधान ने भारत को एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणराज्य के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्रश्न 09 स्थानीय स्वशासन को परिभाषित कीजिए और इसका महत्व बताइए।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन का तात्पर्य उस प्रणाली से है जिसमें स्थानीय स्तर पर शासन और प्रशासन के कार्यों का संचालन स्थानीय निकायों द्वारा किया जाता है। यह निकाय नगर निगम, नगर पालिका, ग्राम पंचायत आदि के रूप में हो सकते हैं। स्थानीय स्वशासन का मुख्य उद्देश्य स्थानीय जनता को उनके क्षेत्रों की समस्याओं और आवश्यकताओं के संबंध में निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करना है। इस प्रणाली के तहत नागरिक अपनी जरूरतों को पहचानकर, योजना बनाकर और उन्हें लागू कर सकते हैं।
स्थानीय स्वशासन का महत्व:
1. लोकतंत्र को मजबूत बनाना:
स्थानीय स्वशासन, लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत करता है। यह नागरिकों को शासन में सीधे भाग लेने का अवसर प्रदान करता है, जिससे वे अपने क्षेत्र की समस्याओं के समाधान में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं।
2. समस्याओं का त्वरित समाधान:
स्थानीय निकाय स्थानीय स्तर की समस्याओं को बेहतर तरीके से समझते हैं और उन पर तुरंत कार्यवाही कर सकते हैं। इससे स्थानीय स्तर पर विकास कार्यों की गति तेज होती है और समस्याओं का त्वरित समाधान होता है।
3. विकेंद्रीकरण:
स्थानीय स्वशासन, शासन का विकेंद्रीकरण सुनिश्चित करता है। इससे केंद्र और राज्य सरकारों पर बोझ कम होता है और प्रशासनिक कार्यों में कुशलता बढ़ती है।
4. समुदाय की भागीदारी:
स्थानीय स्वशासन में स्थानीय समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित होती है। यह सामाजिक विकास और समुदाय के संसाधनों के समुचित उपयोग में मदद करता है।
5. पारदर्शिता और जवाबदेही:
स्थानीय निकायों के जरिए पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ती है। जनता सीधे तौर पर अपने चुने हुए प्रतिनिधियों से सवाल कर सकती है, जिससे भ्रष्टाचार में कमी आती है।
निष्कर्ष:
स्थानीय स्वशासन एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है जो न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देती है, बल्कि स्थानीय स्तर पर विकास और प्रशासनिक कुशलता को भी सुनिश्चित करती है। इसके माध्यम से जनता को अपने क्षेत्र की भलाई के लिए सीधे निर्णय लेने का अधिकार मिलता है, जिससे समग्र राष्ट्रीय विकास को गति मिलती है।
प्रश्न 10 भारत में जाति प्रथा के विकास के कारणों की विवेचना कीजिए.
उत्तर:
भारत में जाति प्रथा का विकास एक जटिल ऐतिहासिक और सामाजिक प्रक्रिया का परिणाम है, जो विभिन्न कारकों से प्रभावित हुआ। यह प्रथा भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद हिस्सा रही है। इसके विकास के प्रमुख कारणों की विवेचना निम्नलिखित है:
1. धार्मिक और दार्शनिक कारण:
- वर्ण व्यवस्था: हिंदू धर्म के प्राचीन ग्रंथों में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख मिलता है, जिसमें समाज को चार मुख्य वर्णों में विभाजित किया गया था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र। इस व्यवस्था ने धार्मिक और दार्शनिक आधार पर जातियों के विकास को बढ़ावा दिया।
- कर्म सिद्धांत: हिंदू धर्म में कर्म सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति का जन्म और उसकी जाति उसके पिछले जन्मों के कर्मों पर आधारित मानी जाती थी। इससे जातिगत विभाजन को धार्मिक मान्यता मिली और यह समाज में स्थापित हो गया।
2. सामाजिक और आर्थिक कारण:
- व्यवसायों का विभाजन: प्राचीन भारतीय समाज में व्यवसायों का विभाजन जाति के आधार पर किया गया। प्रत्येक जाति को एक विशिष्ट पेशे से जोड़ दिया गया, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा। इससे जातिगत पहचान और वर्गीकरण मजबूत हुआ।
- सामाजिक गतिशीलता की कमी: जाति व्यवस्था ने सामाजिक गतिशीलता को सीमित कर दिया। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, उसे उसी जाति के पेशे और जीवनशैली का पालन करना पड़ता था। इससे सामाजिक संरचना कठोर हो गई।
3. राजनीतिक और प्रशासनिक कारण:
- ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति: ब्रिटिश शासन के दौरान, जाति व्यवस्था का प्रशासनिक और राजनीतिक लाभ उठाया गया। जनगणना और प्रशासनिक प्रक्रियाओं में जातियों को दर्ज किया गया, जिससे जाति प्रथा का संस्थागतकरण हुआ।
- सामंती व्यवस्था: मध्यकालीन भारत में सामंती व्यवस्था ने जाति प्रथा को बढ़ावा दिया। जमींदार और शासक वर्गों ने जाति का उपयोग सामाजिक और राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखने के लिए किया।
4. सांस्कृतिक और पारंपरिक कारण:
- सामाजिक मान्यताएँ और परंपराएँ: भारतीय समाज में जाति प्रथा को परंपराओं और सामाजिक मान्यताओं के माध्यम से समर्थन मिला। जातिगत विभाजन को धार्मिक और सांस्कृतिक अनुष्ठानों के माध्यम से भी मजबूत किया गया।
- विवाह प्रणाली: अंतर्जातीय विवाह पर प्रतिबंध और अपनी ही जाति में विवाह करने की परंपरा ने जातिगत विभाजन को बनाए रखा और इसे और भी कठोर बना दिया।
5. शिक्षा और ज्ञान का नियंत्रण:
- ब्राह्मणों का वर्चस्व: ब्राह्मणों द्वारा शिक्षा और ज्ञान के संसाधनों पर नियंत्रण ने जाति प्रथा को स्थायी बनाने में मदद की। ज्ञान और शिक्षा तक सीमित पहुंच ने निचली जातियों के सामाजिक उत्थान को बाधित किया।
निष्कर्ष:
जाति प्रथा का विकास एक जटिल प्रक्रिया थी जिसमें धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक कारकों ने योगदान दिया। यद्यपि वर्तमान में कानूनी और सामाजिक सुधारों के माध्यम से जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के प्रयास किए जा रहे हैं, फिर भी इसकी गहरी जड़ें भारतीय समाज में आज भी मौजूद हैं। जाति प्रथा के ऐतिहासिक विकास को समझना भारतीय समाज में व्याप्त असमानताओं और चुनौतियों को पहचानने के लिए आवश्यक है।
प्रश्न 11 स्वतंत्र भारत में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा कीजिए.
उत्तर:
स्वतंत्र भारत में महिलाओं की स्थिति में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। देश की आजादी के बाद, महिलाओं के अधिकारों और उनकी सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक स्थिति को सुधारने के लिए कई कदम उठाए गए हैं। हालांकि, विभिन्न क्षेत्रों में चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं।
1. कानूनी अधिकार और संवैधानिक सुरक्षा:
- संविधान में समानता: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, और 16 के तहत महिलाओं को समानता, भेदभाव के खिलाफ संरक्षण, और समान रोजगार के अधिकार दिए गए हैं।
- विशेष कानून: महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाए गए, जैसे कि 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम, 1961 का दहेज निषेध अधिनियम, और 2005 का घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम।
- आरक्षण: पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण लागू किया गया, जिससे स्थानीय शासन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है।
2. शिक्षा और साक्षरता:
- साक्षरता दर में वृद्धि: आजादी के बाद से महिलाओं की साक्षरता दर में सुधार हुआ है। जहां 1951 में महिलाओं की साक्षरता दर 8.6% थी, वहीं 2011 में यह 65.46% तक पहुंच गई।
- शिक्षा के अवसर: सरकार ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे अभियानों के माध्यम से लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा दिया। इसके अलावा, सर्व शिक्षा अभियान ने भी महिला शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
3. आर्थिक स्थिति:
- रोजगार में भागीदारी: स्वतंत्रता के बाद, महिलाओं की श्रम शक्ति में भागीदारी में धीरे-धीरे वृद्धि हुई है। हालांकि, आज भी महिलाएं असंगठित क्षेत्रों में ज्यादा काम करती हैं और औपचारिक क्षेत्र में उनकी भागीदारी सीमित है।
- स्वयं सहायता समूह: ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूह (SHGs) का गठन किया गया, जिससे महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता और उद्यमिता को बढ़ावा मिला है।
4. राजनीतिक स्थिति:
- राजनीति में भागीदारी: भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। कई महिलाएं संसद, विधानसभाओं, और पंचायतों में निर्वाचित हुई हैं। इंदिरा गांधी और बाद में अन्य महिला नेताओं का उदय इसका उदाहरण है।
- महिला नेतृत्व: महिलाओं ने विभिन्न राजनीतिक पदों पर आसीन होकर नेतृत्व के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है। यह भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं की भूमिका को दर्शाता है।
5. सामाजिक स्थिति:
- सामाजिक सुधार: महिलाओं के खिलाफ दहेज प्रथा, बाल विवाह, और अन्य कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए सामाजिक जागरूकता अभियान चलाए गए। महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन कई ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में चुनौतियां अभी भी मौजूद हैं।
- महिला सशक्तिकरण: विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) और सरकारी पहलों ने महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में काम किया है। महिला सशक्तिकरण अब एक महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा बन गया है।
6. चुनौतियाँ:
- लैंगिक भेदभाव: शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में अभी भी लैंगिक भेदभाव देखने को मिलता है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच इस भेदभाव की खाई और गहरी है।
- सुरक्षा: महिलाओं की सुरक्षा एक प्रमुख चिंता का विषय बनी हुई है। यौन हिंसा, घरेलू हिंसा, और अन्य अपराधों के खिलाफ लड़ाई में अभी भी कई बाधाएं हैं।
निष्कर्ष:
स्वतंत्र भारत में महिलाओं की स्थिति में सकारात्मक बदलाव हुए हैं, लेकिन चुनौतियां भी बनी हुई हैं। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों के साथ-साथ सामाजिक दृष्टिकोण में भी सुधार की आवश्यकता है। महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, और राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा देना आवश्यक है। केवल तभी हम एक ऐसे समाज की कल्पना कर सकते हैं, जहां महिलाओं को पूरी तरह से समानता और सम्मान प्राप्त हो।
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