GEEC-02 SOLVED PAPER
1. बेरोजगारी की प्रकृति, कारण और निदान के उपाय बताइए।
प्रकृति:
बेरोजगारी एक गंभीर सामाजिक और आर्थिक समस्या है, जिसमें योग्य व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त नहीं हो पाता। यह समस्या विभिन्न प्रकार की हो सकती है, जैसे मौसमी बेरोजगारी, संरचनात्मक बेरोजगारी, और चक्रीय बेरोजगारी। बेरोजगारी की समस्या केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत प्रभाव डालती है।
कारण:
आबादी वृद्धि: जनसंख्या वृद्धि के साथ रोजगार के अवसरों की मांग बढ़ जाती है। यदि रोजगार सृजन की दर जनसंख्या वृद्धि की दर से कम होती है, तो बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न होती है।
शिक्षा और कौशल का अंतर: आधुनिक उद्योगों और सेवाओं की जरूरतों के अनुसार कौशल की कमी के कारण बेरोजगारी होती है। बहुत से लोग शिक्षित होते हैं लेकिन उनके पास आवश्यक कौशल नहीं होता।
आर्थिक मंदी: आर्थिक मंदी के दौरान उद्योगों और कंपनियों का उत्पादन घट जाता है, जिसके परिणामस्वरूप कर्मचारियों की छंटनी होती है। यह चक्रीय बेरोजगारी को जन्म देती है।
तकनीकी परिवर्तन: नई तकनीकों के आगमन से पुराने उद्योग बंद हो जाते हैं और कुछ श्रेणियों में लोगों को रोजगार मिलना मुश्किल हो जाता है। यह संरचनात्मक बेरोजगारी का कारण बनता है।
सरकारी नीतियों की कमी: कई बार सरकार की नीतियों और योजनाओं का उचित कार्यान्वयन नहीं होता, जिससे रोजगार सृजन प्रभावित होता है।
निदान के उपाय:
शिक्षा और कौशल विकास: शिक्षा प्रणाली में सुधार और व्यावसायिक प्रशिक्षण को बढ़ावा देना चाहिए। स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक, कौशल विकास को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
स्वतंत्र उद्यमिता: छोटे और मध्यम उद्योगों को प्रोत्साहित करना और स्व-रोजगार के अवसर प्रदान करना बेरोजगारी को कम करने में सहायक हो सकता है।
आर्थिक नीतियों में सुधार: ऐसी नीतियाँ अपनाई जानी चाहिए जो रोजगार सृजन को प्रोत्साहित करें, जैसे कि उद्योगों को प्रोत्साहन, नवाचार और अनुसंधान में निवेश।
सरकारी योजनाएं: रोजगार गारंटी योजनाओं का कार्यान्वयन, जैसे कि मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम), बेरोजगारी को कम करने में मदद कर सकता है।
मौसमी रोजगार: कृषि और अन्य मौसमी गतिविधियों में रोजगार सृजन के लिए योजनाएं बनानी चाहिए, जो मौसमी बेरोजगारी को कम करें।
2. "भारत में आर्थिक व्यवस्था विफल रही है" क्या आप इस कथन से सहमत हैं? कारण बताइए।
सहमति या असहमति: भारत की आर्थिक व्यवस्था को विफल कहना पूर्णतः उचित नहीं हो सकता। हालांकि, कई क्षेत्रों में चुनौतियाँ और समस्याएँ हैं, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था ने महत्वपूर्ण प्रगति भी की है।
कारण:
आर्थिक असमानता: भारत में आर्थिक असमानता बहुत अधिक है। अमीर और गरीब के बीच खाई बढ़ती जा रही है, जिससे सामाजिक और आर्थिक असंतुलन उत्पन्न हो रहा है।
भ्रष्टाचार: सार्वजनिक जीवन और प्रशासनिक व्यवस्थाओं में भ्रष्टाचार एक बड़ी बाधा है, जो आर्थिक विकास और न्यायपूर्ण वितरण को प्रभावित करता है।
संविधानिक और प्रशासनिक समस्याएँ: राजनीतिक स्थिरता की कमी और प्रशासनिक असक्षमता भी विकास की गति को प्रभावित करती है। नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन न होने से विकास प्रभावित होता है।
पर्याप्त बुनियादी ढाँचे की कमी: सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे में कमी, जैसे सड़कें, जल आपूर्ति, और विद्युत आपूर्ति, विकास की गति को धीमा करती है।
आय और व्यय का असंतुलन: सरकारी वित्तीय प्रबंधन में असंतुलन, जैसे कि उच्च राजकोषीय घाटा और उधारी की समस्या, आर्थिक स्थिरता को प्रभावित करती है।
सुधार के प्रयास:
आर्थिक सुधार: सुधार और उदारीकरण की नीतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक बनाया है। आर्थिक खुलापन और विदेशी निवेश में वृद्धि हुई है।
आर्थिक विकास योजनाएं: सरकार ने सामाजिक और बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए कई योजनाएं लागू की हैं, जैसे कि प्रधान मंत्री आवास योजना और डिजिटल इंडिया।
संविधानिक सुधार: संविधान और प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की जा रही है।
निवेश प्रोत्साहन: विदेशी और घरेलू निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियों में सुधार किए गए हैं, जिससे रोजगार और विकास में वृद्धि हुई है।
3. भारत में केंद्रीय सरकार से राज्यों की ओर हस्तान्तरण के किस प्रकार के साधन हैं?
वित्तीय सहायता: केंद्रीय सरकार राज्यों को विभिन्न योजनाओं के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है, जैसे कि योजना आधारित अनुदान और सांविधानिक समर्थन। यह सहायता विशेष रूप से विकास परियोजनाओं और सामाजिक योजनाओं के लिए होती है।
राजस्व भागीदारी: केंद्रीय सरकार राज्यों को राजस्व का एक हिस्सा देती है, जैसे कि केंद्रीय बिक्री टैक्स, सेवा कर, और आयकर। यह भागीदारी राज्य सरकारों के वित्तीय संसाधनों को सुदृढ़ करती है।
विशेष राज्य योजनाएं: केंद्रीय सरकार विशेष राज्यों के लिए विशेष सहायता योजनाएं बनाती है, जैसे उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए विशेष पैकेज और योजना।
वित्त आयोग की सिफारिशें: केंद्रीय वित्त आयोग द्वारा राज्यों को वितीय संसाधनों का उचित आवंटन सुनिश्चित किया जाता है। वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर राज्यों को वित्तीय सहायता और संसाधन प्रदान किए जाते हैं।
केंद्रीय योजनाओं का कार्यान्वयन: केंद्रीय सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाओं का कार्यान्वयन राज्यों द्वारा किया जाता है, और इसके लिए राज्यों को अनुदान और वित्तीय संसाधन प्रदान किए जाते हैं।
4. अल्पविकसित देशों में नियोजन का औचित्य और सफलता की शर्तों पर प्रकाश डालिए।
औचित्य:
आर्थिक और सामाजिक विकास: नियोजन अल्पविकसित देशों में आर्थिक और सामाजिक विकास की दिशा तय करता है। यह विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक रोडमैप प्रदान करता है।
संवृद्धि का सृजन: नियोजन द्वारा संसाधनों का सटीक प्रबंधन और प्राथमिकताओं के आधार पर निवेश सुनिश्चित किया जाता है, जिससे दीर्घकालिक आर्थिक वृद्धि संभव होती है।
गरीबी उन्मूलन: नियोजन योजनाएं गरीब और वंचित वर्गों के लिए विशेष योजनाएं तैयार करती हैं, जिससे गरीबी उन्मूलन संभव होता है।
संसाधनों का उचित उपयोग: नियोजन संसाधनों के उचित उपयोग को सुनिश्चित करता है, ताकि विकास की गति में कोई बाधा न आए।
सफलता की शर्तें:
नीति की स्थिरता और निरंतरता: नीतियों में स्थिरता और निरंतरता सफलता की कुंजी है। बार-बार नीतियों में बदलाव योजनाओं की प्रभावशीलता को प्रभावित कर सकता है।
प्रशासनिक क्षमता: सक्षम और ईमानदार प्रशासन की आवश्यकता है। प्रशासनिक ढांचे की दक्षता और पारदर्शिता योजनाओं के सफल कार्यान्वयन में सहायक होती है।
स्रोतों का प्रबंधन: योजनाओं के लिए आवश्यक वित्तीय और भौतिक संसाधनों का उचित प्रबंधन और निवेश सफलता के लिए आवश्यक है।
जन भागीदारी: योजनाओं में लोगों की सक्रिय भागीदारी सफलता की दिशा में महत्वपूर्ण है। जनता की भागीदारी से योजनाओं का कार्यान्वयन सुगम होता है।
विकासात्मक दृष्टिकोण: विकासात्मक दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है, जिसमें दीर्घकालिक लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बनाई जाती हैं।
5. क्षेत्रीय असमानता क्यों उत्पन्न होती है और इन असमानताओं को दूर करने के लिए उपाय उत्तराखंड के संदर्भ में बताइए।
उत्पन्न कारण:
विकास की असमान दर: कुछ क्षेत्रों में औद्योगिक और आर्थिक विकास की दर अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक होती है। यह असमानता आर्थिक गतिविधियों की संकेंद्रण और वितरण पर निर्भर करती है।
संसाधनों का असमान वितरण: प्राकृतिक संसाधनों, जैसे जल, खनिज और कृषि भूमि का असमान वितरण क्षेत्रीय असमानता को बढ़ाता है।
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की असमानता: शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की असमानता विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक अवसरों में अंतर पैदा करती है।
अवसंरचना की कमी: अवसंरचना की कमी, जैसे सड़कें, बिजली, और जल आपूर्ति की असमानता भी क्षेत्रीय असमानता को बढ़ाती है।
उपाय (उत्तराखंड के संदर्भ में):
बुनियादी ढांचे का विकास: उत्तराखंड में बुनियादी ढाँचे में सुधार की आवश्यकता है, जैसे कि सड़कें, विद्युत आपूर्ति, और जल संसाधन। इन परियोजनाओं के माध्यम से क्षेत्रीय असमानता को कम किया जा सकता है।
शिक्षा और कौशल विकास: शिक्षा प्रणाली और कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। विशेष रूप से ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में शिक्षा और प्रशिक्षण की सुविधाओं को बढ़ाना चाहिए।
स्थानीय संसाधनों का उपयोग: स्थानीय संसाधनों का बेहतर उपयोग और विकास योजनाओं को लागू करना चाहिए। जैसे कि पर्यटन, कृषि, और हस्तशिल्प को प्रोत्साहित करना।
स्वायत्तता और समर्थन: स्थानीय स्वायत्तता और समर्थन योजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए, जैसे कि स्थानीय उद्यमों के लिए वित्तीय सहायता और व्यवसायिक समर्थन प्रदान करना।
विकासात्मक योजनाएं: विशेष क्षेत्रीय योजनाएं तैयार करनी चाहिए जो उत्तराखंड के विशिष्ट समस्याओं और अवसरों को ध्यान में रखते हुए हों।
इन विस्तृत उत्तरों से आप विभिन्न आर्थिक और विकासात्मक मुद्दों की गहरी समझ प्राप्त कर सकते हैं।
SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS
1. भारत में आर्थिक नियोजन की प्रासंगिकता पर टिप्पणी कीजिए।
भारत में आर्थिक नियोजन की प्रासंगिकता आज भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारत ने आर्थिक विकास की दिशा में ठोस प्रयास किए हैं और पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से आर्थिक नियोजन की व्यवस्था को अपनाया। इन योजनाओं का उद्देश्य आर्थिक असमानता को कम करना, गरीबी उन्मूलन करना, कृषि और औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित करना तथा समाज के विभिन्न वर्गों के बीच समावेशी विकास को बढ़ावा देना था।
आर्थिक नियोजन का महत्व इसलिए भी है क्योंकि भारत जैसे विकासशील देश में संसाधनों की सीमितता होती है और इनका सही उपयोग आर्थिक नियोजन के माध्यम से ही संभव होता है। 1991 के बाद जब भारत ने आर्थिक उदारीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया, तब भी नियोजन की प्रासंगिकता बनी रही, हालांकि इसकी संरचना में कुछ बदलाव आए। आज भारत में नियोजन का दृष्टिकोण दीर्घकालिक आर्थिक विकास की योजनाओं के माध्यम से होता है, जो आधुनिक आवश्यकताओं के अनुरूप है।
प्रासंगिकता के कारण:
समान विकास: आर्थिक नियोजन के माध्यम से क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने का प्रयास किया जाता है।
गरीबी उन्मूलन: नियोजन का एक प्रमुख उद्देश्य गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना है।
संसाधनों का प्रभावी उपयोग: सीमित संसाधनों का सही तरीके से वितरण और उपयोग आर्थिक नियोजन के बिना संभव नहीं है।
समाज के सभी वर्गों का विकास: नियोजन का उद्देश्य समाज के हर वर्ग, विशेष रूप से ग्रामीण, दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों को आर्थिक मुख्यधारा में शामिल करना है।
निष्कर्षतः, आर्थिक नियोजन भारत के विकास के लिए एक आवश्यक तत्व है जो समावेशी और सतत विकास को सुनिश्चित करता है।
2. उत्तराखण्ड की जनजातियों के कल्याण के लिए राज्य सरकार द्वारा संचालित योजनाओं का विवरण दीजिए।
उत्तराखंड में जनजातीय समुदायों के कल्याण और उनके जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के लिए राज्य सरकार कई योजनाएं चला रही है। इन योजनाओं का मुख्य उद्देश्य जनजातियों को आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से सशक्त बनाना है। उत्तराखंड की प्रमुख जनजातियों में भोटिया, जौनसारी, थारू, बोक्सा, और राजी आते हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए राज्य सरकार ने विशेष योजनाएं लागू की हैं।
प्रमुख योजनाएं:
जनजातीय उपयोजना (Tribal Sub Plan): इस योजना का उद्देश्य जनजातीय क्षेत्रों के समग्र विकास को सुनिश्चित करना है। इसके तहत शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, आवास, और बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
वित्तीय सहायता योजनाएं: जनजातीय छात्रों को शिक्षा में प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकार वित्तीय सहायता प्रदान करती है। इसमें छात्रवृत्ति योजना, होस्टल सुविधा, और उच्च शिक्षा के लिए विशेष अनुदान शामिल हैं।
आवासीय विद्यालय: जनजातीय समुदाय के बच्चों के लिए आवासीय विद्यालय स्थापित किए गए हैं, जहाँ उन्हें मुफ्त शिक्षा, भोजन और आवास प्रदान किया जाता है।
जनजातीय कृषि विकास योजना: इस योजना के तहत जनजातीय किसानों को कृषि के आधुनिक तकनीकों का प्रशिक्षण, उन्नत बीज और कृषि यंत्र उपलब्ध कराए जाते हैं।
स्वास्थ्य योजनाएं: राज्य सरकार द्वारा जनजातीय क्षेत्रों में विशेष स्वास्थ्य योजनाओं का संचालन किया जा रहा है, जिसके तहत स्वास्थ्य सेवाएं मुफ्त या सस्ती दरों पर उपलब्ध कराई जाती हैं।
समाज कल्याण योजनाएं: इसमें जनजातीय समुदायों के लिए स्वरोजगार, महिला सशक्तिकरण, और आत्मनिर्भरता के लिए विशेष योजनाएं शामिल हैं।
इन योजनाओं के माध्यम से सरकार जनजातियों के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए समर्पित है।
3. विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के लाभ और उद्देश्यों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं का प्रारंभ 1951 में हुआ, जिसका उद्देश्य देश के समग्र विकास को सुनिश्चित करना था। हर पंचवर्षीय योजना का एक विशेष उद्देश्य और लाभ था, जो समाज और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को कवर करता है।
प्रमुख पंचवर्षीय योजनाओं के उद्देश्य और लाभ:
प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56): इसका मुख्य उद्देश्य कृषि और सिंचाई के विकास पर था। इसने भारत को खाद्य संकट से उबरने में मदद की और हरित क्रांति की नींव रखी।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61): इसका लक्ष्य भारी उद्योगों और आधारभूत संरचना के विकास पर था। इस योजना ने भारत में औद्योगिक विकास को तेज़ी से बढ़ावा दिया।
तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66): इस योजना का उद्देश्य आत्मनिर्भरता और गरीबी उन्मूलन था। यह योजना कृषि, उद्योग और विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति की दिशा में थी।
चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74): इस योजना का मुख्य उद्देश्य स्थिरता और आत्मनिर्भरता था। इसमें कृषि उत्पादन और आयात पर निर्भरता को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया गया।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12): इसका उद्देश्य समावेशी विकास, गरीबी उन्मूलन, और शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार था।
लाभ:
कृषि और औद्योगिक विकास: पंचवर्षीय योजनाओं ने कृषि उत्पादन और औद्योगिक आधारभूत संरचना में सुधार किया।
गरीबी उन्मूलन: इन योजनाओं के माध्यम से गरीबी कम करने के लिए कई कार्यक्रम और नीतियां शुरू की गईं।
सामाजिक कल्याण: पंचवर्षीय योजनाओं ने शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण के क्षेत्र में भी सुधार लाए।
4. न्यून वित्त प्रबंध घाटे पर टिप्पणी लिखिए।
न्यून वित्तीय घाटे का मतलब है कि किसी देश की सरकार का खर्च उसके राजस्व से कम या लगभग बराबर है। यह एक सकारात्मक आर्थिक संकेतक है, जो देश की वित्तीय स्थिरता और दीर्घकालिक आर्थिक विकास का प्रतीक होता है। वित्तीय घाटा तब होता है जब सरकार का व्यय उसके आय से अधिक हो जाता है, और इस अंतर को भरने के लिए उसे उधार लेना पड़ता है।
न्यून वित्तीय घाटे के लाभ:
वित्तीय स्थिरता: जब वित्तीय घाटा कम होता है, तो सरकार को अधिक उधारी लेने की आवश्यकता नहीं होती, जिससे दीर्घकालिक वित्तीय स्थिरता बनी रहती है।
कम ब्याज दरें: कम घाटा होने से सरकार को कम उधार लेना पड़ता है, जिससे बाजार में ब्याज दरें स्थिर रहती हैं और निवेश को प्रोत्साहन मिलता है।
उधारी का नियंत्रण: वित्तीय घाटे में कमी का मतलब है कि सरकार उधारी को नियंत्रित कर रही है, जिससे सरकारी कर्ज़ और ब्याज भुगतान का बोझ कम होता है।
विकासात्मक योजनाओं में निवेश: वित्तीय घाटा कम होने से सरकार अधिक निवेश विकासात्मक योजनाओं में कर सकती है, जो समाज और अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक होते हैं।
निष्कर्ष: न्यून वित्तीय घाटा आर्थिक स्थिरता का प्रतीक है, और यह देश की आर्थिक नीति और वित्तीय प्रबंधन की सफलता को दर्शाता है।
5. उत्तराखण्ड में नियोजन में असफलता के क्या कारण रहे?
उत्तराखंड, एक युवा राज्य के रूप में 2000 में गठन के बाद से कई विकासात्मक योजनाओं और परियोजनाओं को लागू कर रहा है। हालांकि, नियोजन में कई बार विफलताएं भी देखने को मिली हैं। इन विफलताओं के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
भौगोलिक और पर्यावरणीय चुनौतियाँ: उत्तराखंड की भौगोलिक संरचना और पर्यावरणीय स्थितियाँ, जैसे पर्वतीय क्षेत्र और प्राकृतिक आपदाएं (जैसे बाढ़ और भूस्खलन), विकास योजनाओं की कार्यान्वयन में बाधा डालती हैं। इन चुनौतियों के कारण कई परियोजनाओं की लागत बढ़ जाती है और समय पर पूरा नहीं हो पातीं।
प्रशासनिक समस्याएँ: राज्य प्रशासन में पर्याप्त कुशलता और समन्वय की कमी, योजनाओं के सही तरीके से कार्यान्वयन में बाधक रही है। योजनाओं की योजना बनाते समय स्थानीय प्रशासन की क्षमताओं और आवश्यकताओं की अनदेखी की जाती है, जिससे योजनाओं का प्रभावी कार्यान्वयन मुश्किल हो जाता है।
संसाधनों की कमी: उत्तराखंड के पास सीमित वित्तीय संसाधन हैं, जो बड़ी और महंगी परियोजनाओं के लिए अपर्याप्त होते हैं। इसके अलावा, राज्य सरकार की वित्तीय स्थिति भी स्थिर नहीं रहती, जिससे योजनाओं के लिए नियमित फंडिंग में बाधा आती है।
जनसंख्या वृद्धि और अनुपयुक्त योजना: राज्य की जनसंख्या वृद्धि और तेजी से शहरीकरण के साथ-साथ, योजनाओं की अद्यतन नहीं हो पाना, विकासात्मक लक्ष्यों को पूरा करने में कठिनाई उत्पन्न करता है। कई योजनाएँ पुरानी जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, जो वर्तमान जनसंख्या और आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होतीं।
भ्रष्टाचार और अक्षमता: योजनाओं के कार्यान्वयन में भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता ने कई बार संसाधनों के गलत उपयोग को जन्म दिया है। यह स्थिति परियोजनाओं की गुणवत्ता और समयसीमा को प्रभावित करती है।
सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता: उत्तराखंड की जनसंख्या में सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता भी योजनाओं की सफलतता में एक चुनौती प्रस्तुत करती है। विभिन्न समुदायों की अलग-अलग आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं को एक योजना में शामिल करना कठिन हो सकता है।
इन समस्याओं के समाधान के लिए, योजनाओं की प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए संपूर्ण रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। इसमें प्रशासनिक सुधार, संसाधनों का बेहतर प्रबंधन, और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप योजनाओं की योजना बनाना शामिल है।
6. 2005 राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना अधिनियम का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 (NREG Act), जिसे अब मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के रूप में जाना जाता है, भारत सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार और आजीविका सुरक्षा प्रदान करने के लिए लागू किया गया था। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य गरीब ग्रामीण परिवारों को अनिवार्य न्यूनतम रोजगार प्रदान करना है, ताकि वे स्वाभाविक रूप से अपनी आय में सुधार कर सकें।
मुख्य विशेषताएँ:
रोजगार गारंटी: अधिनियम प्रत्येक ग्रामीण परिवार को एक वित्तीय वर्ष में कम से कम 100 दिनों का रोजगार प्रदान करने की गारंटी देता है। यह रोजगार ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक कामों के रूप में प्रदान किया जाता है, जैसे सड़क निर्माण, जल संरक्षण, और वन संरक्षण।
सामाजिक सुरक्षा: यह अधिनियम ग्रामीण श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा, और काम के सुरक्षित वातावरण की गारंटी देता है। इसके तहत, काम करने वाले श्रमिकों को उनके काम के लिए समय पर भुगतान किया जाता है और उनके अधिकारों की रक्षा की जाती है।
स्थानीय कामकाजी योजनाएँ: योजनाओं की पहचान और कार्यान्वयन में स्थानीय पंचायतों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके माध्यम से स्थानीय समुदायों को योजनाओं के निर्माण और कार्यान्वयन में भागीदारी का अवसर मिलता है।
पारदर्शिता और जवाबदेही: अधिनियम के तहत, योजनाओं की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत निगरानी प्रणाली विकसित की गई है। इसका उद्देश्य भ्रष्टाचार को रोकना और कार्यक्रम की प्रभावशीलता को बढ़ाना है।
सामुदायिक विकास: अधिनियम का उद्देश्य ग्रामीण विकास को भी प्रोत्साहित करना है, क्योंकि इसमें शामिल परियोजनाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे में सुधार करती हैं और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करती हैं।
उद्देश्य और लाभ:
आजीविका सुरक्षा: गरीब ग्रामीण परिवारों को स्थिर और नियमित आय का स्रोत प्रदान करना।
संवृद्धि: ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे का सुधार करना और स्थानीय विकास को बढ़ावा देना।
सामाजिक समावेश: कमजोर और पिछड़े वर्गों के लिए रोजगार की अवसर सुनिश्चित करना।
7. उत्तराखंड के संदर्भ में नियोजन की रणनीति का विश्लेषण कीजिए।
उत्तराखंड, एक पर्वतीय राज्य होने के नाते, विकास और नियोजन के दृष्टिकोण में विशेष चुनौतियों का सामना करता है। राज्य की नियोजन रणनीति को इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाता है।
मुख्य तत्व:
भौगोलिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण: उत्तराखंड की पर्वतीय भौगोलिक संरचना और पर्यावरणीय स्थितियाँ योजनाओं की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसलिए, योजनाओं में स्थिरता और आपदा प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। परियोजनाओं को पर्यावरणीय क्षति से बचाने और स्थायी विकास को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष ध्यान दिया जाता है।
स्थानीय विकास: योजनाओं की योजना बनाते समय स्थानीय जरूरतों और प्राथमिकताओं को शामिल किया जाता है। पंचायतों और स्थानीय निकायों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जाती है, ताकि योजनाओं का कार्यान्वयन स्थानीय संदर्भ में प्रभावी हो सके।
समावेशी विकास: उत्तराखंड की जनसंख्या में विभिन्न जातीय और सामाजिक समूह शामिल हैं। नियोजन की रणनीति में सामाजिक समावेशिता को बढ़ावा देना, विशेष रूप से आदिवासी और पिछड़े समुदायों के लिए योजनाओं का निर्माण किया जाता है।
आवश्यकता आधारित योजनाएँ: राज्य की प्राथमिकताएँ, जैसे कि कृषि, पर्यटन, और जल प्रबंधन, को ध्यान में रखते हुए योजनाओं का निर्माण किया जाता है। कृषि विकास और बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए विशेष योजनाएं तैयार की जाती हैं।
वित्तीय प्रबंधन और संसाधन आवंटन: वित्तीय संसाधनों का उचित प्रबंधन और आवंटन नियोजन की एक महत्वपूर्ण दिशा है। राज्य सरकार को उपलब्ध संसाधनों का सटीक और प्रभावी उपयोग सुनिश्चित करना पड़ता है।
आधुनिक तकनीक का उपयोग: योजनाओं में तकनीकी नवाचार और आधुनिक उपकरणों का उपयोग भी शामिल किया जाता है। यह डेटा संग्रहण, निगरानी, और मूल्यांकन के माध्यम से योजनाओं की प्रभावशीलता को बढ़ाता है।
सारांश: उत्तराखंड की नियोजन रणनीति को स्थानीय आवश्यकताओं, पर्यावरणीय चुनौतियों, और सामाजिक समावेशिता को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाता है। इस दृष्टिकोण से योजनाओं की कार्यान्वयन क्षमता और प्रभावशीलता को बेहतर बनाया जा सकता है।
8. भारत में संघीय वित्त में सुधार हेतु सुझाव
भारत में संघीय वित्त व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता को देखते हुए, कुछ प्रमुख सुझाव दीजिए।
राजस्व शेयरिंग का सुधार: केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच राजस्व का वितरण अधिक न्यायसंगत और पारदर्शी होना चाहिए। वित्त आयोग के सुझावों को सटीक रूप से लागू किया जाना चाहिए ताकि राज्यों को उनके वास्तविक राजस्व की हिस्सेदारी मिल सके।
स्थानीय स्वायत्तता को बढ़ावा: राज्यों और स्थानीय निकायों को वित्तीय स्वायत्तता और अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए, जिससे वे अपने विकासात्मक कार्यक्रमों और योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू कर सकें।
वित्तीय ट्रांसपेरेंसी: वित्तीय प्रबंधन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत निगरानी प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए। सार्वजनिक वित्तीय डेटा और लेन-देन को ऑनलाइन उपलब्ध कराना चाहिए।
केंद्रीय और राज्य योजनाओं का समन्वय: केंद्रीय और राज्य योजनाओं के बीच बेहतर समन्वय और सहयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इससे योजनाओं की कार्यान्वयन में सुधार होगा और विकासात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति आसान होगी।
अवसंरचना और निवेश: संघीय वित्तीय सुधारों के अंतर्गत, अवसंरचना विकास के लिए दीर्घकालिक निवेश योजनाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यह राज्य और स्थानीय स्तर पर विकास को प्रोत्साहित करेगा।
मूल्यांकन और पुनरावलोकन: वित्तीय योजनाओं और नीतियों की नियमित समीक्षा और मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि उनकी प्रभावशीलता और आवश्यक सुधारों को सुनिश्चित किया जा सके।
उपभोक्ता और वित्तीय सेवाओं में सुधार: वित्तीय सेवाओं की पहुँच और गुणवत्ता में सुधार करने के लिए उपभोक्ता सेवाओं और बैंकिंग प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है।
इन सुझावों के माध्यम से भारत की संघीय वित्तीय प्रणाली को अधिक प्रभावी, पारदर्शी, और समावेशी बनाया जा सकता है।
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