GEPA-02 SOLVED QUESTION PAPER 2024,

 



GEPA-02 SOLVED QUESTION PAPER 2024,


प्रश्न 1. स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय प्रशासन की प्रकृति में परिवर्तन के कारणों को स्पष्ट कीजिए।


स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय प्रशासन में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जो भारत की नई राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार थे। औपनिवेशिक शासन के समय प्रशासन का उद्देश्य ब्रिटिश हितों की रक्षा करना था, लेकिन स्वतंत्रता के बाद यह उद्देश्य बदल गया। अब प्रशासन का प्रमुख उद्देश्य जनहित में नीतियों का निर्माण और उनका क्रियान्वयन करना बन गया।


मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:


1. लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थापना: स्वतंत्रता के बाद भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुई। प्रशासन की संरचना और उसकी कार्यशैली को लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुसार ढालने की आवश्यकता थी। अब प्रशासन जनता के प्रति जवाबदेह हो गया, और प्रशासनिक अधिकारियों को जनता के हित में काम करना अनिवार्य हो गया।


2. संविधान का कार्यान्वयन: भारतीय संविधान का लागू होना प्रशासन के ढांचे में बड़ा परिवर्तन लेकर आया। संविधान ने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा और समाज के सभी वर्गों के लिए समानता सुनिश्चित करने का प्रावधान किया। यह प्रशासन की जिम्मेदारी बन गई कि वह संवैधानिक व्यवस्थाओं का पालन करते हुए जनता के कल्याण के लिए काम करे।


3. केंद्रीकरण से विकेंद्रीकरण की ओर: ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में प्रशासनिक केंद्रीकरण था, लेकिन स्वतंत्रता के बाद विकेंद्रीकरण की आवश्यकता महसूस की गई। पंचायती राज और स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को सशक्त करने के लिए कदम उठाए गए, जिससे प्रशासन का विकेंद्रीकरण हो सके और स्थानीय स्तर पर जनहित के मुद्दों का समाधान हो सके।


4. प्रशासन का समाजिक उद्देश्य: स्वतंत्रता से पहले भारतीय प्रशासन का प्रमुख उद्देश्य कानून और व्यवस्था बनाए रखना था, लेकिन स्वतंत्रता के बाद सामाजिक और आर्थिक विकास भी प्रशासन का प्रमुख उद्देश्य बन गया। पंचवर्षीय योजनाओं और विकास कार्यक्रमों के माध्यम से प्रशासन ने आर्थिक विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया।


5. नौकरशाही की भूमिका में बदलाव: ब्रिटिश काल में नौकरशाही का मुख्य काम कानून-व्यवस्था बनाए रखना और उपनिवेश की आर्थिक दोहन की प्रक्रियाओं को सुचारू रूप से संचालित करना था। स्वतंत्रता के बाद नौकरशाही की भूमिका बदल गई और अब वह सामाजिक कल्याण, आर्थिक विकास और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रवर्तन की दिशा में काम करने लगी।


6. राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता: स्वतंत्रता के बाद भारत को राष्ट्रीय एकता और अखंडता बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ा। विभाजन के बाद की स्थिति, अलगाववादी आंदोलन, और बाहरी आक्रमण की आशंकाओं ने प्रशासन की भूमिका को मजबूत और केंद्रीकृत रखा, विशेषकर सुरक्षा और आंतरिक व्यवस्था के मामलों में।


इन कारणों से भारतीय प्रशासन में स्वतंत्रता के पश्चात् स्पष्ट रूप से लोकतांत्रिक और जनहितकारी दृष्टिकोण के साथ बदलाव आया, जो आज भी प्रशासनिक प्रणाली में परिलक्षित होता है।


प्रश्न 2. पंचायती राज से आप क्या समझते हैं? इसके उत्थान के लिए किए गए प्रयासों पर चर्चा कीजिए।


पंचायती राज भारतीय ग्रामीण प्रशासनिक व्यवस्था का एक प्रमुख अंग है, जो गांवों के स्तर पर स्वशासन को सुनिश्चित करता है। यह स्थानीय शासन की एक पुरानी परंपरा है, जो महात्मा गांधी के 'ग्राम स्वराज' के सिद्धांत पर आधारित है। पंचायती राज का उद्देश्य है ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को शासन प्रक्रिया में भागीदार बनाना और स्थानीय स्तर पर उनके समस्याओं का समाधान करना।


पंचायती राज का अर्थ: पंचायती राज व्यवस्था में तीन स्तरीय ढांचा होता है—ग्राम पंचायत (गांव स्तर पर), पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर पर), और जिला परिषद (जिला स्तर पर)। प्रत्येक स्तर पर निर्वाचित सदस्य होते हैं, जो गांव के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह व्यवस्था विकेंद्रीकरण के सिद्धांत पर आधारित है, जहां सत्ता और संसाधनों का वितरण स्थानीय स्तर पर किया जाता है ताकि ग्रामीण विकास को गति दी जा सके।


उत्थान के लिए किए गए प्रयास:


1. संविधान के 73वें संशोधन (1992): इस संशोधन के तहत पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया। इसके तहत पंचायतों को स्वशासन की अधिकारिता मिली और महिलाओं के लिए 33% आरक्षण का प्रावधान किया गया। साथ ही अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था की गई। इस संशोधन के माध्यम से पंचायतों को कानूनन शक्तियाँ प्रदान की गईं, जिससे उनकी स्वायत्तता सुनिश्चित हो सके।


2. वित्तीय सशक्तिकरण: पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय रूप से सशक्त बनाने के लिए केंद्रीय और राज्य सरकारों ने विभिन्न योजनाओं के माध्यम से वित्तीय सहायता दी। वित्त आयोगों ने पंचायती राज संस्थाओं के लिए विशेष अनुदान और वित्तीय संसाधनों के आवंटन की सिफारिश की, ताकि वे अपने स्तर पर विकास कार्यों को सुचारू रूप से कर सकें।


3. पंचवर्षीय योजनाएँ: पंचायती राज को सशक्त बनाने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं में विशेष प्रावधान किए गए। ग्रामीण विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए पंचायतों को जिम्मेदार बनाया गया। इसके तहत मनरेगा जैसी योजनाएँ पंचायतों के माध्यम से चलाई गईं, जिससे रोजगार के अवसर बढ़े और ग्रामीण क्षेत्रों का विकास हुआ।


4. डिजिटल सशक्तिकरण: हाल के वर्षों में पंचायतों के कामकाज में पारदर्शिता लाने और उनके काम को अधिक प्रभावी बनाने के लिए डिजिटल तकनीकों का उपयोग किया गया है। ई-पंचायत योजना के तहत पंचायती राज संस्थाओं को ऑनलाइन प्लेटफार्म पर लाया गया, जिससे उनके कामकाज में पारदर्शिता और कुशलता बढ़ी।


5. प्रशिक्षण और क्षमता विकास: पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचित सदस्यों के लिए विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए गए, ताकि वे शासन की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझ सकें और स्थानीय स्तर पर विकास के कामों को सही तरीके से अंजाम दे सकें। इसके लिए राष्ट्रीय पंचायती राज संस्थान और राज्य स्तर पर प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की गई।


इन प्रयासों के बावजूद पंचायती राज संस्थाओं के सामने कुछ चुनौतियाँ भी हैं, जैसे वित्तीय संसाधनों की कमी, भ्रष्टाचार, और स्थानीय स्तर पर राजनीति का हावी होना। फिर भी, इन प्रयासों ने पंचायती राज को मजबूत किया है और ग्रामीण भारत में लोकतंत्र के जमीनी स्वरूप को साकार किया है।


प्रश्न 3. राज्य सचिवालय के संगठन एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।


राज्य सचिवालय किसी भी राज्य सरकार का केंद्रीय प्रशासनिक कार्यालय होता है, जहाँ से राज्य की सरकार के प्रमुख नीतिगत और प्रशासनिक कार्य संचालित होते हैं। राज्य सचिवालय में विभिन्न विभागों के सचिव और उनके अधीनस्थ अधिकारी कार्यरत होते हैं, जो राज्य की शासन प्रणाली का संचालन करते हैं। राज्य सचिवालय मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद के निर्देशन में कार्य करता है।


संगठन:


1. मुख्यमंत्री: राज्य सचिवालय का सर्वोच्च पद मुख्यमंत्री होता है, जो राज्य का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी होता है। मुख्यमंत्री राज्य के सभी विभागों के कामकाज की देखरेख करता है और मंत्रियों को दिशा-निर्देश देता है।


2. मुख्य सचिव: मुख्य सचिव राज्य सचिवालय का प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी होता है। वह मुख्यमंत्री और राज्य मंत्रिपरिषद के कामकाज को समन्वित करता है और विभिन्न विभागों के सचिवों के कामकाज की निगरानी करता है। मुख्य सचिव राज्य प्रशासन की रीढ़ होता है और सभी प्रमुख प्रशासनिक निर्णयों में उसकी भूमिका होती है।


3. विभागीय सचिव: प्रत्येक विभाग का प्रमुख सचिव होता है, जो अपने विभाग से संबंधित नीतियों का क्रियान्वयन करता है। वह अपने विभाग में विभिन्न योजनाओं का संचालन करता है और आवश्यकतानुसार रिपोर्ट मुख्य सचिव या मुख्यमंत्री को प्रस्तुत करता है।


4. अन्य अधिकारी: सचिवालय में विभिन्न अन्य अधिकारी भी होते हैं, जैसे अपर मुख्य सचिव, उप सचिव, विशेष सचिव आदि, जो प्रशासनिक कार्यों का विभाजन और क्रियान्वयन सुनिश्चित करते हैं।


कार्य:


1. नीतिगत निर्णय: राज्य सचिवालय राज्य सरकार की नीतियों को बनाने और क्रियान्वित करने का काम करता है। यह राज्य की विभिन्न समस्याओं और आवश्यकताओं के अनुसार नीतियों को तैयार करता है और उनके क्रियान्वयन की व्यवस्था करता है।


2. प्रशासनिक कार्य: राज्य सचिवालय राज्य के सभी प्रशासनिक कार्यों का केंद्र होता है। यह राज्य के विभिन्न विभागों के कामकाज का समन्वय करता है और उन्हें निर्देशित करता है। इसके अंतर्गत कानून-व्यवस्था, वित्तीय मामलों, विकास योजनाओं, और विभिन्न परियोजनाओं का संचालन होता है।


3. विधायी कार्य: राज्य सचिवालय विधायिका के साथ समन्वय स्थापित करता है और विधान सभा में प्रस्तुत किए जाने वाले विधेयकों की तैयारी करता है। यह विधायी कार्यवाही के दौरान आवश्यक कानूनी और प्रशासनिक सहायता प्रदान करता है।


4. बजट और वित्तीय प्रबंधन: राज्य सचिवालय राज्य के बजट को तैयार करता है और वित्तीय संसाधनों का उचित आवंटन करता है। यह राज्य की वित्तीय स्थिति पर नजर रखता है और वित्तीय प्रबंधन से जुड़े सभी कार्यों का संचालन करता है।


5. जनहितकारी योजनाओं का क्रियान्वयन: राज्य सचिवालय विभिन्न जनहितकारी योजनाओं और परियोजनाओं का क्रियान्वयन करता है।







प्रश्न 4. भारतीय संविधान की विशेषताएँ बताइए।


भारतीय संविधान विश्व के सबसे विस्तृत और समग्र संविधानों में से एक है। इसे 26 नवंबर 1949 को अंगीकृत किया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। भारतीय संविधान का उद्देश्य एक लोकतांत्रिक, समाजवादी, और धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना था। इस संविधान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:


1. विस्तृत संविधान: भारतीय संविधान लगभग 395 अनुच्छेदों, 12 अनुसूचियों और अनेक संशोधनों के साथ एक विस्तृत दस्तावेज़ है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में किसी भी प्रशासनिक या कानूनी पेचीदगियों का समाधान संविधान के अंदर ही हो सके।


2. पंथनिरपेक्षता: भारतीय संविधान ने धर्मनिरपेक्षता को एक प्रमुख सिद्धांत के रूप में अपनाया है। इसका मतलब यह है कि राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं होगा, और सभी नागरिकों को उनके धर्म का पालन करने और उसकी स्वतंत्रता प्राप्त करने का अधिकार होगा। यह धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को नकारता है।


3. लोकतांत्रिक व्यवस्था: भारतीय संविधान ने लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाया है, जिसके अंतर्गत सभी वयस्क नागरिकों को मतदान का अधिकार दिया गया है। यह ‘प्रत्यक्ष लोकतंत्र’ का सिद्धांत है, जहां लोग अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं। भारतीय लोकतंत्र की नींव सार्वभौमिक मताधिकार पर आधारित है।


4. संघीय ढांचा: भारत का संविधान संघीय ढांचे पर आधारित है, जहां शक्तियों का विभाजन केंद्र और राज्यों के बीच किया गया है। इस ढांचे में केंद्र और राज्य सरकारों के अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से विभाजित किया गया है, ताकि संघ और राज्य के बीच समन्वय बना रहे।


5. मौलिक अधिकार: संविधान ने नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार दिए हैं, जो उनके विकास और स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं। इनमें जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार, और सामाजिक समानता का अधिकार शामिल हैं। यह अधिकार न्यायपालिका द्वारा संरक्षित हैं।


6. न्यायिक समीक्षा: भारतीय संविधान ने न्यायपालिका को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाया है। न्यायपालिका को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी भी सरकारी आदेश या कानून की समीक्षा कर सके और यह जांच सके कि वह संविधान के अनुरूप है या नहीं। इसे न्यायिक समीक्षा कहते हैं, जो लोकतंत्र की रक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।


7. संशोधन की सुविधा: भारतीय संविधान एक लचीला और कठोर संविधान का मिश्रण है। संविधान में संशोधन की सुविधा उपलब्ध है ताकि समय के साथ आने वाली जरूरतों के अनुसार इसमें बदलाव किया जा सके। अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, जो संविधान को जीवंत और प्रासंगिक बनाए रखता है।


8. सामाजिक न्याय और समानता: संविधान ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को अपनाया है। इसमें अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है, ताकि उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाया जा सके। इसके तहत उन्हें शिक्षा, रोजगार और अन्य क्षेत्रों में समान अवसर मिलते हैं।


9. मिश्रित शासन प्रणाली: भारतीय संविधान ने संसदीय प्रणाली को अपनाया है, जिसमें कार्यपालिका संसद के प्रति उत्तरदायी होती है। हालांकि, इसमें कुछ राष्ट्रपति प्रणाली के तत्व भी शामिल हैं, जैसे कि राष्ट्रपति को आपातकालीन स्थितियों में विशेष शक्तियाँ दी गई हैं।


10. स्वतंत्र चुनाव आयोग: संविधान में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को सुनिश्चित करने के लिए एक स्वतंत्र चुनाव आयोग का प्रावधान किया गया है। यह आयोग देश में सभी चुनावों का संचालन करता है और सुनिश्चित करता है कि वे संविधान के अनुसार निष्पक्ष और स्वतंत्र तरीके से संपन्न हों।


11. एकल नागरिकता: भारत में एकल नागरिकता का प्रावधान किया गया है, जो यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी नागरिक के लिए केंद्र और राज्य स्तर पर अलग-अलग नागरिकता नहीं होगी। यह राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने वाला प्रावधान है।


भारतीय संविधान इन सभी विशेषताओं के माध्यम से भारत को एक संगठित, समृद्ध और सशक्त राष्ट्र बनाने का प्रयास करता है, जहां हर व्यक्ति को समान अवसर मिले और समाज में किसी भी प्रकार के भेदभाव की कोई गुंजाइश न हो।


5. मुख्यमंत्री के शक्तियों की विस्तार से चर्चा कीजिए।


मुख्यमंत्री किसी भी राज्य में सबसे महत्वपूर्ण कार्यकारी पदाधिकारी होता है। वह राज्य का मुखिया होता है और राज्य की सरकार का नेतृत्व करता है। मुख्यमंत्री राज्य के शासन के सभी पहलुओं में एक केंद्रीय भूमिका निभाता है। मुख्यमंत्री की शक्तियाँ और कर्तव्य निम्नलिखित हैं:


1. कार्यकारी शक्तियाँ:

मुख्यमंत्री राज्य के कार्यकारी प्रमुख होते हैं और राज्य प्रशासन की सभी कार्यकारी शक्तियाँ उनके हाथों में होती हैं। वे राज्य की सरकार की नीतियों को लागू करने, प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने, और राज्य के विभिन्न विभागों के कामकाज की निगरानी करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। मुख्यमंत्री राज्य के सभी महत्वपूर्ण निर्णयों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं और मंत्रियों को दिशा-निर्देश देते हैं।


2. मंत्रिपरिषद का नेतृत्व:

मुख्यमंत्री राज्य की मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष होते हैं। वे मंत्रियों की नियुक्ति और उन्हें विभागों के आवंटन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे मंत्रियों के कामकाज की समीक्षा करते हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें मार्गदर्शन देते हैं। मंत्रिपरिषद के साथ मिलकर राज्य की नीतियों का निर्माण और उनका क्रियान्वयन मुख्यमंत्री द्वारा किया जाता है।


3. विधान मंडल के प्रति उत्तरदायित्व:

मुख्यमंत्री राज्य के विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी होते हैं। वे राज्य विधान सभा में सरकार की नीतियों और योजनाओं का बचाव करते हैं और सदन के समक्ष सरकार का पक्ष रखते हैं। मुख्यमंत्री यह सुनिश्चित करते हैं कि उनकी सरकार को विधान सभा का समर्थन प्राप्त हो और वे आवश्यक कानूनों को पारित करा सकें।


4. वित्तीय शक्तियाँ:

मुख्यमंत्री राज्य के वित्तीय मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे राज्य का बजट तैयार करने में भाग लेते हैं और उसे विधान सभा में प्रस्तुत करते हैं। वित्तीय अनुशासन बनाए रखने और राज्य के संसाधनों का कुशलता से उपयोग करने के लिए मुख्यमंत्री वित्त मंत्री और अन्य संबंधित अधिकारियों के साथ मिलकर काम करते हैं।


5. आपातकालीन शक्तियाँ:

राज्य में आपातकाल की स्थिति में मुख्यमंत्री को विशेष शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। वे राज्य में आपातकालीन परिस्थितियों, जैसे प्राकृतिक आपदाओं, दंगों, या अन्य संकटों के समय त्वरित निर्णय लेने के लिए अधिकृत होते हैं। मुख्यमंत्री राज्य में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए सुरक्षा एजेंसियों को निर्देशित करते हैं और आवश्यकतानुसार केंद्र सरकार से मदद मांगते हैं।


6. कानून और व्यवस्था:

मुख्यमंत्री राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार होते हैं। वे राज्य पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेंसियों के प्रमुख होते हैं और राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक निर्णय लेते हैं। मुख्यमंत्री यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य में अपराध कम हो और कानून का पालन हो।


7. नीति निर्माण और योजना:

मुख्यमंत्री राज्य में विभिन्न विकास योजनाओं और नीतियों का निर्माण करते हैं। वे राज्य के सामाजिक, आर्थिक, और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए दीर्घकालिक योजनाओं का नेतृत्व करते हैं। पंचवर्षीय योजनाओं, वार्षिक योजनाओं, और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन मुख्यमंत्री की देखरेख में होता है।


8. केंद्र-राज्य संबंध:

मुख्यमंत्री राज्य और केंद्र सरकार के बीच एक सेतु का काम करते हैं। वे राज्य के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए केंद्र सरकार के साथ बातचीत करते हैं और केंद्र से सहायता और संसाधनों की मांग करते हैं। विभिन्न राष्ट्रीय योजनाओं और परियोजनाओं के क्रियान्वयन में मुख्यमंत्री की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।


मुख्यमंत्री राज्य में सर्वोच्च कार्यकारी होते हैं और राज्य की प्रगति और स्थिरता के लिए उन्हें कई महत्वपूर्ण शक्तियाँ और कर्तव्य सौंपे गए हैं। उनकी भूमिका राज्य सरकार की सफलता के लिए निर्णायक होती है।


SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS 



प्रश्न  1. 73वें संविधान संशोधन की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।


73वां संविधान संशोधन भारतीय पंचायत व्यवस्था को सुदृढ़ और संवैधानिक रूप से मान्यता देने के लिए एक ऐतिहासिक कदम था। यह संशोधन वर्ष 1992 में पारित हुआ और 24 अप्रैल 1993 से लागू हुआ। इस संशोधन के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया, ताकि ग्रामीण स्वशासन को अधिक सशक्त और प्रभावी बनाया जा सके।


मुख्य विशेषताएँ:


1. त्रि-स्तरीय पंचायत व्यवस्था:

इस संशोधन के अंतर्गत ग्राम पंचायत (गांव स्तर पर), पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर पर), और जिला परिषद (जिला स्तर पर) की त्रि-स्तरीय पंचायत व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। इससे पंचायतों को अपने स्तर पर जनहित में निर्णय लेने की स्वतंत्रता मिली और ग्रामीण विकास को अधिक प्रभावी बनाने की दिशा में काम किया गया।


2. चुनावों की नियमितता:

73वें संशोधन के तहत यह सुनिश्चित किया गया कि पंचायत चुनाव प्रत्येक 5 वर्षों में नियमित रूप से कराए जाएं। किसी भी पंचायत को भंग किए जाने पर 6 महीने के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य कर दिया गया। इस प्रावधान के माध्यम से पंचायतों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुनिश्चित किया गया और लोगों की भागीदारी को बढ़ावा दिया गया।


3. अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षण:

पंचायती राज संस्थाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए उनके जनसंख्या अनुपात के अनुसार सीटों का आरक्षण सुनिश्चित किया गया। साथ ही, महिलाओं के लिए पंचायतों में एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गईं, जिससे महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा मिला और ग्रामीण शासन में लैंगिक समानता स्थापित करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम था।


4. वित्त आयोग का गठन:

संशोधन में राज्य स्तर पर वित्त आयोग के गठन का प्रावधान किया गया, जो पंचायतों को वित्तीय संसाधन आवंटित करने और उनकी वित्तीय स्थिति में सुधार लाने के लिए अनुशंसाएँ करता है। इससे पंचायतों को वित्तीय रूप से सशक्त बनाने की दिशा में कदम उठाया गया।


5. ग्राम सभा का सशक्तिकरण:

ग्राम सभा को पंचायतों की सर्वोच्च संस्था माना गया है। ग्राम सभा में गाँव के सभी वयस्क मतदाता शामिल होते हैं और यह सभा विभिन्न विकास कार्यों की निगरानी करती है। ग्राम सभा के माध्यम से जनता की सहभागिता सुनिश्चित होती है और ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतंत्र को सशक्त बनाया जाता है।


6. अधिकारों और कर्तव्यों का निर्धारण:

73वें संशोधन के तहत पंचायतों को 29 विषयों पर निर्णय लेने और योजनाएँ बनाने का अधिकार दिया गया। इसमें कृषि, सिंचाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, और ग्रामीण विकास जैसे महत्वपूर्ण विषय शामिल हैं। पंचायतों को विकास योजनाएँ बनाने, उनका क्रियान्वयन करने और उनके लिए वित्तीय संसाधन जुटाने की स्वतंत्रता दी गई।


7. राज्य निर्वाचन आयोग का गठन:

पंचायत चुनावों के स्वतंत्र और निष्पक्ष संचालन के लिए राज्य स्तर पर एक स्वतंत्र राज्य निर्वाचन आयोग का गठन किया गया। यह आयोग पंचायतों के चुनावों की देखरेख करता है और यह सुनिश्चित करता है कि चुनाव निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से संपन्न हों।


8. अनुच्छेद 40 का पालन:

संविधान के अनुच्छेद 40 के तहत यह प्रावधान किया गया था कि राज्य पंचायतों का गठन करेगा और उन्हें स्वशासन की शक्तियाँ प्रदान करेगा। 73वें संशोधन के माध्यम से इस अनुच्छेद का पालन करते हुए पंचायतों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।


73वें संविधान संशोधन ने ग्रामीण स्वशासन को सशक्त बनाने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गहरा करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को अधिक अधिकार, वित्तीय संसाधन, और प्रशासनिक स्वतंत्रता मिली, जिससे ग्रामीण भारत का विकास और अधिक प्रभावी ढंग से संभव हो सका।


प्रश्न 2. नगरपालिका के प्रशासनिक ढाँचे का विस्तार से वर्णन कीजिए।


नगरपालिका एक स्थानीय स्वशासन की संस्था है, जिसका मुख्य उद्देश्य शहरों और कस्बों के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाना होता है। नगरपालिका का प्रशासनिक ढांचा विभिन्न स्तरों पर कार्य करता है, जो शहरी विकास, सार्वजनिक सेवाएँ, और नगर योजना को संचालित करता है।


नगरपालिका का प्रशासनिक ढाँचा:


1. नगर परिषद (Municipal Council):

यह नगरपालिका की सबसे महत्वपूर्ण और निर्वाचित निकाय होती है। नगर परिषद के सदस्य सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं और यह नगर प्रशासन के प्रमुख निर्णय लेने वाली संस्था होती है। नगर परिषद का अध्यक्ष, जिसे महापौर या अध्यक्ष कहा जाता है, परिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है और नगरपालिका के कार्यों का समन्वयन करता है।


2. महापौर (Mayor):

महापौर नगर परिषद का प्रमुख होता है और नगर के प्रतिनिधित्व का प्रमुख अधिकारी होता है। वह परिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है और नगरपालिका के कार्यों को संचालित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। महापौर नगर के विकास कार्यों की निगरानी करता है और नगरपालिका के अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के साथ मिलकर काम करता है।


3. कार्यकारी अधिकारी (Executive Officer):

यह अधिकारी नगर प्रशासन के कार्यों का संचालन करता है और नगर परिषद द्वारा लिए गए निर्णयों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करता है। कार्यकारी अधिकारी एक पेशेवर अधिकारी होता है, जो प्रशासनिक कार्यों में अनुभवी होता है। इसके अंतर्गत नगर के सभी विभागों का कामकाज आता है, जैसे स्वास्थ्य, सफाई, जलापूर्ति, सड़कें, और बुनियादी ढांचे का विकास।


4. विभागीय प्रमुख:

नगरपालिका के भीतर विभिन्न विभाग होते हैं, जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी और सफाई, बिजली, परिवहन, और बुनियादी ढांचा विकास। प्रत्येक विभाग का प्रमुख अधिकारी होता है, जो अपने विभाग के कार्यों की निगरानी करता है। इन विभागीय प्रमुखों के माध्यम से नगर के विभिन्न विकास कार्य और सेवाएँ संचालित की जाती हैं।


5. समितियाँ (Committees):

नगरपालिका के विभिन्न कार्यों को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए विशेष समितियों का गठन किया जाता है। ये समितियाँ विभिन्न विषयों पर काम करती हैं, जैसे वित्त, स्वास्थ्य, शिक्षा, और योजनाबद्ध विकास। प्रत्येक समिति में नगर परिषद के सदस्य शामिल होते हैं, जो अपने विशेष कार्यक्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हैं।


6. सचिवालय और प्रशासनिक अधिकारी:

सचिवालय नगरपालिका के प्रशासनिक ढांचे का महत्वपूर्ण अंग होता है, जो प्रशासनिक कामकाज को संभालता है। सचिवालय के अधिकारी नगर परिषद की बैठकों, निर्णयों, और योजनाओं का रिकॉर्ड रखते हैं। इसके अलावा, प्रशासनिक अधिकारी नगरपालिका के दैनिक कार्यों को देखते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि नगर के नागरिकों को समय पर सेवाएँ प्रदान की जाएं।


कार्य एवं कर्तव्य:


1. नागरिक सुविधाओं का प्रबंधन:

नगरपालिका का मुख्य कार्य नगर में रहने वाले लोगों को बुनियादी नागरिक सुविधाएँ उपलब्ध कराना होता है। इसमें जलापूर्ति, स्वच्छता, सड़कें, बिजली, और परिवहन जैसी सुविधाएँ शामिल हैं। इसके अलावा, नगरपालिका कचरा प्रबंधन, जल निकासी, और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का भी ध्यान रखती है।


2. नगर विकास योजनाएँ:

नगरपालिका नगर के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं का निर्माण करती है। इसमें शहर का विस्तार, नए आवासीय क्षेत्रों का विकास, और बुनियादी ढांचे का सुदृढ़ीकरण शामिल है। इसके तहत नए सड़कें, पुल, पार्क, और सार्वजनिक भवनों का निर्माण भी शामिल है।


3. कर संग्रहण:

नगरपालिका को कर संग्रह करने का अधिकार होता है। यह संपत्ति कर, जल कर, और अन्य सेवाओं के लिए शुल्क वसूलती है। इन करों से प्राप्त राशि का उपयोग नगर के विकास और नागरिक सेवाओं में सुधार के लिए किया जाता है।


4. नगर का नियमन:

नगरपालिका को नगर के नियमन का अधिकार होता है। यह भवन निर्माण, अतिक्रमण, और नगर की सुंदरता बनाए रखने के लिए विभिन्न नियम बनाती है। इसके तहत नगर में भवन निर्माण के लिए नियम और योजनाबद्ध विकास का ख्याल रखा जाता है।


नगरपालिका के प्रशासनिक ढांचे के माध्यम से नगर का समग्र विकास और नागरिकों के जीवन स्तर को सुधारने का प्रयास किया जाता है। यह स्थानीय शासन की एक महत्वपूर्ण संस्था है, जो शहरी क्षेत्रों के विकास और प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


प्रश्न 3. मुख्य सचिव के कार्यों का उल्लेख कीजिए।



मुख्य सचिव किसी भी राज्य सरकार का सबसे वरिष्ठ और महत्वपूर्ण प्रशासनिक अधिकारी होता है। वह राज्य सचिवालय का प्रमुख होता है और राज्य के समस्त प्रशासनिक कार्यों की निगरानी करता है। मुख्य सचिव की भूमिका राज्य सरकार और उसके विभिन्न विभागों के बीच समन्वय स्थापित करने की होती है, ताकि शासन के कार्यों का सुचारू संचालन हो सके।


मुख्य सचिव के प्रमुख कार्य:


1. प्रशासनिक समन्वय:

मुख्य सचिव राज्य के सभी प्रशासनिक विभागों के बीच समन्वय स्थापित करता है। वह विभिन्न विभागों के सचिवों से नियमित रूप से बातचीत करता है और सुनिश्चित करता है कि सरकार की नीतियाँ और योजनाएँ सभी विभागों में समान रूप से लागू हो रही हैं। यह प्रशासनिक प्रक्रिया को सुव्यवस्थित और अधिक प्रभावी बनाने के लिए महत्वपूर्ण होता है।


2. मुख्यमंत्री और मंत्रियों का सलाहकार:

मुख्य सचिव मुख्यमंत्री और राज्य के मंत्रियों का प्रमुख प्रशासनिक सलाहकार होता है। वह उन्हें विभिन्न प्रशासनिक मुद्दों, नीतियों, और योजनाओं के बारे में सलाह देता है। मुख्य सचिव राज्य की समग्र विकास योजनाओं का खाका तैयार करता है और मुख्यमंत्री को उनके कार्यान्वयन के संबंध में मार्गदर्शन देता है।


3. सचिवालय का संचालन:

राज्य सचिवालय के सभी कार्यों की देखरेख मुख्य सचिव के अधीन होती है। वह यह सुनिश्चित करता है कि सचिवालय का कार्य कुशलता से हो और सभी प्रशासनिक निर्णय समय पर लिए जाएं। सचिवालय के विभिन्न विभागों और शाखाओं के कामकाज का संचालन भी मुख्य सचिव की निगरानी में होता है।


4. कानून और व्यवस्था का निरीक्षण:

मुख्य सचिव राज्य की कानून और व्यवस्था की स्थिति पर भी नज़र रखता है। वह पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेंसियों के साथ मिलकर काम करता है ताकि राज्य में शांति और सुरक्षा बनी रहे। यदि राज्य में कोई आपातकालीन स्थिति उत्पन्न होती है, तो मुख्य सचिव उसका त्वरित समाधान ढूंढने के लिए सक्रिय भूमिका निभाता है।


5. राज्य के वित्तीय मामलों का निरीक्षण:

मुख्य सचिव राज्य के वित्तीय मामलों की निगरानी भी करता है। वह राज्य के बजट की योजना बनाने, वित्तीय संसाधनों के आवंटन, और विभिन्न परियोजनाओं के लिए धन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके साथ ही, वह वित्त विभाग के साथ मिलकर राज्य की वित्तीय स्थिति का आकलन करता है और राज्य की आर्थिक नीतियों का निर्माण करता है।


6. महत्वपूर्ण सरकारी नीतियों का कार्यान्वयन:

राज्य सरकार की विभिन्न नीतियों और योजनाओं का कार्यान्वयन मुख्य सचिव की जिम्मेदारी होती है। वह सुनिश्चित करता है कि सभी सरकारी योजनाएँ जमीनी स्तर पर प्रभावी ढंग से लागू हो रही हैं और उनके माध्यम से राज्य के विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा रहा है।


7. आपातकालीन प्रबंधन:

आपातकाल की स्थिति में, जैसे प्राकृतिक आपदा, दंगे, या अन्य संकटों के समय, मुख्य सचिव राज्य सरकार के आपातकालीन प्रबंधन दल का नेतृत्व करता है। वह राज्य में आवश्यक कदम उठाने, राहत कार्यों का संचालन, और आपदा प्रबंधन के उपायों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।


8. सरकार और न्यायपालिका के बीच समन्वय:

मुख्य सचिव सरकार और न्यायपालिका के बीच समन्वय स्थापित करता है। वह विभिन्न न्यायिक मामलों पर राज्य सरकार की नीतियों का प्रतिनिधित्व करता है और सुनिश्चित करता है कि न्यायिक आदेशों का पालन किया जा रहा है।


मुख्य सचिव राज्य शासन की रीढ़ होता है। उसकी भूमिका न केवल प्रशासनिक कार्यों के संचालन तक सीमित होती है, बल्कि राज्य की समग्र प्रगति और विकास में भी महत्वपूर्ण होती है।


प्रश्न 4. राष्ट्रपति के आपातकालीन शक्तियों की चर्चा करें।


भारतीय संविधान के तहत, राष्ट्रपति को आपातकाल घोषित करने की शक्ति दी गई है। आपातकाल की घोषणा तीन प्रकार की परिस्थितियों में की जा सकती है - राष्ट्रीय आपातकाल, राज्य आपातकाल (राष्ट्रपति शासन), और वित्तीय आपातकाल। आपातकालीन शक्तियाँ राष्ट्रपति को ऐसे समय में मिलती हैं जब देश या किसी राज्य में असाधारण परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, और सामान्य शासन तंत्र से उन पर काबू पाना कठिन होता है। आइए, इन तीनों आपातकालीन शक्तियों पर विस्तार से चर्चा करते हैं:


1. राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)

राष्ट्रीय आपातकाल तब घोषित किया जा सकता है जब देश की सुरक्षा को युद्ध, बाहरी आक्रमण, या आंतरिक विद्रोह के कारण खतरा हो। इसका प्रभाव संपूर्ण देश या किसी विशेष क्षेत्र पर हो सकता है। इसके कुछ मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं:


घोषणा की प्रक्रिया: राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा राष्ट्रपति तब कर सकते हैं जब उन्हें ऐसा लगता है कि देश की सुरक्षा पर गंभीर खतरा है। हालांकि, राष्ट्रपति को यह घोषणा केवल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही करनी होती है।


मूल अधिकारों का निलंबन: आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों (विशेषकर अनुच्छेद 19 के अधिकारों) को निलंबित किया जा सकता है। संसद को राज्यों के सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है, भले ही वह राज्य सूची में आते हों।


कार्यकाल और समीक्षा: राष्ट्रीय आपातकाल की अवधि शुरू में अधिकतम 6 महीने के लिए होती है। इसे बार-बार 6-6 महीने के लिए बढ़ाया जा सकता है, लेकिन संसद की स्वीकृति आवश्यक होती है।


2. राज्य आपातकाल या राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356)

यह तब लागू किया जाता है जब किसी राज्य में संविधानिक तंत्र विफल हो जाता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य करने में असमर्थ होती है। इस स्थिति में, राष्ट्रपति उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकते हैं। इसके कुछ मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं:


घोषणा की प्रक्रिया: राज्यपाल की रिपोर्ट या किसी अन्य विश्वसनीय स्रोत से राष्ट्रपति को यह जानकारी मिलती है कि राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य नहीं कर रही है, तो वह अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन घोषित कर सकते हैं।


कार्यकाल और समीक्षा: राज्य आपातकाल अधिकतम 6 महीने तक चल सकता है, लेकिन इसे 3 साल तक बढ़ाया जा सकता है। हर 6 महीने में संसद से इसकी मंजूरी लेनी पड़ती है।


परिणाम: राष्ट्रपति शासन लागू होने पर राज्य की विधान सभा भंग या निलंबित कर दी जाती है। राष्ट्रपति राज्य के प्रशासन की जिम्मेदारी केंद्र सरकार को सौंपते हैं और राज्यपाल को कार्यकारी प्रमुख नियुक्त किया जाता है।


3. वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)

यह तब लागू किया जाता है जब देश की वित्तीय स्थिरता को गंभीर खतरा हो। अब तक भारत में वित्तीय आपातकाल कभी लागू नहीं हुआ है, लेकिन संविधान में इसका प्रावधान है। इसके मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं:


घोषणा की प्रक्रिया: जब राष्ट्रपति को यह लगता है कि देश की वित्तीय स्थिरता को खतरा है, तो वह वित्तीय आपातकाल घोषित कर सकते हैं। इसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ता है।


परिणाम: वित्तीय आपातकाल के दौरान केंद्र सरकार को सभी राज्य सरकारों के वित्तीय मामलों पर पूर्ण नियंत्रण मिल जाता है। राष्ट्रपति सभी सरकारी कर्मचारियों के वेतन में कटौती कर सकते हैं और राज्य सरकारों के वित्तीय निर्णयों पर रोक लगा सकते हैं।


आपातकाल के प्रभाव और आलोचना:

आपातकालीन शक्तियाँ भारतीय संविधान में सरकार को ऐसे असाधारण समय में देश को बचाने के लिए दी गई हैं जब सामान्य शासन तंत्र काम नहीं करता। हालांकि, 1975-77 के दौरान राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा और उसके बाद हुए दमनकारी कदमों के कारण इन शक्तियों का दुरुपयोग होने की संभावना को लेकर व्यापक आलोचना हुई। उस समय के आपातकाल में प्रेस की स्वतंत्रता पर रोक लगाई गई थी, राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाला गया था, और कई नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। इसलिए, आपातकाल की घोषणाओं में संसद और न्यायपालिका की भूमिका बढ़ाने के लिए संशोधन किए गए।


निष्कर्ष:

राष्ट्रपति के पास आपातकालीन शक्तियाँ असाधारण परिस्थितियों में देश की सुरक्षा और संविधान की रक्षा के लिए दी गई हैं। इन शक्तियों का सही इस्तेमाल संकट की स्थिति में देश की सुरक्षा और एकता को बनाए रखने के लिए आवश्यक हो सकता है, लेकिन इनका दुरुपयोग भी लोकतांत्रिक संस्थाओं और नागरिक अधिकारों के लिए खतरा हो सकता है। इसी वजह से, आपातकालीन घोषणाओं को सीमित और जिम्मेदार तरीके से लागू करने की आवश्यकता होती है।


5. भारत में स्थानीय स्वशासन के विकास पर एक लेख लिखिए।

भारत में स्थानीय स्वशासन की अवधारणा प्राचीन काल से चली आ रही है। प्राचीन समय में गाँवों में स्वशासन की प्रणाली विद्यमान थी, जहाँ लोग अपने गाँव की समस्याओं का समाधान स्वयं करते थे। स्वतंत्रता के बाद, स्थानीय स्वशासन की इस प्रणाली को औपचारिक रूप से संविधान में शामिल किया गया और इसे अधिक सशक्त और संगठित रूप में प्रस्तुत किया गया। आधुनिक भारत में स्थानीय स्वशासन का विकास पंचायती राज और नगरपालिका प्रणालियों के रूप में हुआ है, जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


प्राचीन भारत में स्थानीय स्वशासन:

प्राचीन भारत में गाँव स्वायत्त इकाइयाँ थीं। "ग्रामसभा" और "पंचायत" जैसी संस्थाएँ थीं, जो गाँव के प्रशासन, न्याय, और विकास कार्यों की देखरेख करती थीं। यह स्थानीय शासन की पहली अवधारणा थी, जहाँ लोग अपने समुदाय के साथ मिलकर समस्याओं का समाधान करते थे और प्रशासनिक निर्णय लेते थे।


ब्रिटिश शासन के दौरान स्थानीय स्वशासन:

ब्रिटिश शासन के दौरान स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था को कमजोर किया गया। हालांकि, कुछ सुधार भी हुए। 1882 में लॉर्ड रिपन द्वारा "स्वायत्त निकाय" की अवधारणा को बढ़ावा देने के लिए स्थानीय निकायों के गठन की दिशा में पहला कदम उठाया गया। इसे "स्थानीय स्वशासन का जनक" भी कहा जाता है। इसके तहत नगरपालिका समितियों और जिला बोर्डों का गठन किया गया, लेकिन ये निकाय प्रभावी नहीं थे क्योंकि उनके पास सीमित अधिकार और संसाधन थे।


स्वतंत्रता के बाद स्थानीय स्वशासन का विकास:

भारत की स्वतंत्रता के बाद, स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक रूप से मान्यता देने और इसे अधिक सशक्त बनाने के लिए कई प्रयास किए गए। महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज की अवधारणा को बढ़ावा दिया, जिसके तहत गाँवों को आत्मनिर्भर और स्वशासी बनाने की परिकल्पना की गई। संविधान सभा ने भी इस दिशा में कई प्रयास किए और अनुच्छेद 40 में पंचायती राज संस्थाओं के गठन का प्रावधान किया गया।


पंचायती राज व्यवस्था का विकास:

1957 में बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत हुई। इस समिति ने त्रि-स्तरीय पंचायत व्यवस्था का सुझाव दिया, जिसमें ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, और जिला परिषद शामिल थे। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय शासन को सशक्त बनाना और लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित करना था।


1992 में 73वें संविधान संशोधन के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया। इस संशोधन ने पंचायतों को अधिक अधिकार, नियमित चुनाव, आरक्षण, और वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित की। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय शासन को मजबूती मिली।


नगरपालिका प्रणाली का विकास:

शहरी क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन के लिए नगरपालिका प्रणाली का विकास हुआ। 1992 में 74वें संविधान संशोधन के तहत नगरपालिका संस्थाओं को भी संवैधानिक मान्यता दी गई। इसके तहत नगर पालिकाओं और नगर निगमों को शहरी क्षेत्रों में स्वायत्त शासन की शक्तियाँ दी गईं। इन संस्थाओं के माध्यम से शहरी विकास, जलापूर्ति, स्वच्छता, सड़कें, और अन्य शहरी सेवाओं का प्रबंधन किया जाता है।


स्थानीय स्वशासन का महत्व:

स्थानीय स्वशासन का मुख्य उद्देश्य लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना और उन्हें अपने क्षेत्र की समस्याओं के समाधान में सक्षम बनाना है। यह प्रणाली न केवल लोगों की जरूरतों को समझने में मदद करती है, बल्कि शासन को अधिक पारदर्शी और उत्तरदायी भी बनाती है।


स्थानीय स्वशासन के माध्यम से विकास कार्यों का विकेंद्रीकरण होता है, जिससे जमीनी स्तर पर लोगों की समस्याओं का त्वरित समाधान संभव हो पाता है। पंचायती राज और नगरपालिका प्रणालियों के माध्यम से शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, और बुनियादी सुविधाओं का विकास होता है, जिससे समग्र सामाजिक-आर्थिक विकास संभव हो पाता है।


निष्कर्ष:

भारत में स्थानीय स्वशासन की अवधारणा ने स्वतंत्रता के बाद एक नई दिशा प्राप्त की है। पंचायती राज और नगरपालिका संस्थाएँ आज भारत के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में विकास और शासन की रीढ़ बन चुकी हैं। हालांकि, इन संस्थाओं को अभी भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जैसे कि वित्तीय संसाधनों की कमी, भ्रष्टाचार, और प्रशासनिक ढाँचे की जटिलता। फिर भी, इन चुनौतियों के बावजूद, स्थानीय स्वशासन भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत करने का महत्वपूर्ण माध्यम बना हुआ है।




प्रश्न 6. मंत्रिमंडल की शक्तियों पर प्रकाश डालिए।



भारत में संसदीय प्रणाली के अंतर्गत मंत्रिमंडल (कैबिनेट) सरकार की सर्वोच्च कार्यकारी संस्था है, जो देश के शासन और प्रशासन की जिम्मेदारी निभाती है। मंत्रिमंडल का नेतृत्व प्रधानमंत्री करता है और इसके अन्य सदस्य केंद्रीय मंत्री होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 74 और 75 के अनुसार, मंत्रिमंडल की शक्ति और भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मंत्रिमंडल के पास विभिन्न शक्तियाँ होती हैं, जिनका प्रयोग देश के शासन और नीतियों को तय करने के लिए किया जाता है। आइए, मंत्रिमंडल की प्रमुख शक्तियों पर विस्तार से चर्चा करें:


1. नीति निर्धारण की शक्ति: मंत्रिमंडल की सबसे प्रमुख शक्ति यह है कि यह देश के नीति निर्धारण का कार्य करता है। कैबिनेट न केवल घरेलू नीतियों को बनाता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों, रक्षा नीतियों, आर्थिक सुधारों, और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी नीतियाँ तैयार करता है। सरकार की संपूर्ण कार्यप्रणाली, विकास योजनाओं, और प्रशासनिक सुधारों को लागू करने की जिम्मेदारी मंत्रिमंडल की होती है।


2. विधायी शक्ति: मंत्रिमंडल के पास विधायी प्रक्रियाओं को आरंभ करने की शक्ति होती है। सरकार के सभी महत्वपूर्ण विधेयक कैबिनेट की स्वीकृति के बाद संसद में पेश किए जाते हैं। यह संसद को नीतिगत दिशा देता है और विधेयकों के माध्यम से देश के कानूनों का निर्माण करता है। मंत्रिमंडल नीतियों को लागू करने के लिए अध्यादेश जारी करने का भी अधिकार रखता है, जो संसद के अगले सत्र तक वैध होते हैं।


3. वित्तीय शक्ति: मंत्रिमंडल देश की वित्तीय नीतियों का निर्धारण करता है और संसद में वार्षिक बजट पेश करता है। बजट के अंतर्गत सरकार के राजस्व और व्यय का प्रबंधन किया जाता है, जिसमें कर प्रणाली, सरकारी योजनाएँ, और आर्थिक सुधार शामिल होते हैं। कैबिनेट सरकार की सभी आर्थिक नीतियों का संचालन करता है और संसाधनों का वितरण करता है।


4. कार्यकारी शक्ति: मंत्रिमंडल प्रशासनिक निर्णयों का भी संचालन करता है। इसका मुख्य कार्य देश के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के कामकाज की निगरानी करना है। मंत्रिमंडल यह सुनिश्चित करता है कि सभी नीतियाँ और योजनाएँ प्रभावी रूप से लागू हो रही हैं। इसके अलावा, देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा का दायित्व भी मंत्रिमंडल के पास होता है।


5. रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा: मंत्रिमंडल देश की रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय लेता है। यह रक्षा बजट, सैन्य रणनीतियों, और सुरक्षा नीतियों को निर्धारित करता है। देश में आपातकालीन स्थितियों में (जैसे युद्ध या आंतरिक अशांति) मंत्रिमंडल की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि यह सुरक्षा एजेंसियों और सैन्य बलों के साथ मिलकर स्थिति का नियंत्रण करता है।


6. नियुक्ति और प्रशासनिक नियंत्रण: मंत्रिमंडल के पास विभिन्न उच्च-स्तरीय नियुक्तियों का अधिकार होता है। राष्ट्रपति, राज्यपाल, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, और अन्य संवैधानिक पदों पर नियुक्तियाँ मंत्रिमंडल की सिफारिश पर होती हैं। इसके साथ ही, मंत्रिमंडल प्रशासनिक अधिकारियों और विभागों के कार्यों पर भी नियंत्रण रखता है और प्रशासनिक सुधारों को लागू करता है।


7. आपातकालीन शक्तियाँ: आपातकाल के समय में, जैसे युद्ध, आंतरिक संकट, या आर्थिक संकट के दौरान, मंत्रिमंडल विशेष शक्तियों का प्रयोग करता है। यह आपातकाल घोषित करने और आपातकालीन नीतियों को लागू करने का निर्णय लेता है। मंत्रिमंडल के आपातकालीन निर्णयों के तहत, नागरिक अधिकारों पर भी अस्थायी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।


8. संसदीय उत्तरदायित्व: मंत्रिमंडल को संसद के प्रति उत्तरदायी माना जाता है। यदि सरकार के किसी निर्णय या नीति के संबंध में संसद की असहमति होती है, तो मंत्रिमंडल को संसद में बहुमत बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ता है। मंत्रिमंडल के फैसलों पर संसद में बहस होती है और उसे संसद के सामने अपने कार्यों का स्पष्टीकरण देना पड़ता है। इसके अलावा, यदि मंत्रिमंडल का बहुमत खो जाता है, तो इसे इस्तीफा देना पड़ता है।


9. न्यायिक मामलों में भूमिका: मंत्रिमंडल न्यायिक नियुक्तियों और न्यायालयों के कामकाज पर निगरानी रखने में भी भूमिका निभाता है। यह संविधान और कानूनों के अनुसार न्यायपालिका के साथ समन्वय करता है और न्यायिक सुधारों के प्रस्ताव देता है। इसके साथ ही, कैबिनेट न्यायिक निर्णयों का अध्ययन करके उनके प्रभाव का आकलन करता है।


निष्कर्ष:

मंत्रिमंडल भारतीय शासन प्रणाली का हृदय है, जो देश की नीतियों, कानूनों, और योजनाओं का निर्माण करता है। कैबिनेट के निर्णय देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सुरक्षा स्थिति को प्रभावित करते हैं। मंत्रिमंडल की शक्तियाँ न केवल प्रशासनिक क्षेत्र में सीमित होती हैं, बल्कि इसका प्रभाव देश की आंतरिक और बाहरी नीति निर्धारण में भी होता है। इसके अलावा, संसद के प्रति उत्तरदायित्व मंत्रिमंडल को लोकतांत्रिक और पारदर्शी बनाए रखता है, जिससे शासन का हर निर्णय जनहित में हो।


प्रश्न 7 . 74वें संविधान संशोधन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।


1992 में किए गए 74वें संविधान संशोधन के तहत नगरपालिकाओं और नगर निगमों को अधिक शक्ति और स्वायत्तता प्रदान की गई। इसका उद्देश्य शहरी क्षेत्रों में स्थानीय शासन प्रणाली को सुदृढ़ करना था, जिससे शहरी विकास को तेजी से बढ़ावा मिल सके। इस संशोधन के तहत नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया और उनकी कार्यप्रणाली को अधिक पारदर्शी, सशक्त और जवाबदेह बनाने का प्रयास किया गया। 74वें संविधान संशोधन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:


1. नगरपालिकाओं का गठन:

इस संशोधन के अनुसार, राज्यों को अपने शहरी क्षेत्रों में तीन प्रकार की नगरपालिकाओं का गठन करना अनिवार्य कर दिया गया:


नगर पंचायत: वे क्षेत्र जो संक्रमण कालीन क्षेत्र में आते हैं, यानी जो ग्रामीण से शहरी क्षेत्र में परिवर्तित हो रहे हैं।

नगर पालिका: छोटे शहरी क्षेत्र।

नगर निगम: बड़े शहरी क्षेत्र।

यह संशोधन यह सुनिश्चित करता है कि सभी शहरी क्षेत्रों में नागरिकों के प्रतिनिधित्व वाली नगरपालिकाएँ हों, जो उनके क्षेत्र की स्थानीय समस्याओं का समाधान करें।


2. नियमित चुनाव:

नगरपालिकाओं के चुनाव हर पाँच साल में नियमित रूप से कराने का प्रावधान किया गया है। पहले, चुनावों को स्थगित किया जा सकता था या मनमाने ढंग से संचालित किया जाता था, लेकिन इस संशोधन के तहत यह सुनिश्चित किया गया कि स्थानीय शासन निकायों के चुनाव समयबद्ध और पारदर्शी तरीके से हों।


3. सीटों का आरक्षण:

नगरपालिकाओं में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण प्रदान किया गया। विशेष रूप से महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित की गईं, ताकि वे भी स्थानीय शासन में सक्रिय रूप से भाग ले सकें और शहरी विकास में अपना योगदान दे सकें। इसके अतिरिक्त, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए भी उनके जनसंख्या अनुपात के अनुसार आरक्षण की व्यवस्था की गई।


4. नगरपालिकाओं के अधिकार और कार्य:

संशोधन के अनुसार, नगरपालिकाओं को 12वीं अनुसूची में सूचीबद्ध 18 कार्य दिए गए हैं। इनमें शहरी नियोजन, जलापूर्ति, स्वच्छता, सड़कों की मरम्मत, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, शहरी गरीबी उन्मूलन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, और शहरी क्षेत्रों के विकास से जुड़े अन्य कार्य शामिल हैं। यह संशोधन सुनिश्चित करता है कि नगरपालिकाएँ अपने अधिकारों के तहत शहरी क्षेत्रों के विकास और प्रशासन के लिए जवाबदेह हों।


5. राज्य वित्त आयोग का गठन:

74वें संशोधन के अनुसार, प्रत्येक राज्य को एक राज्य वित्त आयोग का गठन करना आवश्यक है, जो नगरपालिकाओं के वित्तीय संसाधनों के आवंटन के लिए सुझाव देगा। राज्य वित्त आयोग यह सुनिश्चित करेगा कि नगरपालिकाओं को उनके कार्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन प्राप्त हों। यह संसाधन कर, शुल्क, और अनुदान के रूप में प्रदान किए जाते हैं।


6. नगरपालिकाओं की योजना और आर्थिक विकास:

नगरपालिकाओं को उनके क्षेत्रों के विकास के लिए योजना बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इसके लिए नगरपालिकाएँ एक योजना समिति का गठन करती हैं, जो शहरी विकास की समग्र योजना तैयार करती है। यह योजना सामाजिक, आर्थिक, और भौतिक विकास को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाती है, ताकि शहरी क्षेत्रों में समग्र विकास हो सके।


7. नगरपालिकाओं की वित्तीय स्वतंत्रता:

नगरपालिकाओं को अपने वित्तीय संसाधनों को जुटाने के अधिकार भी दिए गए हैं। वे संपत्ति कर, जल कर, और अन्य स्थानीय करों के माध्यम से अपने क्षेत्र की आय का प्रबंधन कर सकते हैं। इसके अलावा, राज्य और केंद्र सरकार से अनुदान भी प्राप्त होते हैं। वित्तीय स्वतंत्रता से नगरपालिकाओं को अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से लागू करने की स्वतंत्रता मिलती है।


निष्कर्ष:

74वें संविधान संशोधन ने भारत के शहरी शासन में एक महत्वपूर्ण बदलाव लाया। इसने नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान कर उन्हें सशक्त और स्वतंत्र बनाया, जिससे शहरी क्षेत्रों में स्थानीय शासन और विकास को बढ़ावा मिला। अब, नगरपालिकाएँ शहरी विकास की योजनाओं को लागू करने और नागरिकों की समस्याओं का समाधान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। यह संशोधन शहरी विकास को अधिक लोकतांत्रिक और उत्तरदायी बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो भविष्य में भारतीय शहरों के विकास को और भी मजबूत बनाएगा।




प्रश्न 8. बलवंत राय मेहता समिति के उद्देश्य व इसके प्रतिवेदन को समझाइए।


बलवंत राय मेहता समिति का गठन 1957 में भारतीय ग्रामीण प्रशासन और पंचायती राज की आवश्यकताओं की समीक्षा करने के लिए किया गया था। इसका प्रमुख उद्देश्य यह जानना था कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम और राष्ट्रीय विस्तार सेवा जैसी योजनाएँ कितनी सफल रही हैं और ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए किस प्रकार की सुधारात्मक योजनाओं की आवश्यकता है। समिति की सिफारिशों ने भारतीय पंचायती राज प्रणाली की नींव रखी और ग्रामीण स्वशासन को सशक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


समिति के गठन का उद्देश्य:


बलवंत राय मेहता समिति का गठन सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन और स्थानीय प्रशासन के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों के विकास को तेज करने के उद्देश्य से किया गया था। सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत 1952 में की गई थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में समग्र विकास लाना था। हालांकि, यह पाया गया कि ये कार्यक्रम अपेक्षित परिणाम नहीं दे रहे थे। ऐसे में, यह आवश्यक हो गया था कि इन योजनाओं के कार्यान्वयन की समीक्षा की जाए और उनका मूल्यांकन किया जाए कि कैसे प्रशासनिक व्यवस्था को अधिक प्रभावी और उत्तरदायी बनाया जा सकता है। इस संदर्भ में, बलवंत राय मेहता समिति का गठन हुआ।


समिति के उद्देश्य निम्नलिखित थे:


सामुदायिक विकास कार्यक्रम की समीक्षा: समिति का मुख्य उद्देश्य सामुदायिक विकास कार्यक्रम की प्रगति की समीक्षा करना और यह जानना था कि क्या यह कार्यक्रम ग्रामीण विकास के लक्ष्यों को पूरा कर रहा है।


कार्यक्रमों की असफलता के कारणों की पहचान: समिति का कार्य यह समझना था कि सामुदायिक विकास और राष्ट्रीय विस्तार सेवा जैसी योजनाओं की असफलता के पीछे क्या कारण हैं। इसके अलावा, यह भी देखना था कि क्या इन योजनाओं का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुँच पा रहा है या नहीं।


ग्रामीण प्रशासन के सुधार के सुझाव देना: समिति का उद्देश्य यह जानना था कि किस प्रकार के संस्थागत ढाँचे की आवश्यकता है, जो न केवल योजनाओं का क्रियान्वयन कर सके, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में जनता की अधिकतम भागीदारी भी सुनिश्चित कर सके।


स्थानीय स्वशासन की संभावनाओं की जाँच: समिति को यह जाँचने का कार्य भी सौंपा गया था कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन को किस प्रकार से सुदृढ़ किया जा सकता है, ताकि गाँवों का प्रबंधन ग्रामीणों के हाथों में हो और वे स्वयं अपने विकास के लिए निर्णय ले सकें।


समिति की सिफारिशें:


बलवंत राय मेहता समिति ने अपने प्रतिवेदन में कई महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं, जिनका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना करना था। समिति की प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित थीं:


त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली की स्थापना: समिति ने त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की, जिसमें तीन स्तर होंगे - ग्राम पंचायत (गाँव स्तर), पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर), और जिला परिषद (जिला स्तर)। यह व्यवस्था यह सुनिश्चित करेगी कि ग्रामीण जनता को अपने विकास के निर्णय लेने में अधिक भागीदारी मिले और वे स्थानीय स्तर पर अपने मुद्दों को हल कर सकें।


ग्राम पंचायत को सशक्त करना: समिति ने यह सिफारिश की कि ग्राम पंचायतें अपने स्तर पर विकास कार्यक्रमों को लागू करने में सक्षम होनी चाहिए। उनके पास अपने संसाधनों का प्रबंधन करने और कर लगाने की शक्ति होनी चाहिए, ताकि वे अपने गाँव के विकास के लिए वित्तीय रूप से स्वतंत्र हो सकें।


पंचायत समिति की भूमिका: पंचायत समिति को ब्लॉक स्तर पर विकास कार्यों का नियोजन और कार्यान्वयन करना चाहिए। समिति ने सिफारिश की कि ब्लॉक स्तर पर विकास कार्यक्रमों का समन्वय पंचायत समिति द्वारा किया जाए, जिसमें ब्लॉक स्तर के अधिकारी और जनप्रतिनिधि सम्मिलित हों।


जिला परिषद को सर्वोच्च निकाय बनाना: समिति ने सुझाव दिया कि जिला परिषद जिला स्तर पर पंचायती राज प्रणाली की सर्वोच्च इकाई होनी चाहिए, जो समस्त विकास योजनाओं का पर्यवेक्षण और क्रियान्वयन सुनिश्चित करे। जिला परिषद जिला स्तर के सभी विकास कार्यों की निगरानी करेगा और पंचायत समिति और ग्राम पंचायतों के कामकाज को भी देखेगा।


जनप्रतिनिधियों की भागीदारी: समिति ने सिफारिश की कि पंचायती राज संस्थाओं में अधिकतम जनप्रतिनिधियों की भागीदारी होनी चाहिए। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ग्रामीण स्तर पर भी मजबूती मिलेगी और लोगों को अपने मुद्दों को उठाने और हल करने का अवसर मिलेगा।


वित्तीय सशक्तिकरण: समिति ने पंचायतों को वित्तीय रूप से सशक्त करने की सिफारिश की। इसका मतलब था कि उन्हें अपने कर लगाने के अधिकार मिलें और राज्य सरकारें उन्हें वित्तीय सहायता प्रदान करें। इसके साथ ही, विकास योजनाओं के लिए पंचायतों को राज्य और केंद्र सरकारों से अनुदान प्राप्त हो।


प्रशासनिक सुधार: पंचायती राज संस्थाओं में प्रशासनिक सुधार लाने की भी सिफारिश की गई, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि पंचायतें अपने कार्यों का कुशलतापूर्वक संचालन कर सकें। इसके तहत, पंचायती राज संस्थाओं के कर्मियों को प्रशिक्षण प्रदान करने और उनका क्षमता निर्माण करने पर जोर दिया गया।


समिति के प्रतिवेदन का प्रभाव:


बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर 1959 में राजस्थान के नागौर जिले में पहली बार पंचायती राज प्रणाली को लागू किया गया। इसके बाद कई अन्य राज्यों ने भी पंचायती राज व्यवस्था को अपनाया। इस समिति की सिफारिशों ने भारत में ग्रामीण स्वशासन को एक मजबूत आधार प्रदान किया और इससे पंचायती राज संस्थाओं का विकास हुआ। पंचायती राज प्रणाली के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सशक्त किया गया और स्थानीय शासन को अधिक प्रभावी और उत्तरदायी बनाया गया।


निष्कर्ष:


बलवंत राय मेहता समिति ने भारतीय ग्रामीण प्रशासन और पंचायती राज प्रणाली के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसने यह सुनिश्चित किया कि ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की योजनाएँ स्थानीय स्तर पर जनता की भागीदारी से संचालित हों। इसकी

 सिफारिशों के आधार पर भारत में पंचायती राज की शुरुआत हुई, जो आज ग्रामीण क्षेत्रों के विकास और स्वशासन का महत्वपूर्ण अंग बन चुका है।