BAEC(N)201 महत्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर 2025 बीए तृतीय सेमेस्टर

 BAEC(N)201 महत्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर 2025 बीए तृतीय सेमेस्टर 



प्रश्न 01 आधुनिक राज्यों के आर्थिक क्रियाओं की रचना कीजिए।

आधुनिक राज्यों के आर्थिक क्रियाओं की रचना
आधुनिक राज्य केवल कानून और व्यवस्था बनाए रखने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे विभिन्न आर्थिक क्रियाओं में सक्रिय भागीदारी भी निभाते हैं। राज्य की आर्थिक भूमिका का विस्तार औद्योगीकरण, वैश्वीकरण और डिजिटल युग के साथ तेजी से बढ़ा है। राज्य की आर्थिक क्रियाएँ मुख्य रूप से नागरिकों के कल्याण, आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से संचालित की जाती हैं।

1. आर्थिक क्रियाओं की परिभाषा
राज्य की आर्थिक क्रियाएँ वे गतिविधियाँ हैं जिन्हें सरकार अर्थव्यवस्था के संचालन, नियंत्रण और विकास के लिए करती है। इन क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य आर्थिक स्थिरता, वृद्धि और समानता सुनिश्चित करना होता है।

2. आधुनिक राज्यों की आर्थिक क्रियाएँ
(i) नियोजन और आर्थिक विकास
आधुनिक राज्य विभिन्न आर्थिक योजनाओं के माध्यम से देश के समग्र विकास का मार्गदर्शन करता है। उदाहरण के लिए, भारत में पंचवर्षीय योजनाएँ आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई थीं।

(ii) सार्वजनिक क्षेत्र और बुनियादी ढांचे का विकास
राज्य सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को संचालित करता है, जो ऊर्जा, परिवहन, संचार, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी आवश्यक सेवाओं के विकास में सहायक होते हैं।

(iii) कराधान और राजस्व संग्रहण
राज्य करों के माध्यम से राजस्व एकत्र करता है, जिससे वह सार्वजनिक सेवाओं और कल्याणकारी योजनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करता है।

(iv) आर्थिक असमानता को कम करना
राज्य धन के पुनर्वितरण की नीति अपनाकर अमीर और गरीब के बीच की असमानता को कम करने का प्रयास करता है। इसके लिए सब्सिडी, सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ, न्यूनतम वेतन और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम लागू किए जाते हैं।

(v) मुद्रास्फीति और बेरोजगारी पर नियंत्रण
सरकार आर्थिक नीतियों और मौद्रिक उपायों के माध्यम से मुद्रास्फीति को नियंत्रित करती है। साथ ही, रोजगार सृजन के लिए विभिन्न योजनाएँ लागू की जाती हैं।

(vi) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और निवेश
आधुनिक राज्य निर्यात और आयात को नियंत्रित करता है और विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करता है ताकि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया जा सके।

(vii) पर्यावरणीय संरक्षण
राज्य पर्यावरणीय स्थिरता को बनाए रखने के लिए उद्योगों पर कड़े नियम लागू करता है, जिससे सतत विकास को सुनिश्चित किया जा सके।

(viii) डिजिटलीकरण और तकनीकी विकास
आधुनिक अर्थव्यवस्था में सूचना प्रौद्योगिकी का बढ़ता महत्व देखते हुए, राज्य डिजिटल भारत जैसी योजनाएँ लागू कर रहा है जिससे ई-गवर्नेंस और डिजिटल भुगतान को बढ़ावा मिले।

3. निष्कर्ष
आधुनिक राज्य की आर्थिक क्रियाएँ बहुआयामी और समाज के व्यापक हित में होती हैं। यह केवल आर्थिक विकास तक सीमित नहीं हैं, बल्कि सामाजिक कल्याण, पर्यावरणीय संतुलन और तकनीकी नवाचार को भी प्रोत्साहित करती हैं। वैश्वीकरण के दौर में राज्यों की आर्थिक भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है, जिससे वे न केवल आंतरिक रूप से बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी आर्थिक नीतियों का निर्माण कर रहे हैं।





प्रश्न 02 राज्य के आर्थिक क्रियाओं में वद्धि के कारणों को स्पष्ट कीजिए।

राज्य की आर्थिक क्रियाओं में वृद्धि के कारण
आधुनिक समय में राज्य की आर्थिक भूमिका पहले की तुलना में अधिक व्यापक हो गई है। पहले राज्य की भूमिका केवल कानून-व्यवस्था बनाए रखने तक सीमित थी, लेकिन अब यह आर्थिक नियोजन, सामाजिक कल्याण और बुनियादी ढांचे के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान देता है। राज्य की आर्थिक क्रियाओं में वृद्धि कई कारकों के कारण हुई है, जो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी परिवर्तनों से प्रभावित हैं।

1. औद्योगीकरण और आर्थिक विकास
औद्योगीकरण के कारण अर्थव्यवस्था जटिल हो गई है, जिससे सरकार की भूमिका बढ़ी है। राज्य अब औद्योगिक नीति, श्रम सुधार और व्यापार को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभा रहा है।

2. जनसंख्या वृद्धि
बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्य आपूर्ति, शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सेवाओं की माँग बढ़ी है। इस स्थिति में सरकार को अधिक आर्थिक गतिविधियाँ संचालित करनी पड़ती हैं ताकि नागरिकों की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

3. सामाजिक और आर्थिक असमानता
अर्थव्यवस्था में असमानता बढ़ने से सरकार की जिम्मेदारी बढ़ गई है। अमीर और गरीब के बीच की खाई को कम करने के लिए सरकार कल्याणकारी योजनाएँ, सब्सिडी और न्यूनतम मजदूरी नीति लागू करती है।

4. कल्याणकारी राज्य की अवधारणा
आधुनिक समय में ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा को अपनाया गया है, जहाँ सरकार नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराती है। इससे सरकार की आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि हुई है।

5. मुद्रास्फीति और बेरोजगारी पर नियंत्रण
बढ़ती मुद्रास्फीति और बेरोजगारी के कारण सरकार को आर्थिक हस्तक्षेप करना पड़ता है। सरकार विभिन्न रोजगार योजनाएँ शुरू करके और मौद्रिक नीतियों का उपयोग करके अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाए रखने का प्रयास करती है।

6. वैश्वीकरण और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
वैश्वीकरण के कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, विदेशी निवेश और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भूमिका बढ़ गई है। इससे सरकार को व्यापार नीतियाँ, कराधान और आर्थिक विनियमन को मजबूती से लागू करना पड़ता है।

7. तकनीकी प्रगति और डिजिटलीकरण
डिजिटल क्रांति के कारण सरकार की भूमिका सूचना प्रौद्योगिकी, ई-गवर्नेंस और डिजिटल भुगतान जैसी सेवाओं में बढ़ी है। डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए सरकार नई नीतियाँ लागू कर रही है।

8. पर्यावरणीय चुनौतियाँ और सतत विकास
जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण जैसी समस्याओं से निपटने के लिए सरकार को पर्यावरणीय कानून लागू करने पड़ते हैं। अक्षय ऊर्जा, टिकाऊ विकास और ग्रीन टेक्नोलॉजी में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ गया है।

9. आर्थिक संकट और आपदाएँ
महामारी, युद्ध, प्राकृतिक आपदाएँ और वैश्विक मंदी जैसी स्थितियों में सरकार को अधिक आर्थिक हस्तक्षेप करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, COVID-19 महामारी के दौरान सरकारों ने राहत पैकेज और स्वास्थ्य सुविधाओं में भारी निवेश किया।

10. नागरिकों की बढ़ती अपेक्षाएँ
आधुनिक समाज में नागरिकों की सरकार से अपेक्षाएँ बढ़ गई हैं। लोग बेहतर बुनियादी ढाँचा, शिक्षा, रोजगार और जीवन स्तर की माँग करते हैं, जिससे राज्य की आर्थिक क्रियाओं में वृद्धि होती है।

निष्कर्ष
राज्य की आर्थिक क्रियाओं में वृद्धि कई कारकों के कारण हुई है, जिनमें औद्योगीकरण, वैश्वीकरण, तकनीकी प्रगति, सामाजिक असमानता, जनसंख्या वृद्धि और पर्यावरणीय समस्याएँ शामिल हैं। आधुनिक राज्य केवल कानून और व्यवस्था बनाए रखने तक सीमित नहीं है, बल्कि आर्थिक विकास, कल्याणकारी योजनाएँ और वैश्विक प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखते हुए कार्य कर रहा है। भविष्य में भी सरकार की आर्थिक भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण होती जाएगी।





प्रश्न 03 आर्थिक विकास में सरकार की भूमिका पर प्रकाश डालिए।

आर्थिक विकास में सरकार की भूमिका
आर्थिक विकास किसी भी देश की समृद्धि और प्रगति के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह केवल उत्पादन और आय में वृद्धि तक सीमित नहीं होता, बल्कि समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर को सुधारने से भी संबंधित होता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सरकार की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। सरकार नीतिगत निर्णयों, आर्थिक नियोजन, बुनियादी ढांचे के विकास और सामाजिक कल्याण योजनाओं के माध्यम से आर्थिक विकास को बढ़ावा देती है।

1. आर्थिक नियोजन और नीतियाँ
सरकार आर्थिक विकास को दिशा देने के लिए दीर्घकालिक और लघुकालिक योजनाएँ बनाती है। उदाहरण के लिए, भारत में पंचवर्षीय योजनाएँ देश के समग्र आर्थिक विकास में सहायक रही हैं।

मौद्रिक नीति (Monetary Policy) – मुद्रास्फीति, ब्याज दरों और मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करके आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में सहायक।
राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) – कराधान और सरकारी व्यय को संतुलित करके आर्थिक विकास को गति देने का कार्य।
2. बुनियादी ढांचे का विकास
किसी भी देश का आर्थिक विकास परिवहन, संचार, ऊर्जा, जल आपूर्ति और शहरी सुविधाओं पर निर्भर करता है। सरकार इन क्षेत्रों में निवेश करके औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियों को बढ़ावा देती है।

सड़कें, रेलवे, हवाई अड्डे और बंदरगाहों का निर्माण।
ऊर्जा उत्पादन और वितरण तंत्र को मजबूत बनाना।
स्मार्ट सिटी और डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास।
3. औद्योगीकरण को बढ़ावा
सरकार औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न नीतियाँ लागू करती है। नई औद्योगिक नीतियाँ, सब्सिडी, कर में छूट और स्टार्टअप को समर्थन देकर सरकार देश के उत्पादन क्षेत्र को मजबूत करती है।

‘मेक इन इंडिया’ जैसी पहल औद्योगिक विकास को गति देती हैं।
लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना।
विदेशी निवेश (FDI) को आकर्षित करने के लिए नीतियों में सुधार।
4. कृषि और ग्रामीण विकास
अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सरकार किसानों को आर्थिक सहायता, तकनीकी नवाचार और सिंचाई सुविधाएँ प्रदान कर कृषि उत्पादन को बढ़ाने में मदद करती है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) नीति।
खाद, बीज और कृषि यंत्रों पर सब्सिडी।
ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई, सड़क और बिजली जैसी सुविधाओं का विकास।
5. रोजगार सृजन
सरकार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार सृजन में सहायक होती है।

मनरेगा (MGNREGA) जैसी योजनाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराती हैं।
कौशल विकास कार्यक्रमों के माध्यम से युवा वर्ग को रोजगार के योग्य बनाना।
निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना ताकि अधिक नौकरियों का सृजन हो।
6. सामाजिक कल्याण और गरीबी उन्मूलन
सरकार गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाएँ लागू करती है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो सके।

जन धन योजना, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत जैसी योजनाएँ।
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी निवेश।
वृद्धावस्था पेंशन और अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ।
7. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और निवेश
वैश्वीकरण के इस दौर में सरकार का एक महत्वपूर्ण कार्य अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और निवेश को बढ़ावा देना भी है।

आयात-निर्यात नीति को संतुलित करना।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को निवेश के लिए आकर्षित करना।
अंतर्राष्ट्रीय समझौतों और व्यापार संघों में सक्रिय भागीदारी।
8. पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास
आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण संरक्षण भी आवश्यक है। सरकार स्वच्छ ऊर्जा, ग्रीन टेक्नोलॉजी और प्रदूषण नियंत्रण नीतियाँ लागू करके संतुलित विकास सुनिश्चित करती है।

सौर और पवन ऊर्जा को बढ़ावा देना।
‘स्वच्छ भारत अभियान’ और ‘राष्ट्रीय हरित योजना’ जैसी पहल।
उद्योगों के लिए पर्यावरणीय मानकों का सख्ती से पालन।
9. डिजिटलीकरण और आधुनिक तकनीक का विकास
डिजिटल युग में सरकार डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठा रही है।

डिजिटल पेमेंट को प्रोत्साहन (UPI, RuPay, आदि)।
ई-गवर्नेंस और ऑनलाइन सेवाओं का विस्तार।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, ब्लॉकचेन और डेटा एनालिटिक्स जैसी नई तकनीकों में निवेश।
निष्कर्ष
सरकार आर्थिक विकास की प्रमुख धुरी होती है। वह विभिन्न नीतियों, योजनाओं और संरचनात्मक सुधारों के माध्यम से देश की अर्थव्यवस्था को गति देती है। आधुनिक समय में सरकार का कार्य केवल नियम और कानून बनाना ही नहीं, बल्कि देश के आर्थिक संसाधनों का उचित उपयोग करना और नागरिकों के जीवन स्तर को सुधारना भी है। इस प्रकार, सरकार की प्रभावी भूमिका से ही एक समृद्ध और विकसित राष्ट्र का निर्माण संभव हो सकता है।





प्रश्न 04 लोकवित्त किसे कहते हैं? संक्षिप्त में बताएं।

लोकवित्त की संक्षिप्त परिभाषा
लोकवित्त (Public Finance) वह आर्थिक शाखा है जो सरकार की आय, व्यय और वित्तीय नीतियों का अध्ययन करती है। यह सार्वजनिक संसाधनों के संग्रह और उनके प्रभावी उपयोग से संबंधित होती है, जिससे सामाजिक कल्याण और आर्थिक विकास सुनिश्चित किया जा सके।

लोकवित्त के प्रमुख घटक:
राजस्व (Revenue) – सरकार द्वारा करों (प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष) एवं गैर-कर स्रोतों से अर्जित धन।
सरकारी व्यय (Public Expenditure) – विकास कार्यों, रक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, और कल्याणकारी योजनाओं पर किया गया व्यय।
राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) – सरकार द्वारा आर्थिक स्थिरता और विकास के लिए अपनाई गई नीतियाँ।
सार्वजनिक ऋण (Public Debt) – सरकार द्वारा विभिन्न स्रोतों से लिया गया ऋण।
वित्तीय प्रशासन (Financial Administration) – सरकारी बजट, लेखा प्रणाली और आर्थिक नियोजन।
निष्कर्ष:
लोकवित्त सरकार की आर्थिक गतिविधियों का अध्ययन करता है, जिससे सार्वजनिक संसाधनों का सही उपयोग हो और राष्ट्र का आर्थिक विकास सुनिश्चित किया जा सके।






प्रश्न 05 सार्वजनिक आय और सार्वजनिक व्यय किसे कहते हैं समझाइए। 

सार्वजनिक आय और सार्वजनिक व्यय का अर्थ एवं व्याख्या
सरकार किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए राजस्व अर्जित करती है और विभिन्न मदों में व्यय करती है। सार्वजनिक आय (Public Revenue) सरकार द्वारा अर्जित धन को संदर्भित करता है, जबकि सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure) सरकार द्वारा किए गए खर्च को इंगित करता है।

1. सार्वजनिक आय (Public Revenue)
परिभाषा:
सार्वजनिक आय वह राजस्व है जो सरकार विभिन्न स्रोतों से अर्जित करती है और जिसका उपयोग देश के आर्थिक विकास एवं प्रशासनिक कार्यों के लिए किया जाता है।

सार्वजनिक आय के प्रमुख स्रोत:
कर राजस्व (Tax Revenue) –

प्रत्यक्ष कर (Direct Taxes): आयकर, संपत्ति कर, निगम कर।
अप्रत्यक्ष कर (Indirect Taxes): जीएसटी, उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क।
गैर-कर राजस्व (Non-Tax Revenue) –

सरकारी सेवाओं से प्राप्त शुल्क और जुर्माने।
सार्वजनिक उपक्रमों (PSUs) से लाभ।
विदेशी सहायता एवं अनुदान।
सरकार द्वारा लिए गए ऋण।
सार्वजनिक आय का महत्व:
सरकार की वित्तीय स्थिति को मजबूत करता है।
विकास परियोजनाओं के लिए धन उपलब्ध कराता है।
सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं के लिए संसाधन प्रदान करता है।
2. सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure)
परिभाषा:
सार्वजनिक व्यय वह व्यय है जो सरकार विभिन्न आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए करती है।

सार्वजनिक व्यय के प्रकार:
राजस्व व्यय (Revenue Expenditure):

प्रशासनिक खर्च (जैसे वेतन, पेंशन)।
सब्सिडी और अनुदान।
ब्याज भुगतान।
पूंजीगत व्यय (Capital Expenditure):

आधारभूत संरचना (सड़क, बिजली, रेलवे) पर खर्च।
रक्षा और सुरक्षा के लिए निवेश।
सार्वजनिक उद्योगों और सेवाओं का विस्तार।
सार्वजनिक व्यय का महत्व:
आर्थिक विकास को गति देता है।
रोजगार के अवसर बढ़ाता है।
सामाजिक कल्याण और गरीबी उन्मूलन में सहायक होता है।
निष्कर्ष
सार्वजनिक आय और सार्वजनिक व्यय सरकार की वित्तीय गतिविधियों के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। सार्वजनिक आय के माध्यम से सरकार राजस्व एकत्र करती है, जबकि सार्वजनिक व्यय के माध्यम से इसे देश के विकास और नागरिकों के कल्याण के लिए खर्च करती है। आर्थिक संतुलन बनाए रखने के लिए दोनों का समुचित प्रबंधन आवश्यक है।





प्रश्न 06 वित्तीय प्रशासन किसे कहते हैं समझाइए।

वित्तीय प्रशासन की संपूर्ण व्याख्या
परिभाषा:
वित्तीय प्रशासन (Financial Administration) सरकार के वित्तीय संसाधनों के प्रबंधन की प्रक्रिया है, जिसमें राजस्व संग्रह, सार्वजनिक व्यय, बजट निर्माण, लेखा प्रणाली और आर्थिक नियंत्रण शामिल होते हैं। यह सरकारी वित्तीय नीतियों को लागू करने और आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

वित्तीय प्रशासन के प्रमुख घटक
1. बजट निर्माण (Budget Preparation)
सरकार अपनी आय और व्यय का वार्षिक आकलन करती है।
यह विभिन्न विभागों के लिए धन आवंटन सुनिश्चित करता है।
2. राजस्व संग्रह (Revenue Collection)
सरकार विभिन्न करों (आयकर, जीएसटी, सीमा शुल्क) और गैर-कर स्रोतों (लाइसेंस फीस, सरकारी सेवाओं) से धन अर्जित करती है।
3. सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure)
सरकार का व्यय विभिन्न विकास परियोजनाओं, कल्याणकारी योजनाओं, रक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर होता है।
4. लेखा एवं लेखा परीक्षा (Accounting & Auditing)
सरकारी वित्तीय लेन-देन का रिकॉर्ड रखा जाता है।
लेखा परीक्षा (Audit) के माध्यम से वित्तीय अनियमितताओं को रोका जाता है।
5. वित्तीय नियंत्रण (Financial Control)
संसदीय प्रणाली और अन्य वित्तीय संस्थान सरकार के खर्चों की निगरानी करते हैं।
आर्थिक स्थिरता और पारदर्शिता बनाए रखने के लिए विभिन्न नीतियों का पालन किया जाता है।
वित्तीय प्रशासन का महत्व
सरकारी संसाधनों का कुशल प्रबंधन सुनिश्चित करता है।
आर्थिक स्थिरता और विकास में सहायक होता है।
भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने में मदद करता है।
नागरिकों के कल्याण के लिए वित्तीय संसाधनों का उचित उपयोग सुनिश्चित करता है।
निष्कर्ष
वित्तीय प्रशासन एक प्रभावी आर्थिक प्रबंधन प्रणाली है जो सरकार को वित्तीय संसाधनों का सही ढंग से उपयोग करने, आर्थिक स्थिरता बनाए रखने और सामाजिक कल्याण सुनिश्चित करने में मदद करती है। इससे न केवल आर्थिक विकास संभव होता है बल्कि पारदर्शिता और जवाबदेही भी बनी रहती है।







प्रश्न 07 राजस्व की परिभाषा दीजिए और उसके क्षेत्र का वर्णन कीजिए।

राजस्व की परिभाषा और उसके क्षेत्र का वर्णन
1. राजस्व की परिभाषा (Definition of Revenue)
राजस्व (Revenue) वह आय है जो सरकार विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करती है, जिसका उपयोग प्रशासनिक कार्यों, कल्याणकारी योजनाओं, बुनियादी ढांचे के विकास और आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए किया जाता है। यह सरकार की वित्तीय व्यवस्था का प्रमुख घटक होता है।

उदाहरण: कर (Tax), शुल्क (Fees), जुर्माना (Fines), सार्वजनिक उपक्रमों से लाभ, और विदेशी सहायता।

2. राजस्व के क्षेत्र (Scope of Revenue)
राजस्व का क्षेत्र विस्तृत होता है और इसे मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जाता है:

(A) कर राजस्व (Tax Revenue)
यह सरकार की आय का प्रमुख स्रोत होता है और इसे दो भागों में बाँटा जाता है:

प्रत्यक्ष कर (Direct Taxes) – ये कर सीधे व्यक्तियों और कंपनियों से वसूले जाते हैं।
आयकर (Income Tax)
संपत्ति कर (Property Tax)
निगम कर (Corporate Tax)
अप्रत्यक्ष कर (Indirect Taxes) – ये कर उपभोक्ताओं द्वारा वस्तुओं और सेवाओं की खरीद पर चुकाए जाते हैं।
वस्तु एवं सेवा कर (GST)
सीमा शुल्क (Custom Duty)
उत्पाद शुल्क (Excise Duty)
(B) गैर-कर राजस्व (Non-Tax Revenue)
यह करों के अलावा अन्य स्रोतों से प्राप्त होने वाली आय होती है।

सार्वजनिक सेवाओं से प्राप्त शुल्क (Fees & Charges) – पासपोर्ट फीस, ड्राइविंग लाइसेंस शुल्क आदि।
लाभांश और लाभ (Dividends & Profits) – सरकारी उपक्रमों (PSUs) और बैंकों से प्राप्त लाभ।
ऋण और अनुदान (Loans & Grants) – अन्य देशों और वित्तीय संस्थाओं से प्राप्त ऋण और सहायता।
जुर्माने और दंड (Fines & Penalties) – ट्रैफिक चालान, पर्यावरणीय दंड आदि।
लॉटरी और अन्य स्रोत (Lottery & Other Revenues) – सरकार द्वारा संचालित लॉटरी और अन्य योजनाएँ।
निष्कर्ष
राजस्व सरकार के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने का एक महत्वपूर्ण साधन है, जिससे वह अपने विभिन्न दायित्वों को पूरा कर सकती है। यह करों और गैर-कर स्रोतों से प्राप्त होता है और इसका उपयोग देश की आर्थिक प्रगति, सामाजिक कल्याण और प्रशासनिक गतिविधियों में किया जाता है।







प्रश्न 08 व्यक्तिगत और सार्वजनिक वित्त में अंतर स्पष्ट कीजिए।


व्यक्तिगत और सार्वजनिक वित्त में अंतर
व्यक्तिगत वित्त (Personal Finance) और सार्वजनिक वित्त (Public Finance) दोनों ही वित्तीय प्रबंधन से जुड़े होते हैं, लेकिन इनका दायरा और उद्देश्य अलग-अलग होते हैं।

1. परिभाषा
व्यक्तिगत वित्त का संबंध किसी व्यक्ति या परिवार की आय, व्यय, बचत और निवेश से होता है। इसका मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत संपत्ति को बढ़ाना और आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करना होता है।
सार्वजनिक वित्त सरकार की आय और व्यय से संबंधित होता है। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय आर्थिक विकास, सामाजिक कल्याण और सार्वजनिक सेवाओं का प्रबंधन करना होता है।
2. आय के स्रोत
व्यक्तिगत वित्त में आय का स्रोत वेतन, व्यापार, ब्याज, लाभांश और संपत्ति किराया होता है।
सार्वजनिक वित्त की आय करों, शुल्कों, सरकारी उपक्रमों के लाभ, विदेशी अनुदान और सार्वजनिक ऋण से होती है।
3. व्यय के उद्देश्य
व्यक्तिगत वित्त में व्यय मुख्य रूप से घरेलू खर्च, शिक्षा, स्वास्थ्य, निवेश और मनोरंजन पर होता है।
सार्वजनिक वित्त में व्यय बुनियादी ढांचे के विकास, रक्षा, कानून व्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा और कल्याणकारी योजनाओं पर किया जाता है।
4. बजट निर्माण
व्यक्तिगत वित्त का बजट व्यक्ति की प्राथमिकताओं और उपलब्ध संसाधनों के आधार पर बनाया जाता है।
सार्वजनिक वित्त का बजट सरकार द्वारा वार्षिक रूप से संसद में प्रस्तुत किया जाता है और इसे सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं के अनुसार तैयार किया जाता है।
5. वित्तीय प्रबंधन और संतुलन
व्यक्तिगत वित्त में व्यक्ति अपनी आय और व्यय को स्वयं नियंत्रित करता है और अपनी बचत या ऋण के माध्यम से संतुलन बनाए रखता है।
सार्वजनिक वित्त में सरकार को कर नीति, ऋण प्रबंधन और व्यय नियंत्रण के माध्यम से आर्थिक संतुलन बनाए रखना पड़ता है।
6. ऋण और देनदारियाँ
व्यक्तिगत वित्त में व्यक्ति व्यक्तिगत ऋण, गृह ऋण या वाहन ऋण ले सकता है और उसे समय पर चुकाना होता है।
सार्वजनिक वित्त में सरकार आंतरिक और बाहरी ऋण लेती है, जिसे करों या अन्य संसाधनों से चुकाया जाता है।
निष्कर्ष
व्यक्तिगत वित्त किसी व्यक्ति की आर्थिक स्वतंत्रता और संपत्ति प्रबंधन से जुड़ा होता है, जबकि सार्वजनिक वित्त सरकार के वित्तीय संसाधनों और सामाजिक-आर्थिक कल्याण से संबंधित होता है। दोनों का उद्देश्य आर्थिक स्थिरता बनाए रखना होता है, लेकिन व्यक्तिगत वित्त व्यक्तिगत लाभ के लिए और सार्वजनिक वित्त सामूहिक लाभ के लिए कार्य करता है।







प्रश्न 10 सार्वजनिक वस्तुओं और मेरिट वस्तुओं की अवधारणा , उदाहरण और महत्व की विवेचना कीजिए।

सार्वजनिक वस्तुओं और मेरिट वस्तुओं की अवधारणा, उदाहरण एवं महत्व
1. सार्वजनिक वस्तुएं (Public Goods)
अवधारणा:
सार्वजनिक वस्तुएं वे वस्तुएं होती हैं जिनका उपभोग एक व्यक्ति के करने से दूसरे व्यक्ति के उपभोग में कमी नहीं आती और जिनका उपयोग सभी लोग बिना किसी रोक-टोक के कर सकते हैं। इन वस्तुओं की आपूर्ति सरकार द्वारा की जाती है क्योंकि निजी क्षेत्र इन्हें लाभ की दृष्टि से प्रदान नहीं करता।

उदाहरण:
सड़कें और पुल
स्ट्रीट लाइट
राष्ट्रीय सुरक्षा (सेना और पुलिस)
सार्वजनिक उद्यान
स्वच्छ पर्यावरण
महत्व:
सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देती हैं।
आर्थिक असमानता को कम करने में सहायक होती हैं।
बाजार की असफलताओं (Market Failure) को दूर करती हैं।
सभी नागरिकों को समान रूप से लाभ पहुंचाती हैं।
2. मेरिट वस्तुएं (Merit Goods)
अवधारणा:
मेरिट वस्तुएं वे वस्तुएं होती हैं जो समाज के लिए लाभकारी होती हैं, लेकिन लोग अक्सर उनकी महत्ता को पूरी तरह नहीं समझते और उनका कम उपभोग करते हैं। इसलिए सरकार इन वस्तुओं को सुलभ और किफायती बनाने के लिए सब्सिडी प्रदान करती है या मुफ्त में उपलब्ध कराती है।

उदाहरण:
शिक्षा
स्वास्थ्य सेवाएं (अस्पताल और टीकाकरण)
पौष्टिक भोजन (मिड-डे मील)
सार्वजनिक परिवहन
स्वच्छ पेयजल
महत्व:
नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार लाती हैं।
आर्थिक विकास को गति देती हैं।
स्वास्थ्य और शिक्षा के माध्यम से उत्पादकता बढ़ाती हैं।
गरीब और वंचित वर्ग के लोगों को बुनियादी सुविधाएं प्रदान करती हैं।
निष्कर्ष:
सार्वजनिक वस्तुएं और मेरिट वस्तुएं दोनों ही समाज के समग्र विकास के लिए आवश्यक हैं। सार्वजनिक वस्तुएं उन सेवाओं को प्रदान करती हैं जो सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध होती हैं, जबकि मेरिट वस्तुएं समाज के कमजोर वर्गों को अधिक अवसर और सुविधाएं देने का कार्य करती हैं। सरकार इन दोनों वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करके सामाजिक और आर्थिक संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।







प्रश्न 11 निजी वस्तुओं और सार्वजनिक वस्तुओं की विशेषताएं बताते हुए दोनों वस्तुओं में अंतर स्पष्ट कीजिए।

निजी वस्तुओं और सार्वजनिक वस्तुओं की विशेषताएँ एवं अंतर
1. निजी वस्तुएँ (Private Goods)
विशेषताएँ:
बहिष्करण (Excludability): केवल वे लोग इन वस्तुओं का उपयोग कर सकते हैं जो इसके लिए भुगतान करते हैं।
प्रतिस्पर्धात्मक उपभोग (Rivalry in Consumption): यदि एक व्यक्ति इन वस्तुओं का उपभोग करता है, तो दूसरे व्यक्ति के लिए इसकी उपलब्धता कम हो जाती है।
मूल्य निर्धारण (Price Determination): निजी वस्तुएँ बाजार में बेची जाती हैं, और उनकी कीमत माँग और आपूर्ति पर निर्भर करती है।
निजी क्षेत्र द्वारा उत्पादन (Produced by Private Sector): इन वस्तुओं का उत्पादन मुख्य रूप से निजी कंपनियाँ करती हैं।
स्वयं का लाभ (Personal Benefit): इनका उपभोग करने से केवल उपभोक्ता को लाभ होता है, न कि समाज को व्यापक रूप से।
उदाहरण:
भोजन और पेय पदार्थ
कपड़े
मोबाइल फोन
निजी वाहन (कार, बाइक)
घर और निजी संपत्ति
2. सार्वजनिक वस्तुएँ (Public Goods)
विशेषताएँ:
गैर-बहिष्करण (Non-Excludability): कोई भी व्यक्ति इन वस्तुओं का उपयोग कर सकता है, भले ही उसने इसके लिए भुगतान किया हो या नहीं।
गैर-प्रतिस्पर्धात्मक उपभोग (Non-Rivalry in Consumption): एक व्यक्ति के उपयोग से दूसरे व्यक्ति की उपलब्धता प्रभावित नहीं होती।
सरकार द्वारा आपूर्ति (Provided by Government): सार्वजनिक वस्तुएँ आमतौर पर सरकार द्वारा प्रदान की जाती हैं क्योंकि निजी कंपनियाँ इन्हें लाभ की दृष्टि से नहीं बनातीं।
सामाजिक लाभ (Social Benefit): इनका उपयोग पूरे समाज के हित में होता है।
करों से वित्तपोषण (Funded by Taxes): इन वस्तुओं की लागत सरकार करों से वसूलती है।
उदाहरण:
राष्ट्रीय सुरक्षा (सेना, पुलिस)
सार्वजनिक उद्यान
स्ट्रीट लाइट
स्वच्छ हवा
सड़कें और पुल
3. निजी वस्तुओं और सार्वजनिक वस्तुओं में अंतर
स्वामित्व: निजी वस्तुएँ व्यक्तिगत स्वामित्व में होती हैं, जबकि सार्वजनिक वस्तुएँ सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाती हैं।
उपयोग: निजी वस्तुएँ सीमित व्यक्तियों द्वारा उपयोग की जाती हैं, जबकि सार्वजनिक वस्तुएँ सभी के लिए उपलब्ध होती हैं।
मूल्य: निजी वस्तुएँ खरीदी जाती हैं, जबकि सार्वजनिक वस्तुएँ करों से वित्तपोषित होती हैं।
उपलब्धता: निजी वस्तुओं का उपभोग करने से उनकी मात्रा कम हो जाती है, लेकिन सार्वजनिक वस्तुओं के साथ ऐसा नहीं होता।
उत्पादन: निजी वस्तुओं का उत्पादन मुख्य रूप से निजी कंपनियाँ करती हैं, जबकि सार्वजनिक वस्तुओं का उत्पादन और वितरण सरकार करती है।
निष्कर्ष:
निजी वस्तुएँ व्यक्तिगत उपभोग के लिए होती हैं और बाजार में खरीदी जाती हैं, जबकि सार्वजनिक वस्तुएँ पूरे समाज के कल्याण के लिए उपलब्ध कराई जाती हैं। दोनों का अपना महत्व है—निजी वस्तुएँ व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा करती हैं, जबकि सार्वजनिक वस्तुएँ सामूहिक हितों की पूर्ति करती हैं।





प्रश्न 12 लोक व्यय के  मुख्य उद्देश्यों का निर्धारण की प्रकार किया जाता है ?

लोक व्यय के मुख्य उद्देश्यों का निर्धारण
परिचय
लोक व्यय (Public Expenditure) सरकार द्वारा विभिन्न गतिविधियों और सेवाओं पर किया जाने वाला खर्च होता है। यह खर्च आर्थिक विकास, सामाजिक कल्याण और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विभिन्न उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जाता है। लोक व्यय का निर्धारण सरकार की नीतियों, आर्थिक आवश्यकताओं और सामाजिक प्राथमिकताओं के आधार पर किया जाता है।

लोक व्यय के मुख्य उद्देश्य और उनका निर्धारण
1. आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना
लोक व्यय का मुख्य उद्देश्य देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देना होता है।
बुनियादी ढांचे (सड़कें, पुल, परिवहन), उद्योगों और कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश किया जाता है।
निर्धारण: सरकार की आर्थिक नीति, विकास योजनाएँ और राष्ट्रीय बजट को ध्यान में रखकर इस क्षेत्र में व्यय तय किया जाता है।
2. सामाजिक कल्याण सुनिश्चित करना
गरीबों, वंचित वर्गों और जरूरतमंदों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ लागू की जाती हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और रोजगार योजनाओं पर व्यय किया जाता है।
निर्धारण: सरकार की सामाजिक कल्याण नीतियों और गरीबी उन्मूलन योजनाओं के आधार पर लोक व्यय निर्धारित किया जाता है।
3. राष्ट्रीय सुरक्षा और कानून व्यवस्था बनाए रखना
सेना, पुलिस, न्यायपालिका और आपातकालीन सेवाओं पर व्यय किया जाता है।
देश की सुरक्षा के लिए रक्षा क्षेत्र में निवेश किया जाता है।
निर्धारण: राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और आंतरिक शांति बनाए रखने की आवश्यकताओं के अनुसार व्यय निर्धारित किया जाता है।
4. आय और धन के असमान वितरण को कम करना
समाज में आर्थिक असमानता को कम करने के लिए सरकार कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च करती है।
सब्सिडी, बेरोजगारी भत्ता, वृद्धावस्था पेंशन और अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ लागू की जाती हैं।
निर्धारण: समाज में आर्थिक असमानता की स्थिति और गरीब वर्ग की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर व्यय तय किया जाता है।
5. सार्वजनिक सुविधाओं का विस्तार
स्वच्छ जल, बिजली, परिवहन और संचार सुविधाओं को विकसित करने पर व्यय किया जाता है।
सरकारी अस्पताल, स्कूल, कॉलेज और अन्य सार्वजनिक सेवाओं को बेहतर बनाया जाता है।
निर्धारण: नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं और आधारभूत संरचना की जरूरतों को ध्यान में रखकर व्यय तय किया जाता है।
6. महंगाई और आर्थिक स्थिरता को नियंत्रित करना
सरकार महंगाई को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक वस्तुओं पर सब्सिडी देती है।
बाजार में संतुलन बनाए रखने के लिए सरकार विभिन्न आर्थिक नीतियाँ लागू करती है।
निर्धारण: अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की स्थिति और बाजार की आवश्यकताओं के अनुसार व्यय निर्धारित किया जाता है।
7. प्राकृतिक आपदाओं और आपातकालीन स्थितियों का प्रबंधन
बाढ़, भूकंप, महामारी जैसी आपदाओं के दौरान राहत कार्यों के लिए लोक व्यय किया जाता है।
आपदा प्रबंधन योजनाओं को लागू किया जाता है।
निर्धारण: प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और प्रभावित लोगों की संख्या के आधार पर व्यय तय किया जाता है।
निष्कर्ष
लोक व्यय का निर्धारण विभिन्न आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारकों के आधार पर किया जाता है। सरकार का मुख्य उद्देश्य आर्थिक विकास को बढ़ावा देना, सामाजिक कल्याण को सुनिश्चित करना, राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करना और सार्वजनिक सेवाओं को बेहतर बनाना होता है। इसके लिए सरकार बजट, नीतियाँ और योजनाएँ बनाकर लोक व्यय की दिशा तय करती है।




प्रश्न 13 लोक व्यय के आवंटनात्मक उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए।

लोक व्यय के आवंटनात्मक उद्देश्यों की व्याख्या
1. परिचय
लोक व्यय (Public Expenditure) वह खर्च होता है जो सरकार आर्थिक विकास, सामाजिक कल्याण, राष्ट्रीय सुरक्षा और अन्य आवश्यक सेवाओं के लिए करती है। सरकार के पास सीमित वित्तीय संसाधन होते हैं, इसलिए इनका उचित आवंटन (Allocation) आवश्यक होता है। लोक व्यय के आवंटनात्मक उद्देश्य (Allocative Objectives) संसाधनों के प्रभावी और न्यायसंगत वितरण को सुनिश्चित करने के लिए निर्धारित किए जाते हैं।

2. लोक व्यय के आवंटनात्मक उद्देश्य
1. सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति
सरकार उन वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करती है जो निजी क्षेत्र द्वारा पर्याप्त रूप से प्रदान नहीं की जातीं।
सड़कें, पुल, स्वच्छ जल, स्ट्रीट लाइट, सुरक्षा और कानून व्यवस्था जैसी सार्वजनिक सेवाओं पर व्यय किया जाता है।
उद्देश्य: सभी नागरिकों को समान रूप से बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराना।
2. आर्थिक असमानता को कम करना
सरकार समाज में आर्थिक असमानता को कम करने के लिए कल्याणकारी योजनाएँ चलाती है।
गरीबी रेखा से नीचे (BPL) रहने वाले लोगों को सब्सिडी, मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ और खाद्य सुरक्षा प्रदान की जाती है।
उद्देश्य: समाज के सभी वर्गों को समान अवसर प्रदान करना और गरीबी को कम करना।
3. आधारभूत संरचना का विकास
सरकार परिवहन, ऊर्जा, संचार और औद्योगिक ढांचे के विकास में निवेश करती है।
रेलवे, राजमार्ग, हवाई अड्डे, बिजली उत्पादन और संचार सेवाओं के विस्तार पर व्यय किया जाता है।
उद्देश्य: आर्थिक विकास को बढ़ावा देना और रोजगार के अवसर पैदा करना।
4. सामाजिक कल्याण और मानव संसाधन विकास
सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला एवं बाल कल्याण और रोजगार गारंटी योजनाओं में निवेश करती है।
सरकारी स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, चिकित्सा सुविधाएँ और कौशल विकास कार्यक्रमों पर खर्च किया जाता है।
उद्देश्य: नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार करना और श्रम शक्ति को विकसित करना।
5. महंगाई और बेरोजगारी को नियंत्रित करना
सरकार आवश्यक वस्तुओं पर सब्सिडी देती है ताकि गरीबों को सस्ती दरों पर आवश्यक चीजें मिल सकें।
सार्वजनिक कार्यों (Public Works) और रोजगार योजनाओं जैसे मनरेगा (MNREGA) पर व्यय किया जाता है।
उद्देश्य: महंगाई को नियंत्रित करना और बेरोजगारों को काम उपलब्ध कराना।
6. रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा
सरकार सेना, पुलिस, खुफिया एजेंसियों और रक्षा उपकरणों पर खर्च करती है।
आतंकवाद, साइबर सुरक्षा और सीमा सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिए निवेश किया जाता है।
उद्देश्य: देश की संप्रभुता और नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना।
7. आपदा प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण
बाढ़, भूकंप, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए सरकार राहत एवं पुनर्वास कार्यों पर व्यय करती है।
वनीकरण, जल संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाता है।
उद्देश्य: आपदा के प्रभाव को कम करना और सतत विकास (Sustainable Development) सुनिश्चित करना।
3. निष्कर्ष
लोक व्यय के आवंटनात्मक उद्देश्य संसाधनों के प्रभावी उपयोग, सामाजिक समानता, आर्थिक विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए निर्धारित किए जाते हैं। सरकार का मुख्य लक्ष्य सामाजिक और आर्थिक विकास में संतुलन बनाए रखना और देश की समग्र प्रगति को सुनिश्चित करना होता है।







प्रश्न 14 लोक व्यय के उद्देश्य निर्धारण की मुख्य समस्याओं को बताइए।

लोक व्यय के उद्देश्य निर्धारण की मुख्य समस्याएँ
1. परिचय
लोक व्यय (Public Expenditure) का उद्देश्य समाज और अर्थव्यवस्था के विकास के लिए संसाधनों का उचित उपयोग सुनिश्चित करना है। सरकार विभिन्न क्षेत्रों में व्यय करती है, जैसे—बुनियादी ढांचा, शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा, सामाजिक कल्याण आदि। हालांकि, लोक व्यय के उद्देश्य निर्धारण में कई समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, जिनका समाधान करना आवश्यक होता है।

2. लोक व्यय के उद्देश्य निर्धारण की मुख्य समस्याएँ
1. सीमित संसाधन और बढ़ती मांग
सरकार के पास सीमित राजस्व स्रोत होते हैं, जबकि विभिन्न क्षेत्रों में व्यय की माँग अधिक होती है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा, आधारभूत संरचना, सामाजिक कल्याण आदि सभी क्षेत्रों में अधिक बजट की आवश्यकता होती है।
समस्या: उपलब्ध संसाधनों का संतुलित उपयोग करना कठिन हो जाता है।
2. राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit)
यदि सरकारी व्यय आय से अधिक हो जाता है, तो वित्तीय असंतुलन उत्पन्न हो जाता है।
अधिक ऋण लेने से ब्याज भुगतान का बोझ बढ़ जाता है, जिससे अन्य क्षेत्रों में निवेश प्रभावित होता है।
समस्या: व्यय और आय के बीच संतुलन बनाना चुनौतीपूर्ण होता है।
3. प्राथमिकताओं का निर्धारण
विभिन्न क्षेत्रों में व्यय को प्राथमिकता देने का निर्णय कठिन होता है।
विकासशील देशों में बुनियादी ढाँचा और सामाजिक कल्याण दोनों महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन सीमित संसाधनों के कारण उचित संतुलन बनाना मुश्किल हो जाता है।
समस्या: शिक्षा और स्वास्थ्य बनाम रक्षा और बुनियादी ढाँचे जैसी प्राथमिकताओं को तय करना कठिन होता है।
4. आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव
लोक व्यय पर राजनीतिक दलों और नीतियों का प्रभाव पड़ता है।
कभी-कभी सरकारें अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के लिए दीर्घकालिक विकास की उपेक्षा कर सकती हैं।
समस्या: राजनीतिक हस्तक्षेप से आर्थिक निर्णय प्रभावित हो सकते हैं।
5. भ्रष्टाचार और अपव्यय
सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार और धन के दुरुपयोग की समस्या देखी जाती है।
कई बार योजनाएँ प्रभावी तरीके से लागू नहीं होतीं, जिससे धन का अपव्यय होता है।
समस्या: भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन से जनता को पूर्ण लाभ नहीं मिल पाता।
6. असमान क्षेत्रीय विकास
कभी-कभी सरकार का व्यय कुछ क्षेत्रों तक सीमित रहता है, जिससे अन्य क्षेत्रों में विकास की गति धीमी हो जाती है।
ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच असमानता बनी रहती है।
समस्या: सभी क्षेत्रों में संतुलित विकास सुनिश्चित करना कठिन होता है।
7. अनियंत्रित सब्सिडी और लोकलुभावन योजनाएँ
सरकारें चुनावी लाभ के लिए कई बार लोकलुभावन योजनाएँ (Populist Schemes) लागू करती हैं, जो दीर्घकालिक आर्थिक विकास के लिए फायदेमंद नहीं होतीं।
अत्यधिक सब्सिडी से सरकारी वित्तीय स्थिति पर दबाव बढ़ता है।
समस्या: आर्थिक स्थिरता बनाते हुए कल्याणकारी योजनाओं को लागू करना कठिन होता है।
8. वैश्विक और आंतरिक आर्थिक परिस्थितियाँ
वैश्विक मंदी, व्यापार असंतुलन, तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव और मुद्रास्फीति जैसी समस्याएँ लोक व्यय को प्रभावित करती हैं।
आपातकालीन परिस्थितियों (जैसे—महामारी, युद्ध, प्राकृतिक आपदाएँ) के दौरान सरकार की व्यय नीतियों को अचानक बदलना पड़ता है।
समस्या: बाहरी आर्थिक कारकों के प्रभाव से लोक व्यय की योजना बाधित होती है।
3. निष्कर्ष
लोक व्यय के उद्देश्य निर्धारण में अनेक समस्याएँ आती हैं, जैसे—सीमित संसाधन, प्राथमिकताओं का निर्धारण, भ्रष्टाचार, राजकोषीय घाटा और राजनीतिक हस्तक्षेप। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए प्रभावी वित्तीय प्रबंधन, पारदर्शिता, जवाबदेही और संतुलित विकास पर ध्यान देना आवश्यक है। इससे लोक व्यय के उद्देश्यों को सही दिशा में लागू किया जा सकता है।


प्रश्न  लोक व्यय से संबंधित वैगनर के नियम की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए ।

लोक व्यय से संबंधित वैगनर के नियम की आलोचनात्मक व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर की जा सकती है—

वैगनर का नियम: संक्षिप्त परिचय
जर्मन अर्थशास्त्री एडॉल्फ वैगनर ने सार्वजनिक व्यय के संबंध में एक नियम प्रस्तुत किया, जिसे "वैगनर का कानून" कहा जाता है। यह नियम कहता है कि आर्थिक प्रगति के साथ-साथ सरकार का व्यय भी बढ़ता है। वैगनर के अनुसार, जैसे-जैसे कोई अर्थव्यवस्था औद्योगीकरण और विकास की ओर बढ़ती है, सरकार की विभिन्न सेवाओं (जैसे— शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, सामाजिक कल्याण) की माँग बढ़ती है, जिससे लोक व्यय में स्वाभाविक वृद्धि होती है।

वैगनर के नियम की आलोचना
सभी देशों पर लागू नहीं होता – वैगनर का नियम विकसित देशों के संदर्भ में अधिक उपयुक्त है, लेकिन सभी देशों की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संरचनाएं अलग-अलग होती हैं। कई विकासशील देशों में आर्थिक विकास के बावजूद लोक व्यय अपेक्षाकृत धीमी गति से बढ़ता है।

लोक व्यय में वृद्धि के अन्य कारण – वैगनर ने यह निष्कर्ष निकाला कि लोक व्यय मुख्य रूप से आर्थिक विकास के कारण बढ़ता है, लेकिन कई अन्य कारक भी इसके लिए उत्तरदायी हो सकते हैं, जैसे— युद्ध, प्राकृतिक आपदाएँ, जनसंख्या वृद्धि, राजनीतिक निर्णय, और सार्वजनिक क्षेत्र में विस्तार।

प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध अर्थव्यवस्थाएँ – कुछ देशों में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के कारण लोक व्यय नियंत्रित रहता है और सरकारी आय अधिक होती है, जिससे वैगनर का नियम हमेशा लागू नहीं होता।

निजीकरण और उदारीकरण का प्रभाव – आधुनिक समय में कई सरकारें निजीकरण और उदारीकरण को बढ़ावा दे रही हैं, जिससे सरकार की सेवाओं में कमी आ रही है और लोक व्यय अपेक्षाकृत स्थिर बना रहता है।

सरकारी नीतियों और बजट नियंत्रण का प्रभाव – कुछ सरकारें अपने बजट को संतुलित करने के लिए लोक व्यय को नियंत्रित रखती हैं। उदाहरण के लिए, कई देशों ने राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम (FRBM Act) जैसे कानून बनाए हैं, जो लोक व्यय पर नियंत्रण रखने में सहायक होते हैं।

वित्तीय संकट और ऋण बोझ – यदि किसी देश पर भारी कर्ज होता है, तो सरकार अपने खर्च को कम करने की कोशिश करती है, जिससे वैगनर के नियम के विपरीत स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

निष्कर्ष
वैगनर का नियम आर्थिक विकास और सरकारी व्यय के बीच सकारात्मक संबंध को दर्शाता है, लेकिन यह सार्वभौमिक सत्य नहीं है। विभिन्न देशों की आर्थिक परिस्थितियों, सरकारी नीतियों, वैश्विक घटनाओं और प्रशासनिक निर्णयों के आधार पर लोक व्यय की वृद्धि दर भिन्न हो सकती है। अतः इस नियम को पूर्ण सत्य न मानकर एक संभावित प्रवृत्ति के रूप में देखना अधिक उचित होगा।






प्रश्न  वैगनर तथा वाईजमैन  पिकॉक के नियम के मुख्य अंतरों को स्पष्ट कीजिए।
वैगनर तथा वाइज़मैन-पिकॉक के नियम, दोनों ही लोक व्यय की वृद्धि को समझाने वाले महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हैं, लेकिन इनकी व्याख्या के आधार अलग-अलग हैं। इनके बीच मुख्य अंतर निम्नलिखित हैं—

1. नियम का मूल आधार
वैगनर का नियम यह कहता है कि जैसे-जैसे कोई अर्थव्यवस्था विकसित होती है, वैसे-वैसे लोक व्यय में स्वाभाविक रूप से वृद्धि होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि आर्थिक और सामाजिक विकास के साथ सरकार की जिम्मेदारियाँ बढ़ती हैं, जिससे शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, और सामाजिक कल्याण जैसी सेवाओं पर खर्च बढ़ता है।

वाइज़मैन-पिकॉक का नियम यह बताता है कि सरकारी व्यय अचानक बढ़ता है, विशेष रूप से किसी बड़े संकट, युद्ध या आपदा के समय। इसके अनुसार, सरकार के व्यय में धीरे-धीरे वृद्धि नहीं होती, बल्कि यह "झटकों" (displacement effect) के कारण तेज़ी से बढ़ सकता है।

2. व्यय में वृद्धि का तरीका
वैगनर के नियम में लोक व्यय एक क्रमिक (gradual) और स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत बढ़ता है, जो कि आर्थिक प्रगति के साथ धीरे-धीरे होता है।

वाइज़मैन-पिकॉक के नियम के अनुसार, लोक व्यय अचानक बढ़ता है और यह आमतौर पर किसी बड़े राजनीतिक या आर्थिक संकट के कारण होता है, जिसके बाद यह उच्च स्तर पर स्थिर हो जाता है।

3. ऐतिहासिक घटनाओं का प्रभाव
वैगनर का नियम ऐतिहासिक घटनाओं जैसे युद्ध या आपदा पर ज्यादा ध्यान नहीं देता, बल्कि यह मानता है कि समय के साथ सार्वजनिक व्यय स्वतः बढ़ेगा।

वाइज़मैन-पिकॉक का नियम ऐतिहासिक घटनाओं (जैसे युद्ध, वित्तीय संकट, प्राकृतिक आपदाएँ) को लोक व्यय के बढ़ने का प्रमुख कारण मानता है।

4. कर प्रणाली पर प्रभाव
वैगनर के अनुसार, जैसे-जैसे लोक व्यय बढ़ता है, सरकार कर प्रणाली का विस्तार करती है और अधिक कर एकत्रित करके अपने खर्च को पूरा करती है।

वाइज़मैन-पिकॉक के अनुसार, जब सरकार संकट के समय लोक व्यय बढ़ाती है, तो उसे राजस्व बढ़ाने के लिए कर दरें बढ़ानी पड़ती हैं, और यह बढ़ी हुई कर दरें स्थायी रूप से बनी रह सकती हैं।

5. व्यय में गिरावट की संभावना
वैगनर का नियम यह संकेत नहीं देता कि लोक व्यय कभी घट सकता है, बल्कि यह लगातार बढ़ता रहता है।

वाइज़मैन-पिकॉक का नियम यह बताता है कि युद्ध या आपदा के दौरान जो व्यय बढ़ता है, वह घटना समाप्त होने के बाद भी पूरी तरह कम नहीं होता, बल्कि एक नए उच्च स्तर पर स्थिर हो जाता है।

निष्कर्ष
वैगनर और वाइज़मैन-पिकॉक के नियम, दोनों ही सार्वजनिक व्यय की वृद्धि की व्याख्या करते हैं, लेकिन वैगनर इसे स्वाभाविक आर्थिक प्रक्रिया के रूप में देखता है, जबकि वाइज़मैन-पिकॉक इसे संकटों और ऐतिहासिक घटनाओं से उत्पन्न झटकों के रूप में प्रस्तुत करता है। इसलिए, दोनों सिद्धांत अलग-अलग परिस्थितियों में लागू होते हैं और एक-दूसरे के पूरक भी माने जा सकते हैं।







प्रश्न। लोक व्यय का आर्थिक वृद्धि में किस तरह का प्रभाव पड़ता है? स्पष्ट कीजिए।

लोक व्यय का आर्थिक वृद्धि पर प्रभाव
लोक व्यय सरकार द्वारा सार्वजनिक कल्याण, आधारभूत संरचना, सामाजिक सेवाओं, और आर्थिक विकास से जुड़ी नीतियों पर किया जाने वाला खर्च होता है। यह किसी भी देश की आर्थिक वृद्धि (Economic Growth) को सीधे और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। इसका प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार का हो सकता है।

1. लोक व्यय का सकारात्मक प्रभाव
अवसंरचना (Infrastructure) का विकास – सरकार द्वारा सड़कों, पुलों, विद्युत, परिवहन और डिजिटल नेटवर्क के निर्माण पर किया गया व्यय आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देता है, जिससे उद्योग, व्यापार और रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।

मानव पूंजी में वृद्धि – शिक्षा, स्वास्थ्य, और कौशल विकास पर सरकारी व्यय से मानव संसाधन मजबूत होता है, जिससे उत्पादकता और नवाचार को बढ़ावा मिलता है।

निजी निवेश को प्रोत्साहन – जब सरकार आवश्यक बुनियादी ढांचे में निवेश करती है, तो यह निजी कंपनियों को भी निवेश के लिए आकर्षित करता है, जिससे आर्थिक वृद्धि तेज होती है।

मांग और उपभोग में वृद्धि – लोक व्यय से लोगों की आय बढ़ती है, जिससे उनकी क्रय शक्ति (purchasing power) में वृद्धि होती है और बाज़ार में माँग बढ़ती है, जो आर्थिक विकास को गति देता है।

प्राकृतिक आपदाओं और संकट के समय आर्थिक स्थिरता – सरकार द्वारा राहत पैकेज, सब्सिडी और कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से आर्थिक अस्थिरता को कम किया जाता है, जिससे अर्थव्यवस्था संतुलित बनी रहती है।

2. लोक व्यय का नकारात्मक प्रभाव
राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) में वृद्धि – यदि सरकार अत्यधिक लोक व्यय करती है और उसकी आमदनी कम होती है, तो यह राजकोषीय घाटे को बढ़ा सकता है, जिससे देश की आर्थिक स्थिरता प्रभावित होती है।

मुद्रास्फीति (Inflation) का खतरा – अत्यधिक सरकारी व्यय से माँग अत्यधिक बढ़ सकती है, जिससे मुद्रास्फीति हो सकती है, जो दीर्घकालिक आर्थिक विकास को प्रभावित कर सकती है।

निजी क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा में बाधा – कुछ मामलों में सरकारी व्यय के बढ़ने से निजी क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा कम हो सकती है, जिससे आर्थिक दक्षता (economic efficiency) पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

कर्ज़ का बोझ – यदि सरकार लोक व्यय के लिए अधिक ऋण लेती है, तो इससे दीर्घकाल में ब्याज भुगतान का बोझ बढ़ जाता है, जो विकासशील देशों की आर्थिक वृद्धि को बाधित कर सकता है।

निष्कर्ष
लोक व्यय आर्थिक वृद्धि का एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि इसे किस प्रकार और किस क्षेत्र में खर्च किया जा रहा है। यदि सरकार सार्वजनिक निवेश को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करती है और व्यय को संतुलित रखती है, तो यह आर्थिक विकास को गति देने में सहायक होता है। हालाँकि, अनियंत्रित व्यय से राजकोषीय अस्थिरता और मुद्रास्फीति जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। अतः लोक व्यय को ऐसी नीतियों के माध्यम से नियंत्रित किया जाना चाहिए, जो दीर्घकालिक आर्थिक विकास को बनाए रखने में मदद करें।






प्रश्न।   लोक व्यय का वितरण के साथ सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।

लोक व्यय और वितरण के बीच संबंध
लोक व्यय का वितरण के साथ गहरा संबंध है क्योंकि सरकार अपने व्यय के माध्यम से संसाधनों के वितरण को प्रभावित करती है। लोक व्यय का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक असमानता को कम करना, सार्वजनिक सेवाओं की उपलब्धता बढ़ाना, और समाज के सभी वर्गों को समान अवसर प्रदान करना होता है। इसका प्रभाव विभिन्न तरीकों से देखा जा सकता है—

1. आय और धन के पुनर्वितरण (Redistribution of Income and Wealth)
सरकार विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं और सामाजिक सुरक्षा उपायों के माध्यम से धन के पुनर्वितरण को बढ़ावा देती है। उदाहरण—

गरीबों और बेरोजगारों के लिए सब्सिडी
वृद्धावस्था पेंशन और बीमा योजनाएँ
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च
इस प्रकार, लोक व्यय के माध्यम से सरकार असमानता को कम करने और समावेशी विकास को बढ़ावा देने का प्रयास करती है।

2. सार्वजनिक सेवाओं तक समान पहुंच
सरकारी व्यय यह सुनिश्चित करता है कि समाज के सभी वर्गों को बुनियादी सेवाएँ जैसे— शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, और स्वच्छता उपलब्ध हों। इन सेवाओं का उचित वितरण आर्थिक और सामाजिक असमानता को कम करने में मदद करता है।

3. क्षेत्रीय असमानता को कम करना
लोक व्यय का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य पिछड़े और विकसित क्षेत्रों के बीच की असमानता को कम करना है। सरकार ऐसे क्षेत्रों में सड़क, बिजली, परिवहन, सिंचाई, और औद्योगिक केंद्रों के निर्माण पर खर्च करती है, जिससे वहाँ रोजगार और विकास के अवसर बढ़ते हैं।

4. रोजगार सृजन और आय वृद्धि
सरकार मनरेगा (MGNREGA) जैसी योजनाओं के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार प्रदान करती है, जिससे निम्न वर्गों की आय बढ़ती है। इसके अलावा, आधारभूत संरचना परियोजनाओं में निवेश से शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में नई नौकरियाँ उत्पन्न होती हैं।

5. सामाजिक कल्याण और सुरक्षा
सरकार सामाजिक सुरक्षा योजनाओं जैसे— मुफ्त राशन योजना, जन धन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना आदि के माध्यम से गरीबों को सहारा देती है। यह संसाधनों के उचित वितरण में मदद करता है और समाज के कमजोर वर्गों की आर्थिक स्थिति को सुधारता है।

6. कराधान और व्यय की भूमिका
लोक व्यय का वितरण इस बात पर निर्भर करता है कि सरकार कराधान से प्राप्त धन को कैसे खर्च करती है। यदि अमीरों से अधिक कर लिया जाए और गरीबों के कल्याण पर खर्च किया जाए, तो इससे आर्थिक असमानता कम होगी।

निष्कर्ष
लोक व्यय और वितरण का संबंध सीधे सामाजिक न्याय, आय की समानता, और समावेशी विकास से जुड़ा हुआ है। यदि सरकार अपने संसाधनों का सही तरीके से उपयोग करे, तो इससे आर्थिक असमानता कम होती है और समाज में समावेशी विकास को बढ़ावा मिलता है। इसलिए, प्रभावी नीति निर्माण के माध्यम से लोक व्यय का उचित वितरण किया जाना आवश्यक है, ताकि सभी वर्गों को समान अवसर मिल सकें।






प्रश्न   कार्यात्मक वित्त क्या है? आधुनिक आर्थिक विकास में यह किस तरह उपयोगी है?

कार्यात्मक वित्त (Functional Finance) का अर्थ
कार्यात्मक वित्त का सिद्धांत ब्रिटिश अर्थशास्त्री एब्बा पी. लर्नर (Abba P. Lerner) द्वारा प्रस्तुत किया गया था। यह सिद्धांत कहता है कि सरकार को अपने राजकोषीय नीतियों (Fiscal Policies) को इस आधार पर संचालित करना चाहिए कि वे अर्थव्यवस्था की समग्र माँग (Aggregate Demand), रोजगार और उत्पादन को नियंत्रित करने में कितनी प्रभावी हैं, न कि इस बात पर कि बजट संतुलित है या नहीं।

इस सिद्धांत के अनुसार, यदि आर्थिक मंदी (Recession) हो रही है, तो सरकार को अधिक व्यय (Public Expenditure) करके अर्थव्यवस्था में माँग को बढ़ाना चाहिए, और यदि मुद्रास्फीति (Inflation) अधिक है, तो सरकार को करों (Taxes) को बढ़ाकर या व्यय को घटाकर माँग को नियंत्रित करना चाहिए।

आधुनिक आर्थिक विकास में कार्यात्मक वित्त की उपयोगिता
आर्थिक स्थिरता (Economic Stability) बनाए रखना – कार्यात्मक वित्त की नीति सरकार को यह अनुमति देती है कि वह मंदी या अत्यधिक मुद्रास्फीति जैसी आर्थिक अस्थिरता को नियंत्रित करने के लिए अपने व्यय और कर नीतियों में समायोजन करे।

रोजगार वृद्धि (Employment Generation) – यह सिद्धांत कहता है कि सरकार को बेरोजगारी को कम करने के लिए सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करनी चाहिए, जिससे नई नौकरियाँ उत्पन्न होंगी और आर्थिक विकास को गति मिलेगी।

मुद्रास्फीति नियंत्रण (Inflation Control) – जब अर्थव्यवस्था में अत्यधिक माँग के कारण मुद्रास्फीति बढ़ती है, तो कार्यात्मक वित्त के अनुसार, सरकार करों को बढ़ाकर या सार्वजनिक व्यय को कम करके मुद्रा प्रवाह को नियंत्रित कर सकती है।

आय और संपत्ति के वितरण में सुधार – सरकार, कल्याणकारी योजनाओं और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में आय के असमान वितरण को कम कर सकती है।

अवसंरचना विकास (Infrastructure Development) – कार्यात्मक वित्त नीति सरकार को आधारभूत संरचना में निवेश करने की अनुमति देती है, जिससे परिवहन, संचार और औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिलता है।

मांग और आपूर्ति संतुलन – सरकार आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए अपने व्यय और कर नीतियों का उपयोग कर सकती है, जिससे अर्थव्यवस्था में मांग और आपूर्ति का संतुलन बना रहता है।

निष्कर्ष
कार्यात्मक वित्त सिद्धांत पर आधारित नीतियाँ आर्थिक स्थिरता बनाए रखने, रोजगार सृजन, और मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यह आधुनिक आर्थिक विकास में सरकार को अधिक सक्रिय भूमिका निभाने की अनुमति देता है ताकि सतत् विकास, समावेशी वृद्धि और सामाजिक कल्याण को बढ़ावा दिया जा सके।





प्रश्न।   मुद्रा प्रसार और मुद्रा संकुचन में वित्त की क्या भूमिका है?

मुद्रा प्रसार और मुद्रा संकुचन में वित्त की भूमिका

वित्तीय नीतियाँ (Fiscal Policies) और मौद्रिक नीतियाँ (Monetary Policies) मुद्रा प्रसार (Money Expansion) और मुद्रा संकुचन (Money Contraction) को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सरकार और केंद्रीय बैंक (जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक) इन दोनों प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न उपाय अपनाते हैं ताकि अर्थव्यवस्था में स्थिरता बनी रहे।

1. मुद्रा प्रसार में वित्त की भूमिका
मुद्रा प्रसार का अर्थ अर्थव्यवस्था में मुद्रा (Money Supply) की वृद्धि से है। जब सरकार और केंद्रीय बैंक आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देना चाहते हैं, तो वे विभिन्न वित्तीय और मौद्रिक उपायों का उपयोग करते हैं—

(A) वित्तीय नीति (Fiscal Policy) के माध्यम से मुद्रा प्रसार
सरकारी व्यय में वृद्धि – यदि सरकार सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure) बढ़ाती है, तो इससे लोगों की आय और व्यय बढ़ता है, जिससे बाजार में मुद्रा की आपूर्ति बढ़ती है।
करों में कमी – सरकार यदि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में कटौती करती है, तो इससे लोगों की आय में वृद्धि होती है और वे अधिक व्यय करने लगते हैं, जिससे मुद्रा प्रसार बढ़ता है।
सब्सिडी और प्रोत्साहन योजनाएँ – सरकार विभिन्न सब्सिडी और प्रोत्साहन योजनाएँ लागू कर सकती है, जिससे मुद्रा प्रवाह बढ़ता है।
(B) मौद्रिक नीति (Monetary Policy) के माध्यम से मुद्रा प्रसार
ब्याज दरों में कमी – यदि केंद्रीय बैंक ब्याज दरें कम करता है, तो बैंक अधिक ऋण वितरित करते हैं, जिससे बाजार में मुद्रा आपूर्ति बढ़ती है।
रिज़र्व आवश्यकताओं में कमी – यदि केंद्रीय बैंक नकद आरक्षित अनुपात (CRR) और वैधानिक तरलता अनुपात (SLR) को कम करता है, तो बैंकों के पास अधिक धन उपलब्ध होता है, जिससे ऋण प्रवाह बढ़ता है।
बाजार में बॉन्ड और प्रतिभूतियाँ खरीदना – केंद्रीय बैंक ओपन मार्केट ऑपरेशंस (OMO) के तहत सरकारी बॉन्ड खरीदता है, जिससे मुद्रा आपूर्ति बढ़ती है।
2. मुद्रा संकुचन में वित्त की भूमिका
मुद्रा संकुचन का अर्थ अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति की कमी से है। यह तब किया जाता है जब मुद्रास्फीति (Inflation) बहुत अधिक हो और उसे नियंत्रित करने की आवश्यकता हो।

(A) वित्तीय नीति के माध्यम से मुद्रा संकुचन
सरकारी व्यय में कमी – यदि सरकार अपने व्यय को कम कर देती है, तो बाजार में मुद्रा प्रवाह घट जाता है।
करों में वृद्धि – यदि सरकार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर बढ़ा देती है, तो जनता की खर्च करने की क्षमता कम हो जाती है और मुद्रा आपूर्ति घटती है।
सब्सिडी में कटौती – सरकार यदि सब्सिडी कम कर देती है, तो उपभोक्ताओं और उत्पादकों की आय कम होती है, जिससे मुद्रा प्रवाह कम हो जाता है।
(B) मौद्रिक नीति के माध्यम से मुद्रा संकुचन
ब्याज दरों में वृद्धि – यदि केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाता है, तो लोग और कंपनियाँ कम ऋण लेते हैं, जिससे मुद्रा आपूर्ति घटती है।
रिज़र्व आवश्यकताओं में वृद्धि – यदि CRR और SLR बढ़ाए जाते हैं, तो बैंकों के पास ऋण देने के लिए कम धन बचता है, जिससे मुद्रा संकुचन होता है।
बाजार में बॉन्ड और प्रतिभूतियाँ बेचना – यदि केंद्रीय बैंक सरकारी बॉन्ड बेचता है, तो लोग अपनी नकदी देकर उन्हें खरीदते हैं, जिससे मुद्रा आपूर्ति घट जाती है।
निष्कर्ष
मुद्रा प्रसार और मुद्रा संकुचन दोनों आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। सरकार अपनी वित्तीय नीतियों और केंद्रीय बैंक अपनी मौद्रिक नीतियों के माध्यम से मुद्रा प्रवाह को नियंत्रित करते हैं। यदि अर्थव्यवस्था में मंदी हो, तो मुद्रा प्रसार को बढ़ावा दिया जाता है, जबकि अधिक मुद्रास्फीति होने पर मुद्रा संकुचन किया जाता है। इस तरह वित्तीय नीतियाँ अर्थव्यवस्था को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।







प्रश्न।   करारोपण से आप क्या समझते हैं? करारोपण के सिद्धांतों की आवश्यकता को स्पष्ट कीजिए।

करारोपण का अर्थ
करारोपण (Taxation) का अर्थ सरकार द्वारा व्यक्तियों और संस्थानों से कर (Tax) एकत्र करने की प्रक्रिया से है। सरकार अपने विभिन्न कार्यों जैसे—सार्वजनिक सेवाएँ प्रदान करना, अवसंरचना विकसित करना, और आर्थिक असमानता को कम करना—के लिए कर लगाती है। कर दो प्रकार के होते हैं—

प्रत्यक्ष कर (Direct Tax) – जैसे आयकर (Income Tax), संपत्ति कर (Property Tax) आदि, जो व्यक्ति या संस्था पर सीधे लगाए जाते हैं।
अप्रत्यक्ष कर (Indirect Tax) – जैसे वस्तु एवं सेवा कर (GST), उत्पाद शुल्क (Excise Duty), सीमा शुल्क (Custom Duty) आदि, जो वस्तुओं और सेवाओं की खपत पर लगाए जाते हैं।
करारोपण के सिद्धांतों की आवश्यकता
करारोपण के सिद्धांत यह सुनिश्चित करते हैं कि कर प्रणाली न्यायसंगत, कुशल और आर्थिक विकास के लिए अनुकूल हो। ये सिद्धांत निम्नलिखित कारणों से आवश्यक हैं—

1. समानता और न्याय (Equity and Justice)
करारोपण का पहला सिद्धांत यह है कि कर प्रणाली निष्पक्ष होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति की आय और क्षमता के अनुसार कर लगना चाहिए ताकि गरीबों पर अधिक भार न पड़े और अमीर उचित योगदान दें। एडम स्मिथ के "न्याय के सिद्धांत" के अनुसार, करारोपण क्षमतानुसार (Ability to Pay) होना चाहिए।

2. आर्थिक स्थिरता बनाए रखना (Maintaining Economic Stability)
सरकार कर नीति के माध्यम से मुद्रास्फीति और मंदी को नियंत्रित कर सकती है। उच्च मुद्रास्फीति के समय कर बढ़ाकर मुद्रा प्रवाह कम किया जा सकता है, जबकि मंदी के समय करों में छूट देकर उपभोग और निवेश को प्रोत्साहित किया जा सकता है।

3. राजस्व संग्रहण (Revenue Generation)
सरकार की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कर लगाना आवश्यक है। इससे सरकार बुनियादी ढाँचे, शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा और कल्याणकारी योजनाओं पर व्यय कर सकती है।

4. आर्थिक विकास को बढ़ावा देना (Promoting Economic Growth)
सरकार कर नीतियों के माध्यम से निवेश, उत्पादन और उद्यमिता को प्रोत्साहित कर सकती है। यदि सरकार कुछ उद्योगों को कर में छूट देती है, तो इससे औद्योगिक विकास को गति मिलती है।

5. सामाजिक असमानता को कम करना (Reducing Income Inequality)
करारोपण की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता यह है कि यह समाज में आय के असमान वितरण को कम करता है। प्रगतिशील कर प्रणाली (Progressive Taxation) के तहत, उच्च आय वाले व्यक्तियों पर अधिक कर लगाया जाता है और निम्न आय वालों पर कम कर, जिससे समाज में आर्थिक संतुलन बना रहता है।

6. संसाधनों का उचित आवंटन (Efficient Resource Allocation)
कर नीति यह सुनिश्चित करती है कि पूँजी और संसाधनों का उपयोग उत्पादक क्षेत्रों में हो। अनुत्पादक गतिविधियों (जैसे विलासिता पर अधिक खर्च) पर उच्च कर लगाकर संसाधनों को आवश्यक क्षेत्रों में लगाया जा सकता है।

7. कराधान की सुविधा और सादगी (Ease and Simplicity in Taxation)
कर प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि इसे आसानी से समझा और लागू किया जा सके। करदाताओं पर अनावश्यक बोझ न पड़े और सरकार के लिए इसे वसूलना सरल हो।

निष्कर्ष
करारोपण के सिद्धांत एक प्रभावी, निष्पक्ष और विकासोन्मुखी कर प्रणाली के लिए आवश्यक हैं। एक संतुलित कर प्रणाली न केवल सरकार को राजस्व प्रदान करती है, बल्कि आर्थिक स्थिरता, सामाजिक न्याय और औद्योगिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।







प्रश्न प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों को स्पष्ट करते हुए उनके गुण दोषों की विवेचना विस्तृत रूप में कीजिए।

प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों की विस्तृत विवेचना
सरकार अपनी वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विभिन्न प्रकार के करों (Taxes) का उपयोग करती है। करों को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जाता है—

प्रत्यक्ष कर (Direct Tax)
अप्रत्यक्ष कर (Indirect Tax)
दोनों करों का समाज और अर्थव्यवस्था पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। नीचे इन दोनों करों की विस्तृत व्याख्या, उनके गुण (Advantages) और दोष (Disadvantages) दिए गए हैं।

1. प्रत्यक्ष कर (Direct Tax)
प्रत्यक्ष कर वे कर होते हैं जो सीधे व्यक्ति या संस्था की आय, संपत्ति या संपत्ति हस्तांतरण पर लगाए जाते हैं। इन करों का भुगतान वही व्यक्ति करता है जिस पर यह लगाया गया है, और इसका भार किसी अन्य व्यक्ति पर स्थानांतरित नहीं किया जा सकता।

मुख्य प्रकार के प्रत्यक्ष कर
आयकर (Income Tax) – व्यक्तियों और कंपनियों की आय पर लगाया जाने वाला कर।
संपत्ति कर (Property Tax) – किसी व्यक्ति या संस्था की संपत्ति के मूल्य पर लगाया जाने वाला कर।
निगम कर (Corporate Tax) – कंपनियों के मुनाफे पर लगाया जाने वाला कर।
पूँजीगत लाभ कर (Capital Gains Tax) – किसी परिसंपत्ति (Asset) को बेचने पर प्राप्त लाभ पर लगाया जाने वाला कर।
सम्पत्ति अंतरण कर (Estate Tax) – विरासत में मिली संपत्ति पर लगाया जाने वाला कर।
प्रत्यक्ष कर के गुण (Advantages)
आय के अनुसार करारोपण – प्रत्यक्ष कर व्यक्ति की आय के अनुसार लगाया जाता है, जिससे अमीर व्यक्ति अधिक कर चुकाते हैं और गरीब व्यक्ति कम।
समानता और न्याय – इस कर प्रणाली में सामाजिक समानता को बढ़ावा मिलता है क्योंकि अमीरों पर अधिक कर लगाया जाता है।
राजस्व की स्थिरता – सरकार को प्रत्यक्ष करों से एक स्थिर और निश्चित आय प्राप्त होती है, जिससे वह दीर्घकालिक योजनाएँ बना सकती है।
मुद्रास्फीति नियंत्रण – उच्च आय वालों पर अधिक कर लगाकर सरकार मुद्रा प्रवाह को नियंत्रित कर सकती है।
कर चोरी पर नियंत्रण – प्रत्यक्ष कर प्रणाली के तहत करदाताओं को अपनी आय और संपत्ति का विवरण देना होता है, जिससे कर चोरी रोकने में मदद मिलती है।
प्रत्यक्ष कर के दोष (Disadvantages)
भुगतान में अनिच्छा – लोग प्रत्यक्ष कर देने से बचने का प्रयास करते हैं, जिससे कर चोरी (Tax Evasion) की संभावना बढ़ जाती है।
प्रशासनिक कठिनाईयाँ – इस कर को एकत्र करने के लिए जटिल प्रक्रियाएँ अपनानी पड़ती हैं, जिससे कर प्रशासन में अधिक खर्च होता है।
नवाचार और उद्यमिता पर प्रभाव – उच्च दर पर लगाए गए प्रत्यक्ष करों से लोगों के काम करने और अधिक कमाने की प्रेरणा कम हो सकती है।
निजता का हनन – कर भुगतान के लिए व्यक्ति को अपनी आय और संपत्ति का विवरण देना पड़ता है, जिससे गोपनीयता प्रभावित हो सकती है।
2. अप्रत्यक्ष कर (Indirect Tax)
अप्रत्यक्ष कर वे कर होते हैं जो किसी वस्तु या सेवा की खपत पर लगाए जाते हैं और इनका भुगतान उपभोक्ताओं द्वारा किया जाता है। ये कर उत्पादक या विक्रेता द्वारा वसूले जाते हैं और अंततः उपभोक्ता पर स्थानांतरित कर दिए जाते हैं।

मुख्य प्रकार के अप्रत्यक्ष कर
वस्तु एवं सेवा कर (GST - Goods and Services Tax) – वस्तुओं और सेवाओं पर लगाया जाने वाला एक व्यापक कर।
उत्पाद शुल्क (Excise Duty) – किसी वस्तु के निर्माण पर लगाया जाने वाला कर।
सीमा शुल्क (Custom Duty) – विदेशों से आयात की जाने वाली वस्तुओं पर लगाया जाने वाला कर।
सेवा कर (Service Tax) – विभिन्न सेवाओं (जैसे होटल, टेलीफोन, बीमा) पर लगाया जाने वाला कर।
वैट (Value Added Tax - VAT) – विभिन्न चरणों पर उत्पादों के मूल्य में वृद्धि पर लगाया जाने वाला कर।
अप्रत्यक्ष कर के गुण (Advantages)
कर चोरी की संभावना कम – चूंकि ये कर वस्तुओं और सेवाओं की खपत पर लगाए जाते हैं, इसलिए इन्हें चुराना या छिपाना कठिन होता है।
सरलता और सुविधा – अप्रत्यक्ष कर उपभोक्ताओं से सीधे नहीं वसूला जाता, बल्कि वह वस्तु के मूल्य में शामिल रहता है, जिससे इसे चुकाना आसान होता है।
विस्तृत कवरेज – हर व्यक्ति को प्रत्यक्ष कर नहीं देना पड़ता, लेकिन अप्रत्यक्ष कर हर उपभोक्ता देता है, जिससे सरकार को अधिक राजस्व प्राप्त होता है।
उपभोग नियंत्रण – सरकार विलासिता और हानिकारक वस्तुओं (जैसे शराब, तंबाकू) पर अधिक कर लगाकर उनके उपभोग को नियंत्रित कर सकती है।
अप्रत्यक्ष कर के दोष (Disadvantages)
गरीबों पर अधिक भार – अप्रत्यक्ष कर सभी उपभोक्ताओं पर समान रूप से लागू होते हैं, जिससे गरीबों को अमीरों की तुलना में अधिक आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है।
मुद्रास्फीति को बढ़ावा – अप्रत्यक्ष कर से वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें बढ़ जाती हैं, जिससे मुद्रास्फीति (Inflation) बढ़ सकती है।
उत्पादन लागत में वृद्धि – अप्रत्यक्ष करों से उत्पादन की लागत बढ़ती है, जिससे उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता (Competitiveness) पर असर पड़ सकता है।
कर की अदृश्यता – उपभोक्ताओं को अप्रत्यक्ष कर का सही आकलन करना कठिन होता है क्योंकि यह उत्पाद के मूल्य में छिपा होता है।
निष्कर्ष
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर दोनों का अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्यक्ष कर न्यायसंगत होते हैं और सरकार को स्थिर आय प्रदान करते हैं, लेकिन इनमें कर चोरी की संभावना अधिक होती है। दूसरी ओर, अप्रत्यक्ष कर सरल होते हैं और व्यापक कर आधार प्रदान करते हैं, लेकिन इनका बोझ गरीबों पर अधिक पड़ता है।

सरकार को दोनों प्रकार के करों का संतुलित उपयोग करना चाहिए ताकि राजस्व संग्रहण, आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय और मुद्रास्फीति नियंत्रण के बीच उचित संतुलन बना रहे।







प्रश्न  करापात से आप क्या समझते हैं? काराघात और कारापात में अंतर स्पष्ट कीजिए।

करापात का अर्थ
करापात (Tax Evasion) का अर्थ करदाताओं द्वारा कानूनी दायित्वों से बचने के लिए जानबूझकर कर न चुकाना या गलत जानकारी देना होता है। यह एक अवैध गतिविधि है जिसमें व्यक्ति या संस्थान अपनी वास्तविक आय, संपत्ति या लेन-देन को छिपाते हैं ताकि कम कर देना पड़े या बिल्कुल न देना पड़े।

करापात के उदाहरण
आय को छुपाकर कम आय दिखाना।
नकद लेन-देन करके कर देयता से बचना।
फर्जी खर्च दिखाकर कर योग्य आय को कम करना।
झूठे दस्तावेज़ प्रस्तुत करना।
काराघात और करापात में अंतर
अंतर का आधार काराघात (Tax Avoidance) करापात (Tax Evasion)
परिभाषा कानूनी खामियों या प्रावधानों का उपयोग कर कर देयता को कम करना। कर कानूनों का उल्लंघन कर अवैध रूप से कर भुगतान से बचना।
वैधता यह एक कानूनी प्रक्रिया है। यह अवैध और दंडनीय अपराध है।
उदाहरण सरकार द्वारा दी गई कर छूटों और कटौतियों का लाभ उठाना। आय छुपाना, फर्जी दस्तावेज़ बनाना या कर विवरण गलत प्रस्तुत करना।
प्रभाव सरकार के राजस्व को प्रभावित कर सकता है लेकिन कानून के दायरे में रहता है। सरकार के राजस्व को सीधे नुकसान पहुँचाता है और आर्थिक असमानता को बढ़ाता है।
नतीजे सरकार इसे रोकने के लिए कर कानूनों में बदलाव कर सकती है। दोषी पाए जाने पर व्यक्ति को दंड या जेल हो सकती है।
निष्कर्ष
काराघात (Tax Avoidance) और करापात (Tax Evasion) दोनों ही सरकार के राजस्व को प्रभावित करते हैं, लेकिन करापात एक गंभीर अपराध है। सरकार को कर चोरी को रोकने के लिए सख्त नियम लागू करने चाहिए, जबकि कानूनी कर कटौतियों का दुरुपयोग रोकने के लिए कर प्रणाली को पारदर्शी और सरल बनाना चाहिए।







प्रश्न  करापात से आप क्या समझते हैं? काराघात और कारापात में अंतर स्पष्ट कीजिए।

करापात का अर्थ
करापात (Tax Evasion) एक अवैध प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति या संस्था सरकार को दिए जाने वाले करों से बचने के लिए जानबूझकर कर कानूनों का उल्लंघन करते हैं। इसमें आमतौर पर आय छुपाना, गलत विवरण देना, नकद लेन-देन करना, या फर्जी दस्तावेज़ प्रस्तुत करना शामिल होता है। यह एक अपराध है और दोषी पाए जाने पर कानूनी दंड का प्रावधान होता है।

काराघात और करापात में अंतर
अंतर का आधार काराघात (Tax Avoidance) करापात (Tax Evasion)
परिभाषा कानूनी तरीके अपनाकर कर देयता को कम करना। अवैध तरीकों से कर भुगतान से बचना।
वैधता पूरी तरह कानूनी। अवैध और दंडनीय अपराध।
उदाहरण कर कटौती और छूट का लाभ उठाना, कर नियोजन करना। आय छुपाना, फर्जी बिल बनाना, नकद लेन-देन छिपाना।
प्रभाव सरकार के राजस्व को प्रभावित कर सकता है लेकिन कानून के तहत होता है। सरकार के राजस्व को सीधा नुकसान पहुँचाता है और असमानता को बढ़ावा देता है।
नतीजे सरकार कर कानूनों में बदलाव कर इसे नियंत्रित कर सकती है। दोषी पाए जाने पर आर्थिक दंड, संपत्ति जब्त, या जेल हो सकती है।
निष्कर्ष
काराघात और करापात दोनों कर देयता को कम करने से जुड़े हैं, लेकिन करापात अवैध है और दंडनीय अपराध है। सरकार को कर चोरी रोकने के लिए सख्त नियम, पारदर्शी कर प्रणाली, और डिजिटल निगरानी जैसे कदम उठाने चाहिए ताकि कर प्रणाली अधिक प्रभावी और निष्पक्ष हो।







प्रश्न  करापात से आप क्या समझते हैं? काराघात और कारापात में अंतर स्पष्ट कीजिए।

करापात का अर्थ
करापात (Tax Evasion) एक अवैध प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति या संस्था कर देयता से बचने के लिए जानबूझकर गलत तरीकों का उपयोग करते हैं। इसमें आय को छुपाना, नकद लेन-देन को रिपोर्ट न करना, फर्जी खर्च दिखाना या झूठे दस्तावेज़ प्रस्तुत करना शामिल है। करापात कर कानूनों का सीधा उल्लंघन करता है और यह एक दंडनीय अपराध है। सरकार करापात करने वालों पर आर्थिक दंड, संपत्ति जब्ती और जेल जैसी कठोर सज़ाएँ लागू कर सकती है।

काराघात और करापात में अंतर
काराघात (Tax Avoidance) और करापात (Tax Evasion) दोनों का उद्देश्य कर बचाना होता है, लेकिन दोनों के तरीके और कानूनी स्थिति अलग-अलग होती है। काराघात एक वैध तरीका है जिसमें व्यक्ति या संस्था कर कानूनों में मौजूद छूट, कटौतियों और कानूनी प्रावधानों का उपयोग करके अपनी कर देयता को कम करते हैं। उदाहरण के लिए, कोई कंपनी सरकार द्वारा दी गई कर छूटों का लाभ उठाकर कर बचा सकती है, जो पूरी तरह कानूनी है।

वहीं, करापात एक अवैध तरीका है जिसमें व्यक्ति या संस्था कर अधिकारियों को गुमराह करके या झूठी जानकारी देकर कर भुगतान से बचने की कोशिश करते हैं। यह सरकार के राजस्व को सीधा नुकसान पहुँचाता है और आर्थिक असमानता को बढ़ावा देता है।

सरकार काराघात को सीमित करने के लिए कर कानूनों में बदलाव कर सकती है, लेकिन करापात पर रोक लगाने के लिए उसे सख्त दंड और निगरानी तंत्र लागू करने की आवश्यकता होती है। कुल मिलाकर, काराघात कानून के दायरे में रहकर कर बचाने की एक रणनीति है, जबकि करापात एक कानूनी अपराध है जो दंडनीय होता है।





प्रश्न।    कर विवर्तन से आप क्या समझते हैं तथा कर विवर्तन के रूपों का वर्णन कीजिए।

कर विवर्तन का अर्थ
कर विवर्तन (Tax Shifting) उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें कर का वास्तविक भार किसी अन्य व्यक्ति या संस्था पर स्थानांतरित कर दिया जाता है। इसका अर्थ है कि जिस व्यक्ति या संस्था पर कानूनी रूप से कर लगाया जाता है, वह इसे प्रत्यक्ष रूप से नहीं चुकाती, बल्कि इसे किसी अन्य पर स्थानांतरित कर देती है। आमतौर पर, व्यवसाय और व्यापारी अपने उत्पादों और सेवाओं की कीमतें बढ़ाकर कर का भार उपभोक्ताओं पर डाल देते हैं।

उदाहरण के लिए, जब सरकार किसी वस्तु पर उत्पाद शुल्क या वस्तु एवं सेवा कर (GST) लगाती है, तो निर्माता या विक्रेता इसे अपने ग्राहकों से वसूल कर लेते हैं। इस प्रकार, कानूनी रूप से करदाता कोई और होता है, लेकिन उसका वास्तविक भार किसी और पर पड़ता है।

कर विवर्तन के प्रमुख रूप
विस्तारित कर विवर्तन (Forward Shifting) – इसमें कर का भार उपभोक्ताओं पर डाल दिया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी उत्पाद पर कर लगाया जाता है, तो निर्माता इसकी कीमत बढ़ाकर इसे ग्राहकों से वसूल करता है।

प्रतिगामी कर विवर्तन (Backward Shifting) – इसमें कर का भार उत्पादन प्रक्रिया में पहले के चरणों पर स्थानांतरित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि सरकार किसानों पर कोई नया कर लगाती है, तो वे इसका भार ज़मींदारों या आपूर्तिकर्ताओं पर डाल सकते हैं।

संवेगात्मक कर विवर्तन (Staggered Shifting) – इसमें कर भार कई चरणों में विभिन्न वर्गों पर वितरित हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि सरकार कार निर्माता पर कर लगाती है, तो निर्माता इसे अपने डीलरों पर डालता है, और डीलर इसे ग्राहकों से वसूलते हैं।

नगण्य कर विवर्तन (Absorption of Tax) – इसमें करदाता खुद ही कर का भार वहन करता है और इसे आगे स्थानांतरित नहीं करता। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यापारी पर कर बढ़ा दिया जाए, लेकिन वह प्रतिस्पर्धा के कारण अपने उत्पाद की कीमतें नहीं बढ़ा सकता, तो उसे स्वयं यह कर चुकाना पड़ता है।

निष्कर्ष
कर विवर्तन एक महत्वपूर्ण आर्थिक प्रक्रिया है, जिसका प्रभाव उपभोक्ताओं, उत्पादकों और सरकार पर पड़ता है। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कर प्रणाली न्यायसंगत और प्रभावी हो, ताकि करों का भार उचित रूप से वितरित किया जा सके और इससे आर्थिक असमानता न बढ़े।







प्रश्न लोक ऋण से आप क्या समझते हैं? इसके उद्देश्यों और महत्व को बताइए।

लोक ऋण का अर्थ
लोक ऋण (Public Debt) वह ऋण होता है जो सरकार विभिन्न स्रोतों से उधार लेती है ताकि राजस्व और व्यय के बीच संतुलन बनाया जा सके। जब सरकार की आय (कर, शुल्क आदि) उसके खर्चों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त होती है, तो वह देश के नागरिकों, बैंकों, वित्तीय संस्थानों या विदेशी संगठनों से ऋण लेती है। यह ऋण आंतरिक (Internal Debt) और बाह्य (External Debt) दो प्रकार का हो सकता है।

आंतरिक लोक ऋण – जब सरकार देश के भीतर से, जैसे कि बैंकों, जनता या अन्य वित्तीय संस्थानों से ऋण लेती है।
बाह्य लोक ऋण – जब सरकार अन्य देशों, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (IMF, World Bank) या विदेशी बैंकों से ऋण लेती है।
लोक ऋण के उद्देश्य
वित्तीय घाटे को पूरा करना – जब सरकार की कुल आय उसके खर्चों से कम होती है, तो वह लोक ऋण लेकर बजट संतुलित करती है।
अवसंरचना विकास – बड़े पैमाने पर सड़कें, पुल, रेलवे, ऊर्जा उत्पादन आदि परियोजनाओं के लिए सरकार ऋण लेती है।
युद्ध और आपात स्थितियों में सहायता – युद्ध, महामारी, प्राकृतिक आपदाओं जैसे संकटों के दौरान सरकार को अतिरिक्त धन की आवश्यकता होती है।
कल्याणकारी योजनाएँ लागू करना – शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, गरीबी उन्मूलन जैसी योजनाओं के लिए लोक ऋण उपयोग किया जाता है।
मौद्रिक स्थिरता बनाए रखना – कभी-कभी सरकार मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करने और आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए ऋण लेती है।
लोक ऋण का महत्व
आर्थिक विकास को गति देना – लोक ऋण से सरकार विभिन्न विकास परियोजनाएँ संचालित कर सकती है, जिससे अर्थव्यवस्था में निवेश और रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।
बेरोजगारी कम करना – सरकार द्वारा लिए गए ऋण से इंफ्रास्ट्रक्चर और कल्याणकारी योजनाओं में निवेश किया जाता है, जिससे रोजगार के नए अवसर उत्पन्न होते हैं।
मुद्रास्फीति और आर्थिक अस्थिरता को नियंत्रित करना – यदि देश में आर्थिक मंदी होती है, तो सरकार ऋण लेकर विभिन्न योजनाओं में निवेश कर मांग बढ़ा सकती है।
राजकोषीय नीति को प्रभावी बनाना – सरकार लोक ऋण का उपयोग कर कर नीति को संतुलित करती है, जिससे जनता पर करों का अत्यधिक बोझ नहीं पड़ता।
राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत बनाना – सेना, रक्षा उपकरण और अन्य सुरक्षा से जुड़ी गतिविधियों के लिए सरकार को भारी धनराशि की आवश्यकता होती है, जिसे लोक ऋण से पूरा किया जा सकता है।

निष्कर्ष
लोक ऋण किसी भी सरकार की आर्थिक नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यदि इसका सही तरीके से उपयोग किया जाए, तो यह आर्थिक विकास, बुनियादी ढांचे के निर्माण और कल्याणकारी योजनाओं को बढ़ावा देने में सहायक हो सकता है। लेकिन, अत्यधिक ऋण लेने से सरकार पर ब्याज भुगतान का भारी बोझ पड़ सकता है, जिससे वित्तीय अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है। इसलिए, सरकार को लोक ऋण का प्रबंधन संतुलित और दीर्घकालिक दृष्टिकोण से करना चाहिए।