VAC-08 SOLVED PAPER JUNE 2024

 VAC-08 SOLVED PAPER JUNE 2024 



01. संविधान को परिभाषित करते हुए, औपनिवेशिक शासन के दौरान हुए संविधानिक विकास की चर्चा कीजिए।




परिचय


संविधान किसी भी देश की शासन व्यवस्था का मूलभूत दस्तावेज होता है, जो सरकार की संरचना, शक्तियों, कार्यों और नागरिकों के अधिकारों एवं कर्तव्यों को परिभाषित करता है। भारत का संविधान देश का सर्वोच्च विधिक दस्तावेज है, जो लोकतंत्र, समानता और न्याय के मूल सिद्धांतों पर आधारित है। भारत में संविधान का विकास औपनिवेशिक शासन के दौरान विभिन्न अधिनियमों और सुधारों के माध्यम से हुआ, जिन्होंने आधुनिक भारतीय संविधान की नींव रखी।


संविधान की परिभाषा


संविधान एक लिखित या अलिखित दस्तावेज होता है, जो किसी देश की शासन प्रणाली, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों एवं दायित्वों को परिभाषित करता है। भारतीय संविधान एक विस्तृत लिखित संविधान है, जो नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है और शासन को निर्देश देने वाले मूलभूत सिद्धांतों को निर्धारित करता है।


औपनिवेशिक शासन के दौरान संविधानिक विकास


औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत में कई संविधानिक सुधार किए गए, जो भारत में आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के विकास में सहायक बने। इन सुधारों को निम्नलिखित चरणों में देखा जा सकता है—


1. 1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट


यह भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा लागू किया गया पहला महत्वपूर्ण संवैधानिक सुधार था।


इसके तहत बंगाल के गवर्नर को "गवर्नर जनरल" बनाया गया।


सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई, जिससे न्यायिक प्रशासन में सुधार हुआ।


2. 1833 का चार्टर एक्ट


इस अधिनियम ने गवर्नर जनरल ऑफ बंगाल को "गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया" बना दिया।


भारत में विधायी प्रक्रिया को केंद्रीकृत किया गया।


यह अधिनियम भारतीय प्रशासन के केंद्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।


3. 1858 का भारत सरकार अधिनियम


इस अधिनियम के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया और भारत ब्रिटिश क्राउन के प्रत्यक्ष शासन में आ गया।


भारत में पहली बार "वायसराय" की नियुक्ति की गई।


ब्रिटिश संसद को भारत पर प्रत्यक्ष नियंत्रण प्रदान किया गया।


4. 1861, 1892 और 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम


1861 के अधिनियम ने भारतीयों को विधायी परिषद में शामिल करने की अनुमति दी।


1892 के अधिनियम ने विधायिका के आकार और शक्तियों को बढ़ाया।


1909 के अधिनियम (मिंटो-मॉर्ले सुधार) ने "सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व" की शुरुआत की, जिससे मुस्लिमों को अलग निर्वाचन क्षेत्र प्रदान किया गया।


5. 1919 का भारत सरकार अधिनियम (मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार)


इस अधिनियम ने "द्वैध शासन" (Dyarchy) की अवधारणा प्रस्तुत की।


प्रांतों में कुछ विषयों को निर्वाचित प्रतिनिधियों के अधीन किया गया।


भारतीयों को प्रशासन में अधिक भागीदारी देने की कोशिश की गई।


6. 1935 का भारत सरकार अधिनियम


यह भारत में अब तक का सबसे व्यापक संवैधानिक सुधार था।


प्रांतीय स्वायत्तता को बढ़ावा दिया गया और द्वैध शासन को समाप्त किया गया।


संघीय व्यवस्था की नींव रखी गई।


इस अधिनियम के प्रावधानों ने भारतीय संविधान की रचना को बहुत प्रभावित किया।


7. 1947 का भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम


इस अधिनियम ने भारत को स्वतंत्रता प्रदान की और भारत तथा पाकिस्तान के रूप में दो स्वतंत्र राष्ट्रों की स्थापना की।


भारत में संविधान निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई, जिससे 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया।


निष्कर्ष


औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत में विभिन्न संवैधानिक सुधारों के माध्यम से आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था की नींव रखी गई। 1773 से 1947 तक के अधिनियमों ने शासन प्रणाली, विधायिका और प्रशासन में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। इन सुधारों ने भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक व्यवस्था के विकास में योगदान दिया, जो अंततः भारतीय संविधान के निर्माण का आधार बना।




02. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित मूल्य एवं दर्शन का विश्लेषण कीजिए।




परिचय


संविधान की प्रस्तावना (Preamble) किसी भी राष्ट्र की आत्मा होती है, जो उसके मूल सिद्धांतों और लक्ष्यों को परिभाषित करती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना हमारे संविधान के आदर्शों, उद्देश्यों और दर्शन को स्पष्ट रूप से प्रकट करती है। यह भारतीय गणराज्य की मूलभूत विशेषताओं और नागरिकों को दिए गए अधिकारों का सार प्रस्तुत करती है। प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे प्रमुख मूल्य निहित हैं, जो भारतीय संविधान के दर्शन को प्रतिबिंबित करते हैं।


संविधान की प्रस्तावना का पाठ


भारतीय संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है:


"हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए; तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"


प्रस्तावना में निहित मूल्य एवं दर्शन


संविधान की प्रस्तावना में निम्नलिखित प्रमुख मूल्य निहित हैं:


1. संप्रभुता (Sovereignty)


भारत एक संप्रभु राष्ट्र है, जिसका अर्थ है कि यह किसी भी बाहरी शक्ति से स्वतंत्र है और अपने आंतरिक एवं बाहरी मामलों को स्वयं नियंत्रित कर सकता है। भारत किसी अन्य देश या संस्था के अधीन नहीं है और अपनी नीतियों को स्वतंत्र रूप से निर्धारित कर सकता है।


2. समाजवाद (Socialism)


संविधान में समाजवाद को एक महत्वपूर्ण मूल्य के रूप में अपनाया गया है। यह आर्थिक और सामाजिक समानता सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखता है, ताकि समाज में वर्गभेद और शोषण न हो। समाजवादी सिद्धांत के अनुसार, सरकार का दायित्व है कि वह समाज में संसाधनों का समान वितरण करे और कमजोर वर्गों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करे।


3. पंथनिरपेक्षता (Secularism)


भारतीय संविधान के अनुसार, भारत एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है, जिसका अर्थ है कि राज्य सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहेगा और किसी विशेष धर्म को प्रोत्साहित या हानि नहीं पहुंचाएगा। नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। राज्य और धर्म को अलग रखते हुए, संविधान धार्मिक सहिष्णुता और समरसता को बढ़ावा देता है।


4. लोकतंत्र (Democracy)


भारत का शासन लोकतांत्रिक है, जिसका अर्थ है कि जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से करती है। यह लोकतंत्र संसदीय प्रणाली पर आधारित है, जहां सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। इसमें सभी नागरिकों को समान मतदान का अधिकार प्राप्त है।


5. गणराज्य (Republic)


भारत एक गणराज्य है, जिसका अर्थ है कि देश का प्रमुख (राष्ट्रपति) जनता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है और यह पद वंशानुगत नहीं होता। भारत में किसी भी नागरिक को योग्यतानुसार सर्वोच्च पदों पर पहुंचने का अधिकार प्राप्त है।


संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित उद्देश्यों का दर्शन


संविधान की प्रस्तावना केवल शासन प्रणाली का विवरण नहीं देती, बल्कि यह समाज की मूलभूत संरचना और उद्देश्यों को भी दर्शाती है। इसमें निम्नलिखित प्रमुख तत्व शामिल हैं:


1. न्याय (Justice)


न्याय को तीन रूपों में परिभाषित किया गया है:


सामाजिक न्याय – सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर मिलें, जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव न हो।


आर्थिक न्याय – देश की आर्थिक नीतियाँ ऐसी हों, जो गरीबी को कम करें और संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करें।


राजनीतिक न्याय – सभी नागरिकों को राजनीति में समान भागीदारी का अवसर मिले और मतदान का अधिकार प्राप्त हो।


2. स्वतंत्रता (Liberty)


संविधान प्रत्येक नागरिक को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रदान करता है। इसका अर्थ है कि नागरिकों को बिना किसी अनुचित प्रतिबंध के अपने विचार रखने और अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है।


3. समानता (Equality)


संविधान सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता प्रदान करता है और अवसरों की समानता सुनिश्चित करता है। किसी भी नागरिक के साथ जाति, धर्म, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।


4. बंधुता (Fraternity)


बंधुता का अर्थ है कि नागरिकों के बीच आपसी प्रेम, सद्भाव और भाईचारे की भावना बनी रहे। यह व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करता है और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करता है।


संविधान की प्रस्तावना का महत्व


यह संविधान की आत्मा है और संविधान में उल्लिखित मूल्यों और उद्देश्यों का सार प्रस्तुत करती है।


यह भारत के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टिकोण को परिभाषित करती है।


यह न्यायपालिका को संविधान की व्याख्या करने में मार्गदर्शन प्रदान करती है।


निष्कर्ष


भारतीय संविधान की प्रस्तावना देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दर्शन को व्यक्त करती है। इसमें उल्लिखित मूल्य – संप्रभुता, समाजवाद, पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र, और गणराज्यवाद – भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला हैं। यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के सिद्धांतों को सुदृढ़ करती है, जिससे भारत एक समावेशी और प्रगतिशील राष्ट्र बन सके।




03. भारत एक संघ है जिसमें एकात्मक शासन के लक्षण है। व्याख्या कीजिए।




परिचय


भारत एक संघीय (Federal) राष्ट्र है, जिसका अर्थ है कि इसमें सत्ता का वितरण केंद्र और राज्यों के बीच किया गया है। हालाँकि, भारतीय संघ की संरचना पारंपरिक संघीय देशों (जैसे अमेरिका) से भिन्न है क्योंकि इसमें कई एकात्मक (Unitary) शासन के लक्षण भी पाए जाते हैं। भारतीय संविधान निर्माताओं ने संघीय व्यवस्था को अपनाने के साथ-साथ केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान कीं, जिससे राष्ट्रीय एकता और अखंडता सुनिश्चित की जा सके। इसलिए, भारत को एक ऐसा संघ कहा जाता है, जिसमें एकात्मक शासन के भी लक्षण मौजूद हैं।


भारत का संघीय ढांचा


संविधान के अनुच्छेद 1 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि –

"भारत, राज्यों का संघ होगा।"

इसका अर्थ यह है कि भारत एक संघीय व्यवस्था पर आधारित राष्ट्र है, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण किया गया है।


संविधान में भारत की संघीय विशेषताओं को स्पष्ट करने के लिए निम्नलिखित तत्व शामिल हैं:


दोहरी शासन व्यवस्था – केंद्र और राज्यों के पास अपने-अपने विषय क्षेत्र हैं।


तीन सूचियाँ – संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची के माध्यम से शक्तियों का विभाजन।


संविधान की सर्वोच्चता – भारत में संविधान सर्वोच्च है, और कोई भी सरकार इससे ऊपर नहीं है।


न्यायपालिका की स्वतंत्रता – केंद्र और राज्यों के बीच विवादों का समाधान सर्वोच्च न्यायालय करता है।


हालाँकि, भारतीय संघीय प्रणाली पारंपरिक संघीय संरचनाओं से भिन्न है क्योंकि इसमें एकात्मक शासन के कई लक्षण भी मौजूद हैं।


भारत में एकात्मक शासन के लक्षण


संविधान में कुछ प्रावधान ऐसे हैं, जो भारत को संघीय से अधिक एकात्मक बनाते हैं। ये इस प्रकार हैं:


1. केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं


भारतीय संविधान केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान करता है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि देश की एकता और अखंडता बनी रहे।


संघ सूची में 97 विषय हैं, जिन पर केवल केंद्र सरकार कानून बना सकती है।


समवर्ती सूची में 52 विषय हैं, जिन पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं, लेकिन यदि कोई टकराव होता है तो केंद्र का कानून प्रभावी रहेगा।


2. राज्य संघ से अलग नहीं हो सकते


अमेरिकी संविधान में राज्यों को संघ से अलग होने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन भारतीय संविधान में राज्यों को संघ से अलग होने की अनुमति नहीं है।


भारत का संघ अनभाज्य (Indestructible) है, यानी केंद्र सरकार राज्यों की सीमाओं को पुनः निर्धारित कर सकती है (अनुच्छेद 3)।


3. एकल नागरिकता


भारत में एकल नागरिकता (Single Citizenship) की अवधारणा लागू है, जबकि अमेरिका में संघीय प्रणाली के तहत प्रत्येक व्यक्ति को संघ और राज्य दोनों की नागरिकता प्राप्त होती है।


4. केंद्र की आपातकालीन शक्तियाँ (अनुच्छेद 352, 356, 360)


भारत में यदि आपातकाल (Emergency) की स्थिति उत्पन्न होती है, तो केंद्र सरकार की शक्तियाँ बहुत अधिक बढ़ जाती हैं।


राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) के दौरान केंद्र सरकार राज्यों के सभी अधिकार अपने हाथ में ले सकती है।


राज्य में संवैधानिक संकट होने पर (अनुच्छेद 356), राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है।


वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360) के दौरान केंद्र सरकार को राज्यों की वित्तीय शक्तियों पर पूर्ण नियंत्रण मिल जाता है।


5. राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र द्वारा


भारत में प्रत्येक राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है (अनुच्छेद 155)।


राज्यपाल को विशेष शक्तियाँ प्राप्त होती हैं, जिससे वह केंद्र सरकार के निर्देशों का पालन करता है।


कई बार राज्यपाल को राज्य सरकार की रिपोर्ट केंद्र को भेजने का अधिकार होता है, जिसके आधार पर राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।


6. संविधान का एकात्मक लचीलापन


भारतीय संविधान में केंद्र को कुछ ऐसे अधिकार दिए गए हैं, जिससे संघीय व्यवस्था एकात्मक प्रणाली की तरह काम करती है।


संसद को यह शक्ति प्राप्त है कि वह राज्यों की सहमति के बिना भी संविधान में संशोधन कर सकती है (अनुच्छेद 368)।


7. अखिल भारतीय सेवाएँ (All India Services)


भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS), भारतीय पुलिस सेवा (IPS) और भारतीय वन सेवा (IFS) जैसी सेवाएँ केंद्र सरकार के नियंत्रण में होती हैं, लेकिन इनका कार्य संचालन राज्य सरकारों में होता है।


इन सेवाओं के अधिकारी राज्य सरकार के अधीन रहकर काम करते हैं, लेकिन उनकी नियुक्ति और स्थानांतरण केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है।


8. न्यायपालिका की एकात्मक प्रकृति


भारत में एक एकीकृत न्यायिक प्रणाली है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय देश की सर्वोच्च अदालत होती है।


केंद्र और राज्य दोनों के मामलों का अंतिम निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया जाता है।


न्यायपालिका की यह संरचना भारत को एकात्मक व्यवस्था की ओर झुकाव प्रदान करती है।


संघीय और एकात्मक तत्वों का संतुलन


भारतीय संविधान न तो पूरी तरह संघीय है और न ही पूरी तरह एकात्मक, बल्कि यह संघीय ढांचे में एकात्मक विशेषताओं को समाहित करता है।


संघीय विशेषताएँएकात्मक विशेषताएँकेंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजनकेंद्र सरकार को अधिक शक्तियाँ प्राप्ततीन सूचियाँ (संघ, राज्य, समवर्ती)समवर्ती सूची में केंद्र का वर्चस्वसंविधान की सर्वोच्चतासंविधान संशोधन में केंद्र की प्रमुख भूमिकान्यायपालिका की स्वतंत्रतान्यायपालिका की एकात्मक संरचनाराज्यों को अपनी सरकार बनाने का अधिकारआपातकाल में केंद्र का पूर्ण नियंत्रणदोहरी शासन प्रणालीराज्यपाल की नियुक्ति केंद्र द्वारा


निष्कर्ष


भारत को एक संघीय ढांचे के भीतर एकात्मक झुकाव वाला राष्ट्र कहा जाता है। संविधान ने केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन बनाया है, लेकिन जब भी राष्ट्रीय एकता और अखंडता का प्रश्न आता है, केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं। यह विशेषता भारत को पारंपरिक संघीय देशों (जैसे अमेरिका) से अलग बनाती है। इसलिए, भारत एक संघीय राज्य है जिसमें एकात्मक शासन के भी कई लक्षण मौजूद हैं।




04. भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है। विश्लेषण कीजिए।



परिचय


लोक कल्याणकारी राज्य (Welfare State) का तात्पर्य उस राज्य से है, जिसका मुख्य उद्देश्य जनता के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कल्याण को सुनिश्चित करना होता है। भारतीय संविधान ने भारत को एक लोक कल्याणकारी राज्य बनाने की नींव रखी है, जिसमें सरकार नागरिकों के जीवन स्तर को सुधारने और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न नीतियाँ और कार्यक्रम लागू करती है।


संविधान की प्रस्तावना, मूल अधिकार (Fundamental Rights), नीति निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy) और अन्य संवैधानिक प्रावधान भारत को एक लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित करते हैं।


लोक कल्याणकारी राज्य की परिभाषा


गेटल और डाइमेंट के अनुसार –

"लोक कल्याणकारी राज्य वह शासन प्रणाली है, जिसमें सरकार नागरिकों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कल्याण के लिए सक्रिय भूमिका निभाती है।"


संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार –

"लोक कल्याणकारी राज्य वह राज्य है, जो अपने नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ, शिक्षा और रोजगार जैसी बुनियादी आवश्यकताएँ प्रदान करता है।"


भारत को लोक कल्याणकारी राज्य बनाने वाले संवैधानिक प्रावधान


भारतीय संविधान ने लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार करने के लिए निम्नलिखित प्रावधान किए हैं:


1. प्रस्तावना (Preamble) में लोक कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य


भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लोक कल्याणकारी राज्य की झलक मिलती है, जहाँ यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता को बढ़ावा देने की बात करता है।


2. मूल अधिकार (Fundamental Rights) – नागरिकों की सुरक्षा और समानता


संविधान के भाग 3 में दिए गए मूल अधिकार लोक कल्याणकारी राज्य की नींव रखते हैं। ये अधिकार नागरिकों के सम्मान और सुरक्षा को सुनिश्चित करते हैं:


समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) – सभी नागरिक कानून के समक्ष समान हैं।


स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, रोजगार का अधिकार आदि।


शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24) – बाल श्रम और जबरन मजदूरी पर प्रतिबंध।


संवैधानिक उपचार का अधिकार (अनुच्छेद 32) – नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय जा सकते हैं।


3. राज्य के नीति निदेशक तत्व (DPSP) – लोक कल्याणकारी राज्य की आधारशिला


संविधान के भाग 4 (अनुच्छेद 36-51) में राज्य के नीति निदेशक तत्व शामिल हैं, जो राज्य को लोक कल्याणकारी नीतियाँ लागू करने के लिए प्रेरित करते हैं।


सामाजिक समानता (अनुच्छेद 38) – समाज में समानता और कल्याण को बढ़ावा देना।


आर्थिक समानता (अनुच्छेद 39) – संपत्ति और संसाधनों का समान वितरण।


श्रमिकों के लिए कल्याणकारी प्रावधान (अनुच्छेद 41-43) – कामगारों को उचित वेतन, कार्य के अनुकूल परिस्थितियाँ और सामाजिक सुरक्षा देना।


स्वास्थ्य और पोषण (अनुच्छेद 47) – पोषण स्तर में सुधार और सार्वजनिक स्वास्थ्य का संरक्षण।


4. 73वां और 74वां संविधान संशोधन – ग्राम और नगर विकास में योगदान


इन संशोधनों के माध्यम से पंचायती राज और नगरपालिका संस्थाओं को सशक्त किया गया, जिससे जमीनी स्तर पर लोक कल्याणकारी योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन हो सके।


5. सामाजिक और आर्थिक कल्याण के लिए सरकार की योजनाएँ


भारतीय सरकार ने विभिन्न योजनाएँ शुरू की हैं जो लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार करती हैं। इनमें शामिल हैं:


गरीबी उन्मूलन – प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना, मनरेगा (MGNREGA)


शिक्षा और कौशल विकास – राष्ट्रीय शिक्षा नीति, सर्व शिक्षा अभियान


स्वास्थ्य सुरक्षा – आयुष्मान भारत योजना, मिशन इंद्रधनुष


सामाजिक सुरक्षा – वृद्धावस्था पेंशन योजना, जन धन योजना


महिला और बाल विकास – बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना, आंगनवाड़ी सेवाएँ


भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की व्यावहारिकता


हालाँकि भारत ने लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को अपनाया है, लेकिन व्यावहारिक रूप से कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं:


आर्थिक असमानता – देश में अभी भी अमीर और गरीब के बीच बड़ी खाई है।


भ्रष्टाचार – सरकारी योजनाओं का लाभ सही लोगों तक नहीं पहुँच पाता।


शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी – ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं।


बेरोजगारी और गरीबी – बड़ी जनसंख्या के कारण सरकार को रोजगार और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में कठिनाई होती है।


निष्कर्ष


भारतीय संविधान ने भारत को लोक कल्याणकारी राज्य बनाने की नींव रखी है, जिसमें सरकार नागरिकों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कल्याण के लिए काम करती है। संविधान के प्रस्तावना, मूल अधिकार, नीति निदेशक तत्व और सरकारी योजनाओं के माध्यम से भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को साकार किया गया है। हालाँकि, अभी भी कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं, जिन्हें दूर करने के लिए प्रभावी नीतियों और योजनाओं के क्रियान्वयन की आवश्यकता है।




05. लोकतंत्र की अवधारणा स्पष्ट करते हुए, भारतीय संविधान में लोकतंत्र की विशेषताओं को बताइए।



परिचय


लोकतंत्र (Democracy) एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें जनता सर्वोच्च शक्ति रखती है और सरकार जनता की इच्छा के अनुसार कार्य करती है। भारत का संविधान लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है और इसे "जनता का, जनता के द्वारा, और जनता के लिए शासन" माना जाता है। भारतीय संविधान ने लोकतंत्र को केवल राजनीतिक प्रक्रिया तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के रूप में भी स्थापित किया है।


लोकतंत्र की अवधारणा


लोकतंत्र ग्रीक भाषा के "Demos" (जनता) और "Kratos" (शासन) शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है "जनता द्वारा शासन"।


लोकतंत्र की परिभाषाएँ


अब्राहम लिंकन – "लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा, और जनता के लिए शासन है।"


लॉर्ड ब्राइस – "लोकतंत्र वह शासन प्रणाली है जिसमें शासक जनता के प्रतिनिधि होते हैं और वे समय-समय पर जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं।"


सी.डी. ब्रह्मन – "लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं, बल्कि जीवन का एक तरीका है, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और न्याय के आदर्शों को अपनाया जाता है।"


लोकतंत्र दो प्रकार का होता है:


प्रत्यक्ष लोकतंत्र – इसमें नागरिक सीधे शासन में भाग लेते हैं (जैसे प्राचीन एथेंस में)।


अप्रत्यक्ष लोकतंत्र – इसमें नागरिक अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं जो उनके लिए शासन चलाते हैं (जैसे भारत में)।


भारतीय संविधान में लोकतंत्र की विशेषताएँ


भारतीय संविधान ने लोकतंत्र को केवल राजनीतिक लोकतंत्र तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के रूप में भी स्थापित किया है।


1. प्रस्तावना में लोकतंत्र का उल्लेख


संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक "संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य" घोषित किया गया है। यह स्पष्ट करता है कि भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली अपनाई गई है।


2. संसदीय लोकतंत्र (Parliamentary Democracy)


भारत में संसदीय लोकतंत्र (Parliamentary Democracy) की प्रणाली है, जिसमें कार्यपालिका (Executive) विधायिका (Legislature) के प्रति उत्तरदायी होती है।


प्रधानमंत्री और मंत्रीगण लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं।


राष्ट्रपति संविधान का प्रमुख होता है, लेकिन वास्तविक कार्यपालिका प्रधानमंत्री के नेतृत्व में होती है।


3. सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise)


भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के 18 वर्ष की आयु पूरी करने पर मतदान का अधिकार देता है (अनुच्छेद 326)।


यह लोकतंत्र की बुनियादी विशेषता है, जो सभी नागरिकों को सरकार चुनने का समान अधिकार देता है।


4. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव (Free & Fair Elections)


लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए भारतीय चुनाव आयोग (Election Commission of India) को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी दी गई है (अनुच्छेद 324)।


चुनाव आयोग स्वतंत्र रूप से कार्य करता है और चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करता है।


5. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) – लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा


संविधान में लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया है (भाग-3, अनुच्छेद 12-35)।


स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) – विचार, अभिव्यक्ति, आंदोलन और सभा की स्वतंत्रता।


समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) – सभी नागरिकों को समान अवसर


SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS 


01. भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं की विवेचना कीजिए।




भारतीय संविधान विश्व के सबसे विस्तृत और लिखित संविधानों में से एक है। इसे भारत के संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। इसमें अनेक विशेषताएँ हैं जो इसे विशिष्ट और प्रभावशाली बनाती हैं।


1. लिखित और विस्तृत संविधान


भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है, जिसमें 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 12 अनुसूचियाँ थीं (मूल रूप में)। वर्तमान में संशोधन के बाद इसमें 470 से अधिक अनुच्छेद हैं। इसका विस्तार विभिन्न विषयों को समाहित करने के कारण हुआ है।


2. संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य


संविधान की प्रस्तावना में भारत को संप्रभु (Sovereign), समाजवादी (Socialist), धर्मनिरपेक्ष (Secular) और लोकतांत्रिक गणराज्य (Democratic Republic) घोषित किया गया है।


संप्रभुता का अर्थ है कि भारत किसी अन्य देश या संस्था के अधीन नहीं है।


समाजवाद का अर्थ है आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय।


धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहेगा।


लोकतांत्रिक गणराज्य का अर्थ है कि सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और राष्ट्रपति एक निर्वाचित प्रमुख होता है।


3. संसदीय प्रणाली


भारतीय संविधान में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है, जिसमें कार्यपालिका (Executive) विधायिका (Legislature) के प्रति उत्तरदायी होती है। प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को सलाह देते हैं और संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं।


4. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)


संविधान में नागरिकों को छह मौलिक अधिकार दिए गए हैं:


समानता का अधिकार (Right to Equality)


स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom)


शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right against Exploitation)


धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion)


सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (Cultural and Educational Rights)


संवैधानिक उपचार का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)


5. मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties)


42वें संशोधन (1976) द्वारा संविधान में 11 मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा गया। नागरिकों को देश की एकता, अखंडता बनाए रखने, संविधान का सम्मान करने, वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने, आदि कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।


6. नीति-निर्देशक तत्व (Directive Principles of State Policy)


संविधान के भाग 4 में राज्य के लिए ऐसे निर्देश दिए गए हैं जो लोक कल्याणकारी राज्य (Welfare State) की स्थापना में सहायक होते हैं, जैसे—


समान नागरिक संहिता लागू करना


निःशुल्क शिक्षा देना


स्वास्थ्य और पोषण की व्यवस्था करना


7. संघात्मक (Federal) संरचना और एकात्मक (Unitary) प्रवृत्ति


भारत को संघीय राज्य कहा जाता है क्योंकि इसमें केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। लेकिन आपातकालीन स्थिति में यह एकात्मक सरकार के रूप में कार्य कर सकता है।


8. स्वतंत्र न्यायपालिका


संविधान भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना करता है। उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) संविधान का संरक्षक और अंतिम अपीलीय न्यायालय है।


9. विशेष संशोधन प्रक्रिया


संविधान में संशोधन की प्रक्रिया को लचीला और कठोर दोनों रखा गया है। अनुच्छेद 368 के तहत संसद कुछ संशोधन साधारण बहुमत से, कुछ विशेष बहुमत से और कुछ संशोधन राज्यों की सहमति से करती है।


10. आपातकालीन प्रावधान


संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल की व्यवस्था है:


राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352)


राज्य आपातकाल (अनुच्छेद 356)


वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)


निष्कर्ष


भारतीय संविधान की ये विशेषताएँ इसे एक गंभीर, व्यापक और गतिशील दस्तावेज बनाती हैं। यह सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय की स्थापना करते हुए भारत को एक संगठित राष्ट्र बनाने में सहायक है।




02. केंद्र-राज्य के मध्य वित्तीय सम्बन्ध पर टिप्पणी कीजिए।




भारतीय संविधान ने संघीय व्यवस्था को अपनाया है, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों एवं वित्तीय संसाधनों का विभाजन किया गया है। यह विभाजन संविधान के अनुच्छेद 268 से 293 तक विभिन्न प्रावधानों में वर्णित है। वित्तीय संतुलन बनाए रखने के लिए वित्त आयोग (Finance Commission) की स्थापना की गई है, जो केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों के न्यायसंगत वितरण की सिफारिश करता है।


1. वित्तीय संसाधनों का विभाजन


संविधान के सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ हैं—


संघ सूची (Union List) – जिन विषयों पर केंद्र सरकार को कर लगाने और राजस्व एकत्र करने का अधिकार है।


राज्य सूची (State List) – जिन विषयों पर राज्य सरकार कर लगा सकती है।


समवर्ती सूची (Concurrent List) – जिन विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों कर लगा सकते हैं, लेकिन केंद्र का निर्णय सर्वोपरि होता है।


(क) कराधान का विभाजन (Taxation Powers)


संविधान के अनुसार, करों का विभाजन निम्नलिखित प्रकार से किया गया है—




हालांकि, GST लागू होने के बाद कई अप्रत्यक्ष करों को केंद्र और राज्य सरकारों के बीच साझा किया गया है।


(ख) करों की वसूली और वितरण


पूर्ण रूप से केंद्र सरकार द्वारा एकत्रित कर (अनुच्छेद 268, 269, 270) – जैसे सीमा शुल्क, कॉर्पोरेट टैक्स।


राज्यों को मिलने वाले कर – कुछ कर केंद्र द्वारा एकत्र किए जाते हैं लेकिन राज्यों को वितरित किए जाते हैं, जैसे आयकर।


राज्यों द्वारा एकत्रित कर – जैसे संपत्ति कर, कृषि आयकर।


(ग) अनुदान (Grants-in-aid) (अनुच्छेद 275, 282)


संविधान में केंद्र सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह राज्यों को वित्तीय सहायता प्रदान कर सके। इसके तहत दो प्रकार के अनुदान होते हैं—


वित्तीय सहायता के रूप में अनुदान – कमजोर आर्थिक स्थिति वाले राज्यों को विशेष अनुदान दिया जाता है।


विवेकाधीन अनुदान – केंद्र सरकार अपनी इच्छानुसार राज्यों को विशेष परियोजनाओं के लिए धन दे सकती है।


2. वित्त आयोग की भूमिका (Finance Commission - Article 280)


भारत सरकार प्रत्येक पाँच वर्ष में एक वित्त आयोग का गठन करती है, जो केंद्र और राज्यों के बीच करों के विभाजन और अनुदान संबंधी सिफारिशें करता है।


3. वस्तु एवं सेवा कर (GST) और वित्तीय संबंधों में परिवर्तन


2017 में GST लागू होने के बाद केंद्र और राज्यों के बीच कराधान में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ।


CGST (Central GST) – केंद्र सरकार द्वारा एकत्र किया जाता है।


SGST (State GST) – राज्य सरकार द्वारा एकत्र किया जाता है।


IGST (Integrated GST) – अंतर्राज्यीय व्यापार पर केंद्र सरकार द्वारा एकत्र किया जाता है और राज्यों के बीच बाँटा जाता है।


4. वित्तीय असंतुलन और समस्याएँ


राज्यों की वित्तीय निर्भरता – राज्यों की राजस्व अर्जित करने की क्षमता सीमित है, जबकि उनके व्यय दायित्व अधिक हैं।


केंद्र पर अत्यधिक वित्तीय नियंत्रण – कर संग्रहण के मुख्य स्रोत केंद्र सरकार के पास हैं, जिससे राज्यों को अधिकतर सहायता केंद्र से प्राप्त करनी पड़ती है।


विकासशील राज्यों को कम वित्तीय सहायता – कुछ राज्यों को अन्य राज्यों की तुलना में कम सहायता मिलती है, जिससे असंतुलन पैदा होता है।


5. सुझाव और समाधान


राज्यों को अधिक वित्तीय स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।


वित्त आयोग की सिफारिशों को प्रभावी रूप से लागू किया जाना चाहिए।


केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बेहतर समन्वय होना चाहिए।


निष्कर्ष


भारतीय संविधान ने केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों का संतुलन बनाए रखने के लिए एक सुव्यवस्थित प्रणाली विकसित की है। हालाँकि, व्यावहारिक समस्याओं के कारण राज्यों को कई वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। GST और वित्त आयोग जैसे प्रावधानों से इस संतुलन को बनाए रखने का प्रयास किया जा रहा है ताकि संघीय ढाँचा मजबूत और अधिक न्यायसंगत बनाया जा सके।



03. भारत विश्व का सबसे लम्बा संविधान है। स्पष्ट कीजिए।




भारतीय संविधान को विश्व का सबसे विस्तृत और लंबा संविधान माना जाता है। इसकी मूल प्रति में 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 12 अनुसूचियाँ थीं, जबकि वर्तमान में संशोधनों के बाद इसमें 470 से अधिक अनुच्छेद हो चुके हैं। इसके विपरीत, अमेरिका के संविधान में केवल 7 अनुच्छेद और कनाडा के संविधान में 91 अनुच्छेद हैं। संविधान की इस लंबाई के पीछे कई कारण हैं, जो इसे अन्य देशों के संविधान से अलग बनाते हैं।


1. विस्तृत और लिखित स्वरूप


भारत का संविधान पूर्णतः लिखित और बहुत विस्तृत है। इसमें प्रशासनिक, न्यायिक, विधायी और आपातकालीन प्रावधानों को विस्तार से शामिल किया गया है। इसके विपरीत, ब्रिटेन का संविधान अलिखित और परंपराओं पर आधारित है।


2. विविधता को समेटने की आवश्यकता


भारत एक बहुभाषी, बहुधार्मिक और सांस्कृतिक विविधता वाला देश है। विभिन्न समुदायों, जातियों और धर्मों को ध्यान में रखते हुए संविधान में कई प्रावधान जोड़े गए हैं, जैसे—


मौलिक अधिकार और विशेष प्रावधान (अनुच्छेद 15, 25-30)


अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए विशेष सुविधाएँ (अनुच्छेद 46)


3. विस्तृत मौलिक अधिकार और कर्तव्य


संविधान ने नागरिकों को 6 मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) प्रदान किए हैं, जो लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखते हैं। साथ ही, 42वें संशोधन (1976) द्वारा 11 मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties) जोड़े गए।


4. संघीय और एकात्मक विशेषताएँ


संविधान ने भारत को एक संघीय ढाँचे (Federal Structure) के रूप में परिभाषित किया, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया।


सातवीं अनुसूची में संघ सूची (Union List), राज्य सूची (State List) और समवर्ती सूची (Concurrent List) को शामिल किया गया है।


5. विस्तृत न्यायिक व्यवस्था


संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना के लिए विस्तृत प्रावधान हैं, जिनमें—


न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) का अधिकार


उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शक्तियाँ (अनुच्छेद 124-147)


संवैधानिक उपचार (अनुच्छेद 32, 226)


6. नीति-निर्देशक तत्व (Directive Principles of State Policy)


संविधान के भाग 4 में राज्य के लिए नीति-निर्देशक तत्व (DPSP) दिए गए हैं, जिनका उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थापना करना है। ये प्रावधान संविधान को विस्तृत बनाते हैं।


7. संविधान की जटिल संशोधन प्रक्रिया


संविधान में संशोधन की प्रक्रिया को विस्तार से परिभाषित किया गया है (अनुच्छेद 368)। कुछ संशोधन सरल बहुमत से, कुछ विशेष बहुमत से, और कुछ राज्यों की सहमति से किए जाते हैं।


8. आपातकालीन प्रावधानों की समाविष्टि


संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल की व्यवस्था की गई है, जो इसे अन्य देशों के संविधान से अधिक विस्तृत बनाते हैं—


राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) – अनुच्छेद 352


राज्य आपातकाल (President’s Rule) – अनुच्छेद 356


वित्तीय आपातकाल (Financial Emergency) – अनुच्छेद 360


9. विस्तृत अनुसूचियाँ (Schedules)


संविधान में 12 अनुसूचियाँ (Schedules) शामिल हैं, जिनमें राज्यों और संघ शासित प्रदेशों की सूची, अनुसूचित जातियों/जनजातियों की सूची, पंचायत राज प्रणाली, दलबदल कानून आदि का उल्लेख है।


10. विदेशी संविधानों का प्रभाव


भारतीय संविधान में अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, रूस आदि देशों के संविधानों से प्रावधान लिए गए हैं। उदाहरण के लिए—


मौलिक अधिकार – अमेरिका से


संसदीय प्रणाली – ब्रिटेन से


संविधान संशोधन प्रक्रिया – दक्षिण अफ्रीका से


नीति-निर्देशक तत्व – आयरलैंड से


निष्कर्ष


भारतीय संविधान की लंबाई और विस्तृत प्रकृति इसकी संघीय व्यवस्था, सामाजिक-आर्थिक विविधता, न्यायिक स्वतंत्रता और आपातकालीन प्रावधानों के कारण है। इसकी व्यापकता इसे एक गतिशील और लचीला दस्तावेज बनाती है, जो समय-समय पर संशोधित होकर भारत की आवश्यकताओं को पूरा करता है। यही कारण है कि भारतीय संविधान को विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान माना जाता है।




04. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित तीन प्रकार के न्याय की विवेचना कीजिए।




भारतीय संविधान की प्रस्तावना में राष्ट्र के मूल उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया है। इसमें भारत को संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करने के साथ-साथ नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता प्रदान करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है। प्रस्तावना में तीन प्रकार के न्याय— सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का उल्लेख किया गया है, जो भारतीय लोकतंत्र की नींव को मजबूत करने के लिए आवश्यक हैं।


1. सामाजिक न्याय (Social Justice)


अर्थ:

सामाजिक न्याय का तात्पर्य समाज में सभी वर्गों के साथ समान व्यवहार, समान अवसर और किसी भी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन से है। इसका उद्देश्य समाज में समानता लाकर जाति, धर्म, लिंग और क्षेत्रीय असमानताओं को समाप्त करना है।


संवैधानिक प्रावधान:


अनुच्छेद 14-18 – समानता का अधिकार (जाति-प्रथा और छुआछूत का अंत)


अनुच्छेद 39 (क) – नागरिकों के लिए समान अवसर और जीवन स्तर की गारंटी


अनुच्छेद 46 – अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के कल्याण हेतु विशेष प्रयास


अनुच्छेद 15(4) और 16(4) – पिछड़े वर्गों को आरक्षण की व्यवस्था


महत्व:

सामाजिक न्याय से समाज में समरसता, समानता और सामाजिक समावेशन की भावना उत्पन्न होती है। यह वंचित वर्गों को समान अवसर प्रदान करने और भेदभाव को समाप्त करने में सहायक होता है।


2. आर्थिक न्याय (Economic Justice)


अर्थ:

आर्थिक न्याय का आशय धन और संसाधनों का समान वितरण, आर्थिक असमानता का उन्मूलन और सभी को आजीविका के समान अवसर उपलब्ध कराना है। संविधान का लक्ष्य एक ऐसे समाज की स्थापना करना है जिसमें गरीबी, बेरोजगारी और शोषण न हो।


संवैधानिक प्रावधान:


अनुच्छेद 38(2) – समाज में आर्थिक असमानता को कम करने की व्यवस्था


अनुच्छेद 39 (ब) और (ग) – संसाधनों का समान वितरण और संपत्ति के संकेंद्रण को रोकना


अनुच्छेद 41 – बेरोजगारों, वृद्धों और विकलांगों के लिए सहायता की व्यवस्था


अनुच्छेद 43 – श्रमिकों को उचित मजदूरी और जीवन स्तर का अधिकार


महत्व:

आर्थिक न्याय से समाज में धन और संसाधनों का न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित होता है। यह पूँजीवाद और आर्थिक असमानता को नियंत्रित करने में सहायक होता है, जिससे समाज के सभी वर्गों को समान आर्थिक अवसर मिलते हैं।


3. राजनीतिक न्याय (Political Justice)


अर्थ:

राजनीतिक न्याय का तात्पर्य यह है कि सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त हों, वे स्वतंत्र रूप से अपने विचार व्यक्त कर सकें, चुनाव लड़ सकें और देश की शासन व्यवस्था में भाग ले सकें। इसका मुख्य उद्देश्य लोकतंत्र को मजबूत करना और जनता को सत्ता का वास्तविक स्रोत बनाना है।


संवैधानिक प्रावधान:


अनुच्छेद 326 – वयस्क मताधिकार का अधिकार (18 वर्ष से अधिक आयु के सभी नागरिकों को मतदान का अधिकार)


अनुच्छेद 325 – धर्म, जाति, लिंग या भाषा के आधार पर किसी भी नागरिक को चुनाव में भाग लेने से वंचित नहीं किया जाएगा।


अनुच्छेद 19(1)(ए) – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (राजनीतिक विचार व्यक्त करने का अधिकार)


अनुच्छेद 243 – पंचायत राज और स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा देना


महत्व:

राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अवसर और अधिकार प्राप्त हों। यह लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है और नागरिकों को अपने प्रतिनिधि चुनने की स्वतंत्रता देता है।


निष्कर्ष


भारतीय संविधान में उल्लिखित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय एक समान, समावेशी और लोकतांत्रिक समाज की स्थापना का आधार है। इन तीनों न्याय के बिना एक सशक्त और समतामूलक राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती। भारतीय संविधान इन मूल्यों को सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न नीतियाँ और कानूनी प्रावधान प्रदान करता है, जिससे समाज में समानता, समृद्धि और लोकतांत्रिक भागीदारी बनी रहे।




05. मूल कर्तव्यों के महत्व का वर्णन कीजिए।




भारतीय संविधान में नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) प्रदान किए गए हैं, लेकिन साथ ही उन्हें कुछ मूल कर्तव्यों (Fundamental Duties) का पालन करने की भी अपेक्षा की गई है। मूल कर्तव्य नागरिकों को राष्ट्र, समाज और संविधान के प्रति अपने दायित्वों का बोध कराते हैं।


मूल कर्तव्यों को भारतीय संविधान में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़ा गया था। यह प्रावधान अनुच्छेद 51(A) के अंतर्गत संविधान के भाग-IV(A) में शामिल किए गए हैं। मूल रूप से 10 कर्तव्य जोड़े गए थे, जिन्हें 86वें संशोधन (2002) द्वारा बढ़ाकर 11 कर दिया गया।


मूल कर्तव्यों का महत्व


1. नागरिकों में देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावना विकसित करना


मूल कर्तव्य नागरिकों में देश के प्रति प्रेम, सम्मान और निष्ठा की भावना उत्पन्न करते हैं। उदाहरण के लिए—


संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों की रक्षा करना।


राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना।


ये प्रावधान नागरिकों को राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए प्रेरित करते हैं।


2. मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों के बीच संतुलन बनाए रखना


संविधान ने नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए हैं, लेकिन अधिकारों के साथ-साथ कुछ कर्तव्य भी आवश्यक हैं। यदि नागरिक केवल अधिकारों की माँग करें और अपने कर्तव्यों की अवहेलना करें, तो समाज में अराजकता और असंतुलन उत्पन्न हो सकता है।


उदाहरण के लिए—


हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) प्राप्त है, लेकिन इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।


हमें दूसरों के धार्मिक विचारों का सम्मान करना चाहिए और धार्मिक सौहार्द बनाए रखना चाहिए।


3. सामाजिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना


मूल कर्तव्यों में नागरिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे—


धार्मिक सहिष्णुता अपनाएँ और किसी भी प्रकार के भेदभाव से बचें।


भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखें।


इससे समाज में सौहार्द और सद्भावना को बढ़ावा मिलता है और सांप्रदायिक तनाव को रोकने में मदद मिलती है।


4. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सुधारात्मक सोच को प्रोत्साहित करना


अनुच्छेद 51(A)(h) नागरिकों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और सुधार की भावना विकसित करने के लिए प्रेरित करता है। इससे नागरिक अंधविश्वासों से दूर रहकर तर्कसंगत और आधुनिक सोच को अपनाते हैं, जिससे समाज का विकास होता है।


5. पर्यावरण और सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित करना


पर्यावरण प्रदूषण आज एक गंभीर समस्या है। संविधान नागरिकों को यह कर्तव्य सौंपता है कि वे—


प्राकृतिक पर्यावरण (वन, नदियाँ, झीलें) की रक्षा करें और उसे संरक्षित करें।


वन्यजीवों और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करें।


इसी प्रकार, सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा और हिंसा से दूर रहने का कर्तव्य नागरिकों को राष्ट्र की संपत्ति को नुकसान पहुँचाने से रोकता है।


6. शिक्षा का प्रचार-प्रसार सुनिश्चित करना


86वें संशोधन (2002) द्वारा एक नया मूल कर्तव्य जोड़ा गया, जिसके अनुसार—

"6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना माता-पिता और अभिभावकों का कर्तव्य होगा।"


यह प्रावधान बच्चों के शिक्षा के अधिकार (अनुच्छेद 21A) को प्रभावी बनाने में सहायक सिद्ध होता है।


7. लोकतंत्र को सशक्त बनाना


लोकतंत्र की सफलता नागरिकों की सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करती है। मूल कर्तव्य नागरिकों को प्रेरित करते हैं कि वे—


चुनावों में मतदान करें।


ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन करें।


देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता की रक्षा करें।


इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत होती है और नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति अधिक जागरूक होते हैं।


निष्कर्ष


मूल कर्तव्य नैतिक और संवैधानिक दायित्व हैं, जो नागरिकों को उनके राष्ट्र और समाज के प्रति उत्तरदायी बनाते हैं। हालाँकि, ये कर्तव्य कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं, लेकिन इनका पालन करना एक जिम्मेदार नागरिक होने का प्रतीक है। यदि हर नागरिक अपने मूल कर्तव्यों का पालन करे, तो समाज में सद्भाव, अनुशासन और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलेगा, जिससे भारत एक समृद्ध और विकसित राष्ट्र बन सकेगा।




06. संसदीय शासन एवं अध्यक्षीय शासन व्यवस्था की तुलना कीजिए। 




संसदीय और अध्यक्षीय शासन प्रणाली दो प्रमुख लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाएँ हैं। भारत, ब्रिटेन और कनाडा जैसे देशों में संसदीय प्रणाली (Parliamentary System) अपनाई गई है, जबकि अमेरिका और ब्राजील जैसे देशों में अध्यक्षीय प्रणाली (Presidential System) प्रचलित है। दोनों प्रणालियाँ शासन करने के तरीके में भिन्न हैं और उनके अपने लाभ एवं सीमाएँ हैं।


1. सत्ता का वितरण


संसदीय शासन प्रणाली में कार्यकारी (Executive) और विधायी (Legislative) शक्तियाँ परस्पर संबंधित होती हैं। प्रधानमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। भारत, ब्रिटेन और कनाडा में यह प्रणाली अपनाई गई है।


अध्यक्षीय शासन प्रणाली में कार्यकारी और विधायी शक्तियाँ स्पष्ट रूप से पृथक होती हैं। राष्ट्रपति स्वतंत्र रूप से कार्य करता है और सीधे जनता द्वारा चुना जाता है। अमेरिका और ब्राजील इस प्रणाली का पालन करते हैं।


2. कार्यकारी प्रमुख की स्थिति


संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है, जबकि राष्ट्रपति केवल एक औपचारिक प्रमुख (नाममात्र का प्रमुख) होता है, जैसा कि भारत और ब्रिटेन में देखा जाता है।


अध्यक्षीय प्रणाली में राष्ट्रपति ही सरकार और राष्ट्र दोनों का प्रमुख होता है। वह स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकता है और अपने मंत्रिमंडल का स्वयं चयन करता है, जैसा कि अमेरिका में होता है।


3. उत्तरदायित्व


संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका (Executive) संसद के प्रति उत्तरदायी होती है। यदि संसद में सरकार बहुमत खो देती है, तो उसे इस्तीफा देना पड़ता है।


अध्यक्षीय प्रणाली में कार्यपालिका जनता के प्रति उत्तरदायी होती है, न कि विधायिका (Legislature) के प्रति। राष्ट्रपति अपने कार्यकाल तक पद पर बना रहता है, भले ही उसकी नीतियों का विरोध हो।


4. मंत्रिपरिषद का गठन


संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री अपनी मंत्रिपरिषद का गठन करता है, लेकिन उसे संसद के बहुमत दल से चुनना पड़ता है।


अध्यक्षीय प्रणाली में राष्ट्रपति अपनी कैबिनेट का चयन स्वतंत्र रूप से करता है। उसे मंत्रियों को संसद से चुनने की बाध्यता नहीं होती।


5. नीति-निर्माण प्रक्रिया


संसदीय प्रणाली में नीतियाँ बहस और चर्चा के बाद संसद द्वारा बनाई जाती हैं। कार्यपालिका को संसद से मंजूरी लेनी होती है।


अध्यक्षीय प्रणाली में राष्ट्रपति स्वतंत्र रूप से नीतियाँ बना सकता है और उन्हें लागू कर सकता है, क्योंकि वह विधायिका से पूरी तरह स्वतंत्र होता है।


6. स्थायित्व बनाम उत्तरदायित्व


संसदीय प्रणाली में सरकार अस्थिर हो सकती है, क्योंकि बहुमत खोने पर सरकार गिर सकती है। लेकिन यह अधिक उत्तरदायी होती है क्योंकि यह संसद के प्रति जवाबदेह रहती है।


अध्यक्षीय प्रणाली में सरकार अधिक स्थिर होती है, क्योंकि राष्ट्रपति अपने पूरे कार्यकाल तक बना रहता है, लेकिन इसमें उत्तरदायित्व कम होता है क्योंकि विधायिका कार्यपालिका को हटा नहीं सकती (जब तक महाभियोग न लाया जाए)।


7. सत्ता का संतुलन


संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री और संसद के बीच शक्ति संतुलन बना रहता है, क्योंकि प्रधानमंत्री संसद का हिस्सा होता है और प्रत्यक्ष नियंत्रण में रहता है।


अध्यक्षीय प्रणाली में शक्ति का संतुलन अधिक स्पष्ट होता है, क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं और एक-दूसरे की शक्तियों पर नियंत्रण रखते हैं।


8. देश का उदाहरण


संसदीय प्रणाली: भारत, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया


अध्यक्षीय प्रणाली: अमेरिका, ब्राजील, मैक्सिको


निष्कर्ष


संसदीय और अध्यक्षीय प्रणाली दोनों की अपनी विशेषताएँ हैं। संसदीय प्रणाली उत्तरदायित्व और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राथमिकता देती है, लेकिन यह अस्थिर हो सकती है। अध्यक्षीय प्रणाली स्थिरता और स्वतंत्रता प्रदान करती है, लेकिन शक्ति का केंद्रीकरण हो सकता है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए संसदीय प्रणाली उपयुक्त मानी जाती है, जबकि अमेरिका जैसे संघीय देशों में अध्यक्षीय प्रणाली प्रभावी रूप से कार्य करती है।




07. भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में दिए गए स्वतंत्रता के अधिकार का वर्णन कीजिए।




भारतीय संविधान नागरिकों को कई मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिनमें से स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह अधिकार नागरिकों को अपने जीवन और कार्यों को स्वतंत्र रूप से संचालित करने की गारंटी देता है, साथ ही सरकार द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप से बचाने का कार्य करता है।


स्वतंत्रता का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 से 22 के अंतर्गत वर्णित है। इसमें विचार, अभिव्यक्ति, जीवन, आंदोलन, व्यवसाय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े अधिकार शामिल हैं।


1. अनुच्छेद 19: अभिव्यक्ति और कार्यों की स्वतंत्रता


अनुच्छेद 19 भारतीय नागरिकों को छह प्रकार की स्वतंत्रताओं की गारंटी देता है:


वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता – प्रत्येक नागरिक को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है। (हालाँकि, यह स्वतंत्रता सार्वजनिक शांति, नैतिकता, सुरक्षा आदि के आधार पर प्रतिबंधित की जा सकती है।)


शांतिपूर्वक सभा करने की स्वतंत्रता – नागरिकों को बिना हथियार के शांतिपूर्वक सभा करने का अधिकार है।


संघों या संघटनाओं के निर्माण की स्वतंत्रता – किसी भी राजनीतिक, सामाजिक, व्यापारिक या सांस्कृतिक संगठन बनाने की स्वतंत्रता।


भारत में कहीं भी स्वतंत्र रूप से भ्रमण करने की स्वतंत्रता – कोई भी नागरिक भारत के किसी भी हिस्से में जा सकता है (हालाँकि, यह स्वतंत्रता कुछ क्षेत्रों, जैसे कि जनजातीय इलाकों में प्रतिबंधित की जा सकती है)।


भारत में कहीं भी निवास करने और बसने की स्वतंत्रता – नागरिक देश में कहीं भी रहने और बसने के लिए स्वतंत्र हैं।


किसी भी पेशे, व्यापार या व्यवसाय को अपनाने की स्वतंत्रता – नागरिक अपनी इच्छानुसार किसी भी कानूनी व्यवसाय, व्यापार या उद्योग को अपना सकते हैं।


अपवाद:

इन स्वतंत्रताओं पर कुछ यथोचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं, जैसे कि


राष्ट्र की सुरक्षा


लोक व्यवस्था बनाए रखना


अपराध और धोखाधड़ी को रोकना


अन्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना


2. अनुच्छेद 20: अपराधों से संबंधित सुरक्षा


यह अनुच्छेद नागरिकों को आपराधिक मामलों में अनुचित दंड और उत्पीड़न से बचाव प्रदान करता है। इसमें तीन मुख्य प्रावधान हैं:


पूर्वव्यापी दंड (Ex-post facto Law) का निषेध – किसी व्यक्ति को ऐसे अपराध के लिए दंडित नहीं किया जा सकता जो अपराध करते समय कानून में अपराध नहीं था।


द्वितीय दंड (Double Jeopardy) का निषेध – किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित नहीं किया जा सकता।


स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता – किसी भी व्यक्ति को अपने ही विरुद्ध गवाही देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।


3. अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण


अनुच्छेद 21 भारतीय नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है।


जीवन का अधिकार – हर व्यक्ति को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है।


निजता का अधिकार – सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी जीवन के अधिकार का हिस्सा माना है।


स्वस्थ पर्यावरण, भोजन, शिक्षा और स्वच्छ पानी का अधिकार भी इसमें शामिल किया गया है।


अनुच्छेद 21A:

86वें संविधान संशोधन (2002) के तहत 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार जोड़ा गया।


4. अनुच्छेद 22: गिरफ़्तारी और निवारक नजरबंदी से सुरक्षा


यह अनुच्छेद व्यक्तियों को गिरफ्तारी और नजरबंदी से संबंधित कुछ सुरक्षा प्रदान करता है:


किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिए।


किसी भी व्यक्ति को अपने बचाव के लिए वकील रखने का अधिकार है।


निवारक नजरबंदी (Preventive Detention) के अंतर्गत किसी व्यक्ति को अधिकतम 3 महीने तक बिना मुकदमे के हिरासत में रखा जा सकता है। (हालाँकि, इससे आगे की नजरबंदी के लिए विशेष सलाहकार बोर्ड की अनुमति आवश्यक होती है।)


निष्कर्ष


स्वतंत्रता का अधिकार भारतीय नागरिकों के लिए सबसे महत्वपूर्ण अधिकारों में से एक है। यह उन्हें अभिव्यक्ति, आंदोलन, जीवन, सुरक्षा और व्यवसाय की स्वतंत्रता प्रदान करता है, जिससे वे अपने जीवन को गरिमा और आत्मसम्मान के साथ जी सकें। हालाँकि, यह स्वतंत्रता राष्ट्रीय सुरक्षा, लोक व्यवस्था और नैतिकता को बनाए रखने के लिए कुछ संवैधानिक प्रतिबंधों के अधीन है। भारतीय न्यायपालिका समय-समय पर इस अधिकार की व्याख्या कर नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करती है।




08. भारतीय संविधान के राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत, महात्मा गांधी के कई विचारों को दर्शाते हैं। टिप्पणी कीजिए।




भारतीय संविधान के भाग IV में वर्णित राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy - DPSP) का उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य (Welfare State) की स्थापना करना है। ये सिद्धांत संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों को साकार करने में सहायक हैं।


महात्मा गांधी का सपना एक ऐसे भारत का था, जहाँ सामाजिक न्याय, विकेन्द्रीकरण, ग्राम स्वराज, समानता और अहिंसा के सिद्धांतों को अपनाया जाए। संविधान में शामिल कई निदेशक सिद्धांत गांधीवादी विचारधारा को दर्शाते हैं।


गांधीवादी विचारों को प्रतिबिंबित करने वाले निदेशक सिद्धांत


1. ग्राम स्वराज और पंचायती राज (अनुच्छेद 40)


महात्मा गांधी का मानना था कि गाँवों को आत्मनिर्भर और स्वशासी इकाइयों के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। इसी विचार को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 40 में कहा गया है कि –

"राज्य को ग्राम पंचायतों को सशक्त बनाने के लिए कदम उठाने चाहिए।"


इस विचार को आगे बढ़ाते हुए 73वां संविधान संशोधन (1992) लागू किया गया, जिससे पंचायती राज प्रणाली को संवैधानिक दर्जा मिला।


2. आर्थिक और सामाजिक समानता (अनुच्छेद 38, 39)


गांधीजी सामाजिक और आर्थिक समानता के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने कहा था कि –

"भारत का असली विकास तब होगा जब अंतिम व्यक्ति तक संसाधन और अवसर पहुँचेंगे।"


इस सोच को अनुच्छेद 38 और 39 में स्थान दिया गया है:


अनुच्छेद 38 – राज्य को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करना चाहिए।


अनुच्छेद 39 – धन और संसाधनों का समान वितरण किया जाना चाहिए ताकि संपत्ति कुछ ही लोगों के हाथों में केंद्रित न रहे।


3. कुटीर उद्योगों को बढ़ावा (अनुच्छेद 43)


गांधीजी स्वदेशी आंदोलन और कुटीर उद्योगों के समर्थक थे। वे चाहते थे कि छोटे उद्योग और हस्तकला को प्रोत्साहन दिया जाए, जिससे गाँव आत्मनिर्भर बन सकें।


इसी विचार को अनुच्छेद 43 में अपनाया गया, जिसमें कहा गया कि –

"राज्य को कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए, विशेष रूप से सहकारी आधार पर।"


आज भी खादी, हथकरघा और ग्रामोद्योगों को प्रोत्साहित किया जाता है, जो गांधीजी के विचारों का हिस्सा था।


4. शिक्षा और बाल कल्याण (अनुच्छेद 45, 39(f))


गांधीजी ने प्राथमिक शिक्षा को सभी बच्चों के लिए अनिवार्य और निःशुल्क बनाने की वकालत की थी। उनका मानना था कि बालकों का सर्वांगीण विकास होना चाहिए।


अनुच्छेद 45 – राज्य 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा।


अनुच्छेद 39(f) – बच्चों के शोषण को रोकना और उन्हें स्वस्थ वातावरण प्रदान करना।


गांधीजी के इन्हीं विचारों को 86वें संशोधन (2002) द्वारा अनुच्छेद 21A में जोड़ा गया, जिससे शिक्षा मौलिक अधिकार बना।


5. शराबबंदी और नशा-मुक्त समाज (अनुच्छेद 47)


गांधीजी ने शराब और अन्य नशीले पदार्थों के सेवन का विरोध किया था। उन्होंने इसे सामाजिक बुराई बताया था और नशामुक्त समाज की कल्पना की थी।


इसी विचार के आधार पर अनुच्छेद 47 में कहा गया कि –

"राज्य को नशीले पदार्थों और शराब के सेवन को कम करने के लिए प्रयास करना चाहिए।"


आज गुजरात, बिहार और कुछ अन्य राज्यों में शराबबंदी लागू है, जो गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित है।


6. पशुओं की सुरक्षा और गोहत्या पर प्रतिबंध (अनुच्छेद 48)


गांधीजी अहिंसा के सिद्धांत को मानते थे और उन्होंने गोरक्षा और पशु कल्याण का समर्थन किया था।


इसी कारण अनुच्छेद 48 में कहा गया कि –

"राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों से विकसित करेगा और गायों, बछड़ों तथा अन्य दुधारू पशुओं की हत्या को रोकने का प्रयास करेगा।"


निष्कर्ष


राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों में महात्मा गांधी के विचारों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ये सिद्धांत ग्राम स्वराज, सामाजिक समानता, कुटीर उद्योगों को बढ़ावा, नशा-मुक्त समाज, शिक्षा, और पशु कल्याण जैसी नीतियों को समर्थन देते हैं। हालाँकि, ये सिद्धांत न्यायालय में बाध्यकारी नहीं हैं, लेकिन सरकार की नीतियों और योजनाओं का मार्गदर्शन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गांधीवादी आदर्शों को अपनाकर भारत एक समतामूलक और आत्मनिर्भर राष्ट्र की ओर बढ़ सकता है।