GEPS-02 SOLVED QUESTIONS PAPER 2024

 GEPS-02 SOLVED QUESTIONS PAPER 2024





प्रश्न 01 राज्य के नीति निदेशक तत्वों के वर्गीकरण की विवेचना कीजिए।

उत्तर:

राज्य के नीति निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy) भारतीय संविधान के भाग IV में वर्णित हैं, जो अनुच्छेद 36 से 51 तक विस्तृत हैं। ये तत्व राज्य को नीतिगत दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं, जिनका उद्देश्य समाज में सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक समानता स्थापित करना है। यद्यपि ये तत्व न्यायालय में लागू नहीं किए जा सकते, परंतु ये सरकार के लिए नीतियों और कार्यक्रमों को बनाने में मार्गदर्शन करते हैं। इन नीति निदेशक तत्वों का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है:


1. सामाजिक और आर्थिक सिद्धांत

सामाजिक न्याय: अनुच्छेद 38 में राज्य को समाज में न्याय और समानता की स्थापना करने के लिए निर्देशित किया गया है। यह सामाजिक भेदभाव को समाप्त करने और समाज के कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए कार्य करने की बात करता है।

मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा: अनुच्छेद 45 में कहा गया है कि राज्य 6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा।

न्यूनतम मजदूरी और काम की स्थिति: अनुच्छेद 39, 41, 42 आदि में मजदूरों के अधिकार, काम के घंटे, न्यूनतम मजदूरी और उचित कार्य परिस्थितियों की बात की गई है।

2. गांधीवादी सिद्धांत

ग्राम पंचायतों का विकास: अनुच्छेद 40 में राज्य को ग्राम पंचायतों को संगठित करने और उन्हें अधिकार देने के लिए कहा गया है, ताकि वे स्थानीय स्तर पर शासन कर सकें।

शराब के सेवन का निषेध: अनुच्छेद 47 में राज्य से अपेक्षा की जाती है कि वह नशे के सेवन, विशेषकर शराब के सेवन को हतोत्साहित करेगा।

पशुधन और कृषि का विकास: अनुच्छेद 48 में राज्य को कृषि और पशुधन की उन्नति के लिए काम करने का निर्देश दिया गया है।

3. उदारीकरण और समाजवाद से संबंधित सिद्धांत

सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण: अनुच्छेद 47 में राज्य के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के संवर्धन और पोषण स्तर को सुधारने के लिए प्रावधान किए गए हैं।

स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व: अनुच्छेद 38(1) में कहा गया है कि राज्य, जीवन की गुणवत्ता में सुधार और स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को सुनिश्चित करने के लिए कार्य करेगा।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी का प्रसार: अनुच्छेद 51A में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रति प्रेम को बढ़ावा देने की बात कही गई है।

4. अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा

अनुच्छेद 51 में राज्य को अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने, अंतर्राष्ट्रीय कानून का सम्मान करने और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में काम करने के लिए निर्देशित किया गया है।

निष्कर्ष

राज्य के नीति निदेशक तत्व एक आदर्श समाज की स्थापना के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं। ये भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों के आधार पर एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की परिकल्पना करते हैं। सरकारों को इन तत्वों का पालन करते हुए नीतियों और कार्यक्रमों का निर्माण करना चाहिए, ताकि एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज का निर्माण हो सके।



प्रश्न 02 "भारतीय संविधान का स्वरुप संघात्मक है परंतु आत्मा एकात्मक है।" व्याख्या कीजिए।

उत्तर:

भारतीय संविधान के संबंध में यह कथन - "भारतीय संविधान का स्वरूप संघात्मक है परंतु आत्मा एकात्मक है" - संघीय (Federal) और एकात्मक (Unitary) तत्वों के संयोजन को इंगित करता है। भारतीय संविधान में दोनों प्रकार की शासन व्यवस्थाओं के गुण हैं, जो इसे अद्वितीय बनाते हैं। इस कथन की व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:


1. संघात्मक स्वरूप (Federal Structure)

संघात्मक शासन प्रणाली में शक्ति का विभाजन केंद्रीय सरकार और राज्यों के बीच स्पष्ट रूप से किया जाता है। भारतीय संविधान में भी संघात्मक व्यवस्था के निम्नलिखित लक्षण देखे जा सकते हैं:


दोहरी शासन प्रणाली: भारतीय संविधान के अनुसार, सरकार दो स्तरों पर कार्य करती है - केंद्र और राज्य। प्रत्येक स्तर की अपनी स्वतंत्र सरकार होती है और इनके अधिकारों का विभाजन संविधान में स्पष्ट रूप से किया गया है।


शक्ति का विभाजन: संविधान के अनुसार, विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियाँ केंद्र और राज्यों के बीच विभाजित हैं। संविधान में तीन सूचियाँ (संघ सूची, राज्य सूची, समवर्ती सूची) दी गई हैं, जो इस विभाजन को निर्धारित करती हैं।


लिखित और कठोर संविधान: भारतीय संविधान एक विस्तृत, लिखित और कठोर संविधान है, जिसे संशोधित करना कठिन है। इसके प्रावधान संघीय ढांचे को सुरक्षित रखते हैं।


स्वतंत्र न्यायपालिका: एक संघीय प्रणाली में न्यायपालिका की स्वतंत्रता आवश्यक होती है। भारतीय न्यायपालिका स्वतंत्र और शक्तिशाली है, जो केंद्र और राज्यों के बीच विवादों का निपटारा करती है।


2. एकात्मक आत्मा (Unitary Spirit)

हालांकि भारतीय संविधान का स्वरूप संघात्मक है, परंतु इसमें एकात्मक विशेषताएं भी मौजूद हैं, जो इसे एकात्मक आत्मा प्रदान करती हैं:


मजबूत केंद्र: भारतीय संघीय ढांचे में केंद्र सरकार को राज्यों की तुलना में अधिक शक्तियाँ और अधिकार दिए गए हैं। विशेष रूप से आपातकाल की स्थिति में, केंद्र सरकार को राज्यों के अधिकारों पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है।


राज्यपाल की भूमिका: राज्यपाल, जो राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है। इसके माध्यम से केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के मामलों में हस्तक्षेप करने की क्षमता मिलती है।


आपातकालीन प्रावधान: संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल का प्रावधान है - राष्ट्रीय आपातकाल, राज्य आपातकाल (राष्ट्रपति शासन), और वित्तीय आपातकाल। इन प्रावधानों के तहत केंद्र सरकार को व्यापक अधिकार मिल जाते हैं, जिससे संघीय ढांचा एकात्मक स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है।


संविधान का एकात्मक चरित्र: भारतीय संविधान की सर्वोच्चता सुनिश्चित की गई है, और सभी राज्य संविधान के अधीन हैं। संविधान में संशोधन की प्रक्रिया भी ऐसी है कि केंद्र की सहमति के बिना इसे संशोधित करना कठिन होता है।


3. संघात्मक और एकात्मक तत्वों का संतुलन

भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक विविधता को ध्यान में रखते हुए संघात्मक ढांचे को अपनाया। हालांकि, देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए एकात्मक तत्वों को भी शामिल किया गया।


निष्कर्ष

इस प्रकार, भारतीय संविधान का संघात्मक स्वरूप देश की विविधता और राज्यों के अधिकारों की रक्षा करता है, जबकि एकात्मक आत्मा देश की अखंडता, एकता और संप्रभुता को सुनिश्चित करती है। यह संतुलन देश के विभिन्न हिस्सों के बीच सामंजस्य बनाए रखने और राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देने में सहायक है। इसीलिए, भारतीय संविधान को "संघात्मक रूप में एकात्मक" कहा जाता है।




प्रश्न 03 भारत के प्रधानमंत्री की शक्तियां, कार्य तथा भूमिका की विस्तार से चर्चा कीजिए।

उत्तर:

भारत के प्रधानमंत्री भारतीय सरकार के प्रमुख होते हैं और उन्हें भारतीय राजनीति का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है। प्रधानमंत्री की शक्तियाँ, कार्य और भूमिका का विवरण निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है:


1. प्रधानमंत्री की शक्तियाँ (Powers of the Prime Minister)

प्रधानमंत्री के पास विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ होती हैं, जिनका प्रयोग वे सरकार के संचालन में करते हैं। इन्हें निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:


कार्यकारी शक्तियाँ: प्रधानमंत्री भारतीय सरकार के वास्तविक कार्यकारी प्रमुख होते हैं। वे मंत्रिपरिषद के प्रमुख होते हैं और सभी महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार रखते हैं।


मंत्रियों की नियुक्ति: प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद के सदस्यों की नियुक्ति के लिए सुझाव देते हैं। वे मंत्रीमंडल के सदस्यों का चयन करते हैं और उन्हें विभागों का आवंटन करते हैं।


मंत्रिपरिषद का नेतृत्व: प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद की बैठकों की अध्यक्षता करते हैं और इसकी कार्यवाही का संचालन करते हैं। वे मंत्रियों के बीच सामंजस्य स्थापित करते हैं और किसी भी मतभेद को हल करते हैं।


प्रशासनिक शक्तियाँ: प्रधानमंत्री विभिन्न मंत्रालयों, विभागों और सरकारी निकायों के प्रशासनिक प्रमुख होते हैं। वे सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों के कार्यान्वयन की देखरेख करते हैं।


वित्तीय शक्तियाँ: प्रधानमंत्री वित्त मंत्रालय के प्रमुख होते हैं और बजट की योजना, निर्माण और अनुमोदन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे आर्थिक नीतियों और योजनाओं को तैयार करने और उन्हें लागू करने में भी प्रमुख भूमिका निभाते हैं।


नियुक्ति शक्तियाँ: प्रधानमंत्री विभिन्न महत्वपूर्ण सरकारी पदों जैसे कैबिनेट सचिव, गृह सचिव, वित्त सचिव, आदि की नियुक्ति में भूमिका निभाते हैं।


2. प्रधानमंत्री के कार्य (Functions of the Prime Minister)

प्रधानमंत्री के कार्य निम्नलिखित हैं:


नीति निर्माण: प्रधानमंत्री देश की आंतरिक और बाहरी नीतियों के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। वे नीतियों के निर्माण, कार्यान्वयन और समीक्षा में सक्रिय भागीदारी करते हैं।


संसदीय कार्य: प्रधानमंत्री संसद में सरकार का नेतृत्व करते हैं। वे संसद में बहसों और चर्चाओं में भाग लेते हैं और महत्वपूर्ण विधेयकों और नीतियों का समर्थन करते हैं।


राष्ट्रीय सुरक्षा: प्रधानमंत्री देश की सुरक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण निर्णयों में सक्रिय भागीदारी करते हैं। वे रक्षा नीतियों, सुरक्षा बलों की संचालन प्रक्रिया और आपातकालीन स्थितियों से निपटने के तरीकों का निर्धारण करते हैं।


विकास योजनाओं का संचालन: प्रधानमंत्री विभिन्न विकास योजनाओं और कार्यक्रमों का संचालन करते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि सरकार की नीतियों और योजनाओं का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंचे।


विदेश नीति: प्रधानमंत्री अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं और अन्य देशों के साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संबंधों को प्रोत्साहित करते हैं।


3. प्रधानमंत्री की भूमिका (Role of the Prime Minister)

प्रधानमंत्री की भूमिका निम्नलिखित क्षेत्रों में महत्वपूर्ण होती है:


सरकार के प्रमुख: प्रधानमंत्री सरकार के प्रमुख होते हैं और प्रशासन की सभी गतिविधियों के लिए जिम्मेदार होते हैं। वे सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों को जनता के सामने प्रस्तुत करते हैं।


मंत्रिपरिषद के प्रमुख: प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद के प्रमुख होते हैं और इसके सभी निर्णयों के लिए जिम्मेदार होते हैं। वे मंत्रियों के बीच समन्वय स्थापित करते हैं और किसी भी मतभेद को हल करते हैं।


संसद में नेता: प्रधानमंत्री लोकसभा में सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के नेता होते हैं और संसद में सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों को संसद में प्रस्तुत करते हैं और विपक्ष के सवालों का जवाब देते हैं।


राष्ट्रीय एकता के प्रतीक: प्रधानमंत्री देश की एकता और अखंडता के प्रतीक होते हैं। वे विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों, और समुदायों के बीच एकता और सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं।


जनता के नेता: प्रधानमंत्री जनता के नेता होते हैं और उन्हें जनता के विश्वास और समर्थन की आवश्यकता होती है। वे जनता के मुद्दों और समस्याओं को समझते हैं और उन्हें हल करने का प्रयास करते हैं।


निष्कर्ष

भारत के प्रधानमंत्री भारतीय राजनीतिक प्रणाली के केंद्र में स्थित होते हैं। उनकी शक्तियाँ और कार्य न केवल सरकार के संचालन में बल्कि देश की समग्र दिशा और भविष्य को निर्धारित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रधानमंत्री का नेतृत्व, दृष्टिकोण और निर्णय-क्षमता देश के विकास और प्रगति के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं। इसलिए, प्रधानमंत्री की भूमिका केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि नैतिक और राजनीतिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।




प्रश्न 04 राज्यसभा के गठन तथा इसके सदस्यों को चुनने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।

उत्तर:

राज्यसभा, जिसे भारत की संसद के उच्च सदन के रूप में जाना जाता है, भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। राज्यसभा का गठन, संरचना, और इसके सदस्यों को चुनने की प्रक्रिया निम्नलिखित है:


1. राज्यसभा का गठन (Formation of Rajya Sabha)

राज्यसभा भारतीय संसद का स्थायी सदन है। इसका गठन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 80 के तहत किया गया है। राज्यसभा का गठन निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर आधारित है:


स्थायी सदन: राज्यसभा एक स्थायी सदन है, जिसका कभी भी विघटन नहीं होता। हालांकि, इसके सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष होता है और हर दो साल में एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त होते हैं।


अधिकतम सदस्य संख्या: राज्यसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 250 है। इनमें से 238 सदस्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामित होते हैं। हालांकि, वर्तमान में राज्यसभा की कुल सदस्य संख्या 245 है (233 निर्वाचित और 12 मनोनीत)।


प्रतिनिधित्व का आधार: राज्यसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के आधार पर होता है, यानी जनसंख्या जितनी अधिक होगी, उस राज्य के लिए राज्यसभा में उतने अधिक सदस्य होंगे।


2. राज्यसभा के सदस्यों को चुनने की प्रक्रिया (Election Process of Rajya Sabha Members)

राज्यसभा के सदस्यों को चुनने की प्रक्रिया को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:


प्रत्यक्ष चुनाव नहीं: राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा नहीं होता। इसके बजाय, ये सदस्य निर्वाचक मंडल द्वारा चुने जाते हैं।


निर्वाचक मंडल: राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव संबंधित राज्य के विधायकों (विधानसभा सदस्यों) द्वारा किया जाता है। इन विधायकों को निर्वाचक मंडल कहा जाता है। प्रत्येक राज्य के विधायक राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव करते हैं।


प्रणाली: राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (Proportional Representation) द्वारा एकल संक्रमणीय मत (Single Transferable Vote) के माध्यम से होता है। इस प्रणाली में, मतदाता (विधानसभा सदस्य) उम्मीदवारों को उनकी प्राथमिकता के क्रम में वोट देते हैं। उम्मीदवार को जीतने के लिए एक निश्चित कोटा (quota) प्राप्त करना होता है।


केंद्र शासित प्रदेश: दिल्ली और पुदुचेरी जैसे केंद्र शासित प्रदेशों में, राज्यसभा के सदस्य संबंधित केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं द्वारा चुने जाते हैं।


मनोनीत सदस्य: राज्यसभा में 12 सदस्य ऐसे होते हैं, जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है। ये सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला, और सामाजिक सेवा जैसे क्षेत्रों में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखने वाले होते हैं।


3. सदस्यों की योग्यता (Qualifications of Rajya Sabha Members)

राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ आवश्यक हैं:


उम्मीदवार को भारत का नागरिक होना चाहिए।

उम्मीदवार की आयु कम से कम 30 वर्ष होनी चाहिए।

उम्मीदवार को उन शर्तों को पूरा करना चाहिए जो संसद द्वारा निर्धारित की गई हैं।

4. कार्यकाल (Tenure)

राज्यसभा के प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष होता है। हर दो साल में एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त होते हैं और नए सदस्यों का चुनाव किया जाता है। इस प्रकार राज्यसभा एक स्थायी सदन है, जिसका कभी भी पूरा विघटन नहीं होता।


निष्कर्ष

राज्यसभा भारतीय संघीय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह राज्य विधानसभाओं और केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करती है और विभिन्न कानूनों और नीतियों पर गहन विचार-विमर्श करती है। राज्यसभा के गठन और इसके सदस्यों को चुनने की प्रक्रिया इसे भारतीय लोकतंत्र का एक अभिन्न हिस्सा बनाती है, जो सरकार की स्थिरता और निरंतरता को सुनिश्चित करता है।




प्रश्न 05 सर्वोच्च न्यायालय के प्रारंभिक तथा अपील संबंधी न्याय क्षेत्र की व्याख्या करें।

उत्तर:

भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) को भारतीय न्यायिक प्रणाली का सर्वोच्च निकाय माना जाता है। यह न केवल संवैधानिक मामलों में सर्वोच्च निर्णय लेने का अधिकार रखता है, बल्कि यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सर्वोच्च न्यायालय के दो मुख्य न्याय क्षेत्र - प्रारंभिक न्याय क्षेत्र (Original Jurisdiction) और अपील संबंधी न्याय क्षेत्र (Appellate Jurisdiction) की व्याख्या निम्नलिखित है:


1. प्रारंभिक न्याय क्षेत्र (Original Jurisdiction)

सर्वोच्च न्यायालय के प्रारंभिक न्याय क्षेत्र का अर्थ है कि कुछ मामलों में मामले की सुनवाई सीधे सर्वोच्च न्यायालय में की जाती है। ऐसे मामलों को निचली अदालतों में नहीं भेजा जाता। सर्वोच्च न्यायालय के प्रारंभिक न्याय क्षेत्र को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 131 में निर्दिष्ट किया गया है। इसमें निम्नलिखित प्रमुख बिंदु शामिल हैं:


राज्यों और केंद्र के बीच विवाद: यदि दो या दो से अधिक राज्यों के बीच या राज्य और केंद्र सरकार के बीच कोई विवाद होता है, तो इन विवादों की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में की जाती है। उदाहरण के लिए, किसी राज्य द्वारा अपनी संप्रभुता, या अधिकारों के हनन का आरोप केंद्र सरकार पर लगाया जाए।


संविधान की व्याख्या: संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों में, विशेषकर जब केंद्र और राज्य सरकारों के बीच कोई विवाद हो, सर्वोच्च न्यायालय सीधे मामले की सुनवाई कर सकता है।


मौलिक अधिकारों की सुरक्षा: नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर, वे सीधे सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकते हैं। अनुच्छेद 32 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय को 'संविधान का रक्षक' माना गया है और इसे मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष अधिकार प्राप्त हैं।


विशेष मामले: राष्ट्रपति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत विशेष मामलों में परामर्श देने के लिए कहा जा सकता है। हालांकि, यह परामर्श बाध्यकारी नहीं होता।


2. अपील संबंधी न्याय क्षेत्र (Appellate Jurisdiction)

अपील संबंधी न्याय क्षेत्र का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय विभिन्न निचली अदालतों के फैसलों के खिलाफ अपील की सुनवाई कर सकता है। अपील संबंधी न्याय क्षेत्र को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 132, 133, और 134 में वर्णित किया गया है। इसमें निम्नलिखित प्रमुख बिंदु शामिल हैं:


संवैधानिक मामलों में अपील: यदि कोई मामला उच्च न्यायालय में संविधान की व्याख्या से संबंधित हो और उसमें उच्च न्यायालय द्वारा कोई निर्णय दिया गया हो, तो उस निर्णय के खिलाफ अपील सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है।


नागरिक मामले: उच्च न्यायालय के फैसलों के खिलाफ नागरिक मामलों में भी अपील की जा सकती है, बशर्ते मामला उच्च न्यायालय द्वारा उस विशेष मामले में सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए प्रमाणित किया गया हो।


आपराधिक मामले: आपराधिक मामलों में, यदि उच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को निर्दोष मानते हुए दोषमुक्त कर देता है, जिसे निचली अदालत ने दोषी ठहराया हो, या उसे सजा की गंभीरता को बढ़ाता है, तो उस स्थिति में अपील का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास होता है।


विशेष अनुमति: संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण के फैसले के खिलाफ अपील सुनने का विशेष अधिकार है, भले ही वह फैसला उच्च न्यायालय द्वारा न दिया गया हो। इसे विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition) कहते हैं।


3. अन्य संबंधित न्याय क्षेत्र

सलाहकार न्याय क्षेत्र (Advisory Jurisdiction): संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत, राष्ट्रपति किसी कानूनी या तथ्यात्मक प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से सलाह मांग सकते हैं। यह सलाह बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के विचार को सम्मान दिया जाता है।


संसदीय कानूनों की न्यायिक समीक्षा: सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार है कि वह संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा कर सके। अगर कोई कानून संविधान के खिलाफ पाया जाता है, तो सर्वोच्च न्यायालय उसे निरस्त कर सकता है।


निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय का प्रारंभिक और अपील संबंधी न्याय क्षेत्र इसे भारतीय न्यायिक प्रणाली में सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है। यह न केवल संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या और संरक्षण करता है, बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा भी सुनिश्चित करता है। इन न्याय क्षेत्रों के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में लोकतंत्र और विधि-व्यवस्था को सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।



लघु उत्तरीय प्रश्न


प्रश्न 01 समानता के अधिकार के किन्हीं तीन पहलुओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर:

समानता का अधिकार (Right to Equality) भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण मौलिक अधिकारों में से एक है, जिसे संविधान के भाग III के अनुच्छेद 14 से 18 के अंतर्गत वर्णित किया गया है। समानता का अधिकार भारतीय नागरिकों को कानून के समक्ष समानता और भेदभाव से मुक्त रहने का अधिकार प्रदान करता है। समानता के अधिकार के तीन प्रमुख पहलुओं का विवरण निम्नलिखित है:


1. कानून के समक्ष समानता (Equality Before Law) - अनुच्छेद 14

अनुच्छेद 14 के तहत सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्राप्त है। इसका अर्थ है कि कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं और राज्य के कानून का समान रूप से पालन किया जाना चाहिए। इसके दो महत्वपूर्ण तत्व हैं:


समान सुरक्षा: प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समान सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए, चाहे उसकी जाति, धर्म, लिंग, भाषा, या सामाजिक-आर्थिक स्थिति कुछ भी हो।


भेदभाव का निषेध: राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं कर सकता है। यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों को समान अवसर और समान उपचार प्राप्त हो।


2. लिंग, जाति, धर्म आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध (Prohibition of Discrimination on Grounds of Religion, Race, Caste, Sex, or Place of Birth) - अनुच्छेद 15

अनुच्छेद 15 के तहत राज्य द्वारा किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्मस्थान, या इनमें से किसी भी आधार पर भेदभाव करना प्रतिबंधित है। इस अनुच्छेद के तहत निम्नलिखित प्रमुख बिंदु शामिल हैं:


सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश: कोई भी नागरिक किसी भी सार्वजनिक स्थान जैसे पार्क, होटल, शॉपिंग मॉल, या सार्वजनिक सेवाओं का उपयोग करने से वंचित नहीं किया जा सकता।


विशेष प्रावधान: अनुच्छेद 15(3) के तहत, राज्य महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बना सकता है। इसके अलावा, अनुच्छेद 15(4) के तहत, राज्य सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है, जिससे कि उन्हें समान अवसर मिल सके।


3. सार्वजनिक रोजगार के अवसरों में समानता (Equality of Opportunity in Matters of Public Employment) - अनुच्छेद 16

अनुच्छेद 16 के तहत, सभी नागरिकों को सार्वजनिक रोजगार के अवसरों में समानता का अधिकार प्राप्त है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी नागरिक को केवल धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान, वंश या इनमें से किसी भी आधार पर सार्वजनिक रोजगार के अवसरों से वंचित नहीं किया जा सकता। इस अनुच्छेद के अंतर्गत मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं:


समान अवसर: सभी नागरिकों को सरकारी नौकरियों में समान अवसर प्राप्त होना चाहिए, और चयन केवल योग्यता के आधार पर होना चाहिए।


आरक्षण: अनुच्छेद 16(4) के तहत, राज्य पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है, जिससे कि समाज के सभी वर्गों को समान अवसर मिल सके।


निष्कर्ष

समानता का अधिकार भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता, भेदभाव से मुक्त जीवन और समान अवसरों का अधिकार प्रदान करता है। यह अधिकार न केवल सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों को विकास और प्रगति के समान अवसर प्राप्त हों। इन तीन पहलुओं के माध्यम से, समानता का अधिकार भारतीय समाज में एक समतामूलक, न्यायसंगत और समावेशी वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।




प्रश्न 02  आज्ञा पत्र (रिट )क्या है? इसे  जारी करने का अधिकार किसे है, समझाइए।

उत्तर:

आज्ञा पत्र (रिट) न्यायिक आदेश का एक प्रकार है, जिसका उपयोग न्यायालय कानून का पालन सुनिश्चित करने, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करने और न्याय के हित में न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का विस्तार करने के लिए करते हैं। "रिट" शब्द का अर्थ एक अधिकारिक आदेश होता है, जो किसी व्यक्ति या प्राधिकरण को कोई कार्य करने या न करने के लिए बाध्य करता है।


1. आज्ञा पत्र (रिट) क्या है?

आज्ञा पत्र (रिट) एक लिखित आदेश है, जो किसी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किया जाता है। ये रिट्स सरकार, उसके एजेंसियों, या अन्य अधिकारियों को आदेश देते हैं कि वे कानूनी या संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करें या किसी अधिकार का उल्लंघन न करें। रिट्स को मुख्यतः मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जारी किया जाता है और ये न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका के कार्यों की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार प्रदान करते हैं।


2. आज्ञा पत्र (रिट) जारी करने का अधिकार किसे है?

भारतीय संविधान के अनुसार, रिट जारी करने का अधिकार उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के पास है:


सर्वोच्च न्यायालय: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय को रिट जारी करने का अधिकार दिया गया है। अनुच्छेद 32 को 'संविधान का हृदय और आत्मा' कहा जाता है, क्योंकि यह नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय में सीधे याचिका दाखिल करने का अधिकार प्रदान करता है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान के भाग III में वर्णित मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में रिट जारी कर सकता है।


उच्च न्यायालय: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत, उच्च न्यायालयों को भी रिट जारी करने का अधिकार प्राप्त है। उच्च न्यायालय न केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में, बल्कि अन्य कानूनी अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में भी रिट जारी कर सकते हैं। इस प्रकार, उच्च न्यायालय का रिट जारी करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय से व्यापक है।


3. मुख्य रिट्स के प्रकार

भारतीय न्यायपालिका द्वारा मुख्य रूप से पांच प्रकार के रिट्स जारी किए जाते हैं:


हैबियस कॉर्पस (Habeas Corpus): इसका अर्थ है "शरीर को प्रस्तुत करो"। यह रिट किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में लिए जाने के खिलाफ जारी किया जाता है। इस रिट के माध्यम से न्यायालय संबंधित व्यक्ति को न्यायालय में प्रस्तुत करने का आदेश देती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उसे कानूनी प्रक्रिया के बिना अवैध रूप से हिरासत में नहीं रखा गया है।


मैंडेमस (Mandamus): इसका अर्थ है "आदेश देना"। यह रिट किसी सरकारी अधिकारी या प्राधिकरण को उसके कानूनी या संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करने के लिए आदेश देती है। इस रिट का उपयोग तब किया जाता है जब कोई सरकारी अधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन करने में विफल रहता है।


प्रोहिबिशन (Prohibition): यह रिट निचली अदालतों या अर्ध-न्यायिक निकायों को उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर मामले की सुनवाई करने से रोकने के लिए जारी की जाती है। यह रिट निचली अदालतों को उस मामले की सुनवाई से रोकती है, जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।


क्वो वारंटो (Quo Warranto): इसका अर्थ है "तुम किस अधिकार से"। यह रिट किसी व्यक्ति को सार्वजनिक पद पर कब्जा करने से रोकने के लिए जारी की जाती है, जब यह साबित हो जाए कि वह व्यक्ति उस पद के लिए अयोग्य है या अवैध रूप से पद पर काबिज है।


सर्टियोरारी (Certiorari): यह रिट उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निचली अदालतों या अर्ध-न्यायिक निकायों को जारी की जाती है, ताकि उनके द्वारा दिए गए अवैध या असंवैधानिक निर्णय को निरस्त किया जा सके। यह तब जारी की जाती है जब कोई निचली अदालत या प्राधिकरण अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर निर्णय लेता है।


निष्कर्ष

आज्ञा पत्र (रिट) न्यायपालिका के महत्वपूर्ण उपकरण हैं, जिनके माध्यम से न्यायालय न केवल नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित करते हैं कि राज्य और उसके अधिकारी संविधान और कानून के अनुसार कार्य करें। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के पास रिट जारी करने का अधिकार होने से न्यायपालिका की भूमिका कानून के शासन को बनाए रखने और लोकतांत्रिक प्रणाली को सुदृढ़ करने में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।




प्रश्न 03 भारत के राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों की व्याख्या करें।

उत्तर:

भारत के राष्ट्रपति, भारतीय गणराज्य के संवैधानिक प्रमुख होते हैं, और उनके पास कार्यपालिका, न्यायपालिका, और विधायिका से संबंधित महत्वपूर्ण शक्तियाँ होती हैं। यहाँ पर हम राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों की व्याख्या करेंगे, जो उन्हें भारतीय संसद के कार्यों और कानून बनाने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए सक्षम बनाती हैं।


1. संसद के सत्र को बुलाना, स्थगित करना और भंग करना (Summoning, Proroguing, and Dissolving the Parliament)

राष्ट्रपति की सबसे प्रमुख विधायी शक्तियों में संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के सत्र को बुलाना, स्थगित करना और लोकसभा को भंग करना शामिल है:


सत्र बुलाना: संविधान के अनुच्छेद 85 के तहत, राष्ट्रपति संसद के सत्र को बुलाने का अधिकार रखते हैं। संसद का सत्र बुलाने का निर्णय राष्ट्रपति की ओर से किया जाता है, लेकिन इसे प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर किया जाता है।


स्थगित करना: राष्ट्रपति संसद के किसी सत्र को स्थगित भी कर सकते हैं, जिसका अर्थ है कि सदन की बैठकें कुछ समय के लिए समाप्त कर दी जाती हैं, लेकिन सदन को भंग नहीं किया जाता।


लोकसभा का भंग करना: राष्ट्रपति के पास लोकसभा को भंग करने का अधिकार भी है, जो आमतौर पर मंत्रिपरिषद की सलाह पर किया जाता है। लोकसभा के भंग होने से पहले राष्ट्रपति संसद के सत्र को समाप्त कर सकते हैं।


2. विधेयकों को स्वीकृति देना (Assent to Bills)

भारत का राष्ट्रपति विधेयकों को कानून में बदलने के महत्वपूर्ण चरण में शामिल होता है:


सामान्य विधेयक: जब संसद द्वारा कोई विधेयक पारित किया जाता है, तो इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति के पास विधेयक को स्वीकृति देने, अस्वीकार करने, या पुनर्विचार के लिए वापस भेजने का अधिकार है। हालांकि, यदि राष्ट्रपति पुनर्विचार के लिए विधेयक को वापस भेजते हैं और संसद उसे पुनः पारित कर देती है, तो राष्ट्रपति को उसे स्वीकृति देनी होती है।


संविधान संशोधन विधेयक: संविधान संशोधन विधेयकों को भी राष्ट्रपति की स्वीकृति की आवश्यकता होती है, लेकिन ऐसे विधेयकों को राष्ट्रपति अस्वीकार नहीं कर सकते हैं और न ही उन्हें पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं।


3. आर्डिनेंस जारी करना (Ordinance Making Power)

राष्ट्रपति के पास संसद के सत्र के बीच में आर्डिनेंस जारी करने की शक्ति होती है। यह शक्ति संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत दी गई है:


आवश्यकता: यदि संसद सत्र में नहीं है और तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है, तो राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर आर्डिनेंस जारी कर सकते हैं। यह आर्डिनेंस विधेयक के समान ही प्रभावी होता है और इसे संसद के अगले सत्र में पारित या अस्वीकार किया जा सकता है।


समयावधि: आर्डिनेंस केवल 6 महीने तक प्रभावी रहता है। यदि इसे संसद द्वारा पारित नहीं किया जाता है, तो यह स्वतः समाप्त हो जाता है।


4. संदेश भेजना (Sending Messages to the Parliament)

राष्ट्रपति के पास संसद के किसी भी सदन को संदेश भेजने का अधिकार होता है। यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 86 के तहत आता है:


संदेश: राष्ट्रपति संसद को किसी भी विधेयक के संबंध में संदेश भेज सकते हैं, जिसमें वे अपनी सिफारिशें या राय व्यक्त कर सकते हैं।


विचार: संसद को राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदेश पर विचार करना होता है, हालांकि यह संसद के विवेक पर निर्भर करता है कि वह राष्ट्रपति की सिफारिशों को स्वीकार करें या नहीं।


5. संयुक्त बैठक बुलाना (Summoning Joint Sitting)

यदि किसी विधेयक को लेकर लोकसभा और राज्यसभा के बीच असहमति होती है, तो राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 108 के तहत दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुला सकते हैं। संयुक्त बैठक में, दोनों सदनों के सदस्य मिलकर विधेयक पर चर्चा करते हैं और मतदान करते हैं।


6. नामांकन की शक्ति (Nominating Members)

राष्ट्रपति के पास संसद के दोनों सदनों में सदस्यों को नामांकित करने की शक्ति होती है:


राज्यसभा: राष्ट्रपति राज्यसभा में 12 सदस्यों को नामांकित कर सकते हैं। ये सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला, और सामाजिक सेवा के क्षेत्रों में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखते हैं।


लोकसभा: राष्ट्रपति दो एंग्लो-इंडियन समुदाय के सदस्यों को लोकसभा में नामांकित कर सकते हैं, यदि उन्हें लगता है कि इस समुदाय का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है। हालांकि, 104वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 के बाद यह प्रावधान समाप्त कर दिया गया है।


7. वार्षिक वित्तीय वक्तव्य (Annual Financial Statement)

राष्ट्रपति के नाम पर वार्षिक वित्तीय वक्तव्य (बजट) संसद में प्रस्तुत किया जाता है। यह बजट केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति और आगामी वित्तीय वर्ष के लिए प्रस्तावित खर्चों और राजस्व का विवरण प्रदान करता है।


निष्कर्ष

भारत के राष्ट्रपति की विधायी शक्तियाँ भारतीय राजनीतिक प्रणाली में संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये शक्तियाँ राष्ट्रपति को कानून निर्माण प्रक्रिया में सक्रिय भागीदार बनाती हैं और उन्हें संसद के कार्यों पर प्रभाव डालने का अवसर प्रदान करती हैं। इस प्रकार, राष्ट्रपति की विधायी शक्तियाँ भारतीय लोकतंत्र की शक्ति संरचना में एक महत्वपूर्ण और अपरिहार्य हिस्सा हैं।




प्रश्न 04 लोकसभा अध्यक्ष की शक्तियों का वर्णन करें।

उत्तर:

लोकसभा अध्यक्ष (Speaker of the Lok Sabha) भारतीय संसद के निचले सदन, लोकसभा, के सभापति होते हैं। उन्हें सदन का संचालन, कार्यवाही की मर्यादा बनाए रखना और सदन की गतिविधियों को निष्पक्ष रूप से संचालित करने की जिम्मेदारी होती है। लोकसभा अध्यक्ष की शक्तियाँ और कर्तव्य उन्हें भारतीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली भूमिका प्रदान करते हैं। लोकसभा अध्यक्ष की प्रमुख शक्तियों का वर्णन निम्नलिखित है:


1. सदन की कार्यवाही का संचालन (Conduct of House Proceedings)

लोकसभा अध्यक्ष सदन की कार्यवाही का संचालन करने की मुख्य जिम्मेदारी निभाते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चले और सदन के सदस्य अनुशासन और मर्यादा बनाए रखें। इसमें निम्नलिखित प्रमुख बिंदु शामिल हैं:


प्रश्नकाल का संचालन: लोकसभा अध्यक्ष प्रश्नकाल के दौरान प्रश्नों को स्वीकार करते हैं और उन्हें चर्चा के लिए प्रस्तुत करते हैं। वे प्रश्नकाल के अनुशासन और समयबद्धता को सुनिश्चित करते हैं।


विधेयकों पर चर्चा: विधेयकों और अन्य मुद्दों पर चर्चा के दौरान अध्यक्ष निर्णय लेते हैं कि कौन सदस्य बोलेगा, कब बोलेगा, और चर्चा के लिए कितना समय दिया जाएगा।


व्यवधान का निपटारा: यदि सदन की कार्यवाही के दौरान व्यवधान उत्पन्न होता है, तो अध्यक्ष उसे शांत कराने और सदन की कार्यवाही को पुनः सुचारू करने का प्रयास करते हैं।


2. व्यवस्था बनाए रखने की शक्ति (Power to Maintain Order)

लोकसभा अध्यक्ष को सदन की मर्यादा और व्यवस्था बनाए रखने का अधिकार है। इसके लिए वे निम्नलिखित कार्य कर सकते हैं:


अनुशासनात्मक कार्रवाई: अध्यक्ष सदन के सदस्यों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकते हैं, यदि वे सदन की मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। इसमें सदस्य को सदन से निष्कासित करना या उन्हें चेतावनी देना शामिल है।


अनुचित व्यवहार पर नियंत्रण: यदि कोई सदस्य अनियंत्रित व्यवहार करता है या सदन की कार्यवाही में बाधा डालता है, तो अध्यक्ष उन्हें चेतावनी दे सकते हैं और स्थिति के अनुसार उचित कार्रवाई कर सकते हैं।


3. वोट देने का अधिकार (Casting Vote)

लोकसभा अध्यक्ष सामान्यतः मतदान में भाग नहीं लेते हैं, लेकिन यदि सदन में किसी प्रस्ताव या विधेयक पर मत विभाजन (tie) की स्थिति उत्पन्न होती है, तो अध्यक्ष के पास निर्णायक मत (Casting Vote) देने का अधिकार होता है। यह मत निर्णायक होता है और इसके आधार पर प्रस्ताव पारित या अस्वीकृत हो सकता है।


4. व्याख्या और नियमों की व्याख्या (Interpretation and Explanation of Rules)

लोकसभा अध्यक्ष के पास सदन के नियमों और प्रक्रियाओं की व्याख्या करने का अधिकार होता है। यदि सदन में किसी नियम या प्रक्रिया के संबंध में विवाद उत्पन्न होता है, तो अध्यक्ष का निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होता है। इसमें अध्यक्ष के पास सदन की कार्यप्रणाली, प्रक्रियात्मक नियमों, और आचरण संहिता के संदर्भ में निर्णय लेने की शक्ति होती है।


5. प्रश्नों को अनुमति देना (Allowing Questions)

लोकसभा अध्यक्ष के पास प्रश्नों को अनुमति देने या अस्वीकार करने का अधिकार होता है। सदन के सदस्यों द्वारा उठाए गए प्रश्नों को अध्यक्ष की अनुमति के बिना सदन में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। वे प्रश्नों की स्वीकृति के लिए उनकी प्रासंगिकता और महत्त्व का आकलन करते हैं।


6. विशेषाधिकार समिति के प्रमुख (Chairperson of the Business Advisory Committee)

लोकसभा अध्यक्ष व्यवसाय परामर्श समिति (Business Advisory Committee) के प्रमुख होते हैं। यह समिति सदन के कार्यसूची और कार्यकाल को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अध्यक्ष इस समिति के माध्यम से सदन के समय का प्रभावी प्रबंधन सुनिश्चित करते हैं और विभिन्न विधायी कार्यों के लिए समय का आवंटन करते हैं।


7. लोकसभा सचिवालय का प्रमुख (Head of the Lok Sabha Secretariat)

लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा सचिवालय के प्रमुख होते हैं। वे सचिवालय के सभी कार्यों की निगरानी करते हैं और सचिवालय के अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति, पदोन्नति, और अनुशासनात्मक कार्रवाई का अधिकार रखते हैं।


8. संसदीय समितियों का गठन और नियुक्ति (Formation and Appointment of Parliamentary Committees)

लोकसभा अध्यक्ष विभिन्न संसदीय समितियों का गठन करते हैं और उनके सदस्यों की नियुक्ति करते हैं। इनमें स्थायी समितियाँ, चयन समितियाँ, और विशेष समितियाँ शामिल होती हैं। अध्यक्ष इन समितियों के संचालन और उनके कार्यों की समीक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


9. सदन के भीतर संचार का अधिकार (Right to Communicate within the House)

लोकसभा अध्यक्ष के पास सदन के भीतर सदस्यों और सदन के अन्य निकायों के साथ संचार करने का अधिकार होता है। वे सदन के सभी सदस्यों के बीच संवाद स्थापित करने और विचार-विमर्श के माध्यम से सदन के कार्यों को सुचारू रूप से चलाने में सहायता करते हैं।


10. विशेषाधिकार प्रश्नों का निपटारा (Settlement of Privilege Questions)

लोकसभा अध्यक्ष के पास विशेषाधिकार संबंधी प्रश्नों का निपटारा करने का अधिकार होता है। यदि कोई सदस्य सदन के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करता है या विशेषाधिकार हनन का आरोप लगता है, तो अध्यक्ष इस पर निर्णय लेते हैं और आवश्यक कार्रवाई करते हैं।


निष्कर्ष

लोकसभा अध्यक्ष की शक्तियाँ भारतीय लोकतंत्र के सुचारू संचालन और सदन की कार्यवाही को निष्पक्ष और व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उनके पास सदन की कार्यवाही का संचालन करने, सदस्यों के बीच अनुशासन बनाए रखने, विधेयकों पर चर्चा को सुव्यवस्थित करने, और सदन के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करने की महत्वपूर्ण शक्तियाँ होती हैं। इस प्रकार, लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका न केवल संसदीय कार्यप्रणाली के संदर्भ में, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के व्यापक परिप्रेक्ष्य में भी महत्वपूर्ण है।




प्रश्न 05 सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को कैसे अपदस्थ किया  जा सकता है? बताइए।

उत्तर:

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनकी सेवा के दौरान केवल संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के तहत ही अपदस्थ (Impeachment) किया जा सकता है। न्यायाधीशों को अपदस्थ करने की प्रक्रिया बहुत कठिन और सख्त होती है ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और न्यायाधीशों की निष्पक्षता बनी रहे। नीचे सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को अपदस्थ करने की प्रक्रिया का विस्तृत विवरण दिया गया है:


1. संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provision)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 124(4) और 124(5) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को अपदस्थ करने की प्रक्रिया को निर्धारित करता है। इन प्रावधानों के अनुसार, किसी न्यायाधीश को केवल संसद द्वारा महाभियोग (Impeachment) के माध्यम से ही अपदस्थ किया जा सकता है। अपदस्थ करने का आधार "सिद्ध दुर्व्यवहार" (Proven Misbehaviour) या "अयोग्यता" (Incapacity) होना चाहिए।


2. प्रस्ताव लाने की प्रक्रिया (Initiation of the Process)

न्यायाधीश को अपदस्थ करने की प्रक्रिया संसद में एक प्रस्ताव लाने से शुरू होती है। इस प्रक्रिया के दो मुख्य चरण होते हैं:


लोकसभा में: लोकसभा में न्यायाधीश को अपदस्थ करने के लिए कम से कम 100 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित नोटिस की आवश्यकता होती है।


राज्यसभा में: राज्यसभा में न्यायाधीश को अपदस्थ करने के लिए कम से कम 50 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित नोटिस की आवश्यकता होती है।


3. प्रस्ताव की स्वीकृति (Admitting the Motion)

जब लोकसभा या राज्यसभा के निर्धारित संख्या के सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित नोटिस प्रस्तुत किया जाता है, तो सदन के सभापति (लोकसभा में स्पीकर और राज्यसभा में चेयरमैन) इसे स्वीकार करते हैं। यदि सभापति इसे स्वीकार कर लेते हैं, तो आगे की जांच के लिए एक जांच समिति का गठन किया जाता है।


4. जांच समिति का गठन (Formation of Inquiry Committee)

प्रस्ताव स्वीकार करने के बाद, एक तीन-सदस्यीय जांच समिति का गठन किया जाता है। यह समिति निम्नलिखित सदस्यों से मिलकर बनती है:


भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश।

उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश।

एक प्रतिष्ठित न्यायविद।

यह समिति आरोपों की जांच करती है और तथ्यों का निर्धारण करती है कि क्या न्यायाधीश के खिलाफ आरोप सिद्ध दुर्व्यवहार या अयोग्यता के अंतर्गत आते हैं।


5. जांच समिति की रिपोर्ट (Report of the Inquiry Committee)

जांच समिति अपने निष्कर्षों पर आधारित एक रिपोर्ट तैयार करती है। यदि समिति को लगता है कि आरोप सिद्ध हैं, तो वह अपनी रिपोर्ट संसद के संबंधित सदन में प्रस्तुत करती है। यदि आरोप सिद्ध नहीं होते हैं, तो मामला यहीं समाप्त हो जाता है।


6. संसद में प्रस्ताव पर चर्चा और मतदान (Discussion and Voting in Parliament)

यदि जांच समिति की रिपोर्ट में आरोप सिद्ध होते हैं, तो प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों में चर्चा की जाती है।


मतदान की प्रक्रिया: प्रस्ताव पारित करने के लिए प्रत्येक सदन में इसे विशेष बहुमत से पारित करना आवश्यक होता है। विशेष बहुमत का अर्थ है कि सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन आवश्यक है।


7. राष्ट्रपति की स्वीकृति (President's Approval)

जब प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित हो जाता है, तो इसे राष्ट्रपति को भेजा जाता है। यदि राष्ट्रपति प्रस्ताव को अपनी स्वीकृति देते हैं, तो संबंधित न्यायाधीश को उनके पद से अपदस्थ कर दिया जाता है।


8. निष्कर्ष (Conclusion)

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को अपदस्थ करने की प्रक्रिया जटिल और कठिन है, ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके। यह प्रक्रिया न्यायाधीशों को बिना किसी दबाव या भय के अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए सक्षम बनाती है। अपदस्थ करने की कठिन प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि न्यायाधीशों को केवल अत्यंत गंभीर मामलों में ही उनके पद से हटाया जा सके।



प्रश्न 06 उच्च न्यायालय की संरचना का वर्णन कीजिए।

उत्तर:

भारत में उच्च न्यायालय (High Courts) राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए सर्वोच्च न्यायालय के नीचे स्थित प्रमुख न्यायिक निकाय होते हैं। उच्च न्यायालय की संरचना और कार्यप्रणाली संविधान द्वारा निर्धारित की गई है। यहाँ उच्च न्यायालय की संरचना का विस्तृत विवरण प्रस्तुत है:


1. मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice)

प्रत्येक उच्च न्यायालय का नेतृत्व एक मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice) द्वारा किया जाता है। मुख्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय के प्रशासन और कार्यवाही की देखरेख करते हैं। उन्हें भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और उनकी नियुक्ति में वरिष्ठता और योग्यता का ध्यान रखा जाता है।


2. अन्य न्यायाधीश (Other Judges)

मुख्य न्यायाधीश के अलावा, उच्च न्यायालय में अन्य न्यायाधीश भी होते हैं जिन्हें भारत के राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर नियुक्त किया जाता है। इन न्यायाधीशों की संख्या संविधान में निर्दिष्ट नहीं की गई है, और यह आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर बढ़ाई या घटाई जा सकती है।


न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए योग्यता:


न्यूनतम 10 वर्षों तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस की हो।

न्यायिक सेवा में कम से कम 10 वर्षों का अनुभव हो।

3. सिंगल बेंच और डिवीजन बेंच (Single Bench and Division Bench)

उच्च न्यायालय में मामलों की सुनवाई के लिए न्यायाधीशों की पीठें (Benches) बनती हैं:


सिंगल बेंच: एकल न्यायाधीश द्वारा मामलों की सुनवाई की जाती है। साधारण मामले, जिनमें जटिल संवैधानिक या कानूनी प्रश्न शामिल नहीं होते, उन्हें एकल पीठ द्वारा सुना जा सकता है।

डिवीजन बेंच: दो या दो से अधिक न्यायाधीशों की पीठ को डिवीजन बेंच कहा जाता है। जटिल और महत्वपूर्ण मामलों, जैसे अपील या संवैधानिक मुद्दों को डिवीजन बेंच के समक्ष रखा जाता है।

4. फुल बेंच (Full Bench)

फुल बेंच का गठन तब किया जाता है जब किसी मामले में उच्च न्यायालय के दो पीठों के बीच विरोधाभास हो या मामला अत्यंत महत्वपूर्ण हो। फुल बेंच में आमतौर पर तीन या उससे अधिक न्यायाधीश होते हैं।


5. रिट पीठ (Writ Jurisdiction)

उच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत विशेष अधिकार दिया गया है, जिससे वह "रिट्स" जारी कर सकता है। रिट पीठ उन मामलों की सुनवाई करती है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से संबंधित होते हैं। पाँच प्रकार की रिट्स होती हैं:


हabeas Corpus: किसी व्यक्ति को अवैध हिरासत से मुक्त करने के लिए।

मंडामस: किसी सार्वजनिक अधिकारी या संस्था को अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए आदेशित करने हेतु।

प्रोहिबिशन: निचली अदालत को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने से रोकने के लिए।

क्वो वारंटो: किसी व्यक्ति से यह पूछने के लिए कि उसने सार्वजनिक पद को किस अधिकार से धारण किया है।

सर्टियोरारी: निचली अदालत से लंबित मामलों को उच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने के लिए।

6. विशेष पीठें (Special Benches)

कुछ उच्च न्यायालयों में विशेष प्रकार के मामलों की सुनवाई के लिए विशेष पीठें होती हैं, जैसे:


पर्यावरण मामलों की पीठ

संविधान पीठ

सिविल और आपराधिक अपील पीठ

7. अधिवक्ता और अधीनस्थ कर्मचारी (Advocates and Subordinate Staff)

उच्च न्यायालयों के पास एक पंजीकृत बार होता है जिसमें अधिवक्ता (Advocates) होते हैं जो न्यायालय के समक्ष मामलों की पैरवी करते हैं। इसके अलावा, न्यायालय में रजिस्ट्रार, क्लर्क, और अन्य प्रशासनिक कर्मचारी होते हैं जो न्यायालय की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने में मदद करते हैं।


8. अन्य महत्वपूर्ण कार्यालय (Other Important Offices)

रजिस्ट्रार: न्यायालय के विभिन्न मामलों के प्रबंधन के लिए रजिस्ट्रार का कार्यालय होता है। रजिस्ट्रार न्यायालय के प्रशासनिक कार्यों की देखरेख करते हैं।

रजिस्ट्रार जनरल: उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रारों का सर्वोच्च अधिकारी होता है, जो न्यायालय के समग्र प्रशासन की देखभाल करता है।

निष्कर्ष

उच्च न्यायालयों की संरचना और कार्यप्रणाली उन्हें भारत के न्यायिक प्रणाली में महत्वपूर्ण स्थान देती है। वे न केवल न्याय देने का कार्य करते हैं, बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। उच्च न्यायालयों का न्यायिक स्वतंत्रता, निष्पक्षता और पारदर्शिता को बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण योगदान होता है, जो भारतीय लोकतंत्र के स्तंभों में से एक है।





प्रश्न 07 भारत के संविधान के 73वें संशोधन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर:


भारत के संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1992 को भारतीय पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ और अधिक लोकतांत्रिक बनाने के उद्देश्य से लागू किया गया था। यह संशोधन अधिनियम 24 अप्रैल, 1993 को प्रभावी हुआ और इसे ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता है। इसके द्वारा संविधान में एक नया अध्याय, अध्याय IX (पंचायतें), जोड़ा गया। इस संशोधन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:


1. पंचायती राज संस्थाओं का संवैधानिक दर्जा (Constitutional Status to Panchayati Raj Institutions)

73वें संशोधन के तहत, पंचायतों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि राज्यों के लिए पंचायतों का गठन करना और उनका संचालन करना अनिवार्य हो गया। इससे पहले, पंचायती राज संस्थाएँ केवल राज्य के कानूनों पर निर्भर थीं और उनकी भूमिका और अस्तित्व अस्थिर था।


2. तीन-स्तरीय संरचना (Three-Tier Structure)

इस संशोधन ने तीन-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली की स्थापना की, जिसमें ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर), पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर), और जिला परिषद (जिला स्तर) शामिल हैं। यह संरचना ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की अधिक व्यापकता और प्रशासनिक सुविधा के लिए बनाई गई थी:


ग्राम पंचायत: गाँव स्तर की सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई।

पंचायत समिति: ब्लॉक स्तर की इकाई, जो विभिन्न ग्राम पंचायतों को समन्वयित करती है।

जिला परिषद: जिले की सर्वोच्च पंचायती राज संस्था, जो जिले के सभी पंचायतों का समन्वय करती है।

3. निर्वाचन की अनिवार्यता (Mandatory Elections)

73वें संशोधन के तहत, पंचायती राज संस्थाओं में नियमित चुनाव कराना अनिवार्य किया गया। हर पाँच साल में पंचायतों के चुनाव कराए जाने का प्रावधान किया गया। इसके लिए राज्य चुनाव आयोग का गठन किया गया, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने का उत्तरदायित्व निभाता है।


4. आरक्षण प्रावधान (Reservation Provisions)

इस संशोधन ने विभिन्न वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया:


अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिए आरक्षण: पंचायतों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए उनके जनसंख्या अनुपात के अनुसार सीटें आरक्षित की गईं।

महिलाओं के लिए आरक्षण: कुल सीटों का एक तिहाई (33%) महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया, जिसमें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के लिए भी आरक्षण शामिल है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी और सशक्तिकरण को बढ़ावा मिला।

5. नियोजन और विकास का विकेंद्रीकरण (Decentralization of Planning and Development)

पंचायतों को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की दिशा में कार्य करने के लिए अधिकारित किया गया। उन्हें स्थानीय विकास योजनाओं की योजना बनाने और उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी दी गई। यह विकेंद्रीकरण प्रशासन और विकास प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करता है।


6. राज्य वित्त आयोग का गठन (Formation of State Finance Commission)

प्रत्येक राज्य में, हर पाँच साल में एक राज्य वित्त आयोग का गठन करना अनिवार्य किया गया, जो पंचायतों के लिए धन के आवंटन की सिफारिश करता है। यह सुनिश्चित करता है कि पंचायतों को अपने कार्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध हों।


7. जिला योजना समिति (District Planning Committee)

73वें संशोधन ने जिला योजना समिति के गठन का प्रावधान किया, जिसका उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं और नगर पालिकाओं के लिए जिला स्तर पर विकास योजनाओं का समन्वय करना है। इससे स्थानीय स्तर पर योजना निर्माण और क्रियान्वयन में अधिक समन्वय और प्रभावशीलता सुनिश्चित होती है।


8. पंचायतों की शक्तियाँ और जिम्मेदारियाँ (Powers and Responsibilities of Panchayats)

संविधान के अनुच्छेद 243G के तहत पंचायतों को विभिन्न विषयों पर अधिकार दिए गए, जिनमें कृषि, जल प्रबंधन, सड़कों और परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक कल्याण, और ग्राम विकास से संबंधित विषय शामिल हैं। इन अधिकारों के तहत पंचायतें स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार योजनाएँ बना सकती हैं और उन्हें लागू कर सकती हैं।


9. न्याय पंचायतों का प्रावधान (Provision for Nyaya Panchayats)

इस संशोधन ने ग्राम स्तर पर न्याय पंचायतों के गठन का प्रावधान किया, जो छोटे-मोटे विवादों और नागरिक मामलों का त्वरित और सुलभ समाधान प्रदान करती हैं। इससे ग्रामीण क्षेत्र में न्याय तक पहुँच सुलभ होती है और सामान्य न्यायालयों का बोझ भी कम होता है।


10. अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान (Other Important Provisions)

सीटों का परिसीमन (Delimitation of Seats): पंचायत क्षेत्रों और सीटों का परिसीमन समय-समय पर किया जाना चाहिए ताकि जनसंख्या में बदलाव को ध्यान में रखा जा सके।

पंचायती राज संस्थाओं का ऑडिट: पंचायतों के खातों की नियमित रूप से ऑडिट करना अनिवार्य है ताकि पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित हो सके।

निष्कर्ष

भारत के संविधान के 73वें संशोधन ने पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त और संवैधानिक दर्जा देकर ग्रामीण स्थानीय स्वशासन में एक नई दिशा प्रदान की। इसने न केवल लोकतांत्रिक प्रक्रिया को स्थानीय स्तर तक पहुँचाया, बल्कि समाज के वंचित वर्गों और महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को भी सुनिश्चित किया। इस संशोधन के माध्यम से विकास और प्रशासन में विकेंद्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया है, जिससे ग्रामीण भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास को गति मिली है।




प्रश्न 08 शहरी स्थानीय निकायों की आय के  महत्वपूर्ण स्रोतों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर:

शहरी स्थानीय निकायों की आय के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं:


स्थानीय कर (Local Taxes):

 यह मुख्यत: संपत्ति कर (Property Tax), व्यवसाय कर (Business Tax), और अन्य स्थानीय करों के रूप में होते हैं।

प्रवर्तन शुल्क (Fees and Charges): 

ये लाइसेंस शुल्क, निर्माण अनुमति शुल्क, और सेवाओं के लिए विभिन्न शुल्कों के रूप में होते हैं।

राज्य सरकार से अनुदान (Grants from State Government): 

यह स्थानीय निकायों को विभिन्न योजनाओं और परियोजनाओं के लिए प्रदान किए जाते हैं।

संविधानिक अनुदान (Constitutional Grants): भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के माध्यम से प्राप्त अनुदान।

स्वतंत्र स्रोत (Own Sources): 

जैसे कि संपत्ति की बिक्री, लीज़ पर देना, और अन्य संपत्तियों से आय।


सार्वजनिक और निजी साझेदारी (Public-Private Partnerships): 

अवसंरचना परियोजनाओं के लिए निजी क्षेत्र से प्राप्त निवेश।

इन स्रोतों के माध्यम से शहरी स्थानीय निकाय अपनी विभिन्न सेवाओं और परियोजनाओं का वित्तपोषण करते हैं।