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UOU BAHI(N)202 SOLVED PAPER JUNE 2025, भारत का इतिहास 1526 से 1756 ई० तक

 
UOU BAHI(N)202 SOLVED PAPER JUNE 2025, भारत का इतिहास 1526 से 1756 ई० तक

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 01: मुगलकालीन इतिहास के साहित्यिक और पुरातात्विक स्रोतों का उल्लेख कीजिये।

📘 मुगलकालीन इतिहास के स्रोतों का परिचय

मुगल साम्राज्य भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है, जिसका शासनकाल लगभग तीन शताब्दियों तक फैला रहा। इस काल को समझने के लिए इतिहासकारों के पास दो प्रमुख साधन उपलब्ध हैं—साहित्यिक स्रोत और पुरातात्विक स्रोत। ये दोनों स्रोत सामूहिक रूप से मुगल प्रशासन, आर्थिक व्यवस्था, सैन्य शक्ति, संस्कृति, कला, धर्म एवं सामाजिक संरचना की विस्तृत और प्रमाणिक जानकारी प्रदान करते हैं।
साहित्यिक स्रोत समकालीन लेखकों, इतिहासकारों, कवियों एवं यात्रियों द्वारा लिखे गए विवरणों पर आधारित होते हैं, जबकि पुरातात्विक स्रोत मूर्त रूप में उपलब्ध धरोहरों––जैसे इमारतें, स्मारक, सिक्के, अभिलेख, चित्रकला और उत्खनन––पर आधारित होते हैं।


📚 साहित्यिक स्रोत

🔹 दरबारी इतिहासकारों द्वारा लिखित ग्रंथ

मुगल सम्राटों ने अपने शासन का विस्तृत अभिलेख रखने की परंपरा को बढ़ावा दिया। लगभग प्रत्येक सम्राट के दरबार में कई इतिहासकार नियुक्त किए गए, जिन्होंने शासनकाल की महत्वपूर्ण घटनाओं का प्रामाणिक वर्णन किया।

  • अकबरनामा और आइने-अकबरी (अबुल फ़ज़ल): ये दोनों ग्रंथ महान सम्राट अकबर के काल की राजनीति, समाज, सैन्य संगठन और प्रशासनिक ढांचे का विश्वसनीय विवरण प्रस्तुत करते हैं।

  • तारीख-ए-फ़िरिश्ता: इस ग्रंथ में मध्यकाल से लेकर मुगल काल तक के राजनीतिक घटनाक्रमों का विस्तृत उल्लेख मिलता है।

  • बाबरनामा: बाबर की आत्मकथा, जिसमें उसने अपने संघर्ष, युद्ध और भारत के प्रति अपने अनुभवों का विस्तार से वर्णन किया है।

  • जहांगीरनामा: जहांगीर की आत्मकथा, जो उसके स्वभाव, न्यायप्रियता और कला-प्रेम की झलक देती है।
    ये ग्रंथ इतिहास के छात्रों को उस समय की वास्तविक परिस्थितियों को समझने में अत्यंत सहायक हैं।

🔹 आत्मकथाएँ एवं जीवनी ग्रंथ

मुगलों की विशिष्टता यह थी कि उन्होंने अपने अनुभवों को स्वयं लिखा। इससे स्रोतों में प्रामाणिकता और व्यक्तिगत दृष्टिकोण की झलक मिलती है।

  • तज़्किरा-ए-हुमायूँ (गुलबदन बेगम): इसमें हुमायूँ के जीवन, संघर्ष और शासन का भावनात्मक एवं सजीव वर्णन मिलता है।

  • शाहजहाँनामा: शाहजहाँ के शासनकाल, उसकी वास्तुकला नीति तथा दरबारी संस्कृति का समृद्ध विवरण।

🔹 यात्री-वृत्तांत

यूरोपीय और मध्य-एशियाई यात्रियों के लेखन मुगल साम्राज्य को बाहरी दृष्टिकोण से समझने का अवसर देते हैं।

  • फ्रांसिस बर्नियर: उसने भारतीय सामाजिक विभाजन, आर्थिक स्थिति और राजपूत नीतियों पर टिप्पणी की।

  • टैवर्नियर: व्यापार, बाजार, खनिज और मुगल समृद्धि पर रोचक जानकारी प्रदान करता है।

  • निकोलाओ मैनुची: मुगल दरबार की आंतरिक राजनीति का विस्तृत चित्रण उसके लेखन में मिलता है।
    ये विवरण मुगल समाज और शासन के बारे में वस्तुनिष्ठ जानकारी प्रदान करते हैं।

🔹 प्रशासनिक दस्तावेज

मुगल काल के राजस्व अभिलेख, फरमान, दफ्तरी कागज़ात और नीतिगत आदेश प्रशासनिक ढांचे को समझने में अमूल्य हैं।

  • आइने-अकबरी में दी गई सूबों, जागीरों, सेना एवं कर व्यवस्था की पूरी जानकारी प्रशासनिक स्रोत का आधार है।

  • अकबरी फरमान, औरंगज़ेब के आदेश और अधिसूचनाएँ मुगल शासन की नीतियों का प्रमाण हैं।


🏛️ पुरातात्विक स्रोत

🔹 स्थापत्य एवं वास्तुकला के प्रमाण

मुगल शासन कला और स्थापत्य का स्वर्णयुग माना जाता है। उनकी इमारतें न केवल सौंदर्य का प्रतिबिम्ब हैं, बल्कि इससे उस समय की तकनीक, संस्कृति और धार्मिक दृष्टिकोण का भी पता चलता है।

  • ताजमहल: शाहजहाँ की वास्तुकला भावना का महानतम उदाहरण।

  • लाल किला (दिल्ली): राजनीतिक शक्ति का प्रतीक और मुगल साम्राज्य की भव्यता का परिचायक।

  • फतेहपुर सीकरी: अकबर की धार्मिक नीति और स्थापत्य कौशल का केंद्र।

  • जामा मस्जिद, हुमायूँ का मकबरा, मोती मस्जिद, शालीमार बाग जैसी अनेक इमारतें मुगल जीवन, धार्मिक परंपराओं और सौंदर्यशास्त्र को उजागर करती हैं।

🔹 सिक्के (Numismatic Sources)

मुगलों ने व्यवस्थित मुद्रा प्रणाली विकसित की।

  • उनके सिक्कों पर सम्राट का नाम, उपाधि, और ईश्वर के प्रति निष्ठा लिखी होती थी।

  • सिक्कों के भार, धातु और प्रकार से आर्थिक स्थिति, व्यापार व्यवस्था और धातु विज्ञान का ज्ञान मिलता है।

  • दाम, मोह‍र और रुपया जैसी मुद्राओं ने भारतीय आर्थिक ढांचे को मजबूत किया।

🔹 अभिलेख, मुद्राएँ और शिलालेख

अनेक मस्जिदों, किलों और सरायों पर लिखित शिलालेख मिलते हैं, जहाँ निर्माण वर्ष, निर्माता, शासक और उद्देश्य का स्पष्ट विवरण मिलता है।
ये अभिलेख प्रशासनिक नीति, धार्मिक प्रवृत्तियों और समाज की संरचना का संकेत देते हैं।

🔹 चित्रकला एवं लघुचित्र

मुगल चित्रकला कला का अनूठा संगम है।

  • जहांगीर, अकबर और शाहजहाँ के समय उच्च कोटि की चित्रकला विकसित हुई।

  • चित्रों में दरबारी जीवन, दरबार, शिकार, युद्ध और धार्मिक सभाओं का चित्रण मिलता है।
    ये चित्र मुगल मानसिकता, संस्कृति और राजकीय समारोहों का अमूल्य दृश्य प्रमाण हैं।

🔹 उत्खनन एवं भौतिक अवशेष

पुरातत्व विभाग द्वारा फतेहपुर सीकरी, आगरा, दिल्ली, लाहौर आदि स्थलों पर किए गए उत्खननों से उस समय की तकनीक, निर्माण शैली और दैनिक जीवन की वस्तुएँ मिली हैं।
इनमें मिट्टी के बर्तन, हथियार, निर्माण सामग्री और आभूषण प्रमुख हैं।


🧭 साहित्यिक और पुरातात्विक स्रोतों का तुलनात्मक महत्व

🔹 साहित्यिक स्रोत

  • तत्कालीन विचारधारा, नीतियों और घटनाओं का विवरण देते हैं।

  • सम्राटों और दरबारियों की मानसिकता समझने में मदद करते हैं।

🔹 पुरातात्विक स्रोत

  • भौतिक प्रमाण होने के कारण अधिक विश्वसनीय माने जाते हैं।

  • संस्कृति, कला और वैज्ञानिक सोच का वास्तविक चित्रण प्रस्तुत करते हैं।

जब दोनों स्रोतों का संयुक्त अध्ययन किया जाता है, तब मुगलकालीन भारत का पूर्ण एवं संतुलित इतिहास सामने आता है।


🏁 निष्कर्ष

मुगलकालीन इतिहास को समझने के लिए साहित्यिक और पुरातात्विक दोनों प्रकार के स्रोत अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। साहित्यिक स्रोत जहाँ घटनाओं का वर्णन करते हैं, वहीं पुरातात्विक स्रोत उन घटनाओं के भौतिक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। दोनों के सम्मिलित अध्ययन से मुगल भारत के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वरूप की एक समग्र और प्रमाणिक तस्वीर सामने आती है।




प्रश्न 02: शेरशाह सूरी का जीवन परिचय देते हुए उसके द्वारा लड़े गए प्रमुख युद्धों का वर्णन कीजिये।

⭐ शेरशाह सूरी का प्रारंभिक जीवन

शेरशाह सूरी, जिन्हें मूल रूप से फ़रीद ख़ान कहा जाता था, भारतीय इतिहास के सर्वाधिक सक्षम और दूरदर्शी शासकों में से एक थे। उनका जन्म लगभग 1486 ई. में बिहार के सासाराम में एक अफ़ग़ान सरदार हसन ख़ान के घर हुआ। बचपन से ही उनमें नेतृत्व, संगठन क्षमता और शौर्य की विशेषताएँ दिखाई देती थीं। यद्यपि उनका बचपन आर्थिक संघर्षों से भरा था, लेकिन इन्हीं कठिनाइयों ने उन्हें कठोर परिश्रमी एवं महत्वाकांक्षी व्यक्ति बना दिया।

🔹 पारिवारिक पृष्ठभूमि

शेरशाह का परिवार सुर वंश से सम्बंधित था। उनके पिता एक छोटे जागीरदार थे, परंतु राजनीतिक अस्थिरता के कारण परिवार को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। फ़रीद युवा अवस्था में ही पिता के कार्यों में सहयोग देने लगे और धीरे-धीरे जागीर के प्रबंधन में दक्ष होते गए।

🔹 शिक्षा और व्यक्तित्व

शेरशाह ने फारसी, अरबी और इतिहास का गहन अध्ययन किया। वे न केवल योद्धा थे, बल्कि एक कुशल प्रशासक भी थे। आगे चलकर यही गुण उनके सफल शासन की नींव बने।


⭐ शेरशाह के राजनीतिक उदय की कहानी

🔹 जागीर प्रबंधन और अफगानों में प्रतिष्ठा

पिता की मृत्यु के बाद फ़रीद ने अपने भाइयों से संघर्ष करते हुए जागीर पर अधिकार स्थापित किया। उनकी नीतियों व कार्यशैली से क्षेत्र के अफगान सरदार प्रभावित हुए और उन्होंने फ़रीद को समर्थन देना प्रारंभ किया।

🔹 बहार खाँ लोदी का संरक्षण

फ़रीद की योग्यता देखकर बिहार के गवर्नर बहार खाँ लोदी ने उन्हें अपना सलाहकार नियुक्त किया। एक बार फ़रीद ने जंगल में एक शेर को अकेले ही मार गिराया, जिससे प्रभावित होकर बहार खाँ ने उन्हें "शेर खाँ" की उपाधि दी।

🔹 हुमायूँ के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत

मुगल सम्राट हुमायूँ के शासनकाल में अफगानों की शक्ति कमजोर हुई, लेकिन शेरशाह ने अपनी सामरिक नीति और राजनीतिक चातुर्य से बिहार तथा बंगाल पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। यहीं से मुगलों के साथ संघर्ष का दौर प्रारंभ हुआ।


⭐ शेरशाह सूरी का शासनकाल

शेरशाह सूरी ने 1540 ई. में हुमायूँ को पराजित कर दिल्ली की गद्दी पर अधिकार किया। उनका शासन भले ही पाँच वर्ष (1540–1545) का रहा, लेकिन उनकी प्रशासनिक, आर्थिक तथा सैन्य नीतियों ने भारत की शासन प्रणाली को नई दिशा प्रदान की।

  • उन्होंने मुद्रा सुधार,

  • राजस्व प्रणाली,

  • डाक व्यवस्था,

  • सड़क निर्माण
    जैसे कार्यों द्वारा आधुनिक भारत के प्रशासन की मजबूत नींव रखी।


⚔️ शेरशाह सूरी द्वारा लड़े गए प्रमुख युद्ध

🔥 1. चौसा का युद्ध (1539 ई.)

चौसा का युद्ध शेरशाह और मुगल सम्राट हुमायूँ के बीच निर्णायक संघर्ष का आरंभ था।

🔹 युद्ध का पृष्ठभूमि

1534 से ही शेरशाह बंगाल के शासक महमूद शाह के विरुद्ध लड़ते हुए अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे। दूसरी ओर हुमायूँ गुजरात अभियान में व्यस्त थे, जिससे अफगानों को शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया।

🔹 युद्ध का स्थान

यह युद्ध चौसा (बक्सर, बिहार) के समीप गंगा नदी के तट पर लड़ा गया।

🔹 युद्ध का परिणाम

  • शेरशाह ने अत्यंत रणनीतिक ढंग से हुमायूँ की सेना पर हमला किया।

  • हुमायूँ की सेना पूरी तरह पराजित हुई।

  • हुमायूँ किसी तरह जान बचाकर भागे।

  • शेरशाह ने "शेरशाह" की उपाधि धारण की और पूरे बिहार-बंगाल क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।

🔹 महत्त्व

इस युद्ध के बाद शेरशाह उत्तरी भारत की सबसे शक्तिशाली अफगान शक्ति बनकर उभरे। यह युद्ध मुगलों के पतन और सुर साम्राज्य के उदय का प्रारंभिक बिंदु था।


🔥 2. कन्नौज (कनौज/बिलग्राम) का युद्ध (1540 ई.)

चौसा की विजय के बाद शेरशाह और हुमायूँ के बीच अंतिम निर्णायक युद्ध कन्नौज में लड़ा गया।

🔹 युद्ध का कारण

हुमायूँ ने अपना खोया हुआ साम्राज्य पुनः प्राप्त करने के लिए शेरशाह के विरुद्ध अंतिम प्रयास किया।

🔹 युद्ध की परिस्थितियाँ

  • शेरशाह न केवल सैन्य दृष्टि से अधिक शक्तिशाली थे, बल्कि युद्धनीति में मुगलों से कहीं आगे थे।

  • हुमायूँ की सेना कमजोर और मनोबलहीन थी।

  • हुमायूँ के भाईयों की अविश्वसनीयता ने मुगल पक्ष को नुकसान पहुँचाया।

🔹 युद्ध का परिणाम

  • हुमायूँ पूर्णतः पराजित हुए।

  • उन्हें भारत छोड़कर फारस की ओर भागना पड़ा।

  • शेरशाह दिल्ली के अनन्य शासक बन गए।

  • इस विजय के साथ ही मुगल साम्राज्य का पतन और सूर साम्राज्य का सशक्त उदय हुआ।

🔹 ऐतिहासिक महत्त्व

कन्नौज का युद्ध भारतीय इतिहास में वही स्थान रखता है जो पानीपत के युद्धों का है। इसने भारत की सत्ता को मुगलों से छीनकर अफगानों के हाथों में सौंप दिया।


🔥 3. मालवा अभियान

कन्नौज के बाद शेरशाह ने मालवा पर अपना ध्यान केंद्रित किया।

🔹 अभियान का उद्देश्य

मालवा एक समृद्ध प्रदेश था तथा सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। वहाँ के शासक पर हावी होना शेरशाह की प्राथमिक रणनीति का हिस्सा था।

🔹 परिणाम

  • शेरशाह की सेना ने मालवा को जीतकर सुर साम्राज्य का क्षेत्र विस्तार किया।

  • प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया गया।


🔥 4. राजस्थान अभियान

शेरशाह ने राजस्थान के कई क्षेत्रों को अपने अधीन करने का प्रयास किया।

🔹 माड़कोट और कालिंजर का संघर्ष

शेरशाह अपने शासन के अंत तक जुनागढ़, मारवाड़, कालिंजर जैसे क्षेत्रों पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था।

🔹 कालिंजर का युद्ध (1545)

यह युद्ध शेरशाह के जीवन का अंतिम युद्ध था।

🔹 युद्ध का परिणाम

  • शेरशाह ने किले को घेरकर शक्तिशाली तोपों से हमला किया।

  • युद्ध के दौरान एक बारूद की दुर्घटना में शेरशाह गंभीर रूप से घायल हो गए।

  • थोड़े समय बाद उनकी मृत्यु हो गई।

🔹 ऐतिहासिक महत्त्व

शेरशाह की मृत्यु ने सुर वंश को बड़ा झटका दिया। हालाँकि उसका पुत्र इस्लामशाह कुछ समय तक शासन करता रहा, परन्तु साम्राज्य की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण हो गई।


🛕 शेरशाह सूरी का प्रशासन — युद्धों के समान ही महत्वपूर्ण

हालाँकि प्रश्न का केंद्र युद्ध हैं, फिर भी शेरशाह के प्रशासन का उल्लेख आवश्यक है क्योंकि उनके युद्धों ने ही उनके प्रशासनिक सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया।

🔹 सड़क निर्माण

उन्होंने प्रसिद्ध ग्रैंड ट्रंक रोड का निर्माण कराया, जो आज भी भारत की प्रमुख सड़कों में गिनी जाती है।

🔹 मुद्रा सुधार

"रुपया" मुद्रा को मानकीकृत रूप में लागू किया।
यही रुपया बाद में भारतीय मुद्रा का आधार बना।

🔹 भूमि राजस्व प्रणाली

अकबर की भूमि-व्यवस्था का आधार भी शेरशाह की व्यवस्था ही थी।

🔹 सुरक्षा एवं डाक व्यवस्था

सभी महत्वपूर्ण सड़कों पर सराय, चौकी और सैनिक तैनात किए गए।


🏁 निष्कर्ष

शेरशाह सूरी भारतीय इतिहास का वह योद्धा, प्रशासक और सम्राट है जिसने अपने अल्पकालिक शासन में भी ऐसे कार्य किए जो आने वाली सदियों तक उदाहरण बन गए।
उनके द्वारा लड़े गए प्रमुख युद्ध––विशेषकर चौसा और कन्नौज––ने न केवल सुर साम्राज्य की नींव रखी, बल्कि भारतीय इतिहास की राजनीतिक दिशा बदल दी।
उनकी सैन्य योग्यता, रणनीति, प्रशासनिक सुधार और द्रष्टा सोच ने उन्हें इतिहास के महानतम शासकों की श्रेणी में स्थापित किया।




प्रश्न 03: प्रारंभिक दो मुगल शासकों की विदेशनीति की समीक्षा कीजिये।

🌍 मुगल विदेशनीति का परिचय

मुगल साम्राज्य का प्रारंभिक काल मुख्यतः बाबर और हुमायूँ के शासनकाल से जुड़ा है। इन दोनों शासकों ने भारत में सत्ता स्थापित करने के साथ-साथ मध्य एशिया, अफगानिस्तान, ईरान और राजपूतों के साथ संबंधों को भी प्रभावित करने वाली विदेशनीति अपनाई।
इनकी विदेशनीति का प्रमुख उद्देश्य था—

  • सत्ता का विस्तार

  • अपने वंश की प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखना

  • मध्य एशिया के साथ पारिवारिक और राजनीतिक संबंधों को सुदृढ़ करना

  • भारत में स्थिर शक्ति केंद्र बनाना

मुगल साम्राज्य की नींव “विदेशनीति और सैन्य विजय” पर आधारित थी, इसलिए प्रारंभिक दो शासकों की विदेशनीति पूरे साम्राज्य की दिशा तय करती है।


⭐ भाग 1 — बाबर की विदेशनीति

👑 1. बाबर का मध्य एशियाई दृष्टिकोण

🔹 तैमूरी विरासत का प्रभाव

बाबर तैमूर और चंगेज ख़ान जैसे महान विजेताओं का वंशज था। इसलिए उसका लक्ष्य था कि वह मध्य एशिया में खोई हुई तैमूरी विरासत को पुनः प्राप्त करे।
इस विरासत को पाने के लिए उसने फ़रगना, समरकंद, उज़्बेक क्षेत्रों पर कई बार अधिकार करने का प्रयास किया।

🔹 समरकंद के लिए संघर्ष

  • बाबर ने समरकंद को तीन बार जीता, तीन बार खोया।

  • उसकी विदेशनीति का प्रारंभिक केंद्र मध्य एशिया पर अधिकार स्थापित करना था।
    लेकिन उज़्बेक सरदार शैबानी ख़ाँ की शक्ति के कारण बाबर वहाँ स्थायित्व नहीं बना सका।


👑 2. काबुल और अफगानिस्तान नीति

🔹 काबुल का सामरिक महत्त्व

समरकंद की असफलताओं के बाद बाबर ने काबुल को अपना राजनीतिक आधार बनाया।

  • काबुल व्यापार मार्गों का केंद्र था।

  • यह भारत, ईरान और मध्य एशिया को जोड़ने वाला क्षेत्र था।

  • यहाँ से भारत पर आक्रमण करना आसान था।

🔹 अफगानों से संबंध

काबुल में शासन करते हुए बाबर ने अफगानों से मैत्री स्थापित की और उन्हें प्रशासन और सेना में प्रमुख स्थान दिया।


👑 3. भारत में सत्ता स्थापित करने की नीति

भारत पर आक्रमण बाबर की विदेशनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा था।
इसके कारण:

  • भारत की राजनीतिक अस्थिरता (दिल्ली-सुलतान कमजोर)

  • अफगानों एवं राजपूतों में संघर्ष

  • भारत की आर्थिक समृद्धि

  • बाबर की तैमूरी परंपरा (भारत विजय का गौरव)

🔹 पानीपत का प्रथम युद्ध (1526)

इस युद्ध में बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित कर दिल्ली पर अधिकार किया।
यह उसकी विदेशनीति का निर्णायक पड़ाव था क्योंकि—

  • उसने मध्य एशियाई समस्याओं से बचकर भारत में स्थायी सत्ता स्थापित की।

  • भारत को अपने साम्राज्य का केंद्र बनाया।


👑 4. राजपूत नीति

🔹 मेवाड़ के संग्राम सिंह से संघर्ष

1527 में खानवा का युद्ध बाबर की विदेशनीति का मुख्य भाग था।

  • राजपूत शक्ति को परास्त करना आवश्यक था ताकि भारत में मुगल सत्ता को स्थिरता मिल सके।

  • खानवा की विजय ने उत्तर भारत में मुगलों की शक्ति को मज़बूत किया।


👑 5. रूढ़िवादी इस्लामी नीति vs. व्यावहारिक राजनीति

बाबर धार्मिक दृष्टि से कट्टर नहीं था।
उसकी विदेशनीति धर्म-आधारित नहीं, बल्कि व्यावहारिक राजनीति पर आधारित थी।
भारत में उसने स्थानीय सरदारों, हिन्दू राजाओं और अफगानों से सहयोग की नीति अपनाई।


बाबर की विदेशनीति का समग्र मूल्यांकन

  • मध्य एशिया को पुनः पाने में असफल रहा।

  • परंतु काबुल और भारत को जोड़ने वाली रणनीति अत्यंत सफल रही।

  • भारत पर विजय उसकी विदेशनीति की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।

  • उसने भारत को मुगल साम्राज्य की स्थायी भूमि बनाया।


⭐ भाग 2 — हुमायूँ की विदेशनीति

👑 1. हुमायूँ के स्वभाव का प्रभाव

हुमायूँ का स्वभाव बाबर की अपेक्षा अधिक दयालु, उदार और आदर्शवादी था।
यह गुण उसकी विदेशनीति को कमजोर बना देता था, क्योंकि वह कठोर निर्णय लेने में संकोच करता था।
उसकी विदेशनीति में कूटनीति की बजाय मानवीय भावना अधिक दिखाई देती है।


👑 2. अफगान शक्तियों से संबंध

🔹 शेरखाँ सूरी के साथ प्रारंभिक संघर्ष

हुमायूँ के शासनकाल में अफगान सरदार पुनः संगठित होने लगे थे।

  • बंगाल के अफगान सरदार शेर शार खान (शेरशाह सूरी) ने अत्यधिक शक्ति प्राप्त कर ली थी।

  • हुमायूँ ने कई बार उसे शांत करने की कोशिश की, लेकिन उसकी उदारता का फायदा शेरशाह ने उठाया।

🔹 चौसा का युद्ध (1539)

  • शेरशाह ने इस युद्ध में हुमायूँ को बुरी तरह पराजित किया।

  • हुमायूँ को गंगा में कूदकर जान बचानी पड़ी।

  • इसका कारण उसकी कमजोर विदेशनीति और सैन्य तैयारी थी।

🔹 कन्नौज का युद्ध (1540)

हुमायूँ फिर पराजित हुआ और उसे भारत छोड़कर भागना पड़ा।
यह उसकी विदेशनीति की सबसे बड़ी असफलता थी।


👑 3. ईरान (फारस) के साथ विदेशनीति

🔹 सहायता की तलाश

भारत से पराजित होने के बाद हुमायूँ ने ईरान के शाह तहमास्प प्रथम से शरण और सैन्य सहायता मांगी।

🔹 कूटनीति और समझौते

  • शाह ने हुमायूँ की मदद करने से पहले उस पर शर्तें थोप दीं।

  • हुमायूँ ने इन शर्तों को मान लिया।

  • बदले में शाह ने उसे शक्तिशाली सैन्य सहायता दी।

🔹 परिणाम

मुगलों और ईरान के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ा।
फारसी कला, वास्तुकला और परिधान मुगल दरबार में प्रचलित हुए।


👑 4. काबुल और कंधार की पुनः विजय

ईरानी सहायता लेकर हुमायूँ ने—

  • काबुल

  • कंधार

पर पुनः अधिकार किया।
यह उसकी विदेशनीति की बड़ी सफलता मानी जाती है।


👑 5. भारत में पुनः प्रवेश और दिल्ली विजय

1555 में हुमायूँ ने भारत पर पुनः अधिकार किया।
उसकी अंतिम विदेशनीति का उद्देश्य था—

  • भारत में मुगलों की सत्ता को पुनर्जीवित करना

  • अफगान शक्ति को समाप्त कर देना

परंतु अगले ही वर्ष 1556 में उसकी असामयिक मृत्यु ने इस नीति को अपूर्ण छोड़ दिया।


⭐ हुमायूँ की विदेशनीति का समग्र मूल्यांकन

✔️ सफलताएँ

  • ईरान के साथ मजबूत संबंध बनाना

  • काबुल और कंधार जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पुनः विजय

  • भारत में पुनः प्रवेश

❌ विफलताएँ

  • अफगानों के साथ संघर्ष में रणनीतिक गलतियाँ

  • शेरशाह सूरी से दो बार पराजय

  • स्वभावगत दुर्बलता के कारण निर्णायक नेतृत्व का अभाव


🌎 प्रारंभिक दो मुगल शासकों की विदेशनीति का तुलनात्मक अध्ययन

🔹 बाबर

  • विदेशनीति व्यावहारिक

  • सैन्य केंद्रित

  • भारत पर स्थायी विजय

  • राजपूत शक्ति का दमन

  • अफगानों को संगठित करने की नीति

🔹 हुमायूँ

  • विदेशनीति भावनात्मक और कमजोर

  • शेरशाह से पराजय

  • बाहरी मदद (ईरान) पर निर्भरता

  • पुनः विजय के प्रयास सफल पर अस्थायी


🏁 निष्कर्ष

बाबर और हुमायूँ की विदेशनीति ने मुगल साम्राज्य की प्रारंभिक नींव तैयार की।
जहाँ बाबर की विदेशनीति दूरदर्शी, साहसपूर्ण और व्यावहारिक थी, वहीं हुमायूँ की विदेशनीति संघर्षपूर्ण, कमजोर और परिस्थितियों से प्रभावित रही।
बाबर ने भारत में मुगल शासन स्थापित किया, जबकि हुमायूँ ने कठिनाइयों के बीच इस शासन को पुनर्जीवित किया और अपने उत्तराधिकारी अकबर के लिए मजबूत आधार छोड़ा।
इन दोनों शासकों की विदेशनीति ने संयुक्त रूप से मुगल साम्राज्य के भविष्य की दिशा निर्धारित की।



प्रश्न 04: शिवाजी का जीवन परिचय देते हुए शिवाजी की सफलता के कारणों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।

👑 शिवाजी महाराज का जीवन परिचय

छत्रपति शिवाजी महाराज भारतीय इतिहास के उन महानायकों में से एक हैं जिन्होंने स्वराज्य का स्वप्न देखा और उसे साकार रूप दिया। उनका जन्म 19 फरवरी 1630 को शिवनेरी दुर्ग (पुणे) में हुआ। उनके पिता शहाजी भोंसले बीजापुर सुल्तान के वरिष्ठ सरदार थे और माता जिजाबाई अत्यंत धार्मिक एवं वीरांगना स्वभाव की थीं। बचपन से ही जिजाबाई ने शिवाजी में राष्ट्रभक्ति, धर्मरक्षा और न्यायप्रियता के संस्कार डाले।

शिवाजी का बचपन पर्वतों, दुर्गों और युद्धकला के वातावरण में बीता। बचपन में ही उन्होंने अपने साथियों—मावलों—के साथ सैन्य अभ्यास किया, पर्वतारोहण, तलवारबाजी, घुड़सवारी और गुरिल्ला रणनीति का अभ्यास किया। इसी वातावरण ने उन्हें एक महान संगठक, अद्वितीय सेनानायक और कुशल प्रशासक बनाया।

🔹 प्रारंभिक राजनीतिक परिस्थिति

17वीं शताब्दी में दक्कन क्षेत्र में बीजापुर, अहमदनगर और मुगल सत्ता के बीच संघर्ष चल रहा था। जनता अत्यधिक उत्पीड़न सह रही थी। ऐसी परिस्थितियों में शिवाजी ने स्वराज्य का संकल्प लिया और अत्याचार समाप्त कर जनता को शांति प्रदान करने का प्रण किया।

🔹 शिवाजी के प्रारंभिक अभियान

  • 1646 में तोरणा किले पर अधिकार—यही से उनकी विजय यात्रा शुरू हुई।

  • इसके बाद उन्होंने चंदनवंदन, पुरंदर, रायगढ़ तथा कई दुर्गों को अपने अधिकार में लिया।

  • 1659 में बीजापुर के प्रसिद्ध सेनापति अफजल खान को रणनीति से परास्त किया, जिसने शिवाजी की प्रतिष्ठा बढ़ा दी।

🔹 मुगलों के साथ संघर्ष

शिवाजी ने औरंगज़ेब की नीतियों का खुला विरोध किया।

  • 1664 में उन्होंने सूरत के मुगल कोषागार पर आक्रमण किया।

  • 1667 में उन्होंने औरंगज़ेब के साथ शांति की लेकिन यह अधिक समय तक टिक न सकी।

  • 1670 के बाद शिवाजी की शक्ति तेज़ी से बढ़ी, और कई महत्वपूर्ण मुगल किलों पर कब्जा किया।

🔹 राज्याभिषेक

6 जून 1674 को रायगढ़ में शिवाजी का भव्य राज्याभिषेक हुआ और वे छत्रपति की उपाधि से सम्मानित हुए। यह मराठा साम्राज्य की औपचारिक स्थापना थी।

🔹 अंतिम वर्ष एवं निधन

शिवाजी ने अपने अंतिम दिनों में प्रशासनिक सुधार, नौसेना का विस्तार और साम्राज्य को मज़बूत बनाने में ध्यान दिया।
उनका निधन 3 अप्रैल 1680 को हुआ, लेकिन उनका स्वराज्य का विचार उनकी मृत्यु के बाद भी जीवित रहा और आगे चलकर मराठा साम्राज्य भारतीय राजनीति की मुख्य शक्ति बना।


🛡️ शिवाजी महाराज की सफलता के प्रमुख कारण

🌄 1. प्राकृतिक भूगोल का अद्भुत उपयोग

🔹 पर्वत और दुर्गों का रणनीतिक महत्व

पश्चिमी घाट का पर्वतीय क्षेत्र ऊँचा, खड़ी ढलानों वाला और दुर्गों से भरा था।
शिवाजी ने इस प्राकृतिक भू-रचना का अत्यधिक लाभ उठाया।

  • किले सुरक्षित शरणस्थली थे।

  • दुश्मन की बड़ी सेनाएँ पर्वतों में आसानी से नहीं चल सकती थीं।

  • मावलों की तेज़ चाल और पर्वतीय क्षमता युद्ध में अत्यंत सहायक थी।

🔹 समुद्र तट का महत्व

शिवाजी ने जंजीरा, कुलाबा और सुवर्णदुर्ग जैसे किलों को देखकर समुद्री सुरक्षा का महत्व समझा और एक सशक्त नौसेना की स्थापना की।


⚔️ 2. गुरिल्ला युद्ध नीति (शिवसूत्र)

🔹 बाघ-नखे जैसी सैन्य शैली

शिवाजी की सबसे बड़ी सफलता उनकी रणनीति में थी—गुरिल्ला युद्ध नीति

  • रात के हमले

  • आकस्मिक आक्रमण

  • तेजी से लौटना

  • छोटे दलों का प्रयोग

  • दुश्मन के आपूर्ति मार्गों को काटना

उन्होंने मुगल और बीजापुर की भारी सेनाओं के सामने अपनी तेज़ और चुस्त सेना के दम पर विजय प्राप्त की।

🔹 तेज़ घुड़सवार सेना

शिवाजी की सेना हल्की, फुर्तीली और अत्यंत अनुशासित थी, जो विशाल मुगल सेनाओं को भ्रमित कर देती थी।


🛡️ 3. प्रशासनिक एवं सैन्य संगठन की कुशलता

🔹 अष्टप्रधान मंडल

शिवाजी ने शासन में आठ प्रमुख मंत्रियों की परिषद बनाई जो प्रशासन के अलग-अलग विभाग संभालते थे।

  • पेशवा

  • अमात्य

  • सेनापति

  • सुमंत

  • न्यायाध्यक्ष
    आदि पदों ने राज्य व्यवस्था को मजबूत बनाया।

🔹 सेना का संगठन

  • सेना में वंशानुगत पद समाप्त किए गए।

  • योग्यता और निष्ठा के आधार पर पद दिए गए।

  • सैनिकों को नियमित वेतन दिया जाता था।

  • किलेदारों की नियुक्ति पूर्णत: दक्षता पर होती थी।


🛕 4. जनता का विश्वास एवं समर्थन

🔹 लोकहितैषी नीति

शिवाजी जनता के प्रति अत्यंत दयालु और न्यायप्रिय थे।

  • किसानों से अत्यधिक कर नहीं वसूला गया।

  • स्त्रियों के सम्मान की सख्त रक्षा की गई।

  • मंदिरों और जान-माल की सुरक्षा सुनिश्चित की गई।
    इससे जनता उन पर अत्यधिक विश्वास करती थी और युद्ध में सहयोग देती थी।


🤝 5. नेतृत्व और व्यक्तित्व की प्रभावशाली छवि

🔹 शिवाजी की प्रेरणादायक नेतृत्व क्षमता

शिवाजी महान वक्ता, दूरदर्शी, साहसी और निर्णय लेने में अत्यंत कुशल थे।

  • वे सैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते थे।

  • अपने सैनिकों का मनोबल सदैव ऊँचा रखते थे।

  • कठिन परिस्थितियों में भी सहज बने रहते थे।

यह नेतृत्व शक्ति उनके साम्राज्य की नींव थी।


📜 6. कूटनीति और राजनीतिक सूझबूझ

🔹 समयानुसार गठबंधन

शिवाजी ने परिस्थितियों के अनुसार मुगलों, बीजापुर और गोलकुंडा के साथ समय-समय पर समझौते किए।
इससे उन्हें युद्ध विराम मिलता रहा और वे अपनी शक्ति बढ़ाते रहे।

🔹 शत्रुओं की कमजोरियों का अध्ययन

शिवाजी अपने विरोधियों की रणनीति, सेना, कमज़ोरियों और नीति का गहन अध्ययन करते थे।
इससे वे दुश्मन को उसकी कमजोरियों पर आक्रमण कर पराजित कर देते थे।


⚓ 7. नौसेना की स्थापना

🔹 समुद्री सुरक्षा

भारत में पहली संगठित नौसेना की स्थापना शिवाजी ने की।

  • उन्होंने कोकण तट पर कई बंदरगाह एवं किले बनवाए।

  • समुद्री डाकूओं पर नियंत्रण किया।

  • व्यापार मार्ग सुरक्षित किए।

इससे पश्चिमी भारत में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा बढ़ी।


🛡️ 8. मजबूत किलाबंदी और रक्षा व्यवस्था

शिवाजी के शासन में किले केवल सैन्य केंद्र नहीं, बल्कि प्रशासनिक केन्द्र भी थे।

  • हर किले में किलेदार, सैनिक दल और आपूर्ति व्यवस्था होती थी।

  • किलों के माध्यम से शिवाजी बड़े क्षेत्र पर नियंत्रण रखते थे।

  • रायगढ़, प्रतापगढ़, सिंहगढ़, पुरंदर आदि किले उनकी शक्ति के प्रतीक थे।


🏁 निष्कर्ष

छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन संघर्ष, साहस, संगठन और स्वराज्य के आदर्शों का एक अद्भुत उदाहरण है।
उनका स्वराज्य का विचार केवल सत्ता प्राप्ति का प्रयत्न नहीं था, बल्कि जनता को अत्याचार से मुक्त करना, धर्म और संस्कृति की रक्षा करना और भारतीय स्वतंत्रता का नया अध्याय लिखना था।

शिवाजी की सफलता—उनकी गुरिल्ला रणनीति, नेतृत्व क्षमता, प्रशासनिक कौशल, जनता के प्रति संवेदनशीलता, काबिल सेना, मजबूत किलाबंदी और कूटनीतिक नीति—का परिणाम थी।
उन्होंने सिद्ध किया कि दूरदर्शिता, संगठन और राष्ट्रभक्ति यदि दृढ़ संकल्प के साथ जुड़ जाए, तो अत्यंत शक्तिशाली साम्राज्यों को भी पराजित किया जा सकता है।




प्रश्न 05: मुगल प्रशासन के स्वरूप की व्याख्या कीजिये।

🕌 मुगल प्रशासन का परिचय

मुगल साम्राज्य भारतीय इतिहास के सबसे संगठित एवं सुचारु प्रशासनिक तंत्रों में से एक था। 16वीं से 18वीं शताब्दी के बीच फैले इस साम्राज्य ने लगभग पूरे उत्तर भारत, मध्य भारत, पूर्वी भारत और दक्कन के बड़े हिस्से पर शासन किया। इसकी सफलता का मूल आधार इसका मजबूत, विस्तृत और संतुलित प्रशासनिक ढांचा था, जिसे बाबर की नींव, हुमायूँ की पुनर्स्थापना और अकबर की उत्कृष्ट सुधार नीतियों ने विकसित किया।
मुगल प्रशासन का स्वरूप एक मिश्रित प्रणाली थी—जिसमें सुल्तानकालीन (दिल्ली सल्तनत), तैमूरी, फारसी, और स्थानीय भारतीय परंपराओं का समन्वय दिखाई देता है।


👑 1. सम्राट की सर्वोच्च सत्ता

मुगल प्रशासन का केंद्र बिंदु सम्राट था। सम्राट की सत्ता सर्वोच्च, केंद्रीय, धार्मिक और दैवी मान्यता से युक्त मानी जाती थी।

🔹 सम्राट की विशेषताएँ

🔸 सर्वोच्च कानून निर्माता

राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश, सेनापति, और प्रशासनिक प्रमुख सम्राट ही था।
उसके आदेश (फरमान) को अंतिम माना जाता था।

🔸 दैवी अधिकार सिद्धांत

सम्राट को "ज़िल्ले-इलाही" अर्थात् "ईश्वर की छाया" कहा जाता था।
इससे जनता और अमीरों में उसकी प्रतिष्ठा और अनुशासन बढ़ता था।

🔸 विशाल दरबार

सम्राट के दरबार में उच्च पदाधिकारी, जागीरदार, सैनिक अधिकारी, राजपूत सरदार तथा विदेशी दूत उपस्थित रहते थे।
दरबार ही प्रशासनिक निर्णयों का मुख्य केंद्र था।


🏛️ 2. केंद्रीय प्रशासन की संरचना

मुगल प्रशासन सुदृढ़ केंद्रीय शासन व्यवस्था पर आधारित था। इसमें विभिन्न विभागों का कार्य विभाजन स्पष्ट था।

🔹 (1) वज़ीर / दीवान-ए-आला

🔸 कार्य

  • राज्य के राजस्व विभाग का सर्वोच्च अधिकारी

  • आय-व्यय का संचालन

  • सभी सूबों के खातों की जाँच

  • व्यापार, वित्त और कर प्रणाली का प्रबंधन

अकबर के काल में राजा टोडरमल सबसे कुशल वज़ीरों में से एक थे।


🔹 (2) मीर बख्शी

🔸 कार्य

  • सेना का प्रमुख

  • मनसबदारों की नियुक्ति, पदोन्नति और वेतन निर्धारण

  • सैनिकों का निरीक्षण

  • युद्ध और सुरक्षा से जुड़े निर्णय

मीर बख्शी प्रशासन में वज़ीर के समान ही महत्वपूर्ण पद था।


🔹 (3) सादर-us-सूदूर

🔸 कार्य

  • धर्म से जुड़े मामलों की देखरेख

  • धार्मिक अनुदानों (मदद-ए-माश) का प्रबंधन

  • धार्मिक संस्थानों और विद्वानों को सहायता


🔹 (4) दीवान-ए-रसालन

🔸 कार्य

  • डाक विभाग का प्रमुख

  • खुफिया विभाग, संदेश सेवा और संचार व्यवस्था की देखरेख


🔹 (5) मुहतसिब

🔸 कार्य

  • नैतिकता और बाज़ार नियंत्रण

  • व्यापारिक वस्तुओं, तौल-तराजू और कीमतों की निगरानी


🪖 3. मनसबदारी व्यवस्था

मनसबदारी मुगल प्रशासन की रीढ़ थी।

🔹 मनसब का अर्थ

“मनसब” का अर्थ है—पद, दर्जा या रैंक।
हर अधिकारी को एक मनसब दिया जाता था, जो उसकी—

  • प्रतिष्ठा

  • वेतन

  • सैनिक संख्या

  • प्रशासनिक जिम्मेदारी

निर्धारित करता था।

🔹 ज़ात और सवार

मुगल मनसबदार दो प्रकार की संख्याओं द्वारा चिन्हित होते थे—

  • ज़ात — अधिकारी की व्यक्तिगत स्थिति

  • सवार — वे सैनिक जो उसे रखने होते थे

🔹 महत्व

  • राज्य को स्थिर सैन्य संरचना मिली

  • पदोन्नति योग्यता आधारित थी

  • केंद्र के प्रति अधिकारियों की निष्ठा बनी रहती थी


📍 4. प्रांतीय प्रशासन (सूबा प्रणाली)

अकबर ने साम्राज्य को प्रशासनिक सुविधा के लिए सूबों में विभाजित किया।

🔹 सूबेदार

🔸 भूमिकाएँ

  • प्रांत का सर्वोच्च अधिकारी

  • कानून-व्यवस्था

  • कर-संग्रह

  • स्थानीय सरदारों एवं जागीरदारों का नियंत्रण

  • सेना की कमान


🔹 दीवान

🔸 कार्य

  • प्रांत के राजस्व विभाग का प्रमुख

  • सभी आर्थिक लेन-देन की जाँच


🔹 क़ाज़ी, फौजदार और कोतवाल

🔸 भूमिकाएँ

  • क़ाज़ी — न्यायिक कार्य

  • फौजदार — क्षेत्र की सुरक्षा, दंड, सैनिक व्यवस्था

  • कोतवाल — शहर का प्रशासन, शांति-व्यवस्था, व्यापार निरीक्षण


🏘️ 5. स्थानीय प्रशासन

मुगल प्रशासन गाँव स्तर तक विस्तृत था।

🔹 चौधरी

  • गाँव के राजस्व संग्रह का प्रमुख

  • करों को सूबेदार तक पहुंचाना

🔹 पटवारी

  • भूमि मापन

  • रिकॉर्ड रखना

🔹 मुख़िया

  • गाँव की शांति और व्यवस्था

  • विवाद समाधान

इससे मुगल प्रशासन अत्यंत व्यावहारिक और भूमि-आधारित बना।


🧾 6. भूमि एवं राजस्व प्रणाली

मुगलों ने भारत की सबसे वैज्ञानिक और संगठित भूमि राजस्व व्यवस्था विकसित की।

🔹 शेरशाह का प्रभाव

अकबर ने शेरशाह की व्यवस्था को अपनाकर उसे और वैज्ञानिक बनाया।

🔹 टोडरमल की व्यवस्था

🔸 मुख्य विशेषताएँ

  • आइन-ए-दहसाला — दस वर्षों की औसत उपज के आधार पर कर निर्धारण

  • भूमि का मापन — बँस (गज) पद्धति

  • फसलों के आधार पर कर

  • नकद भुगतान सिस्टम

🔹 लाभ

  • किसान शोषण से काफी हद तक मुक्त हुए

  • राज्य को स्थिर आय प्राप्त हुई

  • कृषि उत्पादन बढ़ा


⚔️ 7. सैन्य प्रशासन

मुगल सेना विशाल, संगठित और विविधता से युक्त थी।

🔹 तत्व

  • घुड़सवार

  • पैदल सेना

  • तोपखाना

  • हाथी दस्ते

  • नौसेना (सीमित)

🔹 नवाचार

  • उन्नत तोपें

  • बंदूकें

  • मनसबदारी आधारित सैनिक संरचना

अकबर और औरंगज़ेब के काल में सेना अपने चरम पर थी।


⚖️ 8. न्याय व्यवस्था

मुगलों की न्यायिक प्रणाली धर्मशास्त्र और व्यवहारिक कानून दोनों पर आधारित थी।

🔹 क़ाज़ी प्रणाली

क़ाज़ी इस्लामी कानून के आधार पर निर्णय देते थे।
साथ ही कई मामलों में प्रचलित स्थानीय रीति-रिवाजों का भी पालन होता था।

🔹 दंड व्यवस्था

  • कठोर दंड

  • जुर्माने

  • कारावास

  • संपत्ति की जब्ती

शासन की स्थिरता के लिए न्याय व्यवस्था अत्यंत आवश्यक थी।


💰 9. वित्त एवं मुद्रा प्रणाली

🔹統 एकरूप मुद्रा

मुगलों ने सोने (मोह‍र), चाँदी (रुपया) और ताँबे (दाम) की संगठित मुद्रा प्रणाली चलाई।

🔹 व्यापार का विस्तार

  • व्यापार मार्ग सुरक्षित किए गए

  • अंतरराष्ट्रीय व्यापार बढ़ा

  • बंदरगाह विकसित किए गए


🕌 10. धार्मिक नीति

🔹 सहिष्णुता

अकबर की "सुलह-ए-कुल" नीति ने मुगल प्रशासन को उदार और सर्वधर्म समभाव का आधार दिया।

🔹 इबादतखाना

विभिन्न धर्मों के विद्वानों के साथ चर्चा द्वारा धार्मिक सद्भाव बढ़ाया गया।


🧭 निष्कर्ष

मुगल प्रशासन एक अत्यंत सुव्यवस्थित, वैज्ञानिक और संतुलित प्रणाली था जिसमें—

  • केंद्रीकरण

  • योग्यता आधारित नियुक्तियाँ

  • राजस्व सुधार

  • मनसबदारी

  • धार्मिक सहिष्णुता

  • और मजबूत प्रांतीय प्रशासन

जैसी विशेषताएँ शामिल थीं।
अकबर के काल में प्रशासन अपनी चरम दक्षता पर पहुँचा और भारतीय शासन व्यवस्था में ऐसा ढांचा स्थापित किया जो आने वाली शताब्दियों तक प्रशासनिक आदर्श बना रहा।




लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 01: शेरशाह सूरी की भू-राजस्व व्यवस्था पर टिप्पणी कीजिये।

🌾 शेरशाह सूरी की भू-राजस्व व्यवस्था: एक परिचय

शेरशाह सूरी भारतीय इतिहास के उन महान शासकों में गिने जाते हैं जिन्होंने अल्पकालीन शासन के बावजूद प्रशासनिक, सैन्य और आर्थिक क्षेत्रों में स्थायी सुधार किए। उनकी भू-राजस्व व्यवस्था को भारतीय इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है।
उन्होंने ऐसी भूमि व्यवस्था लागू की जिसने किसानों के साथ न्याय किया, राज्य को स्थायी आय प्रदान की और जमीन की माप-तौल में पारदर्शिता लाई। यह वही भूमि व्यवस्था थी जिसे आगे चलकर अकबर ने अपनाया और और अधिक वैज्ञानिक रूप दिया

शेरशाह की भूमि व्यवस्था के तीन प्रमुख आधार थे—

  1. भूमि का वैज्ञानिक सर्वेक्षण

  2. न्यायपूर्ण राजस्व निर्धारण

  3. नियमित कर-संग्रह और किसानों से सीधा संबंध


🌍 1. भूमि का सर्वेक्षण और मापन प्रणाली

शेरशाह ने भूमि मापन में अभूतपूर्व सुधार किए।

🔹 भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण

शेरशाह ने अधिकारियों को आदेश दिया कि वे पूरे साम्राज्य में भूमि का सर्वेक्षण करें और उसकी गुणवत्ता के अनुसार वर्गीकरण करें।
भूमि को निम्न वर्गों में विभाजित किया गया—

  • उत्तम भूमि

  • मध्यम भूमि

  • दुर्बल भूमि

🔸 उद्देश्य

  • वास्तविक उपज का निर्धारण

  • भूमि की क्षमता के आधार पर कर की सही गणना

🔹 मापन पद्धति

शेरशाह ने गज और जरिब (रस्सी) से भूमि की माप करवाई।

  • मापने के लिए लोहे की जंजीर का उपयोग किया जाता था जिससे त्रुटि कम होती थी।

  • यह व्यवस्था पहले की तुलना में अधिक वैज्ञानिक और विश्वसनीय थी।


🧮 2. औसत उपज के आधार पर कर निर्धारण

🔹 सिंचाई और फसल के आधार पर टैक्स

शेरशाह ने भूमि कर को निर्धारित करने के लिए फसल की वास्तविक उपज का आधार लिया।
इसके लिए तीन प्रकार की फसलों का अध्ययन किया गया—

  • खरीफ फसल

  • रबी फसल

  • अतिरिक्त फसल

🔹 1/3 उपज का कर नियम

शेरशाह ने यह निर्धारित किया कि किसान को अपनी कुल उपज का एक-तिहाई (1/3) कर के रूप में राज्य को देना होगा।
यह उस समय के हिसाब से न्यायपूर्ण था क्योंकि—

  • पहले जमादार और सरदार मनमाने ढंग से कर वसूलते थे।

  • शेरशाह ने कर वसूली पर नियंत्रण स्थापित कर किसानों को राहत दी।

🔹 औसत निर्धारण

कर की गणना पाँच साल की औसत उपज के आधार पर की जाती थी ताकि किसी वर्ष की कम उपज का प्रभाव किसानों पर न पड़े।


💰 3. नकद तथा फसल दोनों में कर भुगतान

शेरशाह ने कर भुगतान के दो विकल्प दिए—

  • नकद में भुगतान

  • फसल के रूप में भुगतान

यह व्यवस्था किसान और राज्य दोनों के लिए लाभदायक थी।

  • नकद से किसानों को शोषण कम झेलना पड़ता था।

  • उतार-चढ़ाव की स्थिति में फसल रूपी भुगतान से राज्य को हानि नहीं होती थी।


📜 4. पट्टों और दस्तावेज़ीकरण की प्रणाली

🔹 किसानों को लिखित दस्तावेज़

शेरशाह ने किसानों को पट्टा (पट्टा-पत्र) जारी किए जिसमें उल्लेख होता था—

  • भूमि का माप

  • भूमि की गुणवत्ता

  • देय कर

  • भुगतान की विधि

यह व्यवस्था अत्यंत पारदर्शी थी और किसानों को राहत तथा सुरक्षा प्रदान करती थी।

🔹 क़बूलीयत

किसान द्वारा पट्टे के नियम स्वीकार करने को "कबूलियत" कहा जाता था।
किसान इस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर (या निशान) करते थे जिससे भविष्य में प्रशासनिक विवादों में समस्या कम हो जाती थी।


🧑‍🌾 5. किसानों की सुरक्षा और न्यायप्रणाली

शेरशाह सूरी अपनी न्यायप्रियता और किसान हितैषी नीति के लिए प्रसिद्ध थे।

🔹 जबरन वसूली की मनाही

कोई भी जागीरदार, ज़मींदार या अधिकारी किसानों से अतिरिक्त कर नहीं वसूल सकता था।

🔹 दमनकारी अधिकारियों पर कठोर कार्यवाही

यदि किसी अधिकारी द्वारा कर वसूली में अत्याचार की शिकायत मिलती, तो शेरशाह तुरंत कठोर दंड देता था।

🔹 फसलों के नुकसान पर राहत

  • सूखे, बाढ़ या प्राकृतिक आपदा के समय शेरशाह किसानों को कर में छूट देते थे।

  • कई बार कर वसूली स्थगित कर दी जाती थी।

यह नीति किसानों का विश्वास जीतने में अत्यंत प्रभावी थी।


🏛️ 6. प्रशासनिक नियंत्रण और अधिकारियों की नियुक्ति

🔹 अमीन एवं कारकुन

कर संग्रहण के लिए "अमीन" नामक अधिकारी नियुक्त किए जाते थे।
इनका कार्य था—

  • भूमि का मापन

  • उपज का अनुमान

  • कर निर्धारण

  • शिकायतों का समाधान

कारकुन (लेखापाल) सभी खातों का लेखा-जोखा रखते थे।

🔹 ज़मींदारियों पर अंकुश

शेरशाह ने ज़मींदारों, मुक़द्दमों और सरदारों की शक्ति पर अंकुश लगाया ताकि वे मनमानी न कर सकें।
राजस्व व्यवस्था में भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिए उनसे सीधा संपर्क कम रखा गया।


📦 7. भंडारण और अनाज नीति

शेरशाह ने अनाज भंडारण की नीति को बढ़ावा दिया।

🔹 राज्य के भंडार

  • अतिरिक्त उपज राज्य के भंडारों में सुरक्षित की जाती थी।

  • प्राकृतिक संकट के समय इसका उपयोग राहत प्रदान करने में होता था।

🔹 बाजार नियंत्रण

मूल्य स्थिर रखने के लिए बाजार में अनाज की उपलब्धता पर नियंत्रण रखा जाता था।


🛣️ 8. सड़कें, सराय और व्यापार

शेरशाह की भूमि व्यवस्था केवल राजस्व तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह व्यापार और परिवहन से भी जुड़ी हुई थी।

🔹 ग्रैंड ट्रंक रोड

उन्होंने सोनारगाँव (बंगाल) से पेशावर तक विश्व प्रसिद्ध सड़क (GT Road) का निर्माण कराया।
इसके दोनों ओर—

  • छायादार वृक्ष

  • सराय

  • कुएँ

  • चौकियाँ

बनवाई गईं।

🔹 व्यापार मार्ग सुरक्षित

व्यापारियों और किसानों की सुरक्षा हेतु गश्ती दल नियुक्त किए गए।
इससे व्यापार बढ़ा और कर-संग्रह स्थिर हुआ।


🏹 9. सामरिक और प्रशासनिक लाभ

शेरशाह की भूमि व्यवस्था केवल आर्थिक सुधार नहीं थी, बल्कि इसके पीछे सामरिक नीति भी थी।

🔹 सरकार की स्थिर आय

नियमित कर संग्रह के कारण राज्य को सुदृढ़ सैन्य व्यवस्था चलाने में सुविधा मिली।

🔹 किलों की देखभाल

स्थिर आय से दुर्गों, चौकियों और सैनिकों का संचालन सुचारू रूप से होता रहा।

🔹 प्रशासनिक नियंत्रण

पट्टा-कबूलियत व्यवस्था ने शासन को अधिक केंद्रीयकृत और पारदर्शी बनाया।


📊 10. शेरशाह की भूमि व्यवस्था की विशेषताएँ: संक्षेप में

🔸 भूमि का वैज्ञानिक वर्गीकरण

🔸 कर का एक-तिहाई सिद्धांत

🔸 पट्टा और कबूलियत प्रणाली

🔸 नकद और अनाज दोनों रूप में भुगतान

🔸 अधिकारी-केंद्रित राजस्व संग्रह

🔸 किसानों की सुरक्षा

🔸 व्यापार और संचार की सुविधा

🔸 भ्रष्टाचार पर नियंत्रण


⭐ निष्कर्ष

शेरशाह सूरी की भू-राजस्व व्यवस्था भारतीय प्रशासनिक इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथा क्रांतिकारी उपलब्धि थी।
जहाँ पहले कर व्यवस्था भ्रष्टाचार, मनमानी और असंगठित पद्धति पर आधारित थी, वहीं शेरशाह ने—

  • वैज्ञानिक भूमि मापन

  • न्यायपूर्ण कर निर्धारण

  • दस्तावेज़ आधारित पट्टा-कबूलियत

  • किसानों की सुरक्षा

  • व्यापारिक मार्गों का विकास

जैसी नीतियों द्वारा इसे संरचित और पारदर्शी बनाया।

उनकी यह व्यवस्था इतनी सफल रही कि बाद में अकबर ने इसी व्यवस्था को अपना आधार बनाकर और अधिक वैज्ञानिक रूप प्रदान किया
अतः शेरशाह की भूमि व्यवस्था भारत की आर्थिक एवं प्रशासनिक संरचना में एक ऐतिहासिक सुधार के रूप में सदैव याद की जाएगी।




प्रश्न 02: नादिरशाह के आक्रमण पर टिप्पणी कीजिये।

⚔️ नादिरशाह का आक्रमण: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य अपनी कमजोरी, राजनीतिक कलह और भ्रष्टाचार के कारण बुरी तरह पतन की ओर बढ़ चुका था। औरंगज़ेब की मृत्यु (1707) के बाद उत्तराधिकार संघर्ष, क्षेत्रीय विद्रोह, जागीरदारों की मनमानी और प्रशासनिक अव्यवस्था ने साम्राज्य को लगभग खोखला कर दिया था। ऐसे समय में ईरान का शासक नादिरशाह अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था और भारत की समृद्धि, राजनीतिक अस्थिरता तथा राजकोष की धन-संपदा उसकी महत्वाकांक्षा को आकर्षित कर रही थी।

1739 में नादिरशाह का भारत पर आक्रमण भारतीय इतिहास की एक अत्यंत विनाशकारी घटना साबित हुआ। इस आक्रमण ने मुगल साम्राज्य की जड़ों को पूरी तरह हिला दिया और भारत की आर्थिक-सामाजिक संरचना पर गहरा प्रभाव छोड़ा।


👑 नादिरशाह कौन था?

🔹 पृष्ठभूमि

  • नादिरशाह ईरान का एक अत्यंत महत्वाकांक्षी, युद्धकुशल और निर्दयी शासक था।

  • उसने ईरान में अफगानों को पराजित कर सत्ता प्राप्त की।

  • उसकी सेना अत्यंत संगठित, अनुशासित और आधुनिक हथियारों से लैस थी।

🔹 विस्तारवादी नीति

नादिरशाह की दृष्टि हमेशा उन क्षेत्रों पर रहती थी जहाँ राजनीतिक अस्थिरता हो।
भारत की आर्थिक समृद्धि और राजनीतिक कमजोरी उसके आक्रमण का मुख्य कारण बनी।


🏹 नादिरशाह के आक्रमण के प्रमुख कारण

🔸 1. मुगल सत्ता की कमजोरी

  • मुगल सम्राट मोहम्मदशाह कमजोर और विलासी शासक था।

  • प्रांतों पर उसका नियंत्रण लगभग समाप्त हो चुका था।

  • सेना और प्रशासन भ्रष्ट हो चुके थे।
    यह स्थिति किसी भी आक्रमणकारी को आमंत्रित करने के समान थी।

🔸 2. अफगानों को शरण देने का बहाना

काबुल और कंधार क्षेत्र में कई अफगान सरदार नादिरशाह के विरुद्ध विद्रोह कर भारत में आकर बस गए थे।
नादिरशाह ने इन्हें भारत से वापस करने की मांग की, परंतु मुगल प्रशासन ने इसे अनसुना कर दिया।
यह उसके आक्रमण का औपचारिक बहाना बना।

🔸 3. भारत की धन-संपदा

भारत उस समय सोना, चाँदी, हीरे-जवाहरात और व्यापार का विश्व केंद्र था।
नादिरशाह जानता था कि मुगल खजाना अत्यंत समृद्ध है।
उसकी लूट की नीयत मुख्य कारणों में से एक थी।

🔸 4. कूटनीतिक असफलताएँ

मुगल दरबार नादिरशाह की वास्तविक शक्ति और मंशा को समझ ही नहीं पाया।
कूटनीति और सैन्य तैयारी दोनों ही कमजोर रहीं।


⚔️ करनाल का युद्ध (1739)

नादिरशाह 1739 में विशाल और प्रशिक्षित सेना के साथ भारत पहुँचा।
मुगल सेना और नादिरशाह के बीच निर्णायक युद्ध करनाल में हुआ।

🔹 युद्ध की परिस्थितियाँ

  • मुगल सेना संख्या में विशाल थी पर अनुशासनहीन और नेतृत्वविहीन थी।

  • नादिरशाह की सेना कम संख्या में होने के बावजूद अत्याधुनिक हथियारों और रणनीति से लैस थी।

  • मुगल सैनिकों में मनोबल की भारी कमी थी।

🔹 युद्ध का परिणाम

  • मुगल सेना युद्धभूमि से भाग खड़ी हुई।

  • लगभग पूरा भारतीय मोर्चा ढह गया।

  • मुगल सम्राट मोहम्मदशाह नादिरशाह के सामने आत्मसमर्पण के लिए मजबूर हुआ।

🔹 करनाल की हार का महत्व

यह हार मुगल साम्राज्य के सैन्य पतन का खुला प्रमाण थी।


🕌 दिल्ली की ओर बढ़ता नादिरशाह

करनाल की विजय के बाद नादिरशाह ने दिल्ली का रुख किया।

🔹 दिल्ली पर कब्ज़ा

  • मोहम्मदशाह को बंधक बनाकर नादिरशाह ने दिल्ली पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया।

  • उसने मुगल खजाना लूटने की तैयारी शुरू कर दी।

🔹 जनता पर अत्याचार

दिल्ली में नादिरशाह की सेना ने भयंकर अत्याचार किए।
मारकाट, लूटपाट और हिंसा का दौर शुरू हुआ।


🔥 दिल्ली का नरसंहार (The Delhi Massacre)

नादिरशाह के आक्रमण का सबसे भयावह अध्याय दिल्ली का कत्लेआम था।

🔹 नरसंहार का कारण

  • दिल्ली में किसी विवाद के दौरान कुछ ईरानी सैनिक मारे गए।

  • नादिरशाह ने इसे अपनी प्रतिष्ठा पर आघात मानकर बदले के लिए जनसंहार का आदेश दिया।

🔹 घटना का स्वरूप

  • एक दिन में लगभग 20,000–30,000 लोगों की निर्मम हत्या कर दी गई।

  • घर, बाजार, दुकानें, मस्जिदें—सब जगह खूनखराबा हुआ।

  • यह दिल्ली के इतिहास की सबसे दर्दनाक घटनाओं में से एक मानी जाती है।

🔹 परिणाम

दिल्ली की आर्थिक-सामाजिक संरचना पूरी तरह टूट गई।
अनेक परिवार नष्ट हो गए और शहर उजड़कर खंडहर में बदल गया।


💎 मुगल खजाने की लूट

नादिरशाह की सबसे बड़ी इच्छा मुगल साम्राज्य की अपार धन-संपदा पर अधिकार जमाना था।

🔹 प्रमुख वस्तुएँ जिन्हें वह ले गया

  • मोर सिंहासन (Peacock Throne)

  • कोहिनूर हीरा

  • दरीया-ए-नूर हीरा

  • लाखों रुपये, सोने-चाँदी की ईंटें

  • आभूषण, कीमती वस्तुएँ और शाही खजाना

इतिहासकारों के अनुसार नादिरशाह भारत से 70 करोड़ रुपये से अधिक मूल्य का धन लेकर गया—यह उस समय अभूतपूर्व राशि थी।

🔹 आर्थिक प्रभाव

भारत की आर्थिक संरचना अचानक भारी रूप से कमजोर हो गई।
मुगल खजाना लगभग खाली हो गया।


🇮🇳 नादिरशाह के आक्रमण के दूरगामी परिणाम

🔸 1. मुगल साम्राज्य का पूर्ण पतन

यद्यपि मोहम्मदशाह गद्दी पर बना रहा, पर उसकी प्रतिष्ठा समाप्त हो चुकी थी।
मुगल सत्ता अब केवल नाममात्र रह गई।

🔸 2. प्रांतों का विद्रोह

  • अवध, बंगाल, हैदराबाद, रोहिल्ला, सिख, मराठा—सब स्वतंत्र होने लगे।

  • केंद्रीय सत्ता पूरी तरह कमजोर हो गई।

🔸 3. आर्थिक क्षति

मुगल खजाना खाली होते ही—

  • सेना का वेतन बंद

  • प्रशासन ढह गया

  • व्यापार मंद पड़ा

🔸 4. विदेशी आक्रमणों की राह आसान

नादिरशाह की सफलता ने दिखा दिया कि भारत अब बेहद कमजोर है।
इसके बाद—

  • अहमदशाह अब्दाली

  • दुर्रानी

  • मराठों व सिखों का उदय
    सब इसी पृष्ठभूमि में हुआ।

🔸 5. ब्रिटिश हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त

भारत की कमजोर सैन्य और राजनीतिक स्थिति देखकर अंग्रेजों ने अपना विस्तार तेज़ कर दिया।
नादिरशाह का आक्रमण अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश शासन के उदय का एक प्रमुख कारण बन गया।


🧭 निष्कर्ष

नादिरशाह का 1739 का भारत आक्रमण भारतीय इतिहास की सबसे विभीषिकापूर्ण घटनाओं में से एक है।
इस आक्रमण ने न केवल मुगल साम्राज्य की कमजोरियों को उजागर किया, बल्कि उसे घातक रूप से तोड़ भी दिया।

  • करनाल की हार,

  • दिल्ली का नरसंहार,

  • कोहिनूर और मोर सिंहासन की लूट,

  • तथा मुगल शक्ति का विघटन

ने भारत को राजनीतिक रूप से बिखरा, आर्थिक रूप से दुर्बल और सामाजिक रूप से अस्थिर बना दिया।

नादिरशाह का यह आक्रमण वह मोड़ था जहाँ से मुगल साम्राज्य का वास्तविक अंत शुरू हुआ।


प्रश्न 03: भारत में मराठा शक्ति के उत्थान के कारणों पर प्रकाश डालिए।

🌄 मराठा शक्ति का उदय: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

17वीं और 18वीं शताब्दी भारत के इतिहास में अत्यंत परिवर्तनकारी समय था। मुगल साम्राज्य अपने पतन की ओर बढ़ रहा था, प्रांतीय शक्तियाँ स्वतंत्र होने लगी थीं, और राजपूतों, जाटों, सिखों जैसी स्थानीय शक्तियाँ विकसित हो रही थीं। इसी काल में मराठा शक्ति एक प्रमुख राष्ट्रीय शक्ति के रूप में उभरी जिसने न केवल दक्कन क्षेत्र में बल्कि पूरे उत्तर भारत में अपनी प्रभुता स्थापित की।
मराठा शक्ति का उदय केवल सैन्य विजय का परिणाम नहीं था, बल्कि यह राजनीतिक, सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक कारकों के संयुक्त प्रभाव का परिणाम था। शिवाजी महाराज की प्रेरणा, पेशवाओं की नेतृत्व क्षमता, तथा मराठों की अद्भुत सैन्य कौशल ने मराठा साम्राज्य को 18वीं शताब्दी में भारत की सबसे शक्तिशाली शक्ति बना दिया।


⭐ 1. शिवाजी महाराज का नेतृत्व

मराठा शक्ति के उदय का सबसे बड़ा कारण छत्रपति शिवाजी महाराज का अद्वितीय नेतृत्व था।

🔹 दूरदर्शिता और संगठन क्षमता

शिवाजी ने स्वराज्य की अवधारणा को केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन का रूप दिया।

  • उन्होंने एक संगठित, अनुशासित और राष्ट्रवादी सेना तैयार की।

  • स्थानीय लोगों, किसानों, मावलों को विश्वास में लेकर एक जन-आधारित शक्ति खड़ी की।

🔹 आत्मसम्मान और स्वतंत्रता का भाव

शिवाजी ने हर मराठा सैनिक में यह भावना जगाई कि वे अपने धर्म, समाज और स्वाभिमान के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
यह भावनात्मक शक्ति मराठों के उत्थान का मुख्य आधार बनी।


⭐ 2. दक्कन का भौगोलिक लाभ

मराठा शक्ति के उदय का एक महत्वपूर्ण कारण पश्चिमी घाट का भू-आकृतिक स्वरूप था।

🔹 पर्वतीय क्षेत्र और दुर्ग

  • सह्याद्री पर्वत, घाटियाँ, वन क्षेत्र और दुर्ग मराठों को प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करते थे।

  • विशाल मुगल सेना इन कठिन पर्वतीय क्षेत्रों में प्रभावी रूप से प्रवेश नहीं कर पाती थी।

🔹 गुरिल्ला युद्ध के लिए अनुकूल

मराठों ने पर्वतीय क्षेत्रों का अद्भुत उपयोग किया और गुरिल्ला युद्ध (हिट एंड रन) को अपनी प्रमुख रणनीति बनाया।
इससे मुगल सेनाएँ हमेशा असहाय और भ्रमित रहती थीं।


⭐ 3. सामाजिक आधार और मराठा समाज की विशेषताएँ

मराठा समाज एक ऊर्जावान, परिश्रमी और योद्धा समाज था।

🔹 सामाजिक एकता

  • मराठा किसान, चरवाहे, सैनिक, कारीगर—सभी समाज के वर्ग स्वराज्य आंदोलन में शामिल हुए।

  • स्थानीय गाँव-गाँव में मराठा शक्ति को समर्थन मिलता गया।

🔹 सैन्य परंपरा

मराठा समाज में घुड़सवारी, शस्त्र-विद्या और युद्ध कौशल परंपरागत रूप से विकसित थे।
इससे एक मजबूत जन-सेना का निर्माण हुआ।


⭐ 4. पेशवाओं का नेतृत्व

शिवाजी के बाद मराठा शक्ति के विस्तार का श्रेय काफी हद तक पेशवाओं को जाता है।

🔹 प्रशासनिक और सैन्य कौशल

  • पेशवा बाजीराव प्रथम ने मराठा साम्राज्य को उसके चरम पर पहुँचाया।

  • उन्होंने मुगल साम्राज्य की रीढ़ को हिला दिया और उत्तर भारत तक मराठा प्रभुत्व स्थापित किया।

🔹 केंद्रीकृत प्रशासन

पेशवाओं ने पुणे को मराठा शक्ति के राजनीतिक केंद्र में बदल दिया और प्रशासन को अधिक व्यवस्थित और मजबूत बनाया।


⭐ 5. गुरिल्ला युद्ध नीति (शिवसूत्र)

मराठों की युद्ध नीति उनके उत्थान का सबसे बड़ा आधार थी।

🔸 गुरिल्ला तकनीक के तत्व

  • अचानक आक्रमण

  • तेजी से पीछे हटना

  • दुश्मन की आपूर्ति लाइनों पर हमला

  • रात के हमले

  • पर्वतीय क्षेत्रों का उपयोग

🔸 परिणाम

  • मुगल सेना बार-बार बड़े बल के बावजूद असफल रही।

  • मराठे छोटे-छोटे दलों में भारी-भरकम सेनाओं को परास्त कर देते थे।


⭐ 6. मजबूत किलाबंदी व्यवस्था

शिवाजी और मराठों ने एक विस्तृत किलाबंदी प्रणाली विकसित की।

🔹 प्रमुख किले

  • रायगढ़

  • सिंहगढ़

  • प्रतापगढ़

  • पुरंदर

  • लोणावला क्षेत्र के दर्जनों किले

🔹 किलों का प्रशासन

किले न केवल सैन्य केंद्र थे, बल्कि सेना के प्रशिक्षण, भंडारण और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र भी थे।
इस स्थायी संरचना ने मराठा शक्ति को स्थायित्व दिया।


⭐ 7. मुगल साम्राज्य का पतन

मराठा शक्ति के उदय का एक बड़ा कारण मुगल साम्राज्य की गिरती स्थिति थी।

🔹 औरंगज़ेब की नीतियों का प्रभाव

  • धार्मिक कठोरता

  • अनंत युद्ध

  • राजपूतों और दक्कन के सुल्तानों से संघर्ष
    से मुगल प्रशासन टूटने लगा।

🔹 उत्तराधिकार संघर्ष

औरंगज़ेब के बाद मुगल सल्तनत लगातार उत्तराधिकार युद्धों में उलझी रही।

🔸 परिणाम

मराठों के लिए विस्तार का मार्ग खुल गया।


⭐ 8. आर्थिक आधार और चढ़ाई-उतार नीति

🔹 चढ़ाई-उतार (चौथ और सरदेशमुखी)

मराठों ने एक संगठित आर्थिक व्यवस्था स्थापित की।

  • चौथ — किसी इलाके की कुल आय का 1/4

  • सरदेशमुखी — 10 प्रतिशत कर

इससे मराठों की आर्थिक शक्ति बढ़ी और विशाल सेना का संचालन संभव हुआ।

🔹 व्यापार और उत्पादन

दक्कन क्षेत्र में खेती, पशुपालन और व्यापार भी मराठों की आर्थिक शक्ति का आधार बना।


⭐ 9. धार्मिक एवं सांस्कृतिक तत्व

मराठा शक्ति का एक मजबूत आधार उसका सांस्कृतिक और धार्मिक पहलू भी था।

🔹 हिंदू स्वराज्य की भावना

शिवाजी ने हिंदू समाज को राजनीतिक रूप से जागृत किया और धार्मिक स्वतंत्रता को प्रमुखता दी।
इससे एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा हुआ।

🔹 संत परंपरा

समर्थ रामदास, तुकाराम, ज्ञानेश्वर समेत कई संतों की शिक्षाओं ने मराठों में नैतिक शक्ति और सामाजिक एकता विकसित की।


⭐ 10. कूटनीति और राजनीतिक समझदारी

मराठा नेताओं ने समय-समय पर अत्यंत समझदारीपूर्ण कूटनीति अपनाई।

🔹 गठबंधन नीति

  • कभी मुगलों से संधि

  • कभी बीजापुर या गोलकुंडा से मैत्री

  • कभी स्थानीय सरदारों को साथ लेना

इन नीतियों ने मराठा साम्राज्य को तेजी से विस्तार करने में मदद की।


⭐ 11. सैन्य संरचना का विकास

मराठों की सेना अत्यंत गतिशील थी।

🔹 घुड़सवार सेना

मराठों की सबसे बड़ी ताकत उनकी तेज, फुर्तीली और प्रशिक्षित घुड़सवार सेना थी।

🔹 तलवार, भाले और हल्के हथियार

इनसे तेज गति वाले युद्ध में मराठों को अद्वितीय लाभ मिलता था।

🔹 नौसेना का विकास

शिवाजी के समय से मराठा नौसेना दक्कन तट की रक्षा में अत्यंत प्रभावी हो गई थी।


🧭 निष्कर्ष

मराठा शक्ति का उत्थान किसी एक कारक का परिणाम नहीं था, बल्कि यह शिवाजी के नेतृत्व, पर्वतीय भूगोल, जन-आधारित समाज, मजबूत संगठन, गुरिल्ला रणनीति, पेशवाओं की कूटनीति, आर्थिक मजबूती और मुगल साम्राज्य के पतन जैसे व्यापक तत्वों का संयुक्त प्रभाव था।

मराठों ने न केवल दक्कन में अपनी शक्ति स्थापित की बल्कि 18वीं शताब्दी के मध्य तक वे पूरे भारत की सबसे प्रमुख शक्ति बन चुके थे।
उनका उदय न केवल राजनीतिक था, बल्कि यह भारतीय स्वाभिमान, स्वराज्य और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की विरासत का भी प्रतीक था।




प्रश्न 04: मुगल भू-राजस्व व्यवस्था के गुण-दोषों की विवेचना कीजिये।

🌾 मुगल भू-राजस्व व्यवस्था का परिचय

मुगल साम्राज्य की आर्थिक शक्ति का मुख्य आधार उसकी भू-राजस्व व्यवस्था थी। भारत की जनसंख्या का अधिकांश भाग कृषि पर निर्भर था, इसलिए भूमि से मिलने वाला राजस्व मुगल शासन की रीढ़ माना जाता था।
विशेष रूप से अकबर के काल में दीवान टोडरमल की नेतृत्व में बनी भूमि व्यवस्था—आइन-ए-दहसाला, माप-तौल प्रणाली, फसल आधारित कर निर्धारण—ने मुगल प्रशासन को व्यवस्थित, वैज्ञानिक और आधुनिक स्वरूप प्रदान किया।

मुगल भूमि-व्यवस्था के कई गुण थे, लेकिन इसके कुछ स्पष्ट दोष भी थे जो समय के साथ बढ़ते गए और आगे चलकर मुगल साम्राज्य के पतन में योगदान देने लगे।


⭐ मुगल भू-राजस्व व्यवस्था के गुण (Advantages)

🌱 1. भूमि का वैज्ञानिक सर्वेक्षण

🔹 टोडरमल की मापन पद्धति

अकबर ने भूमि का सर्वेक्षण करने हेतु 'बाँस' (गज) से मापन प्रणाली निर्मित की जिसे “जरिब” कहा जाता था।
यह व्यवस्था पहली बार भूमि के—

  • आकार,

  • गुणवत्ता,

  • उपज क्षमता

के आधार पर कर निर्धारण करती थी।

यह मापन वैज्ञानिकता और सटीकता की दिशा में एक बड़ा कदम था।


💰 2. उपज पर आधारित कर निर्धारण

मुगल भू-राजस्व प्रणाली में कर निर्धारण किसान की वास्तविक उपज पर आधारित था।

🔹 एक-तिहाई उपज का सिद्धांत

अधिकतर किसानों से कुल कृषि उत्पादन का एक-तिहाई (1/3) राजस्व के रूप में लिया जाता था—जो पूर्ववर्ती काल की तुलना में न्यायपूर्ण माना जाता था।

🔹 दहसाला प्रणाली

  • दस वर्षों की औसत उपज

  • भूमि की गुणवत्ता

  • फसल के प्रकार

इन सबके आधार पर कर निर्धारित किया जाता था।
इससे किसानों पर अचानक कर-भार का दबाव नहीं पड़ता था।


📜 3. पट्टा और कबूलियत प्रणाली

यह मुगल प्रशासन की सबसे पारदर्शी विशेषताओं में से एक थी।

🔹 पट्टा

राज्य द्वारा किसान को जारी किया गया दस्तावेज़ जिसमें लिखित रूप में यह दर्ज होता था—

  • भूमि का क्षेत्रफल

  • देय कर

  • कर की विधि

  • भूमि की गुणवत्ता

🔹 कबूलियत

किसान द्वारा इस पट्टे की शर्तों को स्वीकार करने की प्रक्रिया।

इससे प्रशासन और किसान के बीच स्पष्टता और सुरक्षा बनी रहती थी।


🧑‍🌾 4. किसानों की सुरक्षा और संरक्षण

मुगलों ने किसानों के हितों का ध्यान रखा।

🔹 अत्याचार की रोकथाम

  • जागीरदारों को मनमाने ढंग से कर वसूलने से रोका गया।

  • किसानों से अत्यधिक कर या जबरन वसूली पर दंड दिया जाता था।

🔹 प्राकृतिक आपदा में राहत

सूखा, बाढ़, महामारी आदि के समय किसानों को कर में छूट और कई बार वसूली स्थगित कर दी जाती थी।


🛠️ 5. राजस्व कर्मचारियों की सुव्यवस्थित नियुक्ति

मुगल प्रशासन में राजस्व से जुड़े पद स्पष्ट थे—

  • अमीन — भूमि मापन और कर निर्धारण

  • पटवारी — रिकॉर्ड रखना

  • कानूंगो — राजस्व व्यवस्था की देखरेख

  • कारकुन — लेखा-जोखा

इससे राजस्व व्यवस्था में संतुलन और अनुशासन बना।


💵 6. नकद भुगतान की व्यवस्था

किसानों को अपनी सुविधा के अनुसार—

  • नकद,

  • या अनाज

दोनों रूप में कर भुगतान की सुविधा थी।
इससे राज्य को स्थिर आय मिलती थी और नए व्यापारिक वर्ग का विकास हुआ।


🛡️ 7. राज्य की सैन्य शक्ति को मजबूत करना

भूमि से मिलने वाली स्थायी आय ही मुगल सेना का मुख्य आधार थी।
इसी आय से—

  • मनसबदारों का वेतन,

  • सेना के खर्च,

  • किलों का निर्माण,

  • प्रशासनिक व्यय

पूरा होता था।


📈 8. व्यापार और अर्थव्यवस्था का विकास

राजस्व प्रणाली की स्थिरता से—

  • व्यापारी वर्ग विकसित हुआ

  • ग्रामीण क्षेत्रों में संपन्नता बढ़ी

  • स्थानीय उद्योगों का विकास हुआ

  • कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई


❌ मुगल भू-राजस्व व्यवस्था के दोष (Disadvantages)

🏷️ 1. अत्यधिक केंद्रीकरण

🔹 सभी शक्तियाँ सम्राट और वज़ीर के हाथ

मुगल प्रशासन अत्यधिक केंद्रीकृत था।
सारा नियंत्रण केंद्र के पास था और नीचे के स्तर पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता कम थी।

इससे—

  • अधिकारियों पर बोझ बढ़ता था

  • स्थानीय आवश्यकताएँ अनसुनी रहती थीं


💸 2. कर का भारी बोझ

यद्यपि 1/3 उपज का सिद्धांत उचित था, परन्तु कई हालतों में—

🔹 कर अत्यधिक हो जाता था

  • उपज कम होने पर भी कर इतनी ही दर से वसूला जाता था।

  • सूखा या आपदा होने पर किसान कर्ज़ में डूब जाते थे।

🔹 नकद भुगतान की बाध्यता

कभी-कभी किसानों को अनाज बेचकर कम दाम पर नकद लेकर कर देना पड़ता था, जिससे नुकसान होता था।


🏚️ 3. ज़मींदारों और जागीरदारों के दमन

मुगल शासन में ज़मींदार एवं मनसबदार कर वसूली के मध्यस्थ थे।

🔹 अत्याचार

  • कई ज़मींदार किसानों से अतिरिक्त कर वसूलते थे।

  • कई बार वसूली में हिंसा और शोषण होता था।

🔹 केंद्र का सीमित नियंत्रण

दूरी और सूचना प्रणाली कमजोर होने से भ्रष्टाचार पर पूर्ण नियंत्रण संभव नहीं था।


📉 4. भूमि को स्थिर न मानने की नीति

मुगलों में भूमि स्थायी रूप से किसानों की नहीं मानी जाती थी
वे केवल राज्य की भूमि को अस्थायी तौर पर जोते थे।

🔹 परिणाम

  • किसान भूमि में सुधार करने में रुचि नहीं लेते थे।

  • सिंचाई और खेती के नए साधन अपनाने में रुचि कम थी।


⚖️ 5. मनसबदारी और जागीरदारी की समस्याएँ

जागीर प्राप्त मनसबदारों का लक्ष्य अधिक से अधिक वसूली करना था ताकि वे अपने वेतन व सैनिक खर्च पूरे कर सकें।

🔹 उत्पादन पर दबाव

जागीरदारों की मनमानी के कारण किसानों पर दबाव काफी बढ़ जाता था।


📊 6. भूमि के पुनर्मापन में अनियमितता

नियमित सर्वेक्षण न होने से भूमि की सही उपज का आकलन लगातार कठिन हो जाता था।

🔹 अधिकारी भ्रष्टाचार

अमीन और पटवारी अक्सर—

  • गलत माप

  • गलत उपज

  • गलत रजिस्टर

तैयार करते थे, जिससे किसानों को नुकसान होता।


🧺 7. नकदी अर्थव्यवस्था की कमजोरी

कुछ क्षेत्रों में नकदी फसलों और मुद्रा का अभाव था।

🔹 किसानों पर अनावश्यक बोझ

किसानों को अनाज कम दाम पर बेचकर नकद लेना पड़ता था, जिससे आय कम हो जाती थी।


🪓 8. किसानों का शोषण और विद्रोह

मुगल काल में कई बार भूमि कर का बोझ इतना बढ़ गया कि—

  • किसान पलायन करने लगे

  • कई स्थानों पर विद्रोह हुए

  • कृषि उत्पादन प्रभावित हुआ

कठोरता के कारण किसानों में शासन के प्रति असंतोष बढ़ने लगा।


🧭 निष्कर्ष

मुगल भू-राजस्व व्यवस्था अपने समय की दृष्टि से अत्यंत विकसित, वैज्ञानिक और संगठित थी।
इसके महत्वपूर्ण गुण

  • भूमि का सर्वेक्षण,

  • उपज आधारित कर,

  • पट्टा-कबूलियत,

  • किसान संरक्षण,

  • व्यापार का विकास—
    ने मुगल साम्राज्य को मजबूत आधार दिया।

परंतु इसके दोष

  • अत्यधिक केंद्रीकरण,

  • ज़मींदारों की मनमानी,

  • कठोर कर-वसूली,

  • किसानों की असुरक्षा,

  • जागीरदारी की समस्याएँ—
    ने समय के साथ गंभीर समस्याएँ उत्पन्न कर दीं।

ये दोष 18वीं शताब्दी में मुगल सत्ता के पतन के कारणों में प्रमुख बने।
इसलिए कहा जाता है कि मुगल भूमि व्यवस्था जहाँ एक ओर आर्थिक शक्ति का स्रोत थी, वहीं दूसरी ओर इसके दोषों ने साम्राज्य की नींव को धीरे-धीरे कमजोर भी किया।


प्रश्न 05 : डच ईस्ट इंडिया कंपनी पर टिप्पणी लिखें।

🛳️ डच ईस्ट इंडिया कंपनी (VOC) का परिचय

डच ईस्ट इंडिया कंपनी, जिसका आधिकारिक नाम Verenigde Oost-Indische Compagnie (VOC) था, 1602 में नीदरलैंड (हॉलैंड) द्वारा स्थापित की गई एक विशाल व्यापारिक और उपनिवेशवादी कंपनी थी। यह दुनिया की पहली बहुराष्ट्रीय कंपनी (Multinational Corporation) मानी जाती है और इसे शेयर बाज़ार में शेयर बेचने का अधिकार भी प्राप्त था।
यह कंपनी एशिया, विशेषकर भारत, इंडोनेशिया, श्रीलंका और जापान में मसालों, रेशम, कपास, नील, अफीम और चाय के व्यापार में अग्रणी थी।

17वीं शताब्दी में डच ईस्ट इंडिया कंपनी विश्व व्यापार की सबसे शक्तिशाली संस्था बन गई और इसे "समुद्री साम्राज्य" का मालिक कहा जाता था।


⭐ डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना

🔹 आर्थिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि

16वीं शताब्दी के अंत में पोर्तगाल का समुद्री साम्राज्य कमजोर होने लगा था।
नीदरलैंड ने—

  • समुद्री शक्ति

  • व्यापारिक संगठन

  • पूँजी

  • नौसैनिक तकनीक

के दम पर एशियाई व्यापार पर अधिकार करने का लक्ष्य तय किया।

🔹 स्थापना वर्ष—1602

नीदरलैंड सरकार ने विभिन्न व्यापारिक समूहों को एकसाथ मिलाकर VOC बनाई और उसे कई विशेषाधिकार दिए—

  • युद्ध करने का अधिकार

  • उपनिवेश स्थापित करने का अधिकार

  • संधियाँ करने का अधिकार

  • मुद्रा छापने का अधिकार

  • किले बनाने का अधिकार

यह किसी भी व्यापारिक कंपनी को दिया गया विश्व का सबसे शक्तिशाली अधिकार-पत्र था।


🌍 डच ईस्ट इंडिया कंपनी का विस्तार

डचों ने व्यापार को नियंत्रित करने के लिए एशिया में कई केंद्र स्थापित किए।

🔹 मुख्य केंद्र

  • बाटाविया (इंडोनेशिया) — मुख्यालय

  • सेलोन (श्रीलंका)

  • फ़ारस की खाड़ी

  • जापान में नागासाकी

  • भारत के तटों पर व्यापारिक फैक्ट्रियाँ

🔹 व्यापार की प्रमुख वस्तुएँ

  • लौंग

  • काली मिर्च

  • दालचीनी

  • जायफल

  • नील

  • रेशम

  • कपास

  • अफीम

डचों ने मसाला व्यापार में लगभग एकाधिकार स्थापित कर लिया था।


🇮🇳 भारत में डच ईस्ट इंडिया कंपनी

डच पहली बार 1605 में भारत पहुँचे और उन्होंने क्रमशः दक्षिण तथा पूर्वी भारत में व्यापारिक केंद्र स्थापित किए।

🔹 प्रमुख फैक्ट्रियाँ

  • मसूलीपट्टनम (1605)

  • पुलिकट (मुख्य केंद्र)

  • नागापट्टनम

  • हुगली (बंगाल)

  • सूरत

शुरुआत में डच भारत से कपास, रेशम, नील और चावल खरीदते थे तथा बदले में मसाले और अन्य वस्तुएँ यूरोप ले जाते थे।


⚓ डचों की व्यापारिक नीति

🔹 मुनाफ़ा आधारित नीति

डचों का मुख्य लक्ष्य अधिकतम लाभ कमाना था।
उनकी नीति सख्त व्यापारिक थी—वे भारत में राजनीतिक हस्तक्षेप कम करते थे और केवल व्यापार पर केंद्रित थे।

🔹 मध्यस्थों को हटाना

डच भारतीय व्यापारियों के बजाय सीधे किसानों और उत्पादकों से माल लेने का प्रयास करते थे—इससे व्यापारी वर्ग उनके विरुद्ध हो गया।

🔹 बलपूर्वक नियंत्रण

इंडोनेशिया में डचों ने मसालों पर नियंत्रण पाने के लिए कई बार हिंसा, जबरन अधिग्रहण और दमन का सहारा लिया।
इस वजह से उन्हें “एशिया के निर्दयी व्यापारी” की उपाधि भी दी गई।


🛡️ भारत में डचों का पतन

भारत में डच शक्ति 17वीं शताब्दी के अंत में तेजी से गिरने लगी।

🔸 1. अंग्रेजों से संघर्ष

1670–1750 के बीच अंग्रेजों के साथ व्यापारिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती गई।
अंततः इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने डचों को हर क्षेत्र में पीछे छोड़ दिया।

🔸 2. 1759 का “बिदारा का युद्ध”

बंगाल में मीर जाफर ने डचों को अपनी शक्ति बढ़ाने में सहयोग देने का प्रयास किया, लेकिन अंग्रेजों ने डचों को निर्णायक रूप से पराजित कर दिया।
यह भारत में डच साम्राज्य के अंतिम राजनीतिक प्रयास का अंत था।

🔸 3. मसाला व्यापार पर निर्भरता

डचों की अर्थव्यवस्था अत्यधिक मसाला व्यापार पर निर्भर थी।
जब यह व्यापार यूरोप में मंदा पड़ा, तो डचों की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई।

🔸 4. आंतरिक भ्रष्टाचार

VOC में भ्रष्टाचार, गबन और निजी व्यापार के कारण कंपनी धीरे-धीरे कमजोर होती गई।


💣 डच ईस्ट इंडिया कंपनी का पतन (1799)

18वीं शताब्दी के अंत में VOC—

  • आर्थिक रूप से दिवालिया

  • राजनीतिक रूप से कमजोर

  • व्यापारिक रूप से पीछे
    हो चुकी थी।

🔹 अंतिम पतन

डच सरकार ने 1799 में इस कंपनी को आधिकारिक रूप से भंग कर दिया और उसके सभी उपनिवेश राज्य के नियंत्रण में ले लिए।


⭐ डच ईस्ट इंडिया कंपनी का ऐतिहासिक महत्व

🔸 1. पहली वैश्विक कॉरपोरेशन

VOC दुनिया की पहली ऐसी कंपनी थी जिसने—

  • शेयर बाज़ार

  • अंतरराष्ट्रीय व्यापार

  • बहुराष्ट्रीय निवेश

  • पूँजीवाद
    को वैश्विक रूप दिया।

🔸 2. आधुनिक व्यापार का आधार

डचों ने समुद्री परिवहन, व्यापारिक कानून, लेखा प्रणाली और मुद्रा प्रणाली को नया स्वरूप दिया।

🔸 3. भारतीय व्यापार पर प्रभाव

भारत में—

  • नील उत्पादन

  • कपास व्यापार

  • तटीय उद्योग

  • औद्योगिक कुटीर उत्पादन
    पर डचों का व्यापक प्रभाव पड़ा।

🔸 4. अंग्रेजों के उदय का मार्ग

भारत में डचों की पराजय ने इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए मार्ग साफ़ कर दिया।
डच यदि मजबूत रहते, तो अंग्रेजों का उत्थान कठिन हो जाता।


🧭 निष्कर्ष

डच ईस्ट इंडिया कंपनी विश्व इतिहास की एक असाधारण एवं अत्यंत प्रभावशाली संस्था थी।
व्यापार को अंतरराष्ट्रीय, व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप देने में डचों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण रहा।
भारत में उनका प्रभाव भले ही राजनीतिक रूप से कम रहा हो, लेकिन आर्थिक, समुद्री और औद्योगिक दृष्टि से उन्होंने गहरी छाप छोड़ी।

हालाँकि—

  • अंग्रेजों से संघर्ष,

  • कंपनी का भ्रष्टाचार,

  • यूरोप में आर्थिक संकट,

  • मसाले के व्यापार का पतन

जैसे कारणों ने डच ईस्ट इंडिया कंपनी को कमजोर कर दिया और अंततः 1799 में उसका अस्तित्व समाप्त हो गया।

फिर भी, VOC का इतिहास आज भी विश्व व्यापार और औपनिवेशिक विस्तार का एक अनूठा अध्याय है।

प्रश्न 06: मनसबदारी व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।

👑 मनसबदारी व्यवस्था का परिचय

मुगल प्रशासन की रीढ़ कहे जाने वाली मनसबदारी व्यवस्था (Mansabdari System) सम्राट अकबर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रशासनिक उपलब्धियों में से एक थी। "मनसब" शब्द अरबी भाषा के “मंसब” से निकला है जिसका अर्थ है—पद, रैंक या स्थान
मनसबदारी व्यवस्था के माध्यम से अकबर ने केंद्रीय सत्ता को मजबूत बनाया, सेना को एकजुट किया, प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित किया और पूरे साम्राज्य में एक ऐसी प्रणाली विकसित की जिसने मुगल राज्य को स्थिर और संगठित बनाया।

मनसबदारी व्यवस्था केवल सैन्य तंत्र नहीं थी, बल्कि यह प्रशासनिक और राजनीतिक नियंत्रण का भी प्रमुख आधार थी। इसके माध्यम से अधिकारी की हैसियत, वेतन, पद, सैनिकों की संख्या, कर्तव्यों तथा सम्राट के प्रति निष्ठा—all निर्धारित किए जाते थे।


⭐ मनसबदारी व्यवस्था की उत्पत्ति और विकास

🔹 बाबर और हुमायूँ के समय

मुगल सेना और प्रशासन में मनसब जैसी प्रणाली मौजूद थी, परंतु संगठित रूप नहीं था।

🔹 अकबर का योगदान

अकबर ने—

  • मनसब की स्पष्ट श्रेणी बनाई,

  • अधिकारियों की जिम्मेदारियाँ तय कीं,

  • श्रेणी के अनुसार वेतन और सेना की संख्या सुनिश्चित की।

यह व्यवस्था आगे चलकर जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगज़ेब के समय और अधिक जटिल हो गई।


⭐ मनसबदारी व्यवस्था के प्रमुख तत्व

🏷️ 1. मनसब (रैंक)

प्रत्येक मुगल अधिकारी का कार्य और प्रतिष्ठा उसके मनसब से तय होती थी।
अकबर ने मनसब की संख्या 10 से 5000 तक रखी। बाद में औरंगज़ेब ने इसे बढ़ाकर 7000 तक किया।

🔸 मनसब के प्रकार

  • निम्न श्रेणी मनसबदार — 10 से 500

  • मध्य श्रेणी मनसबदार — 500 से 2500

  • उच्च श्रेणी मनसबदार — 2500 से ऊपर

यह रैंक अधिकारी की प्रतिष्ठा और शक्ति का प्रतीक था।


🐎 2. ज़ात और सवार — मनसब का आधार

मनसब का सबसे महत्वपूर्ण भाग था—ज़ात और सवार

🔹 ज़ात

  • यह अधिकारी की व्यक्तिगत स्थिति, प्रतिष्ठा और वेतन निर्धारित करता था।

  • इससे पता चलता था कि मनसबदार का दरबार में कितना महत्व है।

🔹 सावर (सवार)

  • यह अधिकारी को रखने वाले घुड़सवार सैनिकों की संख्या थी।

  • उदाहरण: यदि किसी अधिकारी की मनसब रैंक “500 ज़ात, 300 सवार” है, तो उसका रुतबा 500 और उसके लिए 300 घुड़सवार रखने की जिम्मेदारी होगी।

🔸 सवार की दो श्रेणियाँ

  • बारहसवारी — उच्च स्तर की घुड़सवार सेना

  • दहसवारी — सामान्य घुड़सवार सेना

सवार व्यवस्था से मुगल सेना को स्थिर और मजबूत आकृति मिली।


⭐ 3. तैनाती और वेतन व्यवस्था

💰 वेतन का निर्धारण

मनसबदार का वेतन उसके—

  • ज़ात

  • सावर

  • पद

  • दायित्व

के आधार पर तय किया जाता था।
वेतन नकद या जागीर के रूप में दिया जाता था।

📜 जागीर का अधिकार

मनसबदार को दी गई जागीर अस्थायी होती थी।

  • इसका उद्देश्य था कि मनसबदार सम्राट के प्रति निष्ठावान रहे।

  • स्थायी जागीरें न मिलने से अधिकारी विद्रोह करने की स्थिति में नहीं रहते थे।


⭐ 4. दश्तूर-उल-अमल (Account & Inspection System)

🔹 दाग़ (घोड़ों की जाँच)

मनसबदार जितने घोड़े और सैनिक दिखाते, उनकी नियमित जाँच की जाती।
इससे सेना में फर्जी सैनिकों की संख्या कम होती।

🔹 चहरगान (रिकॉर्ड प्रणाली)

प्रत्येक सैनिक का नाम और विवरण दर्ज किया जाता था, जिससे भ्रष्टाचार पर रोक लगती।


⭐ 5. मनसबदारों के कार्य

🛡️ 1. सैन्य दायित्व

  • युद्ध में सैनिक भेजना

  • घुड़सवार बनाए रखना

  • सेना का नेतृत्व

🏛️ 2. प्रशासनिक दायित्व

  • प्रांतों, सूबों और जिलों में प्रशासनिक कार्य

  • कानून-व्यवस्था बनाए रखना

  • कर-संग्रह की देखरेख

  • जनता की शिकायतों का समाधान

🧾 3. राजनीतिक दायित्व

मनसबदार राज्य की नीतियों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
यह केंद्रीय सत्ता और स्थानीय प्रशासन के बीच एक कड़ी का कार्य करते।


⭐ मनसबदारी व्यवस्था के गुण (Advantages)

🌟 1. केंद्रीय सत्ता को मजबूती

मनसबदारी ने मुगल सम्राट के हाथ में संपूर्ण शक्ति केंद्रित कर दी।
इससे साम्राज्य में एकता और नियंत्रण बना रहा।

🌟 2. सेना का स्थायी और संगठित ढांचा

  • घुड़सवार और पैदल सेना व्यवस्थित हुई।

  • सैनिकों की संख्या और गुणवत्ता पर नियंत्रण बढ़ा।

🌟 3. प्रशासनिक कुशलता

मनसबदार—

  • प्रांतों का संचालन

  • न्याय

  • कर-संग्रह

  • सुरक्षा
    सभी काम प्रभावी ढंग से करते थे।

🌟 4. प्रतिभाशाली लोगों का उपयोग

मनसबदारी में जाति या जन्म का प्रभाव नहीं था।
योग्य, बहादुर और शिक्षित व्यक्ति उच्च पद हासिल कर सकते थे।
राजपूत, अफगान, तुर्क, ईरानी—सभी मनसबदार बन सकते थे।

🌟 5. विद्रोह पर नियंत्रण

जागीरें अस्थायी होने से मनसबदार विद्रोही नहीं बन पाते थे।
इससे स्थिरता बनी रहती थी।


❌ मनसबदारी व्यवस्था के दोष (Disadvantages)

⚠️ 1. अत्यधिक खर्च

मनसबदारों को भारी वेतन और जागीर देनी पड़ती थी।
इससे राज्य की आय का एक बड़ा भाग सैन्य खर्च में नष्ट होने लगा।

⚠️ 2. जागीरदारी भ्रष्टाचार

मनसबदार कई बार—

  • किसानों से अधिक कर वसूलते

  • उपज का गलत आकलन करते

  • स्थानीय जनता पर अत्याचार करते

जागीर बदलने से किसान असुरक्षित रहते थे।

⚠️ 3. सैनिकों का फर्जी रिकॉर्ड

मनसबदार कम सैनिक दिखाकर वेतन अधिक लेते थे।
हालांकि दाग प्रणाली थी, लेकिन भ्रष्टाचार पूरी तरह नहीं रुका।

⚠️ 4. जागीरों की कमी

औरंगज़ेब के समय मनसबदारों की संख्या बढ़ गई, पर जागीरें कम पड़ गईं।

  • कई मनसबदारों को आंशिक जागीरें दी गईं।

  • कई मनसबदार असंतुष्ट हुए।

यह मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बना।

⚠️ 5. अस्थायी जागीरें = अस्थिर किसान

जागीर बार-बार बदलने से—

  • किसान असुरक्षित रहते

  • कृषि उत्पादन प्रभावित होता

  • ग्रामीण अर्थव्यवस्था कमजोर होती


🧭 निष्कर्ष

मनसबदारी व्यवस्था मुगल शासन की सबसे प्रभावशाली और व्यापक प्रणाली थी।
इसने—

  • सम्राट की शक्ति बढ़ाई,

  • सेना को संगठित किया,

  • प्रशासन को स्थिर बनाया,

  • जाति-धर्म की बाधाओं को तोड़ा,

  • और विशाल साम्राज्य को एक सूत्र में बाँधा।

लेकिन समय के साथ—

  • भ्रष्टाचार,

  • जागीरों की कमी,

  • मनसबदारों की संख्या बढ़ना,

  • किसानों का शोषण,

  • आर्थिक दबाव

जैसी समस्याओं ने इसे कमजोर कर दिया और अंततः यह मुगल साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण बन गई।

इस प्रकार, मनसबदारी व्यवस्था मुगल प्रशासन की शक्ति का केंद्र भी थी और इसकी कमजोरियों का स्रोत भी—जो इसे भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है।




प्रश्न 07: अष्टप्रधान से आप क्या समझते हैं?

👑 अष्टप्रधान: शिवाजी के प्रशासन की अनोखी पहचान

अष्टप्रधान मराठा साम्राज्य की वह विशिष्ट प्रशासनिक परिषद थी जिसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने राज्य को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए स्थापित किया था। “अष्ट” का अर्थ है आठ, और “प्रधान” का अर्थ है मुख्य मंत्री
अतः अष्टप्रधान का अर्थ हुआ—“आठ प्रमुख मंत्रियों की परिषद”, जो मराठा साम्राज्य के प्रशासन, राजस्व, सेना, न्याय, विदेश नीति और धार्मिक मामलों का संचालन करती थी।

शिवाजी की यह प्रशासनिक व्यवस्था भारतीय इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि यह—

  • व्यवस्थित केंद्रीय प्रशासन,

  • स्पष्ट जिम्मेदारियाँ,

  • लोकहितकारी नीति,

  • कुशल शासन व्यवस्था

का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है।
अष्टप्रधान मंडल इस बात का प्रमाण है कि शिवाजी केवल महान योद्धा ही नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी प्रशासक भी थे।


⭐ अष्टप्रधान की उत्पत्ति और महत्व

🔹 शिवाजी का उद्देश्य

अष्टप्रधान का गठन शिवाजी की उस नीति का परिणाम था जिसमें वे—

  • शासन के दायित्व बाँटना

  • प्रशासनिक कार्यों में विशेषज्ञता लाना

  • भ्रष्टाचार कम करना

  • सम्राट पर कार्यभार का दबाव घटाना

चाहते थे।
इससे शासन अधिक संगठित, त्वरित और न्यायपूर्ण बन सका।

🔹 सलाहकारी एवं प्रशासनिक तंत्र

अष्टप्रधान परिषद के सदस्य सम्राट के सलाहकार भी थे और विभिन्न विभागों के उच्चतम अधिकारी भी।
यह परिषद सामूहिक रूप से शासन की रीढ़ थी।


⭐ अष्टप्रधान के आठ प्रमुख पद

1️⃣ पेशवा (Prime Minister)

🔹 भूमिका

  • अष्टप्रधान में सर्वोच्च पद

  • सम्राट का मुख्य सलाहकार

  • राज्य के सभी विभागों का प्रमुख समन्वयक

🔹 मुख्य कार्य

  • सैन्य और राजनीतिक निर्णयों में मार्गदर्शन

  • विदेश नीति और कूटनीति

  • राज्य के समस्त प्रशासनिक कार्यों की देखरेख

महत्व: शिवाजी के बाद पेशवा मराठा साम्राज्य के वास्तविक शासक बन गए।


2️⃣ अमात्य (Finance Minister)

🔹 भूमिका

  • वित्त और लेखा विभाग का प्रमुख

  • कर-संग्रह, आय-व्यय, राजस्व प्रबंधन

🔹 मुख्य कार्य

  • राज्य की आय का हिसाब रखना

  • सेना, किलों तथा प्रशासन के खर्च का प्रबंधन

  • भ्रष्टाचार की रोकथाम

अमात्य को मुगल प्रशासन के “वज़ीर” के समान माना जा सकता है।


3️⃣ सूमंत / सुमंत (Foreign Minister)

🔹 भूमिका

  • विदेश नीति और राजनयिक संबंध

  • पड़ोसी राज्यों के साथ संधियाँ और वार्ता

🔹 कार्य

  • मुगलों, बीजापुर, गोलकुंडा, सिद्धियों तथा अंग्रेजों के साथ संपर्क

  • राज्यों के बीच शांति या युद्ध की तैयारी में सहयोग

यह विभाग मराठा साम्राज्य की कूटनीति को मजबूत बनाता था।


4️⃣ मंत्री / वाकनवीस (Home Minister & Intelligence Head)

🔹 भूमिका

  • राज्य के आंतरिक मामलों की देखरेख

  • गुप्तचर विभाग पर नियंत्रण

🔹 कार्य

  • राज्य की सूचना व्यवस्था

  • पत्र-व्यवहार

  • स्थानीय प्रशासन पर निगरानी

यह पद आधुनिक “गृह मंत्री + खुफिया प्रमुख” के समान था।


5️⃣ सचिव / चिटनीस (Correspondence & Documentation Chief)

🔹 भूमिका

  • बुर्ज़-ए-इनायत (राजकीय दस्तावेजों का निर्माण)

  • राजा के आदेश एडिट और तैयार करना

🔹 कार्य

  • सभी सरकारी पत्रों का मसौदा तैयार करना

  • आदेशों और फरमानों को लिखित एवं सुरक्षित रखना

यह विभाग प्रशासनिक पारदर्शिता का आधार था।


6️⃣ सुरेश (Revenue & Land Minister)

🔹 भूमिका

  • भूमि और कर-व्यवस्था का नियंत्रण

  • कृषकों से संपर्क

🔹 कार्य

  • भूमि के प्रकार, उपज, राजस्व का निर्धारण

  • खेतिहर किसानों का संरक्षण

  • सरकारी जमीनों की देखभाल

यह विभाग अर्थव्यवस्था की रीढ़ था।


7️⃣ सिंहराज / सेनापति (Commander-in-Chief)

🔹 भूमिका

  • संपूर्ण सेना का प्रमुख

  • सैन्य अभियानों का संचालन

🔹 कार्य

  • युद्ध की रणनीति

  • किलों की रक्षा

  • सेना की भर्ती, प्रशिक्षण और निरीक्षण

यह पद शिवाजी की सैन्य शक्ति की मजबूती का मुख्य स्तंभ था।


8️⃣ न्यायाधीश / पंडितराव (Chief Justice)

🔹 भूमिका

  • न्याय व्यवस्था का प्रमुख

  • धार्मिक और नैतिक मामलों का संचालन

🔹 कार्य

  • सामाजिक, धार्मिक विवादों का समाधान

  • मंदिरों और विद्वानों को अनुदान

  • धार्मिक आचार-व्यवहार की देखरेख

यह विभाग समाज में नैतिकता और न्याय बनाए रखता था।


⭐ अष्टप्रधान की विशेषताएँ

🌟 1. स्पष्ट दायित्व

हर पदाधिकारी का विभाग स्पष्ट और निर्धारित था।
इससे प्रशासन सुचारु रूप से चलता था।

🌟 2. सम्राट का नियंत्रण

सभी प्रधान सम्राट द्वारा नियुक्त होते थे और उनके प्रति जवाबदेह थे।
इससे केंद्रीय शक्ति मजबूत होती थी।

🌟 3. योग्यता आधारित नियुक्ति

अधिकारी पद योग्यता, निष्ठा और क्षमता के आधार पर दिए जाते थे, न कि जन्म के आधार पर।

🌟 4. भ्रष्टाचार पर नियंत्रण

विभागों में पारदर्शिता और जिम्मेदारियों के बँटवारे से भ्रष्टाचार की संभावना कम थी।

🌟 5. सैन्य और नागरिक प्रशासन का संतुलन

  • सेनापति सैन्य शक्ति का प्रमुख था

  • पेशवा और अन्य मंत्री नागरिक प्रशासन को संभालते थे

इससे शासन में संतुलन बना रहा।


❌ अष्टप्रधान की कमजोरियाँ

⚠️ 1. शिवाजी के बाद समन्वय की कमी

शिवाजी के मजबूत नेतृत्व के बिना कई प्रमुख पदों के बीच मतभेद बढ़ने लगे।

⚠️ 2. पेशवाओं का अत्यधिक उदय

बाद में पेशवा ही वास्तविक शासक बन गए और अन्य प्रधान केवल नाममात्र रह गए।

⚠️ 3. पदों का वंशानुगत होना

समय के साथ कई पदों पर वंशानुगत अधिकार हो गया, जो शिवाजी की नीति के विरुद्ध था।


🧭 निष्कर्ष

अष्टप्रधान मराठा साम्राज्य की प्रशासनिक क्षमता, संगठन, दूरदर्शिता और शिवाजी महाराज की प्रतिभा का उत्कृष्ट उदाहरण है।
यह केवल आठ मंत्रियों की परिषद नहीं थी, बल्कि एक व्यावहारिक शासन प्रणाली थी जिसमें—

  • राजनीतिक,

  • आर्थिक,

  • सैन्य,

  • न्यायिक,

  • धार्मिक

सभी विभाग सुव्यवस्थित ढंग से कार्य करते थे।

यह प्रणाली मराठा साम्राज्य की मजबूती का आधार बनी और आगे चलकर पेशवाओं के काल में भी अनेक रूपों में प्रभावी रही।
अतः अष्टप्रधान भारतीय प्रशासन के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है।



प्रश्न 08: अकबर की धार्मिक नीति की विवेचना कीजिये।

👑 अकबर की धार्मिक नीति: एक परिचय

अकबर भारतीय इतिहास के उन महान सम्राटों में से एक हैं जिन्होंने शासन के साथ-साथ धर्म, समाज, संस्कृति और मानवता के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व सुधार किए। 1556 से 1605 तक के अपने शासनकाल में उन्होंने ऐसी धार्मिक नीति अपनाई जिसका मुख्य उद्देश्य था—साम्प्रदायिक सौहार्द, धार्मिक सहिष्णुता, लोक-कल्याण और मुगल साम्राज्य की एकता

अकबर ने केवल राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक दृष्टि से भी धर्म को एकजुट करने का प्रयास किया। उनकी नीति का आधार “सुलह-ए-कुल” अर्थात् सबके साथ शांति था।

उनकी धार्मिक नीति का विकास धीरे-धीरे हुआ। प्रारंभिक काल में वे रूढ़िवादी इस्लाम से प्रभावित थे, परंतु बाद के वर्षों में उन्होंने उदार और मानवीय दृष्टिकोण अपनाया।


⭐ 1. धार्मिक नीति के विकास के चरण

🔹 प्रारंभिक काल (1556–1575): पारंपरिक इस्लामी नीति

अकबर के शासन के शुरुआती वर्षों में—

  • वे इस्लामी विद्वानों और उलेमा से प्रभावित थे।

  • इस्लामी कानून (शरिया) का पालन किया जाता था।

  • जज़िया और तीर्थाटन कर यथावत् थे।

इस समय तक अखंड भारत की अवधारणा या बहुसांस्कृतिक नीति पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुई थी।


🔹 मध्य काल (1575–1580): सहिष्णुता और सुधार का आरंभ

इस समय अकबर की सोच व्यापक होने लगी।
उन्होंने महसूस किया कि भारत जैसा बहुधार्मिक देश केवल उदार नीति से ही स्थिर रह सकता है।

✨ सुधार

  • 1564: जज़िया कर समाप्त

  • 1563: तीर्थाटन कर समाप्त

  • राजपूतों से मैत्री संबंध

  • अन्य धर्मों के विचारों के प्रति जिज्ञासा


🔹 उत्तरकाल (1580–1605): सार्वभौमिक धर्म और सुलह-ए-कुल

अकबर की धार्मिक नीति का सबसे महत्वपूर्ण और परिपक्व चरण यही था।

✨ विशेषताएँ

  • सुलह-ए-कुल” का सिद्धांत

  • इबादतखाना की स्थापना

  • दार्शनिक और धार्मिक चर्चा

  • दीन-ए-इलाही” की स्थापना

इस दौर में अकबर की धार्मिक नीति मानवीय, नैतिक और सर्वधर्म समानता पर आधारित हो गई।


⭐ 2. अकबर के धार्मिक सुधारों का विस्तृत विश्लेषण

🕌 1. सुलह-ए-कुल की नीति

यह अकबर की सबसे महत्वपूर्ण नीति थी।

🔹 अर्थ

“सुलह-ए-कुल” का अर्थ है—
सभी के साथ समान व्यवहार, सभी मतों का सम्मान, और राज्य का धर्मनिरपेक्ष चरित्र

🔹 उद्देश्य

  • धार्मिक विवाद कम करना

  • हिंदू–मुस्लिम एकता बढ़ाना

  • साम्राज्य की राजनैतिक स्थिरता

  • जनता में विश्वास स्थापित करना

🔹 परिणाम

इस नीति ने अकबर को “भारतीय इतिहास का सर्वाधिक उदार शासक” बना दिया।


🕌 2. जज़िया और तीर्थ-कर का समाप्त होना

🔹 जज़िया कर

यह कर हिंदुओं से लिया जाता था और सामाजिक असमानता का प्रतीक था।

अकबर ने 1564 में इसे समाप्त कर दिया, जिससे—

  • हिंदुओं में अकबर के प्रति सम्मान बढ़ा

  • धार्मिक समानता का सिद्धांत मजबूत हुआ

🔹 तीर्थाटन कर

हिंदू तीर्थ यात्रियों पर लगने वाला यह कर भी समाप्त किया गया।

यह अकबर की निष्पक्षता का बड़ा कदम था।


🕌 3. राजपूत नीति

अकबर की धार्मिक सहिष्णुता उनकी राजपूत नीति में भी दिखाई देती है।

🔹 विशेषताएँ

  • राजपूतों से वैवाहिक संबंध

  • उनके राज्यों की स्वायत्तता बरकरार

  • उच्च पदों पर नियुक्ति (जैसे—मान सिंह)

🔹 महत्व

  • हिंदू–मुस्लिम एकता

  • राजनीतिक स्थिरता

  • सैन्य शक्ति में वृद्धि


🕌 4. इबादतखाना की स्थापना (1575)

अकबर ने फतेहपुर सीकरी में “इबादतखाना” नामक सभा की स्थापना की।

🔹 उद्देश्य

  • धर्मशास्त्रियों, विद्वानों और साधुओं के बीच संवाद

  • विभिन्न धर्मों के सिद्धांतों को समझना

🔹 शामिल धर्म

  • हिंदू

  • मुस्लिम

  • जैन

  • ईसाई

  • बौद्ध

  • पारसी

  • नास्तिक और तत्त्वज्ञ

🔹 परिणाम

अकबर का दृष्टिकोण बहुत उदार और तार्किक हुआ।
उन्होंने केवल धर्मशास्त्र नहीं, बल्कि दर्शन, नैतिकता और मानवता को आधार बनाया।


🕌 5. महज़बी औरतों का प्रभाव कम करना

मुगल दरबार में उलेमा और कट्टरपंथी अक्सर राजनीतिक निर्णयों को प्रभावित करते थे।
अकबर ने—

  • शाही फरमानों में “महरूमी” कम की

  • मुस्लिम उलेमा के दखल को सीमित किया

इससे धर्म और राजनीति अलग-अलग क्षेत्रों में नियंत्रित हुए।


🕌 6. दीन-ए-इलाही की स्थापना (1582)

यह अकबर की धार्मिक नीति का सबसे विवादित लेकिन महत्वपूर्ण कदम था।

🔹 दीन-ए-इलाही क्या था?

  • यह एक नया धर्म नहीं था।

  • यह विभिन्न धर्मों के श्रेष्ठ तत्वों का संगम था—

    • हिंदू धर्म

    • इस्लाम

    • जैन

    • ईसाई

    • सूफीवाद

    • दर्शन

🔹 मुख्य सिद्धांत

  • ईश्वर की एकता

  • अहिंसा

  • परोपकार

  • नैतिकता

  • सहिष्णुता

  • मानवता

🔹 अनुयायी

इसके अनुयायी बहुत कम थे—जैसे अबुल फ़ज़ल, बीरबल आदि।
इसलिए यह जनाधार वाला धर्म नहीं बन सका।


⭐ 3. अकबर की धार्मिक नीति का मूल्यांकन

🌟 1. सकारात्मक प्रभाव (गुण)

🌟 धार्मिक सहिष्णुता

अकबर के शासनकाल में हिंदू, मुस्लिम, सिख, जैन आदि सभी धर्मों को बराबर सम्मान मिला।

🌟 भारतीय एकता को मजबूती

अकबर ने धार्मिक सीमाओं को तोड़कर भारतीय साम्राज्य को एक सूत्र में पिरोया।

🌟 सामाजिक सद्भाव

धर्मों के बीच सद्भाव बढ़ा और हिंसा कम हुई।

🌟 राजनीतिक स्थिरता

विविध जनसंख्या वाला साम्राज्य अधिक स्थिर हुआ।

🌟 कला और संस्कृति का विकास

  • साहित्य

  • चित्रकला

  • संगीत

  • स्थापत्य

सभी क्षेत्रों में गंगा–जमुनी संस्कृति का विकास हुआ।


⚠️ 2. आलोचनाएँ (दोष)

⚠️ दीन-ए-इलाही का सीमित प्रभाव

यह व्यापक जनधर्म नहीं बन सका।
यह केवल उच्चवर्ग तक सीमित रहा।

⚠️ उलेमा का विरोध

कई मुस्लिम विद्वान इसे इस्लाम के विरुद्ध मानते थे।

⚠️ व्यक्तिगत प्रयोग

कुछ इतिहासकार इसे अकबर की व्यक्तिगत आध्यात्मिक यात्रा मानते हैं, न कि राज्य-स्तरीय नीति।


🧭 निष्कर्ष

अकबर की धार्मिक नीति भारतीय इतिहास की महानतम उदार नीतियों में से एक है।
उनकी नीति सुलह-ए-कुल, जज़िया समाप्ति, राजपूत नीति, इबादतखाना की स्थापना और दीन-ए-इलाही जैसे कदमों पर आधारित थी।
इन सुधारों ने मुगल साम्राज्य को स्थिर, विस्तृत और जनोन्मुखी बनाया।

अकबर का दृष्टिकोण केवल सत्ता बनाए रखने का साधन नहीं था, बल्कि यह मानवता, सहिष्णुता, तार्किकता और सद्भाव पर आधारित था।
इस कारण वे भारतीय इतिहास में “महान” (Akbar the Great) की उपाधि से सम्मानित किए जाते हैं।



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