BAEC(N)220 IMPORTANT SOLVED QUESTIONS
प्रश्न 01 सतत् विकास क्या है? सतत् विकास के इतिहास को विस्तारपूर्वक समझाइए।
सतत् विकास का अर्थ
सतत् विकास (Sustainable Development) एक ऐसी विकास प्रक्रिया है, जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं से समझौता नहीं करती। इसका उद्देश्य आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना है ताकि प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग किया जा सके और पारिस्थितिकी तंत्र सुरक्षित रहे।
सतत् विकास के मुख्य घटक
आर्थिक विकास - संसाधनों का संतुलित उपयोग कर आर्थिक वृद्धि को बनाए रखना।
सामाजिक समावेशन - समाज के सभी वर्गों को समान अवसर देना और उनकी जीवन गुणवत्ता सुधारना।
पर्यावरण संरक्षण - प्राकृतिक संसाधनों का अति-उपयोग न कर उन्हें भविष्य के लिए सुरक्षित रखना।
सतत् विकास का इतिहास
सतत् विकास की अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हुई है और इसे विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और रिपोर्टों में स्पष्ट किया गया है।
औद्योगिक क्रांति और पर्यावरणीय समस्याएँ
18वीं और 19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के कारण तीव्र आर्थिक विकास हुआ, लेकिन इससे वायु, जल और भूमि प्रदूषण जैसी समस्याएँ उत्पन्न हुईं।
प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण पारिस्थितिक असंतुलन बढ़ा, जिससे सतत् विकास की आवश्यकता महसूस की गई।
स्टॉकहोम सम्मेलन (1972)
संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित यह पहला अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन था, जिसमें पर्यावरणीय चुनौतियों पर चर्चा हुई।
इसमें "पर्यावरण और विकास" को आपस में जोड़ने की अवधारणा पर बल दिया गया।
ब्रंटलैंड रिपोर्ट (1987)
इसे "हमारा साझा भविष्य" (Our Common Future) नामक रिपोर्ट के रूप में प्रकाशित किया गया।
इसमें पहली बार "सतत् विकास" शब्द का प्रयोग किया गया और इसे स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया।
पृथ्वी सम्मेलन (1992)
ब्राज़ील के रियो डी जनेरियो में आयोजित इस सम्मेलन में "एजेंडा 21" नामक कार्ययोजना प्रस्तुत की गई।
इसमें टिकाऊ विकास के लिए वैश्विक रणनीतियों पर सहमति बनी।
क्योटो प्रोटोकॉल (1997)
इसमें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौता किया गया।
सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) की घोषणा (2015)
संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक प्राप्त करने योग्य 17 सतत् विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals - SDGs) निर्धारित किए।
इनमें जलवायु परिवर्तन, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा, लैंगिक समानता और सतत् ऊर्जा जैसे मुद्दे शामिल हैं।
निष्कर्ष
सतत् विकास एक व्यापक अवधारणा है, जिसका उद्देश्य पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन बनाए रखना है। यह न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के हितों की भी रक्षा करता है। आधुनिक वैश्विक चुनौतियों को देखते हुए सतत् विकास की आवश्यकता और इसकी प्रभावी नीति-निर्माण में भूमिका निरंतर बढ़ रही है।
प्रश्न 02 सहस्त्राब्दी से आप क्या समझते हैं? सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की व्याख्या कीजिए।
सहस्त्राब्दी का अर्थ
सहस्त्राब्दी (Millennium) एक कालखंड होता है, जो एक हजार वर्षों की अवधि को दर्शाता है। सामान्यतः, इसे किसी विशेष ऐतिहासिक, सामाजिक या वैज्ञानिक संदर्भ में उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, 2000 ईस्वी को तीसरी सहस्त्राब्दी की शुरुआत माना जाता है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा सहस्त्राब्दी शब्द का प्रयोग सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों (Millennium Development Goals - MDGs) के संदर्भ में किया गया, जो वैश्विक विकास के लिए 21वीं सदी की शुरुआत में निर्धारित किए गए लक्ष्य थे।
सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की व्याख्या
संयुक्त राष्ट्र ने सितंबर 2000 में आयोजित सहस्त्राब्दी शिखर सम्मेलन (Millennium Summit) में 189 सदस्य देशों की सहमति से आठ प्रमुख विकास लक्ष्यों को अपनाया। इन लक्ष्यों को सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य (MDGs) कहा जाता है, जिनका उद्देश्य वर्ष 2015 तक वैश्विक गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, लैंगिक असमानता और स्वास्थ्य समस्याओं को दूर करना था।
सहस्त्राब्दी विकास के आठ लक्ष्य (MDGs)
चरम गरीबी और भुखमरी समाप्त करना
दुनिया में अत्यधिक गरीबी (1.25 डॉलर प्रतिदिन से कम पर जीवनयापन) को आधा करना।
भुखमरी और कुपोषण को कम करना।
सर्वजन के लिए प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित करना
सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्रदान करना।
लैंगिक समानता और महिलाओं का सशक्तिकरण
शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना।
बाल मृत्यु दर को कम करना
पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर को दो-तिहाई तक घटाना।
गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार
मातृ मृत्यु दर को तीन-चौथाई तक कम करना।
सुरक्षित प्रसव और प्रसूति संबंधी स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा देना।
एचआईवी/एड्स, मलेरिया और अन्य बीमारियों से लड़ना
एड्स, मलेरिया और तपेदिक जैसी घातक बीमारियों के प्रसार को रोकना और उनका इलाज उपलब्ध कराना।
पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करना
वन कटाव को कम करना और सतत् विकास को बढ़ावा देना।
स्वच्छ पेयजल और शौचालय की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
वैश्विक साझेदारी को बढ़ावा देना
विकासशील और विकसित देशों के बीच व्यापार और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को बढ़ाना।
निर्धन देशों के ऋण बोझ को कम करना और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना।
सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की उपलब्धियाँ और चुनौतियाँ
उपलब्धियाँ:
वैश्विक गरीबी दर में कमी आई।
प्राथमिक शिक्षा में नामांकन बढ़ा, विशेष रूप से लड़कियों की भागीदारी।
मातृ और शिशु मृत्यु दर में कमी आई।
एचआईवी/एड्स और मलेरिया की रोकथाम के प्रयासों में सफलता मिली।
चुनौतियाँ:
कुछ देशों में गरीबी और भुखमरी अभी भी एक गंभीर समस्या बनी रही।
जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय क्षति की समस्याएँ बढ़ती गईं।
लैंगिक समानता को पूरी तरह से हासिल नहीं किया जा सका।
निष्कर्ष
सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य वैश्विक स्तर पर सामाजिक और आर्थिक विकास को तेज करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास था। 2015 में इसकी अवधि समाप्त होने के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals - SDGs) को अपनाया, जो 2030 तक और अधिक व्यापक उद्देश्यों को पूरा करने पर केंद्रित हैं। MDGs ने वैश्विक विकास नीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भविष्य की योजनाओं के लिए एक ठोस आधार तैयार किया।
प्रश्न 03 सतत् विकास और सहस्त्राब्दी विकास के बीच क्या अंतर है ?
सतत् विकास और सहस्त्राब्दी विकास दोनों ही वैश्विक विकास से संबंधित अवधारणाएँ हैं, लेकिन इनके उद्देश्य, कार्यक्षेत्र और समयसीमा में महत्वपूर्ण अंतर है।
सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य (MDGs) 2000 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धनता उन्मूलन, शिक्षा, स्वास्थ्य और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए निर्धारित किए गए थे। इनमें मुख्य रूप से आठ लक्ष्य थे, जिनका उद्देश्य 2015 तक विकासशील देशों की बुनियादी समस्याओं का समाधान करना था। ये लक्ष्य विशेष रूप से सामाजिक और आर्थिक विकास पर केंद्रित थे।
इसके विपरीत, सतत् विकास लक्ष्य (SDGs) 2015 में सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की समाप्ति के बाद संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित किए गए, जिनका उद्देश्य 2030 तक एक संतुलित और समावेशी विकास प्राप्त करना है। सतत् विकास केवल आर्थिक और सामाजिक सुधार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पर्यावरणीय स्थिरता और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों को भी शामिल करता है। इसमें कुल 17 लक्ष्य और 169 उपलक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, जो विकास के अधिक समावेशी और व्यापक दृष्टिकोण को अपनाते हैं।
एक अन्य महत्वपूर्ण अंतर यह है कि सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य मुख्य रूप से विकासशील देशों पर केंद्रित थे, जबकि सतत् विकास लक्ष्य सभी देशों—विकसित और विकासशील दोनों—के लिए समान रूप से लागू होते हैं। SDGs का मुख्य उद्देश्य वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए संसाधनों का संतुलित उपयोग सुनिश्चित करना है, जबकि MDGs अधिक तात्कालिक और बुनियादी आवश्यकताओं पर केंद्रित थे।
इस प्रकार, सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य अल्पकालिक और विशिष्ट समस्याओं के समाधान पर केंद्रित थे, जबकि सतत् विकास लक्ष्य दीर्घकालिक, समावेशी और पर्यावरण-अनुकूल विकास को प्रोत्साहित करते हैं।
प्रश्न 04 सतत् विकास के दृष्टिकोण की सीमाएं क्या हैं? और ये किस प्रकार सतत् विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं?
सतत् विकास का लक्ष्य सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना है, लेकिन इसकी प्राप्ति में कई व्यावहारिक और संरचनात्मक सीमाएँ हैं। ये सीमाएँ सतत् विकास की प्रक्रिया को धीमा कर सकती हैं और इसके प्रभावी क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।
सतत् विकास के दृष्टिकोण की प्रमुख सीमाएँ
आर्थिक बाधाएँ
सतत् विकास के लिए आवश्यक तकनीकों और नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों को अपनाने के लिए उच्च वित्तीय निवेश की आवश्यकता होती है।
कई विकासशील देशों के पास पर्याप्त आर्थिक संसाधन नहीं होते, जिससे सतत् विकास की नीतियाँ प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पातीं।
औद्योगीकरण और विकास की प्राथमिकताएँ
कई देशों में आर्थिक विकास की प्राथमिकता पर्यावरण संरक्षण से अधिक होती है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन होता है।
पारंपरिक औद्योगिक प्रक्रियाओं में बदलाव लाने के लिए कंपनियों और सरकारों में इच्छाशक्ति की कमी देखी जाती है।
जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय चुनौतियाँ
ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन, जैव विविधता में गिरावट और जलवायु परिवर्तन सतत् विकास के प्रयासों को चुनौती देते हैं।
कई देशों में पर्यावरण संरक्षण को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए आवश्यक नियम-कानूनों का अभाव है।
तकनीकी सीमाएँ
सतत् विकास के लिए नई और स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों की आवश्यकता होती है, लेकिन ये तकनीकें अभी भी कई देशों में सुलभ और सस्ती नहीं हैं।
सतत् कृषि और हरित निर्माण तकनीकों को अपनाने के लिए पर्याप्त शोध और विकास की आवश्यकता होती है।
सामाजिक और सांस्कृतिक अवरोध
सतत् विकास को अपनाने में समाज की जागरूकता और शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन कई स्थानों पर जागरूकता का अभाव देखा जाता है।
परंपरागत जीवनशैली और उपभोग की आदतें सतत् विकास की नीतियों के अनुकूल नहीं होतीं, जिससे इनका कार्यान्वयन कठिन हो जाता है।
राजनीतिक और प्रशासनिक चुनौतियाँ
सतत् विकास के लिए वैश्विक सहयोग आवश्यक है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीतियों के समन्वय में कठिनाई होती है।
कई सरकारें अल्पकालिक लाभों को प्राथमिकता देती हैं, जिससे सतत् विकास के दीर्घकालिक लक्ष्यों की अनदेखी होती है।
ये सीमाएँ सतत् विकास की प्रक्रिया को कैसे प्रभावित करती हैं?
नीतियों के क्रियान्वयन में बाधा – सरकारों और निजी क्षेत्र के बीच समन्वय की कमी के कारण सतत् विकास की नीतियाँ प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पातीं।
विकास और पर्यावरण के बीच असंतुलन – आर्थिक विकास को तेज़ी से बढ़ाने के प्रयासों में कई बार पर्यावरणीय संतुलन की अनदेखी की जाती है।
लंबी अवधि के लाभों की उपेक्षा – अल्पकालिक आर्थिक लाभ और औद्योगिक विकास के कारण सतत् विकास के दीर्घकालिक लाभों की अनदेखी होती है।
विकासशील और विकसित देशों के बीच असमानता – सतत् विकास के लिए आवश्यक संसाधन और प्रौद्योगिकियाँ विकसित देशों के पास अधिक उपलब्ध होती हैं, जबकि विकासशील देश इनसे वंचित रहते हैं।
निष्कर्ष
सतत् विकास एक आदर्श अवधारणा है, लेकिन इसकी प्राप्ति में कई व्यावहारिक चुनौतियाँ हैं। आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और राजनीतिक सीमाओं के कारण इसकी गति धीमी हो सकती है। इन सीमाओं को दूर करने के लिए वैश्विक सहयोग, नीतिगत सुधार, तकनीकी नवाचार और सामाजिक जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है, ताकि सतत् विकास के लक्ष्यों को प्रभावी रूप से प्राप्त किया जा सके।
प्रश्न 05 पर्वतीय क्षेत्रों में विकास किस प्रकार किया जाता है , समझाइए।
पर्वतीय क्षेत्रों में विकास एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि यहाँ भौगोलिक, पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियाँ होती हैं। इन क्षेत्रों में टिकाऊ और समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिए विशेष रणनीतियों की आवश्यकता होती है, जो प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, आजीविका के अवसरों की वृद्धि और बुनियादी सुविधाओं के विस्तार पर केंद्रित हो।
पर्वतीय क्षेत्रों में विकास के प्रमुख पहलू
सतत् कृषि और बागवानी
पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि भूमि सीमित होती है, इसलिए कृषि के सतत् और एकीकृत मॉडल अपनाए जाते हैं।
सीढ़ीदार खेती (Terrace Farming) का उपयोग मृदा अपरदन को रोकने के लिए किया जाता है।
जैविक खेती और नकदी फसलें (जैसे सेब, चाय, मसाले) प्रमुखता से उगाई जाती हैं।
कृषि के साथ पशुपालन और मत्स्य पालन को भी प्रोत्साहित किया जाता है।
पर्यटन और पारिस्थितिकी पर्यटन (Ecotourism)
पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि होती है।
इकोटूरिज्म को बढ़ावा देकर स्थानीय लोगों को आजीविका के अवसर प्रदान किए जाते हैं।
संस्कृतिक पर्यटन और एडवेंचर पर्यटन (ट्रैकिंग, स्कीइंग, पर्वतारोहण) को प्रोत्साहित किया जाता है।
सड़क और परिवहन सुविधाओं का विकास
दुर्गम इलाकों में सड़कों, पुलों और सुरंगों का निर्माण किया जाता है।
रोपवे और केबल कार जैसी वैकल्पिक परिवहन सुविधाएँ विकसित की जाती हैं।
हवाई संपर्क और रेल नेटवर्क के विस्तार पर ध्यान दिया जाता है।
ऊर्जा संसाधनों का उपयोग
पर्वतीय क्षेत्रों में जल विद्युत उत्पादन की अपार संभावनाएँ होती हैं।
सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा को भी बढ़ावा दिया जाता है।
छोटे और मध्यम स्तर के हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट स्थानीय ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक होते हैं।
वन संरक्षण और जल संसाधनों का प्रबंधन
पर्वतीय क्षेत्रों में वन कटाई को नियंत्रित करने और संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करने के लिए विशेष प्रयास किए जाते हैं।
झीलों, जलस्रोतों और नदियों के संरक्षण पर बल दिया जाता है।
जल संचयन और वर्षा जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जाता है।
शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार
दुर्गम क्षेत्रों में मोबाइल स्वास्थ्य सेवाओं और टेलीमेडिसिन जैसी सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं।
छोटे और दूरदराज़ के गाँवों में प्राथमिक विद्यालयों और डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा दिया जाता है।
स्थानीय स्तर पर महिला सशक्तिकरण और स्वरोज़गार को प्रोत्साहित किया जाता है।
स्थानीय उद्योग और हस्तशिल्प को बढ़ावा
पारंपरिक कुटीर उद्योगों, जैसे ऊन उद्योग, लकड़ी की नक्काशी, हस्तशिल्प आदि को बढ़ावा दिया जाता है।
स्थानीय उत्पादों के विपणन और निर्यात की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं।
चुनौतियाँ और समाधान
भूस्खलन और प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए विशेष योजनाएँ बनाई जाती हैं।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए वृक्षारोपण और स्थायी कृषि को अपनाया जाता है।
आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करके पर्वतीय क्षेत्रों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार किया जाता है।
निष्कर्ष
पर्वतीय क्षेत्रों का विकास तभी संभव है जब यह पर्यावरण-संतुलित, आर्थिक रूप से लाभदायक और सामाजिक रूप से समावेशी हो। सतत् विकास की नीतियों को अपनाकर इन क्षेत्रों में जीवन स्तर को बेहतर बनाया जा सकता है।
प्रश्न 06 पर्वतीय क्षेत्रों में विकास में आने वाली चुनौतियां और उनके समाधान बताइए।
पर्वतीय क्षेत्रों का विकास एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियाँ, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाएँ विकास कार्यों में बाधा उत्पन्न करती हैं। इन चुनौतियों को दूर करने के लिए सतत् विकास की नीतियाँ अपनाना आवश्यक है।
पर्वतीय क्षेत्रों में विकास की प्रमुख चुनौतियाँ
दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियाँ
पर्वतीय क्षेत्रों में उबड़-खाबड़ भूभाग और ऊँचाई के कारण बुनियादी ढाँचे का विकास कठिन होता है।
सड़क निर्माण, संचार और परिवहन व्यवस्था सीमित होती है।
प्राकृतिक आपदाओं का खतरा
भूस्खलन, बाढ़, हिमस्खलन और भूकंप जैसी आपदाएँ यहाँ सामान्य हैं, जो बस्तियों और विकास परियोजनाओं को प्रभावित करती हैं।
जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय समस्याएँ
पर्वतीय क्षेत्रों में ग्लेशियरों के पिघलने, वन क्षरण और जैव विविधता की हानि जैसी समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं।
असंतुलित विकास और अंधाधुंध पर्यटन से पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँच रहा है।
कृषि और जल संसाधनों की सीमित उपलब्धता
कृषि योग्य भूमि बहुत कम होती है और जल संसाधन हर क्षेत्र में समान रूप से उपलब्ध नहीं होते।
पारंपरिक कृषि प्रणाली जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित हो रही है।
आर्थिक अवसरों की कमी
पर्वतीय क्षेत्रों में रोज़गार के सीमित अवसर होते हैं, जिससे लोग पलायन करने को मजबूर होते हैं।
स्थानीय उद्योग और हस्तशिल्प का विकास धीमा होता है।
स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं की कमी
कई दुर्गम इलाकों में अस्पताल, डॉक्टर और दवाइयों की कमी होती है।
उच्च शिक्षा के अच्छे संस्थान न होने के कारण युवा पढ़ाई के लिए शहरों में पलायन करते हैं।
अत्यधिक पर्यटन और असंतुलित विकास
पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन का अत्यधिक बोझ पर्यावरण और बुनियादी ढाँचे पर दबाव डालता है।
प्लास्टिक कचरा, जल प्रदूषण और वन्यजीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
चुनौतियों के समाधान
सुदृढ़ बुनियादी ढाँचे का विकास
रोपवे, सुरंगों और ऑल वेदर सड़कों का निर्माण किया जाए।
संचार और इंटरनेट सुविधाओं में सुधार किया जाए।
आपदा प्रबंधन और पूर्व चेतावनी प्रणाली
भूस्खलन और भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में मजबूत निर्माण तकनीकों का उपयोग किया जाए।
पूर्व चेतावनी प्रणाली और आपदा प्रबंधन टीमों को सक्रिय किया जाए।
पर्यावरण संरक्षण और जलवायु अनुकूलन रणनीतियाँ
वृक्षारोपण, जल संचयन और पारंपरिक जल स्रोतों का संरक्षण किया जाए।
इको-फ्रेंडली पर्यटन को बढ़ावा दिया जाए।
सतत् कृषि और जल संसाधन प्रबंधन
सीढ़ीदार खेती, ड्रिप सिंचाई और मिश्रित कृषि को अपनाया जाए।
जल स्रोतों को बचाने और जल संरक्षण तकनीकों को अपनाने पर जोर दिया जाए।
रोज़गार के नए अवसरों का सृजन
स्थानीय हस्तशिल्प, जैविक उत्पाद और इको-टूरिज्म को बढ़ावा दिया जाए।
कुटीर उद्योग, दुग्ध उत्पादन और मधुमक्खी पालन जैसी गतिविधियाँ विकसित की जाएँ।
स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं में सुधार
टेलीमेडिसिन, मोबाइल हेल्थ क्लीनिक और ई-लर्निंग को बढ़ावा दिया जाए।
सरकारी योजनाओं के तहत स्वास्थ्य केंद्रों और स्कूलों की संख्या बढ़ाई जाए।
जिम्मेदार पर्यटन और सतत् विकास नीति
पर्यटन स्थलों पर कचरा प्रबंधन और जैविक अपशिष्ट निस्तारण की प्रभावी व्यवस्था हो।
स्थानीय समुदायों की भागीदारी से पर्यटन को पर्यावरण-अनुकूल बनाया जाए।
निष्कर्ष
पर्वतीय क्षेत्रों में विकास की चुनौतियों से निपटने के लिए दीर्घकालिक और सतत् विकास की योजनाएँ आवश्यक हैं। संतुलित बुनियादी ढाँचे, पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय आजीविका के विकास पर ध्यान देकर इन क्षेत्रों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।
प्रश्न 07 सतत् विकास से संबंधित पेरिस समझौता क्या है , समझाइए।
पेरिस समझौता और सतत् विकास
पेरिस समझौता (Paris Agreement) जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किया गया एक ऐतिहासिक वैश्विक समझौता है, जिसे 12 दिसंबर 2015 को संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP 21) के दौरान अपनाया गया था। यह समझौता जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने, वैश्विक तापमान वृद्धि को सीमित करने और सतत् विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लागू किया गया।
पेरिस समझौते के प्रमुख उद्देश्य
वैश्विक तापमान वृद्धि को सीमित करना
इस समझौते का मुख्य लक्ष्य औद्योगिक क्रांति से पहले की तुलना में वैश्विक तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे और आदर्श रूप से 1.5°C तक सीमित रखना है।
इससे जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों, जैसे समुद्र स्तर में वृद्धि, ग्लेशियरों के पिघलने और चरम मौसमी घटनाओं को कम किया जा सकता है।
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी
देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन को धीरे-धीरे कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध किया गया।
हर देश को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs - Nationally Determined Contributions) तैयार करने और इसे हर पाँच साल में संशोधित करने की शर्त दी गई।
विकसित और विकासशील देशों के बीच सहयोग
विकसित देशों को विकासशील देशों को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करने का वादा किया गया ताकि वे सतत् विकास की दिशा में आगे बढ़ सकें।
वर्ष 2020 से विकसित देशों को हर वर्ष 100 बिलियन डॉलर का कोष जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए देना था।
स्थायी विकास और जलवायु अनुकूलन
देशों को स्थायी कृषि, जल संसाधन प्रबंधन, वन संरक्षण और स्वच्छ ऊर्जा को अपनाने के लिए प्रेरित किया गया।
जलवायु परिवर्तन से प्रभावित समुदायों को संरक्षण और पुनर्वास के लिए सहायता देने का प्रावधान किया गया।
पेरिस समझौते का सतत् विकास से संबंध
पेरिस समझौता सतत् विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने पर बल देता है। इसके अंतर्गत—
पर्यावरण संरक्षण: कार्बन उत्सर्जन में कमी से प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित रखने में मदद मिलती है।
नवीकरणीय ऊर्जा का विकास: यह समझौता सौर, पवन और जल विद्युत जैसी हरित ऊर्जा को अपनाने पर बल देता है।
स्वच्छ पानी और खाद्य सुरक्षा: जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करके जल स्रोतों और कृषि प्रणाली को सुरक्षित बनाया जाता है।
आर्थिक और सामाजिक समानता: गरीब और विकासशील देशों को वित्तीय सहायता देकर उन्हें सतत् विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाया जाता है।
निष्कर्ष
पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने और सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वपूर्ण वैश्विक पहल है। यदि सभी देश अपने वादों को पूरा करें, तो पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखा जा सकता है और भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित और स्वस्थ ग्रह सुनिश्चित किया जा सकता है।
प्रश्न 08 पर्वतीय क्षेत्रों में गरीबी उन्मूलन की योजना की विस्तार से व्याख्या कीजिए।
पर्वतीय क्षेत्रों में गरीबी उन्मूलन की योजना
पर्वतीय क्षेत्रों में गरीबी एक गंभीर समस्या है, जिसका मुख्य कारण कठिन भौगोलिक परिस्थितियाँ, सीमित संसाधन, कम कृषि उत्पादकता, रोजगार के अवसरों की कमी और जलवायु परिवर्तन है। गरीबी उन्मूलन के लिए सरकार और विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने कई योजनाएँ और नीतियाँ बनाई हैं, जो सतत् विकास के सिद्धांतों पर आधारित हैं।
पर्वतीय क्षेत्रों में गरीबी के कारण
भौगोलिक कठिनाइयाँ – पर्वतीय क्षेत्रों में संचार, परिवहन और बुनियादी ढाँचे का विकास कठिन होता है।
कृषि उत्पादकता में कमी – जलवायु परिवर्तन और भूमि की सीमित उपलब्धता के कारण कृषि उत्पादन कम होता है।
रोजगार के अवसरों की कमी – उद्योग और सेवा क्षेत्र का विकास धीमा होने से आजीविका के सीमित साधन उपलब्ध होते हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी – अच्छी शिक्षा और चिकित्सा सुविधाएँ न होने के कारण मानव विकास सूचकांक कम रहता है।
प्राकृतिक आपदाओं का खतरा – भूस्खलन, बाढ़, और हिमस्खलन से जीवन और अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।
गरीबी उन्मूलन की योजनाएँ और रणनीतियाँ
सामुदायिक आधारित विकास योजना
स्वरोजगार और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर स्थानीय स्तर पर आर्थिक गतिविधियों का विकास किया जाता है।
महिला स्वयं सहायता समूहों (SHGs) का गठन कर उन्हें वित्तीय सहायता दी जाती है।
कृषि और बागवानी को बढ़ावा देना
सीढ़ीदार खेती और जैविक कृषि को अपनाने से कृषि उत्पादकता बढ़ाई जाती है।
उच्च मूल्य वाले फसलों जैसे सेब, चाय, केसर और औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा दिया जाता है।
मृदा एवं जल संरक्षण परियोजनाओं के माध्यम से भूमि की उर्वरता बनाए रखने की योजना बनाई जाती है।
पर्यटन और इको-टूरिज्म को बढ़ावा देना
स्थानीय समुदायों को पर्यटन से जोड़कर उनकी आय के साधन विकसित किए जाते हैं।
होमस्टे योजनाएँ और सांस्कृतिक पर्यटन को बढ़ावा दिया जाता है।
पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखते हुए सतत् पर्यटन (Sustainable Tourism) की नीति अपनाई जाती है।
उद्योग एवं हस्तशिल्प का विकास
पर्वतीय क्षेत्रों में हस्तशिल्प, ऊनी वस्त्र, लकड़ी के शिल्प और स्थानीय उत्पादों को बाज़ार से जोड़ा जाता है।
स्थानीय उत्पादों को ब्रांडिंग और ऑनलाइन मार्केटिंग के माध्यम से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में पहुँचाया जाता है।
सड़क, बिजली और डिजिटल कनेक्टिविटी का विकास
दुर्गम क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण और ऑल वेदर रोड परियोजनाओं को तेज़ किया जाता है।
इंटरनेट और मोबाइल नेटवर्क के विस्तार से डिजिटल इंडिया अभियान को ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँचाया जाता है।
शिक्षा और कौशल विकास कार्यक्रम
वर्चुअल क्लासरूम और डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा देकर युवाओं को तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है।
प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (PMKVY) के तहत युवाओं को आधुनिक तकनीकों में प्रशिक्षित किया जाता है।
स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार
मोबाइल मेडिकल यूनिट्स और टेलीमेडिसिन सेवाएँ शुरू की जाती हैं ताकि ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों तक स्वास्थ्य सेवाएँ पहुँच सकें।
आयुष्मान भारत योजना के तहत गरीब परिवारों को मुफ्त चिकित्सा सुविधाएँ दी जाती हैं।
वित्तीय समावेशन और महिलाओं का सशक्तिकरण
जन धन योजना, मुद्रा योजना जैसी वित्तीय योजनाओं के तहत ग्रामीण लोगों को बैंकिंग और लघु ऋण सुविधाएँ दी जाती हैं।
महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों (SHGs) के माध्यम से वित्तीय रूप से स्वतंत्र बनाया जाता है।
सरकारी योजनाएँ जो पर्वतीय क्षेत्रों में गरीबी उन्मूलन में सहायक हैं
राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (NRLM) – ग्रामीण गरीबों को स्वरोजगार और कौशल प्रशिक्षण प्रदान करता है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGA) – ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर प्रदान करता है।
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (PMGSY) – दुर्गम क्षेत्रों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सड़कों का निर्माण करता है।
राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) – जैविक कृषि और आधुनिक खेती के तरीकों को बढ़ावा देता है।
प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना – गरीब परिवारों को मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन उपलब्ध कराता है।
निष्कर्ष
पर्वतीय क्षेत्रों में गरीबी उन्मूलन के लिए संतुलित विकास, स्थानीय संसाधनों का उचित उपयोग, पर्यावरण-संरक्षण और सामुदायिक भागीदारी की आवश्यकता है। सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं और सतत् विकास रणनीतियों को प्रभावी रूप से लागू करके पर्वतीय समाज को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।
प्रश्न 09 भारतीय संविधान में पर्यावरण संरक्षण को लेकर किए गए प्रावधानों का विश्लेषण करते हुए यह बताएं कि ये प्रावधान पर्यावरणीय नियमन के दृष्टिकोण में कितने महत्वपूर्ण हैं?
पर्यावरण संरक्षण किसी भी राष्ट्र के सतत् विकास के लिए आवश्यक होता है। भारत में संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण को लेकर विशेष प्रावधान किए गए हैं। ये प्रावधान न केवल नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि सरकार को भी इस दिशा में कदम उठाने के लिए बाध्य करते हैं।
संविधान में पर्यावरण संरक्षण संबंधी प्रमुख प्रावधान
1. संविधान की प्रस्तावना और पर्यावरणीय उद्देश्य
संविधान की प्रस्तावना में भारत को "समाजवादी" और "कल्याणकारी राज्य" घोषित किया गया है, जो प्राकृतिक संसाधनों का न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि संसाधनों का सही उपयोग और पर्यावरण संरक्षण भारत की बुनियादी नीतियों का हिस्सा हैं।
2. मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties) – अनुच्छेद 51A(g)
42वें संविधान संशोधन (1976) के तहत, अनुच्छेद 51A(g) को जोड़ा गया, जिसके अनुसार—
"प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण, जिसमें वन, झील, नदियाँ और वन्यजीव शामिल हैं, की रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणियों के प्रति दयालुता का भाव रखे।"
यह अनुच्छेद नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति उत्तरदायी बनाता है।
3. राज्य के नीति निदेशक तत्व (DPSPs) और पर्यावरण संरक्षण
अनुच्छेद 48A:
42वें संशोधन के तहत जोड़ा गया यह अनुच्छेद राज्य को यह निर्देश देता है कि वह पर्यावरण की रक्षा और सुधार के लिए आवश्यक कदम उठाए।
इसके तहत वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा को सरकार की ज़िम्मेदारी बनाया गया है।
अनुच्छेद 39(b) और 39(c):
प्राकृतिक संसाधनों के समान वितरण पर ज़ोर देकर यह अनुच्छेद पर्यावरणीय न्याय सुनिश्चित करता है।
4. मौलिक अधिकार और पर्यावरण संरक्षण
अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार):
यह अनुच्छेद जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जिसे स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार से भी जोड़ा गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई निर्णयों में यह स्पष्ट किया है कि स्वस्थ पर्यावरण में जीने का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत नागरिकों का मौलिक अधिकार है।
सुबाष कुमार बनाम बिहार राज्य (1991): इस मामले में न्यायालय ने कहा कि प्रदूषण रहित वातावरण में जीने का अधिकार अनुच्छेद 21 का हिस्सा है।
5. केंद्र और राज्यों की शक्तियाँ (अनुच्छेद 246 और 253)
अनुच्छेद 246: यह केंद्र और राज्य सरकारों को पर्यावरणीय कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है।
अनुच्छेद 253: यह केंद्र सरकार को अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणीय समझौतों को लागू करने का अधिकार देता है। इसके तहत पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 लागू किया गया था।
महत्वपूर्ण पर्यावरणीय कानून जो संवैधानिक प्रावधानों से प्रेरित हैं
संविधान के इन प्रावधानों के आधार पर भारत में कई महत्वपूर्ण कानून बनाए गए हैं:
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 – पर्यावरण की सुरक्षा के लिए व्यापक कानूनी ढांचा।
जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 – जल स्रोतों को प्रदूषण से बचाने के लिए।
वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 – वायु गुणवत्ता बनाए रखने के लिए।
वन संरक्षण अधिनियम, 1980 – वनों के संरक्षण और वृक्षारोपण को बढ़ावा देने के लिए।
जैव विविधता अधिनियम, 2002 – जैव विविधता और पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने के लिए।
संविधान में पर्यावरणीय प्रावधानों की महत्ता
सतत् विकास को बढ़ावा: पर्यावरण संरक्षण के प्रावधानों से दीर्घकालिक विकास सुनिश्चित किया जाता है।
न्यायपालिका की सक्रियता: भारतीय न्यायपालिका पर्यावरणीय मामलों में सक्रिय भूमिका निभाते हुए विभिन्न निर्णय देती रही है।
सरकारी जवाबदेही: अनुच्छेद 48A के तहत सरकार को पर्यावरणीय नीतियाँ अपनाने के लिए बाध्य किया गया है।
नागरिकों की जिम्मेदारी: अनुच्छेद 51A(g) नागरिकों को पर्यावरण रक्षा के लिए प्रेरित करता है।
अंतरराष्ट्रीय दायित्वों की पूर्ति: भारत संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, पेरिस समझौता, और जैव विविधता संधि जैसी अंतरराष्ट्रीय संधियों को अपनाकर अपनी वैश्विक ज़िम्मेदारी निभाता है।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान में पर्यावरण संरक्षण के लिए स्पष्ट प्रावधान दिए गए हैं, जो न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को इस दिशा में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करते हैं। इन प्रावधानों के कारण भारत में कई सख्त पर्यावरणीय कानून लागू किए गए हैं, जो सतत् विकास और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में सहायक हैं। यदि इन संवैधानिक प्रावधानों को सही तरीके से लागू किया जाए, तो यह पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे।
प्रश्न 10 पर्यावरण संरक्षण नीति के अर्थ, घटक बताएं तथा पर्यावरण संरक्षण नीति की आवश्यकता और महत्व समझाइए।
पर्यावरण संरक्षण नीति: अर्थ, घटक, आवश्यकता और महत्व
पर्यावरण संरक्षण नीति का अर्थ
पर्यावरण संरक्षण नीति उन नियमों, योजनाओं और उपायों का समुच्चय है, जिनका उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों का सतत् उपयोग, जैव विविधता का संरक्षण और प्रदूषण को कम करना है। यह नीति सरकार, उद्योगों और नागरिकों को एक दिशा प्रदान करती है ताकि वे अपने कार्यों में पर्यावरण संतुलन बनाए रख सकें।
पर्यावरण संरक्षण नीति के घटक
प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण – जल, वायु, भूमि और जैव विविधता का संतुलित उपयोग सुनिश्चित करना।
प्रदूषण नियंत्रण – वायु, जल, ध्वनि और मृदा प्रदूषण को कम करने के लिए कठोर नियम लागू करना।
नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा – सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और जलविद्युत जैसी हरित ऊर्जा को प्रोत्साहित करना।
कचरा प्रबंधन और पुनर्चक्रण – अपशिष्ट पदार्थों को पुनः उपयोग और रिसाइक्लिंग करने के लिए उपाय लागू करना।
संविधान और कानूनी प्रावधानों का पालन – पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 और अन्य कानूनों के अनुसार नियमों को लागू करना।
जन जागरूकता और शिक्षा – पर्यावरणीय मुद्दों पर नागरिकों को शिक्षित करना और उन्हें जिम्मेदार बनाना।
अंतरराष्ट्रीय सहयोग और संधियाँ – पेरिस समझौता, जैव विविधता संधि आदि को लागू करना।
पर्यावरण संरक्षण नीति की आवश्यकता
प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र दोहन – वनों की कटाई, जल स्रोतों का अत्यधिक उपयोग और भूमि क्षरण बढ़ रहा है।
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग – ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है।
जैव विविधता का संकट – कई प्रजातियाँ विलुप्त होने की कगार पर हैं, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो रहा है।
स्वास्थ्य पर प्रभाव – वायु और जल प्रदूषण से लोगों को गंभीर बीमारियाँ हो रही हैं।
आर्थिक और सामाजिक संतुलन – प्राकृतिक आपदाएँ (बाढ़, सूखा) कृषि और अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा रही हैं।
संविधान और कानूनी बाध्यता – भारत के संविधान में अनुच्छेद 48A और 51A(g) पर्यावरण संरक्षण को आवश्यक बनाते हैं।
पर्यावरण संरक्षण नीति का महत्व
सतत् विकास को बढ़ावा – आर्थिक वृद्धि के साथ पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में सहायक।
प्राकृतिक आपदाओं की रोकथाम – जंगलों की सुरक्षा और जल संसाधनों के संरक्षण से सूखा और बाढ़ को रोका जा सकता है।
नवीकरणीय ऊर्जा का विकास – पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता कम कर हरित ऊर्जा को अपनाना।
वैश्विक दायित्वों की पूर्ति – संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संधियों का पालन।
सामाजिक और स्वास्थ्य लाभ – स्वच्छ पर्यावरण से लोगों की जीवन गुणवत्ता में सुधार।
निष्कर्ष
पर्यावरण संरक्षण नीति सतत् विकास और मानव कल्याण के लिए अत्यंत आवश्यक है। सही योजना, जनभागीदारी और कठोर नियमों के माध्यम से हम पर्यावरणीय संकटों को कम कर सकते हैं और एक संतुलित, स्वस्थ और समृद्ध भविष्य की ओर बढ़ सकते हैं।
प्रश्न 11 जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से पर्यावरण पर आने वाले संकटों का विश्लेषण कीजिए।
जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम और पर्यावरणीय संकटों का विश्लेषण
परिचय
जलवायु परिवर्तन वैश्विक स्तर पर उभरती एक गंभीर समस्या है, जो मुख्य रूप से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन, वनों की कटाई और औद्योगिक गतिविधियों के कारण उत्पन्न होती है। इसके परिणामस्वरूप धरती का तापमान बढ़ रहा है, जलवायु असंतुलित हो रही है, और विभिन्न पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हो रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम और पर्यावरणीय संकट
1. वैश्विक तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग)
पृथ्वी के औसत तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है, जिससे ध्रुवीय बर्फ तेजी से पिघल रही है।
गर्मी की लहरें (Heat Waves) अधिक तीव्र और लगातार हो रही हैं, जिससे कृषि, जल स्रोतों और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
2. समुद्र स्तर में वृद्धि और तटीय क्षेत्रों को खतरा
ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ की चादरें पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है।
तटीय क्षेत्रों में बाढ़ और तटों के कटाव की घटनाएँ बढ़ रही हैं, जिससे लाखों लोगों के विस्थापन का खतरा बढ़ गया है।
3. मौसम में अस्थिरता और प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि
चक्रवात, बवंडर और भारी वर्षा की घटनाएँ बढ़ रही हैं, जिससे जन-धन की हानि हो रही है।
सूखा और अकाल की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं, जिससे कृषि उत्पादन प्रभावित हो रहा है और खाद्य संकट गहरा रहा है।
4. पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को खतरा
जलवायु परिवर्तन के कारण कई प्रजातियाँ विलुप्त होने की कगार पर हैं।
प्रवाल भित्तियाँ (Coral Reefs) समुद्र के बढ़ते तापमान और अम्लीकरण (Ocean Acidification) के कारण क्षतिग्रस्त हो रही हैं।
वनों की कटाई और शुष्क क्षेत्रों के विस्तार से जीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं।
5. जल संकट और कृषि पर प्रभाव
ग्लेशियरों के पिघलने से मीठे पानी के स्रोत घट रहे हैं, जिससे जल संकट गहरा रहा है।
अनियमित वर्षा और अत्यधिक तापमान के कारण फसल उत्पादन प्रभावित हो रहा है, जिससे खाद्य सुरक्षा पर खतरा बढ़ रहा है।
मृदा क्षरण (Soil Degradation) और मरुस्थलीकरण (Desertification) की समस्या बढ़ रही है।
6. मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव
अत्यधिक तापमान और प्रदूषण के कारण श्वसन और हृदय रोगों के मामले बढ़ रहे हैं।
जलजनित और कीट-जनित रोगों (मलेरिया, डेंगू) का प्रसार बढ़ रहा है।
गर्मी की लहरों और प्राकृतिक आपदाओं के कारण लाखों लोगों की जान जा रही है।
7. आर्थिक और सामाजिक अस्थिरता
जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि, मत्स्य पालन और पर्यटन उद्योगों को नुकसान हो रहा है।
पर्यावरणीय संकटों के कारण लाखों लोग जलवायु शरणार्थी बनने को मजबूर हो रहे हैं।
संसाधनों की कमी के कारण संघर्ष और सामाजिक असमानता बढ़ रही है।
निष्कर्ष
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न पर्यावरणीय संकट न केवल पारिस्थितिकी तंत्र और मानव जीवन को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता भी उत्पन्न कर रहे हैं। इस समस्या से निपटने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग, वनों की रक्षा, कार्बन उत्सर्जन में कमी और टिकाऊ विकास नीतियों को अपनाना आवश्यक है। यदि समय रहते उचित कदम नहीं उठाए गए, तो भविष्य में यह संकट और अधिक विकराल हो सकता है।
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