VAC- 06 SOLVED PAPER JUNE 2024
01. पुरुष-प्रधान समाज के पक्ष और विपक्ष में अपने तर्क प्रस्तुत करें।
पुरुष-प्रधान समाज (पितृसत्ता) वह सामाजिक व्यवस्था है जिसमें पुरुषों को महिलाओं की तुलना में अधिक अधिकार, शक्तियाँ और विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। यह व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से अधिकांश समाजों में विद्यमान रही है। इसके पक्ष और विपक्ष में विभिन्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
पुरुष-प्रधान समाज के पक्ष में तर्क
सामाजिक संरचना की स्थिरता – पारंपरिक रूप से, पुरुषों ने समाज के संरक्षक और रक्षक की भूमिका निभाई है। उनका नेतृत्व समाज में स्थिरता और संरचना बनाए रखने में सहायक हो सकता है।
शारीरिक क्षमता और कार्य विभाजन – कुछ लोगों का मानना है कि पुरुषों की शारीरिक शक्ति अधिक होती है, जिससे वे कठिन परिश्रम और सैन्य कार्यों में अधिक सक्षम होते हैं। इसी कारण पारंपरिक समाजों में पुरुषों को नेतृत्वकारी भूमिकाएँ दी गईं।
इतिहास में पुरुषों की अग्रणी भूमिका – ऐतिहासिक रूप से, विज्ञान, राजनीति, युद्ध, और औद्योगिक विकास में पुरुषों ने प्रमुख योगदान दिया है, जिससे पुरुष-प्रधान व्यवस्था को प्राकृतिक माना गया।
आर्थिक उत्तरदायित्व – पारंपरिक रूप से पुरुषों को परिवार का आर्थिक आधार माना गया है। वे कमाने वाले और निर्णय लेने वाले होते हैं, जिससे परिवार की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
संस्कृति और परंपरा का हिस्सा – कई समाजों में पितृसत्ता को परंपरा और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा माना जाता है। इसे पीढ़ी दर पीढ़ी एक स्वाभाविक सामाजिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया गया है।
पुरुष-प्रधान समाज के विपक्ष में तर्क
लैंगिक असमानता – यह व्यवस्था महिलाओं को समान अधिकारों से वंचित करती है। उन्हें शिक्षा, रोजगार, राजनीति और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं से दूर रखा जाता है।
महिलाओं के प्रति भेदभाव – पुरुष-प्रधान समाज में महिलाओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक माना जाता है। वे घरेलू कार्यों तक सीमित रहती हैं और उनकी स्वतंत्रता बाधित होती है।
प्रतिभा और योग्यता का दमन – यह व्यवस्था समाज की आधी आबादी (महिलाओं) की प्रतिभा और क्षमताओं का समुचित उपयोग नहीं होने देती, जिससे समाज का संपूर्ण विकास बाधित होता है।
महिलाओं के शोषण और हिंसा की संभावना – जब समाज में पुरुषों का प्रभुत्व होता है, तो महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा, कार्यस्थल पर भेदभाव और यौन उत्पीड़न की घटनाएँ बढ़ सकती हैं।
समानता और लोकतंत्र के सिद्धांतों का उल्लंघन – आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में सभी को समान अधिकार मिलने चाहिए। पुरुष-प्रधान समाज इन सिद्धांतों के खिलाफ जाता है और समाज में असमानता को बढ़ावा देता है।
आर्थिक स्वतंत्रता की कमी – पितृसत्ता के कारण महिलाएँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं बन पातीं, जिससे वे पुरुषों पर निर्भर रहने को मजबूर होती हैं। इससे उनका आत्मविश्वास और निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है।
निष्कर्ष
पुरुष-प्रधान समाज एक ऐतिहासिक व्यवस्था रही है, लेकिन आधुनिक समाज में इसकी सीमाएँ स्पष्ट हो चुकी हैं। समावेशी और समानतावादी समाज के निर्माण के लिए महिलाओं और पुरुषों दोनों को समान अवसर और अधिकार मिलने चाहिए। लैंगिक समानता से समाज में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति होगी, जिससे सभी का विकास संभव हो सकेगा।
02. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (National Food Security Act - NFSA), जिसे "खाद्य अधिकार अधिनियम" भी कहा जाता है, भारत सरकार द्वारा 2013 में पारित किया गया था। इसका उद्देश्य देश के कमजोर और गरीब वर्गों को सस्ती दरों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराना है ताकि "भूखमरी" और "कुपोषण" को कम किया जा सके। इस अधिनियम के तहत लगभग 67% जनसंख्या को सब्सिडी दरों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाता है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) की प्रमुख विशेषताएँ
1. लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (TPDS)
इस अधिनियम के तहत, पात्र परिवारों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से चावल, गेहूँ और मोटा अनाज रियायती दरों पर उपलब्ध कराया जाता है—
चावल – ₹3 प्रति किलोग्राम
गेहूँ – ₹2 प्रति किलोग्राम
मोटा अनाज – ₹1 प्रति किलोग्राम
2. लाभार्थियों की संख्या
ग्रामीण क्षेत्रों में – 75% जनसंख्या को कवर किया गया है।
शहरी क्षेत्रों में – 50% जनसंख्या को कवर किया गया है।
कुल मिलाकर, लगभग 80 करोड़ लोग इस योजना का लाभ उठा रहे हैं।
3. प्राथमिकता प्राप्त और अंत्योदय श्रेणी
प्राथमिकता प्राप्त परिवार – इन परिवारों को प्रति व्यक्ति प्रति माह 5 किलोग्राम अनाज दिया जाता है।
अंत्योदय अन्न योजना (AAY) परिवार – अत्यंत गरीब परिवारों को प्रति परिवार 35 किलोग्राम अनाज प्रति माह दिया जाता है।
4. महिलाओं को विशेष अधिकार
इस अधिनियम के तहत, घर की मुखिया महिला (18 वर्ष या अधिक उम्र की) को राशन कार्ड जारी किया जाता है।
गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं को 6 महीने तक ₹6,000 की आर्थिक सहायता और पौष्टिक आहार प्रदान किया जाता है।
5. बच्चों के लिए विशेष प्रावधान
6 माह से 6 वर्ष तक के बच्चों को आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पौष्टिक भोजन दिया जाता है।
6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को मिड-डे मील योजना के तहत स्कूलों में मुफ्त भोजन उपलब्ध कराया जाता है।
6. खाद्य सुरक्षा भत्ता (Food Security Allowance)
यदि किसी कारणवश सरकार लाभार्थियों को अनाज उपलब्ध नहीं करा पाती, तो उन्हें नकद मुआवजा दिया जाता है।
7. पारदर्शिता और शिकायत निवारण प्रणाली
राज्य सरकारों को पारदर्शी व्यवस्था लागू करने की जिम्मेदारी दी गई है।
जन वितरण प्रणाली (PDS) की निगरानी के लिए 'विजिलेंस कमेटी' का गठन किया गया है।
प्रत्येक जिले में शिकायत निवारण तंत्र (Grievance Redressal Mechanism) स्थापित किया गया है।
8. खाद्य सुरक्षा के अधिकार को कानूनी मान्यता
सरकार इस अधिनियम के तहत कानूनी रूप से बाध्य है कि वह लाभार्थियों को खाद्यान्न उपलब्ध कराए।
यदि कोई व्यक्ति इससे वंचित रह जाता है, तो वह शिकायत दर्ज करवा सकता है और न्यायिक कार्रवाई का अनुरोध कर सकता है।
निष्कर्ष
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम गरीबी उन्मूलन और कुपोषण को समाप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे देश के गरीब और वंचित वर्गों को सस्ती दरों पर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होती है। हालांकि, इसकी सफलता प्रशासनिक पारदर्शिता, वितरण प्रणाली की प्रभावशीलता और भ्रष्टाचार की रोकथाम पर निर्भर करती है।
03. स्वच्छ भारत मिशन में पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका की व्याख्या कीजिए।
स्वच्छ भारत मिशन (SBM) भारत सरकार द्वारा 2 अक्टूबर 2014 को शुरू किया गया एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय अभियान है, जिसका उद्देश्य भारत को खुले में शौच मुक्त (ODF) बनाना और स्वच्छता को बढ़ावा देना है। इस मिशन की सफलता में पंचायती राज संस्थाओं (PRI) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि ग्रामीण स्तर पर स्वच्छता को प्रभावी रूप से लागू करने की जिम्मेदारी इन्हीं संस्थाओं की होती है।
पंचायती राज संस्थाएँ और उनकी भूमिका
पंचायती राज संस्थाएँ (PRI) ग्रामीण शासन की स्थानीय इकाइयाँ होती हैं, जो गाँवों में विकास कार्यों और सरकारी योजनाओं को लागू करने का कार्य करती हैं। स्वच्छ भारत मिशन में इनकी भूमिका निम्नलिखित प्रकार से है—
1. जन जागरूकता अभियान चलाना
PRI ग्रामीण समुदाय में स्वच्छता, हाथ धोने की आदत, शौचालय निर्माण और कचरा प्रबंधन के महत्व के बारे में जागरूकता फैलाने का कार्य करती हैं।
ग्राम सभाओं के माध्यम से लोगों को स्वच्छता अभियान से जुड़ने के लिए प्रेरित किया जाता है।
दीवारों पर स्वच्छता संबंधी नारे लिखवाने, रैलियाँ आयोजित करने और नुक्कड़ नाटक के माध्यम से ग्रामीणों को शिक्षित किया जाता है।
2. शौचालय निर्माण और ODF लक्ष्य प्राप्त करना
PRI यह सुनिश्चित करती हैं कि प्रत्येक परिवार के पास घरेलू शौचालय हो और कोई भी व्यक्ति खुले में शौच न करे।
ODF घोषित गाँवों में निगरानी (Monitoring) और सतत निरीक्षण (Inspection) के माध्यम से खुले में शौच को रोकने का कार्य किया जाता है।
गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को सरकारी सहायता (₹12,000 प्रति शौचालय) प्राप्त करने में मदद की जाती है।
3. ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबंधन (SLWM)
ग्राम पंचायतें कचरा प्रबंधन की व्यवस्था सुनिश्चित करती हैं, जैसे—
घर-घर से कचरा संग्रहण
कचरा निस्तारण केंद्रों की स्थापना
गंदे पानी की निकासी की उचित व्यवस्था
कम्पोस्टिंग और बायोगैस प्लांट का निर्माण
गंदगी और जलभराव की रोकथाम के लिए नालियों की सफाई कराई जाती है।
4. जल स्रोतों की स्वच्छता और संरक्षण
पंचायतें गाँव के कुएँ, तालाब, नहर और अन्य जल स्रोतों की सफाई सुनिश्चित करती हैं।
ग्रामीणों को शुद्ध पेयजल की उपलब्धता के लिए जागरूक किया जाता है और हैंडपंपों की सफाई नियमित रूप से कराई जाती है।
5. स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों में स्वच्छता
पंचायतें गाँव के स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों में शौचालय निर्माण और उनके नियमित रखरखाव की व्यवस्था करती हैं।
स्कूलों में बच्चों को स्वच्छता का महत्व सिखाने के लिए विशेष अभियान चलाए जाते हैं।
मिड-डे मील के दौरान स्वच्छता मानकों का पालन सुनिश्चित किया जाता है।
6. महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना
महिला स्वयं सहायता समूहों (SHGs) और ग्राम संगठनों को स्वच्छता अभियान में सक्रिय रूप से शामिल किया जाता है।
ग्रामीण महिलाओं को सेनेटरी नैपकिन के उपयोग और उसके उचित निस्तारण की जानकारी दी जाती है।
7. वित्तीय सहायता और संसाधनों का उचित उपयोग
पंचायतें सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाली निधि का सही उपयोग सुनिश्चित करती हैं।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGA) के तहत स्वच्छता से जुड़े कार्यों में स्थानीय लोगों को रोजगार दिया जाता है।
CSR (Corporate Social Responsibility) फंड और जनभागीदारी से स्वच्छता अभियान को और मजबूत बनाया जाता है।
8. निगरानी और रिपोर्टिंग
PRI स्वच्छता की प्रगति की निगरानी करती हैं और सरकार को नियमित रिपोर्ट भेजती हैं।
"स्वच्छ गाँव रैंकिंग" और ODF सत्यापन प्रक्रियाओं को निष्पक्ष रूप से पूरा किया जाता है।
मोबाइल ऐप्स और डिजिटल प्लेटफार्मों के माध्यम से साफ-सफाई की निगरानी की जाती है।
निष्कर्ष
स्वच्छ भारत मिशन की सफलता पंचायती राज संस्थाओं के सक्रिय योगदान पर निर्भर करती है। गाँवों में स्वच्छता अभियान को प्रभावी रूप से लागू करने, लोगों को जागरूक करने, शौचालय निर्माण सुनिश्चित करने, कचरा प्रबंधन और जल स्रोतों की स्वच्छता बनाए रखने में पंचायतों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि पंचायतें पूरी जिम्मेदारी और पारदर्शिता से कार्य करें, तो स्वच्छ भारत मिशन को पूरी तरह सफल बनाया जा सकता है।
04. महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के कार्यान्वयन और सामुदायिक सहभागिता में लिंग की भूमिका का वर्णन कीजिए।
महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) 2005 में पारित किया गया था। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में 100 दिनों की गारंटीकृत मजदूरी प्रदान करना और सतत विकास को बढ़ावा देना है। यह अधिनियम महिलाओं, दलितों, गरीबों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सशक्त बनाने का एक महत्वपूर्ण साधन है।
MGNREGA में लिंग की भूमिका और महिलाओं की भागीदारी
MGNREGA में महिला श्रमिकों की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं। इस अधिनियम के तहत लिंग (Gender) की भूमिका को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है—
1. महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहन
MGNREGA के तहत महिलाओं के लिए एक तिहाई (33%) रोजगार आरक्षित किया गया है।
2022-23 के आंकड़ों के अनुसार, महिलाओं की भागीदारी 50% से अधिक हो चुकी है।
यह अधिनियम महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाता है और उन्हें मजदूरी के माध्यम से आत्मनिर्भरता प्रदान करता है।
2. समान वेतन और मजदूरी में भेदभाव की रोकथाम
पुरुषों और महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन (Equal Pay for Equal Work) दिया जाता है।
श्रम कानूनों के तहत लैंगिक भेदभाव को रोकने के लिए निगरानी रखी जाती है।
यह महिलाओं को पारंपरिक कृषि कार्यों से अलग नए रोजगार के अवसर प्रदान करता है।
3. महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल
कार्यस्थलों पर शौचालय, पेयजल और विश्राम स्थलों की सुविधा दी जाती है।
यदि कार्यस्थल पर 5 से अधिक महिलाएँ काम कर रही हों, तो एक महिला पर्यवेक्षक (मेट) की नियुक्ति की जाती है।
महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न रोकने के लिए सख्त नियम बनाए गए हैं।
4. सामुदायिक सहभागिता और महिलाओं की नेतृत्व भूमिका
महिलाओं को ग्राम सभाओं में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
कई ग्राम पंचायतों में महिलाएँ 'मेट' (Supervisor) बनकर कार्य कर रही हैं।
महिलाएँ स्वयं सहायता समूहों (SHGs) के माध्यम से रोजगार योजनाओं की निगरानी करती हैं।
5. ग्रामीण अर्थव्यवस्था और महिला सशक्तिकरण पर प्रभाव
MGNREGA से प्राप्त आय महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और बच्चों की देखभाल पर खर्च करने में मदद करती है।
महिलाओं को पारंपरिक कृषि मजदूरी से बाहर निकलकर अन्य निर्माण कार्यों में शामिल होने का अवसर मिलता है।
इससे महिलाओं की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है और वे अपने परिवार में निर्णय लेने में सक्षम होती हैं।
6. बाल देखभाल (Crèche) सुविधा
यदि कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ छोटे बच्चे हैं, तो आंगनवाड़ी और देखभाल सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं।
यह प्रावधान माताओं को काम के दौरान अपने बच्चों की देखभाल की सुविधा देता है।
7. वित्तीय समावेशन और महिलाओं के बैंक खाते
MGNREGA के तहत मजदूरी सीधे बैंक खातों में भेजी जाती है, जिससे महिलाओं को वित्तीय सेवाओं से जोड़ने में मदद मिलती है।
कई महिलाएँ पहली बार बैंकिंग प्रणाली से जुड़ती हैं और उन्हें अपने पैसों पर नियंत्रण मिलता है।
निष्कर्ष
MGNREGA न केवल ग्रामीण रोजगार प्रदान करता है, बल्कि महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक सशक्तिकरण और लैंगिक समानता को भी बढ़ावा देता है। महिलाओं की बढ़ती भागीदारी से न केवल परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार होता है, बल्कि यह ग्रामीण विकास और सामुदायिक सहभागिता को भी मजबूत बनाता है। यदि पंचायतें, प्रशासन और स्थानीय समुदाय इस अधिनियम को प्रभावी रूप से लागू करें, तो यह महिलाओं के उत्थान में और भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
05. सामाजिक पूँजी की अवधारणा और उसके व्यावहारिक पहलुओं का वर्णन कीजिए।
परिचय
सामाजिक पूँजी (Social Capital) एक महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक अवधारणा है, जो किसी समाज, समुदाय या संगठन में संबंधों, आपसी सहयोग, विश्वास और नेटवर्किंग पर आधारित होती है। यह पूँजी आर्थिक पूँजी या भौतिक संसाधनों से अलग होती है, क्योंकि इसका मुख्य आधार सामाजिक संबंधों और आपसी सहयोग पर निर्भर करता है।
इसका उपयोग समाज के विकास, आर्थिक समृद्धि और सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है। रॉबर्ट पुटनैम (Robert Putnam), पियरे बौर्दियो (Pierre Bourdieu) और जेम्स कोलमैन (James Coleman) जैसे समाजशास्त्रियों ने इस अवधारणा को परिभाषित किया है।
सामाजिक पूँजी की अवधारणा
सामाजिक पूँजी का तात्पर्य उन संपर्कों, संबंधों और विश्वास प्रणाली से है, जो किसी समाज या समुदाय में मौजूद होते हैं और जो सामूहिक विकास को संभव बनाते हैं। इसे मुख्य रूप से तीन घटकों में बाँटा जा सकता है—
1. बंधनकारी सामाजिक पूँजी (Bonding Social Capital)
यह उन संबंधों को संदर्भित करती है जो एक ही समूह या समुदाय के सदस्यों के बीच होते हैं।
परिवार, जाति, धर्म और स्थानीय समुदायों के भीतर मजबूत आपसी सहयोग और विश्वास इस श्रेणी में आते हैं।
उदाहरण: ग्रामीण समुदायों में एक-दूसरे की मदद करने की परंपरा, पारिवारिक सहयोग, महिला स्वयं सहायता समूह (SHG) आदि।
2. सेतुकारक सामाजिक पूँजी (Bridging Social Capital)
यह विभिन्न सामाजिक समूहों या समुदायों के बीच संबंधों को दर्शाती है।
इससे समाज में सूचना, विचारों और संसाधनों का आदान-प्रदान संभव होता है।
उदाहरण: विभिन्न जातियों, वर्गों या समुदायों के बीच व्यापारिक सहयोग, गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) के माध्यम से विभिन्न समाजों की मदद आदि।
3. जोड़ने वाली सामाजिक पूँजी (Linking Social Capital)
यह सरकार, संस्थानों और समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संबंधों को संदर्भित करती है।
इससे सामाजिक नीति-निर्माण, गरीबी उन्मूलन और सतत विकास को बढ़ावा मिलता है।
उदाहरण: ग्राम पंचायतों और सरकार के बीच सहयोग, सरकारी योजनाओं और आम जनता के बीच संबंध।
सामाजिक पूँजी के व्यावहारिक पहलू
सामाजिक पूँजी का उपयोग समाज के विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है। इसके व्यावहारिक पहलू निम्नलिखित हैं—
1. आर्थिक विकास में योगदान
सामाजिक पूँजी व्यापार और उद्योगों में सहयोग को बढ़ावा देती है।
व्यापारिक नेटवर्किंग से नए रोजगार के अवसर सृजित होते हैं।
वित्तीय समावेशन (Financial Inclusion) में सामाजिक पूँजी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
2. सामुदायिक विकास और कल्याण
सामाजिक पूँजी स्थानीय स्तर पर लोगों को एकजुट करती है और समुदाय के विकास में सहायता करती है।
शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता से जुड़े अभियानों को सफल बनाने में यह मददगार होती है।
उदाहरण: स्वच्छ भारत मिशन, महिला स्वयं सहायता समूह (SHG), सहकारी समितियाँ (Cooperative Societies)।
3. राजनीतिक भागीदारी और लोकतंत्र को सशक्त बनाना
सामाजिक पूँजी लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने में सहायक होती है।
इससे जनभागीदारी बढ़ती है और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित होती है।
उदाहरण: ग्राम सभाएँ, नागरिक मंच, सार्वजनिक बहस और आंदोलनों में भागीदारी।
4. सामाजिक सौहार्द और शांति बनाए रखना
सामाजिक पूँजी सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे को बढ़ावा देती है।
इससे समाज में आपसी सहयोग, समरसता और पारस्परिक विश्वास मजबूत होता है।
उदाहरण: विभिन्न जाति-धर्मों के लोगों का साथ मिलकर त्योहार मनाना।
5. शिक्षा और ज्ञान के आदान-प्रदान में सहायता
सामाजिक पूँजी से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होता है।
परिवार, समुदाय और संस्थानों के सहयोग से साक्षरता और ज्ञान प्रसार को बढ़ावा मिलता है।
उदाहरण: अध्यापकों और छात्रों के बीच सकारात्मक संबंध, ऑनलाइन शिक्षा समूहों का निर्माण।
6. आपदा प्रबंधन और संकट के समय सहयोग
प्राकृतिक आपदाओं और सामाजिक संकटों में सामाजिक पूँजी लोगों की मदद करने में सहायक होती है।
स्थानीय समुदायों के बीच आपसी सहयोग और एकजुटता से राहत कार्यों में तेजी आती है।
उदाहरण: कोरोना महामारी के दौरान सामाजिक संगठनों द्वारा भोजन वितरण, आपसी सहयोग और स्वैच्छिक सेवा।
निष्कर्ष
सामाजिक पूँजी केवल व्यक्तिगत लाभ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज के विकास और सशक्तिकरण का एक प्रमुख माध्यम है। यह लोकतंत्र, आर्थिक विकास, शिक्षा, आपदा प्रबंधन और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती है। यदि समाज में सकारात्मक सामाजिक पूँजी को बढ़ावा दिया जाए, तो यह सतत विकास और सामाजिक उन्नति का आधार बन सकती है।
SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS
01. सामुदायिक विकास की अवधारणा और लक्ष्यों का वर्णन कीजिए।
परिचय
सामुदायिक विकास (Community Development) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से किसी समुदाय के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय स्थिति में सुधार किया जाता है। यह एक समावेशी और सतत विकास प्रक्रिया है जिसमें समुदाय के सभी सदस्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सक्रिय भागीदारी करते हैं।
सामुदायिक विकास की अवधारणा
सामुदायिक विकास एक संगठित प्रयास है जो किसी विशेष क्षेत्र के लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने के उद्देश्य से किया जाता है। यह स्थानीय संसाधनों, जनशक्ति और सरकार तथा गैर-सरकारी संगठनों की सहायता से किया जाता है। इसके अंतर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, बुनियादी ढांचे, कृषि विकास, महिला सशक्तिकरण और स्व-रोजगार जैसी विभिन्न योजनाएँ आती हैं।
संयुक्त राष्ट्र (UN) के अनुसार, सामुदायिक विकास का अर्थ है - "स्थानीय समुदाय के लोगों को सशक्त बनाना ताकि वे अपनी आवश्यकताओं को पहचान सकें और उन्हें पूरा करने के लिए संगठित प्रयास कर सकें।"
सामुदायिक विकास के लक्ष्य
सामुदायिक विकास के मुख्य लक्ष्य निम्नलिखित हैं:
सामाजिक सशक्तिकरण – समुदाय के सभी वर्गों, विशेष रूप से महिलाओं, अनुसूचित जाति, जनजातियों और पिछड़े वर्गों को सशक्त बनाना।
आर्थिक विकास – स्थानीय संसाधनों का उपयोग करके रोजगार और आजीविका के साधनों को बढ़ावा देना।
शिक्षा और साक्षरता का विकास – समुदाय में शिक्षा का प्रसार करना और वयस्क साक्षरता कार्यक्रमों को बढ़ावा देना।
स्वास्थ्य और स्वच्छता सुधार – स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना और स्वच्छता संबंधी जागरूकता बढ़ाना।
सामाजिक समरसता और सहयोग – समुदाय में एकता और सहयोग की भावना को विकसित करना ताकि सभी लोग एक-दूसरे की मदद कर सकें।
पर्यावरण संरक्षण – प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और सतत विकास को बढ़ावा देना।
अवसंरचना विकास – सड़कों, पेयजल, बिजली और आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं का विकास करना।
सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों का संवर्धन – पारंपरिक और नैतिक मूल्यों को बनाए रखते हुए सामाजिक विकास को सुनिश्चित करना।
सहकारिता और स्वशासन – स्थानीय शासन और पंचायत व्यवस्था को मजबूत करना ताकि समुदाय अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सके।
तकनीकी एवं वैज्ञानिक जागरूकता – कृषि, कुटीर उद्योग, हस्तशिल्प और अन्य तकनीकी क्षेत्रों में आधुनिक तकनीकों को अपनाना।
निष्कर्ष
सामुदायिक विकास केवल भौतिक संसाधनों के विकास तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज में समावेशी और स्थायी विकास को बढ़ावा देने का एक माध्यम है। यह एक सतत प्रक्रिया है जिसमें लोगों की भागीदारी और सरकारी व गैर-सरकारी प्रयासों का संतुलित समन्वय आवश्यक है। जब समुदाय के लोग स्वयं अपनी समस्याओं को पहचानकर समाधान निकालने की दिशा में कार्य करते हैं, तो सामुदायिक विकास अधिक प्रभावी और टिकाऊ बनता है।
02. लक्ष्य समुदाय और ग्रामीण समुदाय से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइए।
परिचय
समाज विभिन्न समुदायों से मिलकर बना होता है, और इन समुदायों का निर्माण लोगों की समान विशेषताओं, आवश्यकताओं, संस्कृति और भौगोलिक स्थिति के आधार पर होता है। दो महत्वपूर्ण समुदाय जिन्हें समझना आवश्यक है वे हैं – लक्ष्य समुदाय (Target Community) और ग्रामीण समुदाय (Rural Community)। ये दोनों समुदाय सामाजिक विकास और नीतियों के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
1. लक्ष्य समुदाय (Target Community)
अर्थ और परिभाषा
लक्ष्य समुदाय (Target Community) वह समूह या समाज होता है जिस पर किसी विशेष योजना, नीति या कार्यक्रम का प्रभाव पड़ता है। यह समुदाय किसी विशेष समस्या, आवश्यकता या उद्देश्य के आधार पर चुना जाता है।
विशेषताएँ
इसमें वे लोग शामिल होते हैं जो किसी विशेष योजना या परियोजना से सीधे प्रभावित होते हैं।
यह समुदाय भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक या अन्य कारकों के आधार पर चयनित किया जाता है।
यह अस्थायी हो सकता है, यानी किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के बाद इसका अस्तित्व समाप्त हो सकता है।
सरकारी और गैर-सरकारी संगठन किसी विशेष योजना के लिए इस समुदाय को लक्षित करते हैं।
उदाहरण
शिक्षा अभियान: यदि सरकार किसी विशेष क्षेत्र में महिलाओं की साक्षरता बढ़ाने के लिए योजना बना रही है, तो उस क्षेत्र की महिलाएँ लक्ष्य समुदाय होंगी।
टीकाकरण अभियान: पोलियो उन्मूलन अभियान के तहत 0-5 वर्ष के बच्चे लक्ष्य समुदाय होंगे।
गरीबी उन्मूलन योजनाएँ: ग्रामीण बेरोजगार युवा लक्ष्य समुदाय हो सकते हैं।
2. ग्रामीण समुदाय (Rural Community)
अर्थ और परिभाषा
ग्रामीण समुदाय (Rural Community) उन लोगों का समूह होता है जो गाँवों में रहते हैं और मुख्य रूप से कृषि, पशुपालन, हस्तशिल्प और अन्य परंपरागत व्यवसायों पर निर्भर होते हैं। यह समुदाय शहरों की तुलना में अधिक प्राकृतिक, सामाजिक रूप से निकट और पारंपरिक जीवनशैली को अपनाने वाला होता है।
विशेषताएँ
भौगोलिक स्थिति: ग्रामीण समुदाय मुख्यतः गाँवों में स्थित होता है।
आर्थिक गतिविधियाँ: कृषि, पशुपालन, कुटीर उद्योग और हस्तशिल्प पर आधारित होता है।
सामाजिक संरचना: यह समुदाय परंपराओं, रीति-रिवाजों और सामुदायिक सहयोग पर आधारित होता है।
साधनों की उपलब्धता: यहाँ शहरी क्षेत्रों की तुलना में सीमित स्वास्थ्य, शिक्षा और परिवहन सुविधाएँ होती हैं।
संस्कृति और परंपराएँ: ग्रामीण समुदाय अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखता है और सामूहिक जीवनशैली अपनाता है।
उदाहरण
उत्तराखंड के पहाड़ी गाँव: यहाँ के लोग कृषि, पशुपालन और पर्यटन से जुड़े होते हैं।
पंजाब के गाँव: यहाँ मुख्य रूप से गेंहू और धान की खेती की जाती है, और लोग पारंपरिक पंजाबी संस्कृति से जुड़े होते हैं।
राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र: यहाँ के लोग ऊँट पालन, हस्तशिल्प और मरुस्थलीय कृषि से जुड़े होते हैं।
अंतर: लक्ष्य समुदाय और ग्रामीण समुदाय
विशेषतालक्ष्य समुदायग्रामीण समुदायअर्थकिसी विशेष उद्देश्य से चयनित समुदायगाँवों में रहने वाले लोगों का समूहस्वरूपअस्थायी हो सकता हैस्थायी और परंपरागत होता हैकार्यक्षेत्रशिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुधार आदि से जुड़ाकृषि, पशुपालन, हस्तशिल्प आदि से जुड़ाउदाहरणपोलियो उन्मूलन अभियान के तहत 0-5 वर्ष के बच्चेउत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र
निष्कर्ष
लक्ष्य समुदाय और ग्रामीण समुदाय दोनों की अपनी अलग-अलग पहचान और महत्व है। लक्ष्य समुदाय किसी विशेष योजना या कार्यक्रम के तहत चयनित होता है, जबकि ग्रामीण समुदाय समाज की पारंपरिक इकाई के रूप में हमेशा मौजूद रहता है। विकास कार्यों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए इन दोनों समुदायों की सही पहचान और उनके अनुसार रणनीति बनाना आवश्यक होता है।
03. ग्राम सभा में सामुदायिक सशक्तिकरण चक्र की व्याख्या कीजिए।
परिचय
सामुदायिक सशक्तिकरण (Community Empowerment) का अर्थ है किसी समुदाय को आत्मनिर्भर और सक्षम बनाना ताकि वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सके। ग्राम सभा, जो ग्राम पंचायत का एक अभिन्न अंग होती है, ग्रामीण स्तर पर सामुदायिक सशक्तिकरण की एक महत्वपूर्ण संस्था है। इसके माध्यम से ग्रामीण लोग अपनी जरूरतों, योजनाओं और विकास संबंधी मुद्दों पर चर्चा कर सकते हैं।
ग्राम सभा में सामुदायिक सशक्तिकरण चक्र (Community Empowerment Cycle) एक प्रक्रिया है जिसके तहत ग्रामीण समुदाय को जागरूक, संगठित और सक्रिय बनाया जाता है ताकि वे अपने अधिकारों और संसाधनों का प्रभावी उपयोग कर सकें।
सामुदायिक सशक्तिकरण चक्र के चरण
ग्राम सभा के माध्यम से सामुदायिक सशक्तिकरण चक्र मुख्य रूप से निम्नलिखित चरणों में संपन्न होता है:
1. जागरूकता (Awareness)
ग्राम सभा में लोगों को उनके अधिकारों, योजनाओं और सरकारी लाभों के बारे में जागरूक किया जाता है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण और रोजगार से जुड़ी जानकारियाँ दी जाती हैं।
भ्रष्टाचार, सामाजिक असमानता और अन्य समस्याओं पर चर्चा की जाती है।
उदाहरण: मनरेगा योजना के तहत ग्राम सभा में लोगों को रोजगार के अवसरों की जानकारी दी जाती है।
2. सहभागिता (Participation)
ग्राम सभा में सभी ग्रामीणों की भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाता है, विशेष रूप से महिलाओं और वंचित वर्गों की।
सामुदायिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में लोगों को जोड़ा जाता है।
पंचायत द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों की निगरानी की जाती है।
उदाहरण: प्रधानमंत्री आवास योजना के लाभार्थियों का चयन ग्राम सभा में सामूहिक निर्णय से किया जाता है।
3. संगठन (Organization)
ग्रामीण लोगों को संगठित कर स्वयं सहायता समूह (SHG), किसान संगठन, महिला मंडल और युवा मंडल बनाए जाते हैं।
सामुदायिक समस्याओं के समाधान के लिए ग्राम विकास समितियाँ गठित की जाती हैं।
उदाहरण: स्वयं सहायता समूह (SHG) के माध्यम से महिलाएँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनती हैं।
4. योजना निर्माण (Planning)
ग्राम सभा में स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार विकास कार्यों की योजना बनाई जाती है।
पंचायत विकास योजना (GPDP) के तहत प्राथमिकताएँ तय की जाती हैं।
जल आपूर्ति, सड़क निर्माण, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर चर्चा की जाती है।
उदाहरण: गाँव में नल-जल योजना के तहत पानी की उपलब्धता बढ़ाने की योजना बनाई जाती है।
5. क्रियान्वयन (Implementation)
ग्राम सभा में स्वीकृत योजनाओं को ग्राम पंचायत और अन्य सरकारी संस्थाओं के सहयोग से लागू किया जाता है।
विकास कार्यों की निगरानी और समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित की जाती है।
उदाहरण: ग्राम सभा में निर्णय लिया गया कि सभी घरों में शौचालय बनाए जाएँगे, जिसे स्वच्छ भारत मिशन के तहत लागू किया गया।
6. मूल्यांकन और पुनरावलोकन (Evaluation & Review)
ग्राम सभा में किए गए कार्यों का मूल्यांकन किया जाता है कि वे कितने प्रभावी रहे।
यदि कोई समस्या आती है, तो उसे हल करने के नए सुझावों पर विचार किया जाता है।
उदाहरण: यदि पेयजल योजना सफल नहीं हो रही है, तो ग्राम सभा में उसकी समीक्षा कर सुधार के उपाय किए जाते हैं।
ग्राम सभा और सामुदायिक सशक्तिकरण चक्र का महत्व
जनभागीदारी बढ़ती है – ग्रामीण लोग अपने अधिकारों और विकास कार्यों में सक्रिय भागीदारी करने लगते हैं।
पारदर्शिता सुनिश्चित होती है – ग्राम सभा में चर्चा के माध्यम से योजनाओं में पारदर्शिता बनी रहती है।
स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार विकास होता है – समुदाय की वास्तविक जरूरतों के अनुसार योजनाएँ बनाई जाती हैं।
नागरिक सशक्तिकरण बढ़ता है – लोग अपने अधिकारों को समझते हैं और सरकार से अपनी जरूरतों की पूर्ति की माँग करते हैं।
सतत विकास को बढ़ावा मिलता है – गाँवों में पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता और आर्थिक उन्नति होती है।
निष्कर्ष
ग्राम सभा में सामुदायिक सशक्तिकरण चक्र के माध्यम से ग्रामीण लोग जागरूक, संगठित और आत्मनिर्भर बनते हैं। यह चक्र केवल योजनाओं के निर्माण तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके क्रियान्वयन और मूल्यांकन तक फैला होता है। जब समुदाय स्वयं अपनी जरूरतों को समझकर योजनाएँ बनाता है और उन्हें लागू करता है, तो ग्रामीण विकास की प्रक्रिया तेज और प्रभावी होती है। इस प्रकार, ग्राम सभा न केवल लोकतांत्रिक भागीदारी को मजबूत बनाती है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में सतत और समावेशी विकास को भी सुनिश्चित करती है।
04. सहभागी योजना के अर्थ, उद्देश्य और प्रमुख चरणों का वर्णन कीजिए।
परिचय
सहभागी योजना (Participatory Planning) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें स्थानीय समुदाय, सरकार और अन्य हितधारक मिलकर योजना निर्माण में भाग लेते हैं। यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है जो सामुदायिक आवश्यकताओं और संसाधनों को ध्यान में रखते हुए योजनाओं को तैयार करने और लागू करने में सहायता करती है।
1. सहभागी योजना का अर्थ
सहभागी योजना का अर्थ एक ऐसी विकास योजना से है जिसमें सभी संबंधित पक्षों की सक्रिय भागीदारी होती है। इसमें विशेष रूप से स्थानीय समुदाय को शामिल किया जाता है ताकि योजनाएँ उनकी वास्तविक आवश्यकताओं के अनुसार बनाई जा सकें।
परिभाषा
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार, "सहभागी योजना एक प्रक्रिया है जिसमें समुदाय के लोग, नीति निर्माता, और अन्य हितधारक मिलकर स्थानीय विकास की योजनाओं को तैयार करते हैं, कार्यान्वित करते हैं और उनका मूल्यांकन करते हैं।"
विशेषताएँ
यह जनभागीदारी पर आधारित होती है।
इसमें नीचे से ऊपर (Bottom-up Approach) की योजना प्रक्रिया अपनाई जाती है।
यह स्थानीय आवश्यकताओं और संसाधनों को ध्यान में रखती है।
पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है।
यह सतत विकास को बढ़ावा देती है।
2. सहभागी योजना के उद्देश्य
सहभागी योजना का मुख्य उद्देश्य समुदाय को विकास प्रक्रिया में शामिल कर स्थानीय समस्याओं के व्यावहारिक समाधान खोजना है। इसके अन्य प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
जनभागीदारी को बढ़ावा देना – समुदाय के लोगों को योजना निर्माण में शामिल करना ताकि वे स्वयं अपनी आवश्यकताओं को पहचान सकें।
स्थानीय संसाधनों का प्रभावी उपयोग – उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम उपयोग करके सतत विकास को बढ़ावा देना।
पारदर्शिता और उत्तरदायित्व – योजनाओं को निष्पक्ष और पारदर्शी रूप से लागू करना ताकि भ्रष्टाचार को कम किया जा सके।
सशक्तिकरण और स्व-निर्णय – समुदाय को आत्मनिर्भर बनाना ताकि वे अपने विकास से जुड़े निर्णय स्वयं ले सकें।
संवेदनशील समूहों का सशक्तिकरण – महिलाओं, अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य वंचित वर्गों को विकास प्रक्रिया में शामिल करना।
स्थानीय शासन को मजबूत बनाना – पंचायत राज संस्थाओं और ग्राम सभाओं को सशक्त बनाना।
समाज में समरसता और सहयोग बढ़ाना – सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से सहयोग की भावना विकसित करना।
3. सहभागी योजना के प्रमुख चरण
सहभागी योजना को प्रभावी बनाने के लिए इसे विभिन्न चरणों में विभाजित किया जाता है। ये चरण निम्नलिखित हैं:
(1) समस्या की पहचान (Problem Identification)
इस चरण में समुदाय की प्रमुख समस्याओं का विश्लेषण किया जाता है।
लोगों से चर्चा कर उनकी आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं को समझा जाता है।
उदाहरण: गाँव में पेयजल की समस्या है, तो इसे प्राथमिकता के आधार पर सूचीबद्ध किया जाएगा।
(2) सूचना संग्रह (Data Collection)
क्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय स्थिति का अध्ययन किया जाता है।
समुदाय के लोगों से सर्वेक्षण और साक्षात्कार के माध्यम से जानकारी एकत्र की जाती है।
उदाहरण: गाँव में कितने परिवारों को पेयजल की समस्या है, इसका सर्वेक्षण किया जाएगा।
(3) सामुदायिक चर्चा और निर्णय (Community Discussion & Decision Making)
ग्राम सभा, पंचायत या स्थानीय समूहों में बैठक आयोजित कर योजना पर चर्चा की जाती है।
समुदाय द्वारा प्राथमिकताओं के अनुसार समस्याओं का चयन किया जाता है।
उदाहरण: ग्राम सभा में पेयजल योजना पर चर्चा की गई और तय हुआ कि नल-जल योजना लागू की जाएगी।
(4) योजना निर्माण (Planning & Strategy Development)
समस्या के समाधान के लिए आवश्यक संसाधनों और कार्ययोजनाओं को तैयार किया जाता है।
बजट, कार्यान्वयन की रणनीति और संबंधित अधिकारियों की भूमिका निर्धारित की जाती है।
उदाहरण: जल संसाधन विभाग, पंचायत और स्वयं सहायता समूह मिलकर योजना तैयार करेंगे।
(5) क्रियान्वयन (Implementation)
स्वीकृत योजना को समुदाय की भागीदारी के साथ लागू किया जाता है।
इसमें सरकारी एजेंसियाँ, स्वयंसेवी संगठन और पंचायतें मिलकर काम करती हैं।
उदाहरण: गाँव में हैंडपंप या पाइपलाइन बिछाने का कार्य शुरू किया जाता है।
(6) निगरानी और मूल्यांकन (Monitoring & Evaluation)
योजना के प्रभाव का विश्लेषण किया जाता है और सुधार के सुझाव लिए जाते हैं।
अगर योजना सफल नहीं हो रही है तो उसमें आवश्यक बदलाव किए जाते हैं।
उदाहरण: यदि नल-जल योजना से पानी की उपलब्धता नहीं बढ़ी, तो अन्य उपायों पर विचार किया जाएगा।
4. सहभागी योजना के लाभ
सहभागी योजना के कई लाभ होते हैं, जिनमें प्रमुख हैं:
सटीक और व्यावहारिक योजनाएँ बनती हैं क्योंकि वे स्थानीय लोगों की वास्तविक जरूरतों पर आधारित होती हैं।
जनभागीदारी बढ़ती है, जिससे योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू करना आसान होता है।
स्थानीय संसाधनों का सही उपयोग होता है और अनावश्यक व्यय कम होता है।
योजनाओं की पारदर्शिता और उत्तरदायित्व बढ़ता है, जिससे भ्रष्टाचार कम होता है।
सशक्त और आत्मनिर्भर समुदाय बनता है, जो अपने विकास से जुड़े निर्णय स्वयं लेने में सक्षम होता है।
निष्कर्ष
सहभागी योजना नीचे से ऊपर (Bottom-up) दृष्टिकोण पर आधारित होती है, जहाँ स्थानीय समुदाय स्वयं अपनी समस्याओं को पहचानकर उनके समाधान में भाग लेता है। यह प्रक्रिया केवल विकास योजनाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि सशक्तिकरण, पारदर्शिता और सतत विकास को भी सुनिश्चित करती है। जब लोग अपनी योजनाओं में स्वयं भाग लेते हैं, तो वे अधिक प्रभावी, न्यायसंगत और टिकाऊ होती हैं। इसलिए, ग्रामीण विकास और सामाजिक परिवर्तन के लिए सहभागी योजना एक प्रभावी रणनीति मानी जाती है।
05. पंचायती राज से संबंधित प्रमुख समितियों की सिफारिशों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
परिचय
भारत में पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया, जिन्होंने पंचायती राज को अधिक सशक्त और प्रभावी बनाने के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें दीं। इन सिफारिशों के आधार पर पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया और स्थानीय स्वशासन को मजबूत किया गया।
1. बलवंत राय मेहता समिति (1957)
मुख्य सिफारिशें
तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था – गाँव, ब्लॉक और जिला स्तर पर।
पंचायतों को विकास योजनाओं के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी दी जाए।
पंचायतें प्रत्यक्ष रूप से चुनी जाएँ और उनके पास पर्याप्त वित्तीय अधिकार हों।
ब्लॉक स्तर को प्रशासनिक इकाई माना जाए और जिला स्तर को समन्वयक की भूमिका दी जाए।
परिणाम
इस समिति की सिफारिशों के आधार पर 1959 में राजस्थान में पहली बार पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई।
बाद में इसे पूरे देश में विस्तारित किया गया।
2. अशोक मेहता समिति (1978)
मुख्य सिफारिशें
दो स्तरीय पंचायती राज प्रणाली – ज़िला परिषद (Zila Parishad) और मंडल पंचायत (Mandal Panchayat)।
पंचायतों को अधिक वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार दिए जाएँ।
राजनीतिक दलों को पंचायत चुनावों में भाग लेने की अनुमति दी जाए।
राज्य स्तर पर पंचायत राज मंत्री का पद हो।
परिणाम
इस समिति की सिफारिशों को कई राज्यों में आंशिक रूप से लागू किया गया।
लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इसे पूरी तरह लागू नहीं किया गया।
3. जी.वी.के. राव समिति (1985)
मुख्य सिफारिशें
पंचायतों को विकास की मुख्य संस्था बनाया जाए।
जिला स्तर की योजनाओं का नियोजन और क्रियान्वयन जिला परिषद के अधीन हो।
पंचायतों को न्यायिक और प्रशासनिक शक्तियाँ दी जाएँ।
राज्य सरकारों को पंचायती राज व्यवस्था को अधिक सशक्त बनाने के लिए कानून में संशोधन करना चाहिए।
परिणाम
इस समिति की सिफारिशों ने 73वें संवैधानिक संशोधन (1992) के लिए आधार तैयार किया।
4. एल.एम. सिंघवी समिति (1986)
मुख्य सिफारिशें
पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाए।
पंचायतों को स्वशासन की वास्तविक इकाई के रूप में मान्यता दी जाए।
न्याय पंचायतों की स्थापना की जाए ताकि विवादों का स्थानीय स्तर पर निपटारा हो।
पंचायतों को वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए स्थानीय कर लगाने की शक्ति दी जाए।
परिणाम
इस समिति की सिफारिशों के आधार पर 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 लाया गया।
5. 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1992)
मुख्य विशेषताएँ
संविधान में भाग IX जोड़ा गया, जिससे पंचायतों को संवैधानिक दर्जा मिला।
तीन स्तरीय पंचायत प्रणाली – ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद।
पंचायत चुनाव हर 5 साल में अनिवार्य रूप से कराए जाएँ।
अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षण दिया जाए।
पंचायतों को वित्तीय अधिकार और कर लगाने का अधिकार मिले।
परिणाम
भारत में पंचायती राज व्यवस्था को कानूनी रूप से मजबूती मिली।
महिलाओं और पिछड़े वर्गों की राजनीतिक भागीदारी बढ़ी।
स्थानीय विकास योजनाओं का विकेंद्रीकरण हुआ।
निष्कर्ष
भारत में पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न समितियों ने महत्वपूर्ण सिफारिशें दीं। बलवंत राय मेहता समिति ने इसकी नींव रखी, जबकि अशोक मेहता समिति ने इसे और मजबूत करने की कोशिश की। जी.वी.के. राव और एल.एम. सिंघवी समितियों की सिफारिशों के आधार पर 73वाँ संविधान संशोधन लागू किया गया, जिससे पंचायतों को संवैधानिक दर्जा मिला। इस प्रकार, पंचायती राज व्यवस्था आज स्थानीय शासन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई है।
06. बाल जीवन रक्षा का अधिकार और सामुदायिक सहभागिता पर अपने विचार व्यक्ति कीजिए।
परिचय
बाल जीवन रक्षा का अधिकार (Right to Child Survival) बच्चों को जीने, स्वस्थ रहने और सुरक्षित वातावरण में विकसित होने का अधिकार देता है। यह अधिकार बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्रसंघ (UNCRC) के अनुच्छेद 6 में निहित है, जिसमें प्रत्येक बच्चे के जीवन, सुरक्षा और विकास की गारंटी दी गई है। इस अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए सरकार, समाज और समुदाय की सहभागिता आवश्यक होती है।
1. बाल जीवन रक्षा का अधिकार
अर्थ और परिभाषा
बाल जीवन रक्षा का अधिकार का अर्थ यह है कि प्रत्येक बच्चे को स्वस्थ, पोषित, सुरक्षित और हिंसा मुक्त वातावरण में जीने का अधिकार मिले।
संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार संधि (UNCRC) के अनुसार – "हर बच्चे को जीने और उसके पूर्ण विकास के लिए उचित स्वास्थ्य सेवाएँ, पोषण और सुरक्षा प्रदान करना अनिवार्य है।"
मुख्य पहलू
स्वास्थ्य सेवाएँ – सभी बच्चों को पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएँ, टीकाकरण और पोषण मिलना चाहिए।
पोषण सुरक्षा – कुपोषण से बचाने के लिए बच्चों को संतुलित आहार मिलना चाहिए।
शिक्षा और जागरूकता – बच्चों को सुरक्षित और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए।
हिंसा और शोषण से बचाव – बच्चों को बाल श्रम, बाल विवाह, तस्करी और अन्य शोषण से सुरक्षा दी जानी चाहिए।
सुरक्षित वातावरण – बच्चों को ऐसे समाज में रहना चाहिए, जहाँ वे हिंसा, भेदभाव और दुर्व्यवहार से मुक्त हों।
भारत में बाल जीवन रक्षा के लिए प्रमुख योजनाएँ
राष्ट्रीय पोषण मिशन (POSHAN Abhiyaan) – कुपोषण को कम करने के लिए।
मिशन इंद्रधनुष – सभी बच्चों के टीकाकरण के लिए।
आंगनवाड़ी सेवाएँ – बच्चों के स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा के लिए।
बाल संरक्षण योजना – बच्चों को हिंसा और शोषण से बचाने के लिए।
2. सामुदायिक सहभागिता का महत्व
बाल जीवन रक्षा का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए सामुदायिक सहभागिता (Community Participation) बहुत महत्वपूर्ण है। एक संगठित और जागरूक समुदाय बच्चों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
सामुदायिक सहभागिता के प्रमुख पहलू
माता-पिता और अभिभावकों की भूमिका
बच्चों को सही पोषण और स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करना।
शिक्षा और सुरक्षा के प्रति जागरूक रहना।
ग्राम सभा और पंचायतों की भूमिका
बाल स्वास्थ्य और शिक्षा को प्राथमिकता देना।
आंगनवाड़ी केंद्रों और स्कूलों की निगरानी करना।
बाल विवाह और बाल श्रम रोकने के लिए कड़े नियम लागू करना।
स्वयंसेवी संगठनों (NGO) की भूमिका
कुपोषण, बाल श्रम और शिक्षा के लिए जागरूकता अभियान चलाना।
सरकार की योजनाओं को गाँव और समुदायों तक पहुँचाना।
स्वास्थ्य कर्मियों और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की भूमिका
गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की देखभाल।
बच्चों को समय पर टीकाकरण देना और स्वास्थ्य संबंधी जानकारी देना।
स्कूलों और शिक्षकों की भूमिका
बच्चों को स्वास्थ्य, स्वच्छता और पोषण के बारे में शिक्षित करना।
स्कूलों में मध्यान्ह भोजन (Mid-Day Meal) योजना को प्रभावी रूप से लागू करना।
मीडिया और सामाजिक जागरूकता
बाल अधिकारों से संबंधित मुद्दों को प्रमुखता देना।
डिजिटल मीडिया और रेडियो के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता फैलाना।
3. सामुदायिक सहभागिता से होने वाले लाभ
बाल मृत्यु दर (Child Mortality Rate) में कमी आती है।
कुपोषण और बीमारी से बचाव होता है।
स्कूली शिक्षा में वृद्धि होती है।
बाल श्रम और बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों को कम किया जा सकता है।
बच्चों को एक सुरक्षित और उज्ज्वल भविष्य मिलता है।
निष्कर्ष
बाल जीवन रक्षा का अधिकार केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि इसमें समुदाय की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। जब माता-पिता, शिक्षक, स्वास्थ्य कार्यकर्ता, पंचायतें और समाज मिलकर काम करते हैं, तब बच्चों को एक स्वस्थ, सुरक्षित और समृद्ध भविष्य प्रदान किया जा सकता है। सामुदायिक सहभागिता से न केवल बच्चों का जीवन सुरक्षित होता है, बल्कि पूरे समाज का विकास भी सुनिश्चित होता है।
07. सामुदायिक संगठन के मॉडलों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
परिचय
सामुदायिक संगठन (Community Organization) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से समुदाय के लोग अपनी समस्याओं का समाधान सामूहिक रूप से करते हैं। इसके लिए विभिन्न प्रकार के मॉडल (Models) विकसित किए गए हैं, जो अलग-अलग परिस्थितियों में सामुदायिक विकास को बढ़ावा देते हैं।
1. स्थानीयता विकास मॉडल (Locality Development Model)
अर्थ
यह मॉडल स्थानीय समुदाय की भागीदारी और उनकी एकता को बढ़ावा देता है।
इसमें समुदाय के लोग मिलकर सामूहिक समस्या समाधान के लिए कार्य करते हैं।
पंचायतें, ग्राम सभाएँ और सामुदायिक समूह इस मॉडल के उदाहरण हैं।
विशेषताएँ
✔ सामुदायिक भागीदारी पर जोर
✔ स्थानीय समस्याओं का स्थानीय समाधान
✔ स्व-सहायता समूहों और ग्राम पंचायतों की भूमिका महत्वपूर्ण
उदाहरण
गाँव में जल संरक्षण के लिए जल समितियों का गठन।
स्थानीय स्तर पर कचरा प्रबंधन अभियान।
2. सामाजिक कार्य मॉडल (Social Work Model)
अर्थ
यह मॉडल सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए समाज सेवकों और संगठनों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानता है।
यह कमजोर और वंचित वर्गों की मदद करने पर केंद्रित होता है।
सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों (NGO) की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
विशेषताएँ
✔ सामाजिक न्याय और समानता पर जोर
✔ अल्पसंख्यक, महिलाएँ, बच्चे और विकलांग व्यक्तियों के लिए विशेष कार्य
✔ संगठनों और सरकार की भागीदारी
उदाहरण
बाल संरक्षण केंद्रों का संचालन।
महिला सशक्तिकरण परियोजनाएँ।
3. सामाजिक योजना मॉडल (Social Planning Model)
अर्थ
इसमें विशेषज्ञ और योजनाकार समाज के विकास के लिए योजनाएँ बनाते हैं।
डेटा, शोध और नीतियों के आधार पर समाज के विभिन्न मुद्दों का समाधान किया जाता है।
विशेषताएँ
✔ डेटा और शोध-आधारित निर्णय
✔ सरकारी योजनाओं और नीतियों की भूमिका महत्वपूर्ण
✔ दीर्घकालिक विकास पर केंद्रित
उदाहरण
ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क और बिजली आपूर्ति योजना।
स्वास्थ्य और शिक्षा नीति निर्माण।
4. सामाजिक क्रिया मॉडल (Social Action Model)
अर्थ
यह मॉडल सामाजिक परिवर्तन लाने पर केंद्रित है।
इसमें समुदाय के लोग अपने अधिकारों और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष और आंदोलन करते हैं।
विशेषताएँ
✔ सामाजिक और राजनीतिक बदलाव पर जोर
✔ सामाजिक आंदोलनों की प्रमुख भूमिका
✔ समानता और न्याय की माँग
उदाहरण
चिपको आंदोलन (वन संरक्षण के लिए)।
नर्मदा बचाओ आंदोलन (पर्यावरण और विस्थापन के मुद्दों पर)।
5. क्षमता निर्माण मॉडल (Capacity Building Model)
अर्थ
यह मॉडल समुदाय के लोगों को कौशल, शिक्षा और संसाधन प्रदान करके उन्हें आत्मनिर्भर बनाता है।
इसका उद्देश्य समुदाय की क्षमताओं का विकास करना है।
विशेषताएँ
✔ स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा
✔ कौशल विकास और शिक्षा पर जोर
✔ स्थानीय नेतृत्व और उद्यमिता का विकास
उदाहरण
स्वयं सहायता समूह (Self Help Groups – SHGs) का गठन।
ग्रामीण कौशल विकास कार्यक्रम।
निष्कर्ष
सामुदायिक संगठन के विभिन्न मॉडल स्थानीय विकास, सामाजिक कार्य, योजना निर्माण, सामाजिक क्रिया और क्षमता निर्माण पर केंद्रित होते हैं। इन मॉडलों का उपयोग समुदाय की आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है। सही मॉडल का चयन और प्रभावी क्रियान्वयन समुदाय के सतत विकास और सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
08. स्वास्थ्य संवर्धन में सामुदायिक सहभागिता के किन्हीं दो मॉडलों का वर्णन कीजिए।
परिचय
स्वास्थ्य संवर्धन (Health Promotion) में सामुदायिक सहभागिता की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इसके तहत समुदाय के लोग स्वयं स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की पहचान करते हैं और उनके समाधान के लिए मिलकर कार्य करते हैं। स्वास्थ्य संवर्धन के लिए विभिन्न मॉडल विकसित किए गए हैं, जिनमें सामुदायिक सहभागिता को प्राथमिकता दी गई है। यहाँ हम दो प्रमुख मॉडलों का वर्णन करेंगे:
क्षमता निर्माण मॉडल (Capacity Building Model)
सामाजिक कार्य मॉडल (Social Work Model)
1. क्षमता निर्माण मॉडल (Capacity Building Model)
अर्थ
यह मॉडल समुदाय को स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनाने पर केंद्रित है।
इसमें शिक्षा, प्रशिक्षण और संसाधनों के माध्यम से लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए सक्षम बनाया जाता है।
मुख्य विशेषताएँ
✔ स्वास्थ्य संबंधी जानकारी और जागरूकता फैलाना।
✔ स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित करके स्वास्थ्य सेवाओं में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना।
✔ स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच बढ़ाने के लिए सामुदायिक संगठनों का गठन।
✔ स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी सुविधाओं का विकास।
उदाहरण
स्वयं सहायता समूह (SHG) के माध्यम से स्वास्थ्य जागरूकता अभियान।
ग्राम स्तर पर स्वास्थ्य स्वयंसेवकों (Health Volunteers) की नियुक्ति।
आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और आशा (ASHA) कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण।
2. सामाजिक कार्य मॉडल (Social Work Model)
अर्थ
यह मॉडल समाज के वंचित और कमजोर वर्गों को स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ने और उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने पर केंद्रित है।
इसमें सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों (NGO) की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
मुख्य विशेषताएँ
✔ गरीब और वंचित वर्गों को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करना।
✔ सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं और कार्यक्रमों को समुदाय तक पहुँचाना।
✔ स्वास्थ्य संबंधी सामाजिक मुद्दों जैसे कुपोषण, मातृ और शिशु मृत्यु दर, स्वच्छता आदि पर कार्य करना।
✔ स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुँच के लिए सामुदायिक केंद्रों का निर्माण।
उदाहरण
निःशुल्क स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन।
मातृ और शिशु स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार।
स्वच्छ भारत अभियान के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता जागरूकता।
निष्कर्ष
स्वास्थ्य संवर्धन में सामुदायिक सहभागिता अत्यंत आवश्यक है। क्षमता निर्माण मॉडल से लोग आत्मनिर्भर बनते हैं और अपने स्वास्थ्य की जिम्मेदारी स्वयं लेते हैं, जबकि सामाजिक कार्य मॉडल के माध्यम से वंचित समुदायों को स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान की जाती हैं। इन दोनों मॉडलों का प्रभावी क्रियान्वयन समाज में समग्र स्वास्थ्य सुधार सुनिश्चित करता है।