नमस्कार दोस्तों,
आज के इस ब्लॉग में मैं आपको उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी के BA प्रथम वर्ष के पेपर इसका कोड है BAPS(N)101 के दो क्वेश्चन के आंसर देने वाला हूं।
आपको पता होगा कि फरवरी, मार्च 2024 में बीए प्रथम वर्ष के पेपर हुए थे। जिसका प्रश्न पत्र मैं इससे पिछले वाले ब्लॉग में दिया गया है। आपको मालूम होगा की किताब में कितना कॉम्प्लिकेटेड क्वेश्चन का आंसर है तो इसी समस्या का निवारण लेकर आपके सामने में विस्तृत उत्तरीय प्रश्न का उत्तर लेकर आया हूं अगर आपको अच्छा लगता है तो कमेंट में मुझे जरूर बताएं।
प्रश्न 01- राजनीति विज्ञान के अर्थ, प्रकृति एवं क्षेत्र की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भूमिका
राजनीति विज्ञान एक प्राचीन अनुशासन है, जिसकी जड़ें प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो और अरस्तू के समय से मिलती हैं। इसे यूनानियों ने सबसे पहले आलोचनात्मक और तर्क सम्मत चिंतन की दृष्टि से देखा। यह अध्ययन नगर-राज्य 'पोलिस' की राजनीतिक गतिविधियों पर आधारित था। राजनीति विज्ञान का हिन्दी रूपान्तरण अंग्रेजी शब्द 'Political Science' से हुआ है। यह विज्ञान राज्य, समाज और व्यक्ति के बीच के संबंधों और राजनीतिक प्रक्रियाओं का गहन अध्ययन करता है।
राजनीति विज्ञान की परिभाषा
राजनीति विज्ञान की परिभाषा समय के साथ बदलती रही है। प्राचीन यूनानी और रोमन काल से लेकर मध्ययुगीन और आधुनिक समय तक विभिन्न विद्वानों ने इसे अलग-अलग दृष्टिकोण से परिभाषित किया है।
परम्परागत परिभाषाएँ
1. राज्य के अध्ययन के रूप में: गार्नर, ब्लंटश्ली, गैरीज आदि के अनुसार, राजनीति विज्ञान का मुख्य क्षेत्र राज्य का अध्ययन है। यह राज्य के उदभव, विकास, संगठन और उसके कार्यों का अध्ययन करता है।
2. सरकार के अध्ययन के रूप में: सीले, जेम्स, लीकॉक के अनुसार, राजनीति विज्ञान का अध्ययन राज्य की मूर्तरूप सरकार का अध्ययन है।
3. राज्य और सरकार दोनों के अध्ययन के रूप में: गिलक्राइस्ट, डिमॉक, पॉल जैनेट के अनुसार, राजनीति विज्ञान राज्य और सरकार दोनों का अध्ययन है।
आधुनिक परिभाषाएँ
1. शक्ति का विज्ञान: केटलिन, डेविड ईस्टन, लासवैल और केपलान के अनुसार, राजनीति विज्ञान शक्ति और सत्ता का अध्ययन है।
2. मानव व्यवहार का अध्ययन: ग्राहम वालास, ए०एफ० बेंटले, डेविड ईस्टन आदि के अनुसार, राजनीति विज्ञान मानव के राजनीतिक व्यवहार और प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है।
राजनीति विज्ञान का क्षेत्र
राजनीति विज्ञान का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है और समय के साथ इसका विस्तार और संकुचन हुआ है। इसे परम्परागत और आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विभाजित किया जा सकता है।
परम्परागत परिप्रेक्ष्य में क्षेत्र
1. राज्य का अध्ययन: राज्य की उत्पत्ति, विकास, संगठन, उद्देश्य और कार्यों का अध्ययन।
2. सरकार का अध्ययन: सरकार के विभिन्न रूप, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का अध्ययन।
3. स्थानीय, Searching और अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का अध्ययन: स्थानीय स्वायत्तता, राष्ट्रीय संस्थाएँ और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन।
4. अंतर्राष्ट्रीय विधि, संबंधों और संगठनों का अध्ययन: सन्धियाँ, प्रत्यर्पण, मानवाधिकार, संयुक्त राष्ट्र संघ आदि का अध्ययन।
5. राजनीतिक सिद्धान्तों और विचारधाराओं का अध्ययन: राज्य की उत्पत्ति, संगठन, विकास, प्रक्रिया, उद्देश्य और कार्यों संबंधी सिद्धान्तों का अध्ययन।
6. शासन प्रबन्ध का अध्ययन: लोक प्रशासन और प्रशासनिक दक्षता का अध्ययन।
7. अन्य सामाजिक विज्ञानों का अध्ययन: राजनीति विज्ञान का अध्ययन अन्य सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन के बिना अधूरा माना जाता है।
8. राजनीतिक दलों और दबाव गुटों का अध्ययन: राजनीतिक जीवन को गति देने वाले दलों और गुटों का अध्ययन।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में क्षेत्र
1. राजनीतिक व्यवस्था का अध्ययन: डेविड ईस्टन और आमण्ड पावेल के अनुसार, राजनीतिक व्यवस्था पारस्परिक संबंधों का जाल है जिसके द्वारा समाज संबंधी आधिकारिक निर्णय लिये जाते हैं।
2. अन्य सामाजिक विज्ञानों का अध्ययन: मानव के राजनीतिक विचारों को प्रभावित करने वाले सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक, मनोवैज्ञानिक तत्वों का अध्ययन।
3. शक्ति और प्रभाव का अध्ययन: आधुनिक राजनीति विज्ञान शक्ति और प्रभाव का अध्ययन करता है।
4. राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन: राजनीतिक संस्थाओं की चालक शक्ति- मानवीय व्यवहार का अध्ययन।
5. राजनीतिक क्रियाओं का अध्ययन: राजनीतिक क्रियाओं और प्रक्रियाओं का अध्ययन।
6. सार्वजनिक सहमति और सामान्य मत का अध्ययन: सहमति और सामान्य मत का अध्ययन।
7. समस्याओं और संघर्ष का अध्ययन: विभिन्न समस्याओं और संघर्षों का अध्ययन।
8. विविध विषय क्षेत्र: राजनीतिक संस्कृति, समाजीकरण, राजनीतिक-आर्थिक विकास आदि का अध्ययन।
राजनीति विज्ञान की प्रासंगिकता
आधुनिक समय में राजनीति विज्ञान की प्रासंगिकता लगातार बढ़ रही है। यह शासन के संचालन का दिशायंत्र है और समय-समय पर नये सिद्धान्तों का गढ़ना इसकी प्रासंगिकता को सिद्ध करता है। राजनीति विज्ञान की अध्ययन सामग्री न केवल राजनीतिक अध्येताओं, शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है बल्कि आम जनता के लिए भी महत्वपूर्ण है।
आधुनिक राजनीति विज्ञान के सिद्धान्त, जैसे कि न्याय, समानता, स्वतंत्रता और क्रान्ति, समस्याओं के समाधान की तलाश में मददगार साबित होते हैं। चाहे मुद्दा आरक्षण का हो, लिंगभेद का, नारी-पराश्रितता का या कोई अन्य, हमारे पास आज राजनीतिक सिद्धान्त हैं जो इन समस्याओं से निपटने के लिए दिशा निर्देशन करते हैं।
निष्कर्ष
राजनीति विज्ञान एक व्यापक और गहन अनुशासन है जो राज्य, सरकार, शक्ति, प्रभाव, मानव व्यवहार और राजनीतिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। इसकी परिभाषाएँ और क्षेत्र समय के साथ बदलते रहे हैं, और आधुनिक समय में इसकी प्रासंगिकता बढ़ती ही जा रही है। राजनीति विज्ञान न केवल शासकों के लिए बल्कि आम जनता के लिए भी महत्वपूर्ण है, और यह समाज में शांति और स्थिरता बनाए रखने में मदद करता है।
प्रश्न 02 राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :
भूमिका
सामाजिक समझौता सिद्धांत राज्य की उत्पत्ति के एक महत्वपूर्ण सिद्धांत के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह सिद्धांत राज्य को मानव निर्मित संस्था के रूप में देखता है, न कि ईश्वरीय। इस सिद्धांत के अनुसार, राज्य का निर्माण व्यक्तियों के पारस्परिक समझौते से हुआ है।
सामाजिक समझौता सिद्धांत का परिचय
सामाजिक समझौता सिद्धांत यह मानता है कि राज्य की स्थापना मानवों के परस्पर समझौते द्वारा हुई। प्राकृतिक अवस्था में जीवन असुरक्षित और अराजक था, जिसके कारण व्यक्तियों ने एक राजनीतिक समाज की स्थापना के लिए समझौता किया। यह विचार महाभारत के 'शांतिपर्व' और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी मिलता है।
थॉमस हाब्स का दृष्टिकोण
मानव स्वभाव
हाब्स के अनुसार, मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी और आक्रामक होता है। प्राकृतिक अवस्था में, मनुष्य का जीवन "नरक" था।
प्राकृतिक अवस्था
इस अवस्था में कोई भी कानून या व्यवस्था नहीं थी, और मनुष्य शक्ति के आधार पर जीवन जीते थे।
समझौते का कारण
अराजकता और असुरक्षा के कारण, मनुष्यों ने एक मजबूत राज्य की स्थापना के लिए समझौता किया।
राज्य का स्वरूप
हाब्स के अनुसार, समझौते से निरंकुश राजतंत्र की स्थापना हुई, जहां शासक की शक्ति असीमित होती है और प्रजा को विद्रोह का अधिकार नहीं होता।
जॉन लॉक का दृष्टिकोण
मानव स्वभाव
लॉक के अनुसार, मनुष्य स्वभाव से सामाजिक प्राणी है, जिसमें प्रेम और सहयोग की भावना होती है।
प्राकृतिक अवस्था
लॉक की दृष्टि में, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य के पास जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार थे।
समझौते का कारण
प्राकृतिक अवस्था की कुछ असुविधाओं के कारण, जैसे कानून बनाने और पालन करवाने की स्पष्ट व्यवस्था न होना, मनुष्यों ने समझौता किया।
राज्य का स्वरूप
लॉक के अनुसार, यदि सरकार जनता के हित में कार्य नहीं करती, तो जनता को उसे बदलने का अधिकार होता है।
जीन-जैक रूसो का दृष्टिकोण
मानव स्वभाव
रूसो का मानना था कि मनुष्य स्वभाव से अच्छा या बुरा दोनों हो सकता है।
प्राकृतिक अवस्था
रूसो के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य सरल और सुखी जीवन जीते थे, परन्तु संपत्ति के विकास के साथ संघर्ष बढ़ने लगा।
समझौते का कारण
संपत्ति के उदय और संघर्ष के कारण, लोगों ने समाज की स्थापना के लिए समझौता किया।
राज्य का स्वरूप
रूसो ने लोकतांत्रिक समाज की वकालत की, जहां संप्रभुता समाज में निहित होती है और सरकार का आधार सामान्य इच्छा होती है।
सामाजिक समझौता सिद्धांत की आलोचना
ऐतिहासिक आधार
इतिहास में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आदिम मनुष्यों ने समझौते के आधार पर राज्य की स्थापना की हो।
दार्शनिक आधार
यह सिद्धांत राज्य को एक ऐच्छिक संगठन के रूप में देखता है, जबकि राज्य की सदस्यता अनिवार्य होती है।
तार्किक आधार
यह सिद्धांत तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता क्योंकि प्राकृतिक अवस्था में राजनीतिक चेतना का उदय कैसे हुआ।
वैधानिक आधार
प्राकृतिक अवस्था में समझौते की वैधानिकता संदेहास्पद है क्योंकि कोई भी समझौता केवल उन लोगों पर लागू होता है जिन्होंने इसे किया हो।
सिद्धांत की उपयोगिता
इस सिद्धांत ने दैवी सिद्धांत का खंडन किया और यह प्रमाणित किया कि राज्य का आधार जनसहमति है। इसके माध्यम से संप्रभुता के सिद्धांत का विकास हुआ।
निष्कर्ष
सामाजिक समझौता सिद्धांत ने राज्य की उत्पत्ति की समझ को एक नई दिशा दी है और आधुनिक राजनीतिक सोच में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
प्रश्न 03 संप्रभुता के सिद्धांतों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए ।
उत्तर :
1. निरंकुशता (Absolute Sovereignty)
निरंकुशता का मतलब है कि राज्य की संप्रभुता सर्वोच्च और असीमित होती है। राज्य कोई भी कानून बना सकता है, बदल सकता है, और उसका पालन करवाने का अधिकार रखता है। यह संप्रभुता आंतरिक और बाह्य दोनों स्तरों पर लागू होती है।
सैद्धांतिक रूप से सही होते हुए भी व्यवहार में संप्रभुता पर विभिन्न परंपराएं, जनमत, नैतिक नियम, और अंतरराष्ट्रीय कानून प्रतिबंध लगाते हैं। अंतरराष्ट्रीय संगठनों और संधियों के माध्यम से राज्य की संप्रभुता सीमित होती है, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र के नियमों का पालन करना।
2. सर्वव्यापकता (Universality)
राज्य की संप्रभुता उसकी सीमा के भीतर सभी व्यक्तियों और संस्थाओं पर लागू होती है। सभी लोग राज्य निर्मित कानूनों को मानने के बाध्य होते हैं, जो राज्य की शक्ति को वैधता प्रदान करता है।
दूतावास और राजनयिकों को स्थानीय कानूनों से मुक्त रखा जाता है। अंतरराष्ट्रीय कानून और संधियों के तहत, वे विशेषाधिकार प्राप्त करते हैं, जो राज्य की संप्रभुता को चुनौती देते हैं।
3. अदेयता (Inalienability)
संप्रभुता राज्य से जुड़ी होती है और इसे किसी अन्य को नहीं सौंपा जा सकता। यह राज्य की स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को बनाए रखती है।
संघीय व्यवस्थाओं में शक्ति का विकेंद्रीकरण होता है। विभिन्न राज्यों को अधिकार दिए जाते हैं, जिससे संप्रभुता का बंटवारा होता है। उदाहरण के लिए, भारत और अमेरिका में केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।
4. स्थायित्व (Permanence)
संप्रभुता स्थायी होती है और राज्य के अस्तित्व के साथ कायम रहती है। सरकार या शासक के बदलने पर भी यह समाप्त नहीं होती।
गृह युद्ध या क्रांति के दौरान राज्य की संप्रभुता चुनौती दी जा सकती है और समाप्त भी हो सकती है। सोवियत संघ के विघटन के बाद नए स्वतंत्र राज्यों का उदय इस सिद्धांत को चुनौती देता है।
5. अविभाज्यता (Indivisibility)
संप्रभुता पूर्ण होती है और इसका विभाजन नए राज्यों के निर्माण का कारण बनता है। यह राज्य की एकता और अखंडता को बनाए रखता है।
संघीय व्यवस्थाओं में संप्रभुता का बंटवारा होता है। केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है, जैसे अमेरिका में, जहां दोनों सरकारें संप्रभु होती हैं।
6. मौलिकता (Originality)
संप्रभुता जन्मजात होती है और यह राज्य के अस्तित्व का आधार होती है। इसे किसी ने नहीं बनाया, यह राज्य की मौलिक विशेषता है।
आधुनिक राज्य व्यवस्थाओं में, संप्रभुता का स्रोत संविधान, कानून, और जनता होती है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में, संप्रभुता जनता में निहित होती है और इसे संविधान के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।
विविध रूपों की आलोचना:
नाममात्र की सम्प्रभुता और वास्तविक सम्प्रभुता:
उदाहरण: ब्रिटेन में सम्राट नाममात्र का सम्प्रभु है, जबकि संसद वास्तविक सम्प्रभु है।
आलोचना: नाममात्र और वास्तविक संप्रभुता के बीच अंतर से शासन की पारदर्शिता और वैधता पर प्रश्नचिह्न उठते हैं।
विधिक व राजनीतिक सम्प्रभुता:
उदाहरण: ब्रिटीश संसद विधिक सम्प्रभुता का उदाहरण है, जबकि जनता राजनीतिक सम्प्रभुता की प्रतिनिधि होती है।
आलोचना: कानूनी और राजनीतिक दृष्टिकोण में संप्रभुता का भिन्न अर्थ शासन की पारदर्शिता और वैधता को प्रभावित करता है।
विधितः और वस्तुतः सम्प्रभुता:
उदाहरण: रूस में बोल्शेविक क्रांति के बाद लेनिन का सत्ता पर कब्जा।
आलोचना: असंवैधानिक ढंग से सत्ता पर कब्जा करने से विधितः और वस्तुतः संप्रभुता में अंतर उत्पन्न होता है।
लौकिक सम्प्रभुता:
उदाहरण: लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च होती है।
आलोचना: व्यवहार में जनता की इच्छाओं और उनके वास्तविक प्रतिनिधित्व के बीच अंतर हो सकता है, जिससे लौकिक संप्रभुता की वैधता प्रभावित होती है।
निष्कर्ष:
संप्रभुता के सिद्धांत सैद्धांतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन व्यवहारिक रूप से विभिन्न चुनौतियों का सामना करते हैं। आधुनिक संघीय और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में इन सिद्धांतों का पूर्ण रूप से पालन करना संभव नहीं है।
प्रश्न 04 लोकतंत्र से आप क्या समझते हैं? विकासशील देशों में लोकतंत्र की समस्याओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर :
लोकतंत्र का अर्थ एवं परिभाषा
लोकतंत्र शब्द अंग्रेजी भाषा के "डेमोक्रेसी" शब्द का हिन्दी रूपान्तर है, जो दो यूनानी शब्दों से मिलकर बना है - "डेमोस" और "क्रेटोस"। "डेमोस" का अर्थ है "जनता" और "क्रेटोस" का अर्थ है "शासन" या "सरकार"। इस प्रकार, लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ है "जनता का शासन"। लोकतंत्र एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें जनता सरकार का निर्माण करती है, शासन का संचालन करती है और सरकार के प्रति उत्तरदायी होती है। इसमें शासन की सत्ता जनता के हाथों में होती है, जिसका प्रयोग वह या तो सीधे या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से करती है।
महात्मा गांधी ने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा, "लोकतंत्र वह कला एवं विज्ञान है जिसके अन्तर्गत जनसाधारण के विभिन्न वर्गों के भौतिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक संसाधनों को सभी के समान हित की सिद्धि के लिए नियोजित किया जाता है।" **जवाहर लाल नेहरू** के अनुसार, "लोकतंत्र का आशय सहिष्णुता है, न केवल उन लोगों के प्रति जिनसे सहमति हो वरन् उनके प्रति भी जिनसे असहमति हो।"
लोकतंत्र के अन्य विद्वानों ने भी अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं:
- हिरोडोटस: "लोकतंत्र उस शासन व्यवस्था का नाम है जिसमें राज्य की सर्वोच्च सत्ता सम्पूर्ण जनता के हाथों में निवास करती है।"
- सीले: "प्रजातंत्र वह शासन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का एक भाग होता है।"
- जायसी: "प्रजातंत्र वह शासन का स्वरूप है जिसमें शासन प्रबन्ध करने वाली संस्था समूचे राष्ट्र का एक अपेक्षाकृत बड़ा भाग होती है।"
- अब्राहम लिंकन: "लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए (स्थापित) शासन प्रणाली है।"
लोकतंत्र का व्यापक अर्थ
लोकतंत्र केवल एक शासन व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह एक समाज और आर्थिक व्यवस्था का भी एक प्रमुख रूप है। यह एक जीवन दृष्टिकोण है जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है।
1. लोकतंत्र का राजनीतिक स्वरूप: लोकतंत्र में सरकार जनता द्वारा निर्मित, नियंत्रित और संचालित होती है। इसमें शासन की सत्ता की बागडोर जनता में ही निहित होती है। जनता अपनी सत्ता का प्रयोग स्वयं या अपने प्रतिनिधियों द्वारा करती है।
2. लोकतंत्र का सामाजिक स्वरूप: लोकतांत्रिक समाज समानता पर आधारित होता है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार और अवसर प्राप्त होते हैं। समाज में जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता।
3. लोकतंत्र का नैतिक स्वरूप:
लोकतंत्र नैतिकता पर आधारित होता है। इसमें प्रेम, सहयोग, भ्रातृत्व और नैतिकता का विकास होता है। नागरिकों में उच्च नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा जरूरी होती है।
4. लोकतंत्र का आर्थिक स्वरूप:
आर्थिक लोकतंत्र में आर्थिक समानता और स्वतंत्रता होती है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित साधन उपलब्ध होते हैं। समाज में धन का वितरण समान रूप से होता है ताकि सभी लोग इसका लाभ उठा सकें।
5. जीवन का एक रूप: लोकतंत्र जीवन का एक रूप भी है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान होता है और उसकी आंतरिक नैतिक एवं आध्यात्मिक क्षमता का विकास किया जाता है।
विकासशील देशों में लोकतंत्र की समस्याएं
दूसरे विश्व युद्ध के बाद, एशिया और अफ्रीका के कई देश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र हुए और लोकतांत्रिक शासन पद्धति को अपनाया। हालांकि, इन देशों में लोकतंत्र की स्थापना और स्थिरता के लिए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। इनमें से कुछ प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं:
1. जातीय और सांस्कृतिक विविधता
- विकासशील देशों में जातीय, धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता बहुत अधिक होती है। यह विविधता राजनीतिक दलों और संगठनों में भी परिलक्षित होती है। जातीय समूहों के बीच भेदभाव, चाहे वह काल्पनिक हो या वास्तविक, लोकतंत्र में उनकी आस्था को कमजोर कर सकता है। इस भेदभाव के कारण कई बार साम्प्रदायिक दंगे और हिंसा की घटनाएं होती हैं, जो लोकतंत्र को कमजोर करती हैं।
2. आर्थिक पिछड़ापन
- अधिकांश विकासशील देश आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। गरीबी, बेरोजगारी और असमानता जैसी समस्याएं यहाँ आम हैं। आर्थिक रूप से कमजोर जनता सरकार से अधिक विकास और सुधार की अपेक्षा करती है। अगर सरकार इन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाती, तो जनता का विश्वास लोकतांत्रिक प्रणाली से उठ सकता है।
3. शिक्षा और जागरूकता का अभाव
- विकासशील देशों में शिक्षा का स्तर निम्न होता है और जनता में राजनीतिक जागरूकता की कमी होती है। अशिक्षित और अनपढ़ जनता अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत नहीं होती, जिससे वे चुनावों में सही निर्णय नहीं ले पाती। इससे लोकतंत्र की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
4. एकदलीय या अधिनायकवादी शासन
- कई विकासशील देशों में एकदलीय प्रणाली या अधिनायकवादी शासन की प्रवृत्ति होती है। सत्ता में बने रहने के लिए एक दल या नेता सभी संसाधनों का उपयोग करता है और विपक्ष को दबाने की कोशिश करता है। इससे लोकतंत्र की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते हैं।
5. राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार
- विकासशील देशों में राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार आम समस्याएं हैं। बार-बार सरकार बदलने से शासन की स्थिरता प्रभावित होती है। भ्रष्टाचार के कारण सरकारी नीतियों और योजनाओं का सही क्रियान्वयन नहीं हो पाता, जिससे जनता का विश्वास सरकार पर से उठ सकता है।
6. सैन्य हस्तक्षेप
- कुछ विकासशील देशों में सैन्य हस्तक्षेप की प्रवृत्ति होती है। सेना के द्वारा सत्ता पर कब्जा करना और तानाशाही शासन स्थापित करना लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है। पाकिस्तान और म्यांमार जैसे देशों में सैन्य तख्तापलट के उदाहरण देखे जा सकते हैं।
7. मीडिया की स्वतंत्रता का अभाव
- लोकतंत्र में मीडिया की स्वतंत्रता अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। विकासशील देशों में अक्सर मीडिया पर सरकारी नियंत्रण होता है। स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया के अभाव में जनता सही सूचनाओं से वंचित रह जाती है, जिससे लोकतंत्र की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
8. लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमजोरी
- विकासशील देशों में लोकतांत्रिक संस्थाएं जैसे न्यायपालिका, चुनाव आयोग, और अन्य नियामक संस्थाएं अक्सर कमजोर होती हैं। इनकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं। मजबूत लोकतांत्रिक संस्थाओं के अभाव में लोकतंत्र सही ढंग से कार्य नहीं कर पाता।
निष्कर्ष:
लोकतंत्र एक आदर्श शासन प्रणाली है जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित है। यह केवल शासन का एक रूप नहीं है, बल्कि समाज और आर्थिक व्यवस्था का भी एक प्रमुख रूप है। विकासशील देशों में लोकतंत्र की स्थापना और स्थिरता के लिए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जातीय और सांस्कृतिक विविधता, आर्थिक पिछड़ापन, शिक्षा का अभाव, एकदलीय शासन, राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार, सैन्य हस्तक्षेप, मीडिया की स्वतंत्रता का अभाव, और कमजोर लोकतांत्रिक संस्थाएं इन समस्याओं में प्रमुख हैं। इन समस्याओं के समाधान के लिए समुचित नीति निर्माण और उसके क्रियान्वयन की आवश्यकता है ताकि लोकतंत्र का सही मायने में विकास हो सके और जनता के हितों की पूर्ति हो सके।
प्रश्न 05 न्याय से आप क्या समझते हैं? भारत में इसे कैसे लागू किया गया है?
उत्तर :
न्याय का अर्थ
न्याय एक मौलिक अवधारणा है जो मानव समाज और नैतिक सिद्धांतों के केंद्र में स्थित है। यह निष्पक्षता, समानता और व्यक्तियों के साथ न्यायसंगत व्यवहार को शामिल करता है। न्याय का मूल विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसका हक दिया जाए, चाहे वह अधिकारों, अवसरों, या उनके कार्यों के परिणामों के संदर्भ में हो। न्याय सांस्कृतिक, धार्मिक और दार्शनिक सीमाओं से परे निष्पक्षता और कानून के शासन के मूल्यों को बनाए रखने का प्रयास करता है।
न्याय की अवधारणा मानव सभ्यता के दौरान विकसित हुई है, जो प्राचीन सभ्यताओं के कानूनी प्रावधानों, प्रसिद्ध दार्शनिकों के नैतिक सिद्धांतों और असमानताओं का मुकाबला करने के लिए उभरे सामाजिक न्याय आंदोलनों में अभिव्यक्ति पाती है। यह प्रतिशोधात्मक न्याय की मांग हो या उपचार और मेल-मिलाप को बढ़ावा देने के लिए पुनर्स्थापनात्मक न्याय की, अपने अंतर्निहित उद्देश्य में इसका लक्ष्य एक संतुलित और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना करना है।
प्राचीन सभ्यताओं में न्याय
1. मेसोपोटामिया
- हम्बूराबी संहिता में "लेक्स टैलियोनिस" या "आंख के बदले आंख" का सिद्धांत शामिल था, जो प्रतिशोधात्मक न्याय का एक उदाहरण है।
- न्याय की अवधारणा सर्वोच्च प्राधिकारी और न्याय प्रदान करने वाले के रूप में राजा की भूमिका से जुड़ी हुई थी।
2. प्राचीन मिस्र
- न्याय सत्य, न्याय और सद्भाव की देवी माट (Ma'at) से जुड़ा था, जो ब्रह्मांडीय व्यवस्था और सत्य, संतुलन और धार्मिकता के सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करती थी।
3. प्राचीन ग्रीस
- प्लेटो और अरस्तू ने न्याय के विभिन्न पहलुओं की खोज की। प्लेटो ने "रिपब्लिक" में न्यायपूर्ण समाज की चर्चा की, जबकि अरस्तू ने वितरणात्मक और सुधारात्मक न्याय के बीच अंतर किया।
4. प्राचीन भारत:
- न्याय की अवधारणा "धर्म" के सिद्धांत से जुड़ी थी, जिसमें नैतिक और नैतिक कर्तव्य शामिल थे। प्राचीन ग्रंथों ने धार्मिक आचरण और किसी के धर्म का पालन करने के महत्व पर जोर दिया।
भारत में न्याय की अवधारणा और उसका कार्यान्वयन
भारत में न्याय की अवधारणा भारतीय संविधान में गहराई से निहित है। संविधान में न्याय को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है और इसे सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक संदर्भ में देखा गया है। संविधान का प्रस्तावना (Preamble) न्याय की इस त्रिमूर्ति की पुष्टि करता है - "सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय"।
1. संवैधानिक प्रावधान
- संविधान की प्रस्तावना: प्रस्तावना में "न्याय" की अवधारणा को समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति के तीनों आयामों में समाहित किया गया है।
- मौलिक अधिकार (Part III): संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया है जो न्याय की रक्षा और संवर्धन के लिए आवश्यक हैं। इनमें समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22), और शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24) शामिल हैं।
- मौलिक कर्तव्य (Part IV A): संविधान के भाग IV A में नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है, जो समाज में न्याय और सद्भाव बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं।
2. न्यायपालिका:
- स्वतंत्र न्यायपालिका: भारत में न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष है, जो न्याय की अवधारणा को मजबूत बनाती है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों का मुख्य कार्य न्याय का पालन सुनिश्चित करना है।
- लोक अदालतें: भारत में न्याय को सुलभ और सस्ता बनाने के लिए लोक अदालतों का प्रावधान किया गया है, जहां विवादों का त्वरित और सुलभ समाधान किया जाता है।
3. विधायी और कार्यकारी प्रावधान:
- कानून का शासन: भारत में कानून का शासन सर्वोच्च है और सभी व्यक्ति, चाहे वे कितने भी शक्तिशाली क्यों न हों, कानून के समक्ष समान हैं।
- आरक्षण नीति: सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
- मुफ्त कानूनी सहायता: आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लोगों को न्याय प्राप्त करने में सहायता देने के लिए मुफ्त कानूनी सहायता का प्रावधान है।
4. सामाजिक और आर्थिक न्याय:
- भूमि सुधार: भूमि सुधार कार्यक्रमों के माध्यम से भूमिहीन किसानों और गरीबों को भूमि का वितरण किया गया है।
- मनरेगा: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की गारंटी प्रदान की जाती है, जिससे आर्थिक न्याय सुनिश्चित होता है।
- शिक्षा का अधिकार: शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत सभी बच्चों को 6 से 14 वर्ष की आयु तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्राप्त है।
5. संवैधानिक संशोधन और न्यायिक सक्रियता:
- संविधान का 42वां संशोधन: 1976 में किए गए 42वें संशोधन ने न्याय की अवधारणा को और अधिक स्पष्टता और मजबूती प्रदान की, जिससे मौलिक अधिकारों की व्याख्या में व्यापकता आई।
- न्यायिक सक्रियता: भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर न्यायिक सक्रियता का प्रयोग करके न्याय को संवर्धित किया है। जैसे, "विशाखा गाइडलाइंस" के माध्यम से कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करना।
निष्कर्ष:
न्याय एक मौलिक अवधारणा है जो मानव समाज और नैतिक सिद्धांतों के केंद्र में स्थित है। भारत में न्याय को संवैधानिक, विधायी, और न्यायिक प्रावधानों के माध्यम से लागू किया गया है। यह केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि एक व्यापक दृष्टिकोण है जो सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित करने का प्रयास करता है। न्याय की इस अवधारणा का पालन करने के लिए सरकार, न्यायपालिका और समाज के सभी वर्गों को मिलकर काम करना आवश्यक है ताकि एक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण हो सके।
लघु उत्तरीय प्रश्न