UOU BAPS(N)101 SOLVED PAPER DECEMBER 2023, राजनीति विज्ञान के सिद्धांत

नमस्कार दोस्तों,

                    आज के इस ब्लॉग में मैं आपको उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी के BA प्रथम वर्ष के पेपर इसका कोड है BAPS(N)101 के दो क्वेश्चन के आंसर देने वाला हूं। 

आपको पता होगा कि फरवरी, मार्च 2024 में बीए प्रथम वर्ष के पेपर हुए थे। जिसका प्रश्न पत्र मैं इससे पिछले वाले ब्लॉग में दिया गया है। आपको मालूम होगा की किताब में कितना कॉम्प्लिकेटेड क्वेश्चन का आंसर है तो इसी समस्या का निवारण लेकर आपके सामने में  विस्तृत उत्तरीय प्रश्न का उत्तर लेकर आया हूं अगर आपको अच्छा लगता है तो कमेंट में मुझे जरूर बताएं। 


प्रश्न 01- राजनीति विज्ञान के अर्थ, प्रकृति एवं क्षेत्र की व्याख्या कीजिए।

उत्तर: 

भूमिका

राजनीति विज्ञान एक प्राचीन अनुशासन है, जिसकी जड़ें प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो और अरस्तू के समय से मिलती हैं। इसे यूनानियों ने सबसे पहले आलोचनात्मक और तर्क सम्मत चिंतन की दृष्टि से देखा। यह अध्ययन नगर-राज्य 'पोलिस' की राजनीतिक गतिविधियों पर आधारित था। राजनीति विज्ञान का हिन्दी रूपान्तरण अंग्रेजी शब्द 'Political Science' से हुआ है। यह विज्ञान राज्य, समाज और व्यक्ति के बीच के संबंधों और राजनीतिक प्रक्रियाओं का गहन अध्ययन करता है।

 राजनीति विज्ञान की परिभाषा

राजनीति विज्ञान की परिभाषा समय के साथ बदलती रही है। प्राचीन यूनानी और रोमन काल से लेकर मध्ययुगीन और आधुनिक समय तक विभिन्न विद्वानों ने इसे अलग-अलग दृष्टिकोण से परिभाषित किया है।


 परम्परागत परिभाषाएँ

1. राज्य के अध्ययन के रूप में: गार्नर, ब्लंटश्ली, गैरीज आदि के अनुसार, राजनीति विज्ञान का मुख्य क्षेत्र राज्य का अध्ययन है। यह राज्य के उदभव, विकास, संगठन और उसके कार्यों का अध्ययन करता है।

2. सरकार के अध्ययन के रूप में: सीले, जेम्स, लीकॉक के अनुसार, राजनीति विज्ञान का अध्ययन राज्य की मूर्तरूप सरकार का अध्ययन है।

3. राज्य और सरकार दोनों के अध्ययन के रूप में: गिलक्राइस्ट, डिमॉक, पॉल जैनेट के अनुसार, राजनीति विज्ञान राज्य और सरकार दोनों का अध्ययन है।

आधुनिक परिभाषाएँ

1. शक्ति का विज्ञान: केटलिन, डेविड ईस्टन, लासवैल और केपलान के अनुसार, राजनीति विज्ञान शक्ति और सत्ता का अध्ययन है।

2. मानव व्यवहार का अध्ययन: ग्राहम वालास, ए०एफ० बेंटले, डेविड ईस्टन आदि के अनुसार, राजनीति विज्ञान मानव के राजनीतिक व्यवहार और प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है।

 राजनीति विज्ञान का क्षेत्र

राजनीति विज्ञान का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है और समय के साथ इसका विस्तार और संकुचन हुआ है। इसे परम्परागत और आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विभाजित किया जा सकता है।

परम्परागत परिप्रेक्ष्य में क्षेत्र


1. राज्य का अध्ययन: राज्य की उत्पत्ति, विकास, संगठन, उद्देश्य और कार्यों का अध्ययन।

2. सरकार का अध्ययन: सरकार के विभिन्न रूप, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का अध्ययन।

3. स्थानीय, Searching और अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का अध्ययन: स्थानीय स्वायत्तता, राष्ट्रीय संस्थाएँ और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन।

4. अंतर्राष्ट्रीय विधि, संबंधों और संगठनों का अध्ययन: सन्धियाँ, प्रत्यर्पण, मानवाधिकार, संयुक्त राष्ट्र संघ आदि का अध्ययन।

5. राजनीतिक सिद्धान्तों और विचारधाराओं का अध्ययन: राज्य की उत्पत्ति, संगठन, विकास, प्रक्रिया, उद्देश्य और कार्यों संबंधी सिद्धान्तों का अध्ययन।

6. शासन प्रबन्ध का अध्ययन: लोक प्रशासन और प्रशासनिक दक्षता का अध्ययन।

7. अन्य सामाजिक विज्ञानों का अध्ययन: राजनीति विज्ञान का अध्ययन अन्य सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन के बिना अधूरा माना जाता है।

8. राजनीतिक दलों और दबाव गुटों का अध्ययन: राजनीतिक जीवन को गति देने वाले दलों और गुटों का अध्ययन।


आधुनिक परिप्रेक्ष्य में क्षेत्र


1. राजनीतिक व्यवस्था का अध्ययन: डेविड ईस्टन और आमण्ड पावेल के अनुसार, राजनीतिक व्यवस्था पारस्परिक संबंधों का जाल है जिसके द्वारा समाज संबंधी आधिकारिक निर्णय लिये जाते हैं।

2. अन्य सामाजिक विज्ञानों का अध्ययन: मानव के राजनीतिक विचारों को प्रभावित करने वाले सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक, मनोवैज्ञानिक तत्वों का अध्ययन।

3. शक्ति और प्रभाव का अध्ययन: आधुनिक राजनीति विज्ञान शक्ति और प्रभाव का अध्ययन करता है।

4. राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन: राजनीतिक संस्थाओं की चालक शक्ति- मानवीय व्यवहार का अध्ययन।

5. राजनीतिक क्रियाओं का अध्ययन: राजनीतिक क्रियाओं और प्रक्रियाओं का अध्ययन।

6. सार्वजनिक सहमति और सामान्य मत का अध्ययन: सहमति और सामान्य मत का अध्ययन।

7. समस्याओं और संघर्ष का अध्ययन: विभिन्न समस्याओं और संघर्षों का अध्ययन।

8. विविध विषय क्षेत्र: राजनीतिक संस्कृति, समाजीकरण, राजनीतिक-आर्थिक विकास आदि का अध्ययन।


 राजनीति विज्ञान की प्रासंगिकता


आधुनिक समय में राजनीति विज्ञान की प्रासंगिकता लगातार बढ़ रही है। यह शासन के संचालन का दिशायंत्र है और समय-समय पर नये सिद्धान्तों का गढ़ना इसकी प्रासंगिकता को सिद्ध करता है। राजनीति विज्ञान की अध्ययन सामग्री न केवल राजनीतिक अध्येताओं, शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है बल्कि आम जनता के लिए भी महत्वपूर्ण है।


आधुनिक राजनीति विज्ञान के सिद्धान्त, जैसे कि न्याय, समानता, स्वतंत्रता और क्रान्ति, समस्याओं के समाधान की तलाश में मददगार साबित होते हैं। चाहे मुद्दा आरक्षण का हो, लिंगभेद का, नारी-पराश्रितता का या कोई अन्य, हमारे पास आज राजनीतिक सिद्धान्त हैं जो इन समस्याओं से निपटने के लिए दिशा निर्देशन करते हैं।


निष्कर्ष


राजनीति विज्ञान एक व्यापक और गहन अनुशासन है जो राज्य, सरकार, शक्ति, प्रभाव, मानव व्यवहार और राजनीतिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। इसकी परिभाषाएँ और क्षेत्र समय के साथ बदलते रहे हैं, और आधुनिक समय में इसकी प्रासंगिकता बढ़ती ही जा रही है। राजनीति विज्ञान न केवल शासकों के लिए बल्कि आम जनता के लिए भी महत्वपूर्ण है, और यह समाज में शांति और स्थिरता बनाए रखने में मदद करता है।


प्रश्न 02 राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।

उत्तर : 


भूमिका

सामाजिक समझौता सिद्धांत राज्य की उत्पत्ति के एक महत्वपूर्ण सिद्धांत के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह सिद्धांत राज्य को मानव निर्मित संस्था के रूप में देखता है, न कि ईश्वरीय। इस सिद्धांत के अनुसार, राज्य का निर्माण व्यक्तियों के पारस्परिक समझौते से हुआ है।


सामाजिक समझौता सिद्धांत का परिचय

सामाजिक समझौता सिद्धांत यह मानता है कि राज्य की स्थापना मानवों के परस्पर समझौते द्वारा हुई। प्राकृतिक अवस्था में जीवन असुरक्षित और अराजक था, जिसके कारण व्यक्तियों ने एक राजनीतिक समाज की स्थापना के लिए समझौता किया। यह विचार महाभारत के 'शांतिपर्व' और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी मिलता है। 

थॉमस हाब्स का दृष्टिकोण


मानव स्वभाव

हाब्स के अनुसार, मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी और आक्रामक होता है। प्राकृतिक अवस्था में, मनुष्य का जीवन "नरक" था।


प्राकृतिक अवस्था

इस अवस्था में कोई भी कानून या व्यवस्था नहीं थी, और मनुष्य शक्ति के आधार पर जीवन जीते थे।

समझौते का कारण

अराजकता और असुरक्षा के कारण, मनुष्यों ने एक मजबूत राज्य की स्थापना के लिए समझौता किया।


राज्य का स्वरूप

हाब्स के अनुसार, समझौते से निरंकुश राजतंत्र की स्थापना हुई, जहां शासक की शक्ति असीमित होती है और प्रजा को विद्रोह का अधिकार नहीं होता।


जॉन लॉक का दृष्टिकोण


मानव स्वभाव

लॉक के अनुसार, मनुष्य स्वभाव से सामाजिक प्राणी है, जिसमें प्रेम और सहयोग की भावना होती है।


प्राकृतिक अवस्था

लॉक की दृष्टि में, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य के पास जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार थे।


समझौते का कारण

प्राकृतिक अवस्था की कुछ असुविधाओं के कारण, जैसे कानून बनाने और पालन करवाने की स्पष्ट व्यवस्था न होना, मनुष्यों ने समझौता किया।


राज्य का स्वरूप

लॉक के अनुसार, यदि सरकार जनता के हित में कार्य नहीं करती, तो जनता को उसे बदलने का अधिकार होता है। 


जीन-जैक रूसो का दृष्टिकोण


मानव स्वभाव

रूसो का मानना था कि मनुष्य स्वभाव से अच्छा या बुरा दोनों हो सकता है।


प्राकृतिक अवस्था

रूसो के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य सरल और सुखी जीवन जीते थे, परन्तु संपत्ति के विकास के साथ संघर्ष बढ़ने लगा।


समझौते का कारण

संपत्ति के उदय और संघर्ष के कारण, लोगों ने समाज की स्थापना के लिए समझौता किया।


राज्य का स्वरूप

रूसो ने लोकतांत्रिक समाज की वकालत की, जहां संप्रभुता समाज में निहित होती है और सरकार का आधार सामान्य इच्छा होती है।


सामाजिक समझौता सिद्धांत की आलोचना


ऐतिहासिक आधार

इतिहास में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आदिम मनुष्यों ने समझौते के आधार पर राज्य की स्थापना की हो।


दार्शनिक आधार

यह सिद्धांत राज्य को एक ऐच्छिक संगठन के रूप में देखता है, जबकि राज्य की सदस्यता अनिवार्य होती है।


तार्किक आधार

यह सिद्धांत तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता क्योंकि प्राकृतिक अवस्था में राजनीतिक चेतना का उदय कैसे हुआ।


वैधानिक आधार

प्राकृतिक अवस्था में समझौते की वैधानिकता संदेहास्पद है क्योंकि कोई भी समझौता केवल उन लोगों पर लागू होता है जिन्होंने इसे किया हो।


सिद्धांत की उपयोगिता

इस सिद्धांत ने दैवी सिद्धांत का खंडन किया और यह प्रमाणित किया कि राज्य का आधार जनसहमति है। इसके माध्यम से संप्रभुता के सिद्धांत का विकास हुआ।


निष्कर्ष

सामाजिक समझौता सिद्धांत ने राज्य की उत्पत्ति की समझ को एक नई दिशा दी है और आधुनिक राजनीतिक सोच में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

 प्रश्न 03 संप्रभुता के सिद्धांतों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए ।

उत्तर : 

1. निरंकुशता (Absolute Sovereignty)

निरंकुशता का मतलब है कि राज्य की संप्रभुता सर्वोच्च और असीमित होती है। राज्य कोई भी कानून बना सकता है, बदल सकता है, और उसका पालन करवाने का अधिकार रखता है। यह संप्रभुता आंतरिक और बाह्य दोनों स्तरों पर लागू होती है।


सैद्धांतिक रूप से सही होते हुए भी व्यवहार में संप्रभुता पर विभिन्न परंपराएं, जनमत, नैतिक नियम, और अंतरराष्ट्रीय कानून प्रतिबंध लगाते हैं। अंतरराष्ट्रीय संगठनों और संधियों के माध्यम से राज्य की संप्रभुता सीमित होती है, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र के नियमों का पालन करना।


 2. सर्वव्यापकता (Universality)

राज्य की संप्रभुता उसकी सीमा के भीतर सभी व्यक्तियों और संस्थाओं पर लागू होती है। सभी लोग राज्य निर्मित कानूनों को मानने के बाध्य होते हैं, जो राज्य की शक्ति को वैधता प्रदान करता है।

दूतावास और राजनयिकों को स्थानीय कानूनों से मुक्त रखा जाता है। अंतरराष्ट्रीय कानून और संधियों के तहत, वे विशेषाधिकार प्राप्त करते हैं, जो राज्य की संप्रभुता को चुनौती देते हैं।


 3. अदेयता (Inalienability)

संप्रभुता राज्य से जुड़ी होती है और इसे किसी अन्य को नहीं सौंपा जा सकता। यह राज्य की स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को बनाए रखती है।

संघीय व्यवस्थाओं में शक्ति का विकेंद्रीकरण होता है। विभिन्न राज्यों को अधिकार दिए जाते हैं, जिससे संप्रभुता का बंटवारा होता है। उदाहरण के लिए, भारत और अमेरिका में केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।


 4. स्थायित्व (Permanence)

संप्रभुता स्थायी होती है और राज्य के अस्तित्व के साथ कायम रहती है। सरकार या शासक के बदलने पर भी यह समाप्त नहीं होती।


गृह युद्ध या क्रांति के दौरान राज्य की संप्रभुता चुनौती दी जा सकती है और समाप्त भी हो सकती है। सोवियत संघ के विघटन के बाद नए स्वतंत्र राज्यों का उदय इस सिद्धांत को चुनौती देता है।


 5. अविभाज्यता (Indivisibility)

संप्रभुता पूर्ण होती है और इसका विभाजन नए राज्यों के निर्माण का कारण बनता है। यह राज्य की एकता और अखंडता को बनाए रखता है।

संघीय व्यवस्थाओं में संप्रभुता का बंटवारा होता है। केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है, जैसे अमेरिका में, जहां दोनों सरकारें संप्रभु होती हैं।


 6. मौलिकता (Originality)

संप्रभुता जन्मजात होती है और यह राज्य के अस्तित्व का आधार होती है। इसे किसी ने नहीं बनाया, यह राज्य की मौलिक विशेषता है।

आधुनिक राज्य व्यवस्थाओं में, संप्रभुता का स्रोत संविधान, कानून, और जनता होती है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में, संप्रभुता जनता में निहित होती है और इसे संविधान के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।


विविध रूपों की आलोचना:


 नाममात्र की सम्प्रभुता और वास्तविक सम्प्रभुता:

उदाहरण: ब्रिटेन में सम्राट नाममात्र का सम्प्रभु है, जबकि संसद वास्तविक सम्प्रभु है।

आलोचना: नाममात्र और वास्तविक संप्रभुता के बीच अंतर से शासन की पारदर्शिता और वैधता पर प्रश्नचिह्न उठते हैं।


 विधिक व राजनीतिक सम्प्रभुता:

उदाहरण: ब्रिटीश संसद विधिक सम्प्रभुता का उदाहरण है, जबकि जनता राजनीतिक सम्प्रभुता की प्रतिनिधि होती है।

आलोचना: कानूनी और राजनीतिक दृष्टिकोण में संप्रभुता का भिन्न अर्थ शासन की पारदर्शिता और वैधता को प्रभावित करता है।


 विधितः और वस्तुतः सम्प्रभुता:

उदाहरण: रूस में बोल्शेविक क्रांति के बाद लेनिन का सत्ता पर कब्जा।

आलोचना: असंवैधानिक ढंग से सत्ता पर कब्जा करने से विधितः और वस्तुतः संप्रभुता में अंतर उत्पन्न होता है।


लौकिक सम्प्रभुता:

उदाहरण: लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च होती है।

आलोचना: व्यवहार में जनता की इच्छाओं और उनके वास्तविक प्रतिनिधित्व के बीच अंतर हो सकता है, जिससे लौकिक संप्रभुता की वैधता प्रभावित होती है।


निष्कर्ष:

संप्रभुता के सिद्धांत सैद्धांतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन व्यवहारिक रूप से विभिन्न चुनौतियों का सामना करते हैं। आधुनिक संघीय और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में इन सिद्धांतों का पूर्ण रूप से पालन करना संभव नहीं है।


प्रश्न 04 लोकतंत्र से आप क्या समझते हैं? विकासशील देशों में लोकतंत्र की समस्याओं की विवेचना कीजिए।

उत्तर :

 लोकतंत्र का अर्थ एवं परिभाषा


लोकतंत्र शब्द अंग्रेजी भाषा के "डेमोक्रेसी" शब्द का हिन्दी रूपान्तर है, जो दो यूनानी शब्दों से मिलकर बना है - "डेमोस" और "क्रेटोस"। "डेमोस" का अर्थ है "जनता" और "क्रेटोस" का अर्थ है "शासन" या "सरकार"। इस प्रकार, लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ है "जनता का शासन"। लोकतंत्र एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें जनता सरकार का निर्माण करती है, शासन का संचालन करती है और सरकार के प्रति उत्तरदायी होती है। इसमें शासन की सत्ता जनता के हाथों में होती है, जिसका प्रयोग वह या तो सीधे या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से करती है।


महात्मा गांधी ने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा, "लोकतंत्र वह कला एवं विज्ञान है जिसके अन्तर्गत जनसाधारण के विभिन्न वर्गों के भौतिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक संसाधनों को सभी के समान हित की सिद्धि के लिए नियोजित किया जाता है।" **जवाहर लाल नेहरू** के अनुसार, "लोकतंत्र का आशय सहिष्णुता है, न केवल उन लोगों के प्रति जिनसे सहमति हो वरन् उनके प्रति भी जिनसे असहमति हो।"


लोकतंत्र के अन्य विद्वानों ने भी अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं:


हिरोडोटस: "लोकतंत्र उस शासन व्यवस्था का नाम है जिसमें राज्य की सर्वोच्च सत्ता सम्पूर्ण जनता के हाथों में निवास करती है।"

सीले: "प्रजातंत्र वह शासन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का एक भाग होता है।"

- जायसी: "प्रजातंत्र वह शासन का स्वरूप है जिसमें शासन प्रबन्ध करने वाली संस्था समूचे राष्ट्र का एक अपेक्षाकृत बड़ा भाग होती है।"

- अब्राहम लिंकन: "लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए (स्थापित) शासन प्रणाली है।"


लोकतंत्र का व्यापक अर्थ


लोकतंत्र केवल एक शासन व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह एक समाज और आर्थिक व्यवस्था का भी एक प्रमुख रूप है। यह एक जीवन दृष्टिकोण है जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है।


1. लोकतंत्र का राजनीतिक स्वरूप: लोकतंत्र में सरकार जनता द्वारा निर्मित, नियंत्रित और संचालित होती है। इसमें शासन की सत्ता की बागडोर जनता में ही निहित होती है। जनता अपनी सत्ता का प्रयोग स्वयं या अपने प्रतिनिधियों द्वारा करती है।


2. लोकतंत्र का सामाजिक स्वरूप: लोकतांत्रिक समाज समानता पर आधारित होता है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार और अवसर प्राप्त होते हैं। समाज में जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता।


3. लोकतंत्र का नैतिक स्वरूप: 

लोकतंत्र नैतिकता पर आधारित होता है। इसमें प्रेम, सहयोग, भ्रातृत्व और नैतिकता का विकास होता है। नागरिकों में उच्च नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा जरूरी होती है।


4. लोकतंत्र का आर्थिक स्वरूप

आर्थिक लोकतंत्र में आर्थिक समानता और स्वतंत्रता होती है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित साधन उपलब्ध होते हैं। समाज में धन का वितरण समान रूप से होता है ताकि सभी लोग इसका लाभ उठा सकें।


5. जीवन का एक रूप: लोकतंत्र जीवन का एक रूप भी है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान होता है और उसकी आंतरिक नैतिक एवं आध्यात्मिक क्षमता का विकास किया जाता है।


विकासशील देशों में लोकतंत्र की समस्याएं


दूसरे विश्व युद्ध के बाद, एशिया और अफ्रीका के कई देश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र हुए और लोकतांत्रिक शासन पद्धति को अपनाया। हालांकि, इन देशों में लोकतंत्र की स्थापना और स्थिरता के लिए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। इनमें से कुछ प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं:


1. जातीय और सांस्कृतिक विविधता 

   - विकासशील देशों में जातीय, धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता बहुत अधिक होती है। यह विविधता राजनीतिक दलों और संगठनों में भी परिलक्षित होती है। जातीय समूहों के बीच भेदभाव, चाहे वह काल्पनिक हो या वास्तविक, लोकतंत्र में उनकी आस्था को कमजोर कर सकता है। इस भेदभाव के कारण कई बार साम्प्रदायिक दंगे और हिंसा की घटनाएं होती हैं, जो लोकतंत्र को कमजोर करती हैं।


2. आर्थिक पिछड़ापन

   - अधिकांश विकासशील देश आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। गरीबी, बेरोजगारी और असमानता जैसी समस्याएं यहाँ आम हैं। आर्थिक रूप से कमजोर जनता सरकार से अधिक विकास और सुधार की अपेक्षा करती है। अगर सरकार इन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाती, तो जनता का विश्वास लोकतांत्रिक प्रणाली से उठ सकता है।


3. शिक्षा और जागरूकता का अभाव

   - विकासशील देशों में शिक्षा का स्तर निम्न होता है और जनता में राजनीतिक जागरूकता की कमी होती है। अशिक्षित और अनपढ़ जनता अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत नहीं होती, जिससे वे चुनावों में सही निर्णय नहीं ले पाती। इससे लोकतंत्र की गुणवत्ता प्रभावित होती है।


4. एकदलीय या अधिनायकवादी शासन

   - कई विकासशील देशों में एकदलीय प्रणाली या अधिनायकवादी शासन की प्रवृत्ति होती है। सत्ता में बने रहने के लिए एक दल या नेता सभी संसाधनों का उपयोग करता है और विपक्ष को दबाने की कोशिश करता है। इससे लोकतंत्र की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते हैं।


5. राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार

   - विकासशील देशों में राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार आम समस्याएं हैं। बार-बार सरकार बदलने से शासन की स्थिरता प्रभावित होती है। भ्रष्टाचार के कारण सरकारी नीतियों और योजनाओं का सही क्रियान्वयन नहीं हो पाता, जिससे जनता का विश्वास सरकार पर से उठ सकता है।


6. सैन्य हस्तक्षेप

   - कुछ विकासशील देशों में सैन्य हस्तक्षेप की प्रवृत्ति होती है। सेना के द्वारा सत्ता पर कब्जा करना और तानाशाही शासन स्थापित करना लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है। पाकिस्तान और म्यांमार जैसे देशों में सैन्य तख्तापलट के उदाहरण देखे जा सकते हैं।


7. मीडिया की स्वतंत्रता का अभाव

   - लोकतंत्र में मीडिया की स्वतंत्रता अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। विकासशील देशों में अक्सर मीडिया पर सरकारी नियंत्रण होता है। स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया के अभाव में जनता सही सूचनाओं से वंचित रह जाती है, जिससे लोकतंत्र की गुणवत्ता प्रभावित होती है।


8. लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमजोरी

   - विकासशील देशों में लोकतांत्रिक संस्थाएं जैसे न्यायपालिका, चुनाव आयोग, और अन्य नियामक संस्थाएं अक्सर कमजोर होती हैं। इनकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं। मजबूत लोकतांत्रिक संस्थाओं के अभाव में लोकतंत्र सही ढंग से कार्य नहीं कर पाता।


निष्कर्ष:


लोकतंत्र एक आदर्श शासन प्रणाली है जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित है। यह केवल शासन का एक रूप नहीं है, बल्कि समाज और आर्थिक व्यवस्था का भी एक प्रमुख रूप है। विकासशील देशों में लोकतंत्र की स्थापना और स्थिरता के लिए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जातीय और सांस्कृतिक विविधता, आर्थिक पिछड़ापन, शिक्षा का अभाव, एकदलीय शासन, राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार, सैन्य हस्तक्षेप, मीडिया की स्वतंत्रता का अभाव, और कमजोर लोकतांत्रिक संस्थाएं इन समस्याओं में प्रमुख हैं। इन समस्याओं के समाधान के लिए समुचित नीति निर्माण और उसके क्रियान्वयन की आवश्यकता है ताकि लोकतंत्र का सही मायने में विकास हो सके और जनता के हितों की पूर्ति हो सके।


प्रश्न 05 न्याय से आप क्या समझते हैं? भारत में इसे कैसे लागू किया गया है?

उत्तर :

 न्याय का अर्थ

न्याय एक मौलिक अवधारणा है जो मानव समाज और नैतिक सिद्धांतों के केंद्र में स्थित है। यह निष्पक्षता, समानता और व्यक्तियों के साथ न्यायसंगत व्यवहार को शामिल करता है। न्याय का मूल विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसका हक दिया जाए, चाहे वह अधिकारों, अवसरों, या उनके कार्यों के परिणामों के संदर्भ में हो। न्याय सांस्कृतिक, धार्मिक और दार्शनिक सीमाओं से परे निष्पक्षता और कानून के शासन के मूल्यों को बनाए रखने का प्रयास करता है।


न्याय की अवधारणा मानव सभ्यता के दौरान विकसित हुई है, जो प्राचीन सभ्यताओं के कानूनी प्रावधानों, प्रसिद्ध दार्शनिकों के नैतिक सिद्धांतों और असमानताओं का मुकाबला करने के लिए उभरे सामाजिक न्याय आंदोलनों में अभिव्यक्ति पाती है। यह प्रतिशोधात्मक न्याय की मांग हो या उपचार और मेल-मिलाप को बढ़ावा देने के लिए पुनर्स्थापनात्मक न्याय की, अपने अंतर्निहित उद्देश्य में इसका लक्ष्य एक संतुलित और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना करना है।


प्राचीन सभ्यताओं में न्याय


1. मेसोपोटामिया 

   - हम्बूराबी संहिता में "लेक्स टैलियोनिस" या "आंख के बदले आंख" का सिद्धांत शामिल था, जो प्रतिशोधात्मक न्याय का एक उदाहरण है।

   - न्याय की अवधारणा सर्वोच्च प्राधिकारी और न्याय प्रदान करने वाले के रूप में राजा की भूमिका से जुड़ी हुई थी।


2. प्राचीन मिस्र

   - न्याय सत्य, न्याय और सद्भाव की देवी माट (Ma'at) से जुड़ा था, जो ब्रह्मांडीय व्यवस्था और सत्य, संतुलन और धार्मिकता के सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करती थी।


3. प्राचीन ग्रीस

   - प्लेटो और अरस्तू ने न्याय के विभिन्न पहलुओं की खोज की। प्लेटो ने "रिपब्लिक" में न्यायपूर्ण समाज की चर्चा की, जबकि अरस्तू ने वितरणात्मक और सुधारात्मक न्याय के बीच अंतर किया।


4. प्राचीन भारत: 

   - न्याय की अवधारणा "धर्म" के सिद्धांत से जुड़ी थी, जिसमें नैतिक और नैतिक कर्तव्य शामिल थे। प्राचीन ग्रंथों ने धार्मिक आचरण और किसी के धर्म का पालन करने के महत्व पर जोर दिया।


भारत में न्याय की अवधारणा और उसका कार्यान्वयन


भारत में न्याय की अवधारणा भारतीय संविधान में गहराई से निहित है। संविधान में न्याय को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है और इसे सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक संदर्भ में देखा गया है। संविधान का प्रस्तावना (Preamble) न्याय की इस त्रिमूर्ति की पुष्टि करता है - "सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय"।


1. संवैधानिक प्रावधान


संविधान की प्रस्तावना: प्रस्तावना में "न्याय" की अवधारणा को समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति के तीनों आयामों में समाहित किया गया है।

- मौलिक अधिकार (Part III): संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया है जो न्याय की रक्षा और संवर्धन के लिए आवश्यक हैं। इनमें समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22), और शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24) शामिल हैं।

- मौलिक कर्तव्य (Part IV A): संविधान के भाग IV A में नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है, जो समाज में न्याय और सद्भाव बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं।


2. न्यायपालिका:


स्वतंत्र न्यायपालिका: भारत में न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष है, जो न्याय की अवधारणा को मजबूत बनाती है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों का मुख्य कार्य न्याय का पालन सुनिश्चित करना है।

लोक अदालतें: भारत में न्याय को सुलभ और सस्ता बनाने के लिए लोक अदालतों का प्रावधान किया गया है, जहां विवादों का त्वरित और सुलभ समाधान किया जाता है।


3. विधायी और कार्यकारी प्रावधान:


कानून का शासन: भारत में कानून का शासन सर्वोच्च है और सभी व्यक्ति, चाहे वे कितने भी शक्तिशाली क्यों न हों, कानून के समक्ष समान हैं।

आरक्षण नीति: सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है।

- मुफ्त कानूनी सहायता: आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लोगों को न्याय प्राप्त करने में सहायता देने के लिए मुफ्त कानूनी सहायता का प्रावधान है।


4. सामाजिक और आर्थिक न्याय:


भूमि सुधार: भूमि सुधार कार्यक्रमों के माध्यम से भूमिहीन किसानों और गरीबों को भूमि का वितरण किया गया है।

- मनरेगा: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की गारंटी प्रदान की जाती है, जिससे आर्थिक न्याय सुनिश्चित होता है।

- शिक्षा का अधिकार: शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत सभी बच्चों को 6 से 14 वर्ष की आयु तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्राप्त है।


5. संवैधानिक संशोधन और न्यायिक सक्रियता:


- संविधान का 42वां संशोधन: 1976 में किए गए 42वें संशोधन ने न्याय की अवधारणा को और अधिक स्पष्टता और मजबूती प्रदान की, जिससे मौलिक अधिकारों की व्याख्या में व्यापकता आई।

- न्यायिक सक्रियता: भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर न्यायिक सक्रियता का प्रयोग करके न्याय को संवर्धित किया है। जैसे, "विशाखा गाइडलाइंस" के माध्यम से कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करना।


निष्कर्ष:


न्याय एक मौलिक अवधारणा है जो मानव समाज और नैतिक सिद्धांतों के केंद्र में स्थित है। भारत में न्याय को संवैधानिक, विधायी, और न्यायिक प्रावधानों के माध्यम से लागू किया गया है। यह केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि एक व्यापक दृष्टिकोण है जो सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित करने का प्रयास करता है। न्याय की इस अवधारणा का पालन करने के लिए सरकार, न्यायपालिका और समाज के सभी वर्गों को मिलकर काम करना आवश्यक है ताकि एक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण हो सके।


लघु उत्तरीय प्रश्न 





01. शक्ति और सत्ता के मध्य सम्बन्ध की चर्चा कीजिए।

शक्ति और सत्ता: परिचयात्मक समझ

राजनीतिक विज्ञान में शक्ति (Power) और सत्ता (Authority) दो अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणाएं हैं। ये दोनों अक्सर एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए होते हैं, लेकिन उनके अर्थ, स्वरूप और कार्य अलग-अलग होते हैं। शक्ति का संबंध क्षमता या सामर्थ्य से है जबकि सत्ता का संबंध वैध अधिकार से होता है। एक लोकतांत्रिक राज्य से लेकर तानाशाही शासन तक, सभी व्यवस्थाओं में शक्ति और सत्ता का कोई न कोई रूप विद्यमान रहता है।

शक्ति की परिभाषा और विशेषताएँ

शक्ति को आमतौर पर इस रूप में परिभाषित किया जाता है –

"किसी व्यक्ति या समूह की वह क्षमता जिसके द्वारा वह दूसरों के व्यवहार को अपने इच्छानुसार प्रभावित कर सके।"

शक्ति की प्रमुख विशेषताएँ:

  • यह दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता है।

  • यह ज़बरदस्ती या सहमति दोनों तरीकों से कार्य कर सकती है।

  • शक्ति का स्रोत धन, पद, बल, ज्ञान, धर्म आदि हो सकता है।

  • यह औपचारिक (Formal) और अनौपचारिक (Informal) दोनों हो सकती है।

सत्ता की परिभाषा और विशेषताएँ

सत्ता (Authority) को वैध शक्ति कहा जाता है। यह वह शक्ति है जो किसी व्यक्ति या संस्था को समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होती है कि वह नियम बना सके और उन्हें लागू कर सके।

सत्ता की प्रमुख विशेषताएँ:

  • सत्ता हमेशा वैधता (Legitimacy) पर आधारित होती है।

  • इसका स्रोत आमतौर पर संवैधानिक, धार्मिक या परंपरागत होता है।

  • सत्ता सीमित और नियंत्रित होती है, यानी वह नियमों के अधीन होती है।

  • सत्ता के अंतर्गत आज्ञा देने और उसका पालन करवाने का नैतिक अधिकार होता है।

शक्ति और सत्ता के बीच मूलभूत अंतर

बिंदुशक्तिसत्ता
परिभाषादूसरों के व्यवहार को प्रभावित करने की क्षमतावैध शक्ति
स्रोतबल, धन, ज्ञान, स्थितिसंविधान, नियम, परंपरा
वैधतावैध या अवैध दोनों हो सकती हैकेवल वैध होती है
कार्यक्षेत्रव्यापक, अनियंत्रितसीमित और नियमनबद्ध
उदाहरणमाफिया डॉन की धमकीपुलिस अधिकारी का आदेश


शक्ति और सत्ता के मध्य सम्बन्ध

सत्ता, शक्ति का ही वैध रूप

सत्ता को अक्सर शक्ति का संगठित और वैध रूप माना जाता है। यानी जब कोई व्यक्ति या संस्था सामाजिक मान्यता और नियमों के तहत किसी को आदेश देता है, और लोग उसका पालन करते हैं, तो वह सत्ता कहलाती है। जबकि शक्ति किसी भी रूप में हो सकती है — चाहे वह वैध हो या अवैध।

शक्ति के बिना सत्ता निष्क्रिय

कोई भी सत्ता, जब तक उसके पास शक्ति नहीं होती, तब तक वह सिर्फ एक औपचारिक ढांचा बनकर रह जाती है। उदाहरण के लिए, अगर किसी सरकार के पास निर्णयों को लागू करवाने की शक्ति नहीं है, तो उसकी सत्ता केवल कागज़ों तक सीमित रह जाएगी।

शक्ति को वैधता देकर सत्ता में रूपांतरित किया जाता है

अगर किसी व्यक्ति के पास प्रभावशाली शक्ति है और वह समाज द्वारा मान्यता प्राप्त कर लेता है, तो वह सत्ता बन जाती है। उदाहरण के लिए, एक प्रभावशाली नेता जब चुनाव जीतता है, तो उसकी शक्ति को सत्ता का वैध रूप मिल जाता है।

मैक्स वेबर का दृष्टिकोण: शक्ति और सत्ता की समाजशास्त्रीय व्याख्या

प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर के अनुसार:

  • शक्ति (Power): "समाज में व्यक्ति या समूह की यह क्षमता कि वह विरोध के बावजूद भी दूसरों पर अपनी इच्छा थोप सके।"

  • सत्ता (Authority): "सत्ता वह शक्ति है जिसे समाज स्वीकृति देता है और जिसका प्रयोग नियमों के अनुसार किया जाता है।"

वेबर ने सत्ता के तीन प्रकार बताए:

  1. परंपरागत सत्ता (Traditional Authority): राजा-महाराजाओं की सत्ता

  2. करिश्माई सत्ता (Charismatic Authority): जैसे गांधीजी या नेल्सन मंडेला की

  3. कानूनी-तर्कसंगत सत्ता (Legal-Rational Authority): लोकतांत्रिक सरकारों की सत्ता

आधुनिक समाज में शक्ति और सत्ता की भूमिका

लोकतांत्रिक शासन में

लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता का स्रोत संविधान और जन-आदेश होता है। यहाँ सत्ता सीमित होती है और शक्ति का प्रयोग कानून के तहत किया जाता है।

तानाशाही और अधिनायकवादी शासन में

इन व्यवस्थाओं में शक्ति का उपयोग अक्सर सत्ता के नाम पर मनमानी करने के लिए होता है। यहाँ शक्ति और सत्ता के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है।

मीडिया और सोशल मीडिया की शक्ति

आज के डिजिटल युग में मीडिया और सोशल मीडिया भी एक नई शक्ति के रूप में उभरकर सामने आए हैं। ये अनौपचारिक शक्तियाँ सत्ता को चुनौती भी दे सकती हैं और उसे प्रभावित भी कर सकती हैं।

निष्कर्ष: शक्ति और सत्ता का परस्पर सम्बन्ध

शक्ति और सत्ता के बीच सम्बन्ध को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है:

  • सत्ता शक्ति पर आधारित होती है, लेकिन उसमें वैधता और नियम शामिल होते हैं।

  • शक्ति अधिक व्यापक होती है जबकि सत्ता सीमित और संस्थागत होती है।

  • एक स्वस्थ लोकतंत्र में शक्ति को नियंत्रित और वैध बनाकर ही सत्ता के रूप में प्रयोग किया जाता है।

इस प्रकार, शक्ति और सत्ता का सम्बन्ध जटिल लेकिन परस्पर पूरक है। बिना शक्ति के सत्ता कमजोर होती है, और बिना वैधता के शक्ति, अत्याचार बन जाती है। एक संतुलित समाज में शक्ति और सत्ता दोनों का सही उपयोग ही नागरिकों की स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा कर सकता है।




02. राज्य के विभिन्न तत्वों की विवेचना कीजिए।

राज्य: एक परिचयात्मक समझ

राज्य (State) वह संस्था है जो किसी निश्चित भू-भाग पर निवास करने वाले लोगों पर एक वैध सरकार द्वारा शासन करती है। यह एक राजनीतिक संगठन होता है जिसका उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना, नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना और न्याय सुनिश्चित करना होता है। राज्य की परिभाषा में यद्यपि समय के साथ अनेक बदलाव हुए हैं, लेकिन इसके मूल तत्व स्थायी बने हुए हैं।

राज्य के निर्माण और अस्तित्व के लिए कुछ मूलभूत तत्व आवश्यक होते हैं। यदि ये तत्व न हों, तो किसी इकाई को राज्य नहीं कहा जा सकता।

राज्य के प्रमुख तत्व

राज्य के चार मूलभूत तत्व माने गए हैं:

1. स्थायी जनसंख्या (Population)

2. निश्चित भू-भाग (Territory)

3. सरकार (Government)

4. प्रभुसत्ता (Sovereignty)

आइए इन सभी तत्वों की क्रमशः विवेचना करते हैं।


स्थायी जनसंख्या: राज्य की आत्मा

राज्य के अस्तित्व के लिए आवश्यक है कि उसमें एक निश्चित संख्या में लोग निवास करते हों। ये लोग राज्य की आज्ञा का पालन करते हैं और राज्य उनकी रक्षा करता है।

जनसंख्या से जुड़े महत्वपूर्ण बिंदु:

  • जनसंख्या की संख्या निश्चित नहीं होती – वह कम या अधिक हो सकती है।

  • राज्य की पहचान उसके नागरिकों से होती है, अतः उनकी नागरिकता, अधिकार और कर्तव्य महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

  • जनसंख्या ही राज्य में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक गतिविधियों को संचालित करती है।

यदि किसी क्षेत्र में कोई व्यक्ति न रहता हो, तो वह केवल भूखंड कहलाएगा, राज्य नहीं।


निश्चित भू-भाग: राज्य की भौगोलिक सीमा

राज्य का एक निर्धारित भू-भाग (Territory) होना अनिवार्य है। यह वह भौगोलिक क्षेत्र होता है, जिस पर राज्य की सरकार का अधिकार होता है और जहां उसकी संप्रभुता लागू होती है।

भू-भाग के अंतर्गत शामिल होते हैं:

  • स्थल क्षेत्र (Land)

  • जल क्षेत्र (Water)

  • वायु क्षेत्र (Airspace)

  • प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources)

भू-भाग से जुड़े मुख्य बिंदु:

  • भू-भाग राज्य की संप्रभुता को चिन्हित करता है।

  • यह अंतरराष्ट्रीय विवादों का भी कारण बन सकता है (जैसे भारत-पाकिस्तान में कश्मीर)।

  • यह राज्य की सीमा सुरक्षा और विदेश नीति में अहम भूमिका निभाता है।


सरकार: राज्य की संरचना और संचालन तंत्र

सरकार (Government) वह संस्था है जिसके माध्यम से राज्य का संचालन होता है। यह शासन की विधायी, कार्यपालिका और न्यायपालिका शाखाओं के माध्यम से कार्य करती है।

सरकार की प्रमुख भूमिकाएँ:

  • कानून बनाना और लागू करना

  • सुरक्षा और न्याय की व्यवस्था

  • जनहित के निर्णय लेना और विकास योजनाएँ बनाना

सरकार के प्रकार:

  • लोकतांत्रिक सरकार (Democratic Government): जैसे भारत में

  • तानाशाही सरकार (Dictatorship): जैसे उत्तरी कोरिया में

  • राजशाही (Monarchy): जैसे सऊदी अरब में

सरकार को बिना जनसंख्या और भू-भाग के कोई अस्तित्व नहीं होता, लेकिन यह दोनों के बीच संपर्क स्थापित करती है।


प्रभुसत्ता: राज्य की आत्मनिर्भरता और सर्वोच्चता

प्रभुसत्ता (Sovereignty) राज्य की वह शक्ति है जिसके द्वारा वह अपने नागरिकों पर पूर्ण नियंत्रण रखता है और बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त होता है। प्रभुसत्ता ही वह तत्व है जो राज्य को अन्य संगठनों से अलग बनाता है।

प्रभुसत्ता के दो रूप:

  • आंतरिक प्रभुसत्ता (Internal Sovereignty): राज्य के भीतर कानून बनाने, लागू करने और दंड देने का अधिकार।

  • बाह्य प्रभुसत्ता (External Sovereignty): दूसरे राज्यों से स्वतंत्र रहकर अपनी विदेश नीति बनाने और संबंध स्थापित करने की शक्ति।

प्रभुसत्ता के विशेष गुण:

  • यह पूर्ण (Absolute) और अविभाज्य (Indivisible) होती है।

  • यह राज्य की स्वतंत्रता और सत्ता का प्रतीक होती है।

  • यह स्थायी (Permanent) होती है, चाहे सरकार बदले।


राज्य और राष्ट्र में अंतर

यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि राज्य और राष्ट्र (Nation) एक जैसे नहीं हैं।

आधारराज्यराष्ट्र
तत्वचार आवश्यक तत्वसाझा संस्कृति, भाषा, जातीयता
स्वरूपराजनीतिक संस्थासामाजिक-सांस्कृतिक भावना
उदाहरणभारत एक राज्य हैभारत एक राष्ट्र भी है


राज्य के अन्य सहायक तत्व (आधुनिक दृष्टिकोण)

हालाँकि परंपरागत रूप से राज्य के चार तत्व माने गए हैं, परंतु आधुनिक राजनीति में कुछ अन्य तत्वों को भी महत्वपूर्ण माना जाता है:

1. न्याय व्यवस्था (Judicial System)

2. सैन्य बल (Armed Forces)

3. आर्थिक व्यवस्था (Economic System)

4. संचार और सूचना तंत्र (Communication)

ये सभी तत्व राज्य के संचालन और प्रभावशीलता को बढ़ाते हैं।


निष्कर्ष: राज्य का समग्र स्वरूप

राज्य एक संघटित, स्थायी और प्रभुसत्ता-संपन्न राजनीतिक संस्था है, जिसका अस्तित्व चार मूलभूत तत्वों पर आधारित है – जनसंख्या, भू-भाग, सरकार और प्रभुसत्ता। इन तत्वों के अभाव में कोई भी इकाई राज्य नहीं बन सकती।
जहाँ जनसंख्या राज्य की आत्मा है, भू-भाग उसका शरीर, सरकार उसकी संरचना और प्रभुसत्ता उसकी आत्मा की स्वतंत्रता है। इन चारों का समन्वय ही एक मजबूत और प्रभावी राज्य की पहचान है।




03. स्वतंत्रता और समानता नागरिकों के लिए अतिआवश्यक है। व्याख्या कीजिए।

प्रस्तावना: स्वतंत्रता और समानता – लोकतंत्र की दो बुनियादी नींव

हर नागरिक के लिए स्वतंत्रता (Liberty) और समानता (Equality) केवल अधिकार नहीं, बल्कि जीवन की गरिमा से जुड़ी मूलभूत आवश्यकताएं हैं। ये दोनों मूल्य किसी भी लोकतांत्रिक समाज की आत्मा होते हैं। इनके बिना न तो व्यक्ति का पूर्ण विकास संभव है, न ही राज्य का समुचित संचालन।

स्वतंत्रता और समानता के बिना कोई भी राष्ट्र लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। ये दोनों मूल्य एक-दूसरे के पूरक हैं और समाज में न्याय, समरसता और शांति को सुनिश्चित करते हैं।


स्वतंत्रता की अवधारणा: व्यक्ति की सोच और अभिव्यक्ति की खुली उड़ान

स्वतंत्रता का सामान्य अर्थ है – किसी व्यक्ति को अपने विचार, व्यवहार और जीवन के निर्णयों में बाधा रहित स्थिति प्रदान करना। यह केवल कानून की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि सकारात्मक रूप से अपने जीवन को दिशा देने की क्षमता है।

स्वतंत्रता के प्रमुख रूप:

  • विचार की स्वतंत्रता – सोचने और अपनी राय रखने का अधिकार

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता – बोलने, लिखने और मीडिया के माध्यम से विचार व्यक्त करने का अधिकार

  • धर्म की स्वतंत्रता – किसी भी धर्म को मानने या न मानने का अधिकार

  • आंदोलन और संगठन की स्वतंत्रता – शांतिपूर्ण तरीके से एकत्रित होने और संगठनों में भाग लेने का अधिकार

  • आर्थिक स्वतंत्रता – जीविका चुनने और संपत्ति रखने का अधिकार

स्वतंत्रता नागरिकों को अपनी क्षमता के अनुसार जीवन जीने का अवसर देती है।


समानता की अवधारणा: अवसरों की समान पहुँच

समानता का अर्थ है – सभी नागरिकों को कानून, अवसर और अधिकारों के मामले में समान दर्जा देना। इसका यह आशय नहीं है कि सभी व्यक्ति समान होंगे, बल्कि यह है कि सभी को एक समान अवसर और व्यवहार मिलना चाहिए।

समानता के प्रकार:

  • कानूनी समानता – सभी नागरिकों के लिए कानून समान होना

  • राजनीतिक समानता – सभी को मताधिकार और चुनाव में भाग लेने का अधिकार

  • आर्थिक समानता – न्यूनतम आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति का अवसर

  • सामाजिक समानता – जाति, धर्म, लिंग के आधार पर भेदभाव न होना

समानता एक समतामूलक समाज की नींव होती है, जहाँ हर व्यक्ति को गरिमा से जीने का हक होता है।


स्वतंत्रता और समानता का परस्पर संबंध

स्वतंत्रता बिना समानता अधूरी

यदि केवल कुछ लोगों को ही स्वतंत्रता मिले और बाकी को नहीं, तो यह स्वतंत्रता व्यर्थ हो जाती है। जब तक सभी को समान अवसर नहीं मिलते, तब तक सच्ची स्वतंत्रता संभव नहीं।

उदाहरण: यदि किसी महिला को बोलने की स्वतंत्रता है, लेकिन समाज उसे शिक्षा का अधिकार नहीं देता, तो वह अपनी राय कैसे व्यक्त कर पाएगी?

समानता बिना स्वतंत्रता निरर्थक

यदि सबको एक जैसा बना दिया जाए लेकिन सोचने और कार्य करने की स्वतंत्रता छीन ली जाए, तो समानता केवल दमन का रूप बन जाती है। स्वतंत्रता ही समानता को सार्थक बनाती है।

दोनों का संतुलन ज़रूरी

लोकतंत्र में स्वतंत्रता और समानता का संतुलन आवश्यक है। केवल स्वतंत्रता या केवल समानता, दोनों में से कोई भी अकेले समाज को न्यायपूर्ण नहीं बना सकती।


नागरिकों के लिए स्वतंत्रता और समानता का महत्व

1. व्यक्तित्व विकास में सहायक

हर व्यक्ति का स्वभाव, सोच, रुचि और लक्ष्य अलग होता है। स्वतंत्रता उसे अपने हिसाब से जीवन जीने का अवसर देती है और समानता उसे वह मंच प्रदान करती है जहाँ वह बिना भेदभाव के आगे बढ़ सके।

2. लोकतंत्र की रक्षा

यदि नागरिकों को स्वतंत्रता और समानता नहीं मिलेगी, तो वे सरकार के विरुद्ध असंतोष प्रकट करेंगे। इससे लोकतंत्र कमजोर होगा। इसलिए यह दोनों मूल्य लोकतंत्र की रक्षा-कवच हैं।

3. सामाजिक न्याय की स्थापना

समानता से ही समाज में व्याप्त जातिवाद, लिंग भेद, धार्मिक भेदभाव जैसी कुरीतियाँ समाप्त होती हैं। स्वतंत्रता इनसे लड़ने का साहस देती है। दोनों मिलकर समाज में न्याय को स्थापित करते हैं।

4. रचनात्मकता और नवाचार को प्रोत्साहन

जब व्यक्ति स्वतंत्र होता है, तो वह सोचने, प्रयोग करने और नवाचार करने में सक्षम होता है। समानता उसे अवसर देती है कि वह अपनी प्रतिभा को दिखा सके। इस प्रकार राष्ट्र का भी विकास होता है।


भारतीय संविधान में स्वतंत्रता और समानता का स्थान

भारतीय संविधान ने भाग III (मौलिक अधिकार) के अंतर्गत इन दोनों मूल्यों को प्रमुखता से स्थान दिया है।

स्वतंत्रता से संबंधित अनुच्छेद:

  • अनुच्छेद 19: भाषण, अभिव्यक्ति, संगठन, आंदोलन आदि की स्वतंत्रता

  • अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार

समानता से संबंधित अनुच्छेद:

  • अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता

  • अनुच्छेद 15: धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध

  • अनुच्छेद 16: समान अवसर का अधिकार

  • अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता का उन्मूलन

भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहाँ इन दोनों मूल्यों को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है।


स्वतंत्रता और समानता की चुनौतियाँ

1. सामाजिक असमानता

भारत जैसे देश में आज भी जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर भेदभाव मौजूद हैं, जो समानता को कमजोर करते हैं।

2. अशिक्षा और गरीबी

अशिक्षित और गरीब लोग अपने अधिकारों को पहचान नहीं पाते, जिससे स्वतंत्रता केवल कागज़ों पर रह जाती है।

3. राजनीतिक दमन

कभी-कभी राज्य अपने स्वार्थ में स्वतंत्रता को सीमित करता है, जिससे लोकतंत्र की आत्मा आहत होती है।


निष्कर्ष: स्वतंत्रता और समानता – एक समतामूलक समाज की कुंजी

स्वतंत्रता और समानता कोई वैकल्पिक मूल्य नहीं हैं, बल्कि वे नागरिक जीवन की आधारशिला हैं। एक न्यायसंगत, समावेशी और प्रगतिशील समाज का निर्माण इन्हीं के द्वारा संभव है।
जब हर नागरिक को सोचने, बोलने और आगे बढ़ने की आज़ादी मिलती है, और साथ ही उसे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समान अवसर मिलते हैं – तभी एक सशक्त राष्ट्र और सभ्य समाज की रचना होती है।

इसलिए, स्वतंत्रता और समानता न केवल आवश्यक हैं, बल्कि नागरिकों का नैतिक और संवैधानिक अधिकार भी हैं — जिनकी रक्षा और संवर्धन प्रत्येक राज्य का कर्तव्य है।




04. प्रत्यक्ष लोकतंत्र की विशेषताएँ क्या-क्या हैं?

प्रस्तावना: लोकतंत्र की अवधारणा में प्रत्यक्ष लोकतंत्र का स्थान

लोकतंत्र (Democracy) एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें सत्ता का अंतिम स्रोत जनता होती है। लोकतंत्र मुख्यतः दो प्रकार का होता है:

  1. प्रत्यक्ष लोकतंत्र (Direct Democracy)

  2. प्रतिनिधि लोकतंत्र (Representative Democracy)

आज की दुनिया में अधिकांश देश प्रतिनिधि लोकतंत्र का पालन करते हैं, लेकिन प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक प्रत्यक्ष लोकतंत्र भी शासन की एक सशक्त प्रणाली रही है। इसमें नागरिक प्रत्यक्ष रूप से निर्णय प्रक्रिया में भाग लेते हैं, न कि अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से।


प्रत्यक्ष लोकतंत्र: एक परिचय

प्रत्यक्ष लोकतंत्र वह शासन व्यवस्था है जिसमें नागरिक सीधे कानूनों, नीतियों और शासन निर्णयों को प्रभावित करते हैं। इसमें नागरिक स्वयं किसी कानून को स्वीकार या अस्वीकार करते हैं, किसी मुद्दे पर मत देते हैं और निर्णय लेते हैं।

ऐतिहासिक दृष्टिकोण

  • प्रत्यक्ष लोकतंत्र की जड़ें प्राचीन यूनान (ग्रीस) में हैं, विशेषतः एथेंस नगर में, जहाँ हर नागरिक सभा में भाग लेकर निर्णय लेता था।

  • आधुनिक समय में स्विट्ज़रलैंड एक प्रमुख उदाहरण है, जहाँ अब भी प्रत्यक्ष लोकतंत्र के कई उपकरण सक्रिय हैं।


प्रत्यक्ष लोकतंत्र की प्रमुख विशेषताएँ

1. नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी

प्रत्यक्ष लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि नागरिक किसी भी निर्णय में सीधे भाग लेते हैं। वे न तो किसी प्रतिनिधि को चुनते हैं और न ही उस पर निर्भर रहते हैं, बल्कि स्वयं नीतियाँ तय करते हैं और कानून बनाते हैं।

2. जनमत संग्रह (Referendum) का प्रयोग

प्रत्यक्ष लोकतंत्र में महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने के लिए अक्सर जनमत संग्रह कराया जाता है।
यह एक ऐसा तरीका है जिसमें जनता से सीधे पूछा जाता है कि वह किसी प्रस्ताव के पक्ष में है या नहीं।

उदाहरण: स्विट्ज़रलैंड में किसी भी नए कानून को लागू करने से पहले वहां के नागरिकों से जनमत लिया जाता है।

3. जन अभिप्राय (Plebiscite) की प्रणाली

जब किसी राष्ट्रीय या संवेदनशील मुद्दे (जैसे: सीमा विवाद, क्षेत्रीय विभाजन आदि) पर जनता की राय लेना आवश्यक होता है, तो जन अभिप्राय का सहारा लिया जाता है।
यह सरकार को जनता की भावनाओं को समझने और निर्णय लेने में मार्गदर्शन प्रदान करता है।

4. जन प्रस्ताव (Initiative)

इस प्रणाली में जनता स्वयं किसी नए कानून या संशोधन का प्रस्ताव रख सकती है। यदि प्रस्ताव को पर्याप्त समर्थन मिलता है, तो उस पर सरकार को विचार करना पड़ता है या उसे जनमत के लिए प्रस्तुत किया जाता है।

5. अपवर्तन (Recall) की व्यवस्था

यह एक लोकतांत्रिक अधिकार है जिसके तहत जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधि को, यदि वह कर्तव्यपालन में विफल रहता है, तो कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही हटा सकती है।
यह व्यवस्था जन प्रतिनिधियों को उत्तरदायी बनाती है।


प्रत्यक्ष लोकतंत्र की अन्य उल्लेखनीय विशेषताएँ

6. पारदर्शिता और जवाबदेही

प्रत्यक्ष लोकतंत्र में निर्णय प्रक्रिया पूरी तरह से जनता के सामने होती है, जिससे पारदर्शिता बनी रहती है। नागरिकों को यह स्पष्ट रूप से पता होता है कि कौन-सा निर्णय क्यों लिया गया।

7. राजनीतिक शिक्षा को बढ़ावा

जब नागरिक स्वयं शासन प्रक्रिया में भाग लेते हैं, तो उन्हें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों की समझ विकसित होती है। इससे राजनीतिक शिक्षा का स्तर ऊँचा होता है।

8. जन भावनाओं का आदर

यह व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि जनता की इच्छा ही सर्वोपरि हो। किसी भी निर्णय में जनता की सहमति आवश्यक होती है, जिससे राज्य और नागरिकों के बीच विश्वास बढ़ता है।

9. लोकतंत्र की शुद्धतम रूप

प्रत्यक्ष लोकतंत्र को लोकतंत्र का शुद्धतम और आदर्श रूप माना जाता है क्योंकि इसमें किसी भी मध्यवर्ती प्रतिनिधि की आवश्यकता नहीं होती। यह ‘जनता की सरकार, जनता के लिए, जनता द्वारा’ की वास्तविक व्याख्या है।


प्रत्यक्ष लोकतंत्र की सीमाएँ

1. जनसंख्या की अधिकता में अव्यवहारिक

आज के विशाल देशों जैसे भारत, अमेरिका या चीन में लाखों-करोड़ों नागरिकों को एक-एक निर्णय में प्रत्यक्ष रूप से शामिल करना व्यवहारिक रूप से कठिन है।

2. जटिल मुद्दों पर निर्णय कठिन

कभी-कभी निर्णय इतने तकनीकी या संवेदनशील होते हैं कि आम जनता के लिए उन्हें समझना कठिन होता है। ऐसे में जनमत पर आधारित निर्णय गलत दिशा में भी जा सकता है।

3. आर्थिक और समयगत बोझ

हर मुद्दे पर जनमत या जन अभिप्राय लेने के लिए विशाल संसाधनों और समय की आवश्यकता होती है, जो हर देश वहन नहीं कर सकता।

4. भावनात्मक निर्णयों का खतरा

जनता कभी-कभी किसी मुद्दे पर भावनात्मक रूप से प्रतिक्रिया दे सकती है, जिससे तात्कालिक निर्णय दीर्घकालिक हानि का कारण बन सकते हैं।


प्रत्यक्ष लोकतंत्र बनाम प्रतिनिधि लोकतंत्र

बिंदुप्रत्यक्ष लोकतंत्रप्रतिनिधि लोकतंत्र
भागीदारीनागरिक स्वयं भाग लेते हैंनागरिक प्रतिनिधियों को चुनते हैं
निर्णय प्रक्रियाधीमी और व्यापकअपेक्षाकृत त्वरित
उपयुक्तताछोटे देशों या समुदायों मेंबड़े और विविध देशों में
पारदर्शिताअधिकसीमित


आधुनिक युग में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की प्रासंगिकता

आज के युग में, तकनीक और इंटरनेट के माध्यम से प्रत्यक्ष लोकतंत्र को डिजिटल रूप में अपनाया जा सकता है।
ई-वोटिंग, ऑनलाइन सर्वे, डिजिटल जनमत जैसी प्रक्रियाएं सरकारों को जनता से प्रत्यक्ष रूप से जोड़ने में सक्षम बना रही हैं।

उदाहरण:

  • स्विट्ज़रलैंड में नियमित रूप से जनमत संग्रह होते हैं।

  • भारत में भी पंचायत स्तर पर जनभागीदारी बढ़ रही है।

  • आइसलैंड ने संविधान निर्माण में जनता की भागीदारी सुनिश्चित की।


निष्कर्ष: एक उत्तरदायी, सहभागी लोकतंत्र की ओर

प्रत्यक्ष लोकतंत्र लोकतंत्र की उस अवधारणा को मूर्त रूप देता है जिसमें जनता केवल मतदाता नहीं, बल्कि निर्णय निर्माता भी होती है।
हालाँकि इसकी सीमाएँ हैं, फिर भी इसका मूल सिद्धांत आज के समय में और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है, जहाँ जनता पारदर्शिता और भागीदारी की अपेक्षा करती है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि प्रतिनिधि लोकतंत्र में प्रत्यक्ष लोकतंत्र के उपकरणों को सम्मिलित किया जाए, जिससे शासन अधिक उत्तरदायी, पारदर्शी और जनता के निकट हो सके।




05. हॉब्स के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में मानव स्वभाव कैसा था?

प्रस्तावना: मानव स्वभाव की दार्शनिक व्याख्या

राजनीतिक चिंतन के इतिहास में मानव स्वभाव की समझ ने राज्य की उत्पत्ति, सत्ता के स्वरूप और शासन की वैधता जैसे प्रश्नों को गहराई से प्रभावित किया है। इसी क्रम में थॉमस हॉब्स (Thomas Hobbes) एक प्रमुख आधुनिक राजनीतिक दार्शनिक के रूप में उभरते हैं। हॉब्स ने अपनी विख्यात कृति "लेवायथन" (Leviathan, 1651) में प्राकृतिक अवस्था (State of Nature) की अवधारणा प्रस्तुत की और बताया कि इस अवस्था में मानव का स्वभाव कैसा था।


हॉब्स का परिचय: आधुनिक राजनीतिक चिंतन के जनक

थॉमस हॉब्स (1588–1679) एक अंग्रेज दार्शनिक थे, जिन्हें आधुनिक राजनैतिक सिद्धांतों का प्रारंभकर्ता माना जाता है। उन्होंने राज्य, सत्ता, अनुबंध और मानव स्वभाव की गहरी दार्शनिक व्याख्या की।

प्रमुख रचनाएँ:

  • Leviathan (1651)

  • De Cive (1642)

  • Elements of Law (1640)


प्राकृतिक अवस्था: राज्य से पूर्व की मानवीय स्थिति

प्राकृतिक अवस्था (State of Nature) हॉब्स के अनुसार वह स्थिति है जब न तो कोई सरकार थी, न कानून, न पुलिस और न ही राज्य। यह एक ऐसी स्थिति थी जिसमें मानव पूर्ण स्वतंत्र था, लेकिन यह स्वतंत्रता अराजकता और असुरक्षा में बदल चुकी थी।

हॉब्स ने इसे एक काल्पनिक स्थिति माना, लेकिन इसका उद्देश्य यह दर्शाना था कि बिना राज्य के समाज किस प्रकार का हो सकता है।


प्राकृतिक अवस्था में मानव स्वभाव की विशेषताएँ

1. आत्म-रक्षा की प्रवृत्ति

हॉब्स के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति में आत्म-सुरक्षा की भावना जन्मजात होती है। व्यक्ति हमेशा अपने जीवन, धन और सम्मान की रक्षा करना चाहता है। यही भावना उसे अन्य व्यक्तियों से संघर्ष की ओर ले जाती है।

2. स्वार्थपूर्ण और प्रतियोगी प्रवृत्ति

प्राकृतिक अवस्था में मानव पूर्ण रूप से स्वार्थी (Selfish) होता है। वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरे की हत्या या संपत्ति हड़पने में भी संकोच नहीं करता। हॉब्स के अनुसार:

"Man is by nature selfish and greedy."

3. भय और असुरक्षा का वातावरण

हर व्यक्ति दूसरे से भयभीत रहता है कि कहीं वह उसकी हत्या न कर दे या उसकी वस्तुएं न छीन ले। यह भय स्थायी हिंसा और युद्ध की स्थिति को जन्म देता है।

4. निरंतर युद्ध की स्थिति

हॉब्स ने प्रसिद्ध वाक्य में कहा:

"The life of man in the state of nature was solitary, poor, nasty, brutish, and short."

इसका अर्थ है कि प्राकृतिक अवस्था में जीवन एकाकी, गरीब, घृणास्पद, क्रूर और बहुत छोटा था। हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति का शत्रु था – इसे हॉब्स ने “war of all against all” कहा।

5. नैतिकता और कानून का अभाव

प्राकृतिक अवस्था में कोई नियम, कानून या नैतिक बंधन नहीं होता। वहाँ केवल “स्वाभाविक अधिकार” (Natural Right) होता है – यानी जो शक्तिशाली है वही जीवित रह सकता है।


हॉब्स की मानव स्वभाव पर धारणा: निषेधात्मक दृष्टिकोण

हॉब्स का दृष्टिकोण मानव स्वभाव के प्रति अत्यंत नकारात्मक और निराशावादी था। वे मानते थे कि यदि मनुष्य को खुली छूट मिल जाए, तो वह स्वार्थ, लालच और हिंसा के मार्ग पर चल पड़ेगा।

मनुष्य स्वभाव से:

  • स्वार्थी (Self-interested)

  • प्रतिस्पर्धात्मक (Competitive)

  • ईर्ष्यालु (Envious)

  • असुरक्षित (Insecure) होता है।


प्राकृतिक अवस्था से राज्य की उत्पत्ति

हॉब्स के अनुसार, प्राकृतिक अवस्था में स्थायी असुरक्षा और भय के कारण लोगों ने एक सामाजिक अनुबंध (Social Contract) किया। इस अनुबंध के तहत उन्होंने अपनी स्वतंत्रता को एक सर्वोच्च शक्ति (Leviathan या राजा) को सौंप दिया ताकि वह उन्हें सुरक्षा और शांति प्रदान कर सके।

सामाजिक अनुबंध का उद्देश्य:

  • संघर्ष समाप्त करना

  • शांति स्थापित करना

  • कानून और व्यवस्था लागू करना

  • स्थायी राज्य की स्थापना करना


हॉब्स के विचारों की विशेषताएँ और आलोचना

हॉब्स के पक्ष में:

  • मानव स्वभाव की यथार्थवादी व्याख्या

  • राज्य की आवश्यकता को तर्कसंगत रूप में प्रस्तुत करना

  • अनुशासन और सुरक्षा की भूमिका को प्रमुखता देना

आलोचना:

  1. अत्यधिक नकारात्मक दृष्टिकोण: हॉब्स ने मानव स्वभाव को बहुत ही क्रूर और स्वार्थी बताया, जबकि अन्य विचारकों (जैसे लॉक और रूसो) ने इसे सकारात्मक माना।

  2. प्राकृतिक अवस्था को अतिरंजित रूप में दिखाना: हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था इतिहास में किसी भी काल में वैसी नहीं रही, जैसी उन्होंने कल्पना की।

  3. स्वतंत्रता के हनन का खतरा: जब सारी शक्ति एक शासक के हाथ में सौंप दी जाती है, तो नागरिकों की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है।


तुलना: हॉब्स, लॉक और रूसो की प्राकृतिक अवस्था

तत्वहॉब्सलॉकरूसो
मानव स्वभावस्वार्थी, हिंसकसहयोगी, तर्कसंगतशुद्ध, मासूम
प्राकृतिक अवस्थाअराजक और युद्धपूर्णअपेक्षाकृत शांतिपूर्णपूर्ण स्वतंत्रता और समानता
राज्य की आवश्यकतासुरक्षा हेतुसंपत्ति की रक्षा हेतुनैतिकता और समानता के लिए


निष्कर्ष: राज्य की आवश्यकता की दृष्टि से हॉब्स का महत्त्व

थॉमस हॉब्स ने प्राकृतिक अवस्था के माध्यम से यह सिद्ध किया कि बिना राज्य और कानून के मानव समाज निरंतर संघर्ष और भय में डूबा रहेगा। उन्होंने यह दिखाया कि शांति, सुरक्षा और संगठन के लिए एक मजबूत राज्य का होना आवश्यक है।

हालाँकि उनके विचार नकारात्मक दृष्टिकोण पर आधारित हैं, फिर भी उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि राज्य मानव जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। इसलिए हॉब्स को आधुनिक राजनीतिक दर्शन का अग्रदूत माना जाता है।




06. राल्स के न्याय सिद्धांत पर चर्चा करें।

प्रस्तावना: न्याय की अवधारणा और राल्स की भूमिका

न्याय (Justice) किसी भी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की आत्मा होता है। यह सुनिश्चित करता है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति के साथ समानता, निष्पक्षता और गरिमा के साथ व्यवहार किया जाए।
जॉन राल्स (John Rawls) ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “A Theory of Justice” (1971) में न्याय को एक नैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से परिभाषित किया और “न्याय के रूप में निष्पक्षता” (Justice as Fairness) की अवधारणा प्रस्तुत की।

उनका सिद्धांत आज के लोकतांत्रिक समाज में न्याय के वितरण और सामाजिक संरचना को समझने का एक महत्वपूर्ण उपकरण बन चुका है।


जॉन राल्स: संक्षिप्त परिचय

  • जन्म: 21 फरवरी 1921 (अमेरिका)

  • मृत्यु: 24 नवंबर 2002

  • मुख्य कृति: A Theory of Justice

  • विचारधारा: उदारवाद (Liberalism), सामाजिक न्याय

राल्स का न्याय सिद्धांत मुख्यतः यह बताता है कि न्यायपूर्ण समाज कैसा होना चाहिए और उसमें संसाधनों का वितरण किस प्रकार होना चाहिए।


राल्स का न्याय सिद्धांत: “न्याय के रूप में निष्पक्षता”

राल्स का सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि अगर सभी व्यक्ति किसी निर्णय को नैतिक रूप से उचित मानते हैं, तो वही निर्णय न्यायपूर्ण है।
उन्होंने यह कल्पना की कि यदि हम सभी लोग एक निष्पक्ष स्थिति में बैठकर कोई सामाजिक व्यवस्था बनाएं, तो हम उसे न्यायपूर्ण मान सकते हैं।

इस विचार के दो प्रमुख तत्व हैं:

  1. मूल स्थिति (Original Position)

  2. अज्ञान का आवरण (Veil of Ignorance)


मूल स्थिति (Original Position): न्याय की तटस्थ आधारशिला

राल्स के अनुसार, यदि कोई सामाजिक अनुबंध बनाना हो, तो सभी व्यक्ति एक ऐसी स्थिति में हों जहाँ उन्हें अपनी पहचान, वर्ग, लिंग, धर्म, आर्थिक स्थिति आदि की जानकारी न हो
इसी स्थिति को उन्होंने “मूल स्थिति” कहा।

विशेषताएँ:

  • सभी व्यक्ति निष्पक्ष, तर्कसंगत और स्वार्थहीन माने जाते हैं।

  • वे सभी एक ऐसे समाज की रचना करते हैं जिसमें सबके अधिकार और अवसर सुरक्षित हों।


अज्ञान का आवरण (Veil of Ignorance): निष्पक्षता की स्थिति

राल्स ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति यह नहीं जानता कि वह समाज में कौन-सी स्थिति में होगा – अमीर या गरीब, उच्च या निम्न वर्ग – तो वह ऐसे नियम बनाएगा जो सबके लिए उचित और लाभकारी होंगे।

“Just principles are those everyone would agree to behind a veil of ignorance.” – John Rawls

इसका उद्देश्य:

  • निर्णय प्रक्रिया को नैतिक पूर्वग्रहों से मुक्त करना

  • ऐसा समाज बनाना जिसमें कमज़ोर और पिछड़े वर्गों का भी हित सुरक्षित हो


न्याय के दो सिद्धांत: राल्स की मूल प्रस्तावना

राल्स ने न्याय को सुनिश्चित करने के लिए दो प्रमुख सिद्धांत प्रस्तावित किए:

1. समानता का सिद्धांत (Principle of Equal Liberty)

"हर व्यक्ति को समान रूप से अधिकतम स्वतंत्रता मिलनी चाहिए जो अन्य सभी के लिए भी समान रूप से हो।"

यह सिद्धांत कहता है कि सभी नागरिकों को:

  • विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

  • धर्म की स्वतंत्रता

  • संगठन और सभा की स्वतंत्रता

  • व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार

  • कानूनी समानता
    दिए जाने चाहिए।

2. असमानता का सिद्धांत (Difference Principle)

“सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ तब तक स्वीकार्य हैं जब तक वे सबसे कमज़ोर वर्ग के लिए लाभकारी हों।”

इस सिद्धांत के दो भाग हैं:
  • न्यायोचित असमानता: यदि कोई असमानता समाज के कमज़ोर वर्ग के लिए लाभप्रद हो, तो वह स्वीकार्य है।

  • समान अवसर का सिद्धांत: हर व्यक्ति को जीवन में आगे बढ़ने के समान अवसर मिलने चाहिए।


उदाहरण: राल्स के सिद्धांत की व्यावहारिक व्याख्या

मान लीजिए कोई समाज दो नीतियों में से एक चुन रहा है:

  • नीति A: 80% लोगों को लाभ, 20% को नुकसान

  • नीति B: सभी को थोड़ा-थोड़ा लाभ

राल्स के अनुसार, नीति B न्यायपूर्ण होगी क्योंकि वह सबके लिए निष्पक्ष है, विशेष रूप से कमजोर वर्ग के लिए।


राल्स का सिद्धांत क्यों महत्वपूर्ण है?

1. नैतिकता और नीति का संतुलन

राल्स का सिद्धांत केवल सैद्धांतिक नहीं, बल्कि यह नीति-निर्माण का नैतिक मार्गदर्शन भी प्रदान करता है।

2. समावेशी और समतामूलक समाज का समर्थन

यह सिद्धांत एक ऐसा समाज बनाने की वकालत करता है जहाँ गरीब, दलित, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को भी समान अधिकार मिलें।

3. प्रतिस्पर्धा और सहयोग का संतुलन

यह सिद्धांत यह स्वीकार करता है कि समाज में असमानताएँ हो सकती हैं, लेकिन वे तभी तक उचित हैं जब तक वे सबके हित में हों।


आलोचना: राल्स के सिद्धांत की सीमाएँ

1. व्यवहारिक कठिनाइयाँ

“अज्ञान का आवरण” और “मूल स्थिति” केवल काल्पनिक स्थितियाँ हैं जिन्हें वास्तविक जीवन में लागू करना कठिन है।

2. समाजवादी चिंतकों की आलोचना

कुछ वामपंथी विचारक मानते हैं कि राल्स की असमानता को मान्यता देना, गरीबों के शोषण को वैधता प्रदान करता है।

3. उदारवाद की सीमा

राल्स का सिद्धांत व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता देता है, जिससे कभी-कभी सामूहिक भलाई की उपेक्षा हो सकती है।


अन्य विचारकों से तुलना

विचारकन्याय की अवधारणादृष्टिकोण
प्लैटोयोग्यता आधारितआदर्शवादी
अरस्तुसमानता और न्याय का संतुलनयथार्थवादी
मार्क्सवर्गहीन समाज में न्यायक्रांतिकारी
राल्सनिष्पक्षता आधारित न्यायउदारवादी


निष्कर्ष: न्याय की नई परिभाषा

जॉन राल्स का न्याय सिद्धांत आधुनिक लोकतांत्रिक और उदारवादी समाज की आर्थिक और सामाजिक संरचना को न्यायसंगत बनाने का एक गंभीर प्रयास है।
उनका “न्याय के रूप में निष्पक्षता” का दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति की गरिमा, समानता और स्वतंत्रता सुरक्षित रहे, साथ ही समाज के कमजोर वर्गों को भी पूर्ण अवसर मिले।

राल्स का सिद्धांत आज भी नीति निर्माताओं, न्यायविदों और समाजशास्त्रियों के लिए मार्गदर्शक प्रकाश स्तंभ बना हुआ है।




07. कानून के स्रोतों का वर्णन कीजिए।

प्रस्तावना: समाज में कानून की अनिवार्यता

कानून (Law) किसी भी सभ्य समाज की आधारशिला होता है। यह सामाजिक जीवन को दिशा देने, व्यवस्था बनाए रखने, अन्याय को रोकने और न्याय दिलाने का माध्यम है।
लेकिन कानून सिर्फ राज्य द्वारा थोपा गया नियम नहीं होता – इसके कई स्रोत होते हैं जो समाज के विकास, परंपराओं, धार्मिक विश्वासों, न्यायिक व्याख्याओं और विधायिका से उत्पन्न होते हैं।

कानून के स्रोत (Sources of Law) वे आधार हैं, जिनसे कोई विधिक व्यवस्था जन्म लेती है और अधिकार तथा दायित्व निर्धारित होते हैं।


कानून के प्रमुख स्रोत

1. विधान (Legislation)

2. न्यायिक निर्णय (Judicial Decisions)

3. प्रथाएं और रिवाज (Customs and Usages)

4. धर्म और नैतिकता (Religion and Morality)

5. विदेशी कानून और विधिक परंपराएं (Foreign Law and Jurisprudence)

6. न्यायशास्त्रीय मत (Opinions of Jurists)

आइए अब प्रत्येक स्रोत का विस्तार से वर्णन करें।


1. विधान (Legislation): कानून का विधायी स्रोत

विधान वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से संसद या राज्य विधानसभाएं लिखित रूप में कानून बनाती हैं। यह आज का सबसे प्रमुख और प्रभावी स्रोत माना जाता है।

प्रकार:

  • मूल कानून (Substantive Law): जैसे – दंड संहिता, नागरिक कानून

  • प्रक्रियात्मक कानून (Procedural Law): जैसे – दंड प्रक्रिया संहिता, सिविल प्रक्रिया संहिता

विशेषताएँ:

  • स्पष्ट और लिखित होता है

  • लागू करने की विधिक प्रक्रिया होती है

  • किसी भी पुराने कानून को निरस्त या संशोधित कर सकता है

वर्तमान समय में अधिकांश देशों की कानून व्यवस्था विधान पर आधारित है।


2. न्यायिक निर्णय (Judicial Decisions): मिसाल के रूप में कानून

न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय भी कानून का स्रोत बन जाते हैं, विशेष रूप से जब वे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए हों। इन्हें मिसाल या नजीर (Precedents) कहा जाता है।

मुख्य बिंदु:

  • निचली अदालतें उच्च न्यायालय के निर्णयों का पालन करती हैं

  • न्यायिक सक्रियता के माध्यम से नए कानूनी सिद्धांत जन्म लेते हैं

  • भारत में अनुच्छेद 141 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होता है

उदाहरण: केशवानंद भारती मामला (1973) – संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत इसी से आया।


3. प्रथाएं और रिवाज (Customs and Usages): परंपरागत स्रोत

प्राचीन समय में जब लिखित कानून नहीं था, तब समाज रीति-रिवाजों और परंपराओं के आधार पर चलता था।
आज भी हिंदू कानून, मुस्लिम कानून में अनेक विधिक सिद्धांत प्रथाओं पर आधारित हैं।

शर्तें जिनसे प्रथाएं कानून बनती हैं:

  • दीर्घकालिक प्रचलन में हो

  • तर्कसंगत और नैतिक रूप से उचित हो

  • अनिवार्य मानी जाती हो

  • राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त हो

उदाहरण:

  • हिंदू विवाह संस्कार

  • मुस्लिम निकाह की प्रक्रिया


4. धर्म और नैतिकता: विधिक और धार्मिक मूल्य

प्रारंभिक सभ्यताओं में कानून और धर्म एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। धर्मग्रंथों से ही विधिक सिद्धांतों का जन्म होता था।

उदाहरण:

  • मनुस्मृति – हिंदू कानून का एक महत्वपूर्ण स्रोत

  • कुरान और हदीस – मुस्लिम पर्सनल लॉ का आधार

  • ईसाई बाइबिल – पश्चिमी देशों के नैतिक कानूनों की प्रेरणा

आज भी धार्मिक विश्वासों के आधार पर व्यक्तिगत कानून जैसे विवाह, उत्तराधिकार आदि निर्धारित किए जाते हैं।


5. विदेशी विधिक परंपराएं और आधुनिक दृष्टिकोण

भारत की विधिक प्रणाली में ब्रिटिश विधिक व्यवस्था का गहरा प्रभाव है।
कॉमन लॉ सिस्टम, इक्विटी सिद्धांत, और संवैधानिक ढांचा ब्रिटिश परंपरा से प्रेरित हैं।

वर्तमान संदर्भ:

  • वैश्वीकरण के कारण अन्य देशों के कानूनों का अध्ययन

  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर, अंतरराष्ट्रीय संधियाँ आदि भी कानून निर्माण में उपयोगी

उदाहरण:

  • भारत का दंड संहिता (IPC) – ब्रिटिश कानून से प्रेरित

  • कंपनी कानून, अधिकार सूचना अधिनियम (RTI) – अंतरराष्ट्रीय अवधारणाओं पर आधारित


6. न्यायशास्त्रियों के मत (Opinions of Jurists)

कानून के सिद्धांतों को समझने और विकसित करने में विधिक विद्वानों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकें, लेख और विश्लेषण न्यायालयों और कानूनविदों द्वारा मार्गदर्शन हेतु उपयोग किए जाते हैं।

प्रमुख न्यायशास्त्री:

  • जॉन ऑस्टिन – विधिवाद का प्रवर्तक

  • सलमंड, केल्सन, रोसको पॉउंड – आधुनिक विधिक सिद्धांतों के जनक

  • धर्मशास्त्रकार (Hindu Law) – याज्ञवल्क्य, मनु आदि

उपयोगिता:

  • विधायकों और न्यायालयों को विधिक व्याख्या और दृष्टिकोण प्रदान करते हैं

  • कानून के सामाजिक, नैतिक और ऐतिहासिक संदर्भों को स्पष्ट करते हैं


आधुनिक युग में कानून के स्रोतों का परस्पर संबंध

वर्तमान समय में कानून के विभिन्न स्रोत एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं। एक तरफ जहाँ विधान स्पष्टता और अधिकारिकता लाता है, वहीं न्यायिक निर्णय लचीलापन और व्याख्या की शक्ति प्रदान करते हैं।
प्रथाएं, धर्म और न्यायशास्त्रियों के विचार कानून को सांस्कृतिक और नैतिक आधार देते हैं।


निष्कर्ष: कानून के स्रोत – विधिक संरचना की बुनियाद

कानून के स्रोतों का अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि विधिक व्यवस्था कोई एकरूपी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह समाज, परंपरा, नैतिकता और न्यायिक व्याख्याओं का संगठित समन्वय है।
जहाँ विधान कानून को लागू करता है, वहीं न्यायालय, प्रथाएं और धार्मिक विचार उसे जीवंत और प्रासंगिक बनाए रखते हैं।

इसलिए, किसी भी कानून की उत्पत्ति, व्याख्या और प्रभाव को समझने के लिए इन स्रोतों की जानकारी आवश्यक है – यही एक न्यायसंगत, संवेदनशील और उत्तरदायी विधिक व्यवस्था की नींव है।





08. राजनीति विज्ञान के अध्ययन का क्या महत्व है?

प्रस्तावना: राजनीति विज्ञान – समाज का दर्पण

राजनीति विज्ञान (Political Science) एक ऐसा सामाजिक विज्ञान है जो राज्य, सरकार, सत्ता, नीति, प्रशासन और नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का अध्ययन करता है। यह न केवल शासक और शासित के संबंधों को स्पष्ट करता है, बल्कि यह यह भी बताता है कि एक आदर्श समाज कैसे बनाया जा सकता है

राजनीति विज्ञान का अध्ययन आज के लोकतांत्रिक, बहुलतावादी और वैश्विक समाज में अत्यंत आवश्यक हो गया है क्योंकि इससे व्यक्ति एक सजग नागरिक, उत्तरदायी मतदाता और नैतिक रूप से जागरूक सदस्य बनता है।


राजनीति विज्ञान के अध्ययन का उद्देश्य

  • राज्य और सरकार की प्रकृति को समझना

  • नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों की जानकारी देना

  • राजनीतिक प्रक्रियाओं का विश्लेषण करना

  • सामाजिक न्याय, समानता और स्वतंत्रता की समझ प्रदान करना

  • जागरूक, उत्तरदायी और लोकतांत्रिक नागरिक बनाना


राजनीति विज्ञान के अध्ययन का शैक्षिक महत्व

1. राज्य, सरकार और संविधान की समझ

राजनीति विज्ञान व्यक्ति को यह समझने में सक्षम बनाता है कि राज्य क्या है, सरकार कैसे काम करती है, संविधान का क्या महत्व है, और शासन व्यवस्था किन सिद्धांतों पर आधारित है।

2. लोकतंत्र की अवधारणा को मजबूत करता है

यह अध्ययन व्यक्ति को यह सिखाता है कि लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति (way of life) है, जिसमें भागीदारी, सहिष्णुता और बहस की संस्कृति शामिल है।

3. विचारधाराओं का विश्लेषण

राजनीति विज्ञान के माध्यम से व्यक्ति उदारवाद, समाजवाद, मार्क्सवाद, फासीवाद, साम्यवाद जैसी विभिन्न विचारधाराओं का अध्ययन करता है और उनमें तुलनात्मक दृष्टिकोण अपनाता है।


सामाजिक और नागरिक महत्व

1. नागरिकों को उनके अधिकारों की जानकारी

राजनीति विज्ञान नागरिकों को मौलिक अधिकार, कानूनी संरक्षण, लोकतांत्रिक प्रक्रिया, और राजनीतिक भागीदारी के बारे में ज्ञान प्रदान करता है।

2. उत्तरदायी नागरिक बनाता है

राजनीति विज्ञान का अध्ययन व्यक्ति को यह समझाता है कि सिर्फ अधिकार लेना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि कर्तव्यों का पालन करना भी उतना ही आवश्यक है।

3. राजनीतिक साक्षरता और जागरूकता

एक सामान्य नागरिक को अपने मत का उपयोग समझदारी से करने के लिए राजनीतिक साक्षर होना जरूरी है, और राजनीति विज्ञान यही जागरूकता पैदा करता है।

4. भ्रष्टाचार के विरुद्ध जागरूकता

राजनीति विज्ञान व्यक्ति को यह समझने की दृष्टि देता है कि प्रशासनिक, विधायी और न्यायिक व्यवस्थाओं में पारदर्शिता कैसे लाई जा सकती है और भ्रष्टाचार से कैसे लड़ा जा सकता है।


प्रशासनिक और व्यावसायिक महत्व

1. प्रशासनिक सेवाओं में उपयोगी

राजनीति विज्ञान का अध्ययन IAS, PCS, UPSC जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में अत्यंत उपयोगी है। यह व्यक्ति को राजनीतिक, संवैधानिक और प्रशासनिक ज्ञान प्रदान करता है।

2. राजनयिक और अंतरराष्ट्रीय संबंध

राजनीति विज्ञान के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय राजनीति, विदेश नीति, संयुक्त राष्ट्र, संधियाँ, और सुरक्षा नीति जैसे विषय भी आते हैं, जो किसी भी देश की विदेश नीति और कूटनीति को समझने में सहायक होते हैं।

3. राजनीतिक नेतृत्व और सामाजिक कार्य

राजनीति विज्ञान का अध्ययन व्यक्ति को नेतृत्व कौशल, समूह समन्वय, और राजनीतिक रणनीति सीखने में मदद करता है। यह उसे एक प्रभावी राजनीतिक या सामाजिक कार्यकर्ता बनने की दिशा में प्रेरित करता है।


नैतिक और वैचारिक महत्व

1. सामाजिक न्याय की समझ

राजनीति विज्ञान यह सिखाता है कि समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, धर्मनिरपेक्षता, और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों को समाज में कैसे लागू किया जा सकता है।

2. संघर्ष और समाधान की दृष्टि

यह अध्ययन हमें यह भी सिखाता है कि राजनीतिक संघर्षों, मतभेदों और टकरावों को किस प्रकार शांतिपूर्ण और वैधानिक तरीके से हल किया जा सकता है।

3. मानव अधिकारों का संरक्षण

राजनीति विज्ञान व्यक्ति को मानव अधिकारों की सार्वभौमिक अवधारणा से परिचित कराता है और यह सिखाता है कि कैसे इन अधिकारों का संरक्षण और संवर्धन किया जा सकता है।


वैश्विक संदर्भ में राजनीति विज्ञान का महत्व

1. वैश्विक नागरिकता की भावना

राजनीति विज्ञान व्यक्ति को सीमाओं से परे सोचने, अन्य देशों की राजनीतिक संरचना को समझने और एक वैश्विक नागरिक बनने की प्रेरणा देता है।

2. अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भूमिका

राजनीति विज्ञान हमें संयुक्त राष्ट्र, WTO, WHO, IMF, विश्व बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भूमिका और उनके प्रभाव के बारे में विस्तार से बताता है।

3. युद्ध और शांति की रणनीतियाँ

यह अध्ययन हमें सिखाता है कि विश्व में शांति, कूटनीति और सहयोग कैसे संभव है, और युद्ध जैसे संकटों से कैसे निपटा जा सकता है।


राजनीतिक विज्ञान का समकालीन महत्व

1. लोकतांत्रिक मूल्य संकट में

आज जब लोकतंत्र पर चरमपंथ, फेक न्यूज़, और जन भावना से खेलना जैसी चुनौतियाँ हैं, तब राजनीति विज्ञान का अध्ययन लोकतंत्र को संवेदनशील और सुरक्षित बनाए रखने का मार्ग दिखाता है।

2. युवाओं को राजनीतिक रूप से सक्रिय बनाना

राजनीति विज्ञान युवा वर्ग को केवल वोट देने वाला नागरिक नहीं, बल्कि नीति निर्माण में भागीदारी करने वाला जागरूक नागरिक बनने की प्रेरणा देता है।


निष्कर्ष: राजनीति विज्ञान – आज की ज़रूरत

राजनीति विज्ञान का अध्ययन आज के बदलते, जटिल और बहुआयामी विश्व में अत्यंत आवश्यक है। यह न केवल व्यक्ति को एक सजग, शिक्षित और जिम्मेदार नागरिक बनाता है, बल्कि समाज को भी सशक्त, समतामूलक और न्यायपूर्ण बनाने में योगदान देता है।

राजनीति विज्ञान एक ऐसा विषय है जो शक्ति के उपयोग को नैतिकता से जोड़ता है, और सत्ता को सेवा में परिवर्तित करने का रास्ता दिखाता है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि —

“राजनीति विज्ञान, केवल सत्ता का अध्ययन नहीं, बल्कि समाज के विवेक का विज्ञान है।”



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