प्रश्न 01 सामान्य आवधिक गुणों पर एक विवरण दीजिए।
🔹 परिचय (Introduction)
आवर्त सारणी (Periodic Table) रसायन विज्ञान की रीढ़ मानी जाती है। इसमें सभी ज्ञात तत्वों को उनके परमाणु क्रमांक के आधार पर व्यवस्थित किया गया है। जब तत्वों को इस क्रम में सजाया जाता है तो उनके गुणधर्म नियमित अंतराल पर दोहराते हैं। इन्हीं को सामान्य आवधिक गुण (Periodic Properties) कहा जाता है। ये गुण तत्वों की परमाणु संरचना, इलेक्ट्रॉनों की व्यवस्था तथा नाभिकीय आकर्षण पर निर्भर करते हैं।
🔹 सामान्य आवधिक गुणों की परिभाषा
आवधिक गुण वे भौतिक तथा रासायनिक गुण हैं जो आवर्त सारणी में किसी आवर्त (period) या समूह (group) में आगे बढ़ने पर नियमित रूप से घटते या बढ़ते हैं।
ये गुण तत्वों के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास तथा परमाणु क्रमांक पर आधारित होते हैं।
🔹 प्रमुख सामान्य आवधिक गुण
आवर्त सारणी में पाए जाने वाले महत्वपूर्ण आवधिक गुण निम्नलिखित हैं:
1️⃣ परमाणु त्रिज्या (Atomic Radius)
-
परिभाषा: किसी परमाणु के नाभिक और उसकी बाहरी कक्षा के इलेक्ट्रॉन के बीच की दूरी।
-
आवर्त में परिवर्तन: बाएँ से दाएँ जाने पर नाभिकीय आवेश बढ़ता है, जिससे इलेक्ट्रॉन नाभिक के निकट खिंचते हैं और त्रिज्या घटती है।
-
समूह में परिवर्तन: ऊपर से नीचे जाने पर नई इलेक्ट्रॉन परतें जुड़ती हैं, जिससे त्रिज्या बढ़ती है।
2️⃣ आयनीकरण ऊर्जा (Ionization Energy)
-
परिभाषा: किसी परमाणु से एक इलेक्ट्रॉन हटाने के लिए आवश्यक न्यूनतम ऊर्जा।
-
आवर्त में परिवर्तन: बाएँ से दाएँ जाने पर नाभिकीय आकर्षण बढ़ने से आयनीकरण ऊर्जा बढ़ती है।
-
समूह में परिवर्तन: ऊपर से नीचे जाने पर इलेक्ट्रॉनों की दूरी नाभिक से बढ़ जाती है, इसलिए आयनीकरण ऊर्जा घटती है।
3️⃣ वैद्युत ऋणात्मकता (Electronegativity)
-
परिभाषा: किसी परमाणु की यह प्रवृत्ति कि वह साझा इलेक्ट्रॉनों को अपनी ओर आकर्षित करे।
-
आवर्त में परिवर्तन: बाएँ से दाएँ जाने पर बढ़ती है।
-
समूह में परिवर्तन: ऊपर से नीचे जाने पर घटती है।
-
उदाहरण: फ्लोरीन सबसे अधिक वैद्युत ऋणात्मक तत्व है।
4️⃣ इलेक्ट्रॉन अभिलाषा (Electron Affinity)
-
परिभाषा: जब किसी परमाणु में इलेक्ट्रॉन जोड़ा जाता है तो जो ऊर्जा मुक्त होती है उसे इलेक्ट्रॉन अभिलाषा कहते हैं।
-
आवर्त में परिवर्तन: सामान्यतः बाएँ से दाएँ बढ़ती है।
-
समूह में परिवर्तन: ऊपर से नीचे जाने पर घटती है।
-
विशेष स्थिति: उदासीन गैसों (Noble gases) की इलेक्ट्रॉन अभिलाषा लगभग शून्य होती है।
5️⃣ धात्विक और अधात्विक गुण (Metallic & Non-Metallic Character)
-
धात्विक गुण: इलेक्ट्रॉन खोने की प्रवृत्ति।
-
अधात्विक गुण: इलेक्ट्रॉन पाने की प्रवृत्ति।
-
आवर्त में परिवर्तन: बाएँ से दाएँ जाने पर धात्विक गुण घटते हैं और अधात्विक गुण बढ़ते हैं।
-
समूह में परिवर्तन: ऊपर से नीचे धात्विक गुण बढ़ते हैं जबकि अधात्विक गुण घटते हैं।
6️⃣ संयोजकता (Valency)
-
परिभाषा: किसी तत्व की वह क्षमता जिसके द्वारा वह अन्य तत्वों से संयोजन करता है।
-
आवर्त में परिवर्तन: पहले बढ़ती है फिर घटती है।
-
समूह में परिवर्तन: प्रायः समान रहती है।
🔹 सामान्य आवधिक गुणों का महत्त्व
📌 तत्वों का वर्गीकरण
इन गुणों के आधार पर तत्वों को धातु, अधातु तथा उपधातु में बाँटा जाता है।
📌 रासायनिक अभिक्रियाएँ
किसी भी तत्व की रासायनिक सक्रियता उसके आवधिक गुणों पर निर्भर करती है।
📌 यौगिकों का निर्माण
तत्वों की वैद्युत ऋणात्मकता व आयनीकरण ऊर्जा यह बताती है कि वे आयनिक या सहसंयोजक यौगिक बनाएंगे।
📌 औद्योगिक उपयोग
धातुओं और अधातुओं के विभिन्न उद्योगों में प्रयोग इन्हीं गुणों को ध्यान में रखकर किए जाते हैं।
🔹 विशेष उदाहरण
⚡ सोडियम और क्लोरीन
-
सोडियम की आयनीकरण ऊर्जा कम होती है इसलिए वह आसानी से इलेक्ट्रॉन खो देता है।
-
क्लोरीन की वैद्युत ऋणात्मकता अधिक होने से वह इलेक्ट्रॉन प्राप्त करता है।
-
परिणामस्वरूप दोनों मिलकर आयनिक यौगिक (NaCl) बनाते हैं।
⚡ धातु से अधातु की ओर
आवर्त सारणी में बाएँ से दाएँ जाने पर सोडियम (धातु) → मैग्नीशियम (धातु) → एल्युमिनियम (उपधातु) → सिलिकॉन (अर्धचालक) → फॉस्फोरस, सल्फर, क्लोरीन (अधातु) जैसे परिवर्तन देखे जाते हैं।
🔹 निष्कर्ष
सामान्य आवधिक गुण न केवल रसायन विज्ञान के अध्ययन को सरल बनाते हैं बल्कि तत्वों की प्रकृति और उनके आपसी संबंधों को समझने में भी सहायक होते हैं। इन गुणों की वजह से वैज्ञानिकों ने नई खोजें कीं और आधुनिक आवर्त सारणी का निर्माण संभव हुआ।
अतः, सामान्य आवधिक गुण रसायन विज्ञान के वे मौलिक सिद्धांत हैं जिनके बिना तत्वों और यौगिकों के अध्ययन की कल्पना भी अधूरी है।
प्रश्न 02 आयनीकरण ऊर्जा और इलेक्ट्रॉन बन्धुता को परिभाषित कीजिए। परमाणु संख्या बढ़ने पर ये आवर्त सारणी में कैसे प्रभावित होते हैं।
🔹 परिचय (Introduction)
रसायन विज्ञान में किसी तत्व की रासायनिक सक्रियता को समझने के लिए दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ होती हैं—
-
आयनीकरण ऊर्जा (Ionization Energy)
-
इलेक्ट्रॉन बन्धुता (Electron Affinity)
ये दोनों गुण सीधे-सीधे तत्वों के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास, नाभिकीय आवेश तथा परमाणु क्रमांक पर निर्भर करते हैं। आवर्त सारणी में परमाणु क्रमांक के अनुसार आगे बढ़ने पर इन गुणों में नियमित परिवर्तन देखने को मिलते हैं, जिन्हें हम सामान्य आवधिक प्रवृत्तियाँ कहते हैं।
🔹 आयनीकरण ऊर्जा (Ionization Energy)
📌 परिभाषा
किसी गैसीय अवस्था में स्थित निरपेक्ष (neutral) परमाणु से उसका एक इलेक्ट्रॉन हटाने के लिए जितनी न्यूनतम ऊर्जा की आवश्यकता होती है, उसे आयनीकरण ऊर्जा कहते हैं।
📌 सूत्र रूप
X(g)+IE⟶X+(g)+e−जहाँ IE = Ionization Energy
📌 विशेषताएँ
-
यह ऊर्जा सदैव धनात्मक होती है क्योंकि इलेक्ट्रॉन को हटाने के लिए बाहरी ऊर्जा देनी पड़ती है।
-
किसी तत्व की आयनीकरण ऊर्जा उसकी नाभिकीय आकर्षण शक्ति और परमाणु त्रिज्या पर निर्भर करती है।
🔹 आयनीकरण ऊर्जा को प्रभावित करने वाले कारक
⚡ नाभिकीय आवेश (Nuclear Charge)
नाभिकीय आवेश जितना अधिक होगा, इलेक्ट्रॉनों पर आकर्षण उतना ही अधिक होगा और इलेक्ट्रॉन हटाना कठिन होगा।
⚡ परमाणु त्रिज्या (Atomic Radius)
त्रिज्या अधिक होने पर बाहरी इलेक्ट्रॉनों पर नाभिक का आकर्षण कम होता है, जिससे आयनीकरण ऊर्जा घटती है।
⚡ शील्डिंग प्रभाव (Shielding Effect)
भीतरी इलेक्ट्रॉनों का प्रतिकर्षण बाहरी इलेक्ट्रॉनों को नाभिक से ढाल देता है। इससे आयनीकरण ऊर्जा घटती है।
⚡ इलेक्ट्रॉनिक विन्यास (Electronic Configuration)
स्थिर विन्यास (जैसे अर्ध-भरी या पूरी भरी कक्षा) वाले तत्वों की आयनीकरण ऊर्जा अधिक होती है।
🔹 इलेक्ट्रॉन बन्धुता (Electron Affinity)
📌 परिभाषा
जब किसी निरपेक्ष गैसीय परमाणु में एक इलेक्ट्रॉन जोड़ा जाता है तो जो ऊर्जा मुक्त होती है, उसे इलेक्ट्रॉन बन्धुता कहते हैं।
📌 सूत्र रूप
X(g)+e−⟶X−(g)+EAजहाँ EA = Electron Affinity
📌 विशेषताएँ
-
यह ऊर्जा सामान्यतः ऋणात्मक मानी जाती है क्योंकि ऊर्जा का उत्सर्जन होता है।
-
इलेक्ट्रॉन बन्धुता का मान जितना अधिक ऋणात्मक होगा, उस परमाणु की इलेक्ट्रॉन पाने की प्रवृत्ति उतनी ही अधिक होगी।
🔹 इलेक्ट्रॉन बन्धुता को प्रभावित करने वाले कारक
⚡ परमाणु त्रिज्या
छोटी त्रिज्या वाले परमाणुओं में नाभिकीय आकर्षण अधिक होता है, जिससे इलेक्ट्रॉन आसानी से आकर्षित होता है और EA अधिक होती है।
⚡ नाभिकीय आवेश
नाभिकीय आवेश अधिक होने से इलेक्ट्रॉन को आकर्षित करने की क्षमता अधिक होती है।
⚡ इलेक्ट्रॉनिक विन्यास
यदि इलेक्ट्रॉन जोड़ने से स्थिर संरचना प्राप्त होती है, तो इलेक्ट्रॉन बन्धुता का मान अधिक होगा।
⚡ शील्डिंग प्रभाव
भीतरी परतों का इलेक्ट्रॉन प्रतिकर्षण जितना अधिक होगा, इलेक्ट्रॉन बन्धुता का मान उतना कम होगा।
🔹 आवर्त सारणी में आयनीकरण ऊर्जा का परिवर्तन
H3 → आवर्त (Period) में परिवर्तन
-
बाएँ से दाएँ जाते समय नाभिकीय आवेश बढ़ता है और परमाणु त्रिज्या घटती है।
-
परिणामस्वरूप आयनीकरण ऊर्जा धीरे-धीरे बढ़ती जाती है।
-
उदाहरण: सोडियम (Na) < मैग्नीशियम (Mg) < एल्युमिनियम (Al) < सल्फर (S) < क्लोरीन (Cl)
H3 → समूह (Group) में परिवर्तन
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ऊपर से नीचे जाते समय नई इलेक्ट्रॉन परतें जुड़ने से परमाणु त्रिज्या बढ़ती है।
-
नाभिकीय आकर्षण घट जाता है।
-
परिणामस्वरूप आयनीकरण ऊर्जा कम होती जाती है।
-
उदाहरण: लिथियम (Li) > सोडियम (Na) > पोटैशियम (K) > रूबिडियम (Rb)
🔹 आवर्त सारणी में इलेक्ट्रॉन बन्धुता का परिवर्तन
H3 → आवर्त (Period) में परिवर्तन
-
बाएँ से दाएँ जाने पर नाभिकीय आवेश बढ़ता है और परमाणु त्रिज्या घटती है।
-
इलेक्ट्रॉन जोड़ने की प्रवृत्ति अधिक होती है, इसलिए EA का मान अधिक ऋणात्मक होता जाता है।
-
अपवाद: नाइट्रोजन, बेरिलियम और उदासीन गैसों की EA लगभग शून्य होती है।
H3 → समूह (Group) में परिवर्तन
-
ऊपर से नीचे जाते समय परमाणु त्रिज्या बढ़ती है, जिससे इलेक्ट्रॉन पर आकर्षण घटता है।
-
इलेक्ट्रॉन बन्धुता का मान क्रमशः कम ऋणात्मक होता जाता है।
-
उदाहरण: फ्लोरीन (F) की EA उच्च है लेकिन क्लोरीन (Cl) की EA उससे अधिक ऋणात्मक मानी जाती है क्योंकि फ्लोरीन में छोटे आकार के कारण इलेक्ट्रॉन-इलेक्ट्रॉन प्रतिकर्षण अधिक होता है।
🔹 तुलनात्मक अध्ययन (Comparison)
आयनीकरण ऊर्जा बनाम इलेक्ट्रॉन बन्धुता
-
आयनीकरण ऊर्जा = इलेक्ट्रॉन निकालने की प्रवृत्ति
-
इलेक्ट्रॉन बन्धुता = इलेक्ट्रॉन जोड़ने की प्रवृत्ति
-
दोनों गुण परमाणु के नाभिकीय आवेश, इलेक्ट्रॉनिक विन्यास और परमाणु त्रिज्या से नियंत्रित होते हैं।
🔹 महत्त्व
📌 रासायनिक अभिक्रियाएँ
किसी तत्व की रासायनिक सक्रियता (विशेषकर धातु या अधातु के रूप में) इन्हीं गुणों से निर्धारित होती है।
📌 यौगिकों का निर्माण
-
कम आयनीकरण ऊर्जा वाले धातु इलेक्ट्रॉन खोकर धनायन बनाते हैं।
-
अधिक EA वाले अधातु इलेक्ट्रॉन पाकर ऋणायन बनाते हैं।
-
दोनों मिलकर स्थायी आयनिक यौगिक का निर्माण करते हैं।
📌 औद्योगिक व प्रयोगात्मक महत्त्व
इन गुणों की मदद से धातुओं की क्रियाशीलता श्रृंखला (Reactivity Series) बनाई जाती है, जो धातु उद्योग, धातु निष्कर्षण तथा रासायनिक अभिक्रियाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
🔹 निष्कर्ष
आयनीकरण ऊर्जा और इलेक्ट्रॉन बन्धुता रसायन विज्ञान के दो ऐसे मौलिक आवधिक गुण हैं जो तत्वों की रासायनिक पहचान और प्रतिक्रियाशीलता को स्पष्ट करते हैं।
-
आयनीकरण ऊर्जा हमें यह बताती है कि कोई तत्व इलेक्ट्रॉन खोने में कितना सक्षम है।
-
इलेक्ट्रॉन बन्धुता यह दर्शाती है कि वह तत्व इलेक्ट्रॉन ग्रहण करने में कितना सक्षम है।
इन दोनों गुणों की आवर्त सारणी में परमाणु संख्या बढ़ने पर होने वाली प्रवृत्तियाँ तत्वों की धात्विक और अधात्विक प्रकृति, यौगिक निर्माण और रासायनिक सक्रियता को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
प्रश्न 02 किसी अभिक्रिया की दर को परिभाषित कीजिए। प्रथम कोटि अभिक्रियाओं की अभिव्यक्ति दर स्थिरांक प्राप्त कीजिए। प्रथम कोटि की अभिक्रियाओं की महत्वपूर्ण विशेषताओं पर चर्चा कीजिए।
🔹 अभिक्रिया की दर की परिभाषा
रासायनिक अभिक्रिया की गति या दर (Rate of Reaction) उस परिवर्तन को कहते हैं जो किसी पदार्थ की सांद्रता (concentration) में प्रति इकाई समय में होता है।
-
यदि अभिक्रिया में अभिकारक (Reactant) की सांद्रता घट रही है तो दर उस घटाव की दर से परिभाषित होगी।
-
यदि उत्पाद (Product) की सांद्रता बढ़ रही है तो दर उस बढ़ाव की दर से परिभाषित होगी।
सामान्य सूत्र:
Rate=−dtd[R]=dtd[P]यहाँ [R] = अभिकारक की सांद्रता, [P] = उत्पाद की सांद्रता।
🔹 अभिक्रिया की दर को प्रभावित करने वाले कारक
-
सांद्रता (Concentration): अधिक सांद्रता से टकराव बढ़ते हैं और दर तेज होती है।
-
तापमान (Temperature): तापमान बढ़ाने से कणों की गतिज ऊर्जा बढ़ती है और दर में वृद्धि होती है।
-
उत्प्रेरक (Catalyst): यह सक्रियण ऊर्जा (Activation Energy) को घटाकर अभिक्रिया की दर को प्रभावित करता है।
-
दबाव (Pressure): गैसीय अभिक्रियाओं में उच्च दबाव दर को तेज करता है।
-
सतह क्षेत्रफल (Surface Area): ठोस पदार्थ का क्षेत्रफल जितना अधिक होगा, दर उतनी तेज होगी।
🔹 प्रथम कोटि अभिक्रिया (First Order Reaction)
परिभाषा:
यदि किसी रासायनिक अभिक्रिया की दर केवल एक अभिकारक की सांद्रता पर निर्भर करती है और उसकी घात 1 हो, तो उसे प्रथम कोटि अभिक्रिया कहा जाता है।
सामान्य रूप:
A⟶Productsदर समीकरण:
Rate=k[A]यहाँ, k = दर स्थिरांक (Rate Constant) और [A] = अभिकारक की सांद्रता।
🔹 प्रथम कोटि अभिक्रिया का गणितीय निरूपण
मान लीजिए, प्रारम्भिक समय t=0 पर A की सांद्रता = [A]₀ है।
समय t पर A की सांद्रता = [A]ₜ है।
दर समीकरण:
−dtd[A]=k[A]समीकरण को हल करने पर:
∫[A]0[A]t[A]d[A]=−k∫0tdt ln[A]t−ln[A]0=−kt ln[A]t[A]0=ktअंतिम समीकरण:
k=t2.303log[A]t[A]0🔹 प्रथम कोटि अभिक्रिया की आधा आयु (Half-Life)
आधा आयु = वह समय जिसमें अभिकारक की सांद्रता अपने प्रारम्भिक मान के आधे तक घट जाए।
t1/2=k0.693विशेष बात:
-
प्रथम कोटि अभिक्रिया की आधा आयु केवल दर स्थिरांक पर निर्भर करती है, प्रारम्भिक सांद्रता पर नहीं।
🔹 प्रथम कोटि अभिक्रिया की प्रमुख विशेषताएँ
-
दर स्थिरांक (k) का आयाम:
समय⁻¹ (sec⁻¹) -
आधा आयु का नियम:
आधा आयु = स्थिर (प्रारम्भिक सांद्रता पर निर्भर नहीं)। -
ग्राफ का स्वरूप:
-
[A] बनाम समय → घातीय (exponential) घटाव।
-
log[A] बनाम समय → सीधी रेखा।
-
-
उदाहरण:
-
रेडियोधर्मी क्षय (Radioactive Decay)
-
गैस का अवशोषण (Adsorption of gases)
-
एस्टर का अम्लीय हाइड्रोलिसिस
-
-
रासायनिक सक्रियता की समझ:
प्रथम कोटि अभिक्रिया के गणितीय समीकरण से हमें अभिक्रिया की गति और समय पर सांद्रता का सटीक संबंध मिलता है।
🔹 ग्राफिकल निरूपण
-
सांद्रता बनाम समय (Concentration vs. Time):
धीरे-धीरे घटता हुआ घातीय वक्र। -
लॉगरिदमिक ग्राफ (Log [A] vs. Time):
सीधी रेखा, जिसकी ढलान = –k/2.303 होती है।
🔹 व्यावहारिक महत्त्व
-
औषधि विज्ञान (Pharmacology): दवाइयों के शरीर में टूटने की दर अक्सर प्रथम कोटि नियम का पालन करती है।
-
रेडियोधर्मिता (Radioactivity): सभी रेडियोधर्मी पदार्थों का क्षय प्रथम कोटि अभिक्रिया के अनुसार होता है।
-
औद्योगिक प्रक्रियाएँ: कई रासायनिक उद्योगों में प्रतिक्रिया दर की गणना और नियंत्रण प्रथम कोटि समीकरण पर आधारित होता है।
🔹 निष्कर्ष
प्रथम कोटि अभिक्रियाएँ रासायनिक गतिजी (Chemical Kinetics) का एक महत्त्वपूर्ण आधार हैं।
-
इनकी दर केवल अभिकारक की सांद्रता पर निर्भर करती है।
-
दर स्थिरांक (k) को आसानी से प्रयोगात्मक आँकड़ों से निकाला जा सकता है।
-
आधा आयु का स्थिर रहना इन्हें अन्य कोटि की अभिक्रियाओं से अलग करता है।
अतः, रासायनिक विज्ञान में प्रथम कोटि अभिक्रियाओं का अध्ययन अत्यधिक उपयोगी है क्योंकि यह न केवल प्राकृतिक प्रक्रियाओं को समझने में मदद करता है बल्कि औद्योगिक और चिकित्सीय अनुप्रयोगों में भी मार्गदर्शन प्रदान करता है।
प्रश्न 03 संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए : (1) होमोलिटिक और हेटेरोलिटिक विखंडन
🔹 परिचय
रासायनिक बंध (Chemical Bond) के टूटने की दो मुख्य प्रक्रियाएँ होती हैं—होमोलिटिक विखंडन (Homolytic Fission) और हेटेरोलिटिक विखंडन (Heterolytic Fission)। ये दोनों ही प्रकार कार्बनिक रसायन (Organic Chemistry) में अति महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन्हीं के आधार पर मुक्त मूलक (Free Radical), कैशन (Cation) और ऐनियन (Anion) का निर्माण होता है।
🔹 होमोलिटिक विखंडन (Homolytic Fission)
-
परिभाषा: जब सहसंयोजक बंध (Covalent Bond) में उपस्थित साझा इलेक्ट्रॉनों की जोड़ी समान रूप से टूटती है, और प्रत्येक परमाणु को एक-एक इलेक्ट्रॉन मिलता है, तो इस प्रकार के बंध विच्छेद को होमोलिटिक विखंडन कहते हैं।
-
परिणाम: इस प्रक्रिया में मुक्त मूलक (Free Radicals) बनते हैं।
-
उदाहरण:
Cl2hvCl∙+Cl∙यहाँ पर क्लोरीन अणु के बंध टूटने पर दो क्लोरीन मुक्त मूलक बनते हैं।
-
विशेषता: यह प्रक्रिया प्रायः ऊष्मा (Heat), प्रकाश (Light), अथवा पराबैंगनी किरणों (UV Rays) के प्रभाव से होती है।
🔹 हेटेरोलिटिक विखंडन (Heterolytic Fission)
-
परिभाषा: जब सहसंयोजक बंध के दोनों इलेक्ट्रॉन केवल एक परमाणु को मिलते हैं, तब इस प्रकार के बंध विच्छेद को हेटेरोलिटिक विखंडन कहते हैं।
-
परिणाम: इस प्रक्रिया में एक परमाणु धनायन (Cation) और दूसरा ऋणायन (Anion) बनाता है।
-
उदाहरण:
H−ClH++Cl−यहाँ हाइड्रोजन- क्लोरीन बंध के टूटने पर हाइड्रोजन धनायन और क्लोरीन ऋणायन बनता है।
-
विशेषता: यह प्रक्रिया प्रायः ध्रुवीय विलायक (Polar Solvent) में होती है।
🔹 तुलनात्मक भेद (Difference Between Homolytic and Heterolytic Fission)
बिंदु | होमोलिटिक विखंडन | हेटेरोलिटिक विखंडन |
---|---|---|
इलेक्ट्रॉनों का वितरण | प्रत्येक परमाणु को 1-1 इलेक्ट्रॉन मिलता है | दोनों इलेक्ट्रॉन एक ही परमाणु को मिलते हैं |
उत्पाद | मुक्त मूलक (Free Radicals) | आयन (Cation और Anion) |
सामान्य स्थिति | ऊष्मा, प्रकाश, UV किरणों की उपस्थिति | ध्रुवीय विलायक की उपस्थिति |
उदाहरण | Cl2→Cl∙+Cl∙ | HCl→H++Cl− |
🔹 निष्कर्ष
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होमोलिटिक विखंडन से मुक्त मूलक बनते हैं, जो प्रायः रेडिकल अभिक्रियाओं में भाग लेते हैं।
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हेटेरोलिटिक विखंडन से आयन बनते हैं, जो आयनिक अभिक्रियाओं की नींव हैं।
👉 इस प्रकार, दोनों प्रकार के विखंडन रसायन विज्ञान की विभिन्न अभिक्रियाओं को समझने में अहम भूमिका निभाते हैं।
: (ii) कार्बोहाइड्रेट का वर्गीकरण
🔹 परिचय
कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrates) को जीवों का ऊर्जा स्रोत कहा जाता है। ये कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बने कार्बनिक यौगिक हैं, जिनका सामान्य सूत्र प्रायः Cn(H2O)n होता है। इन्हें शर्करा (Sugars) या सैकैराइड (Saccharides) भी कहते हैं।
🔹 कार्बोहाइड्रेट का वर्गीकरण
कार्बोहाइड्रेट को उनकी संरचना (Structure) और जल अपघटन (Hydrolysis) की क्षमता के आधार पर तीन मुख्य वर्गों में बाँटा जाता है :
🍬 मोनोसैकैराइड (Monosaccharides)
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परिभाषा: सबसे सरल कार्बोहाइड्रेट, जिन्हें और छोटे इकाई में हाइड्रोलाइज नहीं किया जा सकता।
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सामान्य सूत्र: CnH2nOn
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विशेषताएँ:
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ये मीठे स्वाद वाले और जल में घुलनशील होते हैं।
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इनका वर्गीकरण कार्बन परमाणुओं की संख्या पर आधारित होता है — ट्रायोज़ (3C), टेट्रोज़ (4C), पेंटोज़ (5C), हेक्सोज़ (6C)।
-
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उदाहरण:
-
ग्लूकोज़ (Glucose)
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फ्रुक्टोज़ (Fructose)
-
गैलेक्टोज़ (Galactose)
-
🍭 डाइसैकैराइड (Disaccharides)
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परिभाषा: जब दो मोनोसैकैराइड इकाइयाँ आपस में ग्लाइकोसिडिक बंध (Glycosidic Bond) से जुड़ती हैं तो डाइसैकैराइड बनता है।
-
हाइड्रोलिसिस पर: यह दो मोनोसैकैराइड में टूट जाते हैं।
-
उदाहरण:
-
सुक्रोज़ (Sucrose) → ग्लूकोज़ + फ्रुक्टोज़
-
माल्टोज़ (Maltose) → ग्लूकोज़ + ग्लूकोज़
-
लैक्टोज़ (Lactose) → ग्लूकोज़ + गैलेक्टोज़
-
🍯 ओलिगोसैकैराइड (Oligosaccharides)
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परिभाषा: ऐसे कार्बोहाइड्रेट जिनके हाइड्रोलिसिस पर 3–10 मोनोसैकैराइड इकाइयाँ मिलती हैं।
-
विशेषता: यह मोनोसैकैराइड और पॉलिसैकैराइड के बीच की अवस्था है।
-
उदाहरण: रैफिनोज़ (Raffinose), स्टैच्योज़ (Stachyose)।
🌾 पॉलिसैकैराइड (Polysaccharides)
-
परिभाषा: जब कई सौ से हजारों मोनोसैकैराइड इकाइयाँ जुड़कर बड़े अणु बनाती हैं तो इन्हें पॉलिसैकैराइड कहते हैं।
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विशेषताएँ:
-
सामान्यतः ये स्वादहीन और जल में अघुलनशील होते हैं।
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संरचना और कार्य के आधार पर इनका वर्गीकरण –
-
संचय पॉलिसैकैराइड (Storage Polysaccharides): जैसे स्टार्च (Starch), ग्लाइकोजन (Glycogen)।
-
संरचनात्मक पॉलिसैकैराइड (Structural Polysaccharides): जैसे सेल्यूलोज़ (Cellulose), काइटिन (Chitin)।
-
-
🔹 निष्कर्ष
-
मोनोसैकैराइड → सबसे सरल इकाई
-
डाइसैकैराइड और ओलिगोसैकैराइड → मध्यम श्रेणी
-
पॉलिसैकैराइड → बड़े जटिल अणु
👉 इस प्रकार कार्बोहाइड्रेट का वर्गीकरण हमें न केवल इनकी संरचना को समझने में मदद करता है, बल्कि इनके जैविक कार्यों जैसे ऊर्जा प्रदान करना, संरचना बनाना और कोशिकीय क्रियाओं को नियंत्रित करना भी स्पष्ट करता है।
: (iii) लुईस की अम्ल और क्षार का अवधारणा
🔹 परिचय
रासायनिक अभिक्रियाओं में अम्ल (Acid) और क्षार (Base) की परिभाषा समय के साथ बदलती रही है। सबसे पहले अरहेनियस (Arrhenius) ने, फिर ब्रॉन्स्टेड-लॉरी (Bronsted-Lowry) ने और अंततः लुईस (G.N. Lewis, 1923) ने इनकी एक व्यापक परिभाषा दी। लुईस की परिभाषा सबसे सामान्य और सर्वाधिक प्रयुक्त मानी जाती है क्योंकि यह केवल प्रोटॉन हस्तांतरण तक सीमित नहीं है, बल्कि इलेक्ट्रॉनों की जोड़ी पर आधारित है।
⚛️ लुईस की परिभाषा
-
लुईस अम्ल (Lewis Acid):
ऐसा पदार्थ जो इलेक्ट्रॉनों की जोड़ी को स्वीकार (Accept) कर सके, उसे लुईस अम्ल कहते हैं।
👉 सरल शब्दों में, यह इलेक्ट्रॉन युग्म ग्राहिता (Electron Pair Acceptor) होता है। -
लुईस क्षार (Lewis Base):
ऐसा पदार्थ जो इलेक्ट्रॉनों की जोड़ी को प्रदान (Donate) कर सके, उसे लुईस क्षार कहते हैं।
👉 सरल शब्दों में, यह इलेक्ट्रॉन युग्म दाता (Electron Pair Donor) होता है।
🧪 उदाहरण
-
लुईस अम्ल:
-
AlCl3 (क्योंकि यह अधूरा ऑक्टेट रखता है और इलेक्ट्रॉन जोड़ी स्वीकार सकता है)
-
BF3
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H+ आयन
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धातु आयन जैसे Fe3+,Cu2+
-
-
लुईस क्षार:
-
NH3 (नाइट्रोजन पर lone pair होने के कारण)
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OH−
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H2O
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Cl−
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🔄 लुईस अम्ल-क्षार अभिक्रिया
जब कोई लुईस अम्ल और लुईस क्षार परस्पर प्रतिक्रिया करते हैं, तो एक सहसंयोजक समन्वयी बंध (Coordinate Covalent Bond) बनता है।
📌 उदाहरण:
BF3+NH3→F3B→NH3यहाँ BF3 लुईस अम्ल है और NH3 लुईस क्षार है।
📌 लुईस अवधारणा की विशेषताएँ
-
यह परिभाषा बहुत सामान्य है और केवल जलीय विलयन तक सीमित नहीं।
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अम्ल-क्षार की परिभाषा को इलेक्ट्रॉनों के हस्तांतरण से जोड़ा गया।
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समन्वयी यौगिकों (Coordination Compounds) की व्याख्या इस अवधारणा से सरल हो जाती है।
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यह उन अभिक्रियाओं को भी समझा देती है जिन्हें अरहेनियस या ब्रॉन्स्टेड-लॉरी सिद्धांत से नहीं समझाया जा सकता।
🔹 निष्कर्ष
लुईस की अवधारणा ने अम्ल और क्षार की परिभाषा को व्यापक रूप से समझाया।
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लुईस अम्ल = इलेक्ट्रॉन युग्म ग्राहिता
-
लुईस क्षार = इलेक्ट्रॉन युग्म दाता
👉 इस सिद्धांत की खूबी यह है कि यह न केवल अम्ल-क्षार अभिक्रियाओं को बल्कि समन्वयी रसायन (Coordination Chemistry) को भी स्पष्ट रूप से समझाता है।
: (iv) टिंडल प्रभाव
🔹 परिचय
टिंडल प्रभाव (Tyndall Effect) कोलॉइडल रसायन का एक महत्वपूर्ण गुण है। इसे 1869 में वैज्ञानिक जॉन टिंडल (John Tyndall) ने खोजा था। जब किसी कोलॉइडल विलयन में से होकर प्रकाश की किरण गुज़रती है तो वह बिखर जाती है और उसका मार्ग दिखाई देने लगता है। इसी प्रकाश के प्रकीर्णन (Scattering) को टिंडल प्रभाव कहते हैं।
🌟 टिंडल प्रभाव की परिभाषा
👉 “जब किसी कोलॉइडल विलयन पर प्रकाश डाला जाता है तो कोलॉइड कणों द्वारा प्रकाश का प्रकीर्णन होने से प्रकाश का पथ (Path) दिखाई देने लगता है, इसे टिंडल प्रभाव कहते हैं।”
📌 यह प्रभाव केवल कोलॉइडल विलयन में देखा जाता है, न कि वास्तविक विलयन (True Solution) में।
🔬 कारण (Cause of Tyndall Effect)
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कोलॉइड कणों का आकार 10⁻⁶ से 10⁻⁹ मीटर के बीच होता है।
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ये कण प्रकाश की किरणों को अपने से टकराकर विभिन्न दिशाओं में बिखेर देते हैं।
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इस बिखराव के कारण प्रकाश का मार्ग (Beam) स्पष्ट दिखाई देता है।
🧪 उदाहरण
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धूल भरे कमरे में धूप की किरणें – जब खिड़की से कमरे में धूप आती है, तो उसमें धूलकणों द्वारा प्रकाश का बिखराव होता है और रास्ता दिखाई देता है।
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सिनेमाघर का प्रोजेक्टर – फिल्म प्रोजेक्टर की रोशनी धुएँ और धूल के कणों से टकराकर मार्ग दिखाती है।
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जंगल में धूप की किरणें – पेड़ों की दरारों से आती किरणें कोहरे में स्पष्ट पथ बनाती हैं।
📌 टिंडल प्रभाव की विशेषताएँ
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यह केवल कोलॉइडल विलयन में होता है, सच्चे विलयन में नहीं।
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प्रकाश का पथ तभी दिखाई देगा जब प्रकीर्णित प्रकाश और प्रकीर्णन सतह का कोण प्रेक्षक की आँखों के लिए सही हो।
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यह प्रभाव कोलॉइड की उपस्थिति का प्रमाण है।
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टिंडल प्रभाव की तीव्रता (Intensity) कणों के आकार और उनके अपवर्तनांक पर निर्भर करती है।
🔍 अनुप्रयोग (Applications of Tyndall Effect)
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कोलॉइड की पहचान – टिंडल प्रभाव द्वारा हम पता लगा सकते हैं कि कोई विलयन कोलॉइडल है या सच्चा।
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जैविक नमूनों का अध्ययन – सूक्ष्मदर्शी (Ultramicroscope) में टिंडल प्रभाव का उपयोग कोलॉइड कणों को देखने के लिए किया जाता है।
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पर्यावरण विज्ञान – वायुमंडल में धूल और धुएँ के कणों की उपस्थिति का अध्ययन।
🔹 निष्कर्ष
टिंडल प्रभाव, कोलॉइडल विलयनों का एक विशेष लक्षण है जिसमें प्रकाश का प्रकीर्णन होता है और उसका मार्ग स्पष्ट दिखाई देता है।
👉 यह प्रभाव न केवल विज्ञान की दृष्टि से उपयोगी है बल्कि हमारे दैनिक जीवन में भी कई जगह आसानी से देखा जा सकता है।
: (v) हुंड का अधिकतम बहुलता का नियम
🔹 परिचय
परमाणु की इलेक्ट्रॉनिक संरचना (Electronic Configuration) को समझने के लिए विभिन्न नियमों का प्रयोग किया जाता है। इन्हीं में से एक है हुंड का अधिकतम बहुलता का नियम (Hund’s Rule of Maximum Multiplicity)। इस नियम को जर्मन भौतिक विज्ञानी फ्रेडरिक हुंड (Friedrich Hund, 1927) ने प्रतिपादित किया था।
📖 हुंड का नियम (Statement)
👉 “किसी उपकक्षा (Subshell) के समान ऊर्जा स्तर वाले कक्षों (Degenerate Orbitals) में इलेक्ट्रॉनों का भराव पहले एक-एक करके होता है और सभी इलेक्ट्रॉनों का स्पिन समान दिशा (Parallel Spin) में रहता है। जब प्रत्येक कक्ष में एक-एक इलेक्ट्रॉन भर जाता है, तब ही युग्मन (Pairing) शुरू होता है।”
⚛️ नियम को समझाने के बिंदु
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समान ऊर्जा वाले कक्ष (Degenerate Orbitals):
जैसे – p, d और f उपकक्षा के सभी कक्ष समान ऊर्जा वाले होते हैं।
उदाहरण: p उपकक्षा में 3 कक्ष होते हैं (px, py, pz)। -
पहले एक-एक इलेक्ट्रॉन का भराव:
सभी कक्षों में इलेक्ट्रॉन पहले अकेले भरे जाते हैं। -
समानांतर स्पिन (Parallel Spin):
एक-एक इलेक्ट्रॉन भरते समय सभी का स्पिन समान दिशा में होता है, जिससे इलेक्ट्रॉनों के बीच प्रतिकर्षण (Repulsion) कम हो जाता है। -
युग्मन (Pairing):
जब सभी कक्षों में एक-एक इलेक्ट्रॉन आ जाते हैं, तब ही अगला इलेक्ट्रॉन युग्म बनाता है।
🧪 उदाहरण
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नाइट्रोजन (N, Z = 7):
इलेक्ट्रॉनिक संरचना = 1s² 2s² 2p³-
2p उपकक्षा में तीन कक्ष होते हैं।
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इसमें तीनों इलेक्ट्रॉन अलग-अलग कक्षों में समान स्पिन के साथ भरते हैं।
इस प्रकार 2p³ = ↑ ↑ ↑
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-
ऑक्सीजन (O, Z = 8):
इलेक्ट्रॉनिक संरचना = 1s² 2s² 2p⁴-
पहले तीन इलेक्ट्रॉन तीनों कक्षों में समान स्पिन के साथ भरते हैं।
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चौथा इलेक्ट्रॉन पहले वाले कक्ष में विपरीत स्पिन के साथ युग्मित होता है।
इस प्रकार 2p⁴ = ↑↓ ↑ ↑
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🔍 महत्व (Importance of Hund’s Rule)
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यह नियम परमाणुओं की वास्तविक इलेक्ट्रॉनिक संरचना को समझने में मदद करता है।
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इस नियम से परमाणु की चुंबकीय प्रकृति (Magnetic Properties) की व्याख्या की जाती है।
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अकेले (Unpaired) इलेक्ट्रॉन होने पर परमाणु पैरामैग्नेटिक होता है।
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सभी इलेक्ट्रॉन युग्मित होने पर परमाणु डायामैग्नेटिक होता है।
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-
यह नियम परमाणु की स्थिरता (Stability) को भी समझाता है।
📌 निष्कर्ष
हुंड का अधिकतम बहुलता का नियम बताता है कि इलेक्ट्रॉनों का भराव हमेशा इस प्रकार होता है कि अवयव कक्षों में अधिकतम संख्या में अकेले (Unpaired) इलेक्ट्रॉन हों और उनका स्पिन समान हो।
👉 इस नियम से हमें परमाणु के स्पिन, चुंबकत्व और स्थिरता की सही जानकारी मिलती है।
प्रश्न 04 टिप्पणियाँ लिखिए : (i) गहन और व्यापक गुण
🔹 परिचय
पदार्थ के भौतिक गुणों को सामान्यतः दो भागों में बाँटा जाता है – गहन गुण (Intensive Properties) और व्यापक गुण (Extensive Properties)। इनका वर्गीकरण इस आधार पर किया जाता है कि कोई गुण पदार्थ की मात्रा पर निर्भर करता है या नहीं।
📌 गहन गुण (Intensive Properties)
👉 वे गुण जो पदार्थ की मात्रा (Quantity of Matter) पर निर्भर नहीं होते, उन्हें गहन गुण कहा जाता है।
यानी किसी पदार्थ का जितना भी भाग ले लिया जाए, उसका मान समान ही रहेगा।
🧾 उदाहरण
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घनत्व (Density)
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अपवर्तकांक (Refractive Index)
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क्वथनांक (Boiling Point)
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गलनांक (Melting Point)
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तापमान (Temperature)
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दाब (Pressure)
👉 उदाहरण के लिए पानी का क्वथनांक हमेशा 100°C (मानक दाब पर) रहेगा, चाहे पानी 1 लीटर हो या 1 मिलीलीटर।
📌 व्यापक गुण (Extensive Properties)
👉 वे गुण जो पदार्थ की मात्रा पर निर्भर करते हैं, उन्हें व्यापक गुण कहा जाता है।
यानी पदार्थ की मात्रा बदलने से इन गुणों का मान भी बदल जाएगा।
🧾 उदाहरण
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द्रव्यमान (Mass)
-
आयतन (Volume)
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लंबाई (Length)
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आंतरिक ऊर्जा (Internal Energy)
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ऊष्मा धारिता (Heat Capacity)
👉 उदाहरण के लिए यदि पानी 1 लीटर है तो उसका आयतन अधिक होगा, और यदि केवल 100 mL लिया जाए तो आयतन कम हो जाएगा।
🔍 गहन और व्यापक गुण में अंतर
क्रमांक | गहन गुण (Intensive) | व्यापक गुण (Extensive) |
---|---|---|
1. | मात्रा पर निर्भर नहीं करते | मात्रा पर निर्भर करते हैं |
2. | मान स्थिर रहता है | मान बदलता है |
3. | जैसे तापमान, घनत्व | जैसे द्रव्यमान, आयतन |
4. | पदार्थ की प्रकृति दर्शाते हैं | पदार्थ की कुल मात्रा दर्शाते हैं |
⚛️ महत्व
-
गहन गुणों का प्रयोग पदार्थों की पहचान (Identification) करने में किया जाता है।
-
व्यापक गुणों का उपयोग पदार्थ की मात्रा और ऊर्जा संबंधी गणनाओं में किया जाता है।
-
थर्मोडायनेमिक्स में गहन और व्यापक गुणों के भेद से अवस्थाओं (States) का विश्लेषण सरल हो जाता है।
🔹 निष्कर्ष
गहन और व्यापक गुणों का वर्गीकरण पदार्थ के गुणों को समझने में बहुत सहायक है।
-
गहन गुण = मात्रा पर निर्भर नहीं
-
व्यापक गुण = मात्रा पर निर्भर
👉 दोनों का ज्ञान हमें भौतिक रसायन के गहरे सिद्धांतों को समझने और प्रयोगात्मक कार्यों को सही रूप में करने में मदद करता है।
: (ii) बंधन पृथक्करण ऊर्जा
🔹 परिचय
रसायन विज्ञान में बंधों की शक्ति को मापना आवश्यक होता है। किसी रासायनिक बंध की मजबूती इस बात पर निर्भर करती है कि उसे तोड़ने में कितनी ऊर्जा की आवश्यकता है। इसी ऊर्जा को बंध पृथक्करण ऊर्जा (Bond Dissociation Energy) कहा जाता है।
📖 परिभाषा
👉 “किसी गैसीय अणु (Gaseous Molecule) में उपस्थित एक विशिष्ट बंध को तोड़कर उसे दो पृथक गैसीय परमाणुओं में बदलने के लिए जितनी ऊर्जा की आवश्यकता होती है, उसे बंध पृथक्करण ऊर्जा कहते हैं।”
📌 इसे प्रायः किलो जूल प्रति मोल (kJ/mol) या कैलोरी प्रति मोल में व्यक्त किया जाता है।
⚛️ उदाहरण
-
हाइड्रोजन अणु (H₂):
H–H → 2H
इस बंध को तोड़ने में 435 kJ/mol ऊर्जा लगती है।
इसलिए H–H बंध की बंध पृथक्करण ऊर्जा = 435 kJ/mol। -
क्लोरीन अणु (Cl₂):
Cl–Cl → 2Cl
इसमें लगभग 243 kJ/mol ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
🔍 विशेषताएँ
-
बंध पृथक्करण ऊर्जा हमेशा धनात्मक (Positive) होती है क्योंकि बंध तोड़ने के लिए ऊर्जा देनी पड़ती है।
-
यह किसी बंध की मजबूती (Strength) का माप है।
-
एक ही प्रकार के बंध की ऊर्जा विभिन्न अणुओं में भिन्न हो सकती है।
उदाहरण: C–H बंध की ऊर्जा मिथेन, एथेन और बेंजीन में अलग-अलग होती है। -
औसत मान को अक्सर औसत बंध ऊर्जा (Average Bond Energy) कहा जाता है।
🧪 महत्व (Importance of Bond Dissociation Energy)
-
स्थिरता (Stability):
अधिक बंध पृथक्करण ऊर्जा का अर्थ है कि अणु अधिक स्थिर है। -
रासायनिक अभिक्रियाएँ:
किसी अभिक्रिया में बंधों के टूटने और बनने की ऊर्जा का अंतर ज्ञात कर अभिक्रिया की ऊष्मा (Enthalpy Change) निकाली जा सकती है। -
ऊष्मागतिकी (Thermodynamics):
यह ऊर्जा मान हमें यह बताने में मदद करता है कि कोई अभिक्रिया ऊष्माक्षेपी (Exothermic) होगी या ऊष्माशोषी (Endothermic)। -
गति विज्ञान (Kinetics):
कम बंध ऊर्जा वाले अणु जल्दी टूटते हैं और उनकी अभिक्रिया दर अधिक होती है।
📌 निष्कर्ष
बंध पृथक्करण ऊर्जा किसी बंध की मजबूती को परिभाषित करती है और यह रासायनिक अभिक्रियाओं की ऊष्मा, स्थिरता तथा गति को समझने का आधार है।
👉 सरल शब्दों में कहें तो – जितनी अधिक बंध पृथक्करण ऊर्जा, उतना मजबूत बंध और उतना ही स्थिर अणु।
: (iii) अल्कोहल का वर्गीकरण
🔹 परिचय
अल्कोहल (Alcohols) ऐसे कार्बनिक यौगिक हैं जिनमें हाइड्रॉक्सिल समूह (–OH) सीधे किसी संतृप्त कार्बन परमाणु से जुड़ा होता है। इनका सामान्य सूत्र R–OH होता है, जहाँ R कोई अल्किल समूह है।
👉 अल्कोहल का महत्व औद्योगिक रसायन, औषधि, ईंधन तथा दैनिक जीवन की अनेक वस्तुओं में पाया जाता है।
📌 अल्कोहल का वर्गीकरण
अल्कोहल को विभिन्न आधारों पर वर्गीकृत किया जाता है। मुख्य वर्गीकरण निम्न प्रकार है:
🧪 1. कार्बन परमाणु की प्रकृति के आधार पर
(a) प्राथमिक अल्कोहल (Primary Alcohol, 1°)
👉 इसमें –OH समूह उस कार्बन से जुड़ा होता है जो केवल एक अल्किल समूह से जुड़ा हो।
-
उदाहरण: एथेनॉल (CH₃–CH₂OH)
(b) द्वितीयक अल्कोहल (Secondary Alcohol, 2°)
👉 इसमें –OH समूह उस कार्बन से जुड़ा होता है जो दो अल्किल समूहों से जुड़ा हो।
-
उदाहरण: आइसोप्रोपानॉल (CH₃–CHOH–CH₃)
(c) तृतीयक अल्कोहल (Tertiary Alcohol, 3°)
👉 इसमें –OH समूह उस कार्बन से जुड़ा होता है जो तीन अल्किल समूहों से जुड़ा हो।
-
उदाहरण: टर्ट-ब्यूटानॉल ((CH₃)₃COH)
⚛️ 2. हाइड्रॉक्सिल समूहों की संख्या के आधार पर
(a) एकमूलक अल्कोहल (Monohydric Alcohol)
👉 इनमें केवल एक –OH समूह होता है।
-
उदाहरण: मेथेनॉल, एथेनॉल
(b) द्विमूलक अल्कोहल (Dihydric Alcohol)
👉 इनमें दो –OH समूह होते हैं।
-
उदाहरण: एथिलीन ग्लाइकॉल (HO–CH₂–CH₂–OH)
(c) त्रिमूलक अल्कोहल (Trihydric Alcohol)
👉 इनमें तीन –OH समूह होते हैं।
-
उदाहरण: ग्लिसरॉल (HO–CH₂–CHOH–CH₂–OH)
(d) बहुमूलक अल्कोहल (Polyhydric Alcohol)
👉 इनमें तीन से अधिक –OH समूह उपस्थित रहते हैं।
-
उदाहरण: सॉर्बिटॉल
🔬 3. कार्बन कंकाल (Structure of Carbon Chain) के आधार पर
(a) खुली शृंखला अल्कोहल (Open Chain Alcohols)
👉 इनमें कार्बन परमाणु सीधे-सीधे जुड़कर खुली शृंखला बनाते हैं।
-
उदाहरण: एथेनॉल, प्रोपानॉल
(b) चक्रीय अल्कोहल (Cyclic Alcohols)
👉 इनमें कार्बन परमाणु आपस में जुड़कर चक्रीय संरचना बनाते हैं और –OH समूह इनमें से किसी एक कार्बन से जुड़ा होता है।
-
उदाहरण: साइक्लोहेक्सानॉल
🔍 4. संतृप्ति और असंतृप्ति के आधार पर
-
संतृप्त अल्कोहल: केवल एकल बंध उपस्थित, जैसे एथेनॉल।
-
असंतृप्त अल्कोहल: कार्बन शृंखला में दोहरा/त्रिक बंध उपस्थित, जैसे एलील अल्कोहल (CH₂=CH–CH₂OH)।
📖 महत्व
-
प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक अल्कोहल का अंतर रासायनिक अभिक्रियाओं में विशेष रूप से उपयोगी है।
-
बहुमूलक अल्कोहल (जैसे ग्लिसरॉल) का प्रयोग सौंदर्य प्रसाधन, दवाइयों और खाद्य पदार्थों में किया जाता है।
-
औद्योगिक रूप से मेथेनॉल और एथेनॉल सबसे अधिक उपयोगी हैं।
🔹 निष्कर्ष
अल्कोहल का वर्गीकरण हमें उनकी संरचना, अभिक्रियाशीलता और उपयोगिता को समझने में मदद करता है।
👉 इस प्रकार, अल्कोहल को प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक; एकमूलक, द्विमूलक, त्रिमूलक तथा चक्रीय/अचक्रीय रूपों में विभाजित किया जा सकता है।
(iv) कार्बोक्जिलिक एसिड की संरचना और वर्गीकरण
🔹 परिचय
कार्बोक्जिलिक अम्ल (Carboxylic Acids) कार्बनिक यौगिकों का एक महत्वपूर्ण वर्ग है, जिनमें –COOH समूह पाया जाता है।
👉 सामान्य सूत्र: R–COOH
यहाँ R कोई हाइड्रोजन या अल्किल/एरिल समूह हो सकता है।
कार्बोक्जिलिक अम्ल प्राकृतिक और कृत्रिम दोनों रूपों में पाए जाते हैं, जैसे सिरके में उपस्थित एसिटिक अम्ल।
⚛️ कार्बोक्जिलिक अम्ल की संरचना
-
कार्बोक्जिलिक अम्ल में कार्बोक्जिल समूह (–COOH) दो भागों से मिलकर बना होता है:
-
कार्बोनिल समूह (C=O)
-
हाइड्रॉक्सिल समूह (–OH)
-
-
इस समूह में कार्बन परमाणु sp² hybridized होता है।
-
यह समूह ध्रुवीय (Polar) होने के कारण अम्लीय गुण दर्शाता है।
-
हाइड्रोजन आयन (H⁺) आसानी से निकल जाता है, जिससे ये अम्लीय प्रकृति प्रदर्शित करते हैं।
📌 कार्बोक्जिलिक अम्ल का वर्गीकरण
🧪 1. कार्बन परमाणु की संख्या के आधार पर
-
एककार्बनी अम्ल (Monocarboxylic Acid): जिनमें केवल एक –COOH समूह होता है।
👉 उदाहरण: फॉर्मिक अम्ल (HCOOH), एसिटिक अम्ल (CH₃COOH) -
बहुकार्बनी अम्ल (Polycarboxylic Acid): जिनमें एक से अधिक –COOH समूह होते हैं।
👉 उदाहरण: ऑक्जैलिक अम्ल (HOOC–COOH), टार्टरिक अम्ल
🧪 2. कार्बन शृंखला के आधार पर
-
संतृप्त कार्बोक्जिलिक अम्ल: जिनमें केवल एकल बंध हों।
👉 उदाहरण: एसिटिक अम्ल (CH₃COOH) -
असंतृप्त कार्बोक्जिलिक अम्ल: जिनमें दोहरा/त्रिक बंध हो।
👉 उदाहरण: एलीडिक अम्ल (CH₂=CH–COOH) -
सुगंधी कार्बोक्जिलिक अम्ल (Aromatic Carboxylic Acid): जिनमें –COOH समूह एरिल रिंग से जुड़ा हो।
👉 उदाहरण: बेंजोइक अम्ल (C₆H₅COOH)
🧪 3. –COOH समूहों की स्थिति के आधार पर
-
ऐलिफैटिक अम्ल: खुले शृंखला वाले।
👉 उदाहरण: प्रोपेनोइक अम्ल -
ऐलिसाइक्लिक अम्ल: चक्रीय कार्बन शृंखला में उपस्थित।
👉 उदाहरण: साइक्लोहेक्सेनकार्बोक्जिलिक अम्ल -
एरोमैटिक अम्ल: सुगंधी चक्र से जुड़े।
👉 उदाहरण: फ्थैलिक अम्ल
🔬 प्रमुख उदाहरण
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फॉर्मिक अम्ल (HCOOH) – सबसे सरल कार्बोक्जिलिक अम्ल।
-
एसिटिक अम्ल (CH₃COOH) – सिरके में पाया जाता है।
-
ऑक्जैलिक अम्ल (HOOC–COOH) – पालक में पाया जाता है।
-
बेंजोइक अम्ल (C₆H₅COOH) – खाद्य संरक्षक (Food Preservative) के रूप में प्रयुक्त।
🔍 महत्व और उपयोग
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खाद्य उद्योग में संरक्षक (जैसे बेंजोइक अम्ल)।
-
औद्योगिक रसायन निर्माण (एसिटिक अम्ल से एस्टर, पॉलिमर आदि बनते हैं)।
-
औषधियों में उपयोग (सैलिसिलिक अम्ल से एस्पिरिन बनता है)।
-
प्राकृतिक चयापचय (Metabolism) की कई प्रक्रियाओं में भागीदारी।
🔹 निष्कर्ष
कार्बोक्जिलिक अम्लों की संरचना में उपस्थित –COOH समूह इन्हें अम्लीय गुण प्रदान करता है। इनका वर्गीकरण कार्बन की संख्या, शृंखला की प्रकृति तथा समूह की स्थिति के आधार पर किया जाता है।
👉 ये अम्ल जीवन, उद्योग और औषधि निर्माण में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
: (v) फिशर और फ्लाइंग वेज फॉर्मूला
🔹 परिचय
कार्बनिक रसायन में अणुओं की त्रिविमीय (3D) संरचना को दर्शाना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि यौगिकों का भौतिक और रासायनिक व्यवहार उनकी संरचना पर निर्भर करता है।
👉 इसी कारण रसायनज्ञों ने फिशर प्रक्षेप (Fischer Projection Formula) और फ्लाइंग वेज फॉर्मूला (Flying Wedge Formula) का विकास किया।
✨ 1. फिशर प्रक्षेप सूत्र (Fischer Projection Formula)
-
यह तरीका कार्बनिक यौगिकों की त्रिविमीय संरचना को द्विविमीय (2D) रूप में दिखाने के लिए प्रयोग होता है।
-
विशेषकर यह कार्बोहाइड्रेट और अमीनो अम्ल जैसे यौगिकों के लिए उपयोगी है।
🧪 विशेषताएँ
-
इसमें कार्बन परमाणुओं की शृंखला को ऊर्ध्वाधर रेखा (Vertical Line) द्वारा दर्शाया जाता है।
-
ऊर्ध्वाधर रेखा पर सबसे ऊपर वाला परमाणु सबसे अधिक ऑक्सीकरण अवस्था (Most Oxidized Group) को दर्शाता है।
-
क्षैतिज रेखाएँ (Horizontal Lines) उन समूहों को दिखाती हैं जो कागज के तल से बाहर की ओर निकले हों।
-
ऊर्ध्वाधर रेखाएँ तल के अंदर की ओर स्थित समूहों को दर्शाती हैं।
📌 उदाहरण
ग्लूकोज़ का फिशर प्रक्षेप सूत्र सामान्यतः इसी विधि से प्रदर्शित किया जाता है।
✨ 2. फ्लाइंग वेज फॉर्मूला (Flying Wedge Formula)
-
यह तरीका किसी अणु की त्रिविमीय संरचना को 3D रूप में दर्शाता है।
-
इसे वेज-डैश (Wedge–Dash) नोटेशन भी कहा जाता है।
🧪 विशेषताएँ
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ठोस वेज (Solid Wedge, ▲): समूह या बंध कागज के तल से बाहर (Observer की ओर) निकला हुआ दिखाता है।
-
टूटी हुई वेज / डैश (Dashed Wedge, ▽): समूह या बंध कागज के तल से अंदर (Observer से दूर) की ओर जाता है।
-
साधारण रेखा (Normal Line): समूह या बंध कागज के तल में ही स्थित होता है।
📌 उदाहरण
मीथेन (CH₄) या किसी असममित कार्बन यौगिक की संरचना को फ्लाइंग वेज फॉर्मूला से बहुत अच्छे से दर्शाया जा सकता है।
🔍 तुलना (Fischer vs Flying Wedge)
विशेषता | फिशर प्रक्षेप | फ्लाइंग वेज फॉर्मूला |
---|---|---|
स्वरूप | द्विविमीय (2D) | त्रिविमीय (3D) |
उपयोग | कार्बोहाइड्रेट, अमीनो अम्ल | सामान्य कार्बनिक यौगिक |
रेखाएँ | ऊर्ध्वाधर = पीछे, क्षैतिज = बाहर | वेज = बाहर, डैश = अंदर |
लाभ | संरचना का सरल रूप | वास्तविक 3D संरचना की स्पष्टता |
🔹 निष्कर्ष
👉 फिशर प्रक्षेप सूत्र मुख्य रूप से जटिल कार्बनिक अणुओं (जैसे कार्बोहाइड्रेट) को सरल तरीके से प्रदर्शित करने के लिए प्रयुक्त होता है, जबकि
👉 फ्लाइंग वेज फॉर्मूला अणुओं की वास्तविक त्रिविमीय आकृति (3D geometry) को अधिक सटीकता से दिखाता है।
दोनों ही विधियाँ स्टिरियोकेमिस्ट्री को समझने में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
प्रश्न 05 वैलेंस शेल इलेक्ट्रॉन जोड़ी प्रतिकर्षण (VSEPR) सिद्धान्त पर संक्षेप में चर्चा करे। इस सिद्धांत के आधार पर CH₄, NH₃ और H₂O अणुओं की आकृतियाँ समझाइए।
🔹 परिचय
रसायन विज्ञान में किसी अणु की आकृति (Molecular Geometry) यह निर्धारित करती है कि उस अणु के भौतिक गुण (Physical Properties) और रासायनिक गुण (Chemical Properties) कैसे होंगे।
👉 किसी अणु की आकृति जानने के लिए सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है – VSEPR सिद्धांत (Valence Shell Electron Pair Repulsion Theory)।
📖 VSEPR सिद्धांत – परिभाषा
👉 “किसी अणु में केंद्रीय परमाणु के चारों ओर उपस्थित इलेक्ट्रॉन युग्म (Bond Pairs और Lone Pairs) आपस में प्रतिकर्षण करते हैं और वे अधिकतम दूरी पर व्यवस्थित होकर अणु की आकृति निर्धारित करते हैं।”
⚛️ VSEPR सिद्धांत के मुख्य बिंदु
-
सभी इलेक्ट्रॉन युग्म (Electron Pairs) – चाहे वे सहसंयोजक बंध (Bond Pairs) हों या अकेले युग्म (Lone Pairs) – आपस में प्रतिकर्षण करते हैं।
-
प्रतिकर्षण का क्रम:
Lone Pair – Lone Pair > Lone Pair – Bond Pair > Bond Pair – Bond Pair -
अणु की आकृति इस बात पर निर्भर करती है कि केंद्रीय परमाणु के चारों ओर कितने बंध और अकेले युग्म हैं।
-
अणु की स्थायी आकृति वह होगी जिसमें प्रतिकर्षण न्यूनतम हो।
🧪 CH₄ (मीथेन) की आकृति
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केंद्रीय परमाणु: कार्बन (C)
-
इलेक्ट्रॉन युग्म: 4 बंध युग्म (C–H) और कोई अकेला युग्म नहीं।
-
इलेक्ट्रॉन युग्म आपस में समान प्रतिकर्षण करते हैं और अधिकतम दूरी पर व्यवस्थित हो जाते हैं।
-
परिणामस्वरूप आकृति: टेट्राहेड्रल (Tetrahedral)
-
बंधन कोण (Bond Angle): 109.5°
👉 CH₄ अणु की आकृति एकदम संतुलित टेट्राहेड्रल होती है।
🧪 NH₃ (अमोनिया) की आकृति
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केंद्रीय परमाणु: नाइट्रोजन (N)
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इलेक्ट्रॉन युग्म: 3 बंध युग्म (N–H) और 1 अकेला युग्म (Lone Pair)।
-
अकेला युग्म अधिक प्रतिकर्षण करता है, जिसके कारण बंध युग्म पास आ जाते हैं।
-
परिणामस्वरूप आकृति: त्रिकोणीय पिरामिडल (Trigonal Pyramidal)
-
बंधन कोण: लगभग 107° (109.5° से कम)।
👉 इसलिए NH₃ अणु थोड़ा झुका हुआ पिरामिड जैसा होता है।
🧪 H₂O (जल) की आकृति
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केंद्रीय परमाणु: ऑक्सीजन (O)
-
इलेक्ट्रॉन युग्म: 2 बंध युग्म (O–H) और 2 अकेले युग्म।
-
दोनों अकेले युग्म अधिक प्रतिकर्षण करते हैं और बंध युग्मों को और भी पास कर देते हैं।
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परिणामस्वरूप आकृति: वक्र या V-आकृति (Bent / Angular Shape)
-
बंधन कोण: लगभग 104.5°
👉 इस कारण जल अणु V-आकार या कोणीय रूप में दिखाई देता है।
🔍 सारणीबद्ध रूप
अणु | इलेक्ट्रॉन युग्म | अकेले युग्म | आकृति | बंध कोण |
---|---|---|---|---|
CH₄ | 4 बंध युग्म | 0 | टेट्राहेड्रल | 109.5° |
NH₃ | 3 बंध युग्म | 1 | त्रिकोणीय पिरामिडल | ~107° |
H₂O | 2 बंध युग्म | 2 | वक्र (Bent) | ~104.5° |
🔹 निष्कर्ष
👉 VSEPR सिद्धांत हमें यह समझने में मदद करता है कि अणुओं की आकृति केंद्रीय परमाणु के चारों ओर उपस्थित इलेक्ट्रॉन युग्मों के प्रतिकर्षण से निर्धारित होती है।
👉 CH₄ में टेट्राहेड्रल, NH₃ में पिरामिडल और H₂O में वक्राकार आकृति इसी सिद्धांत का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
प्रश्न 01 टिप्पणियाँ लिखिए : (1) अभिक्रिया मध्यवर्ती
🔹 परिचय
किसी भी रासायनिक अभिक्रिया में अभिकारक (Reactants) धीरे-धीरे परिवर्तन करके उत्पाद (Products) बनाते हैं।
👉 इस परिवर्तन की प्रक्रिया सीधी नहीं होती, बल्कि इसमें कई बीच की अस्थायी अवस्थाएँ बनती हैं। इन्हें ही कहा जाता है – अभिक्रिया मध्यवर्ती (Reaction Intermediates)।
📖 परिभाषा
👉 “अभिक्रिया मध्यवर्ती वे अस्थायी, अल्पकालिक (Short-Lived) और अत्यधिक सक्रिय (Highly Reactive) अणु, आयन या रेडिकल होते हैं, जो किसी रासायनिक अभिक्रिया की मध्यवर्ती अवस्था में बनते हैं और तुरंत ही अगले चरण में बदल जाते हैं।”
⚛️ अभिक्रिया मध्यवर्ती की विशेषताएँ
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यह स्थायी रूप से पृथक (Isolate) नहीं किए जा सकते।
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इनकी आयु बहुत कम (10⁻⁶ सेकंड से भी कम) होती है।
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ये अत्यधिक सक्रिय होते हैं और तुरंत अगली अवस्था में परिवर्तित हो जाते हैं।
-
इन्हें अक्सर केवल स्पेक्ट्रोस्कोपिक तकनीकों द्वारा पहचाना जा सकता है।
✨ अभिक्रिया मध्यवर्ती के प्रकार
1️⃣ कार्बोकैटायन (Carbocation, C⁺)
-
ये धनावेशित कार्बन परमाणु होते हैं।
-
उदाहरण: (CH₃)₃C⁺
-
ये इलेक्ट्रॉन-अल्प (Electron Deficient) होने के कारण अत्यधिक सक्रिय होते हैं।
2️⃣ कार्बएनायन (Carbanion, C⁻)
-
ये ऋणावेशित कार्बन परमाणु होते हैं।
-
उदाहरण: CH₃⁻
-
इनमें अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन के कारण उच्च प्रतिक्रियाशीलता होती है।
3️⃣ फ्री रेडिकल (Free Radical, •)
-
इनमें एक अजोड़ इलेक्ट्रॉन (Unpaired Electron) होता है।
-
उदाहरण: CH₃•
-
ये प्रायः प्रकाश या ऊष्मा द्वारा उत्पन्न होते हैं।
4️⃣ कार्बीन (Carbene, :CH₂)
-
यह द्विसंयोजक कार्बन यौगिक होता है, जिसमें केवल छह इलेक्ट्रॉन होते हैं।
-
यह अत्यधिक प्रतिक्रियाशील होता है और कई जैविक अभिक्रियाओं में भाग लेता है।
5️⃣ नाइट्रीन (Nitrene, :NH)
-
यह कार्बीन के समान होता है, लेकिन इसमें नाइट्रोजन परमाणु होता है।
🧪 उदाहरण
CH₃–CH₂–Cl + OH⁻ → CH₂=CH₂ + H₂O + Cl⁻
इस अभिक्रिया में पहले कार्बोकैटायन (CH₃–CH₂⁺) मध्यवर्ती के रूप में बनता है।
📌 महत्व
-
अभिक्रिया मध्यवर्ती रासायनिक अभिक्रियाओं के तंत्र (Mechanism) को समझने में सहायक होते हैं।
-
यह बताते हैं कि अभिक्रिया किस मार्ग से गुजरकर उत्पाद बनाती है।
-
इनकी जानकारी से नई दवाओं, पॉलिमर और रसायनों के संश्लेषण में मदद मिलती है।
🔹 निष्कर्ष
👉 अभिक्रिया मध्यवर्ती क्षणिक और अत्यधिक प्रतिक्रियाशील कण होते हैं, जो अभिकारकों से उत्पाद बनने की प्रक्रिया को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
👉 कार्बोकैटायन, कार्बएनायन, फ्री रेडिकल और कार्बीन इसके मुख्य उदाहरण हैं।
प्रश्न 01 टिप्पणियाँ लिखिए : (ii) स्वर्ण संख्या
🔹 परिचय
कोलॉइड रसायन (Colloid Chemistry) में किसी लाइओफोबिक विलयन (Lyophobic Sol) की स्थिरता को मापने के लिए एक विशेष मान का उपयोग किया जाता है जिसे कहा जाता है – स्वर्ण संख्या (Gold Number)।
👉 यह शब्द सबसे पहले रिचर्ड जिगमोंडी (Richard Zsigmondy) ने दिया था, जिन्हें कोलॉइड विज्ञान में उनके योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार भी मिला।
📖 परिभाषा
👉 “किसी लाइओफोबिक विलयन को जमने (Coagulation) से बचाने के लिए आवश्यक न्यूनतम मात्रा (मिलीग्राम में) रक्षात्मक कोलॉइड (Protective Colloid) की, जो 10 मिलीलीटर स्वर्ण विलयन में 1 मिलीलीटर 10% NaCl विलयन मिलाने पर जमने से रोक सके, उसे स्वर्ण संख्या कहते हैं।”
⚛️ सरल शब्दों में
-
यदि किसी कोलॉइड को जमने से बचाने के लिए बहुत कम मात्रा में रक्षात्मक कोलॉइड चाहिए → तो उस रक्षात्मक कोलॉइड की स्वर्ण संख्या कम होगी।
-
यदि अधिक मात्रा चाहिए → तो स्वर्ण संख्या अधिक होगी।
📌 यानी स्वर्ण संख्या का मान जितना कम, उतना ही अधिक प्रभावी कोलॉइड।
🧪 उदाहरण
-
जिलेटिन (Gelatin):
इसकी स्वर्ण संख्या लगभग 0.005–0.01 होती है → यानी यह अत्यधिक प्रभावी रक्षात्मक कोलॉइड है। -
अंडे का एलब्यूमिन (Egg Albumin):
इसकी स्वर्ण संख्या लगभग 0.08–0.1 होती है। -
गोंद (Gum Arabic):
इसकी स्वर्ण संख्या लगभग 0.15–0.20 होती है।
✨ महत्व
-
स्वर्ण संख्या का उपयोग विभिन्न कोलॉइड्स की तुलनात्मक क्षमता बताने में किया जाता है।
-
कम स्वर्ण संख्या वाला पदार्थ बेहतर प्रोटेक्टिव कोलॉइड होता है।
-
यह औषधि निर्माण, खाद्य पदार्थों के संरक्षण और उद्योगों में कोलॉइडल घोलों को स्थिर बनाए रखने में सहायक है।
🔹 निष्कर्ष
👉 स्वर्ण संख्या कोलॉइड की स्थिरता का मापदंड है।
👉 जिलेटिन जैसे पदार्थ जिनकी स्वर्ण संख्या बहुत कम होती है, वे सबसे प्रभावी रक्षात्मक कोलॉइड होते हैं।
👉 यही कारण है कि विज्ञान और उद्योग में स्वर्ण संख्या का बहुत महत्त्व है।
प्रश्न 01 टिप्पणियाँ लिखिए : (iii) एंट्रॉपी
🔹 परिचय
ऊष्मागतिकी (Thermodynamics) में जब भी हम ऊर्जा और कार्य का अध्ययन करते हैं, तो एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणा सामने आती है – एंट्रॉपी (Entropy)।
👉 यह किसी प्रणाली (System) की अव्यवस्था (Disorder) या अनियमितता (Randomness) का माप है।
📖 परिभाषा
👉 “एंट्रॉपी किसी प्रणाली में उपस्थित कणों की अव्यवस्था या ऊर्जा के असमान वितरण का परिमाण है।”
📌 इसे अक्सर S प्रतीक द्वारा दर्शाया जाता है।
⚛️ एंट्रॉपी का गणितीय निरूपण
एंट्रॉपी का परिवर्तन (∆S) इस प्रकार व्यक्त किया जाता है :
ΔS=Tqrevजहाँ –
-
qrev = प्रत्यावर्ती ऊष्मा (Reversible Heat)
-
T = तापमान (Temperature)
👉 इसका SI मात्रक जूल प्रति केल्विन प्रति मोल (J K⁻¹ mol⁻¹) होता है।
✨ एंट्रॉपी की विशेषताएँ
-
यह सिस्टम की अवस्था का गुणधर्म (State Function) है।
-
एंट्रॉपी का मान हमेशा बढ़ता है या स्थिर रहता है, कभी घटता नहीं।
-
ब्रह्मांड (Universe) की एंट्रॉपी का परिवर्तन हमेशा धनात्मक (Positive) होता है।
🌀 एंट्रॉपी और स्वस्फूर्तता (Spontaneity)
-
यदि किसी प्रक्रिया में एंट्रॉपी बढ़ती है, तो वह प्रक्रिया अधिक स्वस्फूर्त होती है।
-
उदाहरण:
-
बर्फ का पिघलना (Solid → Liquid) → एंट्रॉपी बढ़ती है।
-
द्रव का वाष्पीकरण (Liquid → Gas) → एंट्रॉपी और अधिक बढ़ती है।
-
🧪 उदाहरण
-
ठोस → द्रव → गैस
-
ठोस में कण व्यवस्थित रहते हैं → एंट्रॉपी कम।
-
द्रव में थोड़ी स्वतंत्रता → एंट्रॉपी बढ़ जाती है।
-
गैस में कण स्वतंत्र → एंट्रॉपी सबसे अधिक।
-
-
गैसों का मिश्रण
-
जब दो गैसें मिलती हैं, तो उनकी अव्यवस्था बढ़ जाती है → एंट्रॉपी बढ़ती है।
-
📌 ऊष्मागतिकी का दूसरा नियम और एंट्रॉपी
👉 “किसी भी स्वस्फूर्त प्रक्रिया में ब्रह्मांड की कुल एंट्रॉपी हमेशा बढ़ती है।”
ΔSuniverse=ΔSsystem+ΔSsurroundings>0🔹 निष्कर्ष
👉 एंट्रॉपी ऊष्मागतिकी का एक केंद्रीय सिद्धांत है जो किसी प्रणाली की अव्यवस्था को दर्शाती है।
👉 यह हमें यह समझने में मदद करती है कि कौन-सी प्रक्रिया स्वस्फूर्त (Spontaneous) होगी और कौन-सी नहीं।
👉 जैसे-जैसे पदार्थ ठोस से गैस अवस्था की ओर बढ़ता है, एंट्रॉपी भी निरंतर बढ़ती जाती है।
प्रश्न 01 टिप्पणियाँ लिखिए : (iv) डीएनए अणु की संरचना
🔹 परिचय
डीएनए (DNA – Deoxyribonucleic Acid) जीवविज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण अणु है, क्योंकि यह आनुवंशिक सूचना (Genetic Information) को संग्रहीत और स्थानांतरित करता है।
👉 इसे जीवन का “ब्लूप्रिंट” कहा जाता है।
👉 डीएनए की सही संरचना को सबसे पहले जेम्स वॉटसन (James Watson) और फ्रांसिस क्रिक (Francis Crick) ने 1953 में स्पष्ट किया था।
📖 डीएनए की परिभाषा
👉 “डीएनए एक लंबा, द्वि-श्रृंखला (Double-Stranded), कुंडलित (Helical) अणु है, जो न्यूक्लियोटाइड्स (Nucleotides) से बना होता है और यह जीवों की आनुवंशिक विशेषताओं को नियंत्रित करता है।”
🧩 डीएनए की मूल इकाई – न्यूक्लियोटाइड
डीएनए न्यूक्लियोटाइड्स की श्रृंखला से बना होता है। प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड तीन भागों से मिलकर बना है :
-
नाइट्रोजनस बेस (Nitrogenous Base)
-
प्यूरिन : एडेनिन (A), ग्वानिन (G)
-
पिरीमिडिन : साइटोसिन (C), थाइमिन (T)
-
-
शर्करा (Sugar) – डिऑक्सीराइबोज़ (Deoxyribose)
-
फॉस्फेट समूह (Phosphate Group)
🌀 डीएनए की द्वि-हेलिक्स संरचना (Double Helix Structure)
-
डीएनए दो लंबी श्रृंखलाओं से बना होता है, जो आपस में दाईं ओर घुमी हुई कुंडल (Right-Handed Helix) बनाते हैं।
-
दोनों श्रृंखलाएँ विपरीत दिशाओं (Antiparallel) में होती हैं।
-
नाइट्रोजनस बेस आपस में हाइड्रोजन बंधों द्वारा जुड़े रहते हैं।
🔗 बेस पेयरिंग का नियम (Base Pairing Rule)
👉 वॉटसन-क्रिक मॉडल के अनुसार :
-
एडेनिन (A) ↔ थाइमिन (T) (2 हाइड्रोजन बंधों से जुड़ते हैं)
-
ग्वानिन (G) ↔ साइटोसिन (C) (3 हाइड्रोजन बंधों से जुड़ते हैं)
📌 इसी को कहते हैं – Complementary Base Pairing।
✨ डीएनए की प्रमुख विशेषताएँ
-
डबल हेलिक्स संरचना।
-
एंटिपैरलल (5’ → 3’ और 3’ → 5’) श्रृंखलाएँ।
-
कुल व्यास लगभग 20 Å।
-
एक कुंडल में लगभग 10 बेस पेयर होते हैं।
-
प्रत्येक कुंडल की लंबाई लगभग 34 Å होती है।
🧪 डीएनए का कार्य
-
आनुवंशिक सूचना का भंडारण – यह सभी जीवों का आनुवंशिक कोड सुरक्षित रखता है।
-
प्रोटीन संश्लेषण में भागीदारी – डीएनए → mRNA → प्रोटीन।
-
कोशिकाओं का विभाजन और वंशानुगति – नई पीढ़ी में गुणों का स्थानांतरण।
📌 महत्व
-
डीएनए की संरचना को समझकर आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी (Biotechnology) और जेनेटिक इंजीनियरिंग का विकास हुआ।
-
फॉरेंसिक विज्ञान, DNA फिंगरप्रिंटिंग, रोगों की पहचान और उपचार में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।
🔹 निष्कर्ष
👉 डीएनए अणु की संरचना डबल हेलिक्स है, जो जीवन के आनुवंशिक रहस्यों को संभाले हुए है।
👉 इसकी विशिष्ट बेस पेयरिंग और एंटिपैरलल व्यवस्था इसे स्थिर और सूचना-संपन्न बनाती है।
👉 यही कारण है कि इसे जीवन का आधार (Molecule of Life) कहा जाता है।
प्रश्न 02 इलेक्ट्रॉन की दोहरी प्रकृति से आप क्या समझते हैं? डी ब्रोगली समीकरण व्युत्पन्न कीजिए।
🔹 परिचय
पारंपरिक भौतिकी (Classical Physics) के अनुसार, कण (Particles) और तरंग (Waves) दो अलग-अलग अवधारणाएँ मानी जाती थीं।
लेकिन क्वांटम युग में यह पाया गया कि सूक्ष्म स्तर (Microscopic Level) पर इलेक्ट्रॉन जैसे कणों में दोहरी प्रकृति (Dual Nature) पाई जाती है।
👉 कभी वे कण (Particle) की तरह व्यवहार करते हैं और कभी तरंग (Wave) की तरह।
⚛️ इलेक्ट्रॉन की दोहरी प्रकृति
-
कण स्वरूप (Particle Nature)
-
इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान (Mass) और आवेश (Charge) निश्चित होता है।
-
फोटोइलेक्ट्रिक प्रभाव (Photoelectric Effect) से सिद्ध – प्रकाश कण (फोटॉन) की तरह व्यवहार करता है।
-
-
तरंग स्वरूप (Wave Nature)
-
इलेक्ट्रॉन विवर्तन (Diffraction) और हस्तक्षेप (Interference) कर सकता है।
-
यह गुण केवल तरंगों में पाया जाता है।
-
📌 इस प्रकार इलेक्ट्रॉन में कण + तरंग, दोनों का स्वरूप पाया जाता है।
🧩 डी ब्रोगली का विचार
1924 में लुई डी ब्रोगली (Louis de Broglie) ने परिकल्पना दी :
👉 “प्रत्येक गतिमान कण (Moving Particle) तरंग गुणधर्म भी रखता है, और उससे संबंधित एक तरंगदैर्घ्य (Wavelength) जुड़ा होता है।”
इसे कहा जाता है – डी ब्रोगली परिकल्पना (De Broglie Hypothesis)।
📖 डी ब्रोगली समीकरण का व्युत्पन्न
-
प्लैंक का समीकरण (Planck’s Equation)
E=hνजहाँ –
E = ऊर्जा, h = प्लैंक नियतांक, ν = आवृत्ति -
आवृत्ति और तरंगदैर्घ्य का संबंध
ν=λc(प्रकाश के लिए c = वेग)
-
सापेक्षिक ऊर्जा समीकरण
E=mc2जहाँ m = द्रव्यमान, c = प्रकाश का वेग
-
इन समीकरणों से जोड़ने पर :
mc2=hν=λhc λ=mch -
सामान्य रूप से किसी कण के लिए, जिसका संवेग (Momentum) p=mv है :
λ=ph
✨ डी ब्रोगली समीकरण
👉 गतिमान कण का तरंगदैर्घ्य (Wavelength) :
λ=mvhजहाँ –
-
λ = डी ब्रोगली तरंगदैर्घ्य
-
h = प्लैंक नियतांक
-
m = कण का द्रव्यमान
-
v = कण की चाल (Velocity)
🧪 महत्व और अनुप्रयोग
-
इलेक्ट्रॉनों के विवर्तन प्रयोग (Davisson-Germer Experiment) से इसकी पुष्टि हुई।
-
आधुनिक इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप इसी सिद्धांत पर आधारित है।
-
क्वांटम यांत्रिकी (Quantum Mechanics) और परमाणु मॉडल को समझने में डी ब्रोगली समीकरण अत्यंत महत्वपूर्ण है।
🔹 निष्कर्ष
👉 इलेक्ट्रॉन की दोहरी प्रकृति से यह स्पष्ट होता है कि सूक्ष्म स्तर पर कण तरंगों की तरह व्यवहार कर सकते हैं।
👉 डी ब्रोगली समीकरण इस तथ्य को गणितीय रूप से व्यक्त करता है कि किसी कण का तरंगदैर्घ्य उसके संवेग के व्युत्क्रमानुपाती होता है।
👉 यह खोज आधुनिक भौतिकी और रसायन विज्ञान की नींव है।
प्रश्न 03 निम्नलिखित को समझाइए :
(1) विन्यास और संरचना के बीच अंतर
🔹 परिचय
कार्बनिक रसायन (Organic Chemistry) में किसी अणु के परमाणुओं की स्थानिक व्यवस्था (Spatial Arrangement) उसके रासायनिक और भौतिक गुणों को प्रभावित करती है।
👉 दो प्रमुख अवधारणाएँ हैं –
-
विन्यास (Configuration)
-
संरचना (Conformation)
इन दोनों का अर्थ और महत्त्व समझना stereochemistry की नींव है।
⚛️ विन्यास (Configuration) क्या है?
👉 विन्यास वह स्थायी स्थानिक व्यवस्था है जिसे केवल सहसंयोजक बंध (Covalent Bonds) तोड़कर ही बदला जा सकता है।
📌 सरल शब्दों में –
-
विन्यास परमाणुओं की स्थायी ज्यामिति है।
-
इसे बिना बंध तोड़े बदला नहीं जा सकता।
-
उदाहरण : ज्यामितीय समावयवता (Geometrical Isomerism) और प्रकाशीय समावयवता (Optical Isomerism)।
🧪 उदाहरण :
-
सिस-ट्रांस (Cis-Trans) समावयव
-
सिस-ब्यूट-2-ईन और ट्रांस-ब्यूट-2-ईन।
-
दोनों का विन्यास अलग है, लेकिन संरचना (C–C bond rotation) से नहीं बदले जा सकते।
-
-
एनैन्टीओमर (Enantiomers)
-
लैक्टिक अम्ल (Lactic Acid) के D और L रूप।
-
ये एक-दूसरे के प्रतिबिंब हैं और विन्यास से भिन्न होते हैं।
-
🔄 संरचना (Conformation) क्या है?
👉 संरचना वह स्थानिक व्यवस्था है जो एकल सहसंयोजक बंध (Single Covalent Bond) के चारों ओर घूर्णन (Rotation) द्वारा बदल सकती है।
📌 सरल शब्दों में –
-
संरचना अस्थायी होती है।
-
बिना बंध तोड़े बदल सकती है।
-
उदाहरण : इथेन (Ethane) में घूर्णन द्वारा “staggered” और “eclipsed” रूप।
🧪 उदाहरण :
-
इथेन (Ethane) की संरचनाएँ
-
Staggered संरचना → सबसे स्थिर।
-
Eclipsed संरचना → अस्थिर (torsional strain के कारण)।
-
-
साइक्लोहेक्सेन (Cyclohexane)
-
“Chair form” और “Boat form” → दोनों संरचना हैं।
-
📊 विन्यास और संरचना के बीच प्रमुख अंतर
पहलू | विन्यास (Configuration) | संरचना (Conformation) |
---|---|---|
परिभाषा | स्थायी स्थानिक व्यवस्था, केवल बंध तोड़ने से बदल सकती है | एकल बंध के घूर्णन से बदलने वाली अस्थायी व्यवस्था |
बंधन (Bond) | Covalent bonds तोड़ने पड़ते हैं | केवल bond rotation से परिवर्तन |
उदाहरण | सिस-ट्रांस समावयव, एनैन्टीओमर | इथेन की staggered और eclipsed संरचना |
स्थिरता | स्थायी और निश्चित | अस्थायी, निरंतर बदलती रहती है |
ऊर्जा | एक विन्यास की ऊर्जा अलग और स्थिर | विभिन्न संरचनाओं की ऊर्जा बदलती रहती है |
✨ निष्कर्ष (Configuration vs Conformation)
👉 विन्यास = स्थायी ज्यामिति (Geometrical / Optical isomerism)।
👉 संरचना = अस्थायी व्यवस्था (Bond rotation से उत्पन्न रूप)।
👉 दोनों अवधारणाएँ कार्बनिक यौगिकों की त्रिविमीय रचना (3D Structure) और गुणधर्म समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
(ii) D, L और R, S प्रणाली का नामकरण
🔹 परिचय
कार्बनिक अणुओं (विशेषकर optically active compounds) का नामकरण stereochemistry की मदद से किया जाता है।
👉 इसके लिए दो प्रमुख प्रणालियाँ हैं :
-
D और L प्रणाली (Fischer Projection के आधार पर)
-
R और S प्रणाली (Cahn-Ingold-Prelog नियमों के आधार पर)
⚛️ D और L प्रणाली का नामकरण
🧩 परिभाषा
👉 D, L प्रणाली का प्रयोग विशेष रूप से कार्बोहाइड्रेट और अमीनो अम्लों में किया जाता है।
👉 यह प्रणाली ग्लिसरॉल्डिहाइड (Glyceraldehyde) पर आधारित है, जो सबसे सरल optically active यौगिक है।
📖 नियम
-
Fischer Projection में अणु को लिखें।
-
यदि chiral carbon पर –OH समूह (carbohydrates में) या –NH₂ समूह (amino acids में) दाएँ तरफ है → D-form।
-
यदि वह बाएँ तरफ है → L-form।
🧪 उदाहरण
-
D-Glucose → –OH group दाएँ तरफ।
-
L-Glucose → –OH group बाएँ तरफ।
-
D-Alanine → –NH₂ group दाएँ तरफ।
📌 ध्यान दें – D और L प्रणाली का optical rotation (+ या –) से सीधा संबंध नहीं है।
🌀 R और S प्रणाली का नामकरण
🧩 परिभाषा
👉 R-S प्रणाली अधिक आधुनिक और सार्वभौमिक है।
👉 इसे 1956 में Cahn, Ingold और Prelog ने प्रस्तावित किया।
👉 इस प्रणाली को CIP नियम (Cahn-Ingold-Prelog Rules) भी कहा जाता है।
📖 CIP नियम (Step by Step)
-
Chiral Carbon पहचानें
-
वह कार्बन जिस पर चार अलग-अलग समूह जुड़े हों।
-
-
Priorities (महत्त्वक्रम) निर्धारित करें
-
परमाणु संख्या (Atomic Number) के आधार पर प्राथमिकता तय करें।
-
उच्च परमाणु संख्या → उच्च प्राथमिकता।
-
-
Molecule को व्यवस्थित करें
-
सबसे कम प्राथमिकता वाला समूह (Priority 4) को पीछे रखें।
-
-
घूर्णन का निरीक्षण करें
-
यदि 1 → 2 → 3 क्रम घड़ी की दिशा (Clockwise) में है → R configuration।
-
यदि 1 → 2 → 3 क्रम विपरीत दिशा (Anti-clockwise) में है → S configuration।
-
🧪 उदाहरण
-
Lactic Acid (CH₃–CHOH–COOH)
-
Chiral carbon पर 4 groups : –OH, –H, –COOH, –CH₃।
-
CIP नियम के अनुसार → एक रूप R और दूसरा S।
-
-
2-Butanol (CH₃–CHOH–CH₂CH₃)
-
दो stereoisomers : R-2-butanol और S-2-butanol।
-
📊 D, L बनाम R, S प्रणाली
पहलू | D, L प्रणाली | R, S प्रणाली |
---|---|---|
आधार | Glyceraldehyde पर आधारित | CIP नियम पर आधारित |
विशेष प्रयोग | Carbohydrates और Amino Acids | सभी optically active compounds |
पद्धति | Fischer projection से निर्धारित | परमाणु संख्या और प्राथमिकता नियम से निर्धारित |
सार्वभौमिकता | सीमित | अधिक व्यापक और आधुनिक |
✨ महत्व
-
D-L प्रणाली → बायोमोलेक्यूल्स के अध्ययन के लिए उपयुक्त।
-
R-S प्रणाली → सभी chiral compounds के stereochemistry को स्पष्ट करती है।
-
दोनों प्रणालियों का ज्ञान आधुनिक कार्बनिक रसायन और औषधि विज्ञान (Pharmaceutical Chemistry) के लिए आवश्यक है।
🔹 निष्कर्ष
👉 Configuration vs Conformation :
-
विन्यास स्थायी होता है, जबकि संरचना अस्थायी।
-
विन्यास बदलने के लिए बंध तोड़ना ज़रूरी है, लेकिन संरचना bond rotation से बदल जाती है।
👉 D, L और R, S प्रणाली :
-
D-L प्रणाली glyceraldehyde पर आधारित है और विशेषकर carbohydrates/amino acids के लिए।
-
R-S प्रणाली CIP नियम पर आधारित है और सभी chiral molecules के लिए प्रयोग होती है।
👉 इस प्रकार stereochemistry में इन दोनों अवधारणाओं और प्रणालियों का अध्ययन molecules की 3D structure, optical activity और reactivity समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
प्रश्न 04 कार्बनिक यौगिकों द्वारा प्रदर्शित अधिष्ठापन और मेसोमेरिक प्रभाव की मुख्य विशेषताएँ उदाहरण सहित बताइए और समझाइए।
🌟 परिचय
कार्बनिक यौगिकों (Organic Compounds) की विशेषता यह है कि इनमें कोवेलेंट बंधन (Covalent Bond) और π-इलेक्ट्रॉनों (delocalized electrons) की उपस्थिति पाई जाती है।
👉 इसके कारण अणुओं में इलेक्ट्रॉनों का वितरण हमेशा समान नहीं होता।
👉 इलेक्ट्रॉनों के इस पुनर्वितरण (Redistribution) के कारण विभिन्न प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक प्रभाव (Electronic Effects) देखने को मिलते हैं।
इनमें से दो सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव हैं :
-
अधिष्ठापन प्रभाव (Inductive Effect)
-
मेसोमेरिक प्रभाव (Mesomeric Effect / Resonance Effect)
🔹 अधिष्ठापन प्रभाव (Inductive Effect)
⚛️ परिभाषा
👉 जब किसी अणु में दो परमाणुओं के बीच विद्युतऋणात्मकता (Electronegativity) का अंतर होता है, तो σ-बन्ध (Sigma Bond) के इलेक्ट्रॉन एक तरफ खिंच जाते हैं।
👉 इस स्थायी इलेक्ट्रॉन खिंचाव को ही अधिष्ठापन प्रभाव कहते हैं।
🌀 मुख्य विशेषताएँ (Characteristics)
-
यह σ-बन्ध से संबंधित है
-
अधिष्ठापन प्रभाव केवल sigma bond में इलेक्ट्रॉनों की असमान साझेदारी से उत्पन्न होता है।
-
-
स्थायी प्रभाव है
-
यह हमेशा मौजूद रहता है, जब तक अणु का बंधन संरक्षित है।
-
-
दूरी पर प्रभाव कम होता है
-
यह केवल 2–3 परमाणुओं की दूरी तक ही प्रभाव डालता है।
-
-
प्रभाव के प्रकार
-
यदि समूह इलेक्ट्रॉनों को अपनी तरफ खींचे → –I प्रभाव (– Inductive Effect)।
-
यदि समूह इलेक्ट्रॉनों को धकेले → +I प्रभाव (+ Inductive Effect)।
-
🧪 उदाहरण
-
–I प्रभाव वाले समूह (Electron Withdrawing)
-
–NO₂, –CN, –COOH, –Cl, –Br आदि।
-
ये समूह इलेक्ट्रॉनों को अपनी ओर खींचते हैं।
-
परिणामस्वरूप पास के कार्बन धनात्मक आवेशित हो जाते हैं।
👉 जैसे : CH₃–CH₂–Cl
-
यहाँ –Cl का –I प्रभाव होता है।
-
-
+I प्रभाव वाले समूह (Electron Releasing)
-
–CH₃, –C₂H₅, –(CH₃)₂CH, –SiH₃ आदि।
-
ये समूह इलेक्ट्रॉनों को धकेलते हैं और पड़ोसी परमाणु पर इलेक्ट्रॉन घनत्व बढ़ाते हैं।
👉 जैसे : (CH₃)₃C⁺
-
यहाँ 3 मिथाइल समूह +I प्रभाव दिखाते हैं, जिससे कार्बोकैटायन स्थिर हो जाता है।
-
✨ महत्व
-
कार्बोकैटायन और कार्बएनायन की स्थिरता समझाने में सहायक।
-
अम्ल-क्षार की शक्ति (Acid-Base Strength) का निर्धारण।
-
प्रतिक्रियाशीलता (Reactivity) और आयनाइजेशन पर गहरा प्रभाव।
🔹 मेसोमेरिक प्रभाव (Mesomeric Effect)
⚛️ परिभाषा
👉 यदि किसी अणु में π-इलेक्ट्रॉनों या अकेले इलेक्ट्रॉनों (lone pairs) का विस्थापन (Delocalization) हो और इससे कई अनुनाद संरचनाएँ (Resonance Structures) संभव हों, तो इस प्रभाव को मेसोमेरिक प्रभाव कहते हैं।
📌 इसे कभी-कभी अनुनाद प्रभाव (Resonance Effect) भी कहा जाता है।
🌀 मुख्य विशेषताएँ (Characteristics)
-
यह π-बन्ध और लोन पेयर से संबंधित है
-
σ-बन्ध नहीं, बल्कि π-बन्ध और non-bonding electrons इसमें भाग लेते हैं।
-
-
यह स्थायी प्रभाव है
-
अणु में जब तक π-बन्ध या लोन पेयर मौजूद हैं, यह प्रभाव हमेशा रहेगा।
-
-
यह प्रभाव पूरे अणु में फैला होता है
-
अधिष्ठापन प्रभाव के विपरीत, मेसोमेरिक प्रभाव लंबी दूरी तक कार्य करता है।
-
-
प्रभाव के प्रकार
-
+M प्रभाव (Electron Releasing by Resonance)
-
–M प्रभाव (Electron Withdrawing by Resonance)
-
🧪 उदाहरण
-
+M प्रभाव वाले समूह
-
–OH, –OR, –NH₂, –NR₂, –Cl (due to lone pairs)।
-
ये π-इलेक्ट्रॉनों की आपूर्ति करते हैं।
👉 जैसे : Phenol (C₆H₅–OH)
-
–OH समूह का lone pair, बेंजीन रिंग में π-इलेक्ट्रॉनों का विस्थापन करता है।
-
इससे रिंग अधिक electrophilic substitution reactions के प्रति सक्रिय हो जाती है।
-
-
–M प्रभाव वाले समूह
-
–NO₂, –CN, –COOH, –CHO, –COR आदि।
-
ये π-इलेक्ट्रॉनों को अपनी ओर खींचते हैं।
👉 जैसे : Nitrobenzene (C₆H₅–NO₂)
-
–NO₂ समूह इलेक्ट्रॉनों को खींचता है।
-
इससे रिंग electrophilic substitution reactions में कम सक्रिय हो जाती है।
-
✨ महत्व
-
अनुनाद प्रभाव (Resonance) यौगिक की स्थिरता (Stability) को बढ़ाता है।
-
Aromatic compounds (जैसे benzene) में यह प्रभाव सबसे प्रमुख है।
-
यौगिकों के रंग, अम्लीयता और क्षारीयता पर गहरा असर डालता है।
📊 अधिष्ठापन और मेसोमेरिक प्रभाव के बीच तुलना
पहलू | अधिष्ठापन प्रभाव (Inductive Effect) | मेसोमेरिक प्रभाव (Mesomeric Effect) |
---|---|---|
बंधन | σ-बन्ध के इलेक्ट्रॉन | π-बन्ध या lone pair |
स्वभाव | केवल निकटवर्ती परमाणुओं तक सीमित | पूरे अणु में फैला हुआ |
प्रकार | +I और –I | +M और –M |
प्रभाव | आंशिक आवेश उत्पन्न करता है | इलेक्ट्रॉनों का delocalization करता है |
उदाहरण | –Cl, –NO₂, –CH₃ | –OH, –NH₂, –NO₂, –COOH |
🔬 सम्मिलित प्रभाव (Combined Effect)
👉 कई बार दोनों प्रभाव (Inductive + Mesomeric) एक ही यौगिक में साथ-साथ काम करते हैं।
-
उदाहरण : p-Nitrophenol
-
–NO₂ समूह (–M और –I दोनों) इलेक्ट्रॉनों को खींचता है।
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–OH समूह (+M) इलेक्ट्रॉनों को धकेलता है।
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दोनों प्रभावों के संयुक्त परिणामस्वरूप यौगिक की अम्लीयता बढ़ जाती है।
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🌟 निष्कर्ष
👉 अधिष्ठापन प्रभाव = σ-बन्ध के इलेक्ट्रॉनों का स्थायी खिंचाव।
👉 मेसोमेरिक प्रभाव = π-इलेक्ट्रॉनों और lone pair का delocalization।
👉 दोनों प्रभाव कार्बनिक रसायन में यौगिकों की स्थिरता, अभिक्रियाशीलता, अम्ल-क्षार शक्ति, रंग और संरचना को समझाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
प्रश्न 05 समझाइए न्यूक्लियोफिलिक योगात्मक अभिक्रियाओं के लिए कीटोन एल्डिहाइड की तुलना में कम प्रतिक्रियाशील क्यों होते हैं ?
🌟 परिचय
कार्बोनिल यौगिकों (Carbonyl Compounds) में दो प्रमुख वर्ग आते हैं –
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एल्डिहाइड (Aldehyde, R–CHO)
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कीटोन (Ketone, R–CO–R')
दोनों में कार्बोनिल समूह (C=O) होता है, जो एक ध्रुवीय बन्ध है।
👉 इस ध्रुवीयता के कारण ये न्यूक्लियोफिलिक योगात्मक अभिक्रियाओं में भाग लेते हैं।
लेकिन प्रयोगात्मक रूप से पाया गया है कि –
🔹 एल्डिहाइड की तुलना में कीटोन न्यूक्लियोफिलिक योगात्मक अभिक्रियाओं में कम प्रतिक्रियाशील होते हैं।
⚛️ न्यूक्लियोफिलिक योगात्मक अभिक्रिया (Nucleophilic Addition Reaction)
👉 इसमें न्यूक्लियोफाइल कार्बोनिल कार्बन (C=O के C) पर आक्रमण करता है क्योंकि:
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कार्बन आंशिक धनात्मक (δ⁺) होता है।
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ऑक्सीजन आंशिक ऋणात्मक (δ⁻) होता है।
परंतु न्यूक्लियोफाइल किस गति से हमला करेगा, यह कार्बोनिल कार्बन की विद्युत तथा स्थानिक (Steric) दशा पर निर्भर करता है।
🔹 एल्डिहाइड की अधिक प्रतिक्रियाशीलता के कारण
1️⃣ इलेक्ट्रॉनिक प्रभाव (Electronic Effect)
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एल्डिहाइड में कार्बोनिल कार्बन से केवल एक ऐल्किल समूह (R) जुड़ा होता है और दूसरा स्थान हाइड्रोजन (H) होता है।
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ऐल्किल समूह +I प्रभाव (electron donating inductive effect) डालता है।
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इसलिए एल्डिहाइड में कार्बोनिल कार्बन पर आंशिक धनात्मक आवेश अधिक होता है।
👉 परिणाम :
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कार्बोनिल कार्बन अधिक इलेक्ट्रोफिलिक होता है।
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न्यूक्लियोफाइल आसानी से आक्रमण कर पाता है।
2️⃣ स्थानिक प्रभाव (Steric Effect)
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एल्डिहाइड में केवल एक ऐल्किल समूह होता है।
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इसलिए कार्बोनिल कार्बन के आसपास भीड़ (Steric Hindrance) कम होती है।
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न्यूक्लियोफाइल को कार्बोनिल कार्बन तक पहुँचने में आसानी होती है।
👉 परिणाम :
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अभिक्रिया की गति तेज होती है।
🔹 कीटोन की कम प्रतिक्रियाशीलता के कारण
1️⃣ इलेक्ट्रॉनिक प्रभाव
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कीटोन में कार्बोनिल कार्बन से दो ऐल्किल समूह (R और R') जुड़े होते हैं।
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दोनों ऐल्किल समूह +I प्रभाव डालते हैं और कार्बोनिल कार्बन का आंशिक धनात्मक आवेश कम कर देते हैं।
👉 परिणाम :
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न्यूक्लियोफाइल के लिए कार्बोनिल कार्बन अपेक्षाकृत कम आकर्षक होता है।
2️⃣ स्थानिक प्रभाव
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कीटोन में कार्बोनिल कार्बन से दो bulky ऐल्किल समूह जुड़े रहते हैं।
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इससे कार्बोनिल कार्बन के आसपास Steric Hindrance अधिक हो जाती है।
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न्यूक्लियोफाइल का आक्रमण कठिन हो जाता है।
👉 परिणाम :
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अभिक्रिया की गति धीमी हो जाती है।
📊 तुलना सारणी : एल्डिहाइड बनाम कीटोन
पहलू | एल्डिहाइड (R–CHO) | कीटोन (R–CO–R') |
---|---|---|
संरचना | एक ऐल्किल + एक H | दो ऐल्किल |
इलेक्ट्रॉनिक प्रभाव | कार्बोनिल कार्बन अधिक δ⁺ (क्योंकि केवल 1 ऐल्किल समूह +I प्रभाव डालता है) | कार्बोनिल कार्बन कम δ⁺ (क्योंकि दो ऐल्किल समूह +I प्रभाव डालते हैं) |
Steric Hindrance | कम (क्योंकि एक H होता है) | अधिक (दो bulky समूह होने से) |
प्रतिक्रियाशीलता | अधिक | कम |
🧪 उदाहरण
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Formaldehyde (HCHO)
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इसमें दो हाइड्रोजन होते हैं और कोई ऐल्किल समूह नहीं होता।
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कार्बोनिल कार्बन अत्यधिक इलेक्ट्रोफिलिक होता है।
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इसलिए यह सबसे अधिक प्रतिक्रियाशील है।
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Acetone (CH₃–CO–CH₃)
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इसमें दो मिथाइल समूह होते हैं।
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दोनों +I प्रभाव डालकर कार्बोनिल कार्बन का δ⁺ कम कर देते हैं।
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साथ ही Steric Hindrance भी बढ़ जाती है।
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इसलिए यह formaldehyde से बहुत कम प्रतिक्रियाशील है।
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🌟 निष्कर्ष
👉 न्यूक्लियोफिलिक योगात्मक अभिक्रियाओं के लिए एल्डिहाइड अधिक प्रतिक्रियाशील और कीटोन कम प्रतिक्रियाशील होते हैं।
👉 इसके दो मुख्य कारण हैं :
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इलेक्ट्रॉनिक प्रभाव → कीटोन में दो ऐल्किल समूह δ⁺ को कम कर देते हैं।
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स्थानिक प्रभाव → कीटोन में Steric Hindrance अधिक होती है।
👉 इस प्रकार, एल्डिहाइड की न्यूक्लियोफिलिक अभिक्रियाएँ कीटोन की तुलना में तेज होती हैं।
प्रश्न 07 किसी तंत्र की आंतरिक ऊर्जा और एन्थैल्पी से आप क्या समझते हैं ? वे आपस में कैसे जुड़े हुए हैं ?
🌟 परिचय
ऊष्मागतिकी (Thermodynamics) में किसी तंत्र (System) की स्थिति को समझाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण अवस्थागत फलनों (State Functions) का प्रयोग किया जाता है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं –
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आंतरिक ऊर्जा (Internal Energy, U)
-
एन्थैल्पी (Enthalpy, H)
👉 ये दोनों अवधारणाएँ किसी भी ऊष्मागतिक प्रक्रिया (Thermodynamic Process) को समझने और रासायनिक अभिक्रियाओं में ऊर्जा परिवर्तन की गणना करने के लिए आवश्यक हैं।
⚛️ आंतरिक ऊर्जा (Internal Energy, U)
परिभाषा :
किसी तंत्र के सभी अणुओं में विद्यमान ऊर्जा (गतिज + स्थितिज) का योग उस तंत्र की आंतरिक ऊर्जा कहलाता है।
विशेषताएँ :
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यह एक State Function है – केवल तंत्र की अवस्था पर निर्भर करती है, न कि पथ पर।
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इसे प्रत्यक्ष रूप से मापा नहीं जा सकता, केवल परिवर्तन (ΔU) को मापा जा सकता है।
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इसमें शामिल होती हैं :
-
अणुओं की गतिज ऊर्जा (Kinetic Energy) – गति, कंपन, घूर्णन से।
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अणुओं की स्थितिज ऊर्जा (Potential Energy) – बन्धों और अणु-अणु आकर्षण से।
-
👉 गणितीय रूप से :
ΔU=q+wजहाँ –
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q = तंत्र को दी गई ऊष्मा
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w = तंत्र पर किया गया कार्य
🔥 एन्थैल्पी (Enthalpy, H)
परिभाषा :
किसी तंत्र की आंतरिक ऊर्जा (U) और दाब–आयतन गुणनफल (PV) का योग उस तंत्र की एन्थैल्पी (H) कहलाता है।
विशेषताएँ :
-
यह भी एक State Function है।
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स्थिर दाब (Constant Pressure) पर ऊष्मा परिवर्तन को एन्थैल्पी परिवर्तन (ΔH) द्वारा मापा जाता है।
-
रासायनिक अभिक्रियाओं में प्रायः स्थिर दाब पर ही प्रयोग होता है, इसलिए ΔH का महत्व बहुत अधिक है।
👉 गणितीय रूप से :
ΔH=ΔU+PΔV🔄 आंतरिक ऊर्जा और एन्थैल्पी का संबंध
आंतरिक ऊर्जा और एन्थैल्पी आपस में गहरे जुड़े हैं।
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मूल संबंध :
-
परिवर्तन के लिए :
-
यदि दाब (P) स्थिर है :
👉 इसका अर्थ :
-
जब तंत्र स्थिर दाब पर कार्य करता है, तो एन्थैल्पी परिवर्तन (ΔH) = आंतरिक ऊर्जा परिवर्तन (ΔU) + दाब-आयतन कार्य।
🧪 उदाहरण द्वारा समझना
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रासायनिक अभिक्रियाएँ
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यदि अभिक्रिया में गैस का आयतन बढ़ता है → ΔV>0 → ΔH>ΔU।
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यदि आयतन घटता है → ΔV<0 → ΔH<ΔU।
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दहन अभिक्रियाएँ (Combustion Reactions)
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अधिकांश दहन अभिक्रियाएँ स्थिर दाब पर की जाती हैं।
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मापी गई ऊष्मा = एन्थैल्पी परिवर्तन (ΔH)।
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बॉम्ब कैलोरीमीटर प्रयोग
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इसमें आयतन स्थिर रखा जाता है।
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मापी गई ऊष्मा = ΔU।
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फिर ΔH का हिसाब ΔH=ΔU+ΔnRT से लगाया जाता है।
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📊 सारणी : आंतरिक ऊर्जा बनाम एन्थैल्पी
पहलू | आंतरिक ऊर्जा (U) | एन्थैल्पी (H) |
---|---|---|
परिभाषा | तंत्र की कुल ऊर्जा (गतिज + स्थितिज) | U + PV |
स्थिति | State Function | State Function |
मापन | ΔU स्थिर आयतन पर मापा जाता है | ΔH स्थिर दाब पर मापा जाता है |
संबंध | ΔU = qv (स्थिर V पर) | ΔH = qp (स्थिर P पर) |
प्रयोग | कैलोरीमीटर में | अधिकांश रासायनिक अभिक्रियाओं में |
🌟 निष्कर्ष
👉 आंतरिक ऊर्जा और एन्थैल्पी दोनों ही ऊष्मागतिक अवस्थागत फलन हैं।
👉 आंतरिक ऊर्जा (U) तंत्र की वास्तविक ऊर्जा है, जबकि एन्थैल्पी (H) उस ऊर्जा के साथ दाब-आयतन कार्य को भी सम्मिलित करती है।
👉 दोनों का संबंध है :
👉 रासायनिक अभिक्रियाओं की ऊर्जा गणना के लिए ΔH और ΔU दोनों का महत्व है, परंतु व्यवहारिक रूप से स्थिर दाब पर कार्य होने के कारण एन्थैल्पी अधिक उपयोगी होती है।
प्रश्न 08
🔹 (i) कार्बोक्जिलिक एसिड को संबंधित प्राथमिक अल्कोहल में बदलने के लिए अभिकर्मक
कार्बोक्जिलिक एसिड (–COOH) को सीधे प्राथमिक अल्कोहल (–CH₂OH) में बदलना एक अपचयन (Reduction) प्रक्रिया है।
🧪 मुख्य अभिकर्मक
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लिथियम एल्युमिनियम हाइड्राइड (LiAlH₄)
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सबसे शक्तिशाली अपचायक है।
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यह कार्बोक्जिलिक एसिड को सीधे प्राथमिक अल्कोहल में बदल देता है।
समीकरण:
RCOOHLiAlH4etherRCH2OH -
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बोरान (B₂H₆)
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यह भी कार्बोक्जिलिक एसिड को उच्च दक्षता से अल्कोहल में बदल देता है।
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LiAlH₄ की तुलना में कुछ मामलों में अधिक चयनात्मक (Selective) है।
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🌟 ध्यान देने योग्य बातें
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NaBH₄ (सोडियम बोरोहाइड्राइड) कार्बोक्जिलिक एसिड को अल्कोहल में नहीं बदलता, क्योंकि यह पर्याप्त शक्तिशाली अपचायक नहीं है।
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इसलिए सबसे अधिक प्रयुक्त अभिकर्मक है LiAlH₄।
🔹 (ii) कार्बोक्जिलिक एसिड की अम्लता
कार्बोक्जिलिक एसिड (R–COOH) कमजोर अम्ल होते हैं, परंतु अल्कोहल और पानी की तुलना में अधिक अम्लीय पाए जाते हैं।
⚛️ कारण – अम्लता क्यों होती है?
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संयुग्मी क्षारक आयन (Conjugate Base) का स्थिरीकरण
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कार्बोक्जिलिक एसिड के आयनीकरण पर कार्बोक्सिलेट आयन (R–COO⁻) बनता है।
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यह आयन रेज़ोनेंस (Resonance) द्वारा स्थिर होता है :
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इलेक्ट्रॉनों का यह विस्थापन (Delocalization) आयन को स्थिर बनाता है।
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इसलिए, प्रोटॉन (H+) का निकलना आसान हो जाता है।
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अल्कोहल की तुलना में अधिक अम्लीय
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अल्कोहल में RO− बनने पर नकारात्मक आवेश किसी भी रेज़ोनेंस से स्थिर नहीं होता।
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परंतु कार्बोक्जिलिक एसिड में RCOO− रेज़ोनेंस से स्थिर हो जाता है।
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इसलिए, कार्बोक्जिलिक एसिड की अम्लता अल्कोहल से अधिक होती है।
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📊 कार्बोक्जिलिक एसिड की अम्लता को प्रभावित करने वाले कारक
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इलेक्ट्रॉन आकर्षित करने वाले समूह (–NO₂, –Cl, –F आदि)
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ये समूह कार्बोक्सिलेट आयन को और अधिक स्थिर बनाते हैं।
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परिणाम : अम्लता बढ़ जाती है।
👉 उदाहरण :
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Trichloroacetic acid (CCl₃COOH) साधारण Acetic acid (CH₃COOH) से कहीं अधिक अम्लीय है।
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इलेक्ट्रॉन दान करने वाले समूह (–CH₃, –OCH₃ आदि)
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ये समूह नकारात्मक आवेश को अस्थिर करते हैं।
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परिणाम : अम्लता घट जाती है।
👉 उदाहरण :
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Formic acid (HCOOH) Acetic acid (CH₃COOH) से अधिक अम्लीय है।
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🧪 कार्बोक्जिलिक एसिड के pKa मान (अम्लता की माप)
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Formic acid (HCOOH) → pKa ≈ 3.8
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Acetic acid (CH₃COOH) → pKa ≈ 4.7
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Trichloroacetic acid (CCl₃COOH) → pKa ≈ 0.7 (बहुत अधिक अम्लीय)
✨ निष्कर्ष
👉 कार्बोक्जिलिक एसिड को प्राथमिक अल्कोहल में बदलने के लिए सबसे उपयुक्त अभिकर्मक है LiAlH₄।
👉 कार्बोक्जिलिक एसिड की अम्लता उनके रेज़ोनेंस स्थिरीकरण और प्रतिस्थापकों (Substituents) की प्रकृति पर निर्भर करती है।
👉 यह अल्कोहल की तुलना में अधिक अम्लीय होते हैं और रासायनिक क्रियाशीलता में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।