प्रश्न 01 प्राचीन भारतीय मंदिर निर्माण शैलियों का सोदाहरण वर्णन कीजिए।
🏛️ परिचय: प्राचीन भारतीय मंदिर स्थापत्य की महिमा
भारत में मंदिर केवल पूजा के स्थान नहीं रहे, बल्कि यह धार्मिक आस्था, कला, स्थापत्य और संस्कृति का अद्भुत संगम भी हैं। प्राचीन काल से ही मंदिर निर्माण शैलियों ने विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों और राजवंशों के प्रभाव में विशिष्ट रूप धारण किया। इन शैलियों में उत्तर भारत की नागर शैली, दक्षिण भारत की द्रविड़ शैली और मध्य भारत की वेसर शैली प्रमुख हैं।
🏯 प्रमुख मंदिर निर्माण शैलियाँ
भारतीय मंदिर स्थापत्य को तीन मुख्य शैलियों में बाँटा जाता है —
1️⃣ नागर शैली (उत्तर भारतीय शैली)
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क्षेत्र: मुख्यतः हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत तक के उत्तरी क्षेत्र में प्रचलित।
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विशेषताएँ:
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ऊँचे, सीधे और गोलाकार शिखर (Rekha-deul)
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गर्भगृह (Sanctum Sanctorum) छोटा और संकुचित
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मंडप (सभा-गृह) गर्भगृह से जुड़ा हुआ
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अलंकरण में नक्काशीदार मूर्तियाँ और पैनल
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प्रमुख उदाहरण:
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कंदारिया महादेव मंदिर (खजुराहो, मध्यप्रदेश)
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लक्ष्मण मंदिर (खजुराहो)
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सूर्य मंदिर (कोणार्क, ओडिशा)
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2️⃣ द्रविड़ शैली (दक्षिण भारतीय शैली)
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क्षेत्र: तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में प्रचलित।
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विशेषताएँ:
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पिरामिड आकार का विशाल गोपुरम (प्रवेश द्वार टॉवर)
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गर्भगृह के ऊपर विमाना (Vimana)
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बड़े-बड़े प्रांगण (Courtyards)
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पत्थरों पर अद्भुत मूर्तिकला और गाथाएँ
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प्रमुख उदाहरण:
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बृहदेश्वर मंदिर (थंजावुर, तमिलनाडु)
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मीनाक्षी मंदिर (मदुरै)
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विरुपाक्ष मंदिर (हम्पी, कर्नाटक)
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3️⃣ वेसर शैली (मिश्रित शैली)
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क्षेत्र: मध्य भारत और दक्कन क्षेत्र
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विशेषताएँ:
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नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों का सम्मिश्रण
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शिखर नागर शैली के, परंतु आधार और मंडप द्रविड़ शैली के
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कलात्मक नक्काशी और विस्तृत प्रांगण
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प्रमुख उदाहरण:
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होयसलेश्वर मंदिर (हलेबीडु, कर्नाटक)
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किष्किंधा के मंदिर
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पत्तदकल के मंदिर समूह (कर्नाटक)
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🛕 मंदिर निर्माण के प्रमुख अंग
📍 गर्भगृह (Sanctum Sanctorum)
मंदिर का सबसे पवित्र स्थान, जहाँ देवता की प्रतिमा स्थापित होती है।
📍 मंडप
भक्तों के एकत्र होने का स्थान, जो गर्भगृह से जुड़ा होता है।
📍 शिखर / विमाना
मंदिर का ऊपरी भाग, जो आकाश की ओर उन्मुख होता है।
📍 गोपुरम
विशेषतः द्रविड़ शैली में विशाल और सजावटी प्रवेश द्वार।
📍 प्राकार
मंदिर को घेरे हुए परिधि-दीवारें।
🎨 मंदिर सजावट और मूर्तिकला
भारतीय मंदिर केवल पूजा के केंद्र नहीं रहे, बल्कि यह चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला के अद्भुत नमूने भी हैं। मंदिरों की दीवारों पर धार्मिक कथाएँ, नृत्य, संगीत, युद्ध और सामाजिक जीवन के दृश्य उकेरे गए हैं।
📜 ऐतिहासिक विकास क्रम
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गुप्त काल (4th-6th शताब्दी): मंदिर निर्माण की आधारशिला; सरल और छोटे मंदिर।
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राजपूत काल (8th-12th शताब्दी): नागर शैली का उत्कर्ष; अलंकरण में वृद्धि।
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चोल वंश (9th-13th शताब्दी): द्रविड़ शैली का स्वर्ण काल; विशाल मंदिरों का निर्माण।
🌍 सांस्कृतिक महत्व
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मंदिर भारतीय समाज में धार्मिक आस्था के केंद्र रहे।
-
यह स्थानीय कला और शिल्पकारों की प्रतिभा का प्रदर्शन स्थल बने।
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धार्मिक यात्राओं और मेलों से आर्थिक गतिविधियों को भी बढ़ावा मिला।
🏆 निष्कर्ष
प्राचीन भारतीय मंदिर निर्माण शैलियाँ भारत की आध्यात्मिकता, कला और स्थापत्य कौशल का अद्वितीय उदाहरण हैं। नागर, द्रविड़ और वेसर शैलियों ने भारतीय संस्कृति को विश्व स्तर पर पहचान दिलाई है। इन मंदिरों की भव्यता और कलात्मकता आज भी लोगों को मोहित करती है और यह भारत की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सदैव अमर रहेंगे।
प्रश्न 02 भारतीय अर्थव्यवस्था की नवीनतम विशेषताओं का मूल्यांकन कीजिए।
वृहद रूपरेखा (Overview)
भारत की अर्थव्यवस्था (August 2025 तक) एक उच्च-द्रुतता, संरचनात्मक लचीलापन, और मजबूत आंतरिक मांग द्वारा संचालित होती दिख रही है। नीचे इसके प्रमुख नवीनतम रुझान, चुनौतियाँ और सुधारों का विश्लेषण प्रस्तुत है।
प्रमुख विशेषताएँ (Key Features)
1. घरेलू मांग में मजबूत पुनरुद्धार
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उपभोग (Consumption) भारतीय GDP का 61% से अधिक भाग है। भंडारण दरों में गिरावट, कर में छूट, और मध्यम-वर्गीय उपभोक्ताओं की बढ़ती संख्या ने उपभोग को पुनः प्रवृत्त किया है।
Deloitte
2. पूंजी बाजार और निवेश में लचीलापन
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वैश्विक अनिश्चितताओं के बावजूद, भारतीय पूंजी बाजार ने शानदार वापसी की है। घरेलू संस्थागत निवेशकों (DIIs) की भागीदारी ने विदेशी संस्थानिक निवेशकों (FIIs) के निकासी के प्रभाव को काफी हद तक संतुलित किया है।
DeloitteDeloitte
3. निर्यात और सेवा क्षेत्र की मजबूती
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सेवा क्षेत्र निर्यात (especially IT, वित्त, BPO) ने निरंतर मजबूती दिखाई है, जबकि निजी पूंजीगत व्यय (private capex) में भी धीरे-धीरे पुनरुद्धार हुआ है।
DeloitteDeloitte
4. जी-एस-टी सुधार और घरेलू खपत बढ़ावा
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अमेरिकी टैरिफों के दबाव में, भारत ने GST के स्वरूप में सुधार कर दिया—दैनिक उपयोग की चीजों पर टैक्स 5% और अन्य कुछ वस्तुओं पर बढ़ाकर 40%—जिससे GDP में 0.6% तक का सुधार संभव है।
Reuters
5. US टैरिफ और वैश्विक व्यापार चुनौतियाँ
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अमेरिका द्वारा 50% तक के भारी टैरिफ ने निर्यात को प्रभावित किया, विशेषकर टेक्सटाइल और श्रम-गहन सेक्टरों को। कंपनियाँ अब UAE, Mexico या अमेरिका में निर्माण आधार स्थापित कर रही हैं ताकि टैक्स का प्रभाव कम हो सके।
ReutersThe Economic TimesThe Times of India
6. उत्पादन क्षेत्र और ऊर्जा संक्रमण
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Morgan Stanley की रिपोर्ट बताती है कि भारत दुनिया का अगला प्रमुख उपभोक्ता बाजार बनने की ओर है। देश ऊर्जा संक्रमण और विनिर्माण में निवेश बढ़ा रहा है।
The Times of India
7. MSMEs का डिजिटलीकरण
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MSMEs (माइक्रो, स्मॉल, मीडियम एंटरप्राइजेज) GDP का लगभग 30% योगदान देते हैं। ये अब डिजिटलीकरण की ओर अग्रसर हैं, जिससे समावेशी विकास और टेक्नोलॉजी इंटीग्रेशन possible हो रहा है।
The Economic Times
8. कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और भारत-केंद्रित मॉडल
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भारत ने BharatGen नामक जनरल AI मॉडल का निर्माण शुरू कर दिया है, जो भारतीय भाषाओं और बहु-मॉडल डेटा को ध्यान में रखते हुए विकसित किया जा रहा है।
Wikipedia -
इसके अलावा, ET Soonicorns Summit 2025 में AI को लेकर भारत की महत्वाकांक्षा (data sovereignty, AI “moats”) को लेकर चर्चा हुई।
The Economic Times
9. आर्थिक गतिविधियों का प्री-मौसम विस्तार
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अगस्त 2025 में S&P Global के India Composite PMI ने सर्वाधिक गतिविधि दर्ज की—65.2 तक पहुँचा (services: 65.6; manufacturing: 59.8)—दशकों में सबसे तेज वृद्धि।
Reuters
10. अब-तक का विकास दर और भविष्य-दृष्टि
-
Deloitte का अनुमान है कि FY2024–25 में GDP वृद्धि 6.5% रही, Q4 में मजबूत वापसी के साथ। FY2025–26 के लिए 6.4–6.7% तक बढ़ने की आशा जताई जा रही है।
Deloitte -
दूसरे अनुमानों में करीब 6.7–7.3% तक की वृद्धि संभावित मानी जा रही है।
Deloitte
11. लम्बी अवधि में अर्थव्यवस्था की मजबूती
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S&P Global ने कहा है कि दीर्घकालीन विकास की कहानी अभी भी स्थिर है, इसके पीछे structural reforms और घरेलू मांग का जोर है।
The Times of India
सारांश तालिका (Summary Table)
प्रमुख तत्व | विवरण |
---|---|
घरेलू मांग | 61%+ GDP में उपभोग, मध्यम वर्गीकरण, कर छूट |
पूंजी बाजार | DIIs की बढ़ती भागीदारी, FII से लचीलापन |
निर्यात व सेवाएँ | IT, वित्त, BPO निर्यात मजबूत; निजी निवेश धीरे सुधार |
GST सुधार | कर सरलीकरण, घरेलू मांग को समर्थन |
वैश्विक चुनौतियाँ | US टैरिफ का असर, रणनीतिक निर्माण पुनर्विन्यास |
MSMEs डिजिटलीकरण | GDP में 30%, राष्ट्रीय डिजिटलीकरण में अग्रसर |
AI पहल | BharatGen, डेटा स्वायत्तता, स्थानीय मॉडल |
मौसम पूर्व गतिविधि | अगस्त में PMI उच्चतम, सेवाएँ व मैन्युफैक्चरिंग में उछाल |
विकास दर | वर्तमान: 6.5%; आगामी: 6.4–7.3% |
दीर्घकालीन Outlook | S&P: सुधारों व घरेलू मांग पर भरोसा |
निष्कर्ष (Conclusion)
नवीनतम भारतीय अर्थव्यवस्था एक अद्भुत मिश्रण है:
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घरेलू मांग इसका मुख्य स्तंभ है—व्यापक उपभोक्ता आधार और सुधारित कर नीति ने इसे पुष्ट किया है।
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पूंजी बाजार अब अधिक लचीली और विविध है, विदेशी धक्का-सहना कम हुआ है।
-
AI, डिजिटलीकरण और MSMEs नए अध्याय खोल रहे हैं, जिससे समावेशी और तकनीकी रूप से विकसित अर्थव्यवस्था बन रही है।
-
चुनौतियाँ, जैसे विदेश व्यापार में टैरिफ और मुद्रा अस्थिरता, दृष्टिगत हैं—लेकिन सरकार की रणनीतिक पहलें (GST सुधार, AI, Broadband Mission इत्यादि) जवाबदेह हैं।
-
विकास दर स्थिर है और भविष्य में तेज़ी की संभावनाएँ बरकरार हैं।
प्रश्न 03 1919 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के प्रावधानों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए
🏛️ परिचय: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1919 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, जिसे मोंटेग्यू–चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है, प्रथम विश्वयुद्ध (1914–1918) के बाद भारत में संवैधानिक सुधारों के रूप में लाया गया था। इसका उद्देश्य था —
-
भारतीयों को शासन में अधिक भागीदारी देना
-
ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति भारतीय निष्ठा को बनाए रखना
-
धीरे-धीरे उत्तरदायी शासन की दिशा में कदम बढ़ाना
यह अधिनियम 20 अगस्त 1917 को घोषित ‘मोंटेग्यू घोषणा’ पर आधारित था, जिसमें ब्रिटिश सरकार ने भारत को धीरे-धीरे जिम्मेदार शासन देने का वादा किया था।
📜 प्रमुख प्रावधान
1️⃣ प्रांतीय स्तर पर द्वैध शासन (Dyarchy) की व्यवस्था
-
प्रांतों में शासन को दो भागों में विभाजित किया गया —
(क) स्थानांतरित विषय (Transferred Subjects) – शिक्षा, कृषि, स्थानीय स्वशासन आदि, जिनका संचालन मंत्रियों द्वारा किया जाता था।
(ख) आरक्षित विषय (Reserved Subjects) – कानून-व्यवस्था, पुलिस, वित्त आदि, जिनका नियंत्रण गवर्नर के पास था। -
मंत्रियों का उत्तरदायित्व केवल प्रांतीय विधान परिषद के प्रति था, लेकिन आरक्षित विषयों पर उनका कोई अधिकार नहीं था।
2️⃣ केंद्रीय सरकार की संरचना
-
भारत का गवर्नर-जनरल सर्वोच्च पद पर था।
-
केंद्रीय विधानमंडल में दो सदन बनाए गए —
-
विधानसभा (Legislative Assembly) — सदस्यों का आंशिक चुनाव
-
राज्य परिषद (Council of State) — सीमित निर्वाचित सदस्य
-
-
ब्रिटिश संसद और सेक्रेटरी ऑफ स्टेट की सर्वोच्चता बरकरार रही।
3️⃣ निर्वाचन प्रणाली और मताधिकार
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पहली बार प्रत्यक्ष चुनाव का प्रावधान, लेकिन मताधिकार सीमित था।
-
मतदाता योग्यता — संपत्ति, कर भुगतान, शिक्षा, और लिंग आधारित (महिलाओं को अधिकांश प्रांतों में मताधिकार नहीं)।
-
पृथक निर्वाचक मंडल (Separate Electorates) का विस्तार — मुसलमानों के अलावा सिख, यूरोपीय, एंग्लो-इंडियन आदि को भी अलग निर्वाचन।
4️⃣ केंद्रीय और प्रांतीय विषयों का विभाजन
-
विषयों को केंद्रीय सूची और प्रांतीय सूची में बाँटा गया।
-
प्रांतों को कुछ मामलों में स्वायत्तता मिली, लेकिन केंद्रीय सरकार का नियंत्रण व्यापक रहा।
5️⃣ वित्तीय प्रावधान
-
प्रांतों को अपनी आय के स्रोत दिए गए (जैसे – भूमि राजस्व, उत्पाद शुल्क), लेकिन केंद्रीय सरकार वित्तीय रूप से अधिक शक्तिशाली रही।
-
बजट अनुमोदन का अधिकार विधानमंडल को मिला, परंतु गवर्नर-जनरल आपातकालीन व्यय कर सकता था।
6️⃣ न्यायिक प्रावधान
-
प्रांतीय उच्च न्यायालयों की स्थिति यथावत रही।
-
ब्रिटिश प्रिवी काउंसिल (Privy Council) सर्वोच्च अपील का मंच बना रहा।
📌 सुधार के सकारात्मक पहलू
🌟 उत्तरदायी शासन की दिशा में पहला ठोस कदम
-
प्रांतों में मंत्रालय बनाकर भारतीय नेताओं को प्रशासनिक अनुभव दिया गया।
🌟 राजनीतिक चेतना में वृद्धि
-
निर्वाचनों और आंशिक मताधिकार ने राजनीतिक भागीदारी की भावना जगाई।
🌟 द्विसदनीय केंद्रीय विधानमंडल की स्थापना
-
भारतीय शासन संरचना में एक नया लोकतांत्रिक तत्व जोड़ा गया।
🌟 प्रशासनिक विकेंद्रीकरण
-
विषयों के विभाजन से प्रांतों को कुछ मामलों में स्वायत्तता मिली।
⚖️ आलोचनात्मक मूल्यांकन
❌ द्वैध शासन की विफलता
-
स्थानांतरित और आरक्षित विषयों के विभाजन से प्रशासन में असंगति और टकराव पैदा हुआ।
-
गवर्नर के पास आपात अधिकार थे, जिससे मंत्रियों का महत्व घट गया।
❌ सीमित मताधिकार
-
केवल 10% से भी कम जनसंख्या को वोट देने का अधिकार मिला।
-
महिलाओं और गरीब वर्ग को लगभग बाहर रखा गया।
❌ पृथक निर्वाचक मंडलों का विस्तार
-
अलग-अलग समुदायों के लिए अलग निर्वाचन प्रणाली ने सांप्रदायिकता को और गहरा किया।
❌ केंद्रीय सरकार पर ब्रिटिश नियंत्रण
-
वास्तविक शक्ति गवर्नर-जनरल और सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के पास रही।
-
केंद्रीय विषयों में भारतीयों की भूमिका अत्यंत सीमित थी।
❌ राष्ट्रीय आकांक्षाओं की उपेक्षा
-
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस अधिनियम को “असंतोषजनक और धोखाधड़ी” कहा, क्योंकि यह स्वशासन की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा।
📊 परिणाम और प्रभाव
📍 राजनीतिक
-
भारतीय नेताओं ने इसे शासन में प्रवेश का अवसर माना, लेकिन सीमाओं के कारण असंतोष बढ़ा।
-
1920 में कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन शुरू किया।
📍 प्रशासनिक
-
द्वैध शासन ने प्रांतीय प्रशासन को जटिल बना दिया और कई बार नीतियों में असंगति आई।
📍 सामाजिक
-
पृथक निर्वाचक मंडल ने साम्प्रदायिक तनाव को संस्थागत रूप दिया।
🔍 निष्कर्ष
1919 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट भारतीय संविधानिक विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण लेकिन अधूरा अध्याय था।
-
इसने भारतीयों को शासन में सीमित भागीदारी दी,
-
द्विसदनीय विधानमंडल और प्रत्यक्ष चुनाव जैसी अवधारणाएँ प्रस्तुत कीं,
-
लेकिन इसकी खामियों—द्वैध शासन, सीमित मताधिकार और ब्रिटिश नियंत्रण—ने राष्ट्रीय आंदोलन को और तेज़ कर दिया।
संक्षेप में, यह अधिनियम एक “सीढ़ी का पहला पायदान” था, जिसने 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट और अंततः 1947 में स्वतंत्रता की राह तैयार की।
प्रश्न 04 भारतीय संविधान की विशेषताओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
📜 परिचय: संविधान का महत्व
संविधान किसी भी देश का मौलिक विधिक दस्तावेज होता है, जो शासन की रूपरेखा, नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य, तथा राज्य के विभिन्न अंगों की शक्तियाँ एवं दायित्व तय करता है।
भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ और यह विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है।
यह संविधान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों और विभिन्न देशों के संवैधानिक अनुभवों का मिश्रण है।
🏛️ भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ
1️⃣ लंबा और विस्तृत संविधान
-
भारतीय संविधान में मूल रूप से 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 8 अनुसूचियाँ थीं (अब कई संशोधनों के बाद और बढ़ गई हैं)।
-
इसमें केंद्र, राज्यों, नागरिक अधिकार, नीति निर्देशक तत्व आदि सभी का विस्तृत विवरण है।
-
कारण: भारत का विशाल आकार, विविधता, और प्रशासनिक जटिलता।
2️⃣ लिखित संविधान
-
यह एक लिखित दस्तावेज है, जिसे संविधान सभा ने तैयार किया।
-
सभी प्रावधान स्पष्ट रूप से दर्ज हैं, जिससे शासन में पारदर्शिता बनी रहती है।
3️⃣ संघीय व्यवस्था में एकात्मक झुकाव
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भारत एक संघीय राज्य है, लेकिन इसमें केंद्र को अधिक शक्तियाँ दी गई हैं।
-
उदाहरण:
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एकल नागरिकता
-
आपातकालीन प्रावधानों में केंद्र का वर्चस्व
-
अखिल भारतीय सेवाएँ (IAS, IPS)
-
4️⃣ संसदीय शासन प्रणाली
-
ब्रिटेन की तर्ज़ पर संसदीय लोकतंत्र अपनाया गया।
-
कार्यपालिका, विधायिका के प्रति उत्तरदायी है।
-
प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति जवाबदेह हैं।
5️⃣ धर्मनिरपेक्षता
-
राज्य का कोई अपना धर्म नहीं है।
-
सभी धर्मों को समान दर्जा और संरक्षण।
-
संविधान का अनुच्छेद 25-28 धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है।
6️⃣ मौलिक अधिकार
-
अनुच्छेद 12-35 में नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए गए हैं, जैसे —
-
समानता का अधिकार
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स्वतंत्रता का अधिकार
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शोषण के विरुद्ध अधिकार
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सांस्कृतिक एवं शैक्षिक अधिकार
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संवैधानिक उपचार का अधिकार
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7️⃣ नीति निर्देशक तत्व (DPSP)
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अनुच्छेद 36-51 में राज्य के लिए दिशा-निर्देश, जैसे —
-
समाजवाद, समानता, स्वास्थ्य, शिक्षा
-
गैर-न्यायिक, लेकिन शासन के आदर्श
-
8️⃣ स्वतंत्र न्यायपालिका
-
सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों को संविधान संरक्षक बनाया गया है।
-
न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा का अधिकार।
9️⃣ स्वतंत्र निर्वाचन आयोग
-
चुनाव प्रक्रिया को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए स्वतंत्र संस्था।
🔟 संशोधन की प्रक्रिया
-
संविधान संशोधन में लचीलापन और कठोरता दोनों का मिश्रण है।
-
कुछ प्रावधान साधारण बहुमत से, कुछ विशेष बहुमत से और कुछ विशेष बहुमत + राज्यों की स्वीकृति से संशोधित होते हैं।
🌟 भारतीय संविधान की सकारात्मक विशेषताएँ
✅ लोकतांत्रिक संरचना
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जनता को सत्ता का स्रोत मानता है।
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सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार से सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार।
✅ विविधता में एकता
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अलग-अलग भाषाएँ, धर्म, संस्कृतियों के बावजूद एकता बनाए रखना।
✅ नागरिक अधिकारों की सुरक्षा
-
मौलिक अधिकार, न्यायपालिका और चुनाव आयोग से लोकतंत्र को मजबूती।
✅ लचीली संघीय व्यवस्था
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राज्यों और केंद्र में संतुलन बनाए रखना।
⚖️ आलोचनात्मक मूल्यांकन
❌ संघीय ढाँचे में केंद्र की प्रधानता
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वास्तविक संघीयता के बजाय केंद्रीयकृत संघ।
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आपातकालीन प्रावधानों का दुरुपयोग संभावित।
❌ अत्यधिक लंबा और जटिल
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संविधान की जटिलता आम नागरिक के लिए इसे समझना कठिन बनाती है।
❌ न्यायपालिका पर अत्यधिक बोझ
-
नीतिगत मामलों में न्यायपालिका की दखलंदाजी बढ़ने से राजनीतिक विवाद।
❌ मौलिक अधिकारों में सीमाएँ
-
आपातकाल में अधिकार निलंबित हो सकते हैं (जैसा 1975-77 में हुआ)।
❌ नीति निर्देशक तत्वों का गैर-न्यायिक स्वरूप
-
DPSP लागू न होने पर भी कोई कानूनी कार्रवाई संभव नहीं।
📊 निष्कर्ष
भारतीय संविधान एक संतुलित, समावेशी और गतिशील दस्तावेज है, जिसने स्वतंत्र भारत को एक स्थिर और लोकतांत्रिक दिशा दी है।
हालाँकि, इसमें सुधार की गुंजाइश बनी हुई है — विशेषकर संघीय ढाँचे में राज्यों की स्वायत्तता, न्यायपालिका में सुधार, और प्रशासनिक पारदर्शिता की दिशा में।
अंततः, भारतीय संविधान हमारी लोकतांत्रिक पहचान का आधार स्तंभ है, जो समय के साथ बदलते भारत की आवश्यकताओं के अनुसार खुद को ढालता रहेगा।
प्रश्न 05 आर्थिक नियोजन से आप क्या समझते हैं? भारत जैसे अल्पविकसित राष्ट्र के लिए आर्थिक नियोजन के औचित्य एवं उसकी सफलता की शर्तों पर विस्तृत चर्चा कीजिए।
📜 परिचय: आर्थिक नियोजन की संकल्पना
आर्थिक नियोजन (Economic Planning) वह प्रक्रिया है, जिसमें संसाधनों का सुनियोजित एवं नियंत्रित उपयोग करके देश की आर्थिक, सामाजिक और औद्योगिक प्रगति सुनिश्चित की जाती है।
इसका मुख्य उद्देश्य है —
-
उत्पादन में वृद्धि
-
समान वितरण
-
गरीबी उन्मूलन
-
रोजगार सृजन
भारत में स्वतंत्रता के बाद आर्थिक नियोजन की शुरुआत 1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना से हुई।
📚 आर्थिक नियोजन की परिभाषाएँ
🖋️ डॉ. हररॉड
“आर्थिक नियोजन वह नीति है, जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को एक निश्चित अवधि में निर्धारित लक्ष्यों की ओर अग्रसर किया जाता है।”
🖋️ प्रो. डाल्टन
“नियोजन का अर्थ है – राष्ट्रीय संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करते हुए उत्पादन और वितरण में वांछित परिवर्तन लाना।”
🏗️ भारत में आर्थिक नियोजन की पृष्ठभूमि
-
स्वतंत्रता के समय भारत अत्यंत गरीब, कृषि-प्रधान और पिछड़ा राष्ट्र था।
-
कम प्रति व्यक्ति आय,
-
उच्च बेरोजगारी,
-
कम औद्योगीकरण,
-
गरीबी और अशिक्षा व्यापक थीं।
ऐसे में सुनियोजित विकास की आवश्यकता महसूस हुई।
🛠️ भारत जैसे अल्पविकसित राष्ट्र में आर्थिक नियोजन का औचित्य
1️⃣ संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग
-
अल्पविकसित देशों में संसाधन सीमित होते हैं।
-
नियोजन से उन्हें प्राथमिकताओं के आधार पर इस्तेमाल किया जा सकता है।
2️⃣ तीव्र आर्थिक विकास
-
योजनाबद्ध निवेश और परियोजनाओं से औद्योगिक और कृषि उत्पादन में तेजी।
3️⃣ गरीबी एवं बेरोजगारी उन्मूलन
-
योजनाओं में रोजगार सृजन कार्यक्रम और गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के लिए विशेष योजनाएँ।
4️⃣ असमानताओं में कमी
-
नियोजन से आय और संपत्ति के समान वितरण के प्रयास किए जा सकते हैं।
5️⃣ औद्योगिकीकरण को बढ़ावा
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पूँजी-प्रधान उद्योग, भारी उद्योग और बुनियादी ढाँचे में निवेश।
6️⃣ कृषि और ग्रामीण विकास
-
सिंचाई, खाद, बीज, ग्रामीण सड़कें आदि में योजनाबद्ध सुधार।
7️⃣ सामाजिक विकास
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शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और स्वच्छता में सुधार।
📊 भारत में आर्थिक नियोजन के प्रकार
🏛️ केंद्रीयकृत नियोजन
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केंद्र सरकार द्वारा लक्ष्यों और संसाधनों का निर्धारण।
📍 मिश्रित अर्थव्यवस्था में नियोजन
-
सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों का योगदान।
🗓️ पंचवर्षीय योजनाएँ
-
5 वर्षों के लिए लक्ष्य तय कर योजनाएँ लागू करना।
🌟 भारत में आर्थिक नियोजन की उपलब्धियाँ
📈 आर्थिक वृद्धि
-
1951 से अब तक GDP और औद्योगिक उत्पादन में निरंतर वृद्धि।
🚜 हरित क्रांति
-
कृषि उत्पादन में रिकॉर्ड वृद्धि।
🏭 औद्योगिकीकरण
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इस्पात, ऊर्जा, परिवहन और आईटी क्षेत्र में प्रगति।
🏥 सामाजिक क्षेत्र का विकास
-
शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला सशक्तिकरण में सुधार।
⚖️ आलोचनात्मक दृष्टि से आर्थिक नियोजन
❌ लक्ष्य और उपलब्धियों में अंतर
-
कई बार योजनाएँ पूरी तरह सफल नहीं हुईं।
❌ क्षेत्रीय असमानताएँ
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कुछ राज्यों ने अधिक प्रगति की, जबकि कुछ पीछे रह गए।
❌ नौकरशाही और भ्रष्टाचार
-
योजनाओं का सही क्रियान्वयन बाधित हुआ।
❌ अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि
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योजनाओं के लाभ पर बोझ बढ़ा।
📌 आर्थिक नियोजन की सफलता की शर्तें
1️⃣ स्पष्ट और यथार्थवादी लक्ष्य
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लक्ष्य न तो बहुत अधिक आदर्शवादी हों और न ही बहुत कम महत्वाकांक्षी।
2️⃣ संसाधनों का उचित आवंटन
-
प्राथमिकता के अनुसार निवेश।
3️⃣ जनसंख्या नियंत्रण
-
योजनाओं के लाभ को स्थायी बनाने के लिए जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण।
4️⃣ कुशल प्रशासन
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पारदर्शिता और दक्षता से क्रियान्वयन।
5️⃣ जनभागीदारी
-
लोगों को योजनाओं में शामिल करना।
6️⃣ राजनीतिक स्थिरता
-
योजनाओं की निरंतरता और दीर्घकालीन दृष्टि।
🔍 निष्कर्ष
भारत जैसे अल्पविकसित राष्ट्र के लिए आर्थिक नियोजन आर्थिक विकास की रीढ़ है।
योजनाओं के माध्यम से न केवल आर्थिक वृद्धि, बल्कि सामाजिक न्याय, समानता और अवसरों का विस्तार संभव हुआ है।
हालाँकि, योजनाओं की सफलता के लिए सही क्रियान्वयन, भ्रष्टाचार नियंत्रण और जनभागीदारी अत्यंत आवश्यक है।
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प्रश्न 01 : गांधार कला शैली।
1. प्रस्तावना
गांधार कला शैली भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक अद्वितीय कला परंपरा है, जो विशेष रूप से बौद्ध धर्म के प्रसार और मूर्तिकला के विकास से जुड़ी है। यह शैली ग्रीक, रोमन, फारसी और भारतीय कला के सम्मिश्रण से बनी एक संस्कृति-संपन्न कलात्मक धारा है। इसका विकास मुख्य रूप से गांधार क्षेत्र (वर्तमान पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ भाग) में हुआ। इस कला शैली का उत्कर्ष प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से पाँचवीं शताब्दी ईस्वी के बीच हुआ, विशेष रूप से कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल में।
2. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
गांधार कला शैली का उद्भव मौर्यकाल के पश्चात हुआ, जब यह क्षेत्र विभिन्न आक्रमणों और सांस्कृतिक प्रभावों का केंद्र रहा।
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यूनानी प्रभाव: सिकंदर के आक्रमण (326 ई.पू.) के बाद इस क्षेत्र में ग्रीक संस्कृति का प्रवेश हुआ।
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शकों और पार्थियों का शासन: इनके आगमन से कला में मध्य एशियाई और फारसी प्रभाव मिला।
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कुषाण काल: विशेषकर कनिष्क के शासन में बौद्ध धर्म का प्रसार और मठ-निर्माण के कारण गांधार कला का स्वर्णयुग आया।
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स्थानीय भारतीय प्रभाव: भारतीय धार्मिक प्रतीकों और बौद्ध विचारों का समावेश मूर्तिकला में हुआ।
3. गांधार कला शैली की मुख्य विशेषताएँ
(क) ग्रीको-बौद्ध शैली
गांधार कला को ग्रीको-बौद्ध कला भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें बौद्ध विषयों को ग्रीक-रोमन शैली में मूर्त रूप दिया गया। मूर्तियों में वस्त्रों की सिलवटें, शरीर की आकृति और चेहरे की बनावट में ग्रीक प्रभाव स्पष्ट दिखता है।
(ख) मूर्तिकला का यथार्थवादी स्वरूप
इस शैली में मानव आकृतियों को यथार्थवादी और प्राकृतिक रूप में गढ़ा गया। शरीर की मांसपेशियाँ, चेहरे की भाव-भंगिमाएँ और बालों की लटें बारीकी से उकेरी गईं।
(ग) बुद्ध की मूर्तियाँ
गांधार कला का सबसे बड़ा योगदान बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण है। पहले बौद्ध धर्म में बुद्ध को केवल प्रतीकों (धर्मचक्र, पदचिह्न, बोधिवृक्ष) के माध्यम से दर्शाया जाता था, परंतु गांधार कला में पहली बार बुद्ध को मानव रूप में दर्शाया गया।
(घ) पत्थर और प्लास्टर का उपयोग
गांधार मूर्तियों में प्रायः ग्रे शिस्ट पत्थर (Slate) और स्टुको (Plaster) का प्रयोग किया गया, जिससे सूक्ष्म नक्काशी संभव हुई।
(ङ) धार्मिक विषयवस्तु
गांधार कला की मूर्तियों में मुख्यतः बौद्ध कथाओं, जातक कथाओं, बुद्ध के जीवन-प्रसंगों और बोधिसत्त्व की मूर्तियों का चित्रण मिलता है।
4. गांधार कला शैली में विषय और चित्रण
(क) बुद्ध के जीवन की घटनाएँ
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जन्म, ज्ञान प्राप्ति, धर्मचक्र प्रवर्तन और महापरिनिर्वाण जैसे प्रसंगों को मूर्तियों और राहत चित्रों में दर्शाया गया।
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इन प्रसंगों को नाटकीय और भावपूर्ण रूप में प्रस्तुत किया गया।
(ख) बोधिसत्त्व की मूर्तियाँ
बोधिसत्त्व की मूर्तियाँ अत्यंत अलंकृत और राजसी होती थीं, जिनमें मुकुट, आभूषण और वस्त्रों की बारीकी स्पष्ट होती है।
(ग) जातक कथाएँ
जातक कथाओं के दृश्यों में पशु-पक्षी, ग्रामीण जीवन और लोककथाओं का चित्रण किया गया।
5. गांधार कला में विदेशी प्रभाव
(क) ग्रीक प्रभाव
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मूर्तियों के बाल ग्रीक देवताओं की तरह घुँघराले और तरंगाकार।
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वस्त्रों की सिलवटें ग्रीक शैली की तरह गहरी और प्राकृतिक।
(ख) रोमन प्रभाव
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चेहरे की बनावट में गहरी आँखें और तीखे नाक-नक्श।
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मूर्तियों की आकृति में त्रि-आयामी (Three-Dimensional) प्रभाव।
(ग) फारसी और मध्य एशियाई प्रभाव
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आभूषणों का भारी प्रयोग।
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कुछ मूर्तियों में राजसी पोशाक और अलंकरण।
6. प्रमुख केंद्र
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तक्षशिला: बौद्ध मठों और विश्वविद्यालयों के कारण गांधार कला का प्रमुख केंद्र।
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पेशावर: कुषाण साम्राज्य की राजधानी और कलात्मक गतिविधियों का केंद्र।
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जमालगढ़ी, शाहजी-की-ढेरी, हड्डा: यहाँ उत्कृष्ट बौद्ध मूर्तियाँ और स्तूप अवशेष मिले हैं।
7. गांधार कला का महत्व
(क) बौद्ध धर्म के प्रसार में योगदान
गांधार कला की मूर्तियों ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों और कथाओं को जन-सुलभ बनाया।
(ख) सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक
इस शैली में ग्रीक, रोमन, फारसी और भारतीय कला का अनूठा मेल देखने को मिलता है, जो सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रमाण है।
(ग) मूर्तिकला की उत्कृष्टता
गांधार मूर्तियाँ भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में यथार्थवाद, अनुपात और सौंदर्य के उच्चतम मानकों को दर्शाती हैं।
8. पतन के कारण
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5वीं शताब्दी में हूणों के आक्रमण से गांधार क्षेत्र का विनाश हुआ।
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बौद्ध धर्म के ह्रास के साथ-साथ यह कला शैली भी लुप्त हो गई।
9. निष्कर्ष
गांधार कला शैली भारतीय कला इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है, जिसमें विभिन्न सभ्यताओं की कलात्मक विशेषताओं का अद्भुत समन्वय हुआ। यह शैली न केवल बौद्ध धर्म की भावना को मूर्त रूप में प्रस्तुत करती है, बल्कि यह सांस्कृतिक एकता और सौंदर्य-बोध का भी प्रतीक है। आज भी विश्व के विभिन्न संग्रहालयों में संरक्षित गांधार मूर्तियाँ हमें इस महान कला परंपरा की उत्कृष्टता का परिचय कराती हैं।
प्रश्न 02 भारतीय संस्कृति में उपस्थित प्रमुख भाषागत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए
🪷 परिचय: भारत की भाषाई विविधता का स्वरूप
भारत एक भाषाई महाद्वीप के समान है, जहाँ विविधता में एकता की अद्भुत मिसाल देखने को मिलती है। यहाँ सैकड़ों भाषाएँ, बोलियाँ और उपभाषाएँ प्रचलित हैं, जो न केवल संवाद का माध्यम हैं बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा भी हैं।
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में वर्तमान में 22 भाषाएँ मान्यता प्राप्त हैं, जबकि जनगणना 2011 के अनुसार भारत में 121 प्रमुख भाषाएँ और 270 से अधिक बोलियाँ पाई जाती हैं।
📜 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: भाषाओं का विकास
भारतीय भाषाओं का विकास विभिन्न ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं से हुआ है।
🏛️ प्राचीन काल
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संस्कृत: वैदिक और शास्त्रीय साहित्य की भाषा, जिसने भारतीय दर्शन, विज्ञान और धर्म के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई।
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पाली और प्राकृत: बौद्ध और जैन साहित्य के माध्यम से जनभाषाओं के रूप में उभरीं।
⚔️ मध्यकाल
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फ़ारसी और अरबी प्रभाव से नई भाषाओं का विकास हुआ, जैसे — उर्दू।
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भक्ति और सूफी आंदोलनों ने क्षेत्रीय भाषाओं को समृद्ध किया।
🏢 आधुनिक काल
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अंग्रेज़ी का प्रवेश प्रशासन, शिक्षा और विज्ञान में हुआ।
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हिंदी, बंगाली, तमिल, मराठी, तेलुगु जैसी भाषाओं ने साहित्य और पत्रकारिता में नया आयाम जोड़ा।
🗺️ भारतीय भाषाओं का भौगोलिक वितरण
🏞️ आर्य भाषा परिवार (Indo-Aryan)
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हिंदी, बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, असमिया, कश्मीरी आदि।
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देश के उत्तर, पश्चिम और पूर्वी भाग में प्रमुख।
🌴 द्रविड़ भाषा परिवार (Dravidian)
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तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम।
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दक्षिण भारत में प्रमुख।
🌿 ऑस्ट्रिक (Austro-Asiatic) और तिब्बती-बर्मन भाषाएँ
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संथाली, खासी, बोडो, नागा भाषाएँ आदि।
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पूर्वोत्तर और आदिवासी क्षेत्रों में बोली जाती हैं।
🌟 भारतीय भाषाओं की प्रमुख विशेषताएँ
1️⃣ भाषाई विविधता और समृद्धि
भारत में भाषाओं की संख्या, उनके शब्द-भंडार और अभिव्यक्ति की शैली अत्यंत समृद्ध है। यह विविधता भारतीय संस्कृति की गहराई को दर्शाती है।
2️⃣ बहुभाषिकता की परंपरा
एक ही व्यक्ति प्रायः दो या तीन भाषाएँ जानता है — अपनी मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा और संपर्क भाषा (जैसे हिंदी या अंग्रेज़ी)।
3️⃣ लिपियों की विविधता
भारत में विभिन्न लिपियाँ प्रयोग होती हैं — देवनागरी, बंगला, गुरुमुखी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, उर्दू आदि।
4️⃣ शब्द-संपन्नता और सांस्कृतिक गहराई
भारतीय भाषाएँ केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं और भावनाओं की संवाहक हैं।
5️⃣ परस्पर प्रभाव और उधार शब्द
भारतीय भाषाओं ने एक-दूसरे से और विदेशी भाषाओं (फ़ारसी, अरबी, अंग्रेज़ी, पुर्तगाली) से शब्द अपनाए हैं।
📚 साहित्य और भाषा का सांस्कृतिक योगदान
📖 धार्मिक और दार्शनिक साहित्य
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वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, गीता — संस्कृत में रचित।
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बौद्ध त्रिपिटक — पाली में।
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जैन आगम — प्राकृत में।
🎭 क्षेत्रीय साहित्य
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तमिल में संगम साहित्य।
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बंगाली में टैगोर की कृतियाँ।
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हिंदी में तुलसीदास, कबीर और प्रेमचंद।
🌏 भाषाओं में एकता के सूत्र
🔗 सांस्कृतिक आदान-प्रदान
भाषाओं ने भारतीय संस्कृति में एकता का सूत्र पिरोया है। त्योहार, लोकगीत, कहावतें और मुहावरे विभिन्न भाषाओं में समान सांस्कृतिक भाव रखते हैं।
🗣️ राष्ट्रीय भाषा और संपर्क भाषा
हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है, जबकि अंग्रेज़ी सहायक राजभाषा है।
⚖️ चुनौतियाँ और संरक्षण की आवश्यकता
❌ भाषाई असमानता
कुछ भाषाएँ आर्थिक और शैक्षिक कारणों से प्रमुख हो गई हैं, जबकि कई बोलियाँ लुप्त होने के कगार पर हैं।
❌ वैश्वीकरण का प्रभाव
अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं के बढ़ते प्रभाव से मातृभाषाओं का प्रयोग कम हो रहा है।
🛡️ संरक्षण के उपाय
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मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा।
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क्षेत्रीय साहित्य का प्रोत्साहन।
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विलुप्तप्राय भाषाओं के लिए सरकारी और सामाजिक पहल।
🏆 निष्कर्ष
भारतीय संस्कृति की भाषाई विशेषताएँ इसकी आत्मा और पहचान हैं। विविधता, बहुभाषिकता, लिपियों की भिन्नता और साहित्यिक समृद्धि भारत को विश्व में अद्वितीय बनाती हैं। भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि यह हमारे इतिहास, परंपरा, विचार और भावनाओं की जीवंत धारा है।
इसलिए भाषाओं का संरक्षण और संवर्धन न केवल सांस्कृतिक दायित्व है, बल्कि राष्ट्रीय एकता का आधार भी है।
प्रश्न 03 प्राचीन भारतीय समाज में जातिप्रथा के स्वरूप पर चर्चा कीजिए।
🪷 परिचय: भारतीय समाज की विशेष संरचना
भारतीय समाज का सबसे महत्वपूर्ण और विशिष्ट अंग जाति व्यवस्था (Caste System) रही है। यह एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था थी, जिसमें लोगों का वर्गीकरण जन्म के आधार पर किया जाता था। जातिप्रथा ने प्राचीन भारत के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक ढाँचे को गहराई से प्रभावित किया। यद्यपि इसका स्वरूप समय के साथ बदलता गया, परंतु इसके मूल तत्व प्राचीन काल में ही स्थापित हो गए थे।
📜 जातिप्रथा की उत्पत्ति: ऐतिहासिक दृष्टि
🏛️ वैदिक काल
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ऋग्वैदिक समाज में वर्गीकरण पेशे के आधार पर था, जिसे वर्ण व्यवस्था कहा गया।
-
चार वर्ण — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
-
प्रारंभिक काल में यह व्यवस्था लचीली थी और व्यवसाय परिवर्तन संभव था।
📖 उत्तर वैदिक काल
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वर्ण व्यवस्था कठोर हुई और जन्म आधारित होने लगी।
-
पुरुष सूक्त में चार वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है।
⚔️ उत्तर वैदिक के बाद
-
विदेशी आक्रमणों, आर्थिक विकास और धार्मिक परिवर्तनों के कारण जातियों (जाती) की संख्या बढ़ी।
-
विभिन्न पेशों और क्षेत्रों के आधार पर उपजातियों का गठन हुआ।
🌟 जातिप्रथा की मुख्य विशेषताएँ
1️⃣ जन्म आधारित सदस्यता
जाति का निर्धारण व्यक्ति के जन्म से होता था, इसे बदला नहीं जा सकता था।
2️⃣ व्यवसाय का निर्धारण
हर जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता था — जैसे ब्राह्मण का शिक्षण और यज्ञ, क्षत्रिय का शासन और युद्ध, वैश्य का व्यापार और कृषि, शूद्र का सेवा कार्य।
3️⃣ सामाजिक प्रतिबंध
जातियों के बीच विवाह, भोजन और सामाजिक मेलजोल पर कठोर नियम थे।
4️⃣ श्रेणीबद्धता
ब्राह्मण शीर्ष पर, फिर क्षत्रिय, वैश्य और सबसे नीचे शूद्र।
5️⃣ धार्मिक औचित्य
धर्मग्रंथों और स्मृतियों में जातिप्रथा को दिव्य व्यवस्था माना गया, जिससे इसे धार्मिक वैधता मिली।
🗺️ जातिप्रथा का सामाजिक प्रभाव
📖 सकारात्मक पक्ष
-
समाज में कार्य विभाजन से विशेषीकरण संभव हुआ।
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धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का संरक्षण हुआ।
⚠️ नकारात्मक पक्ष
-
सामाजिक असमानता और भेदभाव को बढ़ावा मिला।
-
निम्न जातियों का शोषण और अवसरों से वंचित किया गया।
🛕 धर्म और जातिप्रथा
🕉️ ब्राह्मणों की भूमिका
ब्राह्मणों ने धर्मग्रंथों, यज्ञ और शिक्षा प्रणाली को नियंत्रित कर जातिप्रथा को स्थायी बनाया।
🪔 धार्मिक ग्रंथों का प्रभाव
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मनुस्मृति ने जातियों के कर्तव्यों और अधिकारों का विस्तार से वर्णन किया।
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उपनिषद और महाकाव्यों में जाति के आधार पर जीवन-व्यवस्था की चर्चा हुई।
⚖️ जातिप्रथा में परिवर्तन के कारण
📜 बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव
इन धर्मों ने जाति आधारित भेदभाव का विरोध किया और कर्म व नैतिकता को प्रधानता दी।
🌏 विदेशी आक्रमण और सांस्कृतिक मिश्रण
शकों, कुषाणों और हूणों के आगमन से समाज में नये वर्ग बने और जातिप्रथा में बदलाव आया।
🏭 आर्थिक विकास
नये पेशों और उद्योगों के कारण पेशा-आधारित नयी जातियाँ बनीं।
📚 साहित्य और जातिप्रथा का चित्रण
🕉️ वैदिक और उत्तरवैदिक साहित्य
जातिप्रथा को धार्मिक आधार और पवित्रता दी गई।
📖 महाकाव्य (रामायण, महाभारत)
इनमें वर्ण-धर्म और जाति-व्यवस्था का वर्णन, साथ ही अपवाद और सामाजिक लचीलेपन के उदाहरण भी मिलते हैं।
🪷 बौद्ध और जैन साहित्य
जातिप्रथा के कठोर पक्षों की आलोचना और समानता की वकालत।
🛡️ प्राचीन काल में जातिप्रथा की स्थायित्व के कारण
1️⃣ धार्मिक समर्थन
धर्मग्रंथों द्वारा जातिप्रथा को ईश्वर प्रदत्त माना गया।
2️⃣ सामाजिक अनुशासन
निश्चित कर्तव्यों और जिम्मेदारियों से सामाजिक व्यवस्था स्थिर रही।
3️⃣ आर्थिक हित
जातियों के पेशागत निर्धारण से उत्पादन और व्यापार का संचालन नियंत्रित रहा।
🔍 आलोचनात्मक दृष्टिकोण
👍 सकारात्मक मूल्यांकन
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कार्य विभाजन से सामाजिक कार्य कुशलता में वृद्धि।
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परंपराओं और सांस्कृतिक पहचान का संरक्षण।
👎 नकारात्मक मूल्यांकन
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असमानता, भेदभाव और अवसरों की कमी।
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निम्न जातियों के साथ अमानवीय व्यवहार।
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सामाजिक गतिशीलता पर रोक।
🏆 निष्कर्ष
प्राचीन भारतीय समाज की जातिप्रथा उस समय की सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण हिस्सा थी, जिसने सदियों तक भारतीय जीवन को प्रभावित किया। हालांकि प्रारंभिक काल में यह व्यवस्था लचीली और कार्य-आधारित थी, लेकिन बाद में कठोर और जन्म-आधारित हो गई, जिससे सामाजिक असमानता बढ़ी।
आज के लोकतांत्रिक भारत में जातिप्रथा का नकारात्मक स्वरूप संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है, परंतु इसका ऐतिहासिक अध्ययन हमें भारतीय समाज की जड़ों और उसके विकास की समझ देता है।
प्रश्न 04 भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका एवं महत्व को स्पष्ट कीजिए।
🌾 परिचय: भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ
भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहाँ कृषि केवल भोजन उत्पादन का साधन नहीं बल्कि करोड़ों लोगों की आजीविका का प्रमुख स्रोत है। प्राचीन काल से लेकर आज तक कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही है।
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जनगणना 2011 के अनुसार, लगभग 54% कार्यबल कृषि और इससे संबंधित गतिविधियों में संलग्न है।
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कृषि का योगदान केवल GDP तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उद्योग, व्यापार, निर्यात और सामाजिक स्थिरता का भी आधार है।
📜 ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: कृषि का विकास
कृषि की जड़ें भारतीय सभ्यता के आरंभिक चरण में मिलती हैं।
🏛️ प्राचीन काल
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सिंधु घाटी सभ्यता में सिंचाई, भंडारण और फसल चक्र का ज्ञान था।
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वैदिक युग में कृषि को पवित्र कर्म माना गया।
⚔️ मध्यकाल
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खेती में पारंपरिक उपकरण और बैल-आधारित प्रणाली का प्रयोग।
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मुगल काल में बागवानी और सिंचाई के उन्नत साधनों का विकास।
🏭 औपनिवेशिक काल
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नकदी फसलों (कपास, जूट, चाय) का उत्पादन बढ़ा, परंतु किसानों का शोषण भी हुआ।
🌏 स्वतंत्रता के बाद
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हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, नीली क्रांति जैसी योजनाओं ने उत्पादन में वृद्धि की।
🌟 भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की प्रमुख भूमिकाएँ
1️⃣ रोजगार का प्रमुख स्रोत
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ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियाँ (पशुपालन, मत्स्य पालन, वानिकी) लाखों लोगों को रोजगार देती हैं।
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अनौपचारिक क्षेत्र में भी कृषि की भूमिका महत्वपूर्ण है।
2️⃣ खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना
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देश की बढ़ती जनसंख्या को पोषणयुक्त भोजन उपलब्ध कराने में कृषि की मुख्य भूमिका है।
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चावल, गेहूँ, दालें, तिलहन, फल-सब्जियाँ आदि घरेलू उपभोग के साथ-साथ निर्यात के लिए भी उत्पादित होते हैं।
3️⃣ औद्योगिक कच्चा माल उपलब्ध कराना
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कपड़ा उद्योग के लिए कपास, गुड़ उद्योग के लिए गन्ना, खाद्य प्रसंस्करण के लिए फल-सब्जियाँ।
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जूट, चाय, कॉफी जैसे उत्पाद निर्यात में सहायक।
4️⃣ राष्ट्रीय आय में योगदान
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1950-51 में कृषि का GDP में योगदान लगभग 51% था, जो अब घटकर लगभग 18% (2023-24) है, लेकिन इसका महत्व बरकरार है।
5️⃣ निर्यात और विदेशी मुद्रा अर्जन
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चाय, कॉफी, मसाले, चावल, तंबाकू, कपास जैसे उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत को पहचान दिलाते हैं।
6️⃣ बाजार की मांग को बनाए रखना
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कृषि से होने वाली आय ग्रामीण उपभोक्ता बाजार को सक्रिय रखती है।
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उद्योगों के उत्पादों (ट्रैक्टर, खाद, कपड़े, उपभोक्ता वस्तुएँ) की मांग का बड़ा हिस्सा कृषि क्षेत्र से आता है।
🌱 कृषि और ग्रामीण विकास
🏡 ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार
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गाँवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली जैसी सुविधाओं के विकास में कृषि से प्राप्त आय सहायक होती है।
🐄 सहायक गतिविधियाँ
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पशुपालन, डेयरी, पोल्ट्री और मछली पालन से किसानों की आय में वृद्धि होती है।
🛠️ कृषि का औद्योगिक विकास में योगदान
🧵 कृषि-आधारित उद्योग
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कपड़ा, जूट, चीनी, खाद्य प्रसंस्करण, वन आधारित उद्योग।
🔗 अग्र और पश्च संपर्क (Forward & Backward Linkages)
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कृषि और उद्योग एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
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उर्वरक, मशीनरी, बीज उद्योग कृषि के लिए काम करते हैं; वहीं कृषि उद्योग को कच्चा माल देता है।
⚖️ कृषि क्षेत्र की चुनौतियाँ
❌ भूमि का विखंडन
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छोटी और असमान आकार की जोतों से उत्पादन क्षमता घटती है।
❌ प्राकृतिक निर्भरता
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मानसून पर अत्यधिक निर्भरता और जलवायु परिवर्तन के कारण अस्थिर उत्पादन।
❌ तकनीकी पिछड़ापन
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पारंपरिक उपकरण, अपर्याप्त सिंचाई, गुणवत्ताहीन बीज।
❌ विपणन समस्याएँ
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बिचौलियों का हस्तक्षेप, भंडारण सुविधाओं की कमी, अस्थिर कीमतें।
🛡️ कृषि के सुधार हेतु उपाय
🌊 सिंचाई सुविधाओं का विस्तार
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नहर, ट्यूबवेल, ड्रिप और स्प्रिंकलर सिस्टम का उपयोग बढ़ाना।
🔬 आधुनिक तकनीक का प्रयोग
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उच्च गुणवत्ता वाले बीज, जैविक खेती, फसल चक्र।
📦 विपणन सुधार
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ई-नाम (National Agricultural Market) और प्रत्यक्ष बिक्री के माध्यम से बिचौलियों की भूमिका घटाना।
🏛️ सरकारी नीतियाँ
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न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), फसल बीमा, ग्रामीण विकास योजनाएँ।
🏆 निष्कर्ष
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्व आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से अत्यंत व्यापक है।
भले ही औद्योगीकरण और सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी GDP में बढ़ी है, लेकिन कृषि का स्थान आज भी अप्रतिस्थापनीय है।
यदि कृषि क्षेत्र को तकनीकी, आर्थिक और नीतिगत सहयोग दिया जाए, तो यह न केवल किसानों की समृद्धि सुनिश्चित करेगा बल्कि पूरे देश की आर्थिक स्थिरता और खाद्य सुरक्षा का मजबूत आधार बनेगा।
प्रश्न 05 मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम।
🪷 परिचय: 1909 का ऐतिहासिक अधिनियम
मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम, जिसे भारत शासन अधिनियम 1909 (Indian Councils Act 1909) भी कहा जाता है, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में प्रशासनिक सुधार के उद्देश्य से पारित किया गया था। इसे उस समय के भारत के वायसराय लॉर्ड मिंटो और ब्रिटिश सचिव जॉन मोर्ले के नाम पर जाना जाता है।
इस अधिनियम ने भारतीयों को प्रशासन में सीमित भागीदारी का अवसर दिया, लेकिन इसके साथ ही सांप्रदायिक आधार पर राजनीति की नींव भी रखी, जिसने बाद में भारतीय राजनीति को गहराई से प्रभावित किया।
📜 पृष्ठभूमि और कारण
⚔️ बंगाल विभाजन (1905) का प्रभाव
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बंगाल विभाजन से देशभर में असंतोष फैला और स्वदेशी आंदोलन तेज हुआ।
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ब्रिटिश सरकार ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए सुधारों का वादा किया।
📢 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मांग
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कांग्रेस लगातार विधान परिषदों में अधिक प्रतिनिधित्व और प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी की मांग कर रही थी।
🌏 ब्रिटेन की उदारवादी सरकार का प्रभाव
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उस समय ब्रिटेन में लिबरल पार्टी की सरकार थी, जो उपनिवेशों में सुधारों के पक्ष में थी।
🕌 मुस्लिम लीग का गठन (1906)
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मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की, जिसे ब्रिटिश सरकार ने राजनीतिक रूप से अवसर के रूप में देखा।
🏛️ मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
1️⃣ विधान परिषदों का विस्तार
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केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई।
-
केंद्रीय विधान परिषद में 60 तक सदस्य हो सकते थे।
2️⃣ विधायी अधिकारों में वृद्धि
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परिषदों को बजट पर चर्चा और प्रस्ताव रखने का अधिकार दिया गया।
-
वे सरकार से प्रश्न पूछ सकते थे और प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते थे, हालांकि निर्णय लेने की शक्ति सीमित थी।
3️⃣ निर्वाचित सदस्यों का प्रावधान
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पहली बार निर्वाचित सदस्यों का प्रावधान किया गया, लेकिन चुनाव प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष थे।
4️⃣ सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व
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मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल (Separate Electorate) की व्यवस्था की गई।
-
इसका अर्थ था कि मुस्लिम मतदाता केवल मुस्लिम उम्मीदवार को वोट देंगे।
5️⃣ भारतीयों की नियुक्ति
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केंद्रीय कार्यकारिणी परिषद में सर सत्येन्द्र प्रसाद सिन्हा को कानून सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया, जो पहली बार किसी भारतीय की नियुक्ति थी।
🌟 अधिनियम की विशेषताएँ
🧩 सीमित राजनीतिक सुधार
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भारतीयों की भागीदारी बढ़ाई गई, लेकिन वास्तविक शक्ति ब्रिटिश अधिकारियों के पास रही।
🕌 सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत
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अलग निर्वाचक मंडल ने हिंदू-मुस्लिम विभाजन को संस्थागत रूप दिया।
📈 प्रशासनिक ढांचे में बदलाव
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केंद्रीय और प्रांतीय परिषदों में प्रतिनिधियों की संख्या में वृद्धि से राजनीतिक बहस का दायरा बढ़ा।
⚖️ मार्ले-मिन्टो सुधारों का महत्व
📜 संवैधानिक विकास में योगदान
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यह अधिनियम 1861 और 1892 के भारतीय परिषद अधिनियमों के बाद अगला बड़ा कदम था।
🗣️ राजनीतिक जागरूकता का विस्तार
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भारतीयों को पहली बार सीमित रूप से बजट और नीतियों पर बहस का अवसर मिला।
🏛️ भविष्य के सुधारों की नींव
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1919 के मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार और 1935 के अधिनियम के लिए आधार तैयार किया।
❌ अधिनियम की सीमाएँ
🔒 शक्तियों की सीमितता
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भारतीय सदस्य केवल चर्चा कर सकते थे, निर्णय लेने का अधिकार नहीं था।
🕌 सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा
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अलग निर्वाचक मंडल ने आने वाले दशकों में सांप्रदायिक राजनीति को गहरा किया।
🗳️ सीमित मताधिकार
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मताधिकार केवल संपत्ति, शिक्षा और आय पर आधारित था, जिससे जनसंख्या का बहुत छोटा हिस्सा ही वोट दे सकता था।
🎭 सुधारों का दिखावा
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वास्तविक सत्ता ब्रिटिश हुकूमत के पास रही, सुधार केवल असंतोष को शांत करने का साधन थे।
🔍 आलोचनात्मक मूल्यांकन
👍 सकारात्मक पक्ष
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भारतीयों की परिषदों में संख्या और सहभागिता बढ़ी।
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प्रशासनिक चर्चाओं में भारतीय दृष्टिकोण प्रस्तुत होने लगा।
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राजनीतिक प्रशिक्षण का अवसर मिला, जिससे भविष्य के नेताओं को अनुभव प्राप्त हुआ।
👎 नकारात्मक पक्ष
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सांप्रदायिक राजनीति की संस्थागत शुरुआत।
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जनसामान्य के लिए राजनीति में भागीदारी का अवसर बहुत सीमित।
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स्वशासन की वास्तविक मांग की अनदेखी।
🏆 निष्कर्ष
मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम 1909 भारतीय संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण लेकिन विवादास्पद पड़ाव है।
इसने भारतीयों को शासन में भागीदारी का सीमित अवसर दिया, लेकिन साथ ही सांप्रदायिक आधार पर राजनीति की शुरुआत कर दी, जिसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता संग्राम में विभाजनकारी प्रवृत्तियों को बल मिला।
यद्यपि इसे ब्रिटिश सरकार ने राजनीतिक सुधार के रूप में प्रस्तुत किया, परंतु भारतीय नेताओं ने इसे अपर्याप्त और विभाजनकारी माना।
यह अधिनियम इतिहास में "Divide and Rule" की नीति का प्रतीक बनकर दर्ज है।
प्रश्न 06 भारत में कन्या भ्रूणहत्या के प्रचलन पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
🌸 परिचय: समाज पर एक काला धब्बा
कन्या भ्रूणहत्या (Female Foeticide) एक गंभीर सामाजिक अपराध है, जिसमें लिंग निर्धारण के बाद गर्भ में ही कन्या शिशु की हत्या कर दी जाती है। यह प्रथा आधुनिक विज्ञान की प्रगति का दुरुपयोग और लिंग आधारित भेदभाव का चरम रूप है।
भारत जैसे देश में, जहाँ नारी को देवी का स्वरूप माना जाता है, वहाँ भ्रूण में कन्या की हत्या एक विरोधाभासी और दुखद स्थिति को दर्शाती है।
📜 ऐतिहासिक और सामाजिक पृष्ठभूमि
🏛️ ऐतिहासिक संदर्भ
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प्राचीन भारत में कन्याओं का सम्मान किया जाता था, लेकिन मध्यकाल में दहेज प्रथा और सामाजिक असुरक्षा ने कन्या के जन्म को बोझ समझने की प्रवृत्ति को जन्म दिया।
👪 सामाजिक सोच
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पितृसत्तात्मक मानसिकता और यह धारणा कि पुत्र वंश को आगे बढ़ाएगा और बुजुर्गों का सहारा बनेगा, कन्या के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण का आधार बनी।
🔍 कन्या भ्रूणहत्या के प्रमुख कारण
💰 दहेज प्रथा
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विवाह के समय भारी दहेज देने की मजबूरी ने कन्या को आर्थिक बोझ के रूप में देखने की मानसिकता को मजबूत किया।
🏡 पितृसत्तात्मक समाज
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परिवारों में पुत्र को "वृद्धावस्था का सहारा" और "वंश परंपरा का वाहक" माना जाता है।
⚖️ संपत्ति के अधिकार में भेदभाव
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कुछ राज्यों में कन्याओं को भूमि और संपत्ति में हिस्सेदारी न देने की प्रवृत्ति।
🩺 चिकित्सा तकनीक का दुरुपयोग
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अल्ट्रासाउंड और अम्नियोसेंटेसिस जैसे परीक्षणों का प्रयोग लिंग चयन के लिए किया जाने लगा।
📉 सामाजिक असुरक्षा
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महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध और असुरक्षा ने भी परिवारों को पुत्र को प्राथमिकता देने की मानसिकता में ढाल दिया।
📊 वर्तमान परिदृश्य: आँकड़े और तथ्य
📌 राष्ट्रीय स्तर पर
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जनगणना 2011 के अनुसार 0-6 आयु वर्ग में लिंगानुपात 919 कन्याएँ प्रति 1000 बालक था, जो प्राकृतिक संतुलन से बहुत कम है।
📌 राज्यों में स्थिति
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हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में कन्या भ्रूणहत्या के मामले अधिक देखे गए हैं।
⚠️ कन्या भ्रूणहत्या के दुष्परिणाम
📉 लिंगानुपात में असंतुलन
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पुरुषों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि, जिससे वैवाहिक असंतुलन पैदा हुआ।
💔 सामाजिक अपराधों में वृद्धि
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महिला तस्करी, बहुपत्नी प्रथा, और विवाह के लिए महिलाओं की खरीद-फरोख्त जैसे अपराध बढ़े।
🧬 नैतिक पतन
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विज्ञान और तकनीक के दुरुपयोग ने समाज की नैतिकता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया।
🏚️ पारिवारिक अस्थिरता
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विवाह के लिए महिलाओं की कमी से सामाजिक संरचना पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
🛡️ रोकथाम के लिए कानूनी उपाय
📜 प्री-कॉन्सेप्शन और प्री-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक्स एक्ट (PCPNDT), 1994
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गर्भ में लिंग निर्धारण और भ्रूणहत्या को दंडनीय अपराध घोषित किया।
🏛️ भारतीय दंड संहिता (IPC)
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धारा 312 से 316 के तहत भ्रूणहत्या के लिए कड़ी सजा का प्रावधान।
👩⚖️ सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
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लिंग चयन रोकने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को निगरानी तंत्र मजबूत करने के आदेश।
🌱 सामाजिक और शैक्षिक उपाय
🎓 शिक्षा का प्रसार
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लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा बढ़ाने से आत्मनिर्भरता और समानता की भावना का विकास।
📢 जनजागरण अभियान
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"बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" जैसी योजनाएँ।
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ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जागरूकता शिविर।
🏅 नारी सशक्तिकरण कार्यक्रम
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स्व-रोज़गार योजनाएँ, महिला सुरक्षा कानून, और महिला आरक्षण नीतियाँ।
💡 मीडिया और NGO की भूमिका
📰 मीडिया
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टीवी, रेडियो, सोशल मीडिया पर जागरूकता संदेश और सफल महिला प्रेरणा कहानियाँ।
🤝 NGO
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ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के अधिकारों और भ्रूणहत्या के कानूनी पहलुओं पर काम करने वाले संगठन।
🏆 निष्कर्ष
कन्या भ्रूणहत्या न केवल एक सामाजिक बुराई है, बल्कि यह मानवता के खिलाफ अपराध भी है।
जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक केवल कानून और अभियानों से यह समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं होगी।
हमें यह समझना होगा कि कन्या और पुत्र में कोई भेदभाव नहीं है, और संतुलित लिंगानुपात ही स्वस्थ और प्रगतिशील समाज की पहचान है।
"बेटी बचाओ" केवल एक नारा नहीं, बल्कि इसे जीवन का मूलमंत्र बनाना होगा।
प्रश्न 07 भारत में आतंकवाद की समस्या।
💣 परिचय: राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती
आतंकवाद (Terrorism) एक ऐसा हिंसक और संगठित अपराध है, जिसका उद्देश्य भय और असुरक्षा का वातावरण पैदा करना तथा राजनीतिक, धार्मिक या वैचारिक उद्देश्यों को बलपूर्वक थोपना होता है।
भारत जैसे विविधता-भरे और विशाल देश में आतंकवाद एक लंबे समय से जारी गंभीर समस्या है, जो न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता को भी प्रभावित करती है।
📜 भारत में आतंकवाद का संक्षिप्त इतिहास
🏛️ स्वतंत्रता के बाद का दौर
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1950-60 के दशक में कुछ अलगाववादी आंदोलनों ने हिंसक रूप लिया।
⚔️ 1980 का पंजाब आतंकवाद
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खालिस्तान आंदोलन के नाम पर पंजाब में चरमपंथी हिंसा और हत्याएँ।
🕌 कश्मीर में आतंकवाद
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1989 से जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का तीव्र रूप, जिसमें हजारों निर्दोष नागरिक और सैनिक मारे गए।
💥 नक्सलवाद
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माओवादी विचारधारा से प्रेरित नक्सली हिंसा, जो मध्य और पूर्वी भारत में सक्रिय है।
🌏 वैश्विक आतंकवाद का प्रभाव
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26/11 मुंबई हमलों (2008) जैसे अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घटनाओं का भारतीय भूमि पर होना।
🗂️ भारत में आतंकवाद के प्रकार
🕌 धार्मिक/सांप्रदायिक आतंकवाद
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धार्मिक आधार पर हिंसा फैलाना, जैसे — लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद जैसी संगठन।
🏴 अलगाववादी आतंकवाद
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किसी क्षेत्र को देश से अलग करने की हिंसक मांग, जैसे — खालिस्तान आंदोलन, उत्तर-पूर्व के विद्रोही गुट।
🔴 वामपंथी चरमपंथ
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माओवादी/नक्सली आंदोलन, जो "शोषित वर्ग के अधिकार" के नाम पर हिंसक विद्रोह करता है।
🌐 अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद
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विदेशी आतंकवादी संगठन और ISI जैसी एजेंसियों की भारत में सक्रियता।
🔍 आतंकवाद के प्रमुख कारण
1️⃣ राजनीतिक कारण
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सीमावर्ती क्षेत्रों में अलगाववादी राजनीति।
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पड़ोसी देशों द्वारा प्रायोजित हिंसा।
2️⃣ सामाजिक कारण
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धार्मिक कट्टरवाद, जातीय संघर्ष, और क्षेत्रीय असमानताएँ।
3️⃣ आर्थिक कारण
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गरीबी, बेरोजगारी और पिछड़े क्षेत्रों में विकास की कमी।
4️⃣ अंतरराष्ट्रीय कारण
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वैश्विक स्तर पर आतंकी नेटवर्क, हथियार और धन की सप्लाई।
5️⃣ तकनीकी कारण
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इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से युवाओं का ब्रेनवॉश और भर्ती।
📉 आतंकवाद के दुष्परिणाम
🏚️ राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा
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सैनिकों और आम नागरिकों की जान का नुकसान, सीमा क्षेत्रों में अस्थिरता।
📉 आर्थिक नुकसान
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पर्यटन, व्यापार और निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव।
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बुनियादी ढांचे का विनाश।
💔 सामाजिक विघटन
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सांप्रदायिक तनाव, जातीय संघर्ष और भय का माहौल।
🧠 मानसिक प्रभाव
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आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में लोगों में Post-Traumatic Stress Disorder (PTSD) और अवसाद की वृद्धि।
🛡️ आतंकवाद रोकने के कानूनी उपाय
📜 आतंकवाद निरोधक कानून
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Unlawful Activities (Prevention) Act – UAPA
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Terrorist and Disruptive Activities (Prevention) Act – TADA (अब समाप्त)
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Prevention of Terrorism Act – POTA (अब समाप्त)
👮 विशेष एजेंसियाँ
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राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA)
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राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (NSG)
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RAW और IB जैसी खुफिया एजेंसियाँ।
📡 तकनीकी सुरक्षा
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निगरानी ड्रोन, साइबर मॉनिटरिंग, और आधुनिक हथियारों का उपयोग।
🌱 सामाजिक और कूटनीतिक उपाय
🤝 सामुदायिक एकता
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विभिन्न धर्मों और जातियों के बीच संवाद और विश्वास बढ़ाना।
📢 शिक्षा और जागरूकता
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युवाओं को कट्टरपंथी विचारधारा से बचाने के लिए शिक्षा और रोजगार के अवसर।
🌏 अंतरराष्ट्रीय सहयोग
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आतंकवाद विरोधी अभियानों में अन्य देशों के साथ खुफिया जानकारी का आदान-प्रदान।
🕌 धार्मिक नेताओं की भूमिका
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कट्टरवाद के खिलाफ स्पष्ट बयान और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का संदेश।
🔍 केस स्टडी: 26/11 मुंबई हमला
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26 नवंबर 2008 को पाकिस्तान से आए आतंकवादियों ने मुंबई में हमला किया।
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170 से अधिक लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए।
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इस घटना ने भारत की सुरक्षा नीतियों में बड़े बदलाव लाए, जैसे — NIA की स्थापना और तटीय सुरक्षा में सुधार।
🏆 निष्कर्ष
भारत में आतंकवाद केवल एक कानूनी या सैन्य चुनौती नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय समस्या भी है।
इसे समाप्त करने के लिए केवल हथियार और कानून पर्याप्त नहीं, बल्कि शिक्षा, रोजगार, सामाजिक एकता और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की भी आवश्यकता है।
यदि हम सभी नागरिक एकजुट होकर आतंकवाद के खिलाफ खड़े हों, तो यह समस्या धीरे-धीरे समाप्त की जा सकती है।
"एकजुट भारत – आतंकवाद मुक्त भारत" यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
प्रश्न 08 स्वतंत्र भारत में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालिए
🌸 परिचय: परिवर्तन की ओर बढ़ते कदम
स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) के बाद भारत ने महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए अनेक संवैधानिक, कानूनी और सामाजिक कदम उठाए।
जहाँ एक ओर महिलाओं को समान अधिकार, शिक्षा और रोजगार के अवसर मिले, वहीं दूसरी ओर सामाजिक मानसिकता और पारंपरिक पितृसत्तात्मक ढाँचा अभी भी चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है।
आज की महिला शिक्षा, राजनीति, विज्ञान, खेल, उद्योग हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही है, लेकिन संघर्ष अभी भी जारी है।
📜 स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता पश्चात की तुलना
🏛️ स्वतंत्रता पूर्व स्थिति
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महिलाओं पर सामाजिक बंधन और पर्दा प्रथा।
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शिक्षा और रोजगार के अवसर लगभग न के बराबर।
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दहेज, बाल विवाह, सती जैसी कुप्रथाओं का प्रचलन।
🌱 स्वतंत्रता पश्चात बदलाव
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शिक्षा का प्रसार और महिला सशक्तिकरण।
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संवैधानिक समानता और कानूनी संरक्षण।
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सार्वजनिक जीवन और राजनीति में सक्रिय भागीदारी।
⚖️ संवैधानिक और कानूनी अधिकार
📜 संवैधानिक प्रावधान
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अनुच्छेद 14 – समानता का अधिकार।
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अनुच्छेद 15(1) – लिंग आधारित भेदभाव का निषेध।
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अनुच्छेद 16 – समान अवसर का अधिकार।
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अनुच्छेद 39(d) – समान कार्य के लिए समान वेतन।
🏛️ प्रमुख कानून
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दहेज निषेध अधिनियम, 1961
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महिला हिंसा से संरक्षण अधिनियम, 2005
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मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 (संशोधित 2017)
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कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (निवारण) अधिनियम, 2013
📚 शिक्षा में प्रगति
📈 शिक्षा का प्रसार
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साक्षरता दर में उल्लेखनीय वृद्धि — 1951 में महिला साक्षरता 8.86% से बढ़कर 2011 में 65.46%।
🏅 उच्च शिक्षा में सहभागिता
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इंजीनियरिंग, चिकित्सा, प्रबंधन और शोध के क्षेत्रों में महिलाओं की बढ़ती उपस्थिति।
🎓 सरकारी योजनाएँ
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बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
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कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना
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राष्ट्रीय बालिका शिक्षा योजना
💼 आर्थिक और रोजगार की स्थिति
🏢 औपचारिक क्षेत्र में प्रवेश
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कॉर्पोरेट, सरकारी और शिक्षा क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में वृद्धि।
🏭 असंगठित क्षेत्र में भागीदारी
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कृषि, हस्तशिल्प, घरेलू काम और लघु उद्योगों में महत्वपूर्ण योगदान।
📊 चुनौतियाँ
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समान कार्य के लिए समान वेतन में असमानता।
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नेतृत्व पदों पर कम प्रतिनिधित्व।
🗳️ राजनीति और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भूमिका
📌 संवैधानिक प्रतिनिधित्व
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पंचायतों और नगर निकायों में 33% आरक्षण।
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लोकसभा और विधानसभाओं में महिला सदस्यों की संख्या में वृद्धि, हालांकि अभी भी संतोषजनक नहीं।
🏅 प्रेरणादायक उदाहरण
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इंदिरा गांधी – भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री।
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प्रतिभा पाटिल – भारत की पहली महिला राष्ट्रपति।
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मीरा कुमार – पहली महिला लोकसभा अध्यक्ष।
🛡️ सुरक्षा और सामाजिक चुनौतियाँ
🏚️ घरेलू हिंसा
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विवाह के भीतर मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न की घटनाएँ।
⚠️ लैंगिक हिंसा
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दुष्कर्म, यौन उत्पीड़न और तस्करी की समस्याएँ।
🚨 कानूनी उपाय
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महिला हेल्पलाइन, फास्ट ट्रैक कोर्ट, और सख्त सजा का प्रावधान।
🌟 उपलब्धियाँ और सफलता की कहानियाँ
🏆 खेल के क्षेत्र में
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पी. वी. सिंधु, मैरी कॉम, मीराबाई चानू जैसी खिलाड़ी।
🛰️ विज्ञान और अंतरिक्ष
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इसरो की महिला वैज्ञानिक — मंगलयान और चंद्रयान मिशनों में योगदान।
🎭 कला और संस्कृति
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सिनेमा, साहित्य, संगीत में महिलाओं की अग्रणी भूमिका।
🔍 वर्तमान चुनौतियाँ
1️⃣ सामाजिक मानसिकता
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बेटियों के प्रति भेदभाव और पितृसत्तात्मक सोच।
2️⃣ रोजगार में असमानता
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ग्लास सीलिंग प्रभाव और वेतन असमानता।
3️⃣ सुरक्षा
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सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा की कमी।
4️⃣ ग्रामीण-शहरी अंतर
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ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में पिछड़ापन।
🏆 आगे की राह
🎯 नीतिगत सुधार
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महिला आरक्षण विधेयक को लागू करना।
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कार्यस्थल पर समान अवसर और वेतन।
📢 जनजागरण
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शिक्षा और मीडिया के माध्यम से लैंगिक समानता को बढ़ावा।
🌏 अंतरराष्ट्रीय सहयोग
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महिला विकास कार्यक्रमों में वैश्विक अनुभवों का उपयोग।
💡 निष्कर्ष
स्वतंत्र भारत में महिलाओं ने शिक्षा, राजनीति, विज्ञान, खेल, कला हर क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई है।
संविधान और कानून ने उन्हें समान अधिकार दिए हैं, लेकिन सामाजिक सोच और व्यवहार में परिवर्तन लाना अभी भी आवश्यक है।
जब तक समाज की मानसिकता पूरी तरह नहीं बदलेगी, तब तक महिला सशक्तिकरण का लक्ष्य अधूरा रहेगा।
"नारी ही शक्ति है, नारी ही सृजन है" — इस भाव को अपनाकर ही भारत सच्चे अर्थों में प्रगतिशील बन सकता है।