GEGE-01 SOLVED PAPER 2024
1. ब्रह्मांड में प्रत्येक सदस्य का संक्षिप्त विवरण देते हुए, सौरमंडल का वर्णन करें।
सौर मंडल ब्रह्मांड का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें सूर्य, ग्रह, उनके उपग्रह, क्षुद्रग्रह, धूमकेतु, और अन्य खगोलीय पिंड शामिल होते हैं। यह सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव में संचालित होता है। आइए इसके प्रमुख सदस्यों का विवरण करते हैं:
सूर्य: सौर मंडल का केंद्रबिंदु और मुख्य ऊर्जा स्रोत है। यह एक गैसों का विशाल गोला है जो हाइड्रोजन और हीलियम से बना होता है और नाभिकीय संलयन से ऊर्जा उत्पन्न करता है।
बुध: सौर मंडल का सबसे छोटा और सूर्य के सबसे निकटतम ग्रह है। इसका वातावरण लगभग न के बराबर है और यहाँ अत्यधिक तापमान परिवर्तन होता है।
शुक्र: यह पृथ्वी का "बहन ग्रह" कहा जाता है क्योंकि इसका आकार और संरचना पृथ्वी से मिलती-जुलती है। लेकिन यहाँ का वातावरण अत्यधिक गर्म और विषैला है।
पृथ्वी: सौर मंडल का एकमात्र ज्ञात ग्रह है जहाँ जीवन मौजूद है। इसका वातावरण ऑक्सीजन और नाइट्रोजन से बना है, और यहाँ पानी की प्रचुरता है।
मंगल: इसे लाल ग्रह भी कहा जाता है क्योंकि इसकी सतह लोहे के ऑक्साइड से लाल दिखती है। यहाँ का वातावरण पतला है और इसमें जीवन की संभावना की खोज चल रही है।
बृहस्पति: सौर मंडल का सबसे बड़ा ग्रह है और इसमें गैस की मात्रा अत्यधिक होती है। इसके 79 से अधिक उपग्रह हैं और इसका प्रसिद्ध लाल धब्बा एक विशाल तूफान है।
शनि: यह अपने वलय प्रणाली के लिए प्रसिद्ध है, जो बर्फ और धूल के कणों से बना है। यह बृहस्पति के बाद दूसरा सबसे बड़ा ग्रह है।
अरुण (युरेनस): यह एक बर्फीला विशाल ग्रह है और इसका घूर्णन अक्ष लगभग क्षैतिज है, जिससे यह अन्य ग्रहों से अलग दिखता है।
वरुण (नेपच्यून): सौर मंडल का सबसे बाहरी ग्रह है और इसके वातावरण में अत्यधिक तेज हवाएँ चलती हैं।
क्षुद्रग्रह बेल्ट: यह मंगल और बृहस्पति के बीच स्थित है, जहाँ छोटे-छोटे पिंड पाए जाते हैं जिन्हें क्षुद्रग्रह कहते हैं।
धूमकेतु: यह बर्फ और धूल के बने होते हैं और सूर्य के पास आने पर इनसे गैस और धूल का पूंछ बनती है।
2. पृथ्वी की संरचना की आधुनिक अवधारणा पर निबंध लिखें।
पृथ्वी की संरचना का अध्ययन भूगर्भ विज्ञान (Geology) के अंतर्गत किया जाता है। आधुनिक भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार, पृथ्वी की आंतरिक संरचना तीन प्रमुख भागों में विभाजित होती है: पर्पटी (Crust), मंटल (Mantle), और कोर (Core)। इन भागों की संरचना और विशेषताओं को विस्तार से समझना आवश्यक है।
पर्पटी (Crust): यह पृथ्वी की सबसे बाहरी ठोस परत है। पर्पटी को महाद्वीपीय और महासागरीय पर्पटी में विभाजित किया जा सकता है। महाद्वीपीय पर्पटी का निर्माण मुख्य रूप से ग्रेनाइट चट्टानों से होता है, जबकि महासागरीय पर्पटी बेसाल्टिक चट्टानों से बनी होती है। इसकी औसत मोटाई 5 से 70 किमी के बीच होती है।
मंटल (Mantle): पर्पटी के नीचे मंटल होता है जो लगभग 2900 किमी तक फैला हुआ है। यह ठोस और अर्ध-द्रव अवस्था में रहता है। मंटल का ऊपरी हिस्सा, जिसे अस्थेनोस्फीयर कहा जाता है, लचीला होता है और यहाँ से प्लेट विवर्तनिकी (Plate Tectonics) की गतिविधियाँ संचालित होती हैं।
कोर (Core): पृथ्वी का सबसे आंतरिक हिस्सा कोर कहलाता है। इसे बाहरी और आंतरिक कोर में विभाजित किया गया है। बाहरी कोर तरल अवस्था में है और इसमें लोहे और निकेल की प्रचुरता होती है। आंतरिक कोर ठोस होता है और इसकी मोटाई लगभग 1220 किमी होती है।
आधुनिक भूगर्भीय धारणाएँ:
पृथ्वी की संरचना के बारे में प्रमुख आधुनिक धारणाओं में प्लेट विवर्तनिकी (Plate Tectonics) सिद्धांत है, जो यह बताता है कि पृथ्वी की पर्पटी अनेक प्लेटों में विभाजित है और ये प्लेटें मंटल पर तैरती हैं। इन प्लेटों के टकराव, अलगाव और सरकाव से पृथ्वी की सतह पर पर्वतों का निर्माण, भूकंप, ज्वालामुखी, और महासागरीय गर्तों का निर्माण होता है।
03 . कायांतरित चट्टानें कितने प्रकार की होती हैं? तथा इन चट्टानों के रूप परिवर्तन के कारणों को बताइये।
कायांतरित चट्टानें (Metamorphic Rocks) वे चट्टानें हैं, जो उच्च तापमान, दबाव या रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण अपने मूल रूप से बदल जाती हैं। इस प्रक्रिया को कायांतरण (Metamorphism) कहा जाता है, जिसमें चट्टानों का रूप, आकार और आंतरिक संरचना बदल जाती है। कायांतरित चट्टानें मुख्य रूप से आग्नेय (Igneous) और अवसादी (Sedimentary) चट्टानों से बनती हैं।
कायांतरित चट्टानों के प्रकार:
कायांतरित चट्टानों को तीन मुख्य प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है:
1. आवृत कायांतरण (Regional Metamorphism):
यह सबसे व्यापक रूप से पाई जाने वाली कायांतरित चट्टानों का प्रकार है, जो तब उत्पन्न होता है जब बड़े क्षेत्रीय क्षेत्रों में तापमान और दबाव बढ़ता है। यह चट्टानें पर्वत निर्माण के दौरान धरातल में गहराई पर बनने वाले ऊंचे दबाव और तापमान से प्रभावित होती हैं। उदाहरण के लिए, शिस्ट और नाइस चट्टानें आवृत कायांतरण से उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार की चट्टानों के निर्माण का कारण पृथ्वी की टेक्टोनिक प्लेटों का एक-दूसरे से टकराना और संपीड़न होना है।
2. संपर्क कायांतरण (Contact Metamorphism):
जब आग्नेय चट्टानों का लावा या मैग्मा किसी ठोस चट्टान के संपर्क में आता है, तो अत्यधिक तापमान के कारण उस चट्टान की संरचना में परिवर्तन होता है। यह प्रक्रिया संपर्क कायांतरण कहलाती है। इसमें तापमान का मुख्य योगदान होता है, जबकि दबाव का योगदान अपेक्षाकृत कम होता है। संगमरमर (Marble) और हॉर्नफेल्स जैसी चट्टानें इस प्रकार से उत्पन्न होती हैं।
3. दबाव-कायांतरण (Dynamic Metamorphism):
यह कायांतरण तब होता है जब चट्टानें पृथ्वी के अंदर अत्यधिक दबाव के तहत बदल जाती हैं। यह प्रक्रिया विशेष रूप से उन क्षेत्रों में होती है जहाँ चट्टानें अत्यधिक दबाव के कारण विक्षेपित या टूटती हैं। इसमें मुख्यतः यांत्रिक दाब से चट्टानों के दाने पुनःसंवृत होते हैं।
कायांतरण के कारण:
1. तापमान (Temperature):
जब चट्टानें बहुत गहरे पृथ्वी के भीतर धंसती हैं, तो उच्च तापमान के कारण उनकी संरचना बदल जाती है। यह तापमान मैग्मा के निकट होने या गहरे भूगर्भीय प्रक्रियाओं के कारण हो सकता है।
2. दबाव (Pressure):
गहरे भूगर्भीय प्रक्रियाओं के दौरान, चट्टानों पर भारी दबाव पड़ता है, जो उनकी संरचना और घनत्व को बदल देता है। यह दबाव प्लेट टेक्टोनिक्स के परिणामस्वरूप होता है।
3. रासायनिक क्रियाएँ (Chemical Reactions):
चट्टानों के भीतर पाए जाने वाले खनिज जब जल, गैसों और अन्य रसायनों के संपर्क में आते हैं, तो उनके कणों के बीच रासायनिक क्रियाएँ होती हैं, जिससे उनकी संरचना बदल जाती है।
कायांतरित चट्टानों का निर्माण पृथ्वी की भूगर्भीय गतिविधियों और बदलते भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है, जो इन चट्टानों को एक विशेष पहचान देता है।
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4. भूकंप किसे कहते हैं? इसके प्रभावों का वर्णन करें।
भूकंप (Earthquake) पृथ्वी की सतह के नीचे प्लेटों के टकराने, खिसकने या टूटने के कारण उत्पन्न होने वाले भूगर्भीय कंपन को कहते हैं। यह प्राकृतिक आपदा तब घटित होती है जब पृथ्वी के अंदर मौजूद ऊर्जा एकाएक बाहर निकलती है और भूपटल (Crust) में दरारें उत्पन्न हो जाती हैं। इस ऊर्जा के मुक्त होने से भूकंपीय तरंगें (Seismic Waves) उत्पन्न होती हैं, जो सतह पर कंपन के रूप में महसूस होती हैं।
भूकंप के कारण:
भूकंप मुख्यतः निम्नलिखित कारणों से आते हैं:
1. टेक्टोनिक प्लेटों की गति (Movement of Tectonic Plates):
पृथ्वी की भूपटल कई टेक्टोनिक प्लेटों में विभाजित है, जो निरंतर गति करती हैं। जब ये प्लेटें एक-दूसरे से टकराती हैं या अलग होती हैं, तो भूकंप उत्पन्न होता है।
2. ज्वालामुखी विस्फोट (Volcanic Eruptions):
ज्वालामुखी विस्फोट के दौरान भी भूकंपीय तरंगें उत्पन्न होती हैं, जिससे भूकंप आ सकता है।
3. मानव क्रियाएँ (Human Activities):
कई बार बड़े पैमाने पर खनन, बाँध निर्माण, और परमाणु परीक्षण जैसी गतिविधियों के कारण भी भूकंप आ सकता है।
भूकंप के प्रभाव:
1. भौतिक क्षति (Physical Damage):
भूकंप से भवन, सड़कें, पुल, और अन्य संरचनाएँ नष्ट हो जाती हैं। इमारतों का ढहना और जमीन का दरकना इसके प्रमुख भौतिक प्रभाव हैं। तीव्र भूकंप के कारण बड़ी मात्रा में संपत्ति का नुकसान हो सकता है।
2. भूस्खलन (Landslides):
पहाड़ी क्षेत्रों में भूकंप के कारण भूमि धसकने की घटनाएँ होती हैं। भूस्खलन से नदियों का मार्ग अवरुद्ध हो सकता है और निचले इलाकों में बाढ़ आ सकती है।
3. सुनामी (Tsunami):
समुद्र में आने वाले भूकंप के कारण उत्पन्न होने वाली बड़ी समुद्री लहरों को सुनामी कहते हैं। यह तटवर्ती क्षेत्रों में भारी तबाही मचाती है।
4. जीवन का नुकसान (Loss of Life):
भूकंप के कारण बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हो जाती है, और कई लोग घायल हो जाते हैं। भूकंप के प्रभाव से प्रभावित क्षेत्र में राहत और बचाव कार्य कठिन हो जाता है।
5. सामाजिक और आर्थिक प्रभाव (Social and Economic Impact):
भूकंप के कारण आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में जीवनयापन और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया प्रभावित होती है। इसमें बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित होना पड़ता है, जिससे समाज में अव्यवस्था फैल जाती है।
भूकंप की तीव्रता को रिच्टर पैमाने पर मापा जाता है। हालाँकि, वैज्ञानिक तकनीकें भूकंप की भविष्यवाणी में अभी तक पूरी तरह से सक्षम नहीं हैं, परंतु कुछ क्षेत्रों में भूकंप के प्रभाव को कम करने के उपाय किए जाते हैं।
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5. अपक्षय क्या है? इसके प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
अपक्षय (Weathering)
वह प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसमें चट्टानों, मिट्टी और खनिजों का धीरे-धीरे टूटना और विघटन होता है। यह प्रक्रिया पृथ्वी की सतह पर पाई जाने वाली वस्तुओं के बाहरी वातावरण के संपर्क में आने से होती है। अपक्षय का मुख्य कारण मौसम और पर्यावरणीय तत्व होते हैं, जैसे हवा, पानी, तापमान में बदलाव, और जैविक गतिविधियाँ। अपक्षय की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है, लेकिन यह पृथ्वी के परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
अपक्षय के प्रकार:
1. भौतिक अपक्षय (Physical Weathering):
इसे यांत्रिक अपक्षय भी कहा जाता है। इसमें चट्टानों का टूटना और विघटन शारीरिक बलों के कारण होता है, जैसे तापमान में परिवर्तन, जल की गति, और बर्फ का जमना। उदाहरण के लिए, जब पानी चट्टानों की दरारों में जाता है और ठंड के कारण जम जाता है, तो यह चट्टानों को फाड़ सकता है। इसी प्रकार, तापमान में बार-बार बदलाव से चट्टानें टूट जाती हैं।
2. रासायनिक अपक्षय (Chemical Weathering):
इस प्रक्रिया में चट्टानों और खनिजों का रासायनिक रूप से विघटन होता है। इसमें जल, ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य रासायनिक तत्व शामिल होते हैं, जो चट्टानों के खनिजों के साथ प्रतिक्रिया करके उन्हें घोलते हैं या बदलते हैं। उदाहरण के लिए, वर्षा के पानी में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड जब चट्टानों के साथ प्रतिक्रिया करता है, तो वह चट्टानों को विघटित कर देता है।
3. जैविक अपक्षय (Biological Weathering):
इस प्रकार के अपक्षय में जीवों की क्रियाएँ शामिल होती हैं। पेड़ों की जड़ें, जीवाणु, शैवाल और अन्य सूक्ष्मजीव चट्टानों को तोड़ने में मदद करते हैं। उदाहरण के लिए, पेड़ों की जड़ें चट्टानों की दरारों में घुसकर उन्हें धीरे-धीरे तोड़ देती हैं।
अपक्षय का महत्व महत्व:
अपक्षय पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र के लिए महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। यह मिट्टी के निर्माण में योगदान देता है और चट्टानों के विघटन से खनिज तत्वों को मुक्त करता है, जो पौधों और अन्य जीवों के लिए आवश्यक होते हैं।
SHoRT ANSWER TYPE QUESTIONS
1. भूकंप तरंगें किसे कहते हैं?
भूकंप तरंगें वे तरंगें या कंपन होती हैं जो भूकंप के दौरान पृथ्वी की सतह पर फैलती हैं। जब पृथ्वी की आंतरिक प्लेटें अचानक खिसकती हैं या टूटती हैं, तो इस ऊर्जा के रिलीज़ होने से कंपन उत्पन्न होते हैं। यह कंपन तरंगों के रूप में फैलते हैं जिन्हें भूकंप तरंगें कहते हैं। भूकंप तरंगें मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं:
P-तरंगें (Primary Waves): यह सबसे तेज गति से चलने वाली तरंगें होती हैं। यह संपीड़न (Compression) और विस्तार (Expansion) की प्रक्रिया से जुड़ी होती हैं और ठोस, तरल और गैस तीनों माध्यमों से गुजर सकती हैं। इन तरंगों का कंपन दिशा में होता है, जिससे यह कंपन संचारित करती हैं।
S-तरंगें (Secondary Waves): यह P-तरंगों के बाद आने वाली तरंगें होती हैं। ये केवल ठोस माध्यमों से गुजर सकती हैं और इनका कंपन दाएं-बाएं या ऊपर-नीचे होता है। यह तरंगें P-तरंगों से धीमी गति से चलती हैं।
सतही तरंगें (Surface Waves): यह भूकंप के कारण उत्पन्न होने वाली सबसे धीमी तरंगें होती हैं, लेकिन यह सबसे अधिक विनाशकारी होती हैं। ये तरंगें पृथ्वी की सतह पर चलती हैं और इनके कारण जमीन में दरारें और अन्य प्रकार की संरचनात्मक क्षति होती है।
भूकंप तरंगों के अध्ययन से वैज्ञानिक भूकंप के केंद्र (Epicenter) और उसकी तीव्रता का निर्धारण करते हैं। भूकंप मापने के लिए रिक्टर स्केल और मोमेंट मैग्नीट्यूड स्केल जैसे उपकरणों का उपयोग किया जाता है।
2. मैग्मा और लावा में क्या अंतर है?
मैग्मा और लावा दोनों ही पिघली हुई चट्टानों से संबंधित होते हैं, लेकिन इन दोनों के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है।
मैग्मा (Magma): यह पिघली हुई चट्टानों का वह रूप है जो पृथ्वी की सतह के नीचे, मंटल या क्रस्ट में पाया जाता है। यह उच्च तापमान पर होता है और इसमें गैसें, खनिज और अन्य ठोस कण होते हैं। जब मैग्मा सतह के नीचे ही रहता है, तो इसे मैग्मा कहा जाता है। मैग्मा का तापमान आमतौर पर 700 से 1300 डिग्री सेल्सियस तक होता है। यह क्रस्ट के कमजोर हिस्सों में दरारें बनाकर ऊपर की ओर बढ़ता है।
लावा (Lava): जब मैग्मा पृथ्वी की सतह पर ज्वालामुखी विस्फोट के दौरान निकलता है, तो इसे लावा कहा जाता है। लावा जब बाहर आता है तो वह अत्यधिक गरम होता है, लेकिन धीरे-धीरे ठंडा हो जाता है और ठोस चट्टान में बदल जाता है। लावा का तापमान भी मैग्मा के समान होता है, लेकिन सतह पर आने के बाद यह ठंडा हो जाता है। लावा ठंडा होकर विभिन्न प्रकार की आग्नेय चट्टानों का निर्माण करता है, जैसे कि बेसाल्ट, एंडेसाइट और रियोलाइट।
संक्षेप में: मैग्मा धरती के नीचे पाया जाता है, जबकि लावा धरती की सतह पर आता है।
3. अपक्षय और अपरदन में क्या अंतर है?
अपक्षय और अपरदन दोनों ही प्रक्रियाएँ पृथ्वी की सतह पर चट्टानों को तोड़ने और हटाने से संबंधित हैं, लेकिन इन दोनों के बीच कार्यप्रणाली और प्रभावों में महत्वपूर्ण अंतर है।
अपक्षय (Weathering): यह एक धीमी प्रक्रिया है जिसमें चट्टानों का टूटना या विघटन होता है, लेकिन यह चट्टानें अपनी जगह पर ही रहती हैं। यह मुख्यतः दो प्रकार का होता है:
यांत्रिक अपक्षय: इसमें तापमान के उतार-चढ़ाव, पानी और हवा के प्रभाव से चट्टानें टूट जाती हैं। उदाहरण के लिए, पानी का जमना और पिघलना, जिससे चट्टानों में दरारें पड़ती हैं और वे टूट जाती हैं।
रासायनिक अपक्षय: इसमें चट्टानों का रासायनिक रूप से टूटना होता है, जैसे ऑक्सीकरण, जल द्वारा घुलन, आदि। उदाहरण के लिए, पानी में घुले हुए कार्बन डाइऑक्साइड से कार्बोनिक एसिड बनता है जो चट्टानों को घुला देता है।
अपरदन (Erosion): यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अपक्षय के बाद चट्टानों या मिट्टी के कणों को हटाकर दूसरी जगह ले जाया जाता है। यह मुख्यतः हवा, पानी, बर्फ और गुरुत्वाकर्षण के कारण होता है। उदाहरण के लिए, नदी के पानी द्वारा चट्टानों और मिट्टी का कटाव, हवा द्वारा रेत के कणों का उड़ाया जाना आदि। अपरदन के माध्यम से पहाड़ों की मिट्टी या चट्टानें नदियों में जमा हो सकती हैं या नदियों द्वारा समुंदर तक पहुंचाई जा सकती हैं।
संक्षेप में: अपक्षय चट्टानों को उनकी जगह पर ही तोड़ता है, जबकि अपरदन चट्टानों या मिट्टी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है।
4. वायुमंडल किसे कहते हैं?
वायुमंडल वह गैसीय आवरण है जो पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है। यह मुख्य रूप से नाइट्रोजन (78%) और ऑक्सीजन (21%) से बना होता है, इसके अलावा इसमें कार्बन डाइऑक्साइड, जल वाष्प और अन्य गैसें भी अल्प मात्रा में होती हैं। वायुमंडल का मुख्य कार्य पृथ्वी पर जीवन को सुरक्षित रखना और मौसम प्रक्रियाओं को संचालित करना है।
वायुमंडल को कई परतों में विभाजित किया गया है, जिनमें प्रमुख हैं:
क्षोभमंडल (Troposphere): यह वायुमंडल की सबसे निचली परत है, जहाँ अधिकांश मौसम गतिविधियाँ होती हैं। इसका विस्तार पृथ्वी की सतह से लगभग 8 से 15 किमी तक होता है। इसमें जलवाष्प और धूल कण होते हैं, जो बादलों और वर्षा का निर्माण करते हैं।
समतापमंडल (Stratosphere): इसमें ओजोन परत होती है, जो सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है। इसका विस्तार क्षोभमंडल के ऊपर 50 किमी तक होता है। यहाँ तापमान ऊँचाई के साथ बढ़ता है।
मध्य मण्डल (Mesosphere): इस परत में उल्काएँ जलती हैं और यह बहुत ठंडी होती है। इसका विस्तार 50 किमी से 85 किमी तक होता है। यहाँ तापमान ऊँचाई के साथ घटता है।
आयनमंडल (Thermosphere): इसमें आयनित कण होते हैं, जो रेडियो तरंगों को पृथ्वी तक वापस भेजते हैं। इसका विस्तार 85 किमी से 600 किमी तक होता है। यहाँ तापमान ऊँचाई के साथ तेजी से बढ़ता है। यहाँ अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन भी स्थित होता है।
बहिर्मंडल (Exosphere): यह वायुमंडल की सबसे बाहरी परत है, जहाँ से अंतरिक्ष शुरू होता है। इसका विस्तार 600 किमी से 10,000 किमी तक होता है। यहाँ गैस के अणु बहुत ही विरल होते हैं और यह परत धीरे-धीरे अंतरिक्ष में विलीन हो जाती है।
वायुमंडल पृथ्वी के पर्यावरण और जलवायु को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह सूर्य की ऊर्जा को नियंत्रित करता है, जिसे पृथ्वी तक पहुंचने और वापस अंतरिक्ष में लौटने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। वायुमंडल में होने वाले परिवर्तन जलवायु परिवर्तन और मौसम घटनाओं को निर्धारित करते हैं।
5. वायुदाब किसे कहते हैं?
वायुदाब उस बल को कहा जाता है, जो पृथ्वी की सतह पर वायुमंडल द्वारा डाला जाता है। वायुमंडल में उपस्थित गैसों का भार पृथ्वी की सतह पर दबाव बनाता है, जिसे वायुदाब कहते हैं। यह दबाव पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण वायुमंडल की गैसों को पृथ्वी की सतह की ओर खींचने से उत्पन्न होता है। वायुदाब का मापन पारा स्तंभ के माध्यम से किया जाता है और इसे सामान्य रूप से मिलीबार (mb) या पास्कल (Pa) में मापा जाता है। समुद्र तल पर वायुदाब का औसत मान 1013.25 मिलीबार होता है।
वायुदाब का प्रभाव कई कारकों पर निर्भर करता है, जिनमें ऊँचाई, तापमान और आर्द्रता प्रमुख हैं। जैसे-जैसे हम समुद्र तल से ऊँचाई पर जाते हैं, वायुदाब कम होता जाता है। उदाहरण के लिए, पर्वतीय क्षेत्रों में वायुदाब समुद्र तल की तुलना में कम होता है, क्योंकि वहां वायुमंडल की मोटाई कम हो जाती है। इसी तरह, वायुदाब का तापमान पर भी असर पड़ता है। गर्म तापमान वाले क्षेत्रों में वायु का घनत्व कम हो जाता है और वायुदाब भी घट जाता है, जबकि ठंडे क्षेत्रों में वायुदाब अधिक होता है क्योंकि वायु कण संकुचित होते हैं।
वायुदाब मौसम की घटनाओं पर भी सीधा प्रभाव डालता है। उच्च वायुदाब वाले क्षेत्रों में सामान्यतः साफ मौसम होता है, जबकि निम्न वायुदाब वाले क्षेत्रों में बादल, बारिश, और तूफान जैसी घटनाएं होती हैं। चक्रवात और एंटीसाइक्लोन जैसी मौसम घटनाएं वायुदाब के परिवर्तन से संबंधित होती हैं। निम्न वायुदाब वाले क्षेत्रों में गर्म और आर्द्र हवा ऊपर की ओर उठती है, जिससे बारिश और तूफान जैसी घटनाएं उत्पन्न होती हैं, जबकि उच्च वायुदाब वाले क्षेत्रों में ठंडी और शुष्क हवा नीचे की ओर धकेली जाती है, जिससे साफ और स्थिर मौसम बना रहता है।
वायुदाब की गणना और मापन के लिए बैरोमीटर का उपयोग किया जाता है। यह यंत्र वायुदाब के आधार पर मौसम की भविष्यवाणी करने में सहायक होता है। वायुदाब का अध्ययन मौसम विज्ञान के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि इसके आधार पर चक्रवात, तूफान, बारिश और अन्य मौसम घटनाओं की भविष्यवाणी की जा सकती है।
6. उत्तराखंड की पारिस्थितिकीय तंत्र को संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तराखंड का पारिस्थितिक तंत्र अत्यंत विविध और समृद्ध है। यह राज्य हिमालय की तलहटी में स्थित है और विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के कारण यहां प्राकृतिक संसाधनों की व्यापकता है। उत्तराखंड के पारिस्थितिकी तंत्र में घने जंगल, बर्फीले ग्लेशियर, विविध जीव-जंतु, और प्रमुख नदियाँ शामिल हैं, जो इसे एक जैवविविधता का केंद्र बनाते हैं।
हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र: उत्तराखंड का हिमालयी क्षेत्र वनस्पतियों और जीवों के असंख्य प्रकारों का घर है। यहाँ कई दुर्लभ प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जैसे कि हिम तेंदुआ, कस्तूरी मृग, और भूरा भालू। ऊँचाई के साथ यहाँ की पारिस्थितिकी में भी भिन्नता देखने को मिलती है। हिमालय के ऊपरी भागों में मुख्य रूप से ग्लेशियर और बर्फीले मैदान होते हैं, जबकि निचले क्षेत्रों में घने वन होते हैं। यह क्षेत्र गंगा और यमुना जैसी महत्त्वपूर्ण नदियों का स्रोत भी है, जो कृषि और पेयजल के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
वन पारिस्थितिकी तंत्र: उत्तराखंड में व्यापक वन क्षेत्र है, जिसमें चीड़, देवदार, ओक और साल के वृक्ष प्रमुख हैं। इन वनों में जैव विविधता की समृद्धता है और यह राज्य के वन्यजीवन को समर्थन देते हैं। उत्तराखंड के वनों में बाघ, हाथी, हिरण, और विभिन्न प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं। जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान और नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व जैसे संरक्षित क्षेत्र राज्य की पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा और जैव विविधता के संरक्षण में अहम भूमिका निभाते हैं।
नदी और जल पारिस्थितिकी तंत्र: उत्तराखंड को नदियों का प्रदेश कहा जाता है क्योंकि यहाँ से गंगा, यमुना, अलकनंदा, और भागीरथी जैसी महत्वपूर्ण नदियाँ निकलती हैं। यह नदियाँ न केवल जल का प्रमुख स्रोत हैं, बल्कि इनमें विभिन्न जलीय जीव-जंतु भी पाए जाते हैं। ये नदियाँ राज्य के कृषि और ऊर्जा संसाधनों के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।
पर्वतीय कृषि: उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियाँ पर्वतीय कृषि के लिए उपयुक्त हैं। यहाँ की कृषि प्रणाली जलवायु और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करती है। चावल, गेहूं, मडुआ, और आलू यहाँ की प्रमुख फसलें हैं।
उत्तराखंड का पारिस्थितिक तंत्र प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, भूस्खलन, और ग्लेशियर पिघलने से प्रभावित होता है। इन आपदाओं से निपटने और राज्य की पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने के लिए सरकार और स्थानीय समुदायों को सतर्क रहना आवश्यक है।
7. भू-संचलन के विभिन्न प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
भू-संचलन (Earth Movements) वह प्रक्रियाएँ हैं जो पृथ्वी की पर्पटी और भू-आकृतियों में बदलाव लाती हैं। यह परिवर्तन धीमी गति से होते हैं और लाखों वर्षों में पर्वत, घाटियाँ, और महासागरिक संरचनाओं का निर्माण करते हैं। भू-संचलन को मुख्य रूप से दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
एपीरोजेनिक संचलन (Epeirogenic Movements): यह पृथ्वी की पर्पटी में धीमी गति से उठने और धसने की प्रक्रिया होती है। इसमें महाद्वीपीय प्लेटें धीरे-धीरे ऊपर या नीचे की ओर बढ़ती हैं। यह प्रक्रिया मुख्य रूप से लिथोस्फियर में होती है और महाद्वीपों के आकार और ऊंचाई में बदलाव का कारण बनती है। यह संचलन सामान्यत: बड़े भूभागों पर प्रभाव डालता है, जैसे कि एक संपूर्ण महाद्वीप का उठना या धसना। इसका परिणाम समतल भू-आकृतियों जैसे पठारों और पर्वतीय क्षेत्रों के निर्माण में होता है।
ओरोजेनिक संचलन (Orogenic Movements): यह भू-संचलन पर्वतीय निर्माण की प्रक्रिया से संबंधित होता है। जब दो महाद्वीपीय प्लेटें आपस में टकराती हैं, तो भू-आकृतियों में तनाव उत्पन्न होता है जिससे पर्वतों का निर्माण होता है। इस प्रक्रिया में वलन (Folding) और भ्रंशन (Faulting) जैसी घटनाएं होती हैं। उदाहरणस्वरूप, हिमालय पर्वत श्रेणी की उत्पत्ति इंडियन प्लेट और यूरेशियन प्लेट के टकराने से हुई थी। ओरोजेनिक संचलन से न केवल पर्वतों का निर्माण होता है, बल्कि यह भूकंप और ज्वालामुखी जैसी घटनाओं का भी कारण बनता है।
क्षैतिज संचलन (Horizontal Movements): यह भू-संचलन पृथ्वी की पर्पटी में क्षैतिज दिशा में होने वाले तनावों से उत्पन्न होता है। इस प्रक्रिया में प्लेटें एक-दूसरे के समीप आती हैं, दूर जाती हैं या आपस में रगड़ती हैं। इस प्रक्रिया को प्लेट विवर्तनिकी (Plate Tectonics) कहा जाता है। क्षैतिज संचलन के परिणामस्वरूप महाद्वीपीय प्रवाह (Continental Drift) और महासागरीय विस्तार (Sea-floor Spreading) जैसी घटनाएं होती हैं।
भू-संचलन के प्रभाव से भौगोलिक आकृतियों में परिवर्तन होता है और यह प्रक्रिया लाखों वर्षों तक चलती रहती है। इन संचलनों से नदियों के मार्ग, समुद्रतट की संरचना और वनस्पतियों में भी बदलाव आता है। वैज्ञानिकों द्वारा भू-संचलन का अध्ययन भूगर्भीय बदलावों और प्राकृतिक आपदाओं की समझ बढ़ाने में मदद करता है।
8. आकाशगंगा से आप क्या समझते हैं?
आकाशगंगा (Galaxy) खगोलीय पिंडों का एक विशाल समूह है जिसमें अरबों तारे, ग्रह, धूल, गैस, और अन्य अंतरिक्ष सामग्री होती है। आकाशगंगा का आकार और संरचना बहुत विशाल होती है और यह गुरुत्वाकर्षण बल के कारण एक साथ बंधे रहते हैं। हमारी पृथ्वी जिस आकाशगंगा का हिस्सा है, उसे "मिल्की वे" कहा जाता है। यह आकाशगंगा एक चपटी डिस्क के आकार की होती है, जिसमें सर्पिल (Spiral) संरचना होती है।
आकाशगंगाओं के कई प्रकार होते हैं, जिनमें प्रमुख हैं:
सर्पिल आकाशगंगा (Spiral Galaxy): यह आकाशगंगाएं सर्पिल आर्म्स के रूप में दिखाई देती हैं। इनकी संरचना केंद्र में एक केंद्रीय बुलज (Bulge) और उससे फैले हुए सर्पिल शाखाओं से मिलकर होती है। हमारी आकाशगंगा, मिल्की वे, एक सर्पिल आकाशगंगा का उत्कृष्ट उदाहरण है।
दीर्घवृत्ताकार आकाशगंगा (Elliptical Galaxy): यह आकाशगंगा अंडाकार आकार की होती है और इसमें तारों की घनत्व अधिक होती है। इन आकाशगंगाओं में सर्पिल शाखाओं की उपस्थिति नहीं होती। यह अपेक्षाकृत पुरानी आकाशगंगाएँ होती हैं जिनमें तारों का निर्माण बहुत धीमी गति से होता है।
अनियमित आकाशगंगा (Irregular Galaxy): इन आकाशगंगाओं की कोई निर्धारित संरचना या आकार नहीं होता। यह अस्थिर और अनियमित रूप में दिखाई देती हैं।
आकाशगंगाओं का निर्माण प्रारंभिक ब्रह्मांड में हुआ था और यह ब्रह्मांड के विस्तार का प्रमाण भी देती हैं। आकाशगंगाओं के बीच विशाल दूरियाँ होती हैं और इनका अध्ययन हमें ब्रह्मांड के विकास और उसके रहस्यों को समझने में मदद करता है।
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