GEHI-02 SOLVED PAPER 2024
1. भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में असहयोग आंदोलन का महत्व बताइए।
असहयोग आंदोलन की पृष्ठभूमि और उद्देश्य:
असहयोग आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण चरण था, जिसकी शुरुआत महात्मा गांधी ने 1920 में की थी। यह आंदोलन ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक गैर-आviolent विरोध था, जो मुख्यतः भारतीय लोगों को ब्रिटिश शासन के तहत दी जा रही असमानताओं और अन्याय के खिलाफ जागरूक करने के लिए था। इसका उद्देश्य भारतीयों को ब्रिटिश सरकार की संस्थाओं में सहयोग न देने के लिए प्रेरित करना था।
असहयोग आंदोलन की रणनीति:
असहयोग आंदोलन के तहत भारतीयों ने ब्रिटिश शासन की विभिन्न संस्थाओं जैसे कि नौकरशाही, न्यायालय, और विधायिका में सहयोग देना बंद कर दिया। इसके अलावा, ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार, ब्रिटिश स्कूलों और कॉलेजों का विरोध, और ब्रिटिश सरकार के करों का भुगतान न करने की रणनीतियाँ अपनाई गईं। गांधी जी ने भारतीयों से भारतीय वस्त्र पहनने और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करने की अपील की।
असहयोग आंदोलन का प्रभाव:
असहयोग आंदोलन ने भारतीय समाज में एक नई चेतना का संचार किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। इस आंदोलन ने भारतीयों को आत्मनिर्भरता और स्वदेशी उत्पादों के महत्व की याद दिलाई। हालांकि, आंदोलन 1922 में चौराचौरी की घटना के बाद समाप्त हो गया, लेकिन इसके प्रभावों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को मजबूती प्रदान की और भारतीय समाज को एकजुट किया।
2. खिलाफत आंदोलन और गांधी की भूमिका का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।
खिलाफत आंदोलन का उद्देश्य और पृष्ठभूमि: खिलाफत आंदोलन 1920 में शुरू हुआ था, जिसका मुख्य उद्देश्य तुर्की के खलीफा (सुलतान) की सत्ता की रक्षा करना था, जिसे प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और अन्य मित्र देशों द्वारा कमजोर किया जा रहा था। यह आंदोलन मुख्यतः मुसलमान समुदाय द्वारा चलाया गया और इसका नेतृत्व मोहमद अली और शौकत अली ने किया।
गांधी की भूमिका: महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया और इसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ जोड़ दिया। गांधी जी ने भारतीय मुसलमानों को आश्वस्त किया कि उनकी मांगें न्यायपूर्ण हैं और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक संयुक्त संघर्ष को प्रोत्साहित किया। उन्होंने खिलाफत आंदोलन को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक हिस्सा मानते हुए इसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मंच पर समर्थन दिया।
आलोचना और प्रभाव: हालांकि गांधी का समर्थन महत्वपूर्ण था, खिलाफत आंदोलन में कई समस्याएँ भी थीं। आंदोलन के नेताओं को असहयोग आंदोलन की रणनीतियों और उद्देश्यों के साथ पूरी तरह से समन्वित करने में कठिनाई हुई। इसके परिणामस्वरूप, खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन दोनों में कुछ असमंजस उत्पन्न हुआ। बावजूद इसके, गांधी जी की भूमिका ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और विभिन्न धार्मिक समुदायों को एकजुट करने में मदद की।
3. जलियाँवाला बाग घटना का विस्तार से वर्णन कीजिए।
घटना का विवरण:
13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला बाग, अमृतसर में एक भयंकर घटना घटी, जिसमें ब्रिटिश सैन्य अधिकारी जनरल डायर ने शांति पूर्वक इकट्ठे हुए भारतीयों पर गोलीबारी की। यह घटना उन भारतीयों के विरोध प्रदर्शन के खिलाफ थी जो रौलेट एक्ट के विरोध में इकट्ठे हुए थे। जनरल डायर ने बिना किसी चेतावनी के सैनिकों को फायरिंग का आदेश दिया, जिसके परिणामस्वरूप सैकड़ों निर्दोष लोगों की मौत हुई और कई अन्य घायल हो गए।
घटना की आलोचना:
जलियाँवाला बाग घटना ने भारतीय जनता में गहरा आक्रोश और असंतोष पैदा किया। इस घटना की व्यापक आलोचना हुई और यह ब्रिटिश शासन की क्रूरता और बर्बरता का प्रतीक बन गई। घटना के बाद, जनरल डायर को एक आयोग द्वारा दोषी ठहराया गया और उसे वापिस ले लिया गया, लेकिन इस घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को और भी तीव्र कर दिया और गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन को बल प्रदान किया।
4. बीसवीं सदी के किसान आंदोलन की प्रकृति और प्रभाव बताइए।
आंदोलनों की प्रकृति:
20वीं सदी में भारत में कई प्रमुख किसान आंदोलनों हुए, जिनका मुख्य उद्देश्य भूमि सुधार और किसान अधिकारों की रक्षा था। इनमें से प्रमुख आंदोलनों में चौरी-चौरा आंदोलन, कर्नाटका किसान आंदोलन, और बर्धान आंदोलन शामिल हैं। इन आंदोलनों ने किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया और भूमि के विषम बंटवारे तथा अत्यधिक करों के खिलाफ आवाज उठाई।
आंदोलनों का प्रभाव:
किसान आंदोलनों ने भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन लाने में मदद की। इन आंदोलनों ने किसानों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया और सरकारी नीतियों में सुधार की दिशा में दबाव डाला। हालांकि, इन आंदोलनों के परिणामस्वरूप कई बार संघर्ष और हिंसा की स्थिति उत्पन्न हुई, लेकिन इनकी वजह से कृषि और ग्रामीण जीवन में कई सकारात्मक सुधार हुए।
5. डॉ. बी.आर. अंबेडकर के संदर्भ में दलित आंदोलन की विवेचना कीजिए।
अंबेडकर का दृष्टिकोण:
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलित समुदाय के अधिकारों और समाज में उनके स्थान को सुधारने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने दलितों के सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया और उन्हें शिक्षा और रोजगार में समान अवसर प्रदान करने के लिए अभियान चलाया। अंबेडकर ने जाति व्यवस्था की आलोचना की और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को अपनाया।
दलित आंदोलन की प्रमुख उपलब्धियाँ:
अंबेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन ने भारतीय संविधान में समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को शामिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंबेडकर ने भारतीय संविधान में सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रावधान सुनिश्चित किए। उन्होंने भारतीय समाज में जातिवादी भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई और दलितों को सम्मान और समानता का अधिकार दिलाने की दिशा में कई महत्वपूर्ण सुधार किए। उनके प्रयासों ने भारतीय समाज में जाति आधारित भेदभाव को कम करने और सामाजिक समरसता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए।
SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS
1. बाबू मंगु राम और दलित आंदोलन
बाबू मंगु राम की पृष्ठभूमि और योगदान: बाबू मंगु राम मुगलां और उनका दलित आंदोलन में योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। मंगु राम का जन्म पंजाब में 1886 में हुआ था और वे चमार जाति से थे। उन्होंने अमेरिका में रहकर ग़दर पार्टी में सक्रिय भूमिका निभाई और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ सामाजिक न्याय के लिए भी संघर्ष किया। जब वे भारत लौटे, तो उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए सक्रिय रूप से काम करना शुरू किया।
आदिलकलां समाज की स्थापना: बाबू मंगु राम ने 1926 में "आदिलकलां समाज" की स्थापना की। इसका उद्देश्य दलितों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में सुधार करना था। बाबू मंगु राम ने दलितों की शिक्षा, अधिकार और सम्मान की दिशा में काम किया। उन्होंने समाज के कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक जागरूकता फैलाने का प्रयास किया और जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ आंदोलन किया।
संघर्ष और सामाजिक न्याय: बाबू मंगु राम ने अपने आंदोलन के माध्यम से दलितों को संगठित किया और उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। उनके द्वारा स्थापित आदिलकलां समाज ने दलितों की समस्याओं को प्रमुखता से उठाया और सरकारी नीतियों में सुधार के लिए दबाव बनाया। मंगु राम का दलित आंदोलन डॉ. बी.आर. अंबेडकर के साथ-साथ अन्य प्रमुख दलित नेताओं के समानांतर चला और उनका योगदान भारतीय समाज में सामाजिक समरसता की दिशा में महत्वपूर्ण माना जाता है।
2. कूकी विद्रोह
कूकी विद्रोह की पृष्ठभूमि: कूकी विद्रोह 1917-1919 के बीच पूर्वोत्तर भारत के मणिपुर और नागालैंड क्षेत्र में कूकी जनजातियों द्वारा किया गया एक प्रमुख विद्रोह था। यह विद्रोह मुख्यतः ब्रिटिश सरकार की नीतियों के खिलाफ था, जिसमें कूकी जनजातियों को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जबरन सैनिकों के रूप में भर्ती किया जा रहा था। इसके साथ ही, ब्रिटिश सरकार द्वारा कूकी जनजातियों के पारंपरिक जीवन में हस्तक्षेप और उनकी भूमि पर कब्जा करने की कोशिशें भी विद्रोह के प्रमुख कारण थे।
विद्रोह का विस्तार: कूकी विद्रोह एक संगठित और उग्र आंदोलन था, जिसमें कूकी जनजातियों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ हथियार उठाए। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की सेना के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया और कई महीनों तक ब्रिटिश सैनिकों को चुनौती दी। विद्रोह ने ब्रिटिश शासन की कठिनाइयों को उजागर किया और उन्हें पूर्वोत्तर क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी।
विद्रोह का परिणाम और महत्व: अंततः, ब्रिटिश सरकार ने कूकी विद्रोह को कुचलने के लिए कड़ी सैन्य कार्रवाई की और विद्रोह को समाप्त किया। हालांकि, इस विद्रोह ने पूर्वोत्तर भारत की जनजातियों के बीच आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान की भावना को मजबूत किया और क्षेत्रीय असंतोष को उजागर किया। यह विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में देखा जाता है, जो अंग्रेजी शासन के खिलाफ जनजातीय समाजों के संघर्ष को दर्शाता है।
3. बारदोली सत्याग्रह
पृष्ठभूमि और प्रारंभ: बारदोली सत्याग्रह 1928 में गुजरात के बारदोली जिले में हुआ था, जिसका नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया था। यह सत्याग्रह ब्रिटिश सरकार द्वारा किसानों पर लगाए गए भारी करों और उनकी ज़मीनों की जब्ती के विरोध में था। बारदोली के किसानों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा करों में 22% की वृद्धि के खिलाफ विरोध किया, क्योंकि इस वृद्धि के कारण किसानों की आर्थिक स्थिति और भी खराब हो रही थी।
सत्याग्रह की रणनीति: सरदार पटेल के नेतृत्व में बारदोली के किसानों ने असहयोग और कर न चुकाने का फैसला किया। सत्याग्रहियों ने अहिंसात्मक तरीकों से सरकार के आदेशों का विरोध किया और करों का भुगतान करने से इनकार कर दिया। सरकार ने किसानों की ज़मीनों और संपत्तियों को जब्त करने का प्रयास किया, लेकिन किसानों की एकजुटता और आंदोलन की सफलता ने ब्रिटिश सरकार को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
बारदोली सत्याग्रह का महत्व: बारदोली सत्याग्रह की सफलता ने सरदार पटेल को राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रमुख नेता के रूप में स्थापित किया और उन्हें "सरदार" की उपाधि दी गई। इस आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार को यह सन्देश दिया कि भारतीय किसान अब उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ संगठित होकर लड़ने को तैयार हैं। इसके परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सरकार को कर वृद्धि वापस लेनी पड़ी और किसानों की ज़मीनें वापस कर दी गईं। इस आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहिंसा और सत्याग्रह की शक्ति को और मजबूत किया।
4. तेबागा आंदोलन
पृष्ठभूमि और उद्देश्य: तेभागा आंदोलन 1946 में बंगाल के किसान समुदाय द्वारा शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य किसानों की मांगों को लेकर था कि उन्हें अपनी फसल का दो-तिहाई हिस्सा मिलना चाहिए, जबकि जमींदार केवल एक-तिहाई हिस्सा लें। यह आंदोलन विशेष रूप से "बर्गादार" (किराएदार किसान) द्वारा चलाया गया, जो लंबे समय से आर्थिक शोषण का सामना कर रहे थे।
आंदोलन का स्वरूप: तेभागा आंदोलन का नेतृत्व मुख्यतः भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा किया गया। किसानों ने आंदोलन के तहत अपनी फसल का दो-तिहाई हिस्सा रखने का अधिकार मांगा और इसके लिए संघर्ष शुरू किया। इस आंदोलन में महिलाओं की भी व्यापक भागीदारी रही, जिन्होंने जमींदारों और उनके समर्थकों के खिलाफ संघर्ष में हिस्सा लिया।
आंदोलन का प्रभाव: हालांकि यह आंदोलन ब्रिटिश सरकार और जमींदारों की कड़ी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा और कई स्थानों पर हिंसक टकराव हुए, लेकिन इसने बंगाल में भूमि सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। तेबागा आंदोलन ने किसानों के शोषण के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने की प्रेरणा दी और स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधार के लिए एक मजबूत आधार प्रदान किया।
5. चौरी चौरा कांड
घटना का विवरण:
चौरी चौरा कांड 4 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी चौरा में हुआ था। यह घटना तब घटी जब गांधी जी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आंदोलन के दौरान स्थानीय पुलिस ने सत्याग्रहियों पर लाठीचार्ज किया। इसके प्रतिउत्तर में क्रोधित भीड़ ने पुलिस थाने को घेर लिया और उसे आग के हवाले कर दिया, जिसमें 22 पुलिसकर्मी मारे गए।
घटना का परिणाम:
चौरी चौरा कांड के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को तत्काल समाप्त करने का निर्णय लिया। उनका मानना था कि यह घटना अहिंसा के सिद्धांत के खिलाफ थी और इससे आंदोलन की मूल भावना कमजोर हो रही थी। इस घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाया और यह साबित किया कि हिंसा के साथ स्वतंत्रता संग्राम नहीं लड़ा जा सकता।
घटना का महत्व: चौरी चौरा कांड ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहिंसा और अनुशासन की आवश्यकता को रेखांकित किया। गांधी जी ने यह स्पष्ट कर दिया कि अहिंसा ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का मुख्य हथियार होगा। इस घटना के बाद आंदोलन की दिशा में बदलाव आया, लेकिन यह घटना भारतीय समाज में स्वाभिमान और संघर्ष की भावना को और प्रबल कर गई।
6. भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में मध्य वर्ग की भूमिका
मध्य वर्ग की पृष्ठभूमि:
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में मध्य वर्ग का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। 19वीं सदी के उत्तरार्ध और 20वीं सदी की शुरुआत में भारत में एक नव-मध्य वर्ग उभर रहा था, जो शिक्षा प्राप्त कर रहा था और समाज में बदलाव के प्रति जागरूक हो रहा था। ये लोग भारतीय समाज में सुधार लाने, ब्रिटिश शासन के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने और राष्ट्रीय आंदोलन को संगठित करने में अग्रणी भूमिका निभा रहे थे।
स्वतंत्रता संग्राम में मध्य वर्ग की भूमिका:
शिक्षा और राजनीतिक जागरूकता: भारतीय मध्य वर्ग, विशेष रूप से शिक्षित वर्ग, ब्रिटिश शासन के अंतर्गत उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ जागरूक हो रहा था। इस वर्ग के लोग अखबारों, पत्रिकाओं और राजनीतिक सभाओं के माध्यम से जनता के बीच स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता के विचार फैलाने लगे।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में नेतृत्व: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी, जिसमें प्रारंभिक नेतृत्व मध्य वर्ग के शिक्षित भारतीयों ने किया। बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे नेता सभी मध्यम वर्ग से आए थे, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
संविधान और कानून में सुधार: भारतीय मध्य वर्ग के नेताओं ने संविधान, कानून और न्यायपालिका में सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए। इनका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार की नीतियों को चुनौती देना और भारतीयों के लिए अधिक अधिकारों की मांग करना था।
सामाजिक सुधार और जनजागरण: मध्य वर्ग के सुधारकों ने जातिवाद, महिला अधिकारों, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं जैसे सामाजिक मुद्दों को भी उठाया। इस वर्ग ने समाज में सुधार और जागरूकता लाने के लिए आंदोलन चलाए, जिनका स्वतंत्रता संग्राम पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।
मध्य वर्ग का योगदान: मध्य वर्ग के लोगों ने भारतीय समाज को एकजुट करने और देशव्यापी आंदोलनों के संचालन में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय समाज में राष्ट्रीयता, स्वराज, और स्वदेशी के विचारों को फैलाने का काम किया। स्वतंत्रता संग्राम में मध्य वर्ग के योगदान के बिना भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधूरा रहता।
7. कम्यूनिस्ट पार्टी
कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) की स्थापना 1925 में कानपुर में की गई थी। इस पार्टी का उद्देश्य मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा के आधार पर भारत में समाजवादी क्रांति लाना था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अन्य पार्टियों की तुलना में CPI का दृष्टिकोण थोड़ा अलग था क्योंकि यह समाजवाद और कम्युनिज्म के सिद्धांतों के आधार पर संघर्ष करती थी।
कम्युनिस्ट पार्टी का योगदान:
श्रमिक और किसान आंदोलनों में भूमिका: CPI ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान श्रमिक और किसान आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने मजदूरों और किसानों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ जन आंदोलन का समर्थन किया। खासकर तेलंगाना आंदोलन और तेभागा आंदोलन में CPI की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान: द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया, क्योंकि उस समय सोवियत संघ हिटलर के खिलाफ लड़ाई में था। हालांकि, पार्टी ने इसके बाद स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लिया और श्रमिक वर्ग के अधिकारों के लिए संघर्ष जारी रखा।
अंतर्राष्ट्रीयता का दृष्टिकोण: CPI ने स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ वैश्विक समाजवादी आंदोलनों का भी समर्थन किया। उनका मानना था कि भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष को वैश्विक समाजवादी आंदोलनों का हिस्सा बनाना चाहिए और यह संघर्ष केवल भारतीयों के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के उत्पीड़ित वर्गों के लिए प्रेरणा स्रोत बन सकता है।
स्वतंत्रता के बाद भूमिका: स्वतंत्रता के बाद, CPI ने समाजवादी नीतियों को बढ़ावा दिया और भूमि सुधार, श्रमिक अधिकार, और सामाजिक समानता के मुद्दों पर सरकारों के खिलाफ संघर्ष किया। 1950 और 1960 के दशकों में पार्टी ने कई बार केंद्र और राज्यों में सत्ता में भागीदारी भी की।
CPI का महत्व: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और बाद के समाजवादी आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि पार्टी के कुछ नीतिगत दृष्टिकोण विवादित रहे, फिर भी इसका योगदान भारतीय राजनीति और समाज पर गहरा प्रभाव डालता है।
8. रियासतों का भारत में विलय
रियासतों की पृष्ठभूमि: स्वतंत्रता के समय, भारत में लगभग 562 रियासतें थीं जो ब्रिटिश सरकार के अधीन होते हुए भी स्वतंत्र शासकों द्वारा शासित थीं। 1947 में भारत की आज़ादी के बाद, इन रियासतों का भविष्य एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। भारत का एकीकरण तभी संभव हो सकता था जब सभी रियासतें भारतीय संघ का हिस्सा बनतीं। सरदार वल्लभभाई पटेल ने इस चुनौतीपूर्ण कार्य का नेतृत्व किया।
रियासतों का विलय:
भारत सरकार की नीति:
भारत सरकार ने "एकीकरण और विलय" की नीति अपनाई, जिसके तहत रियासतों को भारतीय संघ में शामिल किया गया। पटेल और वी.पी. मेनन ने रियासतों के शासकों को भारतीय संघ में शामिल होने के लिए राजी किया। उन्हें विशेष अधिकारों और अनुदानों का आश्वासन दिया गया।
कूटनीति और रणनीति:
पटेल ने रियासतों के शासकों के साथ कूटनीति, बातचीत और कुछ मामलों में दबाव की रणनीति अपनाई। अधिकांश रियासतों ने शांति से भारतीय संघ में शामिल होने का निर्णय लिया, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण रियासतों ने विरोध किया, जैसे कि हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़।
हैदराबाद का विलय:
हैदराबाद के निजाम ने भारतीय संघ में शामिल होने से इनकार कर दिया और स्वतंत्रता की मांग की। भारतीय सरकार ने "ऑपरेशन पोलो" के माध्यम से हैदराबाद को भारतीय संघ में शामिल किया। इस सैन्य अभियान ने हैदराबाद का सफलतापूर्वक विलय सुनिश्चित किया।
जूनागढ़ और कश्मीर का मामला:
जूनागढ़ ने पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लिया था, लेकिन वहां की जनता के विद्रोह और जनमत संग्रह के बाद यह भारत में शामिल हुआ। कश्मीर का मामला थोड़ा जटिल था, लेकिन महाराजा हरि सिंह ने भारतीय संघ में विलय का समझौता किया जब पाकिस्तान ने वहां हमला किया।
विलय का महत्व:
भारत की स्वतंत्रता के बाद रियासतों का सफलतापूर्वक विलय भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। पटेल की नेतृत्व क्षमता और उनकी दूरदृष्टि ने भारत को एकीकृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका परिणाम यह हुआ कि एक नए स्वतंत्र भारत को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक मजबूत आधार मिला, जो एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के रूप में उभर सका।
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