VAC-03 SOLVED IMPORTANT QUESTIONS

 VAC 03 IMPORTANT SOLVED QUESTIONS

                       2024



प्रश्न 01 प्रत्ययवादी और भौतिकवादी दृष्टिकोण से मानव स्वरूप की अवधारणा बताइए।

उत्तर:

प्रत्ययवादी (Idealist) और भौतिकवादी (Materialist) दृष्टिकोण से मानव स्वरूप की अवधारणा को समझने के लिए हमें इन दोनों दृष्टिकोणों की मूलभूत विचारधाराओं को समझना आवश्यक है।


प्रत्ययवादी दृष्टिकोण से मानव स्वरूप:

प्रत्ययवाद का मानना है कि वास्तविकता का मूल स्वरूप भौतिक वस्तुओं में नहीं, बल्कि विचारों, मान्यताओं और चेतना में है। प्रत्ययवादी दृष्टिकोण के अनुसार, मानव स्वरूप को भौतिक शरीर से अधिक उसके मानसिक और आत्मिक पहलुओं से समझा जाता है। प्लेटो जैसे प्रत्ययवादी दार्शनिकों के अनुसार, मानव की आत्मा शाश्वत और अविनाशी होती है, जबकि शरीर नश्वर होता है। आत्मा का मूल स्वभाव शुद्ध और आदर्शवादी होता है, जो शरीर की सीमाओं से परे है। प्रत्ययवादी दृष्टिकोण यह भी मानता है कि मानव जीवन का उद्देश्य आत्मा के विकास और आध्यात्मिक मुक्ति की प्राप्ति है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, मानव की मूल प्रकृति आध्यात्मिक होती है, और उसे भौतिक जीवन के बंधनों से मुक्त होकर सत्य की खोज करनी चाहिए।


भौतिकवादी दृष्टिकोण से मानव स्वरूप:

भौतिकवाद का मानना है कि वास्तविकता का आधार भौतिक वस्तुएं और प्राकृतिक प्रक्रियाएं हैं। भौतिकवादी दृष्टिकोण के अनुसार, मानव स्वरूप को उसके भौतिक शरीर और उसके द्वारा किए जाने वाले क्रियाकलापों के माध्यम से समझा जा सकता है। यह दृष्टिकोण मानव को एक भौतिक इकाई के रूप में देखता है, जो प्राकृतिक नियमों के अधीन है। भौतिकवादी दार्शनिकों का मानना है कि मन और चेतना भी भौतिक मस्तिष्क की क्रियाओं का परिणाम हैं। उनके अनुसार, मानव जीवन का उद्देश्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सामाजिक कल्याण है। इस दृष्टिकोण में आत्मा, ईश्वर या किसी भी अलौकिक तत्व को अस्वीकार किया जाता है। भौतिकवादी दृष्टिकोण यह भी मानता है कि मृत्यु के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता, और इसलिए जीवन को यथार्थवादी ढंग से जीने पर बल दिया जाता है।


निष्कर्ष:

प्रत्ययवादी दृष्टिकोण में मानव को एक आत्मिक और मानसिक इकाई के रूप में देखा जाता है, जो भौतिक संसार से परे जाकर सत्य की खोज करती है। वहीं, भौतिकवादी दृष्टिकोण मानव को एक भौतिक इकाई के रूप में देखता है, जो प्राकृतिक और सामाजिक संदर्भों में जीता है और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में विश्वास रखता है। दोनों दृष्टिकोण अपने-अपने तरीके से मानव स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं, जो उनकी मूलभूत विचारधाराओं पर आधारित होता है।


प्रश्न 02 प्लेटो और अरस्तू के द्वारा मानव स्वरूप की अवधारणा का वर्णन कीजिए।

उत्तर:

प्लेटो और अरस्तू, दोनों महान दार्शनिक थे जिन्होंने मानव स्वरूप की अवधारणा पर गहन विचार किया। हालांकि दोनों के दृष्टिकोण में भिन्नता थी, लेकिन दोनों ने मानव स्वभाव और उसकी भूमिका को समझने की कोशिश की। यहाँ प्लेटो और अरस्तू के विचारों का वर्णन किया गया है:


प्लेटो के विचार:

प्लेटो (Plato) एक प्रत्ययवादी दार्शनिक थे, जिन्होंने मानव स्वरूप को आत्मा और शरीर के बीच के संबंध के रूप में देखा। उनके विचारों के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:


1. आत्मा और शरीर का द्वैतवाद: प्लेटो का मानना था कि मानव के पास एक अमर आत्मा और नश्वर शरीर होता है। आत्मा शाश्वत और अविनाशी होती है, जबकि शरीर अस्थायी और परिवर्तनशील होता है। आत्मा का वास्तविक घर आदर्शों (Forms) की दुनिया में होता है, जबकि शरीर इस भौतिक संसार में एक अस्थायी वास है।


2. आत्मा के तीन भाग: प्लेटो ने आत्मा को तीन भागों में विभाजित किया - बुद्धि (Reason), साहस (Spirit), और इच्छा (Appetite)। 

   - बुद्धि का कार्य ज्ञान और सत्य की खोज करना है।

   - साहस का कार्य सम्मान और शक्ति की रक्षा करना है।

   - इच्छा का कार्य भौतिक आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति करना है।

   प्लेटो का मानना था कि मानव स्वभाव का संतुलन तब प्राप्त होता है जब बुद्धि, साहस, और इच्छा सही तरीके से संतुलित होते हैं और आत्मा को सही दिशा में मार्गदर्शन करते हैं।


3. सत्य और ज्ञान की खोज: प्लेटो के अनुसार, आत्मा का मुख्य उद्देश्य सत्य और ज्ञान की खोज करना है। उन्होंने कहा कि आत्मा का असली उद्देश्य भौतिक संसार से परे जाकर आदर्शों की दुनिया में सत्य की खोज करना है। उनके अनुसार, ज्ञान की प्राप्ति आत्मा के शुद्धिकरण और जीवन के अंतिम उद्देश्य की ओर ले जाती है।


अरस्तू के विचार:

अरस्तू (Aristotle) प्लेटो के शिष्य थे, लेकिन उन्होंने अपने गुरु के विचारों से भिन्न दृष्टिकोण अपनाया। अरस्तू का दृष्टिकोण अधिक यथार्थवादी और भौतिकवादी था। उनके प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं:


1. मनुष्य का प्राकृतिक रूप: अरस्तू ने मानव को एक सामाजिक और तर्कसंगत प्राणी के रूप में देखा। उनके अनुसार, मनुष्य का स्वभाव प्राकृतिक और सामाजिक है, और वह समाज में रहने के लिए बना है। अरस्तू ने कहा कि मनुष्य का स्वभाव तर्कसंगत होता है, और तर्कशक्ति के माध्यम से वह अपने जीवन को दिशा देता है।


2. संपूर्णता (Eudaimonia): अरस्तू का मानना था कि मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य 'संपूर्णता' (Eudaimonia) है, जिसे कभी-कभी 'सुख' या 'कल्याण' के रूप में अनुवादित किया जाता है। उनके अनुसार, संपूर्णता एक संतुलित जीवन के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है, जहाँ तर्क, नैतिकता, और सामूहिक कल्याण का समन्वय हो।


3. आत्मा और शरीर का संबंध: अरस्तू ने आत्मा और शरीर को अलग-अलग तत्वों के रूप में नहीं देखा, बल्कि उन्हें एक इकाई के रूप में माना। उनके अनुसार, आत्मा शरीर का 'आकार' (Form) है, और दोनों मिलकर एक जीवित प्राणी बनाते हैं। अरस्तू के अनुसार, आत्मा का कार्य तर्कशक्ति, भावना, और संवेगों का प्रबंधन करना है, और यह जीवन के हर पहलू में सक्रिय रहती है।


4. नैतिकता और तर्क: अरस्तू ने नैतिकता और तर्क को मानव जीवन के केंद्रीय तत्व के रूप में माना। उनके अनुसार, मानव जीवन का उद्देश्य तर्कसंगत विचारधारा और नैतिक गुणों के विकास के माध्यम से एक अच्छा जीवन जीना है।


निष्कर्ष:

प्लेटो और अरस्तू दोनों ने मानव स्वरूप की अवधारणा को समझने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया, लेकिन उनके दृष्टिकोण में भिन्नता थी। प्लेटो ने मानव को आत्मिक दृष्टिकोण से देखा, जहाँ आत्मा का मुख्य उद्देश्य सत्य की खोज था। दूसरी ओर, अरस्तू ने मानव को एक तर्कसंगत और सामाजिक प्राणी के रूप में देखा, जिसका उद्देश्य संपूर्णता और नैतिकता के माध्यम से एक संतुलित जीवन जीना था। दोनों के विचार मानव स्वभाव की विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं और हमें एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।


प्रश्न  03 मूल्य की परिभाषा अर्थ और स्वरूप के बारे में बताइए।

उत्तर:

मूल्य एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो नैतिकता, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, और समाजशास्त्र जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग की जाती है। इसका उपयोग उस महत्व, गुण, या महत्ता को दर्शाने के लिए किया जाता है जो किसी वस्तु, सेवा, विचार, या व्यवहार से जुड़ी होती है। मूल्य का अर्थ और स्वरूप इसके विभिन्न संदर्भों में भिन्न हो सकता है। 


मूल्य की परिभाषा:

मूल्य को सरल शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है:


- नैतिकता में: मूल्य वे नैतिक मानक या सिद्धांत होते हैं जो किसी समाज या व्यक्ति के लिए यह निर्धारित करते हैं कि क्या सही है और क्या गलत। जैसे, ईमानदारी, सत्यता, और सहानुभूति नैतिक मूल्य माने जाते हैं।


- अर्थशास्त्र में:

मूल्य का संबंध किसी वस्तु या सेवा की उपयोगिता और उससे प्राप्त होने वाले लाभ से होता है। यह वह मूल्य है जिसे लोग किसी वस्तु या सेवा के लिए भुगतान करने को तैयार होते हैं।


- दर्शनशास्त्र में:

मूल्य किसी वस्तु, विचार, या व्यवहार के महत्व को दर्शाता है, जिसे किसी व्यक्ति या समाज के जीवन में महत्वपूर्ण माना जाता है।


मूल्य का अर्थ:

मूल्य का अर्थ उस महत्व या गुण से होता है जो किसी वस्तु, सेवा, व्यक्ति, या व्यवहार से जुड़ा होता है। यह मूल्य न केवल भौतिक चीजों से जुड़ा होता है, बल्कि यह नैतिकता, संस्कृति, और व्यक्तिगत विश्वासों से भी प्रभावित होता है। मूल्य का निर्धारण करने में व्यक्ति की प्राथमिकताएं, समाज की मान्यताएं, और समय के साथ होने वाले परिवर्तन भी भूमिका निभाते हैं।


अर्थशास्त्र में मूल्य का अर्थ वस्तुओं और सेवाओं की वह आर्थिक महत्ता है, जिसे उनके उपभोग या प्रयोग से प्राप्त लाभ के आधार पर मापा जाता है। यह मूल्य मांग और आपूर्ति, उत्पादन लागत, और बाजार की अन्य स्थितियों पर निर्भर करता है।


नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य किसी समाज के आदर्शों, विश्वासों, और परंपराओं को दर्शाते हैं, जो व्यक्तियों को उनके जीवन में सही और गलत के बीच अंतर करने में मदद करते हैं।


मूल्य का स्वरूप:

मूल्य का स्वरूप बहुआयामी होता है, और इसे विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है:


1. नैतिक स्वरूप: नैतिक मूल्य समाज या व्यक्ति के नैतिक दृष्टिकोण और आचरण को निर्धारित करते हैं। ये मूल्य व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में मार्गदर्शन का कार्य करते हैं। जैसे, निष्ठा, न्याय, और करुणा नैतिक मूल्य हैं जो समाज में नैतिकता का पालन सुनिश्चित करते हैं।


2. आर्थिक स्वरूप: आर्थिक मूल्य वस्तुओं और सेवाओं की उपयोगिता और उनकी खरीद-बिक्री के आधार पर निर्धारित होता है। यह मूल्य वस्तु की मांग, उत्पादन लागत, और बाजार की प्रतिस्पर्धा से प्रभावित होता है।


3. सांस्कृतिक स्वरूप: सांस्कृतिक मूल्य किसी समाज की परंपराओं, रीति-रिवाजों, और विश्वासों के आधार पर निर्मित होते हैं। ये मूल्य समाज के सदस्यों के जीवन को संरचित करते हैं और उनकी सांस्कृतिक पहचान को परिभाषित करते हैं।


4. व्यक्तिगत स्वरूप: व्यक्तिगत मूल्य किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन में महत्वपूर्ण होते हैं और उनके निर्णयों, व्यवहारों, और प्राथमिकताओं को प्रभावित करते हैं। ये मूल्य व्यक्ति के जीवन के अनुभवों, शिक्षा, और परिवार से प्रभावित होते हैं।


निष्कर्ष:

मूल्य की परिभाषा, अर्थ, और स्वरूप विभिन्न संदर्भों और दृष्टिकोणों के आधार पर बदलते हैं। मूल्य हमारे जीवन के हर पहलू को प्रभावित करते हैं, चाहे वह नैतिकता हो, अर्थशास्त्र हो, या व्यक्तिगत और सांस्कृतिक जीवन हो। वे हमें सही और गलत के बीच का भेद समझने में मदद करते हैं और हमारे समाज और व्यक्तिगत जीवन में दिशा और उद्देश्य प्रदान करते हैं।


प्रश्न   04 पुरुषार्थ का अर्थ स्पष्ट करते हुए, धर्म अर्थ काम मोक्ष का वर्णन कीजिए।

उत्तर:

पुरुषार्थ का अर्थ है जीवन के उन चार प्रमुख उद्देश्यों को प्राप्त करना, जो मनुष्य के जीवन को संतुलित, अर्थपूर्ण, और पूर्ण बनाते हैं। ये चार पुरुषार्थ हैं: धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष। इन्हें भारतीय दर्शन और संस्कृति में मानव जीवन के लिए आदर्श मार्गदर्शक सिद्धांत माना गया है। 


पुरुषार्थ का अर्थ:

पुरुषार्थ दो शब्दों से मिलकर बना है: "पुरुष" जिसका अर्थ है 'मनुष्य', और "अर्थ" जिसका अर्थ है 'उद्देश्य' या 'साधन'। इस प्रकार, पुरुषार्थ का अर्थ है वे लक्ष्य या प्रयोजन, जिन्हें प्राप्त करना मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है। ये चार पुरुषार्थ जीवन के अलग-अलग पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और मनुष्य को सही दिशा में आगे बढ़ने के लिए मार्गदर्शन करते हैं।


1. धर्म (Dharma):

धर्म का अर्थ है नैतिकता, कर्तव्य, और धार्मिक अनुशासन। यह मनुष्य के आचरण और जीवन के सिद्धांतों को निर्धारित करता है। धर्म वह मार्ग है, जो मनुष्य को सही और गलत के बीच भेद करना सिखाता है और उसे समाज और अपने प्रति कर्तव्यों का पालन करने की प्रेरणा देता है।


- नैतिक कर्तव्य: धर्म के माध्यम से व्यक्ति अपने कर्तव्यों और दायित्वों को समझता है, चाहे वे व्यक्तिगत हों, पारिवारिक हों, या सामाजिक। 

- सामाजिक सद्भावना: धर्म सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने और सभी जीवों के प्रति सहानुभूति, न्याय और सत्य के आधार पर जीवन जीने का मार्गदर्शन करता है।

- आध्यात्मिक मार्गदर्शन: धर्म व्यक्ति को आध्यात्मिक जीवन की ओर प्रेरित करता है और उसे ईश्वर या परम सत्य के साथ जुड़ने में सहायता करता है।


2. अर्थ (Artha):

अर्थ का मतलब है धन, संपत्ति, और संसाधन। यह जीवन के भौतिक और आर्थिक पहलुओं को दर्शाता है। अर्थ पुरुषार्थ का उद्देश्य व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं और सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करना है।


- आर्थिक सुरक्षा: अर्थ व्यक्ति को अपने और अपने परिवार की आर्थिक सुरक्षा के लिए आवश्यक साधनों को प्राप्त करने की प्रेरणा देता है।

- सामाजिक प्रतिष्ठा: धन और संपत्ति से व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त करता है, जो उसे सामाजिक जीवन में स्थिरता प्रदान करता है।

- उपभोग और जीवन: अर्थ के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन को समृद्ध और आरामदायक बना सकता है, जिससे वह अपने अन्य कर्तव्यों को सुचारू रूप से पूरा कर सके।


3. काम (Kama):

काम का अर्थ है इच्छाएं, इच्छाओं की पूर्ति, और भौतिक सुख। यह जीवन के उन पहलुओं से संबंधित है जो व्यक्ति को आनंद, प्रेम, और संतुष्टि प्रदान करते हैं। 


- भौतिक सुख: काम व्यक्ति को जीवन के विभिन्न सुखों और आनंदों का अनुभव करने की प्रेरणा देता है, जैसे प्रेम, कला, और संगीत।

- संतुष्टि: काम व्यक्ति को अपनी इच्छाओं की पूर्ति करके जीवन में संतोष और पूर्णता का अनुभव करने में मदद करता है।

- सामाजिक संबंध: काम के माध्यम से व्यक्ति समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ प्रेम और संबंध स्थापित करता है, जो समाज के समग्र कल्याण के लिए आवश्यक है।


4. मोक्ष (Moksha):

मोक्ष का अर्थ है मुक्ति या आत्मा की स्वतंत्रता। यह जीवन के अंतिम और सर्वोच्च उद्देश्य का प्रतीक है। मोक्ष का मतलब है जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति और परमात्मा के साथ एकात्मता।


- आध्यात्मिक मुक्ति: मोक्ष का मुख्य उद्देश्य आत्मा की मुक्ति है, जिसे संसार के बंधनों और कर्मों से मुक्त होकर प्राप्त किया जाता है।

- परम आनंद: मोक्ष के माध्यम से व्यक्ति परम आनंद और शांति प्राप्त करता है, जो संसार के किसी भी भौतिक सुख से परे है।

- परमात्मा से मिलन: मोक्ष का अंतिम लक्ष्य आत्मा का परमात्मा के साथ एक हो जाना है, जो कि सभी इच्छाओं और कर्मों से मुक्त होने पर ही संभव है।


निष्कर्ष:

पुरुषार्थ के चारों स्तंभ - धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष - एक संतुलित और पूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक हैं। धर्म नैतिकता और कर्तव्य की दिशा में मार्गदर्शन करता है, अर्थ भौतिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है, काम इच्छाओं और सुखों की पूर्ति का माध्यम है, और मोक्ष जीवन का अंतिम उद्देश्य है, जो आत्मा की मुक्ति और परम शांति की प्राप्ति का प्रतीक है। इन चारों पुरुषार्थों का समन्वय ही एक सार्थक और सफल जीवन का आधार है।


प्रश्न  05  वर्णआश्रम व्यवस्था का विस्तृत वर्णन कीजिए।

उत्तर:

वर्णाश्रम व्यवस्था भारतीय समाज की एक प्राचीन सामाजिक संरचना है, जो वर्ण (जाति) और आश्रम (जीवन के चार चरण) पर आधारित है। इस व्यवस्था का उद्देश्य समाज को व्यवस्थित करना और व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न चरणों में मार्गदर्शन प्रदान करना था। 


वर्णाश्रम व्यवस्था का अर्थ:

वर्णाश्रम व्यवस्था दो शब्दों से मिलकर बनी है: 

- वर्ण का अर्थ है 'जाति' या 'वर्ग', और यह समाज के विभिन्न वर्गों या समूहों को दर्शाता है। 

- आश्रम का अर्थ है 'जीवन के चरण', और यह व्यक्ति के जीवन को चार चरणों में विभाजित करता है।


1. वर्ण व्यवस्था:

वर्ण व्यवस्था समाज को चार मुख्य वर्णों में विभाजित करती है। ये वर्ण व्यक्ति के जन्म, गुण, और कर्म के आधार पर निर्धारित होते थे। प्रत्येक वर्ण का समाज में विशिष्ट कर्तव्य और अधिकार होता था। 


(i) ब्राह्मण:

- भूमिका:

ब्राह्मण वर्ण के लोग विद्वान, शिक्षक, और पुरोहित होते थे। इनका कर्तव्य वेदों का अध्ययन और अध्यापन, पूजा-पाठ, यज्ञ, और धार्मिक अनुष्ठानों का संचालन करना था।

- विशेषता:

ब्राह्मणों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था क्योंकि वे ज्ञान और धर्म के रक्षक माने जाते थे।


(ii) क्षत्रिय:

- भूमिका: 

क्षत्रिय समाज के रक्षक और शासक होते थे। उनका कर्तव्य युद्ध करना, राज्य की रक्षा करना, न्याय करना, और शासन संचालन करना था।

- विशेषता: 

क्षत्रियों को समाज में सुरक्षा और शासन का उत्तरदायित्व दिया गया था।


(iii) वैश्य:

- भूमिका:

वैश्य वर्ण के लोग व्यापार, कृषि, और धन-संचयन के कार्य करते थे। उनका कर्तव्य समाज की आर्थिक व्यवस्था को संचालित करना और समाज के अन्य वर्गों के लिए संसाधन जुटाना था।

- विशेषता:

वैश्य समाज के आर्थिक स्तंभ थे और व्यापार तथा कृषि के माध्यम से समाज की समृद्धि में योगदान करते थे।


(iv) शूद्र:

- भूमिका: शूद्र समाज के सेवा-प्रदाता होते थे। उनका कर्तव्य अन्य तीन वर्णों की सेवा करना, विभिन्न शिल्प और कारीगरी का कार्य करना था।

- विशेषता: शूद्रों को समाज के निम्नतम स्थान पर रखा गया था, और वे सेवक वर्ग के रूप में जाने जाते थे।


2. आश्रम व्यवस्था:

आश्रम व्यवस्था व्यक्ति के जीवन को चार चरणों में विभाजित करती है। प्रत्येक आश्रम का उद्देश्य व्यक्ति को जीवन के विभिन्न पहलुओं में प्रशिक्षित करना और उसे समाज के प्रति कर्तव्यों के लिए तैयार करना था।


(i) ब्रह्मचर्य आश्रम:

- अवधि:

यह जीवन का पहला चरण होता है, जो बचपन और युवावस्था को कवर करता है।

- कर्तव्य: 

इस चरण में व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करता है, गुरु के आश्रम में रहकर वेदों का अध्ययन करता है, और नैतिकता तथा अनुशासन की शिक्षा ग्रहण करता है।

- उद्देश्य:

शारीरिक, मानसिक, और नैतिक विकास करना।


(ii) गृहस्थ आश्रम:

- अवधि: 

यह जीवन का दूसरा चरण है, जो वयस्कता से लेकर परिवार स्थापना तक चलता है।

- कर्तव्य: इस चरण में व्यक्ति विवाह करता है, परिवार का पालन-पोषण करता है, और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है।

- उद्देश्य: समाज की आर्थिक और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करना।


(iii) वानप्रस्थ आश्रम:

- अवधि:

यह जीवन का तीसरा चरण है, जब व्यक्ति अपने सांसारिक कर्तव्यों को त्यागकर जंगल में जाकर एकांत जीवन व्यतीत करता है।

- कर्तव्य: 

इस चरण में व्यक्ति ध्यान, साधना, और आत्मनिरीक्षण करता है, और धीरे-धीरे सांसारिक जीवन से मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास करता है।

- उद्देश्य: 

आत्मिक विकास और सांसारिक बंधनों से मुक्त होने की तैयारी।


(iv) संन्यास आश्रम:

- अवधि: 

यह जीवन का अंतिम चरण है, जब व्यक्ति अपने सभी बंधनों को त्यागकर संन्यासी जीवन धारण करता है।

- कर्तव्य: 

इस चरण में व्यक्ति पूरी तरह से आध्यात्मिक जीवन जीता है, भिक्षा पर निर्भर रहता है, और ईश्वर की आराधना में समय बिताता है।

- उद्देश्य: 

मोक्ष की प्राप्ति और जीवन के अंतिम लक्ष्य की ओर अग्रसर होना।


निष्कर्ष:

वर्णाश्रम व्यवस्था प्राचीन भारतीय समाज की एक व्यवस्थित सामाजिक और धार्मिक संरचना थी। इसका उद्देश्य समाज में विभिन्न वर्गों के बीच कर्तव्यों और अधिकारों का समुचित विभाजन करना और व्यक्ति को जीवन के विभिन्न चरणों में मार्गदर्शन प्रदान करना था। हालांकि आधुनिक समय में इस व्यवस्था में काफी बदलाव आए हैं और यह कई आलोचनाओं का भी विषय बनी है, फिर भी यह भारतीय समाज के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


प्रश्न 06   पाश्चात्य दार्शनिक परंपरा में मूल्य की अवधारणा बताइए।

उत्तर:

पाश्चात्य दार्शनिक परंपरा में मूल्य की अवधारणा एक व्यापक और बहुआयामी विषय है, जो नैतिकता, सौंदर्यशास्त्र, और सामाजिक सिद्धांतों जैसे कई क्षेत्रों में फैली हुई है। मूल्य के अध्ययन को अंग्रेजी में "Axiology" कहा जाता है, जो ग्रीक शब्द "Axios" (मूल्य) से लिया गया है। पाश्चात्य दर्शन में मूल्य की अवधारणा विभिन्न दार्शनिकों और विचारधाराओं के माध्यम से विकसित हुई है।


1. प्राचीन और मध्यकालीन अवधारणाएं:


(i) प्लेटो (Plato):

- आदर्शवाद:

प्लेटो के अनुसार, मूल्य वास्तविकता का एक आदर्श रूप है जो "Forms" या "Ideas" के रूप में अस्तित्व में है। उसने कहा कि सच्चा मूल्य (जैसे सत्य, सुंदरता, और अच्छाई) इन आदर्श रूपों में निहित होता है और भौतिक दुनिया में इनका प्रतिबिंब मात्र देखा जा सकता है।

- नैतिक मूल्य:

प्लेटो ने नैतिकता को व्यक्ति और समाज की भलाई से जोड़ा। उसने यह भी माना कि आत्मा का उद्देश्य सच्चे ज्ञान (विवेक) की प्राप्ति के माध्यम से उच्चतर नैतिक मूल्यों तक पहुंचना है।


(ii) अरस्तू (Aristotle):

- गुणकारी नैतिकता (Virtue Ethics):

अरस्तू ने मूल्य को "टेलोस" (अंतिम उद्देश्य) से जोड़ा। उसके अनुसार, हर व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य "यूडेमोनिया" (प्रसन्नता या समृद्धि) प्राप्त करना है, जो नैतिक गुणों (Virtues) के माध्यम से हासिल किया जा सकता है।

- मध्य मार्ग: 

अरस्तू ने "स्वर्ण मध्य" (Golden Mean) की अवधारणा दी, जिसके अनुसार नैतिकता का मूल्य चरित्र के गुणों के संतुलन में होता है, जिसमें किसी भी गुण का अतिरेक या अभाव नहीं होना चाहिए।


2. आधुनिक अवधारणाएं:


(i) इम्मानुएल कांट (Immanuel Kant):

- कर्तव्यवाद (Deontology): 

कांट ने नैतिक मूल्य को कर्तव्य के पालन और आत्मसंयम से जोड़ा। उसने तर्क दिया कि "Categorical Imperative" (अनिवार्य आदेश) के अनुसार, व्यक्ति को इस प्रकार कार्य करना चाहिए कि उनका आचरण सार्वभौमिक नैतिक कानून बन सके।

- आत्म-स्वायत्तता (Autonomy): 

कांट के अनुसार, नैतिक मूल्य आत्म-स्वायत्तता में निहित होता है, जहां व्यक्ति तर्कसंगत रूप से अपने नैतिक कर्तव्यों को निर्धारित करता है और उनका पालन करता है।


(ii) जेरेमी बेंथम और जॉन स्टुअर्ट मिल (Jeremy Bentham and John Stuart Mill):

- उपयोगितावाद (Utilitarianism):

बेंथम और मिल ने नैतिक मूल्यों का आकलन सुख और दुख की अवधारणाओं से किया। उनके अनुसार, मूल्य का निर्धारण उस कार्य की उपयोगिता से होता है, जो अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख का कारण बनता है।

- समाज कल्याण: 

मिल ने "उच्च" और "निम्न" सुखों के बीच अंतर किया और तर्क दिया कि उच्च मानसिक सुख अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। उनका मानना था कि नैतिक मूल्य वह है जो व्यक्ति और समाज की समग्र भलाई को बढ़ावा देता है।


प्रश्न 07  व्यक्तित्व का अर्थ स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

व्यक्तित्व एक बहुआयामी अवधारणा है, जो व्यक्ति के विचारों, भावनाओं, व्यवहारों, और सामाजिक संबंधों के संयोजन से निर्मित होती है। यह व्यक्ति को अन्य लोगों से अलग और विशिष्ट बनाता है। व्यक्तित्व का अध्ययन मनोविज्ञान के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न केवल किसी व्यक्ति के स्वभाव और व्यवहार को समझने में मदद करता है, बल्कि यह यह भी बताता है कि व्यक्ति कैसे सोचता है, महसूस करता है, और सामाजिक परिवेश में कैसे कार्य करता है।


व्यक्तित्व का अर्थ:

व्यक्तित्व शब्द का अर्थ है "व्यक्ति की वह विशेषता जो उसे अन्य व्यक्तियों से भिन्न बनाती है।" यह व्यक्ति की मानसिक, भावनात्मक, और सामाजिक विशेषताओं का समग्र परिणाम है। व्यक्तित्व को संकीर्ण अर्थ में केवल बाहरी रूप-रंग से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, बल्कि इसमें व्यक्ति का स्वभाव, दृष्टिकोण, नैतिकता, और व्यवहार के सभी पहलू शामिल होते हैं।


प्रश्न  08 व्यक्तित्व के आदर्श रूपांतरण के ज्ञान मार्ग और भक्ति या प्रेम का भावमार्ग दोनो को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

ज्ञान मार्ग (Jnana Yoga) और भक्ति मार्ग (Bhakti Yoga) दोनों ही व्यक्तित्व के आदर्श रूपांतरण के प्रमुख साधन हैं, लेकिन इनके दृष्टिकोण भिन्न हैं:


1. ज्ञान मार्ग (Jnana Yoga):

- बुद्धि और विवेक पर आधारित:

इस मार्ग में आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए तर्क, विचारशीलता, और शास्त्रों का अध्ययन किया जाता है।

- अहंकार और अज्ञान का त्याग:

व्यक्ति अपने असली स्वरूप (आत्मा) को पहचानकर माया और अज्ञान से मुक्त होता है।

- आत्म-साक्षात्कार का लक्ष्य:

इस मार्ग का अंतिम लक्ष्य आत्मा और परमात्मा की एकता का अनुभव करना है।


2. भक्ति मार्ग (Bhakti Yoga):

- प्रेम और समर्पण पर आधारित: इस मार्ग में भगवान के प्रति प्रेम, श्रद्धा, और समर्पण को महत्व दिया जाता है।

- साधना की सरलता:

भक्ति में भगवान के नाम का स्मरण, कीर्तन, और पूजा शामिल हैं, जो सभी के लिए सुलभ हैं।

- भगवान के साथ भावनात्मक संबंध:

भक्त भगवान के साथ विभिन्न भावनात्मक संबंध (जैसे सखा भाव, दास भाव) स्थापित करता है।


संक्षेप में, ज्ञान मार्ग में बौद्धिक और तर्कसंगत साधनों का उपयोग कर आत्म-ज्ञान की प्राप्ति की जाती है, जबकि भक्ति मार्ग में प्रेम और समर्पण के माध्यम से भगवान के साथ भावनात्मक संबंध स्थापित किया जाता है। दोनों ही मार्ग व्यक्ति के व्यक्तित्व के आदर्श रूपांतरण की दिशा में महत्वपूर्ण हैं।


प्रश्न  09 मार्टिन लूथर किंग जूनियर का जीवन परिचय दीजिए।

उत्तर:

मार्टिन लूथर किंग जूनियर एक प्रमुख अमेरिकी नागरिक अधिकार नेता थे, जिन्होंने नस्लीय समानता और न्याय के लिए अहिंसक संघर्ष किया। उनका जीवन और कार्य नस्लीय भेदभाव को समाप्त करने और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है।


प्रारंभिक जीवन:

- जन्म: 15 जनवरी, 1929

- जन्मस्थान:

अटलांटा, जॉर्जिया, संयुक्त राज्य अमेरिका

- परिवार:

उनके पिता मार्टिन लूथर किंग सीनियर एक बैपटिस्ट पादरी थे, और माता अल्बर्टा विलियम्स किंग एक स्कूल शिक्षिका थीं।

- शिक्षा:

किंग ने मॉरहाउस कॉलेज से समाजशास्त्र में स्नातक किया और बाद में क्रॉज़र थियोलॉजिकल सेमिनरी से धर्मशास्त्र में डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने बोस्टन विश्वविद्यालय से सिस्टमैटिक थियोलॉजी में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।


नागरिक अधिकार आंदोलन:

- नेतृत्व:

किंग ने 1950 और 1960 के दशक में अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन का नेतृत्व किया। उनका लक्ष्य अफ्रीकी अमेरिकियों के लिए समान अधिकारों और नस्लीय न्याय की प्राप्ति था।

- मोंटगोमरी बस बहिष्कार (1955-56):

किंग ने रोज़ा पार्क्स की गिरफ्तारी के बाद मोंटगोमरी बस बहिष्कार का नेतृत्व किया, जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप, सुप्रीम कोर्ट ने बसों में नस्लीय अलगाव को असंवैधानिक घोषित कर दिया।

- अहिंसक प्रतिरोध:

महात्मा गांधी से प्रेरित होकर, किंग ने अहिंसा और नागरिक अवज्ञा के सिद्धांतों का पालन किया। उन्होंने नस्लीय भेदभाव, अलगाव, और अन्याय के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध का आह्वान किया।

- "आई हैव अ ड्रीम" भाषण:

28 अगस्त, 1963 को वॉशिंगटन डी.सी. में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने 250,000 से अधिक लोगों के सामने "आई हैव अ ड्रीम" (I Have a Dream) भाषण दिया, जो नस्लीय समानता और भाईचारे का प्रतीक बन गया।

- नोबेल शांति पुरस्कार (1964):

किंग को 1964 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले सबसे युवा व्यक्ति बने।


मृत्यु:

- हत्या: 

4 अप्रैल, 1968 को, मार्टिन लूथर किंग जूनियर को मेम्फिस, टेनेसी में गोली मारकर हत्या कर दी गई। वे वहां सफाई कर्मचारियों की हड़ताल का समर्थन करने गए थे।

- विरासत:

किंग की मृत्यु के बाद, उन्हें अमेरिकी इतिहास में एक महान नेता के रूप में याद किया जाता है। उनके जन्मदिन को संयुक्त राज्य अमेरिका में एक राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है।


मार्टिन लूथर किंग जूनियर का जीवन और कार्य नस्लीय समानता, सामाजिक न्याय, और मानवाधिकारों के संघर्ष में अनंत प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं।


प्रश्न 10  कबीर ,रैदास ,और नानक का जीवन परिचय दीजिए।

उत्तर:

कबीर, रैदास, और गुरु नानक तीनों ही भारतीय संत परंपरा के महान संत और समाज सुधारक थे। इन्होंने अपने जीवन और शिक्षाओं के माध्यम से सामाजिक भेदभाव, अंधविश्वास, और धार्मिक कट्टरता का विरोध किया और समाज में समानता, प्रेम, और भाईचारे का संदेश फैलाया। 


1. कबीरदास (Kabir Das)

जीवन परिचय:

- जन्म:

कबीरदास का जन्म 1398 ईस्वी में वाराणसी (काशी), उत्तर प्रदेश में हुआ माना जाता है। उनके जन्म के विषय में अनेक कथाएँ हैं, जिनमें से एक के अनुसार उन्हें एक विधवा ब्राह्मणी ने जन्म दिया था और बाद में एक जुलाहा परिवार ने उन्हें गोद लिया था।

- जीवन:

कबीरदास का जीवन एक साधारण जुलाहे के रूप में बीता, लेकिन वे अत्यधिक ज्ञानी और अनुभवी संत थे। उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों धार्मिक परंपराओं की कट्टरता का विरोध किया और परमात्मा की एकता और भक्ति की राह पर चलने का उपदेश दिया। कबीर के विचार सरल, स्पष्ट, और आमजन को प्रेरित करने वाले थे।

- रचनाएँ:

कबीर के दोहे और साखियाँ उनके दर्शन और विचारों का प्रमुख स्रोत हैं। उनके भजन और पद भारतीय भक्ति साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

- मृत्यु:

कबीर की मृत्यु 1518 ईस्वी में मगहर, उत्तर प्रदेश में हुई। उनके अनुयायियों में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही शामिल थे, और उनकी मृत्यु के बाद भी उनके बारे में कई कहानियाँ प्रचलित हैं।


शिक्षाएँ:

कबीरदास ने निराकार ईश्वर की भक्ति पर जोर दिया और मूर्ति पूजा, जाति-पांति, और धार्मिक आडंबरों का विरोध किया। उन्होंने अहिंसा, प्रेम, और सच्चाई के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी। उनके दोहे और साखियाँ जनमानस में आज भी प्रचलित हैं और उन्हें 'संत कवि' के रूप में जाना जाता है।


2. रैदास (Ravidas)

जीवन परिचय:

- जन्म:

रैदास का जन्म 15वीं शताब्दी में वाराणसी (काशी), उत्तर प्रदेश में हुआ। वे एक साधारण चर्मकार परिवार से थे, जो कि उस समय समाज में निम्न मानी जाने वाली जाति थी।

-जीवन:

रैदास ने समाज के निम्न वर्गों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और धार्मिक भेदभाव का विरोध किया। उनका जीवन सादगी और परोपकार से भरा था। रैदास ने अपने जीवन में भक्ति के मार्ग का अनुसरण किया और अपने उपदेशों से समाज में सुधार लाने का प्रयास किया।

- रचनाएँ:

रैदास के पद और भजन उनकी भक्ति और समाज सुधार की भावना को व्यक्त करते हैं। उनके विचारों ने बाद में सिख धर्म और अन्य भक्ति आंदोलनों को भी प्रभावित किया।

- मृत्यु: 

रैदास की मृत्यु 16वीं शताब्दी में हुई। वे आज भी अनेक धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।


शिक्षाएँ:

रैदास ने समानता, भाईचारे, और भक्ति का संदेश दिया। वे जाति-प्रथा के विरोधी थे और उनका मानना था कि ईश्वर की भक्ति के लिए किसी भी प्रकार की जाति-भेद की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने सामाजिक न्याय और मानवता के मूल्यों का प्रचार किया।


3. गुरु नानक देव (Guru Nanak Dev)

जीवन परिचय:

- जन्म:

गुरु नानक देव का जन्म 15 अप्रैल, 1469 को तलवंडी (अब पाकिस्तान में ननकाना साहिब) में हुआ था। वे मेहता कालू और माता तृप्ता के पुत्र थे।

- जीवन:

गुरु नानक बचपन से ही धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों में गहरी रुचि रखते थे। उन्होंने जीवनभर समाज में व्याप्त बुराइयों और धार्मिक कट्टरता का विरोध किया। नानक ने कई यात्राएँ कीं और विभिन्न धर्मों के विद्वानों और संतों से संवाद किया। उन्होंने एक नई धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था की स्थापना की, जो बाद में सिख धर्म के रूप में विकसित हुई।

- रचनाएँ:

गुरु नानक के उपदेश और शिक्षाएँ गुरबाणी के रूप में गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। उनके विचारों ने लाखों लोगों को आध्यात्मिक और सामाजिक मार्गदर्शन प्रदान किया।

- मृत्यु:

गुरु नानक की मृत्यु 22 सितंबर, 1539 को करतारपुर (अब पाकिस्तान में) में हुई। उनके अनुयायियों ने उनके बाद सिख धर्म की नींव को मजबूत किया और उनकी शिक्षाओं का पालन किया।


शिक्षाएँ:

गुरु नानक ने एक ईश्वर की उपासना, मानवता की सेवा, और सत्य, न्याय, तथा समानता की शिक्षाएँ दीं। उन्होंने "नाम जपो, किरत करो, और वंड छको" (ईश्वर का नाम जपो, मेहनत से कमाओ, और बांटकर खाओ) का सिद्धांत दिया। उन्होंने जाति, धर्म, और लिंग के भेदभाव का विरोध किया और समाज में समानता और भाईचारे की स्थापना का प्रयास किया।


सारांश:

कबीर, रैदास, और गुरु नानक तीनों ही संतों ने समाज सुधार और मानवता की सेवा के लिए अपने जीवन को समर्पित किया। उनके विचार और शिक्षाएँ आज भी समाज में महत्वपूर्ण हैं और लाखों लोगों को प्रेरणा देती हैं। इन संतों ने धार्मिक भेदभाव, सामाजिक अन्याय, और जाति-प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और समानता, प्रेम, और भक्ति के संदेश का प्रचार किया।


प्रश्न 11  महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद जी का जीवन परिचय देते हुए उनके विचारों का वर्णन कीजिए।

उत्तर:

महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद दोनों ही भारतीय इतिहास के महान व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपने विचारों और कार्यों से समाज में गहरा प्रभाव डाला। वे दोनों मानवता, नैतिकता, और सामाजिक सुधार के प्रतीक माने जाते हैं। 


1. महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi)

जीवन परिचय:

- जन्म:

2 अक्टूबर, 1869

- जन्मस्थान:

पोरबंदर, गुजरात, भारत

- पूरा नाम:

मोहनदास करमचंद गांधी

- शिक्षा:

गांधी ने कानून की पढ़ाई इंग्लैंड के लंदन विश्वविद्यालय से की। उन्होंने अपनी वकालत दक्षिण अफ्रीका में शुरू की, जहाँ वे भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए अहिंसक आंदोलन की नींव रखी।

- आंदोलन:

गांधी जी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व में कई आंदोलन हुए, जैसे कि चंपारण सत्याग्रह, खेड़ा सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह, और भारत छोड़ो आंदोलन।

- मृत्यु:

30 जनवरी, 1948 को नई दिल्ली में नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या कर दी।


विचार:

- अहिंसा (Non-violence):

गांधी जी के जीवन का मुख्य सिद्धांत अहिंसा था। उनका मानना था कि किसी भी प्रकार का संघर्ष या आंदोलन अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही सफल हो सकता है।

- सत्याग्रह (Satyagraha):

सत्याग्रह गांधी जी का प्रमुख राजनीतिक सिद्धांत था, जिसमें सत्य और अहिंसा के माध्यम से अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया जाता है।

- स्वराज (Self-rule):

गांधी जी ने स्वराज का आह्वान किया, जिसमें उन्होंने भारतीयों के आत्मनिर्भर बनने और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की बात कही।

- साधारण जीवन:

गांधी जी ने सादगी और आत्मनिर्भरता का पालन किया। उनका जीवन साधारण था, और उन्होंने लोगों को सादा जीवन और उच्च विचार अपनाने की प्रेरणा दी।


2. स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda)

जीवन परिचय:

- जन्म:

12 जनवरी, 1863

- जन्मस्थान:

कोलकाता, पश्चिम बंगाल, भारत

- पूरा नाम:

नरेंद्रनाथ दत्ता

- गुरु:

स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के मार्गदर्शन में आध्यात्मिकता की गहराइयों को समझा और अपनाया।

- विश्व धर्म महासभा:

1893 में, स्वामी विवेकानंद ने शिकागो, अमेरिका में विश्व धर्म महासभा में भारत और हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया। उनके संबोधन "मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों" ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई।

- रामकृष्ण मिशन:

स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य शिक्षा, सेवा, और आध्यात्मिकता के माध्यम से समाज की सेवा करना है।

- मृत्यु:

4 जुलाई, 1902 को बेलूर मठ, पश्चिम बंगाल में उनका निधन हो गया।


विचार:

- आध्यात्मिकता और मानव सेवा:

विवेकानंद ने मानव सेवा को ईश्वर की सच्ची पूजा माना। उनका मानना था कि समाज की सेवा ही सच्ची आध्यात्मिकता है।

- शिक्षा का महत्व:

स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा को समाज के विकास का सबसे महत्वपूर्ण साधन माना। वे जीवन निर्माण, चरित्र निर्माण, और आत्मनिर्भरता को शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मानते थे।

- वसुधैव कुटुंबकम्:

उन्होंने समस्त विश्व को एक परिवार के रूप में देखने का दृष्टिकोण दिया। उनका मानना था कि सभी धर्म सत्य के विभिन्न मार्ग हैं, और धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए।

- युवा शक्ति:

स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को राष्ट्र की शक्ति माना और उन्हें प्रेरित किया कि वे आत्मनिर्भर बनें और समाज के कल्याण के लिए कार्य करें।


सारांश:

महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद दोनों ही महान विचारक और समाज सुधारक थे, जिन्होंने अपने जीवन को मानवता, सत्य, और न्याय के लिए समर्पित किया। 






इस विषय का डॉक्यूमेंट डाउनलोड करने के लिए नीचे क्लिक करें।


DOWNLOAD DOCUMENT