GEBO-01 SOLVED PAPER DECEMBER 2023
01. बैक्टीरिया, वायरस और कवक की सामान्य विशेषताओं पर विस्तृत टिप्पणी लिखे।
बैक्टीरिया, वायरस और कवक सूक्ष्मजीवों (Microorganisms) की प्रमुख श्रेणियाँ हैं, जो विभिन्न जैविक गुणों से युक्त होती हैं। ये जीव पृथ्वी पर जीवन की विविधता को दर्शाते हैं और मानव जीवन के साथ-साथ पर्यावरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनकी संरचना, प्रजनन प्रक्रिया और कार्यप्रणाली में भिन्नताएँ होते हुए भी इनमें कुछ सामान्य विशेषताएँ पाई जाती हैं।
1. बैक्टीरिया (Bacteria)
बैक्टीरिया एकल-कोशिकीय (unicellular) सूक्ष्मजीव होते हैं, जो स्वतंत्र रूप से जीवित रह सकते हैं। ये प्रोकैरियोटिक (Prokaryotic) होते हैं, अर्थात् इनमें सुव्यवस्थित केंद्रक (nucleus) नहीं पाया जाता।
बैक्टीरिया की सामान्य विशेषताएँ:
संरचना: बैक्टीरिया की कोशिका झिल्ली के बाहर एक कोशिका भित्ति (cell wall) होती है, जो पेप्टिडोग्लाइकैन (Peptidoglycan) से बनी होती है।
प्रकार: संरचना के आधार पर बैक्टीरिया मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं—ग्राम-धनात्मक (Gram-positive) और ग्राम-ऋणात्मक (Gram-negative)।
आकार: ये विभिन्न आकारों में पाए जाते हैं, जैसे—गोल (Coccus), छड़ी के आकार के (Bacillus), सर्पिल (Spiral) आदि।
प्रजनन: बैक्टीरिया असूत्री जनन (Asexual Reproduction) द्वारा विभाजन (Binary Fission) के माध्यम से तेज़ी से संख्या में वृद्धि करते हैं।
पोषण: ये स्वतः पोषी (Autotrophic) या परपोषी (Heterotrophic) हो सकते हैं। कुछ बैक्टीरिया नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen Fixation) में सहायक होते हैं।
रोगजनकता: कुछ बैक्टीरिया मनुष्यों, पौधों और जानवरों में रोग उत्पन्न कर सकते हैं, जैसे—ट्यूबरकुलोसिस (TB), कॉलरा, टाइफॉइड आदि।
2. वायरस (Virus)
वायरस अकोशिकीय (Acellular) और निर्जीव एवं सजीव दोनों विशेषताओं वाले होते हैं। ये केवल किसी जीवित कोशिका के भीतर ही सक्रिय होते हैं।
वायरस की सामान्य विशेषताएँ:
संरचना: वायरस में न्यूक्लिक एसिड (DNA या RNA) और एक प्रोटीन आवरण (Capsid) होता है। कुछ वायरस के चारों ओर लिपिड से बनी झिल्ली (Envelope) भी होती है।
आकार और प्रकार: ये अत्यंत सूक्ष्म होते हैं और विभिन्न आकारों में पाए जाते हैं, जैसे—गोलाकार, तिकोने, बेलनाकार आदि।
जीवित और निर्जीव गुण: वायरस निर्जीव पदार्थों की तरह क्रिस्टलीकृत (Crystallized) हो सकते हैं, लेकिन जब वे किसी जीवित कोशिका में प्रवेश करते हैं, तो सजीव की तरह व्यवहार करते हैं।
प्रजनन: वायरस स्वतंत्र रूप से विभाजन नहीं कर सकते, बल्कि किसी मेजबान कोशिका (Host Cell) के अंदर प्रवेश कर उसे नियंत्रित करके अपनी संख्या बढ़ाते हैं।
रोगजनकता: वायरस कई घातक बीमारियाँ फैलाते हैं, जैसे—एड्स (HIV), इन्फ्लूएंजा, डेंगू, हेपेटाइटिस, कोरोना वायरस (COVID-19) आदि।
विशिष्टता: प्रत्येक वायरस किसी विशेष मेजबान (Host) के लिए विशिष्ट होता है, जैसे—बैक्टीरियोफेज केवल बैक्टीरिया को संक्रमित करता है।
3. कवक (Fungi)
कवक बहुकोशिकीय (Multicellular) या एकल-कोशिकीय (Unicellular) जीव होते हैं, जो मुख्य रूप से मृत कार्बनिक पदार्थों पर निर्भर रहते हैं।
कवक की सामान्य विशेषताएँ:
संरचना: कवक की कोशिका भित्ति मुख्य रूप से काइटिन (Chitin) से बनी होती है।
प्रजनन: ये लैंगिक (Sexual) और अलैंगिक (Asexual) दोनों विधियों से प्रजनन कर सकते हैं। इनका मुख्य प्रजनन माध्यम बीजाणु (Spores) होते हैं।
पोषण: कवक मृत जीवों के अपघटन में सहायक होते हैं और इन्हें अपघटक (Decomposers) कहा जाता है। कुछ कवक परजीवी (Parasitic) भी हो सकते हैं।
प्रकार: मुख्य रूप से यीस्ट (Yeast), मोल्ड (Mold) और मशरूम (Mushroom) प्रमुख प्रकार के कवक हैं।
उपयोगिता: कुछ कवक औषधियों (जैसे—पेनिसिलिन), शराब निर्माण, ब्रेड बनाने और खाद्य पदार्थों के उत्पादन में सहायक होते हैं।
रोगजनकता: कुछ कवक मनुष्यों में संक्रमण उत्पन्न कर सकते हैं, जैसे—रिंगवर्म, दाद, एथलीट फुट आदि।
निष्कर्ष
बैक्टीरिया, वायरस और कवक तीनों अलग-अलग जैविक संरचना और जीवन शैली के होते हैं। बैक्टीरिया स्वतंत्र रूप से जीवित रह सकते हैं, जबकि वायरस को जीवित रहने के लिए मेजबान की आवश्यकता होती है। कवक मुख्य रूप से अपघटक के रूप में कार्य करते हैं। ये तीनों हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं—कुछ लाभकारी होते हैं, तो कुछ रोगजनक। अतः इनके उचित अध्ययन और नियंत्रण के लिए वैज्ञानिक शोध आवश्यक है।
02. बेन्थम एवं हुकर द्वारा प्रस्तावित वर्गीकरण का वर्णन कीजिये। इसके फायदे और नुकसान पर चर्चा करें।
पादप वर्गीकरण (Plant Classification) के क्षेत्र में बेन्थम (George Bentham) और हुकर (Joseph Dalton Hooker) द्वारा प्रस्तुत प्राकृतिक वर्गीकरण (Natural Classification) एक महत्वपूर्ण योगदान है। यह वर्गीकरण मुख्य रूप से फूल वाले पौधों (Phanerogams) के लिए विकसित किया गया था और इसे ब्रिटिश बॉटैनिकल गार्डन "केव गार्डन" (Kew Gardens) में तैयार किया गया।
बेन्थम एवं हुकर द्वारा प्रस्तावित वर्गीकरण
इस वर्गीकरण को 1862 से 1883 के बीच प्रकाशित "Genera Plantarum" नामक पुस्तक में प्रस्तुत किया गया था। इसे प्राकृतिक वर्गीकरण पद्धति कहा जाता है क्योंकि यह पौधों की प्राकृतिक विशेषताओं, जैसे—रचनात्मक (morphological), भ्रूण संबंधी (embryological) और अन्य गुणों के आधार पर किया गया है।
मुख्य विशेषताएँ:
केवल सपुष्पक पौधों (Phanerogams) को वर्गीकृत किया गया है।
पौधों को तीन प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया गया:
डाइकोटाइलीडोनी (Dicotyledons)
मोनोकॉटाइलीडोनी (Monocotyledons)
जिम्नोस्पर्म (Gymnosperms)
डाइकोटाइलीडोनी को तीन उपश्रेणियों में विभाजित किया गया:
पॉलीपेटेली (Polypetalae) – जिनके फूलों में अलग-अलग पंखुड़ियाँ होती हैं।
गैमोपेटेली (Gamopetalae) – जिनके फूलों में जुड़ी हुई पंखुड़ियाँ होती हैं।
अपेटेली (Apetalae) – जिनमें पंखुड़ियाँ अनुपस्थित होती हैं।
मोनोकॉटाइलीडोनी को तीन भागों में विभाजित किया गया:
पांडानेल्स (Pandanales)
ग्लूमेल्स (Glumales)
लिलियेस (Liliales)
जिम्नोस्पर्म को पौधों की अन्य श्रेणियों से अलग रखा गया।
बेन्थम और हुकर वर्गीकरण के फायदे
प्राकृतिक वर्गीकरण: यह पादप वर्गीकरण पौधों की प्राकृतिक समानताओं और अंतर के आधार पर किया गया है, जिससे यह अन्य कृत्रिम वर्गीकरणों (जैसे लिनियस का वर्गीकरण) से अधिक वैज्ञानिक है।
व्यवस्थित विभाजन: पौधों को क्रमबद्ध रूप से सरल से जटिल श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जिससे अध्ययन करना आसान हो जाता है।
आधुनिक वर्गीकरण के लिए आधार: यह वर्गीकरण प्रणाली आगे चलकर एंग्लर और प्रैंटल (Engler & Prantl) तथा हचिंसन (Hutchinson) के वर्गीकरण का आधार बनी।
विवरणात्मक (Descriptive) प्रणाली: प्रत्येक वर्ग और उपवर्ग का विस्तृत विवरण दिया गया, जिससे पौधों की पहचान में सहायता मिलती है।
वनस्पति विज्ञानियों के लिए उपयोगी: यह वर्गीकरण प्रणाली वनस्पति वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं द्वारा आज भी उपयोग की जाती है।
बेन्थम और हुकर वर्गीकरण के नुकसान
जिम्नोस्पर्म की अनुचित स्थिति: इस वर्गीकरण में जिम्नोस्पर्म को एक अलग समूह के रूप में रखा गया, जबकि आधुनिक वर्गीकरणों में इसे एंजियोस्पर्म से पहले रखा जाता है।
विकासवादी (Evolutionary) संबंधों की उपेक्षा: यह वर्गीकरण पौधों के विकासवादी इतिहास (Phylogeny) को ध्यान में नहीं रखता, जबकि आधुनिक डीएनए आधारित वर्गीकरण इसे प्राथमिकता देते हैं।
कृत्रिमता के कुछ तत्व: हालाँकि यह प्राकृतिक वर्गीकरण है, फिर भी कुछ विशेषताएँ कृत्रिम पद्धति का अनुसरण करती हैं, जैसे—पौधों को केवल बाहरी संरचना के आधार पर वर्गीकृत करना।
अन्य विशेषताओं की उपेक्षा: इसमें रासायनिक, भ्रूण संबंधी (Embryological) और आणविक (Molecular) विशेषताओं को अधिक महत्व नहीं दिया गया।
आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के अनुरूप नहीं: यह वर्गीकरण प्रणाली पुरानी वनस्पति वैज्ञानिक तकनीकों पर आधारित थी, इसलिए आज के आनुवंशिक (Genetic) और आणविक वर्गीकरण से भिन्न है।
निष्कर्ष
बेन्थम एवं हुकर द्वारा प्रस्तावित वर्गीकरण एक ऐतिहासिक और वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रणाली है, जो पौधों की प्राकृतिक विशेषताओं पर आधारित है। हालाँकि, इसमें कुछ सीमाएँ हैं, जैसे विकासवाद की उपेक्षा और आधुनिक आणविक तकनीकों की कमी। फिर भी, यह वर्गीकरण प्रणाली वनस्पति विज्ञान में आज भी एक महत्वपूर्ण आधार बनी हुई है और वनस्पति वैज्ञानिकों के लिए उपयोगी है।
03. उपयुक्त चित्रों की सहायता से जड़ और तने की संरचना समझाइए।
जड़ (Root) और तना (Stem) पौधे के प्रमुख भाग होते हैं, जो पौधे को पोषण, सहारा और वृद्धि प्रदान करते हैं। इनकी आंतरिक और बाहरी संरचना विभिन्न कार्यों के अनुसार विकसित होती है।
1. जड़ की संरचना (Structure of Root)
(क) जड़ की बाहरी संरचना (External Structure of Root)
मूल शीर्ष (Root Tip) – यह जड़ का सबसे निचला भाग होता है, जो वृद्धि करता है।
मूल टोपी (Root Cap) – यह जड़ के सिरे को ढकती है और इसे मिट्टी में प्रवेश करने में मदद करती है।
प्रकोशीय क्षेत्र (Region of Cell Division) – इसमें कोशिकाएँ तेजी से विभाजित होती हैं, जिससे जड़ बढ़ती है।
विस्तार क्षेत्र (Region of Elongation) – यहाँ कोशिकाएँ लंबी होती हैं और जड़ बढ़ती है।
अवस्थापन क्षेत्र (Region of Maturation) – यहाँ से जड़ के रोम (Root Hairs) विकसित होते हैं, जो जल और खनिजों का अवशोषण करते हैं।
(ख) जड़ की आंतरिक संरचना (Internal Structure of Root)
एपिडर्मिस (Epidermis) – यह जड़ की सबसे बाहरी परत होती है, जिसमें मूल रोम पाए जाते हैं।
कॉर्टेक्स (Cortex) – यह कोशिकाओं की कई परतों से बना होता है और पोषण संचय करता है।
एंडोडर्मिस (Endodermis) – यह कॉर्टेक्स की सबसे भीतरी परत होती है, जो जल परिवहन को नियंत्रित करती है।
पेरिसाइकिल (Pericycle) – यहाँ से पार्श्व जड़ें (Lateral Roots) विकसित होती हैं।
वस्कुलर ऊतक (Vascular Tissue) – इसमें जाइलम (Xylem) और फ्लोएम (Phloem) होते हैं, जो जल और पोषक तत्वों का परिवहन करते हैं।
2. तने की संरचना (Structure of Stem)
(क) तने की बाहरी संरचना (External Structure of Stem)
नोड (Node) – तने का वह भाग जहाँ से पत्तियाँ और शाखाएँ निकलती हैं।
इंटरनोड (Internode) – दो नोड्स के बीच का भाग।
कलिका (Bud) – यह तने की वृद्धि में सहायक होती है।
छाल (Bark) – बाहरी सुरक्षात्मक परत, जो पौधे को बाहरी क्षति से बचाती है।
(ख) तने की आंतरिक संरचना (Internal Structure of Stem)
एपिडर्मिस (Epidermis) – सबसे बाहरी परत, जो तने को सुरक्षा प्रदान करती है।
कॉर्टेक्स (Cortex) – यह भोजन संचय करता है और यांत्रिक सहारा देता है।
एंडोडर्मिस (Endodermis) – यह कॉर्टेक्स और वस्कुलर बंडल के बीच की पतली परत होती है।
वस्कुलर बंडल (Vascular Bundle) – इसमें जाइलम और फ्लोएम होते हैं, जो पौधे के विभिन्न भागों में जल और भोजन का परिवहन करते हैं।
पिथ (Pith) – तने के मध्य भाग में स्थित कोशिकाएँ, जो भोजन संग्रहण में सहायक होती हैं।
चित्रों द्वारा स्पष्टीकरण
मैं यहाँ जड़ और तने की आंतरिक संरचना के लिए चित्र बना सकता हूँ। क्या आप चाहेंगे कि मैं इन्हें तैयार करूँ?
04. वायु प्रदूषण पर एक विस्तृत टिप्पणी लिखें।
परिचय
वायु प्रदूषण (Air Pollution) एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या है, जिसमें वायुमंडल में हानिकारक गैसों, धूल, धुआँ, और अन्य विषैले कणों की अधिकता हो जाती है। यह प्रदूषण मानव स्वास्थ्य, वनस्पति, जीव-जंतुओं और पर्यावरण के संतुलन को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। आधुनिक औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण वायु प्रदूषण की समस्या दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है।
वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोत
वायु प्रदूषण के स्रोतों को मुख्य रूप से प्राकृतिक (Natural) और मानवजनित (Anthropogenic) दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।
1. प्राकृतिक स्रोत
ज्वालामुखी विस्फोट – सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂), कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), और राख कण वातावरण में मिलकर प्रदूषण फैलाते हैं।
धूल भरी आँधियाँ – रेगिस्तानी क्षेत्रों से उठने वाली धूल वायुमंडल को दूषित करती है।
जंगल की आग – जंगलों में प्राकृतिक या मानवजनित आग के कारण कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) और अन्य हानिकारक गैसें उत्पन्न होती हैं।
पराग कण (Pollen Grains) – कुछ पौधों से निकलने वाले पराग कण एलर्जी और अस्थमा जैसी बीमारियाँ उत्पन्न कर सकते हैं।
2. मानवजनित स्रोत
वाहन प्रदूषण – पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहन कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और अन्य विषैली गैसें उत्सर्जित करते हैं।
औद्योगिक गतिविधियाँ – फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआँ, रसायन, और अन्य विषैले तत्व वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं।
ईंधन का जलना – लकड़ी, कोयला, और फसलों के अवशेष जलाने से वायु में हानिकारक कण फैलते हैं।
निर्माण कार्य – भवन निर्माण और खनन से उड़ने वाली धूल वायु को दूषित करती है।
परमाणु और रासायनिक प्रयोग – विभिन्न प्रकार के परीक्षणों और प्रयोगों के कारण भी वायु प्रदूषण बढ़ता है।
वायु प्रदूषण के प्रमुख घटक
कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) – पेट्रोल और डीजल जलने से निकलने वाली यह गैस शरीर में ऑक्सीजन की आपूर्ति को बाधित कर सकती है।
सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) – यह कोयला जलाने से निकलती है और अम्लीय वर्षा (Acid Rain) का कारण बनती है।
नाइट्रोजन ऑक्साइड (NOₓ) – वाहनों और उद्योगों से निकलने वाली यह गैस श्वसन तंत्र को नुकसान पहुँचाती है।
मिथेन (CH₄) – यह एक ग्रीनहाउस गैस है, जो जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देती है।
सीसे (Lead) – पेट्रोल और बैटरियों से निकलने वाला यह तत्व मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र के लिए हानिकारक होता है।
वायु प्रदूषण के प्रभाव
1. मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
श्वसन संबंधी रोग, जैसे—अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, और फेफड़ों का कैंसर।
हृदय संबंधी समस्याएँ, उच्च रक्तचाप और स्ट्रोक का खतरा।
नेत्र, गले और त्वचा में जलन।
मानसिक विकास पर प्रभाव, विशेष रूप से बच्चों में न्यूरोलॉजिकल समस्याएँ।
2. पर्यावरण पर प्रभाव
अम्लीय वर्षा (Acid Rain) – सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड के कारण वर्षा अम्लीय हो जाती है, जिससे फसलें, जल स्रोत और भवनों को नुकसान पहुँचता है।
ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) – ग्रीनहाउस गैसों की अधिकता से पृथ्वी का तापमान बढ़ता है, जिससे जलवायु परिवर्तन हो रहा है।
ओजोन परत क्षरण (Ozone Layer Depletion) – क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) के कारण वायुमंडल में ओजोन परत कमजोर हो रही है, जिससे पराबैंगनी किरणें सीधे पृथ्वी तक पहुँचती हैं।
पानी और मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट – वायु प्रदूषण से मिट्टी और जल स्रोतों में विषैले तत्व घुल जाते हैं।
3. आर्थिक और सामाजिक प्रभाव
चिकित्सा व्यय में वृद्धि।
कृषि उत्पादन में कमी।
उद्योगों और पर्यटन क्षेत्र को नुकसान।
वायु प्रदूषण की रोकथाम के उपाय
शुद्ध ईंधन का उपयोग – पेट्रोल और डीजल की बजाय सीएनजी (CNG) और विद्युत चालित वाहनों को बढ़ावा देना।
वृक्षारोपण (Afforestation) – अधिक से अधिक पेड़ लगाकर वायु को स्वच्छ बनाया जा सकता है।
स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को अपनाना – सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और जल विद्युत का उपयोग बढ़ाना।
वाहन उत्सर्जन को नियंत्रित करना – वाहनों में प्रदूषण नियंत्रण यंत्र (Catalytic Converter) का उपयोग करना।
औद्योगिक अपशिष्ट का सही निपटान – उद्योगों से निकलने वाली गैसों को फ़िल्टर करके वायुमंडल में छोड़ा जाए।
जन जागरूकता अभियान – लोगों को वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक करना।
कानूनी उपाय – सरकार को कड़े नियम लागू करने चाहिए, जैसे—वाहनों की प्रदूषण जाँच (PUC), औद्योगिक उत्सर्जन पर नियंत्रण, और निर्माण कार्यों के लिए विशेष मानक निर्धारित करना।
निष्कर्ष
वायु प्रदूषण एक वैश्विक समस्या है, जो मानव स्वास्थ्य, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है। इसे नियंत्रित करने के लिए व्यक्तिगत, सामाजिक और सरकारी स्तर पर ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। यदि हम स्वच्छ ऊर्जा का उपयोग करें, वृक्षारोपण करें और औद्योगिक प्रदूषण पर नियंत्रण रखें, तो हम इस समस्या को कम कर सकते हैं और एक स्वच्छ एवं स्वस्थ पर्यावरण बना सकते हैं।
05. कार्बोहाइड्रेट पर विस्तृत विवरण लिखिए।
कार्बोहाइड्रेट पर विस्तृत विवरण
परिचय
कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrates) जैविक अणु (Biomolecules) होते हैं, जो कार्बन (C), हाइड्रोजन (H) और ऑक्सीजन (O) तत्वों से बने होते हैं। इन्हें शर्करा (Sugars) या पोलिसैकेराइड (Polysaccharides) भी कहा जाता है। ये शरीर के लिए प्रमुख ऊर्जा स्रोत होते हैं और कई जैविक कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
कार्बोहाइड्रेट की परिभाषा
कार्बोहाइड्रेट वे कार्बनिक यौगिक हैं, जिनका सामान्य सूत्र (CₘH₂ₙOₙ) होता है। इन्हें जलयोजित कार्बन (Hydrated Carbon) भी कहा जाता है क्योंकि इनमें हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का अनुपात 2:1 होता है, जो जल के समान होता है।
कार्बोहाइड्रेट के प्रकार
कार्बोहाइड्रेट को उनके संरचनात्मक जटिलता के आधार पर तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जाता है:
1. मोनोसैकेराइड (Monosaccharides) – साधारण शर्करा
ये सबसे सरल प्रकार के कार्बोहाइड्रेट होते हैं, जो एक ही शर्करा इकाई से बने होते हैं और जल में आसानी से घुलनशील होते हैं।
उदाहरण:
ग्लूकोज़ (Glucose) – यह कोशिकाओं के लिए मुख्य ऊर्जा स्रोत है।
फ्रक्टोज़ (Fructose) – यह फलों और शहद में पाया जाता है।
गैलेक्टोज़ (Galactose) – यह दूध में लैक्टोज़ के रूप में पाया जाता है।
2. ओलिगोसैकेराइड (Oligosaccharides) – दो या अधिक शर्करा अणुओं से बने यौगिक
ये 2-10 मोनोसैकेराइड इकाइयों से मिलकर बने होते हैं। इनमें सबसे सामान्य द्विसैकेराइड (Disaccharides) हैं।
उदाहरण:
सुक्रोज़ (Sucrose) = ग्लूकोज़ + फ्रक्टोज़ (यह गन्ने की चीनी होती है)।
लैक्टोज़ (Lactose) = ग्लूकोज़ + गैलेक्टोज़ (यह दूध में पाया जाता है)।
माल्टोज़ (Maltose) = ग्लूकोज़ + ग्लूकोज़ (यह अनाज में पाया जाता है)।
3. पोलिसैकेराइड (Polysaccharides) – जटिल कार्बोहाइड्रेट
ये लंबे समय तक ऊर्जा प्रदान करते हैं और कई मोनोसैकेराइड इकाइयों से मिलकर बने होते हैं।
उदाहरण:
स्टार्च (Starch) – यह पौधों में ऊर्जा भंडारण का मुख्य स्रोत है (जैसे आलू और चावल)।
ग्लाइकोजन (Glycogen) – यह पशुओं में ऊर्जा भंडारण का प्रमुख स्रोत है।
सेल्यूलोज़ (Cellulose) – यह पौधों की कोशिका भित्ति (Cell Wall) का प्रमुख घटक है।
काइटिन (Chitin) – यह कवकों (Fungi) की कोशिका भित्ति और कीड़ों के बाहरी ढांचे (Exoskeleton) में पाया जाता है।
कार्बोहाइड्रेट के कार्य
1. ऊर्जा स्रोत
कार्बोहाइड्रेट शरीर में ग्लूकोज़ में परिवर्तित होकर एटीपी (ATP) उत्पादन करता है, जो ऊर्जा प्रदान करता है।
2. संरचनात्मक भूमिका
सेल्यूलोज़ – यह पौधों की कोशिका भित्ति का निर्माण करता है।
काइटिन – यह कवकों और कीड़ों के शरीर की संरचना में सहायक होता है।
3. ऊर्जा भंडारण
स्टार्च – पौधों में ऊर्जा का भंडारण करता है।
ग्लाइकोजन – मानव और पशुओं में यकृत और मांसपेशियों में ऊर्जा के रूप में संग्रहीत होता है।
4. जैव रासायनिक प्रक्रियाओं में सहायक
डीएनए (DNA) और आरएनए (RNA) में राइबोज़ (Ribose) और डिऑक्सीराइबोज़ (Deoxyribose) शर्करा मौजूद होती है।
ग्लाइकोप्रोटीन (Glycoproteins) और ग्लाइकोलिपिड्स (Glycolipids) कोशिका संचार में सहायता करते हैं।
कार्बोहाइड्रेट का पाचन और अवशोषण
भोजन में उपस्थित जटिल कार्बोहाइड्रेट (स्टार्च और ग्लाइकोजन) एंजाइमों की सहायता से साधारण शर्करा (ग्लूकोज़) में टूटते हैं।
लार में उपस्थित एंजाइम एमाइलेज (Amylase) स्टार्च को तोड़ता है।
छोटी आंत में माल्टेज (Maltase), सुक्रेज़ (Sucrase), और लैक्टेज (Lactase) एंजाइम विभिन्न द्विसैकेराइड को मोनोसैकेराइड में बदलते हैं।
ग्लूकोज़ रक्तप्रवाह में अवशोषित होकर शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा प्रदान करता है।
कार्बोहाइड्रेट के स्रोत
1. प्राकृतिक स्रोत
अनाज – गेहूँ, चावल, मक्का, जौ।
फल – आम, केला, सेब, अंगूर।
सब्जियाँ – आलू, गाजर, चुकंदर।
डेयरी उत्पाद – दूध, दही।
2. कृत्रिम स्रोत
चीनी (Sugar), चॉकलेट, मिठाइयाँ, कोल्ड ड्रिंक्स।
कार्बोहाइड्रेट से संबंधित रोग
मधुमेह (Diabetes Mellitus) – जब शरीर पर्याप्त इंसुलिन नहीं बना पाता या इंसुलिन सही से कार्य नहीं करता, तो रक्त में ग्लूकोज़ की मात्रा बढ़ जाती है।
लैक्टोज असहिष्णुता (Lactose Intolerance) – जब शरीर में लैक्टेज एंजाइम की कमी होती है, जिससे दूध में उपस्थित लैक्टोज़ पच नहीं पाता।
मोटापा (Obesity) – अधिक कार्बोहाइड्रेट के सेवन से शरीर में वसा का संचय बढ़ जाता है।
निष्कर्ष
कार्बोहाइड्रेट जीवन के लिए आवश्यक पोषक तत्व हैं, जो ऊर्जा प्रदान करने के साथ-साथ विभिन्न जैविक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संतुलित आहार में उचित मात्रा में कार्बोहाइड्रेट का सेवन आवश्यक है, लेकिन अत्यधिक मात्रा में सेवन करने से स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। स्वस्थ जीवन के लिए प्राकृतिक और असंसाधित स्रोतों से कार्बोहाइड्रेट लेना लाभदायक होता है।
SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS
01. जीवाणुओं के आर्थिक महत्व पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
जीवाणु (Bacteria) सूक्ष्मजीव होते हैं जो प्रकृति में सर्वव्यापी हैं। इनका आर्थिक महत्व अत्यधिक व्यापक है, क्योंकि ये विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि कृषि, औद्योगिक उत्पादन, चिकित्सा और पर्यावरण संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
1. कृषि में योगदान
मृदा उर्वरता: राइजोबियम (Rhizobium) जैसे जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके मृदा की उर्वरता बढ़ाते हैं।
जैविक खाद निर्माण: बैसिलस (Bacillus) और एजोटोबैक्टर (Azotobacter) जैसे जीवाणु जैविक खाद के निर्माण में सहायक होते हैं।
कीट नियंत्रण: बैसिलस थुरिंजिएन्सिस (Bacillus thuringiensis) का उपयोग जैविक कीटनाशक के रूप में किया जाता है।
2. औद्योगिक क्षेत्र में योगदान
किण्वन (Fermentation) उद्योग: लैक्टोबैसिलस (Lactobacillus) जैसे जीवाणु दही, चीज़, और अचार बनाने में सहायक होते हैं।
एंटीबायोटिक उत्पादन: स्ट्रेप्टोमाइसिस (Streptomyces) से स्ट्रेप्टोमाइसिन, टेट्रासाइक्लिन जैसी महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक्स बनाई जाती हैं।
शराब और एसिड उत्पादन: यीस्ट और अन्य जीवाणु एथेनॉल, एसिटिक एसिड (सिरका), और साइट्रिक एसिड के उत्पादन में सहायक होते हैं।
3. चिकित्सा क्षेत्र में योगदान
प्रोबायोटिक्स: कुछ जीवाणु, जैसे लैक्टोबैसिलस, मानव पाचन तंत्र में सहायक होते हैं और स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होते हैं।
टीका निर्माण: बीसीजी (BCG) जैसे जीवाणु टीबी के टीके के निर्माण में सहायक होते हैं।
4. पर्यावरणीय योगदान
कार्बनिक पदार्थों का विघटन: सैप्रोफाइटिक जीवाणु मृत कार्बनिक पदार्थों को विघटित करके पोषक तत्वों को पुनः चक्रित करते हैं।
जल और अपशिष्ट उपचार: कुछ जीवाणु अपशिष्ट जल को शुद्ध करने और जैविक कचरे के निपटान में मदद करते हैं।
निष्कर्ष
जीवाणु न केवल हमारे पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में सहायक होते हैं, बल्कि वे कृषि, औद्योगिक उत्पादन और चिकित्सा के क्षेत्र में भी अत्यधिक उपयोगी हैं। हालांकि, कुछ हानिकारक जीवाणु बीमारियाँ भी फैलाते हैं, लेकिन उनके लाभकारी पहलू अधिक प्रभावशाली और महत्वपूर्ण हैं।
02. लाइकेन के आर्थिक और पारिस्थितिक महत्व पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
लाइकेन (Lichen) शैवाल (Algae) और कवक (Fungus) के पारस्परिक सहजीवी संबंध से बने जीव होते हैं। ये पर्यावरण और अर्थव्यवस्था दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
1. आर्थिक महत्व
रंग और डाई उत्पादन: कुछ लाइकेन से प्राकृतिक रंग बनाए जाते हैं, जैसे "लिटमस" जो अम्ल-क्षार परीक्षक के रूप में प्रयोग होता है।
औषधीय उपयोग: लाइकेन से एंटीबायोटिक और एंटीसैप्टिक पदार्थ प्राप्त किए जाते हैं, जो विभिन्न त्वचा रोगों और संक्रमणों के उपचार में सहायक होते हैं।
खाद्य स्रोत: कुछ लाइकेन, जैसे कि क्लैडोनिया (Cladonia), को आर्कटिक क्षेत्रों में भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है।
इत्र और सौंदर्य प्रसाधन: लाइकेन से प्राप्त सुगंधित तेल परफ्यूम और कॉस्मेटिक्स में उपयोग किए जाते हैं।
2. पारिस्थितिक महत्व
पर्यावरणीय संकेतक: लाइकेन प्रदूषण सूचक (Bioindicator) के रूप में कार्य करते हैं, क्योंकि ये वायु प्रदूषण के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं।
मृदा निर्माण: लाइकेन चट्टानों को तोड़कर मृदा निर्माण में योगदान देते हैं, जिससे पौधों की वृद्धि संभव होती है।
पर्यावरण संतुलन: लाइकेन नमी अवशोषित कर पर्यावरण में जल संतुलन बनाए रखने में सहायक होते हैं।
जीवों के लिए आवास: ये छोटे जीवों, जैसे कि कीट और सूक्ष्मजीवों के लिए एक महत्वपूर्ण आश्रय प्रदान करते हैं।
निष्कर्ष
लाइकेन न केवल आर्थिक रूप से उपयोगी हैं, बल्कि पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनकी उपस्थिति पर्यावरण की शुद्धता का संकेत देती है, जिससे यह वैज्ञानिक और औद्योगिक दृष्टि से अत्यंत मूल्यवान बनते हैं।
03. ब्रायोफाइट्स के जीवन चक्र की मुख्य विशेषताओं और शैवाल के साथ उनकी समानता पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
ब्रायोफाइट्स (Bryophytes) पौधों का एक आदिम समूह है जिसमें मॉस (Mosses), लीवरवर्ट्स (Liverworts) और हॉर्नवर्ट्स (Hornworts) शामिल हैं। ये उभयचर पौधे (Amphibians of Plant Kingdom) कहलाते हैं क्योंकि इनकी प्रजनन क्रियाओं के लिए जल आवश्यक होता है।
1. ब्रायोफाइट्स के जीवन चक्र की मुख्य विशेषताएँ
जीवन चक्र में पीढ़ियों का परिवर्तन (Alternation of Generations): इनका जीवन चक्र गैमीटोफाइटिक (Gametophytic) और स्पोरॉफाइटिक (Sporophytic) पीढ़ियों के बीच चलता है।
गैमीटोफाइट प्रमुख चरण: इनका मुख्य चरण गैमीटोफाइट (Gametophyte) होता है, जो स्वतंत्र एवं हरा होता है और यहीं पर यौन जनन होता है।
यौन जनन: इनमें नर युग्मक (Sperm) को उत्पादित करने वाले अंग एंथेरिडिया (Antheridia) और मादा युग्मक (Egg) को उत्पादित करने वाले अंग आर्किगोनिया (Archegonia) होते हैं।
जल पर निर्भरता: निषेचन (Fertilization) के लिए जल आवश्यक होता है, क्योंकि शुक्राणु (Sperm) जल के माध्यम से अंडाणु (Egg) तक पहुँचता है।
स्पोरॉफाइट आश्रित होता है: निषेचन के बाद बनने वाला स्पोरॉफाइट (Sporophyte) गैमीटोफाइट पर ही निर्भर रहता है और इसके द्वारा पोषित होता है।
2. ब्रायोफाइट्स और शैवाल के बीच समानता
गैमीटोफाइटिक प्रमुखता: दोनों में गैमीटोफाइट पीढ़ी प्रमुख होती है और स्वतंत्र रूप से पोषण प्राप्त करती है।
निषेचन के लिए जल पर निर्भरता: दोनों में यौन जनन के लिए जल आवश्यक होता है।
कोशिकीय संरचना: दोनों में थैलस जैसी संरचना पाई जाती है, जिसमें जड़, तना और पत्तियाँ स्पष्ट रूप से विभेदित नहीं होती हैं।
वातावरण के प्रति संवेदनशीलता: दोनों जीव समूह पर्यावरणीय परिस्थितियों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं और प्रदूषण सूचक (Bioindicators) के रूप में कार्य कर सकते हैं।
निष्कर्ष
ब्रायोफाइट्स और शैवाल में कई समानताएँ पाई जाती हैं, विशेष रूप से उनके जीवन चक्र और जल पर निर्भरता के संदर्भ में। हालांकि, ब्रायोफाइट्स पौधों के विकास क्रम में शैवाल से अधिक विकसित हैं और स्थलीय जीवन की ओर एक महत्वपूर्ण कदम का प्रतिनिधित्व करते हैं।
04. भारत में वनस्पति उद्यान के विशेष संदर्भ में विश्व के महत्वपूर्ण वनस्पति उद्यानों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
भारत में वनस्पति उद्यानों के विशेष संदर्भ में विश्व के महत्वपूर्ण वनस्पति उद्यानों पर संक्षिप्त टिप्पणी
वनस्पति उद्यान (Botanical Gardens) वे संरक्षित स्थल होते हैं जहां विभिन्न प्रकार के पौधों का संरक्षण, अध्ययन और प्रदर्शन किया जाता है। ये उद्यान वनस्पति विज्ञान, जैव विविधता संरक्षण और पर्यावरणीय संतुलन के लिए महत्वपूर्ण हैं।
1. भारत के प्रमुख वनस्पति उद्यान
भारत में कई महत्वपूर्ण वनस्पति उद्यान हैं जो पौधों के अनुसंधान और संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं:
भारतीय वनस्पति उद्यान, हावड़ा (Acharya Jagadish Chandra Bose Indian Botanical Garden, Kolkata): यह भारत का सबसे बड़ा और प्राचीन वनस्पति उद्यान है, जिसमें प्रसिद्ध "ग्रेट बनियन ट्री" स्थित है।
राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, लखनऊ (National Botanical Research Institute, Lucknow): यह औषधीय और सुगंधित पौधों के अनुसंधान में प्रमुख केंद्र है।
लालबाग बॉटनिकल गार्डन, बेंगलुरु (Lalbagh Botanical Garden, Bangalore): यह एक ऐतिहासिक उद्यान है, जिसे हैदर अली ने बनवाया था और इसमें दुर्लभ विदेशी और भारतीय पौधों का संग्रह है।
ट्रॉपिकल बॉटनिकल गार्डन, तिरुवनंतपुरम (Jawaharlal Nehru Tropical Botanical Garden, Kerala): यह उष्णकटिबंधीय पौधों और ऑर्किड प्रजातियों के संरक्षण के लिए प्रसिद्ध है।
2. विश्व के प्रमुख वनस्पति उद्यान
रॉयल बॉटनिकल गार्डन, केव (Royal Botanic Gardens, Kew, UK): यह दुनिया का सबसे प्रसिद्ध वनस्पति उद्यान है, जो पौधों के संरक्षण और अनुसंधान के लिए यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में सूचीबद्ध है।
मिसौरी बॉटनिकल गार्डन, यूएसए (Missouri Botanical Garden, USA): यह वनस्पति विज्ञान के अध्ययन और पौधों की विविधता के लिए महत्वपूर्ण केंद्र है।
सिंगापुर बॉटनिकल गार्डन (Singapore Botanic Gardens): यह उष्णकटिबंधीय पौधों और ऑर्किड संरक्षण के लिए प्रसिद्ध है।
जार्डिन डेस प्लांटेस, पेरिस (Jardin des Plantes, Paris, France): यह यूरोप के सबसे पुराने वनस्पति उद्यानों में से एक है और इसमें दुर्लभ पौधों का विशाल संग्रह है।
निष्कर्ष
वनस्पति उद्यान वैश्विक स्तर पर पौधों के संरक्षण, अनुसंधान और जैव विविधता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत के वनस्पति उद्यान देश की समृद्ध वनस्पतियों के अध्ययन और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में योगदान देते हैं, जबकि विश्व के अन्य वनस्पति उद्यान वनस्पति विज्ञान की वैश्विक समझ को समृद्ध करते हैं।
05. शैवाल, कवक और पौधों के नामकरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय कोड (ICN) पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
अंतर्राष्ट्रीय वनस्पति नामकरण संहिता (International Code of Nomenclature for algae, fungi, and plants - ICN) उन नियमों और सिफारिशों का एक समूह है, जो शैवाल (Algae), कवक (Fungi) और पौधों (Plants) के वैज्ञानिक नामकरण (Nomenclature) को नियंत्रित करता है। इसे पहले "अंतर्राष्ट्रीय वनस्पति नामकरण संहिता (ICBN)" के रूप में जाना जाता था, लेकिन 2011 में इसे बदलकर ICN कर दिया गया ताकि कवक और शैवाल को भी औपचारिक रूप से शामिल किया जा सके।
1. ICN के मुख्य सिद्धांत
द्विपद नामकरण प्रणाली (Binomial Nomenclature): सभी पौधों, शैवाल और कवकों के वैज्ञानिक नाम दो भागों में होते हैं—वंश (Genus) और जाति (Species), जैसे Mangifera indica (आम)।
प्राथमिकता का नियम (Principle of Priority): किसी भी टैक्सोन (Taxon) का सबसे पुराना वैध रूप से प्रकाशित नाम ही मान्य होता है।
प्रकार विधि (Type Method): प्रत्येक पौधे, शैवाल या कवक के लिए एक "प्रकार नमूना (Type Specimen)" निर्धारित किया जाता है, जिससे उसका सही नाम सुनिश्चित किया जाता है।
स्वतंत्रता का सिद्धांत (Principle of Independence): वनस्पति नामकरण जंतु नामकरण से स्वतंत्र होता है और इसका अपना अलग कोड होता है।
सार्वजनिक स्वीकृति (Principle of Effective Publication): कोई भी नया वैज्ञानिक नाम तभी मान्य होता है जब वह किसी स्वीकृत वैज्ञानिक पत्रिका या पुस्तक में प्रकाशित हो।
2. ICN के प्रमुख सम्मेलन
ICN को अंतर्राष्ट्रीय वनस्पति विज्ञान कांग्रेस (International Botanical Congress - IBC) में संशोधित किया जाता है। कुछ प्रमुख संशोधन इस प्रकार हैं:
वियना कोड (2005)
मेलबोर्न कोड (2011)
शेन्ज़ेन कोड (2017)
शीनज़ेन कोड (2023) – नवीनतम संशोधन
3. ICN का महत्व
यह वनस्पतियों, शैवाल और कवकों के वैज्ञानिक नामकरण को एकरूपता और स्थिरता प्रदान करता है।
वैज्ञानिक संचार में स्पष्टता बनाए रखने में मदद करता है।
पौधों और अन्य वनस्पति समूहों के वर्गीकरण (Classification) को मानकीकृत करता है।
निष्कर्ष
अंतर्राष्ट्रीय वनस्पति नामकरण संहिता (ICN) वनस्पति विज्ञान में वैज्ञानिक नामकरण का आधार है। यह सुनिश्चित करता है कि सभी पौधों, शैवाल और कवकों के नाम सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत और संगठित हों, जिससे वैज्ञानिक अनुसंधान और संचार में कोई भ्रम न हो।
06. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखें- (अ) भ्रूणकोष और उसके प्रकार (ब) पौधों में परागण
(अ) भ्रूणकोष और उसके प्रकार
भ्रूणकोष (Embryo sac) एक स्त्री युग्मकोशिकीय संरचना है, जो पुष्पीय पौधों (Flowering Plants) के अंडाशय (Ovary) के भीतर पाया जाता है। यह बीजाणुधानी (Megasporangium) के भीतर विकसित होता है और निषेचन के बाद बीज (Seed) के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भ्रूणकोष में एक अंडाणु (Egg cell), दो सहायक कोशिकाएँ (Synergids), तीन विरोधी कोशिकाएँ (Antipodal cells) और एक द्विनाभी केंद्रीय कोशिका (Binucleate Central Cell) होती है।
भ्रूणकोष के प्रकार
भ्रूणकोष के निर्माण की प्रक्रिया के आधार पर इसे विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है:
मोनोस्पोरिक (Monosporic) भ्रूणकोष – यह केवल एक मेगास्पोर (Megaspore) से विकसित होता है, जैसे कि Polygonum प्रकार, जो सबसे सामान्य है।
बाइस्पोरिक (Biosporic) भ्रूणकोष – यह दो मेगास्पोर नाभिकों से बनता है, जैसे कि Allium प्रकार।
टेट्रास्पोरिक (Tetrasporic) भ्रूणकोष – यह सभी चार मेगास्पोर नाभिकों से बनता है, जैसे कि Peperomia प्रकार।
(ब) पौधों में परागण
परागण (Pollination) वह प्रक्रिया है जिसमें पुष्पों के पुंकेसर (Anther) से परागकण (Pollen grains) स्त्रीकेसर (Stigma) तक पहुँचते हैं, जिससे निषेचन (Fertilization) संभव होता है। यह पुष्पीय पौधों के प्रजनन के लिए आवश्यक प्रक्रिया है।
परागण के प्रकार
स्वपरागण (Self-Pollination / Autogamy) – जब परागकण उसी फूल के या एक ही पौधे के किसी अन्य फूल के स्त्रीकेसर पर गिरते हैं। यह दो प्रकार का होता है:
समपरागण (Autogamy) – एक ही फूल में परागण होता है।
गाइटनोगैमी (Geitonogamy) – एक ही पौधे के अलग-अलग फूलों के बीच परागण होता है।
परपरागण (Cross-Pollination / Allogamy) – जब परागकण एक फूल से दूसरे पौधे के फूल तक जाते हैं। यह विभिन्न कारकों द्वारा हो सकता है, जैसे:
पवन परागण (Anemophily) – हवा द्वारा (जैसे- मक्का, घास)।
कीट परागण (Entomophily) – कीटों द्वारा (जैसे- सूरजमुखी, गुलाब)।
पक्षी परागण (Ornithophily) – पक्षियों द्वारा (जैसे- चमेली, बोगनविलिया)।
जल परागण (Hydrophily) – जल द्वारा (जैसे- हाइड्रिला, वैलिस्नेरिया)।
निष्कर्ष
भ्रूणकोष और परागण दोनों ही पौधों के जीवन चक्र में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भ्रूणकोष निषेचन के बाद बीज के निर्माण में सहायक होता है, जबकि परागण पौधों के प्रजनन को सुनिश्चित करता है।
07. फोटोफॉस्फोराइलेशन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
फोटोफॉस्फोराइलेशन (Photophosphorylation) वह जैव-रासायनिक प्रक्रिया है, जिसमें प्रकाश ऊर्जा का उपयोग कर एडेनोसिन ट्राइफॉस्फेट (ATP) का निर्माण होता है। यह प्रक्रिया पादपों, शैवाल और कुछ प्रकाश-संश्लेषी जीवाणुओं के थायलाकोइड झिल्ली (Thylakoid Membrane) में घटित होती है।
फोटोफॉस्फोराइलेशन के प्रकार
चक्रीय फोटोफॉस्फोराइलेशन (Cyclic Photophosphorylation)
इसमें केवल फोटोसिस्टम-I (PS-I) कार्य करता है।
जल का विभाजन (Photolysis) नहीं होता, इसलिए ऑक्सीजन मुक्त नहीं होती।
केवल ATP का निर्माण होता है, NADPH नहीं बनता।
यह प्रकाश की अल्पता या उच्च ऊर्जा की आवश्यकता वाले पौधों में अधिक सक्रिय होता है।
यह प्रक्रिया मुख्यतः प्रोकैरियोट्स (जैसे, बैक्टीरिया) में पाई जाती है।
अचक्रीय फोटोफॉस्फोराइलेशन (Non-Cyclic Photophosphorylation)
इसमें दोनों फोटोसिस्टम-I (PS-I) और फोटोसिस्टम-II (PS-II) कार्य करते हैं।
जल का विभाजन होता है और ऑक्सीजन का उत्सर्जन होता है।
ATP और NADPH दोनों का निर्माण होता है, जो आगे के प्रकाश-अस्वतंत्र अभिक्रियाओं (Dark Reaction) में उपयोग होते हैं।
यह उच्च पादपों और शैवाल में प्रकाश-संश्लेषण की प्रमुख प्रक्रिया है।
महत्व
ATP और NADPH का निर्माण होता है, जो कैल्विन चक्र (Calvin Cycle) के लिए ऊर्जा स्रोत प्रदान करते हैं।
यह पौधों में प्रकाश-संश्लेषण की मूलभूत प्रक्रिया है, जिससे जैव ऊर्जा का संचयन होता है।
निष्कर्ष
फोटोफॉस्फोराइलेशन एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक प्रक्रिया है, जो पौधों को सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा (ATP और NADPH) में परिवर्तित करने में सहायता करती है। इससे जीवन चक्र को बनाए रखने के लिए आवश्यक ऊर्जा प्राप्त होती है।
08. नाइट्रोजन स्थिरीकरण पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen Fixation) वह जैविक या अजैविक प्रक्रिया है, जिसमें वायुमंडलीय मुक्त नाइट्रोजन (N₂) को पौधों द्वारा उपयोगी अमोनिया (NH₃), नाइट्रेट (NO₃⁻) या नाइट्राइट (NO₂⁻) में परिवर्तित किया जाता है। यह प्रक्रिया नाइट्रोजन चक्र (Nitrogen Cycle) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक होती है।
नाइट्रोजन स्थिरीकरण के प्रकार
जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Biological Nitrogen Fixation)
यह विशेष नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं (Nitrogen Fixing Bacteria) द्वारा किया जाता है।
कुछ प्रमुख जीवाणु:
राइजोबियम (Rhizobium) – फलियों (Legumes) की जड़ों में ग्रंथियाँ बनाकर सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण करता है।
एज़ोटोबैक्टर (Azotobacter) – मुक्त रूप में मिट्टी में रहकर स्थिरीकरण करता है।
नॉस्टोक (Nostoc) और एनेबिना (Anabaena) – नीली-हरी शैवाल (Cyanobacteria) जो धान के खेतों में पाए जाते हैं।
अजैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Abiotic Nitrogen Fixation)
यह वायुमंडलीय घटनाओं द्वारा होता है, जैसे:
विद्युत विसर्जन (Lightning Fixation) – बिजली की गड़गड़ाहट से नाइट्रोजन ऑक्साइड बनते हैं, जो वर्षा के साथ नाइट्रेट में बदल जाते हैं।
औद्योगिक विधियाँ – जैसे कि हैबर-बॉश प्रक्रिया (Haber-Bosch Process), जिसमें अमोनिया का कृत्रिम संश्लेषण किया जाता है।
महत्व
पौधों के लिए आवश्यक नाइट्रोजन यौगिकों की उपलब्धता सुनिश्चित करता है।
कृषि में जैव उर्वरकों (Biofertilizers) के रूप में उपयोग किया जाता है।
मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने में सहायक होता है।
निष्कर्ष
नाइट्रोजन स्थिरीकरण पौधों और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए एक आवश्यक प्रक्रिया है, जिससे वे अपनी वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक नाइट्रोजन प्राप्त कर सकते हैं। जैविक और अजैविक दोनों प्रकार की प्रक्रियाएँ इस चक्र को संतुलित बनाए रखने में मदद करती हैं।
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