प्रश्न 01 : स्वतन्त्र भारत में स्थानीय स्वशासन के विकास का वर्णन कीजिए।
✨ परिचय
स्वतन्त्र भारत में स्थानीय स्वशासन का विकास भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला माना जाता है। यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें प्रशासनिक अधिकार और जिम्मेदारियाँ स्थानीय स्तर पर जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को सौंपी जाती हैं। स्थानीय स्वशासन का उद्देश्य जन भागीदारी, स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देना है।
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह मान्यता हुई कि वास्तविक लोकतंत्र तभी स्थापित हो सकता है जब गांव और नगर स्तर पर स्वशासन को सशक्त बनाया जाए।
📜 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
🔍 स्वतंत्रता-पूर्व स्थिति
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ब्रिटिश शासनकाल में स्थानीय संस्थाओं का निर्माण हुआ, लेकिन उनका उद्देश्य मुख्य रूप से प्रशासनिक नियंत्रण था, न कि जन भागीदारी।
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1882 में लॉर्ड रिपन को "स्थानीय स्वशासन का जनक" कहा गया, क्योंकि उन्होंने स्थानीय निकायों में निर्वाचित सदस्यों की भागीदारी का सुझाव दिया।
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हालांकि, इस व्यवस्था में वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार सीमित थे।
🏛️ स्वतंत्रता के बाद का दृष्टिकोण
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स्वतंत्र भारत में संविधान निर्माताओं ने स्थानीय स्वशासन को लोकतंत्र का आवश्यक अंग माना।
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पंडित नेहरू और महात्मा गांधी दोनों ही गांवों को स्वावलंबी बनाने के पक्षधर थे। गांधी जी का सपना था कि ग्राम स्वराज्य को सशक्त किया जाए।
🛠️ स्वतंत्रता के बाद स्थानीय स्वशासन का विकास
1️⃣ प्रारंभिक प्रयास (1950-1957)
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1950 में संविधान लागू होने पर राज्य सरकारों को पंचायतों और नगरपालिकाओं की स्थापना का अधिकार मिला (अनुच्छेद 40 - राज्य नीति के निदेशक तत्व)।
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प्रारंभिक वर्षों में कई राज्यों ने पंचायतों और नगरपालिकाओं का गठन किया, लेकिन यह व्यवस्था मजबूत नहीं थी।
2️⃣ बलवंत राय मेहता समिति (1957)
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1957 में इस समिति ने त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, जिला परिषद) की सिफारिश की।
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इसका उद्देश्य था विकास योजनाओं में ग्रामीणों की भागीदारी सुनिश्चित करना।
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इस सिफारिश के बाद कई राज्यों में पंचायत राज व्यवस्था लागू हुई।
3️⃣ अशोक मेहता समिति (1977)
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इस समिति ने पंचायतों को दो-स्तरीय व्यवस्था में संगठित करने और अधिक वित्तीय व प्रशासनिक अधिकार देने की सिफारिश की।
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इसने कहा कि पंचायतों को केवल विकास का साधन न मानकर उन्हें स्थानीय स्वशासन की इकाई माना जाए।
4️⃣ 73वां और 74वां संविधान संशोधन (1992)
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73वां संशोधन: ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायत राज को संवैधानिक दर्जा दिया गया।
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त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली अनिवार्य हुई।
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पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष तय किया गया।
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महिलाओं, अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।
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74वां संशोधन: शहरी क्षेत्रों में नगरपालिकाओं और नगर निगमों को संवैधानिक दर्जा दिया गया।
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शहरी स्थानीय निकायों के लिए निर्वाचित परिषदें अनिवार्य हुईं।
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नगर नियोजन, स्वच्छता, जलापूर्ति, परिवहन आदि विषय सौंपे गए।
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⚖️ स्थानीय स्वशासन की प्रमुख विशेषताएँ
🌍 विकेंद्रीकरण का सिद्धांत
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सत्ता और संसाधनों का वितरण केंद्र से राज्यों और राज्यों से स्थानीय स्तर तक किया गया।
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इससे निर्णय लेने की प्रक्रिया जनता के निकट आई।
🏛️ संवैधानिक मान्यता
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73वें और 74वें संशोधनों के बाद स्थानीय स्वशासन मात्र नीति निर्देशक तत्व न रहकर संवैधानिक व्यवस्था बन गया।
👥 जन भागीदारी
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ग्रामीण और शहरी जनता सीधा चुनाव प्रक्रिया में भाग लेती है।
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सामाजिक न्याय और समावेशिता के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू है।
📈 विकास में स्थानीय स्वशासन की भूमिका
🛤️ ग्रामीण विकास
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सड़क, जल, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी ढांचे का निर्माण।
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सरकारी योजनाओं का स्थानीय स्तर पर कार्यान्वयन।
🏙️ शहरी विकास
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स्वच्छता, कचरा प्रबंधन, यातायात व्यवस्था और आवास योजनाओं का संचालन।
📢 लोकतांत्रिक सशक्तिकरण
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जनता को निर्णय लेने और योजना निर्माण में भागीदारी का अवसर।
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स्थानीय नेतृत्व का विकास।
🚧 चुनौतियाँ
💰 वित्तीय संसाधनों की कमी
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कई पंचायतें और नगरपालिकाएं पर्याप्त राजस्व नहीं जुटा पातीं।
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राज्य सरकार पर वित्तीय निर्भरता रहती है।
🏗️ क्षमता निर्माण की कमी
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निर्वाचित प्रतिनिधियों और अधिकारियों को प्रशिक्षण और तकनीकी ज्ञान की कमी।
⚖️ राजनीतिक हस्तक्षेप
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स्थानीय निकायों की स्वायत्तता पर राज्य सरकार का नियंत्रण।
📉 भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की कमी
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संसाधनों का दुरुपयोग और जवाबदेही का अभाव।
💡 सुधार के उपाय
📊 वित्तीय सुदृढ़ीकरण
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स्थानीय कराधान की शक्तियां बढ़ाना।
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केंद्र और राज्य से पर्याप्त वित्तीय सहायता।
🎓 क्षमता निर्माण
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निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता।
🔒 पारदर्शिता और जवाबदेही
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ई-गवर्नेंस और सोशल ऑडिट लागू करना।
🤝 जन भागीदारी बढ़ाना
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ग्राम सभाओं और नगर सभाओं की सक्रियता बढ़ाना।
📌 निष्कर्ष
स्वतन्त्र भारत में स्थानीय स्वशासन का विकास लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत करने का एक महत्वपूर्ण कदम है। 73वें और 74वें संशोधनों ने इसे संवैधानिक मान्यता देकर स्थायित्व प्रदान किया। हालांकि वित्तीय कमी, क्षमता निर्माण और पारदर्शिता जैसी चुनौतियाँ अभी भी मौजूद हैं, लेकिन जन भागीदारी और विकेंद्रीकरण के माध्यम से इन चुनौतियों को दूर किया जा सकता है।
स्थानीय स्वशासन न केवल लोकतंत्र की जड़ें गहरी करता है, बल्कि समान विकास और सशक्त भारत की दिशा में भी महत्वपूर्ण योगदान देता है।
प्रश्न 02 : 74वें संविधान संशोधन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
✨ परिचय
74वां संविधान संशोधन (1992) भारत में शहरी स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक मान्यता देने वाला ऐतिहासिक कदम है।
इस संशोधन का उद्देश्य नगरपालिकाओं और नगर निगमों को अधिक स्वायत्तता, जवाबदेही और जन भागीदारी के साथ कार्य करने की शक्ति प्रदान करना था।
यह संशोधन भारत के संविधान में भाग IX-A (अनुच्छेद 243P से 243ZG) को जोड़ता है और शहरी क्षेत्रों में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को मजबूत करता है।
📜 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
🔍 स्वतंत्रता के बाद शहरी प्रशासन की स्थिति
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संविधान में राज्य नीति के निदेशक तत्व (अनुच्छेद 40) में पंचायतों और नगरपालिकाओं की स्थापना का प्रावधान था, लेकिन यह बाध्यकारी नहीं था।
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शहरी क्षेत्रों में नगरपालिकाओं का गठन तो हुआ, लेकिन उन्हें पर्याप्त अधिकार और संसाधन नहीं मिले।
🏛️ संशोधन की आवश्यकता
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1980 के दशक में तेजी से शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि ने नगर प्रशासन पर भारी दबाव डाला।
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नगर निकायों की कमजोर स्थिति और राज्य सरकार पर निर्भरता ने विकास कार्यों को बाधित किया।
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इसी स्थिति में 74वां संशोधन लाकर नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा देने का निर्णय लिया गया।
🛠️ 74वें संशोधन की मुख्य विशेषताएँ
1️⃣ संवैधानिक मान्यता
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नगरपालिकाओं और नगर निगमों को संवैधानिक दर्जा दिया गया।
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भाग IX-A जोड़ा गया जिसमें अनुच्छेद 243P से 243ZG तक के प्रावधान हैं।
2️⃣ नगर निकायों के प्रकार (अनुच्छेद 243Q)
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नगर पंचायत (Nagar Panchayat): ग्रामीण से शहरी क्षेत्र में परिवर्तित हो रहे स्थानों के लिए।
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नगर परिषद (Municipal Council): छोटे शहरी क्षेत्रों के लिए।
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नगर निगम (Municipal Corporation): बड़े शहरी क्षेत्रों के लिए।
3️⃣ निर्वाचन व्यवस्था (अनुच्छेद 243R)
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सभी पदों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव।
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एक अध्यक्ष (Mayor/Chairperson) का चुनाव राज्य के कानून के अनुसार।
4️⃣ आरक्षण व्यवस्था (अनुच्छेद 243T)
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अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण।
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महिलाओं के लिए कुल सीटों में कम से कम 33% आरक्षण अनिवार्य।
5️⃣ कार्यकाल और विघटन (अनुच्छेद 243U)
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प्रत्येक नगरपालिका का कार्यकाल 5 वर्ष।
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समय से पहले विघटन होने पर 6 माह के भीतर पुनः चुनाव।
6️⃣ राज्य निर्वाचन आयोग (अनुच्छेद 243ZA)
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राज्य स्तर पर एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग का गठन।
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यह आयोग नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनावों का संचालन करता है।
7️⃣ शक्तियाँ और कार्य (अनुच्छेद 243W)
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नगर नियोजन, भूमि उपयोग, सड़कों का निर्माण, जलापूर्ति, सफाई, कचरा प्रबंधन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन आदि कार्य।
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12वीं अनुसूची में 18 विषय सूचीबद्ध किए गए हैं जो नगरपालिकाओं को सौंपे जा सकते हैं।
8️⃣ वित्तीय प्रावधान (अनुच्छेद 243X और 243Y)
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नगरपालिकाओं को कर लगाने, शुल्क वसूलने और ऋण लेने का अधिकार।
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राज्य वित्त आयोग का गठन जो 5 साल में एक बार स्थानीय निकायों को वित्तीय संसाधनों का बंटवारा तय करता है।
9️⃣ समितियाँ (अनुच्छेद 243ZD और 243ZE)
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जिला योजना समिति: जिले में विकास योजनाओं के समन्वय के लिए।
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महानगर योजना समिति: महानगर क्षेत्रों के विकास कार्यों के लिए।
📈 12वीं अनुसूची में सूचीबद्ध प्रमुख विषय
📜 1. शहरी नियोजन
🚰 2. जलापूर्ति और स्वच्छता
🛣️ 3. सड़कों और पुलों का निर्माण
🗑️ 4. ठोस अपशिष्ट प्रबंधन
🏥 5. स्वास्थ्य और स्वच्छता
🎓 6. प्राथमिक शिक्षा
🌳 7. उद्यान और सार्वजनिक स्थल
🚌 8. सार्वजनिक परिवहन
🏘️ 9. झुग्गी-बस्ती सुधार
⚡ 10. विद्युत आपूर्ति
⚖️ 74वें संशोधन का महत्व
🌍 शहरी लोकतंत्र को मजबूती
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जनता को सीधे निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करने का अवसर।
💰 वित्तीय स्वायत्तता
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कर और शुल्क लगाने का अधिकार देकर नगरपालिकाओं की आय में वृद्धि।
🏗️ विकास कार्यों में तेजी
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स्थानीय स्तर पर त्वरित निर्णय और क्रियान्वयन।
👥 सामाजिक न्याय
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आरक्षण व्यवस्था से समाज के वंचित वर्गों की भागीदारी।
🚧 74वें संशोधन से जुड़ी चुनौतियाँ
💵 वित्तीय संसाधनों की कमी
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पर्याप्त कर संग्रह न होने से नगरपालिकाओं की निर्भरता राज्य सरकार पर बनी रहती है।
🏛️ राजनीतिक हस्तक्षेप
-
नगरपालिकाओं की स्वायत्तता पर राज्य सरकार का नियंत्रण।
📉 क्षमता निर्माण की कमी
-
निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्रशासनिक और तकनीकी ज्ञान की कमी।
🗂️ अधिकारों का सीमित हस्तांतरण
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12वीं अनुसूची के विषय पूरी तरह नगरपालिकाओं को नहीं सौंपे जाते।
💡 सुधार के उपाय
📊 वित्तीय मजबूती
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नगरपालिकाओं को कराधान की स्वतंत्रता बढ़ाना।
🎓 प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण
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निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम।
🔍 पारदर्शिता
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ई-गवर्नेंस और सोशल ऑडिट का प्रयोग।
🤝 जन भागीदारी
-
वार्ड सभाओं और नागरिक मंचों को सक्रिय करना।
📌 निष्कर्ष
74वां संविधान संशोधन भारत के शहरी लोकतंत्र को सशक्त बनाने की दिशा में मील का पत्थर है।
इसने नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा देकर जन भागीदारी, विकेंद्रीकरण और स्थानीय विकास की प्रक्रिया को मजबूत किया है।
हालांकि वित्तीय संसाधनों की कमी और प्रशासनिक सीमाएँ अभी भी चुनौतियाँ हैं, लेकिन उचित नीतियों और सुधारों के माध्यम से यह व्यवस्था भारत के शहरी जीवन को अधिक संगठित, पारदर्शी और जन-केंद्रित बना सकती है।
प्रश्न 03 : नगर निगम की संरचना एवं कार्यों को विस्तार से समझाइए।
✨ परिचय
नगर निगम (Municipal Corporation) भारत के बड़े शहरी क्षेत्रों के स्थानीय स्वशासन की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है।
इसका गठन 74वें संविधान संशोधन (1992) के तहत अनुच्छेद 243Q के अनुसार किया जाता है।
नगर निगम का उद्देश्य शहर के प्रशासन, विकास और बुनियादी सुविधाओं का प्रबंधन करना है।
यह संस्था सीधे चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता को प्रशासन में भागीदारी का अवसर देती है।
📜 नगर निगम की स्थापना की पृष्ठभूमि
🔍 ऐतिहासिक संदर्भ
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भारत में पहला नगर निगम 1687 में मद्रास (अब चेन्नई) में स्थापित हुआ।
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इसके बाद 1726 में मुंबई और कोलकाता में नगर निगम बने।
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स्वतंत्रता के बाद शहरीकरण की गति बढ़ने से नगर निगमों की भूमिका और महत्व भी बढ़ा।
🏛️ संवैधानिक आधार
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74वें संशोधन के तहत नगर निगमों को संवैधानिक मान्यता मिली।
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इन्हें बड़े शहरी क्षेत्रों (10 लाख से अधिक जनसंख्या) के लिए गठित किया जाता है।
🛠️ नगर निगम की संरचना
1️⃣ महापौर (Mayor)
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महापौर नगर निगम का औपचारिक प्रमुख होता है।
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चुनाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से राज्य कानून के अनुसार होता है।
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कार्यकाल सामान्यतः 1 से 5 वर्ष का होता है।
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महापौर निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है और आधिकारिक रूप से निगम का प्रतिनिधित्व करता है।
2️⃣ पार्षद (Councillors)
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शहर को वार्डों में बांटकर प्रत्येक वार्ड से एक पार्षद चुना जाता है।
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पार्षद जनता के प्रतिनिधि होते हैं और निगम की नीतियों, बजट तथा योजनाओं पर निर्णय लेते हैं।
3️⃣ स्थायी समितियाँ (Standing Committees)
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वित्त, स्वास्थ्य, शिक्षा, जल आपूर्ति, स्वच्छता आदि विषयों के लिए अलग-अलग समितियाँ होती हैं।
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ये समितियाँ महापौर और पार्षदों की सहायता से कार्य करती हैं।
4️⃣ आयुक्त (Municipal Commissioner)
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राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी।
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नगर निगम का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है।
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नीतियों को लागू करने और दैनिक प्रशासन का जिम्मा संभालता है।
5️⃣ अन्य कर्मचारी
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अभियंता, चिकित्सक, स्वास्थ्य निरीक्षक, शिक्षक, सफाई कर्मचारी आदि नगर निगम के विभिन्न विभागों में कार्यरत रहते हैं।
📌 नगर निगम के मुख्य विभाग
🏗️ सार्वजनिक निर्माण विभाग
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सड़कों, पुलों, नालों और भवनों का निर्माण एवं रखरखाव।
💧 जल आपूर्ति विभाग
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पीने के पानी की आपूर्ति और जलाशयों का प्रबंधन।
🗑️ स्वच्छता विभाग
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कचरा संग्रहण, सीवेज सिस्टम और सफाई व्यवस्था।
🏥 स्वास्थ्य विभाग
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अस्पतालों, डिस्पेंसरी और टीकाकरण कार्यक्रमों का संचालन।
🎓 शिक्षा विभाग
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प्राथमिक विद्यालयों और पुस्तकालयों का संचालन।
🌳 उद्यान विभाग
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पार्क, बाग-बगीचे और हरित क्षेत्र का संरक्षण।
📋 नगर निगम के कार्य
1️⃣ अनिवार्य कार्य (Obligatory Functions)
ये कार्य कानून द्वारा नगर निगम को करना आवश्यक होते हैं।
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स्वच्छता व्यवस्था: सड़कों, नालियों की सफाई, कचरा निपटान।
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जलापूर्ति: स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति।
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सड़क निर्माण और रखरखाव।
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सीवेज और ड्रेनेज प्रणाली का प्रबंधन।
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अग्निशमन सेवाएं।
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स्वास्थ्य सेवाएं: अस्पताल, टीकाकरण, महामारी नियंत्रण।
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प्राथमिक शिक्षा का संचालन।
2️⃣ वैकल्पिक कार्य (Discretionary Functions)
ये कार्य नगर निगम की वित्तीय क्षमता और इच्छा पर निर्भर करते हैं।
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पार्क, खेल मैदान और सांस्कृतिक भवनों का निर्माण।
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सार्वजनिक परिवहन सेवाएं।
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कला, संगीत और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन।
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पर्यटन का विकास।
⚖️ नगर निगम के वित्तीय स्रोत
💰 कर आधारित आय
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संपत्ति कर, जल कर, पेशा कर, विज्ञापन कर।
🏛️ गैर-कर आधारित आय
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शुल्क, लाइसेंस फीस, किराया।
📦 अनुदान और सहायता
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राज्य और केंद्र सरकार से अनुदान।
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विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसी संस्थाओं से सहायता।
📈 नगर निगम का महत्व
🌍 शहरी विकास
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स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार योजनाएं और नीतियां बनाना।
👥 जन भागीदारी
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सीधे चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से लोकतांत्रिक प्रशासन।
🏗️ बुनियादी ढांचे का निर्माण
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सड़क, जल, स्वास्थ्य, शिक्षा और स्वच्छता की सुविधाएं उपलब्ध कराना।
🚧 नगर निगम की प्रमुख चुनौतियाँ
💵 वित्तीय कमी
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कर वसूली में कमी और बढ़ते खर्च से आर्थिक संकट।
🏛️ राजनीतिक हस्तक्षेप
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निर्णय प्रक्रिया में राज्य सरकार का अत्यधिक नियंत्रण।
📉 प्रशासनिक अक्षमता
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भ्रष्टाचार, देरी और दक्षता की कमी।
🌱 पर्यावरणीय समस्याएं
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प्रदूषण, कचरा प्रबंधन और हरित क्षेत्र की कमी।
💡 सुधार के उपाय
📊 वित्तीय स्वायत्तता
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कर संग्रह प्रणाली को डिजिटल बनाना।
🎓 क्षमता निर्माण
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पार्षदों और कर्मचारियों को प्रशासनिक व तकनीकी प्रशिक्षण।
🔍 पारदर्शिता
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ई-गवर्नेंस और नागरिक पोर्टल का उपयोग।
🌱 सतत विकास
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पर्यावरण-अनुकूल योजनाओं को प्राथमिकता।
📌 निष्कर्ष
नगर निगम शहरी जीवन का एक अनिवार्य स्तंभ है, जो नागरिकों को आवश्यक सेवाएं और सुविधाएं उपलब्ध कराता है।
संरचना के विभिन्न अंग — महापौर, पार्षद, समितियां और आयुक्त — मिलकर नगर निगम को प्रभावी बनाते हैं।
हालांकि वित्तीय संकट, राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रशासनिक चुनौतियां मौजूद हैं, फिर भी विकेंद्रीकरण, पारदर्शिता और जन भागीदारी से नगर निगम अपनी भूमिका को और सशक्त बना सकता है।
आधुनिक तकनीक और अच्छे शासन के माध्यम से यह संस्था शहरों को अधिक संगठित, स्वच्छ और रहने योग्य बना सकती है।
प्रश्न 04 : नगरपालिका के आय के साधनों का वर्णन करते हुए इस पर सरकारी नियंत्रण के बारे में समझाइए।
✨ परिचय
नगरपालिका (Municipality) भारत के छोटे और मध्यम आकार के शहरों के स्थानीय स्वशासन की प्रमुख इकाई है।
नगरपालिका का मुख्य उद्देश्य नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना, स्थानीय विकास कार्य करना और शहरी जीवन को सुव्यवस्थित बनाना है।
इन कार्यों के लिए नगरपालिका को पर्याप्त वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती है, जो विभिन्न कर, शुल्क, अनुदान और अन्य स्रोतों से प्राप्त होते हैं।
हालांकि, नगरपालिका की वित्तीय और प्रशासनिक गतिविधियों पर राज्य सरकार का नियंत्रण भी होता है, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित होती है।
📜 नगरपालिका की आय के साधन
1️⃣ कर आधारित आय (Tax Revenue)
नगरपालिका का प्रमुख आय स्रोत विभिन्न प्रकार के कर हैं, जो स्थानीय नागरिकों और संस्थाओं से वसूले जाते हैं।
🏠 संपत्ति कर (Property Tax)
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घर, भवन, दुकान, गोदाम जैसी संपत्तियों पर लगाया जाता है।
-
यह नगरपालिका का सबसे स्थिर और महत्वपूर्ण कर है।
🚰 जल कर (Water Tax)
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नगर में जलापूर्ति सेवाओं के बदले लगाया जाने वाला कर।
🏢 पेशा कर (Professional Tax)
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नगर क्षेत्र में कार्यरत पेशेवर, व्यापारी और व्यवसायियों पर लगाया जाने वाला कर।
📢 विज्ञापन कर (Advertisement Tax)
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होर्डिंग, बैनर, पोस्टर और डिजिटल विज्ञापनों पर लगाया जाने वाला कर।
🛍️ बाजार कर (Market Tax)
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मंडी, बाजार और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से वसूला जाने वाला कर।
2️⃣ गैर-कर आधारित आय (Non-Tax Revenue)
ये वे आय स्रोत हैं जो कर वसूली के अलावा अन्य तरीकों से प्राप्त होते हैं।
📝 लाइसेंस शुल्क (License Fees)
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होटल, रेस्टोरेंट, दुकान, वाहन आदि के संचालन के लिए लाइसेंस देने पर लिया जाने वाला शुल्क।
🏟️ किराया और पट्टा शुल्क (Rent and Lease Fees)
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नगरपालिका की संपत्तियों जैसे दुकान, भवन, मैदान आदि को किराए या पट्टे पर देकर।
🚎 सेवा शुल्क (Service Charges)
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कचरा प्रबंधन, पार्किंग, बस सेवा जैसी सुविधाओं के बदले लिया जाने वाला शुल्क।
🎫 प्रवेश शुल्क (Entry Fees)
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पार्क, स्विमिंग पूल, मनोरंजन स्थल आदि में प्रवेश के लिए।
3️⃣ सरकारी अनुदान और सहायता (Grants and Aid)
🏛️ राज्य सरकार से अनुदान
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विकास योजनाओं और विशेष परियोजनाओं के लिए।
🇮🇳 केंद्र सरकार से अनुदान
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स्मार्ट सिटी मिशन, स्वच्छ भारत मिशन जैसी राष्ट्रीय योजनाओं के तहत।
🌍 अंतरराष्ट्रीय सहायता
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विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक आदि से विशेष परियोजनाओं के लिए ऋण और अनुदान।
4️⃣ पूंजीगत आय (Capital Receipts)
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दीर्घकालिक ऋण, बॉण्ड जारी करना और सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) के माध्यम से आय।
⚖️ नगरपालिका पर सरकारी नियंत्रण
🌍 नियंत्रण का उद्देश्य
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वित्तीय अनुशासन, पारदर्शिता और कार्यकुशलता सुनिश्चित करना।
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यह देखना कि सार्वजनिक धन का सही और उचित उपयोग हो।
1️⃣ वित्तीय नियंत्रण
📊 बजट अनुमोदन
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नगरपालिका का वार्षिक बजट राज्य सरकार या उसके द्वारा अधिकृत प्राधिकारी की मंजूरी के बाद ही लागू होता है।
💵 कर निर्धारण पर नियंत्रण
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नए कर लगाने या दरों में वृद्धि करने से पहले राज्य सरकार की स्वीकृति आवश्यक होती है।
📝 ऑडिट और लेखा परीक्षण
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राज्य लेखा परीक्षा विभाग या नियंत्रक महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा वित्तीय लेन-देन की जांच।
2️⃣ प्रशासनिक नियंत्रण
👥 नियुक्तियों पर नियंत्रण
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प्रमुख अधिकारियों जैसे मुख्य कार्यपालक अधिकारी या आयुक्त की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा।
🏛️ कार्यों की निगरानी
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राज्य सरकार समय-समय पर निरीक्षण और रिपोर्ट की मांग कर सकती है।
🛑 नियमों का उल्लंघन होने पर कार्रवाई
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गंभीर अनियमितताओं की स्थिति में नगरपालिका को निलंबित या भंग किया जा सकता है।
3️⃣ नीतिगत नियंत्रण
📜 दिशा-निर्देश जारी करना
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विकास कार्यों और योजनाओं के लिए नीति निर्देश राज्य सरकार द्वारा जारी किए जाते हैं।
🤝 योजनाओं में समन्वय
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राज्य और केंद्र सरकार की योजनाओं के क्रियान्वयन में मार्गदर्शन और समन्वय।
🚧 सरकारी नियंत्रण के फायदे और सीमाएँ
✅ फायदे
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वित्तीय अनुशासन और भ्रष्टाचार पर अंकुश।
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विकास कार्यों की गुणवत्ता और पारदर्शिता में सुधार।
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नीतियों और योजनाओं का समन्वय।
❌ सीमाएँ
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अत्यधिक नियंत्रण से नगरपालिका की स्वायत्तता कम हो जाती है।
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निर्णय लेने में देरी।
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स्थानीय आवश्यकताओं के बजाय राज्यस्तरीय प्राथमिकताओं को महत्व मिलना।
💡 सुधार के उपाय
📊 वित्तीय स्वायत्तता
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कर संग्रह और उपयोग में अधिक स्वतंत्रता।
🔍 पारदर्शिता
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ई-गवर्नेंस, डिजिटल भुगतान और ऑनलाइन ऑडिट व्यवस्था।
🎓 क्षमता निर्माण
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निर्वाचित प्रतिनिधियों और कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम।
⚖️ संतुलित नियंत्रण
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ऐसा ढांचा जिसमें जवाबदेही भी बनी रहे और स्थानीय स्वायत्तता भी सुरक्षित रहे।
📌 निष्कर्ष
नगरपालिका की सफलता उसके आर्थिक संसाधनों पर निर्भर करती है, और इसके लिए कर आधारित, गैर-कर आधारित आय, अनुदान और पूंजीगत स्रोत अहम भूमिका निभाते हैं।
हालांकि, वित्तीय और प्रशासनिक अनुशासन बनाए रखने के लिए राज्य सरकार का नियंत्रण आवश्यक है, लेकिन यह नियंत्रण इतना भी अधिक नहीं होना चाहिए कि स्थानीय स्वशासन की भावना ही समाप्त हो जाए।
संतुलित सरकारी नियंत्रण, वित्तीय मजबूती और जन भागीदारी के साथ ही नगरपालिका अपने उद्देश्यों को प्रभावी ढंग से पूरा कर सकती है और शहरों को अधिक सुव्यवस्थित, स्वच्छ और रहने योग्य बना सकती है।
प्रश्न 05 – भारत में नगरीय संस्थाओं पर राज्य द्वारा किस प्रकार नियंत्रण किया जाता है?
1. प्रस्तावना
भारत में नगरीय संस्थाएँ (नगर निगम, नगरपालिका, नगर पंचायत आदि) स्थानीय स्वशासन की महत्वपूर्ण इकाइयाँ हैं। इनका गठन नागरिकों को स्थानीय स्तर पर प्रशासन में भागीदारी का अवसर देने और क्षेत्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया गया है। यद्यपि ये संस्थाएँ स्वायत्त होती हैं, लेकिन इन पर राज्य सरकार का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नियंत्रण भी रहता है, ताकि इनके कार्य सुचारू, पारदर्शी और कानून के अनुरूप चलें।
2. नियंत्रण के उद्देश्य
राज्य सरकार का नियंत्रण मुख्य रूप से निम्न कारणों से आवश्यक माना जाता है—
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स्थानीय संस्थाओं में वित्तीय अनुशासन बनाए रखना।
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भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन को रोकना।
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कानून, नियम और राज्य नीतियों का पालन सुनिश्चित करना।
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जनहित में कार्यों की गुणवत्ता बनाए रखना।
3. राज्य द्वारा नियंत्रण के प्रकार
(क) प्रशासनिक नियंत्रण
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स्वीकृति और अनुमोदन –
नगर निगम/नगरपालिका के कई निर्णय (जैसे बड़े निर्माण, ऋण लेना, कर में परिवर्तन) राज्य सरकार की स्वीकृति के बिना लागू नहीं होते। -
नियम और उपनियम –
नगरीय संस्थाओं को अपने उपनियम बनाने से पहले राज्य सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। -
निरीक्षण और रिपोर्ट –
राज्य सरकार इनके कार्यों की समय-समय पर जांच कर सकती है और रिपोर्ट मांग सकती है।
(ख) वित्तीय नियंत्रण
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बजट की स्वीकृति –
नगर निकाय का वार्षिक बजट राज्य सरकार के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाता है। -
अनुदान और सहायता –
राज्य सरकार वित्तीय अनुदान देती है, जिससे उस पर आंशिक निर्भरता रहती है। -
ऑडिट (लेखा-परीक्षा) –
नगरीय संस्थाओं के खातों की जांच राज्य द्वारा नियुक्त महालेखा परीक्षक या अन्य अधिकारी करते हैं।
(ग) कार्मिक नियंत्रण
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अधिकारी की नियुक्ति –
आयुक्त, मुख्य अभियंता आदि उच्च अधिकारियों की नियुक्ति राज्य सरकार करती है। -
स्थानांतरण और निलंबन –
कई मामलों में राज्य सरकार इन अधिकारियों को हटाने, स्थानांतरित करने या निलंबित करने का अधिकार रखती है।
(घ) विघटन और निलंबन का अधिकार
यदि नगरीय संस्था अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करती या कानून का उल्लंघन करती है, तो राज्य सरकार उसे भंग (dissolve) या निलंबित (suspend) कर सकती है। इस स्थिति में प्रशासनिक कार्य राज्य के अधिकारियों को सौंप दिए जाते हैं, जब तक पुनः चुनाव नहीं होते।
(ङ) न्यायिक नियंत्रण
यदि नगरीय संस्थाओं के कार्य संविधान या कानून के विरुद्ध हों, तो राज्य सरकार न्यायालय के माध्यम से हस्तक्षेप कर सकती है।
4. आलोचना
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अत्यधिक नियंत्रण से स्थानीय स्वशासन की स्वतंत्रता कम हो जाती है।
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कभी-कभी राजनीतिक कारणों से भी हस्तक्षेप किया जाता है।
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इससे निर्णय लेने में विलंब और नौकरशाही का प्रभुत्व बढ़ जाता है।
5. उपसंहार
राज्य सरकार का नियंत्रण नगरीय संस्थाओं के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक है, लेकिन यह नियंत्रण इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि स्थानीय स्वशासन की आत्मनिर्भरता और लोकतांत्रिक भावना प्रभावित हो। संतुलित नियंत्रण से ही पारदर्शिता, जवाबदेही और जनहित सुनिश्चित किया जा सकता है।
प्रश्न 01: ब्रिटिश काल में स्थानीय स्वशासन के विकास पर प्रकाश डालिए।
भूमिका
भारत में स्थानीय स्वशासन की अवधारणा प्राचीन काल से ही प्रचलित थी, जहाँ ग्राम सभाएँ और पंचायतें गाँव के प्रशासन, न्याय और विकास के कार्य देखती थीं। किंतु ब्रिटिश शासनकाल में यह प्रणाली धीरे-धीरे औपचारिक, लिखित और संगठित रूप में विकसित हुई। ब्रिटिश सरकार ने स्थानीय संस्थाओं की स्थापना मुख्यतः प्रशासनिक सुविधा, कर संग्रह और जनता में राजनीतिक चेतना को सीमित रखने के उद्देश्य से की थी।
फिर भी, समय के साथ इन संस्थाओं ने भारत में लोकतांत्रिक परंपराओं के विकास और आत्मशासन की भावना को मजबूत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
ब्रिटिश काल से पूर्व स्थानीय स्वशासन की स्थिति
ब्रिटिश शासन आने से पहले गाँवों में पंचायतें और नगरों में नगरपालिका जैसी संस्थाएँ अप्रत्यक्ष रूप से कार्य करती थीं। ये संस्थाएँ मुख्यतः—
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विवादों का निपटारा,
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सामाजिक अनुशासन बनाए रखना,
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कर संग्रह,
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सिंचाई, सड़क और अन्य स्थानीय विकास कार्य करती थीं।
ब्रिटिश शासन ने इन्हीं पारंपरिक संरचनाओं को अपने प्रशासनिक ढाँचे में सम्मिलित करते हुए नई संस्थाओं का निर्माण किया।
ब्रिटिश काल में स्थानीय स्वशासन का क्रमिक विकास
1. प्रारंभिक काल (1773–1857)
ब्रिटिश शासन के शुरुआती दौर में स्थानीय स्वशासन पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
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1687 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मद्रास में पहला नगरपालिका निगम (Municipal Corporation) स्थापित किया।
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1726 में बंबई और कलकत्ता में भी निगम बनाए गए।
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इनका मुख्य कार्य व्यापारिक और औपनिवेशिक आवश्यकताओं को पूरा करना था, न कि जनता की भागीदारी बढ़ाना।
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1850 का नगरपालिका अधिनियम (Municipal Act) बंबई प्रेसीडेंसी में लागू हुआ, जिसने नगरपालिका संस्थाओं को औपचारिक रूप दिया।
2. 1857 के बाद सुधारों की शुरुआत (1858–1881)
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने जनता में राजनीतिक भागीदारी को सीमित रूप से बढ़ाने के लिए सुधार किए।
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1864: कई नगरपालिकाओं का गठन किया गया, परंतु अधिकांश में सदस्य नामित (nominated) होते थे।
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1870 का मेयो का वित्तीय सुधार (Lord Mayo’s Financial Decentralization) – इस सुधार के तहत
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शिक्षा, सड़क और स्वास्थ्य जैसे कार्य प्रांतीय सरकारों को सौंपे गए।
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स्थानीय निकायों के माध्यम से इन्हें संचालित किया जाने लगा।
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3. लॉर्ड रिपन का स्थानीय स्वशासन सुधार (1882)
लॉर्ड रिपन को भारतीय स्थानीय स्वशासन का जनक कहा जाता है।
1882 का रिपन का प्रस्ताव (Resolution on Local Self-Government) की मुख्य बातें –
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स्थानीय संस्थाओं में निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाए।
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अध्यक्ष (Chairman) का चयन जहाँ संभव हो, निर्वाचित सदस्यों में से किया जाए।
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स्थानीय संस्थाएँ कर लगाने और व्यय करने के लिए स्वतंत्र हों।
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सरकार का हस्तक्षेप केवल मार्गदर्शन और निगरानी तक सीमित हो।
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शहरी और ग्रामीण – दोनों प्रकार की संस्थाओं के विकास पर बल।
📌 महत्त्व – रिपन के सुधार ने पहली बार स्थानीय स्वशासन को जनसहभागिता का रूप दिया, यद्यपि यह अभी भी सीमित था।
4. प्रारंभिक 20वीं सदी के सुधार (1909–1919)
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1909 का भारतीय परिषद अधिनियम (Morley-Minto Reforms) – यद्यपि यह मुख्यतः प्रांतीय और केंद्रीय परिषदों से जुड़ा था, परंतु स्थानीय निकायों में निर्वाचित सदस्यों की भागीदारी को भी प्रोत्साहन मिला।
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1919 का मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार – स्थानीय स्वशासन को ‘Transferred Subjects’ में रखा गया, जिसका अर्थ था कि इन पर निर्वाचित मंत्रियों का नियंत्रण होगा।
5. 1920–1935 का काल
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इस दौर में अधिकांश प्रांतों ने अपने-अपने नगरपालिका अधिनियम बनाए।
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1924 का मद्रास नगरपालिका अधिनियम, 1925 का बॉम्बे नगरपालिका अधिनियम उल्लेखनीय हैं।
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कार्यक्षेत्र में सड़क, पानी, सफाई, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी जिम्मेदारियाँ बढ़ीं।
6. 1935 का भारत शासन अधिनियम
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यह स्थानीय स्वशासन के लिए एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था।
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इसमें स्थानीय निकायों को प्रांतीय सरकारों के अधिकार क्षेत्र में रखा गया।
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विकेंद्रीकरण की दिशा में यह एक बड़ा कदम था।
ब्रिटिश काल में स्थानीय निकायों की संरचना और कार्य
संरचना
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नगर निगम (Municipal Corporations) – बड़े शहरों में, जैसे – बंबई, मद्रास, कलकत्ता।
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नगर पालिकाएँ (Municipal Boards) – मध्यम और छोटे शहरों में।
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जिला बोर्ड (District Boards) – ग्रामीण क्षेत्रों के लिए।
मुख्य कार्य
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सफाई, पेयजल, सड़क निर्माण और मरम्मत।
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शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ।
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बाजार और सार्वजनिक स्थलों का प्रबंधन।
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कर संग्रह (हाउस टैक्स, बाजार शुल्क आदि)।
ब्रिटिश काल में स्थानीय स्वशासन की सीमाएँ
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सीमित जनसहभागिता – अधिकांश सदस्य नामित होते थे, जिससे लोकतंत्र की भावना कमजोर रहती थी।
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वित्तीय निर्भरता – स्थानीय निकायों के पास पर्याप्त आय के साधन नहीं थे, वे सरकार पर निर्भर रहते थे।
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सरकारी नियंत्रण – प्रांतीय सरकारें इनके निर्णयों को निरस्त कर सकती थीं।
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राजनीतिक उद्देश्य – ब्रिटिश सरकार का मुख्य उद्देश्य जनता को वास्तविक स्वशासन देना नहीं, बल्कि अपने शासन को सुगम बनाना था।
स्थानीय स्वशासन के विकास का महत्त्व
ब्रिटिश काल में स्थानीय स्वशासन ने –
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भारत में लोकतांत्रिक परंपराओं की नींव रखी।
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प्रशासनिक कार्यों में जनता की सीमित भागीदारी को प्रोत्साहित किया।
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स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं को राजनीतिक प्रशिक्षण प्रदान किया।
उपसंहार
ब्रिटिश काल में स्थानीय स्वशासन का विकास यद्यपि पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक नहीं था, फिर भी यह भारतीय लोकतंत्र के लिए आधारशिला साबित हुआ। लॉर्ड रिपन के सुधार, 1919 और 1935 के अधिनियमों ने भारतीय जनता को प्रशासन में भागीदारी का अवसर दिया। स्वतंत्र भारत में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से जो सशक्त स्थानीय निकाय प्रणाली बनी, उसकी जड़ें ब्रिटिश कालीन सुधारों में ही निहित हैं।
प्रश्न 02. नगर निगम के कार्यों को समझाइए।
नगर निगम (Municipal Corporation) भारत में नगरीय प्रशासन की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण संस्था है, जो बड़े शहरों और महानगरों के प्रशासन और विकास के लिए जिम्मेदार होती है। इसका मुख्य उद्देश्य नागरिकों को आवश्यक मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराना और शहर का समुचित विकास सुनिश्चित करना है। नगर निगम के कार्यों को तीन प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है – अनिवार्य कार्य, वैकल्पिक कार्य और अर्ध-न्यायिक/विविध कार्य।
1. अनिवार्य कार्य (Mandatory Functions)
ये वे कार्य हैं जो नगर निगम के लिए कानून द्वारा अनिवार्य किए गए हैं।
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स्वच्छता व्यवस्था – सड़कों की सफाई, कचरा संग्रहण, सीवेज प्रबंधन और नालियों की सफाई।
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पेयजल आपूर्ति – नागरिकों को सुरक्षित और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना।
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सड़क और परिवहन व्यवस्था – सड़कों का निर्माण, मरम्मत और रखरखाव, स्ट्रीट लाइट की व्यवस्था।
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जन स्वास्थ्य – अस्पताल, डिस्पेंसरी, मातृ एवं शिशु कल्याण केंद्र स्थापित करना और टीकाकरण कार्यक्रम चलाना।
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कब्रिस्तान और श्मशान घाटों का प्रबंधन – मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करना और अंतिम संस्कार स्थल की व्यवस्था।
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अग्निशमन सेवा – आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड की स्थापना और संचालन।
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प्रदूषण नियंत्रण – वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के उपाय करना।
2. वैकल्पिक कार्य (Discretionary Functions)
ये वे कार्य हैं जिन्हें नगर निगम अपनी आर्थिक क्षमता और आवश्यकताओं के अनुसार करता है।
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उद्यान एवं पार्कों का विकास – नागरिकों के मनोरंजन और हरियाली के लिए पार्क, बगीचे और खेल के मैदान विकसित करना।
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शिक्षा व्यवस्था – प्राथमिक विद्यालय, पुस्तकालय और वयस्क शिक्षा केंद्र स्थापित करना।
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सांस्कृतिक एवं खेल गतिविधियाँ – सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेलकूद प्रतियोगिताओं और प्रदर्शनियों का आयोजन।
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पर्यटन का विकास – ऐतिहासिक और पर्यटन स्थलों का संरक्षण और प्रचार-प्रसार।
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नगरीय सौंदर्यीकरण – मूर्तियों, फव्वारों, सड़क किनारे सजावट और सौंदर्यीकरण कार्य।
3. अर्ध-न्यायिक एवं प्रशासनिक कार्य (Quasi-Judicial & Administrative Functions)
नगर निगम को कुछ अर्ध-न्यायिक अधिकार भी प्राप्त होते हैं।
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निर्माण अनुज्ञा (Building Permission) – भवन निर्माण की स्वीकृति देना और नियमों का पालन सुनिश्चित करना।
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अवैध निर्माण पर कार्रवाई – नियम विरुद्ध निर्माण को ध्वस्त करना।
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कर वसूली – संपत्ति कर, जल कर, विज्ञापन कर आदि लगाना और वसूलना।
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नियमों का प्रवर्तन – दुकानों के समय, लाइसेंस, और स्वच्छता मानकों का पालन कराना।
4. आपदा प्रबंधन एवं त्वरित सहायता
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बाढ़, भूकंप, महामारी आदि आपदाओं के समय राहत कार्य करना।
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नागरिकों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाना और आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराना।
निष्कर्ष
नगर निगम शहरी जीवन की रीढ़ है, जो नागरिकों के दैनिक जीवन को सुचारु बनाने और शहर को आधुनिक, स्वच्छ एवं सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके कार्य केवल प्रशासनिक ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास से भी जुड़े होते हैं। नगर निगम की सक्रियता और कार्यक्षमता सीधे तौर पर शहर के विकास और नागरिकों के जीवन-स्तर को प्रभावित करती है।
प्रश्न 03 – आधुनिक समय में नगरीय प्रशासन की जिम्मेदारियों पर लेख लिखिए।
भूमिका
आधुनिक समय में नगरीय प्रशासन का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है, क्योंकि भारत में शहरीकरण की गति तेजी से बढ़ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों से रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और बेहतर जीवन सुविधाओं की तलाश में लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। इस कारण शहरों की जनसंख्या में वृद्धि, संसाधनों पर दबाव और प्रशासनिक चुनौतियाँ भी बढ़ी हैं। ऐसे में नगरीय प्रशासन केवल सड़कों और सफाई तक सीमित न होकर सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय विकास की जिम्मेदारी भी निभा रहा है।
1. नगरीय प्रशासन की अवधारणा
नगरीय प्रशासन से आशय उन संस्थाओं और तंत्र से है जो शहरों में नागरिकों को आवश्यक सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं, जैसे- पानी, बिजली, सड़क, परिवहन, स्वास्थ्य, शिक्षा, सफाई, पर्यावरण संरक्षण आदि। यह प्रशासन नगर निगम, नगर पालिका, नगर पंचायत, महानगर विकास प्राधिकरण जैसे संगठनों के माध्यम से संचालित होता है।
2. आधुनिक समय में नगरीय प्रशासन की मुख्य जिम्मेदारियाँ
(क) आधारभूत सुविधाओं का विकास
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सड़कों का निर्माण और रखरखाव।
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जल आपूर्ति और सीवरेज व्यवस्था।
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विद्युत और स्ट्रीट लाइट की व्यवस्था।
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शहरी परिवहन सेवाओं का विकास।
(ख) स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाएँ
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ठोस अपशिष्ट प्रबंधन एवं सफाई व्यवस्था।
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अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, टीकाकरण और रोग नियंत्रण।
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दूषित पानी, प्रदूषण और मच्छरजनित रोगों की रोकथाम।
(ग) आवास और शहरी नियोजन
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गरीब और बेघर लोगों के लिए सस्ते आवास की व्यवस्था।
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अवैध निर्माणों पर नियंत्रण और भूमि उपयोग की योजना।
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पार्क, सामुदायिक केंद्र और मनोरंजन स्थलों का निर्माण।
(घ) शिक्षा और सामाजिक कल्याण
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प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों का संचालन।
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महिला, बाल और वृद्ध कल्याण योजनाओं का संचालन।
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कमजोर वर्गों के लिए विशेष योजनाएँ और प्रशिक्षण केंद्र।
(ङ) पर्यावरण संरक्षण
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वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण।
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वृक्षारोपण और हरित पट्टियों का विकास।
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वर्षा जल संचयन और नवीकरणीय ऊर्जा का प्रोत्साहन।
3. डिजिटल और स्मार्ट प्रशासन
आधुनिक समय में नगरीय प्रशासन में स्मार्ट सिटी मिशन जैसे कार्यक्रमों का समावेश हुआ है। इसके अंतर्गत ई-गवर्नेंस, डिजिटल भुगतान, ऑनलाइन शिकायत निवारण, इंटेलिजेंट ट्रैफिक मैनेजमेंट और निगरानी प्रणाली जैसी सेवाएँ प्रदान की जाती हैं।
4. चुनौतियाँ
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तेजी से बढ़ती जनसंख्या और भीड़भाड़।
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संसाधनों की कमी और वित्तीय संकट।
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अवैध बस्तियाँ और झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्रों की समस्याएँ।
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प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव।
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पारदर्शिता और भ्रष्टाचार से जुड़ी समस्याएँ।
5. समाधान और सुधार के उपाय
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वित्तीय संसाधनों की वृद्धि – संपत्ति कर, उपयोगकर्ता शुल्क और सरकारी अनुदान में सुधार।
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जन भागीदारी – स्थानीय निवासियों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल करना।
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तकनीकी उपयोग – स्मार्ट टेक्नोलॉजी और डेटा-आधारित नीति निर्माण।
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पर्यावरण अनुकूल नीतियाँ – हरित ऊर्जा, कचरा प्रबंधन और प्रदूषण नियंत्रण।
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कर्मचारियों का प्रशिक्षण – प्रशासनिक दक्षता और सेवा की गुणवत्ता बढ़ाना।
निष्कर्ष
आधुनिक समय में नगरीय प्रशासन केवल बुनियादी सेवाएँ प्रदान करने का ही नहीं, बल्कि सतत और समावेशी शहरी विकास का भी जिम्मेदार है। बढ़ते शहरीकरण के साथ, प्रशासन को पारदर्शी, कुशल और पर्यावरण-संवेदनशील बनना आवश्यक है। यदि प्रशासन आधुनिक तकनीक, जन सहयोग और दूरदृष्टि के साथ कार्य करे, तो हमारे शहर न केवल रहने योग्य बल्कि वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी भी बन सकते हैं।
प्रश्न 04. छावनी परिषद् की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
1. प्रस्तावना
छावनी परिषद् (Cantonment Board) भारत में विशेष प्रकार की नगरीय प्रशासनिक संस्था है, जो मुख्यतः सेना की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाई गई थी। इसका उद्देश्य सैन्य बलों की तैनाती वाले क्षेत्रों में नागरिक सुविधाओं का प्रबंधन करना और वहां रहने वाले लोगों के जीवन-स्तर को बेहतर बनाना है। इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ब्रिटिश काल से जुड़ी हुई है, जब भारत में ब्रिटिश सेना की स्थायी छावनियों की स्थापना की गई थी।
2. उत्पत्ति और प्रारंभिक दौर
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18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं शताब्दी की शुरुआत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपनी सैन्य शक्ति को संगठित करने के लिए विभिन्न स्थानों पर स्थायी छावनियां स्थापित कीं।
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इन छावनियों का उद्देश्य सैन्य बलों की तैनाती, प्रशिक्षण, और सुरक्षा था।
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चूंकि इन क्षेत्रों में सैनिकों के साथ-साथ उनके परिवार और कुछ नागरिक भी रहते थे, इसलिए प्रशासनिक प्रबंधन की आवश्यकता महसूस हुई।
3. Cantonments Act, 1924 का गठन
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ब्रिटिश सरकार ने छावनी क्षेत्रों के प्रशासन और प्रबंधन के लिए "Cantonments Act, 1924" लागू किया।
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इस कानून के तहत छावनी परिषदों का गठन किया गया, जो स्थानीय स्तर पर सैन्य और असैनिक दोनों प्रकार की सुविधाओं का प्रबंधन करती थीं।
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परिषद में सैन्य अधिकारियों के साथ-साथ कुछ निर्वाचित नागरिक प्रतिनिधि भी शामिल होते थे, लेकिन नियंत्रण पूरी तरह सेना के हाथों में रहता था।
4. स्वतंत्रता के बाद का विकास
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स्वतंत्रता के बाद भी छावनी परिषदों की संरचना और कार्य प्रणाली बनी रही, लेकिन इसमें समय-समय पर सुधार किए गए।
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"Cantonments Act, 2006" के तहत छावनी परिषदों की संरचना, अधिकार, और दायित्वों को नए सिरे से परिभाषित किया गया।
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अब इन परिषदों का कार्यक्षेत्र न केवल सैन्य आवश्यकताओं तक सीमित रहा, बल्कि नागरिक सुविधाओं, स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता, और पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्रों में भी विस्तारित हुआ।
5. छावनी परिषद की संरचना
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परिषद में सैन्य अधिकारी (Commanding Officer) अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हैं।
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कुछ सदस्य निर्वाचित नागरिक प्रतिनिधि होते हैं, जिन्हें छावनी क्षेत्र में रहने वाले लोग चुनते हैं।
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सैन्य और असैनिक प्रतिनिधियों का मिश्रण सुनिश्चित करता है कि दोनों समुदायों की आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाए।
6. ऐतिहासिक महत्व
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छावनी परिषदों ने भारत में नगरीय प्रशासन के एक विशेष रूप को जन्म दिया, जिसमें सैन्य अनुशासन और नागरिक प्रशासन का संयोजन देखा जाता है।
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ब्रिटिश काल में इनका मुख्य उद्देश्य सैन्य बलों की सुविधा था, लेकिन धीरे-धीरे यह नागरिक कल्याण का भी माध्यम बन गईं।
7. निष्कर्ष
छावनी परिषद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ब्रिटिश शासन की सैन्य आवश्यकताओं से प्रारंभ होकर स्वतंत्र भारत में नागरिक-सैनिक सहयोग के आधुनिक मॉडल तक पहुंची है। आज ये संस्थाएं सैन्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए आधारभूत सुविधाएं, शिक्षा, स्वास्थ्य, और स्वच्छता जैसी सेवाएं प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। इस प्रकार, छावनी परिषद भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में एक विशिष्ट और ऐतिहासिक महत्व रखने वाली संस्था है।
प्रश्न 05 – भारत में नगरीय संस्थाओं पर नियंत्रण की सीमाओं का विश्लेषण कीजिए।
भूमिका
भारत में नगरीय संस्थाएँ जैसे – नगर निगम, नगर पालिका, नगर परिषद् एवं अन्य शहरी स्वशासी निकाय, शहरी क्षेत्रों में प्रशासन एवं विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन संस्थाओं का गठन स्थानीय जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और उनके दैनिक जीवन से जुड़े कार्यों को कुशलतापूर्वक संपादित करने के उद्देश्य से किया गया है। किंतु, इनके कार्यों पर राज्य सरकार का नियंत्रण भी आवश्यक माना जाता है ताकि प्रशासनिक कार्यकुशलता, पारदर्शिता और कानून व्यवस्था बनी रहे।
फिर भी, इस नियंत्रण की कुछ सीमाएँ हैं, जिनका प्रभाव इन संस्थाओं की स्वायत्तता और कार्यक्षमता पर पड़ता है।
1. नगरीय संस्थाओं पर नियंत्रण का स्वरूप
राज्य सरकारें नगरीय संस्थाओं पर विभिन्न तरीकों से नियंत्रण रखती हैं, जैसे –
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कानूनी नियंत्रण – राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए अधिनियमों के अंतर्गत इन संस्थाओं की शक्तियाँ और अधिकार तय किए जाते हैं।
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वित्तीय नियंत्रण – बजट स्वीकृति, अनुदान और व्यय की अनुमति राज्य सरकार के अधीन रहती है।
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प्रशासनिक नियंत्रण – वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति, निलंबन एवं सेवा शर्तों पर राज्य का अधिकार होता है।
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तकनीकी नियंत्रण – विकास योजनाओं की स्वीकृति, परियोजनाओं की निगरानी और दिशा-निर्देश जारी करना।
2. नियंत्रण की आवश्यकता
राज्य सरकार द्वारा नियंत्रण की आवश्यकता मुख्य रूप से निम्न कारणों से होती है –
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कानून एवं व्यवस्था बनाए रखना।
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वित्तीय दुरुपयोग रोकना।
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एकरूपता और मानकीकरण सुनिश्चित करना।
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तकनीकी विशेषज्ञता उपलब्ध कराना।
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जनहित की रक्षा करना।
3. नियंत्रण की प्रमुख सीमाएँ
(i) अत्यधिक केंद्रीकरण
कई बार राज्य सरकार का नियंत्रण इतना अधिक हो जाता है कि नगरीय संस्थाओं की स्वायत्तता घट जाती है। इससे उनका स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार सीमित हो जाता है और वे केवल आदेशपालक संस्था बनकर रह जाती हैं।
(ii) राजनीतिक हस्तक्षेप
अक्सर राज्य सरकारें राजनीतिक कारणों से नगर निकायों के कामकाज में हस्तक्षेप करती हैं। इससे योजनाओं की प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं और विकास कार्य प्रभावित होते हैं।
(iii) वित्तीय निर्भरता
नगरीय संस्थाएँ अपने वित्तीय संसाधनों के लिए अत्यधिक हद तक राज्य सरकार पर निर्भर रहती हैं। अनुदान या सहायता समय पर न मिलने से कई परियोजनाएँ अधूरी रह जाती हैं।
(iv) विलंबित अनुमतियाँ
राज्य सरकार से योजनाओं, परियोजनाओं या बजट की स्वीकृति में समय लगने के कारण कार्यों में देरी होती है। इससे जनता में असंतोष पैदा होता है।
(v) तकनीकी और प्रशासनिक बाधाएँ
राज्य सरकार द्वारा लगाए गए नियम और प्रक्रियाएँ कभी-कभी इतनी जटिल होती हैं कि स्थानीय स्तर पर नवाचार और त्वरित निर्णय लेना कठिन हो जाता है।
(vi) जनसहभागिता में कमी
अत्यधिक नियंत्रण से स्थानीय जनता का विश्वास और सहभागिता कम हो जाती है, क्योंकि निर्णय स्थानीय जरूरतों के बजाय राज्य के निर्देशों के अनुसार होते हैं।
4. नियंत्रण की सीमाओं के प्रभाव
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विकास कार्यों में धीमापन – अनुमतियों और संसाधनों में देरी से विकास योजनाएँ धीमी गति से चलती हैं।
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स्थानीय समस्याओं की अनदेखी – बाहरी हस्तक्षेप के कारण स्थानीय मुद्दों पर ध्यान कम हो सकता है।
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नवाचार में बाधा – स्थानीय निकाय नई योजनाओं या तकनीक अपनाने में संकोच करते हैं।
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जन असंतोष में वृद्धि – जनता को लगता है कि उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास वास्तविक शक्ति नहीं है।
5. समाधान एवं सुधार सुझाव
(i) विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देना
राज्य सरकार को प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियाँ अधिक से अधिक स्थानीय निकायों को हस्तांतरित करनी चाहिए।
(ii) वित्तीय स्वावलंबन
नगरीय संस्थाओं को अपने कर, शुल्क और राजस्व स्रोत बढ़ाने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।
(iii) पारदर्शी नियंत्रण तंत्र
राज्य सरकार का नियंत्रण पारदर्शी और उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए, जिससे अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप से बचा जा सके।
(iv) समयबद्ध स्वीकृति प्रक्रिया
विकास योजनाओं और बजट की स्वीकृति के लिए निश्चित समयसीमा तय की जानी चाहिए।
(v) क्षमता निर्माण
नगरीय संस्थाओं के कर्मचारियों और प्रतिनिधियों को प्रशासनिक, वित्तीय और तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि वे राज्य सरकार पर कम निर्भर रहें।
निष्कर्ष
भारत में नगरीय संस्थाओं पर राज्य सरकार का नियंत्रण प्रशासनिक दक्षता और जवाबदेही बनाए रखने के लिए आवश्यक है, परंतु अत्यधिक नियंत्रण उनकी स्वायत्तता को सीमित कर देता है। इसके परिणामस्वरूप, विकास कार्यों में देरी, जनता की भागीदारी में कमी और नवाचार की कमी जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
इसलिए, एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है जिसमें राज्य सरकार केवल मार्गदर्शन और निगरानी की भूमिका निभाए, जबकि वास्तविक निर्णय और क्रियान्वयन का अधिकार स्थानीय निकायों के पास हो।
विकेंद्रीकरण, वित्तीय स्वावलंबन और पारदर्शिता से नगरीय संस्थाएँ अधिक प्रभावी और जनोन्मुखी बन सकती हैं, जो शहरी भारत के सतत विकास के लिए अनिवार्य है।
प्रश्न 06 – भारत में स्थानीय स्वशासन की चुनौतियाँ क्या हैं?
1. प्रस्तावना
स्थानीय स्वशासन (Local Self-Government) लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। यह नागरिकों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में सीधे भाग लेने का अवसर प्रदान करता है और स्थानीय समस्याओं का समाधान स्थानीय स्तर पर करने की क्षमता देता है। भारत में पंचायत राज संस्थाएँ (ग्राम स्तर पर) और नगरीय निकाय (नगर पालिका, नगर निगम, नगर परिषद् आदि) इसके प्रमुख अंग हैं।
हालाँकि, 73वें और 74वें संविधान संशोधनों के माध्यम से इसे संवैधानिक मान्यता मिली, फिर भी इसके सामने अनेक चुनौतियाँ हैं जो इसके प्रभावी क्रियान्वयन में बाधा बनती हैं।
2. भारत में स्थानीय स्वशासन की प्रमुख चुनौतियाँ
(क) वित्तीय संसाधनों की कमी
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स्थानीय निकायों की आय सीमित होती है, जबकि उनके कार्यक्षेत्र और जिम्मेदारियाँ लगातार बढ़ रही हैं।
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संपत्ति कर, बाजार शुल्क, लाइसेंस शुल्क जैसे स्थानीय करों से पर्याप्त आय नहीं हो पाती।
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राज्य सरकार से मिलने वाला अनुदान भी समय पर और पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता।
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परिणामस्वरूप, विकास कार्य अधूरे रह जाते हैं और नागरिकों की अपेक्षाएँ पूरी नहीं हो पातीं।
(ख) राज्य सरकार का अत्यधिक नियंत्रण
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राज्य सरकारें बजट स्वीकृति, पद सृजन, कर निर्धारण और विकास योजनाओं पर गहरा नियंत्रण रखती हैं।
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इससे स्थानीय निकायों की स्वायत्तता प्रभावित होती है और वे स्वतंत्र निर्णय नहीं ले पाते।
(ग) भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की कमी
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ठेके, निर्माण कार्य और खरीद-फरोख्त में भ्रष्टाचार की घटनाएँ अक्सर सामने आती हैं।
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शिकायत निवारण और पारदर्शी ऑडिट की प्रक्रिया कमजोर होती है।
(घ) प्रशासनिक क्षमता की कमी
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कई स्थानीय निकायों के पास प्रशिक्षित और योग्य प्रशासनिक कर्मचारी नहीं होते।
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आधुनिक तकनीक का प्रयोग सीमित होता है, जिससे कार्यकुशलता घटती है।
(ङ) राजनीतिक हस्तक्षेप
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चुनावी राजनीति के कारण निर्णय अक्सर जनहित से अधिक दलगत हित पर आधारित होते हैं।
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स्थानीय मुद्दों के समाधान में अनावश्यक देरी और पक्षपात हो सकता है।
(च) नागरिक सहभागिता की कमी
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वार्ड समितियों और मोहल्ला सभाओं में नागरिकों की उपस्थिति और सक्रिय भागीदारी कम होती है।
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जनता में जागरूकता की कमी से योजनाओं की निगरानी कमजोर हो जाती है।
(छ) असमान विकास और क्षेत्रीय असंतुलन
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बड़े और सम्पन्न नगर निगम अपेक्षाकृत बेहतर विकास कर पाते हैं, जबकि छोटे नगरपालिकाएँ पिछड़ जाती हैं।
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ग्रामीण-नगरीय सीमा क्षेत्रों में योजनाएँ अक्सर उपेक्षित रह जाती हैं।
(ज) आधारभूत संरचना की कमी
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जल आपूर्ति, सीवरेज, सड़कें, स्वास्थ्य सेवाएँ और कचरा प्रबंधन जैसी मूलभूत सेवाओं के लिए पर्याप्त संसाधन और तकनीकी क्षमता नहीं होती।
(झ) योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन न होना
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योजनाएँ अक्सर कागज पर ही सीमित रह जाती हैं या समय से पूरी नहीं हो पातीं।
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निगरानी तंत्र की कमी से विकास की गति धीमी रहती है।
3. चुनौतियों के समाधान हेतु सुझाव
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वित्तीय स्वायत्तता
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स्थानीय निकायों को कर लगाने और संग्रह करने का अधिक अधिकार मिले।
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केंद्र और राज्य सरकार से अनुदान समय पर और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराया जाए।
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प्रशासनिक क्षमता का विकास
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अधिकारियों और कर्मचारियों को आधुनिक प्रबंधन और ई-गवर्नेंस की ट्रेनिंग दी जाए।
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तकनीकी उपकरण और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग बढ़ाया जाए।
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राज्य नियंत्रण में संतुलन
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राज्य सरकार का नियंत्रण केवल नीतिगत और निगरानी तक सीमित हो, न कि दैनिक कार्यों में।
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पारदर्शिता और जवाबदेही
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सभी वित्तीय लेन-देन और योजनाओं की जानकारी सार्वजनिक पोर्टल पर उपलब्ध कराई जाए।
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स्वतंत्र ऑडिट और सामाजिक अंकेक्षण (Social Audit) को अनिवार्य किया जाए।
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जनसहभागिता बढ़ाना
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वार्ड समितियों और मोहल्ला सभाओं को सक्रिय बनाया जाए।
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नागरिकों में अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए अभियान चलाए जाएँ।
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समान विकास
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छोटे और पिछड़े स्थानीय निकायों के लिए विशेष अनुदान और तकनीकी सहायता उपलब्ध कराई जाए।
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4. उपसंहार
भारत में स्थानीय स्वशासन लोकतंत्र की नींव को मजबूत करने का एक सशक्त साधन है, लेकिन यह तभी प्रभावी हो सकता है जब इसे वित्तीय, प्रशासनिक और कार्यात्मक स्वायत्तता दी जाए।
चुनौतियों के समाधान के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, नागरिक जागरूकता और पारदर्शी शासन अनिवार्य है।
यदि इन सुधारों पर गंभीरता से काम किया जाए तो स्थानीय स्वशासन सचमुच “जन-जन का शासन” बनकर देश के विकास में क्रांतिकारी भूमिका निभा सकता है।
प्रश्न 07 – भारत में नगरीय निकायों की वित्त व्यवस्था का मूल्यांकन
1. प्रस्तावना
नगरीय निकाय (Urban Local Bodies) भारत में नगर निगम, नगर पालिका और नगर पंचायत के रूप में संगठित होते हैं। इनका मुख्य उद्देश्य नगरीय क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाएँ प्रदान करना और स्थानीय विकास कार्यों को संचालित करना है। किंतु इन निकायों के सुचारू संचालन के लिए पर्याप्त और स्थायी वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती है। वित्तीय मजबूती के बिना ये निकाय अपने उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकते। अतः भारत में नगरीय निकायों की वित्त व्यवस्था का मूल्यांकन एक महत्त्वपूर्ण विषय है।
2. नगरीय निकायों के राजस्व के स्रोत
नगरीय निकायों की आय को आंतरिक (Internal) और बाह्य (External) स्रोतों में बाँटा जा सकता है।
(क) आंतरिक स्रोत
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कर राजस्व –
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संपत्ति कर (Property Tax)
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भवन निर्माण शुल्क
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जल कर, सीवर कर
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विज्ञापन कर
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पेशा कर
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मनोरंजन कर (अब GST के बाद सीमित)
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अकर राजस्व –
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लाइसेंस शुल्क
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पार्किंग शुल्क
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बाजार और मंडी शुल्क
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सार्वजनिक भवनों और सामुदायिक हॉल से किराया
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नगर की संपत्तियों का किराया और लीज़
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(ख) बाह्य स्रोत
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राज्य सरकार से अनुदान –
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योजना आधारित अनुदान
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गैर-योजना अनुदान
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केन्द्रीय सरकार से सहायता –
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14वें और 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों के तहत अनुदान
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स्मार्ट सिटी मिशन, AMRUT योजना जैसी योजनाओं के अंतर्गत सहायता
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ऋण और उधार –
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राज्य वित्तीय संस्थाओं और बैंकों से ऋण
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अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की सहायता –
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विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक आदि से परियोजना ऋण
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3. नगरीय निकायों की वित्तीय स्थिति का विश्लेषण
(क) सकारात्मक पक्ष
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वित्त आयोग की सिफारिशें: 74वें संविधान संशोधन के बाद वित्त आयोग नगरीय निकायों को वित्तीय सहायता का स्पष्ट प्रावधान करता है।
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नए कर स्रोतों का विकास: संपत्ति कर प्रणाली को GIS आधारित और डिजिटल भुगतान के माध्यम से सशक्त किया जा रहा है।
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केन्द्र व राज्य की योजनाओं से निवेश: स्मार्ट सिटी, AMRUT, स्वच्छ भारत मिशन जैसी योजनाओं ने बुनियादी ढाँचे के लिए पूंजी उपलब्ध कराई।
(ख) समस्याएँ और सीमाएँ
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कर वसूली की कमजोरी – संपत्ति कर वसूली का प्रतिशत कई नगरों में 50% से भी कम है।
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राज्य सरकार पर निर्भरता – अधिकांश नगरीय निकाय अपनी कुल आय का आधे से अधिक हिस्सा राज्य से मिलने वाले अनुदान पर निर्भर रहते हैं।
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स्वतंत्र कराधान अधिकारों की कमी – कई करों पर राज्य का नियंत्रण होने से निकायों की स्वायत्तता सीमित होती है।
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राजस्व आधार का संकुचित होना – GST लागू होने के बाद मनोरंजन कर जैसे पारंपरिक राजस्व स्रोत समाप्त हो गए।
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ऋण चुकाने की क्षमता कम – वित्तीय कमजोरी के कारण बड़े ऋण लेने की क्षमता सीमित है।
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व्यय में पारदर्शिता की कमी – कई स्थानों पर धन का दुरुपयोग, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता देखी जाती है।
4. सुधार के उपाय
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संपत्ति कर सुधार – GIS मैपिंग, ऑनलाइन भुगतान और वार्षिक रिवीजन से संपत्ति कर को प्रमुख राजस्व स्रोत बनाना।
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नए राजस्व स्रोत –
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ग्रीन टैक्स
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पार्किंग टैक्स
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विकास शुल्क (Development Charges)
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वित्तीय स्वायत्तता बढ़ाना – संविधान में प्रावधान कर अधिक कर लगाने के अधिकार देना।
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अनुदान प्रणाली में पारदर्शिता – वित्त आयोग की सिफारिशों के तहत सीधे नगरीय निकायों के खातों में धन हस्तांतरित करना।
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सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) – जलापूर्ति, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और परिवहन सेवाओं में PPP मॉडल अपनाना।
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व्यय दक्षता – ई-गवर्नेंस और ऑडिट व्यवस्था से व्यय में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना।
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वित्तीय अनुशासन – ऋण प्रबंधन और बजट निर्माण में पेशेवर दृष्टिकोण अपनाना।
5. निष्कर्ष
भारत में नगरीय निकायों की वित्त व्यवस्था वर्तमान में अत्यधिक निर्भरता, कमजोर कर वसूली और संकुचित राजस्व आधार जैसी समस्याओं से जूझ रही है। हालांकि, डिजिटल तकनीक, वित्त आयोग की सिफारिशें और शहरी योजनाओं के जरिये इसमें सुधार की संभावनाएँ प्रबल हैं। आवश्यकता है कि नगरीय निकायों को पर्याप्त वित्तीय स्वायत्तता, पारदर्शी अनुदान प्रणाली और आधुनिक कर प्रबंधन प्रणाली प्रदान की जाए, ताकि वे वास्तव में स्वावलंबी और प्रभावी स्थानीय स्वशासन इकाई बन सकें।
प्रश्न 08: भारत में स्थानीय प्रशासन के संघात्मक रूप से संक्षेप में समझाइए
1. प्रस्तावना
भारत एक संघात्मक (Federal) व्यवस्था वाला देश है, जहाँ शासन की तीन मुख्य स्तरों की संरचना है — केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय स्वशासन।
स्थानीय प्रशासन संघात्मक व्यवस्था का तीसरा एवं सबसे निचला स्तर है, जो सीधे जनता से जुड़ा होता है। इसका उद्देश्य है स्थानीय स्तर पर प्रशासन को प्रभावी, लोकतांत्रिक और जनता की भागीदारी से संचालित करना।
2. संघात्मक व्यवस्था में स्थानीय प्रशासन का स्थान
भारतीय संविधान के अनुसार, संघात्मक ढाँचे में स्थानीय प्रशासन को 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम (1992) के माध्यम से संवैधानिक दर्जा मिला।
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73वां संशोधन: ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पंचायत राज संस्थाओं की व्यवस्था।
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74वां संशोधन: शहरी क्षेत्रों के लिए नगर निकायों की व्यवस्था।
इन संशोधनों ने स्थानीय प्रशासन को संविधान की 11वीं और 12वीं अनुसूचियों के तहत अधिकार और कार्य दिए।
3. स्थानीय प्रशासन की संघात्मक संरचना
भारत में स्थानीय प्रशासन दो भागों में विभाजित है —
(क) ग्रामीण स्थानीय प्रशासन
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ग्राम पंचायत – गाँव स्तर पर।
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पंचायत समिति – ब्लॉक/विकासखंड स्तर पर।
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जिला परिषद – जिला स्तर पर।
(ख) शहरी स्थानीय प्रशासन
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नगर निगम (Municipal Corporation) – बड़े शहरों के लिए।
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नगर परिषद (Municipal Council) – मध्यम आकार के शहरों के लिए।
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नगर पंचायत (Nagar Panchayat) – कस्बों और छोटे नगरों के लिए।
4. संघात्मक ढाँचे में अधिकार और जिम्मेदारियाँ
स्थानीय प्रशासन को अधिकार मुख्य रूप से राज्य सरकार से प्राप्त होते हैं।
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विधायी अधिकार: 11वीं और 12वीं अनुसूचियों के अंतर्गत सूचीबद्ध विषयों पर निर्णय लेना।
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कार्यकारी अधिकार: स्थानीय समस्याओं जैसे पानी, सफाई, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि का प्रबंधन।
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वित्तीय अधिकार: कर, शुल्क, और केंद्र/राज्य से अनुदान प्राप्त करना।
5. संघात्मक ढाँचे में नियंत्रण व्यवस्था
स्थानीय प्रशासन भले ही स्वतंत्र रूप से कार्य करता हो, लेकिन उस पर राज्य सरकार का नियंत्रण बना रहता है।
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बजट की स्वीकृति।
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कार्यों की निगरानी।
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नियमों और नीतियों का पालन सुनिश्चित करना।
6. संघात्मक रूप की विशेषताएँ
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त्रिस्तरीय व्यवस्था – केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तर।
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जनसहभागिता – निर्णय लेने में स्थानीय लोगों की भागीदारी।
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विकेंद्रीकरण – अधिकार और जिम्मेदारियाँ निचले स्तर तक पहुँचना।
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संवैधानिक मान्यता – पंचायत और नगर निकाय संविधान में दर्ज।
7. निष्कर्ष
भारत में स्थानीय प्रशासन संघात्मक ढाँचे का अभिन्न हिस्सा है। यह व्यवस्था न केवल प्रशासनिक बोझ को कम करती है, बल्कि जनता को अपने विकास कार्यों में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने का अवसर भी देती है। 73वें और 74वें संशोधनों के बाद यह और भी सशक्त हुआ है, हालांकि वित्तीय संसाधनों की कमी और राजनीतिक हस्तक्षेप इसकी प्रभावशीलता को प्रभावित करते हैं।